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विधि-विभाग
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के गुप्त चिन्हों को खुला रखकर बैठना । ७९ वैद्यक करना । ८० बिक्री बट्टे तथा व्याज का काम करना । ८१ विस्तर ( शय्या ) बिछाकर सोना । ८२ पीने के वास्ते घड़े में पानी रखना । ८३ मन्दिर पर पतनाला गिराना | ८४ साबुन आदि से स्नान करना ।
ऊपर लिखी हुई चौरासी आशातनाओं में से कोई भी आशातना जिनमन्दिरमें* अथवा जिनमन्दिर के स्थान में नहीं करनी चाहिये । गुरु महाराज की तेतीस आशातनाएं
१ गुरु महाराज के आगे बैठना ।
गुरु महाराज के आगे खड़े रहना ।
३ गुरु महाराज के आगे चलना । ४ गुरु महाराज के नजदीक में बैठना । ५ गुरुओं के पीछे खड़ा रहना ।
६ गुरुओं के आगे होकर चलना ।
गुरुओं के दोनों ओर पास में बैठना ।
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८ गुरुओं के बराबर चलना ।
९ गुरुओं की नकल करते हुए चलना ।
agnent aolo ko kes
'मन्दिरों में मूल गम्भारा समवसरण का रूपक माना गया है । उसमें तीर्थङ्कर भगवान की प्रतिमा को विराजमान कर पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपातीत अवस्थाओं को मान कर ही पूजन की जाती है । पिण्डस्थ अवस्था के तीन भेद होते हैं। जन्मावस्था, राज्यावस्था, श्रमणावस्था। जन्मावस्था में अंग पूजा की जाती है। अंग पूजा में पश्चामृत, नल, अंगलूहण, केशर, पुष्प । राज्यावस्था में अग्रपूजा की जाती है। अग्रपूजा में अक्षत, नैवैद्य, फल, अर्घ, वस्त्र, आरती । श्रवणावस्था में केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद पदस्थ अवस्था होती है। इसमें भाव पूजा होती हैं | भावपूजा में जिन भगवान् के गुणानुवाद ही करने चाहियें। निरञ्जन, निराकार, ज्योति स्वरूप. सिद्धावस्था को रूपातीत अवस्था कहते हैं ।
यह पूजन विधान श्राद्धनिकृत्य और देववन्दन भाष्य में है। महाकल्प में ऐसी आज्ञा है, शक्ति होते हुए साधु यदि जिन मन्दिर मे दर्शनार्थ नहीं जावे तो तेल ( तीन उपवास ) का दण्ड लगता है | श्रावक यदि शक्ति होते हुए जिन मन्दिर में दर्शनार्थ नहीं जावे तो वेले (दो उपवास) का दण्ड लगता है।
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