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गोया मतलब यह कि सामान्य तत्त्व का आश्रय लेकर विविध वस्तुओं के एकीकरण के जो विचार हैं वे सभी संग्रह नय में अंतरगत होते हैं।
(३) संग्रह नय में जो सदुरूप सामान्य कहा है उसे महा सामान्य समझना चाहिये। तब महा सामान्य का विशेष रूप से बोध करना पड़ता है या व्यवहार में उपयोग करना पड़ता है तव उनका विशेष पृथक् करण करना पड़ता है। जल कहने मात्र से भिन्न भिन्न जलों का बोध नही होता। जिसे खारा पानी चाहिये यह खारे मोठे का बोध हुए बिना उसे नहीं पा सकता। इसी लिये खारा पानी मीठा पानी इत्यादि भेद भी करने पड़ते है। मतलब यह कि सामान्य के जो भेद करने पड़ते हैं। वे व्यवहार में
आते हैं।
(४) व्यवहार नय के विषय किये हुए पदार्थ का केवल वर्तमान विषयक विचार ऋजु सूत्र नय करता है। हम भूत भविष्य की उपेक्षा अलबत्ता नही कर सकते फिर हमारी बुद्धि वर्तमान काल की तरफ पहले
और अधिक झुक जाती है। क्योंकि उसी का उपयोग है भूत भावि कार्य साधक तो है नही इसीलिये उनका होना न होना बराबर है निकम्मा है। कोई मनुष्य वैभव शाली था या वैभव शाली होगा इससे कोई मतलब नहीं, वर्तमान में वैभव शाली होना ही वैभव का उपयोग रखता है। ऐसे जो केवल वर्तमान विषयक विचार रखता है वह ऋजु सुत्र नय कहलाता है।
(५) व्यवहार नय में से ऋजु सूत्र में आकर हम केवल वतमान विषयक विचार करते हैं पर कई दफा बुद्धि और भी सूक्ष्म हो जाती है और शब्दों के उपयोग की तरफ पूरा ध्यान देती है। अर्थात् जब वर्तमान काल, भूत और भविष्य से भिन्न है तो काल लिंग आदि को लेकर शब्दों का अर्थ भी अलग अलग क्यों न माना जाय ? जब कि तीनों कालों में कोई सूत्र रूप एक वस्तु नहीं है तो लिंग संख्या कारक उपसर्ग काल आदि से युक्त शब्दों द्वारा कही जाने वाली वस्तुएं भी भिन्न भिन्न है।
किसी ने कहा हिन्दुस्तान की राजधानी देहली में थी तब उसमें भूत काल का क्यों प्रयोग हुआ क्योंकि दिल्ली तो अब भी है पर कहने वाले का मतलव पुरानी दिल्ली से है न कि नयी से। और पुरानी दिल्ली नयी दिल्ली से भिन्न भी है। यह हुआ काल से अर्थ भेद।।
गढ़ और गढ़ेया। ये भी लिंग भेद से अपने अपने अर्थ में फरक रखते हैं। उपसर्ग लगने से अर्थ भेद हो जाता है जैसे आगमन, बहिर्गमन, निर्गमन । प्रस्थान, उपस्थान, आराम, विराम, प्रताप, परिताप आदि में धातु एक होने पर भी उपसर्ग लगने से अर्थ भेद हो जाता है। यही शब्द नय भी शुरुआत करता है।
इस तरह केवल शब्दों पर आधार रखने वाला शब्द नय है।
(६) सममि रूढ़, शब्द नय से एक कदम आगे और बढ़ना है अर्थात् जब लिंग संख्या काल आदि से शब्दार्थ में भेद होता है तो व्युत्पत्ति से क्यों नहीं अर्थात् एकार्थक जितने भी शब्द लोक में प्रचलित है उन की व्युत्पत्ति व्याख्या के अनुसार उनके अर्थ मे भी भेद है। साधु वाचक कई शब्द साधु, मुनि, यति भिक्षु ऋपि आदि लोक में प्रचलित है और साधारण व्यवहार में उनसे साधु का मतलब ले लिया जाता है फिर वे सब अलग अलग अर्थ के अनेक होने से भिन्न भिन्न है यन्न करे वही यति । भिक्षा मांगे तो वही भिक्षुक मौन करे वही मुनि इत्यादि । इस तरह व्युत्पत्ति से अर्थ भेद बताने वाला समभिल्ड नय है। पर्याय भेद से अर्थ भेद को सभी कल्पनायें इसी श्रेणी की है।