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जैन - रत्नसार
कुदेव अहित हित धारी । जाणे जेण विचारी जी ( म्हारे जगजन तारू ) ॥२॥ श्रुतमति दोय छे इन्द्रिय सारूं तेण परीक्ष विचारूं जी ( म्हारे जग - जन तारू ) ओही मण केवल हे वारू । जीव प्रत्यक्ष सुधारूं जी (म्हारे जगजन तारू ) ||३|| अयवि जस्सवलें जग जाणें लोकादिक अनुमानें जी ( म्हारे जगजन तारू ) त्रिभुवन पूजें जासु पसायें । धारी शुभ अध्य वसायें जी (म्हारे जगजन तारूं ) ||४|| णाणा वरणी उपशम क्षय थी, चेतन णाणकुं विलसे जी (म्हारे जगजन तारू ) सप्तम पद में भविजन हरखें । निश दिन कुशलता निरखें जी ( म्हारे जगजन तारू ) ||५|| ज्ञान पद धुई
मति श्रुति इन्द्रिय जन्नित कहिये । लहिये गुण गम्भीरा जी। आतम धारी गणधर विचारी, द्वादश अंग विस्तारी जी ॥ अवधि मन पर्यव केवल चलि प्रत्यक्ष रूप अवधारो जी ॥ ए पञ्च ज्ञान कूं वन्दो पूजो भविजन नें सुखकारो जी ॥१॥
श्री चारित्र पद की ७० जयति
१ प्राणातिपात विरमण रूप चारित्राय नमः | २ मृषावाद विरमण रूप चारित्राय नमः | ३ अदत्तादान विरमण रूप चारित्राय नमः । ४ मैथुन विरमण रूप चारित्राय नमः | ५ परिग्रह विरमण रूप चारित्राय नमः | ६ क्षमा धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः ७ आर्य धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । ८ मृदुता धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । ९ मुक्त धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १० तपो धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः ११ संयम धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । १२ सत्य धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । १३ शौच धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १४ अकिंचन धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १५ बम्भ धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १६ पृथ्वी रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १७ उदग् रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १८ तेउ रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १९ वाउ रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २० वनस्पति रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २१ द्वीन्द्रिय रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २२ त्रीन्द्रिय रक्षा