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जैन - रत्नसार
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गार जी । साधर्मी वच्छल मुनि भक्ति, पूजा उच्छव थाट जी ॥१०॥ ट्रंक ट्रंक पर चरण प्रभूना, पूजो भविजन भावजी । ध्यान धरो जिनवरनो मनमें, आनन्द अधिक उच्छाव जी ॥ ११ ॥ रास रच्यो श्री शिखर गिरीनो, सुणतां नवनिध थाय जी । तिण ए भविजन भाव धरीने, सुणज्यो मन थिर लाय जी ॥१२॥ खरतरगच्छपति महिमा धारी, कीरत जग विख्यात जी । जय श्री जिन सौभाग्य सुरीश्वर, अमृत वचन सुगात जी ॥१३॥ तासु पसायें रास रच्यो ए, अमृत समुद्रने सीस जी । बालचन्द्र निज मति अनुसार, सोधो विबुध जगीस जी ॥ १४॥ संवत् उगणी सै सितहोत्तर सुदि वैशाख सुढाल जी । रास* अजीमगंज मांहे कीना, भणतां मंगल माल जी ॥१५॥ ॥ इति रास विभाग |
सज्झाय इग्यारे अंग की सज्झाय
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अंग इग्यारे में गुण्या सहेली ए, आज थया रङ्गरोल की । नन्दीसूत्र मांहि एहनो सहेली, भाख्यो सर्व निचोल की ||१|| सहेली ए आज वधामणा, पसरी अङ्ग इग्यारनी । मुझ मन मंडप वेल की, सींचू ते हरखे करि अनुभव रसनी रेल की ॥ स० २ ॥ हेज घरी जे सांभले सहेली, कुण बूढ़ा कुण बाल की । तो ते फल लहे फूटरा सहेली, स्वादें अतिहि रसाल की ॥ सा० ३ ॥ हरख अपार धरी हिये सहेली, अहमदाबाद मझार की । भास करी ए अङ्गनी सहेली, वरत्या जय जयकार की ॥ स० ४ ॥ संवत् संतर पचानवें सहेली, वरषाऋतु नभ मास की । दसमी दिन सुदि पक्ष मां सहेली, पूरण थई मन आस की || स० ५ ॥ श्री जिनधर्म सूरि पाटवी सहेली, श्री जिनचन्द्र सूरीश की खरतरगच्छना राजिया सहेली, तसु राजे सुजगीस की || स० ६ ॥ पाठक हरख निधानजी सहेली, ज्ञान तिलक स० ४७० में श्री धनेश्वर सूरिजी रचित शत्रुञ्जय माहात्म्य से १६८२ में समय सुन्दरजीने शत्रुञ्जय रास बनाया है ।
* सं० १९७७ मे अमृतसागरजी के शिष्य वालचन्दजी ने यह रास बनाया है ।
কম ল পরশ।