________________
इस कोष में स्वीकृत पद्धति
प्रथम काले टाइपों में क्रम से प्राकृत शब्द, उसके बाद सादे टाइपों में उस प्राकृत शब्द के लिङ्ग आदि का संक्षिप्त निर्देश, उसके पश्चात् काले कोष्ठ (बाकेट) में काले टाइपों में प्राकृत शब्द का संस्कृत प्रतिशब्द, उसके अनन्तर सादे टाइपों में हिन्दी भाषा में अर्थ
मौर तदनन्तर सादे टाइपों में ब्राकेट में प्रमाण (रेफरेंस) का उल्लेख किया गया है। २. शब्दों का क्रम नागरी वर्ण-माला के अनुसार इस तरह रखा गया है :--अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, प्रो, प्रौ, अं, क, ख, ग प्रादि ।
इस तरह अनुस्वार के स्थान की गणना संस्कृत-कोषों की तरह पर-सवर्ण अनुनासिक व्यन्जन के स्थान में न कर मन्तिम स्वर के बाद
और प्रथम व्यजन के पूर्व में ही करने का कारण यह है कि संस्कृत की तरह प्राकृत में व्याकरण की दृष्टि से भी मनुस्वार के स्थान में अनुनासिक का होना कहीं भी अनिवार्य नहीं है और प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में प्रायः सर्वत्र अनुस्वार का ही प्रयोग पाया जाता है। प्राकृत शब्द का प्रयोग विशेष रूप से प्रार्ष (अर्धमागधी) और महाराष्ट्री भाषा के अर्थ में और सामान्य रूप से पार्ष से लेकर अपभ्रंश भाषा तक के अर्थ में किया जाता है। प्रस्तुत कोष के 'प्राकृत-शब्द-महार्णव' नाम में प्राकृत-शब्द सामान्य अर्थ में ही गृहीत है । इससे यहाँ पार्ष, महाराष्ट्री, शौरसेनी, अशोक-शिलालिपि, देश्य, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची तथा प्राभ्रश भाषाओं के शब्दों का संग्रह किया गया है। परन्तु प्राचीनता और साहित्य की दृष्टि से इन सब भाषाओं में आप और महाराष्ट्री का स्थान ऊँचा है। इससे इन दोनों के शब्द यहाँ पूर्ण रूप से लिए गये हैं और शौरसेनी आदि भाषाओं के प्रायः उन्हीं शब्दों को स्थान दिया गया है जो या तो प्राकृत (प्रार्ष और महाराष्ट्री) से विशेष भेद रखते हैं अथवा जिनका प्राकृत रूप नहीं पाया गया है, जैसे-'य्येव', 'विधुव', 'संपादइत्तम', 'संभावीप्रदि' वगैरह । इस भेद की पहिचान के लिए प्राकृत से इतर भाषा के शब्दों और पाख्यात-कृदन्त के रूपों के प्रागे सादे टाइपों में कोष्ठ में उस उस भाषा का संक्षिप्त नाम-निर्देश कर दिया गया है, जैसे (शौ)', '(मा)' इत्यादि । परन्तु सौरसेनी मादि में भी जो शब्द या रूप प्राकृत के ही समान है वहाँ ये भेद-दर्शक चिह्न नहीं दिए गए हैं। (क) आर्ष और महाराष्ट्री से सौरसेनी आदि भाषाओं के जिन शब्दों में सामान्य (सर्व-शब्द-साधारण) भेद है उनको इस कोष
में स्थान देकर पुनरावृत्ति-द्वारा ग्रन्थ के कलेवर को विशेष बढ़ाना इसलिए उचित नहीं समझा गया है कि वह सामान्य भेद प्राकृत-भाषाओं के साधारण अभ्यासी से भी अज्ञात नहीं है और वह उपोद्घात में भी उस उस भाषा के लक्षणप्रसङ्ग में दिखा दिया गया है जिससे वह सहज ही ख्याल में पा सकता है। पार्ष और महाराष्ट्री में भी परसर उल्लेखनीय भेद है। तिस पर भी यहाँ उनका भेद-निर्देश न करने का एक कारण तो यह है कि इन दोनों में इतर भाषाओं से अपेक्षा-कृत समानता अधिक है। दूसरा, प्रकृति की अपेक्षा प्रत्ययों में ही विशेष भेद हैं जो व्याकरण से सम्बन्ध रखता है, कोष से नहीं तीसरा, जैन ग्रंथकारों ने महाराष्ट्री-ग्रंथों में भी पार्ष
प्राकृत के शब्दों का अविकल रूप में अधिक व्यवहार कर उनको महाराष्ट्री का रूप दे दिया है। ४. प्राकृत में यश्रुतिवाला नियम खूब हो अव्यवस्थित है। प्राकृत-प्रकाश, सेतुबन्ध, गाथासप्तशती और प्राकृपिंगल मादि में इस नियम
का एकदम प्रभाव है जबकि भाष, जैन महाराष्ट्री तथा गउडवहो-प्रभृति ग्रन्थों में इस नियम का हद से ज्यादा प्रादर देखा जाता हैं; यहाँ तक कि एक ही शब्द में कहीं तो यश्रुति है और कहीं नहीं, जैसे 'पन' और 'पय', 'लोम' और 'लोय'। इस कोष में ऐसे शब्दों की पुनरावृत्ति न कर कोई भी (यश्रुतिवाले 'य', से रहित या सहित) एक हो शब्द लिया गया है। इससे क्रम तथा इतर समान शब्द की
१. देखो प्राकृतप्रकाश, सूत्र ४, १४; १७; हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण, सूत्र १, २५ और प्राकृतसर्वस्व, सूत्र, ४, २३ आदि । २. प्राकुतसर्वस्व (पृष्ठ १.३) प्रादि में इनसे अतिरिक्त और भी प्राच्या, शाकारि आदि अनेक उपभेद बताए गए हैं, जिनका समावेश ___ यहाँ सौरसेनी आदि इन्हीं मुख्य भेदों में यथास्थान किया गया है। ३. इन संक्षिप्त नामों का विवरण संकेत-सूची में देखिए । ४. इसी से डा. पिशल आदि पाश्चात्य विद्वानों ने आर्ष-भिन्न जैन प्राकृत-ग्रयों को भाषा को 'जैन महाराष्ट्रो' नाम दिया है । देखो ___डॉ. पिशल का प्राकृतव्याकरण और डॉ. टेसेटोरी को उपदेशमाला की प्रस्तावना । ५. हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण का सूत्र १,१८० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org