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चैत्यवन्दन-विभाग
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राजा तिहां, भवियण ना मन मोहे ॥२॥ चउद सुपन निर्मल लही, सत्य की राणी मात । कुन्थु अरजिन अंतरे, श्री सीमंधर जात ॥३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमियां, वलि यौवन पावे । मात पिता हरखे करी, रुकमिणी परणावे ॥४भोगवी सुख संसारना, संयम मन लावे। मुनि सुव्रत नमि अंतरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥५॥ घाती कर्मनो क्षयकरी, पाम्यां केवल नाण । वृषभ लग्छने शोभता, सर्व भावना जाण ॥६॥ चौरासी जस गणधरा, मुनिवर एकसौ कोड़ । त्रण भुवनमा जोयतां, नहिं कोय एहनी जोड़ ॥७॥ दश लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार । एक समय त्रणकालना, जाणे सर्व विचार ॥८॥ उदय पेढ़ाल जिनातरे ए, थाशे जिनवर सिद्धि । जस विजय गुण प्रणमता, शुभ बंछित फल लिद्धि ॥९॥
श्री नवपद चैत्यवन्दन ___ श्री अरिहंत उदार कांति अति सुन्दर रूप सेवो, सिद्ध अनन्त संत आतम गुण भूप । आचारज उवझाय साधु समतारस धाम, जिन भाषित सिद्धान्त शुद्ध अनुभव अभिराम ॥१॥ बोध बीज गुण संपदा ए नाण चरण तब शुद्ध । ध्यावो परमानन्द पद, ए नवपद अविरुद्ध ॥२॥ इह परभव आणंद कंद, जग माहि प्रसिद्धो, चिंतामणि सम जाए योग बहु पुण्ये लहो । तिहुअण सार अपार एह महिमा मन धारो, परहर पर जंजाल जाल नित एह संभारो ॥३॥ सिद्ध चक्र पद सेवतां ए, सहजानंद स्वरूप । अमृतमय कल्याण निधि, प्रगटे चेतन भूप ॥४॥
॥ नवपद चैत्यवन्दन ॥ पहले पद अरिहंतना गुण गाऊं नित्ये। बीजे सिद्ध घणा तणा, समरो एक चित्ते ॥१॥ आचारज त्रीजे पद, प्रणमों बिहुँ कर जोड़ी। नमिये श्री उवझायने, चौथे पद चित मोड़ी ॥२॥ पंचम पद सब साधु ने, नमतां न आणो लाज। ए परमेष्ठी पंच ने, ध्याने अविचल राज ॥३॥
दसण शंकादिक रहित, पद छठे धारो। सर्व नाण पद सातमें, क्षण एक इन विसारो ॥४॥ चारित्र चोखं चित्त थी, पद अष्टम जपिये । सकल भेद
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