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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૧૪
વ્યાકરણ
ધાતુ પારાયણ
: દ્રવ્ય સહાયક :
કચ્છવાગડ દેશોદ્ધારક અધ્યાત્મયોગી પૂ.આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન ગચ્છનાયક મધુરભાષી પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિ પૂ. આ. શ્રી મુક્તિચંદ્રસૂરિજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી મુનિચંદ્રસૂરિજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી શ્રી રાંદેર રોડ જૈન સંઘ સુરતના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
84
___810
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011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
-टी515२-संपES 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणि म.सा. | 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 015 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 | જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | 028 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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020
हार
454 226 640
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30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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60
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(04)
210
274
286
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
स
पू. लावच
218.
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी upl stGirls sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-
टीर-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056| विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
| श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
. श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
|
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन 0748न सामुद्रिन पांय jथो
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी | 376
4. 14.
060
322
532
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'075
374
238
194
192
254
ગુજ. |
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિ૨નીવન જોશ
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ ગુજ. | શ્રી સYTમારૂં નવા ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ ગુજ. | શ્રી મનસુભાન કુકરમલ
| श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શાસ્ત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરીન લોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સં. | પૂ. મેષવિનયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910 436
336
087
230
322,
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272
सं.
240
254
282
466 342 362 134 70
316 224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता / टीकाकार भाषा | संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु | हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी |सं. जैन सत्य संशोधक
सं./हि
514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754 84 194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसुरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. | शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी | गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151| सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय
सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182 384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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122
208 70
310
शा
462 512 264
| तीर्थ
144 256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण
| संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156| प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव
| पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत | पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध
शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75 488 | 226 365
संस्कृत
190
480 352 596 250
391
114
238 166
368
88
356
168
Page #9
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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GGGGGGO
कलिकालसर्वज्ञ - आचार्य शिरोमणि श्रीमद् हेमचन्द्रसूरि भगवद् विरचितम्
धातु पारायणम्
प्रेरका:
पूज्यपाद - आचार्यदेव - श्रीमद् विजय
ओङ्कार सूरीश्वराः
卐
सम्पादकः
पूज्यपाद सङ्घस्थविर - आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयभद्रसूरीश्वर शिष्यरत्न
पूज्य मुनिराज श्री जिनचन्द्र विजयान्तेवासी
मुनि मुनिचन्द्रविजयः
卐
प्रकाशकः
श्री शाहीबाग गीरधरनगर जैन श्वे. मू. सङ्घ
अमदावाद - ३८००१०
COOCCCC
उस राय के अभ्यास का कार्य धर्म मे भी ग
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________________
प्राप्तिस्थान (U सरस्वती पुस्तक भण्डार मोतीलाल बनारसीदास हाथीखाना, रतनपोल,
बंगला रोड, जवाहर नगर, अमदावाद-३८०००१
दील्ली. ओरीएन्टल बुक सेन्टर राणीना हजीरा पासे, माणेकचोक,
अमदावाद
(VEDEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEV
(KEEEEEE
प्रथम संस्करण
वीर सं. २५०५ * विक्रम सं. २०३५
* ई. सं. १९७९
। कान्तिलाल डी. शाह,
“भरत प्रिण्टरी" । दानापीठ पाछळ, पालिताना o पीन. ३६४२७०
Page #13
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DHATUPARAYANAM
EDITOR: MUNI MUNICHANDRA VIJAYA
Page #14
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First Published: 1979
PRICE: Rs. 40
PRINTED BY: KANTILAL D. SHAH
PALITANA-364270
Page #15
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પરમ તારક, યુગાદિ દેવ શ્રી ઋષભ દેવ ભગવાન
મૂળનાયક ભગવાન, શ્રી ઋષભજિન પ્રાસાદ, ગીરધરનગર,શાહીબાગ, અમદાવાદ-૩૮૦૦૧છે.
છે
Page #16
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Page #17
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જાણવા મળી રહ્યા જ પૂજ્યપાદ, શાસનપ્રભાવક, આચાર્યભગવંત શ્રીમદ્
વિજ્યકારસૂરીશ્વરજી મહારાજાનું
આ શી ર્વ ચ ન
*
*
>>>>ox>>OX>0<><> કલિકાલ સર્વશ, આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્દ હેમચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજા દ્વારા રચાયેલ અનેક ગ્રંથ પૈકીને એક ગ્રન્થ ધાતુપારાયણમ, શમસાય સંશોધન પછી, આજે જ્યારે પ્રકાશિત થઈ રહ્યો છે ત્યારે એક દુર્લભ ગ્રન્થને વિદ્વાનો અને અભ્યાસીઓ માટે સુલભ બનાવીને શ્રી શાહીબાગ ગીરધરનગર જૈન શ્વેતામ્બર મૂર્તિપૂજક સંઘે “પુ#િgf' ના શાસ્ત્રકથિત કતવ્યને ઉચિત રીતે બજાવ્યું છે તેમ કહેવાનું મન થાય છે.
આ રીતે દરેક સંધે એક એક પ્રાચીન ગ્રન્થને પ્રકાશિત કરાવતા જાય તે આપણું મૂલ્યવાન સાહિત્ય બહાર આવે અને મહાપુરુષોએ અપાર શ્રમ લઈ તૈયાર કરેલ ગ્રંથ વિદ્વાન અને અભ્યાસીઓને માટે સુલભ બન્યા કરે.
પ્રસ્તુત ગ્રંથના અધ્યયન દ્વારા સંસ્કૃત ભાષા પર અધિકારિતા પ્રાપ્ત કરી અભ્યાસીઓ પૂર્વમહર્ષિઓએ રચેલ ગ્રંથનું અવગાહન કરી જિનવાણિના અમૃત-પાન વડે મોક્ષ માગના પ્રવાસમાં આગળ વધે એ જ શુભાભિલાષા.
*
*
*
*
S
શ્રી ભીલયિાજી તીથી, વિ. સં. ૨૦૩૫ ફાગણ સુદિ ૯,
તા. ૭-૩-૭૯
-વિજયકારસૂરિ
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અચિન્ય ચિન્તામણિ શ્રીમતે ભીલડિયા પાર્શ્વનાથ ભગવતે નમઃ પૂજ્યપાદ સંઘસ્થવિર આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજયભદ્રસૂરીશ્વરજી સદગુરુ
નમઃ
ગ્રન્થ
અને પ્રકાર
વ્યાકરણ શાસ્ત્રના અધ્યયનની અનિવાર્યતા આ રીતે તરત સમજી શકાશે કે, એ ' અધ્યયનને સામે છેડે મોક્ષ તત્વ બેઠેલું છે. સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત ભાષાના વ્યાકરણના જ્ઞાન દ્વારા, પૂજનીય આગમ ગ્રન્થોમાં ગણધર ભગવતેએ ગૂંથેલી વાત અને ત્યાર પછીના ગ્રન્થમાં પણ મહર્ષિઓએ પ્રબોધેલ ઉપદેશને હૃદયંગમ બનાવી શકાય છે અને મહાપુરૂષના વચન દ્વારા હૃદયમાં પરિણત થયેલી એ ભગવદ્ વાણી જનમ-જનમનાં બધનેને દૂર ફગાવવા વાચકોને પ્રેરિત કરે એમાં શું આશ્ચર્ય ?
પરંપરાએ મેક્ષ સુખને આપનારા સંસ્કૃત વ્યાકરણ શાસ્ત્રના પાંચ અંગો પૈકીના . એક અંગ-ધાતુપાઠના વિવરણરૂપ આ ગ્રન્થરત્ન-ધાતુપારાયણમૂ-કલિકાલસર્વજ્ઞ આચાર્ય ભગવંત હેમચન્દ્રસૂરિ મહારાજાએ રચેલ સાથે ધાતુપાઠ પરની નિવૃત્તિ રૂપ છે. જેમાં ધાતુઓના વિવિધ રૂપો તથા ધાતુઓમાંથી વ્યુત્પન્ન થતાં લગભગ છ હજાર જેટલા શબ્દોની સસૂત્ર ચર્ચા કરવામાં આવી છે. •
ગ્રન્થકાર
પારદર્શી મેધાવિતા અને અજોડ શાસન પ્રભાવકતા એટલે જ આચાર્ય ભગવંત હેમચન્દ્રસૂરિ મહારાજા. વ્યાકરણ, ન્યાય, છંદ શાસ્ત્ર, સાહિત્ય, અલંકાર, ચરિત્રવર્ણન, યોગ, ધર્મશાસ્ત્ર, આદિ વિષયેની કોઈ પણ વિદ્યાશાખા લે; તે તે શાખાનું તલસ્પર્શી ઊંડાણ તેઓશ્રીને તે તે ગ્રન્થોમાં એવી અભૂત રીતે અવગાહવામાં આવ્યું છે કે, અભ્યાસી તેમાં ઉંડા ને ઉંડો ઉતરતો જાય તેમ રસનો પ્રવાહ ચોગમથી ફૂટી નીકળતા દેખાય! અને એથી જ, એક વિદ્વાનનું પૂજ્યશ્રીને અંજલી અર્પતું આ કથન મરણીય છેઃ એકલા હેમચન્દ્રાચાર્યજીને સમગ્ર ગ્રન્થનો માર્મિક અભ્યાસી સકલ શા
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વિશારદપણું મેળવી શકે એમાં શક નથી. એ ગ્રંથને વાંચનાર કંટાળતેય નથી કે થાકય નથી. એ સંજીવની સ્ત્રોત એમાં વહ્યા કરે છે...........પ્રત્યેક વિષયની રચનામાં જ્ઞાનનો પ્રચંડ ધોધ વરસી રહેલો જોઈને થઈ આવે છે કે, એમણે આ બધું ક્યારે વાંચ્યું ને લખ્યું હશે ? [ ૫. અંબાલાલ શાહ]
અને સજને કેટલું બધું વિપુલ! સાડા ત્રણ કેડ શ્લોક જેટલાં મોટા વ્યાપમાં પ્રસરેલું હેમ-સાહિત્ય, પહેલાં કહ્યું તેમ ઊંડું પણ એટલું જ છે. માત્ર લંબાઈ અને પહેળાઈ જ નહિ, ઊંડાઈ પણ સામેલ છે એ જ અનુપાતમાં ! વિપુલતા, વૈવિધ્ય અને રસપ્રાચુર્ય, બધી રીતે અજોડ છે તેમ-સાહિત્ય.
ડૉ. નેમિચંદ્ર શાસ્ત્રીના શબ્દોમાં કહીએ તો, શબ્દાનુશાસન-પ્રક્રિયામાં પાણિનીય વિયાકરણની આખી પેનલ દ્વારા જે કામ થયું છે તે એકલા હેમચન્દ્રસૂરિ મહારાજે કર્યું છે. સાચું કહીએ તે, આ દ્રષ્ટિએ, સંસ્કૃત ભાષાનું કઈ પણ વ્યાકરણ, ભલેને તે પાણિનિનું જ હોય, સિદ્ધહેમ વ્યાકરણની તુલનામાં ન આવી શકે. હેમચન્દ્રસૂરિ મહારાજે પિતાના સમયમાં ઉપલબ્ધ કાતન્ન, પાણિનીય, સરસ્વતી કંઠાભરણ, જેને, શાકટાયન આદિ તમામ વ્યાકરણ ગ્રન્થનું અવગાહન કરી સાર રહ્યો છે અને એને પિતાની અદ્દભૂત પ્રતિભા દ્વારા વિસ્તૃત અને ચમત્કૃત કર્યો છે. [આચાર્ય હેમચન્દ્ર ઔર ઉનકા શબ્દાનુશાસન : એક અધ્યયન, પૃ. ૬૭ ને આધારે].
વિ. સં. ૧૧૪૫ માં જન્મેલા આ મહાન પ્રતિભાશાળી વિદ્યાસ્વામી બહુ નાની વધુમાં પૂજ્ય દેવચન્દ્રસૂરિ મહારાજા પાસે દીક્ષિત થયા. વિ. સં. ૧૧૬૬ માં તેઓશ્રી આચાર્ય પદ વડે વિભૂષિત થયા અને પોતાની પાછળ અનેક ગ્રન્થોને મૂકીને અને અનેક શાસન પ્રભાવનાનાં કૃત્ય કરીને આ મહાપુરુષ વિ. સં. ૧૨૨૯ માં ક્ષર દહે અહીંથી સિધાવી ગયા; જે કે એમનો અક્ષર દેહ તે આપણી સામે જ છે! ગ્રન્થની ઉપયોગિતા
પ્રસ્તુત ગ્રન્થ “ધાતુપારાયણમ” સંસ્કૃત ભાષાના વ્યાકરણના અભ્યાસીઓએ વ્યાકરણનું અધ્યયન કર્યા પછી અવશ્ય અવગાહવા જેવો ગ્રન્થ છે.
પ્રસ્તુત ગ્રન્થ હ. કિર્ટ નામના જર્મન વિદ્વાને સંપાદિત કરેલો અને તે ઈ. સ. ૧૮૯લ્માં પ્રગટ થયેલો. તે જીર્ણ પણ થયા છે, દુર્લભ પણ છે. એની દુર્લભતાને
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ખ્યાલ એ પરથી આવશે કે, એની એક મુદ્રિત નકલ મેળવવા માટે અમારે કેટલાય ગ્રન્થાગારમાં તપાસ કરાવવી પડેલી અને ઘણા પ્રયત્ન એક નકલ મળેલી.
આજે આ દુર્લભ અને ઉપયોગી ગ્રન્થ સુલભ બની અભ્યાસીઓના હાથમાં જઈ રહ્યો છે એ આનંદની વાત છે.
સંપાદનમાં વપરાયેલ હસ્તપ્રત આદિનું વિવરણ સંસકૃત પ્રસ્તાવનામાં આપેલ છે. ઋણદર્શન અને ધન્યવાદ
સંપાદનના કાર્યમાં માર્ગદર્શન આપનાર પૂજ્યપાદ, વિર્ય મુનિરાજ શ્રી જબૂવિજયજી મહારાજ સાહેબના અમો અત્યંત આભારી છીએ.
શ્રી હેમચન્દ્રાચાર્ય જૈન જ્ઞાન મન્દિર-પાટણ, શ્રી સંવેગી ઉપાશ્રય, હાજા પટેલની પિળ-અમદાવાદ તથા શ્રી વિજયગચ્છ જ્ઞાન ભંડાર-રાધનપુરના કાર્યવાહકેએ તાડપત્રીય પ્રત અને હસ્તપ્રતો તથા શ્રી વિજયદાનસૂરીશ્વરજી જ્ઞાનમંદિર-અમદાવાદ ના કાર્યવાહકોએ મુદ્રિત “ધાતુ-પારાયણમ” ઉદારતાપૂર્વક વાપરવા આપેલ છે.
પાલીતાણા ભરત પ્રિન્ટરીના માલિક શ્રી કાન્તિલાલ ડી. શાહે મુદ્રણકાર્ય સંતોષકારક રીતે કરી આપ્યું છે.
શ્રી ભીલડિયાજી તીથ, ) વિ. સં. ૨૦૩૫ ફાગણ, સુદિ - 3
તા. ૭-૩-'૭૦
મુનિ મુનિચન્દ્રવિજય
SA
*
*
ક
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|| अर्हम् ॥
|| श्री शतेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ||
|| श्रीमद् विजय भद्रसूरीश्वरेभ्यो नमः ||
पुरोवाक्
इह खलु विदितमेव विदुषां व्याकरणशास्त्रस्य महत्त्वम्, न तेन विना शास्त्रेष्वस्खलिता गतिः । शास्त्रे चाकुण्ठिता मतिः निःश्रेयसफलदानमुखा सम्पनीपद्यते । उक्तं चाऽन्यत्र'व्याकरणात् पदसिद्धिः, पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ।। "
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अस्य ग्रन्थस्य प्रारम्भेऽप्यूचुः ग्रन्थकारा. कलिकाल सर्वज्ञाः श्री हेमचन्द्राचार्याः " इह तावत् पदपदार्थज्ञानद्वारोत्पन्नं हेयोपायदेयज्ञानं निःश्रेयसहेतुः इति प्रसिद्धम् । "
अतो मिःश्रेयसफलदानलब्धप्रतिष्ठस्य पञ्चाङ्गसंस्कृतव्याकरणस्यैकतमस्याङ्गस्य धातुपाठस्य विवरणात्मकमिदं ग्रन्थरत्नं- धातुपारायणम् - विदुषां करकमलेषु समर्पयन्तो वयं परमां मुदं लभामहे ।
व्याकरणस्य अङ्गानि :
इह खलु संस्कृतव्याकरणशास्त्रे पञ्च अङ्गानि । इमानि च तानि सूत्रपाठः धातुपाठः, गणपाठः, उणादिपाठः, लिङ्गानुशासनं च । अत्र सूत्रपाठी मुख्यः, शेषास्तस्योपकारिणः; ते च 'खिल' शब्देन व्यवह्रियन्ते ।
अस्ति संस्कृतव्याकरणवाङ्मये धातुपाठस्य विशिष्टं स्थानम् । शब्दानुशासनप्रवचने अनिवार्यमस्य प्रवचनम् । अत एव पूज्यपाद - देवनन्दी - कातन्त्र-चन्द्र- शाकटायनादयो वैयाकरणा स्वं स्वं धातुपाठं प्रोचुः ।
पाणिनेरपि प्राचीनस्य आपिशलेः वैयाकरणस्य बहवो धातवो यत्र तत्र ग्रन्थेषूपलभ्यन्ते ( सकारमात्रमस्ति धातुमापिशलिराचार्यः प्रतिजानीते, [ सिद्ध हेमबृहन्न्यास, १/१/२२, पृ. २२६ ]) ततोऽपि प्राक्तनस्य काशकृत्स्नस्य सम्पूर्णो धातुपाठ उपलभ्यते ।
श्री हेमचन्द्राचार्यैरपि स्वकीयधातुपाठस्य प्रवचनं कृतम् इदं ' धातुपारायणम्' तस्यैव धातुपाठस्योपरि रचितं स्वोपज्ञं विवरणम् । न केवलं धातुपाठः, अपि तु शब्दानुशासनस्य पञ्चाऽप्यङ्गानि विरचितानि तैः ।
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शब्दानुशासनस्य पश्चष्वप्यङ्गेषु शब्दानुशास्तुरेव कृतित्वमत्र सिद्धहेमशब्दानुशासन एव दरीदृश्यते । अन्यन्न ज्ञायते एकमपि व्याकरणस्य तन्त्रं यस्मिन् तस्य कत्रैव पश्चाप्यङ्गानि रचितानि ।
एके, अन्ये, केचित् :
इदं 'धातुपारायणम्', यथा पूर्वोक्तम् , धातुपाठस्योपरि रचितं स्वोपज्ञं विवरणम् , तेन अन्यतन्त्रेषु योऽनेकप्रकारो धातुपाठसम्बन्धी मतभेदो दृश्यते, स नात्र दृष्टिगोचरः ।
पाणिनीयतन्त्र एव त्रिप्रकारो धातुपाठो दरीदृश्यते- धातुप्रदीपादौ मैत्रेयादिभिः स्थीकृतः पाठः (पौर्वसंज्ञः) क्षीरतरङ्गिण्यां क्षीरस्वामिस्वीकृतपाठादतीवभिन्नो वर्तते । सायणेन माधवीया धातुवृत्तौ उपयुक्तः पाठस्ततोऽपि भिन्नः । भट्टोजीदीक्षितस्य सिद्धान्तकौमुदीगतो धातुपाठोऽपि न सर्वथा सायणेन सह संवादितां गच्छति ।
एवमन्यव्याकरणसम्बन्धिनि धातुपाठेऽपि परःशता मतभेदाः चिरकालात् प्रवर्तन्ते । हेमचन्द्रभगवद्भिः तेषामुल्लेखः यत्र तत्र स्थाने कुत्रचित् विवक्षितमतकारस्योल्लेखपूर्वकम् , बहुत्र तु नामग्राहं विना 'एके, अन्ये, केचित्' इत्युल्लेखेन सह प्रदर्शितः ।
अमीषामनिर्दिष्टप्रन्थकाराणां नामानि अन्वेष्टुं प्रवृत्तमस्माभिः, विविधधातुपाठादिव्याकरणविषयकग्रन्थावलोकनेन च यान्यभिधानानि लब्धानि तानि नवमपरिशिष्ट (पृ. ४७४ तः) तत्तद्ग्रन्थनिर्देशपूर्वकं दत्तानि ।
शब्दानुशासने धातुपाठस्य स्थानम् :... धातुपाठेन सह चत्वारोऽपि खिलपाठाः पूर्व शब्दानुशासनान्तःपातिन एव आसन् , मतिमान्धादिकारणेन पश्चात् तेषां पृथक्प्रकरणपद्धतिः प्रसिद्धेति युधिष्ठिरमीमांसकस्य मतम् (संस्कृत व्याकरण साहित्यका इतिहास भा. २, पृ. १ तः ४)। - श्रीहेमचन्द्राचार्येण भगवता अस्य धातुपारायणस्य प्रारम्भे गदितम्" श्रीहेमचन्द्रव्याकरणनिवेशितान् स्वकृतधातून् । आचार्य हेमचन्द्रो विवृणोत्यहँ नमस्कृत्य ।।"
एतत्पाठानुसारेण दृश्यते यत् तेः स्वकीयशब्दानुशासन एव धातुपाठस्य प्रवचनं कृतम् , किन्तु तत्वप्रकाशिकाख्यायां सिद्धहेमबृहवृत्तौ तत्तत्सूत्रव्याख्याने ( यथा-"दिवादेः श्यः" ३।४।७२ इत्येतस्य सूत्रस्य बृहदवृत्तौ पवमन्यत्र) दिवाधादिगणगतधातूनां केवलम् अर्थरहितं प्रवचनमुपलभ्यते, भ्वादिगणस्य तु सम्पूर्ण प्रवचनं न दृश्यते । सम्पूर्णसार्थधातुपाठः पृथक्प्रकरणत्वेनैवोपलभ्यते । सिद्धहेमशब्दानुशासनस्य लघुवृत्ति-बृहवृत्त्यादीनां हस्तलिखितप्रतिषु कुत्राऽप्यस्माभिः सार्थधातुपाठो न दृष्टः ।
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गणानां विभजनम् :
धातुपाठस्य विभजनपद्धतिः द्विप्रकारा पुरातनकालाद् विद्यते । पाणिन्यादिभिराचार्य: धावनां दशसु गणेषु विभजनं कृतम् , पाणिनेरपि प्राचीनेन काशकृत्स्नेन नवगणात्मको धातुपाठः प्रोक्तः । आचार्यहेमचन्द्रसूरयोऽपि नवगणात्मिकां धातुपाठपद्धति स्वीकृतवन्तः । एषां मते दशगणास्ते जुहोत्यादिधातूनां स्वतन्त्र गणं स्वीकुर्वन्ति; ये तु नव गणान् कथ. यन्ति ते जुहोत्यादिधातून् अदादिगण एष अन्तभूतान् मन्यन्ते । ग्रन्थस्य रचना पद्धतिः ___ अत्र ग्रन्थे, धातूनां पाठे प्रथमं परस्मैपदिनो धातवः, तत आत्मनेपदिनः, पश्चादुभयपदिनः । तत्रापि प्रथमं स्वरान्तधातवोऽनुक्रमेण, ततो व्यञ्जनान्ताः । यत्र यत्र तु क्रमभङ्गस्तत्र प्रायः प्रयोजनं निदर्शितम् ; यथा-अर्थसाम्याथम् , परम्परानुसरणार्थम् । क्वचित् वर्णक्रमो न भिद्यते यथा १ । ७४७ नाधृङ्नावत् । . धातूनां पाठानन्तरं धातोरर्थः, यत्र च अर्थविषयका स्पष्टताऽऽवश्यकी तत्र तत्र अर्थस्य पर्यायादिर्दत्तः । यत्र चकारात् अर्थस्यानुवृत्तिाद्या भवति तत्र साऽपि शब्दग्राहं दर्शिता यथा १ । ४९१ मिश ४९२ मश रोषे च, चकारात् शब्दे; शब्दने रोषक्रियायां चेत्यर्थः ।
अर्थ-पर्यायानन्तरम् वर्तमानकालतृतीय पुरुषैकवचनस्य रूपं दत्तमस्ति, ततोऽन्यानि अपि रूपाणि तत्तत्सम्बन्धिसिद्धहेमसूत्र निर्देशपूर्वकं निरूपितानि । पश्चात् सूत्रनिर्देशपूर्वक कृदन्तप्रत्ययः कृदन्ताः शब्दाः उणादिप्रत्ययैश्च उणायन्ताः शब्दाश्च साधिताः । क्वचिदेक एष शब्दः कृत्प्रत्ययेन उणादिप्रत्ययेन च साधितोऽस्ति; एतत्तु पञ्चमपरिशिष्टे शब्दसूचिदर्शनेन ज्ञातुं शक्यते । .. यत्र च अमुकः शब्दो न तस्माद् धातोः निष्पद्यते, अथ च वर्णसाम्यात् तथाविध. भ्रमस्य सम्भावना, तत्र तच्छब्दः अमुकस्माद पातोः अमुकेन सूत्रेण निष्पन्न इति स्पष्टीकरण कृतमस्ति, यथा - 'अनोकह इति तु अनितेः ओकहे' (पृ. १५६ । पं. ५)।
बहुत्र कारस्थले बकारः, सकारस्थले च शकारो मा भूत् इत्यर्थम् अयं दन्त्यौष्ठयादि. अयं दन्त्यादिः इति स्पष्टता कृता अस्ति ।
उपलब्धधातुविवरणानि :
विविधधातुपाठोपरि अद्ययावत् बढयष्टीका निर्मिताः सन्ति तासां मध्ये बहीनाम् अस्तित्वं तु यत्रतत्रागतोल्लेखादेव ज्ञायते, न तेषां ग्रन्थानामुपलब्धिः । भीमसेन देवनन्दी-चन्द्रगोम्यादीनां धातुपाठानामुपरी टीका न प्राप्यन्ते, कालकवलितास्ताः खलु ।
वोपदेवस्य ‘कविकल्पद्रुमस्योपरि दुर्गादासस्य धातुदीपिका टीका, मैत्रयरक्षितस्य धातुप्रदीपः', क्षीरस्वामिनः 'क्षीरतरङ्गिणी', आचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरेः 'धातुपारायणम्', कृष्ण
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: १२ :
लीलाशुकमुनेः 'पुरुषकार: ' ( देवस्योपरि ), सायणस्य माधवीया धातुवृत्तिः, आ. गुणरत्नसूरे: ' क्रियारत्नसमुच्चयः', श्रीहर्षकुलगणिनः 'धातुचिन्तामणिः (कविकल्पद्रुम स्योपरि), सिद्धिचन्द्रगणिनः ' धातुमञ्जरी', साधुसुन्दरगणिनः 'धातुरत्नाकर', जिनदेवसरे: 'क्रियाकलाप:', हर्षकीर्तिरे: ' धातुतरङ्गिणी' इत्यादयः बहवः धातुविवरणा उपलभ्यन्ते । ( एषां आग्रन्थसप्तकं मुद्रितम्, अन्तिमाश्चत्वारः, अद्यावधि अमुद्रिता एव आस्ते, (विशेषार्थे द्रष्टव्यः 'जैनसाहित्यका बृहद् इतिहास' भा० ५) ।
अन्ये अपि बहवो वैयाकरणाः प्रक्रियाक्रमेण व्याकरणं कुर्वन्तो निजनिजग्रन्थेषु आख्यातविभागे धातुपाठस्य टीका निर्मितवन्तः । यथा विनयविजयमहोपाध्याया: हैमप्रकाशमहाव्याकरणे, भट्टोजीदीक्षितः सिद्धान्तकौमुद्याम् ।
अस्य ग्रन्थस्य प्रकाशनस्य आवश्यकता :
जानन्ति विद्वांसो यद् अतीवोपयोगि इदं ग्रन्थरत्नम् सिद्धहेमव्याकरणस्य अध्यापकानामध्येतॄणां च । अस्य ग्रन्यस्य सम्पादनं पुरा जर्मनदेशीय 'जोह किर्स्ट' महोदयैः कृतम् आसीत्, १८९९ विष्टान्दे च स प्रकाशितः अधुना स ग्रन्थ अतीवजीर्णो दुर्लभश्च जातः
वैक्रमीये २०२८ वर्षे जिनबिम्बप्रतिष्ठार्थं पूज्यपादाचार्य भगवन्तः श्रीमदूविजयोङ्कारaraर्या बेणपग्रामम् [ बनासकाठा जिलामध्ये ] गतवन्तः । तत्रस्थभाण्डागारे मुनिश्री - हर्षविजयसम्पादितानि धातुपारायणस्य १-११२ पृष्ठानि दृष्टानि चिन्तितं तैः ग्रन्थोऽसौ अतीव सुन्दरः प्रकाशनार्हश्च ततस्तेषामादेशेनास्माभिरस्य सम्पादनम् (पृ. ११३ तः) प्रारब्धम् ।
पश्चात् १-११२ पृष्ठानां 'फोटो-ओफसेट' पद्धत्या पुनर्मुद्रणे जाते अद्यचैष ग्रन्थो देव - गुरुकृपया पूर्णीभूतः ।
सम्पादन उपयुक्त हस्तलिखित प्रतयः
पा० संज्ञक प्रति: - श्रीसङ्घवीपाडा जैन ज्ञानभण्डार (पाटण) सत्यं तालपत्रीया प्रतिः सम्प्रति श्री हेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमन्दिरे पाटणनगरे वर्तते । तत्रस्थ सूच्यनुसारेण अस्याः कमाकम् १५९ वर्तते । Catalogue of the Palmleaf Mss in the Patan Bhandar, Gaekwad's Oriental Series, Baroda No. 76 इत्येदनुसारेण अस्याः क्रमाङ्कम् २५९ वर्तते, पत्राणि १-२६३ ।
तस्या अन्ते दत्ता पुष्पिका
" समर्थितं धातुपारायणमिति, संवत् १३०७ वर्षे चैत्र वदी १३ भोम श्रीवीसलदेवकल्याणविजयराज्ये वाम .... ... पञ्चकुलप्रतिप्रन्नो श्रीचन्द्रगच्छिय श्री चन्द्रप्रभसूरिशिष्यैः आचार्य श्री नेमिप्रभ...श्रीहेमचन्द्रधातुपारायणपुस्तिका लेखिता लिखिता च ।
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પૂજ્યપાદ સંઘWવીર યુગમહર્ષિ આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્
વિજયભદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજા
જા
જન્મ :- વિ. સં. ૧૯૩૦ રાધનપુર દીક્ષા :- વિ. સં. ૧૯૫૮ રાધનપુર
આચાર્ય પદ્ધ :- વિ. સ૧૯૮૯ રાધનપુર સ્વર્ગવાસઃ- વિ. સં. ૨૦૩૩ જુનાડીસા
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:१३:
प० संज्ञकप्रति - इयं प्रतिः 'संवेगी उपाश्रय' (हाजापटेलनी पोळ अमदावाद) सत्का कागदपत्रोपरि लिखिता। क्रमाङ्कः १७१५ । पत्राणि १-९४ । प्रतिपत्रं पृष्ठ द्वयम् । प्रतिपृष्ठं १८ पङ्क्तयः, प्रतिपङ्क्ति प्रायः ६५ अक्षराणि, ग्रं. ५९६८ ।
प० १ संज्ञकप्रति :- इयं प्रतिरपि संवेगी उपाश्रय (हाजापटेलनी पोळ, अमदावाद) सत्का कागदपत्रोपरि लिखिता । 'संव १६ आषाढादि ४३ वर्षे कार्तिक वदि १४ रवौ लिखितम्' इति अन्तभागे लेखः ।
रा. १ संज्ञकप्रतिः- इयं प्रतिः विजयगच्छभण्डार ( राधनपुर ) सत्का, कागदपत्रोपरि लिखिता । क्रमाङ्कः १६७०, पत्राणि १-८९ ।
रा. २ संज्ञकप्रति :- इयं प्रतिरपि विजयगच्छभण्डार (राधनपुर ) सत्का, कागदपत्रीपरि लिखिता क्रमाङ्कः १६७१ पत्राणि ७७-९५ । अपूर्णा इयं प्रतिः । पृष्ठ ११२ पर्यन्तमुपयुक्ताः हस्तलिखितप्रतयः
(सर्वाः तालपत्रीयाः) = सङ्घभण्डार (पाटण) सत्का प्रतिः।
स.१
= खेतरवसीभण्डार (पाटण) सत्का प्रतिः । ' = वाडीपार्श्वनाथभण्डार (पाटण ) सत्का प्रतिः ।
= प्रवर्तकजीभण्डार सं. पा. १ = सङ्घवीपाडाभण्डार सं. पा.२ = " त. अथवा तपा. = तपगच्छभण्डार
आसां प्रतीनां विशिष्टं विवरणं नोपलभ्यते । कथितमेव पूर्वमस्माभिर्यत् ११२ पृष्ठपर्यन्तो ग्रन्थः सम्पादितो मुनिश्रीहर्षविजयैः ।
एतदतिरिक्ता अन्या अपि काचन तालपत्रीय-कागदपत्रीयाः हस्तलिखितपतयः उपयुक्ता अस्माभिः तत्तत् शङ्कितस्थलदर्शनार्थम् ।
प. प्रतेः अस्माभिः पूर्ण उपयोगः कृतः, अन्यासां यथासम्भवम् आंशिक उपयोगः कृतः।
अस्मदीयं संस्करणम्
ग्रन्थकृता सिद्धहेम० सूत्राणि तत्र तत्र उद्धृतानि । तत्र च दीर्घाणां सूत्राणां प्रतीका एव दत्ताः, यथा - "गतिक्विति" । वस्तुतोऽत्र “गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः' इति सम्पूर्ण सूत्रम् ,
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: १४ :
ग्रन्थकृता
" गतिक्विति” प्रतीक एव उपन्यस्तः, ईदृशेषु स्थलेषु - "गतिक्व० " ३।११४२ इति - इति निर्देशोऽस्माभिरस्मिन् सम्पादने विहितः । इत्येवमन्यत्रापि सन्धित्यागेन सूत्राणां प्रतीकानां निर्देशाः सम्प्रति उच्चार्यमाणसूत्राणां सौकर्यार्थं तत्र तत्रास्माभिर्विहिता इति ध्येयम् ।
इह पारायणे सर्वधातूनां विवरणे यदि तत्समानो धातुः अन्यस्मिन् गणे वर्तते तदा तस्य निर्देशः आचार्यैर्विवरणस्यान्ते कृतः । अस्माभिः तेषाम् अन्यगणीयधातूनां गणधातुसूचकाङ्कानि ईशे [ ] चतुष्कोणके दत्तानि ।
यत्र च द्वयोः त्रयाणां वा धातूनाम् एक एव अर्थ, तत्र धातुपाठे अन्तिमधातोरेव गणसूचकानुबन्धो दृश्यते, अथ च तेषां पृथक् पृथक् पारायणे प्रारब्धे हस्तलिखित प्रतिषु क्वचिद् अनुबन्धो दृश्यते क्वचिच्च न, अस्माभिरेषु स्थलेषु सर्वत्रानुबन्धो न्यस्तः । यथा - . पृ. १७२, पं. ९ श्वसक् ।
चुरादौ पूर्व मुद्रितसंस्करणे २६३, २६४ धातवो पश्चात् पुनरपि २६३ A २६४ A इति अङ्के दत्ते, अस्माभिस्तु अनुक्रमेण सर्वेषामङ्कं दत्तम्, अतः पूर्वसंस्करणे चुरादौ ४१३ धातवः अस्मदीये तु ४१५ धातवः ।
क्वचित् क्वचित् अत्रत्यः सिद्धहेम० सूत्रपाठः प्रचलित सिद्ध हेम पाठादू भिन्नो दृश्यते । अस्माभिरेतादृशस्थले प्रचलितपाठः स्वीकृतः, अत्रत्यपाठस्तु टिप्पण्यां निर्दिष्टः । यथापृ. १४६, टि. १, २ ।
अत्रत्यपाठस्य तदविषयसङ्गतैः अन्यग्रन्थैः सह यत्र यत्र शब्दशः अर्थशो वा साम्यं दृष्टं तत्र तत्र तुलनार्थ टिप्पण्यां निर्देशः कृतः । यथा पृ. १५२, टि. १ । पृ. ३३८, टि. १ । पृ. ३४०, टि १... ।
क्वचिद उणादिसूत्रस्य धातुपारायणीयः पाठः उणादिसूत्रप्रकरणाद् भिन्नो दृश्यते, तद्भिन्नताऽपि टिप्पण्यां दर्शिता । यथा- पृ. १८४, टि. २ | पृ. २०३, टि. २ | पृ. २२०, टि. १ ।
क्वचित् अमुक शब्दो येन उणादिसूत्रेणेह साधितः, स शब्दः तत्सूत्र विवरणे न साक्षाद् उपलभ्यते, आदिशब्देन ग्राह्यो भवति, अथ च स एव शब्दः अन्योणादिसूत्र विवरणे साक्षाल्लभ्यते, अस्माभिः टिप्पण्यां क्वचिन्निदर्शितमेतद् । यथा पृ. १४४ । टि. १ उपसंहारः
प्रुफाद्यवलोकने अनवधानादिना शीसकाक्षरभङ्गाद् वा जाता अशुद्धयः शुद्धिपत्रके दर्शिताः । अतः शुद्धिपत्रकमनुसन्धायैव ग्रथोऽध्येतव्यो विद्वद्भिः । अन्या अपि याः काश्चन अत्र दृष्टिपथ - मवतरेयुस्ताः सर्वा अपिः संशोध्य सफलयन्तु अस्माकं परिश्रमं ग्रन्थपठन-पाठन पर्यालोचनेन इति सप्रश्रयम् अभ्यर्थयामहे ।
स्खलना
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उपकृतिस्मृतिः
विविधभाषकोविदःभारतीयदर्शनशास्त्रविशारदैः जिनागमतत्वकुशलैः पूज्यमुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजान्तेवासिभिः मुनिराजश्री जम्बूविजयमहाराजैः भूयो भूयो मार्गदर्शनप्रदानेन बहुसाहाय्यं कृतम् । अनेकशः परामर्शदानेन च समये समये मम क्षतयः परिमार्जिताः, अतः ते विशेषत उपकारिणः । ___ पूज्य मुनिराजश्री यशोविजयमहाराजानां प्रेरणया साहाय्येनैव च ग्रन्थोऽयं सम्पादितो मया । न केवलं तैः पाठान्तरग्रहणे मुद्रणाहप्रतिलिपिलेखने प्रूफशोधन एव च साहाय्यं कृतम् , अपि तु सर्वप्रकारेण मम योगक्षेमरक्षा कृता । किश्च, ते मम गृहस्थावस्थायां ज्येष्ठभ्रातरः अधुना च विविधशास्त्राध्यापनेन विद्यागुरवः। तेषामेव असीमवात्सल्यात् सर्वथा साहाय्याच्चैवेदं ग्रन्थरत्नं निश्चिन्तमनसा मया सम्पादितम् । वस्तुतः अस्य समग्रसम्पादनसौष्ठवस्य यशः तेषामेव ।
परिशिष्टानां प्रूफशोधने बालमुनिमहायशविजयेनाऽपि साहाय्यं कृतम् ।
परमकृपालुपरमात्मनः परमोपकारीणां परमपूज्यानां प्रातःस्मरणीयानाम् आचार्यदेवेश-श्रीमद्विजयभद्रसूरीश्वराणां च परमकृपया साहाय्याश्चैव इदं कार्य सम्पन्नमिति तेषां चरणेषु अनन्तशः प्रणिपातं विधाय प्रभुश्रीयुगादिदेवस्य ऋषभजिनेशस्य जन्म-दीक्षाकल्याणक पवित्रिते अद्य दिने
प्रणिपत्य युगादीशं महायाम्येतेन कुसुमेन ।
]
.
विक्रम संवत २०३५
फल्गुनकृष्णा अष्टमी श्री ऋषभदेव जन्म-दीक्षा
कल्याणकदिनम्
जुनाडीसा (जिल्ला बनासकांठा)
उत्तरगुजरात
इत्यावेदयति पूज्यपादाचार्यदेवेशश्रीमद्विजयभद्रसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादमुनिराजश्रीजिनचन्द्रविजयान्तेवासी
मुनि मुनिचन्द्रविजयः
है
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શ્રુતસું દિલ માન્યો !
[ પ્રકારાકીય નિવેદ્યન ]
સીએના વિશાળ પટને ભેટ્ટીને શ્રુતની ગંગા આપણા યુગના કાંઠા લગી આવી પહેાંચી છે આજે. ભગવાણીના નીરન્તુ આચમન આપણને કરાવવા માટે, તેમાં ગળાડૂબ નાહીને જાતને નિર્મળ બનાવવાની તક આપવા સારુ.
વાણી. ભગવાનની વાણી, રાગ અને દ્વેષથી ગઢાઈ ચૂકેલા વ્યક્તિાને સ્વસ્થ બનાવતી પાવની વાણી. એકાદી છાલક-આ ગંગાના નીરની–પણ જો પડી જાય હૈયામાં, તે સંસારના ખાળી નાંખતા અસહ્ય તાપ કયાંય છૂમ'તર થઈ જાય ! અનિવ ચનીય શાન્તિથી હૈયુ` છલક છલક છલકાવા માંડે. સંભળાય છે પેલી નદીના ધીરા, મધુરા, મીઠા અવાજ ? ભગવાનના પવિત્ર શબ્દાનું... એવુ' શ્રવણ, જે એકવાર સભળાયા પછી દુનિચામાં ખીજું કંઇ સાંભળવાનું મન જ ન થાય. જિન વચન–રસ એવા મીઠા મધુરા લાગે કે બીજા બધા રસ એની આગળ સાવ ફિક્કા સ લાગે !
વાણી. પ્રભુની વાણી. પણ આત્મીયતાને પુટ આપવા સારુ મારાપણાની ભાવના એમાં ઉમેરીએ તે ! · મારા ભગવાનની વાણી.' મમત્વ ચમત્કાર સર્જે છે. પવિત્ર શબ્દોને મમત્વના સેાનાનાં ઢાળે રસવામાં આવ્યા છે ને ! મારાપણાને સ્પર્શી. એક નાનકડી શી વાત વસ્તુના વસ્તુને કેવા નવા ઘાટ આપી રહે છે એ સાશ્ર્ચય જોવાને વારા હવે આપણે છે. સસારના મમત્વને ભૂંસવા માટે દેવાધિદેવ પરતુ મમત્વ ગાઢ બનાવવું પડશે.
જે કે, પૂજનીય આગમ ગ્રંથા સીધી રીતે આપણને–શ્રાવકને વાંચવાના અધિ કાર નથી. પણ પૂજનીય મુનિ ભગવંતાને મુખેથી આપણે જરૂર એ સાંભળી શકીએ. પ્રસ્તુત ગ્રંથરત્ન
પૂજનીય આગમ ગ્રન્થાની ભાષા પ્રાકૃત છે. જ્યારે આગમ ગ્રન્થા પરની ટીકાએ તથા અન્ય મહર્ષિઓએ લખેલ ગ્રન્થાની ભાષા મુખ્યતયા સ`સ્કૃત છે. એટલે એ ગ્રન્થાના હાઈ સુધી પહોંચવા માટે આ બે ભાષાએ પરની પકડ અનિવાર્ય છે.
પ્રસ્તુત ગ્રન્થરત્ન ‘ ધાતુ પારાયણમ્’ સંસ્કૃત ભાષાના વ્યાકરણના અધ્યયન પછી અવશ્ય અવગાહવા જેવા ગ્રન્થ છે. પૂજ્ય મુનિવરશ આદિને અધ્યયન માટે ખૂબ જ જરૂરી એવા આ ગ્રન્થ સાત-આઠ દાયકા પહેલાં પ્રસિદ્ધ થયેલ હતા. હાલ તે અત્યન્ત ભ-અને તેય અતિ જીણુ અવસ્થામાં હાઇ, વિ. સ’. ૨૦૩૦માં અમારા શ્રી સંઘમાં ચાતુર્માસાથે પધારેલ પૂજ્યપાદ, સઘસ્થવિર આચાર્ય ભગવ'ત શ્રીમદ્ વિજયભદ્રસૂરી
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:૧૭: શ્વરજી મહારાજાના પટ્ટધર પૂજ્યપાદ શાસનપ્રભાવક આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજય
કારસૂરીશ્વરજી મહારાજાની પ્રેરણાથી અમારા શ્રી સંઘે પ્રસ્તુત ગ્રન્થરત્નને પ્રકાશિત કરવાનો નિર્ણય કર્યો અને આજે એ ગ્રન્થરત્નને વિદ્વાનના કરકમળમાં મૂકવા અમો ભાગ્યશાળી બન્યા છીએ. ઉંચે આકાશે લહેરાય, દવજ શાસનને !
ગ્રન્થ પ્રકાશનના આજના આ ભવ્ય પ્રસંગે, અમારા શ્રીસંઘને મળેલ અન્યાન્ય લાભોની યાદ સહેજે જ આવી જાય છે.
અમારે આંગણે, નૂતન નિર્મિત શ્રી ઋષભજિન પ્રસાદમાં મૂળનાયક શ્રી ઋષભદેવ ભગવન્તની પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ પૂજ્યપાદ, સંઘસ્થવિર આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજય સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજની નિશ્રામાં ઉજવાય હતા.
વિ. સં. ૨૦૦૯ના જેઠ સુદિ ૧૦ ને દિને ઉજવાયેલ આ પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવમાં મૂળનાયક શ્રી ઋષભદેવ ભગવાન આદિના ત્રણ તારક બિબની તથા ધ્વજદંડની પ્રતિછાનો લાભ શેઠ માણેકલાલ મોહનલાલે લીધે હતે.
આ પહેલાં, સંઘની સ્થાપના થઈ ત્યારથી શેઠ જમનાભાઈ ભગુભાઈના બંગલે આવેલ ગૃહ ચૈત્યમાં દર્શન-પૂજનનો લાભ મળતો હતો. ત્યાર બાદ ધર્મનિષ્ઠ શેઠાણી પૂ. માણેકબાની સૂચના મુજબ ઉક્તિ નવીન જિનાલયનું નિર્માણ થયેલ.
પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ પછી, દેવ-ગુરુકૃપાથી એકધારી રીતે જૈન પરિવારની વૃદ્ધિ અમારા શ્રીસંઘમાં થતી ગઈ. અને તેથી “સાંકડા ભાઈ પર્વના દા'ડા” ને બદલે દર્શનાર્થીઓ અને પૂજનાર્થીઓના સમૂહથી રોજ દહેરાસર સાંકડું પડવા લાગ્યું! આથી વિ. સં. ૨૦૩૦માં અમારા શ્રી સંઘમાં ચાતુર્માસાથે પધારેલ પૂજ્યપાદ, સંઘસ્થવિર આચાર્ય ભગવન્ત શ્રીમદ વિજય ભદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજા તથા તેઓશ્રીને પટ્ટધર પૂજ્યપાદ, શાસન પ્રભાવક આચાર્ય ભગવંતશ્રીની પ્રેરણાથી અમારા શ્રીસંઘે શ્રી ઋષભજિન પ્રાસાદની બન્ને બાજુએ બે દેવકુલિકાઓ તથા ગૂઢ મંડપની આગળ નૃત્ય મંડપ બનાવવાનો નિર્ણય કર્યો અને તદનુસાર દેવકુલિકાઓ અને નૃત્યમંડપ તૈયાર થઈ જતાં નૂતન નિર્મિત દેવકુલિકાઓમાં પ્રતિષ્ઠિત કરવા માટે તારક પરમાત્માઓના બિંબ ભરાવવામાં આવ્યા. અંજનશલાકા મહોત્સવ
નવીન ભરાવાયેલ પરમાત્માના બિઓની અંજનશલાકા અને પ્રતિષ્ઠાને મહેત્સવ હવે નજીક આવવા લાગ્યો. પૂજ્યપાદ વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ આચાર્ય ભગવત શ્રીમદ્ વિજય રામચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજાની પાવન નિશ્રામાં આ મહોત્સવ ઉજવાવાન હતું. શ્રી જમનાભાઈ શેઠના બંગલે વિશાળ શમિયાણાઓ બાંધી ભવ્ય નગર
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ખડું કરવામાં આવ્યું અને ત્યાં જ કલ્યાણકની ઉજવણી કરવામાં આવી. કલ્યાણકોની ઉજવણી પ્રસંગે પૂજય પાદશ્રીના તે તે કલ્યાણકને અનુરૂપ પ્રવચને સાંભળવા એ જીવનને લહાવો હતો.
વિવિધ પૂજનો દ્વારા ભગવભક્તિ અને સાધર્મિક વાત્સલ્ય દ્વારા સંઘભક્તિ કરવામાં આવી હતી. વિ. સં. ૨૦૩૪ના વૈશાખ મહિને ઉજવાયેલ આ મહોત્સવ અનેક રીતે યાદગાર બન્યો હતો. અંજનશલાકા વિધિ છે. સુ. ૫ ના માંગલિક દિને અને પ્રતિષ્ઠાવિધિ વિ. . ૬ ના શુભ દિને થયેલ. તપ-ભક્તિ મહોત્સવ
પૂજ્યપાદ, વર્ધમાન તપેનિધિ આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ વિજય રાજતિલક સૂરીશ્વરજી મહારાજા ની ૨૦૦ (૧૦૦+ ૧૦૦) મી ઓળીની પૂર્ણાહુતિ નો શક્કર્તી મહોસવ પણ અમારે આંગણે ઉજવાયો હતો. વિ. સં. ૨૦૩૪ ના ફાગણ મહિને પૂજ્યપાદ, વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ આચાર્ય ભગવન્ત શ્રીમદ વિજય રામચન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજાની નિશ્રામાં ઉજવાયેલ આ મહોત્સવનો સંપૂર્ણ લાભ અમારા સંઘના અગ્રણી, દાનવીર શ્રેષ્ટિવર્ય શ્રી માણેકલાલ મેહનલાલે લીધા હતા. સુકૃત કરણી કેરાં લહાવા, ફરી ફરી મળ્યા કરે !
અમારા શ્રી સંઘને આ મહાન પુર્યોદય છે કે આવાં સુકૃતનાં કાર્યો કરવાને લાભ અવાર નવાર મળ્યા જ કરે છે. - જિનાલયના નિર્માણ પછી, ગં. સ્વ. પિટબહેને પાઠશાળા માટે (ઉપાશ્રય માટે) : જગ્યા આપતાં શ્રી. પિટબહેન પાઠશાળા વિ. સં. ૨૦૧૪ માં અસ્તિત્વમાં આવી.
શ્રી યુત શામળદાસ વનમાળીદાસે તેમનું નિવાસસ્થાન શ્રાવિકા ઉપાશ્રય માટે શ્રી સંઘને અપર્ણ કર્યું છે. - શેઠ લક્ષ્મીચંદ ગોદડદાસના સુપુત્રએ પૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રીમદ વિજયભદ્રસૂરીશ્વરજી જ્ઞાન મન્દિર અને શેઠ લક્ષમીચંદ ગોદડદાસ વ્યાખ્યાન હૉલ બંધાવી શ્રી સંઘને સમપિત કરેલ છે.
પૂજ્યપાદ, વર્ધમાન તપેનિધિ આચાર્ય ભગવન્ત શ્રીમદ વિજય રાજતિલકસુરીશ્વરજી મહારાજાના સદુપદેશથી શેઠ માણેકલાલ મેહનલાલ તરફથી શ્રીમતી લીલાવતી બહેન માણેકલાલ આયંબિલ ખાતું શરૂ થયેલ છે.
આમ અનેક ધર્મસ્થાનેથી શોભતે અમારે સંઘ વધુ ને વધુ ધર્મારાધના સંમુખ બને એવી આશિષ ગુરુવર્ગ પાસેથી ચાહીએ છીએ. પોપટબહેન જૈન પાઠશાળા
નિવેદક : ગીરધર નગર, શાહીબાગ
કાર્યવાહકે, અમદાવાદ-૩૮૦ ૦૧૦
શ્રી શાહીબાગ ગીરધરનગર તા. ૨૦-૭ ૭૯
જૈન શ્વે. મૂ. સંઘ,
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पिपईजी NIPR-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1 -1
पूज्यपाद-सङ्घस्थविर-आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयभद्रसूरीश्वरसद्गुरूणां
स्तुत्यष्टकम् रचयिता : विद्वद्वर्यः पूज्यमुनिवर्यः अरविन्द विजयः
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क्षमामार्दवादौ खलु प्राप्तसिद्धि,
सदातोक्तिसंस्मारणे संप्रलग्नम् । तपःपूतगात्रं सुवात्सल्यमूर्ति,
नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रमरिम् ॥ १ ॥ पुरं पावितं जन्मना राजधन्यं,
कुलं द्योतितं प्राक्तनैः पुण्यदीपैः । खरत्ने पुनर्नन्दचन्द्रे सुयोगे,
नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रसरिम् ॥ २ ॥ व्रताकासयाऽभिग्रहा भीष्मपाल्याः,
कृता येन शान्तात्मना स्वान्तशुद्धौ । परित्यक्तवान् मर्त्य भोगांस्ततो यः,
__ नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रपरिम् ॥ ३ ॥ उदासीनभोगश्च वैराग्यमग्नः,
प्रभुभक्तिलीन: पुना राजमान्यः । • अगृह्णद् व्रतं बन्धुभार्यासमेतः,,
__नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रमरिम् ॥ ४ ॥ पुराणेषु तीर्थेषु यात्राः पवित्राः,
महासङ्घसाधं घनाश्चक्रिवान् यः । पुन नबिम्बप्रतिष्ठा विशुद्धाः,
नमामि त्रिधाश्री गुरुं भद्रपरिम् ॥ ५ ॥
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E E111115151EFELEMEEनागराताराना HLESEASEASEZAARAKSHAMATAR I TMANASAMAJORJASAJASTRJASRIGAWONCLE
निजानन्दश्री प्राप्तुकामा भवन्तः,
तदानीं गुरोः पादमूलं श्रयध्वम् । अनन्तं शिवं च प्रयातातिशीघ्रम् ,
नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रसरिम् ॥ ६ ॥ गुरोः वर्गवासश्च डीसानगर्यो,
चतुर्युक्शतायुप्रकृष्टं गतस्य । । प्रशान्तै रसैः पूरितं पूर्णकाम,
नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रसरिम् ॥ ७ ॥ यदीयं मनस्त्यागवैराग्यपूतं,
मुखं सौम्ययुक् शारदं पूर्णचन्द्रम् । सुधास्पर्धिनी वाग् यदीया सुमिष्टा,
नमामि त्रिधा श्रीगुरुं भद्रमरिम् ॥ ८ ॥ गुणाः प्रस्तुताः भद्रसरेः सुवर्णाः,
भुजङ्गप्रयातेन वृत्तेन युक्ताः । स्मरन्ति प्रभाते सुभक्त्या च ये ते,
लभन्तेऽरविन्द श्रियं शंप्रमृताम् ॥ ९ ॥
नवधा ब्रह्मगुप्ताय,
प्राप्ताय शमसम्पदम् । सिद्धान्तमातृभक्ताय,
भद्राय गुरवे नमः ॥ १० ॥
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પૂજ્યપાદ શાસન પ્રભાવક આચાય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજયૐકારસૂરીશ્વરજી મહારાજા
જન્મ :- વિ. સં. ૧૯૭૯ ઝિંઝુવાડા દીક્ષા – વિ. સ”. ૧૯૯૦ ઝિંઝુવાડા
:
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પન્યાસપદઃ– વિ. સ. ૨૦૦૬ રાધનપુર આચાય પદઃ– વિ.સં. ૨૦૧૦ મહેસાણા
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અણમોલ ખજાનો શ્રુતનો
-પૂજ્ય મુનિરાજશ્રી અરવિનવિજ્યજી મહારાજ સાહેબ.
કલિકાલ સર્વજ્ઞ, આચાર્ય ભગવંત હેમચન્દ્રસૂરીશ્વજી મહારાજાનું સાહિત્ય એવડા મોટા વ્યાપમાં ફેલાયેલું છે કે, એનું માપ લેવું તે દરિયામાં દોટ મૂકવા જેવું દુષ્કર ગણાય. કલિકાલ સર્વજ્ઞશ્રીની એ સર્વજ્ઞતા-બધા વિષયો પરના અધિકારિતાપૂર્ણ પ્રભુત્વને આછેરે આભાસ આપી રહ્યા છે એમને કેડીબંધ ગ્રન્થઃ કેટ કેટલા વિષય પર કેટ કેટલા ગ્રંશે
કાળના પ્રવાહમાં અને ખાસ કરીને તે રાજકીય અંધાધૂંધીના ગભર્યા વહે ણમાં તેઓ શ્રીમદ્દના કેટલાય ગ્રન્થ નામ શેષ થઈ ગયા; છતાં અત્યારે જેટલું હેમસાહિત્ય ઉપલબ્ધ છે, તે પણ એટલું બધું વિસ્તૃત અને સર્વાગીણ છે કે તેને અભ્યાસી તે તે ગ્રંથોનું અવગાહન કરી તે તે વિષયોને નિષ્ણાત બની શકે.
આ સાહિત્યને સુરક્ષિત રીતે સાચવીને આપણા સુધી પહોંચાડવા માટે એ યુગના શ્રાદ્ધવએ જે ભગીરથ પુરુષાર્થ ખેડેલો, તે તેમની અણમોલ શ્રતભક્તિની આછેરી ઝાંય દર્શાવી રહ્યો છે. આ ઉત્કટ શ્રુતભક્તિએ જ અત્યારે ઉપલબ્ધ એવી હેમસાહિત્યની ગંગાને આપણું દ્વાર સુધી લાવી છે. - પરમહંત કુમારપાળ મહારાજાના નિધન પછી, એમના અનુગામી ગૂર્જર શાસક તરીકે આવેલા અજયપાળે પોતાના પુરોગામી પરના દ્વેષથી જ્યારે કુમારપાળનાં અમર સર્જન સમા ભવ્ય જિનમંદિરને અને ગ્રન્થાગારોને નષ્ટ કરવા માંડ્યા ત્યારે સમય પારખુ, અગમચેતી શ્રાવકોએ રાતોરાત એ પવિત્ર ગ્રંથને પાટણથી જેસલમેર અને અન્ય સુરક્ષિત સ્થળોએ પહોંચાડી દીધાં. પાટણમાં પણ ભોંયરા વગેરેમાં અમુક ગ્રંથ સાચવ્યા. અલંકારોની પેટીઓની સુરક્ષા કરતાં ય વધુ જાળવણી ગ્રન્થ પિટકાની એમણે કરેલી. ધન્ય છે એમની એ શ્રુતભક્તિને ! એમની એ શ્રુતભક્તિ અને સમયસૂચકતાએ શ્રતને આ અણમોલ ખજાને આપણા સુધી હેમખેમ પહોંચાડ્યો.
હવે એ ખજાનાના દિવ્ય રત્નોને બહાર કાઢીને વિદ્વાનો અને અભ્યાસીઓના હાથમાં મૂકવાનું કામ અત્યારના શ્રુતભક્ત શ્રાદ્ધવએ કરવાનું છે અને એમ પિતાના પુરોગામીઓના પગલે પગલે ચાલવાનું છે.
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પ્રસ્તુત ગ્રન્થ “ધાતુ પારાયણમ ” સંસ્કૃત વ્યાકરણના ઉચ્ચ અભ્યાસીઓ માટે આશીર્વાદ રૂપ બનશે એમાં શક નથી. સંસ્કૃત વ્યાકરણના મારા વર્ષોના અધ્યાપનના આધારે હું કહી શકું કે, વ્યાકરણના અધ્યાપન પછી આ ગ્રન્થનું અધ્યાપન અધ્યાપકોએ અવશ્ય કરાવવું જોઈએ. તેમ થવાથી વિદ્યાર્થીએ કરેલ સંસ્કૃત વ્યાકરણનું અવગાહન વધુ ઊંડું બનશે.
- દરેક સંસ્કૃત-પ્રાકૃત પાઠશાળાના અધ્યાપકોને મારો દ્રઢ અનુરોધ છે કે, તેઓ પિતાની પાઠશાળામાં અભ્યાસીઓને પ્રસ્તુત ગ્રંથનું અધ્યયન કરાવે જ.
' દેસાઇવાસ,
રાધનપુર . વાયા-પાલનપુર તા. ૨૦-૭-૭૮
પર માણેકલાલ હરગોવનદાસ સેનેથા,
(સાહિત્યશાસ્ત્રી) અધ્યાપક, શ્રીમદ્ વિજયભદ્રસૂરીશ્વરજી સંસકૃત-પ્રાકૃત પાઠશાળા-રાધનપુર,
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सम्पादनोपयुक्तग्रन्थसूचिः
ग्रन्थाः अनेकार्थसङ्ग्रहः (कैरवकटीका युतः ) अभिधानचिन्तामणिः ( स्वोपज्ञवृत्तियुतः ) अमरकोशः (व्याख्यासुधाव्याख्यायुतः) आख्यात चन्द्रिका उणादिविवरणम् कविकल्पद्रुमः [वोपदेवरचितः, दुर्गादासकृतधातुदीपिकाव्याख्यासमेतः] कविरहस्य काशकृत्स्न धातुव्याख्यानम् (चन्नवीरकविकृतकर्नाटकटीकायाः संस्कृतरूपान्तरम् , *प्र. भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान-अजमेर) काव्यप्रकाशः काव्यालङ्कारसूत्राणि (वामनकृतानि ) काशिका वृत्तिः कीरातार्जुनीयकाव्यम् कुमारसम्भवकाव्यम् क्रियारत्नसमुच्चयः क्षीरतरङ्गिणी (क्षीरस्वामिविरचिता प्र. रामलालकपूर ट्रस्ट अमृतसर) गणरत्नमहोदधिः चान्द्रव्याकरण (.प्र. राजस्थानप्राच्यविद्याप्रतिष्ठान ) जैन साहित्यका बृहद् इतिहास भा. ५ (प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान) दैवम् (पुरुषकारवार्तिकयुतम् ) व्याश्रयकाव्यम् (सटीकम् ) धातुकाव्य धातुप्रदीपः (प्र. वीरेन्द्र रीसर्च सोसायटी राजशाही)
* इदं तु ध्येयम्-पृ. १-११२ पर्यन्त ग्रन्थटिप्पने प्रयुक्तग्रन्थानां पृष्ठाङ्काः कस्य संस्करणस्य इति न जानीमः । अत्र तु शेषप्रन्थोप्रयुक्तग्रन्थपृष्ठावाः यस्य यस्य संस्करणस्य तस्यैव प्रदर्शनम् ॥
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ग्रन्थाः निघण्टुशेषः (वल्लभगणिकृतटीकायुतः) निरुक्तम् न्यायसङ्ग्रहः न्यासः (जिनेन्द्रबुद्धिकृतकाशिकाव्याख्या) पदमञ्जरी (काशिकाव्याख्या) पाणिनीयव्याकरणम् पाताञ्जलमहाभाष्यम् (प्रदीपयुतम्) माधवीया धातुवृत्तिः (प्र. प्राच्यभारतीप्रकाशनम् ई. स. १९६४) मेदिनीकोषः लघुन्यासः (कनकप्रभसूरिकृतः) वाक्यपदीयम् विश्वप्रकाशः शिशुपालवधकाव्यम् सिद्धहेमबृहदवृत्तिः सूर्यशतकम् संस्कृतव्याकरण शास्त्र का इतिहास (लेखक-युधिष्ठिर मीमांसक) सिद्धान्त कौमुदी (तत्वबोधिनीयुता) हर्षचरितम् हैमलिङ्गानुशासनम् ( स्वोपज्ञटीका-दुर्गपदविवरणयुतम् )
संकेत विवरणम्
टि. = टिप्पन टी. = टीका द्र. = द्रष्टव्य पृ. = पृष्ठ भा. = भाग वि. = विवरण
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विषय
पृष्ठ
આશીવચન ગ્રન્થ અને ગ્રન્થકાર पुरो वाक् श्रुतसु हिल भान्या! . स्तुत्यष्टकम् અણમેલ ખજાને શ્રુતને
ग्रन्थानुक्रमः
विषय આવકાર सम्पादनोपयुक्तग्रन्थसूचिः संकेतविवरणम् स्वोपज्ञं धातुपारायणम् . परिशिष्टानि | शुद्धिपत्रकम्
१-३५८ ३५९-४९० ४९१
पृष्ठ
अ....नु....क्र....म....णि....का विषय
पृष्ठ | विषय भ्वादिगणः १-१६० दिवादिगणः
२०१-२३६ परस्मैपदिधातवः १-७३ परस्मैपदिधातवः
२०१-२२४ आत्मनेपदिधातवः
७३-११२ दिवाधन्तर्गणः पुषादि गणः । २०८-२२४ उभयपदिधातवः । ११३-१२९ आत्मनेपदिधातवः
२२४-२३४ धुतादिधातवः
१२९-१३५ शमादिधातवः
२१९-२२३ ज्वलादिधातवः १३५-१४५ स्वादिधातवः
२२४-२२६ यजादिधातवः १४५-१५१ उभयपदिधातवः
२३४-२३६ घटादिधातवः १५२-१६० स्वादिगणः
२३७-२४६ अदादिगणः
१६१-२०० उभयपदिधातवः
२३७-२४० परस्मैपदिधातवः
१६१-१८१ परस्मैपदिधातवः
२४१-२४५ यङ्लुक्
१८०-१८१ आत्मनेपदिधातवः
२४५-२४६ आत्मनेपदिधातव. १८१-१८८ तुदादिगणः
२४७-२७७ उभयपदिधातवः
१८८-१९१ उभयपदिधातवः
२४७-२५०
२४९-२५१ अदाद्यन्तर्गणः ह्वादिगणः १९१-२००
मुचादिधातवः परस्मैपदिधातवः
२५०-२७५ परस्मैपदिधातवः
१९१-१९५ आत्मनेपदिधातू
१९५-१९६
तुदाधन्तर्गणः कुटादि गणः २७०-२७६ उभयपदिधातवः १९६-२०० । आत्मनेपदिधातवः
२७५-२७७
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:२६:
विषय
रुधादिगणः उभयपदिधातवः परस्मैपदिधातवः आत्मनेपदिधातू
तनादिगणः परस्मैपदिधातवः आत्ममेपदिधातू क्रयादिगणः उभयपदिधातवः परस्मैपदिधातवः
याधन्तर्गण: प्वादिगणः प्वाधन्तर्गणः ल्वादिगणः आत्मनेपदिधातुः चुरादिगणः परस्मैपदिधातवः अर्थविशेषे धातवः
पृष्ठ विषय २७८-२८४ आत्मनेपदिधातवः
३३३-३३९ २७८-२८० अदन्ताधातवः
३३९-३५० २८०-२८४ परस्मैपदिधातव:
३३९-३४९ २८४-२८४ आत्मनेपदिधातवः
३४९-३५० युजादिधातवः
३५१-३५८ २८५-२८८
१ परिशिष्टम् कण्ड्वादिधातवः ३५९ २८५-२८७
सौत्रा धातवः ३६०-३६३ २८७-२८८
लौकिकादिधातव ३६४ . २८९-३०७
धातुसूचिः ३६५-४०० २८९-२९४
शब्दसूचिः ४०१-४६९ २९५-३०६
उद्धृतग्रन्थकारसचिः ४७० २९२-३००
उद्धृतग्रन्थसूचिः ४७० २९२-३००
उद्धरणसूचिः ४७१-४७३ ३०६-३०७
मतान्तरसूचिः ४७४-४८८ ३०८-३५८
विशेषटिप्पणानि ४८९-४९० ३०८-३३३
| ११ " न्यायसूधिः । ४९० ३२३-३३५ । शुद्धिपत्रकम्
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0
manand
ATRO
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धातुपारायणम्
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Page #45
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॥ ॐ एँ नमः ॥ ॥ आचार्यपुङ्गवश्रीमद्विजयभद्रसूरीश्वरपादपनेभ्यो नमो नमः॥ कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं
धातुपारायणम्।
॥ अहम् ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्रव्याकरणनिवेशितान् स्वकृतधातून् ।
आचार्यहेमचन्द्रो, विवृणोत्यहं नमस्कृत्य ॥ 'इह तावत् पद-पदार्थज्ञानद्वारोत्पन्नं हेयोपादेयज्ञानं निःश्रेयसहेतुः' इति प्रसिद्धम् । ‘पद-पदार्थज्ञानं च नय-निक्षेपादिभिरधिगमोपायैः परमार्थतः, व्यवहारतस्तु प्रकृत्यादिभिः' इति पूर्वाचार्यप्रसिद्धा । एव सुखग्रहण-स्मरणकार्यसंसिद्धये विशिष्टानुबन्धसम्बन्धक्रमाः सहार्थेन प्रकृतयः प्रस्तूयन्ते। तत्र यद्यपि। नाम-धातु-पदभेदात् 'राजा, जयति, पूर्वाहेतरां, पचतितराम्' इत्यादौ त्रेधा प्रकृतिः, तथापि नामपदयोर्धातुमूलत्वाद् धातुप्रकृतिरेवैका प्रधानम् । अव्युत्पत्तिपक्षवादिनामपि व्युत्पत्तिपक्षानुसारेणैव शब्दस्वरूपनिर्णय इति तत्रापि धातुमूलत्वमेव । धातुप्रकृतिस्तु द्वेधा-शुद्धा प्रत्ययान्ता च । शुद्धा भू इत्यादिः। प्रत्ययान्ता गोपाय कामि ऋतीय जुगुप्स कण्डूय बोभूय बोभू चोरि भावि बुभूष 10 इत्यादिः । एषाऽपि शुद्धमूलैवेति शुद्धैवोदाहियते ॥ . १. भू सत्तायाम् । भू इत्यविभक्तिको निर्देशः सान्त-रान्तशङ्कानिरासार्थः, एवं सर्वत्र । भू इत्येषा प्रकृतिः सत्तायां वर्तते । अभूत् भूत इत्यादौ प्रयोगित्वदर्शनाद् ऊकारस्य "अप्रयोगीत्" १११॥ ३७। इति इत्सञ्ज्ञा न भवति, एवमन्यत्रापि । वर्णसमानायक्रमेण स्वरान्त-व्यञ्जनान्तधातूपदेशप्रतिज्ञानात् पा पाने इत्यादेः प्रथमं निर्देशे प्राप्ते वृद्धसमयानुवर्तनार्थ प्रथममस्य पाठः । यद् वृद्धाः-16
"भूवादयो धातवः” (पा० १।३।११) इति; मङ्गलार्थ च, यदाह"माङ्गलिकत्वात् प्रथममस्य प्रयोगः” इति ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
भुवादिगणे एवमदाद्यादिगणेप्वपि वृद्धसमयानुवर्तनमदिप्रभृतीनां प्रामिर्देशे प्रयोजनमभ्यूह्यम् । सतो भावः सत्ता अस्तित्वं द्रव्यधर्मो धात्वर्थसामान्यमिति यावत् । यदाहुः
सा नित्या सा महानात्मा, तामाहुस्त्वतलादयः । प्राप्तक्रमा विशेषेषु, क्रिया सैवाभिधीयते ॥
तां प्रातिपदिकार्थ च, धात्वर्थ च प्रचक्षते । इति । सेति सत्ता । अपि च
धात्वर्थः केवलः शुद्धो, भाव इत्यभिधीयते । तथा यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्र अस्तीति भवन्तीपरं प्रयोक्तव्यमिति ।।
ननु भुवः सत्तावाचित्वे धातुत्वमनुपपन्नम् , क्रियार्थो हि धातुः, क्रिया च स्पन्दरूपा, सत्ता तु 10 द्रव्यादिषु 'सत् सद्' इत्यनुवृत्तप्रत्ययाभिधानलिङ्गा स्पन्दरूपा न भवति, नैष दोषः, यथा जानाति
पश्यति स्मरति श्रद्धत्ते संयुज्यते समवैति वियुज्यते नश्यति श्वेतते इत्यादीनां ज्ञान-दर्शन-स्मरणश्रद्धान-संयोग-समवाय-वियोग-विनाश-वर्णादयो द्रव्यगुणा रिस्पन्दात्मका अप्याख्यातप्रकृतिवाच्याः सन्तः क्रियाव्यपदेशमर्हन्ति, एवं सत्ताऽपि द्रव्यधर्मो धातुवाच्यतामापद्यमाना क्रियाव्यपदेशं लप्स्यते । मणि मुकुर-कृपाणादिज्ञापकवैचित्र्याचैकरूपस्यापि मुखादेर्नानात्वोपलब्धेर्धातुवाच्यैव सत्ता क्रियात्वमा16 स्कन्दति, न प्रातिपदिकवाच्येति नाव्यवस्था । . किञ्च पाकादिक्रियाणां त्रैकाल्याभिव्यञ्जकत्वमुपलब्धम्-पचति पक्ष्यति अपाक्षीत् , जानाति ज्ञास्यति अज्ञासीदित्यादि; तच्चेहापि भवति भविष्यति अभूदिति धातुवाच्यायां सत्तायामुपलभ्यमानं क्रियात्वं व्यवस्थापयति, अत एव वृक्ष इत्यादिप्रातिपदिकवात्स्यायाः सत्ताया न क्रियात्वम् , एवं च स्थिते क्रियावाचित्वमात्रमाख्यातुं सत्ता उपात्ता । 20 अर्थान्तराण्यप्यनयोपलक्ष्यन्ते । यदाहुः
निपाताश्चोपसर्गाश्च, धातवश्चेति ते त्रयः ।
अनेकार्थाः स्मृताः सर्वे, पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ इति । तथा च भूरयं कचिदस्त्यर्थे वर्तते, यथा बहूनि धनान्यस्य भवन्ति, सन्तीत्यर्थः । काप्यभूतप्रादुर्भावे, वचाक्षीरभोजिन्याः श्रुतधरः पुत्रो भवति, जायते इत्यर्थः। क्वचिदभूततद्भावाख्ये सम्पद्यर्थे, 25 अशुक्लः शुक्लो भवति, सम्पद्यते इत्यर्थः ।
उपसर्गवशाच्च धातोरनेकोऽर्थः प्रकाशते, यथा--
प्रभवतीति स्वाम्यर्थः प्रथमत उपलम्भश्च । पराभवति परिभवति अभिभवतीति तिरस्कारः । सम्भवतीति जन्मार्थः प्रमाणानतिरेकेण धारणं च । अनुभवतीति संवेदनम् । विभवतीति व्याप्तिः । आभ
१ भवतीतिष सं१ तपा० ॥ २ "क्रियार्थों धातुः" ।३।३।३। इति सूत्रम् ॥ ३ श्रद्धते सं१ सं२ 30 तपा० ॥४दित्यादिः, त सं१ संर तपा०॥ ५ जन्यार्थः सं१ सं२ क्रियारत्न ॥
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परस्मैधातवः १] स्वोपझं धातुपारायणम् । वतीति भागागतिः । उद्भवतीति उद्भेदः । प्रतिभवतीति लमकत्वमिति ।
अथवाऽर्थान्तरेष्वपि क्रियासामान्यरूपा सत्ताऽनुवर्तत एवेति सत्ताया एवोपादानं कृतम् । सत्ताव्यतिरेकीणि ह्यान्तराणि खरविषाणायमानानि स्युः । “षड् भावविकाराः” इति वचनाच्च भावः सत्ता सामान्यरूपा क्रियेत्यवसीयते। यदाहुँः
"जायते अस्ति विपरिणमते वर्धते अपक्षीयते विनश्यतीति षड् भावविकाराः" इति।
अपि च सर्वेऽपि खलु धातवस्तेन तेनोपाधिना सत्तामेवावच्छिद्यावच्छिद्य विषयीकुर्वन्तीति सा क्रियासामान्यमित्युच्यते। तथा च "क्रियार्थो धातुः" ।३।३।३। इति भुवो धातुत्वम् ।
आत्मनेपदोभयपदानुबन्धाभावाच्च "शेषात्-"३।३।१००। कर्तरे परस्मैपदम् अपवादाभावाच्च औत्सर्गिकः शव् , भवति भवतः भवन्ति, भवसि भवथः भवथ, भवामि भवावः भवामः । एवं सप्तम्यादिषु । शतरि भवन् । “क्रियाव्यतिहारे-"३।३।२३। "भावकर्मणोः" ३।४।६८। चाऽऽत्मनेपदं 10 च। व्यतिभवते व्यतिभवेते व्यतिभवन्ते । एवं सर्वत्र । आनशि व्यतिभवमानः । भावे चैत्रेण भूयते । भावस्यासत्त्वरूपत्वेन सङ्ख्याधभावाद् द्विवचन बहुवचने न भवतः । एकवचनं तु न व्यादिप्रतिपक्षकत्वसङ्ख्यानिबन्धनम् , किन्त्वभेदैकत्वनिबन्धनम् । “एकवचनमुत्सर्गः करिष्यते" इति हि भाष्यम् । अत एव युष्मदस्मत्कर्तृकत्वेऽपि द्वितीय-तृतीयत्रिके न भवतः । त्वया भूयते, मया भूयते । कर्मणि अनुभूयते
१ “भावस्य क्रियायाः षट् प्रकारा इत्यर्थः । तेषु चास्तिः पठित इति तस्यापि क्रियात्वमित्यर्थः । अथवा 15 भावस्यं सत्ताया एते प्रकाराः। सत्तैवानेकक्रियात्मिका साधनसम्बन्धादवसीयमानसाध्यरूपा जन्मादिरूपतयाऽवभासते।" इति प्रदीपे कैयटः ॥२ "भावः स्वभावेऽभिप्राये, चेष्टासत्तात्मजन्मसु । क्रियालीलापदार्थेषु, बुधजन्तुविभूतिषु ।।" इति विश्वप्रकाशे वान्तवर्गे १४ श्लोकः ॥ ३ वाायणयः॥
४ एषां स्वरूपं वाक्यपदीये क्रियासमुद्देशे २६ श्लोकसत्कहेलाराजकृतप्रकीर्णकप्रकाशाख्यव्याख्यागतं यथा"जन्म केनचिद् धर्मेणाविर्भावः। तत्र सव्यापार पूर्वोत्तरावस्थात्यागावाप्स्योरन्तराले वर्तमानं जायते इत्यभिधीयते 120 वस्त्वात्मलाभोन्मुखं समासादितरूपं तु सव्यापारमिवास्तीत्याख्यातपदेनाभिधीयत इत्यस्तित्वमात्मलाभपर्यायमाविर्भावरूपस्य जन्मन एवोत्तरोऽवस्थाविशेषः । तथा च निरुक्तकारः 'जायत इति पूर्वभावस्यादिमाचष्टे' इत्याह । पूर्वभावस्य विपरिणामादेर्व्यावहारिकात् प्रथमस्यास्तित्वस्यादिर्जन्म इत्यर्थः। तथास्तीत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्यावधारणमाचष्टे इत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्येति जन्मोत्तरकालतामेवाभिव्यनक्ति । अवधारणं निश्चयः । अस्त्यात्मानं भावयति । अस्याश्च भाव्यमानायाः सत्तायाः सन्तानेन प्रवृत्तेः पूर्वोत्तरक्षणनिरोधोपजनाभ्यां सङ्ग्रहः । यावच्च सदृशसन्तानप्रवाहस्तावदलक्षितविवेको भावोऽस्तीत्य-25 वधारणार्थमभिधीयते । अस्त्यात्मानं बिभर्येव न ध्वंसत इत्यर्थः । विसदृशसन्तानोपजननेऽथमेदेन विपरिणमत इति व्यपदिश्यते तत्त्वादप्रच्युतं वस्तु । यदाह निरुक्तकार:-'विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद् विकारमाचष्टे' इति । अत्रैवोपचयविवक्षायां वर्धत इति । यदाह निरुक्तकृत-वर्धत इति स्वाङ्गाभ्युच्चयं संयोगिनां पदार्थानामाचष्टे' इति । वर्धते शरीरेण, वर्धते विज(च)येन इति । अपचयविवक्षायां तु पूर्वमपक्षीयत इति तदनन्तरं विनश्यतीति तिरोभावामिधानमवस्थाद्वयेन । यदाह स एव-'अपक्षीयत इति स्वाङ्गापचयं संयोगिनामर्थानां वाचष्टे, विन-30 श्यतीति पूर्वभावस्यान्तमाचष्टे" इति। विशेषार्थिना निरुकभाष्यं विलोकनीयम् ॥
५ यथा च वा० ॥ ६ "प्रायोवादोऽयम् । अन्यथा 'उष्ट्रासिका आस्यन्ते हतशायिकाः शय्यन्ते' इति भाष्ये धात्वर्थनिर्देशे ण्वुलि कृदभिहितो भावो द्रव्यवत्प्रकाशते इति आसिकाः शायिकाः इत्यत्र बहुवचनसिद्धावपि आस्यन्ते प्राप्यन्ते इयत्र तम्न सिध्यत" इति तत्वबोधिन्याम् भावकर्मप्रक्रियाव्याख्याने ॥ ७ कर्तृत्वेऽपि सं१ मं२ ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे सुखम् , संवेद्यते इत्यर्थः । अर्थान्तरे हि वर्तमानस्याकर्मकस्यापि सकर्मकत्वं भवति । “काला-ऽध्व-भावदेश--"२।२।२३। अपेक्षया च सर्व एव धातवः सकर्मकाः । मासमास्ते, क्रोशो गुडधानाभिर्भूयते, गोदोहं खपिति, कुरून् शेते । अर्थान्तरवृत्त्यादिना च सकर्मकस्याप्यकर्मकत्वं भवति । यदाह
धातोरान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात् । प्रसिद्धरविवक्षातः, कर्मणोऽकर्मिका क्रिया ॥ इति । 5 अर्थान्तरे वर्तमानाद् धातोः सकर्मकस्याप्यकर्मिका क्रिया भवति, यथा भार वहति, उद्य
च्छतीत्यर्थः; नदी वहति, स्रवतीत्यर्थः। कर्मणो धात्वर्थान्तःप्रवेशादकर्मकत्वम् , यथा जीव प्राणधारणे जीवति, हदिं पुरीपोत्सर्गे हदते, अत्र प्राण-पुरीषाख्ये कर्मणी धात्वर्थेनैव क्रोडीकृते । कर्मणः प्रसिद्धत्वात् , यथा देवो वर्षति । न पुनरत्र, रक्तं वर्षति, पार्थः शरान् वर्षति । कर्मणोऽवि
वक्षितत्वात् , यथा नेह पच्यते, नेह भुज्यते । कर्माविवक्षा चौदासीन्यनिवृत्तिमात्रपरतया प्रयोगात्, 10 यथा 'किं करोति' इति प्रश्ने 'पचति पठति' इत्यादि प्रत्यवस्थानम् , न तु भवति विद्यते वेत्यादि, .
तेषामपर्यनुयोज्यत्वात् । यत्तु 'किं करोति' इति प्रश्ने ‘भवति' इत्युत्तरं तत् क्रियाख्यकर्मनिबन्धनम् , न तु बाह्यकर्मापेक्षं भवनम् , करोतीत्यर्थावगमात् । क्रिया हि सर्वधातूनामान्तरं कर्म, अत एव क्रियाविशेषणानां कर्मत्वं स्मरन्ति ।
नन्वेवं "क्रियाविशेषणात्" २।२।४१॥ इति योगो व्यर्थः, “कर्मणि" २।२।४०। इत्येव द्वितीया15 सिद्धः, नैवम् , आन्तरकर्मणा सकर्मणोऽप्यकर्मककार्यप्रतिपयर्थत्वाद् योगस्य, तेन 'सुखं सुप्त' इत्यादौ
कर्तरि क्तः सिद्धः, 'सुखं स्थाता' इत्यादौ कृन्निमित्ता षष्ठी न भवतीति । अत एव सकर्मका-ऽकर्मकव्यवहारो द्रव्यकर्मनिमित्त उच्यते । यदाह
सकर्मका-ऽकर्मकत्वं, द्रव्यकर्मनिबन्धनम् । इति । भू इति निरनुखारस्य पाठाद् “एकस्वरादनुखारेतः” ४।४।५६। इत्यनिट्त्वं न भवति । सेट्ल्वा20 ऽनिट्त्वे च यद्यपि "स्ताद्यशितोऽत्रोणादे:-"४।४।३२। इति प्रत्ययस्याऽऽदौ विधानात् प्रत्ययस्यैव, तथाप्युपचारेण धातोरिति । व्यत्यभविष्ट, व्यतिभविषीष्ट, भविता, भविष्यति, अभविष्यत् , भवितव्यम् , भविता, भवितुम् । “उवर्णात्" ४।४।५८। इतीट्प्रतिषेधात् भूतः, भूतवान् , भूतिः, भूत्वा । एवं पदस्य साक्षात्प्रकृतिर्भूरुदाहृतः । परम्पराप्रकृतिस्तूदाहियते--णिगि भवन्तं प्रयुक्ते भावयति, करोतीत्यर्थः । यदाहुः25
नित्यं न भवनं यस्य, यस्य वाऽनित्यभूतता । न तस्य क्रियमाणत्वं, खपुष्पा-ऽऽकाशयोरिव ॥ तेन भूतिषु कर्तृत्वं, प्रतिपन्नस्य वस्तुनः ।
प्रयोजकक्रियामाहुर्भावना भावनाविदः ॥ इति। १ यदाहुः सं२ ॥२ सिद्धार्थत्वात् वा० ॥ ३ वति । अस१॥ ४ धातोरपि । व्य' खे० 30 संपा१ प्र.॥५ भावानां भा सं१ तपा.॥
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परस्मधातवः १] स्वोपचं धातुपारायणम् ।
"भावयेज्ज्योतिरान्तरम्" इत्यनेकार्थत्वाद ध्यायेदित्यर्थः । यडि बोभूयते । यङ्लुपि बोभवीति बोभोति । सनि बुभूषति । सन्नन्ताण्णिगि बुभूषयति । यङन्ताणिगि बोभूययति । यङ्लुबन्ताणिगि बोभावयति । णिगन्ताणिगि भावयति । णिगन्तात् सनि बिभावयिषति । ("तुमर्हादिच्छायां सन् )अतत्सनः"३।४।२१। इति वचनादिच्छासमन्तात् सन् नास्ति । (“व्यञ्जनादेः) एकस्वराद्" ३।४।९। इति वचनात् सन्-यङ्यङ्लुबन्तेभ्योऽनेकस्वरेभ्यो यङ् नास्ति ।
विशेषास्तु-"च्ळ्यर्थे भृशादेः स्तोः" ३।४।२९। इति क्यङि अभृशो भृशो भवति भृशायते, अत्र भवत्यर्थोपगृहीते च्च्यर्थे क्यविधानम् , अत एव क्यङन्तस्य क्रियार्थत्वेन धातुत्वं भवतेश्चाप्रयोगः । “भूङः प्राप्तौ णिङ्" ३।४।१९। भावयते पदम् , प्रामोतीत्यर्थः, पक्षे उत्साहाद् भवते लक्ष्मीम् । “धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः कृभ्वस्ति चानु तदन्तम्" ३।४।४६। चकासाम्बभूव । "भू-स्वपोरदुतौ" ४।१।७०। बभूव, अत्र स्वरविधेः प्रागेव द्विवचने वृद्धावावादेशे च "भुवो वः 10 परोक्षा-ऽद्यतन्योः ४।२।४३। इत्युपान्त्यस्योत् । “पिबैति-दा-भू-स्थः सिचो लुप् परस्मै न चेट्" ४।३।६६। अभूत् , अत्र "भवतेः सिज्लुपि" ४।३।१२। इति गुणप्रतिषेधः । अभूवन् , अत्र “सिज्विदोऽभुवः" ४।२।९२। इति पुस् न भवति । “न ख्या-पूग्-भू-भा-कम-गम-प्याय-वेपो णेश्च" २।३।९०। प्रभवनम् प्रभावना, अत्र "स्वरात्" २२३८५। इति “णे;" २।३।८८। इति च णत्वं प्राप्तं न भवति । “भव्य-गेय" ५।१७। इत्यादिना कर्तरि ये भव्यः पुमान् , पक्षे भावे भव्य- 15 मनेन । आवश्यके घ्यणि भाव्यम् । अवश्यभाव्यमनेन "कृत्येऽवश्यमो-"३।२।१३८। इति मो लुक् । “हत्या-भूयं भावे" ५।१।३६। ब्रह्मणो भवनं ब्रह्मभूयम् । “ग्रहादिभ्यो णिन्" ५।१५३। परिभवतीति परिभावी, परिभवी पक्षे, इस्वत्वं गणनिपातनात् , भूते त्वभिभावी । “वा ज्वलादि-दुनी-भू-अहा-ऽऽस्रोर्णः" ५।१६२भवतीति भावः, पक्षे अचि भवः । “नम-"५।१।१२८। इत्यादिना खिष्णु-खुकञोः अनाढ्य आढयो भवति आढयम्भविष्णुः आढ्यम्भावुकः । “भावे चाशिताद्भुवः 20 खः" ५।१।१३०। आशितस्य-तृप्तस्य भवनमाशितम्भवो वर्तते, आशितो भवत्यनया आशितम्भवा पञ्चमूली । “भ्राज्यलम्-" ५।२।२८। इत्यादिना इष्णौ भवतीत्येवंशीलो भविष्णुः । “भू-जेः ष्णुक" ५।२।३०। भूष्णुः । “श-कम-" ५।२।४०। इत्यादिना उकणि भावुकः । “जीण--क्षि-" ५।२।७२। इत्यादिना इनि परिभवी । “दिद्युद्-दहद्-"५।२।८३॥ इत्यादिना विपि मित्रं भवतीति मित्रभूः, धनिक-धारकयोरन्तरे प्रतिभवतीति प्रतिभूः । “शं-सं-स्वयं-वि-प्राद् भुवो डुः" ५। 20 २।८४। शम्भुः सम्भुः स्वयम्भुः विभुः प्रभुः । “भू-श्यदोऽल्" ५।३।२३। प्रभवः अनुभवः । प्रभावाद्यास्तु बाहुलकाद् पनि प्रादिसमासो वा । "भुवोऽवज्ञाने वा" ५।३।६४। परिभावः, पक्षे अलि परिभवः । “भ्यादिभ्यो वा" ५।३।११५। इति किपि भवत्यस्याः सर्वमिति भूः, पक्षे तौ भूतिः । “च्च्यर्थे काप्याद् भू-कृगः" ५।३।१४०। कृच्छ्रेणाऽनाढयेनाऽऽढयेन भूयते दुराढ्यम्भवं
१ "ध्यण्यावश्यके” ४।१।११५। इति हैमसूत्रम् ॥२ मासे वा तपा० ॥३ पक्षे "थ्यादिभ्यः" 30 ५।३।९२॥ इति को वा. प्रतौ संशोधकेन वर्धितम् ॥
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६
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[ भुवादिगणे
भवता एवं स्वाढ्यम्भवम् ईषदाढ्यम्भवम् । “स्वाङ्गतव्यर्थ - नाना-विना धाऽर्थेन भुवश्व" ५|४|८६ | पार्श्वतोभूय पार्श्वतोभूत्वा पार्श्वतोभावमास्ते, “तृतीयोक्तं वा " ३|१|५० | इति तत्पुरुष विकल्पनात् पक्षे क्त्वो यप् न भवति । एवं नानाभूय नानाभूत्वा नानाभावम्, विनाभूय विनाभूत्वा विनाभावम्, द्विधाभूय द्विधाभूत्वा द्विधाभावमास्ते । "तूष्णीमा" ५।४।८७ | तूष्णीम्भूय तूष्णीम्भूत्वा तूष्णीम्भाव5 मास्ते । “आनुलोम्येऽन्वचा" ५|४|८८ | अन्वग्भूय अन्वग्भूत्वा अन्वग्भावमास्ते ।
उणादौ - "शी-री-भू-दू-मू घृ पा - " ( उ०२०१) इत्यादिना किति ते भूतो ग्रहः । “अदो भुवो डुतः " ( उ०२१४) अद् - विस्मितं मनो भवत्यस्मिन्नित्यद्भुतम् । “सू-धू -भू-स्जिभ्यो वा " ( उ०२७४) इत्यने भुवनम् कित्त्वाभावपक्षे भवनम् । “कृ-भूभ्यां कित्" ( उ०६९०) इति किति मौ भूमिः । “भू-सू- कुशि - विशि-शुभिभ्यः कित्" ( उ०६९३) इति किति रौ भूरिः । “भुवो वा" ( उ०९२२) 10 इति णिनि भविष्यतीति भावी, णित्त्वाभावे भवी, "वर्त्स्यति गम्यादिः " ६ |३|१ | इति भविष्यति साधू । “कृ-भ्वस्तिभ्याम् – ७ २ १२६ । इत्यादिना तद्धिते च्वौ अशुक्लः शुक्लः सम्पद्यते शुक्लीभवति । “अव्यक्तानुकरणाद्–” ७|२| १४५ । इत्यादिना डाचि पेटद्भवति पटपटाभवति, एवमन्यान्यप्युदाहरणानि परीक्ष्य योज्यानि । भ्रूण् अवकल्कने भावयति सर्पिषा सक्तून्, मिश्रयतीत्यर्थः ॥
अथाऽऽदन्ताः षडनिटध
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२ पां पाने । आत्मनेपदोभयपदानुबन्धाभावात् "शेषात्परस्मै " ३।३।१०० । इति कर्तरि परस्मैपदी, आकारश्च नेत् प्रयोगित्वात् । " श्रौति - कृवु - १४ |२| १०८ । इत्यादिना पिबादेशे पिबति पिबतः पिबन्ति, आदेशस्यादन्तत्वाद् गुणाभावः । “भाव - कर्मणोः " ३।४।६८ । आत्मनेपदे “ईर्व्यञ्जनेऽयपि ” ४|३|९७| इति ईत्वे चैत्रेण पीयते, पीयते पयः । “पिबैति - " ४ | ३ |६६ । इत्यादिना सिचो लुपि अपात् । "आतो व औ: " ४।२।१२० । इत्यौत्वे पपौ । “ गा पा - " ४/३/९६ । इत्यादिनाऽऽशि20 ष्येत्वे पेयात् । अनुस्वारेत्त्वात् पाता । णिगि “पा-शा -” ४।२।२० | इत्यादिना ये पाययति, फलवति तु कर्तरि आहारार्थलक्षणपरस्मैपदापवादः । “परिमुहा - " ३ | ३ |९४ । इत्यादिनाऽऽत्मनेपदम्, पाययते । “ङे पिबः पीप्य्” ४।१।३३ । इति पीप्यादेशे अपीप्यत् । “सञ्चाय्य - " ५।१।२२ । इत्यादिनिपातनात् कुण्डैः पीयतेऽस्मिन् सोम इति कुण्डपाय्यः क्रतुः । “घ्राध्मा - " ५।११५८ । इत्यादिना शे पिब: उपिब: विपः । ये तु सोपसर्गादेव शमिच्छन्ति तन्मते " तन्व्यची " ५।१।६४ । इत्यादिना णे पिब25 तीति पायः । “सुरा - शीधोः पिबः " ५।१/७५ | इति टकि सुरापी शीधुपी स्त्री । “स्था-पा- " ५|१| १४२ । इत्यादिना के द्वाभ्यां पिबति द्विपः । “नी - दाव् - " ५।२।८८ । इत्यादिना त्रुटि पात्री । “स्थादिभ्यः कः " ५।३।८२ । इति के प्रपिबन्त्यस्यामिति प्रपा । " गापा-पचो भावे" ५।३।९५ । इति तौ सम्पानं सम्पतिः । “पानस्य भावकरणे” २/३ । ६९ । इति वा णत्वे क्षीरपाणं क्षीरपानं वा वर्तते,
1
१ एवं सं १ नास्ति ।। २ पटद् भवति पटद् भवति इति सं१ खे० संपा१ तपा० मु० द्विः ॥ तपा० १ २ ॥ ४ स्वाने पा खे० ॥
30 ३ 'नव-"
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परस्मैधातवः १-५] स्वोपक्षं धातुपारायणम् । क्षीरपाणः क्षीरपानो वा कंसः। "देशे" २।३।७०। इति नित्यं णत्वे सुरा पानं येषां ते सुरापाणाः प्राच्याः। उणादौ "कृ-वा-पा-जि-" (उ०१) इत्यादिना उणि पायुः । “कीचक-" (उ०३३) इत्यादिनाऽके निपातनाद् बृहत्तन्त्रात् कला आपिबन्तीति कलापकाः शास्त्राणि । “नी-नू-रमि-" (उ०२२०) इत्यादिना किति थे पीथो रविः। “अर्तीरि-" (उ०३३८) इत्यादिना मे पामा। मनि पामा। “पः पी-प्यौ च वा" (उ०७७५) इति तुनि पीतुश्चन्द्रः, पितुः प्रजापतिः, पातुः रक्षिता। “पा-हाक्भ्यां । पय-यौ च” (उ०९५३) इत्यसि पयः । “नील-पीतादकम्" ६।२।४। इति तद्धिते के पीतेन रक्तं पीतकं वस्त्रम् ॥
३ घां गन्धोपादाने। विशेषानुबन्धाभावात् परस्मैपदी । "श्रौति-"४।२।१०८। इत्यादिना शिति जिघ्रादेशे जिघ्रति । “धे-घ्रा-शा-" ४।३।६७ इत्यादिना सिचो वा लुपि अघ्रात् अघ्रासीत् । आदन्तत्वात् "संयोगादेर्वाऽऽशिष्येः” ४।३।९५। इति वैत्वे घेयात् घायात् । अनुस्वारेत्त्वादिडभावे घाता। 10 "प्रा-धमोर्यङि" ४।३।९८। इतीत्वे जेघीयते । परे णौ "जिप्रतेरिः" ४।२।३८। इत्युपान्त्यस्य वेत्वे अजिप्रिपत् अजिघ्रपत् । “घ्रा-ध्मा-"५।१।५८। इत्यादिना शे जिघ्रः उज्जिनः । ये तु सोपसर्गादेव शमिच्छन्ति तन्मते "तन्-व्य-" ५।१६४। इत्यादिना णे प्रायः। “व्याघ्रा-ऽऽने प्राणि-नसोः" ५।१। ५७। इति डे व्याघ्रः आघ्रा । "ऋ-ही-"४।२।७६। इत्यादिना क्तयोस्तस्य वा नत्वे प्राणः प्रातः, प्राणवान् प्रातवान् । विशेषबोधार्थत्वाद् “गति बोधा-" २।२।५। इत्यादिनाऽणिगि कर्तुः णिगि कर्मत्वे 15 धापयति गन्धं मैत्रं चैत्रः । ये तु दृशेरन्यस्य बोधविशेषार्थस्य नेच्छन्ति तन्मते प्रापयति गन्धं मैत्रेण चैत्रः ॥ .
४. ध्मां शब्दाग्निसंयोगयोः। शब्दे मुखादिना चामिसयोगे। विशेषानुबन्धाभावाद् ध्वार्धा यावत् परस्मैपदिनः । “श्रौति-" ४।२।१०८। इत्यादिना धमादेशे धमति विधर्मति । दध्मौ । अनुस्वारेत्त्वात् ध्मातः शङ्खः । “प्रा-ध्मा-" ५।१।५८॥ इत्यादिना शे धमः उद्धमः विधमः । ये तु सोपस- 20
देव शमिच्छन्ति तन्मते "तन्-व्यधी-" ५।१।६४। इत्यादिना णे ध्मायः । “नाडी-घटी-" ५।१। १२०। इत्यादिना खशि नाडिन्धमः घटिन्धमः। "पाणि-करात्" ५।१।१२१। इति खशि पाणिन्धमाः पन्थानः, माणिन्धमपुरुषयोगात् पथां ताच्छन्द्यम् , अधिकरणे वा “बहुलम्" ५।१।२। इति खश् । उणादौ "कीचक-” (उ० ३३) इत्यादिनिपातनादके धमकः । धमनिरिति तु धमेः सौत्रस्य “सदि-वृत्यमि-" (उ० ६८०) इत्यादिना अनौ रूपम् ॥
25 ५ ठां गतिनिवृत्तौ । "श्रौति-"४।२।१०८। इत्यादिना तिष्ठादेशे तिष्ठति । "देवार्चा-मैत्रीसङ्गम-पथि-कर्तृक-मन्त्रकरणे स्थः" ३।३।६०। इत्यनेन “उपात् कर्तर्यात्मनेपदे जिनेन्द्रमुपतिष्ठते, थिकानुपतिष्ठते, गङ्गा यमुनामुपतिष्ठते, अयं पन्थाः स्रुघ्नमुपतिष्ठते, ऐन्द्या गार्हपत्यमुपतिष्ठते । “वा
१ "मन्" (उ० ९११) ॥ २ डे परे खे० संपा १ ॥ ३ 'नाऽणिकर्तुः सं१ स२ तपा० ॥ ४मति । "आतो णव औः" ४।२।१२०। द सं२॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे लिप्सायाम्" ३।३।६१। भिक्षुर्दातृकुलमुपतिष्ठते उपतिष्ठति वा। "उदोऽनूइँहे" ३।३।६२। मुक्तावुत्तिष्ठते । “सं-वि-प्रावात्" ३।३।६३। संतिष्ठते वितिष्ठते प्रतिष्ठते अवतिष्ठते । “ज्ञीप्सा-स्थेये" ३।३।६४। तिष्ठते कन्या च्छात्रेभ्यः, "श्लाघ-हु-स्था-शपा प्रयोज्ये” २।२।६०। इति चतुर्थी।
संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः । (किराता० सर्ग ३ श्लो० १४) 5 "प्रतिज्ञायाम्" ३।३।६५। तदतदात्मकं तत्त्वमातिष्ठते । “उपात् स्थः" ३३१८३॥ इति कर्मण्य
सति भोजने उपतिष्ठते । “अधेः शीङ्-स्थास आधारः" २।२।२०। इत्याधारस्य कर्मत्वे गृहमधितिष्ठति । क्ये "ईर्व्यञ्जनेऽयपि" ४।३।९७। इतीत्वे स्थीयते । “पिबैति-" ४।३।६६। इत्यादिना सिचो लुपि अस्थात् । “इश्च स्था-दः" ४।३।४१। इति इत्वे कित्त्वे च उपास्थित । प्रत्यष्ठात् कठकालापम् ,
अत्र “स्था सेनि-" २।३।४०। इत्यादिनाऽड्व्यवधानेऽपि षत्वं "चरणस्य स्थेणोऽद्यतन्यामनुवादे" ३। 10 १।१३८। इति द्वन्द्वस्यैकार्थत्वम् । अधितष्ठौ, अत्र द्वित्वेऽपि षत्वम् । अनुखारेत्त्वात् नेट् ,अधिष्ठास्यति ।
ङपरे णौ “तिष्ठतेः" ४।२।३९। इत्युपान्त्यस्येत्वे अतिष्ठिपत् । “प्रवचनीयादयः" ५।१।८। इति वा कर्तर्यनीये उपस्थानीयो गुरोश्चैत्रः, पक्षे यथाप्राप्तम् , कर्मणि उपस्थानीयो गुरुः शिष्येण, भावे उपस्थानीयं शिष्येण । “श्लिष-शीङ्-'" ५।१।९। इत्यादिना च कर्तरि ते उपस्थितो गुरुं शिष्यः, पक्षे कर्मणि
उपस्थितो गुरुः शिष्येण, भावे उपस्थितं शिष्येण, अत्र "दो-सो-मा-" ४।४।११। इत्यादिनेत्वम् । 15 "ग्रहादिभ्यो णिन्" ५।१।५३। स्थायी । “स्था-पा-"५।१।१४२॥ इत्यादिना के प्रतिष्ठते प्रष्ठः,
अत्र “प्रष्ठोऽग्रगे" २।३।३२। इति षत्वम् । परमेष्ठः, अत्र “गो-ऽम्बा-ऽऽम्ब-"२।३।३०। इत्यादिना षत्वम् । क्विपि साक्षाद् व्यञ्जन एवेत्वविधानादीत्वाभावे संस्थाः । संस्थाशब्दादन्यत्र लुप्तव्यञ्जनेऽपीच्छन्त्येके । तथा च जयकुमारः पां पाने इत्यस्य विपि पीरित्याह । “स्था ग्ला-" ५।२।३१। इत्या
दिना नौ स्थास्नुः ।"श-कम-"५।२।४०। इत्यादिना उकणि स्थायुकः । “स्थेश-"५।२।८१। इत्या20 दिना वरे स्थावरः। “स्थादिभ्यः कः" ५।३।८२। इति के आखूनामुत्थानमाखूत्यो वर्तते, अत्र “उदः
स्था-स्तम्भः सः” १।३।४४। इति सो लुक् । गावस्तिष्ठन्त्यस्मिन्निति गोष्ठम् , “गो-ऽम्बा-ऽऽम्ब-" २।३।३०। इत्यादिना षत्वम् । “स्थो वा" ५।३।९६॥ इति तो व्यवस्थितिः, पक्षे "उपसर्गादातः" ५।३।११०। इत्यङि व्यवस्था । व्यवस्था शीलमस्येति “अस्था-च्छत्रादेरञ्' ६।४।६०। इत्यनि
वैयवस्थः । उणादौ "स्था-क्षुतोरूच्च" (उ० १८५) इति णे ऊदादेशे च स्थूणा । “शुषीषि-बन्धि-" 25 (उ० ४१६) इत्यादिना कितीरे स्थिरः। “स्थविर-" (उ० ४१७) इत्यादिनिपातनाद् इरे स्थविरः।
"स्था-विडेः कित्" (उ० ४२९) इत्यूरे स्थूरः। “स्थो वा" (उ० ४७३) इत्यले स्थलम् , स्थली अकृत्रिमा चेत् , डिवाभावपक्षे स्थालं स्थाली। "किति-कुडि-" (उ० ५१८) इत्यादिना कित्यवे स्थवः । “अजि-स्था-" (उ० ७६८) इत्यादिना णौ स्थाणुः । “सव्यात् स्थः” (उ० ८५५) इति डिति ऋप्रत्यये सव्ये तिष्ठतीति सव्येष्ठा । अत्र भीरुष्ठानादित्वात् षत्वम् । “प्रात् स्थः” (उ० ९२४) 30 १ "भीरुष्ठानादयः" २॥३॥३३॥
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परस्मैधातवः ५-९] स्वोपचं धातुपारायणम् । इति णितीनि प्रस्थास्यते प्रस्थायी, “वर्त्यति गम्यादिः" ५।३।१। इति भविष्यति साधुः। "परमात् कित्" (उ० ९२५) इति कितीनि परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी, भीरुष्ठानादित्वात् षत्वं सप्तम्यलुप् च । पोपदेशः “षः सोऽष्टयै-ष्ठिव-प्वष्कः" २।३।९८। इति सादेशार्थः । तथा च कृतत्वात् सस्य तिष्ठासतीत्यादौ “नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इत्यादिना षत्वं सिद्धं स्थातेत्यादौ सकारश्रवणं च ॥
६ म्नां अभ्यासे । अभ्यासः पारम्पर्येण वृत्तिः । "श्रौति-"४।२।१०८। इत्यादिना शिति मनादेशे । आमनति । "आतो णव औः" ४।२।१२०। मम्नौ। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , माता । घनि आम्नायः॥
७ दाम दाने। मकार इत् अप्रयोगित्वात् , स च "श्रौति-" ४।२।१०८। इत्यादौ विशेषणार्थः । तथा च शिति यच्छादेशे प्रयच्छति । दास्या सम्प्रयच्छते, अत्र "दामः सम्प्रदानेऽधर्ये आत्मने च" २।२।५२। इति सम्प्रदानात् तृतीयाऽऽत्मनेपदं च । “अवौ दा-धौ दा" ३।३:५। इति दासज्ञा, क्ये "ईर्व्यञ्जनेऽयपि" ४।३।९७॥ इति ईत्वे दीयते । “पिवैति-" ४।३।६६। इत्यादिना सिचो लपि 10 अदात् । णवि ददौ । “प्राद् ज्ञश्च" ५।११७९। इति डे अन्नं प्रयच्छतीति अन्नप्रदः । “स्वरादुपसर्गादस्तिकित्यधः” ४।४।९। इति नादेशे प्रत्तम् । “दस्ति" ३।२।८८। इति वेर्दीर्घत्वे वीत्तम् । “दत्" ४।४।१०। इति ददादेशे दत्तः। “दा-धे-सि-" ५।२।३६। इत्यादिना रौ यच्छतीत्येवंशीलो दारुः । "भुजि-पत्यादिभ्यः कर्मापादाने" ५।३।१२८। इति कर्मण्यनटि दीयते तदिति दानम् । अनुस्वारेत्त्वात् सम्प्रदाता । “दा-भाभ्यां नुः” (उ० ७८६) इत्यौणादिके नौ दानुः ।। इतः परमिदन्ताश्चत्वारः
८ जि९ जिं अभिभवे । जयति । "परा-वेर्जे:"३।३।२८। इत्यात्मनेपदे पराजयते विजयते । "जेर्गिः सन्-परोक्षयोः" ४।१।३५। इति म्यादेशे जिगीषति, जिगाय। “णौ क्री-जीङः" ४।२।१०। इत्यात्वे जापयति । "क्षय्य-जय्यौ शक्तौ"४।३।९०। इति निपातनात् जेतुं शक्यो जय्यः, जेयोऽन्यः । "जि-विपून्यो हलि-मुञ्ज-कल्के" ५।१।४३॥ इति क्यपि जित्या जित्यो वा हलिः, जेयमन्यत् । 20 "भृ-वृ-जि-तृ-तप-दमेश्च नाम्नि" ५।१।११२। इत्यणोऽपवादे खे धनञ्जयः। “भू-जेः ष्णुक"५।२।३०। जयतीत्येवंशीलो जिष्णुः । “जीण-ड-क्षि-" ५।२।७२॥ इत्यादिनेनि जयी । "सृ-जीण-नशष्टरप्" ५।२।७७। जित्वरी ।' अनुस्वारेत्त्वाद् इडभावे जेता। उणादौ "कृ-वा-पा-जि-" (उ०१) इत्यादिनोणि जायुः पित्तम् । “त-जि-" (उ० २२१) इत्यादिनाऽन्ते जयन्तः। “चि-जि-" (उ० ३९२) इति रे दीर्षे च जीरोऽजाजी, लत्वे जीलश्चर्मपुटः । “ऋ-शी-" (उ० ९०६) इत्यादिना कनिपि जित्वा 25 धर्मः, जित्वानौ । स्त्रियां "णस्वराऽघोषाद् वनो रश्च" २।४।४। इति ब्यां रत्वे च जित्वरी नदी ॥
जिं । जयति । जिजाय जिजियतुः जिनियुः । अनुस्वारेत्त्वात् नेट् ब्रेता॥ केचित्तु जिं जये इत्यकर्मकत्वार्थ पृथक् पठन्ति जयः सर्वोत्कर्ष इति च व्याचक्षते, तदयुक्तम् ,उत्क१ नेट वा. नास्ति ॥ २ "अप्रयोगीत्" ॥१॥३७॥
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धा. पा.२
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे पस्याभिभवाविशेषत्वात् सकर्मकत्वा-ऽकर्मकत्वयोश्च विवक्षानिबन्धनत्वात् , तथा च जयति जिन इत्यकर्मकः, जयति शत्रूनिति सकर्मकः । अत एव कौशिकोऽपि नामुमध्यैष्ट । अन्ये तु ख्रिस्थाने जूं इति ऋकारान्तं पठन्ति, जरति, जर्ता ॥
१० किं क्षये। क्षयति। कर्मकर्तरि तु क्षीयते । यद्वामनः-"क्षीयते इति कर्मकर्तरि" । अनुखा। रेत्त्वात् क्षेता । कर्तरि ते "क्षेः क्षी चाघ्यार्थे" १।२।७४। इति तस्य नत्वे क्षीइत्यादेशे च क्षीणः ।
भावे क्ते क्षितमनेन । क्षित् निवास-गत्योः इत्यस्य तु क्षियति । क्षिपश् हिंसायाम् इत्यस्य तु क्षिणाति । ऐश्वर्येऽप्ययमित्येके, ऋभून् क्षयति-ईष्टे ऋभुक्षाः ॥
११ ई १२ हूँ १३ हुँ १४ १५ सुं गतौ । पञ्चाप्यनुखारेतः । अयति । . "उदयति हि स तादृक् कापि सन्दर्भरीतौ"।
उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जावहिमरुचौ हिमधाग्नि याति चास्तम् ।
वहति गिरिरयं विलम्बिघण्टाद्वयपरिवारितवारणेन्द्रलीलाम् ॥ [शिशुपाल० ४-२०] एता। इंण्क् गतौ, इंक् स्मरणे, इं अध्ययने इत्येषां तु एति प्रामम् , मातुरध्येति, शास्त्रमधीते इति भवति॥
- इतः परं षडुदन्ताः -- . 16 दूं। दवति । दोता । “वा ज्वलादि-" ५।१।६२। इत्यादिना णे दावः, पक्षेऽचि दषः । उदन्तत्वाद्
“युवर्ण-" ५।३।२८। इत्यादिनाऽलि दवः । सम्पूर्वाद् "यु-दु-द्रोः" ५।३।५९। इति पनि सन्दावः । टुदुंट उपतापे दुनोति ॥ हूँ। द्रवति । द्रोता । द्रोष्यति । "स्क्र-"४।४।८१। इत्यादिनाऽनुस्वारेतामपि परोक्षायामिड्विहितस्तत्र दुवर्जनादिड् नास्ति, दुद्रोथ दुदर दुद्रुम । “णि-श्रि-"३।४।५८
इत्यादिना डे अदुद्रुवत् । णौ “चल्याहारा-" ३।३।१०८। इत्यादिना फलवत्कर्तर्यपि "ईगितः" 20 ३।३।९५। इत्यात्मनेपदापवादे परस्मैपदे द्रावयति अयः । सन्परे णिगि "श्रु-सु-द्रु--प्लु-च्योर्वा"
४।१।६१। इति पूर्वोकारस्येत्वे दिद्रावयिषति, पक्षे दुद्रावयिषति । सन्वद्भावात् उपरे णौ अदिद्रवत् अदुद्रवत् । “वेश्च द्रोः" ५।२।५४। इति घिनणि विद्रवणशीलो विद्रावी, एवं प्रद्रावी। उत्पूर्वाद् "यु-पू-द्रोर्ष" ५।३।५४। इति घनि उद्दावः । सम्पूर्वाद् “यु-दु-द्रोः" ५।३३५९। इति घनि सन्द्रावः।
"प्रात् सु-द्रु-स्तोः" ५।३।६७। प्रद्रावः । केवलादुदन्तत्वादलि वा द्रवः । उणादौ "द्रोर्वा"(उ० १८४) 25 इति णे द्रुणा ज्या, कित्त्वाभावपक्षे द्रोणः, गौरादिपाठात् गुणी द्रोणी । “दु-ह-वृहि-दक्षिभ्य इण" (उ० १९४) इतीणे द्रविणम् । “द्यु-द्रुभ्याम्" (उ०७४४) इति डिदुः, द्रुस्तरुः । “हरि-पीत-"(उ० ७४५) इत्यादिना डुः, हरिद्रुः ऋषिः, पीतगुर्देवदारुः॥ शुं । शवति । शोता । शोष्यति । अचि
१ अस्य श्लोकस्य प्रथमं पादं मुक्त्वा अन्यानि खे० संपा १ वा. नास्ति ।। २'दले वा खे० सपा१ वा. सं सं२ । अत्र "नियमानुपसर्गाद वा" ५३६०। इति सूत्रे अनुपसर्गाद् घविकल्पनात् "युवर्ण30 वृ--" ५।३।२८। इति अल् दवः, पक्षे दावः, प्रद्रावः सन्द्रावः इत्यादिषु विधानबलान वैकल्पिकत्वम् ॥ ३ "गौरादिभ्यो मुख्याद् डी." २।४।१९॥
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परस्मैधातवः १०-२०] स्वोपमं धातुपारायणम् । शवः । उणादौ "भीण्शलि-" (उ० २१) इत्यादिना नञ्पूर्वात् के अशोकः । “विचि-पुषि-मुषि-" (उ० २२) इत्यादिना किति के शुकः । “चि-जि-शु-" (उ० ३९२) इति रे दीर्धे च शूरो विक्रान्तः । "ऋच्छि -चटि-" (उ० ३९७) इत्यरे शबरः॥ तूं । सवति । स्रोता । “णि-श्रि-" ३।४।५८। इति डे असुनुवत् । णौ "चल्याहारार्थे-" ३।३।१०८। इति फलवत्कर्तर्यपि परस्मैपदम् , सावयति। सन्परे णौ "श्रु-सु-" ४।१६१। इति पूर्वस्योतो वेत्वे सिस्रावयिषति सुसावयिषति । ङपरे णौ सन्व- 5 द्भावात् असिस्रवत् असुस्रवत् । “वा ज्वला-"५।१।६२। इति णे आसावः, पंक्षेऽचि आस्रवः । “दिद्युद्दहृद्-"५।२।८३॥ इति क्विपि निपातनात् सवतीत्येवंशीलः सूः । “प्रात् सु-द्रु-स्तोः" ५।३।६७। घनि प्रसावः। "श्वादिभ्यः" ५।३।९२। तो सूयतेऽनयेति सुतिः । उणादौ "निघृषि-" (उ० ५११) इति किति वे स्रवत्यस्मादिति सुवः, "स्रोश्चिक्” (उ० ८७१) सवत्यस्या हविरिति झुक्, भीमादित्वादपादाने साधू । “सुरीभ्यां तस्” (उ० ९७८) स्रोतः ॥
10 १६ ध्रु स्थैर्ये च । चकाराद् गतौ । भ्रवति । अनुस्वारेत्त्वात् प्रोता, प्रोष्यति। धुत् गति-स्यैर्ययोः इत्यस्य ध्रुवति । अचि कुटादित्वाद् ङित्त्वे ध्रुवः ॥
१७ सुं प्रसवैश्वर्ययोः। गतावप्येके । सवति । अनुस्वारेत्त्वात् सोता, सोष्यति । अपोपदेशत्वात् षत्वाभावे सुसाव । येषां तु षोपदेशोऽयं तन्मते षत्वे सुषाव । पुंक् प्रसवैश्वर्ययोः इत्यस्य सौति । पुंग्ट अभिषवे इत्यस्य तु सुनोति सुनुते ॥
15 इतः परमृदन्ता नव१८ स्मृ चिन्तायाम् । स्मरति । अनुस्वारेत्त्वात् स्मर्ता, स्मर्तुम् । ऋदन्तत्वात् "हनृतः स्यस्य" ४।४।४९। इति प्रतिप्रसवादिडपि. स्मरिष्यति । णौ स्मारयति । आध्याने घटादित्वात् स्मरयति । इपरे णौ "स्मृ-दृ-त्वर-" ४११६५। इति सन्वद्भावापवादे पूर्वस्यात्वे असस्मरत् । “स्मृ-दृशः" ३।३।७२। इति सन्चन्तादात्मनेपदे सुस्मर्षते । “स्मृत्यर्थ-" २।२।११। इति कर्मणो व्याप्यत्वविकल्पनाद् मातुः 20 स्मरति, मातरं स्मरति । णौ सनि सिस्मारयिषति, अघोपदेशत्वान्न षत्वम् । स्मरति कोकिलो वनगुल्मम् , स्मरयत्येनं वनगुल्मः, अत्र “अणिकर्म णिकर्तृकाण्णिगोऽस्मृतौ" ३।३।८८। इति स्मृत्यर्थवर्जनादात्मनेपदं न भवति । "पुनाम्नि-" ५।३।१३०। इति धे स्मरन्त्यनेनेति स्मरः । तौ स्मृतिः। स्मृट् पालने च स्मृणोति ॥
१९ गूं २०७ सेचने । गरति। जगार। अनुस्वारेत्त्वात् गर्ता । ऋदन्तत्वादिटि गरिष्यति ॥ 25
घं। घरति । जघार। उणादौ "सृणीकास्तीक-" (उ० ५०) इतीके निपातनात् घर्घरीका घण्टिका । “घृ-वी-हा-" (उ० १८३) इति किति णे घृणा । "शी-री-" (उ० २०१) इति किति ते घृतम् । “अर्तीरि-" (उ० ३३८) इति मे धर्मः । "ऋद्-" (उ० ६३५) इति किति णौ घृणिः।
१ "भीमादयोऽपादाने' ५।१॥१४॥२ "कुटादेविद्-" ४।३।१४॥३ "घटादेहस्यो-" ॥२॥२४॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे यथाभिधानमस्य प्रयोगः, अनुस्वारेत्त्वाच्च स्ताद्यशिति यद्यस्तिप्रयोगस्तदाऽनिदत्वं ज्ञेयम् । घृण स्रवणे इत्यस्य तु घारयति, धारयामास ॥ __ २१ औस्व शब्दोपतापयोः। स्वरति । सम्पूर्वस्य “समो गम्-" ३।३।८४। इत्यात्मनेपदम् , सं
स्वरते। औदित्त्वाद वेद, स्वर्ता स्वरिता । सुस्वर्षति सिस्वरिषति । “हनृतः स्यस्य" ४।४।४९॥ इति 5 नित्यमिटि स्वरिष्यति। णौ सनि सिस्वारयिषति, अपोपदेशत्वात् षत्वं नास्ति । सिस्वरयिषतीति तु स्वरण आक्षेपे इत्यस्यादन्तस्य । अचि स्वरः । उणादौ "भृ-मृ-तृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इत्युः, स्वरुवज्रः । “गम्यमि-रम्यजि-" (उ० ९२) इति गे स्वर्गः॥
२२ , वरणे। वरणं स्थगनम् । द्वरति । दद्वरतुः दद्वरुः। अनुखारेत्त्वात् द्वर्ता । “हनृतः स्यस्य" ४।४।४९। इतीटि द्वरिष्यति । घभि णिगन्तादचि वा द्वारम् । उणादौ “वाारौ'"(उ० ९४४) 10 इति क्विपि द्वारयतीति द्वाः॥
२३ वू २४ हूं कौटिल्ये। अनुस्वारेतौ। ध्वरति । दध्वरतुः दध्वरुः । इरति । जहरतुः जहरुः । वर्ता, हर्ता । "हनृतः स्यस्य"४।४।१९। इतीटि ध्वरिष्यति, हरिष्यति। यङि “क्य-या-" ४।३।१०। इति गुणे दाध्वर्यते । यङ्लुपि दरिवर्ति दलर्ति दरीध्वरीति । एवं हरतेरपि । अचि न
ध्वरतीत्यध्वरः ॥ 16 २५ सं गतौ। सरति, प्रसरति । "वेगे सर्तेर्धात्" ४।२।१०। धावति । क्ये सियते।
"सबंर्तेर्वा' ३।४।६१। इत्यङि असरत् , पक्षे असार्षीत् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , सर्ता । "हनृतः स्यस्यै" ४।४।१९। इति इटि सरिष्यति । "स्क्रादि-" ४।४।८१॥ इत्यनुस्वारेतामपि परोक्षायामिड्विहितस्तत्र सृवर्जनाद् न भवति, ससृव ससृम ससर्थ । णौ सनि सिसारयिषति, षोपदेशाभावाद् न षत्वम् । “वर्योपसर्या-" ५।१॥३२॥ इति घ्यणपवादे ये उपसर्या ऋतुमती चेत् , उपसार्याऽन्या। "कुप्य-भिद्योध्य-" 20 ५।१३९इति निपातनात् क्यपि सूर्यः । “-सू-स्खोऽकः साधौ" ५।१।६९। इत्यके साधु सरति
सरकः । णके अभिसारिका । “पुरोऽप्र-" ५।१।१४०। इति टे पुरःसरः, पुरःसरी । “पूर्वात् कर्तुः" ५।१।१४१। पूर्वसरः, पूर्वसरी । “भूषा-क्रोधार्थ-" ५।२।४२। इत्यने सरतीत्येवंशीलः सरणः । “विपरि-प्रात् सर्तेः" ५।२।५५। इति घिनणि विसरतीत्येवंशीलो विसारी, एवं परिसारी प्रसारी। “स
घस्य-" ५।२।७३। इति मरकि समरः । “सृ-जीण-" ५।२१७७। इति देवरपि सृत्वरः, सूत्वरी । “सर्तेः 26 स्थिर-" ५।३।१७ इति पनि अवयवैरन्योन्यं सरति धावतीति सारः, चन्दनसारः, अतिधावतीत्य
तीसारो व्याधिः, सारो बलम् , विसारो मत्स्यः । “सू-लहः-"५।३।३१। इत्यलि गवामुपसरः । “भावाकोंः" ५।३।१८। घञि आसारः प्रसारः। विसर-प्रसरौ त्वलि बाहुलकात् । उणादौ "द-क-न-"
१'स्येदि. व सं१ सं२ ॥ २'स्येति स वा० खे० संपा१ विना ॥३ "स्कस--भृ-स्तु-द्रश्र-झोयंजनादेः परोक्षायाः" ४।४।८१। इत्यत्र स्कृप्रभृतीनां अनुस्वारेतामपि सर्वधातूनां परोक्षायामिड्30 विधानेऽपि अस इति भणनात् इट् न भवति ॥ ४ न्यं धा संपा १ वा. प्र.सं१ सं२ तपा. मु.॥
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परस्मैधातवः २१-२७] स्वोपचं धातुपारायणम् । (उ०२७) इत्यके सरकः। "सृणीका-" (उ०५०) इतीके निपातनात् सृणीका। "दिव्यवि-" (उ० १४२) इत्यटे सरटः। “ज-कृ-तृ-" (उ० १७३) इत्यण्डे सरण्डः कृमिजातिः । “सर्तेर्णित्" (उ० २३०) इति थे सार्थः । “सर्तेः षपः" (उ० ३१३) सर्षपः । “सर्तेर्गोऽन्तश्च" (उ० ४७८) इति कित्याले सृगालः । “लटि-खटि-" (उ० ५०५) इति वे सर्वः । “ऋद्-घृ-सू-" (उ० ६३५) इति किति णौ सृणिः । “ऋ-ह-स-" (उ० ६३८) इत्यणौ सरणिः । “सारेरथिः” (उ० ६७०) । सारयतीति सारथिः। “सर्तेरय्वन्यू" (उ० ८०३) सरयुः, सरयूः, सरण्युर्मेघः । “सर्तेरड्" (उ० ८७८) सरड् वृक्षः । “हृ-स-रुहि-" (उ० ८८७) इति सरित् । “अस्” (उ० ९५२) इत्यसि [सरः जलाशयः] । अद्भयः सरन्ति स्म अप्सरसः, बाहुलकाद् भूतेऽपि साधुः ॥
२६ प्रापणे च । चकाराद् गतौ । "श्रौति " ४।२।१०८। इति ऋच्छादेशे ऋच्छति, प्रार्छति । सम्पूर्वात् “समो गम्-" इत्यात्मनेपदे समृच्छते । क्ये अर्यते । “अव्यर्ति-" ३।४।१०। 10 इति यङि अरार्यते, अत्र "क्य-याशीर्ये” ४।३।१०। इति गुणः । आरतुः आरुः, अत्र “संयोगादर्तेः" ४।३।९। इति गुणः । “सर्त्यर्तेर्वा" ३।४।६१। इत्यङि आरत् , पक्षे आर्षीत् । णौ "अतिरी-" ४।२।२१। इति पौ अर्पयति । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , अर्ता । "हनृतः स्यस्य" ४।४।४९। इतीटि अरिष्यति । थवि “ऋ-वृ-व्ये-ऽद इट्"४।४।८०। आरिथ। सनि “ऋ-स्मि-पूड-" ४१४१४८। इतीटि अरिपंति। "ऋ-ही-प्रा-" ४।२।७६। इति क्तयोर्वा नत्वे ऋणमधमर्णदेयम् , अन्यत्र ऋतम् । "स्वामि- 15 वैश्येऽर्यः" ५।१।३३। इति ये अर्यः स्वामी वैश्यो वा, अन्यत्र घ्यणि आर्यः । "लू-धू-सू-खनि-" ५।२।८७। इतीत्रे अरित्रम् । “भिदादयः" ५।३।१०८। इत्यङि निपातनात् आरा । उणादौ "घृवी-हा-" (उ० १८३) इति किति णे ऋणम् । “चिक्कण-कुक्कण-" (उ० १९०) इत्यणे निपातनात् उरणो मेषः । ऋक् गतौ इत्यस्य तु इयर्ति ।।
२७ तू प्लवन-तरणयोः । प्लवनं मज्जनम् , तरणमुल्लङ्घनम् । तरति । क्ये तीर्यते । “स्कृच्छृतोऽ- 20 कि-" ४।३।८। इति गुणे "तृ-त्रप-" ४।१।२५। इत्यत एत्वे च तेरतुः तेरुः । अनुस्वारेत्त्वाभावाद् इड्, “वृतो नवा-"४।४।३५। इतीटो वा दीर्घः, तरिता तरीता । सनि "इवृध-"४।४।४७। इति वेद, तितरिषति तितरीपति तितीर्षति । आशिंषीटो दीर्घत्वप्रतिषेधात् तरिषीष्ट । “ऋवर्ण-" ४।४।५७। इति नित्यमिड्निषेधात्किति तीा। यडि तेतीर्यते । यङ्लुपि तातति । णके तरतीति तारकः, तारिका । "तारका-वर्णका-"२।४।११३॥ इति निपातनाद् इत्वाभावे तारका ज्योतिः। "भृ-वृ-जि-"५।१।११२। 25
१ "आपोऽपाप्ताप्सराब्जा" (उ०९६४) इति सूत्रेण 'आप्लँट् व्याप्तौ' इत्यस्य अस्प्रत्यये अप्सरआदेशे चापि अप्सरसः देवगणिकाः ॥ २ ननु"-प्राक्त स्वरे- ४११॥ इति वचनात् कथं गुणात्प्राग् न द्वित्वम् ? उच्यते, स्वरादित्वाद्धातोद्धितीयांशस्येटो द्वित्वे कर्तव्ये द्वित्वनिमित्तस्य स्वरस्याभावाद द्वित्वात् प्राग् गुण एव ॥ ३ इति ये वा० मु. नास्ति॥ ४ अत्र "नामिनोऽनिट" ४॥३॥३३॥ इति सनः कित्वाद् ॥५' नवाऽनाशी:-" ४॥४॥३५॥ इत्यनेन सूत्रेण ॥ ६ यति सं१ सं२ तपा० नास्ति ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे इति खे रथात् स्थैर्वा तरति रथन्तरो राजा, रथन्तरं साम । “भिदादयः" ५।३।१०८। इति निपातनादङि तारा ज्योतिः । “अवात् तृ-स्तृभ्याम्" ५।३।१३३। घनि अवतरन्त्यनेनास्मिन् वा अवतारः। “युवर्ण-'" ५।३।१८। इत्यलि अवतरणमवतरः। उणादौ “पति-तमि-" (उ० ९८) इत्यने तरङ्गः।
"तृ-क-कृषि-" (उ० १५१) इति कीटे तिरीटं मुकुटम् । “ज-कृ-तृ--" (उ० १७३) इत्यण्डे तरण्डः । 5 "यम्यजि-" (उ० २८८) इत्युने तरुणः तलुनः । “नी-नू-रमि-" (उ० २२७) इति किति थे ती
र्थम् । “ऋ-ह-सू-" (उ० ६३८) इत्यणौ तरणिः । “वृ-कृ--" (उ० ५४०) इति षे तर्षः प्लवः । "मा-वा-वद्यमि-" (उ० ५६४) इति से तों वीतंसः, बाहुलकात् न षत्वम् । “स्वरेभ्य इ:" (उ० ६०६) तरिः, तरी नौः । “तृ-स्स-तन्द्रि-" (उ० ७११) इति ईप्रत्यये तरीनौः । “भृ-मृ-तृ--'" (उ०
७१६) इत्युः तरुः । "ऋ-त-शृ-' (उ० ७२७) इति णित्युप्रत्यये लत्वे च तालु। तीरमिति तु 10 तीरण कर्मसमाप्तौ इत्यस्य ॥
२८ ट्धे पाने। टकारः शुनिन्धयीत्यादौ ड्यर्थः । धयति । अशित्यात्वे दधौ। णिगि “अर्ति- . री-ब्ली-"४।२।२१। इति पौ धापयति । फलवत्कर्तर्यात्मनेपदस्य प्राप्तस्य “चल्याहारा-"३।३।१०८१ इत्यपवादे परस्मैपदे प्राप्ते “परिमुहा-"३।३।९४। इति पुनरात्मनेपदम् , धापयते शिशु माता । क्ये
दासज्ञात्वाद् "ईर्व्यञ्जनेऽयपि" ४।३।९७। इतीत्वे धीयते । “धे-श्वेर्वा" ३।४।५९। इति के अधत्, 1b पक्षे अधात् अधासीत् , अत्र "धे-घ्रा-"४।३।६७। इति सिचो वा लुप् । अनुस्वारेत्त्वात् नेट्, धाता।
"घा-मा-" ५।१।५८। इति शे धयः, उद्धयः, निधयः। ये तु सोपसर्गादेव शमिच्छन्ति तन्मते "तन्-व्यधी-"५।१।६४। इति णे धायः। “शुनी-स्तन--" ५।१।११९। इति खशि शुनिन्धयः, शुनिन्धयी। क्तयोः धीतः धीतवान् , धावर्जनाद् "दत्" ४।४।१०। इति दत् न भवति । “दा-घे-सि-"
५।२।३६। इति रौ धयतीत्येवंशीलो धारुर्गाः । “तृन्नुदन्ता-" २।२।९०। इति निषेधाद् न षष्ठी। 20 "धात्री" ५।२।९१। इति निपातनात् कर्मणि टि धयन्ति तामिति धात्री। उणादौ "धेः शित्" (उ० ७८७) इति नौ धेनुः ॥
इतः परमैन्दता अनुस्वारेतश्चैकविंशतिः
२९ दैव् शोधने । वकारो "अवौ दा-धौ दा" ३।३।५। इति दासज्ञानिषेधार्थः । दायति । क्ये निदायन्ते भाजनानि, अवदातं मुखम् , अदासीत् , दिदासति, एषु दासज्ञाऽभावाद् ईत्वं तः सिज्लु25 बिदादेशश्च न भवति । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट्, दाता । यङि दादायते । यङ्लुपि दादाति दादेति दादीतः,
अत्र “एषामी-"४।२।९७। इत्यत्र दासज्ञस्यैव वर्जनात् ईत्वं भवति । दाम् दाने यच्छति । दें 3ङ् पालने दयते । दांवक् लवने दाति । डुदांगक् दाने ददाति । दो छोच् छेदने द्यति॥
१ "इतोऽक्त्यर्थात्" २।४।३२॥ इति ब्यां रूपम् ।। २ 'सञ्जत्वा' खे० संपा१ वा० ॥ ३ “ईय॑जनेऽयरि"४।३१९७। इति ईत्वं "स्वरादुपसर्गादस्तिकित्यधः" ४।४।९। इति तः "पिवैति-दा-भू-स्थ:-" 30 ४।३१६६। इति सिचो लुप् “मि-मी-मा-दामित् स्वरस्य" ४।१।२०। इति इदादेशश्च ॥
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परस्मैधातवः २८-३८] स्वोपटं धातुपारायणम् ।
३० ध्यै चिन्तायाम् । मातुर्ध्यायति, मातरं ध्यायति, "स्मृत्यर्थ-" २।२।११। इति कर्मणो वा व्याप्यत्वम् । अशित्यात्वे दध्यौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट, ध्याता। णौ ध्यायति वनगुल्मं कोकिलः,ध्यापयत्येनं वनगुल्मः, अत्र "अणिक्कर्म-" ३।३।८८। इति स्मृत्यर्थवर्जनादात्मनेपदं न भवति । दुष्टं मां च ध्यायतीति “आतो डो-" ५।१।७६। इति डे दूढ्यः माढ्यः, आध्यायन्ति तमिति “स्थादिभ्यः-" ५।३।८२। इति के आढ्यः, पृषोदरादित्वात् साधवः । सन्ध्यायन्त्यस्यामिति "स्थादिभ्यः-"५।३।८२। 5 इति के सन्ध्या । मां ध्यायतीति डे मध्यम् । “व्यञ्जनान्तस्था-"४।२।७१। इति ध्यावर्जनात् क्तयोस्तस्य नत्वाभावे ध्यातः ध्यातवान् । “दिद्युद्दत्-" ५।२।८३। इति निपातनात् क्विपि ध्यायतीत्येवंशीला धीः। उणादौ "तीवर-" (उ० ४४४) इति निपातनात् वरटि धीवरः । “ध्या-प्यो( पी च" (उ० ९०८) इति क्वनिपि धीवा ।।
३१ ग्लै हर्षक्षये । इह हर्षक्षयो धात्वपचयः । ग्लायति । अशित्यात्वे जग्लौ। अनुस्वारेत्त्वाद् 10 नेद्, ग्लाता । “संयोगादेर्वाऽऽशिष्येः" ४।३।९५। म्लेयात् ग्लायात् । णौ "ज्वल-हल-"४।२।१२।। इत्यनुपसर्गस्य वा इस्वत्वे ग्लपयति ग्लापयति । “व्यञ्जनान्तस्था-"४।२।७१। इति क्तयोस्तस्य नत्वे - ग्लानः ग्लानवान् । “स्था-ला-" ५।२।३१॥ इति सौ म्लायतीत्येवंशीलो ग्लास्नुः । “म्ला-हा-" ५। ३।११८। इत्यनौ ग्लानिः । ग्लायतावुपपदे “शक-धृष-"५।४।९०। इति तुम् , ग्लायति भोक्तुम्। उणादौ "ग्ला-नुदिभ्यां डौः" (उ० ८६८) म्लौश्चन्द्रः ॥
16 ३२ म्लैं गात्रविनामे । विनामः कान्तिक्षयः । म्लायति । अशित्यात्वे मम्लौ। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , म्लाता । म्लेयात् म्लायात् । म्लानः । “स्था-ला-म्ला-" ५।२।३१। इति स्वौ म्लास्नुः । ये तु म्लायतेरपि "ग्ला-हा-"५।३।११८। इत्यनिमिच्छन्ति तन्मते म्लानिः ।
३३ चैं न्यङ्गकरणे । कुत्सितमङ्गं न्यङ्गम् । द्यायति । अशित्यात्वे दद्यौ । अनुस्वारेत्त्वात् नेट, द्याता । घेयात् द्यायात् । द्यानः॥
20 ३४ ३ स्वमे । द्रायति । अशित्यात्वे दद्रौ । अनुस्वारेत्त्वात् नेट् , द्राता। द्रेयात् दायात् । निद्राणः । “शीङ्-श्रद्धा-" ५।२।३७। इत्यालौ निद्राणशीलो निद्रालुः । “उपसर्गादातः"५।३।११०। इत्यङि निद्रा । तारकादित्वात् इते निद्रितः । द्राक् कुत्सितगतौ द्राति, निद्राति ॥
३५ 3 तृप्तौ । प्रायति । अशित्यात्वे दध्रौ । अनुस्वारेत्त्वात् नेट् , भ्राता। "ऋ-ही-त्रा"४।२। ७६। इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे भ्राणः भ्राणवान् , भ्रातः धातवात् । श्रेयात् ध्रायात् ॥
25 ३६ के ३७ - ३८ रै शब्दे । कायति । अशित्यात्वे चकौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेद्, काता। उणादौ "भीण्शलि-" (उ० २१) इति के काकः॥ में। गायति । अशित्यात्वे जगौ । क्ये
१ ननु अत्र "नामिनो गुणः" ४।३।१॥ इति कथं न गुणः ऐकारस्यापि नामित्वाद् । इति चेत् 'ऐकारोपदेशबलान्न गुणः' इति सिद्धहेमबृहवृत्तौ ४॥३॥१॥ सूत्रे, यद्वा 'गुण इति सान्वयसम्ज्ञाममाश्रयणात् न गुणः, ऐकाराद् एकारस्य हीनत्वात्' इति क्रियारत्नसमुच्चये ॥२ "तदस्य सखातं तारकादिभ्य इतः" ॥१॥ १३८। इति सूत्रम् ॥
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१६
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भुवादिगणे गीयते । “गा-पा-" १।३।९६। इत्येत्वे गेयात् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , गाता । “यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्च" ४।४।८६। इतीटि से च अगासीत् अगासिष्टाम् । इणादेशस्य तु अगात् । “भव्य-गेय-" ५।१७। इति वा कर्तरि ये गेयो माणवको गाथानाम् , पक्षे कर्मणि गेया माणवकेन गाथाः । “गस्थ
कः" ५११६६। इति थके गानशिल्पो गाथकः । "टनण्" ५।१।६७। इति टनणि गायनः, गायनी । 5 "गायोऽनुपसर्गात् टक्" ५।११७४। इति टकि सामगः, सामगी। "उपसर्गात्" ५।३।११०। इत्यङो
ऽपवादे “गा-पा-पचो भावे" ५।३।९५। इति क्तौ प्रगीतिः, उपगीतिः । उणादौ "कमि-गु-गा-" (उ० २२५) इति थे गाथा। "नी नू-रमि-" (उ० २२७) इत्युत्पूर्वात्किति थे उद्गीथ ओंकारः । "कृसि-कमि--" (उ० ७७३) इति तुनि गातुः । “हु-पूग्गोन्नी-" (उ० ८६३) इति तृः, उद्गाता ।
गांङ् गतौ गाते॥ 10 रै रायति । अशित्यात्वे ररौ। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , राता । अरासीत् अरासिष्टाम् । रांक्. दाने राति धनम् ॥
३९ ष्ट3 ४० स्त्य सङ्घाते च । चकारात् शब्दे । ष्ट्यायति । "षः सो-" २।३१९८। इति ट्यैवर्जनात् षस्य सोऽत्र न भवति । अशित्यात्वे तष्टयौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , ष्ट्याता ॥
स्त्य । स्त्यायति । अशित्यात्वे तस्त्यौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , स्त्याता । “प्रसमः स्त्यः स्तीः" । 15 ४।१।९५। इति स्तीभावे प्रसंस्तीतः, प्रसंस्तीतवान् । “प्रात् तश्च मो वा" ४।१।९६। प्रस्तीमः प्रस्ती
मवान् , प्रस्तीतः प्रस्तीतवान् । “व्यञ्जनान्तस्था-" ४।२।७१। इति क्तयोस्तस्य नत्वे संस्त्यानः संस्त्यानवान् । उणादौ “दिन-नम-" (उ० २६८) इति निपातनात् ने स्तेनः । “स्त्री" (उ० ४५०) इति निपातनाद् डिति त्रटि स्त्री ॥
४१ बैं खदने । खदनं हिंसा स्थैर्य च । खायति । अशित्यात्वे चखौ ! अनुस्वारेत्त्वाद् नेट्, खाता । 20 ४२ ४३ – ४४ सैं क्षये । क्षायति, जायति, सायति । अशित्यात्वे चक्षौ, जजौ,
ससौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , क्षाता, जाता, साता । "झै-शुषि-" ४।२।७८। इति क्तयोस्तस्य मत्वे क्षामः क्षामवान् ॥
४५ मैं ४६ पाके । सायति । अशित्यात्वे सस्रौ । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , नाता । ते खाणः ॥
3। श्रायति । शत्रौ । श्राता । णौ पाके घटादित्वाद् इस्वत्वम् , अपयति । पाकादन्यत्रै श्रापयति। 25 ते "श्रः शृतं हविः क्षीरे" १।१।१००। इति निपातनात् शृतं क्षीरं हविर्वा । "श्रपेः प्रयोक्क्ये " ४।१।१०१। श्रेप्यते स्म शृतं क्षीरं हविर्वा । श्रांक पाके श्राति ॥
१अत्र 'इणिकोर्गाः' ४।४।२३। इति गादेशे कृते “यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्च" ४।४।८६। इति सूत्रस्य आदन्तत्वेऽपि नैव प्रवृत्तिः, "पिबैति-दा-भू-स्थ:-" ४३३२६६। इत्यत्र एति इत्यनेन इण-इकोर्ग्रहणात् प्रथममेव सिच्लोपात् ॥ २ उपगीतिः सं१ सं२ तपा० नास्ति ॥ ३ अनेकार्थत्वात् सं१ तपा० टि.। 30४ श्वेदयतीत्यर्थः सं१ तपा० टि. ।
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परस्मैधातवः ३९-६१] स्वोपलं धातुपारायणम् ।
४७ पैं ४८ ओवैं शोषणे। पायति, अस्य पारूपं लाक्षणिकमिति "श्रौति-" ४।२।१०८। इति पिबादेशो न भवति । अशित्यात्वे पपौ। अनुस्वारेत्वाद् नेट् , पाता । णौ "पा-शा-" ४।२।२०। इति येऽन्ते पाययति। क्ये निपीयते । आशिष्येत्वे पेयात् । पां पाने पिबति । पांक रक्षणे पाति ॥
ओ३ । वायति । ववौ । वाता। ओदित्त्वात् "सूयत्यादि-"४।२।७०। इति क्तयोस्तस्य नत्वे वानः वानवान् । उणादौ "कृ-वा-पा-जि-" (उ० १) इत्युणि वायुः । वांक् गति-गन्धनयोः वाति ॥ 5
४९ ष्ण वेष्टने । स्नायति, "षः सो-"२।३।९८॥ इति सत्वम् । अशित्यात्वे सनौ । अनुस्वारेत्त्वात् नेट् , माता । उणादौ "कृ-वा-पा-जि-" (उ० १) इत्युणि स्नायुः । ष्णांक शौचे साति । ष्णांक शौचे इत्यत्र दर्शितप्रयोगा अत्राप्यूयाः, वेष्टने मायतीति प्रयोगार्थत्वादिहैतत्पाठस्य ॥ अथ कान्ताः पञ्च सेटश्च
५० फक नीचैर्गतौ । अकारः श्रुतिसुखार्थः, एवं शेषेष्वदन्तेषु । नीचैर्गतिर्मन्दगमनम् अस- 10 द्वयवहारो वा । फक्कति । पफक्क । फक्किता । "केटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये फक्का । ते फक्ति निगीर्णम् ॥
५१ तक हसने । सहने इत्यन्ये । तकति । तकिता । "शकि-तकि-"५।१।२९। इति ये तक्यम् ॥
. ५२ तक कृच्छ्रजीवने । उदिद् "उदितः स्वरान्नोऽन्तः” ४।४।९८। इति नागमार्थः । तति, 15 आतङ्कति । तैशिष्यति । घनि आतः ॥
५३ शुक गतौ । शोकति । शुशोक। शोकिष्यति। "नाम्युपान्त्य-"५।१५४। इति के शुकः। उणादौ “शुक-शी-मूभ्यः कित्" (उ० ४६३) इति ले शुक्लः॥
५४ बुक्क भाषणे । भषणे इत्यन्ये। भषणं भर्त्सनम् । बुक्कति श्वा । बुकिष्यति । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये बुक्का ॥
20 'अथ खान्ता द्वाविंशतिः सेटश्व
५५ ओख ५६ राख ५७ लाख ५८ द्राख ५९ धाख शोषणा-ऽलमर्थयोः । ओखति । "उपसर्गस्यानिणेघेदोति" १।२।१९। पोखति । "गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। इत्यामादेशे ओखाञ्चकार। ऋदित्त्वाद् ऊपरे णौ “उपान्त्यस्या-" ४।२।३५॥ इति न ह्रस्वः, मा भवानोचिखत् । ऋदित्त्वादेव चौतो नेत्सञ्ज्ञा प्रयोगित्वाच ॥ राख । राखति । अरराखत् ॥ लाख । लाखति । अललाखत् ।। 25
द्राख । दाखति । अदद्राखत् ॥ धाख । धाखति । अदधाखत् । केचिदमुं नाधीयते ॥ - ६० शाख ६१ श्लारव व्याप्तौ। शाखति । ऋदित्त्वात् अशशाखत्। अचि "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये वा शाखा । उणादौ "कृ-शक्-"(उ० १६०) इत्योटे शाखोटो वृक्षः। शाखेरिदेतौ चातः” (उ० ४००) इत्यरे शिखरम् , शेखरः॥ लाख । लाखति । अशलाखत् ॥
१ नेट् सं१ सं२ त० प्र० मु० नास्ति ॥ २ मातविष्यति खे॥ धा० पा० ३
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ६२ कक्ख हसने । कक्खति । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये कक्खा। उणादौ "दिव्यवि-" (उ० १४२) इत्यटे कक्खटः । द्वितीयादिमेतं केचिन्मन्यन्ते, खक्खति । खक्खा ॥
६३ उरा ६४ नख ६५ णख ६६ वख ६७ मख ६८ रख ६९ लख ७० मखु ७१ रखु ७२ लखु ७३ रिखु ७४ इख ७५ इखु ७६ ईखु ७७ वल्ग ७८ रगु ७९ लगु 5 ८० तगु ८१ श्रगु ८२ श्लगु ८३ अगु ८४ वगु ८५ मगु ८६ स्वगु ८७ इगु ८८ उगु
८९ रिगु ९० लिगु गतौ । ओखति । "उपसर्गस्यानिणेधेदोति" १।२।१९। इत्युपसर्गावर्णलोपे पोखति । "नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के उखा ॥ नख । नखति । प्रनखति, नोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्गा-” २।३।७७॥ इति न णत्वम् । अचि नखः ।। णख । नखति । प्रणखति,
णोपदेशत्वाद णत्वम् ॥ वख । वखति ॥ मख । मखति । बाहुलकात् “व्यञ्जनाद्-" 10 ५।३।१३२। घजपवादे "पुन्नाम्नि घः" ५।३।१३०। इति घे मखः ॥ रख । रखति ॥
लख । लखति ॥ मखु । मङ्खति । उदित्त्वाद् नेऽन्तेऽचि मङ्खो बन्दी॥ रखु । रङ्गति ।। लखु । लङ्घति ॥ रिखु । रिङ्गति। रिङ्गणः, रिडणं स्खलनम् ॥ इख । एखति ।।
इखु । इङ्गति, प्रेङ्खति । प्रेङ्खा ॥ ईखु । ईडति ॥ ____ अथ गान्ता अष्टादश सेटो वल्गवर्जा उदितश्च15 वल्ग। वल्गति । "व्यञ्जनात्-" ५।३।१३२। घनि वल्गो वल्गेत्यर्थः ॥ रगु। रङ्गति । उदित्त्वाद् नागमे "व्यञ्जनात्-" । ५/३।१३२॥ पनि रङ्गति-सङ्गच्छते जनोऽस्मिमिति रङ्गः ॥
लगु । लङ्गति । “लङ्गि-कम्प्योः -" ४।२।४७। इति नलोपे विलगितः पशुः । घञि लङ्गः, खञ्जनेऽयं रूढः ॥ तगु। तङ्गति। तगुः स्खलने रूढः॥ श्रगु। श्रङ्गति ।। श्लगु। श्लङ्गति ॥ अंगु। अङ्गति । अचि अङ्गम् । उणादौ "अग्यङ्गि-" (उ० ४०५) इत्यारे अङ्गारः . 20 "मस्यांस--" (उ० ६९९) इत्युरौ अङ्गुरिः, लत्वे अङ्गुलिः ॥ वगु। वङ्गति । अचि वङ्गः ।
वगुर्गतिवैकल्ये रूढः॥ मगु । मङ्गति । मङ्गः । उणादौ “मङ्गेर्नलुक् च" (उ० २५३) इत्यधे मगधाः । "मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इत्यले मङ्गलम् । “हृषि-वृति-" (उ० ४८५) इत्युले मङ्गुलम् । स्वगु । खगति ॥ इगु। इङ्गति । क्ते इङ्गितम् । अनटि प्रेङ्गण, "नाम्यादेरेव
ने” २।३।८६। इति णत्वम् ॥ उगु । उङ्गति ॥ रिगु। रिङ्गति ॥ लिगु। लिङ्गति, 25 आलिङ्गति । “व्यञ्जनात्-" ५।३।१३२। घनि णावचि वा लिङ्गम् । लिगुण चित्रीकरणे लिङ्गयति ॥ वखमुदितमप्येके पठन्ति, वङ्क्षति ॥
९१ त्वगु कम्पने च । चकाराद् गतौ । स्थितस्यैव चलनं कम्पनम् । गतिर्देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया। त्वङ्गति । अचि त्वङ्गः॥
९२ युगु ९३ जुगु ९४ वुगु वर्जने । युगति । जुङ्गति । वुङ्गति ॥
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परस्मैधातवः ६२-१०४] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
अथ घान्ताश्चत्वारः सेटो गग्यवर्जा उदितश्च९५ गग्ध हसने । गग्घति । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये गग्धा । घादिरयमित्येके, घग्घति ॥ ९६ दघु पालने । वर्जनेऽपीत्यन्ये । दङ्घति ॥
९७ शिघु आघाणे। आघाणं गन्धोपादानम् । शिवति । उणादौ "धा-लू-" (उ० ७०) इत्याणके शिवाणको नासामलः । “शी-भी-” (उ० ७१) इत्यानके शिवानकः श्लेष्मा ॥ 5
९८ लघु शोषणे। लङ्घति । लघुङ् गतौ लङ्घते ॥ अत्र मघु मण्डने इत्येके पठन्ति, मङ्घति ॥
अथ चान्ता विंशतिः सेटश्च९९ शुच शोके । शोचति । शोचिष्यति । ते सेट्त्वात् कत्वाभावे घ्यणि शोच्यः । न्यङ्कादित्वाद् घनि कत्वे शोकः । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के शोचति शुचः । “भूषा-क्रोधार्थ-" ५।२।४२॥ इत्यने शोचनशीलः शोचनः । उणादौ "नाम्युपान्त्य-" (उ० ६०९) इति किति इप्रत्यये 10 शुचिः । "रुच्यर्चि-" (उ० ९८९) इतीसि शोचिः ॥
१०० कुच शब्दे तारे। तारे उच्च इत्यर्थः । शब्दमात्रेऽपीत्यन्ये । कोचति । चुकोच । “उति शवर्हाभ्यः क्तौ भावारम्भे" ४।३।२६॥ इति वा कित्त्वे कुचितम् कोचितमनेन, प्रकुचितः प्रकोचितः। कुच सम्पर्चनेति ज्वलादौ पठिष्यमाणोऽपीहार्थविशेषात् पुनः पठितः ॥
१०१ क्रुश्च गतौ । क्रुञ्चति । क्रुञ्चन् । “युजञ्च-" २।१।७१। इति नस्य ङविधानात् को नलो- 15 पाभावे क्रुङ् । “प्रज्ञादि-" ७।२।१६५। इत्यणि क्रौञ्चः । अजादित्वात् स्त्रियामापि क्रुञ्चा ॥
१०२ कुश्च च कौटिल्या-ऽल्पीभावयोः। चकारः क्रुश्चोऽनुकर्षणार्थः, तेन क्रुश्चस्वैयर्थ्य सिद्धम्, गतेरन्यस्य वा कौटिल्ये द्रव्यस्याल्पीभावे । कुञ्चति । णके कुञ्चिका । विपि नलोपे कुक् । ते "नो व्यञ्जनस्यानुदितः" ४।२।४५। इति नलोपे सङ्कुचितः, निकुचितः । सहोचितः इति तु कुच शब्दे तारे इत्यस्य, अनेकार्थत्वाच धातूनां कौटिल्यार्थता ॥
20 १०३ लुश्च अपनयने । अनुपयुक्तापासने । लुञ्चति । “ऋत्तृष-"४।३।२४। इति क्त्वो वा कित्त्वे लुचित्वा लञ्चित्वा । क्तयोरपि वा कित्त्वमित्येके, तन्मते लुचितम् लुञ्चितम् ॥
१०४ अर्च पूजायाम् । अर्चति । “अनातो नश्चान्त--" ४।१।६९। इति पूर्वस्याऽऽत्वे नेऽन्ते च आनर्च । क्ते सेट्त्वाद् घ्यणि कत्वाभावे अWः, अर्चेरपि कत्वमिच्छन्त्येके, अर्यः। "ज्ञानेच्छार्चा-" ५।२।९२॥ इति सति ते अर्चितः। "क्तयोरसदाधारे" २।२।९१। इत्यत्र सतो वर्जनात् 25 प्रतिषेधाभावे "कर्तरि" २।२।८६। इति षष्ठयां "ज्ञानेच्छा -" ३।१।८६। इति च समासाभावे ब्राह्मणस्यार्चितः । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यप्रत्यये अर्चा । उणादौ "भीण्शली" (उ० २१) १ "क्तेऽनिट-"1१1१११। इत्यत्र अनिट इत्युक्तत्वात् ।। २ "
न्य द्भमेघादयः" ४।१।११२॥ इति सूत्रम् ॥ ३ सकोचक खे० सं१ सं२ प्र० तपा० । सोधिक वा• ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे इति के अर्कः । “रुच्यर्चि-" (उ० ९८९) इतीसि अर्चिः । अर्चिण् पूजायाम् अर्चयति, अर्चते ।।
१०५ अञ्चू गतौ च । चकारात् पूजायाम् । अञ्चति। "क्रियाव्यतिहारेऽगति-"३।३।२३। इति गत्यर्थवर्जना गतौ नाऽऽत्मनेपदम् , व्यत्यञ्चति मिथुनं ग्रामम् ; पूजायां तु प्रतिषेधाभावादात्मनेपदमेव,
व्यत्यञ्चते मिथुनं देवम् । क्ये गतौ "अञ्चोऽन_याम्" ४।२।४६। इति नलुकि अच्यते; पूजायामर्चा5 वर्जनाद् नलोपाभावे अञ्च्यते । “अनातो-" ४।१।६९। इति पूर्वस्याऽऽत्वे नेऽन्ते च आनश्च । ऊदि
त्त्वाद् "उदितो वा" ४।४।४२। इति क्त्वायां वेटि अक्त्वा अञ्चित्वा; अर्चायां "लुभ्यश्चेः-" ४।४।४४। इति क्तयोः क्त्वायां च नित्यमिट्, अञ्चिता अस्य गुरवः, अश्चितवान् गुरून् , अञ्चित्वा गुरून् । “पूदिव्यञ्चेः-" ४।२।७२। इति क्तयोर्नत्वे “समक्नौ शकुनेः पादौ"; "-अनपादाने" ४।२।७२।
इत्युक्तेः “उदक्तमुदकं कूपात्", सापादानार्थे न नत्वम् । क्कावर्चायां नलोपाभावेऽनर्चायां तु नलुक्यपि 10 "अचः" १।४।६९। इति घुटि नागमे प्राङ् प्राञ्चौ प्राञ्चः; शसादौ गत्यर्थे प्राचः प्राचेत्यादि, पूजने
तु नलोपाभावे "अच्च् प्राग्-" २।१।१०४। इति चोऽभावे प्राञ्चः प्राञ्चेत्यादि । “भावाकोः" ५।३।१८। पञि पर्यङ्कः पल्यतः, “क्तेऽनिट-" ४।१।१११॥ इति कत्वम् । “उदकोऽतोये" ५।३।१३५॥ इति निपातनाद् घञि उदच्यतेऽनेनेति उदको घृतस्य; तोये तु जलोदश्चनः, “करणा
धारे" ५।३।१२९। इत्यनट् । उणादौ “अञ्चेः क च वा" (उ० ६५६) इत्यतौ अङ्कतिः, कत्वाभावे 15 अञ्चतिः । “नेरच्चेः” (उ० ७२४) इत्युप्रत्यये न्यङ्कः, न्यैवादित्वात् कत्वम् , कत्वाभावे न्यञ्चुः स्वेदबिन्दुः ॥
१०६ वञ्चू १०७ चञ्चू १०८ तञ्चू १०९ त्वञ्चू ११० मञ्चू १११ मुञ्चू ११२ मुञ्चू ११३ बुचू ११४ म्लुचू ११५ ग्लुञ्चू ११६ पस्च गतौ । पस्चवर्जा ऊदितो दश ।
वञ्चति । यडि "वञ्च-संस-" ४।१।५०। इति न्यागमे वनीवच्यते । यङन्तादचि वनीवचः । 20 यङ्लुपि वनीवञ्चीति । ऊदित्त्वात् क्त्वायां वेट् , वक्त्वा; इटि "ऋत्तष-" ४।३।२४। इति क्त्वो वा
कित्त्वे वचित्वा वञ्चित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् इतीडभावे वक्तः वक्तवान् । वञ्चित इति तु वञ्चिण प्रलम्भने इत्यस्य । घनि “न वञ्चेर्गतौ" ४।१।११३। इति कत्वाभावे "वञ्चं वश्चन्ति वाणिजाः"; गतेरन्यत्र कत्वे वकं काष्ठम् , "नाम्नि" ३।२।७५। इति दीर्घ अष्टावकः । णौ फलवत्कर्तर्यात्मनेपदे
प्राप्ते “चल्याहारार्थे-" ३।३।१०८। इति परस्मैपदं भवति, अहिं वश्चयति, गमयतीत्यर्थः । णिगन्तात्तु 25 प्रलम्भने वर्तमानादफलवत्कर्तर्यपि "प्रलम्भे गृधि-वच्चेः" ३।३।८९। इत्यात्मनेपदम् , बालं वश्चयते ।
अणिगन्तस्तु प्रलम्भने पश्चिण् प्रलम्भने इति चुरादिरयम् , बालं वञ्चयते । चौरादिकादेव णिचि णिगन्तात् प्रलम्भे इत्यात्मनेपदमित्येके । उणादौ "भृ-शी-शपि-"(उ० २३२) इत्यथे वञ्चथः अध्वा । "ऋज्यजि-" (उ० ३८८) इति किति रे वक्रम् , न्यङ्कादित्वात् कत्वम्॥ चञ्चू । चञ्चति ।
१ सापादानेऽर्थे वा० ॥ २ तेऽनिट्त्वात् कत्वम् संपा०१ वा०॥ ३ञ्चनी, "क" वा० ॥ ४-५ 'न्य कृद्रमेघादयः' ४।१।११२॥
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परस्मैधातवः १०५-१२१] स्वोपझं धातुपारायणम् । चक्त्वा चञ्चित्वा । क्तयोः चक्तः चक्तवान् । घनि चङ्कः । अचि चञ्चा तृणपुरुषः । उणादौ "मृदिकन्दि-" (उ०४६५) इत्यले चञ्चलः । चाचल इति तु चलेर्यङन्तादचि रूपम् , अत्र लस्यानुनासिकत्वाभावपक्षे पूर्वस्य म्वभावः, अनुनासिकत्वे तु मौ चञ्चल इत्यपि । “भू-मृ-तृ-त्सरि-"(उ० ७१६) इत्युप्रत्यये चञ्चुः ॥ तञ्चू । तञ्चति । तक्त्वा तञ्चित्वा। तक्तः तक्तवान् । उणादौ "ऋज्यजि-" (उ० ३८८) इति रे तक्रम् ॥ त्वञ्चू । त्वञ्चति । त्वक्त्वा त्वञ्चित्वा ॥ मञ्चू । मञ्चति । । अचि मञ्चः । मक्त्वा मञ्चित्वा । क्ते मक्तः। मचुङ् धारणोच्छ्राय-पूजनेषु च मञ्चते॥ मुञ्चू। मुञ्चति । मुक्त्वा मुश्चित्वा ॥ मुञ्चू । ढुञ्चति । मुक्त्वा मुश्चित्वा ॥ चू । मोचति । अद्यतन्याम् "ऋदिच्छ्रि-स्तम्भू-मुचू-म्लुचू-ग्रुचू-ग्लुचू-ग्लुञ्चू-जो वा" ३।४।६५। इत्यङि अग्रुचत् , अम्रोचीत् । मुक्त्वा, सेटः क्त्वो “वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति वा कित्वे मुचित्वा मोचित्वा ॥
म्लुचू । म्लोचति । अम्लुचत् अम्लोचीत् । म्लुक्त्वा म्लुचित्वा म्लोचित्वा । “मूलविभुजा-" ५।१। 10 १४४। इति निपातनात् के मलिनं म्लोचति मलिम्लुचः ॥ ग्लुञ्चू । ग्लुञ्चति । अग्लुचत् अग्लुचीत् । ग्लुक्त्वा ग्लुञ्चित्वा॥ पस्च । “षः सो-"२।३।९८। इति षस्य सत्वे “सस्य शषौ" ११३१६१। इति सस्य शत्वे च सश्चति । षोपदेशत्वाद् णौ सनि पत्वे सिषश्चयिषति; सनि षत्वापन्ने "णि-स्तोरेवा-"२।३।३७। इति नियमात् षत्वाभावे सिसश्चिषति । यङि सासश्च्यते । यङ्लुपि सासश्चीति सासक्ति; दिवि असासक्, अत्र “ड्-नः सः त्सोऽश्वः" १।३।१८। इति श्चो वर्जनाद् 5 "दन्त्यसकारापदिष्टं कार्य तदादेशस्य तालव्यस्यापि भवति" इति “संयोगस्यादौ-"२।११८८। इति शस्य लुकि चस्य कत्वम् ॥
११७ ग्रुचू ११८ ग्लुचू स्तेये । गतावपि केचित् । पोचति । वा अङि अग्रुचत् अग्रोचीत् । ग्रुक्त्वा मुचित्वा ग्रोचित्वा । ग्लुचू । ग्लोचति । अग्लुचत् अम्लोचीत् । ग्लुक्त्वा ग्लुचित्वा ग्लोचित्वा । घञि ग्लोचः, लक्ष्यानुरोधात् कत्वाभावः ।।
20 अथ छान्ता एकादश सेटश्च
११९ म्लेछ अव्यक्तायां वाचि । “स्वरेभ्यः” १।३।३०। इति छस्य द्वित्वे म्लेच्छति । मिम्लेच्छ । अचि म्लेच्छः । यङ्लुपि मेम्लेष्टि; वस्मसोः “अनुनासिके च–' ४।१।१०८। इति छस्य शत्वे मेम्लेश्वः मेम्लेश्मः, निरनुनासिकत्वे तु शत्वाभावे मेम्लेच्छुः; दिवि अमेम्लेट् । "क्षुब्ध-विरिब्ध-"१।४।७०। इति निपातनात् के लिष्टमविस्पष्टम् , म्लेच्छितमन्यत् ।।
१२० लछ १२१ लाछु लक्षणे । छस्य द्वित्वे लच्छति, लक्षयतीत्यर्थः, अङ्कयतीति वा । लाछु । उदित्त्वाद् नागमे लाञ्छति, स एवार्थः। विपि लान् । यङ्लुपि लालांष्टि; क्विपि "अनुनासिके च-” ४।१।१०८। इति शत्वे संयोगान्तलोपे लालान् । अनटि लाञ्छनम् ॥
१ लक्षयतीत्यर्थः , अङ्कयतीति वा योऽर्थः ।।
25
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे १२२ वाछु इच्छायाम् । उदित्त्वाद् नागमे वाञ्छति, वाञ्छा, वाञ्छितम् । क्विपि वान् वांशौ वांशः॥
१२३ आछु आयामे । उदित्त्वाद् नेऽन्ते आञ्छति । क्ये आञ्छयते । “अनातो नश्वा-" ४।१।६९। इत्यातो वर्जनाद् आत्व-नागमयोरभावे आञ्छ आञ्छतुः। विपि आन् , स्वान् स्वांशी 5 स्वांशः । क्ते आञ्छितः ॥
१२४ हीछ लजायाम् । छस्य द्वित्वे ह्रीच्छति । जिहीच्छ । हीच्छा ॥ - १२५ हुर्छा कौटिल्ये । इर्छति, "भ्वादेर्नामि-" २।१।६३। इति दीर्घत्वम् । आदित्त्वात्
"आदितः” ४४४७१। इति क्तयोरेडभावे हूर्णः हर्णवान् । “नवा भावारम्भे" ४।४७२। इति
वेडभावे हूर्छितम् हर्णमनेन, प्रहूर्छितः प्रहूर्णः । यङ्लुपि “राल्लुक्" ४।१।११०। इति छस्य 10 लुकि "लघो:-" ४।३।४। इति गुणे जोहोर्ति, ईति जोहुर्थीति । किपि हू: हुरौ हुरः ॥ .. .
