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जैन-रत्नसार ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थ कृतां केवल कल्याणकेभ्यो नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।
फल पूजा
॥ दोहा॥ परम पावन ज्ञानमय, भविजनकं सुख देत । ऐसे दानी पूजिये फलकरि भक्ति सुचेत ॥१॥
॥ तेरे चरण कमल भेट ॥ विमल ज्ञान कांति देख वोध बीज पइयां ॥ वि० ॥ मोह रिपुनाशकृत्, भविक जन शासकृत् । ज्ञान ध्यान भूल भूत अविचल सुख दइयां ॥वि०२॥ निर्मल फिटक मान शुभ, अशुभ भाव जान पण अशुभ पुद्गल इव दुरथी तजइयां ॥ वि० ३ ॥ शुद्धता रमण रूप, भोग्यता गुण स्वरूप । परम अखय रस जिनचन्द्र पद लहइयां ॥ वि० ४॥
॥ श्लोक ॥ चारित्रं अभ्रयोगं गुण परिरमणं, चंचला तेज युक्तं, घोषं गर्जारयोगं त्रिक धनुष विडोजं दया वारि धारै । चैतन्ये धर्म भूम्यां गुण सकल जलैवीज सम्यक्तव रूपं तस्मात् कैवल्य रूपं, अतुलक फलदं सत्फलं ढोकयेऽहं ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो फलं यजामहे स्वाहा ।
अर्घ पूजा श्री अक्षय जिनचन्द्रं निर्मलं ज्ञानयुक्तं, अविचल निधि धाम भक्तितो धाययन्ति त्रिकरण शुभ योगैः राज्यलक्ष्मीभवन्ति त्रिविद अचल सौख्यं सिद्धिरूपं भवन्ति ॥११॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यः अर्घ यजामहे स्वाहा।
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