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(ख) प्राकृत में लिंग-विधि खूब हो अनियमित है। प्राकृत वैयाकरणों ने भी कुछ प्रति संक्षिप्त परन्तु 'व्यापक सूत्रों के द्वारा इस
बात का स्पष्ट उल्लेख किया है। प्राचीन ग्रंथों में एक ही शब्द का जिस-जिस लिंग में योग जहाँ तक हमें दृष्टिगोचर हुमा है, उस-उस लिंग का निर्देश इस कोष में उस शब्द के पास कर दिया गया है। जहाँ लिंग में विशेष विलक्षणता पाई गई है वहाँ
उस ग्रंथ का अवतरण भो दे दिया गया है। (ग) जहाँ स्त्रीलिंग का विशेष रूप पाया गया है वहाँ उस अर्थ के बाद 'स्त्री-' निर्देश करके रेफरेंस के साथ दिया गया है। (घ) प्राकृत में अनेक ग्रंथों में अव्यय के बाद विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। इससे ऐसे स्थानों में अव्यय-सूचक 'म' के बाद
प्रायः लिंग बोधक शब्द भी दिया गया है। जैसे 'बला' के बाद 'म. स्त्री' = (अव्यय तथा स्त्रीलिंग)। १३. देश्य शब्दों के संस्कृत-प्रतिशब्द के स्थान में केवल देश्य का संक्षिप्त रूप दे' ही काले टाइपों में कोष्ठ में दिया गया है।
(क) जो धातु वास्तव में देश्य होने पर भी प्राकत के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध व्याकरणों में संस्कृत धातु के आदेश कह कर तद्भवे बतलाये
गये हैं उनके संस्कृत-प्रतिशब्द के स्थान में 'दे'न देकर प्राचीन वैयाकरणों की मान्यता बतलाने के उद्देश्य से वे वे प्रादेशि संस्कृत रूप ही दिये गये हैं। इससे संस्कृत से बिलकुल विसदृश रूपवाले इन देश्य धातुओं को वास्तविक तद्भव समझने को
भूल कोई न करे। (ख) जो धातु तद्भव होने पर भी प्राकृत-व्याकरणों में उसको अन्य धातु का आदेश बतलाया गया है उस धातु के व्याकरण-प्रदर्शित
प्रादेशि संस्कृत रूप के बाद वास्तविक सस्कृत रूप भी दिखलाया गया है यथा पेच्छ के [दृश , प्र + ईक्ष] आदि। (ग) प्राचीन ग्रंथों में जो शब्द देश्य रूप से माना गया है परन्तु वास्तव में जो देश्य न होकर तद्भव ही प्रतीत होता है, ऐसे
शब्दों का संस्कृत-प्रतिशब्द दिया गया है और प्राचीन मान्यता बर लाने के लिए संस्कृत प्रतिशब्द के पूर्व में दे दिया गया है। (घ) जो शब्द वास्तव में देश्य ही है, परन्तु प्राचीन व्याख्याकारों ने उसको तद्भव बतलाते हुए उसके जो परिमार्जित–छिल-छाल
कर बनाये हुए संस्कृत-रूप अपने ग्रंथों में दिये हैं, परन्तु जो संस्कृत-कोषों में नहीं पाये जाते हैं, ऐसे संस्कृत-प्रतिरूपों को यहाँ
स्थान न देते हुए केवल 'दे हो दिया गया है।
(ङ) जो शब्द देश्य रूप से संदिग्ध है उसके प्रतिशब्द के पूर्व में 'दे' भी दिया है। १४. प्राचीन व्याख्याकारों के दिये हुए संस्कृत-प्रतिशब्द से भी जो अधिक समानतावाला संस्कृत प्रतिशब्द है वही यहाँ पर दिया गया है,
जैसे 'एहारिणय के प्राचीन प्रतिशब्द 'स्नापित' के बदले 'स्नानित' । १५. अनेक अर्थवाले शब्दों के प्रत्येक अर्थ १, २, ३ प्रादि अंकों के बाद क्रमशः दिये गये हैं और प्रत्येक अर्थ के एक या अनेक रेफरेंस उस
मर्थ के बाद सादे ब्राकेट में दिये हैं। (क) धातु के भिन्न-भिन्न रूपवाले रेफरेंसों में जो-जो अर्थ पाये गये हैं वे सब १, २, ३ के अंकों से देकर क्रमशः धातु के पाख्यात
तथा कृदन्त के रूप दिये गये हैं और उस-उस रूपवाले रेफरेंस का उल्लेख उसी रूप के बाद ब्राकेट में कर दिया गया है । (ख) जिस शब्द का अर्थ वास्तव में सामान्य या व्यापक है, किन्तु प्राचीन ग्रंथों में उसका प्रयोग प्रकरण-वश विशेष या संकीरणं
अर्थ में हुमा है, ऐसे शब्द का सामान्य या व्यापक अर्थ ही इस कोष में दिया गया है; यथा-'हत्थिचग' का प्रकरण-वश होता 'हाथ के योग्य प्राभूषण' यह विशेष अर्थ यहाँ पर न देकर 'हाथ-सम्बन्धो' यह सामान्य अर्थ हो दिया गया है। ‘णक्खत्त
(नाक्षत्र) आदि तद्धितान्त शब्दों के लिए भी यही नियम रखा गया है। शब्द-रूप, लिंग, अर्थ की विशेषता या सुभाषित की दृष्टि से जहाँ अवतरण देने की आवश्यकता प्रतीत हुई है वह। पर वह, पर्याप्त अंश में, अर्थ के बाद और रेफरेंस के पूर्व में दिया गया है। (क) अवतरण के बाद कोष्ठ में जहाँ अनेक रेफरेंसों का उल्लेख है वहाँ पर केवल सर्व-प्रथम रेफरेंस का हो अवतरण से संबन्ध है,
शेष का नहीं। एक हो ग्रंथ के जिन अनेक संस्करणों का उपयोग इस कोष में किया गया है, रेफरेंस में साधारणतः संस्करण-विशेष का उल्लेख न करके केवल ग्रंथ का ही उल्लेख किया गया है । इससे ऐसे रेफरेंसवाले शब्द को सब संस्करणों का या संस्करण-विशेष का समझना चाहिए।
१. हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण, सूत्र १, ३३ से ३५ ।
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