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వమనండునుడు
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जैन-रत्नसार अवगाहन अन्त समायके ॥ द. २॥ प्रभुकी प्रभुता लखिये किन पर अरूपी रूप रहायके ॥ द० ३ ॥ अनन्त सुख लयलीन भये प्रभु, सेवक चित्त लुभायके । एत दिवस मोहे रटता बीते, तुम गुण गण मन लायके । द० ४ ॥ पूर्वं भविजन कू बहु तारे, तारक विरुद् धरायके । श्री जिनचन्द्र विनती अवधारो, सेवक अपनो जनायके ॥ द० ५ ॥
॥श्लोक ॥ कृत्वा दाहं प्रथम समये सप्तति द्वि प्रकृत्यः, शेषं विश्वं समय नयने, सर्व विध्वंश कृत्वा । अन्यास्पर्श गमन समये चन्द्रलोकान्तलक्षं, निर्वाणे श्रीजिनवरगणान् चन्दनैरर्चयेऽहम् ॥६॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्त चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
पुष्प पूजा
॥ दोहा॥ श्री अरिहन्त अनन्त गुण, शिवपुर राज समिद्ध । ऐसे जिनवर पूजिये, सुमन करी भवनिद्ध ॥१॥
(ऊधो ऐसी तुम्हे कहियो जाय हो जाय) अजरा मर पदवर लीन हो लीन । परति भाव अगाधविलासी, आतम शक्ति स्वभाव विकाशी । चिदघन रूपी गुण अविनासी, निज गुण आतम पीन हो ॥ अ०२॥ निर गेही परमाण परमेही, निलेशी, | निर्वेश अमेयी, ध्यान वियोगी भविजन ध्येयी, उपशम रस माहे भीन हो
॥ अ. ३ ॥ अशरीरी उपभोग सुभोगी, निरावर्ण निगंध अभोगी, अखय जिनचंद अगंध अयोगी, अव्याबाध सुलीन हो ॥ अ० ४ ॥
॥ श्लोक ॥ प्राग योगे नैवगति परिणामाच्च बंधाय संगं । उर्वगत्वा समय शशिभृद् योजने भाग जैनं, सर्व रूपं सकल भयगाह्यात्मशक्त्याविलासं ।
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