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प्राप्त किया और देवताओं के आगमन से संसार जगमगा उठा। उन्हीं की पुण्य स्मृति को लेकर हमें
दीपावली मनाते हैं।
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चूंकि चैत्र सुदि पूर्णिमा के दिन श्री आदिनाथ भगवान् के प्रथम गणधर श्री पुण्डरीक जी ५०० साधुओं सहित मोक्ष गये हैं इसीलिए श्री भरत चक्रवर्ती ने इस पर्व को आराधन करके चैत्री पूनम पर्व को
सर्वत्र प्रसिद्ध किया ।
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इस पर्व के आराधना से इस भव में तथा पर भव में अनेक सुखों की मनोरथ पूर्ण होते हैं। और आधि, व्याधि, शोक, भय, दरिद्रता आदि ऋद्धि की प्राप्ति होती है । इसलिए इस पर्व को यथाशक्ति अवश्य करना चाहिये । वैशाख मास पर्वाधिकार
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प्राप्ति होती है। स्त्रियों के
होकर परभव में देवादिक
वैशाख सुदि दूज का दिन अक्षय तृतीया पर्व के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । भगवान् ऋषभदेव स्वामीने दीक्षा लेकर मौन धारण कर एक बरस तक निराहार रह आर्य और अनार्य देशों में विहार किया । पाने के दिन प्रभु को कहीं से भी आहार न मिला । अंत में हस्तिनागपुर नगर में सोमयश राजा के पुत्र श्री श्रेयांस कुमार ने जाति स्मरण ज्ञान से शुद्ध आहार की विधि जान कर प्रभु को इक्षुरस से पारना कराया। उत्तम दान के प्रभाव से देवताओं ने हर्षित होकर १२|| करोड़ सोनइयों की वर्षा की और देव दुन्दुभी बजाते हुए पांचों द्रव्य प्रगट किये। वैशाख सुदि ३ के दिन श्रेयांस कुमार का दिया हुआ ये दान अक्षय हुआ, इससे ये दिन पर्व होकर अक्षय तृतीया कहलाने लगा। संसार में अन्य व्यवहार भगवान् श्री ऋषभदेव जी ने चलाये परन्तु दान देने का व्यवहार श्रेयांस कुमार ने चलाया और तभी से यतियों को आहार देने की विधि प्रचलित हुई ।
इस दान के प्रभाव से श्रेयांस कुमार को अक्षय सुख की प्राप्ति हुई अतः ये पर्व श्री संघ में मंगलकारी है। इस दिन अच्छे वस्त्र पहन कर मंदिर जी में आना चाहिये । अष्ट द्रव्य से प्रभु का पूजन कर अष्ट प्रकारी, सत्तरहभेदी आदि पूजाये करानी चाहिये । गुरु के मुख से यथाशक्ति एकासन आदि का चक्खाण ग्रहण कर इस पर्व की महिमा सुननी चाहिये ।
साधु मुनिराजों को, वहरा कर, कुटुम्ब के सभी व्यक्ति सम्मिलित होकर भोजन करें। शुभ कर्मों के शुरू करने के लिये ये दिन अत्यन्त उत्तम है। और इस दिन शुरू किया हुआ कार्य उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होगा ।
भगवान् आदिनाथ चरित्र
तीसरे आरे की समाप्ति में जब चौरासी लाख पूर्व और नवासी पक्ष बांकी रहे तब आपाढ़ कृष्णा चतुर्दशी के दिन, नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवी की गर्भ में देवलोक से च्यत्र कर वज्र नाम का जीव और चैत्र अष्टमी के दिन मरुदेवी ने युगल पुत्र को जन्म दिया। भगवान् की जंघा में ऋषभ का चिह्न था और मरुदेवी माता ने स्वप्न में भी सर्व प्रथम ऋषभ (बैल) को ही देखा था इसलिये भगवान् का नाम ऋषभ रखा गया और कन्या का नाम सुमंगला रखा गया ।
वंश-स्थापना के लिए इन्द्र जब प्रभु के पास आये और साथ में भगवान् को देने के लिये इशु (गन्ना) लाये। प्रभु ने सर्व प्रथम इन हाथ में ग्रहण किया, इसलिये उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु' हुआ।