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स्तवन-विभाग
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सागरथी तार, अरज याहीज करूं ॥२॥ भूख त्रिषा तप सीत, आतम ए ना सहे, तप जप संजम भार, तणी नवि निरवहे । पिण जिनवरजीना नाम
तणी आसत घणी, एहिज छे आधार, जगत गुरु अम्ह भणी ॥२॥ तुम्ह * दरसण विण स्वाम, भवोदधि हूँ फिर चो सहिया दुःख अनेक । न कारजको 1 सरयो । मिलिया हिव प्रभु मुझ सदा सुख दीजिये, चौ गइ संकट चूर
जगत जस लीजिये ॥४॥ यादवपति श्रीकृष्णतणी आरति हरी, सैन्या कीध सचेत जरा दुरे करी। परचा पूरण पास रयण जिम दीपतो, जयवंतो जिनचंद सकल रिपु जीपतो ॥५॥
पार्श्व जिन स्तवन तेरे चरण भेट आज, आनन्द अंग लहियां । आनन्द अंग लहियां प्रभुजी, दरसण बहु पइयां ॥ तेरे० १॥ अश्वसेनजी के लाल, तीनलोक प्रतिपाल । तोडमान कमठ नाग, राज सुक्ख दइयां ॥ तेरे० २ ॥ चार जात देव कोड, सेवा करें कर जोड़ । मधुर मधुर ध्वनि करे, अपछर गुण गइयां ॥ तेरे० ३ ॥ अखय* सदा जिनचंद, चाहत शिव सुक्ख कंद । निरख निरख दर्शन करे, आनन्द बहु पइयां ॥ तेरे० ४ ॥
वीर जिन स्तवन
( जग जीवन जग वाला हो) वीर जिणंद गुण गावसं , जिम थाय आतम उद्धार लाल रे । पुण्य । योगे प्रभु मुझ मिल्यो, पञ्चमकाल मझार लाल रे ॥ वीर० १॥ जगदीसर
परमातमा, जगबंधु जगनाथ लाल रे । जग उपगारी जग गुरू तुमें, जग रक्षक शिव साथ लाल रे ॥ वीर० २ ॥ जिन गुण कण पण कीर्तना, । चिंतामणि सम जाण लाल रे। अवगुण बोले गोशालो वली, जमाली ई दुःखनी खाण लाल रे ॥ वीर० ३ ॥ अनंत पुण्य कर्म योगथी, तीर्थंकर : पद धार लाल रे । गोत्र करम उदये प्रभू, ब्राह्मणी कूखे अवतार लाल रे ॥
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* यह स्तवन रंग विजय खरतर गच्छीय जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्य जी श्री जिन __अखय सूरिजी महाराजके शिष्य श्री पूज्यजी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराजका बनाया हुआ है।