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विधि-विभाग
२१३ मा
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। गिरये नमः । १८ श्री कैलाशगिरये नमः । १९ श्री पातालमूलायनमः । । २० श्री अकर्मकाय नमः । २१ श्री सर्वकामपूरणाय नमः ।
श्री सिद्धगिरि चैत्यवन्दन (दोहा) श्री सिद्धाचल सकल सुख, सागर सिद्धि निधान । दुःख निवारण सिद्धि हित, वन्दं धर बहुमान ॥१॥ श्री सिद्धाचल पर सुजन, जो सीधा चल जाय । भव वन में भूले न वह, अजरामर पद पाय ॥२॥ श्री सिद्धाचल शिखर पर, शिवरमणी अधिवास । गुण थानक नर जो पढ़ें, पावें सौख्य विलास ॥३॥ श्री सिद्धाचल अचल पद, आश्रित जन आधार । मोह महारि नरेश का, जहां न दण्ड प्रचार ॥४॥ श्री सिद्धाचल उच्चता, करे नीचता नाश। कर्म शिकारी का जहां, चले न कोई पाश ||५|| श्री सिद्धाचल जो लखे, आतम अन्तर रूप । वे जन निर्धन भी यहां, होवें त्रिभुवन भूप ॥६॥ श्री सिद्धाचल निकट में, प्रकट महोदय योग । विकट
तमोगुण को हरे, · भरे अतट सुख भोग ॥७॥ श्री सिद्धाचल क्षेत्र की, 1 महिमा अपरम्पार । नित्य घनाघन कर्म बिन, देता फल विस्तार ॥८॥ श्री । सिद्धाचल सम यहां, है सिद्धाचल आप । अनुपमेय उपमा रहित, गुण हैं। । भरे अमाप ॥९॥ भीम भवोदधि डूबते जीवों का आधार । द्वीप अनुत्तर
सुखद यह, सिद्धाचल जयकार ॥१०॥ शान्त अपूर्व गिरीश यह, शत्रुञ्जय सुविशेष । भूति भोग वृष वर शिवा. लम्बन रुद्र न लेश ॥१॥ पुरुषोत्तम श्रीपद नरक, नाशक अभिनव भाव। पर वृष भेदी है न यह, गिरिवर पुनित प्रभाव ॥१२॥ ब्रह्म सनातन वरविधि पावन परम पुराण । है सिद्धाचल किन्तु भव लय, कारण परमाण ॥१३॥ तिमिर हारि खरकर सुभग, मित्र अनन्त प्रकाश । यह सिद्धाचल है अहो !, अस्त रहित अवकाश ॥२॥ राज राज अमृत निधि, सोम कला गुण धाम, औषधीश है सिद्धगिरि, निलाञ्छन उद्दाम ॥१५॥ घन आश्रय सुरपथ परम, विशद विष्णुपद
खास । है अनन्त यह तीर्थपति, पर नहीं शून्याकाश ||१६|| रसमय जीवन इधर महा, मोद हेतु घनरूप । धूम योनि पर है न यह, सिद्धगिरीश अनूप
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