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[ ख ] गर्व वहसि रे सर्व ! मुधा संसार वारिधे !
गोल्पढी कृय त्यामस्मि संतरिप्यामि लीलया ॥ अर्यान् अरे क्षुद्र संमार समुद्र ! तू अपनी दुस्तरता के लिये वृथा घमण्ड करता है. मैं तुम गोत्सद (गायका चरण चिह्न) बनाकर खेलने हुए पार कर जाऊंगा।
पर यह तभी हो सकता है. जब धर्म पालन की सच्ची लगन होगी-सच्चा प्रेम होगा। धार्मिक विपयों की कारी जानकारी कामयाब नहीं हो सकती-मोक्ष साधिका नहीं हो सकती। कोई किसी रास्ते का नक्सा जानकर गन्तव्य स्थान पर नहीं जा सकता, उसके लिये चलने की आवश्यकता होगी। अतएव किया की महत्ता महसूस करनी चाहिये। किसी ने सच कहा है:
"शास्त्राग्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । अयान शास्त्रों को पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते है जो नियावान होते हैं, वेही विद्वान् हैं। अतएव मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे प्रेम सद्भाव से धार्मिक अनुष्ठान किया करें।
अस्तु, जैनधर्म यद्यपि अनादि है-अनन्त है, फिर भी इसे सुचारू रूप में दुनिया की आंखों के सामने लाने के लिये वर्तमानकाल में समय समय पर श्री अपभदेव स्वामी से लेकर भगवान् श्री महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थकर हो चुके है। इसीलिये जैन साहित्य मे ये तीर्थकर भगवान् जैनधर्म के प्रवर्तक-जैनधर्म के संचालक कहे जाते हैं। कहना न होगा कि उनके उसी उपकार भार से मुककर आज जन जगन उन महापुरुषों में से एक एक के प्रति "अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानासन शलाकया। चन्मीलितं येन तम्मै श्री गुरुवे नमः ।।" इस प्रकार श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। अस्तु भगवान् महावीर के निर्याण के ६०६ वर्ष बाद जैनधर्म का दो भागोंमे विभाजन हो गया। श्वेताम्बर और दिगन्धर।
चंताम्बर जैनधर्म में भी दो विभाग है, श्वेताम्बर स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरापंधी । स्थानकवानी सम्प्रदाय में भी कितने उपविभाग है, इसी तरह तेरापथियों में भी दो उपविभाग है, भीषमपंधी और वीरपथी। पर इन विभाग-उपविभागों में बहुत कम अन्तर है. वस्तुतः मन्तव्य एकसा ही है।
दिगम्बर जैनयम में भी उसके बाद फिर दो विभाग हुर. बीसापंथी और तेरापंथी। बीसापंथी प्राचीन है. नेरापंथी अवांचीन. क्योंकि टोडरमलजी के जमाने में तेरापंथी धर्म चल पड़ा। बाद में और भी उपविभाग हा है।