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जन-रत्नसार
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नाम, साढ़ा पनरह उपवास वायण त्रिण ठाम । पुक्खर वरदी तप छठो छक्कड सार, साढ़ा त्रण उपवासे वाण एक सुविचार ॥ १० ॥ सिद्धाणं बुद्धाणं सातमो उपधान माल, उपवास करे इक चौविहार तत्काल । एक वाणि करे वलि गुरु मुख सरस रसाल, गछनायक पासे पहरे माल विशाल ॥ ११ ॥ माल पहरण अवसर आणी मन उछरंग, घरे सारूं वारूं खरचे धन बहु भंग । अति उच्छव कीजे राती जोगो दिल खोल, गीत गान गवावे पावे अति रंगरोल ॥१२॥
॥ ढाल ॥ ए साते उपधान विधि सो जे बहे ते सूधी किरिया करे ए । खिण न करे परमाद, जीव जतन करइ पूजि पूजि पगलां भरे ए ॥१३॥ न करे क्रोध कषाय हम हम हसें नहीं मरम केह नो नवि कहे ए । नाणे घर नौ मोह उत्कृष्टी करे, साधुतणी रहनी रहे ए ॥१४॥ पहुर सीम सिज्झाय, करि । पोरिसि भणी ऊंचे स्वर बोले नहीं ए । मन मांहें भावे एम, धन धन ए दिन, नरभव मांहि सफल सही ए ॥१५॥ जे साते उपधान, विधिसे तीविहे पहिरे माल सोहामणी ए। तेहनी किरिया शुद्ध, बहु फलदायक करम निर्जरा अति घणी ए ॥१६॥ परभव पामें शुद्धि, देवतणां सुख बत्तीस बद्ध नाटक पडे ए। पावे लील विलास अनुक्रम, शिवसुख चढ़ती पदवी जे चढ़े ॥१७॥
कलश इम वीर जिनवर भुवन दिनयर मात त्रिसला नन्द नो । उपधान नां फल कहे उत्तम भवियजन आणंदनो। जिनचन्द युग परधान सद्गुरु सकलचन्द मुनीसरो । तसु सीस वाचक समय सुन्दर भणे वंछित सुखकरो ॥ १८ ॥
पैंतालीस आगम स्तवन चौवीसे श्री तीर्थपति, नमूं देव अरिहंत । अर्थ प्रकाशे गण पुर, द्वादश अंग महंत ॥१॥ त्रिपदि लहि गणपति रचे, सूत्र अर्थ संयोग।