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जैन - रत्नसार
तपसे नमः । ४६ रौद्रध्यान निवृत्त तपसे नमः । ४७ धर्मध्यान चितन
४९ बाह्य उपसर्ग तपसे
तपसे नमः। ४८ शुक्ल ध्यान चितन तपसे नमः नमः | ५० अभ्यन्तर उपसर्ग तपसे नमः |#
तप पद चैत्यवन्दन
श्री ऋषभादिक तीर्थनाथ, तद्भव शिव जाण । विहि अंतेरपि बाह्य, मध्य द्वादश परिमाण ॥१॥ वसु कर मित आमो सही, आदिक लब्धि निदान। भेदें समता युत क्षिणें, दृग्धन कर्म विमान ||२|| नवमों श्री तपपद भलोए, इच्छा रोध स्वरूप । वंदन से नित हीर धर्म, दुरभवतु भव कूप ॥३॥ तप पढ़ स्तवन
बारस भेद भण्या जिन राजे । बाह्य मध्य तणा जग काजे रे ॥
॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ तिण भव सिद्धि तणा वर ज्ञाता । जिणवर पिण तप ना कर्त्ता रे ॥ शिव• ॥१॥ शमता सहिते जिनते भारी । भली कर्म चमूं पिण हारी रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ जीव कनक से कर्म कचोरा | दहे जोरा रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥२॥ तप तरु वरना कुसुम ते ऋद्धि । देव नर नी फलते सिद्धिरे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ पाप सकल है तम नी राशी । तप भानू से जाये नाशी रे || शिवपदनी श्रेणी ॥३॥ जस्स पसायें लहिये बारू । लब्धा सगली जग हित कारू रे || शिवपदनी श्रेणी ॥ अति दुक्कर फुण साध्यत हीना । काम तातें वारू कीना रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥४॥ इच्छा रोधन रूपी कहिये । तप पद ही चेतन बहिये रे || शिव पदनी श्रेणी ||५||
तप पद थुई इच्छा रोधन तपतें भाख्यो, आगम तेह नो साखी जी ।
द्रव्य भाव से द्वादश दाखी, जोग समाधि राखी जी ॥ चेतन निज गुण परिणत पेखी, ते हित तप गुण दाखी जी ।
लब्धि सकल नो कारण देखी, ईश्वर से मुख भाखी जी ॥१॥ * तपेश्वरियों में ये ५० गुण अवश्य होने चाहियें।