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प्रस्तावना
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समुद्वातके सात भेद हैं- वेदना समुद्घात, २ कषायसमुद्घात, ३ वैक्रियिक समुद्घात, ४ आहारक समुद्घात, ५ तैजस समुद्घात, ६ मारणान्तिक समुद्घात और ७ केवलि समुद्घात । शरीरमें रोगादिकी वेदनाके कारण जीवके प्रदेशोंका बाहिर निकलना वेदना समुद्घात है । क्रोधादि कषायोंके कारण जीवके प्रदेशोंका बाहिर निकलना कषायसमुद्घात है। देवादिकोंका मूल शरीरके अतिरिक्त अन्य शरीर बनाकर उत्तर शरीररूप विक्रिया कालमें आत्म-प्रदेशोंका मूल शरीरसे बाहिर फैलना वैक्रियिक समुद्घात है। प्रमत्त संयत साधुके शंका-समाधानार्थ जो आहारक पुतलाके रूपमें आत्म-प्रदेश बाहिर निकलते है, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं। साधुके निग्रह या अनुग्रहका भाव जागृत होनेपर जो शुभ या अशुभ तैजस पुतलाके रूपमें आत्म-प्रदेश बाहिर निकलते हैं, उसे तैजस समुद्घात कहते हैं । मरण-कालके अन्तर्मुहूर्त पूर्व जिस जीवके आत्मप्रदेश निकलकर जहां आगे जन्म लेना है, वहां तक फैलते हुए चले जाते हैं और उस स्थानका स्पर्श करके वापिस लौट आते हैं, इस प्रकारके समुद्घातको मारणान्तिकसमुद्घात कहते हैं । केवली भगवान्के आत्म-प्रदेशोंका शेष अघातिया कर्मोंकी निर्जराके निमित्त दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके रूपमें त्रैलोक्यमें फैलना केवलि समुद्घात कहलाता है । इन सात समुद्घातोंकी दशामें जीवका क्षेत्र शरीरकी अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है । इसके अतिरिक्त उपपाद कालमें भी जीवोंके प्रदेशोंका शरीरसे बाहिर प्रसार देखा जाता है। जीवका अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म लेनेको उपपाद कहते हैं। इस प्रकार १ स्वस्थानस्वस्थान, २ विहारवत्स्वस्थान, ३ वेदना, ४ कषाय, ५ वैकियिक, ६ आहारक, ७ तैजस, ८ मारणान्तिक, ९ केवलि समुद्घात और १० उपपाद । इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा करके किस गुणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने भूतकालमें कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवेचन इस स्पर्शन प्ररूपणामें विस्तारसे किया गया है। फिर भी यहांपर उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है।
मिथ्यादृष्टि जीव तो सर्व लोकमें रहते ही हैं, अतः उनका स्वस्थानगत क्षेत्र ही सर्व लोक है । उसीको उन्होंने विहारवत्स्वस्थान आदि जो पद इस गुणस्थानमें संभव हैं, उनकी अपेक्षा भी सर्व लोकका स्पर्श भूतकालमें भी किया है और भविष्यकालमें भी करेंगे ।
यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि आहारक समुद्घात और तैजस समुद्घात छटे गुणस्थानवर्ती साधुके ही होते हैं; अन्यके नहीं । केवलि समुद्घात तेरहवें गुणस्थानमें ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं। वैक्रियिक समुद्धात प्रारंभके चार गुणस्थानवर्ती देव, नारकी, या ऋद्धिप्राप्त साधुओंके होता है। भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंचोंके भी अपृथक् विक्रियारूप समुद्घात होता है। वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात चारोंही गतिवाले जीवोंके उनमें संभव पहिले, दूसरे और चौथे आदि गुणस्थानोंमें होता है ।
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