१२६ मुर्छा मोह-समुच्छ्राययोः । मूर्छति । आदित्त्वात् क्तयोरिडभावे मूर्तः मूर्तवान् , "र-दादभूर्छ-"४।२।६९। इति वर्जनात् क्तयोस्तस्य न नत्वम् । क्तेऽनिट्त्वात् "क्तेटो गुरोः-"५।३।१०६। इत्यप्रत्ययाभावे क्तौ मूर्तिः । मूछेति तु भिदादित्वादङि । तारकादित्वात् इते मूर्छितः । “नवा भावा
रम्भे" ४।४।७२। इति वेडभावे मूर्छितम् मूर्तमनेन, प्रमूर्तः प्रमूर्छितः ॥ 15 १२७ स्फुर्छा १२८ स्मुर्छा विस्मृतौ । स्फूर्छति । स्फूर्णः । स्फूर्छितम् , स्फूर्णमनेन । क्तौ . स्फूर्तिः ॥ स्मुर्छा । स्मूर्छति । स्मूर्णः स्मर्णवान् । स्मूर्छितम् स्मर्णमनेन स्मूर्छा ॥
१२९ युछ प्रमादे । छस्य द्वित्वे युच्छति । “श्यशवः" २।१।११६॥ इत्यतुरन्तादेशे युच्छन्ती। क्विपि युट् ॥ अत्र 'उछु उञ्छे, उछै विवासे' इति केचित् पठन्ति, तदयुक्तम् , तुदादिपठि
ताभ्यामेवामूभ्यामभिमतरूपसिद्धेः ॥ 20 अथ जान्ताश्चतुश्चत्वारिंशत् त्यज-पञ्जवर्जाः सेटश्च
१३० धृज १३१ धृजु १३२ ध्वज १३३ ध्वजु १३४ ध्रज १३५ ध्रजु १३६ वज १३७ व्रज १३८ पस्ज गतौ । धर्जति । दधर्ज । यङि "ऋमतां रीः” ४।१।५५। दरीधृज्यते । इकारोपान्त्योऽयमिति केचित् , धेजति ॥ धृजु । उदित्त्वाद् नागमे धृञ्जति । दधृञ्ज । दरीधृज्यते ॥ ध्वज । ध्वजति । “व्यञ्जनादेर्वोपान्त्यस्यातः” ४।३।४७। इति वा वृद्धौ अध्वाजीत् अध्व25) जीत् । अचि ध्वजः ॥ ध्वजु । उदित्त्वाद नागमे ध्वञ्जति । दध्वञ्ज । यङि दाध्वञ्ज्यते ॥
ध्रज । ध्रजति । दध्राज । अध्राजीत् अध्रजीत् ॥ ध्रजु । उदित्त्वाद् नागमे ध्रञ्जति । दध्रञ्ज । यडि दाध्र-ज्यते ॥ वज । वजति । अवाजीत् अवजीत् । “अनादेशादेः--"४।१।२४। इत्येत्वस्य "न शस-दद्र-" ४।१।३०। इति प्रतिषेधात् ववजतुः ववजुः । घञि वाजो नेग-पक्षी,
१ "भिदादयः" ५।३।१०८॥ २ "तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतः" ॥१।१३८॥ ३ मूर्छा सजाता अस्य इति विग्रहः ॥
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परस्मैधातवः १२२-१४१] स्वोपझं धातुपारायणम् । ते सेट्त्वाद् न गत्वम् । उणादौ "भी-वृधि-"(उ० ३८७) इति रे वज्रः॥ व्रज । व्रजति । “वद-व्रज-" ४।३।४८। इति वृद्धौ अब्राजीत् । यङि वाव्रज्यते । यङ्लुपि वावक्ति वाव्रजीति । घ्यणि परिव्राज्यम् , क्ते सेट्वाद् न गत्वम् । णके परिव्राजकः । “दिद्युद्दद्-" ५।२।८३। इत्यादिनिपातनात् क्विपि परिव्राट् । “आस्यटि-" ५।३१९७। इति क्यपि ज्या प्रव्रज्या परिव्रज्या । "गोचर-" ५।३।१३१॥ इति निपातनाद् घे व्रजन्ति. तस्मिन्निति व्रजः । वज व्रजण मार्गणसंस्का- 5 र-गत्योः वाजयति वाजयति॥ पस्ज। “षः सो-" २।३१९८। इति षस्य षत्वे “सस्य शषौ" १।३।६१। इति सस्य शत्वे "तृतीयस्तृतीय-"१।३।४९। इत्यासन्नत्वाच्छस्य जे सज्जति । गौ सनि षोपदेशत्वात् "णि-स्तोरेवा-" २।३।३७ इति षत्वे सिषज्जयिषति । “णि-स्तोरेवा-" २।३।३७। इति नियमात् सनि षत्वभूते न षत्वम् , सिसजिषति । अचि सज्जः । ते सज्जितः । क्वचिदात्मनेपदमपि दृश्यते--
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः, सज्जन्ते गुणकर्मसु । [भगवद्गीता अ० ३ श्लो० २९] - 'सज्जमानमकार्येषु" इति ॥ १३९ अज क्षेपणे च । चकाराद्गतौ । अजति । "अघक्यप्-" ४।४।२। इति वींभावे विवाय, संविवाय । “त्रने वा” ४।४।३। वींभावे प्राजिता प्रवेता, अत्रानुस्वारेत्त्वात् नेट् ; प्राजनो दण्डः, प्रवयणो दण्डः । “क्रियाव्यति-"३।३।२३। इति गत्यर्थवर्जनाद् गतौ नात्मनेपदम् , व्यत्यजन्ति ग्रामम् ; 1b क्षेपणे त्वात्मनेपदमेव व्यत्यजन्ते । “अघञ्-" ४।४।२। इत्यशिद्विषये एव वींभावे व्यञ्जनादित्वाद् यङपि, वेवीयते । घनादिवर्जनाद् घनादौ वीभावाभावः । घभि समाजश्छात्राणाम् , उदाजः खगानाम् । "समज-" ५।३।९९। इति क्यपि समज्या सभा । “समुदोऽजः-" ५।३।३०। इत्यलि समजः पशुसङ्घः, उदजः पशुप्रेरणम् । अचि अजः अजा । “ललाट-वात-" ५।१।१२५। इति खशि वातमजन्ति वातमजा मृगाः। “गोचर-सञ्चर-" ५।३।१३१॥ इति निपातनाद घे व्यजः। उणादौ "प्या-धा-" 20 (उ० २५८) इति ने वेनः प्राज्ञः । “यम्यजि-"(उ० २८८) इत्युने वयुनश्चन्द्रः । “विपिना-ऽजिना-" (उ० २८४) इति निपातनादिने अजिनम् । "ऋज्यजि-" (उ० ३८८) इति किति रे वीरः । म्थविरादिनिपातनादिरे ,अजिरम् । “मी-ज्यजि-" (उ० ४३९) इति सरे वेसरः । “पादाच्चात्यजिभ्याम्" (उ० ६२०) इति णिदिः आजिः; पदाजिः पत्तिः, “पदः पादस्याऽऽज्यातिगोपहते" ३।२।९५। इति पादस्य पदादेश आजीति निर्देशाच्च व्यादेशाभावः। “अजि-स्था-" (उ० ७६८) इति णौ वेणुः। 25 "अळ्यजि-" (उ० ९६६) इत्यसि गादेशे च अगः क्षेमम् ॥
१४० कुजू १४१ खुजू स्तेये । कोजति, खोजति। ऊदित्त्वात् क्त्वायां वेटौ, कुक्त्वा, खुक्त्वा; सेटि क्त्वि "वौ व्यञ्जना-"४।३।२५। इति क्त्वो वा कित्त्वे कुजित्वा कोजित्वा, खुजित्वा खोजित्वा ।।
१ "स्थविर-पिठिर-स्फिरा-ऽजिरादयः" (उ०४१७) इति सूत्रम् ॥
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आधार्थश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे १४२ अर्ज १४३ सर्ज अर्जरे। अर्जति । “अनातो नश्चान्त-" १।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे नागमे च आनर्ज । “अयि रः" ४।१।६। इति रस्य द्वित्वाभावे अर्जिजिषति । उणादौ “यम्यजि-" (उ० २८८) इत्युने अर्जुनः । “अर्जेज़ च” (उ० ७२२) ऋजुः । अर्जण् प्रतियत्ने अर्जयति ।।
सर्ज। सर्जति । ससर्ज । णके सर्जिका । उणादौ "कृषि-चमि-" (उ० ८२९) इत्यूः, सः क्षारः ।। 5 १४४ कर्ज व्यथने । कर्जति । चकर्ज ॥
१४५ खर्ज मार्जने च। चकाराद् व्यथने। खर्जति । चखर्ज। उणादौ “मी-मसि-"(उ० ४२७) इत्यूरे खजूरः । “कृषि-चमि-" (उ० ८२९) इत्यू:, खजूः ।।
१४६ खज मन्थे । मन्थो विलोडनम् । खजति । चखाज चखजतुः चखजुः, ' आदेशावित्वाद् “अनादेशादे:-" ४।१।२४। इति नैत्वम् । यङि चाखज्यते। यड्लुपि चाखजीति । ते खजि10 तम् । क्ते सेट्त्वाद् ध्यणि घनि च गत्वाभावे खाज्यम् खाजः। अचि खजः । उणादौ "शलि बलि-" (उ० ३४) इत्याके खजन्त्यनेनेति खजाको मन्थः, खजाका दर्वी ॥
१४७ खजु गतिवैकल्ये । गतेर्वैकल्यं विकृतत्वम् । उदित्त्वाद् नागमे खञ्जति । चखञ्ज । अचि खञ्जः । नन्द्यादित्वादने खञ्जनः । उणादौ “खर रीटः" (उ० १५२) खञ्जरीटः ॥
१४८ एज़ कम्पने । एजति । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमादेशे एजा15 चकार । ऋदित्त्वाद् “उपान्त्यस्यासमान--'' ४।२।३५। इति हस्वाभावे मा भवानेजिजत् । “एजेः" ५।१।११८। खश् , अङ्गमेजयः । एजुङ् दीप्तौ एजते ॥
१४९ ट्वोस्फूर्जा वज्रनिर्घोषे । स्फूर्जति । पुस्फूर्ज । यङि पोस्फूर्यते । यङ्लुपि पोस्फूर्जीति; दिवि "रात्सः” २।१।९०। इति नियमात् संयोगान्तलुगभावे अपोस्फूछ । वित्त्वात् "ट्वितोऽथुः"
५।३।८२। स्फूर्जथुः । ओदित्वात् क्तयोस्तस्य नत्वे आदित्वात् चेडभावे स्फूर्णः स्फूर्णवान् । “नवा 20 भावाऽऽरम्भे" ४।४।७२। इति वेडभावे स्फूर्णम् स्फूर्जितमनेन, प्रस्फूर्णः प्रस्फूर्जितः। “भ्वादेन -
मिनो--" २।१।६३। इति दीर्घ सिद्धे दीर्घोच्चारणं "भ्वादेः-" २।१।६३॥ इति दीर्घत्वस्यानित्यत्वज्ञापनार्थम् , तेन कुर्दते कुर्दनः इत्यपि सिद्धम् ॥
१५० क्षीज १५१ कूज १५२ गुज १५३ गुजु अव्यक्ते शब्दे । क्षीजति। चिक्षीज ॥
कूज । कूजति । चुकूज । क्ते कूजितम् । क्ते सेट्त्वाद् न घञि गत्वम् , कूजः ॥ गुज। 25 गोजति । जुगोज॥ गुजु । उदित्त्वाद् नागमे गुञ्जति । जुगुञ्ज । गुञ्जितम् । गुञ्जा ॥
१५४ लज १५५ लजु १५६ तर्ज भर्सने । लजति । ललाज ॥ लजु । उदित्त्वाद् नागमे लञ्जति । ललज । लजुण भासार्थः लञ्जयति ॥ तर्ज। तर्जति। ततर्ज। तर्जिण् सन्तर्जने तर्जयते॥
१ "क्तेऽनिटश्चजोः कगौ घिति" ४१।११॥ इत्यत्र ते परे अनिट्धातोर्गत्वविधानात् ॥ २"नन्द्यादिभ्योऽनः" ५।१॥५२॥ ३ "सुयत्याधोदितः"४२१७०। इत्यनेन ॥४ "आदितः"४४७१। इति सूत्रेण इडभावे "र-वर्णान्नो ग-१२।३।६३॥ इति णत्वे च ॥
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परस्मैधातवः १४२-१७३] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
१५७ लाज १५८ लाजु भर्जने च । चकारा भर्त्सने । लाजति । क्ते सेट्त्वाद् गत्वाभावे पनि लाज्यन्ते इति लाजाः॥ लाजु । उदित्त्वाद् नागमे लाञ्जति ॥
१५९ जज १६० जजु युद्धे। जजति ॥ जजु । उदित्त्वाद् नागमे जञ्जति । यङ्लुपि जाजक्ति जाजञ्जीति ॥
१६१ तुज हिंसायाम् । तोजति । तुतोज। “वौ व्यञ्जना-" ४।३।२५। इति क्त्वा-सनोर्वा कित्त्वे । तुजित्वा तोजित्वा, तुतुजिषति तुतोजिषति ॥
१६२ तुजु वलने च। चकाराद् हिंसायाम् । पालनेऽपीत्यन्ये । वलनं प्राणनम् । उदित्त्वाद् नागमे तुञ्जति । तुतुञ्ज । क्ते तुञ्जिता भूः । क्ते सेट्त्वात् "क्तेटो- ५।३।१०६। इत्यः, तुञ्जा । तुङ्ग इति तु तमेर्डित्युङ्गे । तुजुण हिंसाद्यर्थः, भासार्थश्वान्यः, तुञ्जयति ॥
१६३ गर्ज १६४ गजु १६५ गृज १६६ गृजु १६७ मुज १६८ मुजु १६९ मृजु १७० मज 10 शब्दे ॥ गर्ज । गर्जति । जगर्ज। क्ते गर्जितम् । “बहुलमेतन्निदर्शनम्" इति वचनात् चुरादित्वे गर्जयति । यल्लक्षम्
“प्रतिरवपरिपूर्णा गर्जयन्त्यद्रयोऽपि" || गजु । उदित्त्वाद् नागमे गञ्जति । जगञ्ज । अचि गञ्जा ॥ गृज । गर्जति । जगृजुः । यङि जरीगृज्यते । यङ्लुपि जरिगति जर्गक्ति । ते गृजितम् ॥ गृजु । उदित्त्वाद् नेऽन्ते गृञ्जति। 15 जगृञ्ज । यङि जरीगृञ्ज्यते । यङ्लुपि जरिगृति जति । उणादौ “य्वसि-रसि-" (उ० २६९) इत्यने गृञ्जनमभक्ष्यद्रव्यम् ॥ . मुज । मोजति । मुमोज । "वौ व्यञ्जना-" ४।३।२५। इति क्त्वासनो कित्त्वे मुजित्वा मोजित्वा, मुमुजिषति मुमोजिषति ॥ मुजु । उदित्त्वाद् ने मुञ्जति । मुमुञ्ज । अचि मुञ्जः॥ मृजु । उदित्त्वाद् ने मृञ्जति ॥ मज । मजति ॥
१७१ गज मदने च। चकारात् शब्दे । मदनं मदोत्पत्तिः । गजति। जगाज। अचि गजः । 20 गज मार्जण् शब्दे गाजयति ॥ . १७२ त्यजं हानौ । हानिस्त्यागः । त्यजति । तत्याज । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , अत्याक्षीत् । त्यक्ता। यङि तात्यज्यते । यङ्लुपि तात्यजीति तात्यक्ति । यणि "त्यज-" १।१।११८। इति गत्वप्रतिषेधात् त्याज्यम् । “युज-भुज-" ५।२।५०। इति घिनणि त्यागी। घनि त्यागः ॥
१७३ षञ्ज सङ्गे । “षः सो-" २।३।९८। इति सत्वे "दंश-सञ्जः शवि" ४।२।४९। इति 25 नलोपे सजति । “व्यञ्जनानामनिटि" ४।३।४५॥ इति वृद्धौ असाङ्गीत् । संयोगान्तत्वात् “इन्ध्यसंयोगा-"
१ तमू काकायाम् इत्यस्माद्धातोः “कमि-तमि-शमिभ्यो डित्" (उ० १०७) इति डित् उङ्गः ॥ "व्यञ्जनानामनिटि" ४।३।४५। “सः सिजस्तदि-स्योः" ४।३।६५) "अघोषे प्रथमोऽशिटः" १।३१५०। २ अत्र "च-जः क-गम्-"२।११८६॥ इति वृद्धौ ईत्त्वे प्रथमत्वे कत्वे च कृते "नाम्यन्तस्था-कवर्गात-" २।३।१५। इति सस्य षत्वे "क-षयोोगे क्षः" इति वचनात् क्षत्वं च ॥
धा.पा.४
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ४।३।२१। इति परोक्षायाः कित्त्वाभावे' ससञ्जतुः ससञ्जः । “स्था-सेनि-" २।३।४०। इत्युपसर्गात् षत्वे व्यतिषजति अभिषजति। अभिषिषड्वति । पोपदेशत्वात् णौ सनि “सञ्जेर्वा" २।३।३८। इति षत्वे सिपञ्जयिषति, पक्षे सिसञ्जयिषति । यङि सासज्यते। यङ्लुपि सासञ्जीति सासति । अनुस्वारेत्त्वाद्
नेट् , सङ्गा, सङ्क्तुम् । क्ते प्रसक्तम् । तेऽनिट्त्वाद् ध्यणि गत्वे प्रसङ्गयः । घनि उत्सङ्गोऽङ्कः । 5 “घञ्युपसर्गस्य-" ३।२।८६। इति दीचे प्रासङ्गो युगम् , निषङ्गस्तूणा । “ज-नशो नि-' ४।३।२३।
इति क्त्वो वा कित्त्वे सक्त्वा सङ्क्त्वा । यादेः क्त्वो नित्यं कित्त्वे आसज्य प्रसज्य । उणादौ “वी-सञ्ज्यसिभ्यस्थिक्" (उ० ६६९) सक्थि ।।
अथ टान्ता अष्टात्रिंशत् सेटच
१७४ कटे वर्षा-ऽऽवरणयोः । वृष्टावावरणे चार्थे । कटति । चकटतुः चकटुः, आदेशादित्वाद् 10 "अनादेशादेः-" ४।१।२४। इत्येत्वाभावोऽत्र । “व्यञ्जनादेर्वोपान्त्यस्या-" ४।३।४१॥ इति वा
प्राप्ताया वृद्धेरेदित्त्वात् "न श्वि-जागृ-" ४।३।४९। इति प्रतिषेधे अकटीत् । अचि कटति-वर्षतिमदजलं सवति कटः करिगण्डः, कटति-आवृणोति कटो वीरणादिमयः, नास्य कटोऽस्ति निकटः समीप इत्यर्थः । घनि काटः। उणादौ "द-क-न-" (3० २७) इत्यके कटकः । "कृ-कडि-"
(उ० ३२१) इत्यम्बे कटम्बो वादित्रम् । "कृ-श-प्र-पूग्-" (उ० ४१८) इति ईरे कटीरं कटी। 15 "कृ-ग-श-" (उ० ४४१) इति वरटि कटरो व्यालाश्वः, कट्टरी दधिविकारः । “पदि-पठि-" (उ.. ६०७) इति इः, कटिः। “भृ-भू-तृ-" (उ० ७१६) इत्युः, कटुः ॥
१७५ शट रुजा-विशरण-गत्य-ऽवशातनेषु । चतुर्थेषु । शटति । शशाट । अचि शटः । ण्यन्तादचि शाटी । णके शाटकः । घञि शाटः । तालव्यादिः ॥
१७६ वट वेष्टने । वटति रज्जुम् । "अनादेशादेः-" ४।१।२४। इत्येत्वस्य "न शस-दद-" 20 ४।१।३०। इति प्रतिषेधे ववटतुः ववटुः । अचि वटः। “बहुलम्" ५।१।२। इत्यकटि वट्यते वेष्ट्यते
इति वटकम् । प्यन्तादचि वाटः वाटी वाटं च वृतिः। उणादौ "पदि-पठि-” (उ० ६०७) इति इः, वटिः । “भृ-मृतृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इत्युः, वटुः । परिभाषणे घटादित्वाद् णौ वटयति । पट वटण् ग्रन्थे, अदन्तः, वटयति ॥
१७७ किट १७८ खिट उत्तासे । उत्त्रासो भयोद्गतिः उत्त्रासनं च । केटति । चिकेट । “मा25 म्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के किटः, किटी ॥ खिट । खेटति । चिखेट। खिट्यते-उत्त्रा
१ ननु “तत्र क्वसु-कानौ तद्वत्" ५।२।२। इत्यत्र क्वसु-कानयोः परोक्षावद्भावे "इन्ध्यसंयोगात् परोक्षा किद्वत्" ४।३।२१। इति संयोगान्तधातूनां कित्त्वाभावे कथं सेजिवान् बभ्रशानः : इत्यादौ न लुक् ? इति चेत्, क्वसु-कानयोः परोक्षावद्भापादेव कित्त्वे सिद्ध कित्करणं संयोगान्तधात्वर्थम् , तेन संयोगान्तात् परो.. क्षायाः कित्त्वनिषेधेऽपि अनयोः कित्त्वात् न लुगिति ॥ २ "ण्यन्तस्य त्वस्य अद्यतन्यामेव प्रयोगो दृश्यते तेन जौ के प्राचीकटत्" इति क्रियारत्नसमञ्चये ॥ .
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परस्मैधातवः १७४-१८९] स्वोपझं धातुपारायणम् । स्यतेऽनेनेति “व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२। पनि यावादित्वात् के खेटकः, आखेटकः । काभावे खेटो ग्रामोऽधमश्च ॥
१७९ शिट १८० पिट अनादरे । एतौ तालव्य-मूर्धन्यादी। शेटति । शिशेट ॥ पिट । "धः सो-" २।३।९८॥ इति सत्वे सेटति । षोपदेशत्वाद् षत्वे सिपेट ॥
१८१ जट १८२ झट सखाते। जटति। जजाट । जय्यते-संहन्यते "स्थादिभ्यः-" 5 ५।३।८२। इति के जटा । जटा अस्य सन्तीति “काला-जटा-" ७।२।२३। इति लेलो, जटालः जटिलो जटावान् । अभ्रादित्वादः जटः । स्थादित्वात् के जटः ॥ झट । झटति । उज्झटति । अचि झटः, झटा । घनि झाटः ।।
१८३ पिट शब्दे च । चकारात् सङ्घाते । पेटति । “तिक्कृतौ-" ५।११७१। इति के स्वार्थे के च पिटकः । “घञ्युपसर्गस्य-" ३।२।८६॥ इति बाहुलकाद् दीर्थे पिटाकः । लिहादित्वादचि पेटा। 10 उणादौ "छिदि-भिदि-" (उ० ३०) इति वा कित्यके पिटकः क्षुद्रस्फोटः, पेटकं चक्रम् । केचित 'पेडा' इति सिद्ध्यर्थ डान्तमेनं पठन्ति ।।
१८४ भट भृतौ । भृतिवेतनं भरणं च । भटति । बभाट । परिभाषणे घटादित्वात् णौ भटयति । अचि भटः । णके भाटकम् । उणादौ "बन्धि-वहि-" (उ० ४५९) इति इत्रे भटित्रम् । "कल्यनि-" (उ० ४८१) इति इले भटिलः । “कमि-वमि--" (उ० ६१८) इति णिदिः, भाटिः सुरतमूल्यम् ॥ 15
१८५ तट उच्छाये । तटति । तताट । अचि तटः । णके ताटकः । उणादौ "शलि-बलि-"(उ० ३४) इत्याके तटाकम् ।।
१८६ खट काझे । कासाऽस्यास्तीत्यमादित्वादः कासः, कासाविशिष्टो धात्वर्थः । खटति । चखाट । अचि खटस्तृणम् । गौरादित्वात् ड्याम् खटी। लध्वी खेटी। खटिका। उणादौ "लटिखटि-" (उ० ५०५) इति वे खट्टा ॥
१८७ णट नृतौ। नतावित्यन्ये । हिंसायामप्येके । नटति। प्रणटति, णोपदेशत्वाद् “अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वम् । नायं णोपदेश इत्येके, प्रनटयति प्रनाटयति। नेटतुः नेटुः । अचि नटः । णौ नतौ घटादित्वाद् हस्वे नटयति शाखाम् ; नृतौ हिंसायां च घटादित्वाभावे न हूखः, नटं नाटयति, प्रणाटयति, चोरस्योन्नाटयति, “जास-नाट-" ।२।२।१४। इति कर्मणो वा व्याप्यत्वम् । नटण् अवस्यन्दने नाटयति नाटकम् ॥
25 १८८ हट दीप्तौ । हटति । जहाट । णके हाटकम् ॥ १८९ षट अवयवे । “षः सो-"।२३।९८। इति सत्वे सटति । ससाट । अचि सटा । पोपदे
१ "अभ्रादिभ्यः" ॥२॥४६॥ २ "स्थादिभ्यः कः" ५।३१८२॥ ३ "लिहादिभ्यः" ५।११५०॥ ४ 'त्वाद की, ख प्र. मु.॥ ५+ + एतन्मध्यगतः पाठः सं१ संर संपा१ वा. तपा० नास्ति ।। ६ नर्तयतीत्यर्थः ॥ ७ चौरस्यो प्र. मु० ॥
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૨૮ आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे शत्वाद् णौ सनि “णि-स्तोरेवा-" २।३।३७। इति षत्वे सिपाटयिषति ॥
१९० लुट विलोटने । विलोडने इत्यन्ये । लोटति । लुलोट । लुटच् विलोटने लुट्यति । लुटण भासार्थः लोटयति ॥
१९१ चिट प्रैष्ये । प्रैष्यं दासत्वम् । चेटति । चिचेट । णके चेटको बालो दासश्च । उणादौ 5 "किलि-पिलि-" (उ० ६०८) इति इः, चेटिः ॥
१९२ विट शब्दे । आक्रोशे इत्यन्ये । वेटति । "नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के विटः । णके वेटकम् ॥ १९३ हेट विवाधायाम् । हेटति । जिहेट। डान्तोऽयमित्येके, हेडति, जिहेड ॥
१९४ अट १९५ पट १९६ इट १९७ किट १९८ कट १९९ कटु २०० कटै गतौ। 10 अटति । परोक्षायाम् "अस्यादे:-"४।१६८इति पूर्वस्याऽऽत्वे आटतुः आटुः । “अट्यर्ति--"३।४।
१०। इति यङि अटाट्यते । “आस्यटि-" ५।३।९७। इति क्यपि अट्या। “वाऽटाट्यात्' ५।३।१०३। इति यङन्ताद् ये अटाट्या; पक्षे "शंसि-" ५।३।१०५। इत्यः, अटाटा । सनि “स्वरादेः-" ४।१।४। इति द्वितीयांशद्वित्वे अटिटिषति । अने अटनः । उणादौ “सदि-वृत्यमि-" (उ० ६८०) इत्यनौ अटनिः।
"छवि-छिवि-स्फवि-"(उ० ७०६) इति वौ निपातनात् अटविः ॥ पट । पटति । पपाट । अचि 16 पटः । उणादौ "वी-पति-पटिभ्यस्तनः" (उ० २९२) पट्टनम् । “कृ-श-प-पूग्-" (उ० ४१८) इतीरे
पटीरः। "मृदि-कन्दि-"(उ० ४६५) इत्यले पटलम् , ण्यन्तात् पाटलम् । “कटि-पटि-" (उ० ४९३) इत्योले पटोलः । “क-पृ-कटि-" (उ० ५८९) इत्यहे पटहः । “भृ-मृ-तृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इत्युः, पटुः । पटण भासार्थः पाटयति । पट वटण् ग्रन्थे, अदन्तः, पटयति ॥ इट । एटति ।
इयेट किट । केटति । चिकेट । उत्त्रासे पठितोऽप्यर्थभेदात् पुनरुपात्तः ॥ कट.। 20 कटति । चकाट । “व्यञ्जनादे:-" ४।३।४७। इति वा वृद्धौ अकटीत् अकाटीत् । कटु ।
उदित्त्वाद् नागमे कण्टति । [उणादौ] "दृ-क-न-" (उ० २७) इत्यके कण्टकः ॥ कटै । कटति । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , कट्टः कट्टवान् ॥
२०१ कुटु वैकल्ये । उदित्त्वाद् ने कुण्टति । चुकुण्ट । अचि कुण्टः । डान्तोऽयमित्येके, कुण्डति, अचि कुण्डः ॥ 25 २०२ मुट प्रमर्दने । मोटति । अने आमोटनम् । णौ ते आमोटितः । उदिदयमिति कौशिका, मुण्टति । मुटत् आक्षेप-प्रमर्दनयोः मुटति । पुट मुटण् सञ्चूर्णने मोटयति ॥
२०३ चुट २०४ चुटु अल्पीभावे । चोटति । चुचोट । अनटि उच्चोटनम् । चुट छुट त्रुटत् छैदने चुटति । तुट चुट चुटु छुटण् छेदने चोटयति ॥ चुटु। उदित्त्वाद् ने चुटति । १ चौरादिकोऽप्ययं वर्तते, तत्र चुण्टयति ॥
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परस्मैधातवः १९० - २१७]
स्वोपज्ञं धातुपारायणम् ।
चुचुण्ट । अनटि चुण्टनम् । डान्तोऽयमित्यन्ये, चुण्डति, चुचुण्ड, अचि चुण्डः ॥
२०५ वटु विभाजने । विभाजनं विभागीकरणम् । उदित्त्वाद् ने वण्टति । ववण्ट । अचि वण्ट एकचरः सेवकः । घञि वण्टो भागः । वटुण् विभाजने वण्टयति ॥
२९
लुटु ।
२०६ रुटु २०७ लुटु स्तेये । उदित्वाद् ने रुण्टति । रुरुण्ट । अचि रुण्टः ॥ उदित्त्वा ने लुटति । लुलुण्ट । अचि लुण्ट: । “ वृङ्-भिक्षि- " ५/२/७०१ इति टाके लुण्टाकः । ते 5 सेट्त्वात् “क्तेटो गुरोः–” ५।३ । १०६ । इत्यः, लुण्टा । लुण्टण् स्तेये च लुण्टयति । ठान्तावेतावित्यन्ये ॥
"
२०८ स्फट २०९ स्फुट्ट विशरणे । स्फटति वस्त्रम् । पस्फाट । क्ते स्फटितम् । अचि कर्पूरस्फटा । उणादौ “क्री-कल्यलि – ” ( उ० ३८ ) इतीके स्फटिकः । उदिदयमिति केचित् तत्र ने स्फण्टति ॥ स्फुट्ट । स्फोटति । पुस्फोट । ऋदित्त्वाद् वाऽङि अस्फुटत्, पक्षे अस्फोटीत् । 10 घञि स्फोटः, आस्फोटः, विस्फोटः । स्फुटत् विकसने कुटादि:, स्फुटति, अस्फुटीत् । “नाम्युपान्त्य – ” ५/१/५४ | इति के स्फुट: । चट स्फुटण् भेदे स्फोटयति । कथं स्फुटयति ? स्फुटं करोतीति णिचि भविष्यति । “बहुलमेतत्" इति वचनाच्चुराद्यदन्तो वा स्फुटण् ज्ञेयः ॥
२१० लट बाल्ये । बाल्यं बालक्रिया । लटति । ललाट । घञि लाटः । अचि कुत्सितं लटति कुलटा, लटः, लटकः । णके लाटकः । उणादौ "लटि-खटि - " ( उ० ५०५ ) इति वेला ||
15
२११ रट २१२ रठ च परिभाषणे । चकारो लटानुकर्षणार्थ:, तेन लटेरर्थद्वयं सिद्धम् । रति । रराट । घञि विरय्यते इति विराटः । रटिता ॥
अथ ठान्ताः सप्तदश सेट -
रठ। रठति । रराठ ॥
२१३ पठ व्यक्तायां वाचि । पठति । पपाठ । णके पाठकः । के पठितम् । “ तेर्महादिभ्यः " 20 ४|४|३३| इतीटि निपठितिः । " नेर्नद-गद - " ५।३।२६ । इति वाऽलि निपठः, निपाठः ॥
२१४ वठ स्थौल्ये । वठति । ववाठ । “अनादेशादेः - " ४।१।२४ । इत्येत्वस्य " न शस-दद - " ४।१।३०। इति प्रतिषेधे ववठतुः ववदुः । उणादौ "ऋच्छि चटि - " ( उ० ३९७) इत्यरे वठरः ॥
२१५ मठ मद-निवासयोश्च । चकारात् स्थौल्ये । मठति । ममाठ । मठन्ति - निवसन्त्यत्रेति "व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२ । इति घञि प्राप्ते बाहुलकात् “पुन्नाग्नि घः " ५।३।१३० । मठः । उणादौ 25 " ऋच्छि चटि - " ( उ० ३९७) इत्यरे मठरोऽधमः ॥
२१६ कठ कृच्छ्रजीवने । कठति । चकाठ। अचि कठः । उणादौ "श्या कठि -" (उ०२८२) इतीने कठिनः । “कठि-चकि- " ( उ० ४३३) इत्योरे कठोरः । “चटि- कठि -” (उ० ७५२) इत्याकौ कठाकुः कुटुम्बपोषी ॥
२१७ हठ बलात्कारे | प्लवन - कीलबन्धनयोरित्यन्ये । हठति । जहाठ । आदेशादित्वात् "अना - 30
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादिगणे देशादे:-" ४।१।२४। इति मैत्वम् , जहठतुः जहठुः । अचि हठः ।।
२१८ उठ २१९ रुठ २२० लुठ उपघाते । ओठति । उवोठ ऊठतुः ऊठुः । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के उठ उपघातकः॥ रुठ। रोठति ॥ लुठ । लोठति। लुठत् संश्लेषणे लुठति ॥ 5 २२१ पिठ हिंसा-सङ्क्लेशयोः । पेठति । उणादौ "मृधुन्दि-" (उ० ३९९) इति कित्यरे पिठरं भाण्डम् । पिठिरमिति तु पिठेः “स्थविर-" (उ० ४१७) इति निपातनादिरे रूपम् ॥
२२२ शठ कैतवे च। चकाराद् हिंसा-सङ्क्तेशयोः। तालव्यादिः । शठति। शशाठ। अचि शठः । शठ श्वठ श्वठुण संस्कार-गत्योः शाठयति । शठण सम्यग्भाषणे अदन्तः, शठयति ॥
२२३ शुठ गतिप्रतीपाते। तालव्यादिः। शोठति। शुशोठ। उदिदयमित्येके, तत्र च ने 10 शुण्ठति । शुठण आलस्ये शोठयति ॥
२२४ कुठु २२५ लुठु आलस्ये च । चकाराद् गतिप्रतीघाते । उदित्त्वाद् ने कुण्ठति । चुकुण्ठ। कर्मणि घञि कुण्ठः । कुठारे इति तु कुठेः सौत्रस्य ॥ लुठु । लुण्ठति । लुलुण्ठ। अचि लुण्ठः ॥
२२६ शुटु शोषणे। तालव्यादिः । उदित्त्वाद् ने शुण्ठति । शुशुण्ठ। कर्मणि पनि शुण्ठी । शुरण शोषणे शुण्ठयति । उणादौ "किलि-पिलि-" (उ० ६०८) इति इः, शुण्ठि गरमेव ॥ 16 २२७ अठ २२८ रुठु गतौ । अठति ॥ रुठु। उदित्त्वाद् ने रुण्ठति ।।
लुठुमप्यन्येऽधीयते । लुण्ठति । लुलुण्ठ ॥ केचिदर्थभेदात् पुन ठमपि पठन्ति ।
अथ डान्तास्त्रिंशत् सेटश्च२२९ पुडु प्रमर्दने। उदित्त्वाद् ने पुण्डति । पुपुण्ड। णके पुण्डकम् । उणादौ "सृणीका-" (उ० ५०) इति ईके निपातनात् पुण्डरीकम् । “खुर-क्षुर-" (उ० ३९६) इति रे पुण्ड्ः ॥ 20 २३० मुड्डु खण्डने च । चकारात् प्रमर्दने । उदित्त्वाद् ने मुण्डति । मुमुण्ड । मुडुङ् मझने मुण्डते ॥
२३१ मड भूषायाम् । उदित्त्वाद् ने मण्डति । ममण्ड । “भूषा-क्रोधार्थ-" ५।२।४२। इत्यने मण्डनः । उणादौ "मृ-मन्यञ्जि-" (उ० ५८) इत्यूके मण्डूकः । “तृ-जि-" (उ० २२१) इति ण्यन्तादन्ते मण्डयन्त आदर्शः, “आमन्ता-" ४।३।८५। इति णेरयादेशः। मडण् भूषायाम् मण्ड
यति । “णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इत्यने मण्डना । वडुङ् मड्डङ् वेष्टने मण्डते ॥ 25 २३२ गडु वदनैकदेशे । गण्डगतसंहननक्रियायामित्यर्थः । उदित्त्वाद् ने गण्डति । जगण्ड । अचि
गण्डः । णके गण्डिका । उणादौ "कृ-श-कुटि-" (उ० ६१९) इति वा णिदिः, गण्डिः, णित्त्ववलाद् वृद्धौ गाण्डिः, ड्याम् गाण्डी। मण्यादित्वाद् वे गाण्डिवम् , गाण्डीवम् । “तृ-जि-" (उ० २२१) इति ण्यन्तादन्ते गण्डयन्तो मेषः ॥
१ "तुषि-कुठिभ्यां कित्" (उ० ४०८) इति कित् भारः ।। २ मण्डनः मु० । मण्डनम् प्र.॥ 30 ३ "मण्यादिभ्यः” ७॥२॥४४॥ इति सूत्रम् ॥
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परस्मैधातवः २१८-२५४] स्वोपझं धातुपारायणम् ।।
२३३ शौड गर्वे। तालव्यादिः । शौडति । शुशौड । ऋदित्त्वाद् गौ डे "उपान्त्यस्या-"४।२।३५॥ इति हस्वाभावे अशुशौडत् । उणादौ “कृ-श-प-पूग-" (उ० ४१८) इतीरे शौडीरः ॥
२३४ यौट्ट सम्बन्धे । सम्बन्धः श्लेषः । यौडति। युयौड । ऋदित्त्वाद् णौ डे "उपान्त्यस्या-" ४।२।३५। इति न हूस्वः, अयुयौडत् ॥
२३५ मे २३६ ग्रेड २३७ म्लेड २३८ लोड २३९ लौट्ट उन्मादे । मेडति, प्रेडति, 5 म्लेडति, लोडति, लौडति । ऋदित्त्वाद् ह्रस्वाभावे अमिमेडत् , अमिग्रेडत् , अमिम्लेडत् , अलुलोडत् , अलुलौडत् । शौड्रादयो लोडवर्जाष्टान्ता इत्यन्ये ॥
२४० रोद्र २४१ रौद्र २४२ तौड़ अनादरे। रोडति। रुरोड । ऋदित्त्वात् अरुरोडत् ॥
रौट्ट । रौडति । रुरौड । ऋदित्त्वात् अरुरौडत् ॥ तौड। तौडति । तुतौड। ऋदित्त्वात् अतुतौडत् ॥
२४३ कीड विहारे । क्रीडति । चिक्रीड । “क्रीडोऽकूजने" ३।३।३३। इत्यात्मनेपदम् , सक्रीडते, कूजने तु सक्रीडन्ति शकटानि । “अन्वाङ्-परेः" ३।३।३४। अनुक्रीडते, आक्रीडते, परिक्री. डते । ऋदित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, अचिक्रीडत् । “आङः क्रीड-" ५।२।५१। इति घिनणि आक्रीडनशील आक्रीडी । ते क्रीडितम् । ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, क्रीडा॥
२४४ तुडू २४५ तूड २४६ तोड़ तोडने । तोडनं दारणम् । तोडति । तुतोड। ऋदित्वाद् 15 अतुतोडत् । दारणस्य हिंसाविशेषत्वाद् "हन्त्यर्थाश्च" इति चुरादित्वे तोडयति । संयुक्तडान्तोऽयमित्येके तुडति। उभयोर्लक्ष्यम्
___ "तुडत्यंहः सकलमचिरात्तोडयत्यश्रियं च" ॥ तूड । तूडति । तुतूड। ऋदित्त्वात् अतुतूडत् । क्ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, तूडा ॥ · २४७ हुड २४८ हूट्ट २४९ हट्ट २५० हौड गतौ । होडति, इडति, हूडति, होडति । 20 ऋदित्त्वात् अजुहोडत् , अजुहूडत् , अजुहूडत् , अजुहौडत् ॥
२५१ खोड.प्रतीपाते । गतावित्यनुवृत्तेर्गतिविषये प्रतीघाते । खोडति। ऋदित्त्वात् अचुखोडत् । अचि खोडः पङ्गुः । लत्वे खोला शिरस्त्रम् ॥
२५२ विड आक्रोशे । वेडति । विवेड । [उणादौ] "कुलि-पिलि-" (उ० ४७६) इति कित्याले विडालः॥
२५३ अड उद्यमे । अडति । व्यडति । अचि व्यडः । व्यापूर्वस्य व्याडः । लत्वे व्यालः ॥
२५४ लड विलासे । लडति । लत्वे ललति । जिहोन्मन्थने घटादित्वाद् णौ हूस्वे लडयति, अन्यत्र लाडयति, लत्वे लालयति । नन्द्यादित्वादने लडना ललना । अचि लडः। लडण् उपसेवा
१ तोड्धा तोरूपाणि तुडधातुतुल्यानीति नाचार्येपोल्लिखितानीति ज्ञेयम् ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे याम् उपलाडयति । ललिण् ईप्सायाम् लालयते । "धुषेरविशब्दे" ४।४।६८। इति विशब्दप्रतिषेधाण्णिचोऽनित्यत्वे उल्ललते ॥
२५५ कडु मदे। उदित्त्वाद् ने कण्डति। चकण्ड । कडुङ् मदे उदित्त्वाद् ने कण्डते । कडमप्येकेऽत्र पठन्ति, स तु तुदादिपाठेनैव गतार्थ इति नेहाधीत ॥ 5 २५६ कद्ड कार्कश्ये। दोपान्त्योऽयम् । “तवर्गस्य-" १श६०। इति दस्य डत्वे कडुति ।
चकडु । अचि कड्डः कर्कशः । ते सेट्त्वात् “तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, कड्डा । क्विपि “पदस्य" २।१।८९। इति संयोगान्तलोपे कद् कत् । अन्ये तु डोपान्त्यमेनं मन्यन्ते, तदा संयोगान्तलोपे कड् कट् ॥
२५७ अद्ड अभियोगे। दोपान्त्यः । “तवर्गस्य-" १।३।६०। इति दस्य डत्वे अड्डति । 10 “अनातो-" ४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनड्ड । सनि "न ब-द-नम्-"४।१।५। इति दस्य द्वित्वाभावे
अड्डिडिषति । किपि “पदस्य" २।१।८९। इति संयोगान्तलोपे अद् अत् । अन्ये तु डोपान्त्यमेनं मन्यन्ते, तदा संयोगान्तलोपे अड् अट् ; सनि “न ब-द-नम्-" ४।१।५। इति प्रतिषेधाभावात् ड्डि इत्येतस्य द्वित्वे अडिड्डिषति ॥
२५८ चुड हावकरणे । हावो भावसूचनम् । दोपान्त्योऽयम् । “तवर्गस्य-" १।३।६०। इति 16 दस्य डत्वे चुडुति । चुचुड्ड । अचि चुडुं भगम् । किपि सौ “पदस्य--" २।११८९। इति संयोगान्तलोपे चुद् चुत्, साधुचुत् । डोपान्त्योऽयमित्यन्ये तत्र संयोगान्तलोपे चुड् चुट् ॥
अथ णान्ता एकानविंशतिः सेटश्च२५९ अण २६० रण २६१ वण २६२ व्रण २६३ वण २६४ भण २६५ भ्रण २६६ मण २६७ धण २६८ ध्वण २६९ ध्रण २७० कण २७१ क्वण २७२ चण शब्दे । शब्दः 20 शब्दक्रिया । अणति । आण आणतुः । “तिक्कृतो. नाम्नि" ५।११७१। इत्यकटि अणकः । अचि
अणः, कुत्सायां कपि अणकः । उणादौ "कण्यणेर्णित्" (उ० ५६) इत्युके आणुकमक्षिमलम् । "शल्यणे:-" (उ० ५९) इति णिदूकः, आणूकं तदेव । “कण्यणि-" (उ० १६९) इति वा णिडः, अण्डः आण्डः । “कृ-श-कुटि-" (उ० ६१९) इति वा णिदिः, अणिः आणिरिकीलिका । "भृ
मृ-तृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इत्युः, अणुः । “अणे?ऽन्तश्च" (उ० ८३६) इति णिदूः, आण्डू25 जलभृङ्गारः॥ रण। रणति । रराण रेणतुः रेणुः । गतौ घटादित्वाण्णौ ह्रखः, रणयति, अन्यत्र
राणयति । "प्राज-भास-" ४।२।३६। इति णौ डे वा इखत्वे अरराणत् अरीरणत् । अचि रणः । "युवर्ण-"५।३।२८। इत्यलि रण्यते रणः । रणन्त्यस्मिन्निति “व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३। घनित्यस्यापवादे बाहुलकात् "पुन्नाम्नि-" ५।३।१३०। इति घे रणः । “चालशब्दार्थात्-" ५।२।४३॥ इत्यने
१ चलश संपा१ ॥
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परस्मैधातवः २५५-२७२] स्वोपचं धातुपारायणम् । रणनशीलो रणनः॥ वण। वणति। "अनादेशादेः-" ४।१।२४। इति एत्वस्य "न शसददि-" ४।१।३०। इति वादित्वात् प्रतिषेधे ववणतुः ववणुः । यङि वंवण्यते। यङलुपि वंवणीति वंवति । वनि “वन्याङ्-" ४।२।६५। इति आत्वे प्रवावा । विचि प्रवण । क्विपि “अहन्पञ्चमस्य-" ४।१।१०७। इति दीर्घत्वे प्रवाण् । उत्पूर्वादचि पृषोदरादित्वाद् दो लत्वे उल्वेणम् । क्तौ “अहन्पञ्चमस्य-" ४।१।१०७। इति दीर्घत्वे तस्य टत्वे वाण्टिः । उणादौ "कमि-वमि-" (उ० ६१८) इति । णिद् इः, वाणिर्वाक्, ड्याम् वाणी॥ व्रण । व्रणति । अचि व्रणः । वेणण् गात्रविचूर्णने अदन्तः, व्रणयति ॥ बणबणति । “अनादेशादे:-" १११।२४। इति एत्वे बेणतुः बेणुः, पवर्गतृतीयादित्वेन “न शस-ददि-" ४।१।३०। इति प्रतिषेधाभावः । णौ-अचि बाणः । “व्यञ्जनाद् -" ५।३। १३२। घनि बणन्त्यस्मिन् पुङ्खा इति बाणः॥ भण। भणति । णौ-अचि भाणः प्रबन्धविशेषः॥
प्रण । भ्रणति । बभ्राण ॥ मण। मंणति । ममाण मेणतुः मेणुः । उणादौ "मणि-व- 10 सेर्णित्” (उ० ५१६) इति अवे माणवः शिष्यः । “पदि-पठि-पचि-"(उ०६०७) इति इः, मणिः । "कुशिक-"(उ०४५) इति इके मैणिको महाकुम्भः॥ धण। धणति । दधाण ॥ ध्वण। ध्वणति । दध्वाण ॥ ध्रण । ध्रणति । दध्राण ॥ कण। कणति । चकाण । गतौ घटादित्वाण्णौ हस्वत्वे कणयति, अन्यत्र काणयति । सचि कणः, कणिका । घञि काणः । उणादौ "स्यमि-कषि-" (उ० ४६) इति ईके कणीकः पटवासः । कणीका भिन्नतण्डुलावयवः । “कण्यणेर्णित्" 1E (उ० ५६) इति उके काणुकः काकः, काणुकम्-अक्षिमलम् । “कणि-भल्लेर्दीर्घश्च वा" (उ०६०) इति ऊके कणूको धान्यस्तोकः, काणूकः पक्षी, काणूकम्-अक्षिमलं तमश्च । “वनि-कणि-" (उ० १६२) इति ठे कण्ठः । “कण्यणि-" (उ० १६९) इति वा णिति डे काण्डः शरः, कण्डं भूषणम् । "लटिखटि-" (उ० ५०५) इति वे कण्वं पापम् , कण्वो मेधावी । “मृ-श्वि-" (उ० ६२७) इति ईचौ कणीचिः शङ्खः शकटं च॥ कण। कणति । चक्काण । "नवा कण-" ५।३।४८। इति वाऽलि 20 कणः काणः । “नेर्नद-" ५/३।२६। इति वालि निक्कणः निकाणः । “वैणे कणः' ५।३।२७॥ इति सोपसर्गाद् वाऽलि प्रक्वणः प्रक्वाणो वीणायाः । उणादौ "सृणीका-" (उ० ५०) इति निपातनाद् यङन्तादीके कङ्कणीको घण्टाजालम् , तथा किमः परादीके किकिणीका घण्टिका ॥ चण । चणति । चचाण । हिंसा-दान-गतिषु घटादित्वाद् णौ हूस्वत्वे चणयति, अन्यत्र चाणयति । उणादौ "दृ-कृ-न-" (उ० २७) इति अके चणकः। “महि-कणि-" (उ० ४२८) इति णिति ऊरे 25 चाणूरो विष्णुहतो मल्लः ॥
१ पञ्चमेति दीर्घ प्र' संपा १ ॥२ उल्वणः । तौ संपा१॥३ "कुशिक-हृदिक-मक्षिका-इतिक-पिपीलिकादयः" (उ० ४५) इत्यत्र आदिग्रहणाद् गब्दिक-भुरिक-भुलिकादीनामिव अयमपि ॥ ४ वीणायां भवो वैणः, तस्मिन्नर्थे वर्तमानादुपसर्गपूर्वात् कणेर्भावाकोरल वा स्यात् । प्रक्वणः प्रक्वाणो वीणायाः। कथं क्वणः क्वाणो वीणायाः ? "नया कण-"५।३।४८॥ इत्यादिना सामान्येन विधानाद्वैणेऽपि भवति । ५ "किमः परात कणेः किए च" (उ० ५०) धा. पा. ५
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ___ इह च शब्दार्थत्वाविशेषेऽपि रणितं नू पुरादौ, मणित सुरतकूजिते, कणितम् आर्ते, क्वणितं वीणादौ 'रूढम् । एवमन्यत्रापि, कूजितं विहगादौ, बृंहितं गजे, हेवितं हये, वाशितं पशुषु, गर्जितं मेघादौ, गुञ्जितं सिंहादावित्यादिक लक्ष्यादभ्यूह्यम् ॥
२७३ ओण अपनयने। ओणति । “गुरनाम्यादे-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमादेशे ओ. bणाञ्चकार। ऋदित्त्वाद् णौ डे "उपान्त्यस्या-" ४।२।३५। इति हूस्वाभावे मा भवान् ओणिणत् ।
ननु नित्यत्वादन्तरङ्गत्वाच्च द्वित्वे कृते उपान्त्याभावादेव हूस्वो न प्राप्नोति किमृदित्करणेन ? सत्यम् , इदमेव ऋदित्करणं ज्ञापकम्-नित्यमन्तरङ्गं च द्वित्वमुपान्त्यहस्वो बाधते, तेनान्यत्रापि पूर्व इस्वः पश्चाद् द्वित्वम् , मा भवानटिटत् , मा भवानशिशत् । वनि “वन्याङ् पञ्चमस्य" ४।२।६५। इति आत्वे अदावा,
स्त्रियां “ण-स्वरा-" २।४।४। इति ङ्यां नस्य रत्वे च अवावरी ॥ 10 २७४ शोण वर्ण-गत्योः । तालव्यादिः । शोणति । शुशोण शुशोणतुः शुशोणुः । ऋदित्त्वाद् हस्वाभावे अशुशोणत् । शोणितः शोणितवान् । अचि शोणो वर्णः, स्त्रियां "नवा शोणादेः" २।४।३१। इति वा ङीः, शोणी शोणा । गतौ "व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२। घञि शोणो नदः। उणादौ "हृ-श्या-" (उ० २१०) इति इते शोणितम् ।।
२७५ श्रोण २७६ श्लोण सङ्घाते । तालव्यादी । श्रोणति । ऋदित्त्वात् अशुश्रोणत् । अचि गौ15 रादित्वाद् ड्यां च श्रोणी । श्रोणिरिति तु शृणोतेरौणादिके णौ ॥ श्लोण। श्लोणति। अशुश्लोणत् ।।
२७७ पैण गति-प्रेरण-श्लेषणेषु । पैणति । पिपैण । यङि पेपैण्यते । ऋदित्त्वात् अपिपैणत् ।।
अथ तान्ता दश सेटश्च२७८ चितै सञ्ज्ञाने । सञ्ज्ञानं संवित्तिः । चेतति । चिचेत । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट्, चित्तः चित्तवान् , चित्तम् । “श्वादिभ्यः" ५।३।९२। इति क्तौ चित्तिः । “वौ व्यञ्जनादेः-" ४।३।२५। इति 20 क्त्वा-सनोरिटि वा कित्त्वे चितित्वा चेतित्वा, चिचितिषति चिचेतिषति । णौ “साहि-साति-"
५।१।५९। इति शे चेतयः । क्विपि चेतनं चित् । उणादौ "अस्” (उ० ९५२) इति असि चेतः । चितिण संवेदने चेतयते । चेतनः, चेतना ॥
२७९ अत सातत्यगमने । सातत्येन गमन नित्यगतिः । अतति । आत आततुः आतुः । अतिता। सनि अतितिषति। "क्रियाव्यतिहारे-" ३।३।२३॥ इति गत्यर्थप्रतिषेधाद् नात्मनेपदम् , व्यत्यतति । 25 णिगि आतयति मैत्रम् , अत्र फलवत्कर्तर्यपि “अणिगि प्राणि-" ३।३।१०७। इति परस्मैपदम् ; आतयति ग्रामं चैत्रमिति सकर्मकत्वविवक्षायां तु चल्यर्थत्वात् "चल्याहारार्थे ' ३।३।१०८। इति
१+ एतन्मध्यगतः पाठः संपा१ नास्ति ॥ २ शोण वर्णे इत्यस्य अचि शोणः उज्ज्वलो वर्णः-निर्दोषरक्तवर्ग इत्यर्थः ॥ ३ श्रृंद श्रवणे इत्यस्माद्धतोः “का-वा-बी-क्री-शि-श्रु-क्षु-ज्वरि-तूरि-चूरि-पूरिभ्यो णिः” (उ० ६३४) इति णिः, श्रोणिर्जधनम् । ४ 'त्यर्थत्वान्नात्म संपा१ वा० ।
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परस्मैधातवः २७३-२८३] स्वोपचं धातुपारायणम् । परस्मैपदम् ; उभयत्रापि “गति-बोधा-" २।२।५। इत्यणिक्कर्तुः कर्मत्वम् । णौ डे ओणेदिकग्णज्ञापकात् पूर्व हस्वे पश्चाद् द्वित्वे मा भवानतितत् । “गत्यर्था-" ५।१।११। इति वा कर्तरि ते अतितो ग्राम चैत्रः, पक्षे यथाप्राप्तम् । कर्मणि अतितो ग्रामश्चैत्रेण, कर्माविवक्षायां भावे अतितमनेन । “अद्यर्थाच्चाधारे" ५।१।१२। इदमहेरतितम् । अत्र "क्तयोरसदाधारे" २।२।९१। इत्याधारवर्जनात् कर्तरि षष्ठीप्रतिषेधो न भवति । शतरि अतन् । क्तौ अत्तिः । उणादौ "भीण-शलि-" (उ० २१) इति के अत्क आत्मा। 5 "प्या-धा-पन्-" (उ० २५८) इति ने अनो वायुः । “तप्यणि-" (उ० ५६९) इत्यसे अतसी । "पादाच्चात्यजिभ्याम्” (उ० ६२०) इति णिद् इः, आतिः; पैदातिः, “पदः पादस्या-" ३।२।९५। इति पदादेशः । “अतेरिथिः" (उ० ६७३) अतिथिः । “सात्मन्नात्मन्-" (उ० ९१६) इति मनि निपातनात् आत्मा ॥
२८० च्युत आसेचने । आसेचनम् ईषत्सेकः । च्योतति। च्योतिता । ऋदित्त्वाद् "ऋदिच्छि-" 10 ३।४।६५। इति वाऽङि अच्युतत् अच्योतीत् । “वौ व्यञ्जनादेः-" ४।३।२५। इति क्त्वा सनोरिटि वा कित्त्वे च्योतित्वा च्युतित्वा, चुच्योतिषति चुच्युतिषति। उणादौ “नाम्युपान्त्य-" (उ० ६०९) इति किद् इः, च्युतिः ।। • २८१ चुतु २८२ चुतू २८३ स्च्युत क्षरणे । क्षरणं स्रवणम् । चोतति । ऋदित्वाद् वाऽडि अचुतत् अचोतीत् ॥ स्चुतू । सो दन्त्योऽत्र । “सम्य श-पौ"१।३।६१। इति शत्वे श्चोतति । ऋ- 15 दित्त्वाद् वाऽङि अश्चुतत् अश्चोतीत् ॥ स्च्युत । सो दन्त्यः, स्च्युश्च योपान्त्योऽत्र । “सस्य श-पौ" १।३।६१। इति शत्वे थ्योतति । ऋदित्त्वाद् वाऽङि अश्च्युतत् अश्थ्योतीत् । षट् श्योतन्तीति “ड्नः सः-" १।३।१८। इति श्चो वर्जनात् शः त्सो न भवति । श्चो वर्जनादेव च सकारापदिष्टं कार्य तदादेशस्य तालव्यस्यापि विज्ञायते, तेन घृतं श्च्योततीति विप्, घृतश्च्युत् , घृतश्च्युतमाचक्षाण इति णिचिअन्त्यस्वरादिलुक्, पुनः क्विप्, “य्वों:-" ४।४।१२१। इति यलुक्, घृतश्च्, ततः सौ "संयोगस्यादौ-" 20 २।१।८८। इति शलुकि सिद्धं घृतः । नन्वत्र "न सन्धि-" ७।४।१११। इत्यत्रास्क्लुकीति वर्जनाद् णिलुकः स्थानित्वप्रतिषेधाभावे णिलुक् स्थानी इति पदान्तत्वाभावे सलुग् न प्राप्नोत्येव, यथा सुकुस्मयतेः क्विपि सौ सुकूरिति । सत्यम् । अस्क्लुकीति वर्जनस्य प्रायिकत्वाद् असद्विधौ सलुक्यपि स्थानित्वप्रतिषेधाद् भवत्येव । श्रुतावपि समानमेतत् । आद्यो द्रमिलानामेव, द्वितीयः कौशिकस्यैव
१ इत्यत्राधा संपा१ वा० ॥ २ अततीति आतिः पक्षी ॥ ३ पादाभ्यामततीति पदातिः पत्तिः ।। ४ "अत्र "सस्य शषौ” १।३।६१। इत्यत्रानु इत्यधिकारे वर्तमाने श्चवर्जनाभावे दन्त्यसकारस्य त्सः स्यादिति । ननु तर्हि उपदेशावस्थायामेव तालव्यः पनीयः किं दन्त्यपठनेनेति, सत्यम् , दन्त्यं पठन्ने ज्ञापयति"दन्त्यापदिष्ट कार्य तालव्यस्यापि भवति परं दन्त्यस्थाननिष्पन्नस्य न सर्वस्य" तेन भवान् शेते इत्यादौ सो न भवति । ननु मधुग इत्यत्र "स्वरस्य परे-" ७४११०। इति सूत्रेण णिलोपरूपस्य स्वरादेशस्य स्थानिवत्त्वात् शलोपो न प्राप्नोति, न च वाच्यं "नसन्धि-" ७४१११। इत्युपतिष्ठते इति, अस्वलुकीति वचनात् , यथा सुपूर्वात् कुस्मयतेः सुकूरित्यत्र । न । अस्क्लुकीत्यत्र नमनिर्देशेन 'नमा निर्दिष्टमनित्यम्' इति न्यायात् स्थानित्वाभाव इति"।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरवितं
[भूवादिगणे सम्मतः । एवमन्यत्राप्याचार्यभेदेन धातुपाठो द्रष्टव्यः ॥
२८४ जुतू भासने। जोतति । ऋदित्त्वाद् वाऽङि अजुतत् , अजोतीत् । “वौ व्यञ्जनादेः”–४।३। २५। इति वा कित्त्वे जोतित्वा जुतित्वा, जुजोतिषति जुजुतिषति ॥
२८५ अतु बन्धने । उदित्त्वाद् ने अन्तति । “अनातो-'' ४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनन्त । 5 णके अन्तकः । अन्ये अतु इतु बन्धने इति पेटुः । इन्ताञ्चकार ॥ ___ २८६ कित निवासे। केतति । अनटि सङ्केतनम् निकेतनम् । घजि सङ्केतः । णके केतकी। धातूनामनेकार्थत्वात् "कितः संशय प्रतीकारे" ३।४।६। इति स्वार्थे सनि विचिकिल्सति मे मनः, चिकित्सत्यातुरं वैद्यः । निग्रह-विनाशावपि प्रतीकारस्यैव भेदौ, परक्षेत्रे चिकित्स्यः पारदारिकः, चिकि
स्यानि क्षेत्रे तृणाने ॥ 10 २८७ ऋत घृणा-गति स्पर्धेषु । "ऋतेमयः" ३।४।३। इति स्वार्थे डीये ऋतीयते । “अशवि
ते वा” ३।४।४। इति वा ङीये ऋतीयिता, ऋतीयाश्चक्रे; पक्षे अर्तिता, आनर्त । "ऋत्तष-" ४।३।२४। इति सेटः क्त्वो वा कित्त्वे ऋतित्वा अर्तित्वा ॥
अथ थान्ताः षद् सेटश्च
२८८ कुथु २८९ पुथु २९० लुथु २९१ मथु २९२ मन्थ २९३ मान्थ हिंसा-सङ्क्ले15 शयोः। हिंसा प्राण्युपघातः, सक्लेशो बाधा । उदित्त्वाद् ने कुन्थति, कुन्थ्यते । ते कुन्थितम् ।
क्त्वि कुन्थित्वा । कुन्थश् सङ्क्तेशे कुभाति, कुथ्यते, कुथितम् ॥ पुथु । उदित्त्वाद् ने पुन्थति, पुन्थ्यते, पुन्थितम् ॥ लुथु उदित्त्वाद् ने लुन्थति, लुन्थ्यते, लुन्थितम् ॥ मथु। उदित्त्वाद् ने मन्थति, मन्थ्यते, मन्थितम् ॥ मन्थ । नोपान्त्याऽयम्। विलोडनेऽयमित्येके।
मन्थति । मथ्यते । मथितम् । “ऋत्तष-" ४।३।२४। इति सेटः क्त्वो वा कित्त्वे मथित्वा, मन्थित्वा । 20 अचि मन्थः । मन्थश् विलोडने मनाति मथ्नीतः ॥ मान्थ । मान्थति । माथ्यते ॥
अथ दान्ताः पड्विंशतिः स्कन्दृवर्जाः सेटश्च२९४ खादृ भक्षणे । खादति । चखाद । ऋदित्त्वाद् हूस्वाभावे अचखादत् । “गति-बोधा-ऽऽहारा-" २।२।५। इति सूत्रेण खादिवर्जनादणिक्कर्तुः कर्मत्वाभावे खादयत्योदनं चैत्रेण मैत्रः, अत्र फलवत्कर्तर्यपि
"चल्याहारार्थेड्-" ३।३।१०८। इति परस्मैपदम्। “निन्द-हिंस-"५।२।६८। इति णके खादनशीलः 25 खादकः ॥
१ अनवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयः, प्रतीकारो दुःखहेतोर्निराकरणम् ॥ २ संशेते इत्यथः ॥ ३ प्रतिकरोतीत्यर्थः ।। ४ ननु अन्यैर्निग्रह-विनाश योरपि सन् कथितः तत् स्वीयमते कथम् इति शङ्कायामाह-निग्रह-विनाशी इति ॥ ५ निग्राह्य इत्यर्थः ॥ ६ विनाशयितव्यानि, अपनेतव्यानि वेत्यर्थः ॥ ७ ननु ठीय इति अदन्ताकरणेऽमि. ऋतीयते इत्यादि सेत्स्यति किमदन्तकरणेन ? सत्यम्, ऋतीयते इत्यादीनामदन्तकरणाभावेऽपि सिद्धिः परं आर्तितीयत इत्यत्रादन्ततायाः फलम् , अन्यथा आतितियत् इति स्यात् । उकार आत्मनेपदार्थः गुणाभावार्थश्च ।
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३७
परस्मैधातवः २८४-३०१] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
२९५ बद स्थैर्ये । ओष्ठ्यादिः । वद व्यक्तायां वाचि इति तु दन्त्योष्ठयादिः। बदति। बद्यते। क्ते बदितम् । उणादौ “ऋच्छि -चटि-" (उ० ३९७) इति अरे बदरी बदरम् । पकारादिरयमिति कण्वः, पदति ।।
२९६ खद हिंसायां च । चकारात् स्थैर्ये । खदति । अचि भिदादित्वाद् वाऽङि खदा । उणादौ. "मदि-मन्दि-” (उ० ४१२) इति इरे खदिरः ॥
२९७ गद व्यक्तायां वाचि । गदति । जगाद । “नेा-दा-" २।३।७९। इति नेर्णत्वे प्रणिगदति, प्रण्यगदत् । प्रण्यागदत् , “पदेऽन्तरे-” २।३।९३॥ इत्यत्राऽऽडो वर्जनाद् आङ्ग्यवायेऽपि णत्वम् । “यम-मद-" ५।१।३०। इत्य गुणसर्गाद ये गद्यम् । सोपसर्गाद ध्यणि निगाद्यो धर्मः। अचि गदः। भिदादित्वादङि गदा । “अजातेः-" ५।१।१५४। इति णिनि अनुगादी । “नेर्नद-"५।३।२६।। इति वाऽलि निगदः, निगादः । उणादौ “कनि-गदि-" (उ० ८) इति अः स्वरूपद्वित्वं च, गद्गदो- 10 ऽव्यक्तवाक्, गद्गदमव्यकवचनम् । गदण् गर्जे अदन्तः, गदयति ॥
२९८ रद विलेखने । विलेखनम्-उत्पाटनम् । रदति । रराद । अनटि रदनम् । नन्द्यादित्वादने रदनः । अचि रदः ।
२९९ णद ३०० लिक्ष्विदा अव्यक्ते शब्दे । शब्दमात्रे इत्यन्ये । “पाठे धात्वादेर्णो नः"२।३। ९७). इति नत्वे नदति । “अदुरुपसर्गा-"२।३।३७) इति णत्वे प्रणदति । "नेा-" २।३।७९। 1b इति नेर्णत्वे प्रणिनदति । अचि नदः । गौरादित्वादै ड्यां नदी । “कर्तुणिन्"५।१।१५३॥ इति णिनि "पूर्वपदस्थात्-" २३१६४।इति णत्वे च खर इव नदति खरणादी, असञ्ज्ञायां तु खरनादी। 'नेर्नद-" ५।३।२६। इति वालि निनदः, निनादः। उणादौ "दा-भू-क्षणि-" (उ० ७९३) इति अनुङि नदनुर्मेघः । नदण भासार्थ: नादयति, अनादयति ॥ विश्विदा । वेदति । चिक्ष्वेद । यङि चेश्विद्यते यङ्लुपि चेक्ष्विदीति चक्ष्वेत्ति। इटि क्ष्वेदिता, क्ष्वेदितुम् । आदित्त्वात् क्तयोर्नेट् 20 विष्णः, विण्णवान् । “नवा भावारम्भे" ४।४७२। इति वेटि विण्णम् क्ष्वेदितमनेन । प्रविण्णः प्रक्ष्वेदितः, अत्र "न डीङ्-शीङ्-" ४।३।२७। इतीटि कित्त्वाभावाद्गुणः। जीत्त्वाद् "ज्ञानेच्छा-ऽर्चा " ५।२।९२। इति सत्यर्थे क्तः, विद्यते क्ष्विण्णः । अनुस्वारेदयमित्येके, तन्मते इडभावे श्वेत्ता, श्वेत्तुम् । डान्तोऽयमित्येके, श्वेडा ॥
३०१ अर्द गति-याचनयोः । अर्दति । “अनातो-' ४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनर्द । सनि 25 "अयि रः" ४।१।६। इति रस्य द्वित्वाभावे अदिदिषति । ग्रहादित्वाद् णिनि समर्दी। नन्द्यादित्वाद् अने जनार्दनः । “सं-नि-वेरर्दः" ४।४।६३। इति क्तयोर्नेट्, समर्णः, न्यर्णः, व्यर्णः। "अविदूरेऽभेः"
१ "ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण्" ५।१।१७॥ इति सूत्रेण ॥ २ "गौरादिभ्यो मुख्याद डीः” २।४।१९। ३ “आदितः” ४४७॥ इति सूत्रेण ॥ ४ अत्र दान्तत्वात् “रदादमूर्छ-मदः क्तयोर्दस्य च" ४।२।६९। इति सूत्रेण क-कवतोः तस्य तद्योगे धातोर्दश्च नः, "रणवर्णाद नो ण-"२।३।६३।इति नस्य णः ।
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३८ आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ४४६४। अभ्यर्णे शेते। अविदूरादन्यत्र अभ्यर्दितश्चौरः पीडित इत्यर्थः, अत एव याचनस्थाने यातनेत्येके पठन्ति, अर्दितः खेदित इत्यर्थः । ऋथ अर्दिए हिंसायाम् "युजादेर्नवा" ३।४।१८॥ इति वा णिचि अर्दयति अर्दते॥
३०२ नई ३०३ पर्द ३०४ गर्द शन्दे । नर्दति । नोपदेशत्वाद् णत्वाभावे प्रनर्दति ॥ 5 गर्द । “पाठे-" २।३।९७। इति नत्वे नर्दति । णोपदेशत्वाद् णत्वे प्रणर्दति । ग्रहादित्वाद् णिनि न
नईतीति अनर्दी । “कर्तुर्णिन्" ५।१।१५३। सिंह इव विनर्दति सिंहविनर्दी ॥ गर्द । गर्दति । जगर्द । ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, नर्दा गर्दा । उणादौ "कृ-श-" (उ० ३२९) इति अभे गर्दभः ॥
३०५ तर्द हिंसायाम् । तदति । ततर्द । णके वितर्दिका वेदिः । ते सेट्त्वाद् अः, तर्दा ॥ 10 ३०६ कर्द कुत्सिते शब्दे । कर्दति । चकर्द । ते सेट्त्वात् कर्दा । उणादौ "सृ-प-प्रथि-"
(उ० ३४७) इति अमे कर्दमः ॥ __३०७ खर्द दशने। दशनमिह दन्दशूककर्तृकं दन्तकर्म स्वभावाच्च धातुः साधनप्रधानप्रयोगसमवायी । खर्दति । चखर्द । अचि पनि च खर्दः । क्ते सेट्त्वात् खर्दा। .
पूर्वे तु खर्द दन्दशके इति पठन्ति, व्याचक्षते च-दन्दशनशीलो दन्दशूक उच्यते, अनेन च 15 तद्विषया क्रिया लक्ष्यते, क्रियार्थत्वाद् धातोः । दन्दशन इति यु(ल्यु)डन्तनिर्देशेऽपि तद्विषया क्रिया प्रतीयते। किन्तु साधननिर्देशः साधनप्रधानप्रयोगसमवायित्वज्ञापनार्थ इति ॥
३०८ अदु बन्धने । उदित्त्वाद् ने अन्दति । “अनातो-" ४।१।६९। इति आत्वे ने च १ सर्वास्वपि प्रतिषु 'भ्यणे सेने । अवि इति पाठो दृश्यते ॥२ "३१० खर्द दंदशूके”-शाकटायन धातुपाठ।
"खर्द दन्दशके। दन्दको दंशनशीलः स्वभावभूतगर्हितदंशनक्रियाकर्ता। अनेन तत्समवेता स्वभावभूतगर्हितक्रिया लक्ष्यते धातोः क्रियावचनत्वात् । एवम् अन्यत्रापि न्यनिर्देशे किया लक्ष्यते। दंदशन इत्येतन्नोक्तम् , ताच्छील्यार्थस्य संग्रहो न स्यात्"-मैत्रेयरक्षितरचितधातुप्रदीप पृ० १४-धातु अंक ५९ ।
"खर्द दन्दशूके। दन्दशक इति दन्दशककर्तृका किया अभिधीयते। साधनप्रधानप्ररोगित्वस्थापनार्थ दन्दशूक ग्रहणम्-इति संमता-तरङ्गिण्यौ । दन्दको गर्हितो दंशनशीलः, इह तु तत्स्था क्रिया, दंश इत्यनुक्तिः ताच्छील्यादिप्रतिपत्त्यर्था इति मैत्रेये प्रतिपादितम् । दन्तशूक इति केशवस्वामी दकारस्य स्थाने तकारमाह"-. इत्यादि । माधवीया धातुवृत्ति पृ० ९१ धातुअंक ६० ।
"खर्द दन्दशके। दंशहिंसादिरूपायां दन्दशकक्रियायाम्-इत्यर्थः"-सिद्धांतकौमुदी ७-४-७ सूत्र धातु अंक २४ ।
३ यङन्त तपा० ॥ ४ "अति अदि बन्धने । अत्र धनपाल:-तान्तं द्रविडाः पठन्ति। आयर्यास्तु दान्तम्-इति । उभयमिति मैत्रेय-स्वामि-काश्यप-सम्मताकारादयः"-माधवीया धातुवृत्ति. पृ. ९३ धातुअंक ६२ । “अत्यादयः (अति-अदि-इदि-बिदि-गडि-) पञ्चैते न तिविषयाः इति काश्यपः माधवीया धातुवृत्ति पृ. ९४ धातुअंक-६५।
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परस्मैधातवः ३०२-३१७] स्वोपझं धातुपारायणम् । आनन्द । अचि अन्दः । क्ते सेट्वात् अन्दा । उणादौ "कृषि-चमि-" (उ० ८२९) इति ऊः, अन्दूर्गजपादशृङ्खलम् ॥
३०९ इदु परमैश्वर्ये । परमैश्वर्य परमेशनक्रिया। उदित्त्वाद् ने इन्दति । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। इत्यामादेशे इन्दाञ्चकार । के सेट्त्वात् इन्दा । अनटि इन्दनम् । उणादौ “भी-वृधि-" (उ० ३८७) इति रे इन्द्रः॥
३१. 'वि(बि)दु अवयवे । अवयव एकदेशः, अनेन स्वगता क्रिया लक्ष्यते । उदित्त्वाद् ने वि(बि)न्दति । यद्यभिधानमस्ति वि(बि)न्दुरिति दृश्यते, यथा गण्डति गण्ड इति । उणादौ "भृ-मृ-तृत्सरि-"(उ० ७१६) इति उः, वि(बि)न्दुः ॥ .. ३११ णिदु कुत्सायाम् । “पाठे-'" २।३।९७। इति णस्य नत्वे उदित्त्वाद् ने निन्दति । णोपदेशत्वाद् ङ्गत्वे प्रणिन्दति। "निस-निक्ष-निन्दः कृति वा" २।३।८४॥ इति वा णत्वे प्रणिन्दनम् , 10 प्रनिन्दनम् । “निन्द-हिंस-" ५।२।६८। इति णके निन्दनशीलो निन्दकः । ते सेट्त्वात् निन्दा ।। - ३१२ टुनदु समृद्धौ । उदित्त्वाद् ने नन्दति । नोपदेशत्वाद् न णत्वम्, प्रनन्दति । ननन्द । णौ "नन्यादिभ्यो-" ५।१।५२। इत्यने नन्दनः। अचि नन्दतीति नन्दः, आपि नन्दा तिथिः, गौरादित्वाद् ड्याम् नन्दी नन्द एव । “प्रज्ञादि-" ७१।१६५/ अणि नान्दः, स्त्रियां नान्दी। नन्दोऽस्यास्तीति नन्दी । णके नन्दकः। द्वित्त्वात् “द्वितोऽथुः" ५।३।८३। नन्दथुः । उणादौ "रुहि-नन्दि-" (उ० 15 २२०) इत्यन्ते नन्दन्तः सखा, नन्दन्ती सखी । “तृ-जि-" (उ० २२१) इति णौ अन्ते नन्दयन्तो राजा । "हृषि-पुषि-" (उ० ७९७) इति गौ-इनौ नन्दयित्नुः पुत्रः । “यति-ननन्दिभ्यां दीर्घश्च" (उ० ८५६) इति ऋः, नान्दा ननान्दरौ ॥
३१३ चदु दीप्या-ऽऽहादयोः। आहाद आहादनम्-आनन्दोत्पादनमित्यर्थः । उदित्त्वाद् ने चन्दति । चचन्द । “रम्यादिभ्यः-" ५।३।१२६। इत्यनटि चन्दति-दीप्यते आहादयति चेति चन्दनम् । 20 उणादौ "भी-वृधि-" (उ० ३८७) इति रे चन्द्रः । “मदि-मन्दि-" (उ० ४१२) इति इरे चन्दिरश्चन्द्रः । छन्द इति तु “छदि-वहिभ्याम्-" (उ० ९५४) इति असि छादेयतेः ॥
३१४ दुचेष्टायाम् । उदित्त्वाद ने वन्दति । तत्रन्द ॥ ३१५ कदु ३१६ क्रदु ३१७ क्लदु रोदना-ऽऽहानयोः । उदित्त्वाद् ने कन्दति । चकन्द । अचि १ "बिदि अवयवे । अवयव इति अवयवक्रिया उच्यते। बशादिः। विन्दति, बिबिन्द, बिन्दिता इत्यादि। बिन्दुः बाहुलकाद् उ-प्रत्ययः। अत्र मैत्रेयः "बिन्दुरिच्छुः" इति सूत्र बशादिं पठन् बिन्दुशब्दं व्युदपादयत् । कृत्तौ तु तत्र वेत्तेरेव पाठः । अत्र सम्मतायाम्-'भिदि अवयवे' । यद्यभिधानमस्ति 'भिन्दुः' इति दृश्यते"। माधवीया धातुवृत्ति पृ.९४ धातुअंक ६४ । २ “अदुरुपसगान्तरो ण-हिनु-मीना-ऽऽने” २१३१७७। इत्यनेन । ३ नम्पूर्वाद् नन्दवः । ४ अत्र नखादित्वाद् (३॥२॥१२८) नमोऽत् न भवति ॥५ छदण् संवरणे इत्यस्मात् अस् धातोश्च छन्द इत्यादेशः, छन्दो वेदः इच्छा वाम्बन्धविशेषश्च ।
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४०
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित
[भूवादिगणे कन्दो मूलम् । उणादौ "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति अरे कन्दरा । “मृ-मृ-तृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इति उ. कन्दुः पाकस्थानम् । कन्दुक इति तु “कमि-तिमेर्दोऽन्तश्च" (उ० ५४) इति उके कमेः॥ ऋदु । उदित्त्वाद् ने क्रन्दति । चक्रन्द । “नन्द्यादिभ्यो-" ५११५२। इत्यने सङ्कन्दनः । घअि आक्रन्दः॥ क्लदु । उदित्त्वाद् ने कन्दति । चक्कन्द । कदुङ् क्रदुङ् क्लदुङ् इति घटादावात्मनेपदिनः, कन्दते क्रन्दते वन्दते ॥ __३१८ क्लिदु परिदेवने । परिदेवनं शोचनम् । उदित्त्वाद् ने क्लिन्दति । क्विन्द्यते । के क्विन्दितः । क्लिदुङ् परिदेवने क्लिन्दते । क्लिदौच आर्द्रभावे क्लियति । क्विन्नः॥
३१९ स्कन्दं गति-शोषणयोः। स्कन्दति । स्कद्यते । चस्कन्द चस्कन्दतुः चस्कन्दुः। “वे: 20 स्कन्दोऽक्तयोः” २।३।५१। इति वा पत्वे विष्कन्दति, विस्कन्दति । “परेः" २।३।५२। इति क्तयो10 रपि वा पत्वे परिष्कण्णः परिष्कन्नः । ऋदित्त्वाद् वाऽङि अस्कदत् अस्कान्सीत् । अनुस्वारेत्वाद् . नेट, स्कन्ता, स्कन्त्स्यति । यडि "वच्च-संस-" ४।१।५०। इति पूर्वस्य न्यागमे चनीस्कद्यते । यङ्लुपि चनीस्कन्दीति, चनीस्कन्ति । अचि स्कन्दः, प्रस्कन्दः । "स्कन्द-स्यन्दः" ४।३।३०। इति क्त्वः कित्त्वाभावाद् नलोपाभावे स्कन्त्वा, प्रस्कन्छ । यादेः क्त्वो न अकित्त्वमित्येके, प्रस्कई । “मुजि-पत्या- 25
दिभ्यः-"५।३।१२८। इत्यनटि प्रस्कन्दत्यस्मादिति प्रस्कन्दनः । “विश-पत-" ५।४।८१। इति णमि 15 गेहावस्कन्दमास्ते गेहं गेहमवस्कन्दमास्ते गेहमवस्कन्दमवस्कन्दमास्ते । उणादौ "स्कन्द्यमिभ्यां धः"
(उ० २५१) बेहुलाधिकाराद् दस्य लुक, स्कन्धः अंसः । "स्कन्दे च" (उ० ९६०) इति असि स्कन्धः स्कन्धसी । "आस्कन्धते चनस्किन्द्यते इति लक्ष्ये नलोपो न दृश्यते स चेच्छिष्टसम्मतस्ततो नलोपाभावश्चिन्त्यः” इति वाचकवात्तिकम् ।।
अथ धान्तात्रयः20 ३२० विधू गत्याम् । “पः सो-" २।३।९८ । इति सत्वे सेधति । सिसेध, “गतौ सेधः"
२।३।६१। इति न षत्वम् णौ परिसेधयति गाम् , गमयतीत्यर्थः । गतेरन्यत्र "स्था-सेनि-" २॥३॥४०॥ इति षत्वे प्रतिषेधति पापात् , अनेकार्थत्वाच्चायं निषेधेऽपि वर्तते । षोपदेशत्वाद् गतेरन्यत्र “नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इति षत्वे सिषेध । इटि सेधिष्यति । ऊदित्त्वाद् “ऊदितो वा" ४।४।४२॥
इति क्त्वि वेटि सिद्ध्वा सेधित्वा सिधित्वा, "वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इतीटि क्त्वो वा कि25 त्वम् । संनि सिसिधिषति सिसेधिपति । क्त्वि वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , सिद्धः सिद्धवान् । निरनुबन्धपाठे
१ कमूल कान्तौ इत्यस्य ॥ २ आचक्रन्व संपा १ वा० ॥ ३ “नो व्यञ्जनस्यानुदितः” ४॥२॥४५॥ इति नलुकि ॥ ४ "सर्वधातूनां बहुलं वेदत्वमित्यन्ये, आस्कन्दिषम् आस्कान्त्सम् , आस्कन्तव्यम् आस्कन्दितव्यमित्यादि, एवमन्यधातुष्वपि पक्का पचिता, पट्टा, पटिता इत्यादि । इदं च मतं "धूगौदितः" ४४॥३८॥ इत्यत्र व्यवस्थितविभाषाविज्ञानाद् "आगमशास्त्रमनित्यम्" इति न्यायाच्च स्वमतेऽपि सङ्गृहीतं द्रष्टव्यम्" - कियारत्नसमुच्चय पृ. ६६ 'स्कन्दं धातु. । ५ बालकाद६० संपा १ वा०॥ ६ सनि प्र. सं९ सं२ तपा. नास्ति ॥ ७ "णि-स्तोरेवा-" ३३४॥ इति नियमेन षत्वाभाव "वेटोऽपतः" ४।४।६२॥ इति सत्रेण ।
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परस्मैधातवः ३१८-३२८]
स्वोपज्ञं धातुपारायणम् ।
४१
तु सिधितः । षिधूंच् संशद्धौ । सिध्यति । निसिध्यति, “स्था-सेनि - " २/३/४० । इत्यत्र सेध - निर्देशाद् नात्र षत्वम् । सेद्धा, सेत्स्यति ॥
३२१ षिधौ शास्त्र - माङ्गल्ययोः । शास्त्र शास्त्रविषयं शासनम्, माङ्गल्यं मङ्गलविषया क्रिया । अनयोरेवार्थयोरयमौदित्, अर्थान्तिरे पुनरूदित् पूर्वक एव, अन्यथा तत्पाठोऽनर्थकः स्यात्, अर्थान्तरेऽप्यनेनैवेड्डिकल्पस्य सर्वत्रैव सिद्धत्वात्। “षः सो- " २|३|९८ । इति सत्वे सेधति । षोपदेशत्वात् 5 सस्य कृतत्वे "नाम्यन्तस्था - " २|३ | १५ | इति षत्वम्, सिषेध । “स्था-सेनि - " २।३।४० । इति षत्वे अभिषेधति, यङ्लुपि अभिषेषिधीति, अव्यवाये अभ्यषेधत् । घञि सेधः, शोभनः सेधः सुषेधः, “निर्दुःसोः - " २।३।३१ । इति षत्वन् । औदित्त्वात् “धूगौदितः " ४|४|३८| इति वेट्, सेद्धा सेधिता । परोक्षायां “स्क्रसृ-वृ- " ४|४|८१ । इति नित्यमिद्, सिषिधिव सिषिधिम । “घसेकस्वरा-" ४।४।८२। इति नियमात् क्वसौ नेट्, सिषिध्वान् । वेट्त्वाद् “वेटोऽपतः " ४ । ४ । ६२ । इति तयोनेंट्, सिद्धः सिद्धवान् । उणादौ " ऋज्यजि - " ( उ० ३८८) इति किति रे सिघ्रो वृक्षः, कपि सिकः ॥ शुध्यति, शुद्धः शुन्धते शुषितः,
10
३२२ शुन्ध शुद्धौ । शुन्धति । इटेि शुधितः शुधितवान् । शुधंच् शौचे शुद्धवान् । शुधिण् शुद्धौ “गुजादेर्नवा " ३।४।१८। इति वा णिचि शुन्धयति शुन्धितः ॥
अथ नान्ता नव सेटश्व
15
३२३ स्तन ३२४ धन ३२५ ध्वन ३२६ चन ३२७ स्वन ३२८ वन शब्दे । स्तनति । लस्तान । इटि स्तनिता । अचि स्तनः । शब्दे घटादित्वाद् णिगि ह्रस्वे स्तनयति, अन्यत्र स्तानयति । घञि अभिनिष्टानो विसर्गः, “अभि-निःष्टानः " २|३|२४ । इति षत्वम् । “असमान लोपे - " ४|१|६३ | इति सन्वद्भावे अतिस्तनत् । स्तनण् गर्जे अदन्तः, स्तनयति, समानलोपित्वात् सन्वद्भावाभावे अतस्तनत् ॥ धन | धनति । अचि धनम् । इटि धनिता, धनिष्यति । " मन्वन्- "५ | १ | 20 १४७| इति वनिप्, धन्वा, बाहुलकादात्वाभावः । उणादौ “कृषि - चमि - " ( उ० ८२९ ) इति ऊः, धनूज्य चापं च । " रुद्यर्ति - " ( उ० ९९७) इति उसि धनुः ॥ ध्वन । ध्वनति । दध्वान । यङि दन्ध्वन्यते । इटि ध्वनितां, ध्वनिप्यति । अचि ध्वनः । ते “ क्षुब्ध - विरिब्ध - " ४।४।७० । इति निपातनात् मसिनेट् ध्वान्तं तमः, ध्वनितमन्यत् । शब्दे घटादित्वाद् णौ ह्रस्वे ध्वनयति, अन्यत्र ध्वानयति । उणादौ “पदि पठि -" ( उ० ६०७ ) इति इः, ध्वनिः । ध्वनण् शब्दे अदन्तः, ध्वनयति ॥ 25 चन । चनति । हिंसायां घटादित्वाद् णौ ह्रस्वे चनयति ॥ स्वान । “व्यवात् स्वनोऽशने " २ | ३ | ४३ । इति षत्वे विष्वजति अवष्वणति, विषष्वाण अवषष्वाण,
स्वन । दन्त्यादिः । खनति । स
१ 'सेध' इति कृतगुणस्य निर्देशः । ननु सेध इत्यत्र अकारश्रवणात् " तिवा शवा" इति न्यायात् यलुपि न भविष्यति इति चेत्, न, अकारोऽत्रोच्चारणार्थः, न तु शत्रू निर्देशः, तेन यङ्लुप्यपि भवी, प्रतिषेषिधीति ॥ २ भुङ्क्ते इत्यर्थः-सशब्दं भुङ्क्ते इत्यर्थः इति वृत्तिकारः । " तथा च वृत्तौ अभ्यवहार क्रियाविशेषोऽभिधीयते
धा०पा० ६
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे व्यष्वणत् अवाष्वणत् : अशनादन्यत्र न षत्वम् , विस्वनति मेघः । परोक्षायां "न-श्रम-" ४।१।२६। इति वैत्वे स्वेनतुः सस्वनतुः। अवतंसने घटादित्वाद् णौ ह्रस्वे स्वनयति, अन्यत्र स्वानयति । सेट्त्वात् स्वनिता, स्वनिष्यति । "नवा क्वण-"५।३।४८। इति वा अलि स्वनः स्वानः ।
"क्षुब्ध-विरिब्ध-" ४४७०। इति.मनसि क्ते नेट् , स्वान्तं मनः, स्वनितमन्यत् । "श्वस-जप-" 5 ४।४।७५। इति आङ्पूर्वात् क्ते वा नेट् , आस्वान्तः आस्वनितो मृदङ्गः, आस्वान्तम् आस्वनितं
मनः । “नेनंद-"५।३।२६। इति वा अलि निस्वनः निस्वानः ॥ वन । वनति । ववान । यङि वंवन्यते । यङ्लुपि वंवनीति, तैसि वंवान्तः । “यमि-रमि-"४।२।५५। इत्यत्र वनतीति तिव्निर्देशात् नलोपाभावे "अहन्पञ्चम-" ४।१।१०७। इति दीर्घत्वम् । इटि वनिता, वनिष्यति । अचि
मृग-विहगशब्दैर्वनतीति वनम् ॥ 10 ३२९ वन ३३० पन भक्तौ । भक्तिर्मजनम् । वनिः अर्थभेदार्थ पुनरिहाधीतः । वनति । अनटि
संवननम् । क्तौ “यमि-रमि-"४।२।५५। इाते नलोपे वतिः । तिकि "न तिकि-"४।२।५९। इति दीर्घ-नलोपाभावे वन्यात् वन्तिः । ते वनितम् , वनिता। उणादौ "जठर-क्रकर-"(उ० ४०३) इति निपातनात् अरे वानरः। “नि-वपिभ्यां णित्" (उ० ४२१) इति ईरे वानीरः। वनूयि याचने
वनुते ॥ पन । “पः सो-"२।३।९८। इति सत्वे सनति । ससान सेनतुः सेनुः । “ये नवा" 16 ४।२।६२। इति वा आत्वे सायते सन्यते । यङि सासायते संसन्यते । यङ्लुपि. संसनीति, तसि "आः
खनि-"४।२।६०। इति आत्वे संसातः । इटि सनिता, सनिष्यति । सनि “इवृध-"४।४।४७। इंति वेटि सिसनिषति, "णि-स्तोरेवा-"२।३।३७। इति नियमादत्र न षत्वम् ; “सनि" ४।२।६१। इत्यात्वे सिषासति, अत्र षोपदेशत्वाद् “नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इति षत्वम् । णौ असीषणत् । क्तौ
"आः खनि-"१२।६०॥ इत्यात्वे सातिः । तिकि "तौ सनस्तिकि"४।२।६४। इति वा आत्व-नलुकोः 20 सातिः सतिः, पक्षे “अहन्पञ्चमस्य-" ४।१।१०७। इति दीघे सान्तिः, तदेवं सनतेस्तिकि त्रैरू
प्यम् । उणादौ "कृ-वा-पा-जि-"(उ०१) इति उणि सानुः । षणूयी दाने सनोति सनुते, तिकि सातिः सतिः, पक्षे तनादित्वाद् "न तिकि दीर्घश्च" ४।२।५९। इति दीर्घ-नलुगभावे सन्तिः ॥ __३३१ कनै दीप्ति कान्ति-गतिषु । दीप्तिः प्रकाशः, कान्तिः शाभा । कनति । चकान ।
इटि कनिष्यति । ऐदित्त्वात् क्तयोनेंट् कान्तः, शील्यादित्वात् सत्यर्थे क्तः, कान्तवान् । वनि सुकावा। 25 क्विपि सुका सुकानौ । उणादौ "द-क-न-"(उ० २७) इति अके कनकम् । “कनेरीनकः" (उ० ७३)
कनीनिका । “स्था-छा-मा-"(उ० ३५७) इति ये कन्या ॥ यत्र स्वननमस्तीति सशब्दं भुङ्क्ते इत्यर्थः। पिनाकी तु भुञ्जानः किञ्चित् शब्दं करोतीति । काश्यपस्तु भोजनमेवार्थमाह । बोधिन्यासेऽपि पक्षत्रयमपि दर्शितम्"- माधवीयधातुवृत्तौ पृ. १४३ धातुअंक १२॥
१ विषयेषु अनाकुलं मनः .स्वान्तमित्यन्ये ॥२ मनसा घटितं स्पृष्टमिति यावत् ॥ ३ तसि तृतीयपुरुषद्विवचनसूचके प्रत्यये ॥ ४ सम्भक्तो संपा१ संक॥५"तिक-कृतौ नाम्नि" ५।१।७१। इत्यनेन आशिषि तिक॥६वनि कावा सुसंपा१॥
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परस्मैधातवः ३२९-३३४] स्वोपर्श धातुपारायणम् ।
अथ पान्ताः पञ्चदश, गुपौ वेद, तपं सुप्लं अनिटौ, शेषाः सेटः -
३३२ गुपौ रक्षणे । “गुपौ-धूप-"३।४।१। इति स्वार्थे आयः, गोपायति । "अशवि ते वा" ३।४।४। इति वा आये गोपायाञ्चकार, जुगोप । गोपायिता, पक्षे औदित्त्वाद् वेटि गोप्ता गोपिता । "कुप्य-भिद्योध्य-" ५।१।३९। इति निपातनात् क्यपि कुंप्यं सुवर्ण-रजताभ्यामन्यद् धनम् , अन्यत्र "शकि-तकि-"५।१।२९। इति ये गोप्यम् । आये “शंसि-प्रत्ययात्" ५।३।१०५। इति अः गोपाया, 6 पक्षे क्तौ गुप्तिः । गुपि गोपन-कुत्सनयोः जुगुप्सते । गुपच् व्याकुलत्वे गुप्यति । गुपण भासार्थः गोपयति, गोपना ॥
३३३ तपं ३३४ धूप सन्तापे । तपति । “निसस्तपे-' २।३।३५। इति षत्वे निष्टपति । "ब्युदस्तपः" ३।३।८७॥ इत्यात्मनेपदम् , वितपते उत्तपते; वितपति उत्तपति पृष्ठम् । तताप तेपतुः तेपुः। यङि तातप्यते । यङ्लुपि तातपीति तातप्ति । अनुखारेत्त्वाद् नेट् , तप्ता, तप्तुम् । “तपेस्तपः- 10 कर्मकात्" ३।४।८५। इति कर्तयात्मनेपदं क्यश्च, तप्यते तपः साधुः-1 अर्जयतीत्यर्थः । अतप्त तपः साधुः, + । अत्र "तपः क तापे च" ३।४।९१। इति जिन भवति । अन्ववातप्त पापः पापेन कर्म
णा, अत्रानुतापे जिज् न भवति। "नन्द्यादिभ्यः" ५।१।५२। इत्यने तपनः । “शकि-तकि-"५।१। ' २९। इति ये तप्यम् । “ललाट-वात-"५।१।१२५। इति खशि ललौटन्तपः । “द्विषन्तप-परन्तपौ"
. १ गुपौ इति औकारो गुपि गोपने इत्यस्य निवृत्त्यर्थः यड्लनिवृत्त्यर्थश्च । गुपण भासार्थः गुपच व्याकुलत्वे भनयोश्च कथम् ? अनयोस्तु धूपसाहचर्यात् निरासः। ननु धूप चुरादिरप्यस्ति, सत्यम् , अणिजन्तविच्छसाहचर्यात् भौवादिकस्यैव ग्रहणम् । ननु विच्छिरपि भासार्थः चुरादिस्तत् कथं तेन साहचर्यम् , सत्यम् , तस्य अणिजन्ताभ्यां पणि-पनिभ्यां साहचर्यान्निरासः । ननु यङ्प्रत्ययस्य प्राप्तिरेव नास्ति आयप्रत्ययेऽनेकस्वरत्वात् तत् कथं 'यङ्लुनिवृत्त्यर्थश्च' इत्युक्तम् , सत्यम् , अशविषये विकल्पितस्याऽऽयस्य प्रथमं यहि 'प्रकृतिग्रहणे यलुबन्तस्यापि' इति न्यायात् प्राप्तिः ॥२ ननु आयस्यादन्तत्वाभावेऽपि गोपायति इत्यादि सिध्यति किमदन्तकरणेन ? सत्यम् , आयस्यादन्तत्वाभावे अजुगोपायत् इत्यादिस्थाने "उपान्त्यस्या-" ४।२।३५। इति इस्वत्वे अजुगोपयदित्याद्यनिष्ट स्यात् इत्यदन्तकरणफलम् ॥ ३ गोपाय्यते तत् इति गुपेः क्यप् आदेः कत्वं च ॥ ४ "आतू" २।४।१८। इत्याप् सं१ टि. ॥ ५ सदनि स्पर्शयतीत्यर्थः। अनासेवायामिति किम् ? निस्तपति-पुनः पुनः तपति इत्यर्थः। कथं तर्हि 'निष्टतं रक्षः, निष्टप्ता अरातयः' इति ! अत्र सदप्यासेवनं न विवक्ष्यते इति । 'निरतपत्' इत्यत्र कथं न षत्वम् ? उच्यते, अत्र पूर्व छतमपि षत्वं परस्मिन्नडागमे "णषमसत्-" २।१।६०। इत्यनेनासिद्धम् इति ।। ६ इति सूत्रेण अकर्मकात् स्वाङ्गकर्मकाच । अकर्मकत्वं चास्य दीप्यते ज्वलति भासते रोचते इत्येषु अर्थेषु । यथा-वितपते रविः, दीप्यते-सामान्येन दीप्तो भवति; ज्वलति-ज्वालावान् भवति, भासते-उद्भूतरूपो भवति, रोचते-किरणवान् भवति इत्यर्थाः । स्वेऽङ्गे उत्तपते वितपते पाणिम् - तापयतीत्यर्थः । यदा अयमश्वाङ्गकर्मकस्तदा उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः-द्रवीकरोतीत्यर्थः इत्येव भवति ॥७"अत्र तपतेरर्जनमर्थ इति । साधुस्तत्र कर्ता, यत्रातौ-साधुः-कर्म 'उपवासादीनि तपांति साधु सन्तपन्ति' इति, तत्र तपिर्दुःखानुभावनार्थ इति कर्मणस्तपसो व्यापारो दुःखजननमिति क्रियाभेदाद्विध्यर्थमेतद्-मा० धा८७० पृ० १९७ धातु-९६५।८ स्वस्तिकमध्यगतः पाठः संपा१ नास्ति ।। ९नन्वनेन सामान्येन सानुतापेऽननुतापे च कर्तरि कर्मकर्तरि च भविष्यति किमनुतापग्रहणेनेति ! सत्यम् , अनुतापग्रहगं भावे कर्मणि चार्थम् , तेन कर्मकर्तरि अन्ववातप्त कितवः स्वयमेव, कर्तरि अतप्त तपांसि साधुः, भावे अन्वतप्त चैत्रेण पश्चात्तपनं कृतमित्यर्थः॥ १० पश्चात्ता कारित इत्यर्थः । अनुतापादन्यत्र उदतापि सुवर्ण सुवर्णकारेण इति जिचा भवितव्यमेव ॥ ११ "खित्यनव्ययाऽरुषो मोऽन्तो इस्वच" ३२।१११। इति मोऽन्तः ॥
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४४
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ५।१।१०८। इति निपातनात् खे द्विषन्तपः, परन्तपः । "भृ-वृ-जि-" ५।१।११२। इति खे सर्वन्तपः । उणादौ “अम्" (उ० ९५२) इति असि तपः तपसी ॥ धूप । स्वार्थे आये धूपायति । अशिति धूपायाञ्चकार दुधूप । धूपायिता, पक्षे नित्यमिटि धूपिता। धूपण भासार्थः धूपयति ॥
३३५ रप ३३६ लप ३३७ जल्प व्यक्ते वचने ।रपति । राप रेपतुः रेपुः । रपिता, रपितुम् । 6 "आसु-यु-वपि-" ।।१।२०। इति ध्यणि राप्यः, अभिराप्यः ॥ लप । लपति । ललाप लेपतुः
लेपुः । लपिता, लपितुम् । ध्यणि लाप्यः, अभिलाप्यः । करणेऽनटि लपनं मुखम् । क्ते लपितम् । घमि आलापः, संलापः, प्रलापः । "मथ-लपः" ५।२।५३। इति घिनणि प्रलपनशीलः प्रलापी ॥ जल्प। जल्पति। जजल्प । “क्रियाव्यतिहारे-" ३।३।२३। इत्यत्र शब्दार्थवर्जनान्नात्मनेपदम् ,
व्यतिजल्पति । “वृङ्-भिक्षि-" ५।२।७०। इति टाके जल्पाकः, जल्पाकी । घञि जल्पः ॥ 10 ३३८ जप मानसे च । मनोनिर्वत्र्ये वचने । चकाराद् व्यक्ते वचने । जपति । जजाप जेपतुः
जेपुः । इटि जपिता । “ग-लुप-" ३।४।१२। इति यङि गर्हितं जपति जञ्जप्यते, अत्र “जप-जभ-" ४।१।५२। इति पूर्वस्य मुरन्तः । “कृ-वृषि-मृजि-" ५।१।४२। इति वा क्यपि जप्यम् , पक्षे व्यणि जाप्यम् , विकल्पबलादेवात्र पैवर्गलक्षणो यो न भवति । "शोकापनुद-" ५।१।१४३। इति निपा
तनात् के कर्णेजपः सूचकः, "अमूर्ध-मस्तका-" ३।२।२२। इति सप्तम्या अलुप् ; अन्यत्र तृचि करें16 जपिता मन्त्री । "श्वस-जप-" ४।४।७५। इति क्तयोर्वा नेट् , जप्तः जपितः । “यजि-जपि-"५।२।४७/
इति यङन्ताद् ऊके जञ्जपूकः। “व्यध-जप-" ५।३।४७। इत्यनुपसर्गाद् अलि जप्यते इति जपः । सोपसर्गाद् घञि उपजापः ॥
३३९ चप सान्त्वने । चपति । चचाप चेपतुः चेपुः। अचि चपो वंशः तस्य विकारः चापं धनुः । उणादौ "दिव्यवि-" (उ० १४२) इति अटे चपटो विपुलः । “चपेरेटः” (उ० १५८) 20 चपेटः । “मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले चपलः ।।
३४० पप समाये । “षः सो-" २।३।९८। इति षस्य सत्वे सपति । ससाप सेपतुः सेपुः । इटि सपिता, सपिप्यति । षोपदेशत्वाद् "णि-स्तोरेवा-" २।३।३७। इति षत्वे सिपापयिपति । येषां तु नायं षोपदेशस्तेषां षत्वाभावे सिसापयिषति । उणादौ "प्लु-ज्ञा-यजि-" (उ० ६४६) इति तौ सप्तिः
१ नन्वत्रोपपदे द्विषतुशब्दो द्विषतीशब्दो वा? यद्वा 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि' इति न्यायात् उभपोरपि प्रहणम् ! उच्यते, लिविशिष्टपरिभाषाया अनित्यत्वात् द्विषच्छब्दोपपदोऽयम् न तु द्विषतीशब्दोपपदः, यद्वा 'निपातजस्येष्टविषयत्वात् नियामनभिधानम्'इति बृहदवृत्तौ श्रीहेमचन्द्रसूरयः। द्विषतीशब्दे तु "कर्मणोऽण" ५।३।१४। इत्यणि द्विषतीतापः, अण्यन्तस्य तु द्विषत्तापः परताप इति ॥ २ एतनामा कश्चित् ॥ ३“करणाऽऽधारे" ५।३।१२९। इति अनट् ॥४"शकि-तकि-चति-यति-शसि-सहि-यजि-भजि-पवर्गात्" ५।१।२९। इति सूत्रेण विशेषाभावात् ध्यण् तु भवत्येव विकल्पसामर्थ्यात् ॥५"चपो वृक्षः इति मैत्रेयः, वेणुविशेष इति दण्डनाथः" -माधा०व०पृ० ८७ धातु-३९६ । ६ “समवायः सम्बन्धः सम्यगवबोधो वा"-मा० धावृ०पृ. ८७ धातु-३९७।
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परस्मैधातवः ३३५-३६७] स्वोपझं धातुपारायणम् । अश्वः । “पप्यशौभ्यां तन्” (उ० ९०३) सप्त घटाः । चान्तोऽयमिति चन्द्रः। सचति । “पलिसचेरिवः” (उ० ५२२) सचिवः । पचि सेचने सचते ॥
३४१ सृप्लं गतौ । दन्त्यादिः। सर्पति । क्ये सृप्यते । ससर्प ससृपतुः ससृपुः । लदित्त्वादङि असृपत् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , सप्ता, सप्र्तुम् । “लिहादिभ्यः" ५।१।५०। इत्यचि सर्पः । कुटिलं सर्पतीति “गत्यर्थात् कुटिले" ३।४।११। इति यङि अचि सरीसृपः, षोपदेशाभावादत्र न षत्वम् । 5 "ऋदुपान्त्याद्-" ५।१।४१। इति क्यपि सृप्यम् । भावे घञि संसा विपादिका, अभिधानादस्य स्त्रीत्वम् । उणादौ "ऋज्यजि-तच्चि-" (उ० ३८८) इति किति रे सपा काचिन्नदी । “रुच्यर्चि-शुचि-" (उ० ९८९) इति इसि सर्पिः ।।
३४२ चुप मन्दायाम् । गतावित्यनुवृत्तेर्मन्दायां गतौ। चोपति-किञ्चिच्चलतीत्यर्थः । चुचोप । अनटि चोपनम् । इटि चोपिता, चोपिप्यति । उणादौ "क्षु-चुपि-"(उ० ३०१) इति कित् पः, चुप्पं 10 मन्दगमनम् । “ज्यजि-" (उ० ३८८) इति किति रे चुपो वायुः ॥
३४३ तुप ३४४ तुम्प ३४५ त्रुप ३४६ त्रुम्प ३४७ तुफ ३४८ तुम्फ ३४२ त्रुफ ३५० त्रुम्फ हिंसायाम् । तोपति । तुतोप। “वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति क्त्वा-सनोरिटि वा किचे तुपित्वा तोपित्वा, तुतुपिषति तुतोपिषति "उति शवर्हाद्भयः-" ४।३।२६। इति. क्तयोर्या कित्त्वे तुपितम् तोपितमनेन ॥ तुम्प । तुम्पति । तुतुम्प । “प्रात्तुम्पतेर्गवि" 15 ४।४।९७। इति सटि प्रस्तुम्पति गां वत्सः । येषां तु “प्रात्तुम्पतेः कपि" इति सूत्रं तेषां कपि समासान्ते सटि प्रस्तुम्पकः । तयोः तुपितः तुपितवान् । भावे क्ते तुपितम् , अत्र कित्त्वनिमित्तत्वादुपान्त्यत्वस्य सन्निपातलक्षणत्वेन "उति शवर्हाद्यः” ४।३।२६। इति न कित्त्वविघातकत्वम् तथा च न गुणः ॥
त्रुप त्रोपति । तुत्रोप। त्रुपित्वा त्रोपित्वा । तुत्रुपिषति तुत्रोपिषति ॥ त्रुम्प। त्रुम्पति। तुत्रुम्प । त्रुपितः त्रुपितवान् ॥
20 • अर्थ फान्ताः सप्त सेटश्च
तुफ । तोफति । तुतोफ। क्तयोः तुफितः तुफितवान् ॥ तुम्फ । तुम्फति। तुतुम्फ। तुम्फिता । "ऋत्तष-" ४।३।२४। इति इटि क्त्वो वा कित्त्वे तुफित्वा तुम्फित्वा ॥ त्रुफ । त्रोफति । तुत्रोफ। त्रुफितः त्रुफितवान् ।। त्रुम्फ । त्रुम्फति । तुत्रुम्फ । त्रुफित्वा त्रुम्फित्वा। तुप-तुम्प-तुफ-तुम्फास्नु नुदादावपीत्यन्ये, तुपति, शे नलुगनिष्टेश्च प्रस्तुम्पति गौः, तुफति, 25 तुम्फति ॥
३५१ वर्फ ३५२ रफ ३५३ रफु ३५४ अर्ब ३५५ कर्ब ३५६ खर्व ३५७ गर्व ३५८ चर्ब ३५९ व ३६० नर्व ३६१ पर्व ३६२ बर्ष ३६३ शर्ब ३६४ पर्व ३६५ सर्व ३६६ रिबु ३६७ रखु गतौ।
१ अभि सं१ सं२ प्र० तपा० संपा१ खे० ॥ २ पाणिनीयाः॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित
[भूवादिगणे सप्तदशाप्येते गत्यर्थाः। फान्तास्त्रयोऽपि हिंसायामिति कण्वः । वर्फति ॥ ' [रफ।] रफति ॥ रफु । उदित्त्वाद् ने रम्फति ।। ___ अथ बान्ता अष्टादश सेटश्च
- अर्ब । अर्बति । "अनातो-" ४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनर्ब ॥ कर्व। कवति। उणादौ 5 "दिव्यवि-" (उ० १४२) इति अटे कर्बट क्षुद्रपत्तनम् । “वाश्यसि " (उ० ४२३) इति उरे
कर्बुरः ॥ खर्ब । खर्बति । अचि खर्बः ॥ गर्व । गर्बति । घञि गर्बः॥ चर्व । चर्चति । पनि चर्बः । अनटि चर्वणम् ॥ तब । तर्बति । नर्व । नर्बति ॥ पर्व । पर्वति ॥ वर्ब । ओष्ठ्यादिः । बर्बति । उणादौ "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति अरे बर्बरः, बर्बरी कुञ्चिताः केशाः॥ शब। तालव्यादिः । शर्बति ॥ पापोपदेशः । “पः सो-' २।३।९८॥ इति षस्य सत्वे 10 सर्बति । पोपदेशत्वाद् “णिस्तोरेवा-" २।३।३७॥ इति षत्वे सिपर्वयिषति ॥ सर्व । सर्वति । सोप
देशत्वात् षत्वाभावे सिसर्वयिषति ।। रिबु । उदित्त्वाद् ने रिम्बति ॥ रखु । उदित्त्वाद् ने रम्बति । अचि रम्बः, करम्बः । क्ते करम्वितः । घईत्यपि केचित् पठन्ति, स पुनरनार्षत्वादुपेक्षितः । अत्यादौ रेफस्थाने नकारं कौशिका मन्यन्ते ॥
३६८ कुबु आच्छादने । उदित्त्वाद् ने कुम्पति । “भीषि-भूषि-" ५।३।१०९। इति 15 णौ अङि कुम्बा । कुबुण आच्छादने कुम्बयति ॥
३६९ लुबु ३७० तुबु अर्दने। उदित्त्वाद् ने लुम्बति । उणादौ ण्यन्तात् “स्वरेभ्य इ:-" (उ० ६०६) इति इः, लुम्बिः ॥ तुबु । उदित्त्वाद् ने तुम्बति । अचि गौरादित्वाद् ड्याम् तुम्बी । लुबु तुबुण अर्दने, लुम्बयति, तुम्बयति ॥
३७१ चुबु वक्त्रसंयोगे । वक्त्रेण सम्बन्धः। “नमस्तुङ्गशिरश्चुम्बि-" [हर्षचरिते] इत्युपचारात् । 20 उदित्त्वाद् ने चुम्बति । चुचुम्ब । चुम्बितुम् ॥
अथ भान्ता अष्टौ यभंवर्जाः सेटश्च-- ३७२ सृभू ३७३ सृम्भू ३७४ त्रिभू ३७५ षिम्भू ३७६ भर्भ हिंसायाम् । आधास्रयो दन्त्याद्याश्चतुर्थः षोपदेशः । सर्भति । सिसर्भयिषति । ऊदित्त्वात् क्वि वेद, सृब्ध्वा सर्भित्वा ॥
सृम्भू । सृम्भति । सिसृम्भयिषति । ऊदित्त्वात् सृब्ध्वा सृम्भित्वा ॥ त्रिभू । सेभति । 25 सिनेम सिस्रिमतुः सिस्रिभुः । सिस्रेभयिषति । ऊदित्त्वात् सिब्ध्वा, पक्षे "वौ व्यञ्जनादे:-"४।३।
२५। इति इटि वा कित्त्वे निमित्वा सेभित्वा। सनि सिसिभिषति सिभिषति । क्त्वि वेट्त्वात् तयोर्नेट् सिब्धः सिब्धवान् ।। पिम्भू । “षः सो-' २।३।९८। इति षस्य सत्वे सिम्भति । पोपदेशत्वाद् “नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इति षत्वे सिषिम्भ । ऊदित्त्वात् सिब्ध्वा सिम्भित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेद, सिब्धः सिब्धवान् ॥ भर्भ । भर्भति । बभर्भ । इटि भर्भिता ।
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परस्मैधातवः ३५१-३८४ ]
स्वोपज्ञं धातुपारायणम् ।
३७७ शुम्भ भाषणे च । चकारात् हिंसायाम् । भासने चेत्यन्ये । तालव्यादिः । शुम्भति । शुशुम्भ । के सेट्त्वात् “तेटो - " ५ | ३ | १०६ ॥ इति अः शुम्भा शोभेत्यर्थः । शुभ शुम्भत् शोभार्थे शुभति । षोपदेशोऽयमिति गुप्तः, सुम्भति । कुपूर्वादचि कुसुम्भः । लक्ष्यं चै ।
“सावष्टम्भनिशुम्भसुम्भन ० " [
] इति ।।
४७
।
३७८ ये ३७९ जभ मैथुने । मिथुनस्य कर्मणि भावे वा । आद्योऽन्तस्थादिरन्यश्च चव - 5 र्गादिः । यभति । “क्रियाव्यतिहारे - " ३।३।२३ । इत्यात्मनेपदे व्यतियभते । क्ये यभ्यते । ययाभ येभतुः येभुः। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट्, यब्धा, यब्धुम् । घञि याभः । “शकि- तकि-" ५।१।२९। इति ये यभ्यम् ॥ जभ | "जभः स्वरे " ४ । ४ । १०० । इति ने जम्भति । जजम्भ । इटि जम्भिता, जम्भितुम् । णके जम्भकः । घञि जम्भो वर्तते । “शकि- तकि - " ५|१|२९| इति ये जभ्यम् । “गु-लुप - " ३।४।१२ । इति गह्यर्थाद् यङि "जप-जभ - " ४|१/५२ ॥ इति पूर्वस्य स्वागमे च जञ्जभ्यते । क्तयोरिटि नागमे नलुकि च जभितः जभितवान् । जभै गात्रविनामे जम्भते ॥
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अथ मान्ताः सप्तदश यमूं-णमंगलं वर्जाः सेट -
३८० चम् ३८१ छम् ३८२ जनू ३८३ झम् ३८४ जिमू अदने । पञ्चाप्यूदितः । “ष्ठिवूक्लम्वा–” ४।२।११० । इति दीर्घत्वे आचामति । आङ्पूर्वस्यैव दीर्घत्वविधानात् चमति, उच्चमति, विचमति । आचचाम । " अमोऽकम्यमि - " ४।२।२६ | इति णौ ह्रस्वाभावे चामयति, आचामयति । 15 आसु-यु-वपि - " ५।१।२० । इति घ्यणि आचाम्यैम् । “मोऽकमि - " ४।३/५५ । इत्यत्र आमो नाद् वृद्धिनिषेधाभावे णके आचामकः । घञि आचामः । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट् चान्त्वा चमित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट्, आचान्तः आचान्तवान् । उणादौ "ऋच्छि चटि - " ( उ० ३९७) इति अरे चमरः । प्रज्ञाद्यणि चामरैः । “तप्यणि - " ( उ० ५६९) इति असे चमसः सोमपात्रम्, गौरादित्वाद् ड्याम् चमसी मुद्गादिभित्तकृता । “कृषि चमि - " ( उ० ८२९) इति ऊः छमति । चछाम । “अमोऽकम्यमि - " ४ |२| २६ ।
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छान्त्वा ॥
चमूः । छमू । इति णौ हस्वे छमयति । ऊदित्त्वात् छमित्वा जमू । जमति । जाम । णौ ह्रस्वे जमयति । ऊदित्त्वात् जमित्वा, जान्त्वा ॥ झमू । झमति । जझाम । झमयति । झमित्वा झान्त्वा । उणादौ " झमेझ : " ( उ० १३७) झन्झा ॥ जिमू । जेमति । अनटि जेमनम् । घञि जेमः । ऊदित्त्वात् जीन्त्वा, पक्षे “ वौ व्यञ्जनादेः - " ४|३| २५ । इति वा कित्त्वे जिमित्वा जेमित्वा ॥
