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जैन-रत्नसार शरीर रूप मनोहर, चन्द्र लञ्छन सुस्थितम् ॥ लक्ष्मणा देवि नन्दन त्रिलोक वन्दन भव्य हृदय स्थितेश्वरम् । गिरिवर शिखर सम्मेत वन्दु, चन्द्र प्रभु जिनेश्वरम् ॥१॥ इक्ष्वाकु वंश वदि पोष तेरस, आप प्रमु संयम ग्रहें । काल छमें त्रय मास बीतत, फाग सप्तमी केवल लहें ॥ त्रयाणु गणधर आदि वरदत्त, साधु साध्वी परिवरें। लख छ सहस तीस मुनि संघ, बंदु नित उठ भय हरें ॥२॥ पैंतालीस आगम मूल सूत्रं, इन्हीं में ज्ञान समझ मणे । छेद ग्रंथ को छोड़ दीने, श्रावक जन सुने नहिं भणें ॥ कर्म ग्रन्थ स्याद्वाद
न्यायें, शास्त्र हिलमिल ध्याइये । चौद पूरब मूल रचना, जिन धर्म इसी १में बताइये ॥३॥ विजय यक्ष और भृकुटी यक्षणि, सदाही यह मंगल करें।
दुख दारिद्र सब दूर करके, इष्ट संयोग संपति भरें ॥ सम्मेत शिखरे मुक्ति पहुंचे, चन्द्र प्रभु जी सुख करें । खरतरगच्छ में रत्नसूरी, सूरज चरणन शिर धरें ॥४॥
श्री सुविधि जिन स्तुति
(समरूं सुखदायक) काकंदी के शृङ्गार जिनवर सुविधि जिनंद । निष्काम निःस्नेही आतम ज्ञान दिनंद ॥ थे सुग्रीव पिता माता रामा के नंद । मृगशिर वदि बारस जन्म हुओ सुखकंद ॥१॥ श्वेत वरण से सोहे वंश इक्ष्वाकु सुजान । कातिक सुदि तृतीया गयो मिथ्यात्व अज्ञान ॥ अष्ट करम खपाये पायो पंचम ज्ञान । इन पंचमकाले रखज्यो आगम ध्यान ॥२॥ श्री सुविधिना गणधर नाम बराहक जान । द्वादश अंग रचना, कीनी सुगुण गुणवन्त ॥ प्रभु आगम मांहे भाखें इम अरिहंत । समकित ने राखो छोड़ो धरम एकंत ॥३॥ देवी सुतारका अजित नाम है यक्ष । इनकी पूजन से सुख । सम्पति परतक्ष ॥ सब मिल कर सेवो जैन धरम परधान । श्री रत्नसूरि शिष्य सूरजमल गुणगान ॥४॥
श्री शीतल जिन स्तुति सुख समकित दायक कामित सुरतरु कंद। दृढ़ रथ नृप राणी नंदा ।
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