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प्रस्तावना
नीचेसे लेकर ऊपरतक सर्वत्र सात राजु ही है ।
इस चौदह राजुकी ऊंचाईवाले लोकके ठीक मध्यभागमें एक राजु लम्बी, एक राजु चौड़ी और चौदह राजु ऊंची एक लोक नाड़ी है, जिसे त्रस जीवोंका निवास होनेके कारण त्रसनाड़ी भी कहते हैं। अधोलोकमें इसी त्रसनाड़ीके भीतर सात नरक है, जहांपर नारकी जीव रहते हैं। मध्यलोकमें इसी त्रसनाड़ीके भीतर असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं जो परस्परमें एक दूसरेको घेरकर अवस्थित हैं। उन सबके बीचमें जम्बू द्वीप है, जो एक लाख योजन विस्तारवाला है । इसके ठीक मध्यभागमें सुमेरू पर्वत है, जो एक लाख योजन ऊंचा है। इस सुमेरूके तलसे लेकर नीचेके सर्व लोकको अधोलोक कहते हैं। और सुमेरूकी चूलिकासे ऊपरके लोकको ऊर्ध्व लोक कहते हैं। इस ऊर्ध्व लोकमें ही सोलह स्वर्ग, नौद्मवेयक, नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर हैं, जिनमें देव रहते हैं। वस्तुतः सुमेरु ही तीनों लोकोंका विभाजन करता है। एक राजु विस्तारवाला और एक लाख योजनकी ऊंचाईवाले क्षेत्रको मध्यलोक कहते हैं । यतः इस मध्यमें ही मनुष्य और तीर्यंच जीव रहते हैं, अतः इसका दूसरा नाम नर-तिर्यग्लोक भी है। जम्बू द्वीपको घेर कर उसके चारों ओर दो लाख योजन चौड़ा लवण समुद्र है। उसे चारों ओरसे घेरे हुए चार लाख योजन चौड़ा धातकीखंड द्वीप है । उसे चारों ओरसे घेरे हुए आठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है । उसे चारों
ओरसे घेरे हुए सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्करवर द्वीप है। इस द्वीपके ठीक मध्यभागमें मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वतसे आगे न कोई मनुष्य रहता ही है और न जा ही सकता है, इस कारण इसका नाम मानुषोत्तर पड़ा है। इस प्रकार एक जम्बू द्वीप, दूसरा धातकीखंड द्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप इन अढाई द्वीपवाले क्षेत्रको मनुष्य लोक कहते हैं । इसकी चौड़ाई मध्यभागमें सूची व्यासकी अपेक्षा पैंतालीस लाख योजन है। इससे आगे के जितने भी असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं, उन सबके अन्तमें स्वयम्भूरमण समुद्र है। मध्यलोककी समाप्ति इसीके साथ हो जाती है। इन असंख्यात द्वीप और समुद्रोंमें एक मात्र तिर्यंच जीवोंके पाये जानेसे उसे तिर्यग्लोक भी कहा जाता है । मनुष्य लोकका घनफल पैंतालीस लाख योजन है । तिर्यग्लोकका घनफल घनात्मक एक राजु है, यही मध्यलोकका भी घनफल है। अधोलोकका घनफल १९६ घनराजु है, और .उर्ध्व लोकका घनफल १४७ घनराजु है । सम्पूर्ण लोकाकाशका घनफल ( १९६+१४७=३४३) तीन सौ तेतालीस घनराजु है ।
लोकके विभागकी इतनी सामान्य व्यवस्था जान लेनेके पश्चात् यह बात तो सामान्यरूपसे समझमें आ जाती है कि नारकी अधोलोकमें, देव उर्ध्व लोकमें और मनुष्य-तीर्यंच मध्यलोकमें रहते हैं। परन्तु चौदह गुणस्थानों और मार्गणा स्थानोंकी अपेक्षा किस जातिके जीव लोकाकाशके कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम जीवस्थान खंडकी क्षेत्र प्ररूपणामें किया गया है, जिसे पाठक उसका स्वाध्याय करते हुए जान सकेंगे। यहां
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