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जैन-रत्नसार
प्रबन्धन
प्र
कल्प प्रजनन प्रलप्रमाणन प्रवद्रप्रसान्यन्तनमन्त्रजप्रत्यक
|| ढाल || अमल अखण्डित विकसित मण्डित, शुभ सुमनी घन जाति । लाखीनो टोडर ठयो, आंगी रचो बहुभांति । गुण कुसुमें निज आतम मण्डित करवा भव्य, गुणरागी जड़त्यागी पुष्प चढ़ावो नव्य ॥२॥
॥चाल ॥ जगधणी पूजतां विविध फूलें, सुरवरा ते गणेक्षण अमूले खन्ति धर मानवा जिन पद पूजे, तसुतणा पाप संताप धूजे ॥३॥
॥ श्लोक ॥ विकचनिर्मलशुद्ध मनोरमैः, विशदचेतनभावसमुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसूनघनैनवैः, परम तत्त्वमयं हि यजाम्यहं ॥४॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥३॥ पुष्प चढ़ावे ।
(अर्थ)- खिले हुए निर्मल पवित्र तथा सुन्दर एवं शुद्ध अन्तः करण के भाव से समुत्पन्न नवीन सुपरिणाम रूप फूल मैं परमतत्व मयजिनेन्द्र भगवान् को चढ़ाता हूं।
धूप पूजा कृष्णागर मृगमद तगर, अम्बर तुरक लोबान । मेल सुगन्ध घनसार घन, करो जिनने धूपदान ॥१॥
॥ दाल॥ धूपघटी जिम महमहे, तिम दहे पातक वृन्द । अरति अनादिनी जावे, पावे मन आनन्द । जे जन पूजे धूपे, भवकूपे फिर तेह । नावे पावे ध्रुवघर, आवे सुक्ख अछेह ॥२॥
॥ चाल जिनघरे वासतां धूप पूरे, मिच्छत्त दुर्गन्धता जाई दुरे । धूप जिम सहज ऊर्द्धगत स्वभावे, कारिका उच्चगति भाव पावे ॥३॥
॥श्लोक ॥ सकलकर्ममहेंधनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं । अशुभ पुद्गल