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जैन-रत्नसार Praman.
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जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्र, मुद्रा यजामहे स्वाहा।
त्रयोदश श्री विमल जिन पूजा
॥दोहा ॥ विमल विमल प्रभु कर मुझे, मलिन कर्म करो दुर । तेरम प्रभु रमिये सदा, मुझ उर मझि गुणपूर ॥१॥
॥ ढाल ॥
(सिद्ध चक्र पद वंदो रे भ०) । विमल चरण कज वंदो रे, वंदनसे आनन्दो रे । जसु गणधर मुनिवर गण मधुकर, सेवत पद अरविन्दो। श्याम उदर सुगति मुक्ता फल, कृतवर्मा नृप वंदो रे ॥ भवि० २ ॥ सहुजग मंडल विमल करणकू, जिन शासन नभ चंदो। उदय भयो भवि कुमुद विकसवा, वर गुण रयण समंदो रे ॥ भवि० ३ ॥ यदि भव बंध हरण भवि चाहो, प्रभु वंदी चिरनंदो । विमल चिदानन्द धन मय रूपी, नित बंदत शिवचन्दो रे ॥भ०४॥
॥काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः। विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् विमल जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा ।
चतुर्दश श्री अनन्त जिन पूजा
॥दोहा॥ हिव चउदम जिन पूजतां, हरिये विषय विकार । भो भवियण सुणिये सदा, ए प्रभु सरणाधार ॥१॥
॥ ढाल ॥
( पंचवर्णी अंगी रची०,) पूज करणी प्रभुजीनी दुरित निवारी ॥ दुरित० ॥ अनंत तरणि हिम