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स्तुति-विभाग
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६११ देवी जाय ॥ नन्द्या वरते लंछन, तीस धनुष परमान । प्रति दिन सुखदायी, स्वामी श्री अर जान ॥१॥ इन्द्र अहमिन्द्र सुरवर, सेवत जन पद पद्म । इच्छित वर पूरण, अगणित गुण मणि अद्म ॥ भवि प्राणि ने तारे, पोत बहे सम दीस । श्री अर जिनेश्वर, ध्याऊं प्रभुवर ईश ॥२॥ सुदि मारग इग्यारसे, दीक्षा ली शुभ कर्म । छद्मकाल बितायो, बरस तीन दृढ धर्म ॥ सुदि चैत्र तृतीया, काटे दुष्कृत कर्म । तब पायो केवल, प्रगटे वचन जिन धर्म ॥२॥ श्री धारिणी देवी, धारो हृदय विशेष । यक्षराज को ध्यावो, काटे दुःख कलेश ॥ प्रभु सेवित करजोड़ी, रत्नसूरि जिनचन्द । कहते गुरु ज्ञानी, इम सूरजमल्ल मुनिन्द ॥४॥
श्री मल्लि जिन स्तुति
( शार्दूल विक्रीडित तथा मालिनि) मागें शुक्ल दले तिथौ शिव मिते, देशे विदेहास्पदे । यः श्री कुम्भ प्रभावती तनयामासाद्य यज्ञे भुवि ॥ व्योमाकाश वसुन्धरा मित करान् , यद्देह मुच्चैर्ययौ । कुम्भाङ्क नवनीरदोपममहं, तं मल्लिनाथं भजे ॥१॥ दीक्षा
यस्य वभूव मासि सहसि, ज्ञानं सिते कार्तिके । देवाध्वाम्बर वह्नि संख्यक ॐ गणा, यस्यात्र कुम्भाधिपाः ॥ नाका काश खशून्यमेश्वर मितां, यं जैन
सन्यासिनः । सेवन्तेस्म सुखं सुराति सुखदं, तं मल्लिनाथं भजे ॥२॥ युग वसु युत लक्ष, श्रावकैः श्राविकाभिः । युगल नग समेतै, वह्नि लक्षैश्च लब्धः ॥ जिन वचन विवेको येन यो लोक नेता । स जयति नरदत्ता * यक्षिणी क्लेश हारी ॥३॥ सुर वरुण कुबेरा, वास सम्मेत शृङ्गे। ग्रह तिथि
नव शुक्ले, ज्येष्ठ मास्याप्त मुक्तिम् ॥ अति लघु मति मोती, चन्द्र उत्तन्द्र भक्तिः । प्रणमति विनतस्तं सूरि रत्नस्य शिष्यः ॥४॥
श्री मुनि सुव्रत जिन स्तुति । मुणि सुव्वयं पुण्णं किण्ह पउमं, रायग्गिहे पउमावइ कुच्छि जम्मं । हरिवंश सच्छंदे पिया सुमित्ते जिहा सुधे दिणमइ अह मुत्ते ॥१॥ कच्छप्प चिहं सुएसु उक्कं, बारस फग्गुणे सइ संसार मुक्कं । चइकंत मासे
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