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विजयोदय टीका
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शरावाद्यन्यतमभाजनमात्रप्रतिपत्तिवत् । ननु चान्तरेणाधारमानयनं न संभवतीति भवत्यनभिहितेऽपि भाजनमात्रे प्रतिपत्तिरिह कथम् ? इहाप्यविनाभावादित्याचष्टे 'दंसणमाराधंतेण' |
अत्रापरे संबन्धमारम्भयन्ति गाथायाः । यदि द्विविधा आराधना 'चतुविधाराधनाफलं प्राप्ताः सिद्धाः ' इति प्रतिज्ञा हीयते द्वयोरसंग्रहात् इति चेत् नास्मिन्नपि विकल्पे तयोरपि संग्रहार्थम् । कथं 'दंसणमाराधं तेण ' इति प्रतिज्ञा हीयते इति । अत्र प्रतिज्ञा शब्देन किमुच्यते ? साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञेति तावन्न गृहीतम् । चतुर्विधाराधनाफलप्राप्तत्वस्येह साध्यता नास्ति । सिद्धमेव हि चतुर्विधाराधनाफलप्राप्तत्वमनूद्यत इति । अथाभ्युपगतिः प्रतिज्ञा सा किन्नोपपद्यते ? सन्ति चतस्रः आराधनास्तासां च फलं ते प्राप्तवन्तस्ततः सत्यभ्युपगन्तव्ये कथमभ्यु पगमानुपपत्तिः ? चतुर्विधेत्युक्तवन्तः द्विविधेति कथं न विरुद्धमिति पूर्वापरव्याहतिरिति चोद्यते । तथा यश्चोद्यमेव चोद्यते समासेन द्विविधेति वचनात् प्रपञ्चनिरूपणायां चतुविधा तत्को विरोधः ? तेन विरोधपरिहाराय चागतेयं गाथा |
'दंसणं' श्रद्धानं रुचिः, 'आराधतेण' आराधयता, 'णाणं' सम्यग्ज्ञानं, 'आराधिदं' आराधितं 'हवे' भवेत् 'नियमा' निश्चयेन । यस्य हि यद्विषया श्रद्धा तस्य कथंचिदप्यज्ञाने न सा भवति । न हि निर्विषया रुचिः जानना शक्य है । जैसे आग लानेकी प्रेरणा करने पर उसको लानेके लिए सकोरा आदि किसी एक पात्र मात्रका बोध हो जाता है ।
शङ्का- - बिना किसी आधारके आगका लाना संभव नहीं है इसलिये पात्रमात्रका कथन न करने पर उसका बोध हो जाता है । किन्तु यहाँ यह कैसे संभव है ?
समाधान-- यहाँ भी अविनाभाव होनेसे 'दसंणमाराहंतेण' इत्यादि कहा है ।
यहाँ अन्य व्याख्याकार गाथाके सम्बन्धका आरम्भ इस प्रकार करते हैं- यदि आराधनाके भेद दो हैं तो 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त सिद्ध हैं' यह प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होती; क्योंकि इसमें शेष दोका संग्रह नहीं किया है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ यह बतलाते हैं कि उन दोमें भी शेष दोका संग्रह होता है । उसीके लिये 'दंसणमा राहंतेण' आदि कहा है ।
तथा आप कहते हैं कि प्रतिज्ञाकी हानि होती है । यहाँ प्रतिज्ञा शब्दसे आप क्या कहते हैं ? साध्यके निर्देशको प्रतिज्ञा कहते हैं । उसका तो यहाँ ग्रहण नहीं किया है; क्योंकि 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त' यह यहाँ साध्य नहीं है । चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त होना तो सिद्ध है, साध्य नहीं है । उसीका यहाँ अनुवाद मात्र किया है । यदि प्रतिज्ञाका अर्थ स्वीकृति है तो वह यहाँ क्यों नहीं उत्पन्न होती ? चार आराधनाएँ हैं और उनका फल सिद्धोंने प्राप्त किया है ऐसा स्वीकार करने पर स्वीकृतिको अनुपपत्ति कैसे हुई ।
शंका --- पहले कहा आराधनाके चार भेद हैं अब कहते हैं दो भेद हैं । तो यह पूर्वापर विरुद्ध कैसे नहीं है ?
समाधान -- आप व्यर्थ ही तर्क में कुतर्क लगाते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि संक्षेपसे आराधनाके दो भेद हैं और विस्तारसे कहने पर चार भेद हैं इसमें विरोध कैसा ? अतः विरोध दूर करनेके लिये ही यह गाथा आती है । अस्तु
'दंसण' अर्थात् श्रद्धान या रुचिकी 'आराधतेण' आराधना करनेसे 'णाण' अर्थात् सम्यग्ज्ञान 'आराधिदं' आराधित, 'हवे' होता है । 'णियमा' निश्चयसे । जिसकी जिस विषयमें श्रद्धा होती है। उसका उस विषय में अज्ञान होने पर किसी भी तरह वह श्रद्धा नहीं होती । रुचि विषयके बिना
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