Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 28] [प्रज्ञापनासूत्र भेद-प्रभेद प्रस्तुत किये गए हैं तथा अजीवप्रज्ञापना में अरूपी और रूपी अजीवों के भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण तथा विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के एक दूसरे के साथ सम्बन्धित होने से होने वाले विकल्प (भंग) भी प्रस्तुत किये गए हैं / वैसे देखा जाए तो जीव और अजीव इन दोनों के निमित्त से होने वाले विभिन्न तत्त्वों या पदार्थों का ही विश्लेषण समग्र प्रज्ञापनासूत्र में है। जीवप्रज्ञापना और प्रजीवप्रज्ञापना ये दो ही प्रस्तुत शास्त्र के समस्त पदों (अध्ययनों) की मूल आधारभूमि हैं।' रूपी अजीव को परिभाषा-जिनमें रूप हो, वे रूपी कहलाते हैं। यहाँ रूप के ग्रहण से, उपलक्षण से शेष रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान का भी ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि रस-गन्धादि के बिना अकेले रूप का अस्तित्व सम्भव नहीं है। प्रत्येक परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला होता है। केवल परमाणु को ही लीजिए, वह भी कारण ही है, कार्य नहीं तथा वह अन्तिम, सूक्ष्म, और द्रव्य रूप से नित्य तथा पर्यायरूप से अनित्य तथा उसमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते हैं / वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं होता, केवल स्कन्धरूप कार्य से उसका अनुमान होता है। अथवा रूप का अर्थ है-स्पर्श, रूप आदिमय मति, वह जिनमें हो, वे मनिक या रूपी कहलाते हैं / संसार में जितनी भी रूपादिमान् अजीव वस्तुएँ हैं, वे सब रूपी अजीव में परिगणित हैं। प्ररूपी अजीव की परिभाषा-जिनमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि न हों, वे सब अचेतन पदार्थ प्ररूपी अजीव कहलाते हैं / अरूपी अजीव के मुख्य दस भेद होने से उसकी प्रज्ञापना--प्ररूपणा भी दस प्रकार की कही गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों के स्कन्ध, देश और प्रदेश तथा प्रद्धाकाल, यों कुल 10 भेद होते हैं / ___ धर्मास्तिकाय प्रादि की परिभाषा-धर्मास्तिकाय-स्वयं गतिपरिणाम में परिणत जीवों और पुद्गलों की गति में जो निमित्त कारण हो, जीवों-पुद्गलों के गतिरूपस्वभाव का जो धारण-पोषण करता हो, वह धर्म कहलाता है / अस्ति का अर्थ यहाँ प्रदेश है, उन (अस्तियों) का काय अर्थात् संघात (प्रदेशों का समूह) अस्तिकाय है / धर्मरूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय कहलाता है / धर्मास्तिकाय कहने से असंख्यातप्रदेशी धर्मास्तिकाय रूप अवयवी द्रव्य का बोध होता है / अवयवी अवयवों के तथारूपसंघातपरिणाम विशेषरूप होता है, किन्तु अवयवों से पृथक् अर्थान्तर द्रव्य नहीं होता / धर्मास्तिकाय का देश-उसी धर्मास्तिकाय का बुद्धि द्वारा कल्पित दो, तीन आदि प्रदेशात्मक विभाग / धर्मास्तिकाय का प्रदेश-धर्मास्तिकाय का बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश, प्रदेश–जिसका फिर विभाग न हो सके, ऐमा निविभाग विभाग। अधर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय का प्रतिपक्षभूत अधर्मास्तिकाय है। अर्थात्-स्थितिपरिणाम में परिणत जीवों और पुद्गलों की स्थित में जो सहायक हो, ऐसा अमूर्त, असंख्यातप्रदेशसंघातात्मक द्रव्य अधर्मास्तिकाय है / अधर्मास्तिकाय का देश, प्रदेश-अधर्मास्तिकाय का बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशात्मक आदि खण्ड अधर्मास्तिकायदेश, एवं उसका सबसे सूक्ष्म विभाग, जिसका फिर दूसरा विभाग न हो सके वह अधर्मास्तिकाय-प्रदेश है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं, लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 12 से 45 तक 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org