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१ हिंसायामेव इति देव- मैत्रेयादयः॥ २ दुर्ग- धनपाल-शाकटायनाः ॥ ३ “गुप्तस्तु 'सावष्टम्भनिषुम्भसम्भ्रमनमद्भूगोल' इत्यादिदर्शनाद् मूर्धन्यादित्वमाह ” - मा०धा०० पृ० ८८ धातु - ४३० ॥ ४ यम विपरीत मैथुने - विपरीतानुष्टान इत्यर्थः इति मैत्रेयः, पुरुषकारे तु विपरीतमैथुने इति विपरीतयभने इति" - मा०धा०वृ० पृ० १९१ धातु- ९६१ ॥ जभं च न पठन्ति पाणिनीया इति ।। ५ उपसर्गरहितस्य " मोऽकमि· यमि-रमि-नमि-गमि-वम् - आचमः ४।३।५५। इति वृद्धिप्रतिषेघे ध्यणि ये च न विशेष इति सोपसर्गस्योदाहरणम् ॥ ६ चामरम् वा० संपा१ प्र० ॥ ७ भित्तम् - शकलम् - खण्डम् । " चमसी पिष्टवतिः " - अभिधान ०३, ६४ " मुद्गादीनां पिष्टस्य वर्तिः " - अभि०
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आचार्यधीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे __३८५ क्रम पादविक्षेपे । पदन्यासे । “क्रमो दीर्घः-"४।२।१०९। इति दीर्घ कामति । चक्राम । "क्रमोऽनुपसर्गाद" ३।३।४७। इति वा आत्मनेपदम् , क्रमते कामति । "वृत्ति-सर्ग-तीयने"३।३।४८॥ ऋक्षु अस्य क्रमते बुद्धिः-न प्रतिहन्यते इत्यर्थः; युद्धाय क्रमते-उत्सहते इत्यर्थः; प्राज्ञे शास्त्राणि क्रमन्ते-स्फीतीभवन्तीत्यर्थः । “परोपात्" ३।३।४९। पराक्रमते, उपक्रमते । “वेः स्वार्थे' ३।३। 5 ५०। साधु विक्रमते हंसः । “प्रोपादारम्भे" ३।३।५१। प्रक्रमते उपक्रमते भोक्तुम् । “आङो ज्यो
तिरुद्मे" ३।३।५२। आक्रमते नभोऽर्कः । इटि क्रमिष्यति । "क्रमः' ४।४।५३। इत्यनात्मनेपदे इनियमादात्मनेपदे नेट, प्रक्रसीष्ट, उपक्रंसीष्ट । “तुः" ४।४।५४। इति तृप्रत्यये अनात्मनेपदविषयादिनियमादात्मनेपदविषयाद् नेट् , प्रक्रन्ता. उपक्रन्ता- । “गत्यर्थात् कुटिले" ३।४।११। इति यङि
चक्रम्यते । “व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२। घञि कामन्त्यनेनेति क्रमः, "मोऽकमि-" ४।३।५५। 10 इति वृद्धेरभावः । भावे पनि क्रमः, प्रक्रमः, उपक्रमः । “द्रम-क्रमो यङः" ५।२।४६। इति अने
१ पदविन्यासे संपा१ वा० । पादन्यासे इति तु प्र० मु० ।। २ ननु अनुपसर्गात् इति कोऽयं समासः? तत्पुरुषो बहुव्रीहिः वा? बहुव्रीहिरेवायम् , यदुक्तं बृहदवृत्तौ-अविद्यमानोपसर्गात् कमेरिति । लघुन्यासकारैरपि अभिहितम् अविद्यमानोपसर्गादिति बहुव्रीहिरयम् । यदि पुनर्न उपसर्गोऽनुपसर्ग इति तत्पुरुषो विधीयते तदा उपसर्गादन्योऽनुपसर्गस्तस्मात् परो यः क्रमिस्तत इति प्रतिपत्ती केवलात् न स्यात, प्रसन्याश्रयणे तु असमर्थसमासः कष्टः स्यादिति ॥ ३ वृत्तिः अप्रतिबन्धः आत्मयापनं वा सर्गः उत्साहः तात्पर्य वा, सर्गेणातिसर्गस्य लक्षणादनुज्ञा वा, तायनं स्फीतता संतानः पालनं वा ॥ ४ आत्मानं यापयति ॥५ तत्परोऽनुज्ञातो वा इत्यर्थः ।। ६ "वृत्ति-सर्ग-तायने" ३३१४८। इत्येव सिद्धे "परोपात्" ३।३।४९। इत्यारम्भान्नियमाद्वाऽन्योपसर्गाद् न भवति, तेन संक्रामतीति परस्मैपदमेव, णौ क्रमयति अचिक्रमत् इत्यादि । ननु तर्हि कथं सकामयतीति ? सकामन्तं करोतीति शत्रन्ताण्णिचि भविष्यति। "अन्ये तु "मितां हस्वः” (पा० ६।४।९२१) इत्यत्र वा अनुवर्त्तयन्ति, सा च व्यवस्थितविभाषा, तेन सङ्कामयतीत्येवमादि सिद्धं भवति इत्युक्तं माधवीयधातुवृत्तौ-पृ. ९६ धातु- ४६९ सच . निन्दित इति तत्रैवोक्तम् , सङ्क्रमयतीति अविगीत इति कथनेन "रसातले सक्रमिता" इत्यादिप्रयोगोऽप्यनुकूलः । इति॥७स्वार्थः पादविक्षेपः, तेन अश्वेन विक्रामति इत्यत्र न भवति। नन्वत्र पादविक्षेप एव ऋमिवर्तते, स च कर्तृकृत : करणकृतो वा भवतु, सत्यम् , “गौण-मुख्ययोः" इति न्यायात् सर्वकारकप्रधानभूतः-कर्तृकृत एव गृह्यते अत्र तु करणकृतः पादविक्षेप इति न भवति । विक्रामति राजा उत्सहते इत्यर्थः, अत्र "परोपाद" ३।३।४९। इत्येवेति नियमा "वृत्ति-सर्ग" ३॥३॥४८॥ इत्यादिनाऽपि न भवति ।। ८ सुष्ठ पदानि विक्षिपतीत्यर्थः । अश्वादीनां गतिविशेषोऽपि क्रम इति ॥ ९ आरम्भ आदिकर्म। अङ्गीकरणं चेत्यन्ये। एके तु स्वार्थविषय एवारम्भे मन्यन्ते, तेनोपक्रमते प्रक्रमते-पादाभ्यां गन्तुमारभते इत्यर्थ इत्यत्रैव भवति । स्वार्थविषयारम्भादन्यत्र तु प्रक्रामति उपनामति भोक्तुमित्यत्र न भवति, इति बृहवृत्तौ ॥ १० ज्योतिषां चन्द्रादीनामुद्गमे ऊर्ध्वगमने प्रधाने उपसर्जने वा वर्तमानात् ॥ ११ उदयते इत्यर्थः, दिवमाक्रममाणेन केतुना. अत्र दिवमिति कर्मणा योगादुद्गमनोपसर्जनव्याप्तिवचन: कमिः, केतुर्ग्रहः । ज्योतिरुद्गम इति वचनात् आक्रामति धूमो हर्म्यतलम्-उद्गच्छन् व्याप्नोतीत्यर्थः, उद्गमनपूर्विकायां व्याप्तौ अत्रापि कमिरिति द्वितीया। कैयटस्तु उद्गमने वर्तमानोऽयमकर्मकस्तेन आक्रामति धूमो हHतलात् इति पन्यते- मा० धा० ऋ० पृ. ९६। १२ प्रक्रन्ता, उपक्रन्ता इत्यत्र "प्रोपादारम्भे-"३।३।५१। इत्यात्मनेपदम् । अनात्मनेविषयत्वे तु क्रमिता इत्यादि, सायणस्तु 'अनुपसर्गात् कमेः कन्ता ऋमिता इत्युभयमपि भवति, "अनुपसर्गाद्वा" (पा. ११३॥ १३) इति विकल्पेनात्मनेपदविषयादित्येके' इति पठति च। क्रमितेति, "क्रमोऽनुपसर्गात्' ३॥३॥४७॥ इति विकल्पनात्मनेपदविण्यत्वात् कन्तेत्यपि, “तुः" ४।४।५४। इति सूत्रस्य न्यासे कनकप्रभसुरयोऽपि ।
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परस्मैधातवः ३८५-३८६] स्वोपझं धातुपारायणम्। , चक्रमणः । “शक-धृष-" ५।४।९०। इति तुमि प्रक्रमते भोक्तुम् , उपक्रमते भोक्तुम् । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट्, क्रन्त्वा क्रान्त्या, अत्र "क्रमः क्त्वि वा” ४।१।१०६। इति वा दीर्घः; पक्षे क्रमित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , क्रान्तः क्रान्तवान् । उणादौ "क्रमेः कृम् च वा" (उ० ५३) इति उके कृमुको बन्धनः, क्रमुकः 'पूगतरुः । “क्रमि-तमि-स्तम्भेरिच्च नमेस्तु वा" (उ० ६१३) इति इ:, क्रिमिः । "क्रमि-गमि-क्षमेस्तुमाच्चातः" (उ० ९४२) क्रान्तुं गमनम् तुमर्थश्च ॥ __ ३८६ यम उपरमे । उपरमो निवृत्तिः । “गमिषद्यमश्छः" ४।२।१०६। यच्छति । ययाम । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , यन्ता । “यमोऽपरिवेषणे--"४।२।२९। इति णौ ह्रस्वे यमयति केशान् , परिवेषणे तु यामयत्यतिथीन् । “यमः स्वीकारे" ३।३।५९। इति उपात् आत्मनेपदम् , उपयच्छते कन्याम्। “आगे यम-हनः स्वेऽङ्गे च" ३।३।८६। आयच्छेते, आयर्च्छते पाणिम् । “समुदाडो यमेरग्रन्थे" ३।३।९८॥ इति फलवत्कर्तर्यात्मनेपदम् , संयच्छते उद्यच्छते आयच्छते रज्जुम् , "ईगितः" ३।३।९५। इत्या- 10 ल्मनेपदापवादस्य "अणिगि प्राणिकर्तृका-" ३।३।१०७। इति परस्मैपदस्यापवादः । “परिमुहाऽऽयमा-" ३।३।९४। इति फलवत्कर्तर्यात्मनेपदम् , आयामयते सर्पम् । “यमः सूर्चने" ४।३।३९। इति सिचः कित्त्वे उदायत उदायसाताम् । “वा स्वीकृतौ" ४।३।४०। उपायत उपायंस्त कन्याम् । “यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्च"४।४।८६। अयंसीत् अयंसिष्टाम् । यङि यंयम्यते । यङ्लुपि यंयमीति। "यम-मद-गदोऽनुपसर्गाद" ५।१।३०। इति ये यम्यम् ; उपसर्गात्तु घ्यण् एव आयाम्यम् प्रयाम्यम् । 15 'वाचंयमो व्रते" ५।१।११५। इति निपातनात् खे वाचयमो व्रती, अन्यत्र अणि वाग्यामः । क्तयोः “यरमि-" ४।२।५५। इत्यन्तलोपे यतः यतवान् । “प्राच्च यम-यसः" ५।२।५२। इति घिनणि प्रयम
१ कुटिलं क्रामतीत्येवंशील: चक्रमणः ॥ २ परिवेषणमिह भोजनविषयि परिवेषणं सूर्यादिवेष्टनं च गृह्यते, तद्भिन्न अपरिवेष्टनम् ॥ ३ परिवेषणक्रियया तान् व्याप्नोतीत्यर्थः॥ ४ परिणयतीत्यर्थः, अत्र “उपाद्यमः स्वकरणे" (पा० १।३१५६१) इति सूत्रस्य भाष्ये 'इह कस्माद् न भवति स्वं शाटकान्तमुपयच्छति ? अस्वं यदा स्वं करोति तदा भवितव्यमेव।' इदं भाष्योक्तम्-अस्वस्य स्वत्वेन करणं वृत्तिकार-शिवस्वामिभ्यां प्रसिद्धिषशात् पाणिग्रहणविषयं संस्कृतम् । तथा च काशिकायाम-१।३।५६। 'पाणिग्रहणविशिष्टमिह स्वकरणं गृह्यते न स्वकरणमात्रमिति । माधवीयधातुवृत्तावपि "सामान्येनापि "वार्तिककारेण पाणिग्रहणविशिष्टं स्वकरणं शिवस्वामि-जयादित्यावूचतुः, प्रसिद्धत्वात् 'उपायंस्त नतीः' इत्यादिप्रयोगस्तु साधात् । पाणिग्रहणविशिष्टं स्वकरणमिति मते वेश्यामुपयच्छते इत्यादि न भवति । भाष्यकारेण तु स्वकरणमात्रे विशिष्टे स्थित इत्युक्तम्। भट्रिकाव्ये च 'शस्त्राण्युपायंस्त विजित्वराणि' इति सामान्येन प्रयुज्यते"-पृ. १९६ धातु-९६४॥ ५ दी? भवति व्याप्रियत इति वाऽर्थः ॥६दी/करोतीत्यर्थः । कथं तहिं आयच्छति पादौ देवदत्तस्य इत्यत्र स्वाङ्गत्वात् पादयोः परस्मैपदम् ? उच्यते, अत्र "अविकारोऽवं मूर्त, प्राणिस्थ स्वाङ्गमुच्यते।" इत्यादिलक्षणस्य पारिभाषिकस्वाङ्गस्य प्रतिपत्तिर्मा भूदिति सूत्रेऽसमस्तनिर्देशः॥ ७ ननु "आङो यम-हन:-" ३३१८६। इत्यनेनैव आत्मनेपदे सिद्ध किमर्थ इह आग्रहणम् ? इहागे ग्रहणमस्वाङ्गकर्मकार्थम् ॥ ८ यदा तु कर्चभिप्रायत्वं पदान्तरेण प्रतीयते तदा “पदान्तरगम्ये वा" ३॥३९९। इति स्वान् नीहीन संयच्छतीत्यपि भवति ॥ ९ कश्चिद् 'यमः परिवेषणे'इति पठति तन्मताभिप्रायेण न हस्वः, स्वमते तु भवत्येव आयमयते इत्यादि ॥ १० परेण प्रच्छाद्यमानस्य दोषस्य आविष्करणं सूचनम् ॥ ११ अत्रापि उद्वाहे एवेतीच्छन्त्येके ॥ १२ वाचं यच्छति नियमयति वेति ।
धा० पा०७
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आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे
णशीलः प्रयामी, आयामी । "सं-नि- व्युपाद्यमः " ५/३/२५ | इति वा अलि संयमः संयामः, नियमः नियामः, वियमः वियामः, उपयमः उपयामः । “नवा कण - " ५।३।४८ । इत्यनुपसर्गाद्वा अलि यमः यामः । तौ यतिः । यपि "वा म: " ४ । २ । ५७ । इति वा अन्तलोपे प्रयम्य प्रयत्य । उदित्त्वात् क्वि वेयत्वामित्वा । ऊदित्त्वं नेच्छन्त्येके । “तिक्कृतौ नाग्नि" ५।१।७१ । इत्यकटि यमकम् । उणादौ " यम्यजि - " ( उ० २८८ ) इति उने यमुना । "हु-या-मा- " ( उ०४५१) इति त्रे यन्त्रम् । " मृदि - कन्दि - " ( उ० ४६५ ) इति अले यमलम् |
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३८७ स्यम् शब्दे । स्यमति । " - भ्रम - " ४|१ | २६ । इति वैत्वे स्थेमतुः सस्यमतुः स्येमुः सस्यमुः । “व्ये-स्यमोर्यङि" ४।१।८५ । इति वृति सेसिम्यते । “अमोऽकम्यमि-चमः " ४/२/२६ | इति णौ ह्रस्वे स्यमयति । इटि स्यमिता, स्यमितुम् । ऊदित्त्वात् क्त्वि पेट्, स्यान्त्वा स्यमित्वा । 10 वेट्त्वात् कयोर्नेट्, स्यान्तः स्यान्तवान् । उणादौ “स्यमे सीम् च " ( उ० ४४ ) इति इके सीमि वृक्षः । “स्यमि-कषि–” (उ०४६) इति ईके स्यमीको ' वृक्षः; स्यमेः सिमादेशे च सिमीकः सूक्ष्मकृमिः ॥
३८८ णमं प्रहृत्वे । प्रह्वत्वं नम्रत्वम् । “पाठे - " २ ३ ९७| इति णस्य नत्वे नमति । गोपदेशत्वाद् “अदुरुपसर्गा - " २।३।७७ इति णत्वे प्रणमति । कर्मकर्तरि “एकधातौ - " ३|४|८६ । इत्यात्मनेपदे नमते दण्डः स्वयमेव, अनंस्त दण्डैः स्वयमेव, अत्र “भूषार्थ - " ३।४।९३ । इति प्रति15 षेधात् क्यो ञिश्च न भवति । कर्मणि क्ये नम्यते । ननाम नेमतुः नेमुः । "यमि-रमि-नम्यातः सोऽन्तश्च” ४।४।८६। अनंसीत् अनंसिष्टाम् । “ज्वल -ह्वल - " ४।२।३२। इत्यनुपसर्गस्य णौ वा हस्वे नमयति नामयति ; सोपसर्गस्य तु " अनोऽकम्यमि - " ४ |२| २६ । इति नित्यं ह्रस्वे प्रणमयति, उन्नमयति । यङि नन्नम्यते । यङ्लुपि नन्नमीति नन्नन्ति । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट्, नन्तानन्तुम् । तयोः
I
“ यमि रमि - " ४।२।५५ । इत्यन्तलोपे नतः नतवान् । “आसु-यु-वपि - " ५।१।२० । इत्याङ्पूर्वाद् 20 ध्यणि आनाम्यैः । " रम्यजस - " ५|२|७९ | इति रे नमनशीलो नम्रः । उणादौ "नमेन च " (उ० ७२०) इति उः, नाकुऋषिः । “नमेः प् च" ( उ० ८६२ ) इति तृः, नप्ता । “सात्मन्नात्मनून् - " ( उ० ९१६) इति निपातनात् मनि नाम । " अस्" ( उ० ९५२) इति असि नमः ॥
३८९ षम ३९० ष्टम वैक्लव्ये । वैक्लव्यं कातरत्वम् । "7: सो- " २३ ९८ । इति षस्य सत्वे समति । ससाम । इटि समिता, समितुम् । " अमोऽकम्यमि - " ४ |२| २६ | इति णिगि ह्रस्वे सुमयति । 25 अचि समः, “निर्दुः-सुधेः-१ २ ३ । ५६ । इति षत्वे विषमः । षोपदेशत्वात् “णि- स्तोरेवा--"२|३|३७| इति षत्वे सिषमयिषति ॥ ष्टम । “षः सो- " २|३| ९८ । इति षस्य सत्वे स्तमति । तस्ताम ।
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१ स्यमीकं जलम्, स्यमीका कृमिजातिः ॥ २ केचित् स्यमेः सिम् इति हस्वोपान्त्यमादेशं प्रत्ययस्य व दीर्घत्वमिच्छन्ति तन्मतसङ्ग्रहायेदम् ॥ ३ ननु 'नम्' अकर्मकः तत् कथमस्य कर्मस्थक्रियत्वम् ? उच्यते, अन्तर्भूतयर्थत्वेन सकर्मकत्वाद् दण्डस्य कर्मकर्तृत्वम् । यत्र तु ण्यर्थो नास्ति तत्र कर्तृतैव यथा नमति शाखा वातेन ॥ ४ आनमे च्छन्त्ये ॥
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परस्मैधातवः ३८७-३९६] स्वोपझं धातुपारायणम् । इटि स्तमिता, स्तमितुम् । णौ स्तमयति । षोपदेशत्वात् तिष्टमयिषति । अचि स्तमः । स्तन-धनस्वन-स्यमू-पम-ष्टमान् षडप्यदन्तान् सभ्या अभ्युपागमन् ॥
३९१ अम शब्द-भक्त्योः । भक्तिर्भजनम् । अमति । आम आमतुः आमुः। "अमोऽकम्यमि-" ४।२।२६। इत्यत्र अमो वर्जनाद् णिगि हूस्वाभावे आमयति । “मोऽकमि-" ४।३५५। इति गिति कृतिसृद्धिनिषेधाद् णके अमकः । घनि अमः । आम इति त्वापूर्वस्य पञि, अमण । रोगे इत्यस्य वा णिचि अलि । सेट्वात् अमिता, अमितुम् । "श्वस-जप-" ४।४७५। इति क्तयोर्वा नेट् , अभ्यान्तः अभ्यमितः । “जि-इण्-दृ-क्षि-"५।२।७२। इति इनि अभ्यमनशीलो अभ्यमी। उणादौ "दम्यमि-" (उ० २००) इति ते अन्तः । “चि-जि-शु-" (उ० ३९२) इति रे दीर्घ च आम्रः । "हु-या-मा-" (उ० ४५१) इति । अन्त्रम्। "वृग-नक्षि-" (उ० ४५६) इति अत्रे अमत्रम् । "वन्धि-वहि-" (उ० ४५९) इति इत्रे अमित्रः .. "पा-दा-वमि-" (उ० ५२७) इति शे अंशः। 10 "मा-वा-वद्यमि-" (उ० ५६४) इति से असः । “अमेर्भ-हौ चान्तौ” (उ० ९६२) इति असि अम्भः, अंहः ॥
३९२ अम ३९३ द्रम ३९४ हम्म ३९५ मीमृ ३९६ गम्लं गतौ । अमिरुदाहृत एव । अर्थभेदार्थ तु पुनः पाठः ॥ द्रम। द्रमति । दद्राम । “व्यञ्जनादे:-" ४।३।४७॥ इति वा वृद्धेः “न श्वि-जागृ-" ४।३।४९। इति प्रतिषेधात् अद्रमीत् । “द्रम-क्रमो यङः" ५।२।४६। 15 इति अने दन्द्रमणशीलो दन्द्रमणः । इटि द्रमिता, द्रमितुम् । उणादौ "कल्यनि-" (उ०४८१) इति इले द्रमिलः ॥ - हम्म । "हम्मतिः सुराष्ट्रेषु" [आ०१, ५] इति भाष्याद् द्विर्बद्धो मकारः । हम्मति। जहम्म । इटि हम्मिता, हम्मितुम् । यङि जंहम्म्यते, अत्र "मुरतोऽनुनासिकस्य" ४।१।५१। इत्यत्र अनुनासिकजातिपरिग्रहादतोऽनुनासिकाद् नत्वे पूर्वस्य मुरन्तः । केचित्तु म्यागमं नेच्छन्ति, तन्मते जाहम्म्यते ॥ मीमृ । मीमति । मिमीम । इटि मीमिता, मीमितुम् । यङि मेमीम्यते । 20 ऋदित्त्वाद् णौ के "उपान्त्यस्य-" ४।२।३५। इति हूस्वाभावे अमिमीमत् । अयं शब्देऽपीत्येके ॥
३९६ गम्लं । “गम्-इषद्-" ४।२।१०६। इति छे गच्छति । “समो गमृच्छि-" ३।३।८४। इत्यात्मनेपदे सङ्गच्छते'। जगाम । “गम-हन-" ४।२।४४। इत्युपान्त्यलुकि जग्मतुः । लदित्त्वाद् "लदिद्-धुतादि-"३।४।६४। इत्यङि अगमत् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् गन्ता, गन्तुम् । “गमोऽनात्मने" ४।४।५१। इतीटि गमिष्यति । “स्कृ-असू-वृ-'" ४।४।८१। इति परोक्षायामिटि जन्मिव जग्मिम; 25 "सृजि-दृशि-" ४१४७८॥ इति थवि वा नेटि जगन्थ, जगमिथ । “गम-हन-" ४।२।४४। इति कसौ वेटि जन्मिवान् जगन्वान् । “गमो वा" ४।३।३७। इति सिजा-ऽशिषोरात्मने वा कित्त्वम् , समगत, अत्रै “यमि-रमि-" ४।२।५५। इत्यन्तलोपः; समगस्त, संगसीष्ट संगंसीष्ट । गत्यर्थाद्वा कर्तरि
१ कर्मणि असति इदम् । कर्मणि सति तु. सङ्गच्छति सुहृदम् ॥ २ थवि वेटि ज° संपा१ वा० ॥ ३ "धुहस्था-" ४।३।७०। इति सिलुक् च ॥ ४ “गत्यर्थाऽकर्मक-पिब-भुजेः" ५।१।११। इति सूत्रेण ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ते गतो ग्रामम् , पक्षे कर्मणि गतो ग्रामः । “नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः" ५।१।१३१॥ प्रवङ्गः प्रवगः, विहङ्गमः विहङ्गः विहगः, उरगः, पृषोदरादित्वात् सलोपः । “श-कम-"५।२।४०। इति उकणि गामुकः । निपातनात् गत्वरः । “दिद्युद्ददृद्-" ५।२।८३। इति क्विपि जगत् । “युवर्ण-"
५।३।२८। इति अलि गमः । “न ख्या-"२।३।९०। इति प्रतिषेधात् "स्वरात्" २।३।८५।इति “णेर्वा" 5 २।३।८८। इति च णत्वाभावे प्रगमनम् , प्रगमना । “गोचर--'" ५।३।१३१। इति घे निगच्छन्ति
तत्र तेन वा निगमः पुटभेदनं शास्त्रं च । “पुन्नाम्नि--" ५।३।१३०। इति बाहुलकाद् घे आगमः । उणादौ “गम्यमि-” (उ०९२) इति गे गङ्गा । “विदन-" (उ०२७५) इति निपातनात् अने गगनम् । “जि-भृ-सू-” (उ० ४४७) इति त्रटि वृद्धौ च गान्त्रं मनः । “गमेरा च” (उ० ४५३)
इति त्रे गात्रम् । “कृसि-कम्यमि-" (उ० ७७३) इति तुनि आगन्तुः । “द्यु-गमिभ्यां डोः” (उ० 10 ८६७) गौः । “गमेरिन्" (उ० ९१९) गमी, “आङश्च णित्” (उ० ९२०) आगामी, गेम्यादित्वाद् भविष्यति साधू । “गमेर्डिद् द्वे च" (उ० ८८५) इति कर्तरि जगत् , जगती ।
अथ यान्ता अष्टौ सेटश्च३९७ हय ३९८ हर्य क्लान्तौ च । चकाराद् गतौ। हयति। जहाय । “व्यञ्जनादे:-" ४।३।४७॥ इति वा वृद्धः "न श्वि-जागृ-' ४।३।४९। इति प्रतिषेधात् अहयीत् । इटि हयिता, 15 हयितुम् । अचि हयः, गौरादित्वाद् ड्याम् हयी । किपि "वोः-" ४।४।१२१। इति यलुक्यपि
"अतः” ४।३।८२। इत्यल्लुगित्येके, सुपूर्वस्य सु। क्तौ "दस्तड्डे" १।३।४२। इति ढलुकि पूर्वदीर्घ च सूढिः, केवलस्य तु ढिः। उणादौ "ऋ-पृ-नहि-" (उ० ५५७) इति उषे हयुषा ओषधिः ॥ हर्य। हर्यति । जय । हर्यिता । हर्यितुम् । मनि सुहर्मा । वनि सुहर्वा । क्विपि विचि वा सुहः॥
३९९ मव्य बन्धने। मव्यति। ममव्य । मव्यतीति विप् “य्वोः-" ४।४।१२१। इति यलुक्, 20 "अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इति वस्य ऊट, ततः “उटा" १।२।१३। इत्यौत्वे मौः, लाक्षणि
कत्वाच्च "मव्यवि-" ४।१।१०९। इत्युपान्त्येन सह ऊडभावः । मन्यितः मन्यितवान् । क्ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, मव्या। तिकि मौतिः ॥
४०० सूर्य ४०१ ईय ४०२ ईर्ण्य ईर्ष्यार्थाः । सूर्ध्य दन्त्यादिः। ईर्ष्या कामजमसहनम् । सूर्यति । सुसूर्य । सूयिता । मनि यलुकि सुसूर्मा । वनि सुसू. । “क्रुद्-द्रुहेा-२।२।२७। इति 25 सम्प्रदानत्वे चतुर्थ्याम् चैत्राय सूर्यति । क्विपि यलुकि सौ “पदस्य" २।१।८९। इति षलोपे “रात्सः" २।१।९०। इति नियमात् लुगभावे सूर्छ । क्तयोः सूक्ष्यितः, सूयितवान् ॥ ईj । ईर्श्यति ।
१ कथं तर्हि गन्त्री ? 'गम्' धातोः “ट्” (उ०४४६) इति त्रटि भविष्यति ॥ २ "वर्त्यति गम्यादिः" ५.३।१। इति सूत्रेण ॥ ३ ह्य गतौ इत्येके, भक्ति-शब्दयोरपौत्यन्ये। ये गति-कान्त्योः इत्यपरे।। ४ प्रथमैकवचनम् । ५ ति क्विपि सं१ सं२ प्र. तपा० ॥ ६ अत्र दन्त्यादित्वाद् न षत्वम् इति चन्द्रप्रभा । अयं भावः-"नाम्यन्तस्थाकवर्गात् पदान्तः कृतस्य सःशिड्नान्तरेऽपि" २।३।१५। अत्र सूत्रे कृतस्येति पाठात् इह च सकारस्याकृतत्वान्न षत्वम् । केचित्त "सुपूय" इति मन्यन्ते ॥ ७ अत्र किपि यलकि च
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परस्मैधातवः ३९७-४१०]
स्वोपज्ञं धातुपारायणम् ।
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" गुरुनाम्यादेः - " ३ | ४ | ४८ । इत्यामादेशे ईर्ष्याञ्चकार । मनि “वो :- " ४|४|१२१ । इति यलुकि ईर्मा । वनि ई । ईयिता । मैत्रायेर्क्ष्यति ॥ 1 ई । ईर्ष्यति । ईर्ष्याञ्चिकार । छात्रायेर्ष्यते । अत्र छात्रस्य सम्प्रदानत्वेऽकर्मकलक्षणं “तत्साप्यानाप्यात् - " ३।३।२१। इति भावे आत्मनेपदम् । ईयिता । के सेट्त्वात् ईर्ष्या । " यिः सन्वेयः " ४ । १ । ११ । इति येः सनो वा द्वित्वे ईप्यियिषति ईष्यिषिषति । णौ ङे येर्द्वित्वे ऐष्टियत् । उणादौ “लस्जीप्यिशलेरालु " ( उ० ८२२) ईर्ष्यालुः ॥ छ
४०३ शुच्यै ४०४ चुच्यै अभिषवे । शुच्यै तालव्यादिः । द्रवेण अद्रवाणां परिवासनम् अभिषवैः । “स्नानम्” इति चान्द्राः । शुच्यति । शुशुच्य । मनि यलुकि उपान्त्यस्य गुणे सुशोच्मा । वनि सुशोच्या । शुच्यिता । विचि सुशोक् । ऐदित्त्वात् तयोर्नेट्, शुक्तः शुक्तवान् । तिकि शुक्तिः । क्तेऽनिट्त्वाद् अप्रत्ययाप्राप्तौ “स्त्रियां क्तिः " ५।३।९१ | शुक्तिः ॥ चुच्यै । चुच्यति । चुचुच्य । चुच्यिता । ऐदित्त्वात् तयोर्नेट् चुक्तः चुक्तवान् ॥
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1. अथ रान्ता अष्टौ सेटच -
४०५ त्सर छद्मगतौ - छद्मप्रकारे । तादिरयम् । त्सरति । तत्सार । " वद - त्रज - " ४।३।४८ | इति वृद्धौ अत्सारीत्। उणादौ " भृ-मृ-तृ-त्सरि - " ( उ० ७१६ ) इति उः त्सर्यते हस्तेन प्रच्छाद्यते इति त्सरुर्मुष्टिः ॥ "त्स" इत्यपि कौशिकः सद्मति ॥
४०६ क्मर हूर्छने । कौटिल्ये । क्मरति । चक्मार । “वद - त्रज - " ४ | ३ | ४८ । इति वृद्धौ अ- 15 मात् । अचि मरः ॥
४०७ अभ्र ४०८ बभ्र ४०९ मभ्र गतौ । अभ्रति । "अनातो नश्चा - " ४।१/६९ । इत्यात्वे नेच आनन । क्ये अभ्यूते, अत्र सरूपान्तस्थाया अभावे " व्यञ्जनात् पञ्चमा - " १।३।४७| इति रोवा लग् न भवति । अम्रिता । अचि अभ्रम् || बभ्र । बभ्रति । बभ्रता ॥ मति । मनिता ॥
मभ्र ।
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४१० चर भक्षणे च । चकाराद् गतौ । चरति । “क्रियाव्यतिहारे - " ३।३।२३। गत्यर्थप्रतिषेधाद् गतौ नात्मनेपदम्, व्यतिचरन्ति ग्रामम् ; भक्षणे तु “क्रियाव्यतिहारेऽगति - " ३ | ३।२३ । इत्यात्मनेपदम्, व्यतिचरन्ते भक्ष्यम् । “उदश्वरः - ३ | ३ | ३१ । इत्यात्मनेपदे गेहमुच्चरते, उल्लङ्घयतीत्यर्थः ; साप्यादित्येव ध्वनिरुञ्चैरति । “समस्तृतीयया ” ३ | ३ | ३२ । अश्वेन सञ्चरते । “दद - ब्रज - " ४।३।४८ । सौ पदान्तसंयोगादित्वात् "संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्” २।१।८८| इति कलुकि “घुटस्तृतीयः " २।१।७६। इति षस्य त्वे प्रथमत्वे च सूर्ट् इति केचित् ॥
१ अवयवानां शिथिलीकरणम् सुरायाः सन्धानं वाऽभिषवः, तथा सोममभिषुणोतीत्यादौ दर्शनात्, सुराप्रकरणे च 'सन्धानं स्यादभिषवः' इति अमरोक्तेः । 'स्नानम्' इत्यपि चान्द्राः, 'भवेदभिषवः स्नाने मद्यसन्धानयोः' इति मेदिनीकोषे च ॥ २ रते संपा१ ॥ ३ ऊर्ध्वं गच्छति इत्यर्थः ॥ ४ धातोस्तृतीयया योगाभावात् चरतेः तृतीयान्तेन योगे सति इति व्याख्येयम् । तृतीययेति किम् ? “उभौ लोकौ सञ्चरसि इमं चामुं च देवल !” नन्वत्र विद्यया तपसा वेत्यर्थादिह तृतीयान्तं गम्यते तथापि सञ्चरसि इत्यत्र कथं नात्मनेपदम् ? उच्यते, तृतीययेति सहयोगे
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आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे
इति वृद्धौ अचारीत् । “गु-लुप - " ३ | ४ | १२ | इति यङि गर्हितं चरति चञ्चूर्यते, अत्र “ति चोपान्त्या – ” ४।१।५४। इत्यत उत्वम् “चर - फलाम् ” ४।९। ५३ । इति पूर्वस्य मुरन्तः । यङ्यचि चञ्चुरः । “चरेराङस्त्वगुरौ ५।१।३१। इति ये चर्यम्, आचर्यं तपः; आश्चर्यमद्भुतम् वर्चस्कादित्वात् साधुः; गुरौ त्वाचार्यः । णके परिचारकः । अचि चरः, गौरादित्वाद् ड्याम् चरी । प्रज्ञाद्यणि चर एव चारः । D पटन्तश्चरन्तीति पटच्चराश्चौराः । जीर्णवस्त्रं तु "भूतपूर्वे - " ७ २७८ प्चरटि भूतपूर्व पट इवाचरत् पटच्चरम् । “तिक्कृतौ नाग्नि " ५।१।७१ । इति अकटि चरकः । “चरेष्टः " ५।१।१३८ । कुरुचरः, कुरुचरी । “भिक्षा-सेना-ऽऽदायात् ५।१।१३९। भिक्षां चरति भिक्षाचरः, सेनां चरति - परीक्षते सेनाचरः, आदीयते इत्यादायः - वागुरा तेन आदाय वा चरति आदायचरः । “प्रहादिभ्यो - " ५/१/५३ | इति णिनि व्यभिचारी । व्यभिचैरी गणनिपातनात् पक्षे ह्रस्वः । “सब्रह्मचारी " ३ |२| १५० । इति निपा10 तनात् समानं ब्रह्मव्रतं समाने वा ब्रह्मणि - गुरुकुले व्रतं चरतीत्येवंशीलः सब्रह्मचारी, अत्र समानस्य. सभावो व्रतशब्दलोपश्च । “भ्राज्यलङ्कृग् - " ५|२|२८| इति इष्णौ चरणशीलश्चरिष्णुः । “सम - त्या - " ५/२६२ । इति घिनणि सञ्चारी अतिचारी अपचारी अभिचारी व्यभिचारी । "लू-धू-सूखन-'" ५|२|८७| इति इत्रे चरित्रम् । धनि उच्चारः । चरिता, चरितुम् । क्तौ तिकि वा चूर्तिः ब्रह्मचूर्तिः । “समज--" ५|३| ९९ | इति क्यपि चर्या । “परेः सृ-चरेर्यः” ५|३|१०२ । परिचर्या । 15 “गोचर-सञ्चर–”५।३।१३१। इति निपातनाद् घञपवादे घे गोचरः सञ्चरः । " चराचर - " ४|१|१३| इति निपातनादचि चराचैरः । उणादौ "तृ-कृ-शृ - " ( उ० १८७) इति अणे चरणः पादः । “सृ-पृप्रथि -" (उ० ३४७) इति अमे चरमः । “भू-- " ( उ० ४६० ) इति णिति इत्रे चारित्रम् ; भावे करणे कर्मणि अधिकरणे च साधुः । “कृ-शृकुटि - " ( उ० ६१९) इति वा णित् इः, चरिः पशुः प्राकारायं च, चारिः पशुभक्ष्यम् । “मि - वहि - " ( उ० ७२६) इति वा णित् उः चः स्थाली, तृतीया साक्षाद्योग प्रतिपत्त्यर्थम्, न गम्यमाने इति, अन्यथा करणमन्तरेण क्रियासिद्धेरभावाद् व्यावृत्तिरेव न घटते, नदि चिकिया करणमन्तरेण भवतीति । सह धनेन देवदत्तः सञ्चरतीत्यत्र तु विद्यमानार्थतायां चरतेस्तृतीयान्तेन योगाभाव एव, तत्र हि तृतीयान्तं कत्रैव युक्तं न सञ्चरतिना, नहि तद्धनं चैत्रेण सह सञ्चरतीति ॥
१ अत्र “अडे हि-हनो हो घः पूर्वात्" ४१३४॥ इत्यतः पूर्वादित्यधिकाराद् द्वित्वे सति चोपान्त्यातोऽनोदुः " ४|१|५४ । इति पूर्वमुत्वम् । चर्त्तिरित्यत्र द्वित्वाऽसम्भवाद् द्वित्वाभावेपि दृश्यम् ॥ २ कुरुषु चरति इति अधिकरण एव प्रत्ययः, अनाधारे तु" भिक्षा-सेना - ऽऽदायात् " ५।१।१३९ | इति आरम्भः। आधारादित्येव कुरूंश्चरति, अत्र न्यासकारः प्राप्यात् कर्मणः क्वचिदण् भवतीति यदि अगू आनीयते तदा समासोऽपि भवति, तथा च कुरुचारः पञ्चालचारः इत्यपि' इति आह ॥ ३ सेनया वा चरति सेनाचर इत्यपि विग्रहः ॥ ४ गृहीत्वा इत्यर्थः, द्वितीयविग्रहपक्षे आदानं कृत्वा चरतीत्यर्थः, किमादायेत्यविवक्षैव तत्र ॥ ५ एतद्वचनमेव प्रमाणं गणपाठेऽदर्शनात् ॥ ६ घञि चारः । च संपा १ | ७ चरणं चर्या, चरन्ति अनयेति वा ॥ ८ परिचरणं परिचर्या, परिचरन्ति अनयेति वा । केचित्तु भावे एव मन्यन्ते, यदाह वररुचि: "परिचर्यापरिसर्यामृगयाटाट्यानामुपसङ्ख्यानम्” इति पा० ३ | ३ | १०१। सूत्रस्य वार्त्तिके ॥ ९ गावश्चरन्ति अस्मिन्निति गोचरो देशः, व्युत्पत्तिमात्रं चेदम्, विषयस्य तु सञ्ज्ञा, तेन 'अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम्' ( न्यायावतार ) इत्यादि सियेत् ॥ १० सञ्चरन्तेऽनेन इति सञ्चरः ॥ ११ चरतीति चराचरः, पक्षे चरः ॥ १२ चरन्ति अस्माद् देव-पितृ-भूतानि इवि भीमादित्वादपादाने साधुः-- उणादि ७२६ सूत्रत्रुतौ ।
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परस्मैपातयः ४११-४१४] स्वोपन धातुपाराषणम्। चारुः [शोभनम् “मन्" (उ० ९११)। इति] मनि चर्म ॥
४११ घोर गतेश्चातुर्ये । धोरति । दुधोर । क्ये धोर्यते। ऋदित्त्वाद् न इस्वः, अदुधोरत् । धोरिता। क्ते धोरितम् । “नन्द्यादिभ्यो-"५।१।५२। इत्यने आधोरणो हस्तिपकः । व्यस्तनिर्देश उत्तरार्थः ॥
४१२ खोर प्रतीपाते । गतेरित्यनुवृत्तंर्गतिप्रतीपाते । खोरति । चुखोर । क्ये खोर्यते । खोरिता । ऋदित्त्वाद् न हूस्वः, अचुखोरत् । अचि खोरा अधमस्त्री । "के खोरिका पात्री ॥
अथ लान्ताश्चत्वारिंशत् सेटश्च४१३ दल ४१४ त्रिफला विशरणे । दलति । ददाल देलतुः देलुः । “वद-व्रज"-४।३। ४८। इति वृद्धौ अदालीत् । केचित् एनं घटादिं मन्यन्ते, गौ दलयति । दलिता, दलितुम् । अचि दलम् । उणादौ "दलि-वलि " (उ० ३०४) इति अपे दलपः प्रहरणम् । “दलेरीपो दिल च" (उ० ३१०) दिलीपः । “गृ-दृ-रमि-" (उ० ३२७) इति मे दस्मै ऋषिः । दलण् विदारणे दालयति ॥ अिफला । फलति । प्रतिफलति, उत्फलति । पफाल । “तृ-त्रप-" ४।१।२५। इत्येत्वे 10 फेलतुः फेलुः । “वद-व्रज-" ४।३।४८॥ इति वृद्धौ अफालीत् । यङि “चर-फलाम्" ४।१।५३। इति म्वागमे “ति चोपान्त्य-" ४।११५४। इत्युत्वे च पम्फुल्यते। यङ्लुपि पम्फुलीति पम्फुलीषि, "द्वयुक्तोपान्त्यस्य-" ४।३।१४। इति गुणप्रतिषेधः। पम्फुल्ति पम्फुल्षि, अत्र “ति चोपान्त्य-" ४।१।५४॥ इत्यत्राऽनोदिति वचनाद् गुणाभावः । तसि पम्फुल्तः । अचि फलम् , सम्फलः । यड्यचि पम्फुलः । “तिक्कृतौ नाम्नि" ५।१७१। इति अकटि फलकम् । “अनुपसर्गाः क्षीबोल्लाघ-" 15 ४।२।८०। इति ते निपातनात् फुल्लः फुल्लमनेन, उत्फुल्लः सम्फुल्लः । सोपसर्गस्य प्रफुल्ता लता, अत्र जीत्त्वात् "ज्ञानेच्छाऽर्चा--". ५।२।९२। इति वर्तमाने क्तः। क्तवतौ निपातनाभावात् फुल्तवान् । ये तु क्तवतावपीच्छन्ति तन्मते फुल्लेवान्। आदित्त्वाद् “नवा भावाऽऽरम्मे" ४।४।७२। इति तयोर्वा नेटि प्रफुलितमनेन प्रफुल्तमनेन, प्रफुलितः प्रफुल्तः । उणादौ "दृ-क-न-" (उ० २७) इति अके
१ 'गतिचातुर्ये' इति समस्तं न कृत्वा व्यस्तनिर्देश इति भावः ॥ २ दलण् विदारणे, दल्भ ऋषिवल्कलं विदारणं च इति उणादिवृत्तौ, तथापि उणादिसूत्रे "गृ-दृ-रमि-हनि-जन्यति-दलिभ्यो भः" (उ०३२७) इत्यत्र दलि इति सामान्येन पठनात् अत्रोदाहरणाच्च उभयोरपि प्रहणम् ॥ ३ "तृ-त्रप-फल-भजाम्" ४।१।२५। इत्यत्र फल त्रिफला इत्युभयोरपि ग्रहणार्थ बहुवचनम् अन्यथा 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' इति न्यायाद् निफला इत्यस्य न स्यात् ॥ ४ कथं तर्हि प्रफुल्लः ? इति, फुल्ल विकसने इत्यस्माद् धातोः केन अचा वा भाव्यम् । यद्वा "अनुपसर्गाः क्षीबोल्लाघ-" ४।२।८०। इत्यत्र बहुवचनविधानात् 'समासान्तागमसज्ञाज्ञापकगणननिर्दिष्टान्यनित्यानि' इति न्यायाच्च यथा फुल्लि: । यद्वा प्रफुल्ल इत्यत्र यः प्रशब्दः स क्रियान्तरयोगात् फुल्लि प्रत्यनुपसर्ग एव, 'यत्क्रियायुक्ताः प्रादयस्त प्रत्येवोपसर्गसम्ज्ञाः'इति वचनात् प्रगतः फुल्लः प्रफुल्ल: इति प्रादिसमासः॥ ५ इदं वामनस्य मतम् , तथा च तद्वचः-"कवस्वन्तस्याप्येतल्लत्वमिष्यते" इति पा. 6-२-५५ सूत्रवृत्तौ ॥ ६ क्तयोर्वेटि संपा१ पा० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे फलकः । “कीचक-पेचक-" (उ० ३३) इति निपातनात् फलैहकः । “फलेोऽन्तश्च" (उ० २९१) इति उने फल्गुनः फल्गुनी। “कमि-वमि-" (उ० ६१८) इति णित् इः, फालिदलम् । “फलिवल्यमेणुः" (उ० ७५८) फल्गुः । फल निष्पत्तौ फलितः ॥
४१५ मील ४१६ इमील ४१७ स्मील ४१८ क्ष्मील निमेषणे । निमेषणं सङ्कोचः । 5 मीलति । मिमील । णौ डे "भ्राज-भास-" ४।२।३६। इति वा ह्रस्वे अमीमिलत् अमिमीलत् ।
मीलिता। ते मीलितः । ते सेट्त्वात् प्रमीला तन्द्रा । अनटि मीलनम् । मिलत् श्लेषणे मिलति । अनटि मेलनम् ॥ श्मील। तालव्यादिः । श्मीलति । श्मीलिता॥ स्मील। दन्त्यादिः । स्मीलति । स्मीलिता ॥ क्ष्मील । क्ष्मीलति । क्ष्मीलिता ॥
४१९ पील प्रतिष्टम्भे । प्रतिष्टम्भो रोपणम् । पीलति । पिपील । णौ डे अपीपिलत् । पीलिता। 10 "नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के पीला । अपिपूर्वात् णके अपिपीलकः पिपीलिका, पृषोदरा- . दित्वाद् अपेः पिः॥
४२० णील वर्ण । वर्णोपलक्षितायां क्रियायाम् । यथा-"श्वेतं नीलति मरकतकान्त्या" [ ]| “पाठे-"२।३।९७। इति णस्य नत्वे नीलति । णोपदेशत्वाद् “अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वे
प्रणीलति । निनील । नीलिता। अचि नीलम् , प्रणीलम् । “नीलात् प्राण्यौषध्योः” २।४।२७॥ इति 15 ड्याम् नीली गौः ओषधिश्च. अन्यत्र नीला शाटी। "क्ताच्च-" २।४।२८। इति वा ड्याम् नीली नीला । उणादौ "प्री-कै-पै-नीलेरमुक्(उ० ७६१) नीलगुः कृमिः ॥
४२१ शील समाधौ । समाधिः ऐकाग्र्यम् । तालव्यादिः । शीलति, परिशीलति । शिशील । णिगि शीलयति । "ज्ञानेच्छा-ऽर्चा-" ५।२।९२। इति सत्यर्थे क्ते अनुशीलितः । “शीलि कामि-"
५।१।७३। इति णे धर्मशीला । घञि शीलम् । उणादौ "कोरदूषा-ऽऽटरूप-" (उ० ५६१) इति 20 निपातनात् ऊषे शैलूंषः शिलूषः शिलूषापत्यं वा । शीलण उपधारणे शीलयति ॥
४२२ कील बन्धे । कीलति । चिकील । कीलिता। णिगि कीलयति । "नाम्युपान्त्य-" ५।१। ५४। इति के कीलः । पञि कील्यतेऽनेनास्माद् वा कीलः, कपि कीलकः । क्ते सेट्त्वात् "तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, कीला । क्ते उत्कीलितः । उणादौ "ऋ-कृ मृ-" (उ०४७५) इति आले कीलालम् । “नाम्युपान्त्य-" (उ० ६०९) इति किद् इः कीलिः ॥ .
१ सर्वाण्यपि अत्र पठितानि उदाहरणानि फल निष्पत्तौ इत्यस्य, अत्र पठनाच्च त्रिफला विशरणे इत्यस्यापि । एवं यत्र यत्र यद्धातुवृत्ती ये धातवः पठितास्तेषामपि तत्तत्प्रयोगा अभ्यूह्याः॥२फलहकम् संपा. १ वा० ॥ ३ रोधनमिति एके॥ ४ 'नीली' इत्यत्र जातिशब्दादपि जातौ नित्यत्रीत्वाद् 'जातेरयान्त-नित्यस्त्रीशद्रात्" ॥४॥५४॥ इत्यप्राप्तेऽनेनैव डीः । ये तु नील: पट इत्यर्थान्तरेऽस्त्यर्थस्यापि दर्शनादनित्यं स्त्रीत्वमभ्युपगच्छन्ति तेषां गुणशब्दस्यैवेदमुदाहरणम् । जातिशब्दात्तु "जातेरयान्त-" २।४५४। इत्यनेन दी: सिद्ध एव ।। ५ धर्म शीलयति इति धर्मशीलः, स्त्री चेत् धर्मशीला॥ ६ “शलेरै चातः” इति (५६१) उणादिवृत्तौ निर्देशान अभिधानचिन्तामणिकोषेऽपि (कां०२ श्लो० २४२) "शलति वेषान्तरम्" इत्यभिधानाच्च शलतेः इदं रूपम् अन्यथा 'शीलेरै-हस्वश्चेतो वा' इति वदेयुः॥
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परस्मैधातवः ४१५-४४२] योपलं धातुपारायणम् ।
४२३ कूल वरणे कूलति, अनुकूलति । चुकूल । कूलिता । के कर्मणि घञि च कूलम् ॥ ४२४ शूल रुजायाम् । तालव्यादिः । शूलति । शुशूरु । शूलिता । के शूलम् ।।
४२५ तूल निष्कर्ष । निष्कर्षः-अन्तस्थस्य बहिनिःसारणम् । तुलति । तुतूल । तूलिता । के तूलम् । उणादौ “नाम्युपान्त्य-" (उ० ६०९) इति कित् इः, तूलिः शय्का । स्वार्थे के तूलिका चित्रकरशलाका ॥
४२६ पूल सङ्घाते । पूलति । पुपूल । पूलिता । के घभि वा पूलः । “जातेरयान्त-".२।४। ५४ । इति ड्याम् पूली तृणोच्चयः ॥
४२७ मूल प्रतिष्ठायाम् । मूलति । मुमूल । मूलिता । णिगि उन्मूलयति केशान् । ते उन्मूलितः । के घनि वा मूलम् । मूलण रोहणे मूलयति ।
४२८ फल निष्पत्तौ । निष्पत्तिः-सिद्धिः। फलति । पफाल । "तृ-त्रप-" ४।१।२५। इत्येत्वे 10 फेलतुः फेलुः । फलिता । क्ते फलितः, फलितवान् । जिफलेत्यस्य तु फुल्लः । अचि फलम् । पलितमिति तु पलेः॥
४२९ फुल्ल विकसने । फुल्लति । प्रफुल्ल पुफुल्लतुः पुफुल्लुः। फुल्लिता । क्तयोः फुल्लितः फुल्लितवान् । अचि फुल्लम् ॥
४३० चुल्ल हार्वकरणे । मैथुनेच्छाप्रेरितशरीरविकारो हावकरणम् । चुल्लति। चुचुल्ल। चुल्लिता । 15 अचि चुल्लम् । उपादौ "किलि-पिलि-" (उ० ६०८) इति इः, चुल्लिः ॥
४३१ चिल्ल शैथिल्ये च । चकाराद् हावकरणे । चिल्लति। चिचिल्ल। चिल्लिष्यति । अचि चिल्लः पटः शिथिल इत्यर्थः। ते चिल्लितः ॥
४३२ पेल. ४३३ फेल.४३४ शेल.४३५ षेल. ४३६ सेल ४३७ वेह्र ४३८ सल ४३९ तिल ४४० तिल्ल ४४१ पल्ल ४४२ वेल्ल गतौ । पेलति । पिपेल। पेलिता । ऋदित्त्वाद् णौ डे अपि- 20 पेलत् । अचि पेलं वृषणः, पेला वस्त्रादिभाजनविशेषः । णके पेलकः । क्ते पेलितम् । उणादौ "वडि-वटि-"(उ० ५१५) इति अवे पेलवम् ॥ फेल । फेलति । पिफेल। फेलिता। ऋदित्त्वात् अपिफेलत् । क्ते फेलितम् । ते सेट्त्वात् “क्तेटो-'" ५।३।१०६। इत्यः, फेला भोजनोज्झितम् ॥ शेल । शेलति । शिशेल । ऋदित्त्वात् अशिशेलत् ॥ पेल। “षः सो-" २।३।९८। इति सत्वे सेलति । षोपदेशत्वात् षत्वे सिषेल । ऋदित्त्वात् असिषेलत् ॥ सेल । सेलति । सोपदेशत्वाद् 25 न षत्वम् , सिसेल । ऋदित्त्वात् असिसेलत्। वह । वेहति । अविवेहत् ॥ सल । सलति । ससाल । सोपदेशत्वाद् न षत्वम् , सिसालयिषति, सिसलिषति । घनि भ्रमरैः सल्यते इति सालः ॥ तिल। तेलति । तितेल । तेलिता।। “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४ इति के तिलः । तिलत् स्नेहने
१ आवरणे मु., माधवीयधातुवृत्तौ च पृ० १०४ धातुअं० ५१९ । २ भावकरणे इति पाणिनीयाः । भावकरणम्-अभिप्रायाविष्कार:-माध. धातु० पृ. १०५धातुअं० ५२५ । "हावो भावसूचनम्”-पृ. ३२ धातुअं० २५८ ।
धा. पा.८
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित [भूषादिगणे तिलति । तिलण् स्नेहने तेलयति ॥ तिल्ल। तिल्लति । तितिल्ल । तिल्लिता ॥ पल्ल। पल्लति । पपल्ल । पल्लिष्यति । उणादौ “पदि-पठि–' (उ०६०७) इति इः, पल्लिः ॥ वेल्ल। वेल्लति । विवेल्ल । वेल्लिता । ते वेल्लितम् । णौ के अविवेल्लत् ।।
४४३ वेल. ४४४ चेल. ४४५ केल ४४६ क्वेल. ४४७ खेल. ४४८ स्खल चलने। 5 वेलति । विवेल । वेलिता । ऋदित्त्वात् अविवेलत् । अचि वेला । वेल कालण उपदेशे वेलयति ॥
चेल । चेलति । चिचेल। चेलिता। ऋदित्त्वात् अचिचेलत् , अचिचेलम् । चिलत् वसने चिलति। . पनि चेलम् ॥ केल। केलति । चिकेल । केलिता। ऋदित्त्वात् अचिकेलत् । क्ते केलितम् । किलत् श्वैत्य-क्रीडनयोः किलति । उणादौ "किलि-पिलि ” (उ० ६०८) इति इ., केलिः ।
कील बन्धे इत्यस्य तु कीलति, कीलितम् , कीलिः ॥ क्वेल । केलति । चिकेल । केलि10 ता । ऋदित्त्वात् अचिक्केलत् ॥ खेल। खेलति। चिखेल । खेलिता । ऋदित्त्वात् अचिखेलत् ।
अचि खेलः, खेला खुरलिः, पृषोदरादित्वाद् इस्वे खिलम् ॥ स्खल । स्खलति । चस्खाल । स्खलिता, अचि स्खलः। “चाल-शब्दार्थाद्-" ५।२।४३। इत्यने स्खलनशीलः स्खलनः। क्ते स्खलितम् ॥
४४९ खल सञ्चये च । चकारात् चलने । खलति । चखाल । खलिता । “गोचर-" ५।३।१३१॥ 15 इति निपातनाद् घे खल्यन्ते-सञ्चीयन्ते यशांसि धान्यानि वा यत्रेति खलः खलं रणाजिरम् धान्यपवनस्थानं च, खलो दुर्जनः । अचि खलति-सचिनोति पापम् चलति वा गुणेभ्य इति खलो नीचः । उणादौ "खलि-हिंसिभ्यामीनः" (उ० २८६) खलीनम् । “लटि-खटि-" (उ० ५०५) इति वे खल्वं निम्नम् , खल्वा दृतिः। “कपाट-विराट-" (उ० १४८) इति निपातनात् खल्वाटः । “ह-पृ-भृ-"
(उ० २०७) इति अते खलतः खल्वाटः। “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, खलिः पिण्याकः । 20 "खल्यमि-"(उ० ६५३) इति अतौ खलतिः ॥
४५० श्चल ४५१ श्वल आशुगतौ । तालव्यादी । श्वलति । “वद-व्रज-" ४।३।४८। इति वृद्धौ अश्वालीत् ॥ श्वल्ल। श्वल्लति । अश्वल्लीत् । शलिमप्यत्र एके पठन्ति, स ज्वलादिपाठेनैव गतार्थ इति नेहाधीतः ॥ .
४५२ गल ४५३ चर्व अदने । गलति । जगाल । गलिष्यति । अचि गलः कण्ठः। सवणेs25 प्ययमनेकार्थत्वात् , गलत्युदकं कुण्डिकायाः । उणादौ "कलि-गलेरस्योच" (उ० ३१५) इति फे
गुल्फः । “बहुलमेतन्निदर्शनम् " इति गलिण सावणे गालयते उद्गालयते ॥
१कीलितम स्थाने कीलनम् सं सं २ तपा। मुद्रिते तु उभयमपि ॥ २ "खल्यन्ते-संचीयन्ते धान्यानि अत्र खलं त्रिलिगः, “गोचर-सश्चर-" ५।३।१३। इति निपातनाद् घः" इति स्वोपज्ञाभिधानचिन्तामणिटीकायाम् । कां. ४ श्लो० ३५॥
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परस्मैधातवः ४४३-४६५] स्वोपटं धातुपारायणम् ।
अथ वान्ताः सप्तत्रिंशत् सेटश्चचर्व । चर्वति । चचर्व । चर्विता। ते चर्वितः । उणादौ "मवाक-" (उ० ३७) इति निपातनाद् आके चार्वाकः । “बहुलमेतन्निदर्शनम्" इति चुरादित्वे चर्वयति ॥
४५४ पूर्व ४५५ पर्व ४५६ मत्र पूरणे । पूर्वति । पुपूर्व । पूर्विता । अचि पूर्वः ॥ पर्व । पर्वति । पर्व । पर्विता। विचि सुपः सुपरौ सुपरः, “य्वोः प्वव्यञ्जने-' ४।४।१२१। इति । वलोपः । उणादौ “ह-पृ-भृ-" (उ० २०७) इति अते पर्वतः ॥ मर्व । मर्वति। ममत्र । मर्विता ॥
४५७ मर्व ४५८ धवु ४५९ शव गतौ । मर्वति मम । मर्विता ॥ धवु । उदित्त्वाद् ने धन्वति । धन्विष्यति । उणादौ "उक्षि-तक्षि-" (उ० ९००) इति अनि धन्वा ॥ "शवतिर्गतिकर्मा काम्बोजेषु भाष्यते । विकार एवैनमार्या आहुः" [ महाभा० आ० १,५] । शवति । 10 अचि शकः, शवम् , सुष्ठु शवतीति सुशवः, स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् सुशवी । किपि “अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इति वस्योट्, ततः “ऊटा" १।२।१३। इत्यस्यौत्वे शौः । शविष्यति ॥
४६० कर्व ४६१ खर्व ४६२ गर्व दपै । कर्वति, खर्वति, गर्वति, चकर्व, चखर्व, जगर्व । अचि पनि वा कर्वः, खर्वः, गर्वः ॥
४६३ ष्ठिव ४६४ क्षिवू निरसने । “षः सो-" २।३।९८। इत्यत्र ष्ठिवो वर्जनात् षस्य सत्वा- 15 भावे “ष्ठिवू-क्लम्वा-" ४।२।११०। इति दीर्घ च ष्ठीवति । "तिर्वा ष्ठिवः” ४।१।४३। इति पूर्वस्य वा तित्वे तिष्ठेव टिष्ठेव । यङि तेष्ठीव्यते, टेष्ठीयते । ठेविता। ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट् , प्ठ्यूत्वा ठेवित्वा। - "इवृध-" ४।४।४७। इति सनि वेट, तुष्ठ्यूषति टुष्ठ्यूषति; पक्षे तिष्ठेविषति टिष्ठेविषति । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट, ष्ठ्यूतः, ष्ठ्यूतवान् । मनि "अनुनासिके च-” ४।१।१०८। इत्यूट्त्वे सुष्ठयोमा । वनि सुष्ठयोवा । किपि सुप्ठ्यूः । विचि सुष्ठेः । “ष्ठिव्-सिवोऽनटि वा” ४।२।११२। इति वा दीर्घे ठीव- 20 नम् , ठेवनम् ॥ क्षिवू । क्षेवति । चिक्षेव । क्षेविता । ऊदित्त्वात् क्ष्यूत्वा, क्षेवित्वा । क्तयोः क्ष्यूतः क्ष्यूतवान् । क्षीवमप्येके पठन्ति क्षीवति । णौ अचिक्षीवम् । ते क्षीवितः । ष्ठिव क्षिवच् निरसने ठीव्यति । क्षीव्यति ॥
४६५ जीव प्राणधारणे । जीवति । जिजीव । जीविता । णौ डे "भाज-भास-" ४।२।३६॥
१ महाभाष्ये तु-"कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति विकार एनमार्या भाषन्ते शव इति" इति पाठभेदः । २ "ष्ठिवू-क्लम्वाचमः" ४।२।११०। इत्यत्र सूत्रे 'ष्टिवू इति ऊकारनिर्देशात् यलुपि न भवति' इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसरिपादाः । श्रीगुणरक्षसरयस्तु "ष्ठिवू-क्लम्वा-" ४।२।११। इत्यत्र अत्यादावधिकाराद् यलुपि त्यादौ न दीर्घः, तेष्टेति, अत्र “य्वोः-" ॥४१२१॥ इति ब्लुक्, तेष्टिवीति तेष्ठपुतः तेठिवति, एवं टेष्ठेतीत्याद्यपि" इति आहुः-क्रियारत्नस० पृ. ७८ धातुअं० १२६। सायणोऽपि 'ऊभाविना वकारान्तानां यङ्लुङ् नास्ति' इत्याह-माध० धातु. पृ० १०८ धातुअं०५५३ । ३ अत्र “उपान्त्ये" ४॥३॥३४॥ इति सनः कित्वे ऊटि द्वित्वे "
तिर्वा ष्ठिव" ॥१४३॥ इत्यत्र तेरिकारस्योच्चारणार्थत्वात् वा ठस्य तत्वे वरूपम्। ४क्षीवूम प्र. मु०॥ ५ पाणिनीयाः-माध. धातु. पृ०१०९ धातुअं० ५६०।६ प्राणलक्षणस्य कर्मणो भात्वर्थेनोपसमहणादकमकोऽयम् ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित
[भूवादिगणे इति वा ह्रस्वे अजीजिवत् अजिजीवत् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के जीवः । णके जीवकः पक्षी, जीवंजीवकोऽपि । “यावतो विन्द-जीवः" ५।४।५५। इति णमि यावज्जीवमधीते । "नाग्नि पुंसि च" ५।३।१२१। इति णके जीविका । उणादौ “जीवेरातृको जैव् च” (उ० ६७) इति
जैवातृकः । “रुहि-नन्दि-" (उ० २२०) इति अन्ते जीवतात् जीवन्तः, जीवन्ती । “भृ-शी-शपि-" 5 (उ० २३२) इति अथे जीवथो वायुः। “जीवेरातुः” (उ०७८२) जीवातुर्जीवनम् । “जीवेरदानुक्" (उ०७९५) जीवदानुः ।
४६६ पीव ४६७ मीव ४६८ तीव ४६९ नीव स्थौल्ये । पीवति । पिपीव । पीविता। के पीवः । उणादौ “तीवर-" (उ० ४४४) इति निपातनात् अरे पीवरः । पीवा इति तु प्यैङः॥
मीव। मीवति । मिमीव । मीविता॥ तीव । तीवति । तितीव । तीविता। उणादौ "खुर-क्षुर-" 10 (उ० ३९६) इति निपातनात् तीव्रः । “तीवर-" (उ० ४४४) इति निपातनात् अरे तीवरं जलं व्यञ्जनं च ॥ नीव । नीवति । निनीव । नीविता । उणादौ “नाम्युपान्त्य-" (उ०६०९) इति कित् इः, नीविः, नयतेर्वा छिदं विः । "खुर-क्षुर-" (उ० ३९६) इति निपातनात् नीव्रम्, नयतेर्वा । मन्नादिषु सर्वेषां ष्ठिविना तुल्यमुदाहरणम् ॥
४७० उर्वै ४७१ तुर्वै ४७२ धुर्वै ४७३ दुर्वै ४७४ धुर्वै ४७५ जुर्वै ४७६ अर्व ४७७ 16 भर्व ४७८ शर्व हिंसायाम् । “भ्वादे:-" २।१।६३। इति दीर्घे ऊर्वति। ऊर्विता। ऐदित्त्वात्
क्तयोर्नेट् , ऊर्णः ऊर्णवान् । विपि “रात् लुक्” ४।१।११०। इति वलकि ऊः उरौ उरः। उणादौ "उर्वेरादेरूदेतौ च" (उ० ८१४) इति आरौ ऊर्वारुः कटुर्भिटी, एर्वारुश्चारुचिर्भटी ॥ तु: । तूर्वति । तूर्विता । मनि सुतोर्मा । वनि सुतोर्वा । विचि सुतोः । विपि तूः, सुतूः सुतुरौ सुतुरः । ऐदित्त्वात् तूर्णः तूर्णवान् ॥ धुर्वै । थूर्वति । थूर्विता । ऐदित्त्वात् थूर्णः थूर्णवान् ॥ . 20 दुवै । दूर्वति । दूर्विता । अचि दूर्वा । किपि सुदूः सुदुरौ सुदुरः । ऐदित्त्वात् दूर्णः दूर्णवान् ॥
धुर्वै । पूर्वति । धुर्विता। "दिद्युद्दद्-'" ५।२।८३॥ इति किपि धूः धुरौ धुरः । ऐदित्त्वात् धूर्णः धूर्णवान् । उणादौ "शी-री-” (उ० २०१) इति किति ते धूर्तः कित्त्वात् न गुणः। “गृ-पृ-दुर्विधुर्विभ्यः-" (उ० ९४३) क्विपि धूः॥ जु । जूर्वति। जूर्विष्यति । किपि सुजूः सुजुरौ
सुजुरः। ऐदित्त्वात् जूर्णः जूर्णवान् ॥ अर्व। अर्वति। "अनातो-", ४।१।६९। इत्यात्वे ने 25 च आनर्व । अर्विष्यति । अचि अर्वः ॥ भव । भर्वति । बभर्व। भविष्यति ॥ शर्व । शर्वति । शशर्व । शर्विष्यति । अचि शर्वः ॥
४७९ मुर्वे ४८० मव बन्धने। “भ्वादे:-" २।१।६३। इति दीघे मूर्वति । मूर्विता। अचि मा तृणम् , यद्विकारो मौर्वी । क्विपि म्: मुरौ मुरः । ऐदित्त्वात् मूर्णः मूर्णवान् ॥ मव ।
१ प्यङ् वृद्धौ इत्यस्य "ध्या-प्योधी-पी च" (उ० ९०८) इति कनिप्प्रत्यये ॥ २ जस्तजागृ-क-नी-घृषिभ्यो ङित्" (उ०७०५) इत्यनेन ॥३"नियो वोऽन्तश्च" (उ० ३९६ वृत्तौ) इति वचनात् कारागमे रे चा । चिभिटी, पारुचारुचिभिटी वा• सं१ विना ॥५क्विए, धूः वा० ॥ ६ तधिकारी वा०॥
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परस्मैधातषः ४६६-४८९] - स्वोपझं धातुपारायणम् । मवति । ममाव मेवतुः मेवुः । विपि “मव्यवि-" ४।१।१०९। इत्युपान्त्येन सहोटि मू: मुवौ मुवः । सुम्ः सुम्बौं सुम्वः । मविष्यति। एवं मन्नादिष्वपि ॥
४८१ गुर्वै उद्यमे । “भ्वादेः-" २।१।६३। इति दीर्घ गूर्वति । जुगूर्व । गर्विता। ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट , गूर्णः गूर्णवान् । विपि गूः गुरौ गुरः ॥
४८२ पिवु ४८३ मित्रु ४८४ निवु सेचने । सेवने इत्येके। त्रयोऽप्युदितः। उदित्त्वाद् । ने पिन्वति । पिपिन्व। मिन्वति । मिमिन्व। निन्वति । निनिन्व । पिन्वित । मिन्विता। निन्विता। मन्नादिषु पूर्ववत् ॥
४८५ हिवु ४८६ दिवु ४८७ जिवु प्रोणने । त्रयोऽप्युदितः । उदित्त्वाद् ने हिन्वति । जिहिन्व । दिन्वति । दिदिन्व । जिन्वति । जिजिन्व । हिन्विता । दिन्विता । जिन्विता । मन्नादिषु पूर्ववत् ॥
10 ४८८ इबु व्याप्तौ च । चकारात् प्रीणने । उदित्त्वाद् ने इन्वति । इन्वाञ्चकार । अनटि "वोत्तरपदान्तन-" २।३७५। इति वा णत्वे प्रेण्वनम् , प्रेन्वनम् । णके इन्विका मृगशीर्षशिरस्तारकाः। सुपूर्वात् मनि “अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इत्यूटि स्विनोमा। वनि, "वोः-" ४।४।१२१॥ इति वलोपे “वन्याङ्-" ४।२।६५। इति नस्यात्वे यत्वे च सुयावा। विचि "वोः-" ४।४।१२१॥ इति वलकि गुणे च स्वे स्वेनौ स्वेनः । किपि वस्योटि स्विनः । इन्विता । इन्वितुम् । वान्तोऽय- 15 मिति धुड्वर्गाभावात् “नाम्-" १।३।३९। इति नकारस्य मो न भवति ॥
४८९ अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-वृप्ति- अवगमेन-प्रवेश-श्रवण-स्वाम्यर्थ-याचन-क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दहन-भाव-वृद्धिषु। एकोनविंशतावर्थेषु। कैश्चित् कान्तिवर्जमष्टादशसु । अन्यैस्तु रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-वृद्धिषु षट्सु । अवति । आव आवतुः आवुः । अविता । क्विपि “मव्यवि-" ४।१।१०९। इत्यूटि ऊः उवौ उवः । क्तौ ऊतिः । उणादौ "दिव्यवि-" 20 (उ० १४२) इति अटे अवटः । “जीण-शी-दी-" (उ० २६१) इति किति ने ऊनः । "श्या-कठि-" (उ० २८२) इति इने अविनं जलम् । “अवेई स्वश्च वा” (उ० ३४२) इति किति मे उमा, ॐ मम् । “माविभ्यां टित्" (उ० ५४७) इति इषे अविषः समुद्रः, अविषी द्यौः । “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, अविः । “सदि-वृत्यमि-" (उ० ६८०) इति अनौ अवनिः । “तृ-स्तृ-तन्द्रि-" (उ० ७११) इति ईः, अवी रजस्वला । “कृसि-कमि-" (उ० ७७३) इति तुनि ओतुः । “अवेर्मः" 25 (उ० ९३३) ओम् ॥
अथ शान्ताः सप्त आद्याः पश्च सेटश्च
१ अवगमनस्थाने अवगम दहनभावस्थाने दानभाग इति माधवीयधातुवृत्तौ पृ. ११३ धातुअं०५९२ । २ वर्जनादष्टा' प्र० ३ मु०॥३आकाशं नगरं च इति खे•टि० ॥ ४ मत्र "अनुनासिके चच्छवः शुद" ४११०८॥इति वस्य ऊद् ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ४९० कश शब्दे । सौत्रोऽयमित्येके । कौशिकस्त्वध्यैष्टेत्यधीतः । कशति । चकाश । कशिता । अचि "वर्चस्कादिषु-" ३।२।४८ इति षागमे प्रतिष्कशोऽप्रयायी दूतश्च ।।
“प्राममद्य प्रवेक्ष्यामि, भव मे त्वं प्रतिष्कशः" [ ] कशा चर्मयष्टिः । घञि काशस्तृणजातिः । उणादौ "कशेर्मोऽन्तश्च" (उ० ४२०) इति ईरे 5 कश्मीराः । काशिरिति तु काशृङ्दीप्तौ इत्यस्य । वान्तोऽयमित्यन्ये, कवति ॥
४९१ मिश ४९२ मश रोषे च । चकारात् शब्दे। शब्दने रोषक्रियायां चेत्यर्थः । मेशति मिमेश । मेशिता । "नाम्युपान्त्य-" ५।११५४। इति के मिशो व्याजः॥ मश। मशति । ममाश । मशिता । “तिक्कृतौ नाम्नि" ५।१।७१। इति अकटि "द-क-नृ-" (उ० २७) इत्युणादौ अके
वा मशकः ॥ 10 ४९३ शश प्लतिगतौ । तालव्यादिः । प्लुतिभिर्गमनेउत्प्लुत्य गमने इत्यर्थः । शशति । शशाश
शेशतुः शेशुः, अत्र “अनादेशादेः-" ४।१।२४। इत्यत एत्वम् । अचि शशः, शशकः । शंशिता । शशितुम् ॥
४९४ णिश समाधौ। “पाठे-” २।३।९७। इति णस्य नत्वे नेशति । निनेश निनिशतुः निनिशुः । “अदुरुपसर्गान्त-" २।३।७७। इति णत्वे प्रणेशति । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति 15 के नेिशः । “स्थादिभ्यः-" ५।३।८२। इति के नेशन्ति-समाहितमनस्का भवन्त्यस्यामिति निशा । नेशितुम् ॥
४९५ दृशं प्रेक्षणे। "श्रौति-" ४।२।१०८। इति पश्यादेशे पश्यति । “समो गमृच्छि-" ३।३।८४। इत्यात्मनेपदे सम्पश्यते । ददर्श ददृशतुः ददृशुः । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट, द्रष्टा द्रष्टुम् । __ अत्र “अः सृजि-दृशो-" ४।४।१११। इत्यकारागमः । परोक्षायां "स्क्र-सू-वृ-भृ-' ४।४।८१॥ इति इटि 20 ददृशिव ददृशिम । "सृजि-दृशि-स्कृ-" ४।४१७८। इति थवि वा नेटि दद्रष्ठ ददर्शिथ। "स्वर-ग्रह-"
३।४।६९। इति वा निटि दर्शिष्यते द्रक्ष्यते । ऋदित्त्वाद् वा अडि अदर्शत् , अत्र "ऋवर्ण-" ४।३।७। इति गुणः । पक्षे "ह-शिटो-" ३।४।५५.इत्यत्र दृशो वर्जनात् सगभावे सिचि अद्राक्षीत् । णौ डे "ऋदृवर्णस्य” ४।२।३७। इति गुणापवादे वा ऋदादेशे अदीदृशत् अददर्शत् । सनि "स्मृदृशः" ३।३।७२। इत्यात्मनेपदे दिदृक्षते । “अणिकर्म-" ३।३।८८। इति णावात्मनेपदे पश्यन्ति 25 भृत्या राजानम् , दर्शयते राजा भृत्यान् मृत्यैर्वा, अत्र "दृश्यभिवदो:--" २।२।९। इति वाऽणिकर्तु
१ "पदि-पठि-पचि-स्थलि हलि-कलि-" (उ०६०७) इत्यादिना इ: प्रत्ययः॥२ "अः सृजि-दृशो-" ४।४।१११॥ इति अः, “व्यञ्जनानामनिटि" ४।३।४५। इति तबृद्धिश्च । ननु अत्र परत्वात् “अःसृजि-दृशो-" ४।४।१११॥ इति पूर्वमकारागमे नाम्युपान्त्यत्वाभावात् सको न प्राप्तिः, तत्कि "ह-शिटोः नाम्युपान्त्याददृशोऽनिटः स" ३।४।५५। इत्यत्र दृशो वर्जनेन ! नैवम् , "नशो धुटि" ४।४।१०९। इत्यतः पुटीत्यधिकारात् स्वरादिप्रत्यये "अः सृजि"-४|४|१११। इत्यकारागमो नास्ति, ततो नाम्युपान्त्यत्वात् सकि व्यत्यदृक्षन्त इत्यनिष्टं स्यात् , सिचस्तु न्यजनान्तत्वेनानकारान्तत्वात् “अनतोऽन्तोऽदात्मने" ४।२।११४। इति अन्तो अति ज्यत्यदक्षत इति अमादौ च अदक्ष व्यत्यक्षातामित्यादि स्यात्, सिचितु अद्राक्षं व्यत्यरक्षातामिति भवति ।। ३ तान् राजैवानुकूलाचरणेन प्रयहरते।
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परस्मैधातवः ४९०-४९८] स्वोपझं धातुपारायणम् । र्णिगि कर्मत्वम् । "ऋदुपान्त्या-'" ५॥१॥४१॥ इति क्यपि दृश्यम् । “प्रा-ध्मा-" ५।१।५८। इति शे पश्यः, उत्पश्यः। “लिहादि-" ५।१।५०। अचि दर्शः। “कर्मणो-" ५।३।१४। अणि देवदर्शः। "असूर्योग्रा-" ५।१।१२६। इति खशि असूर्यम्पश्या राजदाराः, उग्रम्पश्यो राजा । “त्यदाद्यन्य-" ५।१।१५२॥ इति टक्-सक्-क्किप्सु "अन्य-त्यदादे:-" ३।२।१५२॥ इत्यात्वे च तादृशः, तादृशी, तादृक्षः, तादृक् । “दृग्-दृश-दृक्षे” ३।२।१५१। इति समानस्य सत्वे सदृक्, समशः, सदृक्षः । “दृशः । कनिप्" ५।१।१६६। मेरुदृश्वा; स्त्रियां "णखराघोषा-" २।४।४। इति ड्याम् नस्य रत्वे च तत्त्वदृश्वरी। “शासू-युधि-" ५।३।१४१। इत्यने सुदर्शनः । “विद्-दृग्भ्यः कास्न्यें णम्" ५।४।५४। कन्यादर्श वरयति । पशुरिति तु स्पैशेः "स्पशि-प्रस्जेः स्लुक् च” (उ०७३१) इति उप्रत्यये रूपम् ॥
४९६ दंशं दशने । दशनं दन्तकर्म । “दंश-सञ्जः-" ४।२।४९। इति नलुकि दशति । क्ये दश्यते। ददंश । संयोगान्तत्वाद् “इन्ध्यसंयोगा-" ४।३।२.१॥ इति परोक्षायाः कित्त्वाभावे ददंशतः ददंशुः। 10 अनुस्वारेत्त्वाद् नेट्, दंष्टा दंष्टुम् । “व्यञ्जनानाम्-" ४।३।४५। इति वृद्धौ अदाङ्क्षीत् । “ग-लुप-" ३।४।१२। इति यङि गर्हितं दशति दन्दश्यते, यङ्लुपि दन्दशीति, सूत्रे कृतनलोपस्य निर्देशाद् अत्र नो लुक् । “यजि-जपि-"५।२।१७। इति उके दन्दशूकः । “कर्मणो-" ५।३।१४। अणि दृषं-- मूषिक दशति वृषदंशो बिडालः । “दशेस्त्रः" ५।२।९०। दंष्ट्रो । अचि दंशः, दशी । घनि उपदंशः। "दशना-ऽवोधोद्म-" ४।२।५४। इति निपातनाद् अनटि दशनम् , दशनो दन्तः । “दशेस्तृतीयया-" 15 ५/४७३। इति णमि मूलकेनोपदंशं मूलकोपदंशं भुङ्क्ते, अत्र "तृतीयोक्तं वा" ३।१।५०। इति वा तत्पुरुषः । उणादौ "लू-पू-यु-" (उ०९०१) इति किति अनि दश घटाः ॥
अथ षान्ता एकचत्वारिंशत् कृषवर्जाः सेटश्च४९७ घुष शन्दे । घोषति । जुघोष । ऋदित्त्वाद् वाऽङि अघुषत् , पक्षे अघोषीत् । “घुषेरविशब्दे" ४।४।६८। इति क्तयोर्नेट् , घुष्टा रज्जुः; विशब्दने त्विटि अवघुषितं वाक्यमाह। सम्पूर्वात् 20 "श्वस-जप-" ४।४।७५। इति वेटि सङ्घष्टा सङ्घषिता रज्जुः, सङ्घष्टं सघुषितं वाक्यम् । घुषण विशब्दने घोषयति । आः क्रन्दे आघोषयति । उणादौ "हृषि-पुषि-" (उ० ७९७) इति इलो घोषयिनुः शब्दः ॥
४९८ चूष पाने । चूषति । चुचूष । चूषिता । ते निचूषितम् । चूषित्वा ।।
१ वामनस्तु उपसर्गपूर्वकात् इच्छति, तथा च तद्वचः-उपसर्ग इति केचिच्चानुवर्तयन्ति इति॥ २ सूर्यमपि न पश्यन्ति इति अर्यम्पश्याः; गुप्तिपरं चैतत् , एवं नाम गुप्ता यदपरिहार्यदर्शनं सूर्यमपि न पश्यन्ति, अत्र दृशिना सम्बद्धस्य ननः सूर्येण सहासामर्थ्यपि वाक्यार्थप्रतिपादकत्वात् समासः ॥ ३ यां यां कन्यां पश्यति तां तां सर्वा वरयति इत्यर्थः ॥ ४ स्पशि बाधन-प्रथनयोश्च चाद् गतो, सौत्रोऽयम् ॥ ५ दशत्यनया इति दंष्ट्रा ।। ६ विशब्दनं विशब्दः नाना शब्दनं प्रतिज्ञानं च । "विशब्दनं प्रतिज्ञानम् । तच शब्देन स्वाभिप्रायप्रकाशनम् इति न्यासे"माध• धातु० पृ० ११९ धातुअं० ६४३ । ७ सम्बद्धावयवा इत्यर्थः ॥ ८ नानाशन्दितं प्रतिज्ञातं वा वाक्यं ब्रत इत्यर्थः ॥ ९ भापूर्वको घुषण कन्दे इत्यर्थः ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित [भूवादिगणे ४९९ तूष तुष्टौ । तूषति । तुतूष । तूषिता । तूषितम् । क्त सेट्त्वात् तूषा । तुषं हृषंच तुष्टौ तुप्यति ॥
५०० पूष वृद्धौ । पूषति । पुपूष । पूषिता । क्ते पूषितः । उणादौ "उक्षि-तक्षि-" (उ० ९००) इति अनि पूषा ।। 5 ५०१ लुप ५०२ मृष स्तये । लोषति । लुलोष । लोषिता । "नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति
के लुषः॥ मूष । मूषति । मुमूष । मूषिता । “नाम्युपान्त्य-" ५।११५४। इति के मूषः, मूषा तैजसावर्तनी, गौरादित्वाद् ड्यां मूषी । णके मूषकः ॥
५०३ पूष प्रसवे । “षः सो-' २।३।९८। इति षस्य सत्वे सूषति । षोपदेशत्वात् षत्वे सुषूष । येषां तु सोपदेशस्तन्मते षत्वाभावे सुसूष । सूषिता। “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के सूषः, 10गौरादित्वाद् ड्यां सूषी । तालव्यादिरयमिति चारकाः, शूषा शाकम् ।
५०४ ऊप रुजायाम्। ऊषति । “गुरुनाम्यादे:-" ३।४।४८। इत्यामादेशे ऊषाञ्चकार । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के ऊषः । ऊषितुम् । अनटि ऊषणं मरिचम् , त्र्यूषणं त्रिकटुकम् । मनि उष्मा । ऊपरं क्षेत्रमिति तु ऊषाद् "रोऽश्मादेः" ६।२।७९। इति चातुरर्थिके रे, ऊषरं जलमिति तु "मध्वादिभ्यो-" ७।२।२६। इति मत्वर्थीये रे सिद्धम् ॥ 16 ५०५ ईष उञ्छे । उच्छम्-उच्चयनम् । ईषति । "गुरुनाम्यादे:-" ३।४।४८। इत्यामादेशे ईषा
चकार । ईषिता । क्ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, ईषा व्रणगवेषणी मञ्चकाद्यवयवश्च । उणादौ "ऋच्य॒जि-" (उ० ४८) इति ईके ईषीका तृणशलाका । इपीकेति तु इषत् इच्छायाम् इत्यस्य ॥
५०६ कृषं विलेखने। विलेखनम्-हलोत्कर्षणम् । कर्षति । चकर्ष। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट क्रष्टा । 20 स्पृश-मृश-" ३।४।५४। इति वा सिचि अकाीत् , “स्पृशादि-" ४।४।११२। इति वा अकारागमे अक्राक्षीत् , पक्षेऽनिट्त्वात् "ह-शिटो-" ३।४।५५। इति सकि अकृक्षत् । णौ डे "ऋहवर्णस्य" ४।२।३७।इति वा ऋदादेशे अचीकृषत् । अचकर्षत् । “नन्द्यादिभ्यो-"५।१।५२। इति अने सङ्कर्षणो हली; अन्यत्र "नाम्युपान्त्य-" ५११५४। इति के सङ्कृषः । “व्यञ्जनाद्-"५।३।१३२/घञि आकर्षो
द्यूतफलहका । “उपपीड-" ५।४।७५॥ इति णमि पटोपकर्ष धावति, प्राष्ट्रोपकर्ष धानाः खादति, 25"तृतीयोक्तं वा"३।११५०। इति वा तत्पुरुषः, पक्षे पटे पटेन वोपकर्ष धावति, प्राष्ट्र प्राष्ट्रेण वोपकर्ष
धानाः खादति । उणादौ "कृषेर्गुण-वृद्धी च वा” (उ० ३१) इति अके कर्षकः कार्षकः कृषकश्च कुटुम्बी । “पा-पुलि-" (उ० ४१) इति किति इके कृषिकः पामरः । “घृ-वी-हा-" (उ० १८३) इति किति णे कृष्णः । "नाम्युपान्त्य-" (उ० ६०९) इति कित् इः, कृषिः । “कृषेश्च चादेः"
१ जलमिति सुष्टु ॥ २ क्षेत्रमिति शोभनम् , "मभ्वादि-" ॥२।२६। सूत्रे तथैव दर्शनात् ॥३ "समः ऋन्दि-कृषि-षिभ्यः संज्ञायामेव" इति वचनात् संज्ञायामेवायं प्रयोगः ॥
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परस्मैधातवः ४९९-५१९] स्वोपलं धातुपारायणम् । (उ० ६४१) इति अणौ चर्षणिः चर्षणी कुलटा। "कृषि-चमि-" (उ० ८२९) इति ऊः, कर्पू: कुल्या । कृषीत् विलेखने कृषति कृषते ॥
५०७ कष ५०८ शिष ५०९ जप ५१० झप ५११ वष ५१२ मष ५१३ मुष ५१४ रुष ५१५ रिष ५१६ युष ५१७ जूष ५१८ शष ५१९ चष हिंसायाम्। कषति । “कूलाऽभ्र-." ५।१।११०। इति खे कूलकषा नदी । “सर्वात् सहश्च" ५।१।१११। सर्वकषः खलः । “कषः कृच्छ्र-ग- 5 हने" ४।४।६७। इति क्तयोर्नेट् , कष्टं कृच्छ्रम् गहनं च, "कषोऽनिटः" ५।३।३। इति भविष्यति साधुः। "अजातेः शीले" ५।१।१५४। इति णिनि पादाभ्यां कषणशीलः पत्काषी, अत्र “हिम-हति-" ३।२।९६। इति पद्भावः । “वेर्विच-" ५।२।५९इति घिनणि विकषणशीलो विकाषी । “गोचर-" ५/३।१३१। इति निपातना घञपवादे घे कषः, आकषः, निकषः। “निमूलात् कषः" ५।४।६२। इति णमि निमूलकाषं कषति । “हनश्च समूलात्" ५।४।६३। समूलेकाषं कषति । उणादौ "स्यमि-कषि-" 10 (उ० ४६) इति ईके कषीका कुद्दालिका । “प्राङः पणि-" (उ० ४२) इति इके प्राकषिको वायुः। "मा-वा-वद्य-ऽमि-" (उ० ५६४) इति से कक्षस्तृणम् गहनारण्यं च, कक्षः कक्षा बाहुमूलम् गृहोपान्तश्च । “कृ-श-कुटि-" (उ० ६१९) इति वा णित् इः कषिनिकषोपलः खनित्रं च, काषिः कर्षकः । “कषेर्ड-च्छौ च षः" (उ० ८३१) इति ऊः, कण्डूः, कच्छूः। “समिण-निकषिभ्यामाः" (उ० ५९८) निकषा पर्वतं नदी। शिष। तालव्यादिः। शेषति। शिशेष। शेषिता । 15 शेषितुम् । केचिदिटं नेच्छन्ति, तन्मते शेष्टा, शेष्टुम् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के शिषः। कर्मणि घनि शेषम् । शिष्लंए विशेषणे विशिनष्टि । शिषण असर्वोपयोगे शेषयति । अचि शेषः अत्र युजादित्वाद्वा णिच् । पक्षे शेषति ॥ जप । जषति । जषिता॥ झष । झषति । झषिता । अचि झषः॥ वष । वषति । वषिता॥ मष । मषति । मषिता । कर्मणि पनि माषः॥ मुष। मोति । मोषिता। मुषश्स्ते ये मुष्णाति । 'मुषेदीर्घश्च" (उ०४३) इत्युणादौ इके मूषिक आखुः, 20 मूषिका तत्स्त्री॥ रुष । रोषति । तादौ "सह-लुभेच्छ-" ४।४।४६। इति वेट्त्वात् रोष्टा रोषिता । रोष्टुम् रोषितुम् । “वेटोऽपतः" ४।४।६२। इति निषेधापवादे "श्वस-जप-" ४।४।७५। इति क्तयोर्वा नेटि रुष्टः रुषितः, शील्यादित्वादत्र सत्यर्थे क्तः । रुषच रोषे रुष्यति ॥ रिप । रेषति । “सह-लुभेच्छ-" ४।४।४६। इति वेटि रेष्टा रेषिता । रेष्टुम् , रेषितुम् । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, रिष्टः रिष्टवान् । रिष्टम् , अरिष्टम् । उणादौ “निघृषी-" (उ०५११) इति किति वे रिवः ॥ यूष । यूषति । 25
. १ कृच्छू दुःखं तत्कारणं च, गहनं दुरवगाहम् ॥ २ निमूलमित्यत्रात्ययेऽव्ययीभावः, निर्गतानि मूलान्यस्येति बहुव्रीहिर्वा ॥ ३ निमूलं कषतीत्यर्थः ॥ ४ समूलमिति साकल्येऽव्ययीभावो बहुव्रीहिर्वा ॥ ५ समूलं कषतीत्यर्थः ।। ६ 'रण्यं चेति क' संपा१॥ ७ मैत्रेय-सायणादयः॥ ८ "युजादेर्नवा" ३४.१८ । इति सूत्रेण ।। ९ "झानेच्छार्थ-" ५।२।९२। इति सूत्रेण ॥ १०रिषेळञ्जनादेः केचिदिच्छन्ति इति तन्मतसङ्ग्रहपरमिदमुदाहरणम् स्वमते तु ऋषैत् गतौ इत्यस्य ऋष्यः रिपुः हिंस्रश्च इति ॥
घा. पा.
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आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितं
युयूष । यूषिता । “नाम्युपान्त्य - " ५।१।५४ | इति के यूषः, यूषम् । गौरादित्वाद् ड्यां यूषी ॥ जूष | जूषति । जूषिता । “नाम्युपान्त्य - " ५।१।५४ | इति के जूषः । क्ते जूषितः । “क्तेटो- " ५/२/१०६ । इत्यः, जूपा ॥ शष । तालव्यादिः । शषति । शषिता । उणादौ " पम्पा - शिल्पा- " ( उ० ३००) इति पे शप्यते शप्पो बालतृणम् ॥ चष । चषति । चषिता । " तिक्कृतौ नाम्नि " 5 ५/११७११ इति अकटि चषकः ॥ खषेत्यपि कण्वः । खषति ॥
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५२० वृषू सङ्घाते च । चकाराद् हिंसायाम् । वर्षति । ववर्ष ववृषतुः । वर्षिता । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट्, वृष्ट्वा वर्षित्वा । क्त्वि वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, वृष्टः वृष्टवान् ॥
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५२१ भष भर्त्सने । भर्त्सनं कुत्सितशब्दकरणम्, अतो भर्त्सने शब्दकर्मकोऽयम् । भषति श्वाकतीत्यर्थः । भषति भषक:: - पैशुन्येन वक्तीत्यर्थः । बभाष । भषिता । अचि भषः, गौरादित्वाद् ड्यां 10 भषी । ते भषितम् । “ तिक्कृतौ नाग्नि" ५।१।७१ । इति अकटि भषकः ॥
निषू । नेषति । नेषिता । . पर्षिता । पृष्ट्रा पर्षित्वा ।
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५२२ जिषू ५२३ विषू ५२४ मिषू ५२५ निषू ५२६ पृषू ५२७ वृषू सेचने । षडप्यूदितः । जेषति । जेषिता । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट्, जिष्ट्वा ; "वौ व्यञ्जनादे :- " ४|३ | २५ | इति वा किने जेषित्वा जिपित्वा ॥ विषू | वेषति, परिवेषति । वेषिता । विष्ट्वा वेषित्वा विषित्वा । विष्लंकी व्याप्तौ वेवेष्टि, वेविष्टे ॥ मिषू । मेषति । मेषिता । मिष्ट्वा मेषित्वा मिषित्वा । “लिहा15 दिभ्यः” ५।१।५०। इत्यचि मेषः । मिषत् स्पर्धायाम् मिषति ॥ निष्ट्वा नेषित्वा निषित्वा । बहुभिरयं न पठ्यते ॥ पृष्ठ । पर्षति । वेत्वात् क्तयोर्नेट्, पृष्टः, पृष्टवान् । “नाम्युपान्त्य - " ५/१/५४ | इति के पृषः । " ऋदुपान्त्याद् - " ५।१।४१ | इति क्यपि पृष्यम् । उणादौ “पी-वि-शि-" ( उ० १६३ ) इति किति ठे पृष्ठम् । “पृषिरञ्जि - " ( उ० २०८) इति किति अते पृषतो मृगः बिन्दुश्च । “कुशि पिशि - " ( उ० २१२) इति 20 किति इते पृषितं वारिबिन्दुः । " हिरण्य - " ( उ०३८०) इति निपातनात् अन्ये परिपर्षतीति पर्जन्यैः । “ऋदू घृ - " ( उ० ६३५) इति किति णौ पृष्णिः किरणः । " पृषि हृषिभ्यां वृद्धिश्व" ( उ०६३६) इति पाणिः । “दुहि वृहि - " ( उ० ८८४ ) इति कर्तरि पृषन्ति जलबिन्दवः, पृषती मृगी। स्थूलपृषतीमालभेत । वृषू । वर्षति । वर्षिता । वृष्ट्वा वर्षित्वा । वृष्टः वृष्टवान् । “ज्ञानेच्छार्चा-" ५/२/९२ | इति सत्यर्थे क्ते वृष्टो मेघः । “कृ-वृषि - " ५।१।४२। इति वा क्यपि वृष्यम् वर्ण्यम् । 25 “नाम्युपान्त्य - " ५।१/५४ । इति के वृषः । " शु-कम- १५ | २|४०| इति उकणि वर्षणशीलो वर्षुकः ।
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१ " शदि - बाधि- खनि- हनेः ष् च" ( उ०२९९) इत्यत्र " शष हिंसायामित्यस्य वा रूपम् ” इति कथनात् । अत्र च " पम्पा - " ( उ०३००) इति सूत्रे आदिग्रहणात् इति ॥ २ 'अन्य' प्रत्यये ॥ ३ " परिपूर्वस्य पृषू सेचने इत्यस्य उपसर्गान्तलोपः धातोश्व जः समस्तादेशः । गर्जतेर्वा गकारस्य पकार : ” इति हेमचन्द्रपादाः । अस्मदभिप्रायेण तु 'पृष्+अन्य' इति स्थिते उपान्त्यगुणे कृते पर्षन्य इति जाते षस्य जत्ने पर्जन्यः - इत्येवं साधनिकायां बहुतरं लाघवम् । ४ कित्-अतृप्रत्यये ऋकारो ज्याद्यर्थः । तेन " अधातू
२४२ ॥ इति व्यां पृषती ॥
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परस्मैधातवः ५२०-५३५] स्वोपशं धातुपारायणम् । "वर्षादयः क्लीबे" ५।३।२९। इति अलि वर्षम् । भिदादयः"५।३।१०८। इति निपातनात् अङि वर्षाः। "क्विप्" ५।१।१४८। इति "क्रुत्सम्पदादिभ्यः" ५।३।११४। इति वा क्विपि प्रवर्षति प्रवर्षन्त्यत्र मेघा इति वा प्रावृट् , अत्र “गतिकारकस्य-"३।२।८५। इति प्रस्य दीर्घः । उणादौ "ऋषि-वृषि-"" (उ० ३३१) इति किति अभे वृषभः। "तृपि-वपि-'' (उ० ४६८) इति किति अले वृषलः । "ऋद्-घृ-'" (उ० ६३५) इति किति णौ वृष्णिः । “लू-पू-यु-" (उ.० ९०१) इति किति अनि । वृषा इन्द्रः । “दिवि-पुरि-" (उ० ५९९) इति कित् आः, वृषा प्रबलम् ॥ __ ५२८ मृष सहने च । चकारात् सेचने । मर्षति । मर्षिता । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट्, मृष्ट्वा; इटि "ऋत्तष-" ४।३।२४। इति क्त्वो वा कित्त्वे मृषित्वा, मर्षित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट, मृष्टः मृष्टवान् , अत्रानिट्त्वात् क्तयोः क्षान्तावपि "मृषः क्षान्तौ".४।३।२८। इति न कित्त्वप्रतिषेधः । “शासू-युधि-" ५।३।१४१॥ इति अने दुर्मर्षणः, सुमर्षणः । मृषीच तितिक्षायाम् मृष्यति मृष्यते। अपमृषितं 10 वाक्यमाह ॥
५२९ उपू ५३० श्रिपू ५३१ श्लिष ५३२ पुष ५३३ प्लु दाहे । पञ्चाप्यूदितः । ओषति । “जाग्रुष-" ३।४४९। इति वाऽऽमादेशे ओषाञ्चकार, उवोष । ओषिता । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट , उष्ट्वा उषित्वा । ये तु उदितं न मन्यन्ते तन्मते ऊषित्वा इत्येव भवति । उणादौ "उषेः किल्लुक् च" (उ०८८) इति खे उखा। "वनि कणि-"(उ०१६२) इति ठे ओष्ठः । “घृ-वी-हा-"(उ०१८३) 16 इति किति णे उष्णम् । “सू-मू-खनि-" (उ० ४४९) इति किति त्रटि उष्ट्रः । “उषे च" (उ० ९५९) इति असि ओजो बलम् । “मिथि-रञ्ज्युषि-" (उ०९७१) इति किति असि उषः प्रातः ॥ श्रित। श्रेषति। शिश्रेष। श्रेषिता । श्रिष्ट्वा श्रेषित्वा श्रिषित्वा। श्रिष्टः श्रिष्टवान् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के श्रिषः ॥ श्लिपू । श्लेषति । श्लेषिता श्लिष्ट्वा श्लषित्वा श्लिषित्वा । श्लिष्टः श्लिष्टवान् । अश्लषीत् । श्लिपंञ्च् आलिङ्गने श्लिप्यति । श्लेष्टा। श्लेष्मा । श्लिषण श्लेषणे श्लेषयति ॥ 20 ग्रुषु । प्रोषति। पुप्रोष । प्रोषिता। पृष्ट्वा प्रोषित्वा पुषित्वा। उणादौ "निघृषी-" (उ० ५११) इति किति वे पुष्वा निवृत्तिः ॥ प्लुपू । प्लोषति । पुप्लोष । प्लोषिता । प्लुष्ट्वा प्लोषित्वा प्लुषित्वा । प्लुष्टः प्लुष्टवान् । प्लुषूच् दाहे प्लुष्यति । ग्रुप प्लुषश् स्नेह-सेचन-पूरणेषु पुष्णाति प्लुष्णाति॥
५३४ घृष संहर्षे । घर्षति। जघर्ष । घर्षिता । ऊदित्त्वात् घृष्ट्वा घर्षित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, घृष्टः घृष्टवान् । “नन्यादिभ्यः" ५।१।५२। इति अने सङ्घर्षणः । उणादौ "निघृषी-"(उ० ५११) इति 25 किति वे निघष्वोऽनुकूलः ॥
५३५ हप अलीके । हर्षति । जहर्ष । हर्षिता । ऊदित्त्वात् हृष्ट्वा हर्षित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेद, ___ इष्टः हृष्टवान् , शील्यादित्वादत्र सत्यर्थे क्तः । “हृषेः केश-गोम-विस्मय-प्रतिघाते" ४।४।७६। ईति
१ नित्यबहुवचनान्तः स्त्रीलिङ्गश्चायम् ॥ २ स्नेहन-सेचन' सं २॥ ३ "घृधू संघर्षे' इति माध० धा• १. १२५ धातुअं० १९५। हैमधातुपाठेऽपि “संघर्ष" इति । ४ इति टिर संपा०१ वा० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूधादिगणे वा नेटि हृष्टाः हृषिताः केशाः, हृष्टम् हृषितं केशैः; एवं हृष्टानि हृषितानि लोमानि; हृष्टः हृषितश्चैत्रः विस्मित इत्यर्थः; हृष्टाः हृषिता दन्ताः प्रतिहता इत्यर्थः । उणादौ "हृषि वृति-" (उ० ४८५) इति उले हर्षुलः कामी । "हृषि-पुषि-" (उ० ७९७) इति णौ इनौ हर्षयित्नुः स्वजनः
तुषं हृषच तुष्टौ हृष्यति ॥ । ५३६ पुष पुष्टौ । पोषति । पुपोष । अपोषात् । पोषिता । “स्व-स्नेहनार्थात्-" ५।४।६५ । इति
णमि खपोषम्, गोपोषम् , रैपोषम् । पुषितः । उणादौ "सू-पुषिभ्यां कित्” (उ० ४३६) इति करे पुष्करम् । “वलि-पुषेः कलक्” (उ० ४९६) पुष्कलः । “हृषि-पुषि-" (उ० ७९७) इति णौ इलौ पोषयित्नुर्मेघः । पुषच पुष्टौ पुष्यति अपुषत् , अत्र “लदिद्-द्युता-"३।४।६४। इत्यङ् । पुषश् पुष्टौ
पुष्णाति । पुषण धारणे पोषयति ॥ 10 ५३७ भूष ५३८ तसु अलङ्कारे। भूषति।बुभूष । भूषिता । क्ते भूषितः । क्ते सेट्त्वात् "क्तटो-" ५।३।१०६। इत्यः, भूषा । अनटि भूषणम् ॥
अथ सान्तास्त्रयोदश घस्लंवर्जाः सेटश्चतसु । उदित्त्वाद् ने तंसति । ततंसा तसिता । "व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२ । घनि उत्तंसः अवतंसः । भूष तसुण् अलङ्कारे भूषयति तंसयति ॥ 16 ५३९ तुस ५४० इस ५४१ हस ५४२ रस शब्दे । तोसति । तुतोस । तोसिता । उणादौ "मृ
दि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले तोसलो राजा, तोसला देशः ॥ इस । इसति, जहास, इसिता । ते हसितम् । उणादौ "लटि-खटि-" (उ० ५०५) इति वे ह्रस्वः ॥ हस । इसति । जहास जहसतुः जहंसुः। हसिता । तै हसितः ॥ रस । रसति । ररास रेसतुः रेसुः। रसिता ।
के रसितम् । उणादौ "रसेर्वा" (उ० २६०) इति णिति ने रास्ना ओषधिः, रखा जिहा । रसण 20 आस्वादन-लेहनयोः अदन्तः रसयति। कर्मणि अलि रसः । "स्वसिरसि" (उ०२६९) इत्युणादौ अने रसना रसनं जिह्वा ॥
५४३ लस श्लेषण-क्रीडनयोः । लसति । ललास लेसतुः लेसुः। लसिता । के लसितम् । अचि लसः कर्मसु श्लिष्टः समाहित इति यावत् , न लसोऽलसः । "वेर्विच-" ५।२।५९। इति घिनणि
विलसनशीलो विलासी । ध्यणि लास्यम् । घनि विलासः । “हृदयस्य हृत्-" ३।२।९४। इति हृदा25 देशे हृल्लासः । “तिक्कृतौ नाम्नि" ५।१७१। इति अके लसिका रोगः ॥ .
५४४ घस्लं अदने । घसति । क्ये घस्यते । जघास जक्षतुः जक्षुः, अत्र “गम-हन-" ४।२। ४४। इत्युपान्त्यलोपे "अघोषे-" १।३।५०। इति प्रथमत्वे “घस्वसः" २॥३॥३६॥ इति षत्वम् ।
१ पोषम् । पुष्टः । उ संपा१ वा० ॥ २ ते इसितम् सं. सं २ तपा• खे० नास्ति । ३ के कसितम् प्र.। संपा १तु के इति नास्ति ॥ ४क्ते संपा १ नास्ति ।
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परस्मैधातवः ५३६-५५०] स्वोपचं धातुपारायणम् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् घस्ता, घस्तुम् । “मृ-घस्यदो मरक" ५।२।७३। घस्मरः । घनि घासः । उणादौ "भी-वृधि-" (उ० ३८७) इति रे घस्रो दिनम् । मरम्विषय एव घसिरित्येके ॥
५४५ हसे हसने । हसति । जहास जहसतुः जहंसुः । हसिता । "व्यञ्जनादे:-" ४।३।४७। इति वा वृद्धेरेदित्त्वाद् "न श्वि-जागृ–'४।३।१९। इति प्रतिषेधे अहसीत् । “क्रियाव्यतिहारे-"३।३।२३। हसो वर्जनाद् नात्मनेपदम् , व्यतिहसन्ति । “न वा क्वण-" ५।३।४८। इति वाशि हसः हासः। 5 उणादौ "दम्यमि-" (उ० २००) इति ते हस्तः । “भी-वृधि-" (उ० ३८७) इति रे हस्रो दिनम्, सहस्रं दश शतानि ॥ .५४६ पिस ५४७ पेसृ ५४८ वेस गतौ । पेसति। पिपेस । पेसिता। ऋदित्त्वाद् णौ के
"उपान्त्यस्या-" ४।२।३५। इति इस्वाभावे अप्रिपेसत् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१५४। इति के पिसः । “स्थेश-भास-" ५।२।८१। इति वरे पेसनशीलः पेस्वरः । पिसण हिंसायाम् पेसयति ॥ 10 पेस । पेरति । क्ये पेस्यते । पिपेस पेसिता। ऋदित्त्वाद् णौ डे अपिपेसत्। के पेसितम् ॥ वेस । वेसति । क्ये वेस्यते । विवेस । ऋदित्त्वाद् णौ डे अविवेसत् । वेसिता । ते वेसितम् । उणादौ “जठर-क्रकर-" (उ० ४०३) इति निपातनात् अरे वेसरः ॥
५४९ शसू हिंसायाम् । तालव्यादिः । शसति । शशास । “अनादेशादे:-" ४।१।२४। इत्येत्वस्य "न शस-दद-" ४।१।३०। इति प्रतिषेधात् शशसतुः शशसुः । शसिता । ऊदित्त्वात् शस्त्वा 15 शसित्वा । "धृष-शस-" ४।४।६६। इति प्रगत्भे एव नेट् , विशस्तः प्रगल्भः, अन्यत्रेटि विशसितः। "व्यञ्जनादे:-" ४।३१४७। इति वा वृद्धेः “न श्वि-जागृ-" ४।३।४९॥ इति प्रतिषेधे अशसीत्। "नी-दाव्-" ५।२।८८। इति त्रटि शस्त्रम् । उणादौ “शासि-शंसि-" (उ० ८५७) इति तृः, विशस्ता घातकः ।।
५५० शंख स्तुतौ च । तालव्यादिः । चकाराद् हिंसायाम् । शंसति । शशंस शशंसतुः शशंसुः । 20 क्ये शस्यते । शंसिता। ऊदित्त्वात् शस्त्वा शंसित्वा । क्त्वि वेट्त्वात् क्तयोर्नेट, शस्तः शस्तवान् । "कृ-वृषि-" ५।१।४२। इति वा क्यपि प्रशस्यम् , पक्षे व्यणि प्रशंस्यम् । अणि नृशंसः, यो मृतान् शंसति निर्गतशंसो वा नृशंसः निरनुकम्प इत्यर्थः, पृषोदरादित्वान्निरो नृभावः, अनेकार्थत्वाद्वा द्रोहार्थत्वे नृन् शंसतीति नृशंसः । ब्राह्मणादाहृत्य शंसतीति “अजातेः-" ५।१।१५४। इति णिनि ब्राह्मणाच्छंसी, "ब्राह्मणाच्छंसी" ३।२।११। इति निपातनाद् बसेरलुप् । “शंसि-प्रत्ययात्" ५।३।१०५। 25 इति अः प्रशंसा । उणादौ "चि-मिदि-"(उ० ४५४) इति किति त्रे शस्त्रं स्तोत्रमायुधं च । “शासिशंसि-" (उ० ८५७) इति तृः, शंस्ता पशुविशसिता ॥
१ स-घसि-अदो मरक" ५२।७३। इति विहिते मरक-प्रत्यये एव 'घस' धातोः प्रयोग:-इति भावः । २ जहसुः संपा १ नास्ति ॥ ३ पिपेस संपा, नास्ति ॥ ४ प्रगल्भो जितसभः, अविनीत इति वामनः। तथा च "षि-शासो वैयात्ये १९। पाणिः सत्रे तद्वचः-"वियातस्य भावो यात्यम् प्रागल्भ्यमापनीतता"इति ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं [भूवादिगणे जर्ल्स परिभाषण-हिंसा-तर्जनेष्वित्येके ॥ जर्सति । जस॑न्ती स्त्री ॥ अथ हान्ताः पञ्चदश मिहं-दहंवर्जाः सेटश्च५५१ मिहं सेचने । मेहति । मिमेह । अनुस्वारेत्त्वात् नेट् , मेढा । मेढुम् । “ह-शिटो-"३।४।५५। इति सकि अमिक्षत् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के मिहः । “लिहादि-" ५।१।५०। अचि 5 "व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२। इति घनि वा "
न्य द्-" ४।१।११२। इति घत्वम् , मेघः । "ऋवर्ण-" ५।१।१७। इति व्यणि मेह्यः । “नी-दाव्-" ५।२।८८। इति त्रुटि मेदः । अनटि मेहनम् । “दास्वत्साह-" ४।१।१५। इति निपातनात् कसौ मीद्वान् मीद्वांसौ । उणादौ "शुषीषि-" (उ० ४१६) इति किति इरे मिहिरः ॥
५५२ दहं भस्मीकरणे । दहति । ददाह। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , दग्धा, धक्ष्यति । "गृ-लुप-" 10 ३।४।१२। इति यङि "जप-जभ-" ४।१।५२। इति पूर्वस्य मौ दन्दयते। यङ्लुपि दन्दहीति दन्दग्धि । व्यणि दाह्यम् । “व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२॥ पनि निदधतेऽस्मिन्निति निदाघः, भावे घनि दाघः, कर्मणि अवदाघः भक्ष्ये "
न्य द्ग-" ४।१।११२। इति घत्वम् ; अन्यत्र अवदाहः। "वेर्दहः" ५।२।६४। इति घिनणि विदहनशीलो विदाही। “परे:-" ५।२।६५। इति परिदाही।
उणादौ “य्वसि-रसि--'' (उ० २६९) इति अने दहनः॥ 15 ५५३ चह कल्कने । कल्लनं शाठ्यम् । चहति । चचाह चेहतुः चेहुः । “व्यञ्जनादे:-"४।३।४.७।
इति वा वृद्धेः “न श्वि-जागृ-" ४।३।४९। इति प्रतिषेधात् अचहीत् । यति चाचरते। यङ्लपि चाचहीति चाचादि । अचि चहः शठ इत्यर्थः । चहण कल्कने अदन्तः चहयति । "चहणः शाठ्ये" ४।२।३१। इति निणम्परे णौ वा दीर्घे अचाहि अचहि, चाहं चाहम् , चहं चहम् ॥
५५४ रह त्यागे। रहति । रराह रेहतुः रेहुः । “न श्वि-जागृ-" ४।३।४९। इति वृद्धिप्रतिषेधात् 20 अरहीत् । उणादौ "कृ-वा-पा-जि-" (उ० १) इति उणि राहुः । “अस्" (उ० ९५२) इति असि रहः । रहण त्यागे रहयति । अलि विरहः ॥
५५५ रहु गतौ । उदित्त्वाद् ने रंहति । ररंह । रंहिता । उणादौ "अस्” (उ० ९५२) इति असि रंहः । रहुण गतौ रंहयति ॥
५५६ दृह ५५७ दृहु ५५८ बृह वृद्धौ । दर्हति । ददर्ह दवहतुः ददृहुः। दहिता ॥ दृहु। 26 उदित्त्वाद् ने दृहति । क्ये दृह्यते । “बलि-स्थूले-" ४।४।६९। इति निपातनात् के हेहेश्च दृढः । हृहितुम् ॥ वृह । बर्हति । बर्हिता । "क्षुब्ध-विरिन्ध-" ४।४।७०। इति निपातनात् क्ते नेट, परिवृढः प्रभुः । उणादौ “द्रुहि-वृहि-" (उ० ८८४) इति कतः, बृहन् बृहन्तौ, बृहती॥
१ मु-आगमे । २ दहेन्यवाभ्यां घनि सज्ञायां हस्य घत्वम्, निदाघः ऋतुविशेषः॥ ३ केवलपानीयपक्वोऽपूपः ।।
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परस्मैधातवः ५५१-५६६ ]
स्वोपशं धातुपारायणम् ।
७१
I 1
५५९ बृड्डू ५६० बृहु शब्दे च । चकाराद् वृद्धौ । बर्हति । बबर्ह । बर्हिता । ऋदित्वाद् "ऋदिच्छि - " ३/४/६५ | इति वाऽङि अबृहत्, पक्षे अबहत् । शतरि बर्हन् बर्हन्तौ बर्हन्तः । के बर्हकः ॥ बृहु । उदित्वाद् ने बृंहति । बृंहिता । क्ये बृंह्यते । णके बृंहकः । बृहन् बृंहन्तौ बृंहन्तः । ते बृंहितम् । “क्षुब्ध - विरिब्ध - " ४ । ४ । ७० । इति निपातनात् के परिबृढः । उणादौ " बृंहे - नऽच्च" ( उ० ९१३) इति मनि ब्रह्म । " हि - बृंहेर्नलुक् च " ( उ० ९९०) इति इसि बर्हिः ॥
5
५६१ उड्डृ ५६२ तुट्ट ५६३ दुड्ढ अर्दने । ऋदितस्त्रयो ऽपि। ओहति। ‘“उपसर्गस्या–”१।२।१९। इत्यवर्णलोपे अपोहति। ऋदित्त्वाद्वाऽङि औहत्, पक्षे औहीत् ॥ तुड्डृ । तोहति । ऋदित्त्वाद्वाङि अतुहत् अतोहीत् । उणादौ " वृजि- तुहि - " ( उ० २८३ ) इति इने तुहिनम् ॥ दु दोहति । ऋदित्त्वाद्वाऽङि अदुहत् अदोहीत् ॥ .
