________________
प्रस्तावना
[ ३७
इस प्रकार इस स्पर्शन प्ररूपणा में चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानोंवाले जीवों का उपर्युक्त स्वस्थानादि दश पदों की अपेक्षा अतीत काल में स्पर्शन किये हुए क्षेत्र का निरूपण किया गया है। .
५ कालप्ररूपणा
किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थानमें जीव कमसे कम कितने काल तक रहते हैं और अधिकसे अधिक काल तक रहते हैं, इसका विवेचन, कालानुगम नामके अनुयोगद्वारमें किया गया है। सूत्रकारने कालका यह विवेचन एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षासे किया है। यथामिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल तक रहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर दिया गया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें सदा ही रहते हैं, अर्थात् तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नही है, जब कि मिथ्यादृष्टि जीव न पाये जाते हों। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका काल तीन प्रकारका है- अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । अभव्य जीवोंके मिथ्यात्वका काल अनादि-अनन्त जानना चाहिए। क्योंकि उनके मिथ्यात्वका न आदि है और न अन्त । जो अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव हैं, उनके मिथ्यात्वका काल अनादि-सान्त है; अर्थात् अनादि कालसे आज तक सम्यक्त्वकी प्राप्ति न होनेसे उनका मिथ्यात्व अनादि है, किन्तु आगे जाकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति और मिथ्यात्वका अन्त होनेसे उनका मिथ्यात्व सान्त है। जिन जीवोंने एक बार सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया, तथापि परिणामोंके संक्लेशादि निमित्तसे जो फिर भी मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाते हैं, उनके मिथ्यात्वका काल सादि-सान्त जानना चाहिए। सूत्रकारने इन तीनों प्रकारके मिथ्यात्व-कालोंका निर्देश करके एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य सादि-सान्त काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है, जिसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, या प्रमत्तसंयत जीव परिणामोंके पतनसे मिथ्यात्वको प्राप्त हो और मिथ्यात्व दशामें सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः असंयत सम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या अप्रमत्तसंयत हो जाय; तो ऐसे जीवके मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण पाया जाता है। इस प्रकारके मिथ्यात्वको सादि-सान्त कहते हैं; क्योंकि उसका आदि और अन्त दोनों पाये जाते हैं। इसी सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम 'अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई जीव पहिली वार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है, तो वह अधिकसे अधिक भी मिथ्यात्व गुणस्थान में रहेगा, तो कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन में जितना काल लगता है, कुछ कम उतने काल तक ही रहेगा, उसके अनन्तर यह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्त कर और संयमको धारण कर मोक्ष चला जाता है ।
१. अर्धपुद्गलपरिवर्तनका स्वरूप जानने के लिए इस प्रकरणवाली धवला टीका, गो. जीवकांडकी भव्यमार्गणा और सर्वार्थसिद्धि अ० २ सू०८ की टीका देखना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal use only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org