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'गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतगिरः ।
सुभव्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम् । (राजशेखर का बालरामायण १,११)। संस्कृत-भाषा सुनने योग्य है, प्राकृत भाषा स्वभाव-मधुर है, अपभ्रंश-भाषा भव्य है और पैशाची-भाषा की रचना रस-पूर्ण है।
'सक्कय-कव्वस्सत्थं जेण न याएंति मंद-बुद्धीया । सव्वाणवि सुह-बोहं तेरणेमं पाययं रइयं ।। गुढत्थ-देसि-रहियं सुललिय-बन्नेहिं विरइयं रम्म ।
पायय-कव्वं लोए कस्स न यियं सुहावेइ ?॥ (महेश्वरसूरि का पञ्चमीमाहात्म्य)। सामान्य मनुष्य संस्कृत-काव्य के अर्थ को समझ नहीं पाते हैं। इसलिए यह अन्य उस प्राकृत-भाषा में रचा जाता है जो सब लोगों को सुख-बोध्य है।
गूढार्थक देशी-शब्दों से रहित और सुललिन पदों में रचा हुआ सुन्दर प्राकृत-काव्य किसके हृदय को सुखी नहीं करता?
उज्झउ सक्कय-कव्वं सक्कय-कव्वं च निम्मियं जेण । वंस-हरं व पलित्तं तडयडतदृत्तणं कुणइ ।'
(वज्जालग्ग (?) से अपभ्रशकाव्यत्रयी को प्रस्ता०, पृष्ठ ७६ में उद्धृत)। संस्कृत-काव्य को छोड़ो और जिसने संस्कृत काव्य की रचना की उसका भी नाम मत लो, क्योंकि वह (संस्कृत) जलते हुए बाँस के घर की तरह 'तड़तड़ तट्ट' आवाज करता है-श्रतिकटु लगता है।
“पाइन-कव्वम्मि रसो जो जायइ तह व छेय-भणिएहि । उययस्स य वासिय-सीयलस्स तित्ति न वच्चामो । ललिए महुरक्खरए जुवई-यण-वल्लहे स-सिंगारे ।
संते पाइय-कव्वे को सकइ सक्कयं पढिउं? ॥" (जयवल्लभ का वबालग्ग, पृष्ठ ६) प्राकृत-भाषा की कविता में और विदग्ध के वचनों में जो रस आता है उससे, बासी और शीतल जल की तरह, तृप्ति नहीं होती है-मन कभी ऊबता नहीं है-उत्कण्ठा निरन्तर बनी ही रहती है।
जब सुन्दर, मधुर, शृङ्गार-रस-पूर्ण और युवतियों को प्रिय ऐसा प्राकृत-काव्य मौजूद है तब संस्कृत पढ़ने को कौन जाता है?
१. संस्कृतकाव्यस्याथं येन न जानन्ति मन्दबुद्धयः । सर्वेषामपि सुखबोधं तेनेदं प्राकृतं रचितम् ।।
गुढार्थदेशीरहितं सुललितवर्णविरचितं रम्यम् । प्राकृतकाव्यं लोके कस्य न हृदयं सुखयति ? ॥ २. उभयतां संस्कृतकाव्यं संस्कृतकाव्यं च निर्मितं येन । वंशगृहमिव प्रदीप्तं तडतडतट्टत्वं करोति ॥ ३. प्राकृतकाव्ये रसो यो जायते तथा वा छकभरिणतः । उदकस्य च वासितशीतलस्य तृप्ति न व्रजामः ॥
ललिते मधुराक्षरके युवतिजनवल्लभे सशृ'गोरे । सति प्राकृतकाव्ये कः ष्वकते संस्कृतं पठितुम् ? ॥
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