"
५६४ अई ५६५ मह पूजायाम् । अर्हति । “अनातो -" ४।१।६९ । इत्यात्वे ने च आनई 10 आनर्हतुः आनर्हुः। अर्हिता। “अर्होऽच्" ५।१।९१ । पूजार्हः पूजार्हा । "सुग-द्विषा -" ५।२।२६। इति तृशि त्रिलोक्यभ्यर्चनप्रकर्षमर्हति अर्हन् । “व्यञ्जनाद्- " ५।३।१३२ । घञि “ न्यङ्कग - " ४।१।११२। इति घे च अर्हन्ति तेनेति अर्धी मूल्यं पूजाद्रव्यं च । अधिधत्वन्तरं च सौत्रम्, अर्धः ।
“कलां नार्घन्ति षोडशीम्” । [
]
“शक-धृष–” ५।४।९०। इति तुमि अर्हति भोक्तुम् । अर्हण् पूजायाम् | अर्हयति । “अयमर्थ- 15 विशेषे पूजायामेव चुरादिः” इति पूजाया अन्यत्र योग्यत्वादौ न णिच्, अर्हति । इह च पूँजायां पाठात् पूजायामपि णिजभावः ॥ मह । महति । महिता । अचि महः, गौरादित्वाद् ङयाम् मही । " हि वृह - " ( उ० ८८४) इति कतरि महान् महान्तौ महान्तः । “अस्” (उ०९५२) इति असि महः महसी । "महेरुच्चास्य वा" ( उ० ८९) इति खेऽन्तलुकि च मुखम्, मखः । "महे - र्णिद्वा" ( उ० २८५) इति इने माहिनं महिनं च राज्यम्, महिनो माहात्म्यवान् । "मयविभ्यां 20 टित्” (उ० ५४७) इति इषे महिषः, महिषी । महण पूजायाम् महयति ॥
अथ क्षाम्ता विंशतिः सेटश्व – क्षान्तानां षान्तेषु पाठो युक्तः, वैचित्र्यार्थं त्विह कृतः ॥
५६६ उक्ष सेचने । उक्षति । " गुरुनाम्यादेः - " ३ | ४ | ४८ । इत्यामादेशे उक्षाञ्चकार । उक्षिता । ते उक्षितः । " व्यतिहारे-" ५।३।११६ । इति जे “नित्यं ञ- " ७|३|५८ | इति स्वार्थेऽणि व्यायुक्षी । उणादौ "उक्षि-तक्षि - " ( उ० ९००) इति अनि उक्षा ॥
25
१ विक्रीयमाणस्य धान्यादेरियत्ता पूजाविधेिश्व इति माधवीयधातुवृत्तौ पृ० १२९ धातु० ६६२ ॥ २ अर्घ मूल्ये इति सौत्रोऽयम्, तथा च श्रीमन्तो हेमहंसगणयः - अत्र यथोक्तसकल सौत्रादिधातूनां सङ्ग्रह श्लोकाः --- कम्ब्वादिरथ स्तम्भूस्तन्द्राः कि-पति- गृहि - चिरि-जु-कुर्भूस्तर्कः । कक्किः कर्कि: सिकि मर्कि-चकि-मकि- रिखिका - मिर्चाच ||१|| इत्यादि ॥ ३ पूजायाः पा ० १ २ तपा० ॥
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भाचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादिगणे ५६७ रक्ष पालने । चौराद् रक्षति । ररक्ष । रक्षिता । “ग्रहादि-"५।१।५३॥ इति णिनि निरक्षी। ते रक्षितः । ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, रक्षा । उणादौ "अस्" (उ० ९५२) इति असि रक्षः, भीमादित्वादपादाने साधुः । प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽणि राक्षसः ॥
५६८ मक्ष ५६९ मुक्ष सङ्घाते । मक्षति मक्षिता । णके मक्षिका । रोषेऽयमित्येके । घनि मक्षो मन्युः ॥ मुक्ष । मुक्षति । मुक्षिता ।।
५७० अक्षौ व्याप्तौ च । चकारात् सङ्घाते । “वाऽक्षः" ३।४।७६। इति श्ः, अक्ष्णोति अक्षति ।, "अनातो-,४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनक्ष आनक्षतुः आनक्षुः । औदित्त्वाद् "धूगौदितः" ४।४। ३८॥ इति वेटि अष्टा अक्षिता । वेट्त्वात् क्तयोनेंट् , अष्टः अष्टवान् । उणादौ “जठर-क्रकर--'' (उ०
४०३) इति अरे अक्षरम् । “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, अक्षि । “उक्षि-तक्षि-" (उ० 10 (उ० ९००) इति अनि अक्षा दृष्टिनिपातः ॥
५७१ तक्षौ ५७२ त्वक्षौ तनूकरणे । तनूकरणं काय॑म् । “तक्षः स्वार्थे वा” ३।४।७७। इति भुः, तक्ष्णोति तक्षति । स्वार्थः पाठापेक्षया तनूकरणम् , इदमेव ज्ञापकम्-'धातवोऽनेकार्थाः' इति। स्वार्थादन्यत्र सन्तक्षति वाग्भिः शिष्यम्-निर्भद्यते इत्यर्थः । ततक्ष। औदित्त्वाद्वेट् , तष्टा तक्षिता । वेट्
त्वात् क्तयोर्नेट , तष्टः तष्टवान् । णके तक्षकः । उणादौ “उक्षि-तक्षि-" (उ०९००) इति अनि तक्षा, 16 "स्त्रियां नृत-" २।४।१। इति ड्याम् तक्ष्णी ॥ त्वक्षौ । त्वक्षति । तत्वक्ष । औदित्त्वाद् वेट् , त्वष्टा, त्वक्षिता । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , त्वष्टः त्वष्टवान् ॥
५७३ णिक्ष चुम्बने । चुम्बनं वक्त्रसंयोगः । “पाठे-" २।३।९७। इति णस्य नत्वे निक्षति । "अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वे प्रणिक्षति, परिणिक्षति । निक्षिता । “निंस-निक्ष-" २।३।८।।
इति कृति वा णत्वे प्रनिक्षणम् प्रणिक्षणम्, प्रनिक्षिता प्रणिक्षिता। कृदभावेऽपि वा णत्वम् इत्येके, 20 प्रनिक्षति प्रणिक्षति । एवं निस-निन्दोरपि ॥
५७४ तृक्ष ५७५ स्तृक्ष ५७६ णक्ष गतौ । तृक्षति । ततृक्ष । तृक्षिता। अचि तृक्षः । तृक्षस्यापत्यं वृद्धम् तार्क्ष्यः॥ स्तृक्ष । स्तृक्षति । तस्तृक्ष । स्तृक्षिता । षोपदेशोऽयम् इति चन्द्रः॥ पक्ष । “पाठे"-२।३।९७। इति णस्य नत्वे नक्षति । “अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वे प्रणक्षति ।
अचि नक्षः। उणादौ "वृग्-नक्षि-" (उ० ४५६) इति अत्रे नक्षत्रम् । नखादिसूत्रे त्वस्य निपातनम्25 'नाम्नां व्युत्पत्तिरव्यवस्थिता' इति ज्ञापनार्थम् ॥
१"मी ज्यजि-मा-मद्यशौ-चसि-किभ्यः सरः" (उ० ४३९) इति सूत्रेण सरप्रत्ययेऽपि अक्षरम् ॥ २ “जठरक्रकर-" (उ०४०३) इत्यत्र तु आदिग्रहणात् ॥३अत्र “पदि-पठि-"(उ० ६.७)इत्यत्र आदिग्रहणात् अक्षि-इति । ४ पत्यं ताjः संपा १ वा. सं सं २ तपा• ॥ ५ अत्र “गर्गादेर्य" ६११४२॥ इति यय-प्रत्ययः॥ ६ न क्षीमते न क्षरति वा नक्षत्रम् । यद्वा भद संवरणे इति सौत्रो धातुः, न क्षदति प्रभामिति नक्षत्रम् , “हुया-मा-धु-" (उ० ४५१) इति । उभयत्र नचादित्वात् सिद्धम् ॥ ७ “नखादयः" ३।२।१२८॥ इति सूत्रम् ।
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परस्मैधातवः ५६७-५९३] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
५७७ वक्ष रोपे । सङ्घाते इत्येके । वक्षति । ववक्ष । उणादौ "अस्” (उ० ९५२) इति असि सपनीरोषविषयत्वाद् वक्षतीति वक्षः-उरः ॥
५७८ त्वक्ष त्वचने । त्वचनं त्वग्ग्रहणं संवरणं वा। त्वक्षति। तत्वक्ष। त्वक्षिता। उणादौ "शासि-शंसि-" (उ० ८५७) इत्यादिग्रहणात् तृः, त्वष्टा त्वष्टारौ ॥
५७९ सूक्ष अनादरे । सूक्षति । सुसूर्ख । सूक्षिता । मनि सुसूक्ष्ा । यान्तोऽयम् इत्यन्ये, सू- 5 यति सुसूर्य । मनि “य्वोः-” ४।४।१२१। इति यलोपे सूक्ष्ां ॥
५८० काक्षु ५८१ वाक्षु ५८२ माक्षु काटायाम् । उदित्त्वाद् ने काति चकाङ्क्ष ॥ वाङ्क्षति वाच॥ माङ्गति ममात्र॥
५८३ द्राक्षु ५८४ ध्राक्षु ५८५ ध्वाक्षु घोरवाशिते च । चकारात् काङ्क्षायाम् । त्रयोऽप्युदितः । उदित्त्वाद् ने द्राकति दद्रास ॥ ध्राङ्गति दध्रात ॥ ध्वासति दध्वाङ्क्ष । अचि ध्वाङ्क्षः॥ 10
॥एते निरनुबन्धत्वात् “शेषात्" ३।३।१००। कर्तरीति परस्मैपदिनः॥ ' अथ इडिन्त आत्मनेपदिन आईक्षेर्वर्णसमानायक्रमेण वक्ष्यन्ते
५८६ गांङ् गतौ । डित्त्वादात्मनेपदम् । एक-द्वि-बहुत्वेषु गाते। जगे जगाते जगिरे । क्ये "ईय॑ञ्जनेऽयपि" ४।३।९७। इति ईत्वे गीयते । ये तु गायतेरेवेत्वमिच्छन्ति तन्मते गायते । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , गाता गातुम् गातव्यम् । “इणिकोर्गा' ४।४।२३। अगात् । के गैंरैं शब्दे गायति ॥ 15 ' ५८७ मिङ् ईषद्धसने । “षः सो-' २।३।९८। इति षस्य सत्वे स्मयते । पोपदेशत्वाद् "नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इति षत्वे सिष्मिये सिष्मियाते सिष्मियिरे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , स्मेता स्मेतुम् । सनि "ऋ-स्मि-पूङ-"४।४।४८। इतीटि सिस्मयिषते, अत्र “णि-स्तोरेवा-"२।३।३७। इति नियमात् न षत्वम् । यङि सेष्मीयते । यङ्लुपि सेष्मेति सेप्मयीति । णौ "स्मिङः प्रयोक्तुः-" ३।३। ९१॥ इत्यात्वे आत्मनेपदे च मुण्डो विस्मापयते; करणात् स्वार्थे तु रूपेणैनं विस्माययति । "स्म्यज- 20 स-" ५।२।७९। इति रे स्मेरः ॥
५८८ डीङ् विहायसां गतौ। डयते। डिड्ये डिड्याते। वांसि च निडिडियरे । इटि डयिष्यते । क्तयोरिटि "न डीङ्-शीङ्-" ४।३।२७। इति कित्त्वप्रतिषेधात् डयितः डयितवान् । डीडच् गतौ डीयते । क्तयोः “डीयश्व्यैदितः" ४।४।६१। इति नेट् “सूयत्यादि-" ४१२।७०। इति तस्य नत्वं च, डीनः डीनवान् ॥
25 अथ उकारान्ता एकादश अनिटश्च५८९ उंङ् ५९० कुंङ् ५९१ गुंङ् ५९२ धुंङ ५९३ डुङ् शब्दे । पञ्चाप्यनुस्वारेतः । अवते। ___ “वार्णात् प्राकृतं बलीयः" इति न्यायादन्तरङ्गाद्दीर्घात् प्रागुवादेशे ऊवे ऊवाते ऊविरे । क्ये “दीर्घ
१२ । त्वक्षिष्यति । त्व संपा १ विना सर्वत्र ॥ २ आदरे इत्यन्ये ॥ ३ "शेषात्" ३।३।१०।। इति कतरि' इत्येवं शब्दयोजना समुचिता ।
धापा.१०
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे श्वि-" १।३।१०८। इति दीर्घ ऊयते । अनुस्वारेत्त्वाद नेट् , ओता ओतुम् । सनो "नामिनोऽनिट" ४।३।३३। इति कित्त्वाद्गुणाभावे "स्वर-हन्-" ४।१।१०४। इति धातोर्दीधै सनो द्वित्वे ऊषिषते । क्तयोः उतः उतवान् । णिगि आवयति। "युवर्ण-" ५।३।२८। इति अलि अवः । उणादौ "म्वरेभ्य
इ:" (उ०६०६) अविः॥ कुंङ् । कवते । चुकुवे । कोता। कोतुम् । “न कवतेर्यङ:"४।१।४७। । इति कस्य चत्वप्रतिषेधात् कोकूयते खरः । तिनिर्देशाद् यङ्लुपि चत्वप्रतिषेधाभावात् चोकोति। उणादौ
"कु-पू-समिणभ्यश्चट् दीर्घश्व" (उ० ११२) कूचो हस्ती, कुची चित्रोपकरणम् । “यु-सु-कु-" (उ० २९७) इति पे ऊत्वे च कूपः । "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति अरे कवरो वर्णः, कबरी वेणिः । “नी-मी-" (उ० ४४३) इति वरटि दीर्घ च कूवरः । "स्वरेभ्य-" (उ० ६०६)
इति इः, कविः । कुंक् शब्दे कौति, चोकूयते । कुंङ्कूङ् शब्दे कुवते, चोकूयते ॥ गुंङ् । 10 अयमव्यक्ते शब्दे इत्येके । गवते । जुगुवे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , गोता गोतुम् । उणादौ "शुभि
गृहि-" (उ० ३५) इति किति आके गुवाकम् । “मवाक-" (उ० ३७) इति निपातनात् आके गूवाकम् । “हु-या-मा--" (उ० ४५१) इति त्रे गोत्रम् । "मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले गवलम् । दीर्घान्तमेनं परस्मैपदिनं पुरीपोत्सर्गे केचिदधीयते । गवति । गुंह पुरीपोत्सर्गे गुवति,
गुता, शुतुम् ॥ घुङ् । घवते । जुघुवे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , घोता घोतुम् । उणादौ "घु-यु16 हि--" (उ० २४) इति के दीर्थे च चूकः ॥ झुन्छ । डवते । बुडवे। यडि ओडूयते। अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , ङोता डोतुम् । “इत्येके ।।
५९४ च्युङ ५९५ ज्युङ् ५९६ जुंङ् ५९७ मुंङ् ५९८ प्लुङ् गतौ । पञ्चाप्यनिटः । च्यवते । चुच्युवे । णिगि च्यावयति । णौ सनि "श्रु-सु-" ४।१।६१। इति वा ओरित्वे चिच्यावयिषति
चुच्यावयिषति । णौ डे सन्धद्भावात् अचिच्यवत् अचुच्यवत् । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट , च्योष्यते । च्युतः 20 च्युतवान् । “नन्दादिभ्यः" ५।१।५२। इति अने च्यवनः ॥ ज्युङ् । ज्यवते । जुज्युवे । अनु
स्वारेत्त्वाद नेट् , ज्योता । उणादौ “मवाक-श्यामाक-" (उ० ३७) इति आके निपातनात् ज्योन्ताकं स्वेदगृहम् ॥ जुहू । जवते। जुजुवे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , जोता। "भूषा-क्रोधार्थ-"५।२।४२। इति अने जवनशीलो जवनः । “प्रात्सू-जोरिन्" ५।२।७१। प्रजवनशीलः प्रजवी। “दिद्युद्-" ५।२।८३।
इति निपातनात् क्विपि जू: पिशाचः, जुवौ जुवः । "युवर्ण-" ५।३।२८। इति अलि जवः । “साति25 हेति-"५।३।९४। इति निपातनात् क्तौ जूतिः। सौत्रोऽप्ययम् , जवति ॥ श्रृंङ । प्रवते । पुपुवे।
अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , प्रोता । णौ फलवत्कर्तर्यात्मनेपदापवादे "चल्याहारा-" ३।३।१०८। इति परस्मैपदे प्रावैयति । णौ सनि "श्रु-सु-" ४।१।६१॥ इति वा ओरित्वे पिप्रावयिषति पुप्रावयिषति । णौ के सन्वद्भावात् अपिप्रवत् अपुप्रवत् । “प्र-सू-वो-" ५।१।६९। इति अके साधु प्रवते प्रवकः ।
१ उकारस्य ॥ २ यद्यपि जवनः सुं वेगे इति सौत्रेण सिध्यति तथापि अत्रोल्लेखात् जुंङ् गतौ इत्यस्यापि भवति, अत्राथें हेमहंसगणयोऽपि तथैव पठनादनुकूलाः ॥ ३ प्रापयतीत्यर्थः ।।
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आत्मनेधातवः ५९४-६००] स्वोपझं धातुपारायणम् । "युवर्ण-" ५/३।२८। इति अलि प्रवः । “दिद्युद्-" ५।२।८३॥ इति निपातनात् क्विपि कटपूर्नदीतीरः (१) । उणादौ “कमि-अ-गा--"(उ०२२५) इति थे प्रोथः अश्वघोणाग्रम् ॥ प्लुट । प्लवते। पुप्लुवे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , प्लोता । णौ सनि “श्रु-सु-"४।१।६१। इति वा ओरित्वे पिप्लावयिषति पुलावयिषति । णौ के सन्वद्भावात् अपिप्लवत् अपुप्लवत् । “भव्य-गेय-" ५।१७। इति निपातनाद्वा कर्तरि घ्यणि आप्लाव्यश्चैत्रो नद्याम् ; पक्षे भावे "उवर्णात्-" ५।१।१९। इति ध्यणि 5 आप्लाव्यमनेन । अचि प्लवः, गौरादित्वाद् ड्याम् प्लवी। “आडो रु-प्लोः" ५/३।४९। इति वा अलि आप्लवः आप्लावः ॥
५९९ रुंङ् रेषणे च । चकारात् गतौ । रेषणं हिंसाशब्दः । रवते । रुरुवे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , रोता रोतुम् । “आङो रु-प्लोः" ५।३।४९। इति वा अलि आरवः आरावः । “रोरुपसर्गात्" ५।३।२२। इति पनि विरावः संरावः । उणादौ "तृ-क-श-" (उ० १८७) इति अणे रवणः । “स्वरेभ्य-" 10 (उ० ६०६) इति इः, रविः । “रु-पूभ्यां कित्" (उ०८०७) इति रौ रुरुः । रुक् शन्दे रौति ॥
अथ ऊदन्तौ द्वौ सेटौ च६०० पूड पवने । पवनं नीरजीकरणम्। पवते। पुपुवे। पविता। पवितुम्। “ग्रह-गुहश्च-" ४।४।५९। इति निषेधापवादे "ऋ-स्मि-पूङ्-' ४।४।४८। इति सनीटि "ओन्तिस्था-" ४।१।६०। इति पूर्वस्योत इत्वे च पिपविषते । यडि पोपूयते । यङ्लपि पोपोति पोपवीति । “पूङ्-क्लिशिभ्यो नवा" 16 ४।४।४५। इति क्त-क्तवतु-क्त्वामादौ वेटि पवितः पवितवान् , अत्र “न डीङ्-" ४।३।२७। इति कित्त्वाभावाद्गुणः; पक्षे पूतः पूतवान् । पवित्वा, अत्र "क्त्वा" ४।३।२९। इति कित्त्वाभावाद्गुणः; पक्षे पूत्वा । "पू-दिव्यश्चे:-" ४।२।७२। इति क्तयोर्नत्वे पूना यवाः, विनष्टा इत्यर्थः । “जि-विपू-न्यो हलि-" ५।१।४३। इति क्यपि विपूयो मुञ्जः । “पूङ-यजः शानः" ५।२।२३। पवमानः। “हलकोडास्ये-" ५।२।८९। इति त्रुटि हलस्य पोत्रम् , सूकरस्य पोत्रम् । “पुव इत्रो दैवते" ५।२।८५। 20 पवित्रोऽर्हन् । “ऋषि-नाम्नोः करणे" ५।२।८६। पवित्र ऋषिः, पवित्रं दर्भादि । “निरभेः पूरुवः" ५।३।२१। इति घनि निष्पावः । नन्द्यादित्वादने पवनः । “न ख्या-पूग्-"२।३।९०। इत्यत्र गितो
. आचार्यहेमचन्द्रः 'कट' शब्दं स्वीये संस्कृतद्याश्रये उदाहरति । तथा च-"करिणां कटपूर्न मदो टुवाम्"सर्ग १२ श्लो० ४५ । अत्र श्लोके उदाहृतं 'कटपू' शब्दं ध्याश्रयवृत्तिकारः श्रीअभयतिलकगणिः एवं व्याख्याति"तुवां नश्यतां करिणां मदो नमः-न स्रवति भयेन मदः शुष्क इत्यर्थः। कीदृक् । कटेभ्यो गण्डेभ्यः प्रवते निर्गच्छति कटप्र:-पूर्व प्रवाहेण वहन्नपि-इत्यर्थः" । एवमेव आचार्यहेमचन्द्रः स्वीये अनेकार्थसंग्रहे 'कटप्र' शब्दस्य इमान् अर्थान् कथितवान्-“कटप्रः अक्षदेवने" ॥५२८॥ "विद्याधरे-अस्रपे रुद्रे" । काण्ड ३। नात्र 'कटप्रू' शब्दस्य 'नदीतीरः' इत्यर्थः सूचितः । अपरं च तटवाचकः तीरशब्दः नपुंसकलिङ्गः ततश्च अत्र 'नदीतीरम् इति उचितः पाठः अथवा घट्ट-(भाषायां घाट) वाचकः अपरः 'तार' शब्दोऽप्यस्ति ततो नदीतारः इत्यपि पाठो भवेत् परंतु अस्माभिस्तु-तीरः इत्येव पाठो लब्धः। अन्यच्च पुंलिङ्गः 'तीर' शब्दः त्रपुवाचकः शब्दकल्पद्रुमे दृश्यते परन्तु 'नदीतीरः' इत्यत्र 'त्रपु' शब्देन किं कल्प्येत? अतः कथमपि 'नदीतीरः' इत्यस्य नावगम्यते भावः । २ पोत्रं मुखम् ॥ ३ पवतेइति पवित्रः कर्तरीदम् , केचित् करणेऽपि ॥ ४ पूयतेऽनेनेति पवित्र ऋषिर्दादि च, ऋषो कर्तर्यपि केचित् ॥ ५ निष्पूयते इति विप्रहः ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित
[भूवादिगणे वर्जनात् "स्वरात्"२।३।८५। इति णत्वे प्रपवणम् , प्रपवणीयम् । उणादौ "दम्यमि-" (उ० २००) इति ते पोतः । “पू मुदिभ्यां कित्" (उ० ९३) इति गे पूगः । “य्वसि-रसि-" (उ० २६९) इति अने पवनः । “शिक्या-ऽऽस्या-ऽऽढ्य-" (उ० ३६४) इति निपातनात् पुण्यम् । “पुत्रादयः" (उ० ४५५) इति त्रे ह्रस्वे च पुत्रः । “स्वरेभ्य इ:" (उ० ६०६) पविः । “हु-पूग्-गोन्नी-" 6 (उ० ८६३) इति तृः, पोता पोतारौ । पूग्श् पवने पुनीते पुनाति ॥
६०१ मूङ् बन्धने । मवते । मुमुवे । मविता । मवितुम् । “ग्रह-गुहश्च-" ४।४।५९। इति सनि नेट् , मुमूषते । णौ सनि “ओर्जान्तस्था-" ४।१६०। इति पूर्वस्योत इत्वे मिमावयिषति । उणादौ "विचि-पुषि-" (उ० २२) इति किति के मूकः। "शी-री-" (उ० २०१) इति किति
ते मूतः पुटबन्धः । जीवनस्य मूतो जीमूतः पृषोदरादिः । “शुक-शी-" (उ० ४६३) इति किति ले 10 मूलम् । “स्नु-पू-सू-" (उ० ५४२) इति किति षे मूषा ॥
६०२ धृङ् अवध्वंसने। धरते । दधे । णिगि मैत्राय शतं धारयति, अत्र "रुचि-क्लप्यर्थ-" २।२।५५। इत्युत्तमर्णाच्चतुर्थी । यङि देध्रीयते । यङ्लुपि दरीधर्ति दरिधर्ति दर्धर्ति । “साहि-साति" ५।१।५९। इत्यजपवादे शे धारयः । “धारेर्धर्च"५।१।११३। इति खे वसुन्धरा, जलन्धरः, युगन्धरः।
"धारीडो-" ५।२।२५। इत्यतृशि धारयन्नाचाराङ्गम् , अत्र "तॄन्नुदन्ता--" २।२।९०। इति कर्मणि 15 न षष्ठी। क्विपि क्षेमधृत् । “न्याया-ऽवाया-" ५।३।१३४। इति निपातनात् करणाशरे घापवादे पनि
आधारः। भिदादिनिपातनादङि धारो प्रपातः, धृतिरन्या। उणादौ "अतीरि-" (उ० ३३८) इति मे धर्मः । "ऋ-ह-सू-" (उ०६३८) इति अणौ धरणिः । धृग् धारणे धरति, धरते । धृत् स्थाने ध्रियते । चुरादेराकृतिगणत्वात् धारयति । उभयपदिषु पठिष्यमाणस्याप्यस्य अवध्वंसने धरतीति प्रयो
गनिवृत्त्यर्थ इह पाठः ॥ 20 अतः परौ एदन्तौ द्वावनिटौ च
६०३ मेंङ् प्रतिदाने । प्रतिदानं प्रत्यर्पणम् । मयते । प्रणिमयते, अत्र “ने-दा-" २।३७९। इति नेर्णत्वम् । “ईर्व्यञ्जने-" ४।३।९७। इतीत्वे मीयते । ममे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , माता मातुम् । "मि-मी-मा-दा-" ४।१।२०। इति स्वरस्येद्भावे द्वित्वाभावे च सनि मित्सते । “आतो डोऽद्धा-"
५।११७६। इत्यत्र मावर्जनादणि द्रोणमायः । यङि मेमीयते । यङ्लुपि मामाति मामेति। "दो-सो25 मा-स्थ इ." ४।४।११। मितः मितवान् । “निमील्यादि-" ५।४।४६। इति परकालार्थादपि वा क्त्वि
१ जीवनस्य जलस्य मूतः पुटबन्धः जीमूतः, अत्र "पृषोदरादयः" ३।२।१५५। इत्यनेम वनशब्दस्य लोपः।। २ अविध्वंसने इति सं सं२ वा. तपा०॥ ३ एतन्नामा तीर्थकरः ॥ ४ आचारम्, अ° संपा सं१ सं२ तपा० प्र. वा० । आचारप्रतिपादकमजमाचाराङ्गम् । आचर्यते शोभनं कमनिन व्यसभाद् घम, आचा रश्च तद चेति वा ॥ ५ खड्गादेर्वा । "धारा प्रपातन इति भिदादिपाठादङि गुणो दीर्घत्वं च। द्रवद्रष्यनिपातनं धारा इति न्यासे खड्गधारादावुपमानात् प्रयोग:-" इति माधषवृत्तिः पृ. १६३ धा. ८८४ ॥ ६ अविध्यसने इति सं. सं२ वा. तपा-॥ ७"स्वभावात् मेङ् व्यतिहार एव वर्तते। कोऽर्थः ? अपरे धातवो
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आत्मनेधातवः ६०१-६०७] स्वोपशं धातुपारायणम् । अपमित्य याचते । अपमाय याचते । अत्र "मेडो वा मित्" ४।३।८८। इति वा मित् । पक्षे याचित्वाऽपमयते । उणादौ “शिग्रु-गेरु–” (उ०८११) इति निपातनात् रौ मेरुः, नमेरुः । “स्था-छा-मा-" (उ०३५७) इति ये माया । मांक माने माति । मां मान-शब्दयोः मिमीते ॥
६०४ देंङ् ६०५ 3ङ् पालने । दयते । “ईर्व्यञ्जने-" ४।३।९७। इतीत्वे दीयते। "देर्दिगिः-' ४।१।३२। इति दिग्यादेशे दिग्ये। “नेादा-" २।३।७९। इति नेर्णत्वेऽनुस्वारेत्त्वात् । इडभावे च प्रणिदाता प्रणिदातुम् । उणादौ “मन्” (उ० ९११) इति मनि दाम। दांम् दाने यच्छति । दैव् शोधने दायति। दांवक् लवने दाति । डुदांग्क् दाने ददाति । दोंच छेदने द्यति॥
अथ ऐदन्तास्त्रयोऽनिटश्च
3ङ् । त्रायते । तत्रे तत्राते । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट , त्राता । "ऋ-ही-घ्रा-"४।२।७६। इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे त्रातः देवत्रातः त्राणः, त्रातवान् त्राणवान् ॥
६०६ श्यङ् गतौ । तालव्यादिः । श्यायते शश्ये शश्याते । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् श्याता श्यातुम् "श्यः शीवमूर्ति-स्पर्शे नश्चास्पर्शे" ४।१।९७। शीनं घृतम् ; स्पर्शे तु क्तयोस्तस्य नत्वाभावे शीतं वैतते, शीतो वायुः; अन्यत्र संश्यानः-शीतेन सङ्कुचित इत्यर्थः, अत्र “व्यञ्जनान्तस्थाऽऽतः-" ४।२।७१। इति क्तस्य नत्वम् । “प्रतेः” ४।१।९८॥ इति शीभावे क्तयोर्नत्वे च प्रतिशीनः प्रतिशीनवान् , प्रतिपूर्वोऽयं रोगार्थः । “वाऽभ्यवाभ्याम्" ४।१।९९। इति वा शीभावे क्तयोर्नत्वे च अगिशीनः 18 अभिश्यानः, अवशीनः अवश्यानः । “उपसर्गादातो-" ५।१।५६। इत्यत्र श्यावर्जनाद् डस्याभावे "तव्यधी-" ५।१।६४। इति णे प्रतिश्यायश्च पीनसः । उणादौ “मवाक-श्यामाक-" (उ०३७) इति आके निपातनात् श्यामाकः । "हृ-श्या-रुहि-" (उ० २१०) इति इते श्येतः । “श्या-कठि-"(उ० २८२) इति इने श्येनः । “विलि-भिलि-" (उ० ३४०) इति मकि श्यामः ॥ . ६०७ प्यङ् वृद्धौ । प्यायते । पप्ये । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , प्याता प्यातुम् । उणादौ "तीवर-धी- 20 वर-" (उ० ४४४) इति वरटि निपातनात् पीवरः । “ध्या-प्योः-" (उ०९०८) इति क्वनिपि पीवा, व्यतिपूर्वका व्यतिहारे वर्तन्ते, अयं तु स्वभावात् केवलोऽपीति, अत आह 'परकालार्थादपि । अपमाय अपमित्य याचते अपमातुं प्रतिदातुं याचत इत्यर्थः पूर्व ह्यसौ याचते पश्चादपमयत इति । "याचेस्तु पूर्वकालेपि क्त्वा न भवति मेङः परकालभाविन्या क्त्वया याचिप्राकालस्योक्तत्वात्" इति ५।४।४६ सूत्रबृहद्वृत्तौ ॥
१ "चीनी-पी-म्यशिभ्यो रुः” (उ० ८०६) इति सूत्रेण मीच हिंसायाम् इत्यस्यापि रुप्रत्यये मेरुः ॥ २ द्रवस्य मूर्तिः काठिन्यं तस्मिन् स्पर्शे च वर्तमानस्य श्यायतेः क्तयोः परतः शीः आदेशः, तत्संनियोगे च क्तयोस्तकारस्यास्पर्शे नकारादेशः ॥ ३ कर्तरि क्तः। अत्र शीतस्पर्शो मुख्यभावेन, शीतो वायुरित्यत्र तु गौणभावेन ॥ ४ द्रवमूर्ति-स्पर्शयोरप्यनेन परत्वाद्विकल्पो भवति, तेन अभिशीनं अभिश्यानं घृतम्। अवशीनं अवश्यानं हिमम् । अभिशीतः अवशीतो वायुः, अत्र स्पर्शत्वाद् नत्वाभावः। अभिश्यानः अवश्यान वायुरित्यत्र तु "व्य अनान्तस्थातोऽख्याध्यः" ४।२७१। इति स्पर्शपि नत्वम् । 'अभिसंशीनः, अभिस'शीनवान् अभिसंश्यानः अभिसंश्यानवान् इत्यादिषु समा व्यवधानेऽपि केचिदिच्छन्ति इति बृहद्वृत्तौ आचार्याः ।इदं वामनानुसारिमते वेदितव्यम् , तरच काशिकायाम् "विभाषाऽभ्यवर्वस्य" पा०६१।२६) इति सूत्रवृत्ती॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे "ण-स्वरा-" २।४।४। इति ड्यां नो रत्वे च पीवरी ॥
अथ कान्ता एकानत्रिंशत् सेटश्च६०८ वकुङ् कौटिल्ये । गतावपीत्येके' । उदित्त्वाद् ने वकते, वह्निता, वजितुम् । अचि वर्ष काष्ठम् । उणादौ “खुर-क्षुर-" (उ० ३९६) इति निपातनाद् रे वक्रम् । “तङ्कि-वफ्यकि-' (उ० 5 ६९२) इति रिः, वक्रिः पार्थास्थि ॥
६०९ मकुङ् मण्डने। उदित्त्वाद् ने मङ्कते । ममके। मिमक्षिते । “इ-डितो-'" ५।२।४४। इत्यने मनः मकना वस्त्रविशेषः । उणादौ “तृ-कृ-श-" (उ० १८७) इति अणे मऋण ऋषिः । "महेर्नलुक् वोच्चास्य" (उ० ४२४) इति उरे मुकुर आदर्शो मुकुलं च, मकुर आदर्शः कल्कः बालपुष्पं च ॥ 10. ६१० अकुङ् लक्षणे । गतावप्येके । लक्षणं चिह्नम् । उदित्त्वात् ने अङ्कते । अङ्कयते। “अनातो
नधा-" १।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनथे । "म्नां धुड्-" १।३।३९। इत्यत्रान्वित्यधिकाराद् द्वित्वे कर्तव्ये नकार एवास्ते ततो "न ब-द-नं संयोगादिः" ४।१।५। इति नो न द्विरुच्यते, अश्चिकिषते । “व्यञ्जनाद् घञ्" ५।३।१३२। इति घनि अकयतेऽस्मिन् निधाय कान्तावक्त्रं शलाकयेत्यङ्क
उत्सङ्गः । उणादौ "वाश्यसि-" (उ० ४२३) इति उरे अङ्कुरः । “घञ्युपसर्गस्य बहुलम्" ३।२।८६। 15 इति दीर्घत्वे अङ्करः । अङ्कण् लक्षणे अङ्कयति । “णिवेत्त्यास-" ५।३।१११। इत्यने अङ्कना ।
६११ शीकृङ् सेचने । गतावप्यन्ये । तालव्यादिः । शीकते। शिशीके । शीकिता। शीकितुम् । ऋदित्त्वाद् णौ डे "उपान्त्यस्यासमान–' ४।२।३५। इति हूस्वाभावे अशिशीकत् । अचि "क्तेटो-"५।३।१०६॥ इत्यप्रत्यये वा शीका । अनटि शीकनम् । उणादौ "ऋच्छि-चटि-"(उ०३९७)
इति अरे शीकरः । शीकण आमर्षणे “युजादेर्नवा" ३।४।१८। इति वा णिचि शीकयति शीकति ॥ 20 ६१२ लोकङ् दर्शने । लोकते। लुलोके । ऋदित्त्वाद् णौ डे ह्रस्वाभावे अलुलोकत् । लोकितुम् , लोक्यते । लोकः, "भावा-ऽकोंः" ५।३।१८। इति घञ् , लोकतेऽस्मिन्नवस्थितोऽनन्तज्ञानः सर्वभावानिति वा लोकः । आलोक्यतेऽनेनार्थ इत्यालोकः, "व्यञ्जनाद् घञ्" ५।३।१३२। इति पञ्। लोकण भासार्थः लोकयति । उणादौ "शम्बूक-शाम्बूक-" (उ० ६१) इति ऊके निपातनाद् ऊर्ध्व लोकनाद् उलूकः॥
१ पाणिनीयाः॥२ "खुर-क्षुर-" (उ. ३९६) इत्यत्र आदिग्रहणात् यद्वा "ऋज्यजि-तश्चि" (उ• ३८८) इत्यनेन वञ्चू गतौ इत्यस्यापि रप्रत्ययेनैव ॥ ३ "बहुलवचनात् दीर्घत्वम्"-इति हेमचन्द्रपादाः (उ. ४२३) सूत्रवृत्तौ । ४ "धनपाल-काश्यपौ अयं दन्त्यादिरिति अत एव षोपदेशलक्षणे सृपि-सृजि-स्तुस्त्या-सीकृ-सेक-सूवर्जम् इति पेठतुः । अयं पाठो न ज्यायान, शीकर इति प्रयोगाननुकूलात् , षोपदेशाः सृपिसजि-स्त्या-स्तु-स्तृ-सू-सेकृवर्जम् ।" इति कारिकाविरोधाच्च । वामनाचार्योऽपि "अज़दन्त्यपराः सादयः पोपदेशाः स्मि-स्विदि-स्वदि-स्वजि-स्वपितयश्च। सृपि-सृजि-स्तृ-स्त्या-सेक-सुवर्जम्" इति (काशिका अ.11110) पठन्नत्रैवानुकूलः इति" माधव. धा. पृ. ५५ धातुअं. ७५ तथा ८५ ।
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आत्मनेधातवः ६०८-६३३] स्वोपझं धातुपारायणम्।
६१३ श्लोकङ् सङ्घाते । सङ्घातः संहननं संहन्यमानश्च । श्लोकते । शुश्लोके। श्लोकिता।। ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः, अशुश्लोकत् । घञि श्लोक्यते-पथ्यते श्लोकः ॥
६१४ रोकङ् ६१५ धेकृङ् शब्दोत्साहे । शब्दम्योत्साह औद्धत्यम् वृद्धिश्च । नेकते, दिद्रेके, ट्रेकिता। धेकते, दिधेके, ब्रेकिता। ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः अदिद्रेकत् , अदिधेकत् । घमि उद्रेकः ॥
६१६ रेकड ६१७ शकुङ् शङ्कायाम्। शङ्का सन्देहः पूर्वस्यार्थः, यदाह-"आरेकं संशयेऽप्याहुः" [ ] । द्वितीयस्य त्रासश्च । रेकते । आरिरेके । आरेकिता। ऋदित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, आरिरेकत् । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, आरेका । घञि आरेकः ॥ शकुङ् । उदित्त्वाद् ने शकते। शक्यते। शङ्किता। "क्तेटो-" ५।३।१०६॥ इत्यः, शङ्का । उणादौ "हृषि-वृति-" (उ० ४८५) इति उले शड्डूला आयुधम् ॥
10 ६१८ ककि लौल्ये । लौल्यं गर्धश्चापलं च । ककते। इदित्त्वाद् "इ-डितः-" ३।३।२२। इत्यात्मनेपदम् । चकके, अत्राऽऽदेशादित्वाद् "अनादेशादेः-" ४।१।२४। इत्येत्वाभावः । ककिता। अचि काकः, पृषोदरादित्वादीर्घत्वम् ॥
६१९ कुकि ६२० वृकि आदाने । कोकते । चुकुके। कोकिता । "नाम्युपान्त्य-"५।११५४। इति के कुकः। घञि कोकश्चक्रवाकः । “वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति क्त्वा-सनोर्वा कित्त्वे ib कोकित्वा कुकित्वा, चुकोकिषते चुकुकिषते । “उति शवऱ्याभ्यः क्तौ भावा-ऽऽरम्भे" ४।३।२६। इति । वा कित्त्वे कुकितमस्य कोकितमस्य, प्रकुकितः प्रकोकितः । उणादौ "कल्यनि-" (उ० ४८१) इति इले कोकिलः॥ वृकि । वर्कते । ववृके । वर्किता । "नाम्युपान्त्य-" ५।१५४। इति के वृकः । “ऋदुपान्त्यात्-" ५।११४१। इति क्यपि वृक्यम् । “अहवर्णस्य" ४।२।३७ इति णौ के गुणापवादे ऋतो वा ऋत्वे अवीवृकत् अववर्कत् ॥
20 ६२१ चकि तृप्ति-प्रतीघातयोः। चकते । चेके । ते चकितः। उक्तार्थयोर्घटादित्वाद् "घटादे:--" ४।२।२४। इति णौ ह्रस्वे चकयति; जि-णम्परे तु वा दीर्घ अचाकि अचकि, चाकं चाकम् चकं चकम् ; अर्थान्तरे तु ह्रस्वाभावे चाकयति । उणादौ "चकि-रमि-विकसेरुच्चास्य" (उ० ३९३) इति रे चुक्रः अम्लो रसो बीजपूरकमिजिका असुरः निमन्त्रणं च । “कठि-चकि-" (उ० ४३३) इति ओरे चकोरः ॥
६२२ ककुङ् ६२३ श्वकुछ ६२४ बकुङ् ६२५ अकुङ् ६२६ श्लकुङ् ६२७ ढौक ६२८ नौकड ६२९ वष्कि ६३० वस्कि ६३१ मस्कि ६३२ तिकि ६३३ टिकि ६३४
१ शब्दोत्साहयोः इति केचित् ॥ २ उत्साहो वृद्धिरिति चन्द्रः। औद्धत्यमिति क्षीरस्वामी ॥३ भाद पूर्वः संशये इति माधवधातुवृत्तौ (पृ. ५५ धा. ८०) आरेकं संशयं प्राहुः इति च ॥४ "शङ्का स्यात् संशये भये" इत्यनेकार्थसंग्रहे (कां० २ श्लो. १५) हेमवचनात् अत्र त्रासार्थोऽपि प्रायः।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे टीकृ ६३५ सेकृङ् ६३६ स्रकृङ् ६३७ रघुङ् ६३८ लघु गतौ। ककुङ् । उदित्त्वाद् ने कङ्कते । चकङ्के । कङ्किता । अचि कङ्कः । उणादौ "तृ-कृ-श-" (उ०१८७) इति अणे करणः ॥
श्वकुङ् । तालव्यादिः । उदित्त्वाद् ने श्वङ्कते । शश्वके । श्वङ्किता । अचि श्वङ्कः ॥ त्रकुङ् । उदित्त्वाद ने त्रङ्कते । तत्रङ्के । त्रङ्किता ॥ श्रकुङ । उदित्त्वाद् ने श्रङ्कते श्रङ्किता ॥ श्ल5 कुङ् । उदित्त्वाद् ने श्लङ्कते । श्लङ्किता । एतौ द्वौ तालव्यादी ॥ ढौकङ् । ढौकते । ढौकिता।
ऋदित्त्वाद् उ न इस्वः, अडुढौकत् । उणादौ “शिक्या-ऽऽस्या-" (उ० ३६४) इति ये निपातनात् आढ्यः ॥ ौकङ् । त्रौकते । बौकिता । ऋदित्त्वाद् के न हूस्वः, अतुत्रौकत् ॥ प्वष्कि "षः सो-" २।३।९८। इत्यत्र वर्जनात् सत्वाभावे ष्वप्कते । षिष्वष्किषते॥ वस्कि । वस्कते ।
वस्किता ॥ मस्कि। मस्कते । मस्किता। दन्त्योपान्त्यावेतो, तेन यङ्लुपि दिवो लुकि च 10 “संयोगस्यादौ-" २।११८८। इति सस्य लुक अवावक्, अमामक् ॥ तिकि । तेकते । तेकिता ।
णौ उ अतीतिकत् ॥ टिकि। टेकते । टेकिता । अटीटिकत्। ऋदितावेतावित्यन्ये, तेन डे हस्वाभावे अतितेकत् , अटिटेकत् ॥ टीकृङ् । टीकते। टीकिता । ऋदित्त्वाद् उ हस्वाभावे अटिटीकत् । “क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः टीकतेऽस्याः स्फुटमर्थमिति टीका । ण्यन्ताद्वाऽचि टीकयति-गमयत्यर्थमिति टीका ॥ सेकङ् । सेकते । सेकिता। ऋदित्त्वाद् डे ह्रस्वाभावे षोपदेशा15 भावाच्च षत्वाभावे असिसेकत् । येषां तु षोपदेशोऽयं तन्मते कृतत्वात् सस्य षत्वे असिषेकत् ॥
रोकङ् । दन्त्यादिः । नेकते । लेकिता। ऋदित्त्वाद् डे हस्वाभावे असिनेकत् ॥ अथ घान्ता नव सेटश्च
रघुङ् । उदित्त्वाद् ने रङ्घते । रचिता ॥ लघुङ् । उदित्त्वाद् ने लङ्घते । लचिता। उणादौ "रवि-लचि-लिङ्गेर्नलुक् च” (उ०७४०) इति कित् उः, रघुः, लघुः । एतौ चुरादी भासार्थी, 20 रपयति, लङ्घयति । लडिर्भोजननिवृत्यर्थोऽपि, “नवज्वरो लङ्घनीयः" [ ] ॥
६३९ अघुङ् ६४० वघुङ् गत्याक्षेपे । गतेराक्षेपो वेग आरम्भ उपलम्भो वा । उदित्त्वाद् ने अवते । “अनातो-' ४।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनद्धे । “न ब-द-नम्-" ४।१।५। इति नस्य द्वित्वाभावे अञ्जिघिषते। उणादौ "तङ्कि-वकि-" (उ० ६९२) इति रौ अधिरित्येके॥
वघुङ् । उदित्त्वाद् ने वङ्घते । वञ्चिता । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, वङ्घा ॥ 25 ६४१ मघुङ् कैतवे च । कैतवं वञ्चना । चकाराद् गत्याक्षेपे । मङ्घते मिमचिषते । उणादौ "वन्मातरिश्वन्-" (उ० ९०२) इति अनि निपातनात् मघवा ।।
६४२ राघृङ् ६४३ लाघृङ् सामर्थ्ये । राघते राघिता। ऋदित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, अरराघत् ॥ लाङ् । लाघते । लाघिता । ऋदित्वाद् डे न हूस्वः, अललाघत् । “अनुपसर्गाः क्षीब-" ४।२।८०। इति निपातनात् क्तयोः उल्लाघः उल्लाघवान् नीरुक् ॥ । त्यस्तनीतृतीयपुरुषएकवचनस्य । २ चुरादौ भासार्थो सं१ तपा० मु० ॥ ३ उपालम्भो खे०संपा१ वा.।
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आत्मनेधातवः ६३४-६५३] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
६४४ द्राघृङ् आयासे च । चकारात् सामर्थे । आयासः कदर्थनम् । कौशिकस्त्वायामे इत्याह, दैर्घ्य विशिष्टायां क्रियायामिति च व्याख्यत् । काल्पनिके हि प्रकृतिप्रत्ययविभागे द्राघिमादयः कस्मिंश्चिद्व्याकरणे धातोरेव साधिताः । एवं नेदत्यादेर्नेदिष्ठादयोऽपि । द्राघते । द्राषिता । ऋदित्त्वाद् के न इस्वः, अदद्राघत् । किपि “ग-ड-द-बादे:-" २।१।७७। इति आदिचतुर्थत्वे प्रधाक् ॥
६४५ श्लाघृङ् कत्थने । कत्थनमुत्कर्षाख्यानम् । “श्लाघ-हनु-स्था-" २।२।६०। इति चतु- 6 या॑म् मैत्राय श्लाघते । शश्लाघे । श्लाषिता । ऋदित्त्वाद् उ न ह्रस्वः, अशश्लाघत् । "क्तेटो-'" ५।३। १०६। इत्यः, श्लाघा ।। अथ चान्तात्रयोदश सेटश्च
६४६ लोचङ् दर्शने । लोचते । ऋदित्त्वाद् डे न हूस्वः, अलुलोचत् । क्ते आलोचितम् । अनटि आलोचनम् । “तिक्कृतौ नाम्नि' ५।१।७१। इति णके लोचकः स्त्रीशिरोवस्त्रम् । लोचूण भासार्थः 10 आलोचयति । "णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इत्यने आलोचना ॥
६४७ पचि सेचने । सेचनं सेवां भजनमिति यावत् । “षः सो-" २।३।९८। इति सत्वे सचते । सेचे । षोपदेशत्वात् असीषचत् । “णि-स्तोरेवा-" २।३।३७। इति नियमात् षत्वापन्ने सनि षत्वाभावे सिसचिषते। उणादौ “पलि-सचेरिवः” (उ० ५२२) सचिवः । “कृसि-कमि-" (उ० ७७३) इति तुनि सच्यते स्नेहेनेति सक्तुः । चन्द्रस्तु षव समवाये इति वान्तमधीते, तन्मते सति ।। 15)
६४८ शचि व्यक्तायां वाचि । तालव्यादिः । शचते । शेचे । शचिता । उणादौ “पदिपठि-" (उ० ६०७) इति इः, शची ॥
६४९ कचि बन्धने । कचते । चकचे । सनि चिकचिषते । अचि "पुन्नाम्नि-'" ५।३।१३०॥ धे वा कचाः शिरःप्राग्भागकेशाः । कर्मणि घञि काचः ॥ . ६५० कचुङ् दीप्तौ च । चकाराद् बन्धने । उदित्त्वाद् ने कञ्चते। कञ्च्यते । चकञ्चे। चिक- 20 श्चिषते । अचिकश्चत् ।क्ते सेट्त्वाद् घ्यणि कत्वाभावे कञ्च्यम्। उणादौ “कञ्चुकांशुक-" (उ०५७) इति उके कञ्चुकः । “कुशिक-हृदिक-" (उ० ४५) इति इके निपातनात् काचिकम् । “विदनगगन-" (उ० २७५) इति अने निपातनात् काञ्चनं हेम । “कमि-वमि-" (उ० ६१८) इति णित् इ:, काश्चिः ॥
६५१ श्वचि ६५२ श्वचुङ् गतौ । श्वचते । शश्वचे । शिश्वचिषते । उ अशिश्वचत् ॥ 25
श्वचुछ । उदित्त्वाद् ने श्वञ्चते । श्वञ्च्यते । शश्वञ्चे । शिश्वश्चिषते । अशश्वश्चत् ॥ ६५३ वचिं दीप्तौ । वर्चते । ववर्चे । वर्चिता। क्ते सेट्त्वाद् घनि कत्वाभावे वर्चः । एवं चान्तेषु जान्तेषु च क्ते सेट्सु सर्वेषु वाच्यम् । “नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१। इति णके सुवर्तिका टङ्कणम् ।
१ आलोचितः संपा१ वा• प्र० ।। २चिषति सं। सं२ तपा०प्र० मु०॥ ३चिकचिषति संपा१ ॥ ४ सूत्रे आदिग्रहणात् सं१ टि.॥
धा.पा.११
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे उणादौ "मुरलोरल-" (उ० ४७४) इति अले सुवर्चला शाकम् । “अस्" (उ० ९५२) इति असि वर्चः अशुचि-तेजसी ॥
६५४ मचि ६५५ मुचुङ्कल्कने। करकनं दम्भः शाठ्यं कथनं च । मचते । मेचे । मचिता ॥ मुचेत्यपि चन्द्रः मोचते ॥ मुचुङ् । उदित्त्वाद् ने मुश्चते, मुञ्च्यते । मुमुश्च । मुधिता। मु6 च्लंती मोक्षणे मुञ्चति, मुच्यते ॥
६५६ मचुङ् धारणोच्छ्राय-पूजनेषु च । चकाराद् कस्कने । दीप्तावप्येके। उदित्त्वाद् ने मञ्चते । ममञ्च । मञ्चिता । णौ मञ्चयति । के अममञ्चत् । घमिक्ते सेट्त्वात् कत्वाभावे मञ्चः। णके मश्चिका । उणादौ “कञ्चुकांशुक-" (उ० ५७) इति उके मञ्चुका खटिका ॥
६५७पचुङ् व्यक्तीकरणे । उदित्त्वाद् ने पञ्चते । पपञ्च । पिपश्चिषते। अपपञ्चत्। प्रपञ्च्यते । 10 "नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१॥ इति णके पश्चिका न्यासः । घमि न्यकादित्वात् कत्वे परः ।
उणादौ "ऋ-क-मृ" (उ० ४७५) इति आले पञ्चाल ऋषिः । “उक्षि-तक्षि-" (उ० ९००) इनि पञ्च घटाः । अनुदिदनुस्वारेच्चायमित्येके पचते पक्ता । पचुण विस्तारे प्रपश्चयति । णिच्यलि
प्रपञ्चः॥ 16 ६५८ ष्टुचि प्रसादे। "षः सो-'" २।३।९८। इति सत्वे स्तोचते । तुष्टुचे । णौ स्तोचयति । उ अतुष्टुचत् । यङि तोष्टुच्यते । धनि न्यङ्कादित्वात् कत्वे स्तोकः ॥ अथ जान्ता नव सेटश्च
६५९ एजङ् ६६० भ्रेजुङ ६६१ भ्राजि दीप्तौ । एजते । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। । __इति परोक्षाया आमादेशे एजाञ्चके। एजिता । ऋदित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, मा भवानेजिजत् , अत्र 20 ओणेर्ऋदित्करणज्ञापकान्नित्यादपि द्वित्वात् प्रागेव इस्वः प्राप्त ऋदित्त्वेन निषिध्यते। "साहि-साति-"
५।१।५९। इति शे उदेजयः । “एजेः" ५।१।११८। इति खशि अनमेजयः । एज़ कम्पने इत्यस्य तु एजति ॥ भ्रेजुङ् । भेजते । बिभेजे । श्रेजिता । ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः, अबिभेजत् ॥
भ्राजि । भाजते । बभ्राजे । प्राजिता । णौ के "भाज-भास-" ४।२।३६। इति वा हस्वे अविभजत् अबभाजत् । “यज-सृज-" २।११८७) इत्यत्र राजिसहचरितस्यैव प्राजेग्रहणादस्य षत्वाभावे यज्लपि 25 बााक्ति, क्तौ प्राक्तिः, किपि विप्राक्; तस्य तु बाम्राष्टिः प्राष्टिः विनाडिति भवति । अत एव च
१ अङ्गान्येजयति इति विप्रहः। वामनस्तु एज कम्पने इति परस्मैपदिण्यन्तात् 'ख' प्रत्ययं मन्यते॥ २ अयं प्रयोगो वैयाकरणैर्न मन्यते । यदाहुः कनकप्रभसूरयः “यज-सृज-मृज-राज-भ्राज"२२११८७ इत्यादिसूत्रस्य वृत्तौ, तस्यैव च लघुन्यासे राजभ्राजोः क्तिरेव धुद इत्यस्य शहायाम् 'ननु यालबन्तयोरनयोरन्योऽपि तिवादि(ट् सम्भवति तस्कथं तिरेव धुडिति, सत्यम् , यङ्लबन्तयोरनयोर्धातुपारा: यणिकानापेव मते प्रयोग इष्यते न वैयाकरणानामिति फिरेवेत्युकम्' इति ॥ ३ दुभ्राजि दीप्ताबित्यस्य धातुअंक-८९४ ॥
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मात्मनेधातवः ६५४-६६७] स्वोपझं धातुपारायणम् । एत्व-द्वित्वाभावविकरूपोऽपि तस्यैव, भेजे बाजे । इदमेव च भ्राजेरात्मनेपदिनोऽप्युभयपदिषु राजग् टुम्राजी दीप्ताविति पाठे प्रयोजनम् । “भ्राज्यलकृग्-" ५।२।२८। इतीष्णौ भ्राजिष्णुः । “दिद्युद्दहृद्-"। ५।२।८३। इति क्विपि नभ्राक् । राजग दुभ्राजी दीप्तावित्यस्य तु ट्वित्त्वादथौ भ्राजथुः ॥
६६२ इजुङ् गतौ । उदित्त्वाद् ने इञ्जते । इलाञ्चक्रे । इजिता ॥
६६३ ईजि कुत्सने च । चकाराद् गतौ । ईजते। वीर्जते । ईजाश्चक्रे । लौकिकस्य तु वीजेर- 5 वीजयत् । राजहंसैरवीज्यन्त । अस्य तु विपूर्वस्य णौ दिवि व्यैजयत् व्यज्र त ॥
६६४ ऋजि गति-स्थाना-र्जनोजनेषु । ऊर्जनं प्राणनम् । अर्जते। "ऋत्यारुपसर्गस्य"१।२।९। इति आरि उपार्जते। "अनातो-"५।११६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनृजे । सनिटः कार्यित्वेन द्वित्वं प्रति निमित्तत्वाभावेन द्वित्वात् प्रागेव स्वरस्य विधौ गुणे सति "अयि रः"४।१।६। इति रेफस्य द्वित्वाभावे "स्वरादेर्द्वितीयः" ४।१।४। इति जेरेव द्वित्वम् अर्जिजिषते । णौ अर्जयति । “ऋदुपान्त्यात्-" 10 ५।१॥४१॥ इति क्यपि ऋज्यम् । घञि उद्गादित्वात् गत्वे अर्गः स्थानम् , शोभनोऽर्गः स्वर्गः । उणादौ "ऋच्यूजि-" (उ० ४८) इति किति ईके ऋजीकं वजं बलं च । "ऋजि-श-" (उ० ५५४) इति किति ईषे ऋजीषः अवस्करः। ऋजीषं धनमुपहतं च । उद्रिक्तादिसिद्धयर्थ व्यञ्जनादिमेनमन्ये मन्यन्ते ॥
६६५ ऋजुङ् ६६६ भृजैङ् भर्जने । भर्जनं पाकप्रकारः । उदित्त्वाद् ने ऋञ्जते। "अ- 16 नातो-" ४।१।६९। इत्यात्वे ने च आनृङ्गे । "ऋत्यारुपसर्गस्य" १।२।९। इत्यारि उपाञ्जते। ऋञ्जिता ॥ भृजैङ् । भर्जते । बभृजे । "ऋवर्णस्य" ४।२।३७। इत्य॒तो वा ऋत्वे णौ डे अबीभृजत् अबभर्जत् । सनि बिभर्जिषते । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , भृक्तः भृक्तवान् । क्तेऽनिट्त्वात् घञि गत्वे भर्गो रुद्रः । "ऋदुपान्त्यात्-" ५।१।४१। इति क्यपि भृज्यम् । उणादौ "कृषि-चमि-" (उ० ८२९) इति ऊः, भजूः, अभ्योषः ॥
20 ६६७ तिजि क्षमा-निशानयोः। निशानं तीक्ष्णीकरणम् । “गुप्तिजो-" ३।४।५। इति सनि 'तितिक्षते कोपम् । क्षान्तौ सन्विधानात् तेजने प्रत्येयान्तरम् । णौ तेजयति । “करणाधारे"
१ वीज्यते वा० सं१ ॥ २ "न्यवृद्गमेघादयः” ४१।११२। ॥ ३ 'अभ्योषः अर्धरिवन्नयवादेघृतादिना भर्जितयवादेर्वा घृतपक्वान्नस्य 'पोळी' इत्यादिप्रसिद्धस्य" इति अमरटीकाकारः अमर० वैश्यवर्ग, कांड २ श्लो ४७।४ सहते इत्यर्थः ।। ५ तेन तेजनम् तेजयति इत्यादि । त्यादिसमानार्थत्वात् शत्रानशावपि न, 'अर्थान्तरेऽपि त्यादयो नाभिधीयन्ते' इति वचनात्। केचित् शत्रानशाविच्छन्ति, तेन गोपमान तेजमानं केतन्तं प्रयुङ्क्ते इत्यपि भवति । "गुप्तिजो गर्हा-क्षान्तौ सन्" ३।४।५। इति सूत्रवृत्तौ प्रायेण इति भणनात् गोपते तेजते केतति वधते इत्यद्यपि, अत एव रसवाचकतिक्तशब्दसाधनाय तेजते इति वाक्यं कृतं क्षीरस्वामिना-" इति ३४५ सूत्रलघुन्यासे कनकप्रभसूरिः । “अयं पक्षो नन्दि-मैत्रेययोरपि सम्मतः, हर. दत्तस्तु नानुमन्यत एतद्, तथाच तद्वचः-'गुप गोपने इत्यस्य सन्विधौ ग्रहणं तस्माच्च नित्यः सन्नेव भवति नापरः प्रत्ययः । गोपायतीत्यादि कस्तु प्रयोगो गुल रक्षणे इत्यस्य स चान्य एव, अवश्यं चैतदेवं विजेयम् ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ५।३।१२९। अनटि तेजनम् तेजनी । उणादौ "भ्रूण-तृण-" (उ० १८६) इति निपातनात् तीक्ष्णः । "तिजि-युजेर्ग च" (उ० ३४५) इति किति मे तिग्मम् । “अस्” (उ० ९५२) इत्यसि तेजः । तिजण निशाने उत्तेजयति ॥ अथ टान्ताः सप्त सेटश्च
६६८ घट्टि चलने । घट्टते । जघट्टे। घट्टिता । अचि अरघट्टः । घनि घट्टः । णके उद्धट्टकः । "णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इत्यने घट्टना । घट्टण चलने घट्टयति ।।
६६९ स्फुटि विकसने । स्फोटते । “अघोषे शिटः" ४।१।४५। इति पूर्वस्य सस्य लोपे पुस्फुटे। स्फोटिता। "वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति क्त्वा-सनोर्वा कित्त्वे स्फुटित्वा स्फोटित्वा,
पुस्फुटिषते पुस्फोटिषते । “नाम्युपान्त्य-" ५।१५४। इति के स्फुटः। घञि स्फोटः । डान्तोऽयमुदि10 चेत्येके, स्फुण्डते स्फुण्डिता । स्फट स्फुट्ट विशरणे स्फोटति । ऋदित्त्वात् अङि अस्फुटत् । स्फुटत् विकसने स्फुटति ॥
६७० चेष्टि चेष्टायाम् । चेष्टा ईहा । चेष्टते । चिचेष्टे । णौ के "वा वेष्ट-चेष्टः" ४११६६। इति पूर्वस्य वा अत्वे अचचेष्टत् अचिचेष्टत् । क्ते चेष्टितम् । “क्तेटो-" ५।३।१०६॥ इत्यः, चेष्टा ॥
६७१ गोष्टि ६७२ लोष्टि सङ्घाते । गोष्टते । जुगोष्टे । गोष्टिता॥ लोष्टते । लोष्टिता। 15 कर्मणि घञि लोष्टः । उणादौ "भृ मृ-तृ-त्सरि-" (उ० ७१६) इति उः, लोप्टुर्मुत्पिण्डः ॥
६७३ वेष्टि वेष्टने । वेष्टनं ग्रन्थनम् लोटनम् परिहाणिश्च । वेष्टते विवेष्टे वेष्टिता। णौ के "वा वेष्ट-" ४।१।६६। इति पूर्वस्य वा अत्वे अववेष्टत् अविवेष्टत् । यङि वेवेष्टयते । यङ्लुपि वेवेष्टीति, "धुटो धुटि स्वे वा” १।३।४८। इति टलुकि वेवेष्टि। हौ "हु-धुटो-" ४।२।८३॥ इति हेर्धित्वे
"तवर्गस्य-" १।३।६०। इति धस्य ढत्वे "धुटो धुटि-" १॥३॥४८॥ इति टस्य लुकि "तृतीयस्तृ20 तीय-" १।३।४९। इति षस्य डत्वे वेवेड्डि । अचि प्रवेष्टो बाहुः । “नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१॥ इति णके वेष्टकः, कर्णवेष्टकः ॥
६७४ अट्टि हिंसा-ऽतिक्रमयोः । अतिक्रम उल्लङ्घनम् । दोपान्त्योऽयम् । “तवर्गस्य-" १।३।६०। इति डत्वं न कृतमसन्देहार्थम् । “तवर्गस्य-" १।३।६०। इति दस्य डत्वे "अघोषे
प्रथमो-" १।३।५० इति टत्वे च अट्टते । “अनातो-' ४।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनट्टे । 25 दोपान्त्यत्वात् सनीटि "न ब-द-नम्-" ४।१।५। इति दस्य निषेधात् "स्वरादेः-" ४।१।४। इति द्वितीयांशस्य टेरेव द्विरुक्तौ “तवर्गस्य-" १।३।६०। इति डत्वे "अघोषे-" १३१५०। इति टते च अष्टिटिषते । अचि पनि वा अट्टः । विपि अद् अत् । तोपान्त्योऽयमित्येके, तेषां सनीटि अतिट्टिषते । येषां तु तान्तष्टोपान्त्यश्चायं सेषां थीति द्वित्वे अटिट्टिषते ॥ अन्य एव सन्प्रकृतिस्तस्माच्च सन्नेव भवतीति, अन्यथा निन्दाया अन्यत्र यथा णिच भवति तथा लडादिरपि स्यात्"-माध० धातु. पृ. १८८ धातुअं. ९५१-५४ । अत्रार्थे विशेषार्थिना पदमजरी विलोकनीयेति ।
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आत्मनेधातवः ६६८-६८५] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
अथ ठान्ताः सप्त सेटश्च
६७५ 'एठि ६७६ हेठि विवाधायाम् । एठते । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८॥ इति परोक्षाया आमि एठाञ्चक्रे । एठिता । "स्वरादे:-" ४।१।४। इति द्वित्वे एटिठिषते ॥ हेठि । हेठते। जिहेठे। हेठिता । णौ "णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इत्यने विहेठना शाठ्यम् ॥
६७७ मठुङ् ६७८ कठुङ् शोके । शोकः अत्र आध्यानम् । उदित्त्वाद ने मण्ठते ममण्ठे। 5 मण्ठिता ॥ कठुङ् । उदित्त्वाद् ने कण्ठते उत्कण्ठते उत्कण्ठ्यते उच्चकण्ठे । घञि उत्कण्ठः। ते उत्कण्ठितः । क्ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६ इत्यः, उत्कण्ठा। उणादौ "हृषि-वृति-" (उ० ४८५) इति उले उत्कण्ठुलः । कठुण् शोके "युजादेर्नवा-” ३।४।१८। इति वा णिचि उत्कण्ठयति उत्कण्ठति ॥ ६७९ मुठुङ् पलायने । उदित्त्वाद् ने मुण्ठते । मुमुण्ठे । मुण्ठिता ॥
10 ६८० वठुङ् एकचर्यायाम् । एकस्यासहायस्य चर्या गतिस्तस्याम् । उदित्त्वाद् ने वण्ठते। ववण्ठे । वण्ठिता । अचि वण्ठः ॥
६८१ अठुङ् ६८२ पडुङ् गतौ। उदित्त्वाद् ने अण्ठते । “अनातो-" ४।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनण्ठे। अण्ठिता ॥
अथ डान्तात्रयोविंशतिः सेटश्च
पडुङ् । उदित्त्वाद् ने पण्डते पपण्डे । गत्यर्थत्वात् कर्तरि ते पण्डितः । अचि पण्डः ।क्ते सेटत्वात् "क्तटो" ५।३।१०६। इत्यः, पण्डा । उणादौ “जठर-क्रकर-" (उ० ४०३) इति अरे निपातनात् पाण्डरः। पाण्डुरिति तु "पनेर्दीर्घश्च" (उ० ७६६) इति डौ पैनतेः । मेध्वादित्वात् - रे तु पाण्डुरः॥
६८३ हुर्डङ ६८४ पिडुङ् सङ्घाते । उदित्वाद् ने हुण्डते । जुहुण्डे। हुण्डिता। अचि हुण्डं सम- 20 न्ततो विषम देहसंस्थानम् नामकर्मभेदानां पग्णां संस्थानानामन्त्यस्य विपाको नरकभवनियतः । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, हुण्डा । "नाग्नि पुंसि च" ५।३।१२१॥ इति णके हुण्डिका । उणादौ "किलि-पिलि-" (उ० ६०९) इति इः, हुण्डिः पिण्डित ओदनः॥ पिडुङ् । उदित्वाद् ने पिण्डते। पिण्डयते। पिपिण्डे। पिण्डिता। घत्रि पिण्डः; स्त्रियां गौरादित्वाद् डीः, पिण्डी। उणादौ "किलिपिलि-" (उ० ६०८) इति इः, पिण्डिर्निष्पीलितलेहः पिण्डः । पिडुण सङ्घाते पिण्डयति ॥ 26
६८५ शडुङ् रुजायां च । चकारात् सङ्घाते । तालव्यादिः । उदित्त्वाद् ने शण्डते । शशण्डे । १ “विपूर्वोऽयमिति स्वामि-काश्यपौ"-माधव० धा० पृ. ७४ धातुअं० २६४ ॥२ विवाधनं शाठयम्माधव० धा० पूर्ववत् ॥३ पालने इति माधवधातुवृत्तौ पृ. ७३ धातुअं० २६२ ॥ ४ पनि स्तुती इत्यस्य ॥ ५ "मध्वादिभ्योः " ७।२।२६। इति सूत्रेण ॥ ६ “अत्र काश्यपः-आर्यास्तु न पठन्ति द्रविडास्तु पठन्तीति । भाष्यादौ तु 'हुण्डा' इति 'अविगीतम्' उदाद्धियते"-माधव० धा० पृ. ७४ धातुअंक २६६॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे शण्डिता । अचि शण्ड उत्सृष्टपशुक्रषिश्च । षण्ड इति तु सनेतेरौणादिके डे बाहुलकात् षत्वम् ।।
६८६ तडुङ् ताडने । उदित्त्वाद् ने तण्डते। ततण्डे । तण्डिता । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, वितण्डा । उणादौ "हृषि-वृति-" (उ० ४८५) इति उले तण्डुलः । तण्डुरिति तु तनोताडौं ।
तण्डुना प्रोक्तमित्यणि ताण्डवम् ॥ 5 ६८७ कडुङ् मदे । उदित्त्वाद् ने कण्डते । कण्डिता । अचि कण्डम् । उणादौ "जठर-क्रकर-"
(उ० ४०३) इति अरे कण्डरी स्नायुसङ्घातः। “कटि-पटि-" (उ० ४९३) इति ओले कण्डोलो विदलभाजनविशेषः । कण्डुरिति तु कणेर्डी । कडुण खण्डने च कण्डयति ॥ .
६८८ खडुङ् मन्थे । उदित्त्वाद् ने खण्डते । चखण्डे । खण्डिता। घनि खण्डः । खडण मेदे खण्डयति ॥ 10 ६८९ खुडुङ् गतिवकल्ये । उदित्त्वाद् ने खुण्डते । चुखुण्डे । खुण्डिता । चुरादेराकृतिगणत्वात् खुडण् खण्डने खुण्डयति ॥
६९० कुडुङ् दाहे । उदित्त्वाद् ने कुण्डते। चुकुण्डे । कुण्डिता । आधारे "व्यञ्जनाद्-" ५।३। १३२॥ इति घनि कुण्डम् । स्त्रियां "भाज-गोण-" २।४।३०। इति ड्याम् कुण्डी अमत्रम् ।
"क्तटो-" ५।३।१०६। इस्यः, कुण्डा । उणादौ "मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले कुण्डलम् । 1b कुडुण रक्षणे कुण्डयति ।।
६९१ वडुङ् ६९२ मडुङ् वेष्टने । विभाजनेऽप्यन्ये । विभाजनं विभागीकरणं चर्माभावश्च । उदित्त्वाद् ने वण्डते । ववण्डे । वण्डिता । अचि घञि वा वण्डः॥ मडुङ् । उदित्त्वाद् ने मण्डते। ममण्डे । मण्डिता। अचि घञि वा मण्डो रसायम् । णके मण्डकः । उणादौ "मृ-मन्यञ्जि-" (उ० .
५८) इति ऊके मण्डूकः । “मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले मण्डलम् , स्त्रियां गौरादि- . 20 त्वाद् ड्याम् मण्डली । “मी-मसि-" (उ० ४२७) इति ऊरे मण्डूरं लोहमलम् । “हृषि-पुषि-" (उ० ७९७) इति ण्यन्तात् इत्नौ मण्डयित्नुः । मडु भूषायाम् मण्डति । मडण् भूषायाम् मण्डयति ॥
६९३ मड्डङ् परिभाषणे । उदित्त्वाद् ने भण्डते । बभण्डे । अचि भण्डः । भाडमिति तु भामर्डः । मडुङ् कल्याणे भण्डयति । "णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इत्यने भण्डना ॥ 25. ६९४ मुडुङ् मजने । मज्जनं शोधनम् न्यग्भावश्च । उदित्त्वाद् ने मुण्डते । मुमुण्डे । मुण्डिता । घत्रि मुण्डः । मुडु खण्डने च मुण्डति ।।
१ षन् भक्ती इत्यस्मात् "पञ्चमाद् डः" (उ० १६८) इति डप्रत्ययः बाहुलकात् सत्वाभावश्च ॥ २ तनूयी विस्तारे इत्यस्य "तनि-मनि-कणिभ्यो दुः" (उ० ७६५) इति डौ॥ ३ सूत्रे आदिग्रहणात् ॥ ४ कण शब्दे इत्यस्य "तनि-मनि-कणिभ्यो दुः” (उ० ७६५) इति हुप्रत्यये ।। ५ "वडि विभाजने, मडि वेष्टने इति नन्दी पठति"-माधक धा० पृ० ७४ धातुअं० २६९ ॥ ६ भामि क्रोधे इत्यस्य "पश्चमाद डः" (उ. १५८) इति डप्रत्यये।
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आत्मनेधातवः ६८६-७०४] स्वोपझं धातुपारायणम् ।
६९५ तुडुङ् तोडने । तोडनं हिंसा । उदित्त्वाद् ने तुण्डते। तुतुण्डे । तुण्डिता । तुण्ड्यते । अचि पनि वा तुण्डम् । उणादौ "किलि-पिलि-" (उ० ६०८) इति इः, तुण्डिः प्रवृद्धा नामिः॥
६९६ झुडुङ् वरणे । वैरणं स्वीकरणम् । उदित्त्वाद् ने भुण्डते । बुभुण्डे । भुण्डिता । अचि भुण्डो धृष्टः ॥
६९७ चडुङ् कोपे । उदित्त्वाद् ने चण्डते । चचण्डे । चण्डिता । अचि चण्डः, स्त्रियां शोणादित्वाद् वा ड्याम् चण्डी चण्डा । उणादौ "ऋ-कृ-मृ-" (उ० ४७५) इति आले चण्डालः । चड्डुङ् कोपे चण्डयति॥
६९८ द्राङ् ६९९ धाडङ् विशरणे । द्राडते । दद्राडे । दाडिता ॥ धाडुङ् । धाडते । दधाडे । धाडिता । ऋदित्त्वाद् उ न ह्रस्वः, अदद्राडत् । अदधाडत् ॥
७०० शाइङ् श्लाघायाम् । तालव्यादिः । शाडते । शशाडे । ऋफिडादित्वाइस्य लत्वे शालते । ऋदित्वाद् के न इस्वः, अशशाडत् । अचि शाला । “अजाते:-" ५।१।१५४। इति णिनि गुणशाली । शालिरिति तु शैलेरौणादिके णौ रूपम् । शालूकमित्यपि शलतेणूके ॥
७०१ वाड्रङ् आप्लाव्ये । आप्लान्यमाप्लावनम् । वाडते । ववाडे । वाडिता । ऋदित्त्वाद् हे न इस्वः, अववाडत् । अचि ऋफिडादित्वाद् डस्य लत्वे वालः । वडवेति तु वैडेः सौत्रस्य अवे
रूपम् ॥
७०२ हेड्रङ् ७०३ होइङ् अनादरे। हेडते । जिहेडे । हेडिता । ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः, अजिहेडत् । घभि हेडः, "हेड-प्रसादौ प्रभोः" [ ]ते सेट्त्वात् "क्तटो-" ५।३।१०६। इति अः, ऋफिडादित्वाच लः, हेला । घटादौ हेड वेष्टने हेडति । णौ हस्वे हिडयति ॥ होडण । होडते । जुहोडे । होडिता । ऋदित्त्वाद् न इस्वः, अजुहोडत् । “क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, होडा । अचि होडः ॥ . ७०४ हिडङ्गतौ च । चकारादनादरे । उदित्त्वाद् ने हिण्डते। जिहिण्डे । हिण्डिता । यति जेहिण्डयते । यङ्लुपि जेहिण्डीति, "तवर्गस्य-" १।३।६०। इति तस्य टत्वे "धुटो धुटि-" १॥ ३॥४८॥ इति धुटो लुकि जेहिण्टि । "इडितो-" ५।२।४४। इति अने हिण्डनः । गत्यर्थत्वात् कर्तरि के हिण्डितः । उणादौ "किलि-पिलि-" (उ० ६०८) इति इः, हिण्डिः रात्रौ रक्षाचारः ॥
१हुडि धरणे इति माधव० धा० पृ. ७४ धातुअं० २७४ । २ हरणमिति मैत्रेयः-माधव० पा० पृ. धातुअं• २७४ ॥ ३ गौरीवाचकश्चण्डीशब्दो नात्र द्रष्टव्यः किन्तु कोपनावाचकः। गौरीवाचकस्य तु “गौरादिभ्यो मुख्यान् ः" २४४८९। इति नित्यं डीः। अत्र तु “नवा शोणादेः" ॥४॥३॥ इत्यनेन ॥ ४ ऋफिडादीनां डश्च ल:" ।२३।१०४॥ ५ शल गतौ इत्यस्मात् “कमि-चमि-जमि-घसिशलि-फलि-" (उ० ६१८) इति णिः, शालिः व्रीहिराजः ॥ ६ शल्यणेणित् (उ० ५९) इत्यनेन शल गती इत्यस्य णिति ऊके शालूकं जलकन्दो बलवाच॥ ७ वड आग्रहणे इत्यस्य "वडि-बटि-पेलचणि-पणि (उ. ५१५) इति अवे वडवा भवा।।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे अथ णान्ताः पद सेटश्च
७०५ घिणुङ् ७०६ घुणुङ् ७०७ पृणुङ्ग्रहणे । उदित्त्वाद् ने पिण्णते जिघिण्णे। घिण्णिता ॥ घुण्णते। जुघुष्णे । घुण्णिता ॥ घृण्णते । जघृष्णे । घृणिता । यङि जरीघृण्ण्यते। वनि "वन्याङ् पञ्चमस्य” ४।२।६५। इत्यत्र पञ्चमस्येति जातिपरिग्रहाद् णद्वयस्याप्याङादेशे आङो ङित्वाद् गुणाभावाद् यत्वे सुध्यावा; व्यक्तिपरिग्रहे त्वन्त्यस्यैव आत्वे सुधिनावा । एवं शेषयोरपि । किपि "पदस्य" २।१।८९। इति संयोगान्तलोपे सुधिन्नित्यादि ॥
७०८ धुणि ७०९ घूर्णि भ्रमणे । घोणते जुघुणे घोणिता । लिहायचि घोणा। "नाम्युपान्त्य" ५।११५४। इति के घुणः । वनि "वन्याङ् पञ्चमस्य" ४।२।६५। इति आङादेशे ङित्त्वाद्गुणाभावे वावा॥
घृणि । घूर्णते। जुघूर्णे । घूर्णिता । वनि आङेि घूरावा । घुण घूर्णत् भ्रमणे घुणति । घूर्णति ॥ ७१० पणि व्यवहार-स्तुत्योः । “गुपौ-धूप-" ३।४।१। इति आये पणायति । आयान्तस्येङित्त्वाभावात् “शेषात्परस्मै" ३।३।१००। इति परस्मैपदम् । “विनिमेय-द्यूतपणम्-'' २।२।१६। इति कर्मणो वा कर्मत्वे "शेषे” २।२।८१। इति षष्ठयाम् शतस्य पणायति । स्वार्थिकप्रत्ययान्तस्य प्रकृतिवद् ग्रहणात् पणिरेवायम् ।'ये तु स्तुत्यर्थादेव पणेरायमिच्छन्ति तन्मते व्यवहारार्थात् शवि अपि आया. भावे शतस्य पणते । “अशवि ते वा” ३।४।४। इति वा आये पणायाञ्चकार पेणे, पणायिता पणिता । " न चोपलेभे वणिजां पणायाः " [भट्टिकाव्ये स० ३ श्लो० २७]अत्र "शंसिप्रत्ययात्"५।३।१०५। इति अः । “वर्योपसर्या-" ५।१।३२। इति निपातनाद ये पण्यं विक्रेयम् ; अन्यत्र व्यणि पाण्यः साधुः । “पणेर्माने" ५।३।३२। इति घञपवादे अलि शाकपणः । “गोचर-सञ्चर-'" ५।३।१३१। इत्याधारे च घञपवादे घे एत्य तत्र पणायन्तीति आपणः । उणादौ "आङः पणि-'' (उ० ३९)
१ जयादित्यप्रभृतयः इति. लघुन्यासकारः ३॥४॥ सूत्रन्यासे । तथा च ३।१।२८। सूत्रे काशि. कायाम्-'स्तुत्यर्थेन पनिना साहचर्यात् तदर्थः पणिः प्रत्ययमुत्पादयति न व्यवहारार्थः' इति । 'पणेः स्तुतावेव आयप्रत्ययः' इति च मिताक्षरा-माधव. धा. पृ. ८९ धातुअं० ४३५ । तरङ्गिणीकारोऽपि मिताक्षरामनुसरति ।। २ भट्टिकाव्ये "न चोपलेमे वणिजां पणाऽऽयान्" इति पाठो लभ्यते। भट्टिकाव्यटीकाकारः श्रीजयमङ्गलसूरिः "पणाऽऽयान्' पदं व्याचक्षाणः पणानाम् अया:-लाभाः-तान् पणाऽऽयान्-व्यवहारलाभान् इत्येवं निरूपयति। ततस्तन्मते 'पणाऽऽयान्' पदे नास्ति "गुपौ-धूप-" ३४.१। इति सूत्रेण विहितः आय-प्रत्ययः । अतः माधवीयधातुवृत्तौ (पृ. ८९ धातुअंक ४३५) प्रस्तुतपद्यगतं 'पणाऽऽयान्' पदम् आय-प्रत्ययान्तं मन्यमानेन श्रीतरङ्गिणीकारेण या भट्रिकवेः भ्रान्तता निरूपिता सा निराधारा । अथ च टीकाकारः श्रीजयमङ्गलः 'पणायाम्' इतिरूपं अन्य पाठं निर्दिशति स्तुतिरूपं च तदर्थ निबध्नाति ततोऽपि तरङ्गिणीकारस्य आक्षेपः विफलः । यदि 'पणायाम्' पदस्य केनापि व्यवहाररूपः अर्थः निर्दिष्टो भवेत् तदा स्तुत्यर्थादेव आयप्रत्ययं मन्वानस्य मते 'पणा याम्' पदम् अपपदं भवेत् । न चात्र तथा । 'वणिजां प्रलापान' इति तृतीयोऽपि पाठः श्रीजयमालेन निरदेशि । हेमचन्द्रस्तु 'पणाया' इति आयप्रययान्तमखण्डं पदं मन्यते तस्य च द्वितीयाबहुवचनमेतत् 'पणायाः' इति ।
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८९
आत्मनेधातवः ७०५-७१६] स्वोपझं धातुपारायणम् । इति इके आपणिकः पत्तनवासी । “प्राङः पणि-" (उ० ४२) इति इके प्रापणिको वणिक् । "कमि-वमि-" (उ० ६१८) इति णित् इः, पाणिः। “भृ-पणिभ्यामिज भुर-वणौ च" (उ० ८७५) वणिक् । प्रज्ञाद्यणि वाणिजः ॥
अथ तान्तास्त्रयः सेटश्च७११ यतैङ् प्रयत्ने । यतते । येते । यतिता। ऐदित्त्वात् क्तयोनेंट् , यत्तः आयत्तः यत्तवान् । । "यजि-स्वपि-" ५।३।८५। इति ने यत्नः । उणादौ “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, यतिः । “यति-ननन्दिभ्यां दीर्घश्च" (उ० ८५६) इति ऋः, याता देवरभार्या । "तृ-स्वस-" १।४।३८। इत्यत्र तुः सार्थकस्य ग्रहणात् आर्-अभावे यातरौ । यतण निकार-उपस्कारयोः यातयति ॥ ___७१२ युतृङ् ७१३ जुतृङ् भासने। योतते । युयुते । योतिता। ऋदित्वाद् उ न हूस्वः, अयुयोतत् ॥ जुतृङ् । जोतते । जुजुते । जोतिता । ऋदित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, अजुजोतत् । जुत् 10 भासने जोतति; ऋदित्त्वाद् वाऽङि अजुतत् अजोतीत् । कौशिकस्तु 'ज्योतिः' सिद्धये जुतिस्थाने ज्युतिमधीते, तदसत् , “ द्युतेरादेश्च जः” (उ० ९९१) इति सिद्धत्वात् ॥ ___ अथ थान्ताः षद् सेटश्च
७१४ विशृङ् ७१५ वेशृङ् याचने । वेथते । विविथे। विथितः । ऋदित्त्वाद् के न हूस्वः, अविवेथत् ॥ वेशृङ । वेथते। विवेथे। वेथितः । ऋदित्त्वाद् डे न हूस्वः, अविवेथत् । कौशिकस्तु lo 'विथुर'सिद्धये यातने इत्याह, तन्न, व्यथेरेव "श्वशुर-" (उ० ४२६) इति उरे निपातनात् सिद्धेः ॥
७१६ नाङ् उपताप-ऐश्वर्य-आशीषु च । चकारात् याचने। उपताप उपघातः । अत्र याच्याउपतापौ क्रियात्वात् अर्थो,ऐश्वर्य-आशिषौ तु धर्ममात्रत्वाद् द्योत्ये । यद्वा गण्डति, श्वेतते प्रासादः, घण्टा ध्वनति, संयुज्यते, अस्ति, समवैति' इति द्रव्य-गुण-संयोग-सत्ता-समवायानामिव सिद्धानामप्याख्यातवाच्यत्वेन साध्यतया प्रतीतेरनयोरर्थत्वमप्यस्तु । यदाह-"पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेनाचष्टे" । [ ] 20 सर्पिषो नाथते सर्पिथिते, सर्पिमें भूयादित्याशास्ते, "नाथः” २।२।१०। इति कर्मणो वाऽकर्मत्वे "शेषे” २।२।८१॥ इति षष्ठी । "आशिषि नाथः" ३॥३॥३६॥ इत्याशिष्येवात्मनेपदनियमादर्थान्तरे परस्मैपदमेव, रिपुं नाथति–उपतपति । स्वामी नाथति-ईष्टे, नृपं नाथति-याचते, एष्वात्मनेपदाभावात् "नाथः" २।२।१०। इति कर्मणो वा अकर्मत्वाभावे "कर्मणि" २।२।४०। इति द्वितीयैव । कथम्
"एतन्मन्दविपक्कतिन्दुकफलश्यामोदरापाण्डुरप्रान्तं हन्त ! पुलिन्दसुन्दरकरस्पर्शक्षमं लक्ष्यते। 25 तत् पल्लीपतिपुत्रि ! कुञ्जरकुलं जीवाभयाभ्यर्थनाद्दीनं त्वामनुनाथते कुचयुगं पत्रांशुकैर्मा पिधाः"!
[काव्यप्रकाशे उल्लास ७ श्लो० १४२ पृ० २६९ पूना] अपपाठ एषः, "अनुनाथति स्तनयुगं पत्रांशुकैर्मा पिधाः" इति त्वभियुक्तः । येषां चानुपसर्गस्य १ "उपतापो रोगः इति वृत्तौ । उपधात इति तरङ्गिण्याम्" इति माधव० धा• पृ० ३७ धातु मं.६ ॥२ त्वामुपनायते संी सं२ तपा० ॥
छा.पा. १३
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादिगणे नियमस्तन्मते सोपसर्गस्यार्थान्तरेऽप्यात्मनेपदं न विरुध्यते । अणोपदेशश्वायम् । यदाह--"सर्वे नादयो णोपदेशा नृति-नन्दि-नर्दि-नक्कि नाटि-न-ना-नाथूवर्जम्" इति, तेन “अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वाभावे प्रनाथते । अचि नाथः । “इ-डितो-'" ५।२।१४। इत्यने नाथनः ॥
७१७ श्रथुङ शैथिल्ये । तालव्यादिः । शैथिल्यम् अगाढता। उदित्वाद ने श्रन्थते । श्रन्थ्यते। 5 श्रन्थिता । शश्रन्थे, अत्र “वा श्रन्थ-ग्रन्थो नलुक् च"४।१।२७। इत्यत्रौपदेशिकस्य श्रन्थो ग्रहणाद् वा
एत्व-नलुको न भवतः; अन्ये त्वत्रापीच्छन्ति । “दशनाऽवोदधौद्म-" ४।२।५४। इति पनि निपातनात् प्रश्रथः हिमश्रथः । “णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इति अने श्रन्थना । उणादौ "श्रन्थेः शिथ् च" (उ० ४१४) इति इरे शिथिरम्, लत्वे शिथिलम् ॥
__७१८ ग्रथुङ कौटिल्ये । कौटिल्यं कुसृतिर्बन्धश्च । उदित्त्वाद ने ग्रन्थते । जग्रन्थे । ग्रन्थिता। 10 "णि-वेत्ति-" ५।३।१११। इति अने ग्रन्थनेत्येके। श्रन्थश् मोचन-प्रतिहर्षयोः, ग्रन्थश्
सन्दर्भ, श्रथ्नाति अथ्यते, अध्नाति प्रथ्यते। “वा श्रन्थ-ग्रन्थो नलुक् च” ४।१।२७। इति वा एत्वे नलुकि च श्रेयतुः शश्रन्थतुः, प्रेथतुः जग्रन्थतुः । श्रन्थ ग्रन्थण सन्दर्भ, "युजादेर्नवा" ३।४।१८। इति वा णिचि श्रन्थयति श्रन्धति । ग्रन्थयति ग्रन्थति । श्रेषतुः शश्रन्थतुः, प्रेथतुः जन
न्यतुः । “एकधातौ-" ३।४।८६। इत्यात्मनेपदे "भूषार्थ-" ३।४।९३। इति नि-क्ययोरभावे च 15 कर्मकर्तरि त्रयाणामपि श्रन्थते श्रथ्नीते अश्रन्थिष्ट वा स्वयमेव, एवं ग्रन्थते अध्नीते अग्रन्धिष्ट । उणादौ “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, श्रन्थिन्थिश्च पर्वसन्ध्यादिः ॥
७१९ कत्थि श्लाघायाम् । श्लाघा गुणारोपः । कत्थते । चकत्थे । कत्थित्वा । "इ-डितो-" ५।२।४४। इति अने कत्थनः । “वेर्विच-'" ५।२१५९। इति घिनणि विकत्थी। "न णिङ्-य-"
५।२।४५। इत्यत्र दीपिग्रहणेन ताच्छीलिकेष्वप्युत्सर्गसमावेशस्य ज्ञापनादने विकत्थनः ॥ 20 अथ दान्ता एकविंशतिहदिवर्जा सेटश्च
७२० विदुङ् श्वैत्ये । श्वैत्यं श्वेतगुणक्रिया । उदित्त्वाद् ने श्विन्दते; कोऽर्थः ? यदि सकर्मकस्तदा श्वेतीकरोतीति, अथाकर्मकस्तदा श्वेतीभवतीति; श्वेतगुणः सिद्धोऽप्याख्यातेन साध्यैकरूप उच्यते, कृतानुसाध्योऽपि सिद्धतया पाकादिवत् शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् । क्ये श्विन्धते । ते श्विन्दितः।।
७२१ वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः । स्तुतिगुणैः प्रशंसा। अभिवादनं पादयोः प्रणिपातः। उदि26 त्वाद् ने वन्दते, देवान् स्तौतीत्यर्थः । ववन्दे गुरून् , अभिवादितवानित्यर्थः । वन्दिता ।अचि वन्दी हठाकृष्टा स्त्री। ग्रहादित्वाद् णिनि वन्दी मङ्खः । “श-वन्देरारुः" ५।२।३५/ वन्दनशीलो वन्दारुः
१ आचार्यहेमचन्द्रस्तु-"नृति-नन्दि-नर्वि-नशि-नाटि-नकि-नाम-ना-नवर्जम्" इत्येवं (२।३।९७ सूत्रवृत्तौ) उल्लिखन् अत्र नव धातून गणयति । अत्र विषये विविधमतानि जिज्ञासुना मा. धा० पृ. ३७ धातुअंक ६-७ विवरणं विज्ञेयम् ।
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आत्मनेधातवः ७१७-७२६]
स्वोपज्ञं धातुपारायणम् ।
९१
कामवृक्षश्च । “न णिङ्-य-" ५/२/४५ । इत्यत्र दीपिग्रहणादरूपे अने वन्दनः । “णि - वेत्ति - " ५।३।१११। इति अने वन्दना । उणादौ “पदि पठि -" ( उ० ६०७ ) इति इ:, वन्दिहणिः ॥
७२२ भदुङ् सुख-कल्याणयोः । सुखं सद्वेयकमोंदयाच्छुभानुभवनम् । कल्याणं श्रेयः । प्रीतावप्यन्ये । प्रीतिर्मोहनीयविपाकः । उदित्त्वाद् ने भन्दते । बभन्दे । भन्दिता । “इ- ङितो - " ५।२।४४ । इति अने भन्दनः । उणादौ “सीमन्त - हेमन्त - " (३० २२२ ) इति अन्ते निपातनात् भदन्तः । 6 " भन्देर्वा" ( उ०३९१) इति रे वा नलुकि च भद्रं भन्द्रं च सुख-कल्याणे । चुरादौ भडुण कल्याणे दान्त इत्येके भन्दयति ॥
७२३ मदुङ् स्तुति-मोद-मद- स्वप्न गतिषु । मोदो हर्षः । मदो दर्पः । स्वमेन आलस्यमपि लक्ष्यते। चन्द्रस्तु मदि जाड्ये इत्येवाह । मोद-मद- स्वप्नेष्वकर्मकोऽयम्, स्तुति - गत्योः सकर्मकः । उदित्त्वाद् ने मन्दते । ममन्दे । भन्दिता । अचि मन्दः । स्त्रियां " जातेरयान्त - "२|४|५४ | इति, यौव- 10 नावस्थावृत्तौ तु "वयस्यनन्त्ये " २४ २१ । इति ङीप्राप्तौ “अजादेः " २ |४| १६ | इति आपि मन्दा स्त्रीजातिः युवतिर्वा । उणादौ "शलि-बलि-पति-" ( उ० ३४ ) इति आके मन्दाकः । मत्वर्थीये इनि मन्दाकिनी । “भी- वृधि - " ( उ० ३८७) इति रे मन्द्रं गम्भीरम् । मद्रमिति तु माद्यतेः । "ऋच्छिचटि - " ( उ० ३९७) इति अरे मन्दरः शैलविशेषः । " अग्यङ्गि - " ( उ० ४०५ ) इति आरे मन्दारो देववृक्षः । “मदि- मन्दि - " ( उ० ४१२ ) इति इरे मन्दिरं सद्म । मदिरेति तु माद्यतेः । 15 “वाश्यसि - " ( उ० ४२३) इति उरे मन्दुरा वाजिशाला ॥
७२४ स्पदुङ् किञ्चिच्चलने । उदित्वाद् ने स्पन्दते । पस्पन्दे । स्पन्दिता । णिगन्तात् फलवत्कर्तर्यपि “चल्याहारार्थेङ्–”३|३ | १०८ । इति परम्मैपदम्, स्पन्दयति । घञि स्पन्दः । " चालशब्दार्थाद् - " ५/२/४३ | इति अने स्पन्दनो वृक्षविशेषः ।
७२५ क्लिदुङ् परिदेवने । परिदेवनं शोचनम् । उदित्वाद् ने क्लिन्दते । क्लिन्दिता । क्लिदु परिदेवने क्लिन्दति । गित्त्वमकृत्वोभयत्र पाठस्तु फलवत्यपि कर्तरि परस्मैपदार्थ: अफलेऽप्यात्मने - 20 पदार्थश्च ॥
७२६ मुदि हर्षे । अकर्मकोऽयम् । मोदते । मुमुदे । मोदिता । के मुदितः । "वौ व्यञ्जनादेः-१ ४।३।२५। इति क्त्वा सनोर्वा कित्त्वे मुदित्वा मोदित्वा, मुमुदिषते मुमोदिषते । णौ मोदयति चैत्रम्, अत्र “अणिगि–” ३।३।१०७ । इति फलवत्कर्तर्यपि परस्मैपदं " गति - बोधाऽऽहारार्थ- "२।२|५| इत्यणिकर्तुः कर्मत्वं च । मूलविभुजादित्वात् के कुमुदम् । “तिक्कृतौ नाग्नि" ५/१/७१ । इत्यानशि 25 मोदमानः कोऽपि ग्रामः । णके मोदयतीति मोदकः । "नाम्युपान्त्य - " ५।१।५४ | इति के मुदः । “इ - ङितो - " ५।२।४४ । इति अने मोदनः । उणादौ " पू- मुदिभ्यां कित्" ( उ० ९३ ) इति किति
१ " स्तुति-मोद-मद-स्वप्न - कान्ति-गतिषु इति । चन्द्रस्तु मदि जये इत्यपि पपाठ" - मा०धा० १०४२ धा० १३ ।। २ °ते । स्पन्दितुम् । णिग' खे० संपा१ वा० सं२ ॥ ३ “मूलविभुजादयः " ५।१।१४४ । इति सूत्रेण ।।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादिगणे गे मुद्गः । "ऋज्यजि-" (उ० ३८८) इति किति रे मुद्रा । "मुदि-गूरिभ्यां टिद्गजौ चान्तौ" (उ० ४०४) इति अरे मुद्गरः मुद्गरी । “शुषीषि-" (उ० ४१६) इति किति इरे मुदिरो मेघः । मुदण् संसर्गे मोदयति ॥ ___७२७ ददि दाने । धारणे इति कौशिकः । ददते । “अनादेशादे:-" ४।१।२४। इत्येत्वस्य "न शस-दद-" ४।१।३०। इति प्रतिषेधात् दददे । ददिता ॥ ___७२८ हदि पुरीपोत्सर्गे । हदते । जहदे । अनुस्वारेत्त्वाद् नेट् , हत्ता हत्तुम् । सनि जिहत्सते ।
"इ-डितो-" ५।२।४४। इति अने हदनः ।। 5 ७२९ ष्वदि ७३० स्वदि ७३१ स्वादि आखोदने । आद्यः षोपदेशो( ऽयम् ) नेतरौ। यत्
स्मृतिः-स्वरदन्त्यपराः षोपदेशाः स्मि-स्विदि-स्वदि-स्वञ्जि-स्वपयश्च। सृपि-सृजि-स्तृ-स्तृ-स्त्यासेकृ सृर्जम् । आस्वादनं जिह्वया लेहः। चैत्राय स्वदते । सस्वदे । षोपदेशत्वात् षत्वे असिष्वदत् । सनि षत्वापन्ने "णि-स्तोरेवा-" २।३।३७) इत्यत्र वर्जनाद् ण्यन्तस्य षत्वाभावे सिस्वादयिषति । “णि
स्तोरेवा-" २।३।३७। इति नियमात् सनि षत्वाभावे सिस्वदिषते। "इ-डितो-" ५।२।४४। इति 10 अने स्वदनः । उणादौ "कृ-वा-पा-जि-"(उ०१) इति उणि स्वादुः । प्वदण् आस्वादने स्वादयति ॥
खदि । स्वर्दते । अपोपदेशत्वात् षत्वाभावे सिस्वर्दयिषति, असिस्वर्दत् । स्वर्दिता ॥ स्वादि । स्वादते । सस्वादे । अषोपदेशत्वात् षत्वाभावे असिस्वदत् । सनि सिस्वादिषते ॥
७३२ उदि मान-क्रीडयोश्च । चकारात् आस्वादने । मोनं मितिः। "भ्वादेः-" २।१।६३। इति दीघे ऊर्दते । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि ऊश्चिक्रे । “अयि रः" 15 ४।१।६। इति रस्य प्रतिषेधात् "स्वरादेः"४।१।४। इति देरेव द्वित्वे सनि ऊर्दिदिषते । अचि स्त्रियां
गौरादित्वाद् ड्याम् ऊर्दी विमानम् ॥ __७३३ कुँदि ७३४ गुदि ७३५ गुदि क्रीडायाम् । “भ्वादेः-" २।१।६३। इति दीर्घ कूदते चुकूर्दे । कूर्दिता ॥ गुर्दि ।] गूर्दते । जुगू। गर्दिता । गुर्दिस्थानेऽन्ये खुर्दैि पेटुः । खूर्दते चुखूर्दे ।
गुर्दण निकेतने गूर्दयति ॥ गुदि । गोदते जुगुदे । “वौ व्यञ्जनादेः-" ४।३।२५। इति क्त्वा20 सनोर्वा कित्त्वे गुदित्वा गोदित्वा, जुगुदिषते जुगोदिषते । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के गुदं स्त्रीणामपाङ्गम् । कल्याणं गुदमस्याः क्रोडादित्वाद् ड्यभावे कल्याणगुदा । गुदिस्थाने गुधिमेकेऽध्यैषत ॥
१ "किश्चिद् उद्दिश्य अपुनर्ग्रहणाय स्वीयत्यागो दानम्"-मा• धा० धातुअं० १७ पृ. ४१।२ “संवरणे इति क्षीरस्वामी। आस्वादनम्-अनुभवः"-मा० धा० धातुअं० १८ पृ. ४३।३ वर्जाः। आ संपा१ वा० ॥ ४ असिस्वईत संपा१ वा. प्र. नास्ति ॥ ५ "इह मानं सुखमिति सम्मतायाम, क्रीडायामकर्मकः" इतिमा०धा० पृ. ४४ धा• २० ॥ ६ देरेव-दिकात्स्यैव । ७ "अत्र कैयट-पुरुषकार-मैत्रेयादिषु सृतीयो न पठ्यते । संमतामोघाविस्तार-चान्द्रेषु तु त्रयोऽपि पठ्यन्ते । गुदक्रीडा गुदविहार इति चरके"। -मा. भा. धातुअं० २४ पृ. ४४ । ८ "स्फूर्जेदर्दीर्वोपदेशात् "भवादे-" २।१।६३। इति दीर्घ एषां न इति चन्द्रः -मा.धा. प.पू. ४ धा० २४ ॥ ९ गुवि संपा१ वा० नास्ति ॥
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मात्मनेधातवः ७२७-७४२] स्वोपटं धातुपारायणम् ।
७३६ वृदि क्षरणे । क्षरणं निरसनम् । “षः सो-' २।३।९८। इति सत्वे सूदते सुध्दे सूदिता । डे असूषुदत् । क्ते निषूदितः । नन्दादित्वादने [मधु]सूदनः । अचि सूदः। स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् सूदी । शीलाद्यर्थविवक्षायाम् “इ-डितो-"५।२।४४। इत्यस्य "न णिङ्-य-"५।२।४५। इति प्रतिषेधात् तृनि सूदनशीलः सूदिता। घूदण् आस्रवणे सूदयति॥
७३७ हादि शब्दे । अव्यक्ते शब्दे इत्यन्ये । अव्यक्तः अपरिस्फुटवर्णः । हादते जहादे हा- 6 दिता । घनि हादः । अचि ह्रदः, पृषोदरादित्वाद् इस्वः॥
७३८ हादैङ् सुखे च । चकाराच्छब्दे। हादते जड़ादे हादिता। ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , प्रहन्नः प्रहन्नवान् , अत्र "हादो हृद् क्तयोश्च" ४।२।६७। इति हद् तो नश्च । णौ ते आहादितः । क्तौ प्रहत्तिः । “म-न-य-व-लपरे हे" १।३।१५। इत्यनुस्वारानुनासिकयोः किं हादते किलहादते ॥
७३९ पर्दि कुत्सिते शन्दे । पायुध्वनौ वर्तते। अन्ये तु निःशब्दमधोवातं पर्दनं मन्वाना 10 अशब्दे इत्याहुः। पर्दते पपर्दे पर्दिता। "इ-डितो-" ५।२।४४। इति अने पर्दनः । पृदाकुरिति तु पिपर्तेर्दाकुकि ॥
७४० स्कुदुङ् आप्रवणे । आप्रवणम् उत्प्लुत्य गमनम् आस्कन्दनं वा । उद्धरणमित्यन्ये । उदित्त्वाद् ने स्कुन्दते चुस्कुन्दे स्कुन्दिता । सनि चुस्कुन्दिषते । यङि चोस्कुन्धते । यब्लुपि चोस्कुन्दीति । कुन्द इति तु कैवतेर्दै नेऽन्ते च रूपम् ।।
अथ धान्ताः सप्त सेटश्च
७४१ एधि वृद्धौ । एधते । “उपसर्गस्याऽनिण-" १।२।१९। इत्यत्रैधिवर्जनादुपसर्गावर्णलुगभावे प्रैधते । अकर्मकत्वाद भावे एध्यते मैत्रेण ।सोपसर्गस्तु साप्योऽपि भवति । "गुरुनाम्यादे:-"३।४।४।। इति परोक्षाया आमि एधाञ्चक्रे । एधिता। ओणे:दित्करणान्नित्यमपि द्विर्वचनं ह्रस्वो बाधते, तेन के ह्रस्वे द्वित्वे च मा भवानिदिधद् । सनि एदिधिषते । आनशि एधमानः। घनि एधः। उणादी 20 "अस्” (उ० ९५२) इति असि एधः एधसी । इन्धेरपि “दशना-ऽवोदै-" ४।२।५४। इति “येन्धिभ्याम्-" (उ० ९६८) इंति च वचनाद् एध-एधसोः सिद्धिः ॥
७४२ स्पर्धि सङ्घर्षे । सङ्घर्षः पराभिभवेच्छा। स्पर्धते प्रातुः-आत्रा सह स्पर्धा करोतीत्यर्थः । पस्पर्धे । सनि पिस्पर्धिषते । यङि पास्पर्ध्यते । यङ्लुपि पास्पर्धीति । "दिवि "यक्-तु-रु-स्तोः-" ४।३।६४। इतीति अपास्पर्धीत् । सिर्वि "सेः स्-द्-धां च रुर्वा" ॥३॥७९॥ इति सिवो लुकि धस्य 25
१पृक् पालन-पूरणयोः इत्यस्मात् धातोः “स-पृभ्यां वाकुक' (उ०७५१) इत्यनेन कित् दाः प्रत्ययः, पृदाकुः सर्पः गोत्रकृच्च । २ "आप्रवणम् उत्प्लवनम् उत्प्लुत्य गमनं वा इति तरङ्गिणी । उद्धरणम्इति भोजः"-मा०धा• धातुअं० ९ पृ० ४१ । ३ कुंङ् शब्दे अस्माद -तु-कु-सुभ्यो नोऽन्तश्च" (उ०२४०) इति यः नोऽन्तादेशश्च, कुन्दः पुष्पजातिः ।।४ अकर्मकोऽयम् । “पराभिभवस्य धात्वर्येनोपसमहात् , उक्त च-"धातोरर्थान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसमहात् । प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया" इति-मा-धा• धातु..पू. ३५ । ५त्यस्तनभूत-तृतीयपुरुषेकवचने । ६ बस्तनभूतद्वितीयपुरुषेकाचमे॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादिगणे रुत्वे "रो रे लग्-" १॥३॥४१॥ इति रो लुक्यस्य दीर्घ च अपास्पाः । "इ-डितो-'" ५।२।४४। इति अने स्पर्धनः । अकर्मकोऽयम् , तेन स्पर्धयति मैत्रमित्यत्र “अणिगि प्राणिकर्तृका-" ३।३।१०७। इति फलवत्कर्तर्यपि परम्मैपदम् “गति-बोधा-" २।२।५। इत्यणिक्कर्तुः कर्मत्वं च । स्पर्धमानः स कृष्णमिति तु कृष्णं प्राप्येत्यध्याहारात् । “बहुलम्" ५।१।२। इति इष्णौ 5 "मेहं म्पर्धिष्णुनेवान्यो धृतो नाको हिमाद्रिणा ॥" [ ]
"क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, स्पर्धा । घनि स्पर्धः ।।
७४३ गाधृङ् प्रतिष्ठा-लिप्सा-प्रन्थेषु । प्रतिष्ठा-आस्पदम् । लब्धुमिच्छा लिप्सा । ग्रन्थनं ग्रन्थः । प्रतिष्ठायामकर्मकोऽयम् , लिप्सा-ग्रन्थयोः सकर्मकः । गाधते जगाधे गाधिता । ऋदित्वाद् उ न
हस्वः, अजगाधत् । सनि जिगाषिते । यङि जागाध्यते । यङ्लुपि जागाधीति ! अचि अगाधम्10 अतलस्पर्शम् । “इ-डितो-" ५।२।४४। इति अने गाधनः । उणादौ "पदि-पठि-" (उ०६०७) इति इः, गाधिविश्वामित्रपिता॥
७४४ बाध रोटने । रोटनं प्रतिघातः । बाधते बबाधे बाधिता। ऋदित्त्वाद् उ न हस्वः, अबबाधत् । "इ-डितो-'" ५।२।४४। इति अने बाधनः । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, बाधा ।
घनि बाधः । बाहुरिति तु "मि-वहि-" (उ०७२६) इति णिति औ वहेः ॥ 16 ७४५ दधि धारणे । दाने इति कौशिकः । दधते देधे दधिता । यङ्लुपि दादधीति दादद्धि । णौ डे अदीदधत् । अचि दधः । उणादौ “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, दधि ।
७४६ बधि बन्धने । वैरूंप्ये "शान्-दान्-" ३।४।७। इति सनि इतो दीर्घ च बीभत्सते । अर्थान्तरे तु बंधते । “न जन-बधः" ४।३।५४। इति वृद्धयभावे अबधि, बधकः । उणादौ "पदि
पठि-" (उ० ६०७) इति इ., बधिः । बधण् संयमने बाधयति ॥ 20 ७४७ नाधृङ् नाघवत् । उपताप-ऐश्वर्य-आशीर्-याच्यासु अर्थेषु नाथवदयं वर्तते ।
लाघवार्थमेवं निर्देशः, वर्णक्रमानुसरणात् तु नैकत्राधीतौ। नाधते। अणोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्गान्तरो-" २।३।७७। इति णत्वाभावे प्रनाधते परिनाधते । येषां तु णोपदेशोऽयं तन्मते प्रणाधते परि. णाधते। ननाधे । नाधिता॥
१ "बा लोडने। लोडनं प्रतिघातः"-मा० धा० धातुअं० ५ पृ. ३७। २ वहीं प्रापणे इत्यस्मात् उप्रत्यये इत्यर्थः ।। ३ "दध धारणे । दाने इति केचित् पठन्ति । 'दद दाने' इत्यत्र 'दद धारणे' इति । तद् अयुक्तम् । "तद्वेषोऽसदृशोऽन्याभिः स्त्रीभिर्मधुरतामृतः । दधते सुलभां शोभां तदीया विभ्रमा इव" । पिबति च पाति च याऽसको रहस्त्वाम् । व्रज विटपममुं ददस्व तस्यै ॥ xxx इत्यादौ दधो धारणार्थत्वस्य अन्यस्य दानार्थत्वस्य च व्यवस्थितत्वात"-माधा०धातुअं. ८ पृ. ४. । ४ निन्दितरूपो विरूपः तस्य भागो वैरूप्यम् ॥ ५ बन्धनार्थमिदमुदाहरणम् , यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः-"न जन-बधः" ४३५४॥ सूत्रस्य बृहद्वृत्ती"बधिरत्र बध बन्धने इत्ययं गृह्यते यस्य बीभत्सत इति वैरूप्ये एव सनिष्यते, अन्यत्र वधते। 'भक्षकश्चन्नास्ति बधकोऽपि न विद्यते' अर्थान्तरेऽपि त्यादयो नाभिधीयन्त इति अनीकुर्वाणाः परस्मैपदिनश्च एतस्यानियमस्स्यादीन् प्रति इति न्यासकारः। अन्ये तु अगणपठितं वधि हिंसाथ “यत्र शालप्रतीकाशः कर्णोऽवध्यत संयुगे" इत्यादिदर्शनात् मन्यन्ते, प्रत्युपाहरन्ति र वाध इति" ॥
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मात्मनेधातवः ७४३-७५७] स्पोपलं धातुपारायणम् ।
अथ नान्तौ द्वौ सेटौ च--
७४८ पनि स्तुतौ । “गुपौ-धूप-" ३।४।१। इत्याने पनायति जिनम् , इ-डित्त्वाभावादत्र "शेषात्परस्मै-" ३।३।१००। इति परस्मैपदम् । ये तु स्वार्थिकप्रत्ययान्तस्य प्रकृतिवद् ग्रहगाद् यथा 'आय' प्रत्ययान्तस्य प्रकृत्यर्थवाचित्वं तथेदित्त्वमपीति प्रतिपन्नास्तन्मते "इ-ङितः कर्तरि" ३।३२२। इत्यात्मनेपदे पनायते जिनम् । एवं पणायते । “अशवि ते वा"३।४।४। इति वा आये पनायिष्यते पनि- 5 प्यते । उणादौ "तप्यणि-" (उ० ५६९) इति असे पनसः फलवृक्षः। फनस इति तु फेणेः “फनस-तामरसादयः” (उ० ५७३) इति असे निपातनात् ॥
७४९ मानि पूजायाम् । विचारे "शान्-दान-मान्-'" ३।४।७। इति सनि पूर्वस्येतो दीर्घ च मीमांसते धर्मम् । “शंसिप्रत्ययात्" ५।३।१०५। इत्यः, मीमांसा । अर्थान्तरे पनि मानः । अनटि माननम्। णौ मानयति । उणादौ “मा-वा-वदि-" (उ० ५६४) इति से मांसम् । “मानि-बाजेर्लक् 10 च" (उ० ८५९) इति तृः, माता । मानण् पूजायाम् “युजादेर्नवा" ३।४।१८। इति वा णिचि मानयति मानति ॥ अथ पान्ताश्चतुर्दश सेटच
७५० तिपृङ्ख ७५१ टिपङ ७५२ टेपङ क्षरणे । तेपते तितिपे तेपिता । 'आगमशासनमनित्यम्' इतीडभावे तेप्ता । ऋदित्त्वाण्णौ डे अतितेपत् । “वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति 15 क्त्वा-सनो कित्त्वे तिपित्वा तेपित्वा, तितिपिषते तितेपिषते ॥ टिपृङ् । “षः सो-"२।३।९८। इति सत्वे स्तेपते । षोपदेशत्वात् षत्वे तिष्टिपे। स्तपिता। ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः, अतिष्टेपत् । ते स्तिपितः ॥ टेपृङ् । “घः सो-" २।३।९८। इति सत्वे स्तेपते । पोपदेशत्वात् षत्वे तिष्टेपे । स्तेपिता। क्ते स्तेपितः । ऋदित्त्वाद् के अतिष्टेपत् ॥
७५३ तेपङ कम्पने च । चकारात् क्षरणे । तेपते तितेपे तेपिता। ते तेपितः । ऋदित्त्वाद 20 के न इखः, अतितेपत् ॥
७५४ दुवेपर ७५५ केपङ ७५६ गेपङ ७५७ कपुर चलने । वेपते विवेपे वेपिता। ऋदित्त्वाद् के न ह्रस्वः, अविवेपत् । ट्वित्त्वादयौ वेपथुः । “न ख्या-पूग्-" २।३।९०। इति प्रतिके धाद् णत्वाभावे प्रवेपनम् । उणादौ "विपिना-ऽजिनादयः” (उ० २८४) इति इने निपातनात् विपिन गहनम् ॥ केपछ । केपते केपिता। ऋदित्त्वाद् के अचिकेपत् ॥ गेपङ । गेपते 25 जिगेपे गेपिता। ऋदित्त्वाद् के मजिगेपत् ॥ कपुर । उदित्त्वाद् ने कम्पते चकम्पे कम्पिता। "चल्याहारार्थ-" ३।३।१०८। इति फलवकर्तर्यपि ण्यन्तात् परस्मैपदम् , कम्पयति शाखाम् , “गतिबोधा-"२।२।५। इत्यणिकर्तरत्र कर्मत्वम् । भीष्यादिभ्यः 'अ' प्रत्ययेनैव 'भीषा' आदिसिद्धौ 'अ'
१ फण गतौ इत्यस्य ॥ २ "दिए देष्ट इति च काश्यपः" मा धान-पृ. ८३ पा.३१ ३'मधु' प्रत्यये। " "भीषि-भूषि-चिन्ति" ५।३१०९॥ इत्यादिमूत्रनिर्दिष्टेभ्यः भीष्यादिभ्यो पातुभ्यः ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूरादिगणे विधानं णिलुकोऽनित्यत्वज्ञापनार्थम् , तेनाचि णेर्गुणे कम्पया स्त्री । “लङ्गिकम्प्योः -" ५।२।४७। इति नलुकि विकपितः; अङ्गविकृतेरन्यत्रोदित्त्वान्नलोपाभावे कम्पितैः । शीलाद्यर्थविवक्षायाम् “चालशब्दार्थात्-" ५।२।४३। इति अने कम्पनः । “स्म्यजस-" ५।३।७९। इति रे कम्प्रः । "क्तेटो-" ५/ २।१०६। इति अः, कम्पा। उणादौ “अम्भि-कुण्ठि-" (उ० ६१४) इति इनलुक् च, कपिः । 5 कपोल इति तु कपे. सौत्रस्य ओले । केपृङ्-गेपृडौ गतावपि [अन्ये] ।
७५८ ग्लेपृङ् दैन्ये च। चकाराच्चलने । गतावप्यन्ये । ग्लेपते जिग्लेपे ग्लेपिता । ऋदित्वाद् डे न ह्रस्वः, अजिग्लेपत् ॥
७५९ मेपृङ् ७६० रेपृङ् ७६१ लेपृङ् गतौ । मेपते मिमेपे मेपिता। ऋदित्त्वाद् डे ने ह्रस्वः, अमिमेपत् ॥ रेपृङ् । रेपते रिरेपे रेपिता । ऋदित्त्वाद् डे अरिरेपत् । रेप शब्दे10 sपीत्येके । लेपृङ् । लेपते लिलेपे लेपिता । ऋदित्त्वाद् उ अलिलेपत् । ते लेपितः । देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः, तत्रैव स्थितस्य स्पन्दनं चलनमिति पृथगेषां पाठः । पृड् चेति कौशिकः॥
७६२ पौषि लज्जायाम् । त्रपते । “तृ-त्रप-फल-" ४।१।२५। इत्येत्वे द्वित्वाभावे च त्रेपे । औदित्त्वाद् वेट् , त्रप्ता त्रपिता। “वेटोऽपतः" ४।४।६२। इति क्तयोर्नेट , त्रप्तः प्रप्तवान् । “आसु-यु
वपि-" ५।१।२०। इति यापवादे प्यणि अपत्राप्यम् । “भ्राज्यलकृग्-'" ५।२।२८। इति इष्णौ 15 अपत्रपाशीलादिः अपत्रपिष्णुः । पित्वादङि, त्रपा अपत्रपा । उणादौ "भृ-मृ-त-" (उ० ७१६) इति उः, पु॥
७६३ गुपि गोपन-कुत्सनयोः। गर्दायां सनि जुगुप्सते । “अवयवे कृतं लिङ्ग समुदायस्य विशेषकं भवति यं समुदायं सोऽवयवो न व्यभिचरति" न व्यभिचरति च गुपिर्गीयां सन्नन्तसमुदा-.
यमिति, "इ-ङितः-" ३।३।२१। इत्यात्मनेपदम् , “स्वार्थे४।४।६०। इतीडभावः । इच्छासनन्ता20 देव सनो निषेधात् “तुमर्हात्-"३।४।२१। इति सनि जुगुप्सिषते । “शंसिप्रत्ययात्-" ५।३।१०५।
इति अः, जुगुप्सा। गर्हाया अन्यत्र सनोऽभावे अर्थान्तरेऽपि प्रायेण त्यादयो नाभिधीयन्ते इत्यत्र प्रायोग्रहणात् गोपते । अनटि गोपनम् । क्तौ गुप्तिः। गुपौ रक्षणे गोपायति । गुपच् व्याकुलत्वे गुप्यति । भासार्थः गोपयति ॥
१ विकृतशरीरः ॥२ चित्ते भीत इत्यर्थः ।। ३ “कटि-पटि-कण्डि-गण्डि-शकि-कपि-चहिभ्य ओलः" (उ. १९३) इति सूत्रेण ॥ ४ "के गेप ग्ले च चकारात् कम्पने गतौ च । सूत्रविभागादिति स्वामी मैत्रेयस्त चकारमन्तरेण पठित्वा कम्पने इत्यपेक्षते इत्याह" इत्यादि-मा. धा. धातुअं० ३६७ पृ. ८३॥ ५ न इस्वः इति तु प्र• एच ॥ ६ "मैत्रेयस्तु मे लेप सेवने। रेप प्लवगतो-इत्याह"-मा० धा० धातु. ३७० पृ.८३।७ चलनार्थेन '७५४ टुवेपड्' इत्यादिधातुकदम्बकेन सहैव '७५९ मेघद्ध' इत्यादिधातुत्रिकस्य पाठः श्रेयान् चलन-गत्योरमेदात्-इत्याशकायामाह-गति-चलनयोन भेदः-गतिः स्थानान्तरगमनम् चलनं तु स्थानान्तरगमनाभावेऽपि गतिरहितस्य-स्थितस्य-अपि संभवति इत्यतः 'मेघा' इत्यादित्रिकस्य पृथक् पाठः। ८ अपः खे. संपा। 01 सं०२ तपा० प्र०॥९ प्रायग्रह खे० संपा, सं-२ तपा० ॥
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आत्मनेधातवः ७५८-७७३] स्वोपरं धातुपारायणम् ।
अथ बान्ताः षद् सेटश्च
- ७६४ अबुङ ७६५ रबुङ् शब्दे । उदित्त्वान्ने अम्बते । “अनातो-" ४।१।६९। इति पूर्वस्याऽऽत्वे ने च आनम्बे । अचि कर्मणि घञि वा अम्बा । उणादौ "शा-मा-श्या-'' (उ० ४६२) इति ले अम्ब्लो रसः ॥
रखुङ् । उदित्त्वान्ने रम्बते ररम्बे रम्बिता। के रम्बते इत्यचि करम्बः, कृगो वा "कृ-कडि- 6 कटि-" (उ० ३२१) इति अम्बे करम्बः ॥
७६६ लबुङ् अवसंसने च । चकाराच्छब्दे । उदित्त्वान्ने लम्बते प्रलम्बते अवलम्बते आलम्बते उल्लम्बते विलम्बते इत्यनेकार्थत्वमुपसर्गद्योतितमन्यत्राप्युदाहार्यम् । णके लम्बिका त्रिकटा, विलम्बिका शकृद्धिलम्बः । अचि लम्बः । उणादौ."नो लम्बेर्नलुक् च" (उ० ८३८) इति णिदूः, अलाबूः । अलम्बुसेति त्वलतेरम्बुसे अलम्बुसा नाम शाकम् ॥
10 ७६७ कवृकवणे । वर्णो वर्णनं शुक्लादिश्च । कबते चकबे कविता । ऋदित्त्वाद् डे न हूस्वः, अचकावत् । ध्यणि काव्यम् । उणादौ “जठर-"(उ०४०३) इति अरे कबरः कबरी । “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, कविः । कर्बुर इति तु कर्वेरोष्ठयान्तस्य "वाश्यसि-” (उ० ४२३) इति उरे ॥ - ७६८ क्लीबृक अधार्थे । क्लीबते चिल्लीबे क्लीबिता । ऋदित्त्वाद् के अचिक्लीबत् । “नाम्यु- 15 पान्त्य-"५।११५४। इति के क्लीबः । ते सेट्त्वात् “तेटो-" ५।३।१०६॥ इति अश्व, क्लीबा विक्लीबा ।।
७६९ क्षीबृङ्मदे। क्षीबते चिक्षीबे क्षीबिता । ऋदित्त्वाद् उ अचिक्षीबत् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के क्षीवः प्रक्षीबः । क्तयोः “अनुपसर्गाः क्षीबो-" ४।२।८०। इति निपातनात् क्षीवः क्षीबवान् , उपसर्गात्तु-प्रक्षीवितः प्रक्षीबितवान् । एते च कबृङादयो यद्यपि दन्त्यौष्ठयान्ता अपि काव्यादिशब्देषु श्रूयन्ते तथापि वृद्धैरोष्ठ्यान्त्यमध्ये पठितत्वादस्माभिस्तथैव पठिताः॥ 20 अथ भान्ताः सप्तदश रमि-लभिवर्जा सेटश्च
७७० शीभृङ् ७७१ वीभृङ् ७७२ शल्भि कथने । शीभते शिशीभे शीभिता। ऋदित्त्वाद् डे अशिशीभत् । उणादौ "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति अरे शीभरो हस्तिहस्तमुक्तो जललवः ॥ वीभृङ् । वीभते विवीमे वीभिता । ऋदित्त्वाद् डे अविवीभत् ॥ शल्भि । शल्भते शशल्मे शल्भिता । उ अशशस्मत् । त्रयोऽपि के सेट इति "क्तेटो-"५।३।१०६। 25 इति अः, शीमा वीमा शल्भा ॥
७७३ वल्मि भोजने । वल्भते ववल्मे वल्भिता। घनि वल्भः ॥ १ अली भूषणपर्याप्तिवारणेषु इत्येतस्य "अलेरम्बुसः” (उ० ५८५) इति अम्बुसप्रत्ययः ।। २ "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति कुंक शब्दे इत्यस्माद् अरेऽपि कबरः इति उणादिगणविवृतौ ।। ३ आधार संपा.१ सं. वा.का..॥४कथने संपा.१ वा०॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित
[भूवादिगणे ७७४ गल्भि धायें । गल्भते प्रजगल्भे गल्भिता । अचि प्रगल्भः । "क्तेटो-"५।३।१०६॥ इति अः, प्रगल्भा । प्रगल्भ इवाचरतीति ["कर्तुः विप् ] गल्भ-क्लीब-होडात् तु-" ३।४।२५। इति किति क्विपि “धातोरनेकस्वरात्-" ३।४।४६। इति परोक्षाया आमि प्रगल्भाञ्चके, किपो ङित्त्वादात्मनेपदम् ॥
७७५ रेभृङ् ७७६ अभुङ् ७७७ रभुङ् ७७८ लभुङ् शब्दे । रेभते रिरेभे रेभिता । ऋदित्त्वाद् डे न हस्वः, अरिरेभत् । "क्षुब्ध-विरिब्ध-" ४।४।७०। इति निपातनाद् विरिन्धः स्वरः, विरेभितमन्यत् ॥ अभुङ् । उदित्त्वाद् ने अम्भते । “अनातो-" ४।१।६९। इति पूर्वस्याऽऽत्वे ने च आनम्भे । अम्भिता । अग्भ इति तु "अमेर्भ-हौ चान्तौ"(उ० ९६२) इति अमते'
रूपम् ॥ रभुङ् । उदित्त्वाद् ने रम्भते ररम्भे रम्भिता । अचि रम्भा कदली । करम्भो दधि10 सक्तवः । क्ते रम्भितः॥ लभुङ् । उदित्त्वाद् ने लग्भते ललम्भे लम्भिता । ते लम्भितः । । अचि पनि वा लम्भः ॥
७७९ ष्टभुङ् ७८० स्कभुङ् ७८१ ष्टुभूङ् स्तम्मे । स्तम्भः क्रियानिरोधः । “षः सो-" २।३९८। इति सत्वे उदित्त्वाद् ने च स्तम्भते तस्तम्भे सम्भिता । अचि घनि वा स्तम्भः । “अङ
प्रतिस्तब्ध-निस्तब्धे-" २।३॥४१॥ इति षत्वे विष्टम्भः । “अवाचाश्रयोर्जा-" २।३।४२। इति षत्वे 15 अवष्टम्भते दण्डम् , अवष्टम्भते शूरः । “उदः स्था-" १।३।४४। इति सलुकि उत्तम्भते । णो सनि षत्वे तिष्टम्भयिषते । टपरः षकारोऽयमित्येके, तन्मते टिष्टम्भयिषते टाष्टम्भ्यते। विष्टम्भ्यते । स्तभ्यते इति तु स्तभ्नातेः ॥ स्कभुङ् । उदित्त्वाद् ने स्कम्भते स्कम्भ्यते चस्कम्मे स्कम्भिता । विष्कभ्यते इति तु स्कभ्नातेः । स्तम्भू स्कम्भू सौत्रौ स्तः, स्तभ्नाति स्तभ्नोति, स्कभ्नाति
स्कभ्नोति । “स्कभ्नः-"२।३।५५। इति षत्वे विष्कम्भः ॥ ष्टुभूङ् । “षः सो-"२।३।९८। 20 इति सत्वे स्तोमते दोषः । पोपदेशत्वात् षत्वे तुष्टुभे। "उपसर्गात् सुग्-" २।३।३९। इति
षत्वे अभिष्टोभते । ऊदित्त्वाद् “ऊदितो वा” ४।४।४२। इति क्वि वेद , स्तुब्ध्वा; इटि "वौ व्यञ्जनादे:-" ४।३।२५। इति वा कित्त्वे स्तुभित्वा स्तोभित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , स्तुब्धः स्तुब्धवान् । घनि स्तोभः । उणादौ “ककुप्-" (उ० ९३२) इति कर्मणि क्विपि त्रिष्टुप् अनुष्टुप् ।
स्तुम्भू इति सौत्रस्य स्तुभ्नाति स्तुभ्नोति ॥ 25 ७८२ जभुङ् ७८३ जभैङ् ७८४ जुभुङ् गात्रविनामे । जभुङ् । उदित्त्वाद् ने जम्भने
जम्भ्यते जजम्भे। ते जम्भितः । अने जम्मनः ॥ जभैङ् । “जभः स्वरे" ४११००। इति मे जम्भते जम्भिता। ऐदित्त्वात् क्तयोनेंट् , जब्धः जब्धवान् ॥ जुभुङ् । उदित्त्वाद् ने जृम्भते जजृम्भे जृम्भिता जृम्भितः जृम्भितवान् । ते सेट्त्वात् "क्तेटो-" ५।३।१०६॥ इति अः, जृम्भा पनि जुम्भः॥
१ अम गतौ इत्यस्य सं.1 टि. ॥ २ विष्टम्भ्यते संपा.१ तपा० नास्ति ।
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मात्मनेधातवः ७७४-७८७) स्वोपचं धातुपारायणम् ।
७८५ रभिं रामस्ये । राभस्य कार्योंपक्रमः। "रभोऽपरोक्षा-शवि" ४।४।१०२। इति शव्-परोक्षयोर्वर्जनाद् नस्याभावे आरभते आरेभे । अनुस्वारेत्त्वान्नेट,आरब्धा आरब्धुम् । [सनि] “रभलभ-"४।१।२१। इति स्वरस्येत्वे द्वित्वाभावे च आरिप्सते । घनि आरम्भः । णौ आरम्भयति । णके आरम्भकः । “साधौ" ५।१।१५५। इति णिनि साध्वारम्भी । “ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये" ५।४।४८। इति णमि आरम्भमारम्भं याति । अचि रम्भः, स्त्रियाम् रम्भा । अनटि आरम्भणम् । एषु "रभोऽपरोक्षा-" 5 ४।४।१०२। इति नः । “शकि-तकि-" ५।१।२९। इति ये रभ्यम् आरभ्यम् संरभ्यम् । “शकधृष-" ५।४।९०। इति तुमि आरभते भोक्तुम् । उणादौ "दिवादि-" (उ० ५७२) इति किति असे रभसो निर्विचारा प्रवृत्तिः॥
. ७८६ डुलभिष् प्राप्तौ । शव्-परोक्षयोर्वर्जनाद् "लभः" ४।४।१०३॥ इति नस्याभावे लभते लेभे; अन्यत्र स्वरे ने आलम्भयति, आलम्भकः, साध्वालम्भी, आलम्भमालम्भं याति, आलम्भो 10 वर्तते । अनुस्वारेत्त्वान्नेट, लब्धा लब्धुम् । “शकि-तकि-" ५।१।२९। इति ये लभ्यम् । “आडो यि" ४।४।१०४। इति ने आलम्भ्यम् । “उपात् स्तुतौ” ४।४।१०५। इति ने उपलम्भ्यं धनम् । ड्डित्त्वात् त्रिम, लब्ध्रिमम् । षित्त्वाद् अङि “लभः" ४।४।१०३॥ इति ने "नो व्यञ्जनस्या-" ४।२।४५ इति नलुकि लभा उपलभा । "श्यादिभ्यः" ५।३।९२। इति क्तौ लब्धिः उपलब्धिः। "त्रि-रुणमोर्वा" ४।४।१०६। इति वा ने अलाभि अलम्भि, लाभलाभम् लम्भलम्भम् । “उपसर्गात् 16 खल्-घनोश्च" ४।४।१०७। इति ने दुष्पलम्भः उपलम्भः उपालम्भि उपलग्भमुपलम्भम् । “सु-दुर्यः" ४।४।१०८। इति ने अतिसुलम्भम् अतिदुर्लम्भम् अतिसुलम्भः अतिदुर्लम्भः । केवलेभ्यस्तु नस्याभावे सुलभम् दुर्लभम् सुलाभः दुर्लाभः । “रभ-लम-" ४।१।२१। इति स्वरस्येत्वे द्वित्वाभावे च सनि लिप्सते भोक्तुम् , अत्र "शक-धृष-" ५।४।९०। इति तुम् ॥
अथ मान्तात्रयः सेटश्च
७८७ भामि क्रोधे । भामते बभामे भामिता । यङि बाभाम्यते, अत्रातः परस्यानुनासिकस्याभावाद् “मुरतो--'' ४।१॥५१॥ इति पूर्वस्य मुरन्तो न भवति, ये त्वत इति पूर्वस्य विशेषणं प्रतिपन्नास्तन्मते मौ बम्भाम्यते । यङ्लुपि वस्-मसोः “मो नो-" २।१।६७। इति मस्य नत्वे बाभान्वः बाभान्मः बम्भान्वः बम्भान्मः । किपि पदान्ते मो नत्वे प्रभान् , “नाम्नो नोऽनहः" २।१।९१। इति नलग् न भवति, नत्वस्यासिद्धत्वात् । आवश्यके णिनि भामिनी । घनि भामः । उणादौ "पश्चमाद् 25 ड" (उ०१६८) इति डे भाण्डम् ॥
१रभ्यम् शक इति संपा.१ । खे० तु रभ्यम् आरभ्यम् शक' इति ॥ २ °विचारा वृत्तिः संपा.१ वा. प्र.॥ ३ कथं तर्हि अतिसुलभम् अतिदुर्लभमिति ? अत्रातेः पूजातिकमार्थत्वादनुपसर्गत्वम्, तेम मनोन्तः इति ।
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१०० आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे ७८८ क्षमौषि सहने । क्षमते चक्षमे । औदित्त्वाद् वेट्, क्षमिता क्षन्ता, क्षमितव्यम् क्षन्तव्यम् । "शकि-तकि-" ५।१।२९। इति ये क्षम्यम् । षित्त्वादङि क्षमा । क्षमौच सहने इत्यस्य तु स्त्रियां क्तौ शान्तिः । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, क्षान्तः क्षान्तवान् । उणादौ "गमि-जमि-" (उ० ९३७)
इति डिति अमि क्षं भार्या । "क्रमि-गमि-क्षमेस्तुमाञ्चातः” (उ० ९४२) क्षान्तुं भूमिः तुमर्थश्च । b क्षमौच सहने क्षाम्यति ।।
७८९ कम कान्तौ । कान्तिरभिलाषः। “कमेणिङ ३।४।२। इति णिङि कामयते । "अशवि ते वा" ३।४।४। इति वा णिङि कम्यते काम्यते । “णि-श्रि-" ३।४।५८। इति उ अचकमत अचीकमत । चकमे । “धातोरनेकस्वरात्-"३।४।४६। इति परोक्षाया आमि कामयाञ्चके । कमिता
कामयिता । “ऊदितो वा" ४।४।४२। इति क्त्वि वेट्, कान्त्वा कमित्वा कामयित्वा । “ज्ञानेच्छा-" 10 ५।२।९२। इति वर्तमाने क्तः, कान्तः, अत्र “वेटोऽपतः" ४।४।६२। इति नित्यमिडभावः । णिङि
कामितः ।क्तौ कान्तिः। “णि-वेत्त्या--"५।३।१११॥ इति अने कामना । अनटि कमनम् कामनम् । "न ख्या-पूग-"२।३।९०। इति प्रतिषेधाद् “अदुरुपसर्गान्तरो-" २।३।७७। इत्यधिकृत्य "स्वराद्" २।३८५। इति "णे;" २।३।८८। इत्यनेन च णत्वं न भवति, प्रकमनम् प्रकामना । "कर्मणोऽण"
५।१।७२। इति अणि धर्मकामी। णिङि "शीलि-कामि-" ५।१।७३। इत्यणोपवादे णे धर्मकामा । 15 "अतः कृ-कमि--" २।३।५। इति रेफस्य सत्वे पयस्कोमः । “शकि-तकि-" ५।१।२९। इति ये
कम्यम् । णिङि “य एचातः" ५।१।२८। इति ये काम्यम् । णिड्यानशि कामयमानः, अत्र शन्विपवत्वाद् नित्य णिङ् “अमोऽकम्यमि-"४।२।२६। इत्यत्र कमेर्वर्जनाद् ह्रस्वाभावश्च । कथं कामयानः ! कामो यानमस्येति बहुव्रीहौ कामयानः, कामगतिरित्यर्थः; आनशि वाऽऽगमशासनस्यानित्यत्वाद्
माभावः। यद् वामनः-"कामयानः सिद्धोनादिश्चेति"। "मोऽकमि-"४।३।५५। इत्यत्र कमेवर्जनाद् 20 वृद्धिप्रतिषेधाभावे घञि कामः । "श-कम-" ५।२।४०। इति उकणि कामनशीलो दास्याः कामुकः,
अत्र "अकमेएकस्य" २।२।९३। इत्यत्र कमेर्वर्जनात् प्रतिषेधाभावे "कर्मणि कृतः" २।२।८३। इति षष्ठी । “स्म्यजस-" ५।२।७९। इति रे कमः । “न णिङ्-य-" ५।२।४५/ इत्यत्र दीपिग्रहणादुसर्गस्यापि समावेशे "इडितो-" ५।२।४४। इति अने कमनः । उणादौ मृ-ज-श-" (उ०१६७)
१ इदमुद्राहरणं णिङभावे वेदितव्यम् अन्यच्च णिङ्भावे ॥२ शीलादिरयम्, तथा चाहुः-'शीलितो रक्षितः क्षान्त आवृष्टो जुष्ट उद्यतः । संयतः शयितस्तुष्टो रुष्टो रुषित भाशितः ॥१॥ कान्तोऽभिव्याहतो हृष्टस्तृप्तः सप्तः स्थितो मृतः । अमृतो मुदितः पूर्तः शक्तोऽक्तः श्रान्तविस्मितौ ॥२॥ संरब्धारब्धदयिता दिग्धः स्निग्धो अवतीर्णकः । आरूढो मूढ आयस्तः क्षुधितक्लान्तब्रीडिताः ॥३॥ मतश्चैव तथा कुद्धः श्लिषः सुहित इत्यपि । लिप्तदृप्तौ च विलेयौ सति लमादयस्तथा ॥४॥ इति शीलादयः ॥ ३ "शीलि-कामि-भक्ष्या-चरीक्षिक्षमो ः" ५1१1३1 इत्यत्र कामीति ण्यन्तनिर्देशात् 'अण'प्रत्ययान्तोऽयं प्रयोगः, अण्यन्तनिर्देशे च "अंतः कृकमिकंस-कुम्भ-कुशा-कर्णी-पात्रेऽनव्ययस्य" ॥३५॥ इत्यत्र केवलस्यैव कमर्ग्रहणात् सकारादेशः, ज्यन्तस्य हुणे सति पयःकाम इत्येव भवति, स्त्रियां तु पयःकामा, अणम्तस्य पयस्कामी इति ॥
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मात्मनेधातवः ७८८-७९६] स्वोपचं धातुपारायणम् । इति अठे कमठो भिक्षाभाजनम् । “ऋच्छि-चटि-" (उ०३९७) इति अरे कमरो मूर्खः । “कमेरत उच्च" (उ०. ४०९) इति आरे कुमारः । "मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले कमलम् , णिडि कामलः [नेत्ररोगः] । “मुरलोरल-" (उ० ४७४) इति अले निपातनात् कोमलम् । “कमि-तिमेर्दोऽन्तश्च" (उ० ५४) इति उके कन्दुकः । “शमि-कमि-पलिभ्यो बलः” (उ०४९९) कम्बलः । “मावा-वदि-"(उ० ५६४) इति से कंसः । “कृसि-कमि-" (उ० ७७३) इति तुनि कन्तुः कन्दर्पः ॥ 5 अथ यान्ताः सप्तदश सेटश्च
७९० अयि ७९१ वयि ७९२ पयि ७९३ मयि ७९४ नयि ७९५ चयि ७९६ रयि गतौ । अयते । “उपसर्गस्यायौ" २।३।१००। इति लत्वे पलायते पल्ययते । “दया-ऽयाऽऽस्-" ३१४१४७। इति परोक्षाया आमि पलायाञ्चके । पलायिता । अनटि निलयनम् दुलयनम् । निर्दसोस्तु सो रुत्वस्य परे लत्वेऽसिद्धत्वात् निरयणम् , अत्र "स्वरात्" २।३।८५। इति नस्य 10 णत्वम् । “अदुरुपसर्गान्तरो-' २।३।७७) इत्यत्र दुरो वर्जनात् "स्वरात्" २।३।८५। इति णत्वामावे दुरयनम् । मनि "वोः-"४।४।१२१॥ इति यलोपेऽकारान्ताद् विहितेऽशिति “अतः" ।। ३१८२। इति लोपविधानादस्य लोपाभावे स्वमा; ये त्वत्राप्यल्लुकमिच्छन्ति तन्मते सुमा। किपि "वोः-"४।४।१२१॥ इति यलुकि “इस्वस्य-" ४।४।११३। इति ते स्वत् ; ये त्वत्रापि "अतः" ४३१८२। इत्यल्लोपमिच्छन्ति तन्मते सुत् ; ये त्वन्तरङ्गं तागमं प्रति बहिरङ्गस्यै यलुकोऽसिद्ध- 15 त्वमिच्छन्ति तन्मते स्वः । विचि यलुकि स्वः । तौ "ग्यो:-" ४।४।१२१॥ इति यलुकि अतिः, अल्लपक्षे तु तिः ॥ वयि । वयते । “न शस-"४।१।३०। इत्येत्वनिषेधाद् ववये । वयिता । मनि “य्वो:-"४।४।१२१। इति यलुकि सुवमा; अल्लुक्पक्षे सुन्मा, अत्र "स्वरम्य परे प्राग्विधौ" ७१।११०। इति स्थानित्वाद् “अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इति वस्योट् न भवति । उणादौ "-वयिभ्यां णित्" (उ० ५७०) इति असे वायसः । “अम्" (उ० ९५२) इति असि वयः पक्षी 20 बाल्यादि च ॥ पयि । पयते पेये पयिता । मनि यो लुकि सुपमा, अल्लुक्पक्षे सुप्मा । एवं पनि सुषवा सुप्वा । क्तौ पतिः प्तिः। [उणादौ] "असू” (उ० ९५२) इति असि पयः, पिवतेर्वा "पा-हाक्भ्यां पय-छौ च" (उ० ९५३) इति असि ॥ मयि । मयते मेये मयिता । अचि मयः ॥ नयि । नयते नेये नयिता । अणोपदेशत्वाद् णत्वाभावे प्रनयिता । मनि यो लुकि सुनमा, अल्लुक्पक्षे सुन्मा । एवं वनि सुनवा सुन्वा । किपि यलुकि "हस्वस्य-" ४।४।११३॥ इति 25 ते च सुनत् सुनतौ सुनतः । सू सूनौ सूनः, अत्राल्लुक् "स्वरस्य परे प्राग्विधौ" ७४।११०। इति स्थानित्वस्य 'न सन्धि-" ७४।१११॥ इति प्रतिषेधात् "नि दीर्घः" १।४।८५) इति दीर्घः "नाम्नो नोऽनहः" २।१।९१॥ इति नस्य लुक् च भवति । क्तौ नतिः न्तिः ॥ चयि ।
१ स्यायनको' इति सं१ बिना सर्वत्र अश्वेिऽपि ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे चयते चेये चयिता । घत्रि चायः। चय इति तु चिनोतेः अलि ॥ रयि । रयते रेये रयितेत्यादि ॥
____ ७९७ तयि ७९८ णयि रक्षणे च । चकाराद् गतौ । तयते तेये तयिता । “णिन् चावश्यका-" ५।४।३६॥ इति णिनि तायी ॥ णयि । “पाठे धात्वादे:-" २।३।९७। इति णस्य '5 नत्वे नयते । णोपदेशत्वाद् “अदुरुपसर्गान्तरो-" २।३१७७१ इति णत्वे प्रणयते । नेये नयिता। मन्नादिषु पूर्ववद् ॥
७९९ दयि दान-गति-हिंसा-दहनेषु च । चकाराद् रक्षणे । “स्मृत्यर्थ-दयेशः" २।२।११। इति कर्मणो वा कर्मत्वे "शेषे” २।२।८१। इति षष्ठ्याम् दानस्य दयते, दानं दयते । “दया
ऽया-ऽऽस्-" ३।४।४७) इति परोक्षाया आमि दयाश्चक्रे । दयिता । क्ये दय्यते, अत्र "वोः 10 प्वय्-" ४।४।१२१। इत्यत्र यि वर्जनाद् यलोपाभावः । “शीङ्-श्रद्धा-" ५।२।३७॥ इति आलो
दयालुः । दयनं दयन्ते प्राणिनोऽनयेति वा यथाक्रमं क्त्यनटोरपवादे भिदादित्वाद् अऊि दया । क्ते दयितः। दयेरेव कर्मणो वा कर्मत्वविधानाद् देंङ् पालने इत्यस्य कर्मणि द्वितीयैव भवति, मातरं दयते ॥
८०० ऊयैङ् तन्तुसन्ताने । ऊयते । “गुरुनाम्यादे:-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि 15 ऊयाश्चक्रे । ऊयिता । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट, ऊतः ऊतवान् । मनि यलुकि गुणे च स्वोमा । एवं बन्नादिष्वपि ॥
८०१ पूयैङ् दुर्गन्ध-विशरणयोः। पूयते पुपूये पूयिता। ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , पूतः पूतवान् । अचि पूयः, स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् पूयी। क्तौ पूतिः, अत्र तेऽनिटत्वात् "क्तेटो-" ५॥३॥
१०६। इत्यप्रत्ययो न भवति । उणादौ "ह-मुषि-" (उ० ६५१) इति किति तौ पूर्तिर्दुर्गन्धः ॥ 20 ८०२ क्नूयैङ् शब्द-उन्दनयोः । उन्दनं क्लेदनम् । दुर्गन्धेऽपीत्येके । क्नूयते चुक्नूये
क्नूयिता । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , क्भूतः नूतवान् । णौ "अर्ति-री-" ४।२।२१। इति पौ "पुस्पो" ४॥३॥३॥ इति गुणे "वोः-" ४।४।१२१॥ इति यलुकि च क्नोपयति । "चेलार्थात् क्नोपेः" ५।४। ५८॥ इति णमि चेलक्नोपं वृष्टो देवः । “न णिङ्-य-" ५।२।४५। इति प्रतिषेधाद् अनाभावे तृनि
अनूयनशीलः क्नूयिता ॥ 25 ८०३ क्ष्मायैङ् विधूनने । क्ष्मायते चक्ष्माये मायिता । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट्, मातः क्षमा
तवान् । णौ "अर्ति-री-" ४।२।२१। इति पौ "वो:-" ४।४।१२१। इति यलुकि मापयति । तृनि पूर्ववत् क्ष्मायिता ॥
८०४ स्फायैङ् ८०५ ओप्यायल् वृद्धौ । स्फायते पस्फाये स्फायिता । ऐत्त्विात् क्त्यो१ मन-वन्प्रसूतिकृदन्तप्रत्ययेषु ॥ २ कलियान्दे इति शाकटायनः ॥
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आत्मनेधातवः ७९७-८०८] स्वोपझं धातुपारायणम्।
१०३ नेट , स्फातः स्फातवान् । “स्फायः स्फी वा"४।१९४। इति स्फीभावे स्फीतः स्फीतवान् । णौ "स्फायः स्फा" ४।२।२२। इति स्फाव् , स्फावयति । पारायणिकानां तु स्फाययतीत्यपि । तथा विपि यलुकि स्फामाचष्टे इति णिचि अन्तस्यावादेशे स्फवयतीति । उणादौ "दिन-नम-" (उ०२६८) इति ने निपातनात् फेनः । “भी-वृधि-" (उ० ३८७) इति रे स्फारम् । “स्थविर-पिठिर-"(उ० ४१७) इति इरे निपातनात् स्फिरः स्फार इत्यर्थः ॥ ओप्यायैङ् । प्यायते । परोक्षा-यङोः “प्यायः 5 पी:” ।१।९१। इति प्यादेशे आपिप्ये आपेपीयते । "क्तयोरनुपसर्गस्य" ४।१।९२। इति पीभावे "सूयत्याद्यो-" ४।२।७०। इति क्तस्य नत्वे च पीनौ स्तनौ, पीनं मुखम् । “आङोऽन्धूधसोः” ४।१। ९३। इति प्यादेशे आपीनोऽन्धुः, आपीनमूधः; अर्थान्तरे तु आप्यानः चन्द्रः, अत्र "व्यञ्जनान्तस्थाऽऽतो-" ४२।७१। इति तस्य नत्वम् । “दीप-जन-" ३१४६७। इति कर्तर्यद्यतन्यास्टे वा मिचि तलुकि च अप्यायि अप्यायिष्ट । “न ख्या-पूग्-" २।३।९०। इति प्रतिषेधात् "स्वरात्" २।३।८५/ 10 इति णत्वाभावे प्रप्यानः, ओदित्त्वात् “सूयत्याद्यो-" ४।२।७०। इति तस्य नत्वम् ।
. ८०६ तायङ् सन्तान-पालनयोः। सन्तानः प्रबन्धः । तायते तताये तायिता । "दीपजन-" ३।४।६७। इति वा निचि अतायि अतायिष्ट । ऋदित्त्वाद् डे न इस्वः, अततायत् । यङि ताताय्यते । यङ्लुपि तातायीति ताताति । “न णिङ्-य-" ५।२।४५। इति प्रतिषेधादनाभावे तृनि तायनशीलस्तायिता । "णिन् चावश्यका-" ५।४।३६॥ इति णिनि तायी ॥
15 अथ लान्ता नव सेटश्च
८०७ वलि ८०८ वल्लि संवरणे । वलते । “अनादेशादे:-" १।११।२४। इत्येत्व-द्वित्वाभावयोः “न शस-"४।१।३० इति निषेधात् ववले । वलिता । ते उपोद्वलितः । अचि वलः, कुत्सितो वलः कुवलः, स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् कुवली बदरी । घनि वालाः केशाः; कल्याणा वाला यस्या इति क्रोडादित्वाद् “असह-नञ्-" २।४।३८। इति ज्यभावे आपि कल्याणवाला; श्वेतवालीति 20 तु जातिवाचिनः “पाक-कर्ण-"२।४।५५। इति ड्यां सिद्धम् । उणादौ "भीण-शलि-"(उ०२१) इति के बल्कम् । “स्यमि-कषि-"(उ० ४६) इति ईके वलीकं नीवम् । “सृणीका-ऽस्तीक-" (उ० ५०) इति ईके निपातनाद् वल्मीको नाकुः । “कु-गु-वलि-"(उ० ३६५) इति अये वलयः कटकः । “वलिंपुषेः कलक्" (७० ४९६) वल्कलम्, वल्कं लातीति वा डे वल्कलम् । “पदि-पठि-" (उ०६०७) इति इः, वलिः । “फलि-वलि-" (उ० ७५८) इति गौ वल्युः । दन्त्यौष्ठ्यादिरयम् । ज्वलादौ बल 25 प्राणन-धान्यावरोधयोरिति त्वोष्ठ्यादिः । बलति । “वर्षादयः क्लीबे" पा३।२९। इत्यलि बलम् । "वा ज्वलादि-" ५।१।६२। इति णे बालः । अचि बलः । उणादौ "शलि-बलि-" (उ०३४) इति आके बलाका । “बलेोऽन्तश्च वा" (उ० १३३) इति अजे बल्वज उलपः, बल्वजा सबुसो धान्य.
१ को स्फातिः । कथं स्फीतिरिति ? उच्यते, स्फायते स्म क्तः स्फीतः, स्फीत इवाचरति “कर्तुः क्विप्" ४।२५। स्फीततीति "स्वरेभ्य इ." (उ०६०६) इति स्फीतिः ॥२ संवरणे सधरणे चेति माधवधा. पु०९७ धा० ४८७-८८ कौमुथ च पृ.१३८ धा. ४९२-२ ॥.
