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पूजा-विभाग ॥ राग रामगिरी ॥
(गात्र लूहें, ए) आचारज पद ध्याइये रे बाला, तासु विमल गुण गाइये । पाइये हांहो रे वाला पाइये। जिनपति पद जगशिर तिलो रे॥ आ० ३ ॥ जिन शासन उजवालतां रे वाला, सकलजीव प्रतिपालतां । ॥ पालतां हां ॥ पालतां चरण करण मग चालतां रे ॥ आ० ४॥ सूरि सकल गुण सोहता रे वाला, सुरनर जन मन मोहता ॥ मोहता हाहो० ॥ भवियणने पडिबोहता रे ॥ आ० ५ ॥ पंचाचार विराजता रे वाला, सजल जलद जिम गाजता ।। गाजता हाहो० ॥ सूरि सकल सिर छाजता रे ॥ आ० ६ ॥ उपदेशामृत वरसता रे वाला, दुरित ताप सहु निरसतां ॥ निरसतां हांहो० ॥ परमातम पद फरसतां रे ॥ आ० ७ ॥ धरम धुरंधरता धरा रे वाला, जग बांधव जग हितकरा ॥ हितकरा हांहो० ॥ खपर समय बिहु गणधरा रे ॥ आ० ८ ॥ पद श्रीजिन हरष ग्रह्यो रे वाला, सूरीसर पद तप वह्यो ॥ तप वह्यो हांहो० ॥ पुरुषोत्तम नृप शिव लह्यो रे ॥आ०९॥
॥ काव्य ॥ कुवादि केलि तरु सिंधुराणं, सूरीसराणं मुणिबंधुराणं । धीरत्तसंतजिय मंदराणं, णमो सया मंगलमंदिराणं ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यभ्यो नमः ।
पंचम स्थविरपद पूजा
॥ दोहा ॥ द्विविध स्थविर जिनवर कह्या, द्रव्य भाव परकार | लौकिक लोकोत्तर वली, सुणिये भेद विचार ॥१॥ जनकादिक लौकिक थविर, लोकोत्तर अणगार । पंचम पदमें जाणिवे. द्वितीय स्थविर अधिकार ॥२॥
॥ गग सारंग ॥
निन नमिये अविर मुनीलग पंचमड़ा जन धारक बाग्क, कुमति जगत जय हितकग ॥ नि० ३ ॥ ----------- ----- -- --
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