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प्रस्तावना
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हो गया। वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः सम्यग्दृष्टि बन गया और कुछ समय विश्राम कर वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हो गया। पुनः इस भवमें भी संयमको धारण कर मरा और वीस, बाईस या चौवीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह मनुष्य और देवोंके भवमें सम्यक्त्वके साथ तब तक परिभ्रमण करता रहा- जब तककि दूसरीवारभी छयासठ सागर पूरे नहीं हुए। दूसरी वार छयासठ सागरतक सम्यक्त्वके साथ रहनेका काल पूरा होनेपर परिणामोंमें संक्लेशकी वृद्धिसे वह गिरा और मिथ्यात्वी बन गया। इस प्रकार वह लगातार दो छयासठ अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरतक सम्यक्त्वी बना रहकर मिथ्यात्वगुणस्थानसे अन्तरित रहा। यह उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि उक्त जीव जितनेवार मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ, उतनेवार मनुष्य भवकी आयुसे हीन ही देवायुका धारक बना है। यदि मनुष्यभवसम्बन्धी आयुको देवायुमें कम न किया जाय, तो अन्तर काल एक सौ बत्तीस सागर से अधिक हो जायगा। यहां इतना और भी विशेष ज्ञातव्य है कि यह जो एक सौ बत्तीस सागरतक मनुष्य और देवोंमें परिभ्रमणकाल बतलाया गया है, वह तो मन्द बुद्धियोंको समझानेके लिए कहा है । यथार्थतः जिस किसी भी स्वर्ग या ग्रैवेयकादिमें उत्पन्न होते हुए वह एक सौ बत्तीस सागर पूरा कर सकता है ।
__ कालप्ररूपणा के पश्चात् अन्तरप्ररूपणा करनेका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक गुणस्थान या मार्गणास्थानके कालके साथ उसके अन्तरका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । कालप्ररूपणामें जिन जिन गुणस्थानों का नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल बतलाया गया है, उन उन गुणस्थानवी जीवों का नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। उनके अतिरिक्त शेष सभी गुणस्थानवी जीवों का नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर होता है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर-रहित छह गुणस्थान हैं. १ मिथ्यादृष्टि, २ असंयतसम्यग्दृष्टि, ३ संयतासंयत, ४ प्रमत्तसंयत, ५ अप्रमत्तसंयत और ६ सयोगिकेवली । इन गुणस्थानों में सदा ही अनेक जीव विद्यमान रहते हैं। हां, इन गुणस्थानोंमें से सयोगिकेवली को छोड़कर शेष पांच गुणस्थानों में एक जीवकी
अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर होता है, जिसे कि ग्रन्थका स्वाध्याय करनेपर पाठकगण भली. भांति जान सकेगे।
मार्गणाओंमें आठ मार्गणाएं ही ऐसी हैं, जिनका अन्तर होता है। शेष सब निरन्तर रहती हैं । जिनका अन्तरकाल संभव है, ऐसी मार्गणाओंको सान्तरमार्गणा कहते हैं। उन आठ में पहली है-- उपशम सम्यक्त्वमार्गणा । इसका उत्कृष्ट अन्तर काल सात अहोरात्र ( दिन-रात) है। इसका अर्थ यह है कि संसार में उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंका अधिकसे अधिक सात अहोरात्र तक अभाव रह सकता है | उनके पश्चात् तो नियमसे कोई न कोई जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करेगा ही। दूसरी सान्तरमार्गणा सूक्ष्मसाम्पराय संयममार्गणा है। इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह
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