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छक्खंडागम इस प्रकार चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओंके जघन्य और उत्कृष्ट कालका वर्णन एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रकृत प्ररूपणामें किया गया है । इस काल प्ररूपणाका स्वाध्याय करनेपर पाठकगण कितनी ही नवीन बातोंको जान सकेंगे।
६ अन्तर प्ररूपणा अन्तर नाम विरह, व्युच्छेद या अभावका है। किसी विवक्षित गुणस्थानवी जीवका उस गुणस्थानको छोड़ कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुनः उसी गुणस्थानकी प्राप्तिके पूर्व : .. तकके कालका अन्तरकाल या विरहकाल कहते हैं। सबसे छोटे विरहकालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरह कालको उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं। इस प्रकारके अन्तरकालका प्ररूपणा करनेवाली इस अन्तर प्ररूपणा में यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान और मार्गणास्थानसे कमसे कम कितने काल तकके लिए और अधिकसे अधिक कितने काल तकके लिए अन्तरको प्राप्त होता है।
जैसे- ओघकी अपेक्षा किसीने पूछा कि मिथ्यादृष्टिजीवोंका अन्तरकाल कितना है ? इसका उत्तर दिया गया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं। अर्थात् संसारमें सदा ही मिथ्यादृष्टि जीव पाये जाते हैं, अतः उनका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। यह जघन्य अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिके निमित्तसे सम्यक्त्व को प्राप्त कर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। वह इस चौथे गुणस्थानमें सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर संक्लेश आदिके निमित्तसे गिरा और मिथ्यादृष्टि हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्वगुणस्थानको छोड़कर और अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर पुनः उसी गुणस्थानमें आनेके पूर्व तक जो अन्तर्मुहूर्त्तकाल मिथ्यात्वपर्यायसे रहित रहा, यही उस एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानका जघन्य अन्तरकाल है ।
मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक जीवकी अपेक्षा कुछ कम दो छ्यासट सागर अर्थात् एक सौ बत्तीस ( १३२ ) सागरोपम है। यह उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई जीव चौदह सागरकी आयुवाले लान्तव-कापिष्ठ स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां एक सागरके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः तेरह सागरतक वहां रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत हो मनुष्य हो गया। यहांपर संयमासंयम या संयमको धारण कर मरा और बाईस सागरकी आयुवाले सोलहवें स्वर्गमें देव उत्पन्न हो गया। वहां अपनी पूरी आयुपर्यंत सम्यक्त्वके साथ रहकर च्युत हो पुनः मनुष्य हो गया। इस भवमें संयमको धारण कर मरा और इकतीस सागरकी आयुवाले नौंवें ग्रैवेयकमें जाकर उत्पन्न हो गया। वहांपर जीवन पर्यन्त सम्यग्दृष्टि रहा, किन्तु जीवनके अन्त में छयासठ सागर पूरे हो जानेपर मिश्र प्रकृतिका उदय आ जानेसे तीसरे गुणस्थानको प्राप्त
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