Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [29 प्रथम प्रज्ञापनापद ] प्राकाशास्तिकाय-जिसमें अवस्थित पदार्थ (पा =मर्यादा से) अपने स्वभाव का परित्याग किये बिना (प्र)काशित स्वरूप से प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है; अथवा जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रकाशित होता (रहता) है, वह आकाश है। अस्तिकाय का अर्थ-प्रदेशों का संघात है। आकाशरूप अस्तिकाय को प्राकाशास्तिकाय कहते हैं। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश का अर्थ पूर्ववत् है / यद्यपि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशात्मक है, किन्तु अलोकाकाश अनन्त है. इस दृष्टि से प्राकाशास्तिकाय के प्रदेश अनन्त हैं। __ प्रद्धासमय-अद्धा कहते हैं-काल को / अद्धारूप समय अद्धासमय है। अथवा अद्धा (काल) का समय अर्थात निविभाग भाग (अंश) 'अद्धासमय' कहलाता है। परमार्थ दष्टि से वर्तमान काल का एक ही समय 'सत्' होता है; अतीत और अनागत काल के समय नहीं; क्योंकि अतीतकाल के समय नष्ट हो चुके हैं और अनागतकाल के समय अभी उत्पन्न ही नहीं हुए / अतएव काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं हो सकती। असंख्यात समयों के समूहरूप प्रावलिका आदि की कल्पना केवल व्यवहार के लिए की गई है। स्कन्ध प्रादि की व्याख्या स्कन्ध–व्युत्पत्ति के अनुसार स्कन्ध का अर्थ होता है-जो पुद्गल अन्य पुद्गलों के मिलने से पुष्ट होते हैं-बढ़ जाते हैं, तथा विघटन हो जाने हट जाने या पृथक हो जाने से घट जाते हैं, वे स्कन्ध हैं / 'स्कन्ध' शब्द में बहुवचन का प्रयोग पुद्गल-स्कन्धों की अनन्तता बताने के लिए है, क्योंकि प्रागमों में स्कन्ध अनन्त बताए गए हैं / स्कन्धदेश- स्कन्धरूप परिणाम को नहीं त्यागने वाले स्कन्धों के ही बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशी आदि (द्विप्रदेश से लेकर अनन्तप्रदेश तक) विभाग स्कन्धदेश कहलाते हैं। यहाँ भी स्कन्धदेश के लिए बहुवचनान्त प्रयोग तथाविध अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धों में, अनन्त स्कन्धदेश भी हो सकते हैं, इसे सूचित करने हेतु है / स्कन्ध-प्रदेश-स्कन्धों के बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश को अर्थात्- स्कन्ध में मिले हुए निविभाग अंश (परमाणु) को स्कन्धप्रदेश कहते हैं / परमाणु-पुद्गल-निविभागद्रव्य (जिनके विभाग न हो सके, ऐसे पूदगलद्रव्य) रूप परम अण, परमाणु-पुदगल कहलाते हैं। परमाणु स्कन्ध में मिले हुए नहीं होते, वे स्वतन्त्र पुद्गल होते हैं।' वर्णादिपरिणत स्कन्धादि चार-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल ये चारों रूपी-अजीव संक्षेपतः प्रत्येक पांच-पांच प्रकार के कहे गए हैं / यथा-जो वर्णरूप में परिणत हों वे वर्णपरिणत कहलाते हैं। इसी प्रकार गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत भी समझ लेना चाहिए / 'परिणत' शब्द अतीतकाल का निर्देशक होते हुए भी उपलक्षण से वर्तमान और भविष्यत्काल का भी सचक है, क्योंकि वर्तमान और अनागत के बिना अतातत्व सम्भव नही है। जो वर्तमान अतिक्रमण कर जाता है, वही अतीत होता है, और वर्तमानत्व का वही अनुभव करता है, जो अभी अनागत भी है जो अभी वर्तमानत्व को प्राप्त है, वही प्रतीत होता है, और जो वर्तमानत्व को प्राप्त करेगा, वही अनागत है / इस दृष्टि से वर्णपरिणत का अर्थ है-वर्णरूप में जो परिणत हो चुके हैं, परिणत होते हैं, और परिणत होंगे। इसी प्रकार गन्धपरिणत प्रादि का त्रिकालसूचक अर्थ समझ लेना चाहिए। वर्णपरिणत प्रादि पुद्गलों के भेद तथा उनकी व्याख्या-वर्णपरिणत के 5 प्रकार–वर्णरूप में परिणत, जो पुद्गल हैं, वे 5 प्रकार के हैं-(१) कोई काजल आदि के समान काले होते हैं, वे 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 8-9-10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org