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जैन - रत्नसार
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पंचम श्रीसाधुपद पूजा ॥ दोहा ॥
मोक्षमारग साधनभणी, सावधान थया जेह । ते मुनिवर पद बंदता, निरमल थाये देह ॥ १॥
॥ काव्य ॥
खंतेय दंतेय सुगुत्तिगुत्ते, मुत्तेपसंते गुण जोग जुत्ते । गयप्पमाए हयमोहमाए, झाएहणिच्चं सुणिराय पाए ||२|| साहूण संसाहियसंजमाणं णमो णमो शुद्धयामाणं । तिगुत्तगुत्ताण समाहियाणं, मुणीण माणंद पर्याडआणं ॥ करे सेवनासूरिवायग गणीनी, करूं वर्णना तेहनीसी मुणीनी । समेता सदा पंचसमितेत्रिगुप्ते, त्रिगुप्ते नहीं काम भोगेषु लिप्ते ॥३॥ वली बाह्य अभ्यंतरे ग्रन्थटाली, हुई मुक्तिनेयोग चारित्रपाली । शुभष्टाङ्गयोगे रमें चित्तवाली, नमूं साधुने तेह्र निज पापटाली ||४||
॥ ढाल ॥
सकल विषयविष वारिने, निक्कामी निस्संगी जी । भवदव ताप समाबता, आतम साधन रंगीजी ॥ स० ५ ॥
॥ चाल ॥
जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा, काउसग्गमुद्रा धीर आसन व्यान अभ्यासी सदा । तप तेज दीपे कर्म जीपे नैव छीपे परभणी | मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन वन्दु ं प्रणम् हितभणी ॥६॥
|| ढाल ||
जिम तरुफूले भमरो वैसे, पीड़ा तसु न उपाय । लेई रस आतम संतोषे, तिम मुनि गोचरी जाय रे ॥ भ० ७ ॥
पांच इन्द्रीने जे
नित जीते षट्काया प्रतिपाल । संजम सतर प्रकार आराधे, बन्दू दीनदयाल रे ॥ भ० सि० ८ || अठारसहस सीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र | मुनिमहंत जयणायुत बंदी, कीजे जनम पवित्र रे ॥ भ० सि० ९ ॥ नवविध ब्रह्मगुप्त जे पालें, बारे विह तपसूरा । एहवा मुनि नमिये जां
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