________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०
विकृविविज्ञान
दिख पड़ता है। कहीं-कहीं गुहा की प्राचीरों के ऊपर लसीका का एक स्तर जम जाता है तथा तरल के अन्दर आतंचित तन्वि के कुछ शल्कल ( flakes ) पाये जाते हैं । इसी कारण यह लस्य तन्त्विमय ( sero - fibrinous ) तरल कहलाता है । इस तरल को जब शरीर से निकाला जाता है तो वह श्लेप्यक ( jelly ) के रूप में जम जाता है ।
कभी कभी इसी तरल में रक्त के लाल कण इतनी अधिकता से आ जाते हैं कि इसका वर्ण लाल हो जाता है इसे रक्तस्रावी उत्स्यन्द ( haemorrhagic effusion ) कहा जाता है ।
जब यह व्रणशोथ शान्त होना चाहता है तो सम्पूर्ण तरल को सिराएँ तथा लसीकावाहिनियां ढो ढोकर फेंक देती हैं। जब तरल की मात्रा अत्यधिक होजाती है जिसके कारण इन वाहिनियों पर इतना भार पड़ा होता है कि वे अपना कार्य करने में अक्षम हो जायँ तब कृत्रिम रीति से तरल निष्कासन का प्रयत्न किया जाता है । लस्य व्रणशोथ सदैव साध्य होता है तथा मृदुस्वरूप का या अनुग्र होता है। इसी कारण दो तलों की अभिलग्नता नहीं देखी जाती । यदि कहीं अभिलाग ( adhesion ) बनते भी हैं तो बहुत थोड़े ।
की जा सकी तो
३. सपूय व्रणशोथ - - जब उपरोक्त उत्स्यन्दित तरल में सितकोशाओं की भरमार हो जाती है तो तरल लस्यपूय ( seropurulent ) अथवा पूर्णतः पूययुक्त हो जाता है । यह पूय स्वयमेव शरीर द्वारा प्रचूषित नहीं होता बल्कि रुका रहता है । उसे शस्त्रकर्म द्वारा यदि शरीर के बाहर निकालने की व्यवस्था न वह लसीका को मोटा कर देता है अन्तश्छदीय कोशा विलुप्त होजाते हैं उनका स्थान कणात्मक ऊति ले लेती है । पूय का एक बन्द कुण्ड सा भरा रहता है जो कालान्तर में सूख जाता है और सम्पूर्ण आधेय पदार्थ चूर्णीभूत ( calcified ) हो हैं तथा सम्पूर्ण गुहा का अभिलोपन ( obliteration ) हो जाता है ।
लसी कला में व्रणशोथ का प्रधान कारण उपसर्ग है । यह उपसर्ग आघातज
( traumatic ) भी हो सकता है जैसे किसी अंग का विदार या भाले आदि द्वारा व्रण होना और रक्तधारा या लसीकावहा द्वारा भी लाया जा सकता है । किसी अंग में उपसर्ग हो और उसके चारों ओर लस्यकला का आवरण हो तो भी लस्यकला में व्रणशोथ हो सकता है । फुफ्फुस पाककाल में ही उपसर्ग जा सकता है।
उसके पर्यावरण ( pleura ) में
एक व्रणशोथाभिकर्ता के कारण, विभिन्न अवस्थाओं में, विभिन्न प्रकार का व्रणशोथात्मक प्रतिक्रियाएँ की जानी सम्भव हैं। उदाहरण के लिए यक्ष्मा में एक स्थान पर उदरच्छद गुहा में तरल भरने से जलोदर देखा जा सकता है और दूसरे में अधः उदरच्छदोय ऊति में श्यामाकसम पिण्ड (miliary tubercles) भी देखे जा सकते हैं ।
प्रभाव - लस्यकला के व्रणशोथों में शुष्क वा अभिघट्य में सूजे हुए धरातलों के अनवरत घर्षण के कारण पर्याप्त शूल रहता है । लस्य - उत्स्यन्द की अवस्था में तरल
For Private and Personal Use Only