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जैन-रत्नसार
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की लाज अब रख लीजिये ॥ जातिकी एक ब्राह्मणी थी, देवा नंदा नाम था। ऋषभदत्तकी वो वधू थी, विप्रकुल उजला दिया ॥ आज० ७ ॥ शुक्ल छह आषाढ की, रात्री पटल से छा रही। देवानंदा ब्राह्मणीने, अल्प निद्रा ले लई ॥ आज० ८॥ माता बनाई आपने, उसके उदर अवतार ले। दिवस ब्यासी रहे उनके, मनोरथ सब फल चले ॥ आज० ९॥ इंद्र के आदेश से, हरनेगमेषी आ परे। उस ब्राह्मणी की ! कोखसे, सिद्धार्थ के घरमें धरे ॥आज० १० ॥ शास्त्र इसको गर्भ हर, कल्याण कह अपना लिया । आपने उस ब्राह्मणी का, नाम अजरामर किया ॥ आज० ११ ॥
(किससे करिये प्यार यार खुदगरज जमाना है) महावीर जिनचंद नंद, सिद्धारथ राजा के ॥ प्राणत स्वर्गलोक से आए, क्षत्रीकंड नगर मन भाए। त्रिशला उदर अवतार लियो, नंदन महाराजा के ॥ महा० १२ ॥ आश्विन वदि तेरस दिन आए, माता उदर गर्भ कहलाए । धनद देव भंडार भरे, तत्क्षण महाराजाके ॥ महा० १३ ॥ स्वप्न चतुर्दश मात निहारी, सचराचर सब भए सुखारी । घर घर मंगल माल होत, दिन दिन महाराजा के ॥ महा० १४ ॥ चैत्र सुदी तेरस दिन आया, तीनलोक में आनंद छाया । जन्म लीन महाराज घरे, सिद्धारथ राजा के ॥ महा० १५ ॥ सकल भुवन में कर उजियारे, दास चतुरके कारज सारे । करे जन्म अभिषेक सुरासुर, पति महाराजा के ॥ महा० १६ ॥
(चाल इन्द्रसभा) पाप कर्म सवि धोवन कारन, सुद्ध चेतन परकास । जल पूजन कर शासन पतिकी, निर्मल आतम भास ॥१७॥
(रागिनी भैरवी त्रिताल) । प्रभुजी को सुरपतिस्नात्र करावे, सुर नर सवि सुख पावे ॥ उत्तम कलश सुवर्ण रजत के, नीर सुगंध भरावे । क्षीरोदक गंगोदक आने,
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