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जैन-नसार
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६२ ध्यान तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ६३ उपसर्ग तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः | ६४ अनन्तज्ञान संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः । ६५ अनन्त दर्शन संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः | ६६ अनन्त चारित्र संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः । ६७ क्रोध निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः । ६८ मान निग्रह कारण चारित्रेभ्यो नमः । ६९ माया निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः । ७० लोभ निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः *
चारित्र पद चैत्यवन्दन
जस्स पायें साहु पाय, जुग जुग समितें दे । नमन करें सुभ भाव लाय, फुण नरपति वृन्दे ॥१॥ जंपे धरि अरिहंत राय, करि कर्म निकन्दें सुमति पंच तीन गुप्ति युत, दे सुक्ख अमन्दें ॥२॥ इखु कृति मान कषाय थीये, रहित लेत शुचिवंत । जीव चरित कूं हीर धर्म, नमन करत नित संत॥३॥ चारित्र पद स्तवन
निर्विकल्प अज निर्गुणी, चिदा भास निरसंग ( सुज्ञानी सांभलो ) मूर्तिहीन चेतन करे, रूपी पुद्गल रंग ॥ ( सुज्ञानी सांभली ॥१॥ स्यर्द्धक कारण वर्गणा, कार्ये कारण भाव ( सुज्ञानी सांभलो ) मता । लब्धा संख स्वभाव ( सुज्ञानी सांभलो ) ||२|| में। वृद्धि लहे जुगमान ( सुज्ञानी सांभलो ) । मध्ये अंते द्वौ तेजाण ( सुज्ञानी सांभलो ) ||३|| सहकारी मानस मुखा । कारण रम्य बलेण ( सुज्ञानी सांभलो ) प्राप्ता हासु प्रकारता सप्त प्रभृत कातेन ॥ ( सुज्ञानी सांभलो ) ॥४॥ तद्रो धन रूपी भलो । चेतन संयम धाम ( सुज्ञानी सांभलो ) कर धन मिल पद धर्म में कुशल भवतु अभिराम ॥ ( सुज्ञानी सांभलो ) ॥५॥
कृत्वा जोग सुधा
पर्याप्ता लघु जोग
वसु समये लहे ।
चारित्र पद थुई
करम अपचय दूर खपावे, आतम ध्यान लगावें जी ॥ बारे भावना सूधी भावे, सागर पार उतारें जी ॥
* चारित्रधारी पुरुषों में ये ७० गुण अवश्य होने चाहिये ।