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पूजा-विभाग
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रसियो, जाने सब संसारी । क्षणभर अक्षत सुख नहिं छोड़े, लोक कहें ब्रह्मचारी ॥ ना० ९ ॥ तूं नहिं हमरी ओर निहारे, हमने काह बिगारी । तेर कारण पियारे, हम तरसत हैं भारी || ना० १० ॥ तेरे कारण बन बन भटकी, खाक बदन में डारी । दास चतुर की ओर न देखे, अब क्या मरजी तिहारी ॥ ना० ११ ॥
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॥ श्लोक ॥
वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महतो, वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्वंदिश ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा |
सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥
सरस शुची पक्वान्नले, भरि नैवेद्य के थाल । शासनपति महावीरके, आगे घरों रसाल ॥१॥ ( तर्ज बनजारे की )
महावीर जिनेश्वर ज्ञानी, सुखदायक बोले वानी ॥ करि समवसरण सुर राजा, गढ कांगुर ओ दरवाजा । विचरल पीठिका जानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥२॥ आशोक वृक्षकी
छाया, सिर चामर छत्र धराया । सुर दुदुभि नाद वखानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥३॥ तहां बैठि परिषदा बारा, भामंडलका उजियारा । सभि देखत जिनवर कानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥४॥ पशुपक्षी सुरनर सारे, भिनभिन देसावर वारे । सभि समझ परे जिनवानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥५॥ वाणी अमृत रस बरसे, सुनि सकल परषदा हरपे । कहे दास चतुर सुख खानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ||६||
***** to Yo Yevale Yo