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________________ ३३४ ***N NEW जैन - रत्नसार * 2 222 2 तृतीय वस्त्रयुगल पूजा ॥ दोहा ॥ वसनयुगल उज्वल बिमल, आरोपे जिन अंग । लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग ॥१॥ ॥ राग गोडी ॥ कमल कोमलघने, चंदने चर्चिते, सुगंध गंधे अधिवासिया ए। कनकमंडित हिये लालपल्लवशुचि, वसनयुग कंत अतिवासिया ए || २ || जिनप उत्तम अंगे, सुविधिशको यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए । पाप लूहण अंगे, लुहणुं देवने, चस्त्र युगपूंज मल धोइये ए ॥३॥ ॥ राग वैराडी ॥ देव दुष्य जुग पूजा बन्यो है जगत गुरु, देव दुष्य हर अब इतनो मागूं रे । तूंहिज सब ही हित तूंहिज मुगति दाता, तिण नाम प्रभु चरणे लागूं रे || दे० ४ ॥ कहे साधु तीजी पूजा केवल दंसण नाण, देव दुष्य मिश देहुं उत्तम वागूं रे । श्रावक अंजलि पुट सुगुण अमृत पीतां, सविराडे दुख संशय धुरम भागू रे ॥ दे० ५ ॥ चतुर्थ वासक्षेप पूजा ॥ राग गोडी दोहा ॥ पूज चतुर्थी इण परे, सुमति वधारे वास । कुमति कुगति हरे हरे, दहे मोह दल पास ॥१॥ ॥ रागसारंग ॥ हांहो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा चूरण विधि विरचे वासु ए चूरण चंदन मृगमदा, कंकोल तणो अधिवासु दशोदिशि वासते, पूजे जिन अंग उवंग ए भुवन अधिवासिया, अनुगामिकी सरम अभंगू ॥ हांहो रे देवा ॥ कुसुम ए ॥ हांहो रे देवा ॥ वास ॥ हांहो रे देवा || लाछि ए ॥२॥ ५६
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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