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जैन - रत्नसार
७ ॥ त्रिभुवन जननो है नायक, एतो भक्ति वत्सल सुखदायक ॥ पू० ८ ॥ श्री जिनचन्द्रनी है निरखी, अद्भुत महिमा निज गुण परखी ॥ पू० ९ ॥ ॥ श्लोक ॥
समस्तं अज्ञानं तिमिर दलितं भास्करमिव, जनानां सद्द्बोधं तरणि मिवदातुं शुभ करं । जनानामाधारं हित अहित भावान्प्रगटयन, जिनां जन्मावस्थां मणिघटेत् दीपं च विदधे ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा |
अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥
अत्युज्जल अक्षत तणां, मङ्गल अष्ट विधान । अष्ट कर्मने छेदवां, जिन आगे मंड़ान ॥१॥ ( मन मोह्यो री माई )
चित लाग्यो री माई श्री जिनराज चरणमें || चि० ॥ षट् द्रव्य गुण पर्यायनो ज्ञाता, नियस्वभाव युत पख में । नित्या नित्य पखथी चउभंगी, सादि शांत विअ पखमें || चि० २ ॥ सादि शांति अनादि शांति, अनादि अनन्त चउ भंग में । रूपि अरूपी भेदनो ज्ञायक, नय गुण युत सुरंग में || चि० ३ || जन्म कल्याणक त्रिकरण ध्याता, थाये आतम संग में | श्रीजिनचन्द्र षट् द्रव्य प्रकाशक, अद्भुत स्वगुण रंग में ॥ च० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥
जन्मावस्थाक्षत
जगन्नाथं खुत्वा विमल जल कल्लोल लहरी, तथा गाव क्षीरं दधि श्रेणी रजत गिरिवच्चंद्र रुचयः, जिनां धवल वत् फेण पसरं । यथा वज्र धवल मांगल्य विदधे ||५|| ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा ।