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छक्खंडागम अनन्तराशिवालोंमें अभव्य जीव सबसे कम हैं और आगे आगे की राशिवाले जीव उत्तरोत्तर अधिक हैं। असंख्यातसंख्यावालों में देशसंयत जीव सबसे कम हैं और आगेकीराशियां उत्तरोत्तर अधिक हैं। संख्यातराशिवाले जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायसंयमी सबसे कम हैं, और आगेकी राशिवाले जीव उत्तरोत्तर अधिक है । इसप्रकार द्रव्यप्रमाणानुगमके द्वारा जीवोंकी संख्याका भलीभांति ज्ञान हो जाता है।
३ क्षेत्रप्ररूपणा सत्प्ररूपणाके द्वारा जिनका अस्तित्व जाना और संख्याप्ररूपणाके द्वारा जिनकी संख्याको जाना है, ऐसे वे अनन्तानन्त जीव कहां रहते हैं, यह शंका स्वभावतः उठती है और उसीके समाधानके लिए आचार्यने तत्पश्चातही क्षेत्रकी प्ररूपणा की। जीवोंके वर्तमानकालिक निवासको क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र कहां है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि हम जहांपर रहते हैं, इसके सर्वओर अर्थात् दशों दिशाओं अनन्त आकाश फैला हुआ है, उसके ठीक मध्य भागमें लोकाकाश है, जिसमें अनन्तानन्त जीव तथा अनन्तानन्त पुद्गलादि अन्य द्रव्य रहते हैं । द्रव्योंके रहने
और नहीं रहनेके कारण ही एक आकाशके दो विभाग हो जाते हैं। जितने आकाशमें जीवादि द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं और उससे परे दशों दिशाओंमें अनन्त आकाश है, उसे अलोकाकाश कहते हैं। इस अलोकाकाशमें एक मात्र आकाशको छोड़कर और कोई द्रव्य नहीं पाया जाता।
लोकाकाशका आकार उत्तरकी ओर मुख करके खड़े हुए उस पुरुषके समान है जो अपने दोनों पैरोंको फैलाकर और कमरपर हाथ रख करके खड़ा है। इस आकारवाले लोकके १ राजु -
स्वभावतः तीन भाग हो जाते हैं- कमरसे नीचेके
भागको अधोलोक कहते हैं, कमरसे ऊपरके ५ राजु
भागको ऊर्ध्वलोक कहते हैं और कमरवाले बीचके १ राजु -
भागको मध्यलोक कहते हैं। मध्यलोकसे नीचे जो अधोलोक है, उसकी ऊंचाई सात राजु है । सबसे नीचे उसकी चौड़ाई सात राजु है । ऊपर
क्रमसे घटते हुए मध्यलोकमें चौड़ाई एक राजु रह ७ राजु -4
जाती है। मध्यलोकसे ऊपर जो ऊर्ध्वलोक है उसकी ऊंचाई सात राजु है। किन्तु चौड़ाई सबसे नीचे अर्थात् मध्यलोकमें एक राजु है । फिर क्रमसे बढ़ती हुई वह हाथकी कोहनियोंके पास- जहांकि ब्रह्मलोक है- पांच राजु हो जाती है । पुनः क्रमसे घटती हुई वह सबसे ऊपर - जहां सिद्धलोक है- एक राजु रह जाती है । यह उतारचढ़ाववाला विस्तार पूर्व और पश्चिम दिशाके क्षेत्रका है। उत्तर-दक्षिण दिशामें लोकका विस्तार
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