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१०४ आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूषादि गणे पुनः । “विष्टपोलप-" (उ०३०७) इति अपे निपातनात् उलपः । वलण प्राणने। घटादिधेत्येके । वलयति ॥ वल्लि । वल्लते ववल्ले वल्लिता । ते वल्लितः । ते सेट्त्वात् "क्तेटो-"५।३।१०६। . इति अः, वल्ला । अचि वल्लम् । उणादौ "कृ-श-ग-"(उ० ३२९) इति अभे वल्लभः । “मी-मसि-"
(उ० ४२७) इति ऊरे वल्लूरं शुष्कमांसम् । “वडि-वटि-" (उ० ५१५) इति अवे वल्लवो 5 गोपालः । “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, वल्लिलता । "नदि-वल्लि-" (उ० ६९८) इति अरौ वल्लरिर्मञ्जरी ॥
८०९ शलि चलने च । चकारात् संवरणे । तालव्यादिः । शलते शेले शलिता । उणादौ "भीष्शलि-"(उ० २१) इति के शल्कः शरणम् । “शलि-बलि-" (उ० ३४) इति आके शलाका ।
"शल्यणेर्णित्" (उ० ५९) इति ऊके शालूकः । “ कृ-श-ग-" (उ० ३२९) इति. अभे शलभः । 10 "स्था-छा-मा-" (उ० ३५७) इति ये शल्यम् , यावादित्वात् के शल्यकः । “मृदि-कन्दि-" (उ० ।
४६५) इति अले शललं श्वावित् सूची । शलमिति तु अचि । “कमि-वमि-"(उ०६१८) इति णिदिः, शालिः । “शलेराटुः" (उ० ७६३) शलाटुः कोमलं फलम् । “लस्जीयि-शलेरालुः" (उ० ८२२) शलालुर्वृक्षावयवः । शल गतौ ज्वलादिः । शलति । "वा ज्वलादि-" ५।११६२। इति णे
शाला । अचि शलं श्वाविद्रोम ।। 15 ८१० मलि ८११ मल्लि धारणे । मलते मेले मलिता । अचि मलः । कर्मणि पनि माला।
उणादौ "कु-गु-वलि-" (उ० ३६५) इति अये मलयो गिरिः । “महि-कणि-" (उ० ४२८) इति ऊरे मालूरो बिल्वः । चुरादेराकृतिगणत्वाच्चुरादावदन्तः । मलयति । अलि परिमलः ॥ माल्ले । मल्लते ममल्ले मल्लिता । अचि मल्लः, गौरादित्वाद् ड्याम् मल्ली विचकिलः । णके मल्लकः, खियाम्
मल्लिका । उणादौ दृ-कृ-न-" (उ० २७) इति अके मल्लकः शरावः, मल्लिका विचकिलः 20 शरावश्च ॥
८१२ भलि ८१३ भल्लि परिभाषण-हिंसा-दानेषु । भलते बमले भलिता। भलिस्थाने ओष्ठ्यादि बलिमेके पठन्ति, बलते । “अनादेशादे:-" ४।१।२४। इत्येत्व-द्वित्वाभावयोः बेले। भलिए आभण्डने । निभालयते । उणादौ "मृ-मन्यजि-" (उ०५८) इति ऊके भालूक ऋक्षः ॥
__ भल्लि । भल्लते बभल्ले भल्लिता । करणे "व्यञ्जनाद्-" ५।३।१३२। इति घनि मल्लः क्षुरप्रः । 25 उणादौ "कणि-भल्लेीर्घश्च वा” (उ० ६०) इति ऊके भल्लुको भाल्लूकश्च ऋक्षः । “पदि-पठि-" (उ०६०७) इति इः, भल्लिः ॥
८१४ कलि शब्द-सङ्ख्यानयोः। कलते आकलते सङ्कलते परिकलते प्रत्याकलते विकलते। चकले कलिता । अचि कलः । कर्मणि घनि कालः । “तिक्कृतौ नाम्नि" ५।१७१। इति अके कलिका । उणादौ "भीण्शलि-"(उ०२१) इति के कल्को दम्भः । “क्री-कलि-" (उ० ३८)इति
१ “यावादिभ्यः कः" ॥३॥१५॥ २ च सं १ तपा० नास्ति ।
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मात्मनेधातवः ८०९-८२७] स्वोपर्व धातुपारायणम् ।
१०५ इके कलिका कोरकम् , उत्कलिका ऊर्मिः । कलम इति तु कडत् मदे इत्यस्य "सृ-पृ-प्रथि-" (उ० ३४७) इति अमे डस्य लत्वे च सिद्धम् । “स्था-छा-मा-" (उ० ३५७) इति ये कल्यं प्रातः । "कुलि-लुलि-" (उ० ३७२) इति आये कलायः त्रिपुटधान्यम् । “मृदि-कन्दि-" (उ०४६५) इति अले कललं शुक्रशोणितमलः । “कल्यनि-महि-" (उ० ४८१) इति इले कलिलं व्याप्तम् । “ऋपृ-नहि-" (उ० ५५७) इति उपे कलुषं पापम् । “कलेर्मषः (उ० ५६२) कल्मषं पापम् । “कुलेश्च । माषक्” (उ० ५६३) कल्माषः शबलः । “कलि-कुलिभ्यां मास" (उ०५८४) कल्मासः शबलः । "पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, कलिः । कलण क्षेपे कालयति । अचि कालः । “णि-वेत्त्या-" ५।३।१११। इति अने कालना । “स्वरेभ्यः-"(उ० ६०६) इति इः, कालिः । कालिकेति तु कालात् चोराद्यकनि । कलण् संख्यान-गत्योः अदन्तः, कलयति । कलना । “भीषि-भूषि-" ५।३।१०९। इत्यत्र बहुवचनाद् अङि कला ॥
10 ८१५ कल्लि अशन्दे । शब्दस्याभावोऽशब्दम् तूष्णीम्भावः । शब्दार्थोऽयमित्येके । अव्यतशब्दार्थे इत्यपरे। कल्लते चकल्ले कल्लिता। अचि कल्लः । उणादौ "पिञ्छोल-कल्लोल-" (उ० ४९५) इति ओले कल्लोलः॥
अथ वान्ताश्चतुर्दश सेटश्च. ८१६ तेङ ८१७ देवृङ् देवने । तेवते तितेवे तेविता । ऋदित्त्वाद् के न इस्वः, अति- 15 तेवत् । यडि तेतेव्यते। यङ्लुपि तेतेवीति, पक्षे "अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इति वस्योटि गुणे च तेतयोति, कित्येवोडिति पक्षे “य्वोः-" ४।४।१२१। इति वलुकि तेतेति । मनि “अनुनासिके च-" ४।१।१०८। इति वस्योटि गुणे च सुतयोमा । वनि “य्वोः-" ४।४।१२१। इति वलुकि सुतेवा । किपि ऊटि सुतयूः । विचि “य्वोः-" ४।४।१२१॥ इति वस्य लुकि सुतेः । क्तरपवादः "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, तेवा ॥ देवृङ् । देवते दिदेवे देविता । ऋदि-20 त्त्वाद् डे न इस्वः, अदिदेवत् । शेषं पूर्ववत् । “परेर्देवि-" ५।२।६५। इति घिनणि परिदेवी । “उपसर्गाद् देव-देवि-" ५।२।६९। इति णके आदेवकः । उणादौ "ऋच्छि-चटि-" (उ० ३९७) इति अरे देवर । "मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले देवलः ऋषिः । देवट इति तु दीव्यतेः "दिव्यवि-" (उ० १४२) इति अटे ॥
८१८ वृह ८१९ सेवृङ् ८२० केवृङ् ८२१ खेवृड ८२२ गेवृह ८२३ ग्लेख 25 ८२४ पेङ ८२५ प्लेवृङ् ८२६ मेवृङ् ८२७ म्लेवृङ् सेवने । सर्वे ऋदितः सेटश्च । ऋदित्त्वं ङपरे णावुपान्त्यहस्वाभावार्थम् । “पः सो-" २।३।९८॥ इति सत्वे सेवते सिषेवे सेविता । ऋदित्त्वाद् डे इस्वाभावे षोपदेशत्वाच्च “नाम्यन्तस्था-" २।३।१५। इति षत्वे असिषेवत् । “परिनि-वेः सेवः” २।३।४६। इति षत्वे परिषेवते निषेवते विषेवते । अव्यवायेऽपि पर्यषेवत इत्यादि ।
१ कलिः सं १ तपा• प्र• ॥ २ चोरादेः" ७१॥७३॥ इति सूत्रम् ॥ धा.पा. १४
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१०६ आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
भूषादिगणे सनि परिषिषेविषते, अत्र "णि-स्तोरेवा-" २।३।३७। इति नियमेन बाधितस्य षत्वस्य प्रतिप्रसवः । अनटि सेवनम् । भीरुष्ठानादित्वात् पत्वे दुन्दुभेः सेवनं दुन्दुभिषेवणम् ॥ सेवृङ् । सेवते ।
अषोपदेशत्वात् षत्वाभावे परिसेवते निसेवते विसेवते पर्यसेवत । सनि परिसिसेविषते । सिसेवे । ___णौ असिसेवत् । क्ते सेवितः । "क्तेटो-'" ५।३।१०६। इत्यः, सेवा ॥ केवृङ् । केवते 5 चिकेवे । णौ डे अचिकेवत् । उणादौ मृदि-कन्दि-" (उ० ४६५) इति अले केवलः ॥
खेवृ । खेवते चिग्वेवे खेविता । णौ डे अचिखेवत् ।। गेवृङ्। गेवते जिगेवे । णौ डे अजिगेवत् ॥ ग्लेवृङ् । ग्लेवते जिगेवे । णौ डे अजिग्लेवत् ॥ पेङ् । पेवते 'पिपेवे ।
णौ के अपिपेवत् ॥ प्लेवृह । प्लेवते पिप्लेवे। णौ अपिप्लेवत् ॥. मेवृ । ___ मेवते मिमेवे । णौ डे अमिमेवत् ॥ म्लेवृङ् । ग्लेवते मिम्लेवे । णौ के अमिम्लेवत् ॥ 10 ८२८ रेवृङ् ८२९ पवि गतौ । रेवङ् प्लुतिगतावित्यन्ये । प्लुतिभिर्गतिः प्लुतिगतिः ।
रेवते रिरेवे रेविता । ऋदित्त्वाद् उ ह्रस्वाभावे अरिरेवत् । “नाम्युपान्त्य-" ५।१।५४। इति के रेवा नर्मदा। उणादौ "तृ-जि-" (उ० २२१) इति अन्ते रेवन्तः सूर्यपुत्रः । रेवती तु रीयतेर्विचि मतौ ड्या रूपम् ॥ पवि। पवते पेवे पविता । “इ-ङितः" ५।२।४४। इति अने पवनः ।।
अथ शान्तौ द्वौ सेटौ च16 ८३० काशृङ् दीप्तौ । काशते चकाशे काशिता । ऋदित्त्वाद् डे हस्वाभावे अचकाशत् ।
अचि काशः आकाशः सङ्काशः प्रकाशः । “नामिनः काशे" ३।२।८७। इति दीर्घ प्रतीकाशः नीकाशः । घञि काशः। उणादौ “वनि-कणि-" (उ० १६२) इति ठे काष्ठम् । “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, काशिः ॥
८३१ क्लेशि बांधने । क्लेशते चिक्लेशे क्लेशिता। क्ते क्लेशितः । "क्तटो-'" ५।३।१०६। 20 इत्यः, क्वेशा । घनि क्लेशः ॥
अथ पान्ता द्वादश सेटश्व
८३२ भाषि च व्यक्तार्या वाचि । प्रकृतेः परश्चकारः प्रकृतिमनुकर्षति, तेन क्लेशिर्राषिश्च ३क्तायां वाचि । क्लेशिरुदाहृत एव । भाषि । भाषते बभाषे भाषिता । णौ डे "भ्राज-भास-" ४।२। ३६॥ इति वा हस्वे अबीभषत् अबभाषत् । क्ते भाषितः । "क्तेटो-"५।३।१०६॥ इति अः, भाषा। 25 पनि भाषः । प्यणि भाष्यते इति भाष्यम् , करणे वा “बहुलम्"५।३।१॥ इति ध्यण् । “निन्द हिंस-" ५।२।६८। इति णके व्याभाषणशीलो व्याभाषकः ॥
१ "भीरुष्टानादयः" ३३३॥ २पिपेवे पेविताणौ इति मुद्रिते ॥३केशि विवाधने प्र.। क्लेश व्यक्तायां वाचि इति धातु पदीप पृ. ४५ धा. ६०७। अत्र सायणः क्लेश अव्यक्तायां वाचि । याधन इति दुर्गः, अत्र स्वामी क्लेश व्यक्तायां वाचि चेति पठन् इमावपि पूर्वधातोरर्थावेवाह । चन्द्र-दुर्ग-मैत्रय-सम्म. ताकार-देवादयस्तु धात्वन्तरमेवाहुः । इति माधवधा०पृ.११४ धा०५९९ ॥ ४ भाषते भाषिता संपा.१॥
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आत्मनेधातवः ८२८-८४२] स्वोपलं धातुपारायणम् ।
१०७ ८३३ ईषि गति-हिंसा-दर्शनेषु । ईषते । “गुरुनाग्यादेः-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि ईषाञ्चक्रे । ईषिता । क्ते ईषितः । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, ईपा, "नाम्युपान्त्य-" ५।११५४। इति के वा रूपम् । उणादौ ऋच्युजि-" (उ० ४८) इति ईके ईषीका काशः । इषीकेति तु इपत इच्छायामित्यस्य । इषुरित्यपीच्छतेः “पृ-का-हृषि-" (उ० ७२९) इति किति औ रूपम् । ईष उञ्छे ईषति ॥
८३४ गेष्टङ् अन्विच्छायाम् । अन्विच्छाग्वेषणम् । गेषति जिगेषे गेषिता । ऋदित्त्वाद् ङे हूस्वाभावे अजिगेषत् ॥
८३५ येष्टङ् प्रयत्ने । येषते यियेथे येषिता। ऋदित्त्वाद् डे हस्वाभावे अयियेषत् ।।
८३६ जेषङ् ८३७ णेङ ८३८ एपृङ् ८३९ हेतृङ् गतौ । जेपते जिजेषे जेषिता । ऋदित्त्वाद् के अजिजेषत् ॥ पृङ् । “पाठे धात्वादे:-" २।३।९७। इति नत्वे नेषते । 10 णोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्गा-" २।३।७७) इति णत्वे प्रणेषते । निनेषे नेषिता । ऋदित्त्वाद् डे अनिनेषत् । नेष्टेति तु नयतेः "नियः षादिः" (उ० ८६४) इति तृप्रत्यये रूपम्॥ एपृङ् । एषते अन्वेषते । “गुरुनाम्यादे:-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि एषाञ्चक्रे । “स्व. देद्वितीयः" ४।१।४। इति षेत्वेि अन्वेषिषते । ऋदित्त्वाद् डे न हूस्वः, मा भवानेषिषत् । अत्राप्योणेरिव ऋदित्करणेन नित्यस्यापि द्वित्वस्य ह्रस्वेन बाधाज्ञापनाद् हेस्वस्य प्राप्तिः । क्ते अन्वेषितः । अन्विष्ट 15 इति विच्छतेः ॥ इष्टङ् । हेषते जिरुषे हेषिता । ऋदित्त्वाद् डे अजिरुषत् । ते ड्रेषितः । "क्तटो-'" ५।३।१०६॥ इत्यः, हेषा ॥
८४० रेडङ् ८४१ हेष्टङ् अव्यक्ते शब्दे । रेषते रिरेषे रेषिता । ऋदिस्वाद् के अरिरेसत् । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, रेषा । हेपङ् । हेपते जिहेषे हेषिता । ते हेषितम् । ऋदित्त्वाद् डे अजिहेषद् । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः हेषा ॥
20 ८४२ पर्षि स्नेहने । पर्षते पपर्षे पर्षिता । क्विपि तलकि "रात्सः"२।११९०। इति नियमात् "पदस्य" २।१।८९। इति लोपाभावे सुप । पाणिरिति तु पृषेः "पृषि-हृषिभ्यां वृद्धिश्च" (उ० ६३६) इति णौ । पर्षदित्यपि पृणातेः “प्रः सद्" (उ० ८९७) इति सदि । परिषदिति तु परिपू. त् सीदतेः क्विपि ॥
१ हस्वस्याप्राप्तिः इति मुद्रिते ॥२ अस्य स्थाने माधवदीक्षितधातुकाव्यकारादयः पेमिति रेषहे हे अव्यक्ते शब्दे इति चाहुः, तथा च "सुप्रेषितान् पथि सरेषवृके सहेषं, हेषास्तकासरमदानतिभासुराङ्गान् । मातोत्थरासलसितान्नसितेन दाम्ना, सूतो ययाम समराभ्यसियास्तुरङ्गान्" ॥ इति धातुकाव्यसर्ग, श्लो०७९ । एवं केशवोऽपि 'कौक्षे कर्दति पर्दते गुदरवे रेषेति वार्के हसे बुक्कति श्वरवे भषेति हयजे हेषेति हेषेति च' इति । रेषधातुः स्वभावाद् घृकशब्दे, हे लेघ च धातू अश्वशब्दे इति ॥३ पृषू सेचने इत्यस्मात् धातोः ।। ४ पश् पालन-पूरणयोः इत्यस्मात् ॥ ५. षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु ॥ ६ क्विए सं१-२ तपा० ॥
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१०८
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित [भूवादिगणे ८४३ धुषुङ् कान्तीकरणे । उदित्त्वाद् ने धुंषते जुqषे धुंषिता ॥ अथ सान्तास्त्रयोदश सेटच
८४४ संखङ् प्रमादे। दन्त्यादिः । प्रमादोऽवलेपः । संसते सस्रंसे सस्यते। ऊदित्त्वात् वित्व वेट्, सस्त्वा; इटि "क्त्वा" ४।३।२९। इति कित्त्वाभावे संसित्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेट्, सस्तः 5 सस्तवान् । “वश्च-संस-" १।१।५०। इत्यत्र ध्वंसिसहचरितस्य द्युतादिस्रसेर्ग्रहणादस्य यडि न्यभावे
सासस्यते । “संस्-ध्वंस्-" २।१।६८। इत्यत्र साहचर्यानाश्रयणादुभयोरपि ग्रहणे क्विपि दत्वे उखासत् । भान्तोऽयमित्येके, विस्रम्भते बिस्रभ्यते ॥
८४५ कासृङ् शब्दकुत्सायाम् । शब्दस्य कुत्सा रोगः । कासते "दयायोस्-" ३।४।४७) ___ इति परोक्षाया आमि कासाञ्चक्रे । कासिता । ऋर्दित्त्वाद् डे न ह्रस्वः, अचकासत् । क्ते कासितम् । 10 "क्टो-" ५/३।१०६। इति अः, कासा। घनि कासः । विकास इति तु कसेर्धनि ।
८४६ भासि ८४७ दुभ्रासि ८४८ दुम्लासृङ्दीप्तौ । भासते बभासे भासिता । णौ "भाज-भास-"४।२।३६। इति वा ह्रस्वे अबीमसत् अबभासत्। ग्रहादित्वाद् णिनि उद्भासी । “भजिभासि-" ५।२।७४।इति घुरे भासनशीलो भासुरः। “स्थेश-भास-" ५।२।८१। इति वरे भास्वरः ।
“दिद्युइद्-" ५।२।८३॥ इति क्विपि भाः भासौ भासः । भेति तु "मृगयेच्छा-" ५।३।१०१। 15 इति निपातनादङि आपि च भातेः । क्ते भासितः । "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, भासा । पनि
उद्धासः। उणादौ "तृ-जि-भू-वदि-" (उ० २२१) इति अन्ते भासन्तः णौ "आमन्ता-” ४॥ ३८५। इति अयि भासयन्तश्च सूर्यः ॥ दुभ्रासि । "प्रास-भ्लास-" ३६४७३।इति वा श्ये प्रास्यते भासते। "ज-अम-वम-" ४।१।२६। इति वा स्वरस्यैत्वे द्वित्वाभावे च प्रेसे बनासे । प्रासिता। णौ "भ्राज-भास-" ४।२।३६। इति बहुवचनाद्वा ह्रस्वे अबिनसत् अबभ्रासत् । ट्वित्त्वा20 दथौ प्रासथुः ॥ दुम्लालुङ । “प्रास-भ्लास " ३।४।७३। इति वा श्ये भ्लास्यते म्लासते।
"ज-भ्रम-" ४।१।२६। इति वैत्वे द्वित्वाभावे च भ्लेसे बभ्लासे। भ्लासिता। ऋदित्त्वाद णौ के न ह्रस्वः, अबभ्लासत् । दिवत्त्वादयौ मलासथुः ॥
८४९ रासृङ् ८५० णासङ् शन्दे । रासते ररासे । ऋदित्त्वाद् णौ डे न हस्व., अररासत् । "नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१॥ इति पके रासकः । उणादौ "क-श-गृ-' (उ०३२९) इति अमे 26 रासभः । राना रमेति तु “रसेर्णिद्वा" ("रसेर्वा") (उ० २६०) इति ने रसतेः ॥ णासङ् । "पाठे धात्वादेः-" २।३।९७। इति नत्वे नासते। णोपेदशत्वाद् “अदुरुपर्गा--"२।३७७। इति णत्वे
१ अत्र सायणः घुसि कान्तिकरणे । घिषीतीदुप, पैठतुः चन्द्रकाश्यपौ । स्वामि घसेति दन्त्यान्तमदुपपधं पपाठ। यथा वयं तथा देव-मैत्रेय-दुर्गाः । षकारान्तोऽप्ययमिति मा.धा.पृ. ११९ धा०६४२ । धातुकाव्ये तु घसीत्येके। घषेत्यन्ये । सर्ग, श्लो. ८४ टीकायाम् ॥ २ रोगजे कुत्सितशब्देऽयं प्रसिद्धः। शब्दमात्रे शोभार्थेऽप्याह भट्टिः इति धातुका.पू. १५३ स१-७९ श्लोकटीकायाम् ॥ ३ दयायाका प्र० ॥ ४ स्वासह सं। संर तपा•॥ ५ टुभ्राश टुभ्लारा इति पाणिनीयाः॥
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आत्मनेधातवः ८४३-८६१] स्वोपझं धातुपारायणम्। प्रणासते। ननासे नासिता । ऋदित्त्वाद् उ अननासत् । अचि नासा । णके नासिका ॥
८५१ णसि कौटिल्ये । “पाठे धात्वादेः-" २।३।९७। इति णस्य नत्वे णोपदेशत्वाद् "अदुरुपसर्गा-" २।३।७७। इति णत्वे प्रणसते । नेसे नसिता । णके नासिका । विचि किपि वा सौ भ्वादित्वाद् “अभ्वादे:-" १।४।९०। इति दीर्घाभावे सुनः । कर्मणि पाजे नासो घ्राणम् । उणादौ "नसि-वसि-" (उ० ४०) इति णिदिकः, नासिका ॥
८५२ भ्यसि भये । भ्यसते बभ्यसे भ्यसिता। “भेष" इति चन्द्रः। मेषते ॥
८५३ आङ शसुङ् इच्छायाम् । आङ इति आङः पर एवायं प्रयुज्यते नान्योपसर्गात् नापि केवल इति ज्ञापनार्थम् । उदित्त्वाद् ने आशंसते आशंस्यते आशशंसे। ते आशंसितम् । "क्तेटो-"५।३।१०६॥ इति अः, आशंसा । “सन्-भिक्षा-" ५।२।३३। इति उः, आशंसुः । प्रशस्यते शस्त्रम् , प्रशंसेति तु शंसू स्तुतावित्यस्य ॥
10 . ८५४ प्रसूङ् ८५५ ग्लसूङ् अदने। ग्रसते जनसे ग्रसिता। यङि जाग्रस्यते। यङ्लुपि जाग्रसीति जाग्रस्ति । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट, अस्त्वा ग्रसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट, ग्रस्तः प्रस्तवान् । घनि ग्रासः । उणादौ “प्रसि-हाग्भ्यां ग्रा-जिहौ च" (उ०३३९) इति मे ग्रामः। “रुक्म-ग्रीष्म-" (उ० ३४६) इति मे निपातनात् ग्रीष्मः ॥ ग्लसूङ् । ग्लसते जग्लसे ग्लसिता। ऊदित्त्वात् क्त्वि वेट्, ग्लस्त्वा ग्लसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, ग्लस्तः ग्लस्तवान् । घञि ग्लासः ॥ 15
८५६ घसुङ् करणे । उदित्त्वाद् ने घंसते जघंसे घंसिता । मूर्धन्यान्तोऽयमिति चन्द्रः घंषते ॥ अथ हान्ता अष्टादश सेटश्च
८५७ ईहि चेष्टायाम् । ईहते । “गुरुनाम्यादेः-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि ईहाचक्रे । ईहिता । घनि ईहः । स्त्रियां "क्तेटो-" ५/३।१०६॥ इति अः, ईहा ॥ " 20
८५८ अहुङ् ८५९ प्लिहि गतौ । उदित्त्वाद् ने अंहते । “अनातो-" ४।१।६९। इति पूर्वस्यात्वे ने च आनंहे । अंहिता । उणादौ “अम्भि-कुण्ठि-" (उ० ६१४) इति इर्नलुक् च, अहिः । "तङ्कि-वकि-" (उ० ६९२) इति रौ अंहिः । “अस्-" (उ० ९५२) इति असि अंहः पापम् , अमेर्वा “अमेर्भहौ चान्तौ” (उ० ९६२) इति असि । अहुण भासार्थः अंहयति ॥ प्लिहि । प्लेहते पिप्लेहे प्लेहिता। उणादौ "श्वन्-" (उ० ९०२) इति अनि निपातनात् प्लीहा ॥ 25
८६० गर्हि ८६१ गल्हि कुत्सने । गर्हते जगहें गर्हिता । यङि जागते । मनि सुगर्मा। वनि सुगरे । स्त्रियां "क्तेटो-" ५।३।१०६। इति अः, गर्दा । "श्वादिभ्यः" ५।३।९२। इति क्तौ
१ अत्र कृग उभयपदित्वेऽपि “आमः कृगः" ३॥३॥७५। इत्यात्मनेपदमेव न परस्मै। ईहाम्बभूव, ईहामास, भ्वस्तिभ्यां परस्मैपदमेव एवमन्यत्रापि ॥ २ अम गतौ इत्यस्माद् अस् भकार-हकारौ चान्तौ भवतः, अंहः पापं अपराधः दीनश्च ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं [भूवादिगणे गर्दिः । घञि गर्हः। क्विपि “रात्सः" २।१।९०। इति नियमात् संयोगान्तलोपाभावे सुघर्ट् । गर्हण् विनिन्दने युजादित्वाद् वा णिचि गर्हयति गर्हति ॥ गल्हि । गल्हते जगल्हे गल्हिता। यङि जागल्ह्यते । मन्नादिषु पूर्ववत् ।।
८६२ वहिं ८६३ वल्हि प्राधान्ये । वर्हते वर्हे वर्हिता । अचि वर्हः प्रधानभूतः । मुनि5 प्रवर्हः ॥ वल्हि । वल्हते ववल्हे वलिहता । चुरादौ भासार्थों वर्हयति वल्हयति ॥ ।
८६४ बर्हि ८६५ बल्हि परिभाषण-हिंसा-ऽऽच्छादनेषु । दानेऽप्यन्ये । ओष्ठ्यादी एतौ, पूर्वी तु दन्तौष्ठ्यादी । बर्हते बब. बर्हिता । घनि बर्हः । प्रज्ञाद्यणि बाहः । “फल बच्चि-"७।२।१३। इति इने बर्हिणः॥ बल्हि। बल्हते बबल्हे बलिहता। "हाऽन्तस्था- २।१।८१।
इत्यद्यतन्या धस्य वा ढत्वे अवल्हिढ्द्वम् अवल्हिध्वम् । उणादौ "सृणीका-" (उ० ५०) इति इके 10 निपातनात् बाल्हीकः। “पदि-पठि-" (उ० ६०७) इति इः, बल्हिः । बाहुलकाद्दीधै बाल्हयः । खार्थिके के बाल्हिका देशः क्षत्रियाश्च ॥
८६६ वेहङ् ८६७ जेहङ् ८६८ वाहृङ् प्रयत्ने । वेहते विवेहे वेहिता : ऋदित्त्वाद् डे न हखः, अविवेहत् । वेहदिति तु हेन्तेः, विहन्ति गर्भमिति वेहद् गर्भनी गौः, “संश्चद्वेहत्साक्षादादयः" __ (उ० ८८२) इति निपातनात् ॥ जेहङ् । जेहते जिजेहे जेहिता । ऋदित्त्वाद् डे अजिजेहत् ।। 15 वाहङ् । वाहते ववाहे वाहिता । ऋदित्त्वाद् उ अववाहत् । "क्षुब्ध-विरिब्ध-" ४।४।७०। इति ते निपातनादिडभाव वाढं भृशम् । वाहितमन्यत् ॥
८६९ द्राहङ् निक्षेपे । निद्राक्षेपे इत्येके । द्राहते दद्राहे द्राहिता। ऋदित्त्वाद् डे अदद्राहत् ॥
८७० अहि तर्के । तर्क उत्प्रेक्षा । उहते । “उपसर्गादस्य-"३।३।२५। इति वाऽऽत्मनेपदे 20 समूहति समूहते । “उपसर्गादूहो-" ४।३।१०६। इति क्ङिति यि हस्वे अभ्युह्यते समुह्यते । “गुरु
नाम्यादे:-" ३।४।४८। इति परोक्षाया आमि ऊहाञ्चके । सनि "स्वरादेः-" ४।१।४। इति हेर्द्वित्वे ऊजिहिषते । क्ते ऊहितम् । “क्तेटो-'" ५।३।०६। इति अः, ऊहा। घनि ऊहः ।
८७१ गाहौङ् विलोडने । विलोडनं परिमलनम् । गाहते जगाहे । औदित्त्वाद् वेट्, गाढा गाहिता । वेट्त्वात् क्तयोनेंट्, गाढः गाढवान् । अचि गाहः। स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् गाही। 25 घनि अवगाहः ।।
८७२ ग्लहौङ् ग्रहणे । ग्लहते जग्लहे। औदित्त्वाद् वेट् , ग्लाढा, अत्र "ढस्तड्डे" १।३।४२। १पाणिनीयाः ॥ २ विपूर्वात् हन्तेर्डित्कत् वेश्च गुणः, वेहत् गर्भध्नी अप्रजा स्त्री अनड्वांश्च ॥ ३ क्रियाविशेषणमेवैतत् , यद्ययं क्रियाविशेषगं तत्कथं बाढविक्रमा इत्यत्र विक्रमाभिधायी बाढशब्द इति चेत्, उच्यते। नात्र बाढशब्दो विक्रमाभिधायी किन्तु विस्पष्टपटुवत् बाढशब्देन क्रियाविशेषणेन सह समास इति ॥४ पाणिनीयाः॥ ५ वितर्के । । वितर्कः सम्भावनम्, इति पाणिनीयाः। कथं तर्हि 'अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः' इत्यत्र परस्मैपदम् ? अत्राहुः-अनुदात्तत्वलक्षणस्य तङो अनित्यत्वान्न दोष इति तत्त्वबोधिन्यां सिद्धान्तकौ० पृ० ३१॥
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आत्मनेधातवः ८६२-८८२] स्थोपटं धातुपारायणम् । इति ढे ढो लुक् पूर्वस्यातो दीर्घश्च । इटि ग्लहिता । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट, ग्लाढः ग्लाढवान् । “सु-ग्लहः प्रजनाक्षे" ५।३।३१। इत्यलि अक्षाणां ग्लहः पणः । अक्षविषयादन्यत्र पनि ग्लाहः । अयं गृहौङ इत्येके । गर्हते गर्हिता गर्दा गृढः गृढिः गृहम् गृहाः॥
८७३ बहुङ् ८७४ महुङ् वृद्धौ । उदित्त्वाद् ने बहते बबहे बंहिता। उणादौ "स्थावकि-बहि-" (उ० ४८६) इति किति उले नलुकि च बहुलः कृष्णपक्षः । "बंहि-हेर्नलुक् च" 5 (उ०९९०) इति इसि बहिः । बहुः बाहुरिति तु "मि-वहि-" (उ० ७२६) इति वा णिति औ वहेः॥
महुङ् । उदित्त्वाद् ने मंहते ममंहे मंहिता। महानिति तु महे: "दुहि-वृहि-" (उ०८८४) इति कतरि । महीत्यप्यस्यैव “पदि-पठि-"(उ० ६०७) इति इप्रत्यये, अजन्तस्य वा ड्याम् । वहुण् महुण भासार्थों वहयति मंहयति ॥ अथ क्षान्ता अष्टौ सेटश्च । एतेषां च षान्तेषु पाठो युक्तः, वैचित्र्यार्थ त्विह कृतः ॥ 10
८७५ दक्षि शैघ्रये च। शैघ्रयं शीघ्रता चकाराद् वृद्धौ। दक्षते ददक्षे दक्षिता। अचि दक्षः । उणादौ “द्रु-ह-" (उ० १९४) इति इणे दक्षिणः दक्षिणा । “श्रु-दक्षि-" (उ० ३७३) इति आय्ये दक्षाय्यो गरुडः॥
८७६ धुक्षि ८७७ धिक्षि सन्दीपन-क्लेशन-जीवनेषु । धुक्षते दुधुक्षे धुक्षिता। मनि सुधुक्ष्मा । किब्लुकि “संयोगस्यादौ-" २।१।८८। इति को लुकि सुधुट् । क्ते सन्धुक्षितः॥ 15
धिक्षि । धिक्षते दिधिक्षे धिक्षिता । मनि सुधिक्ष्मा । क्विपि सुधिद् ॥ ।
८७८ वृक्षि वरणे । वृक्षते ववृक्षे वृक्षिता । यङि “ऋमताम्-" ४।१।५५। इति री, वरीवृक्ष्यते । अचि घञि वा वृक्षः । मन्नादिषु धुक्षिवत् ॥
८७९ शिक्षि विद्योपादाने । शिक्षते शिशिशे शिक्षिता। क्ते शिक्षितः। "तटो--" . ५।३।१०६। इति अः,शिक्षा । णके शिक्षकः । शिक्षतीति तु शकेः सन्नन्तस्याजिज्ञासाय रूपम् । जिज्ञा-20 सायां तु शकेरप्यात्मनेपदमेव, विद्यासु शिक्षते ॥
८८० भिक्षि याञायाम् । भिक्षते गां राजानम् । बिभिक्षे मिक्षिता। “सन्-भिक्षा-" ५।२।३३। इति उ:, भिक्षणशीलो भिक्षुः । “वृङ्-भिक्षि-"५।२।७०। इति टाके भिक्षाकः भिक्षाकी। ते भिक्षितः । "क्तटो-"५।३।१०६। इति अः, भिक्षा । घनि निक्षः । केचिदलामे लामे चेत्याहुः ।।
८८१ दीक्षि मौण्ड्येज्योपनयन-नियम-त्रतादेशेषु । मौण्ड्यं वपनम् , इज्या यजनम् , 25 उपनयनं मौजीबन्धः, नियमः संयमः, व्रतादेशः संस्कारादेशः। दीक्षते दिदीक्षे दीक्षिता। "इ. डितो-" ५:२।४४। इत्यनस्य "न णिड्य-"५।२।४५। इति प्रतिषेधात् तृनि दीक्षिता । ते दीक्षितः। "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, दीक्षा । केचित्तु दीक्षि मौण्डयेज्योपनयनादौ चेति वृद्धपाठं भिन्दन्ति । ज्यवते जीतः ॥
८८२ ईक्षि दर्शने । ईक्षते । “गुरुनाम्यादे:-" ३।४।४८ इति परोक्षाया आमि ईक्षा-30
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं
[भूवादिगणे श्चक्रे । “यद्वीक्ष्ये राधीक्षी"२।२।५८। इति चतुर्थ्याम् मैत्रायेक्षते, ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः। अचि वीक्षः । "शीलि-कामि-" ५।१।७३। इत्यणोऽपवादे णे प्रियेक्षा। ते प्रेक्षितः। "क्तेटो-" ५।३।१०६। इत्यः, प्रेक्षा । ध्यणि उत्प्रेक्ष्यः। करणेऽनटि ईक्षणम् ॥
१ तस्य दैवं पर्यालोचयतीत्यर्थः ॥२॥ " ईक्षितव्यं परखीभ्यः, स्वधर्मो रक्षसामयम् । संक्रुध्यति मृषा किं त्वं, दिदृश्खं मां मृगेक्षणे ५॥१॥ परस्त्रीणामभिप्राये यत्सन्देहाद ईक्षितव्यं निरूपयितव्यं किमेवं करोषि नवेति तद रक्षसां कुलधर्ना न दोष इति ॥
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भ्वादिगणे अथोभयपदिनो भ्लक्षीपर्यन्ता वर्णक्रमेण ॥ '८८३ श्रिग सेवायाम् । गित्वात् फलवति कर्तरि " ईगितः" ३।३।९५ इति आत्मनेपदम् , अन्यत्र च “शेषात् परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदम् । एवं सर्वत्र । श्रयते, यति, शिश्रिये, शिश्राय । “णिषि०" ३।४।५८ इति डे अशिश्रियत् । श्रयिता, श्रयितुम् । “ऋवर्णश्रूयूटुंगः कितः" ४।४।५७ इतीडभावे श्रित्वा, श्रितः, श्रितवान् । सनि “इध०" ४४४७ इति वेटि शिश्रीपति, शिश्रयिषति । "जीणदृक्षि०." ५।२।७२ इतीनि विश्रयणशीलो विश्रयी । “दिद्युद्-दद्" ५।२८३ इति क्विपि निपातनात् श्रीः । “भूश्रयदोल्" ५।३।२३ इति सोपसर्गादलि प्रश्रयः, अनुपसर्गात्तु पनि श्रायः, श्रय इति तु बाहुलकादलि । " उदः श्रे" ५।३३५३ इति वालि उच्छ्यः , पक्षे पनि उच्छ्रायः । उणादौ "कावावी." (उ० ६३४) इति णौ श्रेणिः । अधिः इति तु अश्नोतेः "सङ्कि-वङ्कि०" (उ०६९२) इति रौ । श्मश्रः इत्यपि शेतेः “मनः शीडोडित्" (उ० ८१०) इति रौ । शिर इति च शृणाते: “ मिथिरज्युषि० " (उ० ९७१) इति किति असि ॥
८८४ णींग प्रापणे' । अजा नयते, नयति वा ग्रामम् , प्रापयतीत्यर्थः । णोपदेशन्वात् “अदुरुपसर्गान्तरो०" २।३१७७ इति णत्वे प्रणयते, प्रणयति । " पूजाऽऽचार्यक० " ३ ३।३९ इत्यात्मनेपदे नयते विद्वान् स्याद्वादे, बटुमुपनयते । "कर्तृस्था०" ३।३।४० इत्यात्मनेपदे क्रोधं विनयते । क्ये अजा नीयते प्रामम् । निन्ये, निनाय । अनुस्वारेक्वान्नेट , नेता, नेतुम् । णिगि “गतिबोधा" २१५ इत्यत्र नीवर्जनादणिकर्तुः कर्मत्वाभावे नाययति भारं ग्राम चैत्रेण । "प्रणाय्यो निष्कामाऽसम्मते" ५।१।२३ इति ध्यणि निपातनात् प्रणाय्यः । “धाय्यापाय्य." ५।१।२४ इति निपातनात् सानाय्यं हविः । “परिचाय्योपचाय्या०" ५।१।२५ इति निपातनाद् आनाय्यो दक्षिणाग्निः । ये तु अग्नेः अन्यत्राप्य नित्यविशेषे इच्छन्ति तन्मते आनाय्यो गोधुक् । “जिविपून्यो०" ५।१।४३ इति क्यपि विनीयः कल्कः । " वा जलादि०" ५।११६२ इति णे नायः, पक्षेचि नयः । “ग्रामाध्यात्रियः"
१. विशेषमि० इति मु० ॥ २. विशेषार्थिना द्र० काशिका (१९२७) ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८८४२॥३७१ इति णत्वे विपि ग्रामणीः, अग्रणीः । “असरूपोपवादे०" ५।१।१६ इत्यणि ग्रामनाय इत्यपि। "नीदाव०" ५।२।८८ इति करणे वटि नेत्रम् । "नियश्चानुपसर्गा." ५३।६० इति वा पनि नायः, पक्षेलि नयः । “वोदः" ५।३।६१ उन्नायः, उन्नयः । " अवात् " ५।३।६२ अवनायः । " परे ते " ५।३।६३ परिणायेन शारीन् हन्ति । “ पुनाम्नि घः" ५।३।१३० नीयतेऽनेनेति नयः । " आनायो जालम्" ५।३।१३६ इति पनि आनायो मृगाणाम् । उणादौ " नीनूरमि० " ( उ० २२७ ) इति किति थे नीथं जलम् , सुनीथो नाम राजा । “नियो वा" (उ० ३०२) इति वा किति पे नीपः कदम्बः । कित्त्वाभावे नेपः पुरोधाः, नेपं जलं यानं च । " ऋज्यजि०" (उ० ३८८) इति किति रे नीरम् । “नीसा०" (उ० ६८७) इति मौ नेमिः चक्रधारा । " नियो डित्" (उ० ८५४) इति ऋः, ना, नरौ । " हपूगोत्री०" (उ० ८६३) इति तः उन्नेता ऋत्विक । “नियः पादिः" (उ० ८६४) नेष्टा ऋत्विक् ॥
अथ ऋदन्ताश्चत्वारोऽनिटश्च ॥ ८८५ हग हरणे' ।हरते, हरति, जहे, जहार । " विनिमेय. " २।२।१६ इति कर्मणो वा कर्मत्वे " शेषे " २।२८१ इति षष्ठ्यां शतस्य व्यवहरति, शतं व्यवहरति । अनुस्वारेवान्नेट , हर्ता, हर्तुम् । “ हनृतः स्यस्य" ४।४।४९ इतीटि हरिध्यति । "हगो गतताच्छील्ये" ३।३।३८ इत्यात्मनेपदे पेटकमश्वा अनुहरन्ते । हरतिः अयं सकर्मकश्च अकर्मकश्च तथा अभ्यवहारार्थश्व इतरार्थश्च दृश्यते, यदा अकर्मकश्व अभ्यवहारार्थश्च भवति तदा णौ “गतिबोधा०" २।२।५ इत्यणिकर्तुनित्यं प्राप्त कर्मत्वं " हक्रोर्नवा" ।।८ इति विकल्प्यते, हरति मैत्रः, हास्यति मैत्रं मेत्रेण वा चैत्रः, अभ्यवहरति मैत्र:, अभ्यवहारयति मैत्र मैत्रेण वा चैत्रः । यदा सकर्मको भवति तदा चौर्यार्थत्वाद् अनभ्यवहारार्थश्च, तदा कर्मत्वमप्राप्तं " हक्रोर्नवा " २२२१८ इति विभाष्यते, हरति द्रव्यं चौरः, हास्यति द्रव्यं चौरं चौरेण वा चैत्रः । यदा तु सकर्मकोऽपि देशान्तरप्रापणार्थः तदा गत्यर्थत्वाद् "गतिबोधा०" २।२।५ इति नित्यं प्राप्तं कर्मत्वं विभाष्यते, हरति भारं चैत्रः, हारयति भारं चैत्रं चैत्रेण वा मैत्रः, देशान्तरं प्रापयतीत्यर्थः । ग्रहादित्वाणिनि व्याहारी, संव्याहारी । " अवहसासंस्रो" ५।१।६३ इति णे अवहारो ग्राहः । " हृगो क्योऽनुद्यमे " ५।१।९५ इत्यचि अस्थिहरः श्वा, मनोहरः । उद्यमे तु अणेव, मारहारः । “आङ शीले " ५।११९६
१ 'हुपुग्गो' इत्युणादिसूत्रे ॥
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८८६ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
इत्यचि पुष्पाहरो विद्याधरः । “दृति-नाथात् पशाविः" ५।११९७ दृतिहरिः नाथहरिः पशुः । " न्यायाबाया." ५।३।१३४ इति घापवादे पनि संहारः, अबहारः । उगादौ
"कुशिक-हृदिक०" (उ० ४५) इति इके निपातनाद् हृदिको यादवः । "हृवृहि०" (उ०१९४) इतीणे हरिणः । “दृश्या०" (उ० २१०) इति इते हरितः । “गयहृदया." (उ० ३७०) इति अये निपातनाद् हृदयम् । “ हिरण्य० " ( उ० ३८०) इति अन्ये निपातनाद् हिरण्यम् । " स्वरेभ्य इ." ( उ० ६०६) हरिः । " नीवीप्रहस्यो डित्" ( उ० ६१६) प्रहिः कूपः । " कह०" (उ० ७७२) इति एणौ हरेणुर्गन्धद्रव्यम् । “ हृसृरुहि० " ( उ० ८८७) इति इति हरित दिक् । " हृजनिभ्यामिमन् " ( उ० ९१७) हरिमा मृत्युः । " सृहृभृ०" ( उ० ९१८) इति ईमनि हरीमा वायुः ॥
. '८८६ भंग भरणे'। भरते, भरति । अनुस्वारेवान्नेट् , भर्ता, भर्तम । तीर्थस्य भर्ता तीर्थभर्ता, “कर्मजा तृचा च" ३३११८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः । “ हनृतः स्यस्य " ४।४।४९ इतीटि मरिष्यते, भरिष्यति । सनि "इवृध०" ४।४।४७ इति वेटि बुभूपति, विभरिषति । भृतः, भृतवान् । घजि भारः । भरं इति तु भृणातेरलि । “भृगोऽसंज्ञायाम्" ५।११४५ इति क्यपि भत्यः, संज्ञायां तु "ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि भार्यों नाम क्षत्रियः । भार्या वधूः । "कुक्ष्यात्मोदराद् भृगः खिः " ५।१।९० कुक्षिम्भरिः, आत्मम्भरिः, उदरम्भरिः । "भृवृजि." ५।११११२ इति खे विश्वंभरा भूः । क्विपि विदभृत् । “अजातेः शीले" ५१।१५४ इति णिनि मालभारी, अत्र " मालेपीके० "२।४।१०२ इति पूर्वपदस्य हस्वः । एवम् उत्पलमालभारी । उणादौ " दृपृभृ०" ( उ० २०७) इत्यते भरतः । “अवभृ०" (उ० २२९) इति किति थे अवभृथो यज्ञान्तः । “ कृवभृ० " (उ० ५२८) किति शे भृशम् । " भृमृत" (उ० ७१६) इत्युः, भरुः देशः, समुद्रश्च । “ ऋतृशमृत्रादिभ्यो गे लश्च" ( उ० ७२७) इति णिदुः, भालुः इन्द्रः । " हनिया०" (उ० ७३३) इति कित्यौ द्वित्दे च बभ्रुनकुलः । भृगुः इति तु भ्रस्जेः " स्पशिभ्रस्जेः स्लुक च" (उ० ७३१) इति कित्यौ । “भृपणिभ्यामिज् भुरवणौ च" (उ० ८७५) भुरिक् भुरिजौ बाहुः । "दिव्यवि" ( उ० १४२ ) इत्यटे भरटः उडुपः । “शाशि-शंसि०" (उ० ८५७) इति तः, भर्ता पतिः । टुडुभंगक पोषणे च (२१८२) विति ।। ' १ सोमयज्ञानां समाप्तौ क्रियमाणं स्नानं अवभृथशब्देन उच्यते,
(क्षी. त. पृ. १२९, टि०)॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८८७'८८७ धंग धारणे' । धरते धरति । अनुस्वारेवान्नेद, धर्ता, धतुम् । “ आयु. धादिभ्यो." ५।१।९४ इत्यचि वज्रधरः, चक्रधरः । दण्डादेस्तु “कर्मणोऽण " ५।१।७२ इत्यणि दण्डधारः, सूत्रधारः । धृङ् अविध्वंसने (११६०२ ) धरते । " ,त् स्थाने" (५।१५३) ध्रियते । चुरादेशकृतिगणत्वात् धारयति ॥
___ ८८८ डुकंग करणे' । " कृगतनादेशः" ३।४१८३ कुरुते, करोति । फलवकर्तयपि “परानो: कृगः" ३।३।१०१ इति परस्मैपदे पराकरोति, अनुकरोति । तनादिषु पाठम् अकृत्वा अस्य पाठः " तन्भ्यो वा०" ४।३।६८ इति सिचो लुग्विकल्पाभावार्थः, तेन अकृत, अकृथाः इत्यत्र "धुड्डूस्वात्" ४।३।७० इति नित्यमेव सिजलुक भवति, शवर्थश्च; तेन करते, करति इत्यत्र “कर्तर्यनद्यः० " ३।४।७१ इति शवपि भवति । चक्रे, चकार । अनुस्वारेन्वान्नेट, कर्ता, कर्तुम् । ड्वित्वात् त्रिम, कृत्रिमम् । “गन्धना." ३।३।७६ इत्यात्मनेपदे उत्कुरुते । “अधेः प्रसहने" ३।३।७७ अधिकुरुते । “वेः कुगः०" ३।३।८५ इत्यात्मनेपदे कोष्टा विकुरुते स्वगन् , विकुर्वते सैन्धवाः । णौ “मिथ्याकूगो." ३।३।९३ इत्यात्मनेपदे पदं मिथ्या कारयते, स्वरादिदोषदुष्टमसकृत् उच्चारयति इत्यर्थः । “कृगो यि च" ४।२।८८ इत्युलोपे कुर्यात् , कुर्वः, कुर्मः । एषु " कुरुच्छरः " २१६६ इति प्रतिषेधात् “ भ्वादे० ' २।११६३ इति दीपों न भवति । " हनृतः०" ४।४।४९ इतीटि करिष्यते, करिष्यति । " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इतीटि संचस्करिव, संचस्करिम । अत्र “संपरे:०" ४।४।९१ इति स्सट् , " स्कच्छतो." ४।३।८ इति गुणश्च । “ उपाद् भूषा०" ४।४।९२ इति स्सटि एधोदकस्योपस्कुरुते, अत्र " कृगः प्रतियत्ने" २।२।१२ इति कर्मणो वा कर्मत्वे " शेषे” २।२।८१ इति षष्ठी । " हुक्रोनवा " २।२।८ इति अणिकर्तुः णो वा
२. अत्रेदमवधेयम्-प्रायेण सर्व एष प्राचीना देव-पाल्य कीर्ति-हेमचन्द्र-दशपाधुणादिवृत्तिकारादयः कृशं भ्वादौ पठन्ति । अस्य भ्वादिस्थस्यैव प्रयोगा: पालि-प्राकृतभाषयो रुपलभ्यन्ते । हिन्दी भाषायामपि 'करता है' इति अस्यैवाऽपभ्रंश न तु करोते: । एतेन कृतो भ्वादिष्वविगीत एव पाठः । सायणेन 'उपो षु शणुहि' ( ऋ० १८०१) मन्त्रव्याख्याने धातुवृत्तौ (पृष्ठ १६३) चास्य महता प्रपञ्चन भ्वादित्वं निराकृतम् । ये च तत्र हेतवो निर्दिष्टास्ते सर्वे हेत्वाभासा एव । भट्टोजिदीक्षितादयः सायणमेवानुययुः । वस्तुतः कृतो भ्वादावेव पाठः, न तु तनादौ । अत एव पाणिनिना तिनादिकृभ्यः उ:' (३३१७९) सूत्रे तनादिभ्यः पृथक् कृजः पाठः कृतः । सति तनादौ, कृञः पृथक् पाठोऽनुचित एव । कदाचिदुत्तरकालीनैरयं तनादिषु प्रक्षिप्तः स्यात् । 'तनादिकृभ्यः उः" इति सूत्रस्थमहाभाष्याच्चैतत्प्रतीयते यत्पतञ्जलेः प्रागेवास्य धातो: तनादिषु प्रक्षेपो बभूव ।
(क्षी. त. टि. पृ. १३०) ।।
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८८७ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) कर्मत्वे करोति कटं चैत्रः, कारयति कटं चैत्र चैत्रेण वा मैत्रः । “कृगो नवा" ३।१।१० इति वा गति संज्ञायां "तिरसो वा" २।३।२ इति वा रस्य सत्वे तिरस्कृत्य, तिरःकृत्य । पक्षे गतित्वाभावे "गतिक्व०" ३११४२ इति समासाभावाद् यवभावे तिरः कृत्वा । "कर्मणोऽण " ५।१।७२ इत्यणि पयस्कारः, अत्र " अतः कृकमि०" २।३।५ इति रस्य सत्वम् । “सत्यागदा०" ३।२।११२ इति मे सत्यङ्कारः । “कृषि०" ५।११४२ इति वा क्यपि कृत्यम् । पक्षे ध्यणि कार्यम् । " शकृत्स्तम्बाद्" ५।१।१०० इति इः, शकृत्करिवत्सः, स्तम्बकरिीहिः । "किंयत्तद्वहोरः" ५।१।१०१ किंकरः, किंकरा, जातिरिदानीम् । किंकरीति तु " हेतुतच्छीला" ५।१।१०३ इति टे रूपम् , यथा विद्या यशस्करी । " संख्याहर्दिवा०" ५।१११०२ इति टे संख्याकरः, एककरः इत्यादि । "भृतौ कर्मणः" ५।१।१०४ कर्मकरः, कर्मकरी । “क्षेम-प्रिय-मद्र-भद्रात् खाण" ५।१।१०५ क्षेमङ्करः, क्षेमकारः । "मेघर्ति-भयाभयात् खः" ५।१।१०६ मेघङ्करः । “ कृगः खनट् करणे" ५।१।१२९ नग्रकरण द्यतम् । “कुगः सुपुण्यपाप०" ५।१११६२ इति भूते विपि सुकृत् । " सहराज." ५।१।१६७ इति भूते क्वनिपि सहकृत्वा, राजकृत्वा । “भ्राज्यलम्" ५।२।२८ इतीष्णौ अलंकरणशीलः अलंकरिष्णुः, निराकरिष्णुः । “कृगः श च वा" ५।३।१०० क्रिया, क्यपि कृत्या । पक्षे तो कृतिः । भिदादिनिपातनाद् अङि कारा गुप्तिः । “कारणम् " ५।३।१२७ इत्यनटि निपातनात् करोतीति कारणम् । " व्यर्थे क प्या०" ५।३।१४० इति खलि सुकटंकराणि वीरणानि । “अन्यथैवं० " ५।४।५० इति ख्णमि अन्यथाकारं भुङ्कते । “ यथातथादीष्र्योत्तरे" ५।४।५१ यथाकारमस्तु किं तवानेन ? । “शापे व्याप्यात् " ५।४।५२ चौरंकारमाक्रोशति । “स्वाद्वर्थाददीर्घात्" ५।४।५३ स्वादुङ्कारं भुङ्कते। "कृगोऽव्ययेनानिष्टोक्तौ क्वाणमौ" ५।४।८४ उच्चैःकृत्य, उच्चैः कृत्वा, उच्चे कारं कथयति ब्राह्मण ! कन्या तेगर्भिणी । ".तिर्यचापवर्ग" ५।४।८५ तिर्यकृत्य, तिर्यक् कृत्वा, तिर्यकारं गतः, समाप्य इत्यर्थः । " स्वाङ्गतच्व्यर्थे नानाविनाधार्थेन भुवश्च" ५।४।८६ मुखतःकृत्य, मुखतः कृत्वा मुखतःकारं गतः, एषु " तृतीयोक्तं वा" ३११५० इति वा समासः । सनि क्ते चिकीर्षितम् । “प्रज्ञादि०" ७२।१६५ अणि चैकीर्षितम् । " कम्वस्तिभ्यां०" ७।२।१२६ इति चौ घटीकरोति मृदम् । “ अर्मन" ७२।१२७ इंति सो लुकि अरूकरोति । “तीयशम्ब०" ७।२।१३५. इति डाचि द्वितीयाकरोति क्षेत्रम् । “ संख्यादेर्गुणात् " ७।२।१३६ द्विगुणा करोति क्षेत्रम् । " अव्यक्तानुकरणा० " ७।२।१४५ इति डाचि, " डाच्यादौ " ७१२६१४९ इति
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८८७पूर्वस्य तो लुकि पटपटा करोति । उणादौ " कशपाजि० " ( उ० १) इत्युणि कारुः शिल्पी । “कगो वा" ( उ०२३) इति वा किति के कुका शिरोग्रीवम् , कर्क: श्वेताश्वः । करकः, करका इति तु " दकन" ( उ० २७) इत्यके रूपम् । "कृगो द्वे च" (उ० ७) इति किद् अः, चक्रम् । “ कृकडि०" (उ० ३२१) इत्यम्बे करम्बो दयोदनो दधिसक्तवश्च । “ककले रम्भः" (उ० ३३६ ) करम्भो दधिसक्तवः । करीर इति तु किरते: “कश्रप० " ( उ० ४१८) इतीरे । "ऋकृमृ०" ( उ० ४७५) इत्याले करालम् उच्चम् । “पतिकलूभ्यो णित् " ( उ० ४७९ ) कारालं लेपद्रव्यम् । “कृधूतन्य० " ( उ० ४४०) इति किति सरे कृमरः तिलौदनः । “ कृकुरिम्यां पासः" (उ० ५८३ ) कर्पासः । “कृशकुटि०" ( उ० ६१९ ) इति वा गिद् इ., कारिः शिल्पी, करिर्हस्ती, विष्णुश्च । " ऋहसू०" ( उ० ६३८) इत्यणौ करणिः सादृश्यम् । “आङः कृढ०" (उ० ६४३ ) इति सनः अणौ आचिकीर्षणिः व्यवसायः । “कृभूभ्यां कित" (उ० ६९०) इति मौ कृमिः । क्रिमिरिति तु क्रमः " क्रमितमि०" (उ० ६१३) इति इप्रत्यये उपान्त्येत्वे च । "जशस्त." ( उ० ७०५) इति डिति वौ कृविः रुद्रो राजा च । “कुट्ट० " ( उ० ७७२ ) इत्येणौ करेणुहम्ती । “कुलाम्यां कित" ( उ० ७८० ) इत्यतौ ऋतुः । मनि [ मन् ( उ० ९११) ] कर्म । करण्ड इति तु " जकत० " ( उ० १७१ ) इत्यण्डे किरतेः । एवं “ किरोको रो लश्च वा" ( उ० ६२) काङ्कः, कलङ्कः । “कन ऋत उप च" ( उ० ७३४ ) इन्युः, कुरुः । कुरोरपत्यमिति “ दुनादि०" ६१११८ इति व्यः [ कौरव्यः ] । " कुरोर्वा " ६।१।१२२ इति स्त्रियां तल्लुपि " उतोऽप्राणिनश्चा० " २।४।७३ इत्युङि कुरूः । कुंग्ट हिंसायाम् , [४।८] कृणुते, कृणोति ।
__ अथ कान्तः ॥ '८८९ हिकी अव्यक्ते शब्दे' । ईदिचात् फलवकर्तरि " ईगितः" ३।३।९५ इत्यात्मनेपदम् । अफलवति तु " शेषात् परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदम् । हिकते, हिकति, जिहिक्के, जिहिक, हिकिता, क्ते हिक्कितम् । “क्तेटो." ५।३।१०६ इत्यः, हिक्का ॥ १ करीरः वंशाधङकुरः, वृक्षविशेषः [लोके कहर इति ] घटश्च, (लि. टी. पृ. १३३) ।
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८९२ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
११९ अथ चान्तास्त्रयः तत्र आद्यौ सेटौ अन्त्यः अनिट् ॥
'८९० अञ्चूग् गतौ च' । चकारादव्यक्ते शब्दे । गतिपूजयोस्यं परस्मैपदिषु पठितः स चास्य पाठो गतौ फलवत्कर्तर्यपि परस्मैपदार्थः, अश्चते, अञ्चति । " अञ्चोनर्चायाम् " ४।२।४६ इति नस्य लुकि अच्यते । “अनातो." ४।१।६९ इति पूर्वस्यात्वे ने च आनञ्चे, आनश्च, अञ्चिता, अञ्चितुम् । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , अक्त्या, अश्चित्वा । अत्र " क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावान्नस्य लुग नास्ति । वेटत्वात् क्तयो नेट् , अक्तः, अक्तवान् । अयमचूग् गतावित्येक; तन्मते अचते, अचति, आचे, आच, अचिता, अचितुम् । अदित्वात् क्त्वि वेट् , अक्त्वा, अचित्वा । अचुग गतावित्यन्ये, उदित्वान्ने अञ्चते, अश्चति, क्ये अञ्च्यते, क्ते अश्चितः । अञ्चू गतौ च [१११०५ ] अश्चति । अनर्चायां नस्य लुकि अच्यते । अर्चायां नलोपाभावे अञ्च्यते ॥
८९१ डुयाग याञ्चायाम् ' । याचते, याचति, ययाचे, ययाच । क्ते याचितः । ऋिदत्वाद् डे न ह्रस्वः, अययाचत् । वित्वात् त्रिम याचित्रिमम् । विदयमित्येके, तन्मतेऽथौ याचथुः । क्ते सेट्त्वात् ध्यणि कत्वाभावे याच्यम् । “ मृगयेच्छा०" ५।३।१०१ इति निपातनान्ने याचा ॥ ___८९२ डुपची पाके' । पचते, पचति, पेचे, पपाच, यङि पापच्यते । यङ्लुपि पापचीति, पापक्ति । अनुस्वारेवान्नेट , पक्ता, पक्तुम् । “वैशुषि०" ४।२।७८ इति क्तयोस्तस्य वत्वे पक्वः, पक्ववान् । “क्तेनिट." ४१११११ इति चस्य कत्वे ध्यणि पाक्यः । " व्याप्ये घुरकेलिमकृष्टपच्यम् " ५।१।४ कृष्टे स्वयमेव पच्यन्ते कृष्टपच्या ब्रीहयः । उणादौ " विहाविशा०" ( उ० ३५४) इति केलिमे पचेलिमा माषाः । लिहादित्वादणोपवादे अचि श्वपचः । न्यङ्वादिनिपातनादणि कत्वे च श्वपाकः, मांसपाकः । न्ययादित्वादेव कर्मकर्तर्यचि वृद्धावुदन्तत्वे च दूरेपाकुः, फलेपाकुः । “ मांसस्यानड्० " ३।२।१४१ इत्यल्लुकि मांस्पचनम् , मांसपचनम् , मांस्पाका, मांसपाकः । “परिमाणार्थ." ५।१।१०९ इति खे प्रस्थंपचः, मितंपचः, नखंपचा यवागूः । “ उदः पचि० " ५।२।२९ इतीष्णो उत्पचनशीलः उत्पचिष्णुः । विचात् त्रिमकि पाकेन निवृत्तं पत्रिमम् । “षितो" ५।३।१०७ पच्यतेऽसाविति पचा । स्त्रियां भावे तु "गापा." ५।३९५ इति क्तिरेव, पक्तिः । उणादौ " स्थविर० " ( उ० ४१७) इति निपातनात् कितीरे पिठिरम् ।।
१ तन्मते मु० नास्ति ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८९३अथ जान्ताश्चत्वारः तत्र आद्यौ सेटौ अन्त्यौ त्वनिटौ ॥
'८९३ राजृग् ८९४ टुभ्राजि दीप्तौ' । राजते, राजति । " भ्रम० " ४।१।२६ इति वा स्वरस्य एत्वे द्वित्वाभावे च रेजे, राजे, रेजुः, राजुः । राजिता । ऋदिचाद् अरराजत् । विपि सम्राट् , विराट् । उणादौ " शीभी." ( उ० ७१) इत्यानके राजानकः । " धाग्राजि०" (उ० ३७९) इत्यन्ये राजन्यः। त्रटि राष्ट्रम् । " उक्षितक्ष्य० " ( उ० ९००) इत्यनि राजा ।
'८९४ दुभ्राजि' इदिचाद् आत्मनेपदे भ्राजते । " भ्रम०" ४।१।२६ इति वा स्वरस्य एत्वे द्वित्वाभावे च भेजे, बभ्राजे, भ्राजिता । णौ डे " भ्राजभास" ४।२।३६ इति वा ह्रस्वे अविभ्रजत् , अबभ्राजत् । विचादथुः, भ्राजथुः । विचमेके नेच्छन्ति । भ्राजेः आत्मनेपदिनोऽपि पुनरिह पाठः राजसाहचर्यप्रदर्शनार्थः, तेन " यजसृज० " २।११८७ इति अत्रास्यैव ग्रहणात् षत्वे यङ्लुपि वाभ्राष्टि, पूर्वस्य तु धातोगत्वे वाभ्राक्ति, ट्विच्चायं तेनास्य भ्राजथुः, पूर्वस्य तु भ्राज इति रूपम् । यद्येवं पत्वमेव विकल्प्यतां किं पुनः पाठेन ? सत्यम् , अस्यात्मनेपदाव्यमिचारोपदर्शनद्वारा अन्येषां यथा दर्शनमात्मनेपदानित्यत्वज्ञापनार्थः पुनः पाठः, तेन लभते, लभति, सेवते, सेवति, 'श्रोतारमुपलभति न प्रशंसितारम्', ' स्वाधीने विभवेऽप्यहो ! नरपति सेवन्ति किं मानिनः ?' इत्यादयः प्रयोगाः साधव इति ॥
' ८९५ भजी सेवायाम् ' । भजते, भजति । "तृत्रप० " ४।१।२५ इत्येत्वे द्वित्वा भावे च भेजे, भेजुः । यङि बाभज्यते, बाभजीति, बाभक्ति । अनुस्वारेत्वान्नेट भक्ता, भक्तुम् । " श्लिष०" ५।१।९ इति वा कर्तरि क्ते विभक्ता भ्रातगे रिक्थम् , पक्षे कर्मणि क्ते विभक्तं धनं तैः । भावे विभक्तं तैः । "शकितकि०" ५।१।२९ इति ये भज्यम् । “बहुलम" ५।०२ इति ध्यणि भाग्यम् । “भजोविण" ५।१।१४६ अर्धभाक् । “ युजभुज. " ५।२५० इति धिनणि भजनशीलो भागी. पनि भागः । “ गोचर०" ५।३।१३१ इति निपातनात् करणाधारयोघजपवादे घे भगः, तो भक्तिः ॥
८९६ रक्षी रागे'। " अकविनोश्च० " ४।२।५० इति नस्य लुकि रजते, रजति । “ कुपिरजे" ३।४।७४ इति कर्मकर्तरि वा श्ये परस्मैपदे च रजति वस्त्रं रजकः, रज्यति वस्त्रं स्वयमेव पक्षे “एक धातौ० ३४८६ इतिः क्ये
१. विशेषार्थिना द्र. 'आत्मनेपदमनित्यम्'-न्या० ३७ ।। २. पाठः पुन: इति भु० ।।
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८९९ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) आत्मनेपदे च रज्यते वस्त्रं स्वयमेव । संयोगान्तत्वाद् अवित्परोक्षाया अपि “ इन्ध्यसंयोगात्" ४।३।२१ इति कित्त्वाभावे नलोपाभावाद् ररखे, ररज । अनुस्वारेचान्नेट् , रक्ता, रक्तुम् । “णी मृगरमणे" ४।२।५१ इति नलुकि “कगेवनू० " ४।२।२५ इति ह्रस्वे च रजयति मृगं व्याधः । मृगरमणादन्यत्र नलोपाभावे रअयति नटः । केचित्तु अन्यत्रापि नलुकमिच्छन्ति “राजर्षिकल्पो रजयति मनुष्यान् ।" " नृत्खन्०" ५।११६५ इत्यकटि रजकः शिल्पी । “युजभुज. " ५।२५० इति घिनणि रक्षनशीलो रागी। “घनिभावकरणे" ४।२।५२ इति नलुकि रअनं रागः । “ व्यअनाद् घञ्" ५।३।१३२ इति करणे पनि रागः । आधारे पनि रङ्गो नृत्तस्थानम् । “ऋवर्ण" ५।१।१७ इति ध्यणि रङगयः । उणादौ " पृषिरजि० " ( उ० २०८) इति किति अते रजतम् । “ तुदादिवृजि." (उ० २७३) इति किति अने रजनम् हरिद्रा, महारजनं कुसुम्भम् । गौरादित्वाद् याम् रजनी । “रजेः कित्" (उ० ६८१) इत्यनौ रजनिः रात्रिः । "मिथिरज्युषि०" ( उ० ९७१ ) इति कित्यसि रजः । रजींच रागे [ ३३१३९] रज्यते, रज्यति ॥
अथ टान्तः सेट च ॥ ' ८९७ रेदृग् परिभाषणयाचनयोः' । रेटते, रेटति, रिरेटे, रिरेट, रेटिता, रेटितुम् । ते रेटितम् । ऋदित्वाद् डे न इस्वः, अरिरेटत् ॥
__ अथ णान्तः सेट् ॥ . '८९८ वेग् गतिज्ञानचिन्तानिशामनवादित्रग्रहणेषु' । वादित्रस्य वाद्यभाण्डस्य वादनाय ग्रहणं वादित्रग्रहणम् । वेणते, वेणति, विवेणे, विवेण, वेणिता, वेणितुम् । ऋदिचाद् ङ न हूस्वः, अविवेणत् । अचि वेणः, णके स्त्रियाम् वेणिका । उणादौ " इणुर्विशा०" ( उ० १८२) इति णे वेण्णा नाम नदी। वीणेति तु " घृवीह्वा." (उ० १८३) इति किति णे वेतेः । वेणिरित्यपि "कावावी." ( उ० ६३४) इति णावस्यैव ॥
अथ तान्तः सेट् ॥ '८९९ चतेग याचने' । चतते, चतति, चेते, चचात, चतिता, चतितम् । एदिवाद् “ व्यञ्जनादे० " ४।३।४७ इति वा वृद्धः “ न विजागृ० " ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अचतीत् । ते चतितम् । उणादौ " कृ-ग-मृ" ( उ० ४४१ )
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८९९इति वरटि चत्वरम् । “वाश्यसि० " ( उ० ४२३ ) इत्युरे चतुरः । " चतेरुर " (उ० ९४८) चत्वारः ॥
अथ थान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ ९०० प्रोग् पर्याप्तौ' । पर्याप्तिः पूर्णता । प्रोथते, प्रोथति, पुप्रोथे, पुप्रोथ, प्रोथिता, प्रोथितुम् । ऋदित्वाद् डे अपुप्रोथत् । अचि प्रोथः अश्वघोणाधः प्रियश्च युवा । 'प्रियं प्रोथमनुव्रजेत् ॥
९०१ मिथग मेधासियोः' । मेथते, मेथति, मिमिथे, मिमेथ, मेथिता, मेथितुम् । क्ते मिथितम् । ऋदित्वाद् डे न ह्रस्वः, अमिमेथत् । क्ये मिथ्यते । लिहायचि मेथः । गौरादित्वाद् उथाम् मेथी ।
'मेथीबद्धोऽपि हि भ्राम्यन् घासग्रासं करोति गौः' [ सुभाषितावली, २९५८ ] उणादौ " किलिपिलि० " (उ० ६०८ ) इति इः, मेथिः खलमध्यस्थूणा ।।
९०२ मेथूग् संगमे च ' । चकारान्मेधासियोः । मेथते, मेथति, मिमेथे, मिमेथ, मेथिता, मेथितुम् । क्ते मेथितम् । ऋदित्वाद् डे न इस्वः, अमिमेथत् । क्ये मेथ्यते । अचि मेथः । गौरादित्वाद् ङ्याम् मेथी ॥
अथ दान्ताः षट् सेटश्च ॥ ___ '९०३ चदेग् याचने' । चदते, चदति, चेदे, चचाद, चदिता, चदितुम् । क्ते चदितम् । एदियाद् " व्यअनादे०" ४३४७ इति वा वृद्धेः "न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अचदीत् ॥
९०४ उबुन्दग निशामने ' । निशामनमालोचनम् । बुन्दते, बुन्दति, क्ये बुद्यते, बुबुन्दे, बुबुन्द, बुन्दिता, बुन्दितुम् । ऋदिचाद् वाऽङि अबुदत् , अबुन्दीत् । ऊदिचात् क्त्वि वेट , बुच्चा, बुन्दित्वा । वेट्त्वात् क्तयोनेंट, बुन्नः, बुन्नवान् । धान्तोऽयमिति नन्दी, बुन्धते, बुन्धति, बुध्यते, अबुधत् , अबुन्धीत् , बुबुन्धे, बुबुन्ध, बुन्धिता, बुन्धितुम् , बुद्धवा, बुन्धित्वा, बुद्धः, बुद्धवान् । अयम् ऊचेग इत्येके ॥
'९०५ णिग ९०६ णेग कुत्सासनिकर्षयोः' । “पाठे०" ०३।९७ इति नत्वे नेदते, नेदति । णोपदेशत्वाद् “ अदुरुपसर्गा० " २३७७ इति णत्वे
१. " पृथ, पृथ, पृतृ व्याप्तौ ” इति काशकृत्स्नः (का० धा० पृ० १११ ) ॥ २. घोणा अश्वनासिका ॥
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९१२ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) प्रणेदते, प्रणेदति । निद्यते, निनिदे, निनेद, नेदिता, नेदितुम् । ऋदिचाद् डे अनिनेदत् ॥
'९०६ णेग' । “पाठे० " २६३९७ इति नत्वे नेदते, नेदति, नेद्यते । णोपदेशत्वाद् “ अदुरुपसर्गा० " २१३७७ इति णत्वे प्रणेदते, प्रणेदति, निनेदे, निनेद, नेदिता । क्ते नेदितम् । ऋदियाद् डे अनिनेदत् ॥
९०७ मिग ९०८ मेदृग् मेधासियोः' । मेदते, मेदति, मियते, मिमिदे, मिमेद, मेदिता, क्ते मिदितः । ऋदिचाद् डे अमिमेदत् ॥
९०८ मेग्' । मेदते, मेदति, मेद्यते, मिमिदे, मिमेद, मेदिता, ते मेदितः । ऋदित्वाद् डे अमिमेदत् । जिमिदाङ् स्नेहने [१९४४] मेदते । निमिदाच स्नेहने [ ३।३७] मेयति । मिदुण् स्नेहने [ ९९० ] मिन्दयति ।।
अथ धान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ १९०९ मेधृग् संगमे च' । चकारान्मेधाहिंसयोः । मेधते, मेधति, मेध्यते, मिमिधे, मिमेध, मेधिता, क्ते मेधितः । ऋदिचाद् उ अमिमेधत् । “क्तेटो." ५।३।१०६ इत्यः, मेधा । ध्यणि मेध्यम् । “कर्मणोऽ" ५।११७२ इत्यणि अश्वमेधः । “अजातेः०" ५।१।१५४ इति णिनि गृहमेधी। उणादौ "पदिपठि०" (उ० ६०७ ) इति इ., मेधिः ॥
__ +९१० शृधून ९११ मृधूग उन्दे' । उन्दः क्लेदनम् । शृधू तालव्यादिः, शर्धते, शर्धति, शशृधे, शशध, शर्धिता । ऊदिचात् क्त्वि वेट् , शृद्धा, शर्धिचा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , शृद्धः, शृद्धवान् । शृङ् शब्दकुत्सायाम् [१९५८ ] शर्धते ।। ____ ९११ मृग' । मर्धते, मति, ममृधे, ममध, मर्धिता । ऊदियात् वित्व वेट्, मृवा, मर्धित्वा, वेटत्त्वात् क्तयोर्नेट् , मृद्धः, मृद्धवान् । “नाम्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के मृधं रणः ॥ ___ ९१२ बुधृग् बोधने ' । बोधते, बोधति, बुबुधे, बुबोध, बोधिता । ऋदिचाद् वाऽङि अबुधत् , अबोधीत् । आत्मनेपदे तु अडोऽसत्वे अबोधिष्ट, क्ते बुधितः। नायमूदिदित्येके। बुध अवगमने [११९६८] ज्वलादिः, बोधति। "वा ज्वलादि०" ५५११६२ इति णे बोधः । " नाम्युपान्त्य०" ५११५४ इति के बुधः । बुधिच
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ था. ९१२ज्ञाने [ ३११९ ] बुध्यते । अविवक्षितकर्मत्वेन “गत्यर्था०" ५।१।११ इति कर्तरि क्ते बुद्धः ॥
अथ नान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ '९१३ खनूगू अवदारणे' । खनते, खनति । “गमहन० " ४।२।४४ इत्यल्लुकि चखने, चख्नुः, खनिता । ऊदिचात् क्त्वि वेद, खात्वा, अत्र " आः खनि०" ४।२।६० इति आत्वम् ; खनित्वा । "ये नवा" ४२१६२ इति वाऽऽत्वे खायते, खन्यते । यडि चाखायते चकन्यते । यङ्लुपि चलनीति, चह्वन्ति । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , खातः, खातवान् । “खेय." ५।१।३८ इति क्यपि निपातनात् खेयम् । " नृत्खन्० " ५।११६५ इति अकटि खनका, खनकी । "क्वचित्" ५।१११७१ इति डे खन्यते खम् , परिखाता परिखा । " लूधुसू०" ५।२८७ इती। खनन्ति तेन खनित्रम् । “खनो डडरेकेकवक, च" ५।३।१३७ आखः, आखरः, आखनिकः, आखनिकवका, आखनः, आखानः । उणादौ. " मूखन्यू." ( उ० ४४९) इति किति पटि खात्रं चौरकृतं छिद्रम् । “कुशकुटि०" (उ० ६१९) इति वा णिदिः, खानिः खनिश्च आकरः । “ पराभ्याम्०." (उ० ७४२ ) इति डित्यो आखुः ॥
• ९१४ दानी अवखण्डने' । आर्जवे " शान्दान्" ३४७ इति सनि पूर्वस्येतो दीर्घत्वे च दीदांसते, दीदांसति । अर्थान्तरे तु सनोऽभावे प्रत्ययान्तराण्यपि भवन्ति ।।
'९१५ शानी तेजने' । निशाने "शान्दान" ३।४७ इति सनि पूर्वस्येतो दीर्घत्वे च शीशांसते, शीशांसति शस्त्रम् । अर्थान्तरे तु सनोऽभावे प्रत्ययान्तराण्यपि ॥
अथ पान्तोऽनिट् च ॥ ९१६ शपी आक्रोशे' । आक्रोशो विरुद्धानुध्यानम् । शपते, शपति । अनेकार्थत्वादुपलम्भनेऽपि, “शप उपलम्भने " ३।३।३५ इत्यात्मनेपदे चैत्राय शपते, अत्र " श्लाघहनुस्था० " २२२१६० इति चतुर्थी । शेपे, शशाप रिपुम् । यडि शाशप्यते । यङ्लुपि शासपीति, शासप्ति । अनुस्वारेचाट, शप्ता, शप्तुम् । " शकितकि०" ५।१।२९ इति ध्यणापवादे ये शप्यः । घनि शापः । उणादौ " भृशीशपि०" ( उ० २३२) इति अथे शपथः । "शाशपि." ( उ० २३७ )
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९१९ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) इति दे शब्दः । शबल इति तु "शमेव च वा" (उ० ४७० ) इत्यले शाम्पतेः। शपींच आक्रोशे [ ३३१४० ] शप्यते, शप्यति ।
अथ यान्तौ सेटौ च ॥ १९१७ चायग् पूजानिशामनयोः' । चायते, चायति, चचाये, चचाय । ऋदिचाद् डे न इस्वः, अचचायत् । चायिता। " चायः, कीः" ४११०८६ यडि चेकीयते । “अपाच्चायश्चिः क्तौ" ४।२।६६ अपचितिः । “ अपचितः" ४४७७ इति क्ते वा निपातनाद् अपचितः अपचायितः । उणादौ "चायः केक च" ( उ० ३६६ ) इत्यये केकयो राजा । "चायः के च" ( उ० ७७८) इति तुनि केतुः । " चायेनों हस्वश्च वा" (उ० ९५७) इत्यसि चणचाणथानम् । बाहुलकाण्णत्वम् । णत्वं नेच्छन्त्येके ॥
-९१८ व्ययी गतौ' । व्ययते, व्ययति, वव्यये; वव्याय । “व्यअनादे." ४।३।४७ इति वा वृद्धेः “न विजागृ०" ४२४९ इति प्रतिषेधाद् अव्ययीत् , व्ययिता । णौ व्याययति । अचि व्ययः । व्ययण वित्तसमुत्सर्गे [९।३३२] अदन्तः, व्यययति ॥
अथ लान्तः सेट् च ॥ “ ९१९ अली भूषणपर्याप्तिवारणेषु' । अलते, अलति, आले, आल । सनि अलिलिपते, अलिलिपति । अचि अलम् , "निषेधेऽलंखल्वो:०" ५।४।४४ इति निर्देशान्मान्तत्वं निपात्यतेऽव्ययश्चायम् । “भूषादर० " ३३११४ इति भूषायां गतित्वे अलंकृत्य कन्यामुपयच्छते, अत्र "गतिक्व०" ३११४२ इति समासे क्त्वो यप् । पर्याप्तौ अलं मल्लो मल्लाय, अत्र "शक्तार्थ " २२।६८ इति चतुर्थी । वारणे अलं कृत्वा, अत्र “निषेधेलं." ५।४।४४ इति क्त्वा । उणादौ " निष्कतुरुको" ( उ० २६) इति के निपातनाद् अलर्कः उन्मत्तः श्वा । " दृकनृ०" (उ० २७) इत्यके अलकं चूर्णकुन्तला, अलका पुरी । “क्रीकल्यलि." (उ० ३८) इतीके अलिकं ललाटम् । " स्यमिकषि०" (उ० ४६) इतीके अलीकं मिथ्या, अलीका पण्यस्त्री; व्यलीकमपराध:, व्यलीका लजा । “ कल्पलि०" (उ० २४६) इतीन्दकि अलिन्दो द्वाराग्रस्थूणा । " शल्यलेरुचातः" ( उ० ३१९) इति वे उल्वं कललम् ।
१. शमेव इति मु०॥ ... ..
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९१९" कुशकुटि०" ( उ० ६१९) इति वा णिदिः, आलिः सखी, अलिर्भमरः । अलक्त इति तु अरक्तशब्दस्य लत्वे । परस्मैपदिनम् एनम् अन्ये मन्यन्ते ॥
अथ वान्तौ सेटौ च ॥ ९२० धावूग् गतिशुद्धयोः' । धावते, धावति, दधावे, दधाव, धाविता । ऊदिवात् क्त्वि वेद, धौत्वा, अत्र " अनुनासिके च०" ४।१।१०८ इति वस्य ऊटि " ऊटा" १।२।१३ इत्यौत्वम् , पक्षे धावित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , धौतः, धौतवान् पादौ । कथं धावितः, धावितवान् ? सत्यपि वेट्त्वे गतौ क्योरिटूपतिषेधस्यानित्यत्वात् । णके धावकः । मनि “ अनुनासिके च०" ४।१।१०८ इत्यूटि सुधोमा । वनि “ खो:०" ४।४।१२१ इति वस्य लुकि सुधावा, विचि सुधाः । क्विप्यूटि सुधौः । तौ धौतिः । क्तेऽनिट्त्वात् "क्तेटो०" ५।३।१०६ इति अप्रत्ययो नास्ति ॥
९२१ चीग् झपीवत् ' । झपी आदानसंवरणयोर्वक्ष्यते तद्वद् अयमपि आदानसंवरणयोरित्यर्थः । चीवते, चीवति, चिचीवे, चिचीव, चीविता, ऋदित्वाद् के अचिचीवत् । अनृदिदयम् इत्येके, तन्मते डे ह्रस्वे अचीचिवत् । उणादौ "जठर०" ( उ० ४०३) इति निपातनादरे चीवरं मुनिवासः, चिनोतेर्वा वरटि दीर्घ च ॥
अथ शान्तः सेट् च ॥ । ९२२ दाग दाने ' । दाशते, दाशति, ददाशे, ददाश, दाशिता । ऋदिवाद् हे अददाशत् । “दाश्वत्-साह्वत्०" ४।१।१५ इति निपातनात् फलवकर्तर्यपि क्वसौ द्वित्वेटोरभावे दाश्वान् । घजि दाशतेऽस्म दाशः । पुरो दास्यते पुगेडाशः । दुःखेन दाश्यते दूडाशः । पृषोदरादित्वात् साधू ॥
अथ षान्ता नव त्विषींवर्जाः सेटश्च ॥ '९२३ झषी आदानसंवरणयोः' । झपते, झपति, जझषे, जझाष, झषिता । क्ते झाषितम् । अचि झपः । झप हिंसायाम् [११५१० ] झषति ।
१. अलक्तक इति तु अरक्तक० प० प्रती ॥ २. शुद्धौ इति क्षीरस्वामी [क्षी. त. पृ. ८७] ॥ ३. "नीमिकुतुचेर्दीर्घश्च" (उ० ४४३) इति सूत्रेण परटि ॥ ४. दायु दाने इति कौशिकः (क्षी त. पृ. १२७) ॥
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९३० ] धातुपारायणे भ्वादयः
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'९२४ भेषग् भये' । भेषते, भेषति, बिभेषे, विभेष, भेषिता । ऋदिचाद् डे न हृस्वः, अबिभेषत् । णो भेषयति ॥
'९२५ भ्रषग् चलने च' । चकाराद् भये । श्रेषते, भ्रषति, विभ्रेषे, विश्रेष, प्रेषिता । ऋदिच्चाद् डं न इस्वः, अविभ्रषत् । णौ ऽपयति । धनि भ्रषः ॥
'९२६ पषी बाधनस्पर्शनयोः'। स्पर्शनं ग्रन्थनम् । पषते, पपति, पेषे, पपाष, पषिता । क्ते पषितम् । घनि पाषः । उणादौ “पषो णित् " (उ० १९२) इत्याणे पाषाणः । अयं स्पशीत्येके । स्पशते, स्पशति । अचि स्पशः चरः । सेयमुभयतः स्पाशा रज्जुः । स्पाशश्चान्यः । पस्पश उपोद्घातः । पषण बन्धने [ ९।१८७ ] पापयति । पषण अनुपसर्गोऽदन्तः [ ९३३५२ ] पषयति ॥
९२७ लषी कान्तौ' । कान्तिरिच्छा । " भ्रासम्लास०" ३।४।७३ इति वा श्ये अभिलष्यते, अभिलष्यति, अभिलपते, अभिलषति, लेखे, ललाष, लषिता । " लपपत०" ५।२।४१ इत्युकणि अमिलाषुकः । “भूषाक्रोधार्थ०" ५।२।४२ इत्यने अभिलषणः । " व्यपाभे" ५।२।६० इति घिनणि विलाषी, अपलाषी, अभिलाषी । घनि अभिलाषः । उणादौ " लषेः श च " ( उ० २८९) इत्युने लशुनं कन्दविशेषः ॥
'९२८ चषी भक्षणे' । चषते, चपति, चेषे, चचाष, चषिता । क्ते चषितम् । घनि चापः । उणादौ, " दृकनृ० " (उ० २७) इत्यके चषकं सरकः । “ ऋकृमृ० ” ( उ० ४७५ ) इत्याले चपालो यूपवलयः । चष हिंसायाम् [१।५१९] चषति ॥
' ९२९ छषी हिंसायाम् , । छपते, छपति, चच्छषे, चच्छाप, छषिता, छषितुम् ॥
— ९३० त्विषीं दीप्तौ' । त्वषते, त्वेषति, तित्विषे, तित्वेष । अनुस्वारेवान्नेट , त्वेष्टा, त्वेष्टुम् । " हशिटो० " ३४५५ इति सकि अत्विक्षत । " क्रुत्संपदा० " ५।३।११४ इति क्विपि विट् । उणादौ " त्वष्टक्षत० " (उ० ८६५) इति तृप्रत्यये निपातनात् त्वष्टा अर्कः । अवपूर्वो दाननिरसनयोश्चेत्येके । निरसनम् अपाकरणम् चकारात् दीप्तौ; अवत्वेषते, अवत्वेषति, ददाति, निरस्यति, दीप्यते चेत्यर्थः ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ९३१___+९३१ अपी ९३२ असी गत्यादानयोश्च । चकारादीप्तौ । अपते, अपति, आषे, आप, अपिता, अपित्वा ।
अथ सान्तौ सेटौ च ॥ * ९३२ असी' । असते, असति, आसे, आस । आस इत्यसतेः इति वामनः [ वामन काव्यालङ्कार, ५।२।२९] । असिता । असक् भुवि [ २१४४ ] अस्ति । असूच क्षेपणे [ ३७८ ] अस्यति ॥
९३३ दासृग् दाने' । दासते, दासति, ददासे, ददास, दासिता। क्ते दासितम् । अचि दासः । गौरादित्वाद् ड्याम् दासी । ग्रहादित्वाणिनि उद्दासी । घनि उद्दासः । " णौ दान्त" ४।४।७४ इति क्ते वा निपातनाद् दस्तः, दासित: ॥
अथ हान्तौ सेटौ च ॥ -९३४ माहृग् माने' । मानं वर्तनम् । माहते, माहति, ममाहे, ममाह, माहिता । ऋदियाद् डे न इस्त्र:, अममाहत् । अचि माहः । स्त्रियाम् माहा गौः ॥
• ९३५ गुहौग संवरणे' । “गोहः स्वरे" ४।२।४२ इत्यत्वे गृहते, गृहति, जुगृहे, जुगूह । औदिच्वाद् वेट्, गोढा, गृहिता । इडभावपक्षे “हशिटो." . ३।४।५५ इति सकि " दुहदिह०" ४।३।७४ इति वा तल्लुकि च अघुक्षत, अगूढ, अगूहिष्ट । परस्मैपदे तु सको लुगभावे अघुक्षत् , अगृहीत् । “ स्वरेऽतः" ४।३।७५ इति सकः अल्लुकि अघुक्षाताम् , अधुक्षन्त । " स्वरस्य परे०" ७।४।११० इति प्राचः परस्मिन्नपि विधौ कर्तव्ये स्वरादेशस्य स्थानिवत्वम् इष्यते, तेनात्र अल्लुका परस्मिन् अन्तः अदादेशे स्थानित्वाद् “ अनतोऽन्तो." ४।२।११४ इत्यन्न भवति । वेट्त्वात् क्तयोनेंट , गूढः गूढवान् । “ग्रहगुहश्च०" ४।४।५९ इति सनीप्रतिषेधात् जुघुक्षति । णो डे अजूगुहत् । ये तु हस्वं नेच्छन्ति तन्मते अजुगृहत् । “कृषि०" ५।१।४२ इति वा क्यपि गृह्यम् ; पक्षे ध्यणि गोह्यम् । “नाम्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के गुहः । गिर्योषध्योः भिदादित्वाद् अङि गुहा; अन्यत्र तो गूढिः । उणादौ “विदनगगन०" (उ० २७५) इत्यने निपातनाद् गहनम् । “तीवरधीवर०" (उ० ४४४ ) इति वरटि निपातनाद् गह्वरम् ।।
१. सते असक् इति मु० ॥
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९३८] धातुपारायणे झ्वादयः (१) ६. .. अथ क्षान्तः सेट् च ॥
९३६ म्लक्षी भक्षणे ' । म्लक्षते, म्लक्षति, बम्लक्षे, बम्लक्ष, म्लक्षिता, क्ते म्लक्षितम् । घजि भ्लक्षः । अयं भक्षीत्यन्ये, भक्षते, मक्षति, ‘बभक्षे, बभक्ष । भक्षितुम् , क्ते भक्षितम् ॥ ____ 'अथ द्युतादयः कृपौड्यन्ता आत्मनेपदिनोऽपि वर्णक्रमेण सेटश्च । पूर्वाचार्यानुवर्तनेन धुतेः पूर्व पाठः' ॥
९३७ द्युति दीप्तौ' । इदिन्यादात्मनेपदम् , द्योतते, दिद्युते । “बुद्ध्योद्यतन्याम्" ३।३।४४ इत्यात्मनेपदिनोऽपि विकल्पनात् पक्षे "शेषात् परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदे " लुदियतादि०" ३४६४ इत्यडि अद्युतत् ; पक्षे व्यद्योतिष्ट । णौ डे “धुतेरिः " ४।१४१ इति पूर्वस्येत्वे अदिद्युतत् । " इडितो." ५।२।४४ इत्यने द्योतनशीलो द्योतनः । विपि विद्युत् । “दिद्युत्" ५।२।८३ इति विपि निपातनाद् दिद्युत् आयुधम् । “वौ व्यअनादेः" ४।३।२५ इति क्त्वामनो; कित्त्वे द्युतित्वा, द्योतित्वा, दिद्युतिषते, दिद्योतिषते । उणादौ " धुतेरादेश्व जः" (उ० ९९१ ) इति इसि ज्योतिः । स्वार्थ के ज्योतिष्काः सूर्यादयः ॥ . '९३८ रुचि अभिप्रीत्यां च ' । चकारात् दीप्तौ । अभिप्रीतिः अभिलाषः । मैत्राय रोचते दधिः अत्र " रुचिकृप्यर्थ०" २।२।५५ इति चतुर्थी । धुतादित्वाद् अङि अरुचत् , अरोचिष्ट । फलवकर्तरि "ईगितः" ३३९५ इत्यात्मनेपदे " अणिगि प्राणि." ३।३।१०७ इति परस्मैपदेन बाधिते "परिमुहा०" ३३९४ इति पुनर्विहिते, परिरोचयते मैत्रं चैत्राय । “ रुच्याव्यर्थय" ५।१।६ इति कर्तरि निपातनात् क्यपि रुच्यम् । भावे ध्यणि क्ते सेट्त्वात् कत्वाभावे रोच्यम् । क्ते रुचितः । “ भ्राज्यलंकृग०" ५।२।२८ इति इष्णौ रोचनशीलो रोचिष्णुः । " इडितो." ५।२।४४. इत्यने रोचनः । घमि न्ययादित्वात् कत्वे रोकः । " करणाधारे" ५।३।१२९ इत्यनटि रोचनी दृषत् । ण्यन्ताद् नन्द्याद्यने रोचना वर्णजातिः । उणादौ " य्वसिरसि०" ( उ० २६९ ) इत्यने रोचनश्चन्द्रः । विरोचन: सूर्यो दानवश्व । रोचना गोपित्तम् । “ रुक्मग्रीष्म०" (उ० ३४६.) इति मे
१. प्लक्ष इति दुर्ग: (क्षी. त. पृ. १२८ ) ॥ २. रुचिक्लृ इति मु० ॥ ३. कात्वाभावे इति मु० ॥ .
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१३.
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९३८निपातनाद् रुक्मम् हिरण्यम् , रुक्मो वर्णः, सोऽस्या अस्ति इति रुक्मिणी । " नाम्युपान्त्य" ( उ० ६०९) इति किः, रुचिः । मत्वर्थे रे रुचिरम् । " रुचि० " ( उ० ९८९) इति इसि रोचिः, वसुभिः रोचते वसुरोचिः आदित्यः ॥
अथ टान्तास्त्रयः ॥ ९३९ घुटि परिवर्तने' । घोटते, जुघुटे । द्युताघडि अघुटत् , अघोटिष्ट । णके घोटकः । " नाम्युपान्त्य" ५।१५४ इति के घुटः । स्वार्थिक के घुटिका गुल्फास्थि ॥
'९४० रुटि ९४१ लुटि ९४२ लुठि प्रतीघाते' । आयौ दीप्तौ इत्यन्ये । रोटते, रुरुटे । द्युताङि अरुटत् , अरोटिष्ट । “ नाम्युपान्त्य" ५।११५४ इति के रुटः । ठान्तोऽयमित्यन्ये ॥
“९४१ लुटि' । लोटते, लुलटे । द्युताद्यङि अलुटत् , अलोटिष्ट । लुट विलोटने [ १११९० ] लोटति । लुटच् विलोटने [ ३।३४ ] लुट्यति ।।
अथ ठान्तः ॥ • ९४२ लुठि' । लोठते, लुलुठे । द्युतायडि अलुठत् , अलोठिष्ट । लुठ उपघाते [ ११२२० ] लोठति । लुठत् संश्लेषणे [ ५।१२८ ] लुठति ॥
अथ तान्तः ॥ ९४३ विताङ् वर्णे' । ङिचाद् आत्मनेपदे श्वेतते, शिश्विते । द्युताडि अश्वितत् , अश्वेतिष्ट । आदिचात् क्तयोनेंट्, श्वित्तः, श्वित्तवान् । “नवा भावारम्भे" ४।४।७२ श्वेतितमनेन, वित्तमनेन, प्रश्वित्तः, प्रश्वेतितः । घजि श्वेतः । उणादौ " ऋज्यजि०" ( उ० ३८८ ) इति किति रे श्वित्रं कुष्ठभेदः ॥
अथ दान्तास्त्रयः ॥ '९४४ जिमिदाङ स्नेहने'। स्नेहनं स्नेहयोगः । मेदते, मिमिदे । धुताधङि अमिदत , अमेदिष्ट । जीचाद् " ज्ञानेच्छा." ५।२।९२ इति वर्तमाने तः, मिन्नः । अत्रादिचाद् नेट, मिन्नवान् । “नवा भावारम्भे" - ४४७२
१. “शुषीषि-बन्धि०" ( उ० ४१६ ) इति किति रेऽपि रुचिरम् भवति ।।
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९४७ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) इति वेटप्रतिषेधे मित्रमनेन, मेदितमनेन, प्रमिन्नः, प्रमेदितः, अत्रेटि " न डी० " ४।३।२७ इति किन्चप्रतिषेधाद् गुणः । लिहायचि मेदो म्लेच्छः । “भलिभासि०" ५।२।७४ इति घुरे मेदनशीलो मेदुरः । उणादौ "चिमिदि०" ( उ० ४५४) इति किति त्रे मित्रम् । “ अस" (उ० ९५२) इति असि मेदः वसा । जिमिदाच स्नेहने [३।३७ ] मेद्यति । मिदुण् स्नेहने [९।९०] मिन्दयति ॥
'९४५ निविदाङ् ९४६ निश्विदाङ् मोचने च'। चकारात् स्नेहने । श्वेदते, चिक्ष्विदे । द्युताद्यङि अश्विदत् , अश्वेदिष्ट । जीचाद् वर्तमाने क्तः, विष्णः, अत्रादित्चान्नेट् । " नवा भावारम्भे" ४।४।७२ इति वेटप्रतिषेधे श्वेदितमनेन, विण्णमनेन, प्रक्ष्वेदितः, प्रविण्णः, प्रक्ष्वेदितवान् , प्रक्षिण्णवान् । एविटि " नडीङ" ४।३।२७ इति कित्त्वप्रतिषेधाद् " लघो०" ४।३४ इति गुणः । डान्तोऽयमित्येके । श्वेडः विषः, वेडा स्वः । निविदाच मोचने च [३॥३८ ] विद्यति ॥
____ ९४६ जिश्विदाङ। "प: सो." २१३९८ इति सत्वे स्वेदते । " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे सिविदे । द्युताद्यडि अस्विदत् अस्वेदिष्ट । जीचात् सति क्ते स्विनः, स्विन्नवान् ; अत्रादित्वान्नट् । “ नवा भावारम्भे" ४।४।७२ वेडभावे स्विन्नमनेन, स्वेदितमनेन, प्रविन्नः, प्रस्वेदितः, अत्रेटि " नडी० " ४३।२७ इति किवाभावाद् गुणः । “वो व्यअनादेः०" ४।३२५ इति क्त्वासनोर्वा किल्वे स्विदित्वा, स्वेदित्वा, सिस्विदिषते, सिस्वेदिषते, अत्र "णिस्तोरेवा." २।३।३७ इति नियमान षत्वम् । "णिस्तोरेवा०" २१३३७ इत्यत्र स्विदेवर्जनाद् णौ सनि पत्वाभावे सिस्वेदयिषति । घनि स्वेदः । विदांच् गावप्रक्षरणे [ ३३३५ ] विद्यति ॥
अथ भान्ताः पञ्च ॥ ___ १९४७ शुभि दीप्तौ' । शोभते, शुशुभे । द्युताद्यङि अशुभत् , अशोभिष्ट । " नाम्युपान्त्य०" ५१५४ इति के शुभम् । णौ नन्द्याधने शोभनः । “इडितो." ५।२।४४ इत्यने शोभनशीलः शोभन: । भिदादिनिपातनाद् अङि शोभा । उणादौ " ऋज्यजि० " ( उ० ३८८ ) इति किति रे शुभ्रः । शुभत् शोभार्थे [ ५।७३ ] शुम्भतिअत्र " मुचादि०" ४४९९ इति नः ॥
१. मञ्जि इति मु०॥ २. निविदाङ् इति मु० । नैनं धातुं पठति क्षीरस्वामी (क्षी. स. पृ. १०१ ॥)
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રૂર
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ९४८
'९४८ क्षुभि संचलने' । संचलनं रूपान्यथात्वम् । क्षोभते, चुक्षुमे । द्युतायङि अक्षुभत् , अक्षोभिष्ट । "क्षुब्धविरिन्ध० " ४।४।७० इति निपातनाद् इडभावे क्षुब्धो मन्थः, क्षुभितोऽन्यः । शुभच संचलने [३५६ ] क्षुभ्यति । शुभश् संचलने [ ८।४६ ] क्षुम्नाति, क्षुम्नादित्वाद् णत्वाभावः ॥
९४९ णमि ९५० तुभि हिंसायाम्' । “पाठे." २।३।९७ इति नत्वे नभते । णोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्गा० " २१३७७ इति णत्वे प्रणभते । नेमे । द्युताद्यङि अनभत् , अनभिष्ट । उणादौ " अस्" ( उ० ९५२) इत्यसि नभः । अणोपदेशोऽयमित्येके ॥
'९५० तुभि' । तोभते, तुतुभे । द्युताद्यङि अतुभत् , अतोभिष्ट । नभतुभच् हिंसायाम् [ ३।५७, ५८] नभ्यति, प्रणम्यति, तुभ्यति । णभ-तुभश् हिंसायाम् [८१४७, ४८ ] नम्नाति प्रणम्नाति तुम्नाति ॥
९५१ सम्भृङ् विश्वासे' । दन्त्यादिः । सम्भते, सस्रम्भे । द्युताद्यति अस्रभत् , असम्भिष्ट । ऊदिचात् क्त्वि वेट् , सध्वा सम्भित्वा । “ क्त्वा" ४।३।२९ इति सेट: कित्त्वाभावात “नो व्यञ्जनस्या०" ४।२।४५ इति नलोपाभावः । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , विस्रब्धः, विस्रब्धवान् । " वेर्विच० " ५।२५९ इति चिनणि विसम्भशीलो विस्रम्भी । घनि विस्रम्भः । हान्तोऽयमिति कौशिकः, संहते ॥
___ अथ शान्तः ॥ '९५२ भ्रंशुङ ९५३ स्रसूङ अवलंसने' । " शिड़हे.” १।३।४० इति नस्यानुस्वारे भ्रंशते, बभ्रंशे । द्युताद्यङि अभ्रशत् अभ्रंशिष्ट । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , भ्रष्टा, भ्रंशित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , भ्रष्टः । संज्ञायां " कुत्सिता." ७३३३३ इति कपि भ्रष्टकः, भ्रष्टवान् । यडि " वञ्चसंस०" ४१५० इति पूर्वस्यान्तो नी बनीभ्रश्यते । क्ते अनिट्त्वात् “क्तेटो०" ५।३।१०६ इत्यप्रत्ययाभावे स्त्रियां क्तौ भ्रष्टिः । घनि भ्रंशः । भ्रंशूच अधःपतने [ ३।६२ ] भ्रश्यति ॥
अथ सान्तौ ॥ • ९५३ उमङ' । दन्त्यादिः । स्रंसते. ससंसे । यताद्यडि अनुसत् असंसिष्ट । सनि सिस्रंसिपते । यङि सनीस्रस्यते । यङ्लुपि सनीस्रंसीति ।
१. सिम्रषिते इति मु० ॥
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९५५ ] धातुपारायणे भ्वादयः .
१३३ ऊदित्वात् क्त्वि वेट , स्रस्त्वा, सित्वा वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, स्रस्तः, सस्तवान् । क्विपि उखेन उखया वा संसते उखासत् , अत्र “ संसध्वंस्०" २१११६८ इति पदान्ते सस्य दः, “घञ्युपसर्ग०" ३।२।८६ इति बाहुलकाद् दीघः । स्त्रियां तो सस्तिः । संसूङ् प्रमादे [११८४४] " वञ्चत्रंस०" ४।१।५० इति अत्र ध्वंसिसहचरितस्य स्रसेग्रहणात् न्यभावे यडि सास्रस्यते । अङभावे असंसिष्ट । “ संस्ध्वंस." २।१।६८ इत्यत्र तु उभयोग्रहणात् क्विपि दत्वे उखात्रत् ॥
• ९५४ ध्वंसूङ गतौ च । चकारादवटेंसने । बंसते, दध्वंसे । द्युताद्यङि अध्वसत् , अध्वंसिष्ट । यङि " वञ्चसंस०" ४१५० इति पूर्वस्य नी, दनीध्वस्यते । ऊदित्वात् क्त्वि वेट, ध्वस्त्वा, चंसित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट, ध्वस्तः, ध्वस्तवान् । स्त्रियां क्तौ ध्वस्तिः । घनि ध्वंसः । विपि पर्णध्वत् ॥
अथ धुताद्यन्तर्गणो वृतादिः पञ्चकः ॥ .. '९५५ वृतूक वर्तने ' । वर्तनं स्थितिः । वर्तते, ववृते । द्युताद्यङि अवृतत् , अवतिष्ट । " वृद्भ्यः " ३।३।४५ इति स्यसनोविषये वाऽऽत्मनेपदम् , आत्मनेपदाभावे च " न वृद्भ्यः " ४।४।५५ इति नेट, वय॑ति, वर्तिष्यते; अवय॑त् , अवतिष्यत । सनि विवृत्सति, विवर्तिषते । यडि "ऋमताम्" ४।१।५५ इति पूर्वस्य री, वरीवृत्यते । णौ डे " ऋवर्णस्य " ४।२।३७ इति गुणापवादे ऋतो वा ऋत्वे अवीवृतत् अववर्तत् । “ वर्तवृत्तं" ४४६५ इति निपातनात् क्ते वृत्तस्तर्कः, ग्रन्थादन्यत्र वर्तितं कुङ्कुमम् । ऊदित्वात् क्त्वि वेट्, वृत्त्वा, वर्तित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , वृत्तः, वृत्तवान् । णके वर्तकः । स्त्रियां "वौ वर्तिका" २।४।११० इति वा इत्वे वर्तिका वर्तका वा शकुनिः । विपि “गतिकारकस्य." ३।२८५ इति दीर्घ नीवृत् , उपावृत् । स्त्रियां तो वृत्तिः । वृत्तिरस्त्यस्या वार्ता । "व्यञ्जनाद्" ५।३।१३२ घभि स्था अस्मिन् वर्तन्ते स्थावर्ती ग्रामो गिरिश्च । "घन्युपसर्गस्य ० " ३३२६८६ इति बाहुलकाद् दीर्घः । " हस्तार्थाद्" ५।४।६६ इति णमि हस्तवतं वर्तते । णौ हस्तवर्त वर्तयति । उणादौ " दकन" (उ० २७) इत्यके वर्तकः, वर्तिका, वर्तका वा शकुनिः । “मवाक-श्यामाक०" (उ० ३७) इत्याके निपातनात् वार्ताकी शाकविशेषः, तत्फलंम् वार्ताकम् । वृन्ताकी उच्चबृहती, तत्फलं
१. अधन सने एव इति क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १०२ ) ॥ २. वार्ताकी-एतस्या: लोके वृद्धरींगणी 'डोल्हरी' इति प्रसिद्धिः
(नि. शे. टी. पृ० १९५) ॥
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१३४
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते
धा० ९५५
46
वृन्ताकम् । वृतेस्तिक: " ( उ० ७५ ) वर्त्तिका चित्रकरोपकरणम् । " ऋज्य जि० "
૧
( उ० ३८८ ) इति किति रे वृत्रः ।
२
11
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'विदिवृतेर्वा ( उ० ६१० ) इति बा किदिः, वृतिः कष्टकावरणम् निर्वृतिः सुखम् वर्तिः दीपदशा । “सदिवृत्य ० " ( उ० ६८० ) इत्यनौ वर्तनिः पन्थाः । मन् ( उ० ९११ ) इति मनि वर्त्म । वृतूचि वरणे [ ३।११३ ] वृत्यते । घृतणू भासार्थः [ ९।२१७ ] वर्तयति ॥
46
46
अथ दान्तः ॥
4
"
46
64
1
46
क्त्वीडभावे “ स्कन्द - स्यन्दः”
९५६ स्यन्दौत्रणे । स्यन्दते, सस्यन्दे । द्युताद्यङि अस्यदत्, अस्यन्दिष्ट । “ निरभ्यनोश्च ० " २|३|५० इति वा पत्वे निःष्यदन्ते, निःस्यन्दते, अभिष्यन्दते, अभिस्यन्दते । " वृद्भ्यः० 99 ३।३।४५ इति स्यनोर्वात्मनेपदम् तदभावे च " न वृद्भ्यः ४/४/५५ इति नेटू, स्यन्त्स्यति | आत्मनेपदे तु औदित्वाद्येद्, स्यन्दिस्यते, स्यन्त्स्यते, सिस्यन्त्सते, सिस्यन्दिषते, सिस्यन्त्स्यते डि सास्यद्यते । यङ्लुपि सास्यन्दीति, सास्यन्ति । ४ | ३ | ३० इति कित्त्वाभावे स्यन्वा । इटि तु 46 क्त्वा ४ | ३ |२९ इति विभावे स्यन्दित्वा । यपि प्रस्यन्द्य । तादेरेव क्त्वः किच्चाभाव इत्येके, तन्मते किच्चे नलुकि प्रस्यद्य । वेत्वात् क्तयोनेंद्र, स्यन्नः स्यन्नवान् । स्यदो जवे " ४/२/५३ इति aft निपातनाद् गोस्यदः, अश्वस्यदः । जवादन्यत्र तैलस्यन्दः, घृतस्यन्दः । उणादौ खसिरसि ० " ( 3० २६९) इत्यने स्यन्दनः । “स्यन्दि-सृजिभ्यां सिन्धरजौ च " ( उ० ७१७ ) इत्युः, सिन्धुः ॥
64
46
46
४/४/५५ इति
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अथ धान्तौ
"
९५७ वृधु वृद्भ्यः स्यसनोः "
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वृद्धौ ' । वर्धते ववृधे । द्युताद्यङि अवृधत् अवर्धिष्ट । ३ | ३ | ४५ इति वात्मनेपदम्, तदभावे न वृद्भ्यः " वर्त्स्यति, वर्धिष्यते, विवृत्सति, विवर्धिषते । ऊदित्वात् क्वि वेटू, वृद्ध्वा वर्धित्वा, वेटूच्वात् क्तयोर्ने, वृद्धः, वृद्धवान् । क्तौ तिकि वा वृद्धिः । णौ नन्द्याद्यने वर्धनः, सुखवर्धनः । भ्राज्यलंकुगू० " इष्णौ वर्धिष्णुः । उणादौ " भीवृधि० " ( उ० ३८७ ) इति रे मासार्थः [ ९।२२० ] वर्धयति ॥
44
५।२।२८ इति वर्धः । वृधण्
१. वृत्रः - दानवः बलवान् रिपुश्च (उ. वि. ) ॥
२. कण्टकशाखावरणम् ( उ. वि.) ॥
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९६० ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
'९५८ शृङ् शब्दकुत्सायाम् ' । तालव्यादिः । शब्दकुत्सा पायुशब्दत्वात् । शर्धते, शशृधे । द्युतायडि अशृधत् अशर्धिष्ट । " वृद्भ्यः स्यसनोः" ३३१४५ इति वात्मनेपदाभावे " न वृद्भ्यः " ४४५५ इति नेट् , शर्व्यति, शर्धिष्यते, शिशत्सति, शिशर्धिषते । ऊदित्वात् क्त्वि वेट , शृद्धवा, शर्धित्वा । वेट्त्वात् क्तयोनेंट् , शृद्धः, शृद्धवान् । घञि शर्धः, शर्धजहा माषाः । उणादौ “ डीनीवन्धि० " ( उ० ३२५) इति डिम्बे शिम्बा वीजकोशी । " नृतिशृधि० " ( उ० ८४४ ) इति किदुः, गृधूः शर्धनः ॥
९५९ कृपौड सामर्थे ' । “ऋर०॥ २॥३९९ इति लत्वे कल्पते । लत्वे चक्लुपे । धुताद्य ङि अक्लुपत् , अकल्पिष्ट । " वृद्भ्यः स्यसनोः" ३।३।४५ इति " कृपः श्वस्तन्याम् " ३।३।४६ इति च वात्मनेपदाभावे " न वृद्भ्यः " ४।४।५५ इति नेट् । आत्मनेपदे तु औदित्वात् वेट् , कल्पस्यति, कलिषष्यते, कल्प्स्यते, चिक्लप्सति, चिकल्पिषते, चिक्लप्सते, कल्प्तासि, कल्पितासे, कल्प्तासे, कल्प्तुम् , कल्पितुम् । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , क्लप्तः, क्लुप्तवान् । णौ कल्पयति । " ऋदुपान्त्या०" ५।१।४१ इति अत्र कृपिवर्जनात् "शकि--तकि०" ५।१।२९ इति ये कल्प्यम् । जौ अचि कल्पः । यडि चलीक्लृप्यते । णौ ते अवकल्पितः । " व्यजनाद्" ५।३।१३२ इत्याधारे घजि क्लृप्यन्ते यस्मिन् प्राणिनां भोगोपभोगा वृद्धिहानिभ्यामिति कल्पः कालविशेषः उत्सपिण्यवसर्पिणीसमुदायः । उणादौ " तकृपि०" ( उ० १५१) इति कीटे कृपीटं हिरण्यं जलं च । कृपण अवकल्कने [९।१७९ ] कल्पयति । कृपण दौर्बल्ये [ ९।३२३ ] अदन्तः, कृपयति ॥
वृत्' । वर्तनम् वृत् , द्युतादिः २३ वृतादिः ५ चान्तर्गणी वर्तितौ समाप्तौ इत्यर्थः । वृधेः विपि वृत् , वर्धितौ पूर्णी इत्येके । ___ अथ ज्वलादयो यजादेः प्राक पल-शल-क्रुशं-रुह-रभि वर्जा: सेटश्च वर्णक्रमेण निर्दिश्यन्ते । तत्रापि पूर्वाचार्यानुरोधेन पूर्वम् ॥
• ९६० ज्वल दीप्तौ' । " शेषात् परस्मै" ३३१०० इति परस्मैपदे ज्वलति, जज्वाल, ज्वलिता । णौ घटादित्वात् इस्वे प्रज्वलयति । " ज्वलह्वल." ४।२।३२ इत्यनुपसर्गस्य वा हस्वे वलयति ज्वालयति, “ वा ज्वलादि०"
१. वृद्भ्य इति मु०॥ २. एतस्या लोके खेजडी इति प्रसिद्धिः । (नि. शे. टी. ७३ ) ॥ ३. तुलना, (क्षी. त. पृ. १०४ ) ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९६०५।१।६२ इति णे ज्वालः, ज्वाला । पक्षे अचि ज्वलः । “भूषाक्रोधार्थ." ५।२।४२ इत्यने ज्वलनशीलो ज्वलन । उणादौ " निष्कतुरुष्को०" (उ० २६) इति के निपातनाद् उल्का । “कञ्चुकांशुक०" ( उ० ५७ ) इत्युके निपातनाद् उल्मुकम् ॥
___अथ चान्तः ॥ ' '९६१ कुच संपर्चनकौटिल्यप्रतिष्टम्भविलेखनेषु' । संपर्चन मिश्रता । प्रतिष्टम्भो रोधनम् । विलेखनं कर्षणम् । कोचति, चुकोच, कोचिंता, संकुचितः । गौ क्ते संकोचितः । “ वा ज्वलादि०" ५१।६२ इति णे कोचः । " नाम्धुपान्त्य." ५।११५४ इति के कुचः । घजि ते सेन्चात् फत्वाभावे उत्कोचः, संकोचः ॥ .
अथ तान्तः ॥ - '९६२ पत्ल ९६३ पथे गतौ'। पतति, पपात, पेतुः । लुदिचादङि " श्वयत्य० ॥ ४।३।१०३ इति पप्तादेशे अपप्तत् । “नेमादा० " २।३।७९ इति नेर्णत्वे प्रणिपतति, प्रण्यपतत् , अटो धात्वादित्वात् व्यवधानाभावः । सनि " इवृध०" ४।४।४७ इति वेटू , अनिट्पक्षे " रमलभ० " ४।१।२१ इति स्वरस्यत्वे द्वित्वाभावे च पित्सति । इटि पिपतिषति । यङि " वञ्चसंस०” ४।१।५० इति पूर्वस्यान्तो नी, पनीपत्यते । भावकर्मणोरेव प्राप्तस्य ध्यणो “ भव्यगेय० " ५।११७ इति कर्तरि वोत्पत्तौ आपात्यः, पक्षे आपात्यमनेन । " वा ज्वलादि०" ५।११६२ इति णे पातो राहुः, पक्षे अचि पतः पक्षी । घजि उत्पातः, निपातः । “वेटोऽपतः" ४।४।६२ इति पतो वर्जनादिट्प्रतिषेधाभावे पतितः, पतितवान् । " उदः पचि०" ५।२।२९ इति इष्णौ उत्पतनशीलः उत्पतिष्णुः । " लषपत०" ५।२।४१ इत्युकणि प्रयातुकः । “भूषाक्रोधार्थ" ५।२।४२ इत्यने पतनः । " नीदाव" ५।२१८८ इति त्रुटि पत्त्रम् । “ विशपत० " ५४१८१ इति णमि गेहानुप्रपातमास्ते । उणादौ "शलिबलि." ( उ० ३४) इत्या पताका । " आङः पणि०" ( उ० ३९) इति इके आपतिका श्यनः । " पतितमि०" ( उ० ९८ ) इत्यङ्गे पतङ्गः पक्षी । "वीपतिपटिभ्यस्तनः " ( उ० २९२) पत्तनं पुरविशेषः । " वृगनक्षि०" ( उ० ४५६ ) इत्यत्रे पतत्रं पत्त्रम् । “पतिकुलूभ्यो णित् " ( उ० ४७९ ) इत्याले पातालम् । “ पतेः सलः " ( उ०. ५०४ ) पत्सलः प्रहारः । “कमिवमि०" (उ० ६१८ ) इति णिदिः, संपातिः गृध्रराजः । “सात्मनात्मन्" (उ० ९१६)
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९६६ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) इति मनि निपातनात् णौ पाप्मा । पतण गतौ वा [९।३१२] अदन्तः, " शीश्रद्धा०" ५।२।३७ इत्यालौ पतयालुः ॥
अथ थान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ '९६३ पथे' । पथति, पपाथ, पथिता । एदिचात् “ व्यञ्जनादे०" ४।३।४७ इति वा वृद्धेः “ न श्विजागृ०" ४३४९ इति प्रतिषेधे अपथीत् । " वा ज्वलादि०" ५।११६२ इति णे पाथः । पक्षे अचि पथः । उणादौ “पथिमन्थिभ्याम् " ( उ० ९२६) इति इनि पन्थाः ॥
'९६४ क्वथे निष्पाके'। क्वथति, चक्वाथ, क्वथिता । एदित्वात् " व्यञ्जनादे०" ४।३।४७ इति वा वृद्धेः “न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अक्वथीत् । “ वा ज्वला०" ५।१।६२ इति णे क्वाथः । अचि क्वथः । घनि क्वाथः । " अतोऽनेकस्वरात्" ७२।६ इति मत्वर्थीयेके क्वाथिका यवागूः ॥
९६५ मथे विलोडने ' । मथति, ममाथ, मथिता । एदिचात् "व्यञ्जनादे." ४।३।४७ इति वा वृद्धेः "न विजागृ." ४४९ इति प्रतिषेधे अमथीत् । " वा ज्वला०" ५।११६२ इति णे माथः; पक्षे अचि मथः । “मथलपः" ५।२।५३ इति घिनणि प्रमथनशीलः प्रमाथी । घनि प्रमाथः अध्वपरिमाणम् । उणादौ " वाश्यसि० " ( उ० ४२३) इत्युरे मथुग । मन्था इति तु मथ्नातेः [" पथिमन्थिभ्याम्" ( उ० ९२६) इति किति इन्प्रत्यये ] ॥
___ अथ दान्तौ ॥ '९६६ षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु'। विशरणं शटनम् , अवसादः अनुत्साहः । "श्रौति० " ४।२।१०८ इति सीदादेशे सीदति । “पः सो." २।३।९८ इति सत्वे ससाद । “सदोऽप्रतेः०" २३४४ इति षत्वे निषीदति, विषीदति, निषसाद, विषसाद । सनि निषिषत्सति विषिषत्सति, प्रतेस्तु षत्वाभावे प्रतिसीदति । " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सिपत्सति । लदित्वादडि आसदत् । अनुस्वारेन्वान्नेट , सन्नः, सन्त्रवान् । “गलुप० " ३।४।१२ इति गर्थि यङि सासद्यते । “वा ज्वलादि०" ५।११६२ इति णे सादः, बाहुलकात् सोप- १. गथे विलोडने इति काशकृत्स्न: ( का. धा. पृ. १०७) ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९६६सर्गादपि णे निषादः, विषादः । अचि सदः । विपि भीरुष्ठानादित्वात् षत्वे आदिषत् , उपसत् , पुष्करसत् । संपदादिक्विपि उपनिषत् । परिषीदन्त्यस्याम् इति परिषत् । ग्रहादित्वाणिनि सादी, निषादी । " दाट्वेसि०" ५।२।३६ इति रौ सादनशील: सगुः । घत्रि सादः, निषादः, विषादः । स्त्रियां " समज०" ५।३।९९ इति क्यपि निषद्या । आधारे "व्यअनाद्" ५३।१३२ इति घजि "घञ्युपसर्ग." ३।२।८६ इति दीधै प्रासादः । उणादौ "हुशमा०" ( 3० ४५१ ) इति त्रे सस्त्रं यज्ञः । " कृगश० " ( उ० ४४१ ) इति वरटि निषद्वरः पङ्कः । “ मन् " ( उ० ९११) इति मनि सम । " कमिवमि०" ( उ० ६१८) इति णिदिः, सादिः अश्वारोहः सारथिश्च । “ अस्" ( उ० ९५२ ) इत्यसि सद: सभा ॥ .
९६७ शढ़े शातने ' । शातनं तनूकरणम् । “ शदेः शिति" ३।३।४१ इत्यात्मनेपदे " श्रौति." ४।२।१०८ इति शीयादेशे शीयते । शितोऽन्यत्र परस्मैपदे शशाद । अनुस्वारेचान्नेट, शत्स्यति । लुदिचादङि अशदत् । णौ " शदिरगतौ शात् " ४।२।२३ पुष्पाणि शातयति । गतौ तु गाः शादयति । " वा ज्वला०" ५।१।६२ इति णे शादः तृणपङ्को । अचि शदः शटितः, क्षत्रियापशदः, विशदः । णौ " करणाधारे" ५।३।१२९ इत्यनटि पलाशशातनो दण्डः, पलाशशातनी यष्टिः । उणादौ " शदेरूच " ( उ० ३९४ ) इति रे शूद्रः । " तङ्कि-वङ्कि" ( उ० ६९२) इति रिः, शद्रिः वज्रः । “जनिहनि." (उ० ८०९) इति रौ तादेशे च शत्रुः ॥
अथ धान्तः ॥ ___ '९६८ बुध अवगमने' । अवगमनं ज्ञापनम् । बोधति, बुबोध, बोधिता ।
"वा ज्वला" ५।०६२ इति णे बोधः । पक्षे " नाभ्युपान्त्य" ५११५४ इति के बुधः । णौ " गतिबोधा० " २।२।५ इत्यणिकर्तुः कर्मत्वे बोधयति शिष्य धर्मम् । “ अजाते.." ५।१।१५४ इति “णिन्चावश्यका" ५।४३६ इति वा णिनि प्रतिबोधी, गम्यादित्वात् वय॑ति साधुः । पनि बोधः । उणादौ " युयुजि० " ( उ० २७७ ) इति किति आने बुधान: आचार्यः । अनुस्वारेदयमित्येके, तन्मते अभौत्सीत् , बोद्धा, राज्ञाम् बुद्धः । बुपिंच ज्ञाने [ ३।११९] बुध्यते ॥
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..९७१ ] धातुपारायणे वादयः (१)
१३९
___ अथ मान्तौ ॥ ___ '९६९ टुवम् उगिरणे' । उगिरणं भुक्तस्योर्ध्वगतिः । वमति, वनाम । " अनादेशादे०" ४।१।२४ इति एत्वद्वित्वाभावयोः “न शशददवा०॥ ४॥१॥३० इति प्रतिषेधे " जभ्रम" ४।१।२६ इति वा प्रतिप्रसवे वेमतुः, ववमतुः । " वा ज्वला. " ५।११६२ इति णे "मोऽकमि०" ४३५५ इति अत्र वमेवजनात् वृद्धिप्रतिषेधाभावे वामः, अचि वमः । वमिता । “अमोऽकम्य०" ४।२।२६ इति इस्वे गौ उद्वमयति । “ज्वलवल०" ४।२।३२ इत्यनुपसर्गस्य वा हस्वे वमयति, वामयति । णौ नन्द्याधने वामनः । णके वामकः, पनि वामः, अङ्गादित्वान्मत्वर्थीये ने वामनः । “ जीणदृक्षि" ५।२।७२ इति इनि वमनशीलो वमी । विवादथुः, वमथुः । ऊदित्त्वात् क्त्वि वेद, वान्त्वा, वमित्वा । वेट्त्वात् क्तयोः नित्यमिडभावे प्राप्ते " श्वसजप० " ४।४।७५ इति वेटि वान्तः, वान्तवान्, वमितः, वमितवान् । उणादौ " कमिवमि०" (उ० ६१८) इति णिदिः, वामिः स्त्री । " इतो० " रा४।३२ इति वा ड्याम् वामी अश्वा । नायमूदिदित्यन्ये ॥
- '९७० भ्रमू चलने' । “ भासम्लास० " ३।४।७३ इति वा श्ये भ्रम्यति, भ्रमति, बभ्राम । “ जभ्रम०" ४।१।२६ इति वैत्वे भ्रमुः, वभ्रमुः । ऊदित्वात् क्वि वेट् , भ्रान्त्वा, भ्रमित्वा । वेटत्वात् क्तयोनेंट् , भ्रान्तः, भ्रान्तवान् । " वा ज्वला०" ५११६२ इति णे ज्वलादिपाठवलात् " मोऽकमि०" ४।३।५५ इति प्रतिषेधाभावे " णिति" ४३५० इति वृद्धौ भ्रामः । अचि भ्रमः । चि भ्रमिता । उणादौ "ऋच्छिचटि०” (उ० ३९७) इति अरे भ्रमरः । “तृभ्रम्य०" ( उ० ६११ ) इति इ. भृमश्च, भृमिर्वायुः । बाहुलकाद् भृमादेशाभावे भ्रमिः भ्रमः । “ भ्रमिगमि०" (उ० ८४३) इति डिदः, भ्रः । भ्रमूच अनवस्थाने [ ३३९१ ] भ्राम्यति ॥
अथ रान्तः ॥ '९७१ क्षर संचलने' । सकर्मकश्चायमकर्मकश्च । क्षरति गौड़, पयो मुश्चतीत्यर्थः । क्षरति जलं स्रवतीत्यर्थः । चक्षार, क्षरिता । “वा ज्वला०" ५।११६२ इति णे क्षारः, गौरादित्वाद् याम् क्षारी । णे ध्यणि कृतं क्वचिदित्येके । अचि क्षरः, अक्षरः ।।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९७२
अथ लान्ताश्चतुर्दश ॥ ९७२ चल कम्पने' । चलति, चचाल, चलिता । " वा ज्वला." ५।१।६२ इति णे चाल: । अचि चलः । “चराचर०" ४।१।१३ इति निपातनात् चलाचलः । यङ्लुपि चाचलः, चञ्चलः । कम्पने घटादित्वात् णौ ह्रस्वे चलयति शाखाम् । अन्यत्र चालयति सूत्रम् । “चालशब्दा०" ५।२।४३ इत्यने चलनशीलः चलनः । धनि चालः । चलण भृतौ [९।१३४ ] चालयति ॥ .
- +९७३ जल घात्ये' । घात्यं जडत्वम् , अतेक्ष्ण्यम् इत्यर्थः । जलति, जजाल । " वा ज्वला०" ५।१।६२ इति णे जालम् । अचि जलम् , डलयोरैक्यं जडः । व्यवस्थितविभाषत्वाद् मिन्नेऽर्थे प्रत्ययौ । घजि जालम् । घनन्तस्यापि नपुंसकत्वं लोकात् । जलण अपवारणे [९।१२० ] जालयति ॥
(९७४ टल ९७५ ट्वल वैक्लव्ये '। विक्लव एव वैक्लव्यम् । टलति, ट्वलति, टटाल, टट्वाल । " वा ज्वला०" ५।१।६२ इति णे टालः, ट्वालः । अचि टलः, वलः । टलितुम् , ट्वलितुम् ॥
'९७६ ठल स्थाने ' । “पः सो" २।३।९८ इति सत्वे स्थलति, तस्थाल, स्थलिता । " वा ज्वला०" ५११६२ इति णे स्थालम् । गौरादित्वाद्
याम् स्थाली । अचि स्थलम् । स्त्रियां "भाजगोण" २।४।३० इति याम् स्थली अकृत्रिमा, स्थला अन्या । “ विकुशमि० " २।३।२८ इति षत्वे विष्ठलम् , कुष्ठलम् , शमिष्ठलम् । "कपेर्गोत्रे" २।३।२९ कपीनां स्थलमिव स्थलमस्य कपिष्ठलः । षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे तिष्ठालयिषति । अपोपदेशोऽयमित्यन्ये ॥
__९७७ हल विलेखने ' । विलेखनं कर्षणम् । हलति, जहाल, हलिता । "वा ज्वला० " ५।११६२ इति णे हालः । हाला सुरा । अचि हलम् , हलाहलम् । उणादौ " पदिपठि० " ( उ० ६०७) इति इः, हलि:, हडिः ॥
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१. धान्ये इति काशकृत्स्न: (क्षी. त. टि. पृ. ११६ ) ॥ २. "चलशब्दा०" इति पाठो लघुवृत्यादिषु बहुषु ग्रन्थेषु ।। ३. वैप्लव्ये इति क्षीरस्वामी (क्षी. त. टि. पृ. ११६ ) ॥ ४. हडिः काष्ठयन्त्रविशेषः (शब्दकल्पद्रुम भा. ५)॥
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९८२ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
१४१ - '९७८ णल गन्धे' । गन्धः अर्दनम् । “ पाठे० " २।३।९७ इतिः नत्वे नलति । णोपदेशत्वात् “ अदुरुपसर्गा०" २३७७ इति णत्वे प्रणलति, परिणलति । ननाल, नलिता । " वा ज्वला०" ५।११६२ इति णे नालम् , नाला पद्मादीनां वृन्तम् , नाली, नाडी. प्रणालम् , प्रणाली प्रणालिका, प्रणाडिका । अचि नलम्', नलः, नडः । " आतो." ५।११७६ इति डे नलदः ॥
'९७९ बल प्राणनधान्यावरोधयोः' । प्राणनं जीवनम् , धान्यम् अवरुध्यते यत्र इति धान्यावरोध: कुमूलः । ओष्ठयादिः । बलति, बबाल । " अनादेशादे" ४।१।२४ इति एत्वे द्वित्वाभावे च बेलतुः, बेलुः, बलिता । “वा ज्वला." ५।१।६२ इति णे बालः । स्त्रियां " वयस्यनन्त्ये" राहा२१ इति उथपवादे अजादित्वाद् आपि बाला । अचि बल:, बलम् । उणादौ "दृषभृ०" (उ० २०७) इति अते बलतः कुम्लः । वलि संवरणे [११८०७] दन्त्यौष्ठयादिः । वलते, ववले । वलण प्राणने घटादिश्च इत्येके, वलयति ॥
९८० पुल महत्त्वे' । पोलति, पुपोल, पोलिता । " वा ज्वला." ५१।६२ इति णे पोलः; पक्षे “ नाम्युपान्त्य" ५।१।५४ इति के पुलः, पुलम्, विपुलम् । उणादौ " ध्रुधून्दि०" (उ० २९) इति कित्यके पुलको रोमाञ्चः । " पापुलि." (उ० ४१ ) इति किति इके पुलिकः तुच्छधान्यम् । “कल्यलि." ( उ० २४६ ) इति इन्दकि पुलिन्दः । - " वृजितुहि०" (उ० २८३) इति किति इने पुलिनम् । “ नाम्युपान्त्य०" (उ० ६०९) इति किदिः, पुलिः । " अगिविलि० " ( उ० ६६०) इत्यस्तिकि पुलस्तिः । अयं तुदादिः अपि इत्येके, पुलति । पुलण समुच्छ्राये [ ९।१२२] पोलयति ॥
९८१ कुल बन्धुसंस्त्यानयोः' । संस्त्यानं संघातः । कोलति, चुकोल, कोलिता । “ वा ज्वला०" ५।१।६२ इति णे कोलः सूकरः, कोलं बदरम् । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के कुलम् , नकुलः । ककोलमिति तु कचेः " पिञ्छोल० " ( उ० ४९५) इत्योले निपातनात् । उणादौ "कुलिपिलि." ( उ० ४७६ ) इति किति आले कुलालः ॥
९८२ पल ९८३ फल ९८४ शल गतौ' । पलति, पपाल, पलिता । " वा ज्वला" ५।११६२ इति णे पालः । अचि पलं मांसम् । कर्मणोऽणि
१. 'वलि संघरणे, बलत: कुशूलः' इत्युणादि विवरणे ॥
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१४२
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९८२गोपालः । उणादौ " दृश्या०" (उ० २१० ) इति इते पलितं पाण्डुरः केशः केशपाकश्च । अभ्रादित्वाद् अः, पलितमस्यास्ति पलितः । “मृदिकन्दि०" (उ० ४६५) इति अले पललं तिलकल्कः । " ऋकृमृ०" ( उ० ४७५) इत्याले पलालम् । “शमिकमि०" ( उ० ४९९) इति बले पल्वलम् अखातसरः । पलण् रक्षणे [९।१३२] पालयति ॥
'९८३ फल' । फलति, पफाल । “तत्रपफल" ४।१।२५ इत्येत्वे द्वित्वाभावे च फेलतुः, फेलुः । फलिता, फलिष्यति । " वा ज्वला०" ५।११६२ इति णे फालः कुशिकः । फाला इव तण्डुलाः । अचि फलम् ॥
९८४ शल' । शलति, शशाल, शलिता । “वा ज्वला" ५।११६२ इति णे शालः, शाला । अचि शलं श्वाविद्रोम । उणादौ " मीणशलि." ( उ० २१) इति के शल्कः शरणम् । “शलिबलि." (उ० ३४) इत्याके शलाका । " शल्यणेणित् " (उ० ५९) इति ऊके शालूकं कुमुदादिकन्दः । " शल्यलेरुच्चातः” (उ० ३१९) इति वे शुल्वम् । “ कृशग० " ( उ० ३२९) इत्यमे शलभः । “स्था-छा--मा०" (उ० ३५७) इति ये शल्यम् । यावादित्वात् के शल्यकः । “मृदि-कन्दि०" ( उ० ४६५) इत्यले शललं श्वावित्सूची । "कमि-वमि०" ( उ० ६१८) इति णिदिः, शालिः । “ माशालि." ( उ० ७०३ ) इति ण्यन्ताद् मलौ शाल्मलिः । फलिशल्योः पूर्वमधीतयोः अपीह पाठो ज्वलादिकार्थः शलेः परस्मैपदार्थश्च ॥
९८५ हुल हिंसासंवरणयोश्व' । चकाराद् गतौ । होलति, जुहोल, होलिता । "वा ज्वला." ५११६२ इति णे होलः, पक्षे "नाम्युपान्त्य" ५११५४ इति के हुलः, हुडः । उणादौ "पृ-का-दृषि० " ( उ० ७२९) इति किदुः, हुडुः
मेषः ॥
अथ शान्तः ॥ ___ '९८६ क्रुश आह्वानरोदनयोः' । क्रोशति, चुक्रोश । " हशिटो० " ३।४।५५ इति सकि अक्षत् । अनुस्वारेचान्नेट , क्रोष्टा, आक्रोष्टा । " वा ज्वला."
१. शुल्बम् ताम्रम् इत्युणादि विवरणे ॥ २. अयं गतौ एव इति क्षीरस्वामी (क्षो. त. पृ. ११७ ) ॥
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९८८ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
५।१।६२ इति णे क्रोशः । बाहुलकात् सोपसर्गादपि णे उत्क्रोशः कुरः; पक्षे " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के क्रुशः । “ उपसर्गाद् देव." ५।२।६९ इति णके आक्रोशनशील:- आक्रोशकः । पनि आक्रोशः । क्रुश्यते उच्यते अध्वपरिमाणं यस्मात् क्रोशः । णके उत्क्रोशकः । उणादौ " कृ-सि-कम्य०" (उ० ७७३) इति तुनि क्रोष्टुना । "ऋ-शी-शि०" ( उ० ९०६) इति क्वनिपि क्रुश्वा शिवा ॥
अथ सान्तः ॥ ९८७ कस गतौ' । कसति, उत्कसति, विकसति, चकास, कसिता । " वा ज्वला० " ५।१।६२ इति णे कासः । अचि कसः । यङि “वञ्चलंस." ४।१:५० इति पूर्वस्यान्तो नी चनीकस्यते । यङ्लुपि चनीकसीति । "स्थेशभास." ५।२।८१ इति वरे विकसनशीलो विकस्वरः । उणादौ "संविभ्याम०" (उ० ५२) इत्युके संकसत्यस्मात् संकसुक: अस्थिरः, भीमादित्वादपादाने साधुः । विकसुकः गुणवादी । “ कसिपद्य० " ( उ० ८३५ ) इति णिदूर, कासः शक्त्यायुधम् ॥
अथ हान्तः ॥ १९८८ रुहं जन्मनि' । बीजजन्मनि इत्यन्ये । वीजजन्माऽङ्कुरोत्पत्तिः । रोहति, रुरोह । अनुस्वारेचानेट , शेढा । " हशिटो." ३।४।५५ इति सकि अरुक्षत् । णौ "रुहः पः" ४।२।१४ इति वा पादेशे रोपयति, रोहयति । " वा ज्वला" ५।११६२ इति णे रोहः । बाहुलकात् सोपसर्गादपि णे प्ररोहः, आरोहः । " नाग्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के रुहो मृगः । छिन्नरुहः, प्ररुहः । स्थादित्वाद् भावाकोंः मूलविभुजादित्वाद् वा कर्तरि के बीजरुहा । अस्य " साक्षादादिश्व्य र्थे " ३३१११४ इति कृगा योगे वा गतित्वे बीजरुहाकृत्य बीजरुहा कृत्वा गतः । " श्लिषशी" ५।१।९ इति वा कर्तरि ते खट्वाम्
आरूढः । क्तौ रूढिः । उणादौ " दृश्या०" ( उ० २१०) इति इते रोहितो । वर्णः, लत्वे लोहितः । "श्येते." २४१३६ इति ड्याम् रोहिणी । “रुहिनन्दि०"
(उ० २२० ) इति टित्यन्ते गेहन्तो द्रुमः, रोहन्ती ओषधिः । “विपिना." (उ० २८४ ) इति निपातनाद् इने रोहिणः । स्त्रियां " रेवत०" २।४।२६ इति
१. उत्क्रोशी मत्स्यनाशनः कुरर. (अ. चि. ४।४०१) । २. क्रोष्टा शृगालः, तस्य तृतीयैकवचनम् ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ९८८ड्याम् रोहिणी नक्षत्रम् । “ रुहेवृद्धिश्च" (उ० ५४८) इति इषे रौहिषं तृणजातिः । ण्यन्तात् " स्वरेभ्य इ." ( उ० ६०६ ) रोहि: मृगः । “दृसृरुहि०" ( उ० ८८७ ) इति इति रोहित् मृगः । "ऋशीक्रुशि०" (उ० ९०६) इति क्वनिपि रूह्वा वृक्षः ॥
अथात्मनेपदिनौ ॥ “९८९ रमि क्रीडायाम् । इदिवादात्मनेपदे रमते । “व्याङ्परे०" ३।३।१०५ इति परस्मैपदे विरमति, आरमति, परिरमति । " वोपात् " ३।३।१०६ उपरमति, उपरमते वा । संतापो मैत्रमुपरमति, उपरमते वा; अन्तर्भावितण्यर्थोऽयं
सकर्मकः । रेमे । " यमिरमि०" ४।२।५५ इति इटि सेऽन्ते च व्यरंसीत् , - व्यरंसिष्टाम् । यङि रम्यते । यलुपि रन्ति । अनुस्वारेचानेट , रन्ता, रन्तुम् ।
" भव्यगेय० " ५।११७ इति कर्तरि निपातनाये रम्यः । नन्द्याद्यने रमणः । " रम्यादिभ्यः " ५३।१२६ इति कर्तर्यनटि रमणी । “वा ज्वला" ५।११६२ इति णे रामः, रामा । अचि रमः, रमा । “शोकापनुद०" ५।१।१४३ इति निपातनात् के स्तम्बरमः हस्ती। उणादौ "पुतपित्त" (उ० २०४) इति निपातनात् सूरतो दमितो हस्ती, अन्यो वा दान्तः । “नीनूरमि०" (उ० २२७) इति किति थे स्थः । “ पथयूथ० " (उ० २३१ ) इति निपातनात् सूरथो दान्तः । " रमेस्त च" ( उ० २६४ ) इति ने रत्नम् । “कृश०" ( उ० ३२९) इति अभे रमभः प्रहर्षः । “चकिरमिविकसेरुच्चास्य " ( उ० ३९३) इति रे. रुम्रः अरुणः । रक्ष इति तु रह इति च रक्षिरह्योः असि । केचित्तु यमं उपरमे, रम क्रीडायाम् इति ऊदितौ ज्वलादौ अधीयते, तन्मते अदिचात् क्त्वि वेट् , यत्वा यमित्वा, रत्वा रमित्वा ॥
९९० पहि मर्पणे ' । मर्षण क्षमा । “पः सो० " २।३।९८ इति सत्वे इदिवादात्मनेपदे सहते । परोक्षायाम् अनादेशादित्वात् " अनादेशादे." ४।१।२४ इत्येत्वे द्वित्वाभावे च सेहे । पोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे
णौ डे असीपहत् । “ असोङ० " २।३।४८ इति षत्वे परिषहते, निषहते, विषहते। - " स्तुस्वाश्चाटि नवा" २।३।४९ पर्यषहत, पर्यसहत, न्यपहत, न्यसहत, व्यपहत, व्यसहत । " असोङ० " २।३।४८ इति वर्जनात् सोङयोः षत्वाभावे परिसोढः,
१. " किलि-पिलि० " ( उ० ६०८) इत्यनेन रुहं बीज जन्मनि इत्यस्माद् धातोः इप्रत्ययेऽपि रोहिः-सस्यं जन्म च भवति ।
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९९१ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) निसोढः, विसोढः । णौ डे पर्यसीपहत् , अत्र पूर्वस्य न पत्वम् , उत्तरस्य तु " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति स्यादेव । सनि षत्वापन्ने "णिस्तोरेवा." २॥३॥३७ इति नियमात् षत्वाभावे सिसहिषते । “णिस्तोरेवा० " २।३।३७ इत्यत्र ज्यन्तस्यापि सहेर्वर्जनाद् न षत्वम् , सिसाहयिषति । साक्षादादौ पाठात् षत्वाभावे अनटि गणनिपातनाद् एत्वे च विसहनेकृत्य । “दाश्वत्-साहत० " ४।१।१५ इति निपातनात् क्वसौ साह्वान् । “शकित कि०" ५।१।२९ इति ये सह्यम् । “वा ज्वला." ५।१।६२ इति णे साहः, अचि सहः । नन्द्याधने सहनः । विपि 'गतिकारकस्य." ३।२।८५ इति दीर्घ जलासट् । ग्रहादित्वाद् णिनि उत्साही । “साहिसाति." ५।११५९ इति शे साहयः । “सर्वात् सहश्च" ५।१११११ इति खे सर्वसहः । "भ्राज्यलंकग०" ५।२।२८ इति इष्णौ सहनशीलः सहिष्णुः । "लू-धू-सू०" ५।२।८७ इति इत्रे सहित्रम् । “ सहलुभे" ४।४।४६ इति तादौ अशिति वेटि सोढा, सहिता । वेटूत्वात् क्तयोर्नेट् , सोढः, सोढवान् । “ शकधृष." ५।४९० इति तुमि सहते भोक्तुम् । उणादौ “ ऋमि-रजि० " ( उ० २७९ ) इति असाने सहसानः दृढः । “ मस्यसि०" (उ० ६९९) इत्युरौ सहुरिः भूः । “सहेः षष् च" (उ० ९५१ ) इति विपि षट् । “अस् " ( उ० ९५२) इत्यसि सहः बलम् । पदण् मर्षणे [ ९।४१५ ], " युजादेर्नवा " ३।४।१८ इति वा णिचि साहयति । 'सहति कलभेभ्यः परिभवम् ' ॥
"वृत् ज्वलादिः" । ज्वलादयो वृत्ताः, समाप्ता इत्यर्थः ॥ ___ अथ यजादयो नव श्विवदवर्जा अनिटश्च वर्णक्रमेण दयन्ते, तत्रापि पूर्वाचार्यानुरोधेनादौ
९९१ यजी देवपूजासंगतिकरणदानेषु' । ईदिच्चाद् “ ईगितः" ३।३।९५ इति फलवकर्तर्यात्मनेपदम् । अन्यत्र “शेषात् परस्मै " ३।३.१०० इति परस्मैपदम् । यजते, यजति । " यजादिवश्” ४।११७२ इति पूर्वस्य स्वृति इयाज । " यजादि वचे." ४।१।७९ इति वृति इज्यते, ईजे, ईजुः । यङि यायज्यते । यङ्लुपि यायजीति, यायष्टि । अनुस्वारेचान्नेट् , यष्टा, यष्टुम् । “यजेर्यज्ञानें" ४।१।११४ इति गत्वप्रतिषेधाद् पनि प्रयाजः, अनुयाजः । यज्ञाङ्गादन्यत्र गत्वे यागः ।
१. निस्तो इति मु०॥
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१४६
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ९९१
" त्यजयज०" ४।१।११८ इति ध्यणि गत्वप्रतिषेधाद् याज्यम् , अत एव वचनाद् घ्यण अपि, “ शकित कि०" ५।१।२९ इति ये यज्यम् , णके याजकः । "कर्मजा तृचा च" ३११८३ इति निषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः, नृपयाजकः । विपि " यजसृज० " २११८७ इति पापवादे "ऋत्विजदिश" २।११६९ इति गे ऋतौ यजति ऋत्विक् । " करणाद्यजो भृते " ५।१।१५८ इति णिनि अग्निष्टोमयाजी । “ सुयजो." ५।१।१७२ इति वनिपि यज्वा । " पूजयजः०" ५।२।२३ इति शाने यजमानः । " यजिजपि० " ५।२।४७ इति यङन्ताद् ऊके यायजनशीलो यायजूकः । " यजिस्वपि०" ५।३३८५ इति ने यज्ञः। "आस्यटि० " ५।३।९७ इति स्त्रियां भाषे क्यपि इज्या । " श्रूवादिभ्यः " ५।३।९२ इति क्तो इज्यतेऽनया इष्टिः । उणादौ " प्लुज्ञा० " ( उ० ६४६ ) इति तौ यष्टिः । " रुद्यति० " ( उ० ९९७ ) इत्युसि यजुः अच्छन्दाः श्रुतिः ॥
अथैदन्तास्त्रयः ॥ ९९२ वेंग तन्तुसन्ताने ' । गिचात् " ईगितः" ३।३।९५ इति फलवत्कर्तर्यात्मनेपदम् । अन्यत्र " शेषात् परस्म " ३।३।१०० इति परस्मैपदम् ; वयते, वयति । " वेर्वय् " ४।४।१९ इति वा वयादेशे “ यजादिवश० " ४।१।७२ इति पूर्वस्य वृति उवाय, उवयिथ । “यजादिवचे." ४११७९ इति वृति " न वयो य" ४।१।७३ इति यस्य प्रतिषेधे ऊयतुः, ऊयुः । वयादेशाभावपक्षे " वेश्यः" ४।१।७४ इति पूर्वस्य वृत्प्रतिषेधे ववौ । थवि " सृजिशि० " ४४७८ इति वा नेटि वविथ, क्वाथ । " अविति वा" ४।११७५ इति वा स्वृति द्वित्वे " वार्णात् प्राकृतं बलीयः" [ तु० न्याय० ४४ ] इति पूर्वमुवादेशे समानदीर्घ च ऊवतुः, ऊवुः; पक्षे ववतुः, ववुः । अनुस्वारेचान्नेट् , वाता, वातुम् , वातव्यम् । णो "पाशाछा०" ४।२।२० इति ये वाययति । " ज्यश्च यपि" ४१ ७६ .इति वृन्निषेधे प्रवाय, उपवाय । “य एचातः" ५।१।२८ इति ये वेयः पटः । "उपसर्गादातो०" ५।११५६ इति डे प्रवः । "तन्व्यधी०" ५।१।६४ इति णे वायः । "आतो डो०" ५।११७६ इत्यत्र वावर्जनात् कर्मणोऽणि तन्तुवायः मनि सुवामा । वनि सुवावा । क्वनिपि “यजादि०" ४।११७९ इति वृति “दीर्घमो०" ४।१।१०३ इत्यत्र वेगो वर्जनाद् दीर्घाभावे " हूस्वस्य० " ४।४।११३ इति तागमे सूत्वा [ सु+उन्या ], विचि
१. " त्यज्यजः” इति मुद्रिते सर्वासु प्रतिषु च, अत्रापि अप्रेऽपि ॥ २. " ऋत्विगदिग्” इति मुद्रिते सर्वासु प्रतिषु च, अत्रापि अग्रेऽपि ।
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९९४ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
सुवाः, क्विपि सूत् । क्ते “यजादि ० " ४|१|७९ इति वृति “दीर्घमवोन्त्यम्” ४।१।१०३ इत्यत्र वावर्जनात् दीर्घाभावे उतः, उतवान् । ऊयते इत्यत्र तु खूति “दीर्घश्व्वियडू ० " ४ | ३ | १०८ इति दीर्घः । क्तौ उतिः । ऊतिरिति तु कयै तन्तुसन्ताने [१८०० ] इत्यस्य क्तौ । उणादौ " वेगो डित् " ( उ० ६२८ ) इति इचौ वीचिः । “ सात्मन्नात्मन्० ” ( उ० ९१६ ) इति मनि निपातनाद् वेमा, वेम तन्तुवायोपकरणम् । विः इति तु वेतेः डौ [ " नीवीप्रहृभ्यो डित् " ( उ० ६१६ ) ॥
4
९९३ व्यंगू संवरणे '
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संवरणम् आच्छादनम् । व्ययते, व्ययति ।
44
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' व्यस्थवर्णवि " ४|२|३ इति आत्वाभावे
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ऋषृ ०
]
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ज्याव्ये० ४|१|७१ इति पूर्वस्य इत्वे संविव्याय | सृजिदृशि० ४४.७८ इति थवि विकल्पापवादे ४|४|८० इति इटि संविव्ययिथ, अत्र परोक्षाश्रयत्वेन " बहिरङ्गमित्वमन्तरडे दीर्घे असिद्धम् " [ तु० न्याय० २० इति " स्वादे० " २।१।६३ इति पूर्वस्य दीर्घाभावः । " यजादिवचे: ० " ४|११७९ इति वृति " योऽनेकस्वरस्य " २|१|५६ इति यत्वे च संविव्यतुः संविव्युः | यमिरमि० " ४/२/५५ इति इटि सेन्ते च अव्यासीत्, अव्यासिष्टाम् । यङि “ व्येस्यमो० " ४|१|८५ इति वृति संवेदीयते । यपि व्यः ४|१|७७ इति निषेधे उपव्याय । संपर्वा " ४|१|७८ संव्याय संवीय परिव्याय, परिवीय । क्ये वीयते । णौ “ ४।२।२० इति ये व्याययति । अनुस्वारेच्चान्नेट् संव्याता, संख्यातुम् । य एच्चातः ५११२८ इति ये व्येयम् । नीविः इति तु नयतेः औणादिके
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व [ जन० (उ० ७०५ ) ] ॥
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१४७
पाशाछा ०
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66
४४१४७९
27
९९४ हूवेंगू स्पर्धाशब्दयोः । ह्वयते, ह्वयति । ह्वः स्पर्धे " ३|३|५६ इत्यात्मनेपदे मल्लो मल्लम् आह्वयते । ' संनिवे: " ३|३|५७ संवयते, निह्वयते, हू उपात् " ३ | ३|५८ उपह्वयते । क्ये " यजादिवचेः ० " इति वृति आहूयते । द्वित्वे हूवः ४ ११८७ इति वृति जुहाव, जुहुवतुः । थवि “ सृजिदृशि० " ४|४|७८ इति वा नेटि जुहोथ, जुहविथ । सनि जुहूपति जोहूयते । णौ इसनि " ४|१|८८ इति वृति अजूहवत् जुहावयिषति । अत्र णौ विषये वृद् इति पाशाछासा० ४।२।२० इति योऽन्तो न भवति । पाशा० ४।२।२० इति ये आह्वाययति । अनुस्वारेवान्नेट् आहूत्राता, आहूवातुम् | अद्यतन्यां वालिपू० ३२४६२ इत्यङि आहूत् । " वाऽऽत्मने " ३|४|६३ आहूवत आहूवास्त । “ उपसर्गादातो० " ५/१/५६ इति डे आहूवः |
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"
१. सात्मना इति मु० !
"
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१४८
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९९४" तन्व्यधी० " ५।११६४ इति णे हायः । “आतो डो०" ५।१।७६ इत्यत्र हुवावर्जनात् कर्मणोऽणि स्वर्गवायः। “ हवः समाहूक्यावयौ द्यूतनाम्नोः" ५।३।४१ इत्यलि निपातनात् समाइवयः प्राणियुतम् , आह्वयः संज्ञा । “न्यभ्युपवेश्चिोत् " ५।३।४२ इत्यलि निया, अभिहवा, उपहवः । यङ्लुपि निजोहवः । “आङो युद्ध" ५।३।४३ आहवो युद्धम् , आवायः अन्यः । “आहावो निपानम् " ५।३।४४ आहूयन्ते पानाय गावो यत्रेति आहावो निपानम् । “ भावेऽनुपसर्गात् " ५।३।४५ हवः । कर्मणि पनि हुवायः । उणादौ " तीवरधीवर० " ( उ० ४४४ ) इति वरटि निपातनाद् उपवर सन्धिः ॥ ... (
अथ पान्तः ॥ .९९५ डुवपी बीजसन्ताने' । बीजानां संतानः क्षेत्र विस्तारणम् । वपते, वपति । “नेमादा०॥ २॥३७९ इति नेणत्वे प्रणिवपते । “ यजादिवश० " ४।१।७२ इति पूर्वस्य वृति आप, “ यजादिव " ४।११७९ इति वृति ऊपे । 'क्ये उप्यते । यडि वावप्यते । यङ्लुपि वावपीति, वावप्ति । " आसुयु०" ५।१२० इति यापवादे ध्यणि वाप्यम् । अचि वपः । कर्मणोऽणि. बीजवापः । अनुस्वारेचान्नेट् , वप्ता, उप्तः, उप्तवान् । डिवचात् त्रिमकि उपत्रिमम् । घनि परिवापः । भिदादित्वाद् अङि वपा मेंदः । उप्ति: अन्या । उणादौ "भापाचणि." ( उ० २९६) इति पः, वप्पः पिता । " भीवृधि" ( उ० ३८७) इति रे वप्रः केदारः । “कमिवमि" ( उ० ६१८ ) इति णिदिः, वापिः । “त्यति" (उ०.९९७ ) इति उसि वपुः ॥
अथ हान्तः ॥ ९९६ वहीं प्रापणे' । वहते, वहति । " नेईमादा०” २३१७९ इति ; नेणत्वे प्रणिवहतेः । “प्राद्वहः " ३३१०३ " परेमपश्च" ३।३।१०४ इति फल. वत्कतयपि परस्मैपदे प्रवहति, परिवहति । " यजादिवा" ४।१।७२ इति पूर्वस्य , रवृति वाह । " यजादिवचे:०" ४।११७९ इति वृति ऊहे, ऊहुः । क्ये उद्यते । यङि वावह्यते । यङ्लुपि वावहीति, वावोदि । अनुस्वारेचान्नेट् , वोढा, ऊढः, ऊढवान् । घजि प्रवाहः । “गोचरसंचर०" ५।३।१३१ इति निपातनाद् घञपवादे घे वहः वृषस्कन्धः । “वयं करणे" ५।१।३४ इति निपातनाद् ये वयं शकटम् ,
१. वप्ता तु जनकः (अ. चि ३६२२० )॥
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९९८ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
१४९
वाह्यम् अन्यद् । ण्यन्तादचि वाहः, उदकस्य वाहः उदवाहः, अत्र "नाम्न्युत्तरपदस्य." ३।२।१०७ इति उदादेशः । “कूलादुद्रुजोद्वहः " ५।१११२२ इति खशि कूलमुद्वहः समुद्रः । गौ करणेऽनटि वाहनम् , प्रगतानि वाहनानि यस्य सःप्रवाहणः, अत्र " पूर्वपदस्थानान्यगः" २।३।६४ इति णत्वम् । अजा अस्मिन् उह्यन्ते इति व्यञ्जनाद् घनि "यापो बहुलं नाम्नि" २२४९९ इति इस्वे च अजवाहो नाम ग्रामः । "कर्जीव०" ५।४।६९ इति णमि पुरुषवाहं वहति । उणादौ "बन्धिवहि०" (उ० ४५९) इति इत्रे वहिनं वाहनं वहनं च । “वीयुसुवागिम्यो निः" (उ० ६७७ ) वह्निः । “ वहेर्ध च" ( उ० ८३२) इत्यूः वधूः ॥
अथ परस्मैपदिनः त्रयः ॥ . .९९७ ट्रोश्वि गतिवृद्धयोः' । श्वयति, श्वयिता । क्ये " यजादिवचे" ४।१७९ इति स्वृति शूयते । “ वा परोक्षा-ङि" ४।१।९० इति वा रवृति शुशाव, शिवाय । यङि शोशूयते, शेधीयते । यङ्लुपि शोशवी ति, शोशोति, शेश्वयीति, शेश्वेति । णौ उसन्परे " श्वे" ४।१८९ इति वा वृति अशशुवत् , अशिश्वयत् , शुशावयिषति, शिश्वाययिषति । “ऋदिच्छ्वि० " ३४६५ इति वाडि " श्वयत्यसूबच०" ४।३।१०३ इति श्वादेशे अश्वत् । “धेश्वेर्वा " ३४।५९ इति वा डे अशिश्वियत् , पक्षे सिचि “न विजागृ० " ४।३।४९ इति वृद्धः प्रतिषेधाद् गुणे अश्वयीत् । “य एच्चातः" ५।१।२८ इति ये श्वेयम् । ओदिचात् " सूयत्याद्यो०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे "डीयश्व्यः " ४४६१ इति इडभावे च शूनः, शूनवान् । विवादथुः, श्वययुः । स्त्रियां तो शूतिः । क्त्वि श्वयित्वा, "क्त्वा" ४।३।२९ इति कित्चामावादत्र गुणः । उणादौ "श्वन्मातरिश्वन्" ( उ० ९०२) इति अनि निपातनाव श्वा मातरिश्वा ॥
— ९९८ वद व्यक्तायां वाचि' । वदति । "दीप्तिज्ञान० " ३३१७८ इति आत्मनेपदे वदते विद्वान् स्याद्वादे, वदन् दीप्यते इत्यर्थः । " व्यक्तवाचां सहोतो" ३।३।७९ संप्रवदन्ते द्विजाः । “ विवादे वा” ३३८० विप्रवदन्ते, विप्रवदन्ति वा मौहर्तिकाः । “अनोः कर्मण्यसति" ३३८१ अनुवदते कठः कालापस्य । " वदोऽपात्" ३३९७ इति फलवकर्तरि अपवदते, अन्यत्र अपवदति । " यजादिवचे " ४।११७९ इति वृति क्ये उद्यते । " यजादिवश्०" ४।१।७२ इति पूर्वस्य वृति उाद । " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इटि उवदिथ । “वदव्रज." ४।३।४८ इति वृद्धौ अवादीत् । गौ "ईगितः ॥ ३॥३९५ इति फलवत्कर्तरि
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९९८आत्मनेपदे " अणिगि प्राणि." ३।३।१०७ इति परस्मैपदेनापोदिते " परिमुहा०" ३।३।९४ इति पुनर्विहिते वदति चैत्रः । वादयते चैत्र मंत्रः, अत्र “गतिबोधा." २।२।५ इत्यणिकर्तुः कर्मत्वम् । फलवतोऽन्यत्र " शेषात् परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदे वादयति चैत्र मैत्रः । वदिता, बदितुम् । “ऋवर्ण०" ५।१११७ इति ध्यणि वाद्यम् । “वर्योपसर्या०" ५।११३२ इति निपातनाद् ये अवद्यम् गम् , अनुद्यम् अन्यत् । " नाम्नो वदः क्यप् च" ५।१।३५ ब्रह्मोद्या कथा । ये ब्रह्मवद्या । "खेयमृषोद्य" ५।११३८ इति निपातनात् क्यपि मृषोद्यम् । अचि वदः । "चराचर०" ४।१।१३ इति निपातनाद् वदावदः । लिहायचि श्लोकवदः । “ प्रियवशाद् वदः" ५।१।१०७ इति खे प्रियंवदः, वशंवदः । “संपरिव्यनुप्राद् वदः" ५।२।५८ इति घिनणि संवदनशीलः संवादी । एवं परिवादी । “वादेश्च णकः" ५।२।६७ इति णौ णके परिवादनशीलः परिवादकः । " यजिजपि०" ५।२।४७ इति यङन्तादूके वावदकः । घजि वादः । ग्रहादित्वाद् इटि उदितिः । क्त्वि उदित्वा । “गत्यर्थ" ३३११८ हात गतित्वे " गतिक्व०" । ३।११४२ इति समासे क्त्वो यपि अच्छोद्य । उणादौ " वदिसहिभ्यामान्यः" (उ० ३८१ ) वदान्यो दाता प्रियवाक् च । वदन्यः इति तु वदने साधुः इति साधौ ये । “भृगृ०" ( उ० ४६० ) इति णिति इत्रे कादित्रम् आतोद्यम् । “ कमिवमि०" ( उ० ६१८) इति णिदिः, वादिः वाग्मी । " मावावद्य०" (उ० ५६४) इति से वत्सः ॥
'९९९ वसं निवासे' । वसति । " यजादिवश०" ४११:७२ इति. पूर्वस्य स्वृति उवास । " यजादिवचे:०" ४।१।७९ इति स्वृति "घस्वसः" २।३।३६ इति पत्वे ऊपतुः, ऊषु: । क्ये उष्यते । " उपान्वध्यावसः" २२२२२१ इति आधारस्य कर्मत्वे ग्रामम् उपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति, अन्वादिसाहचर्याद् वासार्थस्यैव उपस्य ग्रहणम् ; तेन भोजननिवृत्त्यर्थेन उपेन योगे कर्मत्वं न भवति । यद्वा नात्र वसेः उपपूर्वस्य ग्राम आधारः, किन्तु वसेः । “ग्रामे वसन् त्रिरात्रमुपवसति " इत्युपवस्य आधारस्य त्रिरात्रस्य कर्मता स्यादेव । थवि " सृजिदृशि०" ४।४।७८ इति वा नेटि उवस्थ, उवसिथ । णौ " ईगित:" ३३९५ इति आत्मनेपदे ' अणिगि प्राणि० " ३।३।१०७ इति परस्मैपदेनापोदिते "परिमुहा०" ३।३।९४ इति फलवत्कर्तरि पुनर्विहिते वसति चत्रः, वासयते चैत्रं मैत्रः, अत्र
१. इति तु सा इति मु०॥ २. तुलना, महाभाष्य, ४४८ ॥
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९९९ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
१५१ " गतिबोधाः " २।२।५ इत्यणिकर्तुः कर्मत्वम् । अनुस्वारेचान्नेट् , निवत्स्यति वस्तुम् । “क्षुधवसस्तेषाम् " |४|४३ इति इटि उषितः, उषितवान् , उषित्वा; अत्र " क्षुधक्लिश० " ४।३।३१ इति क्त्वः कित्वाद् " यजादि०" ४११७९ इति वृत् । " रुच्याव्यथ्य०" ५।११६ इति कर्तरि निपातनात् तव्यणि वास्तव्यः । "वाधारे० " ५१।२१ इति ध्यणि वा निपातनात् अमावस्या, अमावास्या । " अजातेः शीले" ५।१।१५४ इति णिनि "शयवासि०" ३।२।२५ इति सप्तम्या वा लुपि ग्रामवासी, ग्रामवासी । " श्रुसद०" ५।२।१ इति भृते वा परोक्षा, अनूवास; पक्षे अन्ववात्सीत् , अन्ववसत् । “तत्र वसुक्वानौ० " ५।२।२ इति क्वसौ
" घसेकस्वरा" ४।४।८२ इति इटि अनूषितवान् गुरुं शिष्यः । “संपाद् वसात् " : ५।२।६१ इति घिनणि संवसनशीलः, संवासी । एवं प्रवासी । उणादौ " तृजि०" (उ० २२१) इत्यन्ते वसन्तः । " उपसर्गाद् वसः" (उ० २३३) इति अथे आवसथः । भेषजादिट्यणि आवसथ्यम् । “ प्याधा०" ( उ० २५८) इति ने वस्नं वस्त्रम् , मूल्यं च । " ऋज्यजि०" (उ० ३८८) इति किति रे उस्रः रश्मिः, बाहुलकात् पत्वाभावः । णौ " ऋच्छिचटि० " ( उ० ३९७ ) इति अरे वासरः । “मीज्यजि० " ( उ० ४३९) इति सरे वत्सरः । “ कृगृकुटि०" ( उ० ६१९ ) इति वा णिदिः, वासिः । ङ्याम् वासी तक्षमाण्डम् । वसिः शय्या । " प्लुज्ञा० " ( उ० ६४६) इति तौ वस्तिः मेट्रोचं वस्त्रदशाः गुदं स्नेहनोप करणं च । " खल्यमि० " (उ० ६५३) इति अतौ वसतिः । “वस्यतिभ्यामातिः" (उ० ६६२ ) वसातयः राष्ट्रम् । "भृमृत" ( उ० ७१६) इति औ वसु द्रव्यम् । " वसेर्णिद् वा” ( उ० ७७४ ) इति तुनि वस्तु पदार्थः । वास्तु गृहं गृहभूमिश्च । उष इति तु उपेः “ मिथिरज्यु० " ( उ० ९७१) इति कित्यसि । वसिक्
आच्छादने [ २५९ ], वस्ते । वसूच स्तम्भे [३।८३ ], वस्यति । उणादौ । “ दम्यमि० " ( उ० २०० ) इति ते वस्तः छागः, वस्तिण अर्दने इत्यस्य वाचि । वसण स्नेहच्छेदावहरणेषु [ ९।१९४ ], वासयति ॥
" वृत् यजादिः" । वर्तिताः समापिता यजादय इत्यर्थः ॥
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१५२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १००० अथ घटादयो वर्णक्रमेणाऽऽस्वादिसमाप्तेर्वक्ष्यन्ते, तत्र घटेः पूर्वाचार्यप्रसिद्धघा पूर्व निर्देशः ॥
'१००० घटिषु चेष्टायाम् ' । चेष्टा ईहा । इदित्वात् “ इङितः०" ३।३।२२ इत्यात्मनेपदे घटते, जघटे । सनि जिघटिषते । यङि जाघट्यते । क्ते घटितम् । गौ " घटादेई स्वो०" ४।२।२४ इति इस्वे घटयति । "-दीर्घस्तु वा जिणम्परे" अघाटि, अघटि, घाटिष्यते, घटिष्यते, घाटघाटम् घटंघटम् । “णिवेच्या०" ५।३।१११ इत्यने घटना । पिवाद् अङि घटा । इह घटादीनामनेकार्थत्वेऽपि पठितार्थेषु एव घटादिकार्यविज्ञानम् , तेन उद्घाटयति, “कमलवनोद्घाटनं कुर्वते ये" [ सूर्यशतक, २], "प्रविघाटयिता समुत्पतन् हरिदश्वः कमलाकरानिव" [किरातार्जुनीयम् , २।४६ ] , उद्घाटितः कपाटः । श्रापयति, स्मारयति, दास्यति, नाटयति, फाणयति, छादयति, प्रमादयति, चालयति इत्यादौ चेष्टाद्यर्थाभावे " घटादेई स्वो० " ४।२।२४ इति इस्वो न भवति । विघटयति इति तु अजन्तस्य अङन्तस्य वा “णिज् बहुलं नाम्नः" ३४१४२ इति करोत्यर्थे णिचि रूपम् । अन्ये तु ये घटादयोऽन्यत्र पठिताः तेषां योऽर्थ उपात्तः तत्रैव हस्वादिकार्य, ये तु अत्रैव पठयन्ते तेषां सामान्येनाऽनेकार्थत्वाद् इति ब्रुवते; तन्मते विघटयति इति चेष्टाभावे हस्वः स्यादेव । कमलवनोद्घाटनम् , प्रविघाटयिता, समुत्पतन् इत्यादि तु चुरादौ भासार्थस्य घटेः णिचि यमि-ज्ञा-वहिवर्जितस्य घटादिकार्यनिषेधाद् ह्रस्वाभावे रूपम् , यथा शमिणो णिचि निशामयते, चेष्टार्थस्यैव वा घअन्तस्य णिचि । इत्थं च " उन्नामिताखिलमहीधरकन्दरस्य" [ ], चौरस्योत्क्राथयति इत्यादि सिद्धम् । संक्रामयति इति तु संक्रामं करोति इति णिचि । “ शकधृष०" ५।४।९० इति तुमि घटते भोक्तुम् । अचि घटः । इह घटादौ केऽप्यत्रैवाधीताः प्रकृत्यादिकार्यभाजो न्याय्यशवप्रत्ययाश्च । अन्ये तु स्वस्थानोक्तकार्यभाजः पिचहूस्वाद्यर्थमनूयन्ते इति यथायथमुत्प्रेक्ष्यम् ॥
अथ जान्तः ॥ '१००१ क्षजुङ् गतिदानयोः' । उदिचान्ने क्षमते, चक्षजे, क्षमिता । ते क्षञ्जितः । “क्तेटो०" ५।३।१०६ इत्यः क्षक्षा । णौ क्षायति । घटादिपाठवलाद्
१. तुलना, क्षी. त. पृ. १०५ ।।
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२००४ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) णौ ञिणम्परे अनेकष्यअनव्यवधानेऽपि वा दीर्थे अक्षामि, अक्षञि, क्षाभंक्षाअम् , क्षक्षअम् । एवं कन्दि-दि-क्लन्दि-दक्षीणां ज्ञेयम् ; अत एव णौ जिणम्परे हूस्वमविकल्प्य दीर्घविकल्पः । क्षजुण कुच्छ्रजीवने [ ९।१८ ], क्षायति । कौशिकस्तु क्षजौ विपर्ययेणाधीते ॥
अथ थान्तौ ॥ '१००२ व्यथिषु भयचलनयोः' । दुःखेऽप्यन्ये । व्यथते । “ज्याव्येव्यधि०" ४।११७१ इति पूर्वस्य इत्वे विव्यथे । व्यथिता । णौ "घटादेः" ४।२।२४ इति हस्वे व्यथयति । जिणम्परे तु वा दीर्षे अव्याथि, अव्यथि, व्याव्याथम् , व्यर्थव्यथम् । “ रुच्याव्यथ्य" ५११६ इति कर्तरि निपातनाद ये अव्यथ्यः । भावे घ्यणि अव्याथ्यम् । ग्रहादित्वाद् णिनि अव्याथी । " जीण-दृक्षि० " ५।२।७२ इति इमि अव्यथनशीलः अव्यथी । " इडितो." ५।२।४४ इत्यने व्यथनः । पिचादङि व्यथा । उणादौ " श्वशुर०" ( उ०. ४२६ ) इत्युरे निपातनाद् विथुरो राक्षसः । “ नो व्यथेः " ( उ० ५५२) इति टिति इषे अव्यथिष: सूर्यः, अव्यथिषी भूः ॥
__ १००३ प्रथिषु प्रख्याने' । प्रख्यानं प्रसिद्धिः । प्रथते, पप्रथे, प्रथिता । णौ घटादित्वाद् हस्वे प्रथयति । णौ सन्वद्भावापवादे. " स्मृत्वर०" ४।११६५ इति पूर्वस्याऽतोऽत्वे अपप्रथत् । जिणम्परे तु वा दीर्धे अप्राथि, अप्रथि, प्रार्थप्राथम् , प्रथंप्रथम् । पिचादडि प्रथा । उणादौ " सृणीकास्तीक० " ( उ० ५० ) इति ईके निपातनात् पृथ्वीका एला । “सृपप्रथि०" ( उ० ३४७) इत्यमे प्रथमः । " प्रथेविट् पृथ् च" ( उ० ५२१) पृथिवी । “प्रथेलकच वा" (उ० ६४७) इति तौ प्रति चादिः, प्रत्तिः प्रथनम् । “भिपृथिभ्यामृच्च रस्य" (उ० ७३०) इत्यो पृथुः । कुत्सितादौ कपि पृथुकः ॥
__ अथ दान्ताः पञ्च ॥ १००४ प्रदिष् मर्दने' । प्रदते, मम्रदे, प्रदिता । गौ घटादित्वाद् हुस्खे म्रदयति । “स्मृदृत्त्वर०" ४।१।६५ इति सन्वद्भावापवादे पूर्वस्याऽत्वे अमम्रदत् । षिवादङि प्रदा । उणादौ मृद्वीका मृदीका चेति " मृदेर्वोऽन्तश्च वा " (उ० ४९) इति ईके मृद्गातेः । एवं मृदुः [" पृकाहृषि० " ( उ० ७२९ ) ] ॥
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१५४
4
आचार्य श्री हेमचन्द्र विरचिते [ धा० १००५
१००५ स्खदिषु खदने ' । खदनं विदारणम् । स्खदते, चस्खदे, स्वदिता ।
षित्वादङ स्वदा । णौ घटादित्वाद् ह्रस्वे स्वदयति ॥
6.
