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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : . भावार्थ:-तीर्थकरद्वारा कहे गये तत्वों के विषय में रुचि-श्रद्धा रखना सम्यकत्व-समकित कहलाता है । वह समकित स्वभाव से अथवा गुरु के उपदेश से दो प्रकार से प्राप्त हो सकता है।
तीर्थकरने नो तत्व बतलाये हैं उनमें रुचि-श्रद्धा होना समकित अर्थात् सम्यक्श्रद्धा कहलाता है। श्रद्धा विना केवलज्ञान मात्र से ही फलसिद्धि नहीं हो सकती । तत्त्वज्ञ मी यदि श्रद्धारहित हो तो वे भी आत्महित लक्षणफल को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। श्रुतज्ञान के धारक होनेपर भी अंगारमर्दक आचार्य जैसे अभव्य और दूसरे दूरभव्य प्राणी जगत के निष्कारण वत्सल ऐसे जिनेश्वर के कहे तत्त्वोंपर श्रद्धारहित होनेसे शास्त्रोक्त तथाप्रकार के आत्महितरूप फल को प्राप्त नहीं कर सके ऐसा शास्त्रोंसे जाना जाता है।
समकित दो प्रकार से प्राप्त हो सकता है। एक स्वभाव से और दूसरा गुरु के उपदेशसे । स्वभावसे अर्थात् गुरु आदि के उपदेश की अपेक्षारहित स्वाभाविक क्षयोपशम से प्राप्त होता है और उपदेश अर्थात् गुरुद्वारा कहे गये धर्मोपदेश के श्रवण करने से प्राप्त होता है।
इस अनादिकाल से चले आते संसाररूपी सागर में पड़ा हुआ प्राणी भव्यत्व के परिपाक के कारण पर्वत परसे नदी में पड़े हुए पत्थर के समान यथाभोगपन से यथाप्र
१ वह पत्थर लुडकता हुआ गोल आकार का हो जाता है।