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जैन - रत्नसार
॥ इंद्रसभा ॥
द्वादश अंग सुतन्तु सूत्र सम, गणधर बुनक समान । देव दुश्रुत निर्मल प्रगट्यो, सो पटधार सुजान ॥२॥
॥ हम दयाका डंका बजाय जायेंगे ||
प्रभु अरजी हमारी अवश्य सुनो ॥ दुष्ट अधर्मी लोक जगत में, पाखंड पूजन होसि घनो ॥ प्र० ३ ॥ तीन वरनके नर पाखंडी, होवेंगे सभि आप जनो। शुद्ध सनातन जैन धरम कूं, करदेंगे वे कनो कनो ॥ प्र० ४ ॥ थोड़ा आयुष और बढ़ा लो, इन दुष्टनके मान हनो । शासन नायक वीर जिनेश्वर, बोले सुरनर सभी सुनो ॥ प्र० ५ ॥ भावी भाव कूं कोइ न टारे, सत्य मंत्र तुम यही भनो । दास चतुर की अर्जी न गुजरी, होगयो सुरपति ऊन मनो ॥ प्र० ६ ॥
॥ राग श्री ॥
पट युगल वसनमें बलिहारी, बलिहारी में तेरी बलिहारी ॥ सुन्दर वेल लगी है तोमें, फूलन की छवि है न्यारी । झीनी झीनी पतियां मूल्य घनो झलके, नीकी लागत है क्यारी || पट० ७ || भार अल्प और है, मोतिनकी झालर सारी। जिन गुनिजन ने तुझे बनाया, उसकी पन में हूँ बारी || पट० ८ || अब मैं भेट करूं हूं तेरी, इन साहिब के सुखकारी । दास चतुर के नाथ पियारो, जो है निरंजन अविकारी ॥ पट ९ ॥
॥ श्लोक ॥
बीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय वस्त्रं यजामहे स्वाहा ।
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