,
१००६ कदु १००७ क्रदु १००८ क्लढुङ् वैक्लव्ये ' । विक्लवः कातरः, तस्य भावः कर्म वा वैक्लव्यम् । वैकल्ये इति चन्द्रः । उदित्वा कन्दते, क्रन्दते, क्लन्दते । केटो ० " ५|३|१०६ इत्यः कन्दा, क्रन्दा, बलन्दा । णौ कन्दयति, ञिणम्परे तु वा दीर्घः, अकान्दि, अकन्दि, कान्दंकान्दम् कन्दकन्दम् । एवं शेषयोरपि । क्रन्देः नन्द्याद्यने संक्रन्दनः । " इङितो० " ५।२।४४ इत्यने आक्रन्दनः । घञि आक्रन्दः । त्रयोऽप्येतेऽनुदितः पितश्व इति नन्दी; कदते, क्रदते, क्लदते, कदा, कदा, क्लदा । कदु-कटु-क्लदु रोदनाह्वानयोः [१।३१५ - ३१६३१७ ] कन्दति, क्रन्दति, क्लन्दति ॥
अथ पान्तः ॥
1.
' १००९ ऋषि कृपायाम् ' । ऋपते, चक्रपे, क्रपिता । णौ घटादित्वाद् स्क्रपयति । मृगयेच्छा० " ५।३।१०१ इति निपातनाद् अङि कृपा | कृपण इति तु ( उ० १८८ ) इति कित्यणे कृपेः ||
66
66
"
'कगप ० ६ ६ ६
अथ रान्तः ॥
66
' १०१० जित्वरि संभ्रमे ' | संभ्रमः अत्र आशुकारिता । त्वरते, तत्वरे, aftar | fs तात्वर्यते । लुपितात्वरीति । मव्यवि० " ४|१|१०९ इति वस्य उपान्त्येन सहोटि तातूर्ति । पिचादङि त्वरा । णौ घटादित्वाद् हूस्वे स्वरयति । ङे सन्वद्भावापवादे " स्मृदृत्वर० " ४|१|६५ इति पूर्वस्यात्वे अतत्वत् । ञित्वात् " ज्ञानेच्छा ० " ५।२९२ इति सति के " श्वसजप० ४/४/७५ इति वा नेटि त्वरितः, पक्षे " मव्यवि० १ ४|१|१०९ इति वस्योपान्त्यत्वेन सहोटि तूर्ण: । तूर्णिः इति तु तूरेः " कावावी० " ( उ० ६३४ ) इति णो ।।
"
अथ षान्तः ॥
' १०११ प्रसिषु विस्तारे ' । प्रसवे इत्यन्ये । प्रसते, पत्रसे, प्रसिता । विचादङि प्रसा । णौ घटादित्वाद् वे प्रसयति ॥
१ मुद्रिते चान्द्रधातुपाठे तु वैक्लव्ये इति पाठः ॥
२ " ० " इति मु० ॥
દદ
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१०१८ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१)
अथ क्षान्तः ॥ '१०१२ दक्षि हिंसागत्योः' । दक्षते, ददक्षे, दक्षिता । "क्तेटो." ५।३।१०६ इत्यः, दक्षा । दक्षि शैये च इति अस्यैवार्थभेदाद् घटादिकार्याथं पुनः पाठ: । णौ दक्षयति । त्रिणम्परे तु वा दीर्घः, अदाक्षि, अदक्षि, दाक्षंदाक्षम् , दक्षंदक्षम् ॥
__ अथ परस्मैपदिनः ॥ ___१०१३ श्रां पाके' । अँ पाके, श्रांक पाके इत्यस्य चेह घटादिकार्थ पाठः । श्रायति श्राति वा कश्चित् तमन्यः प्रयुक्ते, अपयति । श्रायति श्राति वा हविः स्वयमेव, तदन्येन प्रायुज्यते इति णौ घटादित्वाद् इस्वे क्ते "श्रपेः प्रयोकुवैक्ये " ४।१।१०१ इति शतादेशे शृतं हविः क्षीरं वा चैत्रेण । अन्यत्र श्रापयति धर्मः स्वेदयति इत्यर्थः । अत एव ज्ञापकादनेकार्थत्वं धातूनां सिद्धम् ॥
- अथ ऋदन्तः ॥ १०१४ स्मृ आध्याने ' । आध्यानम् उक्तं वा स्मरति । घटादित्वाद् हस्वे स्मरयति । आध्यानादन्यत्र चित्तं स्मारयति, विस्मारयति । अन्यत्रोक्तस्यार्थविशेषे घटादिकार्यार्थमिह पाठः ॥
. अथ ऋदन्तौ ॥ '१०१५ ८ भये' । दरति । “युवर्ण० " ५।३।२८ इत्यलि दरः । णौ घटादित्वाद् ह्रस्वे दरयति बलम् । भयादन्यत्र काष्ठ दारयति । उणादौ " शृढ० " ( उ० ८९४ ) इत्यदि दरनाम्ना जनपदः । दृश् विदारणे [ ८१२८ ], दृणाति, दारयति काष्ठम् । अस्यैव घटादिकार्यार्थमिह पाठ इत्यन्ये । दीर्यते इति कमकर्तरि दिवादो अपि अयम् अन्यैः पठ्यते, तन्मते कर्तर्यपि दीर्यते ॥
'१०१६ नृ नये' । क्रयादेः घटादिकार्यार्थ विरलोऽस्य पाठः । नृगन्तं प्रयुङ्क्ते, नरयति ॥
अथ कान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ १०१७ टक १०१८ स्तक प्रतीपाते' । “पः सो०" २।३।९८ इति सत्वे स्तकति । णौ घटादित्वाद् द्वस्वे सनि पोपदेशत्वात् षत्वे तिष्टकयिषति ॥ ___१०१८ स्तक' । स्तकति । णौ घटादित्वाद् ह्रस्वे पोपदेशत्वात् पत्वाभावे तिस्तकथिषति ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १०१९_१०१९ चक तृप्तौ च' । चकारात् प्रतीपाते । चकति । णौ घटादित्वाद् हस्वे चकयति । क्ते चकितः । उणादौ " कठिचकि० " ( उ० ४३३) इत्योरे चकोर: । चकि तृप्तिप्रतीघातयोः [ ११६२१ ], चकते ॥
___१०२० अक कुटिलायां गतौ' । अकति । णौ घटादित्वाद् इस्वे अकयति । अनोकह इति तु अनिते: 'ओकहे ॥
___ अथ खान्तः ॥ १०२१ कखे हसने ' । कखति । एदिस्वाद् " व्यञ्जनादे०" ४३४७ इति वा वृद्धः "न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अकखीत् । णौ घटादित्वाद् हुस्वे कखयति । किखिः इति तु " कोडिखिः " ( उ० ६२६ ) इति कौतेः ।।
अथ गान्ता नव सेटश्च ॥ १०२२ अग अकवत्' । अक कुटिलायां गतौ पठितः, अयमपि तदर्थों लाघवार्थ तथा निर्दिश्यते, अगति । णो घटादित्वाद् इस्वे अगयति । उणादौ " भीवृधि० " ( उ० ३८७ ) इति रे अग्रम् । “बीयुसुवा० " ( उ० ६७७ ) इति नौ अग्निः ॥
१०२३ रगे शङ्कायाम् ' । रगति । एदिचाद् " व्यअनादे०" ४।३।४७ इति वा वृद्धः, “न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अरगीत् । णो घटादित्वाद् हुस्वे रगयति ॥
१०२४ लगे सङ्गे' । लगति । एदिचाद् " व्यअनादे०" ४।३।४७ इति वा वृद्धः, “न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अलगीत् । णौ घटादित्वाद् हस्वे लगयति । " क्षुब्धविधि" ४४ ७० इति क्त निपातनाद् लग्नः सक्तः । लगितः अन्यः ॥
१०२५ हुगे १०२६ हगे १०२७ पगे १०२८ सगे १०२९ ठगे १०३० स्थगे संवरणे' । संवरणम् आच्छादनम् । हगति । एदिवाद् " व्यजनादे." ४।३।४७ इति वा वृद्धः "न विजागृ." ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अह गीत । णौ घटादित्वाद् ह्रस्वे हगयति ॥
'१०२६ हगे' । हगति, अहगीत् , हगयति ॥ १ " अनेरोकहः” ( उ० ५९५) इत्यनेन ॥
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१०३६ ] धातु पारायणे भ्वादयः (१)
१५७ '१०२७ पगे' । “षः सो." ॥३९८ इति सत्वे सगति, असगीत , सगयति । पोपदेशत्वात् पत्वे सिषगयिषति ॥
“१०२८ सगे' । सगति, असगीत , सगयति, सिसगयिषति ॥
'१०२९ ठगे' । “षः सो०" २।३९८ इति सत्वे स्थगति, अस्थगीत् , स्थगयति । पोपदेशत्वात् पत्वे तिष्ठगयिषति ॥
'१०३० स्थगे' । स्थगति, अस्थगीत् , स्थगयति । षत्वाभावे तिस्थगयिषति ॥
अथ टान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ '१०३१ वट १०३२ भट परिभाषणे'। वटति, वटयति । भटति, मटयति । वट वेष्टने [१।१७६ ], वाटयति । भट भृतौ [ १११८४ ], भाटयति ॥
'१०३३ णट नतो' । नटति । घटादित्वाद् हुम्वे नटयति शाखाम् । नृतौ तु नाटयति । नटण अवस्यन्दने [ ९।२६ ], चौरस्योबाटयति ॥
अथ डान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ १०३४ गड सेचने' । गडति । लत्वे गलति । णौ घटादित्वाद् हस्वे गडयति । अचि गडयतीति गडः । “ सुखं स्वपिति गौगडी" [ । उणादौ " तृजिभूवदि०" ( उ० २२१) इत्यन्ते गडयन्तः, गडयन्ती । कडार इति तु कडतेः " अग्यङ्गि० " ( उ० ४०५) इत्यारे । कडत्रम् कलत्रम् इत्यपि " वृगनक्षि०" ( उ० ४५६) इत्यत्रेऽस्यैव ॥
· १०३५ हेड वेष्टने' । हेडति, जिहेड, हेडिता । णौ घटादित्वाद् इस्वे हिडयति; हूस्वविधानवलादेव गुणो नास्ति । त्रिणम्परे तु वा दीर्षे अहीडि, अहिडि, हीडंहीडम् , हिडंहिडम् । ये तु णौ त्रिणम्परे ह्रस्वमेव विकल्पयन्ति, तन्मते अहिडि, अहेडि, हिडंहिडम् , हेडंहेडम् ॥
'१०३६ लड जिह्वोन्मन्थने ' । जिह्वाया उन्मन्थनम् जिह्वोन्मन्थनम् । णौ घटादित्वाद् ह स्वे लडयति जिह्वां कुक्कुरः । लत्वे 'जिह्वाशतान्युल्ललयत्यभीक्ष्णम् ' [ ] । अन्यत्र लाडयति चित्रम् । लालयति बालम् । लालितः । लालि. तकः सेवकः । लालना । लाला । जिबोन्मन्थनयोः इत्येके, 'तन्मतसङ्ग्रहार्थ जिह्वा
१ तन्मते इति मु० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० १०४६च जिह्वाविषया क्रिया उन्मन्थनं च इति समाहारः । लडयति जिवाम् । ललयति दधि । लडण उपसेवायाम् [ ९।५५ ], लाडयति । लड विलासे [११२५४ ], इत्यस्यैव अर्थविशेष घटादिकार्यार्थमिह पाठः ॥
अथ णान्ताः षट् सेटश्च ॥ • १०३७ फण १०३८ कण १०३९ रण गतौ' । फणति । णौ घटादित्वाद् हुस्वे फणयति । "जभ्रम०" ४।१।२६ इति वा एत्वे द्वित्वाभावे च फेणतुः, पफणतुः, फेणुः, पफणुः । थवि " स्क्रसृवृ०" ४४८१ इति इटि फेणिथ, पफणिथ । · क्षुब्धविरिब्ध०" ४।४।७० इति क्ते निपातनाद् अनायासे 'फाण्टाभिः अद्मिः आचामेत् इति कदुष्णाभिः इति अनायासो गम्यते । आयासे तु फणितम् ।।
१०३८ कण' । कणति । णौ घटादित्वाद् इस्वे कणयति । णो अचि कणयतीति कणः । “कणेमनस तृप्तौ" ३११६ इति सूत्रनिर्देशाद् एत्वे कणेहत्य पयः पिबति, श्रद्धाघातं कृत्वा इत्यर्थः । तृप्तेरन्यत्र गतित्वाभावे कणे हत्वा मूषिकां गतः ॥
'१०३९ रण' । रणति । णो घटादित्वाद् हस्वे रणयति । गतेरन्यत्र फाणयति घटं निःस्नेहयतीत्यर्थः; काणयति राणयति शब्दयतीत्यर्थः । कणिरणी पूर्वाधीतो घटादिकार्याथमिह पठितौ ॥
'१०४० चण हिंसादानयोश्च' । हिंसायां दाने चकाराद् गतौ । चणति । जो घटादित्वाद् इस्वे चणयति । शब्दे तु चाणयति । उणादौ " दकन " (उ० २७) इत्यके चणकः ॥ ____१०४१ शण १०४२ श्रण दाने' । शणति । घटादित्वाद् हस्चे शणयति । घमि शाणः ॥
। १०४२ श्रण' । श्रणति । णौ हस्वे श्रणयति । दानादन्यत्र शाणयति, श्राणयति । श्रणण दाने [ ९७६ ] विश्राणयति ॥
अथ थान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ १०४३ स्नथ १०४४ क्नथ १०४५ क्रथ १०४६ कथ हिंसार्थाः' । स्नथति, स्नथयति । क्नथति, क्नथयति । ऋथति, ऋथयति । चौरस्योत्क्राथयति
१. फाण्टा भिरिभरा इति मु. !!
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१०५३ ] धातुपारायणे भ्वादयः (१) इति तु यौजादिकस्य घन्ताद् वा णिचि “जासनाटकाथ० " २।२।१४ इति निर्देशाद् वा हस्वाभावे ॥ * १०४६ क्लथ' । क्लथति, क्लथयति ॥
अथ दान्तौ सेटौ च ॥ १०४७ छद ऊर्जने' । ऊर्जनं प्राणनं बलं च । छदण् संवरणे इति पठिष्यमाणोऽपि ऊर्जने घटादिकार्यार्थमिह पठितः । छदयति अग्निः स्वार्थ णिच, छादयन्तं प्रयुङक्ते इति णिग् वा । ऊर्जनादन्यत्र छादयति गृहं तृणैः ।। ___ १०४८ मदै हर्षग्लपनयोः' । मदेच् हर्षे इति अनयोरर्थयोः घटादिकार्यार्थमिह पठितः । मदयति गुरु शिष्यः । मदयति सुरा चैत्रम् , हर्षयतीत्यर्थः । 'मदयति शत्रुम् , विमदयति शत्रुम् , ग्लपयतीत्यर्थः । अन्यत्रानेकार्थत्वाद् उन्मादयति, प्रमादयति ॥
अथ नान्ताः पञ्च सेटश्च ॥ १०४९ टन १०५० स्तन १०५१ धन शब्दे' । “पः सो०" २१३९८ इति सत्वे स्तनति, स्तनयति । षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे तिष्टनयिषति ॥
'१०५० स्तन' । स्तनति, स्तनयति । अमोपदेशत्वात् षत्वाभावे तिस्तनयिषति ।।
'१०५१ ध्वन' । ध्वनति, धनयति । दध्वान, ध्वनयनाशाः । अन्त्यो पूर्वपठितो अपि अर्थविशेषे घटादिकार्थमिहाधीतौ । अनेकार्थत्वाद् अर्थान्तरे, स्तानयति । शब्दे अपि स्तानयति इत्यन्ये, ध्यानयति ॥
'१०५२ स्वन अवतंसने' । स्वनति । णो हुस्वे स्वनयति, अवतंसयतीत्यर्थः । "जभ्रम० " ४।१।२६ इति वा एत्वे द्वित्वाभावे च स्वेनतुः, सस्वनतुः, स्वेनुः, सस्वनुः । पूर्वपठितस्याप्यस्यार्थविशेष घटादिकार्यार्थमिह पाठः । शब्दे तु स्वानयति ॥
१०५३ चन हिंसायाम् ' । चनति । णौ ह्रस्वे चनयति । शब्दे तु चानयति । पूर्वपठितोऽप्ययम् अर्थविशेषे घटादिकार्यार्थमिहाधीतः ॥
१ अन्यत्र म इति मु०॥
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१६०
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १०५४
अथ रान्तः सेट च ॥ १०५४ ज्वर रोगे' । ज्वरति । णौ ह्रस्वे उबरयति । भिणम्परे तु वा दीचे अज्वारि, अन्वरि, ज्वारंज्वारम् , ज्वरंज्वरम् । “रुजार्थस्या० " २।२।१३ इत्यत्र ज्वरेवर्जनाद् वा कर्मत्वाभावे द्वितीया एव, न तु षष्ठी; चौरं ज्वरयति ज्वरः । यङि जाज्वर्यते । यङ्लुपि जाज्वरीति, जाजूति । क्ते ज्वरितः । विपि " मव्यवि० " ४।१।१८९ इति वस्योटि सुजः । क्तौ जूतिः । “ समः पृचैप०" ५।२।५६ इति घिनणि संज्वरणशीलः संज्वारी । उणादौ " कावावी." ( उ० ६३४ ) इति णौ जूणिः ज्वरः ॥
अथ लान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ १०५५ चल कम्पने' । चलति । णौ हस्वे चलयति शाखाम् । कम्पनादन्यत्र चालयति सूत्रं पर्यनुयुङक्ते । चालयति शीलं हरतीत्यर्थः । ज्वलादौ पठितोऽप्ययं घटादिकार्यार्थमिह पठ्यते ॥
“ १०५६ बल १०५७ हल चलने' । ह्वलति, ह्वलिता । णौ हस्वे विह्वलयति, प्रहवलयति । अचि विहवलः ॥
___ '१०५७ ह्मल' । झलति, मलिता । णौ हस्वे ब्रह्मलयति । "ज्वलहवल." ४।२।३२ इत्यनुपसर्गस्य वा हूस्वे वलयति, बालयति, मलयति, ह्यालयति ||
'१०५८ ज्वल दीप्तौ च । चकारात् चलने । प्रज्वलयति, संज्वलयति । " ज्वलबल०" ४।२।३२ इत्यनुपसर्गस्य वा हस्खे ज्वलयति, ज्यालयति । ज्वलादौ पठितोऽप्ययं घटादिकार्यार्थमिहाधीतः । केचित्तु दलि-वलि-स्खलि-क्षपि-त्रपीणामपि घटादित्वमिच्छन्ति, तन्मते दलयति, वलयति, स्खलयति, क्षपयति, उपयति इत्यपि भवति ॥ - इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञशब्दानुशासनधातुपारायणे औत्सर्गिकशवि' करणो निरनुबन्धो भूवादिगणः सम्पूर्णः ॥
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अथ अदादयः (२) '१ अदं २ प्सांक भक्षणे'। इहाविकरणेषु वर्णक्रमेण धातुषु पठितेषु पूर्वाचार्यप्रसिद्धयनुसरणेनाऽदेरादावुपन्यासः । किकरणमदादिज्ञापनार्थ सर्वत्र ज्ञेयम् । " शेषात्परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदे " कर्तर्यनय:०" ३४७१ इत्यदादि वर्जनाच्छवभावे च अत्ति । शतरि अदन् , “ऋदुदितः" ११४७० इति घुटि नकारः । अदती । “क्रियाव्यतिहारे०" ३३।२३ इत्यात्मनेपदे व्यत्यत्ते । "घस्ल सन०" ४।४।१७ इति घस्लादेशे जिघत्सति । लूदित्वादडि अघसत् । "परोक्षायां नवा" ४।४।१८ जघास, जक्षतुः, जक्षुः, अत्र “गमहन०" ४।२।४४ इत्युपान्त्यलुकि, “ अघोषे० " १।३।५० इति घस्य कत्वे, “नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति पत्यम् । थवि " स्क्रसृवृ० " ४१४८१ इति इटि जघसिथ । पक्षे आद, आदतुः, आदुः । थवि “सृजिदृशि० " ४।४।७८ इति विकल्पापवादे "ऋवृव्येऽद०" ४।४।८० इति इटि आदिथ । “अदश्चाट् " ४।४।९० इति दिस्योगदिग्ट् , आदत् , आदः । अनुस्वारेवान्नेट् , अत्ता, अत्स्यति । णौ "गतिबोधा०" २।२।५ इत्यत्र अदेवर्जनादणिकर्तुः कर्मत्वाभावे, आदयते पिण्डी चत्रेण । अत्र "चल्याहारार्थे० " ३।३।१०८ इति फलवकर्तर्यपि परस्मैपदापवादः, " परिमुहायमा०" ३३९४ इति आत्मनेपदम् । “यपि चादो०" ४४।१६ इति जग्धादेशे क्त्वि जग्धा प्रजग्ध्य गतः । क्तौ जग्धिः । “ अद्यर्थाच्चा०" ५।१।१२ इति वाऽऽधारे ते इदमेषां जग्धम् । पक्षे कर्मणि क्त जग्धमन्नम् । भावे जग्धमनेन । अन्नमिति तु “अदोऽनन्नात् " ५।१।१५० इति निर्देशादने " प्याधा० " ( उ० २५८ ) इति ने रूपम् । अचि प्रघसः । “अदोऽनन्नात् " ५।१११५० इति क्विपि आमात् । कर्मणोऽणि अन्नादः । “क्रव्यात्क्रव्यादावामपक्वादो" ५।१।१५१ क्रव्यात् आममांसादी, क्रव्यादः पवमांसादी । “सृघस्यदो०" ५।२।७३ इति मरकि अदनशीलः अमरः । “भूश्रयदोऽल्" ५।३।२३ विघसः । उपसर्गाभावे पनि घासः । “न्यादो नवा" ५।३।२४ न्यादः निघसः, नन्द्यादित्वादने काकादनः । गौगदित्वाद् ड्याम् काकादनी । तत्रैव पाठात् गवादनः । उणादौ " तङ्किवयः " ( उ० ६९२ ) इति रिः, अद्रिः । “ राशदि०" (उ० ६९६) इति त्रि: अन्त्रिः । “अदेखिन्" (उ० ९२९) अत्री ऋषिः, अत्रिणौ ।
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१६२
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १
" अदेरन्ध च वा" ( उ० ९६३) इत्यसि अन्धः कूरम् । पक्षे अदः असौ । अचा इति तु " अतेध च" ( उ० ९०९) इति क्वनिपि अततेः । 'अत्रुः इत्यपि “ जनिहनिशद्यतेस्त च" (उ० ८०९ ) इति रुप्रत्यये अर्तेः । क्षीरमित्यपि “घसिवशि०" ( उ० ४१९) इति किति इरे घसतेः ॥
अथाऽऽदन्ताश्चतुर्दशाऽनिटश्च ॥ '२ प्सांक्' । साति । “नेमादा०" २।३७९ इति नेणत्वे प्रणिप्साति । पप्सौ । अनुस्वारेवान्नेट् , साता, प्सातुम् । " य एचातः " ५।१।२८ इति ये प्सेयम् । " उपसर्गादातो०" ५।११५६ इति डे प्रप्सः । “ तन्व्यधी०" ५।११६४ इति णे प्सायः । उणादौ "श्वन्मातरिश्व " (उ० ९०२) इत्यनि निपातनात् विश्वप्सा अग्निः, कालश्च ॥
'३ भांक दीप्तौ' । भाति, बभौ । अनुस्वारेच्चान्नेट , भाता, भातम् । अनटि "न ख्यापूग०" २२३९० इति प्रतिषेधात् " स्वरात्" २।३८५ इति “पोर्वा" २।३।८८ इति च णत्वाभावे प्रभानम् , प्रभापना । शतरि ड्याम् “ अवर्णादश्नो." २।११११५ इति वा 'अन्त' इत्यादेशे भाती भान्ती स्त्री । क्त्यपवादे “ उपसर्गादातः " ५।३।११० इत्यङि प्रभा, विभा । “मृगयेच्छा." ५।३।१०१ इति निपातनादङि भा । भाः, मासौ इति तु भासेः विपि । उणादौ "दामाभ्यां नुः" ( उ० ७८६ ) भानु: । " भातेर्डवतुः" (उ० ८८६) भवान् । स्त्रियामुदित्वात् ङ्याम् भवती ॥
'४ यांक प्रापणे' । याति । " ने मादा०" २३७९ इति नेर्णत्वे प्रणियाति । ययौ । “ वा द्विषा०" ४।२।९१ इति शिदनो वा पुसि “इडेत्" ४।३।९४ इति आल्लुकि अयुः । पक्षे अयान् । “ यमिरमि०" ४।४।८६ इति इटि सेऽन्ते च अयासीत् , अयासिष्टाम् । “ अवर्णादश्नो." २।१।११५ इति वाऽन्तादेशे याती यान्ती स्त्री कुले वा । अनुस्वारेचात् नेटू , याता, यातुम् । “ यायावरः" ५।२।८२ इति निपातनाद् यङन्ताद् वरे यायायनशीलो यायावरः । “गत्यर्था० " ५।१।११ इति वा कर्तरि ते संयातः, उपयातः, क्यिातः । “अजातेः शीले" ५।१११५४ इति णिनि प्रयायी । गम्यादित्वात् वय॑ति साधुः । “णिन् चावश्यका०" ५४।३६ इति णिनि यायी । उणादौ " हुयामा०" ( उ० ४५१)
१. अधुः क्षुद्रजन्तुः [ उ. वि.] ॥
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७ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
इति त्रे यात्रा । “ यापाभ्यां द्वे च" ( उ० ७१४ ) इति किदीः, ईः, ययीः रविः । “ हनिया०" (उ० ७३३ ) इति कित्यौ द्वित्वे च ययुः अश्वः । "पीमृगमित्रदेवकुमारलोकधर्म विश्वसुम्नाश्मावेभ्यो यः" ( उ० ७४१) इति कित्यौ पियुः उलूकः, मृगयुः, व्याधः इत्यादि । “ कृसिकम्य०" (उ० ७७३) इति तुनि यातुः राक्षसः । “ अर्तीरि०" (उ० ३३८ ) इति मे यामः । “मन्" ( उ० ९११) इति मनि यामा । बहुव्रीहौ सुयामा नाम कश्चित् ॥ ___ ५ वांक गतिगन्धनयोः' । वाति, ववौ । अनुस्वारेवान्नेट् , वाता, वातुम् । णी " वो विधूनने " ४।२।१९ इति जे पक्षण उपवाजयति । विधूननादन्यत्र " अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ वापयति केशान् । “निर्वाणमवाते" ४।२।७९ इति निपातनात् क्तस्य नत्वे निर्वाणो भिक्षुः । वाते तु निर्वातो वातः, निर्वातं वातेन । " अवर्णादश्नो." २११११५ इति वान्तादेशे वाती वान्ती स्त्री कुले वा । उणादौ " कृवापाजि० " ( उ० १) इति उणि वायुः । “ दम्यमि०" ( उ० २००) इति ते वातः । “ अमेरि०" ( उ० ३३८) इति मे वामः । '" मन् " ( उ० ९११) इति मनि वामा । मत्वर्थीये ने वामनः ॥
__ '६ ष्णांक शौचे' । “पः सो० " २।३।९८ इति सत्वे स्नाति, सस्नौ । षोपदेशत्वात् “नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे सिष्णासति । अनुस्वारेत्त्वान्नेद स्नाता स्नातुम् । णौ “ज्वलवल०" ४।२।३२ इत्यनुपसर्गस्य वा हस्वे स्नपयति स्नापयति । सोपसर्गस्य तु स्वाभावे प्रस्नापयति । णके प्रस्नापकः । "कर्मजा तृचा च" ३३११८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः, राजस्नापकः । “निनद्याः०" २।३।२० इति पत्वे निष्णातः, निष्णः; नदीष्णातः, नदीष्णः । कौशलादन्यत्र पत्वाभावे नदीस्नः । स्थादित्वात्के प्रस्नाति तत्र इति प्रस्नः । एवं प्रतिस्न: । कुत्सादि कपि भीरुष्ठानादित्वात् पत्वे च प्रतिष्णिका । "प्रतेः स्नातस्य." २।३।३१ इति पत्वे प्रतिष्णात सूत्रम् । “स्नानस्य नाम्नि" २।३।२२ प्रतिष्णानं सूत्रम् । उणादौ " स्नामदि०" ( उ० ९०४) इति पनि स्नावा सिरा, नदी च । ज वेष्टने (११४९) स्नायति । " कुवापा०" (उ० १) इत्युणि स्नायुः ॥
'७ श्रांक पाके' । श्राति, पच्यते स्वयमेवेत्यर्थः । शौ । अनुस्वारेच्चान्नेट् , श्राता, श्रातुम् । "श्रः शतं हविः क्षीरे" ४३१११०० शृतं " हविः क्षीरं वा ।
१. सुस्नाश्मा' इति मु० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ७
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अन्यत्र " व्यअनान्तस्था०" ४१२७१ इति क्तस्य नत्वे श्राणा यवागूः । पाके घटादित्वाद् गौ ह्रस्वे श्रपयति । " श्रपेः प्रयोक्त्रेक्ये " ४।१।१०१ निपातनात् शृतं क्षीरं हविवों । पाकादन्यत्र हस्वाभावे श्रापयति ॥
'८ द्रांक कुत्सितगतौ' । कुत्सिता गतिः पलायनं स्वप्नश्च । द्राति । " नेमादा." २३७९ इति नेर्णत्वे प्रणिद्राति । अनुस्वारेच्चान्नेट , द्राता द्रातुम् । " व्यञ्जनान्तस्था०" ४।२।७१ इति क्तयोस्तस्य नत्वे विद्राणः, द्राणः, द्राणवान् । वृनि द्राणशीलो दाता । "शीश्रद्धा०" ५।२।३७ इति आलो निद्राणशीलो निद्रालुः । द्रायतेः एवाऽऽलु न तु द्रातेः इत्यन्ये । ३ स्वप्ने (१।३४ ) द्रायति ॥
'९ पांक रक्षणे' । पाति, पपौ। " ईयअने" ४।३।९७ इत्यत्र गास्थासहचरितस्य पिवतेग्रहणात् क्ये ईत्वाभावे पायते । णौ " पातेः" ४।२।१७ इति ले पालयति । अनुम्बारेवान्नेट , पाता, पातुम् । “ आतो डो." ५।१।७६ इति डे नृपः । “स्थापा० " ५।१।१४२ इति के अधिपः । शतरि नखादित्वाद् अदभावे नपात् । उणादौ " भीणशलि." ( उ० २१ ) इति के पाकः बालः । स्त्रियां "वयस्यनन्त्ये" २।४।२१ इति उथपवादे “ अजादेः" २।४।१६ इति आपि पाका । " भापा०" ( उ० २९६ ) इति पे पान्ति तस्मादात्मानम् इति पापम् , भीमादित्वादपादाने साधुः । त्रटि पात्रम् । “पातेर्वा " ( उ० ६५९) इति वा कित्यती पतिः, पातिः । “ पातेरिच" (उ० ८५८ ) इति तः, पिता । " खुरक्षुर०" ( उ० ३९६ ) 'इति निपातनाद् विप्रः । " मन् " ( उ० ९११) इति मनि पामा । मत्वर्थीये ने पामनः । “ पातेजस्थसौ " ( उ० ९७७ ) पाजो बलम् , पाथो जलम् । “ पातेथुम्सुः" ( उ० १००२) पुमान् । पां पाने [१२] पिबति । पैं' शोषणे [ ११४७ ] पायति ॥
'१० लांक आदाने' । लाति, ललौ । अनुस्वारेचान्नेद , लाता, लातुम् । " आतो डो." ५।१७६ इति डे बहुल: । णौ " लो लः" ४।२।१६ इति वा ले घृतं विलालयति, पक्षे " अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ घृतं विलापयति । क्ते विलातः ॥
११ रोक दाने' । राति, रौ। अनुस्वारेच्चान्नेट् , राता, रातुम् । आदानेऽपीति कश्चित् , 'रातुं वारणमागतः' । उणादौ" भीणशलि." (उ० २१ ) इति
१. इति रे नि इति प० प्रतौ ॥
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१५ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
के राका पूर्णिमा । " राशदि०" (उ० ६९६) इति त्रौ रात्रिः । “राते:" (उ० ८६६) राः धनम् ॥
१२ दांवक् लवने' । वकारः "अवौदाधौदा" ३३.५ इति विशेषणार्थः । दाति क्षेत्रम् , दायन्ते व्रीहयः । अत्र “अबौ०" ३३५ इति अत्र वितो वर्जनाद् दासंज्ञाया अभावे " ईय॑अने० " ४३९७ इति ईन भवति । अनुस्वारेवान्नेट , दाता, दातुम् । “ नीदाव्०" ५।२।८८ इति करणे त्रुटि दात्रम् ॥
__ १३ ख्यांक प्रथने' । प्रकथने इत्यन्ये । ख्याति, आचख्यौ । “शास्त्यसूवक्ति " ३।४।६० इत्यङि आख्यत् । “समः ख्यः" ५।११७७ इति डे अश्वसंख्यः । “दश्चाङः " ५।११७८ इति डे स्याख्यः । “ व्यअनान्तस्था." ४।२।७१ इन्यत्र ख्यावर्जनात् तस्य नत्वाभावे ख्यातः । सखा इति तु “सनेडेखिः" ( उ० ६२५ ) इति डखौ । अनुस्वारेच्चान्नेट् , आख्याता आख्यातुम् ॥
१४ प्रांक पूरणे' । प्राति, पौ। अनुस्वारेच्चान्नेट् , प्राता । क्ते " व्यञ्जनान्तस्था० " ४।२।७१ इति तस्य नत्वे प्राणः । “आतो डो०" ५।१७६ इति डे गोष्पदप्रं वृष्टो देवः । एकेन गोष्पदप्रेण ॥
१५ मांक माने ' । मानं वर्तनम् । माति पात्रे । “ नेमादा०" २३७९इत्यत्र अॅापलक्षितस्य मो ग्रहणान्नेर्णत्वाभावे प्रनिमाति । अत्राऽपीच्छन्त्येक प्रणिमाति । क्ये "ईय॑अने" ४।३।९७। इति ईत्वे मीयते । मातेः ईत्वं नेच्छन्त्येके; तन्मते मायते, ममौ । अनुस्वारेवान्नेट् , माता, मातुम् । सनि "मिमी." ४।१।२०। इति स्वरस्येति मित्सति ये तु अस्य इवं नेच्छन्ति तन्मते मिमासति । "दोसोमा०" ४।४।११॥ इति इति मितः, मितवान् । मातेः इत्वं नेच्छन्त्येके, तन्मते मातः, मातवान् । शतरि “ अवर्णादश्नो०" २१११११५। इति वाऽन्तादेशे माती मान्ती स्त्री कुले वा । उणादौ "स्थाछा." ( उ० ३५७ ) इति ये माया । " हुयामा०" ( उ० ४५१) इति त्रे मात्रा । " शामा०" ( उ० ४६२) इति ले माला । " मावावद्य०" ( उ० ५६४ ) इति से मास: । मेरुः इति तु 'मीनातेः “चिनीपी०" ( उ० ८०६) इति रौ । चन्द्रमा इत्यपि चन्दो रमसि । [चन्दो रमस् (उ० ९८६) ] ॥
१. “ मीनातेर्मीयतेर्वा चिनीपी०" इति प० प्रतौ । उणादि विवरणे तु मीच् हिंसायाम् इत्यस्माद् धातो: मेरुः शब्दः साधित: ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १६ अथेदन्तावनिटौ च ॥ * १६ इंक् स्मरणे' । " स्मृत्यर्थ० " २।२।११॥ इति वा कर्मणः कर्मत्वे "शेषे" २।२।८१॥ इति षष्ठयां मातुरध्येति, मातरमध्येति । " इको वा " ४।३।१६। इति वा यत्वे अघियन्ति । पक्षे इयादेशे अधीयन्ति । " इणिकोर्गाः" ४।४।२३। इति गाऽऽदेशे " पिवैति० " ४।३।६६। इति सिलुपि च अध्यगात् । “ क्रियाव्यतिहारे० " ३।३।२३। इत्यात्मनेपदे व्यत्यध्यगास्त । " भावकर्मणोः " ३।४।६८। इति जिचि अध्यगायि । अधीयाय, अधीयतुः । अनुस्वारेचान्नेट , अध्येता, अध्येतुम् । " सनीङश्च" ४।४।२५। इति गमुः, अधिजिगमिषति । " णावज्ञाने गमुः" ४।४।२४। अधिगमयति । वित्व अधीत्य । कित्करणम् "इको वा" ४।३।१६। इत्यादौ विशेषणार्थ गणज्ञापनार्थ च । इङिको अधिना एवं प्रयुज्यते ॥
१७ इंण्क् गतौ' । णित्त्वं " इणः " २।११५१ इत्यादौ विशेषणार्थम् । एति । " उपसर्गस्यानिणे०॥ १।२।१९। इत्यत्र इणो वर्जनाद् उपसर्गावर्णस्य लुगभावे उपैति, परैति । “विणो०" ४।३।१५। इति यत्वे यन्ति, यन्तु । " इणिकोर्गाः" ४।४।२३। इति गाऽऽदेशे " पिवैति०" ४।३।६६। इति सिज्लुपि च अगात् । “ सिज्विदो०" ४।२।९२॥ इति अनः पुसि " इडेत्० " ४।३।९४। इति आतो लुकि च अगुः । “योऽनेकस्वर०" २११५६ इति यत्वापवादे, " इणः" २।१५१ इति इयादेशे ईयतुः, ईयुः । “ आशिपीणः" ४।३।१०७ इति ह्रस्वे समियात् । " णावज्ञाने गमुः" ४।४।२४ गमयति ग्रामम् । ज्ञाने तु शब्दः अर्थ प्रत्याययति । “सनीङश्च" ४।४।२५ जिगमिषति ग्रामम् । ज्ञाने तु अर्थान् प्रतीषिषति । अनुस्वारेवान्नेट , एता, एतुम् । क्ये " दीर्घश्चय " ४।३।१०८ इति दीर्घ ईयते । थवि "सृजिद शि०" ४।४७८ इति वेटि इयेथ इययिथ । "ग" ५।१।४० इति यापवादे क्यपि इत्यः । "तन्व्यधी०" ५।१।६४ इति णे अत्यायः, प्रत्यायः । लिहायचि अयः, समयः, प्रत्ययः । “गत्यर्था० " ५।१।११ इति वा कर्तरि क्ते मार्गमतीतः । “वेयिवद०" ५।२।३ इति निपातनाद् भूतमात्र क्वसौ नित्यत्वाद् द्वित्वात् प्रागेव “घसेकस्वरा०" ४।४।८२ इति इटि ईयिवान् , समीयिवान् , उपेयिवान् । “जीणदक्षि०" ५।२।७२ इति इनि अत्ययनशील: अत्ययी । " सृजीण" ५।२।७७ इति वरपि इत्वरः,
१. मातुर इति मु० ॥ २. अयुः इति मु० ।।
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१८ ] धातुपारायणे अदादयः (२) इत्वरी । मनि स्वेमा, वनि स्वेवा । क्वनिपि स्वित्वा । विचि स्वेः। विपि एति इति इत् । “युवर्ण" ५।३।२८ इत्यलि अयः, अन्ययः, समयः । " इणोऽभ्रेषे" ५३।७५ इत्यलपवादे पनि न्यायः । “परेः क्रमे" ५।३७६ पर्यायः; क्रमादन्यत्रालि विपर्ययो मतेः । “समज० " ५।३।९९ इति क्यपि इत्या । " न्यायावाया०" ५।३।१३४ इति निपातनात् करणे पनि न्यायः । उणादौ " कृवापा० " ( उ० १) इत्युणि आयुः नरः, पुरूरवः, पुत्रः, जीवनं च; जरायुः गर्भवेष्टनम् , जटायुः पक्षी । “मीणशलि." ( उ० २१) इति के एकः । " इणुर्विशा०" (उ० १८२ ) इति णे एणः । “दम्यमि०" (उ० २००) इति ते एतः वर्णः । “अवभृ०" (उ० २२९) इति किति थे समिथः संगमः। "जीणशी०" (उ० २६१) इति किति ने एनः । " इणः कित्" (उ० ३२८) इति मे इभः । “ इणधाग्भ्यां वा” (उ० ३८९) इति वा किति रे इरा सूरा, भृश्च । एरा एडका । " खुरक्षुर० " (उ० ३९६) इति रे निपातनाद् दुःपूर्वस्य [ इणः ] दम् । “समिण " ( उ० ५९८ ) इति आः, समया गिरिम् । " अस्" (उ० ९५२ ) इत्यसि अयः लोहम् । " इणो णित् " ( उ० ९९८ ) इति उसि आयुः, आयुषी । " अर्तीणभ्यां नस्" ( उ० ९७९) एनः पापम् । आग इति तु अगे: “ वस्त्यगिभ्यां णित् " ( उ० ९७०) इत्यसि ॥
अथेदन्तोऽनिट् च ॥ १८ वींक प्रजन-कान्त्यसनखादने च'। चकाराद् गतौ । प्रजनः प्रथमगर्भग्रहणम् , असनं क्षेपः, अशनं तृप्तिरित्येके । वैति, वीतः, वियन्ति, विवाय, विव्यतुः, विव्युः । अत्र "असिद्धं पहिरङ्गमन्तरङ्गे" [न्याय-२० ] इति यत्वस्यासिद्धत्वाद् " वादे." २।१।६३ इति पूर्वस्य दीर्घामावः । अनुस्वारेवान्नेट् , वेता, वेतुम् । “वियः प्रजने" ४।२।१३ इति वात्वे पुरोवातो गाः प्रवापयति, पक्षे " नामिनो०" ४३५१ इति वृद्धौ प्रवाययति । क्ते वीतम् असारं हस्त्यश्वम् । “तिकृती नाम्नि" ५।१७१ इति तिकि वीतिः अश्वः । उणादौ "वीपतिपटिभ्यस्तनः" (उ० २९२ ) वेतनं भृतिः । “हुयामा०" (उ० ४५१) इति त्रे वेत्रः । " तसच" (दृ० उ० ५८० ) इति तसे वेतसः । " कावावी. " (उ० ६३४ ) इति णौ वेणिः 'कबरी । “वीयुसु०" (उ० ६७७) शत नौ
१. कवरी इति मु० ॥
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१६८
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १८वेनिः-व्याधि दी च । वेणुः इति तु " अजिस्था० " ( उ० ७६८ ) इति णौ अजेः । “अस्" ( उ० ९५२) इति असि वयः । प्रज्ञाद्यणि वायसः ॥
___ अथोदन्ता दश ॥ . १९ ग्रंक अभिगमे' । " उत औ० " ४।३।५९ इति औः, द्यौति, द्युतः, धुवन्ति, दुद्याव । थवि “सृजि-दृशि०" ४।४।७८ इति वेटि दुयोथ, दुधविथ । अनुस्वारेच्चान्ने, द्योता, द्योतुम् । यङि दोधूयते । यङ्लुपि दोद्योति, दोद्यवीति । वनि सुद्योवा, क्वनिपि सुद्युत्वा, विचि द्यौः । “य एच्चातः " ५।१।२८ इति ये, " श्यक्ये " १।२।२५ इत्यवि च द्यव्यः । " उवर्णा० " ५।१।१९ इति ध्यणि द्याव्यम् अवश्यम् । उणादौ " द्रुभ्याम् " ( उ० ७४४ ) इति डिदुः, द्युः । " घुगमिभ्यां डोः" ( उ० ८६७ ) द्यौः ॥
२० पुंक प्रसवैश्वर्ययोः' । “पः सो." २।३।९८ इति सत्वे "उत औ०" ४।३।५९ इत्यौत्वे च सौति, सुतः, सुवन्ति । षोपदेशत्वात् "नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सुषाव । अनुस्वारेचान्नेट, सोता, सोतुम् । अपोपदेशोऽयमित्येके सुसाव । उणादौ " सुसितनि०" ( उ० २०३) इति ते वा दीर्घ च सुतः पुत्रः, सूतः सारथिः । “युसुकु०" (उ० २९७ ) इति पे ऊत्वे च सूपः । सु प्रसवैश्वर्ययोः (१११७ ) सवति । पुंगटू अभिषवे (४१) सुनोति ॥ . '२१ तुक् वृत्तिहिंसापूरणेषु' । " उत औ० " ४।३।५९ इति औत्वे तौति ।
" यतुरुस्तो० ॥ ४॥३॥६४ इति ईति तवीति; तुतः, तुवन्ति, तुताव । अनुस्वारेवान्नेट , तोता तोतुम् । उणादौ 'भीणशलि." (उ० २१) इति के तोकम् अपत्यम् । “ घुयुहि० " ( उ० २४ ) इति के दीर्थे च तूक: उपस्थो गिरिश्च । " युसुकुरु० " ( उ० २९७ ) इति पे ऊत्वे च तूपः आयतनविशेषः ।
'२२ युक मिश्रणे ' । यौति, युतः, युवन्ति, युयाव । थवि " स्क्रसृवृ० " ४।४।८१ इति इटि युयविथ, यविता, यवितुम् । सनि " ग्रहगुह० " ४।४।५९ इति इडभावे प्राप्ते तदपवादे " इवध० " ४।४।४७ इति वा इटि " ओजान्तस्था०" ४।१।६० इति पूर्वस्येत्वे यियविषति । पक्षे युयूषति । वेटत्वात् क्तयोर्नेट, युतः, युतवान् । “ आसुयु० " ५।१।२० इति यापवादे घ्यणि याव्यम् । नन्द्याधने यवनः । मनि सुयोमा । वनि सुयोवा । विचि सुयोः । विपि सुयुत् । “ युवर्ण० " ५।३।२८ इत्यलि यवः । प्रज्ञाद्यणि यावः अलक्तकः । स्वार्थ के यावकः ।
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२४ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
१६९
" युदुद्रोः" ५।३।५९ इति संपूर्वाद् पनि संयावः गुड गोधूमः । उत्पूर्वात् "युपुद्रोघन" ५३।५४ उद्यावः । “सातिहेति" ५।३।९४ इति तो निपातनात् यूतिः सङ्घः, गोयूतिः । पृषोदरादित्वात् गव्यूतिः । क्त्वि “उवर्णात्" ४।४।५८ इति इडभावे युत्वा । उणादौ " घुयुहि० " ( उ० २४ ) इति के दीर्षे च यूका । “ पथयूथ०" ( उ० २३१) 'इति निपातनात् यूथः । “ युसुकु० " ( उ० २९७ ) इति पे ऊत्वे च यूपः । “योरूच्च वा" ( उ० ५४१ ) इति षे वृषः पेयविशेषः, वृषा छाया, योषा स्त्री । “युजलेराषः " ( उ० ५४५) यवाषो दुरालभा । " वहियुभ्यां वा" ( उ० ५७१ ) इति वा णित्यसे यावसं भक्तम् तृणं च; यवसं घासः अन्नं च । “युब लिभ्यामासः" (उ० ५७४) यवासो दुरालभा । “योः कित्” ( उ० ६५८) इत्यती युवतिः । " वीयुसुवह्य० " ( उ० ६७७ ) इति नौ योनिः । “ नीसा०" ( उ० ६८७) इति मौ योमिः शकुनिः । " लूपूयु०" ( उ० ९०१) इति कित्यनि युवा । 'अयुतसिद्धानाम् ' इत्यादि दर्शनादमिश्रणे युः, इत्यन्ये । युंग्श् बन्धने [ ८६] युनीते, युनाति, योता । युणि जुगुप्सायाम् [९।२३७] यावयते । अर्थविशेषे चुरादित्वात् जुगुप्साया अन्यत्र यौति । ___२३ णुक् स्तुतौ' । “ पाठे० " २।३।९७ इति णस्य नत्वे नौति, नुतः, नुवन्ति । णोपदेशत्वाद् “ अदुरुपसर्गा०" २३७७ इति णत्वे प्रणौति, परिणौति । " नुप्रच्छः " ३।३।५४ इत्यापूर्वादात्मनेपदे आनुते सृगालः । सनि “ग्रह गुह०" ४।४।५९ इति नेट् . नुनूषति । नुनाव, नविता, नवितुम् । “ उवर्णादा०" ५।१।१९ इति यापवादे घ्यणि नाव्यम् अवश्यम् । अचि नवः, प्रणवः । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट् , नुत्वा, नुतः, नुतवान् , नुतिः । " उक्षितक्ष्य० " ( उ० ९०० ) इति अनि नव पदार्थाः ॥
'२४ क्ष्णुक तेजने' । क्ष्णौति, क्ष्णुतः, क्ष्णुवन्ति । “समः क्ष्णोः" ३।३।२९ इत्यात्मनेपदे संक्ष्णुते शस्त्रम् । क्ष्णविता । यडि चोक्ष्णूयते, यङ्लुपि चोक्ष्णोति । सनि " ग्रहगुह० " ४।४।५९ इति नेटू , चुक्ष्णूषति ॥
१. इति थे इति प० प्रतौ ॥ २. एतस्या लोके जवासउ इति प्रसिद्धिः । (नि. शे. टी. २२२२८) ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० २५
___ '२५ स्नुक् प्रस्नवने' । प्रस्नवनं क्षरणम् । स्नौति, स्नुतः, स्नुवन्ति । क्ये “दीर्घ पिच्च० " ४।३।१०८ इति दीर्षे स्नूयते । प्रस्नविता । " स्नोः" ४।४।५२ इत्यात्मनेपदाभावे एव इनियमादात्मनेपदे नेट् , प्रस्नोष्यते । कर्मकर्तरि " एकधातौ० " ३।४।८६ इति जिक्यात्मनेपदेषु प्राप्तेषु " भूषार्थ" ३।४।९३ इति जिक्ययोः प्रतिषेधात् प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव, प्रस्नुते गौः स्वयमेव । सुस्नाव, सुस्नुवतुः, सुस्नुवुः । यङि सोस्नूयते । यङ्लुपि सोस्नोति, सोस्नवीति । सनि " ग्रहगुह०" ४।४।५९ इति नेट् , सुस्नूषति । उणादौ “स्नुपूर." (उ० ५४२) इति किति षे स्नुषा ।
'२६ टुक्षु २७ रु २८ कुंक शब्दे ' । क्षौति, क्षुतः, क्षुवन्ति, चुक्षाव, क्षविता, क्षवितुम् । यङि चोक्यते । यङ्लुपि चोक्षोति, चोक्षवीति । “य एच्चा०" ५।१।२८ इति ये शव्यम् । " उवर्णादावश्यके " ५।१।१९ इति ध्यणि क्षाव्यम् अवश्यम् । सनि “ ग्रहगुह० " ४।४।५९ इति नेट , चुर्षति । किति "उवर्णात" ४।४।५८ इति नेट् , क्षुत्वा, क्षुतम् , क्षुतः, क्षुतवान् । “युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि क्षवः । विपूर्वात् “ शुश्नोः" ५।३७१ इति पनि विक्षावः । ट्रिवत्वादथुः क्षवथुः । “ऋत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि क्षुत् । उणादौ "स्थाक्षुतोरूच" ( उ० १८५) इति णे क्षणम्-अपराधः ॥
२७ रु' । रौति । " यतुरुस्तो." ४३।६४ इति ईति स्वीति; रुतः, रुवन्ति, रविता, रुराव । सनि “ग्रहगुह० " ४४५९ इति नेट् , रूरूपति । यङि रोरूयते । यङलुपि रोरवीति रोरोति । किति " उवर्णात्" ४।४।५८ इति नेट् , रुत्वा, रुतम् , रुतः, रुतवान् । “युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि खः । अलपवादे “ रोरुपसर्गात् " ५।३।२२ इति पनि संरावः । “आङा रुप्लोः " ५।३।४९ इति वालि आरावः आस्वः । “चालशब्दार्था०" ५।२।४३ इत्यने रवणशीलो रवणः । “ क्वचित् " ५।१।१७१ इति डे मह्यां रौति मयूरः पृषोदरादित्वात् । उणादौ " तकश० " ( उ० १८७ ) इति अणे रवणः करमः । “शेर्वा" (उ० २३५ ) इति वा कित्यथे रुवथः शकुनिः, रवथः-आक्रन्दः । “स्वरेभ्य इ." ( उ० ६०६) रविः । “ रुपूम्यां कित् " ( उ० ८८८ ) इति से रुरुः मृगः । " विहायस०" (उ० ९७६) इत्यसि निपातनात् पुरु रौति पुरूरवा-राजा । रंडू रेषणे च [११५९९ ] रखते रोता ॥
१. वा घनि इति मु०॥
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___३१ ] धातुणरायणे अदादयः (२)
१७१ * २८ कुंक' । कौति, कुतः, कुवन्ति, चुकाव । अनुस्वारेन्चान्नेट् , कोता कोतुम् । सनि चुकूषति । यङि “न कवते." ४।१।४७ इति स्वादेरेव प्रतिषेधात् “कङश्चञ्" ४।१।४६ इति पूर्वस्य चत्वे चोकूयते । उणादौ "दृकन०" ( उ० २७ ) इत्यके कवकम् अभक्ष्यद्रव्यम् । “दुकूल० " ( उ० ४९.१ ) इति ऊले निपातनात् कुकूलम् शङ्क-मद्गतः । कुङ् शब्दे [ ११५९०] कवते । यडि कोकूयते । कुंत् शब्दे [५।१४९ ] कुवते, चोकूयते । एषां शब्दार्थत्वेऽपि कौतिः शब्दमात्रे, कुवतिः आर्तस्वरे, कवतिः अव्यक्ते शब्दे ॥
अथान्तर्गणो रुदादिपञ्चकः ॥ '२९ रुदक अश्रविमोचने' । " रुत्पंचका." ४।४।८८ इति इटि रोदिति, रुदितः; रुदन्ति; तत्र व्यञ्जनादेरित्यधिकाराद् अत्रेट नास्ति । रुरोद । " दिस्योरीटू" ४।४।८९ अरोदीत् , अरोदीः । “अदश्चाट" ४।४।९० अरोदत् अरोदः । " ऋदिच्छ्वि०" ३।४।६५ इति वाऽडि अरुदत् , अरोदीत् । रोदिता, रोदितुम् । "रुदविद० " ४।३।३२ इति कृत्वासनोः किच्चे रुदित्वा, रुरुदिषति । उणादौ " ऋज्यजि०" ( उ० ३८८) इति किति रे रुद्रः । रोदयतीति वा “खुरक्षुर०" ( उ० ३९६ ) इति निपातनाद् रुद्रः । “ रुद्यति" (उ० ९९७ ) इत्युसि रोदुः अश्रुनिपातः ॥
'३० जिष्वपंक शये' । “रुत्पंचका०" ४।४।८८ इति इटि स्वपिति, स्वपितः, स्वपन्ति । “भृस्वपो०" ४१७० इति पूर्वस्य उत्वे सुष्वाप । षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति पत्वे, “स्वपेयङड़े च” ४।११८० इति वृति सुषुपतुः, सुषुपुः । जीवात् “ज्ञानेच्छार्चा" ५।२।९२ इति सति क्ते सुप्तः । निर्दुःसुविपूर्वस्य अवः स्वपत्याद्यस्याऽपि सस्य षत्वे निःषुप्त:, दुःषुप्तः, सुषुप्तः, विषुप्तः । अनुस्वारेचान्नेट् , स्वप्ता, स्वप्तुम् । “रुदविद०" ४।३।३२ इति सन: कित्वे सुषुप्सति । यङि सोषुप्यते । गौ सनि “ स्वपो णावुः " ४।११६२ इति पूर्वस्य उत्वे सुष्वापयिषति । डे असूषुएत् । “दिस्योरीट" ४।४८९ अस्वपीत् अस्वपीः । “अदश्चा० " ४।४।९० इत्यटि अस्वपत् अस्वपः । अद्यतन्यां अस्वाप्सीत् । " वृषिवृषि० " ५।२।८० इति नजि ङ स्वप्नक । “यजिस्वपि०" ५।३।८५ इति ने स्वप्नः । असरूपत्वात् पक्षे पनि स्वापः । क्त्वि सुप्त्वा ॥
__ '३१ अन ३२ श्वसक् प्राणने' । प्राणनं जीवनम् । वर्णक्रमस्य प्रतिज्ञानात् स्वपः प्राग् अनेनिर्देशे प्राप्ते लाघवार्थमिहपाठः । “ रुत्पञ्चका." ४।४।८८ इति
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३१इटि अनिति । " द्वित्वेऽप्यन्तेऽप्य० ॥ २॥३८१ इति णत्वे प्राणिति, पराणिति, प्राणिणिषति । अन्तेऽपि इति वचनात् विवपि हे प्राण ! हे पराण ! परेस्तु वा पर्यणिति, पर्यनिति । “ अस्यादे." ४।१।६८ इति पूर्वस्य आत्वे आन, आनतुः । "दिस्यो०" ४४८९ इति ईटि प्राणी , प्राणीः । “अदश्चा०" ४४९० इत्यटि प्राणत् । प्राणः, प्राणिता, प्राणितुम् । अचि धनि वा प्राणः । घनि आनः । उणादौ " स्यमिकषि" ( उ० ४६ ) इति ईके अनीकम् । “प्याधा." (उ० २५८) इति ने अन्नम् । " स्थाछा०" (उ० ३५७ ) इति ये अन्यः । “अस्" ( उ० ९५२ ) इत्यसि अनः शकटम् ॥
___ ३२ श्वसन' । तालव्यादिः दन्त्यान्तः । “रुत्पञ्चका०" ४।४।८८ इति इटि श्वसिति, निःश्वसिति, श्वसितः, श्वसन्ति, शश्वास । " व्यअनादे." ४।३।४७ इति वा वृद्धौ अश्वासीत् , अश्वसीत् । “ दिस्यो." ४।४।८९ इति ईटि अश्वसीत् , अश्वसीः; “ अदवा०" ४।४।९० इत्यटि अश्वसत् , अश्वसः । श्वसिता, श्वसितुम् । “ श्वसजप०" ४४७५ इति क्तयोर्वेट् , आश्वस्तः, आश्वसितः, आश्वस्तवान् , आश्वसितवान् । “ तन्व्यधी०" ५।११६४ इति णे श्वासः ।।
'३३ जक्षक् भक्ष-हसनयोः' । अयं रुत्पश्चकस्य पञ्चमो, जक्षपञ्चकस्य त्वाद्य इत्युभयकार्यभाक् । “रुत्पञ्चका०" ४।४।८८ इति इटि जक्षिति जक्षितः । " द्वयुक्तजक्ष०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अजक्षुः । “अन्तो नो लुक्" ४।२।९४ जक्षति, जक्षतु, शतरि जक्षत् । “शौ वा” ४।२।९५ जक्षति, जक्षन्ति कुलानि । " दिस्यो० " ४।४।८९ इति ईटि अजक्षीत् , अजक्षीः । “ अदवा०" ४।४।९० इत्यटि अजक्षत् , अजक्षः । जक्षिता, जक्षितुम् , जजक्ष, जजक्षतुः ॥
'३४ दरिद्राक् दुर्गतौ' । दरिद्राति । " इर्दरिद्रः" ४।२।९८ दरिद्रितः । अन्तो नो लुकि " नश्वातः " ४।२।९६ इत्याल्लुकि च दरिद्रति । “दरिद्रोऽद्यतन्यां वा" ४।३।७६ अदरिद्रीत् अदरिद्रासीत् । “अशित्यस्सन्" ४।३।७७ इत्याल्लुकि दरिद्रयते, स्मन्नादिवर्जनात् दिदरिद्रासति । " इवृध० " ४।४।४७ इति वेटि दिदरिद्विषति, सादेरेव सनो वर्जनात् इहाल्लुक् । दरिद्रायको व्रजति, अत्र “क्रियायां०" ५।३।१३ इति णकच । णके दरिद्रायकः । अनटि दरिद्राणम् । शतरि दरिद्रत् , दरिद्रतौ । “ धातोरनेकस्वरा० " ३।४।४६ इत्यामि
१. स्सनादि इति मु० ॥
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३६ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
१७३ ददिद्राश्चकार । " आतो णव०" ४।२।१२० इत्यत्र ओकारेणैव पपौ इत्यादिसिद्धौ
औकारविधानं दरिद्रातर्णवः आमादेशानित्यत्वार्थम् , ददरिद्रौ । क्वसौ दरिद्राञ्चकृवान् । शिवस्तु णयोऽन्यस्य अपि आमादेशमनित्यमिच्छति, ददरिद्रवान् । “युक्तजक्ष०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि " इडेत्" ४।३।९४ इत्याल्लुकि अदरिद्रुः । णौ दरिद्रयति । णौ डे अददरिद्रत् । णो विषये आल्लुकं नेच्छन्त्यन्ये, दरिद्रापयति । डे " उपान्त्यस्या०" ४।२।३५ इति हस्वत्वे अददरिद्रपत् । नन्वत्र सन्वद्भावात् पूर्वम्यत्वं प्राप्नोति; नैवम् , 'येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि स्यात् ' [ न्याय० १३] इत्येकवर्णव्यवहिते लघौ लघोः परेण चैकवर्णेन व्यवहिते उपरे णौ सन्वभावो भवति यथा अपीपचत् इत्यादौ । अवीव्रजत इत्यादौ तु “स्मृदृत्वर०" ४।१६५ इत्यत्वविधानाद् अनेकव्यानव्यवहितेऽपि लघुनि इष्यते । इह तु लघोरव्यवधानेऽपि लघोः परेण वर्णसमुदायेन र्व्यवधेति न भवति । दरिद्रिता, दरिदितुम् । वेट्त्वेऽप्यनेकस्वरत्वात् क्तयोरिट, दरिद्रित: दरिद्रितवान् । अचि घजि वा दरिद्रः । दः इति तु “ तृदृभ्यां दुः" ( उ० ८४६) इति दुणातेः ॥ - '३५ जागृक् निद्राक्षये' । जागर्ति, जागृतः । अन्तो नो लुकि जाग्रति । शतरि जाग्रत् , जाग्रतौ । “ द्वयुक्तजक्ष०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि “पुस्पौ" ४।३।३ इति गुणे अजागरु: । जजागार । “जागुः किति" ४३६ इति गुणे जजागरतुः, जजागरुः । पक्षे " जाग्रुष०" ३४४९ इति परोक्षाया आमि जागराञ्चक्रतुः, जागराञ्चकुः । “सिचि परस्मै० " ४३।४४ इति वृद्धः " नश्विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अजागरी । “जागुर्जिणवि" ४।३५२ इति वृद्धः जिणवोरेव नियमात् , " नामिनो०" ४३५१ इति वृद्धयभावे गौ गुणे जागरयति, जागरिता, जागरितुम् । क्तयोः जागरितः जागस्तिवान् । "जागुः" ५२०४८ इत्यूके जागरणशिलो जागरूकः । स्त्रियां क्त्यपवादौ "जागुरश्च" ५।३।१०४ इति अ-यौ जागरा, जागर्या । उणादौ " जशस्त० " ( उ० ७०५) इति ङिति वो जागृविः अग्निः ।।
६६
'३६ चकासृक् दीप्तौ' । चकास्ति, चकास्त: । अन्तो नो लुकि चकासति शतरि चकासत् , चकासतौ । " द्वयक्तजक्ष०” ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अचकासुः । " व्यअनाद् देः०" ४।३।७८ इति देलकि सस्य दत्वे च, सः अचकात् । “सेः स्द्धां०" ४।३।७९ इति सेलुकि सो वा रुत्वे च अचकाः त्वम् , पक्षे " धुट०" २११७६ इति सस्य दत्वे अचकात् त्वम् । “ धातोरनेक."
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३६
३।४।४६ इति परोक्षाया आमि चकासाञ्चकार । सनि चिचकासिषति । चकासिता, चकासितुम् । ऋदित्वात् डे न इस्वः, अचचकासत् ।।
'३७ शाक् अनुशिष्टौ' । अनुशिष्टिः नियोगः । शास्ति । " इसासः शासोङ व्यञ्जने " ४।४।११८ " नाम्यन्तस्थाः०" २।३।१५ इति षत्वे च शिष्टः । "शास्त्यमू०" ३।४।६० इत्यङि अशिषत् । “द्वयुक्तजक्ष०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अशासुः । अन्तो नो लुकि शासति । शतरि शासत् , शासतौ । " व्यञ्जनाद् देः०" ४।३।७८ इति देलुकि सो दत्वे च, सः अन्वशात् । " सेः स-द्-धां०" ४।३।७९ इति सेलुकि सो रुत्वे च अन्वशाः त्वम् , अन्वशात् त्वम् । " शासस्०" ४।२।८४ इति ह्यन्तस्य शाधौ, शाधि, अनुशाधि । शासिता । अदित्वात् क्त्वि वेट , शिष्ट्वा, शासित्वा । वेट्त्वात् क्तयोनेंट , शिष्टः , शिष्टवान् । क्विपि मित्रशीः । तो शिष्टिः । “इकिश्तिव्० " ५।३।१३८ इति श्तिवि शास्तिः । " उपान्त्यस्या० " ४।२।३५ इत्यत्र शासेर्वर्जनात् डे हस्वाभावे अशशासत् । " दृवृग्० " ५।११४० इति क्यपि शिष्यः । “शासूयुधि०" ५।३।१४१ इत्यने दुःशासनः, सुशासनः । उणादौ "शासिशंसि०" (उ० ८५७) इति तः, शास्ता बुद्धः; प्रशास्ता ऋत्विक । “ तृस्वसृ० " १।४।३८ इत्यारि प्रशास्ता । आङः शासूकि इच्छायाम् [ २१६० ] आशास्ते, आशास्यते, आशीशसत् , आशीः ।। रुजक्षपश्चके समाप्य प्रकृतो वर्णक्रमोऽनुत्रियते ॥
अथ चान्तः॥ ___ '३८ वचंक भाषणे । वक्ति, वक्तः, वचन्ति । अन्तौ बचेः प्रयोग नेच्छन्त्येके । " यजादिवश्० " ४।१।७२ इति पूर्वस्य रवृति उवाच । “यजादिवचेः० " ४।१७९ इति रवृति ऊचतुः ऊचुः । क्य उच्यते । “शास्त्यमू०" ३४६० इत्यङि " श्वयत्य ०" ४।३।१०३ इति वोचाऽऽदेशे अवोचत् । अनुस्वारेचान्नेट, वक्ता, वक्तुम् । " प्रवचनीया०" ५।११८ इति वा कर्तयनीये प्रवचनीयो गुरुधर्मस्य, पक्षे प्रवचनीयो धर्मो गुरूणा । “ ऋवर्ण० " ५।१।१७ इति ध्यणि प्रवाच्यः ग्रन्थविशेषः, अत्र " त्यजयज०" ४।१।११८ इति कत्वाऽभाव: । "वचोऽशब्दनाम्नि" ४।१।११९ कत्वाभावे वाच्यम् आह । शब्दनाम्नि तु "क्तेऽनिट०" ४।१।१११ इति कत्वे वाक्यम् । “वेयिवद० " ५।२।३ इति भूतमात्रे निपातनाद् वा काने अनूचानः, पक्षे अन्ववोचत् । " भावाकोंः " ५।३।१८ घजि अनुवाकः, वाकः । " दिद्युद्-ददृद्" ५।२।८३ इति विपि निपातनात् वचनशीलो वाक् ।
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४१] धातुपारायणे अदादयः (२) " गोचरसंचर०" ५।३।१३१ इति निपातनाद् घे वक्तीति वकः, क्ते उक्तम् । लिहायचि श्लोकवचः । उणादौ "नीनूरमि०" ( उ० २२७) इति किति थे उक्थम् साम । “ट्" (उ० ४४६) इति टि वक्त्रम् । "ककस्थूराद् वचः क च" ( उ० ७२८ ) इत्युणि कुकवाकु: 'कुक्कुटः, स्थूरवाकुः उच्चध्वनिः । “अस्" ( उ० ९५२ ) इत्यसि वचः । वचण भाषणे [९।३८७ ] वाचयति, युजादित्वाद् वा णिचि पक्षे वचति ॥
. अथ जान्तः ॥ '३९ जौक् शुद्धौ' । “ मृजोऽस्य०" ४।३।४२ इति वृद्धौ “यजसृज०" २११८७ इति षत्वे मार्टि, मृष्टः । “ ऋतः स्वरे वा" ४।३४३ इति वा वृद्धौ परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति, ममार्जतुः, ममृजतुः, ममार्जुः, ममृजुः । औदिचात् वेट् , मार्डी, मार्जिता । वेट्त्वात् क्तयोनेंट् , मृष्टः, मृष्टवान् । “कृषि०" ५।११४२ इति वा क्यपि परिमृज्यः, पक्षे ध्यणि "तेऽनिट." ४३१११११ इति गत्वे परिमार्यः । “शोकापनुद० " ५।१३१४३ इति निपातनात् के तुन्दपरिमृजः अलसः, अन्यत्र कर्मणोऽणि तुन्दपरिमार्जः । घनि मार्गः । भिदायङि मृजा शुद्धिः, अन्यत्र स्त्रियां तो मृष्टिः । उणादौ " अग्यङ्गि० " ( उ० ४०५) इति आरे मार्जारः, लत्वे मार्जालः । “ मृजिखन्या० " ( उ० ४७२) इति डित्यले मलः । मृजौण शौचालङ्कारयोः [९।३९० ] युजादित्वात् वा णिचि मार्जयति । " णिवेच्या० " ५।३।१११ इत्यने मार्जना, ते मार्जितः । मर्जिता रसाला इति रूढेः, पक्षे मार्जति ॥
अथ तान्तः ॥ ... ४० सस्तुक् स्वप्ने' । उदित्वान्ने " धुटो धुटि स्वे वा” ११३१४८ इति तो लुकि च संस्ति, संस्तः, संस्तन्ति, संस्तिता ॥
अथ दान्तः ॥ '४१ विदक ज्ञाने' । “तिवां णव०" ४।२।११७ इति वा णवाद्यादेशे वेद, विदतुः, विदुः, पक्षे वेत्ति, वित्तः, विदन्ति । " समो गमृच्छि० " ३३८४
१. “ हुयामा०" ( उ० ४५१) इति त्रप्रत्ययेऽपि वक्त्रम् भवति ॥ २. कुकुटः इति मु०॥
३. मार्जिता इति मु० । " मार्जिता रसाला मर्जितेति रूढेः" इति चुरादौ [ ३९० ] अत्रैव वक्ष्यते ॥
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१७६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४१इति कर्मण्यसति आत्मनेपदे संवित्ते संविदाते । “वेत्तेर्नवा" ४।२।११६ इत्यन्तो वा रति संविद्रते, पक्षे " अनतोन्तो० " ४।२।११४ इत्यति संविदते । सति आप्ये " शेषात् " ३३१०० इति परस्मैपदे संवेत्ति शास्त्रम् । “सिविदो०" ४।३।९२ इति शिदनः पुसि अविदुः । "वेत्तेः कित् " ३।४।५१ इति परोक्षाया वा आमि विदाञ्चकार, विवेद " पञ्चम्याः कृगः" ३।४।५२ इति पञ्चम्या वा आमि कुग एव तदन्तस्याऽनुप्रयोगे च विदाङ्करोतु, विदाङ्करवाणि, कित्त्वात् न गुणः; पक्षे वेत्तु, वेदानि । " व्यजनाद् दे." ४।३।७८ इति दे कि सः अवेत् । "सेः सद्धा" ४।३।७९ इति सेलुकि दो वा रुत्वे च अवेः त्वम् , अवेत् त्वम् । वेदिता, विदितः, विदितवान् । “वो व्यञ्जनादे०" ४।३।२५ इति विकल्पाऽपवादे "रुदविद० " ४।३।३२ इति क्त्वासनोः किल्वे विदित्वा, विविदिषति । " नाम्धुपान्त्य०" ५।११५४ इति के विदः । णौ " साहिसाति०" ५।१५९ इति शे वेदयः । विपि वित् , वेदवित् । “तत्र क्वसु०" ५।२।२ इति क्वसौ विविद्वान् । " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इट: “घसेकस्वरा०" ४।४।८२ इति नियमादत्राऽभावः । “गमहन०" ४।४।८३ इति वेत्तेः अपि वेट इत्येके, तन्मते विविदिवान् , विविद्वान् । “ वा वेत्तेः क्वसुः" ५।२।२२ विद्वान् , विदन् । " वेत्तिच्छिद०" ५।२।७५ इति किति घुरे वेदनशीलो विदुरः । “विन्द्विच्छू" ५।२।३४ इति निपातनाद् उः, वेदनशीलो विन्दु । घनि वेदः । स्त्रियां भावाकोंः नाम्नि " समज०" ५।३।९९ इति क्यपि विद्या । “णिवेच्या०" ५।३।१११ इत्यने वेदना । करणाधारे पुनाम्नि " व्यञ्जनाद्" ५।३।१३२ इति घनि वेदः । " विदगभ्यः" ५४५४ इति णमि अतिथिवेदं भोजयति । उणादौ " विदिभिदि० " ( उ० २३४ ) इति कित्यथे विदथो ज्ञानी । “विदिवृत्तेर्वा" ( उ० ६१० ) इति वा किद् इ., विदिः शिल्पी, वेदिः इज्यादिस्थानम् । " अस् " ( उ० ९५२ ) इत्यसि नखादित्वात् अदभावे नवेदाः, सर्ववेदाः, सर्वस्वदक्षिणक्रतुयाजी । यस्तु ओष्ठयादिः जलकणवाची 'बिन्दुः स विन्देः " भृमृत." ( उ० ७१६ ) इत्यो । विदिच सत्तायाम् [३३११५] विद्यते । विद्लन्ती लाभे [५।८ ] विन्दते, विन्दति । विदिप विचारणे [ ६.२५] विन्ते । विदिण चेतनाख्याननिवासेषु [ ९।२४२ ] वेदयते ॥
१. उणादि विवरणे विदु अवयवे, विन्दुः विप्लुट् । अ. चि. टीकायां 'बिदु अवयवे बिन्दति, बिन्दुः, पुंलिङ्गः, "भृमृत" ( उणा० ७१६) इत्युः [ ॥१५५ ] धातु पाठे १।३१० विदु अवयवे इत्यस्ति ॥
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४२ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
अथ नान्तोऽनिट् च ॥ * ४२ हनक हिंसागत्योः' । हन्ति । " नेमादा०" २३७९ इति नर्णत्वे प्रणिहन्ति चौरस्य । अत्र " निप्रेभ्यो" २२।१५ इति वा कर्मणः कर्मत्वे " शेषे " २२।८१ इति षष्ठी । " यमिरमि०" ४।२।५५ इति नस्य लुकि हतः । “गमहन०" ४।४।८३ इत्युपान्त्यलुकि " हनो हो." २०११११२ इति नि नन्ति । " हनः" २।३८२ इति णत्वे प्रहण्यते । “वमि वा" २।३।८३ इति वा णत्वे प्रहण्वः, प्रहन्वः; प्रहमि, प्रहन्मि । “ हनो घि" २।३९४ इति णत्वप्रतिषेधे प्रघ्नन्ति । “आडो यमहनः०" ३३८६ इति आत्मनेपदे कर्मण्यसति आहते । स्वाङ्ग कर्मणि आहते शिरः । “नेह आहन्ति शिरः शत्रोः" । "क्रियाव्यतिहारे०" ३।३।२३ इत्यत्र गतिहिंसार्थवर्जनात् " शेषात् परस्मै" ३।३।१०० इति परस्मैपदे व्यतिघ्नन्ति । " जिणवि०" ४।३।१०१ इति पनि जघान, जघ्नतुः, जघ्नुः । थवि " सृजिदृशि०" ४४७८ इति वेटि “ अड़े हि०" ४।११३४ इति हस्य घत्वे जघनिथ, जघन्थ । “गमहन." ४।४८३ इति क्वसौ वेटि जनिवान् , जघन्वान् । अनुस्वारेत्वान्नेट् , हन्ता, हतः । " हनृतः स्यस्य" ४।४४९ इति इटि हनिष्यति । " शाशस्०" ४।२।८४ इति ह्यन्तस्य, जहि शत्रून् । यङ्लुप्यपि जहि । यङ्लुपि नेच्छन्त्येके, तन्मते "यमिरमि०" ४।२।५५ इति नलुकि जक्चहि । ये तु " तिवाशवा०" [न्याय० १८] इति न्यायस्य सूत्रगणनिर्दिष्टेऽपि प्रवृत्यभ्युपगमात् “ यमिरमि० " ४।२।५५ इति लुगभावं, विङति " अहन्पश्चम०" ४।११०७ इति हन्तेरपि दीर्घत्वं चेच्छन्ति तेषां मते जङ्घांहि । भावकमणोः " स्वरग्रह" ३।४।६९ इति वा जिटि घानिष्यते त्वया, पक्षे हनिष्यते । “हनो वध०" ४।४।२१ इति वधे वध्यात् । हन्यात् इति तु सप्तम्यां भिवर्जनात् जिटि वधाऽभावे घानिषीष्ट । “ अद्यतन्यां वा०" ४।४।२२ इति वधे अनुस्वारेन्वेऽप्यनेकस्वरत्वात् इटि " स्वरस्य परे०" ७१४।११० इत्यल्लुकः स्थानित्वात् " व्यञ्जनादे० " ४।३।४७ इति वा वृद्धयभावे अवधीत् । वा त्वात्मने आवधीष्ट । पक्षे “ हनः सिच्" ४।३।३८ इति सिचः कित्वात् “ यमिरमि०" ४।२।५५ इति नो लुकि आहत । सनि " स्वरहन " ४१११०४ इति दीर्धे जिघांसति । यङि " हनो नीर्वधे" ४।३।९९ जेनीयते । वधादन्यत्र जङ्घन्यते । "चराचर०" ४।१।१३ इत्यपि वा निपातनात् , घनाघनः पक्षे हनः " णिति घात् " ४३१०० पातयति । " हत्याभूयं भावे" ५११३६ इति
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आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४२
निपातनात क्यपि हत्या, ब्रह्महत्या । कर्मणि “ ऋवर्ण" ५।१।१७ इति ध्यणि घात्यः । “आशिषि०" ५।११८० इति डे शत्रु वध्यात् , शत्रुहः । " क्लेशादिम्यो ऽपात् " ५।११८१ क्लेशापहः, तमोपदः । " कुमारशीर्षाण्णिन् " ५।११८२ कुमारघाती, शीर्षघाती । “अचित्ते टक् " ५।१।८३ पित्तघ्नं घृतम् , वातघ्नं तैलम् । " जायाफ्तेचिह्नवति" ५।१६८४ जायाघ्नो द्विजः, पतिघ्नी कन्या । "ब्रह्मादिभ्यः" ५।१८५ ब्रह्मनः, शत्रुध्नः । बाहुलकात् संप्रदानेऽपि गां हन्ति यस्मै दातुं स गोध्नोऽतिथिः । " हस्तिबाहुकपाटाच्छक्ती" ५।१।८६ हस्तिघ्नः, बाहुना, क्रपाटनः मल्लः । शक्तेरन्यत्र हस्तिघातो रसदः, एवं बाहुघातः, कपाटघातः एषु “कर्मणोऽण" ५।१।७२ इति अणू । “नगरादगजे" ५।११८७ नगरध्नः अरिः । गजे तु नगरपातः । “ राजघः" ५।११८८ राजानं हन्ति राजधः । "पाणिघताडघौ शिल्पिनि" ५।११८९ पाणिघः, ताडघः शिल्पी चेत् , अन्यत्र कर्मणोऽणि पाणिघात:, ताडघातः। एवं दार्वाधातः, चार्वाघातः, वर्णसंघातः । दार्वाघाटः, चार्वाघाट:, वणसंघाट इति तु घटतेर्हन्तेरेव वा पृषोदरादित्वात् । “हनो णिन् " ५।१६१६० पिघाती, मातुलघाती । " ब्रह्मभ्रूण" ५।१।१६१ इति भूते विपि बाहा, भ्रूणहा, वृत्रहा । " क्वचित् " ५।१।१७१ इति डे वरमाहन्ति वराहः, पटे हन्यते पटहः, कलं हन्ति कलहः । “ युजभुज० " ५।२१५० इति घिनणि अभ्याहननशील: अभ्याघाती । “ शकम०" ५।२।४० इत्युकणि आघातशीलः आघातुकः । " हनोऽन्तर्घनान्तर्षणौ देशे " ५३।३४ अन्तहन्यते यस्मिन् अन्तर्घनः, अन्तर्पणो वा देशः; अन्तर्घातोऽन्यः । “ प्रघणप्रघाणो गृहाशे " ५।३।३५ प्रघणः, प्रघाणश्च द्वारालिन्दकः । “निघोद्घसंघोद्धनापधनोपघ्नं निमितप्रशस्तगणात्याधानाऽङ्गाऽऽसन्नम्" ५।३।३६ निघा वृक्षाः, निघाः शालयः, उद्घो मनुष्यः प्रशस्त इत्यर्थः । " मूर्तिनिचिताभ्रे घनः" ५।३।३७ दध्नो घनः काठिन्यमित्यर्थः । धनं दघि इति गुणवचनत्वात् घनं निचितम् , घनः अभ्रम् । “व्ययोद्रोः करणे" ५।३।३८ विधनः, अयोधनः, द्रुधनः । अरीहणादिपाठाद् णत्वे द्रुघणः । “ स्तम्बाद् घनश्च" ५।३।३९ स्तम्बघ्नो दण्डः, स्तम्बधनः । “ परेघः" ५।३।४० परिधः । "परे० " २।३।१०३ इति लत्वे पलिघः । “ स्थादिभ्यः" ५।३।८२ इति के विहन्यते अनेन विघ्नः । " हनो वा वध च" ५।३।४६ इति वालि वधः
घातः । वध्य इति वधे यणि, "न, जन" ४१३५४ इति वृद्धिप्रतिषेधाद् ' वधमर्हति इति वा दण्डादेः ये । “ सातिहेति." ५।३।६४ इति क्तो
निपातनात् हेतिः । “ हनश्च० " ५।४।६३ इति णमि समूलघातं हन्ति ।
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४३ ] धातुपारायणे अदादयः (२) "करणेभ्यः " ५।४।६४ उपलपातं हन्ति । " हिंसार्थादे०" ५।४।७४ इति णमि दण्डोपघातं गाः कालयति । " तृतीयोक्तं वा" ३३११५० इति वा समासः पक्षे दण्डेनोपघातम् । णौ करणेऽनटि परिघातनः, परिघः । उणादौ " कीचकपेचक०" ( उ० ३३) इत्यके निपातनाद् वधक: हन्ता, व्याधिश्च; वधकं पद्मबीजम् । बाहुलकादन्यत्रापि वधाऽऽदेशः । लिहायचि वृत्रवधः शक्रः । वधिता, वध्यः, वधनम् । “सीमन्त" ( उ० २२२) इत्यन्ते निपातनात् हेमन्तः । "नीनगमि." ( उ० २२७ ) इति किति थे हथः पन्थाः कालश्च । " हनेर्पतजघौ च" (उ० २७२) इति अने घतनः पापः, जघनं श्रोणिः । हिमम् हेमम् इति तु "क्षुहिन्यां वा" ( उ० ३४१) इति वा किति मे हिनोतेः । “कोरचोर०" ( उ० ४३४ ) इति ओरे निपातनात् घोरः भीमः । " मावावद्य० " ( उ० ५६४) इति से हंसः । " कमिवमि० " ( उ० ६१८) इति णिदिः, घातिः प्रहरणम् । बाहुलकाद् घातादेशाभावे हानिः उच्छित्तिः, तत एव वा 'णिवे हनिः आयुधम् । " हन्तेरंड च" ( उ० ६५४) इति अतो अंहतिः व्याधिः, रथश्च । “कृहने:०" (उ० ७९१) इति तुकि हतुः हिमम् , नुकि बाहुलकात् नलुकि च हनुः कपोलाऽधः । अनेहा इति तु " नत्र ईहेरेहेधौ च" ( उ० ९७५) इत्यसि ॥
अथ शान्तः सेट् च ॥ _ '४३ वशक कान्तौ' । कान्तिः इच्छा । “यजसृज." २०११८७ इति पत्वे वष्टिः । " वशेरयडि" ४११८३ इति स्वृति उष्टः, उशन्ति । शतरि उशन् , उशती । ऊशतुः, ऊशुः । " यजादिवश० " ४।१।७२ इति पूर्वस्य वृति उवाश । या वर्जनाद् वृदभावे पावश्यते । क्ये उश्यते । वशिता । ते उशितः । णौ नन्द्याद्यने वाशनः । “ युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि वशः । “ साक्षादादि०" ३।१।१४ इति वा गतित्वे वशेकृत्य वशे कृत्वा गतः; गणनिर्देशात् सप्तम्यलुप् । उणादौ " घसिवशि० " ( उ० ४१९) इति किति ईरे उशीरं वरणीमूलम् । "वशेः कित्" (उ० ८७६ ) इति इजि उशिक कान्तः, उशीरं च । “वष्टे: कनस् " ( उ० ९८५) उशनाः शुक्रः । वशिघसी छान्दसौ इत्यन्ये । भाषायामपि प्रयोगदर्शनादत्रोपात्तौ ॥ १. अणिदिकारपक्षे इत्यर्थः ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४४
अथ सान्तौ द्वौ सेटौ च ॥ '४४ असक भुवि ' । भवनं भूः सत्ता । अस्ति, असि । " नास्त्यो: " ४।२।९० इत्यल्लुकि स्त:, सन्ति । " प्रादुरूपसर्गाद्" २।३५८ इति सस्य षत्वे प्रादुःण्यात् , प्रादुःषन्ति, अभिष्यात् , अभिषन्ति, निषन्ति, विषन्ति । “क्रियाव्यतिहारे." ३।३।२३ इति आत्मनेपदे " अस्तेः सि." ४३७३ इति सो लुकि व्यतिसे, हस्त्वेति व्यतिहे । " धातोरनेक० " ३४४६ इत्यत्र भ्वस्त्योः एकतरानुप्रयोगेणैव साध्यस्य सिद्धेः उभयोरुपादानात् अस्तेः 'म्बादेशाऽभावे चकासामाहे चैत्रेण । " शाससू० " ४।२।८४ इति ह्यन्तस्य एघिः, एधि । दिवि "सः सिजस्तेः०॥ ४।३।६५ इति ईति आसीत् । अद्यतन्याम् “ अस्तिब्रुवो:०" ४।४।१ इति म्वादेशे “ पिबैति०" ४।३।६६ इति सिजलुपि इडभावे च "भवतः०" ४।३।१२ इति गुणाभावे अभृत , अभृताम् । “भुवो वः०" ४।२।४३ इत्युपान्त्यस्य ऊत्वे " सिज्विदो०" ४।२।९२ इत्यत्र भुवो वर्जनाद् अन: पुसभावे च अभूवन् । णवि द्वित्वे " भूस्वपो:०" ४|११७० इति पूर्वस्य उतः अत्वे - " नामिनो०" ४३५१ इति वृद्धौ आवादेशे “भुवो वः०" ४।२।४३ इत्युपान्त्यस्य ऊत्वे च बभूव । किति “धातोरिवॉ०" २२११५० इत्युवि उपान्योत्वे च बभूवतुः, बभूवुः । शतरि सन् , सती । अशिति " अस्तित्रुवोः०" ४।४।१ इति भूः, भविता, भविष्यति । क्तयोः “ ऋवर्णश्रूयू." ४।४।५७ इत्यधिकृत्य " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट , भूत:, भृतवान् । " य एचातः" ५।१।२८ इति ये “य्यक्थे " १।२।२५ इत्यवि च भव्यम् । “ कृम्वस्तिभ्यां०" ७५२।१२६ इति च्वौ शुक्लीस्याद् वस्त्रम् । असी गत्यादानयोश्च [ ११९३२ ] असते, असति, आस । असूच क्षेपणे [ ३१७८ ] अस्थति, अपास्थत् ॥
'४५ षसक स्वप्ने' । “षः सो." २।३।९८ इति सत्वे सस्ति, सस्तः, ससन्ति, ससास । “ अनादेशादेः०" ४।१।२४ इत्येत्वे द्वित्वाभावे च सेसतुः, सेसुः । ससिता, ससितम् । षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सिषासयिषति । उणादौ "पसेणित् " ( उ० २५९) इति ने सास्ना । " स्थाछामा०" (उ० ३५७) इति ये सस्यम् ॥ . यङ्लुक् च' । सर्वे धातवो यङ्लुचन्ताः किकरणाद् अदादौ, परस्मैपदिनश्च । “कर्यनयः " ३।४७१ इत्यत्र अदादिवर्जनात् शवभावे "शेषात्" ३।३।१०० इति परस्मैपदे “ यजुरुस्तोर्बहुलम् " ४।३६४ इति ईति बोभवीति,
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४६ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
बोभोति; पापचीति, पापक्ति; वावदीति, वावत्ति; पास्पर्धीति, पास्पर्धि ।
" क्रियाव्यतिहारे" ३।३।२३ इत्यात्मनेपदे "शीडा रत्" ४।२।११५ इत्यत्र कित् निर्देशेन यङ्लुबन्तस्याऽग्रहणाद् अन्तो रदाऽऽदेशाऽभावे " अनतो." ४।२।११४ इत्यति “ योऽनेकस्वरस्य " २२११५६ इति यत्वे च व्यतिशेश्यते । “शीङ ए." ४।३।१०४ इत्यत्रापि ङित् निर्देशात् “ 'तिवा शवा०" [ न्याय० १८] इति यङ्लुबन्तस्याऽग्रहणम् । तेन एर्नास्ति । यङ्लुबन्तमात्मनेपदे न प्रयुज्यत इत्येके । भावकर्मणोः आत्मनेपदे न प्रयुज्यत इत्यन्ये । यङ्लुबन्तस्य चर्करीतं चर्करीतिश्च पूर्वेषां संज्ञा । यङ्लुबन्तं छन्दसि एवेति केचित् ॥
अथाऽऽत्मनेपदिनः ॥ - ४६ इंक अध्ययने' । इडिकोः अधिना अवश्यंभावी योगः । 'यदाह " कश्चित्तमनुवर्तते" । ङित्वाद् “ इङितः०" ३३।२२ इत्यात्मनेपदे अधीते, मधीयाते, अधीयते । “ गाः परोक्षायाम् " ४।४।२६ अधिजगे । अत्र 'परोक्षाविषये गाः, तेन प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः इति प्रागेव द्वित्वं न भवति । " णौ सन्डे वा" ४।४।२७ अधिजिगापयिषति, अध्यजीगपत् , पक्षे " णौ क्रीजीडः" ४।२।१० इत्यात्वे, “अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ च अध्यापिपयिषति, अध्यापिपत् । “ वाद्यतनीक्रियातिपत्योर्गीङ्" ४।४।२८ अध्यगीष्ट, अध्यगीष्यत; पक्षे " स्वरादेस्तासु" ४।४।३१ इति वृद्धौ अध्यैष्ट, अध्यैष्यत । “ "सनीङश्च" ४।४।२५ इति गमौ " स्वरहन० " ४।१।१०४ इति दीर्घ च अधिजिगांसते । अनुस्वारेचान्नेट , अध्येता, अध्येतुम् । “गमोऽनात्मने" ४।४।५१ इति सादेरादिरिद, अधिजिगमिषितव्यम् । “य एञ्चातः" ५।१।२८ इति ये अध्येयम् । णके अध्यायकः । ण्यन्तात् णके अध्यापकः । “कर्मजा तृचा च" ३११८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः साध्वध्यापकः । क्ते अधीतम् । “इष्टादेः"
१. तिथा १, शवा २, ऽनुवन्धेन ३, निर्दिष्टं यद्गणेन ४ च । एकस्वरनिमित्तं ५ च पञ्चैतानि न यङ्लुपि ॥ (न्याय० १८) ।
२. तु. यदाहुः "धात्वर्थ बाधते कश्चित् , कश्चित्तमनुवर्तते । तमेव विशिनष्ट्यन्योऽनर्थकोऽन्यः प्रयुज्यते"। ( है. प्र. पृ. ६५३)। अन्यत्र तु इत्थमुत्तरार्ध दृश्यते, "विशिनष्टि तमेवार्थमुपर्गगतिस्त्रधा । (क्षी. त. पृ. १७६ टि. )॥
३. परोक्षायां विं इति मु०॥ ४. सनीश्व इति मु० ॥
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१८२]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४६७।१।१६८ इति इनि अधीती शास्त्रे, अत्र “व्याप्ये तेनः" २।२।९९ इति द्वितीयापवादः सप्तमी । मनि अध्येमा । विचि अध्यैः । विपि अधीत् । "धारीोऽकृच्छेतृश" ५।२।२४ अधीयन् सिद्धान्तम् । अत्र " 'तन्नुदन्ता." २।२।९० इति प्रतिषेधात् "कर्मणि कृतः" २२६८३ इति षष्ठी नास्ति । "युवर्ण० " ५।३।२८ इत्यलपवादे " इडोऽपादाने तु टिद् वा" ५।३।१९ इति पजि उपाध्यायः, स्त्री चेत् उपाध्याया। टिव पक्षे " अणयेजे०" ४।२० इति ज्याम् उपाध्यायी । “ पुनाम्नि" ५३।१३० घाऽपवादे "न्यायावाया." ५।३।१३४ इति पनि अधीयते अस्मिन् इति अध्यायः ॥
___४७ शीफू स्वप्ने' । "शीङ ए: शिति" ४।३।१०४ शेते शयाते । " शीडो रत्" ४।२।११५ इत्यन्तो रति शेरते । “ अधेः शी ” २।२।२० इत्याधारस्य कर्मत्वे ग्राममधिशेते । " क्ङिति यि शय् " ४।३।१०५ शय्यते अधिशय्य गतः । यङि शाशय्यते । यङलुपि शेशेति, शेशयीति । शिश्ये, शयिता, शयितुम् । " य एच्चा० " ५।१।२८ इति ये शेयम् । अचि शयः । “पार्थादिभ्यः शीङः" ५।१११३५ इति अः, पार्श्वशयः । " उर्धादिभ्यः कर्तुः " ५।१।१३६ उर्ध्वशयः, उत्तानशयः । “ आधारात् " ५।१।१३७ खशयः, गिरिशयः । गिरिश इति त लोमादित्वान्मत्वर्थीये शे। "व्रता०" ५।१११५७ इति णिनि स्थण्डिलशायी । " श्लिषशी" ५।११९ इति साप्यादपि वा कर्तरि ते " न डीशीङ्" ४।३।२७ इति कित्त्वप्रतिषेधाद् गुणे उपशयितो गुरुं शिष्यः, पक्षे कर्मणि क्ते उपशयितो गुरुः शिष्येण । “ शीश्रद्धा०" ५।२।३७ इत्यालो शयनशीलः शयालुः । " युवर्ण० " ५।३।२८ इति अलि संशयः " व्युपाच्छीङः" ५।३।७७ इति घनि तव विशायः, मम विशायः; तव राजोपशायः, मम राजोपशायः । " समज०" ५३९९ इति क्यपि शेरते अस्यामिति शय्या । आधारे अनटि शयनम् । शवानां शयनम् स्मशानमिति पृषोदरादिः। उणादौ "शीभी." ( उ० ७१ ) इति आनके शयानकः अजगरः शैलश्च । शिखा शाखा इति तु " श्यतेरिच वा" (उ० ८५) इति खे श्यतेः । " शीरी०" ( उ० २०१) इति किति ते शीतम् । “दपृभृ०" (उ० २०७) इत्यते शयतः निद्रालु: चन्द्रश्च । “ न्युद्भ्यां शीङः " ( उ० २२८ ) इति किति थे निशेरते अस्मिन् इति निशीथः अर्धरात्रः रात्रिः प्रदोषश्च । उच्छीथः स्वप्नः टिटिभश्च । “भृशीशपि०"
१. तृनु इति मु० ॥
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१८३
४९ ] धातुपारायणे अदादयः (२) (उ० २३२ ) इति अथे शयथः अजगरः । “ जीणशीदी." ( उ० २६१) इति किति ने शीनः पीलु: । " शीङः सन्वत्" (उ० २६७) इति डिति ने शिश्नम् मेदम् । “ भाषा०" (उ० २९६) इति पे शेपः पुच्छम् । “रीशीभ्यां फः" ( उ० ३१४) शेफः मेढ़म् । “ शुकशीमूभ्यः कित्" ( उ० ४६३ ) इति ले शीलम् । “ शीङस्तलपालवालणवलण्वलाः " ( उ० ५०१) शीतलम् अनुष्णम् , शेपालम् , जपादित्वाद् वत्वे शेवालम् , शैवालम् , शैवलम् , शेवलं च जलमलः । " शीङापो हुस्वश्च वा" ( उ० ५०६) इति वे शिवम् भद्रम् , शिवा पथ्या, शेवम् धनं सुखं च; शेवः अजगरः, शेवा 'प्रचला निद्राविशेषः । “भृमृत." ( उ० ७१६) इति उः, शयुः अजगरः । " शीडो धुक्" ( उ० ७८४ ) शीधुः । "शीङः फस् च " ( उ० ९८२) इति फसि पसि च शेफः शेपश्च मेदम् । शेखरशिखरौ तु " शाखेरिदेतौ चातः " ( उ० ४०० ) इत्यरे शाखेः ॥
दीधील दीप्तिदेवनयोः । वेवीङ् वीसमानार्थः एतावपि केचित् पठन्ति, छान्दसत्वात्तु उपेक्षितौ ॥
___ ४८ हुनुकू अपनयने' । अपनयनम् अपलापः । “मनयवल." १।३।१५ इति मः अनुनासिकाउनुस्वारयोः किन्हुनुते, कि हुनुते । "श्लाघहुनुस्था०" २।२६० इति. चतुर्थी चैत्राय निनुते । जुनुवे । यङि जोहनूयते । अनुस्वारेचान्नेट, होता, ह्रोतव्यम् । “य ऐच्चा० " ५।१।२८ इति ये हव्यम् । " उवर्णात्" इति ध्यणि हाव्यम् अवश्यम् । “युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि अपहवः ॥
अतः परमूदन्तः सेट् च ॥ '४९ घूडौक् प्राणिगर्भविमोचने' । “षः सो० " २।३।९८ इति सत्वे सूते, सुवाते, 'सुवते । “ सूतेः पञ्चम्याम् " ४।३।१३ इति गुणाभावे " धातोरिवर्णो." २१११५० इत्युवि सुवै, सुवावहै, सुवामहै । षोपदेशन्वात् “नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सुषुवे । क्ये सूयते । णौ सनि सुषावयिषति । औदित्वात् वेटि सोता, सविता । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट् , सूनः, सूनवान् । युवती " भोजस्तयोः०" ०४८१ इत्यन्तस्य ध्ये सूत्या । युवतेरन्यत्र " कुत्सिता." ७३।३३ इति कपि " द्वथेष०" २।४।१०९ इत्यतो वेत्वे सूतिका, सूतका । तो
१. प्रबला इति मु.॥ २. जुनुते इति मु० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रधिरचिते [ धा० ४९
सूतिः । " निर्दुःसुवेः०" २३५६ इति षत्वे निःषतिः, दुःषतिः, सुषतिः । सूत्वा । “संचाय्य०" ५१।२२ इति ध्यणि निपातनाद् राजस्यः क्रतुः । विपि सः, प्रमूः, अण्डसूः, शतमः । “प्रात्सुजोरिन् " ५।२।७१ इत्यत्र 'मृतेरपि ग्रहणमित्येके, प्रसवशीलः प्रसवी । “क्लीबे०" ५।३।१२३ इति क्ते सूतम् । स्वार्थे के सूतकम् । उणादौ "ऋज्यजि०" (उ० ३८८ ) इति किति रे सूरः । " *सुवः कित्" ( उ० ७८८ ) इति नौ सूनुः । पूडोच् प्राणि प्रसवे [३९९] सूयते । पूत् प्रेरणे [५।१८ ] सुवति ॥
अथ चान्तः सेट् च ॥ ___ ५० पृचङ ५१ प्रजुङ ५२ पिजुकि संपर्चने ' । संपर्चनं मिश्रणम् । पृक्त संपृक्ते । क्ये संपृच्यते । संपपृचे, संपचिंता, संपचितुम् , ऐदित्वात् क्तयोर्नेट , संपृक्तः संपृक्तवान् । “ऋदुपान्त्या." ५१२४१ इति क्यपि संपृच्यः । घनि "क्तेऽनिट० " ४१११११ इति कत्वे संपर्कः। संपृक्तेरपि “समः पृचैप्० " ५।२।५६ इति घिनण इत्येके, तन्मते संपर्चनशीलः संपर्की । अयं पृजङ इति कौशिकः, पृक्ते । प्रचैप् संपर्के [६।१० ] पृणक्ति ॥
अथ जान्ताः पञ्च सेटश्च ॥ '५१ पृजुङ्' । उदित्वान्ने पृक्ते, पृआते, पृअते, पपृजे, पृश्रिता, पृअितुम् ॥
'५२ पिजुकि' । उदित्चान्ने पिङ्क्ते, पिनाते, पिझते, पिपिझे, पिलिता, पिअितुम् । यङि पेपिञ्ज्यते । यङलुपि पेपिति, पेपिनीति । घजि न्ययादित्वाद् गत्वे पिङ्गः । उणादौ "ऋच्छिचटि०". ( उ० ३९७) इति अरे पिअरः । "पिभिमनि" ( उ० ४८८ ) इति ऊले पिजूलः हस्तिवन्धनपाशः । वर्णाऽ.
र्थोऽयमित्येके, अव्यक्तशब्दार्थ इति कौशिकः । पिजुण हिंसादौ भासार्थश्च [९।२०८], पिञ्जयति ॥
'५३ वृजकि वर्जने' । वृक्ते, वृजाते, वृजते, ववृजे, वर्जिता, वर्जितुम् । ऐदिचात् क्तयोर्नेट , वृक्तः, वृक्तवान् । वृजेण बजने [ ९।३८९ ] युजादित्वाद् वा णिचि वर्जयति वर्जति ॥
१. सेतोपि इति मु०॥ २. "सूङः कित्" इति उणादिसूत्रे पाठः ॥ ३. पृचि इति कौशिकः, पृक्ते (क्षी. त. १७०)।
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५७ ] धातुपारायणे अदादय: (२)
[ १८५
"
44
"
५४ णिजुक शुद्ध ' । " पाठे० " २|३|९७ इति णस्य नत्वे, उदिखाने च निङ्क्ते, निञ्जते । गोपदेशत्वात् अदुरुपसर्गा० २।३।७७ इति णे प्रणिङ्क्ते । निनिओ, निञ्जिता, निक्षितुम् ॥
शिक्ते,
५५ ' शिजुकि अव्यक्ते शब्दे ' । तालव्यादिः । उदिवाने शिञ्जाते, शिजते । आनशि शिञ्जानः । शिशिजे, शिञ्जिता, शिञ्जितुम् । ङि शेशिज्ज्यते । यङ्लुपि शेशिञ्जीति, शेशिङ्कि । ग्रहादित्वाद् णिनि शिञ्जिनी | क्लबे के शिञ्जितम् ||
अथ डान्तः सेट् च ॥
' ५६ 'ईडिक् स्तुतौ ' ।
"
" अघोषे० " १।३।५० इति डस्य प्रथमत्वे, " तवर्गस्य ० १|३|६० इति तस्य त्वे च ईटूटे, ईडाते, ईडते । " ईशीड : ० " ४४८७ इति इटि ईडिषे, ईडिध्ये, ईडिष्व, ईडिध्वम् । स्वसहचरितस्य वमो ग्रहणाद् ह्यस्तनीध्वमीडभावे ऐवम् । " गुरुनाम्यादेः ० " ३|४|४८ इति परोक्षाया आमि ईडाञ्चक्रे । ईडिता, ईडितुम् । ॠवर्ण ० " ५।१।१७ इति ध्यणि ईड्यः । ईडितः । “ केटो० " ५|३ | १०६ इत्यः, ईडा । पृषोदरादित्वाद् हस्वे इडा भूः । उणादौ " म्लेच्छीडेहूस्वश्च वा ( उ० ३ ) इत्यः, इड: ईडश्च देवविशेषः; इडा ईडा च भूः ॥
"
27
अथ रान्तः सेट् च ॥
4
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16
99
66
29'
66
66 ५७ ईरिक गतिकम्पनयोः । ईतें, ईराते, ईरते । वईते । गुरुनाम्यादे: ० " ३ | ४ | ४८ इत्यामि ईराश्चक्रे । ईरिता, ईरितुम् । " ॠवर्ण ० " ५।१।१७ इति ध्यणि ईर्यः । 'नाभ्युपान्त्य ० ५/१/५४ इति के ईरः । अजातेः ० ५।१।१५४ इति णिनि, स्वैरस्वैरी० " १।२।१५ इति स्वस्य अतः ता सह ऐत्वे स्वैरी । उणादौ तकश० ( उ० १८७ ) इत्यणे समीरणः । " कफादीरेले च " ( उ० ८३९) इत्यूः, कफेलूः श्लेष्मातकः । ईश्णू क्षेपे [ ९।४०८ ] युजादित्वाद् वा णिचि ईश्यति, ईरति ॥
46
"
દદ
१. सिजि इति काशकृत्स्न: । (का. धा. पृ. १२६ ) ॥
२. ईड - ईल स्तुतौ इति काशकृत्स्नः । ( का० धा० पृ० १२५ ) ॥
३. ईर गतौ इति क्षीरस्वामी । (क्षी त. पृ. १६८ ) ॥
૨૪
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१८६
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ५८
अथ शान्तः सेट् च ॥ ' ५८ ईशिक् ऐश्वर्य' । " स्मृत्यर्थः " २।२।११ इति वा कर्मणः कर्मत्वे, " शेषे० " २।२।८१ इति षष्ठयां भुव ईष्टे, भुवमीष्टे । “ईशीड०" ४।४।८७ इति इटि ईशिषे, ईशिध्वे, ईशिष्व, ईशिध्वम् । स्वसाहचर्येण पञ्चमीचमो ग्रहणात् ह्यस्तनीध्वमीडभावे " यजसृज० " २।११८७ इति शस्य षत्वे, " तवर्गस्य." ११३६० इति धस्य ढत्वे, “ तृतीयस्तृतीय० ॥ १२३४९ इति षस्य डत्वे " स्वरादेस्तासु" ४।४।३१ इति वृद्धौ ऐड्वम् । “ गुरुनाम्यादेः०" ३४।४८ इति परोक्षाया आमि ईशाञ्चके । ईशिता, ईशितम् । “ नाम्युपान्त्य" ५।१।५४ इति के ईशः । आनशि ईशानः । “ स्थेश० " ५२।८१ इति वरे इष्टे इत्येवंशीलः ईश्वरः । स्त्रियामापि ईश्वरा । ईश्वरी इति तु " अश्नोतेरीच्चादेः" ( उ० ४४२ ) इति वरटि ड्याम् । क्ते ईशितः । "क्तेटो०" ५।३।१०६ इत्यः० ईशा । उणादौ " युयुजि०" (उ० २७७ ) इति किति आने ईशानः ।।
अथ सान्ताः पञ्च सेटश्च ॥ '५९ वसिक आच्छादने' । वस्ते पटम् । क्थे वस्यते । “ अनादेशादेः " ४।१।२४ इति एत्वस्य द्वित्वाभावस्य च “न शस०" ४१३० इति प्रतिषेधे ववसे, ववसाते, वसिरे । वसितः, वसितवान् । आनशि वसानः । करणेऽनटि . वसनम् । " इडितो." ५।२।४४ इत्यने वसनशीलो वसनः । वसित्वा । उणादौ " प्लुज्ञा० " (उ० ६४६) इति तौ वस्तिः मूत्राधारश्चर्मपुटः । “ट्" (उ० ४४६ ) इति टि वस्त्रम् । " वस्त्यगिभ्यां णित् " ( उ० ९७०) इति असि वासः । वसं निवासे [ ११९९९ ] वसति, वस्ता, उषितः, उपित्वा ।।
'६० आङ:- शासूकि इच्छायाम् ' । आङ इति आङपूर्व एवायं प्रयोज्यो न केवलो नाप्यन्योपसर्गपूर्व इत्येवमर्थम् । “क्वौ" ४।४।११९ इत्येव सिद्धे "आङ:०" ४।४।१२० इति वचनं यावेवाङपूर्वस्य शास्तेः आस इसिति नियमार्थम् । तेन " इसासः शासो०" ४।४।११८ इति इसमावे आशास्ते । क्ये आशास्यते । " शास्त्यमुवक्ति०" ३।४।६० इत्यत्र शास्तेः एव ग्रहणात् अङभावे आशाशिष्ट । " उपान्त्यस्या०" ४।२।३५ इत्यत्रापि शास्तः एव प्रतिषेधात् णौ . इस्वे १. अन्ये तु आपुर्वकत्वं प्रायिकं, तेन प्रशास्महे इत्यपि सिद्धमित्याहुः
(है. प्र. पृ. ६५७) ॥
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६३ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
[ १८७
आशीशसत् । अस्यापि हस्वप्रतिषेध इत्यन्ये, तन्मते आशशासत् । आशासिता, आशासितुम् । ऊदिचात् क्त्वि वेट , अत एव चोत्तरपदान्तस्यापि कृत्वो यबभावः । यपि हि स्ताद्यशिदभावादिटः प्राप्तिरेव नास्ति आशास्त्वा, आशासित्वा । यपमेव इच्छन्त्येके आशास्य । अनू दिदयमित्यन्ये । वेटत्वात् क्तयोर्नेट् , आशास्तः, आशास्तवान् । येषां नोदित् तन्मते वेट्त्वाभावाद् इटि आशासितः, आशासितवान् । " इडितो." ५।२।४४ इत्यने आशासनशीलः आशासनः । “क्रुत्संपदा० " ५।३।११४ इति विपि आशीः । “ श्रवादिभ्यः" ५।३।९२ इति क्तौ आशास्तिः । शासक् अनुशिष्टौ [ २।३७ ] शास्ति, शिष्यते, अशशासत् ॥
'६१ आसिक उपवेशने' । आस्ते । “कालाव" २२।२३ इति कर्मत्वे मासमास्तें । " अधेः शी० " २२।२० इति आधारस्य कर्मन्वे ग्राममध्यास्ते । " दयाया०" ३।४।४७ इति आमि आसाश्चक्रे । “गत्यर्थाकर्मक०" ५।१।११ इति वा कर्तरि क्ते आसितश्चैत्रः । पक्षे भावे आसितं चैत्रेण । साप्यात् " श्लिषशीङ" ५१९ इति वा कर्तरि क्ते उपासितो गुरुं शिष्यः, पक्षे कर्मणि उपासितो गुरुः शिष्येण । आसिता, आसितुम् । आनशि निपातनाद् आसीनः । "आस्यटि." ५।३।९७ इति क्यपि आस्या । “णिवेच्या०" ५।३३१११ इति अने आसना, उपासना । " वादिभ्यः" ५।३।९२ इति क्तौ उपास्तिः ॥ . '६२ कसुकि गतिशातनयोः' । उदित्वान्ने कंस्ते, चकंसे, कंसिता । यति चाकंस्यते । 'यङ्लुपि चाकंस्ति, चाकंसीति । अचि घनि वा कंसः । “क्तेटो०" ५।३।१०६ इति अः, कंसा ॥
६३ णिसुकि चुम्बने ' । उदिवाने, “पाठे० " २।३।९७ इति नत्वे च निस्ते । णोपदेशत्वाद् “अदुरुपसर्गा० " २।३७७ इति णत्वे प्रणिस्ते परिणिस्ते । " नाम्यन्तस्था" २।३१५ इत्यत्र शिटा नकारेण 'चान्तरेऽपि इति प्रत्येकं वाक्यसमाप्तेः इष्टत्वात् द्वयव्यवधाने षत्वाभावे निस्से । निनिसे, निसिता, निसितुम् । यडि नेनिस्यते । यङ्लुपि नेनिसीति, नेनिस्ति । "ऋवर्ण" ५।१।१७ इति ध्यणि निस्यम् । अचि पनि वा निसः । “ निंसनिक्षनिन्दः कृति वा" २२३८४ इति वा णत्वे प्रणिंसनीयम् , प्रनिसनीयम् , प्रणिसनम् , प्रनिसनम् । कृतोऽन्यत्राऽपि णत्वविकल्प इत्यन्ये, तन्मते प्रणिस्ते प्रनिस्ते, प्रणिसाते प्रनिसाते, प्रणिनिसे प्रनिनिसे ।।
१. यङ्लुपि चाकंसीति इति मु० ॥ २. वाऽन्त इति मु० ॥
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१८८]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [फा० ६४
अथ क्षान्तः सेट् च ॥ '६४ चक्षिक व्यक्तायां वाचि । “संयोगस्यादी." २११८८ इति कस्य लुकि आचष्टे । " नवा परोक्षायाम्" ४४५ इति वा कशांग्रख्यांगोः गित्वात् फलवकर्तर्यात्मनेपदे आचक्शे, आचख्ये । फलवतोऽन्यत्र “शेषात्०" ३॥३॥१०० इति परस्मैपदे आचक्शौ आचख्यौ पक्षे आचचक्षे । अशिति " चक्षोवाचि० " ४४।४ इति क्शांगख्यांगो। अनुस्वारेचान्नेट् , आकुशास्यते । " शिट्याद्यस्य०॥ १३५९ इति वा द्वितीये आख्शास्यते आवयास्यते, आक्शा. स्थति आवशास्यति आख्यास्यति । " शास्त्यमुवक्ति" ३।४६० इति अडि आख्यत् । “य एच्चा." ५।१।२८ इति ये आख्येयम् । “ उपसर्गादातो." ५।३।११० इति डे आख्यः, प्रख्यः । “ तन्व्यधी०" ५।१।६४ इति णे ख्यायः । " समः ख्यः" ५।११७७ इति डे गोसङ्ख्यः । " व्यअनान्तस्था०" ४।२७१ इत्यत्र ख्यावर्जनात् क्तयोस्तस्य नत्वाभावे ख्यातः ख्यातवान् । " पुमोशिट्य०" ११३९ इत्यत्र ख्यागो वर्जनात् मोऽनुस्वरानुनासिकपूर्वरेफाभावे पुख्यानं, पुंख्याति: । वागर्थस्यैव क्शांगख्यांगो, तेन वर्जनार्थाद् ध्यणि संचक्ष्याः, दुर्जनाः वर्जनीया इत्यर्थः । भक्षणार्थादनटि चक्षणम् । चक्षिता । " स्वरात् " २।३।८५ इति कृतो नस्य [ णत्व संभवे ] " शुभ्नादिनाम् " २।३।९६ इति णत्वप्रतिषेधे प्रख्यानम् प्रख्यापनीयम् । उणादौ " तकश० " ( उ० १८७) इति अणे विचक्षणः । ज्ञानार्थत्वादत्र क्शांगख्यांगभावः । " चक्षः शिवा " ( उ० ९६९) इति असि 'चक्षाः नृचक्षाः ख्याश्च राक्षसः, अवचक्षाः । " चक्षेः शिद् वा" ( उ०.१००१) इति किति उसि चक्षुः, परिचक्षुः, अवचक्षु, अवसंचक्षुः, अवख्युः । बाहुलकात् द्वित्वे संचचक्षुः, विचख्युः ॥
__ अथोभयपदिनस्तत्राप्युदन्तौ ॥ '६५ ऊर्गुगक आच्छादने' । “वोर्णोः " ४।३।६० इति वा औत्वे प्रोर्णोति प्रोति । " न दिस्योः " ४।३।६१ इति औत्वप्रतिषेधे प्रौर्णोत् , प्रौर्णोः । परस्मैपदे सिचि " वोणुगः०" ४।३४६ इति वा वृद्धौ प्रौर्णावीत् , पक्षे प्रोणवीत् । "वोर्णोः" ४ ३।१९ इति इटो वा डित्वे प्रोणुवीत् । " गुरुनाम्यादेः०" ३।४।४८ इत्यत्र ऊर्णोः वर्जनात् परोक्षाया आमभावे प्रोणुनाव । गित्वात् फलवत्कर्तर्यात्मनेपदे १. चक्षः, ख्या:, उभे अपि रक्षो नाम्नी । ......नृचक्षाः राक्षस: । इति उणादिविवरणे । चक्षः इति प० र० प्रतयोः ॥
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६६ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
[ १८९ प्रोणुते । प्रोणुनुवे । “ अट्यति० " ३।४।१० इति यति प्रोर्णोनूयते । प्रोर्णविता प्रोणुविता, प्रोणवितुम् प्रोणुवितुम् । सनि " इबुध० " ४।४।४७ इति वेटि प्रोणुनविषति प्रोणुनुविषति, पक्षे प्रोणुनूषति । किति "ऋवर्णश्रूयू० " ४।४।५७ इति नेट् , प्रोर्णतः प्रोणुतवान् । उर्णा' इति तु " इणुर्विशा० " ( उ० १८२) इति णे ऊर्वतेः । ऊरुः [" अतेरुर्च " उ० ७३६] उरुः ["महत्युर्च" उ० ७३७] इत्यपि अतः औ ॥
'६६ ष्टुंग्क् स्तुतौ'। "पः सो.” २।३।९८ इति सत्वे स्तुते । "उत औः०" ४३५९ इति औत्वे स्तौति । " यतुरुस्तोः०" ४।३।६४ इति ईति स्तवीति । " उपसर्गात्सुग० " २।३३९ इति षत्वे अभिष्टौति, विष्टौति । " नाम्यन्तस्था ० " २।३।१५ इति षत्वे तुष्टाव । यङि तोष्ट्रयते । यङ्लुपि तोटोति तोष्टवीति । सनि तुष्ट्रपति । अनुस्वारेवान्नेट् , स्तोता प्रस्तोता । सिचि , परस्मैपदे " धृगसुस्तोः० " ४।४।८५ इति इटि अस्तावीत् अस्तावीष्टाम् । " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इत्यत्र स्तो: वर्जनात् परोक्षायाम् इडभावे तुष्टोथ । " उत औः०" ४।३।५९ इत्यत्र अद्वे: इति वचनात् द्वित्वे औत्वाभाव:, तुष्टुव, तुष्टुम । परिनिविपूर्वस्य " स्तुस्वअश्चा० " २।३।४९ इति अव्यवाये वा षत्वे पर्यष्टोत् पर्यस्तोत् । " वृग० " ५।१।४० इति क्यपि स्तुत्यः । “दिद्यद्ददृद्" ५२।८३ इति क्विपि निपातनात् आयतस्तवनशील: आयतस्तूः । एवं ग्रावस्तुत् । “ नीदाव०" ५।२।८८ इति टि स्तोत्रम् । विपि " उपसर्गात" २॥३॥३९ इति षत्वे परिष्टुत् । “ समासेऽग्नेः स्तुतः" २।३।१६ अग्निष्टुत् । “प्रात् स्तुद्रुस्तोः" ५।३।६७ इति घत्रि प्रस्तावः । “संस्तोः" ५।३६६ समेत्य स्तुवन्ति अत्र संस्तावः । यज्ञविषयादन्यत्र " युवर्ण" ५।३।२८ इति अलि संस्तवः । एवं स्तवः । "वादिभ्यः" ५।३।९२ इति अनडपवादे करणे क्तौ स्तुतिः । उणादौ "भीणशलि." ( उ० २१) इति के स्तोकम् । “दकन०" ( उ० २७) इति अके स्तबकः गुच्छः । “ युसुकु० " (उ० २९७ ) इति पे ऊत्वे च स्तूपः बोधिसत्वभवनम् । " अर्तीरि० " (उ० ३३८) इति मे स्तोमः समूहः, यज्ञः, स्तोत्रं च । टुभूडू स्तम्भे [ ११७८१ ] इत्यस्य तु स्तोभः अनर्थकं श्रुतिपूरणं वचः ॥
१. उर्धे हिंसायाम् [ ११४७० ] उर्णा मेषादिलोम, ध्रुवोरन्तरावर्तश्च ( उ. वि.) । २. ष्टुभुङ् इति मु०॥
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१९० ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ६७
अथोदन्तोऽनिट् च ॥
6
'६७ ग्कू वक्तायां वाचि' । ब्रूते । किरादित्वात् जिक्चयोरभावे कर्मकर्तरि अवोचत कथा स्वयमेव, ब्रूते कथा स्वयमेव ।
66
"
46
66
1
"ब्रूतः परादिः " ४ | ३ |६३ इति ईति ब्रवीति । " ब्रूगः पञ्चानाम् ० " ४|२| ११८ इति ब्रूग आहाऽऽदेशे तिर्वा णवादौ च आह, आहतुः, आहुः, आत्थ, आहथुः । अशिति " अस्ति वो : ० ४|४|१ इति वचादेशे, " यजादिक्शू० " ४।१।७२ इति पूर्वस्य वृति उवाच । जादिवचे: ० " ४।१।७९ इति वृति ऊचे । क्ये उच्यते शास्त्य सूवक्ति०" ३|४|६० इति अङि अवोचत । अनुस्वारेवान्नेट्, वक्ता, वक्तुम् । “प्रवचनीयादयः " ५।११८ इति वा कर्तरि अनीये प्रवचनीयो गुरुधर्मस्य, पक्षे कर्मणि प्रवचनीयो धर्मो गुरुणा । ध्यणि " वचोऽशब्दनाम्नि " ४ | १|११९ इति कत्वप्रतिषेधे वाच्यम् । शब्दसंज्ञायां तु वाक्यम् । त्यजयज० ४|१|११८ इति कत्वाभावे प्रवाच्यो ग्रन्थविशेषः । अचि “ ब्रुवः " ५।११५१ इति निपातनात् ब्राह्मणमात्मानं ब्रूते ब्राह्मणत्रुत्रः । “ वेयिवद० " ५।२।३ इति निपातनाद् भूतमात्रे कानः, अनूचानः तत्र क्घसु० ५२२ इति सौ ऊचिवान् । " दिद्युद्ο ५२८३ इति raft निपातनात् वचनशीला वाकू । उणादौ " नीनूरमि० " ( उ० २२७ ) इति किति थे उक्थम् - साम ||
46
19
"
ܕܕ
अथ षान्तोऽनिट् च ॥
' ६८ द्विषींकू अप्रीतो ' । द्विष्टे, द्वेष्टि 46 वा द्विषा० " ४२९१ इति शिदनः वा पुसि अद्विषुः, अद्विषन् । “ हशिटो० " ३|४|५५ इति कि अद्विक्षत् अनुस्वारेत्वान्नेट्, द्वेष्टा द्वेष्टुम् । " ॠवर्ण " ५।१।१७ इति ध्यणि द्वेष्यः । " नाम्युपान्त्य ० " ५।१।५४ इति के द्विषः । क्विपि सुद्विट् मित्रद्विट् बह्मद्विट् । सुगद्विषा ० " ५।२।२६ इति अतृशि " द्विषो वाऽनृशः २२८४ इति कर्मणि ५|२|५० इति घिनणि
"
46
षष्ठयां चौरस्य द्विषन्, चौरं द्विषन् । द्वेषणशीलो द्वेषी । घञि द्वेषः ||
66 "युजभुज ० "
"
अथ हान्तास्त्रयोऽनिश्च ॥
46
' ६९ दुहींकू क्षरणे ' । दुग्धे गौः, दोग्धि । कर्मकर्तरि “ एक घातौ० " ३|४|८६ इति ञिक्यात्मनेपदेषु प्राप्तेषु “ भूषार्थ ० " ३|४|९.३ इति किरादित्वात् क्यनिषेधे दुग्धे गौः स्वयमेव । स्वर हो वा " ३|४|९० इति वा ञिजूनिषेधे
46
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७२ ] धातु पारायणे अदादयः (२) अदुग्ध गौः स्वयमेव, अदोहि गौः स्वयमेव । " हशिटो०" ३।४५५ इति सकि अधुक्षत् । वतवर्गादावात्मनेपदे “ दुहदिह०" ४।३।७४ इति सको वा लुकि अदुबहि, अधुक्षावहि, अदुग्ध, अधुक्षत, अदुग्धाः, अधुक्षथाः । अनुस्वारेचान्नेट् , दोग्धा दोग्धुम् । “ कृवृषि०" ५।१।४२ इति वा क्यपि दुह्या गौः, पक्षे "ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि दोह्या । विपि गोधुक् । “दुहेडुघः" ५।१।१४५ कामदुधो धर्मः । “युजभुज०" ५।२।५० इति घिनणि दोही । बाहुलकात् खलपवादेने सुदोहनः । घनि दोहः । उणादौ " कुमुद०" (उ० २४४ ) इति अदे निपातनात् दोहदः अभिलाषविशेषः । “ त्वष्ट ०" ( उ० ८६५ ) इति तृप्रत्यये निपातनाद् दुहिता ॥
७० दिहींक लेपे । दिग्धे देग्धि । " नेङमादा०" २१३७९ इति नर्णत्वे प्रणिदेग्धि । " हशिटो. " ३४५५ इति सकि अधिक्षत् । वतवर्गादौ आत्मनेपदे वा सको लुकि अधिक्षावहि, आदिबहि, अधिक्षत, अदिग्ध । संदिदेहे, संदिदेह । यडि देदिह्यते । यङलुपि देदिहीति, देदेग्धि । अनुस्वारेचान्नेट् , देग्धा, दिग्धः, संदिग्धः । उणादौ "मृदिकन्दि०" (उ० ४६५) इति अले देहली द्वाराऽधोदारु ॥ __. “७१ लिहीक आस्वादने' । लीटे, लेढि । " हशिटो. " ३।४।५५ इति सकि अलिक्षत् । वतवर्गादावात्मनेपदे वा सको लुकि अलिह्वहि, अलिक्षावहि, अलीढ, अलिक्षत । लिलिहे, लिलेह । यडि लेलिह्यते । यङ्लुपि लेलिहीति, लेलेढि । अनुस्वारेचान्नेट् , लेढा, लेढुम् । “ऋवर्ण" ५।१।१७ इति ध्यणि लेह्यम् । लिहायचि लेहः, आलेहः । बाहुलकात् " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के लिहः । उणादौ " लिहेर्जिह च" ( उ० ५१३) इति वे जिह्वा ।
अथ अदाद्यन्तर्गणो ह्वादयः ॥ '७२ हुंक दानादनयोः' । दानमत्र हविष्प्रक्षेपः । अदनं भक्षणम् । “ हवः शिति " ४।१।१२ इति द्वित्वे, “ उत औः०" ४।३।५९ इत्यत्र अद्वः इत्युक्तेः
औत्वाभावे जुहोति । जुहुतः । “हिणोर०" ४।३।१५ इति वत्वे " अन्तो नो लुक० " ४।२।९४ इति न लुकि च जुह्वति । " द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि, " पुस्पो" ४।३।३ इति गुणे अजुवुः । “ भी ही." ३।४।५०
१. “हे र्दुघः इति मु० ।
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१९२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ७२इति परोक्षाया वा आमि जुहवाश्चकार । अत्र आमस्तिव्वद्भावात् " हवः शिति" ४।१।१२ इति द्वित्वम् , पक्षे जुहाव । “हुधुटो हेधिः" ४।२।८३ जुहाध । अनुस्वारेवान्नेट् , होता, होतुम् । “य एचा." ५।१।२८ इति ये हव्यम् । " उवर्णादावश्यके" ५१११९ घ्यणि हाव्यम् अवश्यम् । अचि हवः । " आशिष्यकन्" ५।१।७० हवकः । “दिद्युद्ददृद्" ५।२।८३ इति क्विपि निपातनाद् हवनशीलः जुहूः । “युवर्ण०" ५।३।२८ इति आल हवः । उणादौ " अर्तीरि०" (उ० ३३८ ) इति मे होम आहुतिः । " हुयामा० " (उ० ४५१) इति त्रे होत्रम् हवनम् , होत्रा ऋचः । " रुच्यचि० " (उ० ९८९) इति इसि हविः पुरोडाशादिः । “हुपद्गो० " ( उ० ८६३ ) इति तः, होता ऋत्विक् ॥ .
अथादन्तोऽनिट च ॥ '७३ ओहांक त्यागे' । ककारः अदादित्वज्ञापनार्थः, " न हाको लुपि" ४।१।४९ इत्यादौ विशेषणार्थश्च । जहाति । " हाकः" ४।२।१०० इति वा इत्वे जहितः । पक्षे " एषामी०" ४।२।९७ इति ईत्वे जहीतः । “ आ च हो" ४।२।१०१ जहाहि, जहिहि; पक्षे जहीहि । यि लुकि जह्यात् जह्याताम् । क्ये " ईय॑अने" ४।३९७ इति ईत्वे हीयते । “आतो णव औः" ४।२।१२० जहौ। "गापास्था०" ४।३।९६ इति आशिषि एः, हेयात । यङि जेहीयते । यङ्लुपि "न हाको० " ३११४९ इति पूर्वस्य आत्वाभावे जहाति, पक्षे " यत्रुस्तोः०" ४।३।६४ इति ईति जहेति । " ललाटवात०" ५।१।१२५ इति खशि शर्धजहा माषाः । अनुस्वारेच्चान्नेट् , हाता, हातुम् । ओदिचात् “ सूयत्याद्यो०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे हीनः, हीनवान् । " हः काल० " ५।११६८ इति टनगि जहाति भावान् इति हायनः संवत्सरः । जहति उदकमिति हायना बीहयः । " आतो डो०" ५।११७६ इति डे कलां जहाति कलहः । “ड्यापो बहुलं नाम्नि" २।४।९९ इति पूर्वस्य ह्रस्वः । " हाको हिः क्त्वि" १४१४ हित्वा । "ग्लाहा." ५।३।११८ इति अनौ हानिः । “अहीयरुहो०" ७।२।८८ इन्यत्र हाको वजनात् पञ्चम्याः तस्वभावे सार्थात् हीनः । “पापहीयमानेन०" ७२८६ इति तृतीयायाः तसौ विद्यातो हीयते । उणादौ "भीशली." ( उ० २१) इति के निहाकः निःस्नेहः, निहाका गोधा । " पाहावभ्यां पयह्यौ च" ( उ० ९५३) इति असि ह्यः अनन्तरातीतदिनम् । अहर् इति तु " श्वन्मातरिश्वन्” (उ० ९०२) इति अनि निपातनात् अंहतेः ॥
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७६ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
[१९३
अथेदन्तावनिटौ च ॥ * ७४ जिभोक् भये' । बुद्धिसंसर्गपूर्वकेऽपायेऽवधित्वात् अपादानत्वे " पश्चम्यपादाने " २।२।६९ इति पञ्चम्यां चौराद् बिभेति । “भियो नवा" ४।२।९९ इति वा इत्वे विभितः, पक्षे विभीतः । विभ्यति । " द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पास " पुस्पौ" ४।३।३ इति गुणे अविभयुः । “ मीही." ३।४।५० इति परोक्षाया वा आमि विभयाञ्चकार बिभाय । हेतुकतृतो भये वर्तमानस्य णौ " विभेतेीष् च" ३३९२ इति आत्वे भीषादेशे आत्मनेपदे च मुण्डो भापयते, मुण्डो भीषयते । करणाद् भये तु कुश्चिकौंन भाययति । “भियो रुरुकलुकम्" ५२।७६ भयशीलो भीरुः, भीरुकः, भीलुकः; किवादत्र न गुणः । “ वर्षादय: क्लीबे" ५।३।२९ इति अलि भयम् । “ भ्यादिभ्यो वा" ५।३।११५ इति वा विपि भीः, पक्षे तो भीतिः । उणादौ " मीणशली०" ( उ० २१) इति के मेकः मण्डूकः कातरश्च । “शीमी० " ( उ० ७१) इति आनके भयानकः । " भियः षोऽन्तश्च वा" (उ० ३४४) इति किति मे भीमः भीष्मः । "भीवृधि०" ( उ० ३८७ ) इति रे मेरः दुन्दुभिः कातरश्च । ऋफिडादित्वात् लत्वे भेल: चिकित्साग्रन्थकारः अप्राज्ञश्च ॥
'७५ ह्रींक लजायाम् ' । जिहेति, जिहीतः “ योऽनेकस्वरस्य " २१५६ इति यापवादे, “संयोगात् " २२११५२ इति इयि जिट्टियति । " द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि " पुस्पो" ४।३।३ इति गुणे अजिह्युः । “भीहो." ३।४।५० इति परोक्षाया वा आमि जियाञ्चकार जिहाय । यङि जेडीयते । णौ " अतिरी० " ४।२।२१ इति पौ " पुस्पो" ४।३।३ इति गुणे हेपयति । अनुस्वारेच्चान्नेट , दूता, हेतुम् । “ ऋहीघ्रा०" ४।२।७६ इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे हीणः, हीतः, हीणवान् , हीतवान् । “य एच्चा० " ५।१।२८ इति ये हेयम् । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि हीः । उणादौ " हीयो रश्च लोवा" ( उ० २५) इति किति के हीकः ह्रीकश्च सलजः । “ हियः किद्रो लश्च वा" ( उ० ७५० ) इति को हीः ह्रीकुश्च त्रपु जतुनी, लज्जावाँश्च ॥
अथ ऋदन्तावनिटौ च ॥ “७६ पृक पालनपूरणयोः' ।" पृभृमा०" ४।१।५८ इति पूर्वस्य इत्वे पिपति, पिपृतः, पिप्रति, पपार, पप्रतुः । थवि "ऋतः" ४।४७९ इति नेटू , २५
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१९४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ७६
पपर्थ । वे " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इटि पप्रिव । ऋदन्तोऽयं सेट् च, इत्येके । तन्मते 'तसि " ओष्ठयाद्" ४|४|११७ इति उरि, "म्बादेः" २०११६३ इति दीर्घ च पिपूर्तः । अन्तौ पिपुरति । परोक्षायां " ऋः शदृ०" ४।४।२० इति वा ऋः, निपप्रतुः, निपाः; पक्षे “ स्कृच्छतो." ४।३।८ इति गुणे निपपरतुः निपपरुः । थवि " स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इटि निपपरिथ । वे निपप्रिव, निपपरिख । अनुस्वारेच्चान्नेट् , पर्ता पर्तुम् । " हनृतः" ४४४९ इति इटि परिष्यति । क्तयोः व्यापृतः, व्यापृतवान् । येषां तु दीर्घान्तः तन्मते "ऋवर्ण" ४४५७ इति इडभावे, “ ऋवादे." ४।२।६८ इत्यत्र प्रो वर्जनात् क्तयोस्तस्य नत्वाभावे पूनः, पूर्तवान् । णौ " साहिसाति० " ५।११५९ इति शे पारयः । घनि पारः । " णो दान्तशान्त० " ४।४।७४ इति क्त वा पूर्ण इति निपातनमस्याऽपि इत्येके, तन्मते णौ ते पूर्णः, पारितः । पूरित: इति तु पूरेचेः ण्यन्तात् क्ते ॥
७७ ऋक् गतौ' । " हवः शिति" ४।१।१२ इति द्वित्वे " प्रभृमा०" ४।१।५८ इति पूर्वस्य इत्वे " पूर्वस्यास्वे० " ४।१।३७ इति इयि “नामिनो० " ४।३।१ इति गुणे इयति । इयत: इथति, "श्रौति०" ४।२।१०८ इत्यत्र "अत्यादौ" ४।२।१०४ इत्यधिकारात् अत्र ऋच्छाऽऽदेशाभावः । संपूर्वात् “समो गमृच्छि०" ३।३।८४ इति आत्मनेपदे समियते । आप्ये तु सति " शेषात् परस्मै" ३॥३॥१०० इति परस्मैपदे समिति मित्रम् । “ अस्यादेः" ४।१।६८ इति पूर्वस्य आत्वे ऋदादिस्वाभावात् "अनातो." ४।१।६९ इति नन्ताभावे, आर, आरतुः, आरुः । " इन्ध्यसंयोगा०" ४।३।२१ इति अवित्परोक्षायाः कित्वेऽप्यत्र "संयोगात् " २१११५२ इति गुणः । “क्थयङ०" ४१३।११० इति गुणे अर्यते । “अव्यति" ३।४।१० इति यङि अगर्यते । आशीर्य अर्यात् । सप्तम्याम् इयूयात् । अद्यतन्यां " सय॑तः०" ३।४।६१ इति वाडि - आरत , आषीत् । थवि "ऋत्येद० " ४४८० इति इटि आरिथ । सनि "ऋस्मिपूङ०" ४।४।४८ इति इटि स्वरस्य कार्यित्वाद् द्वित्वं प्रति निमित्तत्वाभाव इति पूर्व स्वरादेशे गुणे पश्चात् “ स्वरादेः " ४।१।४ इति द्वितीयांशस्य द्वित्वे अरिरिषति । अनुस्वारेचान्नेट् , अर्ता, अतुम् । "ऋही." ४।२।७६ इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे ऋणम् ऋतम् । णौ "अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ अर्पयति । उणादौ " ऋक्व ० " (उ० १९६) इति उणे १. तस्योष्ठया” इति मु० ॥ २. ऋच्छाभावः इति मु०।
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७९ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
[ १९५ अरुण: । “कमिघुगा" ( उ० २२५) इति थे अर्थः । “गदरमि०" (उ० ३२७ ) इति मे अर्भः शिशुः । “ अर्तीरि०" (उ० ३३८) इति मे अमः अक्षिरोगः । “धाग्राजि०" (उ० ३७९) इति अन्ये अरण्यम् । " ऋच्छिचटि० " ( उ० ३९७) इति अरे 'अररम् कवाट: “ऋहसू०" ( उ० ६३८ ) इति अणौ अरणिः । " अर्तेरनिः" (उ० ६८२) अरनिः उत्कनिष्ठो हस्तः । " सर्तेरुच्चातः" ( उ० ६८९ ) इति मौ ऊर्मिः । “नदिवल्लि०" (उ० ६९८ ) इति अरौ अररिः कपाटः। " अङ्ग्यतः कित् " ( उ० ७७७ ) इति तुनि ऋतुः वसन्तादिः स्त्रीरजः तत्कालश्च । “कटिकुट्य०" ( उ० ८१२) इति अरौ अररुः असुरः आयुधं च । " अर्ते क्षिनक" ( उ० ९२८) ऋभुक्षा इन्द्रः । " स्नामदि०" ( उ० ९०४ ) इति पनि अर्वा अश्वः । " अर्तेरुराशौ च" (उ० ९६७ ) इति असि उरः वक्षः, अर्शः गुदकीलः । “ अर्तीणभ्याम्" ( उ० ९७९ ) इति नसि अर्णः जलम् । “ रुद्यति० " ( उ० ९९७) इति उसि अरुः व्रणः । ऋ प्रापणे च [ ११२६ ] ऋच्छति ॥ .
