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पूजा-विभाग
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विंशतितम श्रीमुनिसुव्रत जिन पूजा
॥दोहा ।। पद्मोत्तर वर पद्मनद, गत पर पद्म समान । विंशतितम जिन पूजिये, केवल लच्छि निधान ॥१॥
॥ राग गरवो (ढाल)॥ (सुण चतुर सुजाण, परनारीसे प्रीति कबहु नहिं कीजिये)
मुनि सुव्रत जिनेन्द्र सुनिजर धरि मुझपर वर दरशन दीजिये । प्रभु दरश प्रीति निरुपाधिकता, करिये लहिये शिव साधकता । तब तुरत मिटे सब बाधकता ॥ मु० २ ॥ अमृतमें साध्य पणो विलसे, प्रभु दरशन साधनता उलसे । तव मुझमें साधकता मिलसे ॥ मु० ३॥ भिन्नादि करणता यदि विघटे, एकाधि करणता यदि सुघटे। तवमुझ शिव साधकता प्रकटे ॥ मु० ४ ॥ एकाधिकरणता मुझ करिये भिन्नाधिकरणता परिहरिये । शिवचन्द्र विमल पद तब वरिये ॥ मु० ५ ॥
॥काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥६॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने
अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्य, फलं, वस्त्रं, मुद्रा यजामहे स्वाहा । एकविंशतितम श्री नमि जिन पूजा
॥दोहा॥ अंतर वैरि नमाविया, तब लहियो नमि नाम । भविजन ए प्रभु पूजसे, सरिये वंछित काम ॥१॥
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