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स्तोत्र-विभाग
गौतमाष्टक श्रीइन्द्रभूतिं वसुभूति पुत्रं, पृथ्वीभवं गौतम गोत्र रत्नम् । स्तुवन्तिदेवा सुर मानवेन्द्राः, सगौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥१॥ श्रीवर्धमानस्त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्त मात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशापि, स गौ० ॥२॥ श्रीवीर नाथेन पुरा प्रणीतं, मन्त्रं महानन्द सुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौ० ॥३॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षां भ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बर पूर्णकामाः, स गौ० ॥अष्टापदाद्रौ गमने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौ० ॥५॥ त्रिपञ्च संख्या शत तापसानां, तपः कृशानामपुनर्भवाय । अक्षीण लब्ध्या परमान्नदाता, स गौ० ॥६॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, स्वधार्मिकं संघ समर्पयेति । कैवल्य वस्त्रं प्रददौ मुनीनां, स गौ० ॥७॥ शिवङ्गते भर्तरि वीर नाथे, युग प्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रः, स गौ० ॥८॥ त्रैलोक्य बीजं परमेष्ठि बीजं, सज्ञान बीजं जिनराज बीजं। यन्नाम चोलं विदधाति सिडिं, स गौ० ॥९॥ श्रीगौतमस्याप्टक मादरेण प्रबोधकाले मुनिपुङ्गवाय । पठन्ति ते सूरि पदं सदैवानन्दं लभन्ते सुतरां क्रमेण ॥
भजन तेरे दरशन से भगवान्, कटेगा कर्मका पाप महान् । तू मोक्ष गामी । कहलाता, तेरे दरशन को सब आता ॥ तेरी पूजन से भगवान्, कटेगा कर्म * का पाप महान् ॥ तेरे० १ ॥ तुम जगके पालनहारे, बहुतों के दुःख तुमने * टारे । तेरी शरण पड़े जो आन, कटेगा कर्म का पाप महान् ॥ तेरे० २ ॥
नोट-ये वृहत् शान्ति वादिवताल श्रीशान्तिसूरिजी की बनाई हुई है। यह कोई / स्वतन्त्र स्तोत्र नहीं है। किन्तु उक्त आचार्य के रचे हुए 'अर्हस्पेिक विधि' नामक अन्य में : 'शान्तिपर्व' नाम का सातवां हिस्सा है। इसके सबूत में "इति शान्तिसूरि वादिवेनालीयेs ॐ पिकविधौ सप्तमं शान्तिपर्वकं समाममिति" यह उल्लेख मिलता है। इसमें मुख्यतया
शान्तिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। मागलिक महोत्सवों की शान्ति के लिया तथा : विशेप कर पाक्षिक. चातुर्मासिक तथा सांवत्तरिक प्रनिक्रमणों के अन्नभाग में बोला जाना है।
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