अथात्मनेपदिनावादन्तावनिटौ च ॥ ___ ७८ ओहाक् गतौ' । ङिचात् “ इङितः०" ३।३।२२ इति आत्मनेपदे " हवः शिति" ४।१२ इति द्वित्वे, “पृभृमा०" ४।१।५८ इति पूर्वस्य इत्वे, "एषामी०" ४।२।९७ इति ईत्वे च जिहीते । जिहाते, जिहते । “ ईय॑अने" ४।३।९७ इत्यत्र हाकोऽनुवृत्तेः क्थे ईत्वाभावे हायते । संजहे । अनुस्वारेत्वान्नेट , हाता, हातव्यम् । “य एचा" ५।१।२८ इति ये हेयम् । “हः काल." ५।११६८ इति टनणि हायन: वर्ष व्रीहिश्च । ओदित्वात् " सूयत्याद्यो०" ४।२७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे हानः, हानवान् । अदुरुपसर्गान्तपूर्वस्य " स्वरात् " २।३३८५ इति नस्य णत्वे प्रहाणः, प्रहाणवान् । ओहांक त्यागे [ २।७३] जहाति हीयते ।
७९ मांफू मानशब्दयोः' । " हवः शिति" ४।१।१२ इति द्वित्वे " भृमा०" ४।११५८ इति पूर्वस्य इत्वे " एषामी० " ४।२।९७ इति ईत्वे च मिमीते । " ईय॑झने० " ४।३।९७ इति ईत्वे मीयते । ममे । “नेमादा०" २२३७९ इति नेणत्वे प्रणिममे । आशिषि क्ङित्त्वाभावात् “ गापास्था० " ४।३।९६ इति एत्वाभावे मासीष्ट । सनि “ मिमीमा० " ४।१।२० इति स्वरस्य इति द्वित्वा
१. अररः इति उ. वि. । लिङ्गानु० टीकायाम् अभिघानचिन्तामणौ च अररम् ॥
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१९६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ७९भावे च प्रमित्सते । अनुस्वारेत्त्वान्नेट् , माता, मातव्यम् । “ य एञ्चा०" ५।१।२८ इति ये मेयम् , प्रमेयम् । किति तादौ " दोसोमास्थ इ:" ४।४।११ प्रमितः, प्रमितवान् । " श्रवादिभ्यः " ५।३।९२ इति क्तौ प्रमितिः । " उपसर्गात्० " ५।३।११० इति अङि प्रमा, करणेऽनटि प्रमाणम् ।।
___ अथोभयपदिनः षडनिटश्च ॥ तत्राऽऽदन्तौ
'८० डुदांग्क् दाने' । गित्वात् फलवकर्तरि “ ईगितः". ३।३।९५ इति आत्मनेपदे, “ हवः०" ४।१।१२ इति द्वित्वे, "श्नश्वा० " ४।२।९६ इति आल्लुकि च दत्ते । " नेङमादा" २१३७९ इति नेणत्वे प्रणिदत्ते । फलवतोज्यत्र "शेषात्" ३।३।१०० इति परस्मैपदे ददाति, प्रणिददाति, दत्तः । आपूर्वात् “ दागोऽस्वाऽऽस्य०" ३।३।५३ इति आत्मनेपदे विद्याम् आदत्ते । “एषामी." ४।२।९७ इत्यत्र दो वर्जनात् अत्र इत्वाभावः । “अन्तो नो लुक्" ४।२।९४ ददति ददतु । शतरि ददत् । “शौ वा” ४।२।९५ ददति ददन्ति कुलानि । “हौ दः" ४।१।३१ इति स्वरस्य एत्वे द्वित्वाभावे च देहि । “ द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अददुः । " पिवैति०" ४।३।६६ इति सिचो लुपि अदात् । अद्यतन्यामात्मनेपदे " इश्च स्थादः" ४।३।४१ इति कित्त्वे दः इत्वे च अदित । " आतो णव
ओः" ४।२।१२० ददौ । आददे । आशिषि "गापास्था०" ४।३।९६ इति एः, देयात् , क्तिोऽन्यत्र दासीष्ट । सनि “ मिमी." ४।१।२० इति स्वरस्य इति द्वित्वाभावे च दिसते, अत्र फलवकर्तरि " प्राग्वत् " ३।३७४ इति आत्मनेपदम् । अन्यत्र “शेषात्" ३३।१०० इति परस्मैपदे दित्सति । अनुस्वारेक्वान्नेट् , दाता दातव्यम् । “य एच्चा०" ५।१।२८ इति ये देयम् । “ तन्व्यधी०" ५।११६४ इति णे दायः । दद इति तु ददतेः अचि । " आतो डो०" ५।११७६ इति अणपवादे डे गोदः । “दश्वाङः" ५।११७८ दायादः । “प्राज्ञश्च" ५।१७९ धर्मप्रदः । “ प्रादाग०" ४।४७ इति वा ते दातुमारब्धं प्रसम् , पक्षे " दत् " ४।४।१० इति दति प्रदत्तम् । " निविस्वन्ववात् " ४ ४।८ इति वा त्ते, "दस्ति" ३२१८८ इति दीर्घ च नीतम् वीत्तम् , सूत्तम् , अनूत्तम् , अवत्तम् , पक्षे " दत् " ४।४।१० इति दति, निदत्तम् इत्यादि । " स्वरादुपसर्गाद्" ४।४।९ इति ते आत्तः उपात्तः । " दत् " ४।४।१० इति दति, डिवत्वात्रिमकि दानेन निवृत्तं दत्रिमम् । “ दाट्धेसि०" ५।२।३६ इति रौ दानशीलो दारुः । " भावाकोंः ५३।१८ घनि दायः । " उपसर्गाद् दः किः" ५।३।८७ आदिः ।
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८१ ] धातुपारायणे अदादयः (२)
[ १९७ " उपसर्गादातोः " ५।३।११० इति अङि उपदा । खलपवादे " शासूयुधि०" ५।३।१४१ इति अने सुदानः ॥
'८१ डुधांग्क् धारणे च' । चकाराद् दाने । धत्ते, अत्र “धागस्तथोश्च" २।११७८ इति पूर्वस्य चतुर्थः । चतुर्थान्तत्वाभावे तु पूर्वस्य न चतुर्थः दधाति । " नेमादा० " २।३७९ इति नेणत्वे प्रणिदधाति । " अधश्चतुर्थात् " २२१७९ इत्यत्र धो वर्जनात् तथोः धत्वाभावे धतः धत्थः । “ अन्तो नो लुक्४।२।९४ दधति । शतरि दधत् , "शौ वा" ४।२।९५ दधति दधन्ति कुलानि । “हौ दः" ४।१।३१ इति स्वरस्य एन्वे द्वित्वाभाधे च धेहि । “ द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अदधुः । “ अवौ० " ३।३।५ इति दासंज्ञत्वात् "पिवैति०" ४।३।६६ इति सिचो लुपि अधात् । “ सिज्विदो० " ४।२।९२ इति अनः पुसि “ इडेत्०" .४।३।९४ इति आल्लुकि अधुः । अद्यतन्यामात्मनेपदे “इश्च स्थाद:" ४।३।४१ इति इत्वे कित्ये च अधित । क्ये " ईय॑भने " ४।३।९७ इति ईत्वे धीयते । दधे दधौ । आशिषि " गापा०" ४।३।९६ इति एति धेयात् । विडतोऽन्यत्र धासीष्ट । सनि “ मिमीमा० " ४।१।२० इति इति द्वित्वाभावे च धित्सति । अनुस्वारेवान्नेट् , धाता, धातव्यम् । “धाय्यापाय्य" ५।१।२४ इति ध्यणि निपातनाद् धाय्या सामिधेनी । ऋचोऽन्यत्र " य एच्चा०" ५।१।२८ इति ये धेयम् । "तन्व्यधी०" ५।१।६४ इति णे धाय: । दध इति तु दधते: अचि । किति तादौ “धागः" ४।४।१५ इति हि', विहितः, विहितवान् । “ समस्तत० " ३।२।१३९ इति वा मो लुकि संहितम् , सहितम् । " वावाप्योस्तनि० " ३२।१५६ इति वा प्यादेशे पिहितम् , अपिहितम् , पिधानम् , अपिधानम् । “ आतो डो० " ५।११७६ इति डे गोधा । " शीश्रद्धा० " ५।२।३७ इति आलो श्रद्धालुः । “ससिचक्रि० " ५।२।३९ इति निपातनात् ङौ धानशीलो दधिः । डिवत्वात्रिमकि विधानेन निवृत्तं विहित्रमम् । “ उपसर्गाद् दः किः " ५।३८७ प्रधिः, विधिः, संधिः, । " निस्सोः सेध० " २।३।३१ इति पत्वे निषेधिः, दुःषधिः, सुषंधिः । " व्याप्यादाधारे" ५।३।८८ वालधिः, ओषधिः । “ अन्तर्द्धिः" ५।३।८९ अन्तर्धानमन्तद्धिः । " स्थाऽऽदिभ्यः कः" ५।३।८२ विधः । " उपसर्गादातः" ५।३।११० इति अङि
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आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८१
विधा,
66
मृगये ० " ५|३|१०१ इति निपातनात् अङि श्रद्धा | " ५।३।१४१ इति अने सुधानः । उणादौ " भीणशलि० " धाकः ओदनः स्तम्भश्च । 17 धालू०
66
संधा । उपधा, खलपवादे " शासूयुधि० ( उ० २१ ) इति के इति आपके धाणक: दीनारद्वादशभागः 'धानकः हेमादिपरिमाणम् । ( उ० २५८ ) इति ने धाना भृष्टयवः अङ्कुरश्च । " तुदादिवृजि० " ( उ० २७३ ) इति किति अने निधनम् । “अर्तीरिο" ( उ० ३३८ ) इति मे धामं निलयस्तेजश्च धाग्राजि० " ( उ० ३७९ ) इति
। 46 शीभी० " ( उ० ७१ ) इति आनके
66
" प्याधा०
।
46
"
२
अन्ये धान्यम् । संध्या इति तु " सज्जेर्ध च " ( उ० ३५९ ) इति ये । 'इणूधाग्य वा ( उ० ३८९ ) इति वा किति रे धीरः धारा । " कृसिकम्य० " ( ३० ७७३ ) इति तुनि धातुः । धृषेस्तु “ धृषेर्दिधिपदिधीषौ च " ( उ० ८४२ ) इति ऊः दिधिषूः ज्यायस्याः पूर्वमूढा लध्वी, पुंश्चली च । दिधीषूः ऊढायाः कनिष्ठायाः ज्येष्ठाऽनूढा | 'मन् ( उ० ९११ ) इति मनि धाम । वयः पयः पुरोरेतोभ्यो० " ( उ० ९७४ ) इति असि वयोधाः पुरोहितः, रेतोधाः जनकः । विधाः वेधाः इति तु इति वा कति असि विधतेः ॥
46
46
79
युवा, पयोधाः पर्जन्यः, पुरोधाः
" विधेर्वा " ( उ० ९७२ )
१९८ ]
64
66
"
,
८२ दुडु पोषणे च
अथ ऋदन्तः ॥
| चकाराद् धारणे
66
मनुस्त्वन्यथाऽऽह
हवः शिति " ४|१|१२
विभृते विभर्ति । "द्वयुक्त० "
इति द्वित्वे " मा० " ४|१|५८ इति पूर्वस्य इत्वे ४|२| ९३ इति शिदनः पुसि " पुस्पौ " ४|३ | ३ इति गुणे च अबिभरुः । " भीही ० " ३|४|५० इति परोक्षाया वा आमि तिब्वद्भावात् द्वित्वेत्वयोः बिभरा
चकार बभार । अनुस्वारेच्चान्नेट् इति क्यपि भृत्यः । संज्ञायां तु क्षत्रियविशेषः, भार्या वधूः ।
46
भर्ता, भर्तुम् । भृगोऽसंज्ञायाम् " ५।१।४५ ॠवर्ण ० " ५।१।१७ इति ध्यणि भार्यो नाम "समो वा ५|१|४६ संभृत्यः संभार्यः । ५।१।५० इति अपवादे अचि जारमरा कन्या । ते भृतः । ७|३|३३ इति कपि भृतकः ।
"
19
लिहादिभ्यः कुत्सिता ० "
66
भावाकर्त्री: "
५।३।१८ वञि
,
१. धानका इति मु०, उणादिविवरणे तु धानकः ॥
२. दिधिषूस्तु पुनर्भूरूिढा । ( अ. चि. ३३१८९ ) ॥
।
44
( उ० ७० )
'ज्येष्ठायां यद्यनूढायां कन्यायामुयतेऽनुजा ।
सा चाग्रेदिधिषूर्ज्ञेया पूर्वा तु दिधिषूर्मता ॥ ( अ. चि. टी. ३३१८९ ) ॥
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८५] धातुपारायणे अदादयः (२)
१९९ भारः । भर इति तु भृणातेरलि । “कुक्ष्यात्मोदरा०" ५।११९० इति खौ कुक्षिभरिः, आत्मभरिः उदरंभरिः । “भृवृजि०" ५।१।११२ इति खे विश्वंभरा भूः । "भृगो नाम्नि" ५।३।९८ इति स्त्रियां भावे क्यपि कुमारभृत्या । संज्ञाया अन्यत्र भृतिः । ट्विवादथुः । भरथुः । ड्वित्वात्रिमक, भृत्रिमम् । उणादौ "द्वारशृङ्गार०" (उ० ४११) इति आरे निपातनाद् भृङ्गारः । “दृमुषि०" (उ० ६५१) इति किति तौ प्रभृतिः आदिः । भुंग भरणे [ ११८८६ ] भरते, भरति ॥
अथ जान्तौ ॥ '८३ णिजॅकी शौचे च'। चकारात् पोषणे । “ पाठे०" २३९७ इति नत्वे, “ हवः शिति" ४।१।१२ इति द्वित्वे, “निजां शित्येत्" ४३१५७ इति पूर्वस्य एत्वे च नेनिक्ते, नेनिजाते, नेनिजते, नेनेक्ति, नेनिक्तः, नेनिजति । णोपदेशत्वात् " अदुरुपसर्गा०" २।३।७७ इति प्रणेनेक्ति । " द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अनेनिजुः । “ द्वयुक्तोपान्त्यस्य" ४।३।१४ इति गुणनिषेधे नेनिजानि, अनेनिजम् । ऋदित्वात् “ऋदिच्छ्वि०" ३४।६५ इति वाऽङि अनिजत् । पक्षे सिचि " व्यञ्जनानाम्० " ४।३।४५ इति वृद्धौ अनैक्षीत् । निनिजे, निनेज । अनुस्वारेचान्नेट , नेक्ता, नेक्तुम् । “ नाम्युगन्त्य" ५।१।५४ इति के निजः । शतरि अन्तो नो लुकि नेनिजत् , नेनिजतौ । घनि “क्तेनिट०" ४।१।१११ इति गत्वे नेगः ॥
८४ विजॅकी पृथगभावे' । “निजां शित्ये०" ४१५७ इति पूर्वस्य एत्वे वेविक्ते, वेविजाते, वेविजते, वेवेक्ति, वेविक्तः, वेविजति । दिवि अविवेक । " द्वयुक्त०" ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अवेविजुः । " द्वयुक्तोपान्त्य०" ४।३।१४ इति गुणाभावे वेविजानि, अवेविजम् । ऋदिचात् वाऽङि अविजत् , अवैक्षीत् । विविजे, विवेज । अनुस्वारेवान्नेट् , वेक्ता, वेक्तुम् । “ नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के विजः । धनि “क्तेनिट०" ४।१।१११ इति गत्वे वेगः । चान्तोऽयमिति सभ्याः । विवेचनम् , वेविचति, वेविचते, अविचत् , विवेकः ।।
अथ षान्तः ॥ '८५ विष्ल की व्याप्तौ' । “निजां" ४१५७ इति पूर्वस्य एत्वे वेविष्टे, वेविषाते, वेविपते, वेवेष्टि, वेविष्टः, वेविषति । “ द्वयुक्त० " ४।२।९३ इति शिदनः पुसि अवेविषुः । लदित्वादङि अविषत् , आत्मनेपदे तु अङमावे "हशिटो०"
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२०० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८५
३ | ४|५५ इति कि अविक्षत । " स्वरेतः " ४ | ३ |७५ इति अल्लुकि अविक्षाताम् ।
66
46
अनतोऽन्तो० "
44
स्वरस्य परे० " ७|४|११० इति अल्लुकः स्थानित्वात् ४।२।११४ इति अदभावे अविक्षन्त । नायम् लदित्, ऊदित् " हशिटो ० " ३|४|५५ इति सकि अविक्षत् । ऊदित्वात् क्त्वि वेषित्वा । अनुस्वारे वाटू, वेष्टा, वेष्टुम् विष्ट:, विष्टवान् । ५।१।५४ इति के विषः, विषम् । णके परिवेषकः । कर्मा० " ३|१|८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः, साधुपरिवेषकः । व्यणि वेष्यः । घञि वेषः, परिवेषः । उणादौ " विषेः कित् " ( उ० ७६९ ) इति णौ विष्णुः ||
नाम्युपान्त्य०
"
66
इत्येके, तन्मते
वेटि विष्ट्वा
19
सृ
अत्र अन्यैः अन्येऽप्येकादशाऽधीयन्ते । घृ क्षरणदीप्त्योः । हृ प्रसाकरणे । गौ । भस भर्सनदीप्त्योः । किकितौ ज्ञाने । तुर त्वरणे । धिष शब्दे । धन धान्ये । जन जनने । गा स्तुतौ इति । ते त्वलौकिकत्वात् अस्माभिः उपेक्षिताः ||
इत्याचार्थश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणेऽविकरणः दिदादिगणः संपूर्णः ||
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अथ दिवादयः॥ अथ श्यविकरणा दिवादयो वर्णक्रमेण निर्दिश्यन्ते । तत्रापि पूर्वाचार्यप्रसिद्धयनुरोधेन आदौ
१ दिवच क्रीडा-जयेच्छा-पणि-द्युति-स्तुति-गतिषु' । जयेच्छा विजिगीषा, पणिः व्यवहारः क्रयादिः । " दिवादेः " ३।४।७२ इति श्ये "म्बादेः०" २०११६३ इति दीर्घ च दीव्यति । " उपसर्गाद् दिवः" २।२।१७ इति विनिमेय-द्यूतपणयोः कर्मणो वा कर्मत्वे " शेषे” २१२१८१ इति षष्ठयां शतस्य प्रदीव्यति, शतं प्रदीव्यति । अनुपसर्गस्य "न" २।२।१८ इति कर्मत्वाभावे शतस्य दीव्यति । " करणं च" २।२।१९ इति करणस्य कर्मत्वकरणत्वयोः अक्षान् दीव्यति , अक्षः दीव्यति; वा इत्यनुक्त्वा " करणं च" २।२।१९ इत्यत्र चकारकरणं संज्ञाद्वयसमावेशार्थम् , तेन करणत्वात् तृतीया, कर्मत्वाच्च अनाप्यलक्षणम् अणिकर्तुणों कर्मत्वम् , " अणिगि प्राणिकर्तृक० " ३।३।१०७ इति परस्मैपदं च न. भवति, अक्षेर्देवयते मैत्रश्चैत्रेण । दिदेव, देविता । सनि “ इवृध०" ४४४७ इति वेटि इडभावे " अनुनासिके च० " ४।१।१८८ इति वस्य ऊटि दुयषति, दिदेविषति । ऊदिचात् क्त्वि वेट , घूत्वा, देवित्वा, “क्त्वा" ४।३।२९ इति विवाभावादत्र गुणः । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , द्यूतः, धतवान् । द्यूतादन्यत्र “पूदिव्यश्चः" ४।२।७२ इति क्तयोस्तस्य नत्वे आयुनः, आद्यनवान् । लिहायचि देवः । गौरादित्वाद् ङयां देवी । णके देवकः, देविका नदी । क्विपि अक्षयः । ण्यन्तात् विपि दयः । " उपसर्गाद् देव." ५।२।६९ इति णके आदेवयतीत्येवंशीलः आदेवकः, एवं परिदेवकः । उणादौ " दिव्यवि० " ( उ० १४२ ) इति अटे देवटः देवकुलविशेषः शिल्पी च । देवर इति तु देवतेः “ ऋच्छिचटि." ( उ० ३९७) इति अरे । देवल इत्यपि अस्यैव "मृदिकन्दि०" ( उ० ४६५ ) इति अले । “छविछिवि०" (उ० ७०६) इति 'कि(ङि)ति वौ निपातनाद् दीविः कितवः कालश्च । दिदिविः स्वर्गः । दीदिविः अन्नं स्वर्गश्च । किकीति कुर्वन् दीव्यति किकिदीविः चापः । " दिव ऋः" ( उ० ८५२) देवा देवरः पितृव्य स्त्री च । “लुपूयु."
१. ७०५ तमात् उणादिसूत्रात् ङित्प्रत्ययस्यानुवृत्तिः ॥
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२०२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १
(उ० ९०१) इति किति अनि दिवा, दिवानौ । प्रतिदिवनः, प्रतिदिवना । " दिवेर्डिव् " ( उ० ९४९) इति डिवि द्यौः, दिवौ । चित्करणं दिवादिज्ञापनार्थम् । एवं सर्वत्र ॥
___ अथ ऋदन्तौ सेटौ च ॥ '२ जूष ३ अषच् जरसि' । जरा वयोहानिः । “दिवादेः श्यः" ३।४।७२ जीयति । जजार । “जभ्रम" ४।१।२६ इति अतो वा एत्वे द्वित्वाभावे "स्कृतो." ४।३।८ इति गुणे च जेरतुः, जजरतुः । "ऋदिच्छ्वि० " ३४६५ इति अङि "ऋवर्ण" ४।३७ इति गुणे अजस्त् ; पक्षे सिचि "सिचि परस्मै०" ४।३।४४ इति वृद्धौ अजारीत् । " वृतो नवा" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्घ जरीता, जरिता । सनि " इवृध०" ४४४७ इति वेटि जिजरिषति, जिजरीषति, जिजीपति । " इट सिजाशिषोः०" ४।४।३६ इति वेटि अजरिष्ट, अजरीष्ट स्वयमेव; पक्षे “ ऋवर्णात् " ४।३।३५ इति सिचः कित्वे अजीष्ट स्वयमेव । एषु " एकधातौ० " ३।४।८६ इति कर्मकर्तर्यात्मनेपदम् , किरादित्वाच्च "भूषार्थ." ३।४।९३ इति जिच नास्ति, जरिपीट, जरीषीष्ट, जीर्षीष्ट । णौ “कगे०" ४।२।२५ इति हूस्वे जरयति । किति "ऋवर्णश्रि" ४४।५७ इति नेट् , “ गत्यर्थाकर्मक०" ५।१।११ इति वा कर्तरि क्ते जीर्णः चैत्रः; पक्षे भावे जीणं चैत्रेण । साप्यादपि " श्लिषशी० " ५।१।९ इति वा कर्तरि क्ते अनुजीर्णो घृषली चैत्रः; पक्षे कर्मणि अनुजीर्णा वृषली चैत्रण । अकर्मका अपि हि सोपसर्गाः सकर्मका भवन्ति । क्त्वि " जुत्रश्च ०" ४।४।४१ इति इटि जरित्वा जरीत्वा । " संगतेऽजयम् " ५।११५ न जीर्यति [इति ] अजयम् आर्यसंगतम् । अचि जरः । पृषोदरादित्वात् कुञ्जरः । भृते " जुषोऽतः" ५।१।१७३ जरन् , जरती । पिवादङि " ऋवर्ण" ४।३७ इति गुणे जरा । करणाधारे " न्यायावाय." ५।३।१३४ इति पापवादे पनि जारः । उणादौ " ऋतष्टित् " ( उ० ९) इति अ, सरूपे च द्वे रूपे, जर्जरः अदृढः, जर्जरी स्त्री । “विशिभ्यामन्तः " ( उ० २१९) जरन्तः वृद्धः । जश् वयोहानी [८१२९] जृणाति जण वयोहानौ [९।३८१], युजादित्वाद्वा णिचि जारयति, जरति ।।
३ झुपच्' । झीर्यति, जझार । “स्कृच्छ्तो०" ४।३।८ इति गुणे जझरतुः । झरिता । अचि अलि च झरः निर्झरः । पिचादङि "ऋवर्ण" ४१३७ इति गुणे झरा । अपिदयमित्यन्ये । उणादौ "ऋतष्टित् " ( उ० ९) इति अः सरूपे च द्वे रूपे, झझरः वाद्यविशेष:, झझरी झल्लरिका । “सृणीकास्तीक०" (उ० ५० ) इति ईके निपातनाद् झझरीकः देहः, झझरीका वादित्रमाण्डम् ॥
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६ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[२०३ अथौदन्ताश्चत्वारोऽनिटश्च ॥ '४ शोंच तक्षणे ' । तक्षणं तनूकरणम् । “न शिति" ४।२।२ इति आत्वप्रतिषेधात् “ओतः श्ये" ४।२।१०३ इति लुकि श्यति । "आत् सन्ध्यक्षरस्य" ४।२।१ इति आत्वे शशौ । " धेघाशा०" ४।३।६७ इति सिचो वा लुपि अशात् । पक्षे " यमरमि०" ४४८६ इति इटि सेऽन्ते च अशासीत् । णौ "पाशा०" ४।२।२० इति ये निशाययति । अनुस्वारेचानेट , शाता, शातुम् । किति ते " छाशो " ४।४।१२ इति वा इत्वे निशितः, निशातः, निशितवान् , निशातवान् , शित्वा, शात्वा, शितिः, शातिः । “शो व्रते" ४।४।१३ संशितव्रतः साधुः । “ तन्व्यधि०" ५।११६४ इति णे शायः । स्त्रियां भावाकों: " उपसर्गाद्" ५।३।११० इति अङि निशा । उणादौ "शाशपि०" (उ० २३७ ) इति दे शादः पङ्कः । “शामा०" (उ० ४६२) इति ले शाला । "शः सन्वच " ( उ० ७४७) इति डो शिशुः ।।
'५ 'दों ६ छोच छेदने' । "ओतः श्ये " ४।२।१०३ इति लुकि यति । " पिबति०" ४।३।६६ इति सिज्लुपि अदात् । ददौ । किति ते " दोसोमा०" ४।४।११ इति इत्वे दितः, दितवान् । स्वरान्तोपसर्गपूर्वस्य तु" स्वराद्" ४।४।९ इति तत्त्वे अवत्तम् । “दस्ति " ३३२६८८ इति नामिनो दीर्घ परीत्तम् । क्ये " ईय॑अने०" ४।३।९७ इति ईत्वे दीयते । अनुस्वारेच्चान्नेट , दाता, दातुम् । "तन्व्यधि०" ५।११६४ इति णे दाय: । " य एञ्चा०" ५।१२८ इति ये देयम् । दिनम् इति तु दीव्यतेः “दिननग्न०" (उ० २६८) इति निपातनात् ॥
६ छोंच' । अवच्छयति । " धेघा." ४।३।६७ इति वा सिजलुपि अच्छात् , अच्छासीत् । अपचच्छौ । किति ते " छाशो;" ४।४।१२ इति वा इत्वे छितः, छातः, छितवान् , छातवान् , छित्वा, छात्वा । अनुस्वारेचान्नेट् , छाता, छातुम् । णो “ पाशा" ४।२।२० इति ये छाययति उणादौ “गम्यमि०" ( उ० ९२) इति गे छागः । “स्थाछामा० " ( उ० ३५७) इति ये छाया । "छो डग्गादिर्वा" (3० ४७१) इति किति अले छगलः, छागः, छागल: ऋषिः, छलम् असदुत्तरम् ॥ १. दो अवखण्डने इति काशकृत्स्नक्षीरस्वामिनौ । ( का. धा. पृ. १३७,
क्षी. त. पृ. २०४) ।। २. छोर्ड' इति उणादिसूत्रे पाठः ॥
HTHHATHA
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________________
२०४ ]
6
७ पोंचू अन्तकर्मणि । अन्तकर्म विनाशः ।
"
66 पः सो० " २३ ९८ इति सत्वे अवस्यति । " उपसर्गात्सु ० " २|३|३९ इति पत्वे “ नेमादा० २|३|७९ इति णत्वे प्रणिष्यति । अड्व्यवायेऽपि अभ्यध्यत् व्यष्यत् । षोपदेशत्वात्
"6
"
44
नाम्यन्तस्था० २।३।१५ इति पत्वे सिषासति ।
' दूधेघा ० " ४|३|६७ इति 'ईर्व्यञ्जने ० ४।३।९७
19
66
1
*
साता,
वा सिज्लुपि अवासात्, अवासासीत् । अवससौ । क्ये इति ईत्वे अवसीयते । दोसोमास्थ० " ४|४|११ इति इत्वे अवसितः, अवसि - तवान् सित्वा । अवसायः, व्यवसायः । कथम् अध्यवस्य, व्यवस्य इति ? अत्र केचित् पारायणिका " ओतः श्ये " ४ |२| १०३ इति योगं विभज्य यप्यपि लुक - मिच्छन्ति, तदन्ये न मन्यन्ते इति वाचकवार्तिकम् । अनुस्वारेचा नेट् सातुम् । णौ ४।२।२० इति ये अवसाययति । ५।१।६३ इति णे अवसाय: । “ सातिहेति० " ५|३|९४ इति तौ निपातनात् सातिः । अनटि अवसानम् । उणादौ " स्थाछामा० ( उ० ३५७ ) इति ये सायम् I सात्मन् ० ( उ० ९१६ ) इति मनि निपातनात् सात्म अत्यन्ताभ्यस्तं प्रकृतिभूतम् । सात्मनो भावः सात्म्यम् ॥
44
" पाशा०
. "
अवहसा ०
46
""
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ७
चैत्रः । नतः ।
अथ डान्तः सेट् च ॥
4
27
८ व्रीडच लज्जायाम् ' । व्रीड्यति, विव्रीड, व्रीडितः । " तेटो० ५|३|१०६ इति अः व्रीडा । ऋफिडादित्वाल्लत्वे व्रील्यति, बीला । पुंभावे घञि व्रीडः ॥
66
ܕܕ
अथ तान्तः सेट् च ॥
4
99
कृतचत०
' ९ नृतैच् नर्तने ' । नर्तनं नाट्यम् । नृत्यति ननर्त, नर्तिता, नर्तितुम् । अणोपदेशत्वाद् " अदुरुपसर्ग० ” २।३।७७ इति णत्वाभावे प्रनृत्यति । ४|४|५० इति असिचः सादेरादिवेंद्र, नर्तिष्यति, नत्र्त्स्यति, निनर्तिषति, निनृत्सति । सिचि तु नित्यमिटि अनर्तीत् । वेदत्वादेव क्तयोरिडभावे सिद्धे ऐदित्करणं यङ्लुबन्तादनेकस्वरादपि इडभावार्थम् नृत्तः, नृत्तवान् नरिनृत्तः, नरिनृत्तवान् । नृतेर्यङि " २३|९५ इति णत्वप्रतिषेधे नरीनृत्यते । णौ “ ईगितः
"
46
44
"" ३।३३९५
46
इति फलवत्कर्तर्यात्मनेपदे “ अणिगि प्राणिकर्तृकात् ० " [ ३।३।१०७] इति परस्मैपदेनापोदिते परिमुद्दायम० " ३।३।९४ इति पुनर्विहिते नृत्यति नटः, नर्तयते नटं " ऋदुपान्त्याद्० ५|१|४१ इति क्यपि नृत्यम् । लिह्नाद्यचि घञि वा 99 नृत्खन ० ५|१|६५ इति अकटि नर्तकः । अनटि " पूर्वपदस्थाद्० " २।३।६४ इति णत्वस्य क्षुम्नादित्वादभावे प्रनर्तनम् | "क्लीवे० " ५|३|१२३ क्ते नृत्तम् ॥
66
"
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१४ ] धातुपारायणे दिवादय: ( ३ )
अथ थान्तौ सेटौ च ॥
चुकोथ, ३५१ )
१० कुथच् पूतिभावे ' । पूतिभावो दुर्गन्धः क्लेदः । कुध्यति, कोथिता, कुथितम् । घञि कोथः । उणादौं " उद्वटिकुलि० " ( उ० इति कुमे कुथुमः ऋषिः, कुथुमं मृगाजिनम् । " कुथिगुघेरूमः ( उ० ३५३ ) कोधूमः चरणकदृषिः ॥
17
'११ पुथच हिंसायाम् ' । पुथ्यति, पुपोथ, पोथिता, पोथितुम्, पुथितः । पुथ भासार्थः | ९|२१८ ], पोथयति ।।
अथ धान्तास्त्रयः ॥
66
क्षुध
19
' १२ गुधच् परिवेष्टने ' । गुध्यति, जुगोध, गोधिता, गोधितुम् । क्लिश० ४ | ३ | ३१ इति क्वः कित्त्वे गुधित्वा । गुधितः । लिह्राद्यचि भिदाद्यङि वा गोधा । उणादौ " कुथिगुधेरूमः " ( उ० ३५३ ) गोधूमः । “गुधिगृधेस्तच " ( उ० ५६८ ) इति किति से गुत्सः तृणजातिः । गुच्छ इति तु गवतेः " मदि० ( उ० १२४ ) इति छकि ॥
तुदि
"
[ २०५
,
पाठो वृद्धौ एव राघ्नोति - ओदनं
1
1
' १३ राधेच वृद्धौ ' । स्वादिषु पठिष्यमाणस्याप्यस्य इह श्यविकरणार्थः । राध्यति - वर्धते इत्यर्थः । वृद्धेरन्यत्र शुः एव पचतीत्यर्थः । मैत्राय राघ्नोति - मैत्रस्य शुभाशुभं पर्यालोचयतीत्यर्थः । कथं तर्हि ' मैत्राय राध्यति ' इत्यत्र स्यः १ अत्रापि मैत्रस्य वृद्धिविषयं शुभाशुभपर्यालोचन मिति विवक्षायां वृद्धघर्धता एव, इति स्यादेव । अनुस्वारेवान्नेट्, राद्धा, राहुम् । चुरादेशकृतिगणत्वाद् राधयति । कश्चित्तु राध - साध संसिद्धौ इति पठन् वृद्धेरन्यत्रापि राधेः श्यं साधि च धात्वन्तरमिच्छति, राध्यति अन्नम्, साध्यति ॥
44
4 १४ व्या ' 1 " शिदवित् " ४ | ३ | २० इति श्यस्य ङिखाद् ज्याव्यधः ङ्किति " ४|११८१ इति वृति विध्यति । " ज्याव्यव्यधि० " ४। १ ७१ इति पूर्वस्य इत्वे विव्याध । अनुस्वारेवान्भेटू, व्यद्धा, व्यद्धुम् विद्धः । " तन्व्यधि० " ५|१|६४ इति णे व्याधः । क्विपि " गतिकारकस्य० " ३।२२८५ इति दीर्घे मर्मावित्, श्वावित् । अनुपसर्गात् " व्यधजप ०
"
"
५।३।४७ इति अलि
व्यधः । उपसर्गात्तु घञि आव्याधः ।
46 स्थादिभ्यः कः
अनेनेति विधः शस्त्रोपकरणम् आविधम्
।
किदुः, विधुः चन्द्रः ||
"
उणादौ " पृका०
ܙܕ
99
५।३।८२ विध्यन्ति
( उ० ७२९ ) इति
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२०६]
अथ पान्ता ॥
' १५ क्षिपंच प्रेरणे' क्षिष्यति चिक्षेप | अनुस्वारेत्त्वान्नेट, क्षेप्ता, क्षिप्तः । " त्रसिगृधि० " ५|२| ३२ इति वनौ क्षेपशील: 'क्षिणुः । क्षिपत् प्रेरणे [ ५३ ] क्षिपते, क्षिपति ॥
' १६ पुष्पच् विकसने ' । पुष्यति, पुपुष्प, पुष्पिता, पुष्पितः । अचि पुष्पम् ॥ अथ मान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥
4
19
१७ तिम १८ तीम १९ टिम २० टीमच आर्द्रभावे" । तिम्यति, तितेम, तेमिता, तिमितः । अनटि तेमनम् । उणादौ " शुषीषि० ( उ० ४१६ ) इति किति इरे तिमिरम् 66 नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९ ) इति किदिः तिमिः
।
मत्स्यः ॥
66
44
आचार्य श्री हेमचन्द्रविरविते [ धा० १५
' १८ तीम' । तीम्यति, तितीम, तीमिता ॥
6
,,
66
१९ ष्टिम षः सो०
"
"
२३ ९८ इति सत्वे स्तिम्यति । षोपदेशत्वात्
२|३|१५ इति षत्वे तिष्टेम । स्तेमिता, स्तिमितः ॥
नाम्यन्तस्था०
6 २० ष्टीम' । "षः सो० ” २।३।९८ इति सत्वे स्तीम्यति । षोपदेशत्वात्
99
नाम्यन्तस्था० २|३|१५ इति षत्वे तिष्टीम । स्वीमिता, स्तीमितः ॥
अथ वान्ताश्चत्वारः सेटच ||
' २१ पिवृच् उतौ' । उति:- वानम्, तन्तुसन्तान इत्यर्थः । " षः सो० " २३९८ इति सत्वे सीव्यति । षोपदेशत्वात्
66
27
नाम्यन्तस्था ० २।३।१५ इति
२।३।४८ इति षत्वे परि
46
"
1
"
"
सत्वे सिषेत्र । परि-नि- विपूर्वस्थ " असोङ सिवूसह ० पीव्यति, निपीव्पति, विषीव्यति । अव्यवाये स्तुस्वञ्जश्च० २।३।४९ इति वा षत्वे पर्यषीव्यत् पर्यसीव्यत्, न्यषीव्यत्, न्यसीव्यत् व्यषीव्यत्, व्यसीव्यत् । सेविता, सेवितुम् । ऊदिवात् क्वि वेटू, अनुनासिके च० ४।१।१०८ इति वस्य ऊटि स्मृत्वा । इटि क्त्वा ४।३।२९ इति किवाभावाद् गुणे सेवित्वा । वेदत्वात् क्तयोनेंद्र, स्यूतः स्यूतवान् । ष्टिवसवोऽनटि वा " वा दीर्घे सेवनम् सीवनम् | लिहाद्यचि स्वार्थे के च प्रसेवकः ।
44
"
46
उणादौ " सिवेडित् " ( उ० १२१ ) इति ऊचटि सूचः, सूची । सूत्रम् इति तु
66
सूमूखन्नि० " ( उ० ४४९ ) इति किति त्रुटि सूतेः ॥
66
४२११२ इति मनि स्योमा ।
१. पाणिनीयतन्त्रे अभिधानचिन्तामणौ [ ३१४ ]च ' क्षिप्नु' शब्द: दृश्यते ॥
२. ' अस्ति मत्स्यो तिमिर्नाम शतयोजनविस्तर:' इति भरत ॥
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२६ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २०७
'२२ 'वूिच गतिशोषणयोः' । श्रीव्यति, शिश्रेव, श्रेविता । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , “ मव्यवि० " ४।१।१०९ इति वस्य उपान्त्येन सह अटि श्रुत्वा । इटि श्रेवित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट , श्रूतः, श्रृतवान् । विपि श्रः, अणुश्रः ।।
२३ ष्ठिवू २४ क्षिवृच निरसने' । “षः सो०" २१३९८ इत्यत्र ठियो वर्जनात् सत्वाभावे " भ्वादेः" २०१।६३ इति दीर्षे ष्ठीव्यति । " अघोषे शिट" ४।११४५ इति पूर्वस्य पस्य लुकि " तिर्वा०" ४।११४३ इति वा तौ टिष्ठेव, तिष्ठेव । ष्ठेविता । उदित्त्वात् क्त्वि वेट , ष्यत्वा, प्ठेवित्वा । वेटत्वात् क्तयोनेंट् , निष्ठयूतः, निष्ठयूतवान् । “ष्ठिव सिवोऽनटि वा" ४।२।११२ इति वा दीर्घे निष्ठीवनम् , निष्ठेवनम् ॥
२४ क्षिवूच' । क्षीव्यति, चिक्षेव, क्षेविता । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , क्ष्यत्वा, क्षेवित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , यूतः, यूतवान् । ष्ठिवू-क्षिवू निरसने [११४६३, ४६४ ] टीवति, क्षेवति ॥
अथ षान्तः सेट् च ॥ २५ इपच गतौ । इष्यति, इयेष, एषिता, एषित्वा । ऊदिदयमित्यन्ये, तन्मते वित्व वेट् , इष्ट्वा, एषित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , इष्टः, इष्टवान् ।।
" यद्वायुरन्विष्टमृगैः किरातैरासेव्यते मिन्नशिखण्डिबर्हः" [कुमारसंभव १११५], अन्विष्यः-प्रेषितः । “ ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि एष्यः । घनि एषः । " प्रस्यैषैष्य० " १।२।१४ इति ऐत्वे प्रेष्यः, प्रेषः । “उपसर्गस्यानिण” ११२।१९ इति अल्लुकि प्रेषणम् । “ इषोऽनिच्छायाम्" ५।३।११२ इति अने एषणा, अन्वेषणा। "पर्यधेर्वा " ५।३।११३ पर्यषणा, परीष्टिः; अध्येषणा,अधीष्टिः । "श्रूवादिभ्यः" ५।३।९२ इति तो इष्टिः । उणादौ “इष्यशि०" (उ० ७७) इति तककि इष्टका । " मस्जीषि०" ( उ० ८२६) इति सुकि इक्षुः । इपत् इच्छायाम् [ ५।१०५] इच्छति, एष्टा, एपिता । इष आभीक्ष्ण्ये [ ८१५२] इष्णाति ॥
अथ सान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ '२६ ष्णसूच निरसने' । “पः सो०" २।३।९८ इति सत्वे निमित्ताभावात् णस्य नत्वे स्नस्यति, सस्नास, स्नसिता । ऊदित्वात् क्त्वि वेट, स्नस्त्वा, स्वसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , स्नस्तः, स्नस्तवान् । पोपदेशत्वात् "नाम्यन्तस्था."
१. निवु गतिशोषणयोः इति क्षीरस्वामी, (क्षी. त. १९८) । २. परीष्टिः श्राद्धे द्विजशुश्रषा (लि. टी. २६) ॥
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२०८ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्र विरचिते [ धा० २६
२।३।१५ इति षत्वे सिष्णासविषति । घटादिश्यमित्यके, तन्मते णौ ह्रस्वे सिष्णसयिषति । ष्णुस अदने इति द्रमिलाः, स्नुष्यति, सुष्णोस ॥
'२७ क्नमूच हूवृतिदीप्त्योः ' । हूवृतिः - कौटिल्यम् । वनस्यति, चक्नास, वनसिता । ऊदित्वात् क्त्व वेट्, कनसित्वा, क्नस्त्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेटू, क्नस्तः, वनस्तवान् । अचि " चिक्लिद० " ४।१।१४ इति निपातनात् चक्नसः |
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44
' २८ त्रसैच भये ' । भ्रास - भ्लास ० ३ | ४ | ७३ इति वा श्ये त्रस्पति, पक्षे " कर्तर्यनद्भ्यः ० " ३३४।७१ इति शवि त्रसति तत्रास। " भ्रम० " ४।१।२६ इति वा त्वे द्वित्वाभावे च सतुः, त्रेसुः । थवि “ " स्क्रसृवृ० ४|४|८१ इात इटि सिथ, पक्षे तत्रसतुः, तत्रसुः, तत्रसिथ । त्रसिता, त्रसित्वा । ऐदिवात् तयोर्ने, त्रस्तः, त्रस्तवान् । " त्रप्ति- गृधि० " ५/२/३२ इति वनुः, त्रसनशीलः
। स वारणे [ ९ । १९३ ] त्रासयति ||
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२९ प्युसच दाहे '
प्युस्यति, पुष्योस, प्योसिता, प्युमितः ॥ अथ हान्ता सेटौ च ॥
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३० प६ ३१ बुहच् शक्तौ ' । " षः सो० ” २ ३ ९८ इति सत्वे सति । परि-नि- विपूर्वस्य " असोङ० ” २।३।४८ इति पत्वे परिषद्यति निषह्यति, विषअनादेशादे: ० " ४|१|२४ इति एत्वे द्वित्वाभावे च सेहतुः,
66
द्यति । ससाद | सेहुः | सहिष्यति ||
1 46 ' ३१ पुहच् पः सो० " २।३।१५ इति षत्वे
२३९८ इति सत्वे सुह्यति । षोपदेशत्वात् सोहिता, सुहितः, सुहितवान् । " तृप्तार्थ ० " ३।११८५ इति षष्ठीसमासप्रतिषेधात् फलानां सुहितः । तृप्तौ
44
नाम्यन्तस्था०
सुषोह
अयमित्येके ||
अथ दिवाद्यन्तर्गणः पुषादिः परस्मैपदी एवं ।
तत्रापि प्रसिद्धयनुरोधाद् आदौ -
• ३२ पंच पुष्टौ । अकर्मकोऽयम् पुष्यति । पुष्यादित्वादङि अपुषत् ।
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66
कुप्यभिद्योध्य० ५११३९
।
स्वस्नेहन ०
पुपोष । अनुस्वारेच्चान्नेटू, पोष्टा, पुष्टः पुष्ट्वा । इति निपातनात् क्यपि पुष्यन्त्यस्मिन्नर्थाः इति पुष्यः इति णमि स्वपोषं पृष्टः; एवं गोपोषम् । पुष पुष्टौ पुष्टौ [ ८/५७ ] पुष्णाति । पुषण धारणे [ ९।१८८ ] पोषयति ॥
५/४/६५ [ १।५३६ ], पोषति । पुषशू,
१. ष्णुस अदर्शने इति द्रमिडाः इति क्षीरतरङ्गिण्याम् ( क्षो. त. १९८ ) ॥
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ܕܪ
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३७ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
अथ चान्तः सेट् च ॥ ३३ उचच समवाये' । समवाय ऐक्यम् । उच्यति, उबोच । पुष्यायङि औचत् । उचिता, उचितः, उचित्वा । घजि न्यवादित्वात् कत्वे ओकः । उणादौ "शि-पिशि०" ( उ० २१२ ) इति किति इते उचितम् । “ उच्यश्चेः क च" (उ० ९६५) इति असि ओकः, ओकसी । द्यौः ओकः येषां ते, पृषोदरादित्वाद् , दिवौकसः । दिवशब्दो वा अकारान्तः ॥
अथ टान्तः सेट् च ॥ ३४ लुटच विलोटने' । लुट्यति । लुलोट । पुष्याघडि अलुटत् । लोटिता, लुटितः । लुट विलोटने [ १११९० ], लोटति, अलोटीत् । लुटण भासार्थः [ ९।२१४ ], लोटयति ॥
__अथ दान्ताश्चत्वारः ॥ '३५ विदांच गात्रप्रक्षरणे' । गात्रप्रक्षरणम्-धर्मतिः । “सः पो." २।३।९८ इति सत्वे स्विद्यति । पोपदेशत्वात् “ नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति पत्वे सिग्वेद । पुष्याद्यङि अस्विदत् । आदित्वात् क्तयोर्नेट् , स्विनः, स्विन्नवान् । " नवा भावारम्भे" ४।४।७२ इति वा नेटि स्विनमनेन प्रस्विन्नः । पक्षे इटि " न डीङ्" ४।३।२७ इति किवाभावाद् गुणे स्वेदितमनेन प्रस्वेदितः । अनुस्वारेवान्नेट, स्वेत्ता, स्वित्वा । निविदाङ् मोचने च [११९४६], स्वेदते, स्वेदिता ॥ .. '३६ क्लिदौच आर्द्रभावे ' । क्लियति, चिक्लेद । पुष्याद्यङि अक्लिदत् ।
औदिचात् वेट् । सनि चिक्लित्सति । क्लित्वा । पक्षे इटि "वो व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति वा किच्चे चिक्लिदिषति, चिक्लेदिषति, क्लिदित्वा, क्लेदित्वा । वेट्त्वात् क्तयोनेट् , क्लिन्नः, क्लिन्नवान् । “ नाम्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के " चिक्लिद०" ४।१।१४ इति निपातनात् चिक्लिदः । उणादौ " भृमृत० " ( उ० ७१६) इति उः, क्लेदुः योनिः ॥
३७ जिमिदाच स्नेहने' । “मिदः श्ये " ४३५ इति गुणे मेद्यति । मिमेद । पुप्यायडि अमिदत् । मेदिता । जीवात् “ ज्ञानेच्छा. " ५।२।९२ इति सति ते “ आदितः" ४।४।७१ इति नेटि मिन्नः मिन्नवान् । “नवा भावारम्भे" ४।४।७२ इति वा नेट् , मिन्नमनेन, प्रमिन्नः । पक्षे इटि " न डी०" ४।३।२७ २७
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२१०]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३७इति कित्त्वाभावात् गुणे मेदितमनेन प्रमदितः । लिहायचि मेदः, मेदाख्यो देशः । " भलिभासि०" ५।२७४ इति घुरे मेदनशीलः मेदुरः । “णिन् चावश्यक." ५।४।३६ इति णिनि मेदिनी । उणादौ “ अस्" ( उ० ९५२) इति असि मेदः वपा । जिमिदाङ् स्नेहने [ ११९४४ ], मेदते, अमेदिष्ट । मिदुण स्नेहने [ ९।९० ], मिन्दयति ॥
'३८ मिश्विदाच मोचने च' । चकारात् स्नेहने । विद्यति, विश्वेद । पुष्यावङि अश्विदत् । श्वेदिता । “आदितः" ४४७१ इति क्तयोर्नेट् , जीवात् " ज्ञानेच्छा०" ५।२।९२ इति सति ते विण्णः, विष्णवान् । “नवा भावारम्भे" ४।४।७२ इति वा नेट , विष्णमनेन प्रविण्णः । पक्षे इटि " न डी० " ४।३।२७ इति किवाभावात् गुणे वेदितमनेन प्रक्ष्वेदितः । निविदा अव्यक्त शब्दे [ १।३०० ], क्ष्वेदति । निविदाङ् मोचने च [ ११९४५ ], क्ष्वेदते, अश्वेदिष्ट ॥
अथ धान्ताः सप्त ॥ '३९ क्षुधंच बुभुक्षायाम्' । क्षुध्यति, चुक्षोध । पुष्याघडि अक्षुषत् । अनुस्वारेच्चान्नेट् , क्षोद्धा । क्त्वोक्तेषु "क्षुधवसस्तेषाम् " ४४४३ इति इटि "क्षुधक्लिश० " ४।३।३१ इति कित्त्वे क्षुधित्वा, क्षुधितः क्षुधितवान् । ये तु क्षुधेः क्त्वः कित्त्वं नेच्छन्ति, तन्मते " वो व्यञ्जनादेः " ४।३।२५ इति वा किल्वे क्षुधित्वा, क्षोधित्वा । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि क्षुत् । याहुलकात् उकणि शोधुकः' । उणादौ " पिशिमिथि० " ( उ० २९० ) इति किति उने क्षुधुनः कीट: ।
___ '४० शुधंच शौचे' । शोचं नैर्मल्यम् । शुध्यति, शुशोध । पुष्याघङि अशुधत् । अनुस्वारेवान्नेट् , शोद्धा, शुद्धः ॥
* ४१ क्रुधंच कोपे' | " क्रुद् द्रुह० " २।२।२७ इति संप्रदानत्वे चैत्राय क्रुध्यति । चुक्रोध । पुष्याद्यङि अधत् । अनुस्वारेन्चान्नेट , क्रोद्धा, क्रुद्धः । "भूषा-क्रोधा०" ५।२।४२ इति अने क्रोधशीलः क्रोधनः । “कुत्संपदा०" ५।३।११४ इति विपि क्रुत् ॥
४२ विधूच संराद्धौ' । संसद्धिः निष्पत्तिः । “सः पो०" २३९८ इति सत्वे सिध्यति । षोपदेशत्वात् “ नाम्यन्तस्था० " २२३।१५ इति षत्वे सिषेध ।
१. क्षौधुकः इति मु० ॥ २. ध इति मु० ॥
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४४ ] धातुपारायणे दिवादय: (३)
[ २११
पुष्याद्यङि असिधत् । णौ " " सिध्यतेरज्ञाने " ४/२/११ इति आत्ये अन्नं साधयति दातुम् । ज्ञाने तु, आचारः कुलं सेधयति, ज्ञापयतीत्यर्थः । अनुस्वारेच्त्वान्नेट् सेद्धा, सेदुम् सिद्ध: । ऊदित्वात् क्त्वि वेटू, सिवा सेधित्वा, सिधित्वा । पिधू त्याम् [ १ ३२० ], षिधौ शास्त्रमाङ्गल्ययो: [ ११३२१ ], सेधति ॥
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४३ ऋधूच वृद्धौ ' । ऋध्यति, समृध्यति । अनातो ० " ४|१|६९ इति पूर्वस्य आत्वे ने च आनर्ध, आनृधतुः । पुष्याद्यङि आर्धत् । ' अमाङ ' [ ४।४।२९] इत्यधिकारात् " स्वरादेः ० " ४।४ । ३१ इति वृद्धयभावे मा ऋधत् । अर्धिता, अर्धितुम् । सनि “ 99 इवृध० ४|४|४७ इति वेटि " अयि रः " ४|१|६ इति रस्य द्वित्वाभावे स्वरादेः ० " ४|१|४ इति द्वितीयांशस्य धेः एव द्वित्वे अर्दिधिपति, पक्षे इडभावे सादौ सनि ' ऋध ईत् " ४।१।१७ न च द्विः, इसति । ऊदित्वात् क्वि वेट्, ऋद्धवा, अर्धित्वा वेत्वात् तयोर्नेट्, ऋद्ध:, ऋद्धवान् । णौ अर्धयति । आर्दिधत् । ऋदुपान्त्याद्० " ५ | १|४१ इति क्यपि ऋध्यम् । घञि अर्धः । ऋटू वृद्धौ [ ४ २१ ], समृध्नोति ॥
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'४४ गृधूच अभिकाङ्क्षायाम् ' । गृध्यति, जगर्ध । पुष्याद्यङि अमृधत् । लुबि सिवि गुणे "से: सूद्धाम् ० ४ | ३ |७९ इति से: लुकि धस्य रुत्वे आदिचतुर्थत्वे " रो रे० " १।३।४१ इति रस्य लुकि अतो दीर्घे च, अजर्घाः दिवि " यतुरुस्तो: ० " ४|३|६४ इति इति “ द्वयुक्तोपान्त्य ० " ४|३|१४ इति गुणाभावे अजगृधीत् । गर्धिता, गर्धितुम् । ऊदिवात् विश्व वेटू, गृद्भूवा, गर्धित्वा, 46 क्त्वा " ४ | ३ |२९ इति कित्त्वाभावात् गुणः । वेदत्वात् तयोर्नेट् गृद्धः, गृद्धवान् । णौ फलवत्कर्तरि “ अणिगि प्राणिकर्तृक० “ शेषात्परस्मै " ३ | ३|१०० इति परस्मैपदे इति आत्मनेपदेवानं गर्धयते । सिगृधि० " ५।२।३२ इति वनुः, गृध्नुः । भूषाक्रोधा० ५|२|४२ इति अने गर्धनः । घञि गर्धः । स्त्रियां क्तौ गृद्धिः । उणादौ " ऋज्यजि० " ( उ० ३८८ ) इति किति रे गृधः । केचित्त गृधि चुरादिमभ्युपगम्य णिचि " प्रलम्भे गृधि० " ३।३।८९ इति आत्मनेपदमिच्छन्ति, गर्धयते ॥
प्राप्ते
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१. सिध्यते राज्ञा इति मु० || २. सिधि इति मु० ॥
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३|३|१०७ इति, अफलवति तु " प्रलम्भे गृधि० "
३. अजघाः इति मु० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४५
__४५ रघौच हिंसासरायोः ' । संसद्धिः पाकः । रध्यति । “रध इटि." ४।४।१०१ इति ने रन्ध । संयोगान्तत्वात् परोक्षायाः किवाभावे रन्धतः । " स्क्रसृवृ०" ४४८१ इति इटि रन्धिव, ररन्धिम । क्वसौ " अनादेशादेः०" ४।१।२४ इति एत्वे कृते, एकस्वरत्वात् " घसेकस्वरातः०" ४४८२ इति इटि " रध इटि० " ४।४।१०१ इति नाऽऽगमे, कित्वात् न लुकि च रेधिवान् । पुष्याघडि “नो व्यान०" ४।२।४५ इति न लुकि अरधत् । औदिचात् वेट , " इटि तु परोक्षायामेव" ४।४।१०१ इति नियमात् नाभावे रधिता, अरधिष्यत् । पक्षे रद्धा, अरत्स्यत् । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , रद्धः, द्धवान् । णौ रन्धयति । पिच संगद्धौ [३।४२ ] रघौच हिंसायां च इत्यकृत्वा अस्याऽत्र निर्देशः संसद्धिभेदज्ञापनार्थः ।।.
अथ पान्ता नव सेटश्च ॥ '४६ पौच प्रीती' । प्रीतिः सौहित्यम् । तृष्यति, ततर्प, पुण्याद्यङि अतृपत् । " स्पृशमृश० " ३।४।५४ इति वा सिचि अतासीत् । “स्पृशादि०" ४।४।११२ इति स्वरात्परे वाऽति अत्राप्सीत् । इटि अतीत् । औदिचात् वेट् , तर्पिता, तप्र्ता, वप्ता । वेटत्वात् क्तयोनेंट् , तृप्तः, तृप्तवान् । उणादौ "ऋज्यजि." (उ० ३८८ ) इति किति रे तृपं दुःखम् । तृपट् प्रीणने [ ४।२३ ] तृप्नोति ॥
'४७ दृपोच हर्षमोहनयोः । मोहनं गर्वः । दृप्यति, ददर्प । पुष्यायडि अदपत् । " स्पृशमृश० " ३।४।५४ इति वा सिचि अदासीत् । " स्पृशादि." ४।४।११२ इति स्वरात्परे वाऽति अद्राप्सीत् । इटि अदीत् । औदित्वात् वेट् , दर्पिता, दर्ता, द्रप्ता । पेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , दृप्तः, दप्तवान् । उणादौ "ऋज्यजि०" (उ० ३८८ ) इति किति रे दृप्रम् बलम् , दृप्रा बुद्धिः ॥
४८ कुपच क्रोधे' । कुप्यति, चुकोप । पुष्यादित्वादडि अकुपत् । कोपिता, कोपितुम् , कुपितः । भूषाक्रोधा." ५।२।४२ इति अने कोपशीलः कोपनः । लिहायचि पनि च कोपः ॥
__ ४९ गुपच् व्याकुलत्वे'। गुप्यति, जुगोप । पुष्याद्यङि अगुपत् । गोपिता । " कुप्यमिद्य०" ५।१।३९ इति निपातनात् क्यपि कुप्यम् सुवर्णरजताभ्यामन्यत् । “ शकितकि०" ५।१।२९ इति ये गोप्यमन्यत् । गुपौ रक्षणे [ ११३३२ ] गोपायति । गुपि गोपनकुत्सनयोः [ ११७६३ ], जुगुप्सते । गुपण भासार्थः [ ९।२२१ ], गोपयति ॥
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५८ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २१३ '५० युप, ५१ रुप, ५२ लुपच् विमोहने' । युप्यति, रुप्यति, लुप्यति । पुष्याद्यङि अयुपत् , अरुपत् , अलुपत् । “वो व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति क्वासनोः वा किन्वे युपित्वा, योपित्वा, युयुपिषति, युपोपिषति । एवं रुपलुपोरपि । घजि रोपः-शरः । उणादौ " शिक्यास्थाढय० " ( उ० ३६४ ) इति ये निपातनात् रुप्यतीति रूप्यं-रजतम् । लुप्लती छेदने [ ५९ ], लुम्पते, लुम्पति ॥
'५३ डिपच क्षेपे' । डिप्यति, डिडेप । पुण्याद्यङि अडिपत् । डेपिता । "शकितकि० " ५।१।२९ इति ये डेप्यम् । डिपत् क्षेपे [ ५।१४४ ], डिपति । डिपण क्षेपे [ ९।१०१] डेपयति ।।
'५४ ष्ट्रपच् समुच्छाये' । “पः सो०" २३।९८ इति सत्वे स्तूप्यति । षोपदेशत्वात् “ नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे तुष्ट्रप । पुष्याद्यङि अस्तूपत् । णौ सनि “णिस्तोरेवा० " २।३।३७ इति षत्वे तुष्ट्रपयिषति । स्तूपिता, स्तू. पितुम् । 'ष्ट्रपण समुच्छाये [९।१००.], स्तूपयति । अलि स्तूपः ॥
अथ भान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ - '५५ लुभच् गार्द्धये । गाद्धर्थम्-अभिकाङ्क्षा । लुभ्यति, लुलोभ । पुष्याघडि अलुभत् । लोभिष्यति । तादौ " सहलुभ० " ४।४।४६ इति वेटि लोब्धा, लोभिता । वेट्त्वात् क्तयोनेंट , लुब्धः, लुब्धवान् । लुभत् विमोहने [५।७६ ], लुभति । विलुभिता: केशाः ॥
५६ शुभच् संचलने' । संचलनं-रूपान्यथात्वम् । क्षुभ्यति, चुक्षोभ । पुष्याद्यङि अक्षुभत् । क्षोभिता । "क्षुब्धविरिन्ध०" ४।४।७० इति ते निपातनात् क्षुब्धः मन्थः । क्षुभित: अन्यः । क्षुभि संचलने [ ११९४८ ], क्षोभते । शुभ संचलने [ ८४६ ], क्षुम्नाति । धुतादिपठितेनेव अक्षुभत् इति सिद्धम् , श्यविकरणार्थ तु दिवादी अयमवश्यं पठितव्य इति पुण्यादावपि पठितः ॥
'५७ णभ ५८ तुभच हिंसायाम्' । “पाठे." २२३९७ इति नत्वे नभ्यति । णोपदेशत्वात् “अदुरुपसर्ग० " २१३७७ इति णत्वे प्रणम्यति । ननाम । पुण्याद्यङि अनभत् । नभिता । “ शकितकि०" ५।१।२९ इति ये नभ्यम् ॥
५८ तुभच् ' । तुभ्यति, तुतोभ । पुष्याघडि अतुभत् । तोभिता । णमि तुभि हिंसायाम् [११९४९, ९५० ], नभते, तोभते । णभ-तुभश् हिंसायाम् [८१४७, ४८ ], नभ्नाति, तुम्नाति ॥ ___ १. ष्टुपण इति मु० ॥
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२१४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ५९अथ शान्ताः षट् सेटश्च ॥ "५९ नशौच अदर्शने' । अदर्शनम्-अनुपलब्धिः । नश्यति । "नश: शः" २।३।७८ इति नस्य णत्वे प्रणश्यति । ननाश, नेशतुः । पुष्पायङि " नशेर्नेश्वा'." ४।३।१०२ इति वा नेशाऽऽदेशे अनेशत् , अनशत् । औदित्वात् वेट् , “ नशो धुटि" ४।४।१०९ इति ने नष्टा, नशिता । " नशः शः" २।३७८ इति षान्तस्य न णत्वम् , प्रनक्ष्यति । शान्तस्य णत्वे प्रणशिष्यति । " जनशो नि०" ४।३।२३ इति वा किन्वे नष्ट्वा, नंष्ट्वा, नशित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , नष्टः, नष्टवान् । णत्वाभावे प्रनष्टः । विपि “ नशो वा" २२११७० इति वा गत्वे नश्यति इति नक्, पक्षे " यजसृज०" २२११८७ इति पत्वे नट् । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि जीवनक, जीवनटू । णौ फलवत्कर्तर्यपि "चल्याहारार्थ." ॥३॥१०८ इति परस्मैपदे नाशयति । नन्द्याधने नाशयतीति नाशनः । “निन्दहिंस०" ५।२।६८ इति णके विनशनशीलो विनाशकः । " सृजीण " ५।२७७ इति ट्वरपि नश्वरः, नश्वरी । “कर्तुर्जीव०" ५।४।६९ इति णमि जीवनाशं नष्टः । उणादौ "जिभृमृ० " ( उ० ४४७) इति त्रुटि वृद्धौ च नाष्ट्रा यातुधानाः ॥
'६० कुशच श्लेषणे' । कुश्यति, चुकोश । पुष्याद्यङि अकुशत् । कोशिता। " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के कुशः । “ भाजगोण०" २।४३० इति छुथाम् कुशी आयसी चेत् । कुशा अन्या । घनि कोशः । गौरादित्वात् ड्यां कोशी । उणादौ " तृपिवपि० " ( उ० ४६८) इति किति अले कुशलम् । " कुशिकमिभ्यां कुलकुमौ च" (उ० ५०३) इति मलकि कुल्मलम्-छेदनम् ॥
'६१ भृशू ६२ भ्रंशूच अधःपतने' । भृश्यति । बभर्श । पुष्याघडि अभृशत् । भर्शिता । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , भृष्ट्वा, "क्त्वा" ४।३।२९ इति कित्त्वाभावे भर्शित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , भृष्टः, भृष्टवान् । “नाम्युपान्त्य." ५।११५४ इति के भृशः ॥
'६२ भ्रंशून्' । भ्रश्यति । बभ्रंश । पुष्याघडि अभ्रशत् । भ्रंशिता । अदित्वात् क्त्वि वेट , भ्रष्ट्वा, अंशिवा । वेट्त्वात् क्तयोनेंट , भ्रष्टः, भ्रष्टवान् । "वश्वास" ४।११५० इत्यत्र धंसिसहचरितस्य म्वादेरेव भ्रंशेग्रहणात् न्यभावे यङि वाभ्रश्यते । प्रशृङ् अवलंसने [ ११९५२ ], अंशते, अभ्रंशिष्ट, बनीभ्रश्यते । क्विपि “घ पसर्गस्य० " ३।२।८६ इति बाहुलकाद् दीर्चे वहाभ्रट् ॥
१. था० इति मु० ॥
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६७ ] धातुपारायणे अदादय: ( ३ )
वृशितः ।
"
, ६३ वृशच् वरणे
44
44
[ २१५
| वृश्यति । वर्श । पुष्याद्यङि अवृशत् । वर्शिता । ५/१/५४ इति के वृशः । घञि वर्शः ॥
"
नाम्युपान्त्य ०
6
६४ कृशच् तनुत्वे' । कृश्यति । चकर्श । पुष्याद्यङि अकृशत् । कर्शिता ।
"
46
'नाम्युपान्त्य ० ५/१/५४ इति के कृश: ।
अनुपसर्गाः क्षीब० " ४१२८० इति कयोर्निपातनात् कृशः, कुशवान्, परिकृशः परिकृशवान् । सोपसर्गस्य तु प्रकृशितः 'ऋत्तशमृष ० ४ | ३ |२४ इति सेट क्त्वो वा किवे कृशित्वा, कर्शित्वा । उणादौ " कृशेरानुकू" ( उ० ७९४ ) कृशानुः ॥
46
27
अथ षान्ता नव ॥
19
46
"
' ६५ शुषंच शोषणे ' । रेच्चान्नंटू, शोष्टा । " क्षैशुषि ० “ ऊर्ध्वात् पूः० ५|४|७० इति ( उ० ३४० ) इति किति मे शुष्मम्-चलम् । किति इरे शुषिरम् । नाम्युपान्त्य ० ( उ० ६०९ ) इति छिद्रम् । सात्मन् ० ( उ० ९१६ ) इति मनि निपातनात्
66
"
66
""
शुष्यति, शुशोष । पुष्याद्यङि अशुषत् । अनुस्वा४|२|७८ इति तयोस्तस्य कत्वे शुष्कः, शुष्कवान् । णमि ऊर्ध्वशोषं शुष्कः । उणादौ " विलिमिलि ० ' " शुषीपि०
"
"
( उ० ४१६ ) इति किद् इः, शुषिः शुष्मा बर्हिः शुष्मा ||
66
' ६६ दुषंच वैकृत्ये ' । वैकृत्यं रूपभङ्गः । दुष्यति । दुदोष | पुष्याद्यडि अदुषत् । अनुस्वारेच्चाभेटू, दोष्टा, दुष्टः । णौ " ऊद् दुषो० ४|२|४० इति उपान्त्यस्य ऊति दूषयति । चित्ते वा " ४ | २|४१ चित्तं दूषयति, चित्तं दोषयति; प्रज्ञां दूषयति, प्रज्ञां दोषयति । नन्द्याद्यने दूषणः उणादौ " क्रीकलि० " ( उ० ३८ ) इति इके दूषिका - नेत्रमलः । " स्पमिकषि० " ( उ० ४६ ) इति ईके दूषीका स एव ॥
46
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, ६७ श्लिषंच आलिङ्गने । श्लिष्यति । शिश्लेष । श्लिषः ३|४|५६ इति पुष्याद्यङपवादे सकि आश्लिक्षत् कन्यां चैत्रः । क्रियाव्यतिहारे० " ३।३।२३ इति आत्मनेपदे हशिटो० "
66
97
३|४|५५ इति सकि व्यत्यश्लिक्षत कन्याम् । सच्चाले तु नाऽसच्चा ० ३|४|५७ इति सको निषेधात् पुष्याद्यङि समाश्लिषत् जतु च काएं च, आश्लिषत् | आत्मनेपदे सिचि व्यत्यश्लिष्ट । अनुस्वारेचानेट्, श्लेश | " गत्यर्थाकर्मक० " ५।१।११ इति वा कर्तरि के श्लिष्टो मैत्रः, पक्षे
१. शुक्रो वैश्वानरो बर्हिर्बर्हिः शुष्मा तनूनपात् इति शब्दार्णवाद् बहि: शुष्मा इति व्यस्तं समस्तं नाम इति कश्चित् । ( अमर कोश, व्याख्यासुधाव्याख्या १।११५४ ) ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ६७
भावे श्लिष्टं मैत्रेण । साप्यादपि “श्लिषशी" ५।१।९ इति वा कर्तरि क्ते आश्लिष्टो मैत्रः कन्याम् , पक्षे कर्मणि क्ते आश्लिष्टा कन्या मैत्रेण । लिहाधचि श्लेषः । उणादौ "भ्रणतण." (उ० १८६) इति णे निपातनात् लक्ष्णः । " मन्" (उ० ९११) इति मनि श्लेष्मा । श्लिषू दाहे [११५३१ ], श्लेषति, 'अश्लेषीत् । श्लिषण श्लेषणे [९।१३७] श्लेषयति ॥
'६८ प्लुषच दाहे' । प्लुष्यति । पुप्लोष । पुष्याद्यङि अप्लुषत् । प्लोषिता । उदित्वात् वित्व वेट् , प्लुष्ट्वा, “वौ व्यञ्जनादेः०" ४।३।२५ इति, सेटो वा किच्चे प्लुषित्वा, प्लोषित्वा, वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , प्लुटः, प्लुष्टवान् । अनूदिदयमित्येके । उणादौ " लुः प्लषु च " ( उ० ५६६ ) इति से प्लक्षः । प्लुपू दाहे [११५३३], प्लोषति । ग्रुष-प्लुष स्नेह-सेचन-पूरणेषु [८५४, ५५] प्लुष्णाति ॥
'६९ मितृषच पिपासायाम् ' । तृष्यति । ततर्ष । पुष्याद्यङि अतृषत् । तर्षिता । जीवात् “ ज्ञानेच्छा." ५।२।९२ इति सति क्ते तृषितः, तृषितवान् । "ऋत्तृष० " ४।३।२४ इति सेटः क्त्वो वा कित्त्वे तषित्वा, तर्षित्वा । " तृषिधृषि०" ५।२१८० इति नजिङि तर्षशीलः तृष्णक । जि तपः । “क्रुत्संपदा." ५।३।११४ इति क्विपि तृट् । मिदाद्यङि तृषेत्येके । “कालेन०" ५।४।८२ इति णमि " तृतीयोक्तं वा" ३११५० इति वा समासे द्वघहर्षम् , द्वहं तर्ष गाः पाययति । उणादौ "घृवीह्वा०" (उ० १८३) इति किति णे तृष्णा, "मृगयेच्छा" ५।३।१०१ इति निपातनाद्वा ॥
'७० तुषं, ७१ हृषच तुष्टौ' । तुष्टिः प्रीतिः । तुष्यति, तुतोष । पुष्याघडि अतुषत् , अनुस्वारेवानेट , तोष्टा, तुष्ट्वा । शील्यादित्वात् सति क्ते तुष्टः, तुष्टिः । " नाम्युपान्त्य० " ५।१५४ इति के तुषः । उणादौ "तुषिकुठिम्यां० " (उ० ४०८) किति आरे तुषारः ॥
'७१ हृषच्' । हृष्यति । जहर्ष । पुष्याद्यङि अह्रषत् । हर्षिता, हर्षितः, हृषितवान् । " हृषेः केश०" ४।४।७६ इति वा नेटि हृष्टाः, हृषिताः केशाः, हृष्टानि, हृषितानि लोमानि, हृष्टः, हृषितः छात्रः, हृष्टाः, हृषिताः दन्ताः । अदिदयमिति 'नन्दी । अलीकार्थोऽयमित्येके । उणादौ " हृपिवृति०" ( उ० ४८५) इति उले हर्षुलः कामी । हृषू अलीके [ ११५३५], हर्षति ।।
१. अश्लेषीत इति मु०॥ २. विश्वनन्दी इति हैमप्रकाशे (पृ. ५९८)।
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७८ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २१७
"
७२ रुषच् शेषे ' । रुष्यति, रुरोष । पुष्याद्यङि अरुपत् । तादौ " सहलुभ० " ४|४|४६ इति वेटि रोष्टा, रोषिता । क्तयो: “ श्वसजप० ४|४|७५ इति वेटि रुष्टः, रुषितः । शील्या दित्वात् सत्यत्र क्तः, रुष्टवान्, रुषितवान् । "भूषाक्रोधा० " ५|२|४२ इति अने रोशणशीलः रोपण: । क्रुत्संपदा० " ५।३।११४ इति विवपि रुट् । रुष हिंसायाम् [ १।५१४ ], रोषति ।
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"
७३ प्युष ७४ प्युस ७५ पुसच् विभागे ' । प्युष्यति । पुप्योष । पुष्याafs अध्युषत् । योषिता, प्युषितः । " वौं व्यञ्जनादेः० ४।३।२५ इति क्वो वा किच्वे युषित्वा, प्योषित्वा ॥
अथ सान्तास्त्रयोदश सेटश्च ॥
,
| प्स्यति । पुष्योस । पुष्पाद्यङि अप्युसत् । प्योसिता,
७४ प्युम
प्युसित: । प्युसित्वा, प्योसित्वा ॥
4
,
७५ पुमच् । पुस्यति, पुपोस । पुष्याद्यङि अपुसत् । पोसिता, पुसितः । पुसित्वा, पोसित्वा । उणादौ " शीरी० " ( उ० २०१ ) इति किति ते पुस्तं लेप्यादिकर्म, स्वार्थे के पुस्तकम् ॥
,
' ७६ क्सि प्रेरणे ' । विस्यति, विवेस । पुष्याद्यङि अविसत् । वेसिता । नाम्युपान्त्य० " ५।१।५४ इति के विसम् । उणादौ " शीरी ० (उ० २०१) इति किति ते विस्तं परिमाणम् ॥
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46
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७७ कुसच् श्लेषे ' । कुस्यति । चुकोस । पुष्याद्यङि अकुसत् । कोसिता, कुसितः । उणादौ “ क्रुशिपिशि० " ( उ० २१२ ) इति किति इ कुसित:ऋषिः । तस्य भार्या “ पूतक्रतु० २|४|६० इति ङयाम् ऐदन्तादेशे च कुसिउटिकुल्य लि० ( उ० ३५१ ) इति कुमे कुसुमम् ॥
99
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तायी ।
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46
17
२|३|८० इति वा नेर्णत्वे
66
७८ असूच क्षेपणे ' । अस्यति । उपसर्गादस्य ० " ३३।२५ इति वा आत्मनेपदे निरस्यति, निरस्यते । अकखाद्य० प्रण्यस्यते, प्रन्यस्यते, प्रण्यस्यति, प्रन्यस्यति । अस्यादे० " ४|१|६८ इति पूर्वस्य आत्वे आस आसतुः । पुष्याद्यङि श्वयत्य ० ४|३|१०३ इति अस्थादेशे आस्थत् । आत्मनेपदे तु " शास्त्यमुवक्ति० " उदास्ताम् । असिता, असितुम् । ऊदिचात्
46
99
३|४|६० इति अङि उदास्थित, किव वेटू, अस्त्वा, असित्वा ।
૨૮
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२१८ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ७८वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , अस्त:, अस्तवान् । “ऋवर्ण ०" ५।१।१७ इति ध्यणि आस्यम् । “कालेन तृष्य" ५।४।८२ इति गमि, "तृतीयोक्तं वा" ३।११५० इति वा समासे द्वथहात्यासम् , द्वयहमत्यासं गाः पाययति । " उणादौ “ शिक्यास्या०" ( उ० ३६४) इति ये निपातनात् आस्यम् । “वाश्यसि०" (उ० ४२३) इति उरे असुरः । “ पदिपठि०" (उ० ६०७) इति इ., असिः । “ वीसनि०" ( उ० ६६९) इति थिकि अस्थि । " मस्यसि०" (उ० ६९९ ) इति उरी असुरिः रण: । "भृमृत" ( उ० ७१६) इति उः, असवः प्राणाः । "सोरसे: " ( उ० ८५३) इति ऋः, स्वसा ॥
'७९ यसूच प्रयत्ने' । प्रयस्यति, आयस्यति । संपूर्वस्य अनुपसर्गस्य च "भ्रास-भ्लास०" ३।४।७३ इति वा श्ये संयस्यति, यस्यति, पक्षे शवि संयसति, यसति । ययास । पुण्याद्यङि अयसत् । यसिता, यसितम् । उदित्वात् क्त्वि वेट् , यस्त्वा, यसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , आयस्तः, आयस्तवान् । णौ फलवकर्तरि " इङितः०" ३२३२२ इत्यात्मनेपदे “अणिगि प्राणिकर्तृक० " ३।३।१०७ इति परस्मैपदेनापोदिते " परिमुहायमायस०" ३।३।९४ इति पुनर्विहिते आयासयते शत्रु मैत्रः । “प्राच यम" ५।२।५२ इति घिनणि प्रयासशीलः प्रयासी ॥
'८० जसूच मोक्षणे ' । जस्यति । जजास । पुष्यायडि अजसत् । जसिता अदित्वात् क्त्वि वेट , जस्त्वा, जसित्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेर् , जस्तः, जस्तवान् । णी हिंसार्थत्वाभावात् " जास-नाट०" २।२।१४ इति कर्मणो वा न कर्मत्वम् , तेन द्वितीया एव, चौरं बन्धनात् जासयति, मोचयति इत्यर्थः । हिसार्थोऽपीत्येके, तन्मते वा कर्मत्वे शेषषष्ठयां चौरस्य उजासयति, चौरमुञ्जासयति । “म्यजस०" ५।२६७९ इति रे अजासशीलं अजस्रं पचति । अजस्रः पाकः । धात्वर्थविशेषणत्वात् धात्वर्थकर्तृक एवाऽयं प्रयोज्यः, तेन " अजस्रो घटः" इति प्रयोगो. ऽसाधुः । जसण हिंसायाम् [ ९।१४६ ], चौरस्य उज्जासयति ॥
'८१ तम् , ८२ दसूच उपक्षये' । तस्यति । ततास । पुष्याद्यङि अतसत् । तसिता । उदित्वात् क्त्वि वेट् , तस्त्वा, तसित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट , तस्तः, तस्तवान् । “तिकृतौ०" ५।११७१ इति तिकि 'वितस्तिः । उणादौ "दम्यमि०"
१. लोके वहिथी [ येत ] इति. (लिं. दु. प.) ॥
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८६ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २१९ ( उ० २०० ) इति ते वितस्ता-नदी । “ प्लुज्ञा०" ( उ० ६४६) इति तौ वितस्तिः ॥
___ ८२ दसूच' । दस्यति । ददास । पुष्याघडि अदसत् । दसिता । ऊदित्वात् कित्व वेट् , दस्त्वा, दसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , दस्तः, दम्तवान् । ण्यन्तस्य क्ते “ णौ दान्तशान्त० " ४।४।७४ इति वा निपातनात् , दस्तः, दासितः । उणादौ " भीवृधि०" ( उ० ३८७ ) इति रे दस्रौ-देववैद्यौ । “युजि शुन्धि०" (उ० ८०१) इति युः, दस्युः, चौरः ॥
'८३ चम्च स्तम्भे' । वस्यति । ववास । पुष्याद्यङि अवसत् । वसिता । ऊदित्वात् कित्व वेट , वस्त्वा, वसित्वा । वेटत्वात् क्तयोनेंट् , वस्तः, वस्तवान् । उणादौ "दम्यमि० " ( उ० २०० ) इति ते वस्तः छागः । “ प्लुज्ञा." ( उ० ६४६) इनि तौ वस्तिः मेढोर्ध्वम् । वसं निवासे [११९९९ ], वसति, वस्ता । वसिक् आच्छादने [२.५९ ], वस्ते । वसण स्नेहच्छेदावहरणेषु [९।१९४ ], वासयति ॥
___ ८४ वुसच उत्सर्गे' । उत्सर्गः त्यागः । वुस्यति । वुवोस । पुष्याद्यङि अवुसत् । वोसिता, वुसितः । “ नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के वुसम् ॥
- '८५ मुसच खण्डने' । मुस्यति । मुमोस । पुष्याद्यङि अमुसत् । मोसिता, मुसितः । उणादौ " शीरी०" ( उ० २०१) इति किति ते 'मुस्ता । " तृपिवयि०" ( उ० ४६८ ) इति किति अले मुसलम् । षान्तोऽयम् इत्यन्ये ।
'८६ मसैच परिणामे'। परिणामः विकारः । परिमाणे इत्यन्ये । मस्यति । ममास । पुष्याद्यङि अमसत् । मसित्वा । ऐदित्वात् क्तयोनेंट , मस्तः, मस्तवान् । घनि मासः । मास् इति प्रकृत्यन्तरं चन्द्राभिधायी । पूर्णमासा युक्ता साऽस्य पौर्णमासीति निर्देशात् अणि पौर्णमासी । उणादौ " दम्यमि० " (उ० २००) इति ते मस्तः । स्वार्थ के मस्तकः । “पदिपठि० " ( उ० ६०७) इति इ., मसिः शस्त्री । “ कृसिकमि० " ( उ० ७७३ ) इति तुनि मस्तु दधिमण्डः ॥
अथ शमादीनां सेटां सप्तकं श्ये दीर्घार्थ मदैच पर्यन्तं, क्लमपर्यन्तं चाष्टकं धिनणर्थ प्रदर्श्यते । तत्र च बहुत्वान्मान्ताः षडादौ ।
१. मुस्यति खण्डयति रोगान् मुस्ता । पतस्या लोके मोथ इति प्रसिद्धिः।
(निघण्टु शेष, ३८१, टी०)॥
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२२०]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ८७' ८७ शम , ८८ दमून् उपशमे' । " शम्सप्तकस्य." ४।२।१११ इति श्ये दीर्घे शाम्यति । " नेमादा." २२३१७९ इति नेणत्वे प्रणिशाम्यति । शशाम, शेमतुः । पुष्याद्यङि अशमत् । णौ " शमोऽदर्शने० " ४।२।२८ इति हूस्वे शमयति रोगम् । दर्शने तु निशामयति रूपम् । शमिता, शामतुम् । ऊदित्वात् कित्व वेट , शान्त्वा, शमित्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेट्, शान्तः, शान्तवान् । गौ ते " णौ दान्तशान्त " इति वा निपातनात् शान्तः । पक्षे " सेट्क्तयोः " ४।३।८४ इति गेलुकि शमितः । “शकितकि०" ५।१।२९ इति ये शम्यम् । विपि "अहन्पश्चम " ४।१।१०७ इति दीर्घे "मो नो० " २।१।६७ इति मस्य नत्वे तस्य च परेऽसत्वात् , “ नाम्नो नो." २।११९१ इति लुगभावे " नो प्रशानो." १।३।८ इत्यत्र प्रशानो वर्जनात् , अनुस्वाराऽनुनासिकपूर्वस्य शस्याऽभावे "तवर्गस्य०" १६३१६० इति नस्य अत्वे प्रशाञ् चरति । “शमष्टकात् घिनण" ५।२।४९ "मोऽकमि० " ४।३।५५ इति वृद्ध्यभावे शमशीलः शमी । घनि शमः । गौरादित्वात् ड्याम् शमी । क्तौ शान्तिः । उणादौ “शमिमनिभ्यां खः " (उ० ८४) शङ्खः । “कमितमि०" ( उ० १०७) इति डिति उभे शुङ्गाः कदल्यः । " पञ्चमात् डा" (उ० १६८) शण्डः उत्सृष्टः पशुः । “शमिषणिभ्यां ढः" ( उ० १७९) शण्डः क्लीवम् । “कैशीशमि० " ( उ० ७४९.) इति को शङ्कुः । शकृत् इति तु " 'शक ऋत् " ( उ० ८९१ ) इति शके: ऋति ।।
८८ दमूच्' । दाम्यति । ददाम । पुष्याङि अदमत् । दमिता । ऊदित्वात् कित्व वेट् , दान्त्वा, दमित्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेट , दान्तः, दान्तवान् । णौ “ अमोकम्यमि०" ४।२।२६ इति इस्वे फलवकर्तरि " ईगितः" ३।३९५ इति आत्मनेपदे, “अणिगि प्राणि " ३३१०७ इति परस्मैपदेनापोदिते, “परिमुहायमा० " ३३९४ इति पुनर्विहिते “ गतिबोधा०" २२२१५ इति अणिकर्तुः कर्मत्वे च दाम्यति अश्वः, दमयते अश्वं चैत्रः । “अकखाद्य० ॥ २॥३८. इति वा नेणत्वे प्रणिदमयते, प्रनिदमयते । “ शकितकि० " ५।१।१२९ इति ये दम्यः । नन्द्याधने कुलदमन: । "भृवृजि०" ५।१।११२ इति खे अरिन्दमः । “णौ दान्तशान्त०" ४।४।७४ इति क्ते वा निपातनाद् , दान्तः, दमितः । “शमष्टकाद्" ५।२।४९ इति घिनणि दमशीलः दमी। घनि दमः । उणादौ " पश्चमात् डः" ( उ० १६८ ) दण्डः । “दम्यमि०" ( उ० २०० ) इति
१. "शके त्" इत्युणा दिसूत्रम् ।।
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९२ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २२१ ते दन्तः । “दमेरुनसूनसौ " ( उ० ९८७) दमुनाः, दमूनाः च वह्निः । “यमिदमिभ्यां डोस्" ( उ० १००५) दोः बाहुः ॥
'८९ तमूच काङ्क्षायाम् ' । ताम्यति । तताम । पुष्याघडि अतमत् । तमिता । ऊदिचात् कित्व वेट् , तान्त्वा, तमित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , तान्तः, नितान्तः, तान्तवान् । “शमष्टकात्०" ५।२।४९ घिनणि, "मोऽकमि० " ४।३।५५ इति वृद्धयभावे तमी । घनि तमः । गौरादित्वाद् इयां तमी रात्रिः । उणादौ " चिजिशु०" (उ० ३९२) इति किति रे दीर्घे च ताम्रम् । " तप्यणि " ( उ० ५६९) इति असे तमसा नदी । "क्रमि-तमि०" (उ० ६१३) इति औ उपान्त्येत्वे च तिमिः । “अस" (उ० ९५२) इत्यसि तमः ।।
. '९० श्रमूच खेदतमसोः' । श्राम्यति । शश्राम । पुष्यायडि अश्रमत् । अमिता । उदित्वात् कित्व वेट , श्रान्त्वा, श्रमित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , श्रान्तः, श्रान्तवान् । “ शकितकि०" ५।१।२९ इति ये श्रम्यम् । नन्द्याधने श्रमणः । स्त्रियामापि श्रमणा । घजि “ विश्रमेळ " ४।३।५६ इति वा वृद्धयभावे विश्रमः, विश्रामः । " शमष्टकाद्" ५।२।४९ इति घिनणि श्रमी ॥
___९१ भ्रमूच अनवस्थाने' । अनवस्थानं देशान्तरगमनम् । “ भ्रासम्लास." ३।४।७३ इति वा श्ये भ्राम्यति । पक्ष शवि भ्रमति । बभ्राम । पुष्यावङि अभ्रमत् । भ्रमिता । ऊदित्वात् कित्व वेद , भ्रान्त्वा, भ्रमित्वा । वेटत्वात् क्तयोनेट् , भ्रान्तः, भ्रान्तवान् । “शमष्टकाद्" ५।२।४९ इति घिनणि भ्रमी । घञि “मोऽकमि० " ४।३।५५ इति वृद्धयभावे भ्रमः । गौरादित्वाद् याम् भ्रमी । उणादौ " तृभ्रम्यद्या." ( उ० ६११ ) इति औ भृमादेशे च भूमिः वायुः, वाहुलकाद् भृमाऽभावे भ्रमिः, श्रमः । “ भ्रमिगमि० " ( उ० ८४३ ) इति डिद् ऊः, भ्रः । भ्रमू चलने [ ११९७० ], भ्रमति । " भ्रासम्लास० " ३।४७३ इति वा श्ये भ्राम्यति ॥
९२ क्षमौच सहने ' । क्षाम्यति । चक्षाम । पुष्याद्यङि अक्षमत् । औदित्वात् वेट् , क्षन्ता, क्षमिता । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , क्षान्तः, क्षान्तवान् । "शमष्टकाद्" ५।२।४९ घिनणि क्षमी । घत्रि " मोऽकमि०" ४।३।५५ इति वृद्धथभावे क्षम: । तो शान्तिः । ऊदिदयमित्येके, क्षान्त्वा, क्षमित्वा । क्षमौषि सहने [ ११७८८ ], क्षमते, अक्षमिष्ट, पित्वादङि क्षमा ।।
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२२२]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९३
अथ दान्तः ॥ ९३ मदैच् हर्षे' । माद्यति । ममाद । पुष्यायङि अमदत् । मदिता । ऐदियात् क्तयोर्नेट् , “ रदाद." ४।२।६९ इत्यत्र मदेवर्जनाद् नत्वाभावे मत्तः, मत्तवान् । णौ हर्षग्लपनयोः घटादित्वात् हस्वे मदयति । अन्यत्र प्रमादयति, उन्मादयति । अनुपसर्गात् “ यममद०" ५।१।३० इति ये मद्यम् । सोपसर्गाद् ध्यणि प्रमाद्यम् । नन्द्याद्यने मदयति इति मदनः । " इरम्मदः " ५।१।१२७ इति खशि निपादनाद् इरया माधति इरम्मदः मेघज्योतिः । " उदः पचि०" ५।२।२९ इति इष्णौ उन्मादशीलः उन्मदिष्णुः । “शमष्टकाद्" ५।२।४९ इति घिनणि मदशीलः मादी, उन्मादी । " व्यधजप०" ५।३।४७ इति अलि मदः । सोपसर्गात्तु घनि प्रमादः । संमदप्रमादी हर्षे, संमदः कन्यानाम् , प्रमदः कोकिलानाम् । उणादौ " तुदिमदि०" ( उ० १२४ ) इति छे मच्छ: मत्स्यः । “ मदे: स्यः" (उ० ३८३) मत्स्यः । गौरादित्वाद् ड्याम् “मत्सस्य यः" २।४।८७ इति यलुकि मत्सी । “ मदिमन्दि०" ( उ० ४१२) इति इरे मदिरा । "मीज्यजि०" ( उ० ४३९) इति सरे मत्सरः । मदिण तृप्तियोगे [ ९।२४१ ], मादयते ॥ ___९४ क्लमूच् ग्लानौ' । " भ्रासम्लास०" ३।४।७३ इति वा श्ये, "ष्ठिवू-क्लम्बा० " ४।२।११० इति दीर्घे क्लाम्यति, पक्षे शवि क्लामति । चक्लाम । पुष्याघडि अक्लमत् । क्लमिता । ऊदित्त्वात् 'कित्व वेट , क्लान्त्वा, क्लमित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट क्लान्तः, क्लान्तवान् । “ शमष्टकाद्" ५।२।४९ . इति घिनणि क्लमी । घनि क्लमः ॥ अवसितं शमादीनां सप्तकमष्टकं च ॥ .
अथ प्रकृतवर्णक्रमेण हान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ '९५ मुहौच वैचित्ये' । वैचित्यम् अविवेकः । मुह्यति । मुमोह । पुष्याघडि अमुहत् । औदित्वाद् वेट , धुट्प्रत्यये पदान्ते च “ मुद्रुह०२।१८४ इति वा हस्य धत्वे मोग्धा, मोढा, पक्षे मोहिता । उन्मुक्, उन्मुट् । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , मुग्धः, मूढः, मुग्धवान् , मूढवान् । णौ फलवकर्तरि "ईगितः " ३।३।९५ इत्यान्मनेपदे, “ अणिगि प्राणिकतक०" ३।३।१०७ इति - परस्मैपदेनापोदिते, “परिमुहायमा० " ३३९४ इति पुनर्विहिते परिमोहयते . शत्रुम् ।
१. मु० नास्ति ।
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९८ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २२३ " परेर्देबि०" ५।२।६५ इति घिनणि परिमोहशीलः, परिमोही । घमि मोहः । उणादौ " पूमुहोः पुन्मूरो च" ( उ० ८६) इति खे मूर्खः । “मुहेः कित् " ( उ० ७०० ) इति उरौ मुहुरिः गौः । “ मुहिमिथ्यादेः कित् " (उ० १०००) इति उसि मुहुः कालावृत्तिः ॥
___९६ द्रुहीच जिघांसायाम् ' । "क्रुद्रुहे." २।२।२७ इति संप्रदानत्वे मैत्राय द्रुह्यति । दुद्रोह । पुष्याध ङि अद्रुहत् । औदित्त्वाद् वेट , “ मुह द्रुह." २।१।८१ इति वा हस्य घत्वे द्रोग्धा, द्रोढा, द्रोहिता । विपि मित्रध्रुक, मित्रध्रुट । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , द्रुग्धः, द्रुढः । " युजभुज०" ५।२।५० इति घिनणि द्रोहशीलः, द्रोही । घनि द्रोहः । उणादौ " ऋदुहेः कित्" (उ० १९५) इति इणे द्रुहिणः ब्रह्मा ॥
• ९७ ष्णुहोच उगिरणे'। “प: सो०" २।३।९८ इति सत्वे स्नुह्यति । पोपदेशत्वात् “ नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति पत्वे सुष्णोह, सुष्णोहयिषति । पुष्याद्यङि अस्नुहत् । औदित्वाद् वेट , “ मुद्रुह० " २।११८४ इति हस्य वा घत्वे स्नोग्धा, स्नोढा, स्नोहिता । वेटूत्वात् क्तयोर्नेट् , स्नूग्धः, स्नूढः, स्नुग्धवान् , स्नूढवान् उणादौ " नाम्युपान्त्य कृगृ०" (उ० ६०९) इति किद् इ., स्नुहिः महावृक्षः ॥
९८ ष्णिहीच प्रीतो'। “षः सो०" २१३९८ इति सत्वे स्निह्यति । षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सिष्णेह । पुष्याद्यङि अस्निहत् । औदित्वाद् वेट् , “ मुहद्रह ०" २११८४ इति हस्य वा घन्वे स्नेग्धा, स्नेढा, स्नेहिता । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , स्निग्धः, स्नीढः, स्निग्धवान् , स्नीढवान् । क्विपि स्निक, स्निट् । “ ऋत्विज० " २।११६९ इति हस्य गत्वे, सूत्रनिर्देशादेव उदः दलुकि सस्य षत्वे च उष्णिक । “अजादेः०" २।४।१६ इति आपि उष्णिहा । घजि स्नेहः । णिहण स्नेहने [९।१४८ ], स्नेहयति ॥
केचित्तु शमू-दमू-तमू-श्रमू-भ्रमू-क्षमौ-मदै-अमू-यमू-जसूदसू-व-प्युष-प्युस-पुस-प्लु-विस-कुस-कुश-दुस-मुस-मसै-लुठ-उच-भृशू-भ्रंशू. वृश-कृश-जितष-हृष-रुष-डिप-ष्ट्रप-कुप-गुप-युप-रुप-लुप-लुभ-णम-तुभ-क्लिदो जिमिदा-शिक्ष्विदा-ऋधू-गृधूनां पुष्यादित्वं नेच्छन्ति, तन्मते पुष्याद्यङभावे सिचि अशमीत् , अदमीत् , अश्रमीत , अयसीत् , अलोटित् , अप्लोपीत् , अकोपीत् , अलोपीत् , अहर्षीत् इत्यादि ॥
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२२४ ]
आचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९८
वृत् पुषादिः । पुषादिः दिवाद्यन्तर्गणो वर्तितः संपूर्ण इत्यर्थः ॥ अथाऽऽत्मनेपदिषु सूत्यादिर्नवकः क्तयोस्तस्य नत्वार्थं प्रदर्श्यते । तत्र लाघवार्थमादौ दन्तौ सेटौ च ॥
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४/२/७०
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• ९९ षूङौच प्राणिप्रसवे 1 षः सो० ” २।३।९८ इति सत्वे "इडित ०" ३।३।२२ इत्यात्मनेपदे सूयते । षोपदेशत्वाद्, नाम्यन्तस्था० २।३।१५ इति पत्वे सुषुवे । औदिच्याद् वेट् सोता, सविता किति वर्णात् ४|४|५८ इति ने सूत्वा । " सूयत्याद्यो० इति तयोस्तस्य नत्वे सून:, सूनवान् ; प्रसूनम् - कुसुमम् । अत एवाऽयं प्राणिप्रसवे इत्यन्ये । सनि “ ग्रहगुहश्च ० " ४|४|५९ इति नेट, " णिस्तोरेवा० " २|३|३७ इति नियमात् पत्वाभावे सुभूषते । “ युवणं ० " ५।३।२८ इति अलि प्रसवः । पूङौकू प्राणिगर्भविमोचने [ २।४९ ], सूते । पूत् प्रेरणे [ ५/१८ ], सुवति ॥
46
' १०० दूच परितापे ' । परितापः खेदः । दूयते । दुदुवे | दविता | कति " उर्णात् " ४|४|५८ इति नेट्, दूस्वा 1 " सूयत्याद्यो० " ४२७० इति योस्तस्य नत्वे दूनः दूनवान् । उणादौ " शीरी० " ( उ० २०१ ) इति किति दूतः ॥
अदन्ताः सप्त डीङोऽन्येऽनिटश्च ॥
46
दीपू दीङ: क्ङिति स्वरे " ४ ३ ९३ ४२६ इति वा आवे दिदासते, इति सनः कित्त्वादत्र न गुणः ।
66
' १०१ दींच क्षये ' । दीयते । उपदिदीये, उपदिदीयाते । दीङः सनि० " दिदीसते । 'नामिनोऽनिट् ४ | ३ | ३३ “ यब क्ङिति ४ २७ इति आवे उपदाय | दारूपस्य बहिरङगत्वाद् दासंज्ञाया अभावे “
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इश्व स्थादः ४ | ३ | ४१ इति न इत्वम् उपादास्त दाता । अकिङद्विषये व आत्वे " तन्व्यधी ० " ५।१।६४ इति णे दायः । घञि उपदायः । “ सूयत्याद्यो० " ४|२|७० इति तयोस्तस्य नत्वे दीनः, दीनवान्, अनुस्वारेच्चादत्र नेटू । उणादौ " जीणशीदी ० " ( उ० २६१ ) इति किति ने दीनः ||
' १०२ धींच अनादरे ' । धीयते । दिध्ये । अनुस्वारेवान्ने, घेता, धेतुम् । “ सूयत्याद्यो ० " ४/२/७० इति तयोस्तस्य नत्वे धीनः धीनवान् । आधारार्थोऽयमित्यन्ये । " शेषो भुवं धीयते " [ ] ॥
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१०६ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २२५ '१०३ मींडच हिंसायाम् ' । मीयते, मिम्ये, अनुस्वारेवान्नेट , ङित्त्वात् च "मिग्मीगो." ४।२।८ इति न आत्वम् , मेता, मेतुम् । अस्याऽपि आत्वमित्येके, माता, मातुम् । सनि “मिमीमा०" ४।१।२० इति स्वरस्य इति द्वित्वाभावे च मित्सते । " सूयत्यादि०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे मीनः, मीनवान् । उणादौ " जीणशी०" ( उ० २६१) इति किति ने मीनः । “ मीज्यजि०" (उ० ४३९) इति सरे मेसरः वर्णविशेषः । “चिनीपीम्यशिभ्यो सः" (उ० ८०६) मेरुः । मींग्श हिंसायाम् [ ८१५] मीनीते, मीनाति ॥
१०४ सेंच स्रवणे' । रीयते । रिये । अनुस्वारेवान्नेट , रेता, रेतम् । " सूयत्यादि०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे रीणः, रीणवान् । णौ "अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ " पुस्पौ" ४।३।३ इति गुणे रेपयति । विचि रेः । मतौ स्त्रियां रेवती । उणादौ " रीशीभ्यां फः" ( उ० ३१४) रेफः । " अजिस्था०" ( उ० ७६८) इति णौ रेणुः । “सुरीभ्यां तस्" (उ० ९७८) रेतः । “रीवृभ्यां पसू" (उ० ९८१) रेपः पापम् । रीश गतिरेषणयोः [ ८११८ ], रिणाति ॥
१०५ लींच् श्लेषणे'। लीयते । विलिल्ये । अनुस्वारेवानेट् , यवङिति " लीलिनोर्वा " ४।२।९ इति वा आत्वे विलाता, विलेता, विलास्यते, विलेष्यते । यपि विलाय, विलीय । ' अखलचलि' [४।२।८] इत्यनुवृत्तेः खलि दुर्लयः । अचि निलयः । अलि प्रलयः । णौ " लियो नोऽन्तः स्नेहद्रवे" ४।२।१५ इति ने घृतं विलीनयति । 'लियः' इति इकारप्रश्लेषात् आत्वे नान्ताभावे "लो लः" ४।२।१६ इति वा ले घृतं विलालयति, पक्षे " अतिरी०" ४।२।२१ इति पौ विलापयति । लीङ्लीनोऽर्चा" ३३९० इत्यात्मनेपदे आत्वे च जटाभिः आलापयते; श्येनः वर्तिकाम् अपलापयते, मायावी लोकम् उल्लापयते । “ तन्व्यधी० " ५।११६४ इति. णे विलायः । “सूयत्यादि." ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे लीनः, लीनवान् । लींश् श्लेषणे [ ८।१९ ], लिनाति, लेष्यति । लीण् द्रवीकरणे [ ९।३७६ ], " युजादेर्नवा" ३।४।१८ इति वा णिचि विलाययति, विलयति ॥
• १०६ डीच् गतौ' । डीयते । डिड्ये । डयिता । “ डीयश्व्यै० " ४।४।६१ इति क्तयोनेंट , " सूयत्यादि." ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे डीनः,
२८
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२२६ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० १०६strar | अयमपि विहायसां गतौ इत्यन्ये । डी विहायसां गतौ | ११५८८ ], यते । तयोरिटि “ न डी० " ४।३।२७ इति कित्त्वाभावाद् गुणे डयितः, sonar | भ्वादेरिवे श्यार्थं सूत्यादित्वार्थं च पाठः इत्येके, तन्मते डयतेरपि डीन, डीनवान् ॥
"
' १०७ बीच वरणे ' । त्रीयते । " योऽनेकस्वरस्य " २|१|५६ इति यापवादे " संयोगात् " २/१/५२ इति इवि वित्रिये । अनुस्वारेच्चाभेट घेता । " सूत्यादि० " ४/२/७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे व्रीणः, त्रीणवान् । बींशू वरणे [ <143], ftofa 11
वृत् स्वादिः । सूयत्यादिः दिवाद्यन्तर्गणो नवकः वर्तितः, संपूर्ण, इत्यर्थः ॥ अदन्तास्त्रयोऽनिश्च ॥
' १०८ पींच पाने ' । चैत्रो जलं पीयते, विध्ये | अनुस्वारेवान्नेट्, पेता, पीतः । आपीयन्त । उणादौ " पीपूड़े। हूस्वश्व " ( उ० १२५ ) इति छे पिछम् । " गुलुञ्छपिलिपिञ्छ० " ( उ० १२६ ) इति छे निपातनात् विञ्छम् । “पीविशि ० " ( उ० १६३ ) इति किति ठे पीठम् । " पीङः कित् " ( उ० ८२१ ) इति लौ पीलुः गजवृक्षौ ॥
मितम् । क्ये " ईञ्जने० "
मांडूच माने इत्यपि कश्विदधीते, मायते, ४ ३ ९७ इति ईत्वे मीयते । " ने मादा २१३७९ इति णत्वे प्रणिमायते, farares न ईत्वम् । माकू माने [ २।१५ ], माति । माकू मानशब्दयोः [ २२७९ ], मिमीते ॥
"
' १०९ ईच गतौ ' । ईयते, प्रतीयते । 66 गुरुनाम्यादे० ३|४|४८ इति परोक्षाया आमि आयांचक्रे । व्यपदेशिवद्भावेन गुरुनाम्यादित्वमामं नेच्छन्त्येके, तन्मते आमभावे ईये, ईयाते, ईयिरे । अनुस्वारेच्चान्नेटू, एता, एतुम् ।
66
य एच्चा० " ५।१।२८ इति ये उपेयम् । अलि प्रत्ययः ।।
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29
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११० प्रीं प्रीतौ ' । प्रीयते । संयोगात् २।११५२ इति इयि पिप्रिये । अनुस्वारेचान्ने, प्रेता, प्रीतः । णौ “ नामिनो० " ४|३|५१ इति वृद्धौ प्राययति । 'नाम्युपान्त्य० ५ | १|५४ इति के प्रियः । प्रींगूशू तृप्तिकान्त्योः [ ८/३ ], प्रीणीते, प्रीणाति । प्रीगुणू तर्पणे [ ९१३७८ ], “ युजादे० " ३|४|१८
"
46
इति वा णिचि धू श्रीगो० " ४२११८ इति नेऽन्ते प्रीणयति, पक्षे प्रयते, प्रयति ॥
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११२ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २२७
=
अथ जान्तावनिटौ च ॥ '१११ युणिच् समाधौ' । समाधिः चित्तवृत्तिनिरोधः । युज्यते । युयुजे । अनुस्वारेच्चान्नेट् , योक्ता, योक्तुम् । “कुप्यभिद्य०" ५।११३९ इति क्यपि निपातनाद् युज्यते अनेनेति युग्यं वाहनम् । ध्यणि योग्यमन्यद् । कर्मणोऽणि
'न्यवादि' इति गत्वे गोयोगः । ध्यणि “नि-प्राद् युजः०" ४।१।११६ इति गत्वाभावे नियोक्तुं शक्यं नियोज्यम् , प्रयोज्यम् । “ नाम्युपान्त्य० " ५।११५४ इति के, “न्यङ्कद्ग० " ४।१।११२ इति गत्वे युगम् , संयुगम् । विपि " युज्रो० " १।४।७१ इत्यत्र युनक्तग्रहणात् नान्ताभावे युक्, युजौ, युजः; अश्वयुक् । अस्याऽपि नोऽन्त इत्यन्ये, युङ, युनौ, युधः । “गत्यर्थाऽकर्मक०" ५।१।११ इति कर्तरि क्ते, “कुशलायुक्ते" २।२।९७ इति वा सप्तम्याम् आयुक्तो देवार्चायां देवार्चाया वा । “ युजभुज० " ५।२।५० इति घिनणि योगशीलः योगी । “ नीदा० " ५।२।८८ इति करणे त्रटि योक्त्रम् । घनि योग: । आधारेऽनटि योजनम् । णौ "णिवेच्या०" ५।३।१११ इति अने योजना ।
"क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति विपि युजमापना मुनयः । उणादौ "युयुजि." • (उ० २७७) इति किति आने युजानः सारथिः । “ तिजियुजेग च" (उ० ३४५)
इति किति मे युग्मम् । युनूंपी योगे [१४] युङ्क्ते, युनक्ति । युजण, संपर्चने [ ९।३७३ ], “युजादे०" ४।३।१८ इति वा णिचि योजयति, योजति ॥
११२ सृजिच विसर्गे'। " इङित:" ३।३।२२ इत्यात्मनेपदे सृज्यते मालां चैत्रः । कर्मकर्तरि "एकधातौ०" ३।४।८६ इति क्ये सृज्यते माला स्वयमेव । ससृजे । अनुस्वारेवान्नेट् , “ सृजिदृशो०" ४।४।१११ इति अति स्रष्टा, सृष्टः, सृष्टवान् । "पाणिसमवाभ्याम्०" ५।१।१८ इति क्यवषवादे ध्यणि पाणिसग्यो, समवसर्या रज्जुः । " संवेः" ५।२।५७ इति घिनणि संसर्गशीलः संसर्गी, विसर्गी । घनि निसर्गः । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति कर्मणि क्विपि "ऋत्विजदिश" २०११६९ इति निर्देशाद् ऋतो रत्वे स्रक् । " श्वादिभ्यः" ५।३।९२ इति क्तौ सृष्टिः । उणादौ "स्यन्दिसृजिम्यां सिन्धरजौ च" ( उ० ७१७) इति उः, रज्जुः । सृजत् विसर्गे [ ५।३५ ], सृजति ॥
१. " न्यङ्कूद्गमेघादयः" ४।१।११२ इति सूत्रेण ॥
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२२८ ]
आचार्यश्रीमचन्द्र विरचिते [धा० ११३
अथ तान्तः सेट् च ॥
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29
११३ वृतूचि वरणे ' । वृत्यते । ववृते । वर्तिता । ऊदिवात् क्वि बेटू वृत्वा, वर्तित्वा । वेदस्वात् क्तयोर्नेट्, वृत्तः, वृत्तवान् । वृतूङ् वर्तने [ ११९५५ ], इति अस्यैव वरणे दिवादित्वं विधीयते, तेन वरणे द्युतादित्वाद् द्युद्भ्योऽद्यतन्याम् ० ३|३|४४ " वृद्भ्यः स्यसनोः " ३।३।४५ इति वा आत्मनेपदं नास्ति, अवर्तिष्ट, वर्तिष्यते, अवर्तिष्यत, विवर्तिषते । वरणादन्यत्र तु अवृतत् वर्त्स्यति, अवर्त्स्यत् इत्यपि भवति । अन्ये तु वा वृतूचि वरणे इत्यधीयते वर दिवादित्वं वा प्रतिपन्नाः, तन्मते वरणेऽपि पक्षे शवि वर्तते, द्युद्भ्यो०
,
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64
“ शेषात् परस्मै " ३ | ३ | १००
इति वा
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३ | ३ | ४४ इति अन्यां वाऽऽत्मनेपदे अवर्तिष्ट, पक्षे इति परस्मैपदे द्युताद्यङि अवृतत् 64 वृद्भ्यः स्यसनोः " ३ | ३ | ४५ आत्मनेपदे वर्तिष्यते, " शेषात् परस्मै " ३।३ | १०० इति परस्मैपदे ४|४|५५ इति इडभावे वत्स्र्त्स्यति, सनि विवर्तिषते; पक्षे " प्राग्वत् परस्मैपदे विवृत्सति । केचित्तु वा शब्दादिरनेकस्वरोऽयं धातुरित्याहुः, ' ततो वावृत्यमाना सा' [ भट्टीकाव्य, ४।२८ ] ॥
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"
64
"
"
अथदान्तास्त्रयोऽनिटश्च ॥
66
' ११४ पदिच् गतौ ' । गतिः यानं ज्ञानं च । पद्यते । २३७९ इति णत्वे प्रणिपद्यते । प्रपेदे । " ञिच ते पदस्तलुकु उदपादि भैक्षम् । अनुस्वारेच्या नेट, पत्ता, संपन्नः । याङ ४|११५० इति पूर्वस्य नीः, आपनीपद्यते सनि रभलभ० ४|१|२१ इति स्वरस्य इति द्वित्वाभावे च प्रपित्सते । लषपत ० ५।२।४१ इति उकणि उपपादशीलः उपपादुकः । 44 भूषाक्रोधा० " ५|२| ४२ इति अने पदनो धर्मस्य ।
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।
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"""
"
46
पदरुज ० ५।३।१६ इति कर्तरि पनि पादः
। समज० ५।३।९९ इति क्यपि निपद्या । वर्षादयः क्लीवे " ५।३।२९ इति अलि पदम् । " क्रुत्संपदा० "
46
44
विशपतपद ० " ५।४।८१ इति णमि
"
• जातेः संपदा च
५।३।११४ इति क्विपि संपद् प्रतिपद् । गेहानुप्रपादमास्ते, गेहूं गेहम् अनुप्रपादम् । ७२१३१ इति साति सर्व शास्त्रमग्निसात् संपद्यते । उणादौ " अतरी० " ( उ० ३३८ ) इति मे पद्मम् । "भिवृधि० ( उ० ३८७ ) इति रे ( उ० ७०६ ) इति वौ निपातनात् पदविः ङयां
"
“छविच्छिवि०”
प्लुज्ञा०
न वृद्भ्यः
च
पद्रः ग्रामः
पदवी मार्गः ।
३।३।७४ इति
वानृत्यते ।
11
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17
नेर्जूमादा० '
३|४|६६ वञ्चस्रंस ० "
"
46
"
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११८ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[२२९ (उ० ६४४ ) इति तो पत्तिः । “कसिपदि०" ( उ० ८३५ ) इति णिद् ऊः, पादः, कपि पादुका । पदणि गतौ [ ९३३६६ ], अदन्तः उपपदयते ॥
'११५ विदिच सत्तायाम् ' । सत्ता भावः । विद्यते । विविदे । अनुस्वारेवान्नेट , वेत्ता, वित्तः । " किंकिलास्त्यर्थयोर्भविष्यन्ती" ५।४।१६ अस्ति नाम विद्यते नाम तत्र भवान्परदारान् प्रकरिष्यते नावकल्पयामि न श्रद्दधे । “शकघृष०" ५।४।९० इति तुमि विद्यते भोक्तुम् । विदक ज्ञाने [ २२४१ ] वेत्ति, विदितः । विलती लामे [५८ , विन्दते, विन्दति, वित्तः । वित्तं धनं प्रतीतं च । विदिप विचारणे [ ६।२५]. विन्ते, “ ऋही." ४।२।७६ इति वा क्तयोस्तस्य नत्वे वित्तम् , विनम् । यदाह
. 'वेत्तेविदितं विन्तेविन्न वित्तं च विद्यतेविनम् । वित्तं धने प्रतीते च विन्दतेविन्त्रमन्यत्र' ॥ विदिण् चेतनाख्याननिवासेषु [ ९।२४२ ], वेदयते ॥
११६ खिदिच दैन्ये ' । विद्यते । चिखिदे । अनुस्वारेच्चान्नेट , खेता, खिमः । खिदंत परिघाते [ ५।१२ ], खिन्दति । खिदिपू दैन्ये [ ६।२४ ],खिन्ते ।।
अथ धान्तास्त्रयोऽनिटश्च ॥ '११७ युधिंच संप्रहारे' । संग्रहारः हननम् । युध्यते । युयुधे । अनुस्वा. रेवान्नेट् , योद्धा, युद्धः । णौ फलवकर्तरि " ईगित: " ३।३।९५ इति आत्मने. पदापवादे "चल्याहारा०" ३।३।१०८ इति परस्मैपदे योधयति काष्ठं चैत्रः । " नाम्युपान्त्य." ५।११५४ इति के युधः । “सहराज." ५।१।१६७ इति क्वनिपि सहयुद्धवान् , सहयुद्धवा, राजयुद्भवा । “ स्थादिभ्यः०" ५।३।८२ इति के आयुध्यन्ते अनेन आयुधम् । “ शासूयुधि० " ५।३।१४१ इति खलपवादे अने दुर्योधनः, सुयोधनः । आधारेऽनटि आयोधनम् ॥
११८ अनो रुधिच कामे' । काम इच्छा । अनुपूर्वी रुधि: कामे दिवादिः । अनुरुध्यते । अनुरुरुधे । अनुस्वारेवान्नेट् , अनुरोद्धा, अनुरुद्धः । " समनुव्य ०" ५।२।६३ इति घिनणि अनुरोधशीलः अनुरोधी । कामादन्यत्र रुधादित्वात् " रुधां०" ३।४।८२ इति श्ने अनुरुद्धे, अनुरुणद्धि । णौ रोधयति ॥
१. तुलना, महाभाष्य ८।२।५८, काशिका ८२।५६ ॥
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________________
आचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते [ भा० ११९
"
46
११९ बुधिं १२० मनिंच ज्ञाने' | बुध्यते । बुबुधे । ३|४|६७ इति कर्तर्यद्यन्यात्मनेपदे ते वा ञिचि तलुकि च
दीपजन ० " अबोधि; पक्षे
44
46
46
66
'घुडूहूस्वात् ० " ४ | ३ |७० इति सिचो लुकि अबुद्ध । अनुस्वारेवान्नेट्, बोद्धा | 46 ज्ञानेच्छा. " ५।२।९२ इति सति के राज्ञां बुद्धः । णौ फलवत्कर्तर्य पि गतः " ३ | ३ |९५ इत्यात्मनेपदापवादे चल्याहारार्थे "" ३।३।१०८ इति परस्मैपदे बोधयति पद्म रविः । "" नाम्युपान्त्य० ५/११५४ इति के बुधः । " अजाते: ० " ५।१।१५४ इति णिनि प्रतिबोधशील: प्रतिबोधी । गभ्यादित्वात् " वत्स्र्यति " ५|३ | १ साधुः । उणादौ " जीणशीदी ० ( उ० २६१ ) इति किति ने बुध्नः मूलं रुद्रश्च । युयुजि० ( उ० २७७ ) इति किति आने बुधानः सूरिः । " किलिपिलि० " ( उ० ६०८ ) इति औ बोधिः- तत्वज्ञानम् । बुधृग् बोधने [ ११९१२ ], बोधते, बोधति, अबुधत् । बुध अवगमने [ ११९६८ ], बोधति ॥
"
66
29
२३० ]
अथ नान्तास्त्रयो मनिंवर्जाः सेटश्च ॥
"
,
64
१२० मनिंच ' । मन्यते । मन्यस्या० २२६४ इति अतिकुत्सने कर्मणि वा चतुर्थ्यां न त्वा तृणाय मन्ये, न त्वा तृणं मन्ये । अनुस्वारेवान्नेटू, मन्ता । " यमिरमि० " ४२२५५ इति नो लुकि मत्वा । ज्ञानेच्छा ० ५।२।९२ इति सति ते राज्ञां मतः । " मन्याण्णिन्० " ५।१।११६
66
"क्थङ्मा नि० '
44
"
३।२।५० इति पुंवचे दर्शनीयमानी भार्यायाः ।
कर्तुः शू ५|१|११७
परत: स्त्री० "
३।२२४९ इति पुंस्त्वापवादे
66
"
- पटुमात्मानं मन्यते पहुंमन्यः । " खित्य ० " ३।२।१११ इति हूस्वे परिवमन्या, पक्षे " असरूपोऽपवादे० ५।१।१६ इति णिनि पटुमानी । समज० ५। ३ ९९ इति क्यपि मन्या कृका टिकासिरा । संज्ञाया अन्यत्र स्त्रियां क्तौ मतिः । उणादौ " कीचकपेचक० " ( उ० ३३ ) इति अके निपातनाद् मेनका | " मर्मतमातौ च० " ( उ० १००) इति अङ्गे मतङ्गः मातङ्गव हस्ती
46
। शाशपि० " ( उ० २३७ ) इति दे मन्दः |
"
" मनेरुदेतौ चास्यवा० ( उ० ६१२ ) इति औ मुनिः, मेनिः संकल्पः मनिः धूमवर्तिः भृमृत० " ( उ० ७१६ ) इति उः मनुः । " मनिजनिभ्यां धतौ च " ( उ० ७२१ ) इति उः मधु । कृसिकमि० " ( उ० ७७३ ) इति तुनि मन्तुः
64
64
१. कृकाटिका ग्रीवापश्चाद्भाग: ( अ. चि. टी. ३।२५० ) ।
06
22
"
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१२२ ] धातुपारायणे दियादयः (३)
[२३१ आगः । “ यजिशुन्धि०" ( उ० ८०१) इति युः मन्युः । “ अस्” (उ० ९५२) इति असि मनः । “रुद्यति० " ( उ० ९९७ ) इति उसि मनु: प्रजापतिः । मांसम् इति तु मानेः " मावावदि० " ( उ० ५६४ ) इति से । मठर इत्यपि मठतेः ' ऋच्छिचटि० " ( उ० ३९७ ) इति अरे । मनूयि बोधने [ ८९ ], मनुते । मनिण् स्तम्भे [ ९।२४३], मानयते, अलि मानः ।।
• १२१ अनिच् प्राणने' । अन्यते । “ अस्यादे०" ४११६८ इति पूर्वस्य आत्वे आने । अनिता, अनितः । णान्तोऽयमित्येके, अण्यते, आणे । अन श्वसक् [२॥३१, ३२ ], प्राणने, अनिति, “ द्वित्वेऽप्यन्तेप्य ०" २।३।८१ इति णत्वे प्राणिति ॥
'१२२ जनैचि प्रादुर्भावे' । प्रादुर्भाव: उत्पत्तिः । “जा ज्ञा०" ४।२।१०४ इति जाऽऽदाशे, जायते । “गमहन०" ४।४।८३ इति अल्लुकि जज्ञे । “दीपजन०" ३।४।६७ इति अद्यतन्याः कर्तृविहिते ते वा जिचि “न जन" ४।३।५३ इति वृद्धयभावे अजनि, पक्षे सिचि अजनिष्ट । णौ “कगेवनू०" ४।२।२५ इति हस्वे जनयति । "ये नवा" ४।२।६२ इति इति किङति वा आत्वे जायते, जन्यते, जाजायते, जमन्यते । जनिता । जो "ईगितः" ३३९५ इति फलवकर्तरि आत्मनेपदाऽपवादे "चल्याहारार्थे०" ३।३।१०८ इति परस्मैपदे जनयति धर्मम् । करणे पनि अभिजनः गोत्रम् । ऐदिचात् क्तयोर्नेट , “गत्यर्थाकर्मक०" ५।१।११ इति वा कर्तरि ते "आः खनि०" ४।२।६० इति आत्वे जातः, जातवान् , पक्षे भावे क्ते जातं चैत्रेण । साप्यादपि “श्लिषशीङ" ५।१९ इति क्ते अनुजातो माणवकः माणविकाम् , पक्षे कर्मणि क्ते अनुजाता माणविका माणवकेन । " भव्यगेय." ५।११७ इति निपादनाद् वा कर्तरि ध्यणि जन्यः चैत्रः, पक्षे भावे जन्यं चैत्रेण । अचि जन: । " वन्याङ् पञ्चमस्य" ४।२।६५ विजावा । "अनोजनेर्डः" ५।११६८ स्यनुजः । “ सप्तम्याः०" ५।१।१६९ मन्दुरे जातः मन्दुरजः । “ अजातेः पञ्चम्याः" ५।११७० मुण्डजं भयम् । " क्वचित् " ५।१।१७१ इति डे 'अनुजः, प्रजाः, पूर्वजः । “भ्राज्यलं." ५।२।२८ इति इष्णौ प्रजनिष्णुः । क्तौ जातिः । अनटि जायते अस्यामपत्यमिति जननी । उणादौ ।
१. अनूजः इति मु०॥
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२३२ ]
आचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० १२२
"1
66
। स्थाति० " ( उ० १०९ ) इति इति टे नो लुकि च जटा ।
66
66
ऋशिजनि० "
आत्वे जाया,
जठरम् ।
( उ० २७ ) इति अके जनकः नमितनि० " ( उ० १३९ ) जनिपणि० " ( उ० १४० ) इति टे दीर्घे च जाण्टः पक्षी । ( उ० ३६१ ) इति किति ये " ये नवा " ४|२२६२ इति वा जन्यं रणः । 46 " जठरक्रकर० ( उ० ४०३ ) इति अरे निपातनाद् " पदिपठि ( उ० ६०७ ) इति इ: जनिः उत्पादः । कुवापाजि० ( उ० १ ) इति उगि जानु, [ सूत्रे ] जानि इति निर्देशाद् वृद्धिः । मनिजनिभ्यां धतौ च " ( उ० ७२१ ) इति उ:, जतु । कृसि ० " उ० ७७३ ) इति तुनि जन्तुः । हृषिपुषि० ( उ० ७९७ ) इति णौ इन्नु, जनइन्नुः पिता । " यजिशुन्धि ० " ( उ० ८०१ ) इति युः, जन्युः जन्म प्राणी च । “जनिहनि ०" ( उ० ८०९ ) इति रौ ताऽऽदेशे च जत्रुः वक्षोंऽससन्धिः । कमिनिभ्यां ब्रूः ( उ० ८४७ ) जम्बूः । मन् " ( उ० ९११ ) हात मनि जन्म । " रुद्यर्ति ०" ( उ० ९९७ ) इति उसि जनुः, जनुषी, जन्म ||
46
66
66
37
44
66
अथ पान्तौ ॥
46
दकन ० EFE
घे जघा ।
66
66
,
ܕܕ
46
"
भ्राजभास०
'१२३ दीपैचि दीप्त' । दीप्यते । कर्तर्यद्यतन्यास्ते " दीपजन० " ३ | ४ | ६७ इति वा जिचि तलुकि च अदीपि, अदीपिष्ट । दिदीपे । पौ डे ४।२।३६ इति वा उपान्त्यस्वे अदीदिपत् अदिदीपत् । दीपिता । ऐदिचात् क्तयोर्नेट् दीप्तः, दीप्तवान् । ५/१/५४ इति के दीपः, प्रदीपः । स्म्यजस० ५।२।७९ इति रे दीपनशीलः दीप्रः । " इङितो ० " ५।२।४४ sa अने न पिय० " ५।२।४५ इति निषिद्धे
"
66 नाम्युपान्त्य०
,
66
64
'
वृनि दीपिता । क्तौ दीप्तिः ॥ ' १२४ पिंच ऐश्वर्ये वा । तपं धूप संतापे इत्यस्य ऐश्वर्येऽर्थे दिवादिस्वात्मनेपदं च वा विधीयते; तप्यते, तेपे । अनुस्वारेच्चाभेटू, तप्ता तप्तः; पक्षे ऐश्वर्येऽपि स्वादित्वात् प्रतपति, प्रताप । नन्द्याद्यने प्रतपनः । " द्विषन्तप० " ५|१|१०८ इति खे निपातनात् परन्तपः । एके तु ' तर्पिचू ऐश्वर्ये ' इति धात्वन्तरं दिवादिमाहुः । अन्ये तु स्वादेरेव ऐश्वर्ये संतापे च श्याऽऽत्मनेपदे वा इच्छन्ति । द्रमिलास्तु तपो:' विपर्ययेण पतिंच ऐश्वर्ये वा इति पेठुः । भ्वादेरेव पत्ल गतौ इत्यस्य ऐश्वर्ये पक्षे दिवादित्वमात्मनेपदित्वं च समुदितं भवतीत्यर्थः, पत्यते, अपतिष्ट,
१. पतो: इति मु० | नैरुक्ताः पत्यते इत्यैश्वर्यकर्मसु पठन्ति । ( निघण्टु २।२१ ) aft. a. ft. 200) il
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१३१ ] धातुपारायणे दिषादयः (३)
[२३३ पतिष्यते; पक्षे ऐश्वर्येऽपि मादित्वात् पतति, लदित्वात् अपरतत् , पतिष्यति ऐश्वर्यादन्यत्र पतति अपप्तत् इत्याद्येव भवति ॥
अथ रान्ता अष्टौ सेटश्च ॥ '१२५ पूरैचि आप्यायने' । आप्यायनं वृद्धिः । पूर्यते । पुपूरे । " दीपजन० " ३।४।६७ इति कर्तरि वा मिचि अपूरि, अपूरिष्ट । पूरिता । एदिचात् क्तयोर्नेट् , पूर्णः, पूर्णवान् । " णो दान्तशान्त० " ४४७४ इति क्ते वा निपातनात् , पूर्णः, पूरितः । “इडितः०" ५।।४४ इति अने पूरणशीलः पूरणः । "चर्मोदगत्" ५।४।५६ इति गमि चर्मपूरं ददाति, उदरपूरं भुङ्क्ते । " पृष्टिमाने ऊलुक् चास्य वा" ५।४।५७ गोष्पदपूरं वृष्टो मेघः, गोष्पदप्रम् । " ऊर्द्धवात् पूः शुषः" ५।४।७० ऊर्ध्वपूरं पूर्णः ।।
__ १२६ घूरङ १२७ जूरैचि जरायाम् ' । जरा वयोहानिः । घूर्यते । जुघरे । घरिता । ऐदिचात् क्तयोर्नेट् , “रदाद० " ४।२।६९ इति क्तयोस्तस्य नत्वे घूर्णः, घूर्णवान् ॥ - १२७ जूरैचि' । यते । जूरिता । ऐदिचात् क्तयोर्नेट् , जूर्णः, जूणवान् ।।
• १२८ धेरैङ् १२९ गूरैचि गतौ' । धर्यते, गूर्यते । दुधूरे, जुगूरे । धूरिता, गूरिता । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट , धूर्णः, धूर्णवान् । गूर्णः, गूर्णवान् । "क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति विपि धूर्यते इति धूः । उणादौ “ मुदिगूरिभ्यां टिद्गजो चान्तौ " ( उ० ४०४ ) इति अरे गूर्जरः ॥
१३० शूरैचि स्तम्भे' । तालव्यादिः । शूर्यते । 'शुशरेरिशर: ' शरैः [ ] । शरिता । ऐदिचात् क्तयोर्नेट् , शूर्णः, शूर्णवान् । “ नाम्युपान्त्य" ५।१।५४ इति के शूरः ॥
— १३१ तूरैचि त्वरायाम् ' । गतित्वरायमित्यन्ये । तूर्यते । तुतूरे । तूरिता । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट , तूर्णः, तूर्णवान् । ध्यणि तूर्यम् । “ नाम्युपान्त्य० " ५।११५४ इति के तूरम् । “ इङित:०" ५।२।४४ इति अने तूरणशीलः तूरणः । उणादौ "कावावी." ( उ० ६३४) इति णौ तूर्णिः त्वरा । घूरादयो हिंसायां च,
घूरादयः पडपि हिंसायां चकारात् यथायथमुक्तेषु जरादिषु । तानि एव उदाहरणानि ॥ .. १. अस्मिन् सूत्रे (५४५६) वा णम् भवति ॥
३०
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२३४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १३२'१३२ चूरैचि दाहे' । चूर्यते । चुचूरे । चूरिता । ऐदिचात् क्तयोर्नेट् , चूर्णः, चूणवान् । उणादौ " कावावी० " ( उ० ३६४ ) इति णौ चूर्णिः वृत्तिः ॥
अथ शान्ताश्चत्वारो लिशिंच् वर्जाः सेटश्च ॥ - १३३ क्लिशिच उपतापे'। क्लिश्यते । 'परार्थे क्लिश्यतः सतः' [ ] इति तु लक्ष्यम् । चिक्लिशे । क्लेशिता । " पूक्लिशिम्यः० " ४।४।४५ इति क्तवत्वासु वेट, क्लिष्टः, क्लिशितः; क्लिष्टवान् , क्लिशितवान् , क्लिष्ट्वा । "क्षुधक्लिश० " ४।३।३१ इति किरवे क्लिशित्वा । “निन्दहिंस." ५।२।६८ इति णके क्लेशकः । उणादौ " क्लिशः के च" (उ० ५३०) इति शे केशः । कीनाश इति तु " कनेरीश्चातः " ( उ० ५३४ ) इति आशे कनतेः । किशोर इत्यपि "कोरचोर०" ( उ० ४३४ ) इति निपातनाद् ओरे कुशेः । क्लिशौर विबाधने [ ८1५० ], क्लिश्नाति ॥
'१३४ लिशिंच अल्पत्वे ' । लिश्यते । लिलिशे । अनुस्वारेचान्नेट् , लेष्टा, लिष्टः । “ नान्युपान्त्य० " ५।१।५४ इति के लिशः । घजि लेशः । लिशंत् गतौ [ ५।१०३ ], लिशति ॥
१३५ काशिच दीप्तौ । काश्यते । चकाशे । काशिता । काशितः । णौ " उपान्त्यस्या०" ४।२।३५ इति हवे अचीकशत् । ऋदिदयमित्येके. तन्मते हुस्वाभावे अचकाशत् । अचि “ नामिनः काशे" ३।२।८७ इति दीर्धे नीकाशः, प्रतीकाशः । संकाशः । घनि अवकाशः, काश: । उणादौ " वनिकणि" ( उ० १६२ ) इति ठे काष्ठम् । काशृङ् दीप्तौ [ ११८३० ], काशते ||
१३६ वाशिच शब्दे' । वाश्यते, ववाशे काकः । वाशिता, वाशितम् । जौ अवीवशत् । ऋदिदयमित्येके, तेषां ह स्वाभावे अववाशत् । “क्तेट:०" ५।३।१०६ इति अः, वाशा । " नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१ इति णके वाशिका । णौ नन्द्याधने वाशनः । उणादौ “वाश्यसि०" (उ० ४२३ ) इति उरे वाशुरः ।।
अथोभयपदिषु कान्तोऽनिट् च ॥ '१३७ शकींच मर्षणे' । मर्षणं क्षमा । "ईगितः" ३३९५ इति फलवकर्तरि आत्मनेपदे शक्यते । फलवतोऽन्यत्र “शेषात्०" ३।३।१०० इति परस्मैपदे शक्यति । शशाक, अशक्त, अशाक्षीत् । अनुस्वारेबानेट , शक्ता, शक्तुम् , शक्तः, शक्तवान् । “ शकः कर्मणि" ४४७३ इति कर्मणि क्ते वा नेट , शकितः,
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१३९ ] धातुपारायणे दिवादयः (३)
[ २३५
46
शक्तो वा घटः कर्तुं चैत्रेण । सनि “ 1 रभलभ० ४।१।२१ इति स्वरस्य इत्वे द्विवाभावे च शिक्षते, शिक्षति | " शकित कि० " ५।११२९ इति ये शक्यम् । अचि शकः । वनि शक्वा; 46 11 णस्वरा० २|४|४ इति ङयां नो रत्वे च शक्वरी । it शक्तिः । बाहुलकात् पनि शक्यते 'अनेन भोक्तुम् शाकम् । शकधृष० ५४/९० इति तुमि शक्यते भोक्तुम् । उणादौ " दिव्यवि० " ( उ० १४२ ) इति अटे शकटम् । कुशकुश खेरोटः ( उ० १६० ) शकोट : " शकेरुन्त : " ( उ० २२३ ) शकुन्तः । उने शकुनः । भीवृधि० ( उ० ३८७ ) ( उ० ४०३ ) इति अरे करिशकर: हस्तिमल्लः । इति ले शक्तः मधुरवाकू | | मृदिकन्दि० " शकेरुन्तिः " ( उ० ६६६ ) शकुन्तिः ।
44
"
बाहुः |
" यम्यजि० " ( उ० २८८ ) इति इति रे शक्रः । जठर- क्रकर०
66
19
66
""
66
""
44
( उ० ४६५ ) इति
46
46
66
।
'कृपिशकिभ्यामटि: " ( उ० ६३० ) शकटिः शक ऋतु " ( उ० ८९१ ) शकृत् । अनीदयं मर्षणे श्यविकरणः, अर्थान्तरे तु श्रनुविकरणः स्वादिपठित एव इत्येके, शक्यति मृष्यते इत्यर्थः । पुष्यादित्वाद् अङि अशक्त् । मर्पणादन्यत्र स्नौ शक्नोति, लुदिच्वादङ अशकत् । अन्ये तु शक विभाषितो मर्षणे इति पठन्ति व्याचक्षते च मर्पणे शक्नोतेः परस्मैपदं श्ये विकल्प्यते । अङि टौ च शक्यते, शक्यति, अशकीत्, अशकत्, शक्ता, शकिता; अन्यत्र शक्नोति, अशकत्, शक्ता ॥ अथ चान्तः सेट् च ॥
99
ܕܪ
99
शामाश्या० ( उ० ४६२ )
अले
शक्तम् ।
शकेरुनि: " ( उ० ६८४ ) शकुनिः ।
4
44
' १३८ शुचगेच पूतिभावे ' । पूतिभावः क्लेदः । गिच्चात् “ ईगितः ३|३|९५ इति फलवत्कर्तरि आत्मनेपदे शुच्यते । शुच्यति । ऋदिच्छ्रवि० ३ | ४|६५ इति वा अङि अशुचत्, अशोचीत्, अशोचिष्ट । शोचिता । ऐदिच्छात् तयोर्नेट् शुक्तः, शुक्तवान् । शुच शोके [ ११९९ ], शोचति ॥
"
अथ जान्तोऽनि च ॥
"
"
' १३९ रींच् रागे ' । रज्यते, रज्यति । ररखे, ररक्ष । अनुस्वारेच्चान्नेट्, रङ्का, रङ्कः । युजभुज० " ५।२।५० इति घिनणि " अकटूघिनोश्च ० " ४२/५० इति नलुकि रागी । घञि “ भावा० " ५।३।१८ इति नलुकि रागः | आधारे घञि रङ्गः । रीं रागे [ ११८९६ ], रजते, रजति ॥
१. अनेन इति भो० इति मु० ॥
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२३६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १४०अथ पान्तोऽनिट च ॥ १४० शपींच आक्रोशे' । शप्यते, शप्यति । शेपे, शशाप । अनुस्वारेच्चान्नेट , शप्ता, शप्त्वा, शप्तः । घनि शापः । उणादौ " शाशपि० " (उ० २३७) इति दे शब्दः । शीं आक्रोशे [ ११९१६ ], शपते, शपति ॥
___ अथ षान्तः सेट् च ॥ १४१ मृषीच तितिक्षायाम् ' । तितिक्षा क्षमा । मृष्यते, मृष्यति । फलवकतयपि " परेमषश्च" ३३१०४ इति परस्मैपदे परिमृष्यति । ममृपे, ममर्प, मर्षिता । "ऋत्तष०" ४।३।२४ इति कत्वो वा कित्त्वे मृषित्वा, मर्षिन्वा । " मृषः क्षान्तौ" ४।३।२८ इति क्तयोः कित्त्वाभावे मर्षितः, मर्षितवान् , क्षान्तेः अन्यत्र धातूनामनेकार्थत्वाद् भूषणादिषु कित्त्वे मृषितः, मृषितवान् । नन्द्याद्यने मर्षणः । " शासूयुधि०" ५।३।१४१ इति खलपवादे अने दुषिणः । मृषू सहने च [ ११५२८ ], मर्षति । मृषण् क्षान्तौ [ ९।३५४ ], अदन्तः, मृषयति । मृषिण तितिक्षायाम् [ ९।४०९ ], "युजादे० " ३।४।१८ इति वा णिचि मर्पयति, मर्पते ।।
__अथ हान्तोऽनिट च ॥ १४२ णहीच बन्धने' । “पाठे० " २।३।९७ इति ने नह्यते, नाति । णोपदेशत्वाद् “ अदुरुपसर्गा० " २।३।७७ इति णत्वे प्रणह्यते । “वावाप्यो." ३।२।१५६ इति पिर्वा अपिनाते, पिनद्यते । नेहे, ननाह । अनुस्वारेचाम्नेट् , " नहाहो." २।१।८५ इति हस्य धे नद्धा, संनद्धः। घजि संनाहः । “नीदाव्०" ५।२।८८ इति बटि नद्धी । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि “ गतिकारकस्य०" ३।२।८५ इति दीर्घ उपनद्यते इति उपानत् । उणादौ "ऋपनहि." (उ० ५५७ ) इति उषे नहुषः-राजा । “ नहेर्भ च" (उ० ६२१ ) इति णिद् इ. नाभिः । नभ इति तु नभ्यतेः [" अस्" ( उ० ९५२) इति ] असि । नख इति तु नास्य खमस्ति इति बहुव्रीही नखादित्वाद् अदभावे ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे चित् दिवादिगणः श्यविकरणः
संपूर्णः ॥
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अथ स्वादयः अथ स्वादयो वर्णक्रमेण निर्दिश्यन्ते । तत्राऽपि प्रसियनुरोधेनाऽऽदौ
१ गट अभिषवे'। 'अभिषवः क्लेदनं 'संधानाख्यं, पीडनमन्थने वा । “पः सो०" २।३।९८ इति से, गिचात् फलवकर्तरि “ ईगितः०" ३३९५ इत्यात्मनेपदे, " स्वादेः श्नुः" ३४७५ इति श्नौ सुनुते । फलवतोन्यत्र "शेषात् " ३।३।१०० इति परस्मैपदे “ उश्नोः " ४।३।२ इति गुणे सुनोति । " उपसर्गात् सुग्०" २।३।३९ इति पत्वे अभिषुणोति; अव्यवायेऽपि अभ्यषुणोत् , 'अद्वित्वे' इत्युक्तेः पूर्वस्य षत्वाभावे उत्तरस्य तु षोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति पत्वे अभिसुषुवे, अभिसुषाव । “सुगः स्यसनि" २।३।६२ इति पत्वप्रतिषेधे अभिसोष्यते; सनि विपि अभिसुमः । “णिस्तोरेवा०" २०३१३७ इति नियमात् षत्वाभावे अभिसुसूपति । “वम्यविति वा" ४।२।८७ इति वा उलुकि सुन्वः, सुनुवः सुन्मः, सुनुमः । अनुस्वारेचान्नेट् , सोता, सुतः, सुतवान् । "धूगसुस्तो०" ४।४।८५ इति सिचि इटि असावीत् ; आत्मनेपदे तु इडभावे असोष्ट । “आसुयु०" ५।१।२० इति यापवादे ध्यणि आसाव्यम् । “संचाय्यकुण्डपाय्य." ५।१२२ इति ध्यणि निपातनाद् राज्ञा सोतव्यो राजा वा सूयते अस्मिन्निति राजसूयः ऋतु: । " सोमात् सुगः" ५।१।१६३ इति भूते क्विपि सोमसुत् । “सुयजोवनिप्" ५।१।१७२ सुतवान् , सुत्वा । “णस्वराघोषा." २।४।४ इति उयाम् नो रत्वे सुत्वरी । “सुग द्विषा०" ५।२।२६ इति अशि सुन्वन्तः यजमानाः। “समिणा०" ५।३।९३ इति क्यवपवाद तो आसुतिः । " समज०" ५।३९९ इति क्यपि सुत्या । उणादौ " विचिपुषि०" ( उ० २२) इति किति के सुकः निरामयः । “ सुसितनितुसेर्दीर्घश्च वा" ( उ० २०३) इति किति ते सुतः, सूतः । " वृतुकुसुभ्यो नोऽन्तश्च" ( उ० २४०) इति दे सुन्दः दैत्यः । “ सोरू च" ( उ० २६३) इति ने सूना घातस्थानम् । “स्वसिरसि०" ( उ० २६९) इति अने सवनः । “ युसुकु०" (उ० २९७ ) इति पे ऊत्वे च
१. अभिषयः स्नान मिति चान्द्राः, द्र० है. प्र. ॥ २. सन्धान इति अथाणा, द्र० लिं. दुर्गपद० १२ ॥
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२३८ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १
सूपः । “ अर्तीरि०” (उ० ३३८) इति मे सोमः । “ऋज्यजि०" (उ० ३८८) इति किति रे सुरः, सुरा । सुं प्रसवैश्वर्ययोः [ ११७ ], सवति । धुंक् प्रसवैश्वर्ययोः [ २।२० ], सौति । टित्त्वं स्वादित्वज्ञापनार्थ सर्वत्र ज्ञेयम् ॥
अथेदन्ताश्चत्वारोऽनिटश्च ॥ '२ पिंगुट बन्धने' । " षः सो०" २।३।९८ इति से सिनुते, सिनोति । पोपदेशत्वाद् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे सिष्ये, सिपाय । अनुस्वारेस्वान्नेट् , सेता । " सेासे." ४ २०७३ इति क्तयोस्तस्य नत्वे सिनो ग्रासः स्वयमेव । " प्रसितोत्सुका० " २२२१४९ इति आधारे वा तृतीयायां केशैः प्रसितः, केशेषु प्रसितः । परि-नि-विपूर्वस्य "सयसितस्य " २३४७ इति पत्वे परिषितः, निषितः, विषितः; अचि परिषयः, निषयः, विषयः । णके सायकः । “दाधेसि०" ५।२।३६ इति रौ सयनशीलः सेरुः । " नीदाव० " ५।२।८८ इति त्रटि सेत्रम् । उणादौ " सुसि०" ( उ० २०३) इति किति ते वा दीर्घ च सीता सस्यम् , सितः शुक्लः । “सेर्वा” (उ० २६२) इति किति ने सिनः कायः; कित्त्वाभावे सेना । " चिजि०" (उ० ३९२) इति रे दीर्धे च सीरं हलम् । "ऋज्यजि." (उ० ३८८ ) इति किति रे सीरा । “ कृसिकम्मि०" ( उ० ७७३ ) इति तुनि सेतुः ॥
'३ शिंग्ट् निशाने ' । निशानं तनूकरणम् । शिनुते, शिनोति । शिश्ये, शिशाय । अनुस्वारेवान्नेट , शेता, शितः ॥
'४ डुमिंगट प्रक्षेपणे' । मिनुते, मिनोति, प्रमिनोति । मिम्ये, मिमाय । अनुस्वारेवान्नेट , मित: । यबङिति " मिग्मीगो०" ४।२।८ इति आत्वे निमाय, प्रमाता; खलचलि तु न आत्वम् , दुर्मयः, मयः, प्रमयः । सनि “मिमीमा०" ४।१।२० इति स्वरस्य इत्वं द्वित्वाभावश्च, प्रमित्सते, प्रमित्सति । विश्वात् त्रिमकि मानेन निर्वृत्तं मित्रिमम् । उणादौ " मिग: खलश्चैच्च" ( उ० ४९७) मेखला; चात् कले मेकलः ऋषिः । " मिवहि० " ( उ० ७२६) इति वा णिद् उः, मायुः पित्तम् ; बाहुलाकाद् न आत्वम् , मयुः किन्नरः ॥
'५ चिंगद चयने' । चिनुते, चिनोति । " नेडमादा०" २१३७९ इति नेणत्वे प्रणिचिनुते । सन्परोक्षयोः "चेः किर्वा " ४।१।३६ इति वा किन्वे चिकीपति, चिचीपति; चिक्ये, चिच्ये । अनुस्वारेचाभेट , चेता, चितः, आचितम् ।
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५] धातुपारायणे स्वादयः (४)
[२३९ णौ " चिस्फुरो०" ४।२।१२ इति वा आत्वे " अतिरी" ४।२।२१ इति पौ उच्चापयति, उच्चाययति । “संचाय्य०" ५।१।२२ इति ध्यणि निपातनात् संचाय्य: क्रतुः । “य एचा." ५।१।२८ इति ये संचेयम् अन्यत् । “धाग्यापाय्य." ५।१।२४ इति निपातनाद निकाय्यः निवासः, निचेयः अन्यः । “परिचाय्योपचाय्या" ५।१।२५ इति निपातनात् परिचाय्यः अग्निः; एवमुपचाय्यः, चित्यः । परिचयः, उपचेयः, चेयश्चान्यः । “अग्निचित्या०" ५।१।३७ इति भावे क्यपि निपातनाद् अग्नेः चयनम् अग्निचित्या । " अग्नेश्वेः" ५।१११६४ इति क्विपि अग्निचित् । " कमण्यग्न्यर्थे " ५।१।१६५ श्येन इव चीयते स्म श्येनचित् , स्थचक्रचित् । " हस्तप्राप्ये० " ५।३।७८ इति अलपवादे पनि पुष्यप्रचायः । “चितिदेहा०" ५।३।७९ इति धनि 'आकायमग्नि चिन्वीत', कायः, निकायः, गोमयनिकायः । " संघेऽनूचे " ५।३।८० साधुनिकायः; सोधे तु "युवर्ण०" ५।३।२८ इति अलि सूकरनिचयः । स्त्रियां क्तौ चितिः । उणादौ " चिजि०" ( उ० ३९२ ) इति रे दीघे च चीरम् । " चिमिदि०" ( उ० ४५४ ) इति किति त्रे चित्रम् , चित्रा । केचित्तु चिगणु चये इति चुरादौ पठन्ति तस्य च घटादित्वं “चिस्फुरोनवा" ४।२।१२ इति आत्वाभावं चेच्छन्ति, तन्मते चययति । आत्वमपि अन्ये चापयति । णिजभावे तु चयते, चयति ॥
अथोदन्तः सेट् च ॥ '६ धृगट कम्पने ' । धूनुते, धूनोति; दुधुवे, दुधाव । थवि "स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इटि दुधविथ । “धूगौदितः" ४।४।३८ इति वेट् , धोता, धविता । सिचि " धृगसुस्तोः०" ४।४।८५ इति इटि अधावीत् ; आत्मनेपदे तु वेटि अधोष्ट, अधविष्ट । णौ " धृगनीगो० " ४।२।१८ इति ने विधनयति । " लूधृसू० " ५।२।८७ इति इने धूयतेऽनेन इति पवित्रमित्येके । पेटत्वात् क्तयोर्नेट, अवधृतः, धृतः, धृतवान् । “युवर्ण०" ५।३।३८ इति अलि धवः । उणादौ " ध्रुधृन्दि०" ( उ० २९) इति किति अके क्षिपकादित्वाद् इत्वाभावे धूवका आवपनविशेषः । “ विलिमिलि." ( उ० ३४०) इति किति मे धूमः । " कृधूतनि०" ( उ० ४४०) इति किति सरे धूसरः । उदन्तोऽनिट चायमित्यन्ये, धुनुते, धुनोति; धोता, विधुत: । धूत् विधूनने [५।११६ ], धुवति । धृगश् कम्पने [ ८।१३ ], धुनीते, धुनाति । धूगण कम्पने [ ९।३७९ ], धूनयति, णिजभावे धवते, धवति ।।
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२४० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ७
अथ ऋदन्तास्त्रयोऽनिटश्च ॥ '७ स्लॅग्ट आच्छादने' । स्तृणुते, स्तृणोति । “संयोगाद्” ४।३।९ इति गुणे तस्तरे, तस्तरुः । क्थे " क्ययङा० " ४।३।१० इति गुणे आस्तार्यते; यङि तास्तयते । अनुस्वारेचान्नेट , स्ता, विस्तृतः । विस्तीर्ण इति तु स्तृणातेः ।।
' ८ कुंगट हिंसायाम् ' । कृणुते, कृणोति; चक्रे, चकार । अनुस्वारेच्चान्नेट, कर्ता, कृतः । डुकुंग करणे [ ११८८८ ], करोति, करति ॥
___ ९ गट वरणे' । घृणुते, वृणोति, वने, ववार । थवि "ऋवृ०" ४।४।८० इति इटि ववस्थि । “ स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इत्यत्र अस्य वर्जनाद् इडभावे ववृष, वम । " वृतो नवा०" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्घे प्रावरिता, प्रावरीता; आशिषि सिचपरस्मैपदे च दीर्घाभावे प्रावरिषीस्ट, प्रावरिष्टाम् । " इटू सिजाशिषो०" ४।४।३६ इति वेटि प्रावरिष्ट, प्रावरीष्ट, प्रावृतः प्रावरिपीष्ट, प्रायषीष्ट । सनि “ इध० " ४।४।४७ इति वेट् , विवरिषति विवरीषति, बुवूपति । " ऋवर्णश्य०" ४४५७ इति किति नेट , वृत्वा, वृतः, वृतवान् । कर्मणोऽणि "घन्युपसर्गस्य ० " ३२२८६ इति बाहुलकाद् दी कुचं वृणोति कूचवारः । "वर्योपसर्या० " ५।१।३२ इति निपातनाद् ये वर्यम् उपेयम् चेत् ; स्त्री वर्या, अन्यस्तु "दृ-वृग" ५।१।४० इति + पि वृत्यः । बाहुलकाद् ध्यणि ण्यन्ताद्वा ये वार्यम् । "भृवृजि०" ५।११११२ इति खे पतिवरा कन्या । “युवर्ण" ५।३।२८ इति अलि वरः । " नेवुः". ५।३।७४ इति पनि नीवारः ब्रीहिः । " वृगो वस्त्रे" ५।३।५२ इति वालि प्रवरः, पक्षे घञि "घञ्युपसर्गस्य ०" ३।२१८६ इति दीघे प्रावारः । उणादौ “ विचिपुषि० " ( उ० २२ ) इति किति के वृकः । “ जुकृत ० " ( उ० १७३) इति अण्डे वरण्ड: इक्ष्वादिसंचयः । " तकश ०" (उ० १८७) इति अणे वरणः वृक्षः । “काश ० " (उ० ४४१) इति वरटि वर्वरः कुश्चितः केशः । " वृगनक्षि० " ( उ० ४५६ ) इति अत्रे वरत्रा। प्यन्तात् “ स्वरेभ्य० " ( उ० ६०६) इति औ वारि: गजग्रहणगर्ता, वारि जलम् । "अजिस्था०" ( उ० ७६८) इति गौ वर्णः हृदः । “वाारी" (उ० ९४४) इति निपातनात् क्विपि वाः जलम् । वरूथ इति तु " जवृभ्यामूथः " (उ० २३६) इति उथे घृणातेः । वर्ण इत्यपि " इणुर्विशा०" (उ० १८२) इति णे वृणातेः ।।
E
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१२ ] धातुपारायणे स्वादयः (१)
[२४१
अथ परस्मेपदिषु इदन्तोऽनिट् च ॥ १० हिट् गतिवृद्भगोः' । “शेषात्० " ३।३।१०० इति परस्मैपदे हिनोति । " अदुरुपसर्गा० " २।३७७ इति णत्वे प्रहिणोति । " अड़े हि." ४।१।३४ इति हो घे प्रजिघाय, सनि निधीषति । यडि जेधीयते, हे तु घाऽभावे प्राजीहयत् । अनुस्वारेवानेट , हेता, प्रहितः । ' सातिहेति०" ५।३।९४ इति क्तौ निपातनाद् हेतिः । अचि अलि वा हयः । गौगदित्वाद् यां हयी अश्वा । उणादौ "घुयुहि०" ( उ० २४ ) इति किति के हीकः पक्षी । “क्षुहिभ्यां वा" ( उ० ३४१ ) इति वा किति मे हिमम् , हेमम् । मनि हेम । " कृसिकम्मि०" (उ० ७७३ ) इति तुनि हेतुः ।।
अथोदन्तावनिटौ च ॥ ___ '११ श्रृंट् श्रवणे' । गतौ इत्यन्ये । "श्रौतिकवु० " ४।२।१०८ इति शः, शृणोति । " समोगमृच्छि०" ३३८४ इन्यात्मनेपदे संशृणुते, कर्मणि तु सति परस्मैपदे संशृणोति हितम् । शुश्राव । “ स्क्रसृष० " ४।४।८१ इत्यत्र श्रोवर्जनाद् इड मावे शुश्रीथ । सनि " श्रुधोऽनाङ०" ३३७१ इत्यात्मनेपदे शुश्रूषते धर्मम् , आमतेस्तु परस्मैपदे आशुश्रूषति, प्रतिशुश्रूषति । "प्रत्याङः श्रुवा" २।२।५६ इति चतुर्थ्या मैत्राय प्रतिशृणोति, मैत्राय आशृणोति । अनुस्वारेवान्नट् , श्रोता, श्रुतः, श्रुतवान् । णो सनि " श्रु-सु-द्र०" ४।१६१ इति पूर्वस्य उतः वेत्वे शिश्रावयिषति, शुश्रावयिषति । उ " असमानलोपे०" ४३११६३ इति सन्वभावे अशिश्रवत् , अशुश्रवत् । “ ग्रहादिभ्यो " ५।१।५३ इति णिनि श्रावी । गणनिपातनाद् हुस्वे श्रवी इत्येके । " श्रुसद० " ५।२।१ इति भूतमात्रे वा परोक्षा शुश्राव, पक्षे अश्रौषीत् , अशणोत् । “ तत्र वसु०" ५।२।२ इति क्वसौ शुश्रुवान् । विपूर्वात् “ क्षुश्री. " ५।३।७१ इति पनि विश्रामः । “वादिभ्यः" ५।३।९२ इति क्तौ श्रयतेऽनया इति श्रुतिः । करणे अनटि श्रवणं कर्णः । उणादौ " तकश " ( उ० १८७) इति अणे श्रवणः अश्वत्थः कर्णश्च । " हुयामा० " ( उ० ४५१ ) इति त्रे श्रोत्रम् । “कावावी" ( उ० ६३४) इति णौ श्रोणिः । “ अस्" ( उ० ९५२ ) इति असि श्रवः. विश्रवाः ॥
'१२ दुदुंट उपतापे' । दुनोति, दुदाव । अनुस्वारेच्चान्नेट् , दोता । "दुगो० " ४।२।७७ इति क्तयोस्तस्य नत्वे ऊत्वे च दनः, नवान् ।
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२४२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्र विरचिते [ धा० १२" वा ज्वलादि० " ५।१।६२ इति वा णे दावः, पक्षे अचि दवः । ट्विवादथौ दवथुः । दुं गतौ [ १११२ ], दवति ॥
अथ ऋदन्तावनिटौ च ॥ १३ पृट् प्रीतो' । पृणोति, पपार । थवि "ऋतः" ४।४७९ इति नेट् , पपर्थ । अनुस्वारेच्वान्नेट् , पर्ता, पृतः । सनि पुपूर्षति। पंक पालनपूरणयोः [२१७६], पिपति ॥
१४ स्मृट पालने च' । चकारात् प्रीतौ । जीवनेऽप्यन्ये । स्मृणोति, सस्मार । अनुस्वारेच्चान्नेट, स्मर्ता, स्मर्तुम् । थवि " ऋतः" ४४७९ इति नेट् , सस्मर्थ । पोपान्त्योऽयमित्येके; स्पृणोति, पस्पार, स्पर्ता ॥
अथ कान्तौ ॥ १५ शकलंट शक्तौ' । शक्नोति, शशाक, शेकुः । लुदित्वादङि अशकत् । ये तु शक्यते: पुष्यादित्वं प्रतिपमाः तेषां पुष्पादित्वादेव अडि सिद्ध लदिवमात्मनेपदेऽपि अङर्थम्, तेन " क्रियाव्यतिहारे०" ३।३।२३ इत्यात्मनेपदे अङि व्यत्यशकत् । अनुस्वारेच्चान्नेट, शक्ष्यति, शक्तः चैत्रः। " शकः कर्मणि " ४।४।७३ इति वा नेट, शक्तः शकितो वा धर्मः कर्तुं चैत्रण । सनि “ रमलभ० " ४।१।२१ इति स्वरस्य इ: द्वित्वाभावश्च शिक्षति । "शको जिज्ञासायाम् " ३।३।७३ इति आत्मनेपदे विद्याः शिक्षते । “ शकितकि०" ५।१।२९ इति ये शक्यः । “ शकधृष० " ५।४।९० इति तुमि शक्नोति भोक्तुम् । शकींच मर्षणे [ ३१३७ ], शक्यते शक्यति ॥
'१६ तिक, १७ तिग, १८ पघट् हिंसायाम् ' । आद्यौ आस्कन्दनेऽपि इत्येके । तिक्नोति, तितेक, तेकिता । " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के तिकः ।।
___ अथ गान्तः सेट् च ॥ ___ १७ तिग' । तिग्नोति, तितेग, तेगिता । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के तिगः ॥
___ अथ घान्तः सेट् च ॥ · १८ षघट्' । " : सो." २१३९८ इति से सनोति, ससाध । पोपदेशत्वाद् “णिस्तोरेवा० " २॥३॥३७ इति षत्वे सिषाधयिषति । अपोपदेशोऽय
१. स्मृ प्रीतिबलनयोः, बलनं जीवनम् (क्षी. त. १२८ ) ॥
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२१ ] धातुपारायणे स्वादयः (४)
[ २४३
मित्येके, सिसाघयिषति । तिक-तिग-'चषध हिंसायामित्यन्ये पेठुः, तिघ्नोति, 'चषघ्नोति ॥
अथ धान्तास्त्रयः ॥ — १९ राधं २० साधंट संसिद्धौ' । संसिद्धिः फलसंपत्तिः । “ यद्वीक्ष्ये " २।२।५८ इति चतुर्थी मैत्राय गध्नोति । रराध । आरराधुः गुरुम् । वधे तु "अवित्परोक्षा" ४।१।२३ इति स्वरस्य एत्वे द्वित्वाभावे च प्रतिरेधुः शत्रुम् । अनुस्वारेचानट, राद्धा, राद्धः । सनि " राधेर्वधे" ४।१।२२ इति स्वरस्य इ: द्वित्वाभावश्च, प्रतिरित्सात । वधादन्यत्र आरिरात्सति गुरुम् । “ ग्रहादिभ्यो० " ५।१।५३ इति णिनि अपराधी, उपराधी । घजि राधः । “घञ्युपसर्गस्य." ३।२।८६ इति वा दीर्घ अनूगधाः, अनुराधाः । क्तौ राद्धिः । राधंच वृद्धौ [ ३६१३ ], गध्यति ॥
'२० साधंटू ' । सानोति ससाध । अपोपदेशत्वात् षत्वाभावे सिसात्सति, सिसाधयिषति । षोपदेशोऽयमित्येके तन्मते " नाम्यन्तस्था० " २।३.१५ इति "णिस्तोरेवा० " इति च षत्वे सिषात्सति, सिषाधयिषति । णौ नन्द्याद्यने साधन: । उणादौ " कुवापाजि० " ( उ० १) इति उणि साधुः ॥
___ २१ ऋभूटू वृद्धौ' । ऋध्नोति । " ऋत्या० " १।२।९ इत्युपसर्गाऽवर्णस्य आरि प्राोंति, परानोंति । “ अनातो." ४।१६९ इति पूर्वस्य आत्वे नेऽन्ते च आनर्ध, आन्धतः । अर्धिता । उदित्वात् क्वि वेट् , ऋद्भवा, अधित्वा । सनि “इवृध०" ४।४।४७ इति वेट , अदिधिषति । “ऋध ईत् " ४।१।१७ द्वित्वाभावश्च ईर्सति । वेटत्वात् क्तयोनेंट , ऋद्धः, ऋद्धवान् । ऋच् वृद्धौ [ ३।४३ ], ऋष्यति ॥ ..
