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जैन-रत्नसार
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संवर नाम अनुकमें रे, हेय उपादेय सुणाय ॥ पद्म० ४ ॥ पुंजन करणे हो अंतर तुझ पड्यो रे, गुण करणे करि भंग । ग्रंथ उकतें करि पंडित जन कह्यो रे, अंतर भंग सुअंग || पद्म० ५ ॥ तुझ मुझ अंतर अंतर भांजसे रे, वाज से मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधसे रे, आनन्द घन रस
पूर || पद्म० ६ ॥
श्री सुपार्श्व जिन स्तवन
॥ राग सारंग मल्हार ॥
श्री सुपास जिन वंदिये, सुख संपतिने हेतु । सात सुधारस जलनिधि, भवसागर मां सेतु ॥ श्री सुपास० १ ॥ सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर देव । सावधान मनसा करी, धरो जिनपद सेव ॥ श्री सुमति० २ ॥ शिव शंकर जगदीश्वरूं, चिदानंद भगवान् | जिन अरिहा तीर्थंकरूं, ज्योतिष रूप असमान ॥ श्री सुमति ० ३ ॥ अलख निरञ्जन बच्छलूं, सकल जन्तु विसराम । अभयदान दाता सदा, पूरण आतम राम ॥ श्री सुमति ० ४ ॥ वीतराग मद कल्पना, रति अरति भय सोग । निद्रा तंद्रा दुरदसा, रहित अवाधित योग ॥ श्री सुमति० ५ ॥ परम पुरुष परमात्मा, परमेश्वर परधान। परम पदारथ परमेष्ठी, परमदेव परमान ॥ श्री सुमति ० ६ ॥ विधि विरञ्चि विश्वंभरूं, ऋषिकेश जगनाथ । अघहर अघमोचन धणी, मुक्ति परम पद साथ || श्री सुमति० ७ ॥ एम अनेक अभिद्धा घरे, अनुभव गम्य विचार । जे जाणे तेहने करे, आनंद घन अवतार ॥ श्री सुमति० ८ ॥
श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन
( कुमरी रोवे आकंद करे मुने कोई मुकावे )
देखण दे रे सखी मुझे देखण दे, चंद्र प्रभ मुखचंद । उपशम रसनो कंद, गत कलिमल दुख दंद ॥ सखी ० १ ॥ सुहम निगोदन देखिओ, बादर अतिहि विशेष । पुढवी आउन लेखिओ, तेऊ वाउन लेस ॥ सखी०२ ॥
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