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जैन-रत्नसार
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नत्रजननननननननन प्रणप्रत्र प्रमाणपत्र प्रमान
॥ गाथा ॥ ण्हवण विलेवण वत्थयुगं, गंधारहणं च पुष्फरोहणयं । मालारोहण वणयं, चुण्ण पडागय आभरणे ॥३॥ मालकला वसुंधरं, पुष्पं पगरं च । अट्ट गुण मंगलयं । धूव उखेवो गीययं, नर्से वजं तहा भणियं ॥४॥
॥दोहा ॥ सतर सुविध पूजापवरं, ज्ञाता अंगमझार । द्रुपदसुता द्रौपदी परे, करिये विधि विस्तार ॥५॥
॥राग देशाख ॥ पूर्व मुख सोवनं, करि दशन पावनं अहत धोती धरी उचित मानी । विहित मुख कोशके, क्षीरगंधोदके, सुभृत मणिकलश करि विविध वानी । नमिवि जिनपुंगवं लोम हस्तेनवं, मार्जनं करिय वा वारि वारि । भणिय कुसुमाञ्जली, कलशविधि मन रली, नवति जिन इंद्र जिम तिम आगरी ॥६॥
॥ दोहा ॥ परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान । धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान ॥७॥ पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम । शुचि पखाल तनु जिनतणी, करे सुकृत हितकाम ॥८॥
॥राग सारंग तथा मल्हार ॥ पूजा सतर प्रकारी, सुणियो मेरे जिणवर की। परमानंद अति छल्यो री सुधारस, तपत बुझी मेरे तन की ॥ पू० ९॥ प्रभुकं विलोकि नमि जनत प्रमार्जित, करत पखाल सुचिधार विनकी । न्हवण प्रथम निजव्यजन पुलावत, पंक' वरष जैसे धन घनकी ॥ पू० १० ॥ तरणि तरुण भव सिंधु तरणकी, मंजरी संपदफल वरधनकी। शिवपुर पंथ दिखावण दीपी, धूमरी आपद वेल मरदनकी ॥ पू० ११ ॥ सकल कुशल रंग
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