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मनमत्रज
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ननमन्त्र
जन-रत्नसार जुजूवा करूं बखाण ॥ श्री. ५॥ रत्नप्रभा शर्कर प्रभा, बालक तीजी जान । पंक प्रभा तिम धूम प्रभा, तम प्रभा तमतम ठाम ॥ श्री. ६॥ नरक सात कही ए सही, करम कठिन कर जोर । जीव करम बस ते सही, उपजे तिनहीज ठोर ॥ श्री. ७ ॥ छेदन भेदन ताडना, भूख तृषा बलि त्रास । रोम रोम पीड़ा करे, परमाधरमी तास ॥ श्री० ८ ॥ रात दिवस क्षेत्र वेदना तिल भर नहीं जहां सुक्ख । किया करम जे भोगवे, पामें जीव बहु दुःख ॥ श्री. ९ ॥ इक दिन री नवकारसी, जे करे भाव विशुद्ध । सौ वरस नरक नो आउखो, दुर करे ज्ञान वुद्ध ॥ श्री. १० नित्य करे नवकारसी, ते नर नरक न जाय । न रहे पाप वलि पातला, निरमल होवेजी काय ॥श्री०११॥
(श्री विमलाचल सिर तिलो ए) सुण गौतम पोरिसी कियां, महा मोटो फल होय । भावसं जे पोरिसी करे, दुरगति छेदे सोय ॥ सु. १२ ॥ नरक माहि जे नारकी, वरसें एक हजार । करम खपावे नरकमें, करता बहुत पुकार ॥ सु० १३ ॥ एक दिवस नी पोरिसी जीव करे इकतार | करम हणे सहस एकना, निश्चयसू गणधार ॥ सु० १४ ॥ दुरगति मांहे नारकी, दस हजार प्रमाण । नारक आयु खिण एकमें, साढ पोरिसी करे हाण ॥ सु. १५ ॥ पुरिमड्ढ़ करे । जीव जे, नरके ते नवि जाय । लाख वरस कर्मने दहे, पुरिमढ़ करम खपाय ।। सु. १६ ॥ लाख वरस दस नारकी, पामें दुःख अनन्त । इतरा करम इकासणे, दुर करे मन खंत ॥सु० १७॥ एक कोडि वरसां लगे, करम खपावे जीव । नीविय करतां भावसं, दुरगति हणे सदीव ॥ सु. १८ ॥
दस कोडि जीव नरक में, जितरो करे करम दुर । तीसरो एकल ठाण ही, ः करे सही चकचूर ॥ सु० १९ ॥ दात करंता प्राणियो, सौ कोडि परिमान ।
इतना वरस दुरगति तणां, छेदे चतुर सुजान ॥ सु० २० ॥ आंबिल नो फल बहु कह्या, कोडी एक हजार । करम खपाय इण परे, भाव आंबिल अधिकार ॥ सु० २१ ॥ कोडि सहस दस वरस ही, सहें दुःख नरक मझार । उपवास करे इक भावसं, तो पामें मुगति मझार || सु० २२ ।।
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