१. यथा तु काशकृत्स्नकातन्त्रवान्द्रहै मशाकटायनघातुपाठेषु पाठस्तथा तिक. तिगधात्वोर्हि'सार्थः, न तु स्कन्दनार्थ: । प्रतीयते कस्यचित् प्राचीनश्लोकबद्धधातुपाठस्थानुकरणेन मध्ये चकारः पठित: स्यात्-ष्टिघ आस्कन्दने तिक, तिग च षघ हिंसायाम। इदं रहस्यमविदित्वैव कैश्चिद् वृतिकारैश्चकाराद् आस्कन्दनार्थो गृहीत: । अपरैश्च चकारं षघ-धातुना संयोज्य चषघ-धातुः स्वीकृत: । (क्षी. त. टि. २३०) । [३] षघ इति मु० ॥
२. [व]षघ्नोति इति मु० ॥
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२४४ ]
अथ पान्तौ ॥
4
२२ आप्लृट् व्याप्तौ ' । आप्नोति आप । लृदिच्वादङ आपत् । अनुस्वात्वाने आता । गत्यर्था ० " ५।१।११ इति वा
66
कर्तरि के प्राप्तो
धर्मम्; पक्षे कर्मणि प्राप्तो धर्मोऽनेन भावे प्राप्तमनेन । ४|१|१६ इति ईपि द्वित्वाभावे च ईप्सति । यपि " वाऽऽप्नोः "
"
आचार्य श्री हेमचन्द्र विरचिते [ धा० २२
"
सनि ज्ञप्यापो०
४।३।८७ इति
44
( उ० २३८ )
इति दे अब्दः ।
णेर्वा अयि प्रापय्य, प्राप्य । " व्याप्ये क्तेन: " २२/९९ इति कर्मणि सप्तम्यां समाप्तमनेन श्रुतमिति " इष्टादेः " ७|१|१६८ इनि समाप्ती श्रुते । तौ प्राप्तिः । उणादौ आप तृभ्रम्मि० " ( उ० ६११ ) इति औ अपादेशे च अपि । ( उ० ७७६ ) इति तुनि अप्तुः कालः । " आपोsपू च " आलौ अपालुः वायुः । " आपोऽपू च
44
66
( उ० ८२३ ) इति
( उ० ८६१ ) इति तृः, अप्ता यज्ञः ।
46
आप: क्विपू हूस्वश्व ( उ० ९३१ ) इति क्विपि आपो जलम् । अम्भ इति
"
तु
" अमेभदौ चान्तौ " ( उ० ९६२ ) इति अमे: असि ||
64
9
"
आपs च
12
' २३ तृपट् प्रीणने ' | क्षुम्नादित्वाण्णत्वाभावे तृप्नोति, ततर्प, तर्पिता, तृषितः । पौच प्रीतौ [ ३।४६ ], तृप्यति, तृप्तः ॥
अथ भान्तः सेट् च ॥
6
66
64
"
२४ दम्भू दम्भे' | दम्नोति ददम्भ | दग्भः स्वरस्य एत्वे, नलुकि द्वित्वाभावे च देभतुः । 'थे वा दम्भ | दम्भिता । सनि “
"
""
४।१।२८ इति
४|१|२९ देभिथ, इवृध० ४४४७ इति वेटि दिदम्भिपतिः पक्षे
46
' दम्भोधिप् धीप् " ४|१|१८ न च द्विः, धिप्सति, धीप्सति । ऊदिचात् किंत्व
वेट्, दब्ध्वा दम्भित्वा वेदत्वात् तयोर्नेट् दब्धः, दब्धवान् । क्विपि पदान्ते
66
गडदचादे० " २।१।७७ इति आदेश्वतुर्थे विधपू, विधबू । उणादौ " ऋज्यजि" ० ( उ० ३८८ ) इति किति रेदः ॥
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२९ ] धातुपारायणे स्वादयः (४)
[ २४५
अथ वान्तो सेटौ च ॥ '२५ कुवुटु हिंसाकरणयोः'। "श्रौतिकवुधिवु०" ४।२।१०८ इति क्रादेशे कृणोति, कृणुतः, कृण्वन्ति । उदित्वान्ने चकृण्व, कृण्विता ।।
२६ धिवुट् गतौ' । श्रीणनेऽप्यन्ये । "श्रौतिकृयुधिवु० " ४।२।१०८ इति ध्यादेशे घिनोति, धिनुतः, धिन्वन्ति । उदित्वान्ने दिधिन्व, धिन्विता, धिन्वितुम् ।
ये तु अन्यैरिह अष्टौ पठिता अड व्याप्ती, दघ घातने, ऋक्षि-चरि-जरिदास-द्रु हिंसायामिति, उदाहृताश्च, अणोति, दध्नोति, ऋक्ष्णोति । केचित्त ऋक्षिं छिन्दन्ति ऋणोति, क्षिणोति, चिरिणोति, जिरिणोत, इति, ते लौकिकाः इति अस्माभिरुपेक्षिताः ॥
अथ षान्तः सेट् च ॥ • २७ निषाट् प्रागल्भ्य' । धृष्णोति, दधर्ष, धर्षिता । "धृषशसः प्रगल्भे" ४।४।६६ इति क्तयोनेंट , धृष्टः, धृष्टवान् ; जिवादत्र “ ज्ञानेच्छा." ५।२।९२ इति सति क्तः, प्रागल्भ्यार्थादन्यत्र इटि " न डी." ४।३।२७ इति किवाभावाद् गुणे धर्षित:, धर्षितवान् । आदित्वाद् " नवा भावारम्भे" ४।४।७२ इति वा नेट् , धृष्टमनेन, धर्षितमनेन, प्रधृष्टः, प्रधर्षितः । विपि “ऋत्विज-दिश०" २।११६१ इति गत्वे, निर्देशादेव द्वित्वे च दधृक् । “सिगृधि० " ५।२।३२ इति क्नौ धर्षशीलः धृष्णुः । " तृषिधृषि०" ५।२६८० इति नजिङि धृष्णक् । " शामू-युधि०" ५।३।१४१ इति खलपवादेऽने दुर्धर्षणः । " शकधृष०" ५।४।९० इति तुमि धृष्णोति गन्तुम् । धृषण प्रसहने [ ९।४१२ ], " युजादे." ३।४।१८ इति वा णिचि धर्षयति, धर्षति ।
अथाऽऽत्मनेपदिनौ सेटौ च ॥ — २८ टिघिट् आस्कन्दने' । " ष: मो० " २।३।९८ इति से निमित्ताभावात् टस्य ते " इङितः० " ३।३।२२ इत्यात्मनेपदे स्तिघ्नुते । षोपदेशत्वाद् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति पत्वे तिष्टिधे । स्तेधिता ॥
' २९ अशौटि व्याप्तौ' । संघातेऽप्यन्ये । अश्नुते । “ अनातो. " ४।१।६९ इति पूर्वस्य आत्वे नेऽन्ते च आनशे । औदिचाद् वेट , अष्टा, अशिता । मनि “ऋस्मिपू० " ४।४:८८ इति इटि " स्वरादे०" ४।१।४ इति द्वितीयां
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२४६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २९ शस्य द्वित्वे अशिशिषते । “ अटयति" ३४।१० इति यङि अशाश्यते । वेट्वात् क्तयोर्नेट् , अष्टः, अष्टवान् । उणादौ " कुवापा०" ( उ० १ ) इति उणि आशुः व्रीहिः । “ इध्यशि०" ( उ० ७७) इति तककि अष्टका पितृदैवत्यं कर्म । [" अशेर्डित् " ( उ० ८७ ) इति ] अशेर्डिति खे खं नमः । "अशो रश्वादो" ( उ० २७० ) इति अने रशना । शुपूर्वस्य अशुपूर्वस्य वा “ श्वसुरकुकुन्दुर० " (उ० ४२६) इति उरे निपातनात् श्वसुरः । स्त्रियां " नारीसखी." २२४७६ इति निपातनाद् अङि श्वश्रः । “मीज्यजि०" (उ० ४३९) इति सरे अक्षरम् । "अश्नोरीच्चादेः" ( उ० ४४२) इति वरटि ईश्वरी । “पप्यशोभ्यां तन्" (उ० ९०३) अष्टौ । " लटिखटि." ( उ० ५०५) इति वे अश्वः । " मावावदी" (उ० ५६४ ) इति से अक्षः । " अशोरश्वादिः" ( उ० ६२२) इति णिदिः, राशिः । “सदिवृति० " ( उ० ६८०) इति अनौ अशनिः । “ अशोरथादिः " ( उ० ६८८) इति मौ रश्मिः । “तविङ्कि" ( उ० ६९२) इति रौ अधिः । “षिप्लुपि०" ( उ० ७०७) इति सिकि. अक्षि । "अशेर्यश्वादिः" ( उ० ९५८) इति असि यशः । अशा भोजने [ ८५१ ], अश्नाति ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे टिस्वादिगणः अनुविकरणः
संपूर्णः ।।
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तुदादयः (५)
अथ तुदादयस्तितो वर्णक्रमेण प्रदर्श्यन्ते । तत्र प्रसिद्धधनुशेघेनाऽऽदौ—
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इति शे तस्य शिदवित् " ऽन्यत्र " शेषात् " ३ | ३|१००
' १ तुदत् व्यथने ' । तित्त्वं तुदादित्वज्ञापनार्थ सर्वत्र ज्ञेयम् । ईदित्वात् ईगित: ३|३|९५ इति फलवत्कर्तरि आत्मनेपदे तुदादेः शः 99 ३।४।८१ ४ | ३ | २० इति ङिखाद् गुणाभावे तुदते । फलवतोइति परस्मैपदे तुदति, तुतुदे, तुतोद । अनुस्वारेच्चानेटू, तोता, तुन्नः । नाम्युपान्त्य ० ५ | १|५४ इति के तुदः । " बहुविधु० " ५।१।१२४ इति खशि बहुन्तुदः, विधुन्तुदः, अरुन्तुदः, तिलन्तुदः । शतरि अवर्णादनो० २।२।११५ इति वान्तादेशे तुदती तुदन्ती स्त्री कुले वा । अजाते: ० " ५ | १ | १५४ इति णिनि शृङ्खलतोदी |
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"
नीदावू० ધારા૮૮
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इति करणे टितोत्रम् । करणे घञि प्रतोदः । उणादौ ' तुदिमिदि० " ( उ० १२४) इति छे तुच्छः । " नाम्युपान्त्य ० ( उ० ६०९) इति कि इः, “तुदीवर्मत्या ० " ६।३।२१८ इति सूत्रनिर्देशाद् दीर्घे " इतोऽकूत्यर्थात् " २।४।३२ इति ङयां तूदी नाम ग्रामः । तुदादिविषि० " ( उ० ५ ) इति कि अः, तुदः । ' नीनूरमि० " ( उ० २२७ ) इति किति थे तुत्थम् । ( उ० २७३ ) इति किति अने तुदनः ||
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"
' तुदादिवृजि
"
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अथ जान्तोऽनिट् च ॥
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,
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"
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२ अजीत पाके ' । ग्रहवश्व ० ४|१|८४ इति वृति " सस्य शषौ" १।३।६१ इति शे " तृतीयस्तृतीय० १।३।४९ इति शस्य जे भृञ्जते, भृजति । अशिति " भृञ्जो भर्ज़ " ४|४|६ इति वा भर्जसंयोगान्तत्वाद् " इन्ध्य संयोगा० " ४।३।२१ इति किवाभावाद् वृदभावे बभर्जे; पक्षे बभ्रजे; बभर्ज, बभ्रञ्ज । अनु
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19 इवृध०
४|४|४७ इति सनि वेटि
बिभर्जिषति;
स्वारेवाने, भ्रष्टा, भट, भृष्टः भृष्टवान् । विभ्रजिपति विभ्रक्षति । भर्जादेशे पक्षे इति षत्वे भिक्षेति । " ऋवर्ण० " ५।१।१७ इति ४|१|११७ इति गत्वे " तृतीयस्तृतीय० १।३।४९ इति सस्य दत्वे भ्रद्यः । भः । कर्मणोऽणि " 29 'नाम्न्युत्तर ० ३ |२| १०७ इति उदादेशे उदभ्रञ्जः । भीमादित्वादपादाने क्तौ भृज्यतेऽस्याः भृष्टिः । उणादौ “
यजसृज० २१११८७ ध्यणि केsनिट० "
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सुधूभू० ( उ० २७४ )
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ܕܪ
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२४८ ]
आचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २
इति वा किति अने भृजनं पाकः, भ्रजनः पावकः । " जिभृमृ० " (उ० ४४७) इति त्रटि वृद्धौ च भ्राष्ट्रम् । “ पशिभ्रस्जेः स्लुक् च" ( उ० ७३१) इति किदुः, भृगुः । “कृषिचमि०" ( उ० ८२९) इति ऊः, भजू: यवविकारः ॥
अथ पान्तोऽनिट् च ॥ ___ '३ क्षिपीत् प्रेरणे' । क्षिपते, क्षिपति । फलवकर्तरि आत्मनेपदापवादे " प्रत्यभ्यतेः " ३।३।१०२ इति परस्मैपदे प्रतिक्षिपति, अभिक्षिपति, अतिक्षिपति, चिक्षिपे, चिक्षेप । अनुस्वारेवान्नेट , क्षेप्ता, क्षिप्त: । " नाम्युपान्त्य" ५।११५४ इति के क्षिपः । “सिगृधि०" ५।२।३२ इति क्नो क्षेपशीलः 'क्षिप्नुः । " क्षिपस्टः" ५।२।६६ इति घिनणि परिक्षेपी अम्भसाम् । “ वादेश्च० " ५।२।६७ इति णके परिक्षेपकः । उणादौ " ध्रुधून्दि०" ( उ० २९) इति किति अके क्षिपकः वायुः । क्षिपकादित्वादित्वाभावे क्षिपका आयुधम् । "ऋज्यजि." ( उ० ३८८ ) इति किति रे क्षिप्रम् । " क्षिपेः कित्" ( उ० ६४२) इति अणौ क्षिपणिः हेतिः । " क्षिपेरणुक " ( उ० ७७० ) क्षिपणुः । क्षिपंच प्रेरणे [३॥१५ ], क्षिप्यति ॥
- अथ शान्तोऽनिट् च ॥ - ४ दिशीत अतिसर्जने' । अतिसर्जनं त्यागः । दिशते, दिशति, दिदिशे, दिदेश । अनुस्वारेच्चान्नेट , देष्टा, आदिष्टः; दिष्टं दैवम् । “ऋत्संपदा० " ५।३।११४ इति क्विपि " ऋत्विदिश्" २।१।६९ इति पापवादे गे दिश्यते सा इति दिक् । भिदायङि दिशा । " श्वादिभ्यः" ५।३।९२ इति क्तौ दिष्टिः वितस्तिः । " नाम्ना ग्रहा." ५।४।८३. इति णमि नामाऽऽदेशं दत्ते; "तृतीयोक्त वा" ३।१।५० इति वा समासः, पक्षे नामानि आदेशम् । उणादौ " वृमिथिदिशिभ्यस्थ-य-ट्याश्चान्ताः" ( उ० ६०१ ) इति . आः, दिष्ट्या आनन्दोक्ती निपातः ॥
अथ षान्तोऽनिट् च ॥ ५. '५ कृषीत् विलेखने ' । कृषते, कृषति, चकृषे, चकर्ष । " स्पृशमृश० " ३।४।५४ इति वा सिचि "स्पृशादि०" ४।४।११२ इति वा अकारान्ते अक्राक्षीत् ; पक्षे " हशिटो. " ३।४।५५ इति सकि अकृक्षत् । अनुस्वारश्चानेट , ऋष्टा,
१. क्षिप्णुः इति मु० । २. लोके गोफणि इति लिं दुर्ग. ४५ ॥
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७ ] धातुपारायणे तुदादयः (५) की, आकृष्टः । तौ कृष्टिः । उणादौ " कृषेर्गुणवृद्धी च वा” ( उ० ३१) इति अके कर्षक: कृषकः, परशुः, कार्पकः, कृषकः कुटुम्बी। “ पापुलि०" ( उ० ४१ ) इति किति इके कृषिकः पामरः । “घुवीह्वा०" (उ० १८३) इति किति णे कृष्णः । " नाम्युपान्त्य०" ( उ० ६०९) इति किद् इः, कृषिः । “कृपचमि०" (उ० ८२९) इति ऊः, कर्पूः नदी । कृषं विलेखने [ ११५०६ ], कर्षति ।।
अथ मुचादयोऽष्टौ । तत्राद्याः पञ्चाऽनिट उभयपदिनश्च, त्रयः परस्मैपदिनः खिदिवर्जाः सेटश्च । तत्र चान्तौ
___ ६ मुच्छंती मोक्षणे' । " मुचादि. " ४।४।९९ इति स्वरात्परे नेऽन्ते मुञ्चते, मुश्चति । मुमुचे, मुमोच । लुदित्वादङि अमुचत् । आत्मनेपदे तु “धुड्इस्वाद् " ४।३।७० इति सिचो लुकि अमुक्त । अनुस्वारेवाभेट , मोक्ता, मुक्तः । " अव्याप्यस्य." ४।१।१९ इति सनि वा मोकि द्वित्वाभावे च " एकधातो." ३।४।८६ इति क्यस्य "भूषार्थ. " ३।४।९३ इति प्रतिषेधे मोक्षते वत्सः स्वयमेव; पक्षे मुमुक्षते । घत्रि निर्मोकः । उणादौ " मावावदि." ( उ० ५६४) इति से मोक्षः । " नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९) इति किदो मुचिः, न मुश्चति, न न मुञ्चति वा नमुचिः; नखादित्वात् साधुः । मूत्रम् इति तु "सूमूखनि०" ( उ० ४४९) इति किति टि मवतेः ॥
७ पिचीत् क्षरणे' । “षः सो." २।३।९८ इति से “ मुचादि०" ४।४।९९ इति ने सिञ्चते, सिञ्चति । पोपदेशत्वात् " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सिषिचे, सिषेच । सोपसर्गस्य " स्थासेनि०" २॥३॥४० इति आदेरपि सस्य पत्वे अभिषिञ्चति, अव्यवायेऽपि अभ्यपिञ्चत् , द्वित्वेऽपि अभिषिषेच, अभिपिषिक्षति; सोपसर्गात् सिञ्चतेः णौ अभ्यषीषिचत् । ण्यन्तस्य उपसर्गयोगे पूर्वस्य न पत्वम् , अभ्यसीषिचत् । “ हालिप्सिचः" ३४६२ इति अङि असिचत् । " वाऽऽत्मने" ३२४६३ असिचत, असिक्त । " णिस्तोरेवा० " २३।३७ इति नियमात् षत्वाभावे सिसिक्षति । यङि " सिचो यङि" २।३।६० इति निषेधे सेसिच्यते, अभिसेसिच्यते । अनुस्वारेच्चान्नेट, सेक्ता, सिक्तः । “ नीदाबू० " ५।२१८८ इति करणे त्रटि सेक्त्रम् । सिंह इति तु हिंसेः सिम् च" (उ० ५८८) इति हे हिंसेः ॥
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२५० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचि [ धा०८
अथ दान्तः ॥ '८ विद्द्ती लाभे'। " मुचादि०” ४।४।९९ इति ने विन्दते, विन्दति । विविदे, विवेद । " वेत्तेः कित् " ३।४।५१ इति परोक्षाया वा आम् विन्दतेरपि इत्येके, तन्मते विदाञ्चकार, विवेद । अद्यतन्यां लदित्त्वादङि अविदत् ; आत्मनेपदे सिचो लुकि अवित्त । अनुस्वारेच्चान्नेट् , वेत्ता, वित्तः, वित्तवान् । " वित्तम्" ४।२।८२ इति निपातनानत्वाभावे वित्तं धनं प्रतीतं च । क्वसौ "गमहन०" ४।४।८३ इति वेटि विविदिवान् , विविद्वान् । “लिम्पविन्दः" ५।११६० इति शे विन्दः । अणपवादे " निगवादे." ५।१।६१ इति शे गोविन्दः, अरविन्दः । " याक्तो विन्द०" ५।४।५५ इति णमि यावद्वेदं भुङ्क्ते ॥
........ अथ पान्तौ ॥ __ 'लुप्लुती छेदने' । मुचादित्वान्ने लुम्पते, लुम्पति । लुलुपे, लुलोप । लदिच्चादङि अलुपत् । आत्मनेपदे तु " धुड्० " ४।३।७० इति सिलुकि अलुप्त । " गृलुप० " ३।४।१२ इति. गार्थाद् यडि लोलुप्यते । अनुस्वारेचान्नेट् , लोप्ता, लुप्तः, लुप्तिः । धजि लोपः । उणादौ " हुयामा०" (उ० ४५१ ) इति । लोपत्रम् अपहृतं द्रव्यम् ॥
'१० लिपीत् उपदेहे ' । उपदेहः वृद्धिः । मुचादित्वान्ने लिम्पते, लिम्पति । लिलिपे, लिलेप । “ ह्वालिप्० " ३४६२ इति अङि अलिपत् । “ वाऽऽत्मने" ३।४।६३ अलिपत, अलिप्त । अनुस्वारेचान्नेट , लेप्ता, लिप्तः । “लिम्पविन्दः" ५।१।६० इति शे लिम्पः । “निगवादे०" ५।११६१ इति शे निलिम्पा नाम देवा: । णके स्त्रियामापि विले पिका, अनुलेपिका ।।
अथ परस्मैपदिषु तान्तः ॥ — ११ कृतेत् छेदने ' । " शेषात् " ३।३।१०० इति परस्मैपदे मुचादित्वान्ने कृन्तति । चकर्त, कर्तिता । सादौ अशिति " कृतचूत०" ४।४।५० इति वेटि कस्य॑ति, कर्तिस्यति, चिकृत्सति, चिकर्तिपति । सिचि तु नित्यमिटि अकर्तीत् । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , कृत्तः, कृत्तवान् । ऐदित्वाद् यङ्लुबन्ताद् अनेकस्वरादपि क्तयोर्नेट् , चरीकृत्तः, चरीकृत्तवान् । विपि कृत् । नन्द्याधने कर्तनः । उणादौ " कृतिपुति० " ( उ० ७६ ) इति किति तिके कृत्तिका । " कृत्यशोभ्यां स्नक" ( उ० २९६) कृत्स्नम् । “ कृतेः कृच्छौ च" ( उ० ३९५) इति रे क्रूरः,
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१७ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[ २५१ कृच्छ्रम् । “ नदीवल्ल०" ( उ० ६९८) इति अरौ कर्तरिः । कृतैप वेष्टने [ ६।१८ ], कृणत्ति ॥
___ अथ दान्तः ॥ “१२ खिदंत् परिघाते' । परितापे इत्यन्ये । मुचादित्वान्ने खिन्दति । 'चिखेद । अनुस्वारेवान्नेट् , खेत्ता, खिन्नः । भिदायकि खिदा । खिदिच् दैन्ये [ ३।११६ ], खिद्यते । खिदिप दैन्ये [ ६।२४ ], खिन्ते ॥
अथ शान्तः ॥ १३ पिशत् अवयवे' । मुचादित्वान्ने पिंशति । पिपेश, पेशिता । उणादौ " पिशेराचक् " ( उ० ११६) पिशाचः; प्रज्ञायणि पैशाचः । “शिपिशि०" ( उ० २१२) इति किति इते पिशितम् । " पिशिमिथि० " (उ० २९० ) इति किति उने पिशुनः । “मृदिकन्दि०" (उ० ४६५) इति अले पेशलः । " किलिपिलि." (उ० ६०८) इति औ पेशिः मांसलेशः ॥ . वृत् मुचादिः । मुचादिः तुदाद्यन्तर्गणोऽष्टकः संपूर्णः ॥
अथ प्रकृतवर्णक्रमेण इदन्ताश्चत्वारोऽनिटश्च १४ रि १५ पित् गतौ'। रियति, रिराय । “योऽनेकस्वरस्य " २।११५६ इति यत्वस्य बहिरङ्गत्वेन अन्तरङ्गे “भ्वादेन मिनो०" २०११६३ इति दीर्घे कर्तव्ये असिद्धत्वात् दीर्घाभावे रिर्यतुः । अनुस्वारेन्वान्नेट , रेता, स्तिः ॥
__१५ पित् ' । पियति, पिपाय । अनुस्वारेन्वान्नेट , पेता, पितः । उणादौ "घुयुहि०" (उ० २४) इति के दीर्घ च पीकः उपस्थः, पिक इति तु “पापुलि०" ( उ० ४१ ). इति किति इके पिवतेः ।।
• १६ धित् धारणे' । धियति, दिधाय, दियतुः । अनुस्वारेन्वान्नेट् , घेता, धितः ॥
१७ क्षित् निवासगत्योः । क्षियति, चिक्षाय । “योऽनेकस्वरस्य" २।११५६ इति याऽपवादे “संयोगात् " २१५२ इति इयि चिक्षियतुः, चिक्षियुः । अनुस्वारेच्चान्नेट' क्षेता, क्षितः ग्रामः, क्षितमनेन । कर्मभावाभ्यामन्यत्र “क्षेः क्षी चा०" ४।२।७४ इति क्तयोस्तस्य नत्वं क्षेः क्षीः च, क्षीणः, क्षीणवान् ।
१. मु० नास्ति ॥
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२५२ ]
आचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १७
" वाऽऽक्रोशदैन्ये " ४।२।७५ क्षीताऽऽयुः, क्षिणाऽऽयुः, जाल्मः । क्षितकः क्षीणकः तपस्वी । यपि क्षेः क्षी [४।३।८९ ] प्रक्षीय, उपक्षीय । “क्षय्य-जय्यौ शक्तौ" ४।३।९० इति ये निपातनादयि क्षेतुं शक्यं क्षय्यम् ; शक्तेरन्यत्र क्षेयम् । “जीणदृ-क्षि०" ५।२।७२ इति इनि क्षयशीलः क्षयी । स्त्रियां क्तौ क्षितिः । भिदायङि क्षिया । आधारे " पुन्नाम्नि" ५।३.१३० इति घे क्षयः गृहम् । उणादौ " अतिरि०" ( उ० ३३८ ) इति मे क्षेमम् । “ हुयामा०" (उ० ४५१) इति त्रे क्षेत्रम् । किं क्षये [ १११० ], क्षयति । क्षिपशु हिंसायाम् [८१३४ ], क्षिणाति ॥
अथोदन्तः सेट् च ॥ '१८ पुत् प्रेरणे' । “पः सो० " २२३९८ इति से सुवति । पोपदेशत्वाद् " नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति पत्वे सुषाव, सुषुवतुः । “उपसर्गात् सुग्०" २॥३॥३९ इति पत्वे आभषुवति, अव्यवायेऽपि अभ्यषुवत् । सविता । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति ने , सूतः, सूतवान् , सूत्वा । सनि “ ग्रहगुहश्च० " ४ ४।५९ इति नेट् , “णिस्तोरेवा०२३॥३७ इति नियमात् षत्वाभावे सुसूपति । " प्रात्सूजोरिन् " ५।२।७१ प्रसवशीलः प्रसवी । पूडौक प्राणिगर्भविमोचने [२२४९], सूते । पूडौच प्राणिप्रसवे [३।९९], सूयते ॥
__ अथ ऋदन्तोऽनिट् च ॥ — १९ मृत् प्राणत्यागे' । “ मृयतेरद्यतन्याशिषि च" ३।३।४२ इति आत्मनेपदे "रिः शक्या०" ४।३।११० इति रौ " धातोरिव!” २२११५० इति इयि म्रियते । " ऋवर्णात्" ४।३।३६ इति सिजाशिपोरात्मनेपदे कित्त्वाद् गुणाभावे अमृत, मृषीष्ट; शिदादेन्यत्र " शेषात्०" ३।३।१०० इति परस्मैपदे ममार, मम्रतुः । " हनृतः०" ४४४९ इति इटि मरिष्यति । सनि मुमूर्षति । अनुस्वारेन्वान्नेट , मर्ता, मृतः । अचि अमरः । अभिमरः तीक्ष्णः । णके मारकः । पनि मारः । उणादौ " अदुपान्त्य० " ( उ० १४ ) इति अः, सरूपे च द्वे रूपे पूर्वस्य चाऽन्ते अः, मरमरः अनुकरणशब्दोऽयम् । " दृकन० " ( उ० २७) इति अके मरकः । “जुपदशवृमृभ्यो द्वेश्चादौ" ( उ० ४७ ) इति ईके ममरीकः अग्निः । “भमन्यनि० " ( उ० ५८) इति ऊके मरूकः निर्दन्तेभ: । " मृत्र
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२० ] धातुपारायणे तुदादयः (4)
[२५३ पिभ्यामिचः" ( उ० ११७) मरिचम् । “ म्रियतेरीचण्" (उ० ११८) मारीचः । " लूम्रो वा” ( उ० २०२) इति वा किति ते मृतः, मतः; स्वार्थे ये मर्त्यः । “ मृशीपसि.” (उ० ३६०) इति तादौ ये मत्यः । " जठरक्रकर०" ( उ० ४.३) इति अरे निपातनाद् मर्मरः शुष्कपत्त्रध्वनिः । "मृश्विकण्यणि०" उ० ६२६) इति ईचौ मरीचिः । “भृमृत" (उ० ७१६) इति उः, मरुः । “ मुस्त्युक्०" ( उ० ८०५) मृत्युः । “पलिमृभ्यामाण्डुकण्डुकौ" ( उ० ७६७ ) मृकण्डुः ऋषिः । मनि मर्म । मरुत् इति तु "म्र उत्" (उ० ८८९) इति मृणाते: उति ॥
अथ ऋदन्तौ सेटौ च ॥ “२० कृत विक्षेपे' । किरति । " अपस्किरः " ३।३।३० इत्यात्मनेपदे " अपाच्चतुष्पात्" ४।४।९५ इति स्सटि अपस्किरते वृषभो हृष्टः, अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, अपस्किरते श्वा आश्रयार्थी । कर्मकर्तरि “ एकधातौ० " ३।४।८६ इति जिक्यात्मनेपदेषु प्राप्तेषु “भूषार्थ " ३।४।९३ इति क्यज्योः प्रतिषेधे अवकिरते पांसुः स्वयमेव । " इसिजा०" ४।४।३६ इति वेटि " वृतो नवा० " ४।४।३५ इति वेटो दीर्घे, अनिसिचः “ ऋवर्णात् " ४।३।३६ इति किल्वे अबाकीट पांसुः स्वयमेव; पक्षे अवाकरिष्ट, अवाकरीष्ट; करिता, करीता । किति " ऋवर्ण,यू०" ४।४।५७ इति नेट् , कीर्णः, कीर्णवान् , कीर्वा । "ऋस्मिपू" ४।४।४८ इति सनि इटि चिकरिषति, चिकरीपति । अस्य इटो न दीर्घ इत्येके । उपपूर्वस्य " उपाकिरो." ५।४।७२ इति णमि “किरो लवने" ४।४।९३ इति स्सटि च उपस्कारं मद्रका लुनन्ति । “प्रतेश्च वधेः" ४४९४ इति स्सटि प्रतिस्कीर्णम् , उपस्कीर्णम् ह ते वृषल भूयात् । “स्कृच्छ्रतो." ४३८ इति गुणे “ प्रतिचस्करे नखैः " [ शिशुपालवध ११४७] । “नाम्युपान्त्य०" ५१५४ इति के किरः सूकरः । “चौ विकिरो० " ४४९६ इति वा स्सटि विष्किरः, " असोङ० " २।३।४८ इत्यत्र पत्वम् , विकिरश्च पक्षी । “युवर्ण" ५।३।२८ इति अलि " वर्चस्का०" ३।४८ इति निपातनाद् अवस्करः वर्चस्कम् । अवकरः अन्यः । उन्निपूर्वस्य " किरो धान्ये " ५।३।७३ इति घनि उत्कारः, निकारः धान्यस्य । अलि उत्करः निकरोऽन्यस्य । उणादौ " ऋतष्टित् " ( उ० ९) इति
१. " ऋतष्टित् " [उ. ९] इति सूत्रे मृश् हिंसायाम् इत्यस्माद् धातोः मर्मरशब्दः साधितः ।।
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२५४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २०
अः स्वरूपे च द्वेरूपे, कर्करः क्षुद्राश्मा, कर्करी गलन्तिका। " दकनृ० " (उ० २७) इति अके करकः, करकम् , करका च धनोपलः । " किरोङ्को रो लश्च वा" ( उ० ६२), करकः समुद्रः, कलङ्कः । “पतितमि०" (उ० ९८) इति अङ्गे करङ्गः कर्मशीलः । " कूर्चचूर्चा० " ( उ० ११३ ) इति चटि निपातनात् कूर्चम् ; कूर्चम् इव कूर्चकः, कूर्चिका इति च । “ कल्यवि०" ( उ० ११४ ) इति अचे करचः धान्यावपनम् । “किरो लश्च वा” (उ० १४७) इति किति आटे किलाटः, किराटः । “ 'तृकृषि० " ( उ० १५१ ) इति कीटे किरीटम् । “विहडकहोड." ( उ० १७२ ) इति अडे निपातनात् केरडः त्रैराज्ये राजा, क्रोडम् अङ्कः । " जृकत० " ( उ० १७३ ) इति अण्डे करण्डः । " इणुर्विशा० " ( उ० १८२) हात णे कर्णः । " गप०" इति किति अणे किरणः । “ऋक्व० " ( उ० १९६) इति उणे करुणा । " कृशसभ्य ऊर चान्तस्य" ( उ० २९८) इति पे कूपं भ्रूमध्यम् । “ कुशग०" ( उ० ३२९) इति अभे करभः । " कशप० " ( उ० ४१८ ) इति ईरे करीरः; गौरादित्वाद् इयां करीरी । "कृतभ्यामीषः " ( उ० ५५३ ) करीषः । " नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९) इति किदिः, किरिः सूकरः । “ कुन ऋत उर च" ( उ० ७३४ ) इति उ:, कुरुः । कृगश् हिंसायाम् [ ८।१५ ], कृणीते, कृणाति ॥
___ २१ गृत् निगरणे' । निगरणं भोजनम् । “ नवा स्वरे” २३।१०२ इति वा लत्वे गिरति, गिलति । प्रतिज्ञायां "समः " ३।३।६६ इति आत्मनेपदे संगिरते । “ अवात् " ३।३।६७ अवगिरते । कर्मकर्तरि " एकधातौ०" ३।४।८६ इति जिक्याऽऽत्मनेपदेषु प्राप्तेषु किरादित्वाद् “भूषार्थ. " ३।४।९३ इति क्ययोः प्रतिषेधे निगिरते ग्रासः स्वयमेव । “ इट् सिजा." ४४.३६ इति वेटि " वृतो नवा०" ४।४।३५ इति वेटो दी न्यगीष्ट प्राप्तः स्वयमेव । न्यगरिष्ट, न्यगरीष्ट स्वयमेव । णौ फलवत् कर्तरि “ईगितः” ३३९५ इति आत्मनेपदापवादे "चल्याहारार्थ०" ३।३।१०८ इति परस्मैपदे निगारयति ग्रासं चै मैत्रः । " गृलुप०" ३।४।१२ इति गार्थाद् यङि “यो यडि" २।३।१०१ इति लत्वे निजेगिल्यते । यङ्लुपि निजागलीति । "ऋस्मिपूङ” ४।४।४८ इति सनि इटि जिगरिषति, जिगरीषति । अस्य इटो दीर्घ नेच्छन्त्येके । गरिष्यति, गरीष्यति । " ऋवर्णश्रयू०" ४।४।५७ इति किति नेट्, “ऋल्वादे० " ४।२।६२ इति तो नत्वे
१. तृकृपीति इति मु० ॥
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[२५५
२६ ] धातुपारायणे तुदादयः (५) गीर्णः, गीर्णवान् । क्तौ गिणिः । गीर्वा । " नाम्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के गिरः, लत्वे गिल: । अणपवादे लिहायचि अजगरः, ओदनगरः । काऽपवादे अचि अलि वा गरः, लत्वे गलः । “ न्युदो ग्रः" ५।३।७२ इति पनि निगारः, उद्गारः । बाहुलकाद् घनि णे वा अगारम् । उणादौ “ऋतष्टित् " ( उ० ९) इति अः सरूपे च द्वे रूपे गर्गरः राजर्षिः, गर्गरी महाकुम्भः । “गम्यमि० " (उ० ९२ ) इति गे गर्गः ऋषिः । “ दम्यमि०" ( उ० २००) इति ते गर्तः । “ गृदृरमि० " ( उ० ३२७) इति मे गर्भ: । " कशग० " (उ० ३२९) इति अभे गरमः गर्भ एव । “ लटिखटि०" ( उ० ५०५) इति वे गर्वः । "प्रह्वाह्वा०" ( उ० ५१४) इति वे निपातनाद् ग्रीवा । “नाम्युपान्त्य०" (उ० ६०९) इति किदिः, गिरिः । “यो मादिर्वा" ( उ० ८९० ) इति उति गरुत् , गर्मुत्-हेम । गृश् शब्दे [ ८।३१ ], गृणाति ॥
___ अथ खान्तः सेट् च ॥ ' २२ लिखत् अक्षरविन्यासे' । लिखति, लिलेख, लेखिता, लिखितः । "नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति काऽपवादे लिहायचि लेखः, भिदादिनिपातनादङि लेखा । करणाऽऽधारे "व्यअनात्" ५।३।३२ इति घजि लेखः । उणादौ " ध्रुधून्दि० " ( उ० २९) इति किति अके लिखक: चित्रकारः । कुटादिस्यमित्येके, लिखनीयम् ॥
___ अथ चान्ताः पञ्च सेटश्च ॥ . २३ जर्च २४ झर्चत् परिभाषणे' । तर्जनेऽपि इत्येके । जर्चति, जजर्च, जर्चिता, जर्चितः ॥
२४ झर्चत् ' । झर्चति, जझर्च, झचिंता झर्चितः । चादिरयमित्येके, चर्चति; णके चचिका ॥
'२५ त्वचत् संवरणे' । संवरणम्-आच्छादनम् । त्वचति, तत्वाच, त्वचिता । अचि त्वचः । विपि सिरामांसादि त्वचति इति त्वक् ॥
'२६ ऋचत् स्तुतौ । ऋचति । " अनातो." ४।१।६९ इति पूर्वस्य आत्वे ने च आनर्च, आनृचतुः । अचिंता, ऋचितः । “ऋदुपान्त्याद० " ५।१।४१ इत्यत्र ऋचो वर्जनाद् " ऋवर्ण० " ५।१।१७ इति ध्यणि ते सेट्त्वात्
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२५६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २६
कत्वाभावे अर्यः । बाहुलकात् कर्तरि करणे वा “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति क्विपि ऋक् । अर्चिः इति तु " रुचि० " ( उ० ९८७) इति इसि अर्चेः ।।
२७ ओवरचौत् छेदने' । दन्त्योपान्त्योऽयम् । “ सस्य शषौ” ११३६१ इति शे " ग्रहवश्व०" ४।१।८४ इति रवृति वृश्चति । वज्रश्च । संयोगान्तत्वाद् " इन्ध्यसंयोगात" ४।३।२१ इति कित्त्वाभावान रवृत् , वव्रश्चतुः, वनश्चुः । औदित्वाद् वेट् , “ संयोगस्यादौ० " २।११८८ इति शस्य लुकि “ यजसृज०" २।१।८७ इति चस्य षत्वे व्रष्टा । पक्षे व्रश्चिता । वेटत्वात् क्तयोर्नेट् , "मयत्याद्यो०" ४।२७० इति तस्य नत्वे "क्तादेशोषि" २२११६१ इति नस्याऽसिद्धत्वेन सस्य लुकि चस्य कत्वे च वृषणः, वृषणवान् । 'अषि' इति वचनात् षत्वे कर्तव्ये नत्वं सिद्धमेव इति धुडभावाद् " यजसृज०" २११८७ इति न पत्वम् । कित्व "जुत्रश्च० " ४।४।४१ इति इटि "क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावान वृद् , प्रश्चित्वा । क्विपि मूलवृट् । उणादौ " पापुलि." ( उ० ४१) इति किति इके वृश्चिकः । ऋजिरिषि०" (उ० ५६७) इति किति से वृक्षः ॥
अथ छान्ताः षट् प्रछंवर्जाः सेटश्च ॥ २८ ऋछत् इन्द्रियप्रलयमूर्तिभावयोः' । इन्द्रियाणां प्रलये मोहे मूर्तिभावे च । गतावप्यन्ये । " स्वरेभ्यः" १।३।३० इति छस्य द्वित्वे ऋच्छति । " समो गमृच्छि० " ३३३८४ इति आत्मनेपदे समृच्छते । “ गुरुनाम्यादे०" ३१४८ इत्यत्र ऋछो वर्जनाद् आमभावे " स्कृच्छ्तो०" ४३।८ इति गुणे "अनातो." ४।१।६९ इति पूर्वस्य आत्वे ने च आनई, आनछेतुः, आनच्र्छः । ऋच्छिता, क्रिच्छितः, ऋचिच्छिषति ।।
'२९ विछत् गतौ' । " स्वरेभ्यः" ११३।३० इति छस्य द्वित्वे "अशवि ते वा" ३।४।४ इति वा आये विच्छायति, विच्छति, विच्छिता, विच्छायिता । शतरि “ अवर्णादश्नो०" २।१।११५ इति वा अन्तादेशे विच्छती, विच्छन्ती स्त्री कुले वा । द्रमिलास्तु शे नित्यमायं तुदादिपाठवला'चायव्यवायेऽपि पक्षेऽन्ताभावमिच्छन्ति विच्छायन्ती, विच्छायती; यथा जुगुप्सते इति सना व्यवधानेऽपि आत्मनेपदम् । विच्छो नङ्ग [ ५।३।८६ ], विश्नः । विछण भासार्थः, विच्छयति ॥
१. वाय् इति मु०॥
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३४ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
'३० उछत् विवासे' । विवासः अतिक्रमः । " स्वरेभ्यः" १३३० इति छस्य द्वित्वे उच्छति । " गुरुनाम्यादेः" ३।४।४८ इति परोक्षाया आमि उच्छाञ्चकार । उच्छिता । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् , “ अनुनासिके च० " ४।१।१०८ इति छस्य शे " यजसृज०" २०११८७ इति शस्य थे व्युष्टः, व्युष्टवान् ; व्युष्टा नाडिः, व्युष्टं प्रातः । सनि उचिच्छिषति । छस्य द्वित्वे पूर्वस्य चस्य तत्वं च इच्छन्त्येके, तन्मते उतिच्छिपति इत्यपि; एवमन्यत्रापि । शतरि “ अवर्णादश्नो." २।१।११५ इति वान्तादेशे उच्छती, उच्छन्ती स्त्री कुले वा ॥
३१ मिछत् उत्क्लेशे' । उत्क्लेशो बाधनम् । “ स्वरेभ्यः" ११३३० इति छस्य द्विन्वे मिच्छति, मिमिच्छ, मिच्छिता, मिच्छितः; मिच्छती, मिच्छन्ती स्त्री कुले वा । पिछेति द्रमिलाः, 'पिच्छा आचामः ॥
३२ उछत् उञ्छे' । उञ्छः उच्चयः । उदिवाने " तवर्गस्य." ११३।६० इति नस्य जे उञ्छति । " गुरुनाम्यादे:०" ३४४८ इति परोक्षाया आमि उञ्छाञ्चकार । उञ्छिता । घनि उञ्छः । उञ्छती, उञ्छन्ती स्त्री कुले वा ॥
___ ३३ प्रछत् ज्ञीप्सायाम् ' । ज्ञीप्सा जिज्ञासा । " स्वरेभ्यः" १३३३३० इति छस्य द्वित्वे " ग्रहवश्च० " ४।१८४ इति वृति पृच्छति । “समो गमृ०" ३।३।८४ इति आत्मनेपदे संपृच्छते । आपूर्वस्य "नुप्रच्छः" ३।३।५४ आपृच्छते गुरुम् । पप्रच्छ । संयोगान्तत्वाद् “ इन्ध्यसंयोगा०" ४।३।२१ इति कित्त्वाभावान्न रवृत् , पप्रच्छतुः, पप्रच्छुः । अनुस्वारेवान्नेट् , प्रष्टा, पृष्टः । “ऋस्मिपूङ० " ४।४।४८ इति इटि "रुदविद०" ४।३।३२ इति सनः किल्वे पिपृच्छिषति । " दिद्युद्०" ५।२।८३ इति क्विपि निपातनात् प्रश्नशीलः प्राट् , शब्दप्राट् । प्राविवाको निर्णेता । “यजिस्वपि०" ५।३।८५ इति ने “अनुनासिके च" ४।१।१०८ इति छस्य शे प्रश्नः । मिदाद्यङि पृच्छा । उणादौ " लूधूप्रच्छिभ्यः कित् " ( उ० ६७९ ) इति नौ पृश्निः रश्मिः ॥
अथ जान्ताः षट् ।। _ '३४ उज्जत् आर्जवे' । उब्जति । “गुरुनाम्यादेः०" ३४४८ इति परोक्षाया आमि उब्जाञ्चकार । उब्जिता, उब्जितः । “न बदनं० ॥ ४।१।५ इति
१. पिच्छा : आचामः । (क्षी. त. पृ. २३६ )। २ तुम इति मु०॥
33
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२५८ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३४
atr प्रतिषेधात् " स्वरादेः ० " ४|१|४ इति द्वितीयांशस्य जेरेव द्वित्वे उब्जिजिषति । " भावाकर्त्री : " [ ५|३|१८] घञि उद्गादित्वाद् गत्वे अभ्युद्गः समुद्गः । आधारे " 17 व्यञ्जनात्० ५।३।१३२ इति घञि न्युब्जितः शेते अस्मिन्निति न्युब्जो रोग:, “ भुजन्युब्जं ० " ४|१|१२० इति निपातनादत्र न गत्वम् । उब्जती, उब्जन्ती स्त्री कुले वा । ओज इति " उपेर्ज च " ( उ० ९५९ ) इति असि उषेः ।।
44
46
३५ सृजत् विसर्गे । सृजति । जिक्यात्मनेपदेषु असर्जि मालां धार्मिकः सृज्यते धार्मिकः । कर्मकर्तरि सृज्यते माला स्वयमेव, थवि " सृजिदृशि० 'अ: सृजिदृशो० " ४|४|१११ इति स्वरात्परो इति जस्य षः, स्रष्टा । अस्राक्षीत् सृष्टः । सृजती सृजन्ती स्त्री कुले वा । उणादौ " स्यन्दिसृजिभ्यां सिन्धरजौ च " ( उ० ७१७ ) इति उः, रज्जुः ।।
सृजः श्राहे० " ३|४|८४ इति मालां धार्मिकः स्रक्ष्यते मालां असर्जि माला स्वयमेव । ससर्ज । ष्ठ, सप्तर्जिथ । अनुस्वारेच्चान्नेट्,
४|४|७८ इति
66
46
अः,
19 यजसृज० २।१।८७
"
66
66
रुजार्थस्य ० " २|२| १३ इति वा कर्मणः कर्मत्वे चौरस्य रुजति रोग:, चौरं रुजति रोगः | । ओदिच्चात् " सूयत्याद्यो० " ४/२/७० इति
' ३६ रुजत् भङ्ग ' । " शेषे " २२८१ इति षष्ठयां रोज । अनुस्वारेच्चान्नेटू, रोक्ता क्तयोस्तस्य नत्वे " तादेशोऽषि " २।१।६१ इति नस्य असिद्धत्वेन घुटि “चज : ० " २|१|८६ इति गे रुग्ण, रुग्णवान् । कूलादुदुजो० ५।१।१२२ इति खशि कूलमुद्द्रुजः समुद्रः । विवपि ' गतिकारकस्य ० " ३ २८५ इति नेः दीर्घे नीरुकू इत्येके । 44 पदरुज ० " ५।३।१६ इति कर्तरि घञि रोगः । भिदाद्यङि रुजा । उणादौ " रुक्मग्रीष्म० " ( उ० ३४६ ) इति मकि निपातनात् रुकमम् ||
44
""
64
4
३७ भुजोंत् कौटिल्ये ' । भुजति, निभुजति, बुभोज । अनुस्वारेच्चान्ने, भोक्ता । ओदिचात् " मुत्याद्यो० " ४|२|७० इति तयोस्तस्य नत्वे भुग्नः, भुग्नवान् । ५/१/५४ इति के भुजः । नाम्युपान्त्य ० इति ध्यणि भोग्यम् ।
46
"
46
ऋ० " ५।१।१७
C
46
'स्थादिभ्यः ५।३।८२ इति भावे के भुजः कौटिल्यम् । भुजेन गच्छति भुजगः । करणाधारे " व्यञ्जना " ५।३।१३२ इति घञि भोगः सर्पकाय: ३ | ३ | ४७
"
यः । भुजंपू पालनाभ्यवहारयोः इति आत्मनेपदे भुङ्क्ते ॥
[६।१५ ],
भुनक्ति, "
जो
१. शेषषष्ठयां इति मु० ॥
"
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४१ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[ २५९ '३८ टुमस्जोंत् शुद्धौ' । शुद्धया स्नान 'ब्रुडनं च लक्ष्यते । “सस्य शौ" १।३।६१ इति शे " तृतीयस्तृतीय० " १।३।४९ इति शस्य जे मज्जति, ममज्ज । अनुस्वारेचान्नेट् , “ मस्जेः सः" ४।४।११० इति धुटि सस्य नत्वे मला । 'ओदिचात् “सूयत्यायो०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे " नो व्यञ्जनस्य०" ४।२।४५ इति नलुकि मग्नः, मग्नवान् । “जनशो०" ४३३२३ इति क्त्वः वा कित्वे मक्त्वा, मङ्क्त्वा । " ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि " तेऽनिट." ४।१।१११ इति जस्य गे " तृतीयस्तृतीय०" १।३।४९ इति सस्य दे मद्ग्यः । अचि मज्जः । “ नाम्न्युत्तरपदस्य० " ३१२।१०७ इति उदे उदके मज्जः उदमज्जः। दिवत्वादथौ मज्जथुः । अनटि मजनम् । भिदायडि मज्जा । उणादौ “भृमृतृ०" (उ० ७१६) इति उः, उद्गादित्वात् गत्वे मद्गुः । “ उक्षितक्षि०" (उ० ९००) इति अनि मज्जा अस्थिसारः, मज्जानौ । मञ्जूषा इति तु मोः सौत्रस्य " खलिफालि०" ( उ० ५६० ) इति ऊषे ॥
'३९ जर्ज ४० झझत् परिभाषणे' । जर्जति, जजर्ज, जर्जिता, जर्जितः, जर्जती, जर्जन्ती स्त्री कुले वा ॥
. अथ झान्तौ सेटौ च । ___ '४० झझन् ' । झर्झति, जझर्झ, झझिता, झझितः, झझती, झझन्ती स्त्री कुले वा । जर्जरझझरौ तु जप पो “ ऋतष्ठित् ० " (उ० ९) इति अप्रत्यये सरूपद्वित्वे च । तर्जनेऽप्ययमित्यन्यः ।
'४१ उद्झत् उत्सर्गे' । दोपान्त्योऽयम् । “ तवर्गस्य ० " ११३।६० इति दस्य जे उज्झति । “गुरुनाम्यादेः०" ३।४।४८ इति परोक्षाया आमि उज्झाञ्चकार । उज्झिता । " न वदनं० " ४११५ इति दस्य प्रतिषेधात् " स्वरादेः०" ४३११४ इति द्वितीयांशस्य झेरेव द्वित्वे उज्झिझिषति । “कुप्यभिद्यो." ५।१।३९ इति क्यपि निपातनाद् उज्झति उदकमिति उद्ध्यो नदः । क्विपि पदान्ते “पदस्य " २।१।८९ इति संयोगान्तलुकि उत् , उद् । उज्झती, उज्झन्ती स्त्री कुले वा ॥
१. वुडनं इति मु० ॥ २. उदि इति मु० ॥ ३. भृम इति मु० ॥
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२६० ]
आचार्यश्री हेमचन्द्र विरचिते [ धा० ४२
अर्थ डान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥
' ४२ जुडत् गतौ ' । जुडति, जुजोड, जोडिता, जुडितः । घञि जोडः ॥ ' ४३ पृड ४४ मृहत् सुखने ' । पृडति, पपर्ड, पर्डिता, पृडितः ॥
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4
46
उणादौ
४४ मृत्' । मृडति, मम, मर्डिता, मृडितः । क्षुधfक्लश० ४ | ३ | ३१ इति क्त्व : किच्चाद् गुणाभावे मृडित्वा । नाम्युपान्त्य० ५।११५४ इति के मृडः तद्भार्या तु " वरुणेन्द्र० " २|४|६२ इति ङधामानन्ते च मृडानी ॥ 6 ४५ कडत् मदे' । भक्षणे इत्यन्ये । कडति, चकाड । अचि कडः, लत्वे कलः । कडिता, कडितः, कडती, कडन्ती स्त्री कुले वा । केचित्तु कुटादित्वाच्च न वृद्धिरित्याहुः तन्मते णके कडकः । ( उ० ३२१ ) इति अम्बे कडम्बः जातिविशेषः । इति अमे कडमः शालिः, लत्वे कलमः । आरे कडारः । " वृग्नक्षि० " ( उ० ४५६ ) इति अत्रे कडत्रम्, भार्या नितम्बव । बन्धिवहि० " ( उ० ४५९ ) इति इत्रे कडित्रं लेख्यचर्म । कडेरेवराङ्गरौ " ( उ० ४४५ ) कडेवरं मृतकायः, लत्वे कलेवरम् । कडङ्गरः बुसः । कलह इति तु कलतेः " कृपकटि ० " ( उ० ५८९ ) इति अहे । कलिरित्यपि अस्यैव " पदिपठि० " ( उ० ६०७ ) इति औ ॥
66
2.
उ० ३४७ )
सृप प्रथि अग्यङ्गि० ( उ०
66
"
४०५ ) इति
लत्वे कलं
6.
66
"
"
कुटादिरयम्, 'कुकडी ०
46
99
(
" कुलिपुलि० " ( उ० ४७६ ) इति किति आले मृणालं विसम् ॥
अथ णान्ता नव सेटश्च ॥
6
४६ पृत् प्रीणने ' । पृणति, पपर्ण, पर्णिता, पृणितः । "नाम्युपान्त्य ० " ५/१/५४ इति के पृणः । 46 लोकम्पृण० " ३।२।११३ इति निपाततनान्मेऽन्ते लोकस्य पृण: लोकम्पृणः ||
6
४७ तुणत् कौटील्ये ' । तुणति तुतोण, तोणिता, तुणितः । उणादौ
46
27
'कुगुहु ० ( उ० १७० ) इति 'किति डे तुण्डम् । बाहुलकान्न दीर्घः ॥
6
४८ मृणत् हिंसायाम् ' । मृणति, ममर्ण, मर्णिता, मृणितः । उणादौ
,
४९ द्रुणत् गतिकौटिल्ययोश्च । चकाराद् हिंसायाम् । द्रुणति, दुद्रोण, द्रोणिता, द्रुणितः नाभ्युपान्त्य० " ५ ११५४ इति के द्रुणः । गौरादित्वाद् द्रुणी । घञि द्रोण: । गौरादित्वाद् यां द्रोणी |
64
१. किड्डे इति मु० ॥
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५५ ] धातुपारायणे तुदादय (५)
[ २६१
'५० 'पुणत् शुभे' । शुभं शुभविषया क्रिया । पुणति, पुपोण, पोणिता, पृणितः । “ नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के पुणः निपुणः । उणादौ “सृणीकास्तीक० " ( उ० ५० ) इति ईके निपातनात् पुण्डरीकम् । "कुगुहुनि०" ( उ० १७० ) इति किति डे पुण्डः भिन्नवर्णः, बाहुलकान दीर्घः । एवं कुण्डादिअपि । “ऋशिजनि०" ( उ० ३६१) इति किति ये पुण्यम् । " खुरक्षुर०" ( उ० ३९६) इति निपातनात् पुण्डः ॥
५१ मुणत् प्रतिज्ञाने' । मुणति, मुमोण, मोणिता, मुणितः । उणादौ "कुगुहुनी०" (उ० १७०) इति डे मुण्डः ॥
'५२ कुणत् शब्दोपकरणयोः ' । कुणति, चुकोण, कोणिता, कुणितः । " नाम्युपान्त्य० " ५।११५४ इति के कुणः । घनि कोणः । उणादौ "कुगुहुनी." ( उ० १७० ) इति किति डे कुण्डम् । “भाजगोण." २।४।३० इति ड्यां कुण्डी अमत्रम् ; कुण्डा अन्या । "कल्यलि." (उ० २४६) इति इन्दकि कुणिन्दः म्लेच्छः । “ कुलिपिलि०" ( उ० ४७६ ) इति किति आले कुणालं नगरम् ॥
'५३ घुण ५४ घूर्णत् भ्रमणे' । घुणति, जुघोण, घोणिता, घुणित: । " नाम्युपान्त्य ० " ५।१।५४ इति के घुणः । लिहायचि घोणा ॥
'५४ घूर्णत्' । घूर्णति, जुघूर्ण, घूर्णिता, पूर्णितः; घूर्णती, घुर्णन्ती स्त्री कुले वा । घुणि पूर्णि भ्रमणे [ ११७०८-७०९ ], घोणते, घृणते ।
अथ तान्तः सेट् च ॥ '५५ चुतैत् हिंसाग्रन्थयोः' । घृतति, चचर्त, चर्तिता | सादौ 'कृतचूत०" ४।४।५० इति वेट , चय॑ति, चर्तिष्यति, चित्सति, चिचतिषति । असिचः इति वचनात् सिचि नित्यमिटि अचीत् । वेट्त्वाक्तयोर्नेट , वृत्तः, वृत्तवान् ; ऐदिचाद् यङ्लुपि अनेकस्वरादपि क्तयोनेंट, चरीवृत्तः, चरीवृत्तवान् । “ ऋदुपान्त्याद०" ५११४१ इत्यत्र चूतो वर्जनाद् "ऋवर्ण" ५।१।१७ इति ध्यणि चय॑म् ॥
१. पुण कर्मणि शब्दे च इति क्षीरस्वामी (क्षो. त. पृ. २३९ ) ॥
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२६२]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ५६ अथ दान्तावनिटौ च ॥ ५६ णुदंत प्रेरणे' । " पाठे." २२३९७ इति णस्य ने नुदति । णोपदेशत्वाद् “ अदुरुपसर्गा० " २३७७ इति णत्वे प्रणुदति । नुनोद । अनुस्वारेवान्नेट् , नोत्ता । "ऋहीघ्रा०" ४।२।७६ इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे नुन्नः, नुन्नवान् ; नुत्तः, नुत्तवान् । “शोकापनुद०" ५।११४३ इति के निपातनात् शोकापनुदः पुत्रः । घजि प्रणोदः नुदती, नुदन्ती स्त्री कुले वा । ईदिदयमित्येके, तन्मते "ईगितः" ३।३।९५ इति फलवत्कर्तरि आत्मनेपदे नुदते, नुनुदे । उणादौ " ग्लानुदिभ्यां डौः" ( उ० ८६८) नौः ॥
'५७ षलत् अवसादने । “ौति" ४।२।१०८ इति सीदादेशे, सीदति, ससाद । लदित्वादङि असदत् । पोपदेशत्वाद् “नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे सिपत्सति । ज्वला दिपठितेनैव सिद्धे इहाऽस्य पाठः "अवर्णादश्नो." २१।११५ इति वाऽन्तादेशार्थः, सीदती, सीदन्ती स्त्री कुले वा । ज्वलादिपाठोऽपि " वा ज्वलादि० " ५।१।६२ इति णविकल्पार्थः सादः, सदः। अनुस्वारेवान्नेट, सत्ता । शलत् शातने इति तु न पठितव्य एव, शित्यात्मनेपदित्वेन शतुरभावेऽन्तादेशविकल्पाऽप्राप्तः, अशदत् इत्यादेस्तु तेनैव सिद्धेः ॥
अथ धान्तः सेट् च ॥ '५८ विधत् विधाने ' । विधति, विवेध, विधितः, विधितवान् । " वो व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति कृत्वासनो; कित्वे विधित्वा, वेधित्वा; विविधिषति, विवेधिषति । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के विधः । उणादौ "विधेर्वा " ( उ० ९७२ ) इति वा किति असि विधाः, वेधाश्च ब्रह्मा ॥
अथ नान्तौ सेटौ च ॥ • ५९ जुन ६० शुनत् गतौ' । जुनति, जुजोन, जोनिता, जुनितः ॥
'६० शुनत् । । शुनति, शुशोन, शोनिता । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के शुनः वायुः । उणादौ " कीचकपेचक० " ( उ० ३३ ) इति अके निपातनात् शुनकः ॥
अथ पान्तोऽनिट् च ॥ '६१ छुपेत् स्पर्श' । छुपति, चुच्छोप । अनुस्वाचान्नेट् , छोप्ता ॥
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७० ] धातुपारायणे तुदादय (५)
[ २६३
अथ फान्ता नव सेटश्च ॥ '६२ रिफत् कथन-युद्ध-हिंसादानेषु' । रिफति, रिरेफ, रेफिता. रिफितः । न्युपान्त्य इति व्यावृत्तिबलाद् " ऋत्तपमृष०" ४।३।२४ इति “वौ व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति च वा किवाभावे "क्त्वा" ४।३।२९ इति नित्यमकित्त्वे रेफित्वा । स्वरादिस्यमित्येके, ऋफति; णौ अर्फयति ॥
'६३ तुफ ६४ तृम्फत् तृप्तौ' । " मुचादि०" ४।४।९९ इति ने विधानबलाद् “नो व्यञ्जनस्या०" ४।२।४५ इति नस्याऽलुकि तृम्फति । ततर्फ, तर्फिता, तृफिन्वा, तृफितः । “ ऋदुपान्त्याद्५।१।४१ इति क्यपि तृपयः ॥
'६४ तृम्फत् ' । “नो व्यञ्जनस्या० " ४।२।४५ इति नलुकि तृफति । ततम्फ, तृम्फिता, तृफितः । “ऋत्तष" ४।३।२४ इति क्त्वः वा किल्वे तृफित्वा तृम्फित्वा । पान्तौ एतौ इत्यन्ये तृपति; शे नलुक् च नेष्यते तृम्पति ॥
'६५ ऋफ ६६ ऋम्फत् हिंसायाम्' । ऋफति । " अनातो." ४११६९ इति पूर्वस्य आत्वे ने च आनर्फ, आनृफतुः; अर्पिता, ऋफितः । सनि अपिफिपति । " क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावे अर्फित्वा । "ऋदुपान्त्याद०" ५।११४१ इति क्यपि ऋफयः ॥
'६६ ऋम्फत् ' । “नो व्यञ्जनस्या०" ४२।४५ इति नलुकि ऋषति । नलोपं नेच्छन्ति एके, ऋम्फति । " अनातो." ४।१।६१ इति पूर्वस्य आत्वे ने च आनृम्फ । ऋम्फिता, ऋफितः । “ऋत्तप०" ४।३।२४ इति क्त्वः वा कित्त्वे ऋफित्वा, ऋम्फित्वा । इकागेपान्यो रादिश्वायमित्यन्य:, तन्मते शे नलोपानिष्टौ रिम्फति, रिरिम् ॥
'६७ दफ ६८ दम्फत् उत्क्लेशे' । “ मुचादि० " ४।४।९९ हात ने दम्फति । ददर्फ, दफिता, दृफितः । "क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावे दर्फित्वा ।
६८ दम्फत् ' । “नो व्यञ्जनस्या० " ४।२।४५ इति नलुकि दफति । ददृम्फ, दृम्किता । “ ऋत्तृष ०" ४।३।२४ इति क्त्वः वा किन्वे दृफित्वा, दृम्फित्वा ।।
'६९ गुफ ७० गुम्फत् ग्रन्थने ' । “ मुचादि० " ४४९९ इति ने गुम्फति । जुगोफ, गोफिता, गुफितः । “क्त्वा" ४।३।२९ इति किचाभावे गोफित्वा । न्युगन्त्य इति व्यावृत्तिबलाद् “ ऋत्तृष०" ४।३।२४ इति "वौ व्यञ्जनादेः०" ४।३।२५ इति चात्र वा न किचम् ॥
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२६४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ७०
'७० गुम्फत् । “नो व्यञ्जनस्या०" ४।२।४५ इति नलुकि गुफति । जुगुम्फ, गुम्फिता। "ऋतृष०" ४।३।२४ इति क्त्वः वा कित्त्वे गुफित्वा, गुम्फित्वा ॥
अथ भान्ताः षट् सेटश्च ॥ '७१ उभ ७२ उम्भत् पूरणे' । “ मुचादि०" ४।४।९९ इति ने उम्भति । उवोभ, उमिता, उभितः । " नाम्युपान्त्यः" ५।११५४ इति के उभौ । उणादौ "उमेद्वैत्रौ च" (उ० ६१५) इति औ द्वौ, त्रयः । ।
'७२ उम्भत ' । “नो व्यञ्जनस्या" ४४५ इति नलकि उमति । "गुरुनाम्यादेः" ३।४।४८ इति परोक्षाया आमि उम्भाश्चकार । उम्भिता, उम्भित्वा ।।
_ '७३ शुभ ७४ शुम्मत् शोभार्थे ' | "मुचादि०” ४४९९ इति ने शुम्भति । शुशोभ, अशोभीत् , शोभिता । " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के शुभम् । भिदायकि निपातनात् शोभा । उणादौ "ऋज्यजि०" ( उ० ३८८.) इति किति रे शुभ्रम् । शुभि दीप्तौ [१।९४७ ], शोभते, " युद्भ्योऽद्यतन्याम् " ३।३।४४ इति वा आत्मनेपदे अशोभिष्टः पक्षे " शेषात् ॥ ३३१०० इति परस्मैपदे द्युताद्यङि अशुभत् ॥
'७४ शुम्भत्' । “नो व्यञ्जनस्या०" ४ारा४५ इति नलुकि शुभति । शुशुम्भ, शुम्भिता, शुम्मित्वा । शुम्भ भाषणे च [ ११३७७ ], इत्यर्थभेदात्पाठः, . शुम्भति । भ्वादो सुम्भ निशुम्भनाद्यर्थों दन्त्यादिरित्येके ।
'७५ दौत् ग्रन्थे ' । दभति, ददर्भ, दर्भिता । "क्त्वा" . ४।३।२९ इति किवाभावाद् गुणे दमित्वो । ऐदित्वात्क्तयोर्नेट् , दृब्धः, दृब्धवान् । घनि सन्दर्भः । उणादौ " दृभिचपेः स्वरानोऽन्तश्च" ( उ० ८४१) इति ऊः, दृम्भूः सर्पः ॥ .
७६ लुभत् विमोहने '। विमोहनं व्याकुलीकरणम् । लुभति, लुलोभ । " सहलुभेच्छ० " ४।४।४६ इति वेटि लोब्धा, लोभिता । " लुभ्यश्च: " ४।४।४४ इति क्तयोरिटि विलुमिताः केशाः, विलभितवान् । धातूनामनेकार्थत्वाद् विमोहादन्यत्र वेटत्वान्नेट् , लुब्धः, लुब्धवान् । लुभच गाद्धर्थे [ ३।५५ ], लुभ्यति, अलुभत् ।।
अथ रान्ता अष्टौ सेटश्च ॥ "७७ कुरत् शब्दे ' । कुरति, चुकोर, कोरिता, कुरितः । “ कुरुच्छर: " २।१६६ इत्यत्र कुग एव ग्रहणात् “ भ्वादे: " २।१।६३ इति दीघे कूर्यते,
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८४ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[२६५
आशिपि कुर्यात् । अस्याऽपि न दीर्घ इत्यके, कुर्यात् । उणादौ “मृधुन्दि०" ( उ० ३९९) इति किति अरे कुररः जलपक्षी । “कितिकुडिकुरि० " (उ० ५१८) इति किति अवे कुरवः वृक्षः ॥
'७८ क्षुरत् विखनने' । क्षुरति, चुक्षोर, क्षोरिता । " नाम्युपान्त्य." ५।११५४ इति के शुरः ॥
'७९ खुरत् छेदने च' । छेदनं विलेखनम् । चकारात् विखनने । खुरति, चुखोर, खोरिता । " नाम्युपान्त्य" ५११५४ इति के खुरः । क्रोडादित्वाद् " असहनञ्० " २।४।३८ इति उथभावे कल्याणखुरा ॥
'८० घुरत् भीमार्थशब्दयोः' । घुरति, जुघोर, घोरिता । घनि घोरः । उणादौ " इदुदुपान्त्याभ्यां" (उ० १७) इति किदः, सरूपद्वित्वं पूर्वस्य चोदन्तः, घुरुघुरः । “ जजल० " ( उ० १८) इत्यादि निपातनात् पूर्वस्य उदभावे घुघुरः अनुकरणशब्दौ ॥ . '८१ पुरत अग्रगमने' । पुरति, पुपोर, पोरिता, पुरितः । "नाम्युपान्त्य." ५।११५४ इति के पुरम् । विपि पू: । पुरुष इति तु "विदिपृभ्यां०" (उ० ५५८) इति किति उषे पृणातेः । पुरुः इत्यपि अस्यैव " पृकाहृषि०" (उ० ७२९) इति किति औ ॥
___'८२ मुरत् संवेष्टने ' । मुरति, मुमोर, मोरिता, मुरितः । “नाम्युपान्त्य." ५।१।५४ इति के मुरः । उणादौ " इदुदुपान्त्याभ्यां०" (उ० १७) इति किदः, सरूपद्वित्वं पूर्वस्य चोदन्तः, मुरुमुरः अनुकरणशब्दः । “जजल० " (उ० १८) इत्यादि निपातनात् पूर्वस्य उदभावे मुमुरः ॥
८३ सुग्त् ऐश्वर्यदीप्त्योः ' । सुरति । अषोपदेशत्वात् पत्वाभावे सुसोर । षोपदेशोऽयमित्यके, तन्मते " नाम्यन्तस्था० " २।३.१५ इति षत्वे सुपोर । सोरिता । " नाम्युपान्त्य० " ५।११५४ इति के सुरः देवः, सुरा मद्यम् । उणादौ " इदुदुपान्त्याभ्यां" ( उ० १७) इति किदः, सरूपद्वित्वं पूर्वस्य चोदन्तः सुरुसुरः अनुकरणशब्दः ॥
'८४ स्फर ८५ स्फलत् स्फुरणे' । चलने इत्येके । स्फरोत, पस्फार, स्फरिता । अचि स्फरः । कुटादिरयमित्यन्ये, तत्पाठवलाच पके वृद्धयभावे स्फरकः । धजि स्फारः ॥
३४
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२६६]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ८५
अथ लान्तास्त्रयोदश सेटश्च ॥ '८५ स्फलत्' । फलति, पस्फाल, स्फलिता । णौ क्ते आस्फालितः । अनटि आस्फालनम् । कुटादिरयमित्येके, तत्पाठवलाच णके वृद्धयभावे स्फलकः ॥ ___ ८६ किलत् श्वैत्य क्रीडनयोः' । किलात, चिकेल, केलिता, किलितः । उणादौ “किलेः कित्" ( उ० ५७५ ) इति आसे किलासः सिध्मम् । किलाट इति तु किरः " किरो लश्च वा” (उ० १४७) इति आंटे 'किरतेः । " इदुदुपान्त्याभ्यां० " ( उ० १७) इति किदः, सरूपद्वित्वं पूर्वस्य चेदन्तः, किलिकिल: अनुकरणशब्दः । “ बहुलं गुणवृद्धी चादेः” ( उ० १९) इति पूर्वस्य गुणवृद्धयोश्च केलिकिलः, कैलिकिलश्च हासशील: । "किलिपिलि." (उ० ६०८) इति औ केलिः ।।
___ ८७ इलत् गतिस्वप्नक्षेपणेषु' । इलति, इयेल, एलिता । "नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के इला । लिहायचि घत्रि वा एलः । स्त्रियाम् एला । णौ एलयति ॥
'८८ हिलत् हावकरणे' । हिलति, जिहेल, हेलिता । णौ अचि हेला । उणादौ " इदुदुपान्त्याभ्यां०" (उ० १७) इति किद् अः, स्वरूपद्वित्वं पूर्वस्य चेदन्तः, हिलिहिलः अनुकरणशब्दः । बहुलं " गुणवृद्धी चादेः" (उ० १९) हेलिहिलः, हैलिहिलश्च विलासशीलः ॥
- ८९ शिल ९० सिलत् उञ्छे' । शिलति, शिशेल, शेलिता, शिलितः । " नाम्युपान्त्य० " ५।११५४ इति के शिलम् । स्त्रियामापि शिला । शेलुः इति तु शेतेः लौ ॥
'९० सिलत् । सिलति । अषोपदेशत्वात् षत्वाभावे सिसेल । पोपदेशोऽयमित्येके, तन्मते " नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति षत्वे सिषेल । सेलिता, सिलितः । “ नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के सिलम् ॥
१९१ तिलत स्नेहने' । तिलति, तितेल, तेलिता । "नाम्युपान्त्य० " ५१।५४ इति के तिलः । तिलण स्नेहने [ ९।११९ ], तेलयति ।।
९२ चलत विलसने ' । चलति, चचाल, चलिता; चलती, चलन्ती स्त्री कुले वा । णौ कम्पने एव घटादित्वाद् हस्वाभावे चालयती । चल कम्पने
१. किलाटः इति मु० ॥
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९८ ] धातुपारायणे तुदादय: (५)
[ २६७
[ ११९७२ ], ज्वलादित्वाद् वा णे चालः चलः; श्यशवः २।१।११६ इति नित्यमन्तादेशे चलन्ती स्त्री कुले वा णौ घटादित्वाद् हस्वे चलयति । चलण् भृतौ [ ९ | १३४ ], चालयति ॥
"
९४ विलत्वरणे '
घञि आवेल: । णौ अचि वेला
46
4
९३ चित् वसने ' । चिलति, चिचेल, चेलिता | लिद्दाद्यचि चेलम् ||
।
' दन्त्यौष्ठयादिः । विलति, विवेल, वेलिता ।
||
"
"
९५ बिल भेदने । ओष्ठयादिः । चिलति, बिबेल, बेलिता । नाम्युपान्त्य ० " ५।१।५४ इति के बिलम् आविलम् । उणादौ “विलिभिलि० " ( उ० ३४० ) इति किति ने 'विल्मं प्रकाशम् । " निघृषी ० " इति किति वे बिल्वम् । विलाल इति तु विडालस्य लत्वे ॥
( उ० ५११ )
' ९६ गिलत् गहने ' । गोपदेशत्वाद् "अदुरुपसर्गा० " नेलिता ॥
"
९७ मिलत् श्लेषणे
Postafa मेला ||
66
66
"
पाठे० " २|३|७७ इति णस्य नत्वे निलति । २।३।६७ इति नस्य णत्वे प्रणिलति । निनेल,
,
। मिलति, मिमेल, मेलिता, मिलितः ।
अथ शान्ताः षडनिटश्च ॥
29
66
अस्पार्क्षीत् ; हशिटो ० पक्षे स्प्रष्टा, स्पर्श, स्पृष्टः । पदरुज ० "स्पृशोऽनुदात् ५।१।१४९ इति
17
99
' ९८ स्पृशत् संस्पर्शे ' । स्पृशति, पस्पर्श । इति वा सिचि " स्मृशादि०
19
46
स्पृशमृश ० ३|४|५४ ४|४|११२ इति वा स्वरात्परः अ, अस्प्राक्षीत्, ३|४|५५ इति कि अस्पृक्षत् । अनुस्वारेवाने, ५।३।१६ इति कर्तरि घञि स्पर्शः व्याधिः । क्विपि " ऋत्विज - दिग्० " २/१/६९ इति शस्य पापवादे गे घृतस्पृक्; उदकात्तु " कर्मणोऽण " ५।११७२ इति अणि उदक
"
( उ०
५२३ ) इति वे पार्श्वम् । पर्शः
स्पर्शः । उणादौ " स्पृशेः श्वः पार् च इति प्रः शुः ( उ० ८२५ ) इति शौ इति ऊङि च पृणातेः ॥
44
"
"6
उतोऽप्राणिनचा " २।४।७३
66
१. दन्त्यों इति मु० ॥
२. विलत् वरणे, विल्मं प्रकाशः इति उ. वि. ॥
३. बिल्वः मालूरः इति उ. वि. । मालूर: श्रीफलो बिल्वः । ( अ. चिं ४ २०९ ) ॥
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२६८]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९९
" ९९ रुशं १०० रिशंव हिंसायाम् ' । रुशति, रुरोश । “ हशिटो." ३।४।५५ इति सकि अरुक्षत् । अनुस्वारेचान्नेट , रोष्टा, रुष्टः ।।
१०० रिशंत' । रिशति, रिरेश । " इशिटो. " ३।४।५५ इति सकि अरिक्षत् । अनुस्वारेचान्नेट् , रेष्टा, रिष्टः ॥
'१०१ विशंत प्रवेशने' । विशति । “निविशः" ३।३।२४ इति आत्मनेपदे “वामिनिविशः" ।।२२ इति आधारस्य कर्मत्वे ग्राममभिनिविशते । विवेश । " हशिटो. " ३।४।५५ इति सकि अविक्षत् । अनुस्वारेवान्नेट् , वेष्टा, प्रविष्टः । क्वसौ " गमहन०" ४४८३ इति वेटि विविशिवान् , विविश्वान् । "पदरुज" ५।३।१६ इति पनि वेशः वेश्यावाटः । “अजातेः शीले" ५।१११५४ इति णिनि संवेशी । " विशपत०" ५।४।८१ इति गमि गेहानुप्रवेशमास्ते, गेहं गेहमनुप्रवेशमास्ते । उणादौ " विशिभ्यां" ( उ० २१९) इति अन्ते वेशन्तः पल्वलम् । “विष्टपोलप०" ( उ० ३०७) इति. असे निपातनात् विष्टपं जगत् । “विशेरिपक" ( उ० ३०९) विशपः राशिः । " निघृषी." (उ० ५११) इति किति वे विश्वम् ॥
१०२ मशंत आमर्शने' । आमर्शनं स्पशः । मृशति, परामृशति, ममर्श । " स्पृशमृश०" ३।४।५४ इति वा सिचि " स्पृशादि० " ४।४।११२ इति स्वरात्परे वा अति "अनानाम्" ४।३।४५ इति वृद्धौ अम्राक्षीत् , अमार्षीत् ; पक्षे . " हशिटो. " ३।४।५५ इति सकि अमृक्षत् । अनुस्वारेवान्नेट् , भ्रष्टा, मी, मृष्टः । “ऋदुपान्त्याद०" ५।११४१ इति क्यपि मृश्यम् । उणादौ "युयुजि० " ( उ० २७७ ) इति किति आने मृशानः ॥
“१०३ लिशं १०४ ऋषेत् गतौ' । लिशति, लिलेश । “ हशिटो." ३।४।५५ इति सकि अलिक्षत् । अनुस्वारेचान्नेट् , लेष्टा, लिष्ट: । घनि लेशः । लिशिंच अल्पत्वे [ ३३१३४ ], लिश्यते ।।
___अथ षान्तास्त्रयः सेटश्च ॥ १०४ ऋषैत् ' । ऋष्यति । "ऋत्यारुपसर्गस्य" ११२।९ इति आरि प्रार्षति, परार्पति । " अनातो." ४११६९ इति पूर्वस्य आत्वे नेऽन्ते च आनर्ष, आनृपतुः । अर्षिता । " क्त्वा" ४।३।२९ इति 'किवाभावे अषित्वा । ऐदिचात्
१. कित्त्वत्त्वाभावे इति मु०॥
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१०९ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[२६९
क्तयोर्नेट् , ऋष्टः, ऋष्टवान् । “ऋदुपान्त्या०" ५१४१ इति क्यपि ऋष्यः । उपादौ "ऋषिवृषि०" ( उ० ३२१) इति किति अमे ऋषमः । "ऋजिरिषि०" (उ० ५६७) इति किति से ऋक्षः । “ नाम्युपान्त्य०" ( उ० ६०९) इति किदिः, ऋषिः । “ मुषि० " ( उ० ६५१ ) इति किति तौ ऋष्टिः खड्गः ॥
__१०५ इषत् इच्छायाम्' । “गमिषद्य० ॥ ४।२।१०६ इति छे इच्छति । इयेष, एषिष्यति । तादौ " सहलुभे०" ४४४६ इति वेटि एटा, एपिता, इष्ट्वा । “क्त्वा" ४।३।२९ इति कित्त्वाभावाद् गुणे एषित्वा । वेट्त्वात् क्तयोनेंट , इष्टः, इष्टवान् । “ ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि एष्यः । “प्रष्यपैष्यो०" ०२।१४ इति ऐत्वे प्रैष्यः । “ विन्द्विच्छू० " ५।२।३४ इति निपातनात् उः, एषणशीलः इच्छुः । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के इषः आश्वयुजः । “वादिभ्यः" ५।३।९२ इति तो इष्यते अनया इति इष्टिः । “मृगये." ५।३।१०१ इति निपातनात् शे इच्छा । " करणाधारे" ५।३।१२९ इति अनटि एषणः । स्त्रियां गौरादित्वाद् ड्याम् एषणी वैद्यशलाका । “क्रुत्संपदा०" ५।३।१२४ इति विपि इट् । उणादौ " इष्यशि० " ( उ० ७७) इति तककि इष्टका । " मस्जीष्य" ( उ० ८२६) इति सुकि इक्षुः । इषच गतौ [३३२५], अन्विष्यति । इशष आमीक्ष्ण्ये [ ८१५२ ], इष्णाति ॥
'१०६ मिषत् स्पर्धायाम् । मिषति, मिमेष, मेषिता, उन्मिषितम् । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के अनिमिषः देवः । आमिषम् । लिहायचि मेषः । घञि निमेषः, उन्मेषः ॥
___ अथ हान्ताः पञ्च सेटश्च ॥ १०७ वृहौत् उद्यमे' । उद्यमः उद्धरणम् ' । वृहति, वर्ह । औदिचात वेट , वहिता, वर्दी । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , वृढः, परिवृढः, वृद्धवान् । घनि उद्वहः, वर्हः। वृह वृद्धौ [ ११५५८ ], वर्हति ॥
'१०८ तृहौ १०९ हौ ११० स्तृहौ १११ स्तंहौत् हिंसायाम् । तृहति, ततर्ह । औदित्वाद् वेट् , अतहीत् । " हशिटो" ३।४५५ इति सकि अतृक्षत् । तर्हिता, तर्दा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , आवृढः, आतृढवान् ॥
'१०९ नुहो' । “नो व्यञ्जनस्या० " ४।२।४५ इति नलुकि तहति । ततह । औदिचाद् वेटू , अतुंहीत् , अताक्षीत् । तृहिता, तृण्टा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , “नो व्यञ्जनस्या०" ४।२।४५ इति नलुकि तृढः, तवान् ।
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२७० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ११०
___ ११० स्तृहौ' । स्तृहति, तस्तई । औदित्वाद् वेट् , स्तहिता, स्तर्दा । वेटत्वात् क्तयोनेंट , स्तृढः, स्तृढवान् । षोपदेशोऽयमित्येके, तन्मते "णिस्तोरेवा०" २।३।३७ इति षत्वे तिष्टर्हयिषति ॥
_ '१११ स्तहोत्' । “नो व्यअनस्या०" ४।२।४५ इति नलुकि स्तृहति तस्त॒ह । औदिचात् वेट् , स्तूंहिता, स्तृण्ढा । वेटत्वात् क्तयोनेंट , स्तृढः, स्तृढवान् । तृहती, तृहन्ती स्त्री कुले वा । अयमपि पोपदेश इत्यन्ये । तहपू हिंसायाम् [ ६।२३], " तृहः श्नादी० " ४।३।६२ इति तृणेदि । .
अथ तुदाद्यन्तर्गणः कुटादिः, तत्र प्रसिद्ध यनुरोधेनादौ
• ११२ कुटत् कौटिल्ये' । कुटति । " कुटादेः०" ४।३।१७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे कुटिता, कुटितुम् , कुटित्वा । णिति तु ङिच्याभावाद् गुणे उच्चुकोट, उत्कोटयति, उत्कोटकः, उदकोटि, उत्कोटः । “णिद्वान्त्यो ण" ४३५८ अहम् उच्चुकोट, णिचाभावे तु ङित्त्वात् न गुणः, अहम् उच्चुकुट । “नाम्युपान्त्य०" ५११५४ इति के कुटः, उत्कुटः । उणादौ " भुजिकुति०" (उ० ३०५) इति किति अपे कुटपः प्रस्थचतुर्भागः, “ऋच्छिचटि०" ( उ० ३९७) इति अरे कुटर: मर्कटः, बाहुलकात् गुणे कोटरः छिद्रम् । “घसिवशि०" ( उ० ४१९) इति ईरे कुटीरम् । “ कल्यनि० " ( उ० ४८१ ) इति इले कुटिलम् । “रुचिकुटि०" (उ० ५०२) इति मलकि कुड्रमलः विष्णुः मुकुलं च । “कृशकुटि०" (उ० ६१९) इति वा णिदिः, कोटिः, कुटिः ॥
अथोदन्तावनिटौ च ॥ * ११३ गुंत् पुरीपोत्सर्गे' । गुवति, जुगाव । अनुस्वारेत्वान्नेट् , “कुटादेः." ४॥३॥१७ इति ङित्त्वाद् गुणाभावे गुता, गुतम् , गुतव्यम् । “सिचि परस्मै० " ४।३।४४ इति वृद्धयभावे न्युगुपीत् । “दुगोरू च" ४।२७७ इति क्तयोस्तस्य नत्वे गूनः, गूनवान् । उणादौ " पथयूथ० " ( उ० २३१) इति थे निपातनाद् गूथम् । दीर्घान्तः सेट् चाऽयमित्यन्ये, तन्मते न्यगुवीत् , गुविता, गुवितव्यम् । गुङ् शब्दे [ ११५९१ ], गवते ॥
'११४ धंत् गतिस्थैर्ययोः । ध्रुवति, दुधाव । अनुस्वारेवोन्नेटू , "कुटादेः०" ४।३।१७ इति ङित्त्वाद् गुणाभावे ध्रता । “सिचि परस्मै०" ४४४४ इति
१. मु० नास्ति ॥
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११८ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[२७१ वृद्धयभावे अध्रुषीत् । अचि ध्रुवः । " कुत्सिता०" ७३३३ इति कपि ध्रुवकः । " गुपिमिथि०" ( उ० ४८३ ) इति इले ध्रुविलः ऋषिः । सेट् अयमित्यन्ये, तन्मते न्यधुवीत् , ध्रविता । किति " उवर्णात" ४४५८ इति नेटू , ध्रुतः । ङित्वेन किवं बाध्यते [ न्या० ७ ], इति 'नये ध्रुवितः । धुं स्थैर्ये च [१।१६], ध्रवति ॥
अथोदन्तौ सेटौ च ॥ ११५ णून स्तवने' । “पाठे." २३९७ इति ने नुवति, नुनाव, नुविता, नुवितुम् । णोपदेशत्वात् “ अदुरुपसर्गा" २२३७७ इति णत्वे किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति इडमावे प्रणूतः, प्रणूतवान् । अन्ये तु ङित्वेन कित्त्वस्य बाधनात् इटूप्रतिषेधं नेच्छन्ति; नुवितः, प्रणुवितः । एवं धुवित इति उत्तरत्राऽपि दृश्यम् ।।
'११६ धूत विधूनने' । धुवति, दुधाव, धुविता, धुवितव्यम् । किति “ उवर्णात् " ४।४।५८ इति इडभावे धूतः, धूतवान् । अनटि निधुवनम् । उणादौ " ध्रुधून्दि०" ( उ० २९) इति अके धुवकं धूननम् , धुवका आवपनविशेषः । धूग्ट् कम्पने [ ४६], धूनुते, धूनोति । धूगश् कम्पने [८।१३ ], धुनीते, धुनाति । धूगण कम्पने | ९।३७९ ], “युजादेः०" ३।४।१८ इति वा णिचि धूनयति, पक्षे धवते, धवति ॥
____ अथ चान्तौ सेटौ च ॥ '११७ कुचत् संकोचने' । कुचति, चुकोच । “कुटादेः०" ४।३।१७ इति डिवाद् मुणाभावे कुचिता, कुचितुम् , संकुचितः । “ नान्युपान्त्य." ५।१।५४ इति के कुचौ । णिति तु ङिचाभावे णौ कोचयति । अनि ते सेट् त्वात् कत्वाभावे संकोचः । कुच संपर्चनादौ [ ११९६१], संकोचति ॥
११८ व्यचत् व्याजीकरणे' । " व्यचोऽनसि" ४|११८२ इति वृति विचति । “ ज्याव्येव्यधि० " ४।७१ इति पूर्वस्य इत्वे विव्याच । “कुटादे:." ४।३।१७ इति डिवे विचिता, विचितुम् । उणादौ "अस्" ( उ० ९५२) इति असि स्वृदभावे उरुव्यचाः, पितृव्यचाः वृश्चिकः ॥
१. न्याये इति प० प्रतौ ।
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२७२ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ११९
अथ जान्तः सेट् च ॥
"
44
'१९९ गुजत् शब्दे ' । गुजति, जुगोज । 99 कुटादे: ० ४।३।१७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे गुजिता, गुजितुम्, गुजितः, अगुजीत् । ञ्णिति तु ङिच्चाभावाद् गुणे अगोजि, गोजयति । गुज अव्यक्ते शब्दे [ १।१५२ ], अथ तान्ता अष्टौ सेटश्च ॥
गोजति ।।
4
' १२० घुटत् प्रतीघाते ' | घुटति, जुघोट ङिच्चाद् गुणाभावे घुटिता, घुटितुम्, घुटितः । तिकृतौ ० अके घुटिका गुल्फास्थि । ञ्णिति तु ङिच्चाभावाद् गुणे अघोटि, घोटकः । गादिः डान्तश्चायमित्यन्ये, गुडति ।
४।३।१७ इति " ५।१।७१ इति
66
97
'नाम्युपान्त्य० ५/१/५४ इति के अयोगुडः ||
। " कुटादे: ०
66
19
' १२१ चुट १२२ छुट १२३ त्रुटत् छेदने ' । चुटति, चुचोट " कुटादे: ० ४ | ३ | १७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे चुटिता, चुटितम् । ञ्णिति तु ङिस्वाभावाद् गुणे घञि चोटः । णौ नन्द्याद्यने उच्चोटनः । णके चोटकः ||
"
64
4 १२२ छुट । छुटति चुच्छो । कुटादे: ० " ४ | ३ | १७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे छुटिता, छुटितुम् । ञ्णिति तु ङिच्चाभावाद् गुणे अच्छोटि । भावे इति के छोटिका । णौ छोटयति ॥
199
66 १२३ त्रुटत्
,
19 भ्रासभ्लास ० ४२३६ इति वा श्ये त्रुट्यति, त्रुटति, तुत्रोट | " कुटादे: ० " ४ | ३ | १७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे त्रुटिता, त्रुटितुम् । णिति तु ङिच्चाभावाद् गुणे अत्रोटि, त्रोटकः, त्रोटयति । उणादौ
66
किलिपिलि० "
( उ० ६०८ ) इति णौ इः, त्रोटिः ॥ -
6
'
१२४ तुटत् कलहकर्मणि । तुटति, तुतोट | " कुटादे: ० " ४।३।१७ इति ङिच्चाद् गुणाभावे तुटिता, तुटितुम् । ञ्णिति तु गुणे अतोटि । णके तोटकम् | उणादौ " नाभ्युपान्त्य ० ( उ० ६०९ ) इति किद् इ, तुटिः ॥
,
१२५ मुटत् आक्षेपप्रमर्दनयोः ' । मुटति, मोट | " कुटादेः ०
इति ङिच्चाद् गुणाभावे मृटिता, मुटितुम् । णिति तु के आमोटकः । मुट प्रमर्दने [१।२०२] मोटति । मोटयति ॥
४।३।१७ गुणे अमोटि । णौ मोटयति ।
टणू संचूर्णने [ ९।३६ ],
46
' १२६ स्फुटत् विकसने ' । स्फुटति, पुस्फोट | इति ङिच्चाद् गुणाभावे अस्फुटीत्, स्फुटिता, स्फुटितुम् ।
ܕܪ
"
कुटादे: ० ४।३।१७ ञ्णिति तु गुणे स्फोटः ।
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[ २७३
१३१ ] धातुपारायणे तुदादय: ( ५ )
णौ स्फोटयति । "नाम्युपान्त्य० " ५।१।५४ इति के स्फुट: । स्फुट विसरणे [ ११२०९], स्फोटति, अस्फुटत्, अस्फोटीत् । स्फुटि विकसने [ १६६९ ], स्फोटते ॥
4
,
१२७ पुट १२८ लुठत् संश्लेषणे ' । पुटति । इति ङिच्चाद् गुणाभावे पुटिता, पुटितुम् ।
कुटादे: ० "
46
४।३।१७ 99 नाम्युपान्त्य० ५/१/५४ इंति के पुटः । जातेरयान्त ० " २|४|५४ इति ङ्यां पुटी । ञ्णिति तु गुणे घञि पोटा, अचि वा । पुट संचूर्णने भासार्थो वा [ ९१३५, २१३ ], पोटयति ॥
66
अथ ठान्तः सेट् च ॥
66
' १२८ लुठत् ' । लुठति, लुलोठ । कुटादे: ० " ४ | ३ | १७ इति ङिच्चाद न गुणः, लुठिता, लुठितुम् । ञ्णिति तु गुणे अलोठि लोठयति । डान्तोऽयमित्यन्ये, लुडति लुलोड, लुडिता । लुठ उपघाते [ १।२२० ], लोठति । लुठि प्रतीघाते [ १९४२ ], लोठते ॥
"
अथ डान्ताश्चतुर्दश सेटश्च ॥
46
' १२९ क्रुडत् घसने ' । घसनं भक्षणम् । घनत्वे इत्यन्ये, घनत्वं सान्द्रत्वम् । कृडति, चकर्ड | 'कुटादे: ० " ४|३|१७ इति ङित्त्वाद् न गुणः, कृडिता, कृडितुम् । णिति तु गुणे अकर्डि, कर्डयति ॥
4
,
66
१३० कुडत बाल्ये च । चकाराद् घसने । कुंडति, चुकोड । “कुटादेः ०" ४ | ३ | १७ इति ङिच्चाद् न गुणः, कुडिता, कुडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अकोडि, कोडयति । उणादौ " पतितमि० " ( उ० ९८ ) इति अङ्गे कुडङ्गः । कितिकुडि० " ( उ० ५१८ ) इति अवे कुडवः मानम् ; लत्वे कुलवः । कुडुङ दाहे [ १।६९० ], कुण्डते । कुटुण रक्षणे [ ९ ६३ ], कुण्डयति ॥
'कुटादे: ० ४।३।१७ इति
44
66
'१३१ गुडत् रक्षायाम् ' । गुडति जुगोड । ङिच्चाद् न गुणः, गुडिता, गुडितुम् । “ नाम्युपान्त्य० स्त्रियामपि गुडा हस्तिसंनाहः । गुलिका, गुडाद् वा हूस्वार्थे कपि युग्मम् । घञि भूगोल: । गुडणू वेष्टने च [ ९ ६४ ], गुण्डयति ॥
૩૫
ܙܕ
" ५|१|५४ इति के गुडः,
19
तिकृतौ ० ५।१।७१ इति अके लत्वे च
। ञ्णिति तु गुणे अगोडि । णके गोलकं
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२७४ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० १३२
66
' १३२ जुडत् बन्धे ' । जुडति, जुजोड । कुटादे: ० " ४|३|१७ इति ङिच्चाद् न गुणः, जुडिता, जुडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अजोडि, जोडयति । जुडत् [ ५४२ ], जोडिता, जोडितुम् ॥
64
' १३३ तुडत् ' तोडने ' | तोडनं भेदः । तुडति तुतोड । कुटादे: ४ | ३|१७ इति ङिखाद् गुणाभावे तुडिता, तुडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अतोडि, तोडयति । उणादौ “ नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९ ) इति कि इः, तुडिः ॥
लुलोड ।
' १३४ लुड १३५ थुड थुडति तुथोड । स्थूडति, तुस्थोड कुटादे: ० ४।३।१७ इति ङिच्चाद् न गुणः, लुडिता, लुडितुम् ; थुडिता, थुडितुम् ; स्थुडिता, स्थुडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अलोडि, लोडयति; अथोडि, थोडयति; अस्थोडि, स्थोडयति । "नाम्युपान्त्य ०" ५|१|५४ इति के स्थलं पटकुटी ॥
44
०
कुटादे: गुणे अवोड, वोडयति ॥
१३६ स्थुडत् संवरणे' । लुडति,
66
।
' १३७ वुडत् उत्सर्गे च ' । ४।३।१७ इति ङिच्चा
"
ܕܪ
ܕܪ
चकारात् संवरणे । वुडति बुवोड | न गुणः, बुडिता, बुडितुम् ।
,
44
* १३८ ब्रुड १३९ अडत् संघाते ' । संवरथोऽप्यन्ये । ब्रुति, बोड | अडति, बु । कुटादेः ० " ४|३|१७ इति ङिच्चाद् न गुणः, बुडिता, बुडि - तुम्; अडितो, अडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अवोडि, ब्रोडयति, अभ्रोडि, भ्रोडयति ॥
,
' १४० दुड १४१ हुड १४२ डत् निमज्जने ' । दुडति दुदोड । हुडति जुहोड | त्रुति, तुत्रोड | " कुटादे: ० " ४|३|१७ इति ङिच्चाद् न गुणः, दुडिता दुडितुम् ; हुडिता, हुडितुम् ; त्रुडिता, त्रुडितुम् । ञ्णिति तु गुणे अदोडि, दोडयति; अहोडि, होडयति; अत्रोडि, त्रोडयति । घञि दोड:, लत्वे स्त्रियामपि दोला; sts: | उणादौ "नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९ ) इति किद् इ, हुडिः । " पृकाहृषि० " ( उ० ७२९ ) इति कि उः, हुडुः मेषः । हुडिः संघातेऽपि इत्यन्ये ॥
1
66
अथ णान्तः सेट् च ॥
4
१४३ चुणत् छेदने ' । चुणति, चुचोण । " कुटादे: ० " ४ | ३ | १७ इति डिम्वाद् न गुणः, चुणिता, चुणितुम् । ञ्णिति तु गुणे अचोणि चोणयति ॥
१. तोडते इति मु० ॥
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१४८ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[ २७५ अथ पान्तः सेट च ॥ · १४४ डिपत् क्षेपे' । डिपति, डिडेप । “ कुटादेः० " ४।३।१७ इति ङिवाद् न गुणः, डिपिता, डिपितुम् । णिति तु गुणे अडेपि, डेपयति । "आसुयु०" ५।१।२० इति ध्यणि डेप्यम् । डिपच क्षेपे [३।५३ ], डिप्यति, डेपिता । डिपण क्षेपे [ ९।१०१ ], डेपयति । डिपिण संघाते [९।२६४], डेपयते ॥
अथ रान्तौ सेटौ च ॥ १४५ छुरत् छेदने' । छुरति, चुच्छोर । आशिषि “ कुरुच्छरः” २११६६ इति दीर्घप्रतिषेधे छुर्यात् । “ कुटादेः०" ४।३।१७ इति ङित्त्वाद् न गुणः, छुरिता, छुरितुम् , आच्छरितुम् । “ नाम्युपान्त्य०" ५।१५४ इति के छुरः । “तिकृती" ५।१।७१ इति अके छुरिका । णिति तु गुणे अच्छोरि, छोरयति ।।
१४६ स्फुरत् स्फुरणे' । चलने इत्यन्ये । स्फुरति । “निर्नेः०" २।३।५३ इति वा षत्वे निःस्फुरति, निःस्फुरति; निष्फुरति, निस्फुरति । "के" २।३।५४ विष्फुरति, विस्फुरति । विपूर्वात् णौ " चिस्फुरोः०" ४।२।१२ इति वा सन्ध्यक्षरस्य आत्वे विष्कारयति, विष्फोरयति, विस्फारयति, विस्फोरयति । घनि " स्फुरस्फुलो" ४।२।४ इति आत्वे विष्फारः, विस्फारः । णवि पुस्फोर । "कुटादेः०" ४।३।१७ इति णितोऽन्यस्य डिवाद् न गुणः, स्फुरिता, स्फुरितुम् , स्फुरितः । " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के स्फुरः, सस्फुरः । क्ती स्फूर्तिः ॥
अथ लान्तः सेट् च ॥ ___१४७ स्फुलत् संचये च' । चकारात् स्फुरणे । चलने इत्यन्ये । स्फुलति । " निः०" २।३।५३ इति वा पत्वे नि: फुलति, निःस्फुलति; निष्फुलति, निस्फुलति । " वेः" २।३।५४ विष्फुलति, विस्फुलति । घनि “स्फुरस्फुलोः०" ४।२।४ इति सन्ध्यक्षरस्य आत्वे विष्फालः, विस्फालः । विपूर्वात् णिगि विष्फोलयति विस्फोलयति । णितोऽन्यस्य " कुटादेः" ४।३।१७ इति ङित्त्वात् न गुणः, स्फुलिष्यति, स्फुलितः । उणादौ "स्फुलिकलि०" ( उ० १०२ ) इति इङ्गकि स्फुलिङ्गः ।।
अथ आत्मनेपदिषु उदन्तोऽनिट् च ॥ १४८ कुंङ १४९ कूङत् शब्दे'। कुवते, चुकुवे । यङि चोकूयते । " कुटादेः० " ४।३।१७ इति णितोऽन्यस्य ङिच्चाद् न गुणः, अनुस्वारेचान्नेट् , कुता, कुतम् , कुतः ॥
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५)
२७६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १४९
यार रहना.
अथोदन्तः सेट् च ॥ • १४९ कूड्त्' । कुवते, चुकुवे । " कुटादेः०" ३।४।१७ इति णितोऽन्यस्य ङित्त्वाद् न गुणः, कविता, कुवितुम् । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट् , कूतः, कूतवान् , कूत्वा, आकृतम् ॥
अथ रान्तः सेट् च ॥ * १५० गुरति उद्यमे' | गुरते, जुगुरे । “ कुटादेः० " ३।४।१७ इति ङिवाद् न गुणः, गुरिता, गुरितम् । ऐदिचात् क्तयोनेंट , गूर्णः, गूर्णवान् । ञ्णिति तु गुणे “ वाऽपगुरो णमि" ४।२।५ इति सन्ध्यक्षरस्य वा आत्वे अपगारमपगारम् , अपगोरमपगोरम् । णौ आगोरयति । आगूरयति इति तु गूर्यतेः ॥
वृत् कुटादिः । कुटादिः तुदाद्यन्तर्गणः वर्तितः संपूर्ण इत्यर्थः ॥
__ अथ प्रकृतवर्णक्रमेण ऋदन्तास्त्रयोऽनिटश्च ॥
'१५१ पंडत व्यायामे' । व्यायाम उद्योगः । " इडित:" ३।३।२२ इति आत्मनेपदे “रिः शक्या०" ४।३।११० इति रौ इयि व्याप्रियते । व्यापप्रे । अनुस्वारेत्वान्नेट , पर्ता, पर्तुम् , व्यापृतः । “ हनृतः०" ४।४।४९ इति इटि व्यापरिष्यते । घनि व्यापारः ॥
• १५२ दंड्त् आदरे' । आद्रियते, आदतें । अनुस्वारेचान्नेट् , आदर्ता, आदृतः, प्रदतः । “ हनृतः०" ४।४।४९ इति इटि आदरिष्यते । "ऋस्मिपू०" ४।४।४८ इति सनि इटि दिदरिषते । " वृग्० " ५।११४० इति क्यपि आवृत्यः । " पुरन्दर० " ५।१।११४ इति णौ खे निपातनात् पुरो दारयति पुरन्दरः शक्रः, भगन्दरः रोग । " जीण" ५।२७२ इति इनि आदरशीलः आदरी । “युवर्ण०" ५।३।२८ इति अलि आदरः । दर्भ इति तु " गृदृरमि० " ( उ० ३२७ ) इति मे दणातेः । उणादौ " दृमुषि० " ( उ० ६५१) इति किति तौ दृतिः भस्वा ।
'१५३ धृत् स्थाने ' । धारणे इत्यन्ये । ध्रियते, दधे । अनुस्वारेचान्नेट्. धर्ता, धृतः । " हनृतः०" ४।४।४९ इति इटि धरिष्यते । “ऋस्मिपू. " ४।४।४९ इति सनि इटि दिधरिपते । “ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि धार्यः । "न्यायावाय० " ५।३।१३४ इति आधारे पनि आधारः । धृग् धारणे [११८८७], भरते, धरति ॥
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१५८ ] धातुपारायणे तुदादयः (५)
[ २७७
अथ जान्ताश्चत्वारः ॥ • १५४ ओविजैति भयचलनयोः' । उद्विजते, उद्विविजे । “ विजेस्टि" ४।३।१८ इति इटः ङित्वाद् न गुणः, उद्विजिता, उद्विजितुम् । ऐदित्वात् क्तयोनेट , विग्नः, विग्नवान् ; ओदित्वात् " सूयत्यादि०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वम् । गौ क्ते उद्वेजित: । " व्यअनाद्० " ५।३।१३२ इति करणे घनि वेगः ।।
१५५ ओलजेड १५६ ओलस्जैति बीडे' । लजते, लेजे, लजिता । ऐदित्त्वात् क्तयोर्नेट् , ओदित्वात् “ सूयत्यादि० " ४१२७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे लग्नः, लग्नवान् । नादिः अयमिति 'चन्द्रः, नग्नः ॥
'१५६ ओलस्जैति' । “ सस्य शषौ" ११३६१ इति शे, तस्य " तृतीयस्तृतीय०" १।३।४९ इति जे लज्जते, ललज्जे, लज्जिता, लज्जितुम् । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट , ओदित्वात् तस्य नत्वे "संयोगस्यादौ० " २०१६८८ इति सलुकि लग्नः, लग्नवान् । भिदायङि लज्जा । उणादौ "लस्जीष्यि." (उ० ८२२ ) इति आलो लज्जालु: । भ्वादौ युक्तपाठौ अप्येतौ प्रसिद्धयनुरोधादिह पठितौ ॥ - १५७ ध्वजित् सङ्गे' । “प: सो०" २१३९८ इति से "स्वअच" २॥३४५ इति पत्वे "नो व्यञ्जनस्य०" ४।२।४५ इति नलुकि परिष्वजते । परोक्षायां तु आदेः एव पत्वे " स्वओनवा" ४।३।२२ इति परोक्षाया वा कित्त्वे परिषस्वजे, परिषस्वजे । परि-नि-विपूर्वस्य " स्तुस्वअश्च० " ॥३।४९ इति अव्यवाये वा पत्वे पर्यप्वजत, पर्यस्वजत; न्यष्वजत, न्यस्वजत; व्यष्वजत, व्यस्वजत । अनुस्वारेच्चान्नेट , स्वता, स्वङ्कतुम् , परिष्वक्तः । नत्रा निर्दिष्टस्य अनित्यत्वाद् इटि अस्व अिष्ट । " जनशो०" ४।३।२३ इति क्त्वः वा किल्वे स्क्त्वा, स्वकृत्वा । घञि परिष्वङ्गः, क्तौ स्वक्तिः, परिष्वक्तिः ॥
अथ षान्तः सेट् च ॥ _ '१५८ जुपैति प्रीतिसेवनयोः' । जुषते, जुजुषे, जोषिता, जोषितुम् । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् , जुष्टः, जुष्टवान् । “ दृवृग्० " ५।११४० इति क्यपि जुष्यः । विपि "सजुषः" २०१७३ इति निर्देशात् सहस्य से, सस्य रुत्वे सजू: सजुषौ । जुषण परितर्कणे [ ९।४११], "युजादेः०" ३।४।१८ इति वा णिचि जोषयति जोषति ॥
इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे
तिच्छविकरणस्तुदादिगणः संपूर्णः ।। १. मुद्रिते चान्द्रधातुपाठे तु ओलजी (६१००) इत्येव पठ्यते । (क्षो. त. टि. पृ. २३५)।
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अथ रुधादयः (६)॥ अथ रुधादयः नविकरणा वर्णक्रमेण प्रदर्श्यन्ते ॥ - '१ रुपी आवरणे' । आवरणं व्यापित्वम् । पित्वं रुधादित्वज्ञापनार्थम् । ईदित्वात् " ईगितः" ३३९५ इति फलवकर्तर्यात्मनेपदे "रुधां स्वरात" ३।४।८२ इति श्न " नास्त्योः०" ४।२।९० इत्यल्लुकि " नां०" १।३।३९ इति बहुवचनाद् णत्वाऽपवादे ने रुन्द्धे । फलवतोऽन्यत्र “शेषात्० " ३।३।१०० इति परस्मैपदे रुणद्धि । रुरुधे, रुरोध । ऋदिवाद् “ ऋदिच्छवि०" इति वाडि अरुधत् , पक्षे सिचि " व्यञ्जनानाम् " ४।३।४५ इति वृद्धौ अरौत्सीत् । आत्मनेपदे “धुड्हस्त्रात्" ४।३।७० इति सिजलुकि अरुद्ध । कर्मकर्तरि “रुधः" ३।४८९ इति जिचप्रतिषेधे अरुद्ध गौः स्वयमेव । “ सेः सुद्धाम्" ४।३।७९ इति सिचो लुकि धो वा रुत्वे च अरुणस्त्वम् , अरुणत् त्वम् । अनुस्वारेचान्नेट् , रोद्धा, गेद्धम् , रुद्धः । " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के रुधः, प्ररुधः । “ग्रहादिभ्यो.." ५।११५३ इति णिनि अपरोधी, उपरोधी । “समनुव्यवा" ५।२।६३ इति धिनणि संरोधशीलः संरोधी, अनुरोधी । “उपपीड० " ५।४।७५ इति णमि व्रजोपरोधं गाः सादयति; " तृतीयोक्तं वा" ३१५० इति वा समासः । पक्षे ब्रजेनोपरोधम् , बजे उपरोधम् । उणादौ " शुषीषि०" ( उ० ४१६) इति किति इरे रुधिरम् ।।
___ अथ चान्तावनिटौ च ॥ .२ रिपी विरेचने ' । विरेचनं निःसारणम् । रिङ्क्ते, रिणक्ति, रिरिचे, रिरेच । ऋदिवाद् वाङि अरिचत् , अरेक्षीत् । अनुस्वारेवान्नेट् . रेक्ता, रेक्तुम् , रिक्तः । उणादौ " नीनूरमि०" ( उ० २२७ ) इति किति थे रिक्थम् । रिचण वियोजने च [९।३८६ ], " युजादेः० " ३।४।१८ इति वा णिचि रेचयति, रेचति ॥
_ '३ विपी पृथग्भावे' । विङ्क्ते, विनक्ति, विविचे, विवेच । ऋदित्वाद् वाऽङि अविचत् , अवैक्षीत् । आत्मनेपदे तु " धुड्० " ४।३।७० इति सिजलुकि अविक्त । अनुस्वारेन्वान्नेट् , वेक्ता, वेक्तुम् , विविक्तः । घनि “क्तेऽनिट:०" ४।१।१११ इति चस्य के विवेकः ॥
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७] धातुपारायणे रुधादयः (६)
[ २७९ अथ जान्तोऽनिट् च ॥ '४ युनूंपी योगे' । युङ्क्ते, युनक्ति, युयुजे, युयोज । ऋदित्वाद् वाऽडि अयुजत् , अयोक्षीत् । आत्मनेपदे तु “धुड्" ४।३।७० इति सिज्लुकि अयुक्त । " उत्स्वराद्" ३।३।२६ इत्यात्मनेपदे उद्युक्ते, प्रयुङ्क्ते, नेह, द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । यज्ञे यद् यज्ञपात्रं तद्विषयस्यैव युज्यर्थस्य वर्जनाद् इह आत्मनेपदम् एव, रन्धने यज्ञपात्रं प्रयुक्ते, यज्ञे धनपात्रं प्रयुक्ते । अनुस्वारेवान्नेट् , योक्ता, योक्तुम् , वियुक्तः । युजिच् समाधौ [ ३१११ ], युज्यते ॥
___५ भिदंपी विदारणे' । भिन्ते, भिनत्ति, बिभिदे, विभेद । ऋदित्वाद् वाडि अभिदत् , अभैत्सीत् । आत्मनेपदे तु “धुडू" ४।३।७० इति सिज्लुकि अमित्त । अनुस्वारेच्चान्नेट् , भेत्ता, भेत्तुम् । “रदाद." ४।२।६९ इति क्तयोस्तस्य नत्वे भिन्नः, भिन्नवान् । भित्तं शकलम् [ ४।२।८१], मिन्नम् अन्यत् । “कुप्यभिद्य." ५।१।३९ इति क्यपि निपातनाद् भिनत्ति कूलानि इति भिद्यो नदः । "कर्मणोऽण" ५।११७२ इत्यणि काष्ठभेदः । " असरूपो." ५११६ इति क्विपि काष्ठभित् । " वेत्ति० " ५२७५ इति किति घुरे भिद्यते स्वयमेव भिदुरं काष्ठम् । भिदाधङि भिदा विदारणम् , भित्तिः अन्या । उणादौ " कृतिपुति" ( उ० ७६) इति किति तिके मित्तिका कुड्यम् । “ विहाविशा०" (उ० ३५४ ) इति कर्मकर्तरि केलिमः, भिदेलिमं काष्ठम् । “ऋज्यजि०" ( उ० ३८८ ) इति किति रे भिद्रम् अदढम् । “शुपीषि० " ( उ० ४१६) इति किति इरे भिदिरः अशनिः । " नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९) इति किद् :, मिदिः वजम् ।।।
'६ छिद्रूपी द्वैधीकरणे' । अद्वैधस्य पृथक्त्वे । छिन्ते, छिनत्ति, चिच्छदे, चिच्छेद । ऋदित्वाद् वाऽडि अच्छिदत् , अच्छत्सीत् । आत्मनेपदे तु “धुड्." ४।३।७० इति सिज्लुकि अच्छित्त । अनुस्वारेत्वान्नेट् , छेत्ता, छेत्तुम् , छिन्नः । क्विपि रज्जुच्छित् । "वेत्ति" ५।२७५ इति किति घुरे छिदुरा रज्जुः । मिदाद्यङि छिदा द्वैधीभावः । छितिः विच्छित्तिश्चाऽम्या । उणादौ "ऋज्यजि." ( उ० ३८८ ) इति किति रे छिद्रम् । “शुषीषि०" ( उ० ४१६) इति किति इरे छिदिर: उन्दुरः । छिदिरं शस्त्रम् । “ नाम्युपान्त्य०" (उ० ६०९) इति किद् इ., छिदिः छेत्ता परशुश्च ॥
७ क्षुद्रूपी संपेषे' । क्षुन्ने, क्षुणत्ति, चुक्षुदे, चुक्षोद । ऋदित्वाद् वाऽङि अक्षुदत् , अक्षौत्सीत् । आत्मनेपदे तु " धुड्०" ४।३।७० इति सिज्लुकि अक्षुत्त ।
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२८० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ७अनुस्वारेचान्नेट, क्षोत्ता, क्षोत्तम् , क्षुण्णः । उणादौ "ऋज्यजि०" (उ० ३८८) इति किति रे क्षुद्रः ॥
'८ अछपी दीप्तिदेवनयोः' । वमनेऽप्यन्ये । छन्ते, छगत्ति, चच्छृदे, चच्छर्द, छर्दिता, छर्दितुम् । ऋदित्वाद् वाऽङि अच्छ्रदत् , अच्छीत् । आत्मनेपदे तु अच्छर्दिष्ट । असिचि सादौ “ कृतचूत०' ४।४।५० इति वेट् , छद्मति, छर्दिष्यति । सिचि तु नित्यम् इटि अच्छीत् । गौ डे "ऋदवर्णस्य०" ४॥२॥३७ इति ऋतो वा ऋत्वे अचिच्छ्रदत् , अचच्छर्दत् । ऊदित्वात् क्त्वि वेट् , कृत्वा, छर्दित्वा । वेटत्वात् क्तयोर्नेट् , कृष्णः, घृण्मवान् । “ऋदुपान्त्याद्।" ५।११४१ इति क्यपि छ्यम् । उणादौ " रुच्यचि० " ( उ० ९८९) इति इसि छर्दिः वान्तिः ॥
९ ऊपी हिंसाऽनादरयोः' । तन्ते, तृणत्ति, ततृदे, ततर्द । ऋदिवाद् वाऽङि अतृदत् , अतीत् । आत्मनेपदे तु अतर्दिष्ट । तर्दिता, तदितुम् । असिचि सादौ "कृतचत०" ४।४।५० इति वेट , तय॑ति, तर्दिष्यति । सिचि तु अतदीत् । अदित्वात् क्त्वि वेट्, तृत्त्वा, तर्दित्वा । वेट् त्वात् क्तयोर्नेट , तृष्णः, ष्णवान् । उणादौ " पदिपठि०" ( उ० ६०७) इत्यो वितर्दिः; स्वार्थ के वितर्दिका च वेदिः ॥ 1 अथ परस्मैपदिषु चान्तास्त्रयः सेटश्च ॥
१० पृचैः सम्पर्के' । “शेषात् ० " ३।३।१०० इति परस्मैपदे पृणक्ति, पपर्च, पपृचुः । " व्यअनाद् देः०" ४।३।७८ इति दिवो लुकि अपृणक् । संपचिंता । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् , संपृक्तः, संपृक्तवान् । “ समः पृचै ०" ५।२।५६ इति घिनणि संपर्कशीलः संपर्की । घनि “क्तेऽनिटः०" ४।१।१११ इति के पर्कः । मधुना पर्कः मधुपर्कः । संपर्कः । पृचैङ् संपर्चने [ २.५० ], पृक्ते । पृचण् संपर्चने [ ९।३८५ ], " युजादेः० " ३।४।१८ इति वा णिचि संपर्चयति, संपर्चति ॥ ___११ वृचैप् वरणे' । वृणक्ति, वृङ्गः, वृश्चन्ति । दिवि अवृणक् । ववर्च, ववृचुः, वचिंता । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् , वृक्तः, वृक्तवान् । घनि “क्तेऽनिटः०" ४।१।१११ इति के वर्कः । जान्तोऽयमित्यन्ये । जान्तोऽपि वर्जनार्थ इत्येके । वृक्षन्ति, ववर्ज । पति वर्गः ॥
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१५ ] धातुपारायणे रुधादयः (६)
'१२ तञ्च १३ तऔपू सङ्कोचने' |
।
च नक्त । दिवि अतनक् । ततञ्च तञ्चिता तञ्चित्वा । वेदत्वात् क्तयोनेंद्र, तक्तः, तक्तवान् ( उ० ३८८ ) इति किति रे न्यङ्कवादित्वात् कत्वे तन्मते औदिच्याद् वेटू, तङ्क्ता, तञ्चिता ॥
64
66
क्तयोनेंद्र, तक्तः, तक्तवान् । तक्त्वा, तकत्वा, इटि तञ्जित्वा;
रुधां ० "
३|४|८२ इति ऊदिचात् क्त्वि वेटू, तक्त्वा,
नलुकि
46
।
ऋज्य जि० "
औदिदय मित्येके,
अथ जान्ताः पञ्च ॥
4
१३ तऔपू ' । तनक्ति, ततञ्ज । औदिच्चाद् वेटू, तङ्का, तश्चिता । वेदत्वात्
"
जनशो० ४ | ३ | २३ इति तादेः क्त्वो वा कि क्त्वा " ४।३।२९ इति कित्त्वाभावाद् न नो लुक् ।।
44
उणादौ तक्रम् ।
[ २८१
' १४ औं आमर्दने ' ।
" भजे वा
४ | ३ | ४५ इति
वृद्धौ अभाबम्भज्यते ।
"
भनक्ति, बभञ्ज । इति वा नलुकि अभाजि, अञ्जि । 66 व्यञ्जनानाम् " क्षीत् । यङि " जपजभ० ४|१|५२ इति पूर्वस्य मौ अन्ते अनुस्वारेच्चान्नेट्, भङ्का, भक्तुम् । ओदित्वात् " सूयस्यादि० " ४|२|७० इति क्योस्तस्य नत्वे भग्नः, भग्नवान् । " जनशो० ४ | ३ | २३ इति तादेः क्खो वा किच्चे भक्त्वा, भक्त्वा | भञ्जिभासि० " ५|२|७४ इति घुरे भङ्गुरं काष्ठम् । घञि भङ्गा धान्यविशेषः, भङ्गोऽन्यः ||
"
11
46
' १५ भुजंपू पालनाभ्यवहारयोः ' । अभ्यवहारो भोजनम् । भुनक्ति भुवम् । भोज । दिवि अनकू । त्राणादन्यत्र भुनजो० ३|३|३७ इत्यात्मनेपदे हविः भुङ्क्ते । बुभुजे भुत । अनुस्वारेच्चान्ने, भोक्ता, भोक्तुम् । गत्यर्था ० "
"
46
५|१|११ इति वा कर्तरि के भुक्तः चैत्रः अन्नम्, पक्षे कर्मणि भुक्तमन्नं चैत्रेण । भावे भुक्तं चैत्रेण । णौ " गतिबोधा० " २२२२५ इत्यणिकर्तुः कर्मत्वे I हारार्थ ० १ ३ | ३ | १०८ इति फलवत्कर्तर्यपि परस्मैपदे भोजयति चैत्रं पयो मैत्रः ।
चल्या
"
" ॠवर्ण ० " ५।१।१७ इति ध्यणि " क्तेऽनिट ० " ४।१।१११ इति गे भोग्या
66
भोजः । युजभुज० ५|२|५० इति निणि भोगी इति अ:, बुभुक्षा | उणादौ " रुचिभुजिभ्यां किष्यः "
૩૬
19 ४।२।४८
भूः । भुजो भक्ष्ये " ४।१।११७ इति गत्वाभावे भोज्यम् अन्नम् । “व्यञ्जनाद्० " ५|३|१३२ इति करणे घञि “ भुजन्युब्जं " ४।१।१२० इति निपातनाद् भुज: पाणिः, अन्यत्र गत्वे गुणे च भोगः अहिकायः । " लिहादिभ्यः " ५ | १|५० इत्यचि
46
"
।
शंसि० ” ५।३।१०५ ( उ० ३८४ ) भुजिष्य:
46
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२८२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० १५. दासः । “ भुजेः कित् " ( उ० ८०२) इति युः भुज्युः ऋषिः । “विश्वाद्विदि." (उ० ९५६) इत्यसि विश्वभोजा अग्निः । भुजोत कौटिल्ये [५।३७], निभुजति ॥
'१६ अनौप् व्यक्ति-म्रक्षण-गतिषु' । व्यक्तिः प्रकटता, म्रक्षणं घृतादिसेकः । तत्र केवलस्य म्रक्षणे एव वृत्तिः, सोपसर्गविशेषस्य तु शेषयोरिति विवेकः । अनक्ति, व्यनक्ति । " अनातो." ४११६९ इति पूर्वस्याऽऽत्वे नेऽन्ते च आनअ, आनअतुः । औदित्वाद् वेट् , अजिता, अङ्गा । " सिचोऽजेः" ४४८४ इति इटि आश्रीत , आञ्जिष्टाम् । “ऋस्मिपू०" ४।४।४८ इति सनि इटि "न बदनं " ४।१।५ इति नस्य द्वित्वाभावे " स्वरादेः०" ४११४ इति जेवित्वे
अजिजिपति । “जनशो०" ४।३।२३ इति वा क्त्वः कित्त्वे अकृत्वा, अकूत्वा, इटि अजित्वा । वेट् त्वात् क्तयोनेंट् , अक्तः, अक्तवान् । “ कुप्यभिद्य० " ५।१।३९ इति क्यपि निपातनाद् आज्यं घृतम् । संज्ञाया अन्यत्र " ऋवर्ण०" ५।१।१७ इति ध्यणि “क्तेऽनिट०" ४।१।१११ इति गे अङ्ग्यम् । उणादौ " पाटयअिभ्यामलि:" ( उ० ७०२ ) अञ्जलिः । “ अफेयवेरिष्ठुः" ( उ० ७६४ ) अञ्जिष्ठुः भानुः । " अञ्जरिष्णुः" (उ० ७७१ ) अञ्जिष्णुः तैलादि । “ अफेयर्तेः कित्" (उ० ७७७) इति तुनि अक्तुः इन्द्रः । " अस " (उ० ९५२) इत्यसि अनः स्नेहः ॥
१७ ओविजै भयचलनयोः' । विनक्ति, विक्तः, विवेज । " विजेस्टि" ४।३।१८ इति इटो ङिच्चाद् न गुणः, उद्विजिता, उद्विजितुम् । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् । ओदित्वात् “सूयत्यादि०" ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे उद्विग्नः, उद्विग्नवान् । ओविजेति भयचलनयोः [५।१५४ ], उद्विजते ॥
अथ तान्तः सेट च ॥ १८ कृतैप वेष्टने' । कृणत्ति, कृन्तः, चकर्त, कर्तिता । सादौ असिचि "कृतचूत." ४।४।५० इति वेटि कर्त्यति, कतिष्यति । वेटत्वात् क्तयोर्नेट् . कृत्तः, कृत्तवान् । ऐदित्वाद् यङ्लुपि अनेकस्वराद् अपि क्तयोर्नेट , चरीकृत्तः, चरीकृत्तवान् । "क्वा" ४।३।२९ इति किवाभावाद् गुणे कतित्वा । सिचि अकर्तीत् । उणादौ " कृतिपुति० " ( उ० ७६ ) इति किति तिके 'कृत्तिका । " कृतेस्तर्क च" (उ० ७२३) इत्युः, तर्कुः सूत्रवेष्टनशलाका ॥
अथ दान्तः सेट च ॥ १९ उन्दैप क्लेदने' । उनत्ति । " गुरुनाम्यादेः " ३।४।४८ इति परोक्षाया आमि उन्दाञ्चकार । उन्दिता, उन्दितुम् । सनि " न बदनं०" ४।१।५
१. कृत्तिका: इति मु०॥
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१९ ] धातुपारायणे रुषादयः (६)
[ २८३ इति नस्य द्वित्वाभावे " स्वरादेः० " ४११४ इति देरेव द्वित्वे उन्दिदिषति । ऐदित्वात् क्तयोर्नेट् , “ ऋडी० " ४।२।७६ इति क्तयोस्यस्य वा नत्वे समुन्नः, समुन्नवान् , समुत्तः, समुत्तवान् । “ दशनावोद०" ४।२।५४ इति निपातनाद् घनि अबोदः । मनि औद्म, ओद्मनी । उणादौ "ध्रधृन्दि०" ( उ० २९) इति कित्यके उदकम् । “ उन्दैनलुक् च" ( उ० २७१ ) इत्यने ओदनः । " ऋज्यजि० " ( उ० ३८८) इति किति रे उद्रः ऋषिः । समुन्दन्ति' आर्दीभवन्ति वेलाकाले नद्यः अस्मात् इति समुद्रः । इन्द्र । इति तु " भीवृधि०" ( उ० ३८७) इति रे इन्दतेः । “ मृधुन्दि०" (उ० ३९९) इति कित्यरे उदरम् । “वाश्यसि०" ( उ० ४२३) इत्युरे उन्दुरः । “ऋजिरिपि." ( उ० ५६७ ) इति किति से उत्सः प्रस्रवणम् ॥
__ अथ षान्तावनिटौ च ॥ '२० शिष्लँप् विशेषणे' । विशेषणं गुणान्तरोत्पादनम् । शिनष्टि, विशिनष्टि । क्ये विशिष्यते । विशिशेष । लदित्वाद् अङि अशिषत् । अनुस्वारेच्चान्नेट , शेष्टा, शेष्टुम् , शिष्टः । “ ऋवर्ण० " ५।१।१७ इति घ्यणि विशेष्यः । कर्मणि आत्मनेपदे " हशिटो०" ३।४।५५ इति सकि व्यशिक्षन्त । पनि विशेषः । विनयादित्वात् स्वार्थे इकणि वैशेषिकः । शिषण असर्वोपयोगे [ ९।४१०], युजादित्वाद् वा णिचि शेषयति । अलि विशेषः । पक्षे शेषति । धनि शेषः ।।
२१ पिल्लंप संचूर्णने'। “जासनाट" २।२।१४ इति वा कर्मणः कर्मत्वे. " शेषे” २।२८१ इति षष्ठयां चौरस्य पिनष्टि, चौरं पिनष्टि । हिंसार्थाद् अन्यत्र धानाः पिनष्टि । पान्तत्वाद् " अकखाद्य० ॥ २॥३१८० इति नेर्वा णत्वाभावे प्रनिपिनष्टि । पिपेष । लदित्वादङि अपिषत् । कर्मणि आत्मनेपदे "हशिटो." ३।४।५५ इति सकि अपिक्षन्त । अनुस्वारेचानेट , पेष्टा, पेष्टुम् , पिष्टः । घजि निष्पेषः । “शुष्कचूर्ण" ६४।६० इति णमि शुष्कपे पिनष्टि । एवं चूर्णपेषम् , रूक्षपेषम् । “ स्वस्नेहनार्थात् ०" ५।४।६५ इति णमि तैलपेष पिनष्टि । उणादौ " पिषेः पिपिण्यौ च" ( उ० ३६ ) इत्याके पिनाकं रुद्रधनुः, पिण्याकः तिलखलः ॥
अथ सान्तः सेट् च ॥ — २२ हिसु २३ तृहप हिंसायाम् ' । उदित्वाद् ने हिनस्ति, जिहिंस । दिवि " व्यअनाद् देः, " ४।३।७८ इति दिवो लुकि सस्य दत्वे च अहिनत् ।
१. न्त्यी० इति मु० ॥
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२८४ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २६" सेः मद्धां०" ४।३।७९ इति सिचो लुकि सस्य वा रुत्वे च अहिनः त्वम् , अहिनत् त्वम् । “हुधुटो०" ४।२।८३ इति है: धौ " सो धि वा" ४।३।७२ इति सो वा लुकि हिन्धि, हिन्द्धि । हिंसिता, हिंसितः । अचि हिंसः । “ निन्दहिंस०" ५।२।६८ इति णके हिंसाशीलः हिंसकः । " स्म्यजस०" ५।२।१९ इति रे हिंस्रः । “क्तेटो०" ५।३।१०६ इत्यः, हिंसा । उणादौ "खलिहिसिभ्यामीनः" ( उ० २८६) हिंसीनः श्वापदः । " कशपृ० " ( उ० ४१८ ) इति ईरे हिंसीरो हिंस्रः । “हिंसेः सिम् च " ( उ० ५८८ ) इति हे. सिंहः ॥
अथ हान्तः सेट् च ॥ '२३ तृहप्' । “तृहः श्नादीत् " ४३६२ इति तृणेढि । दिवि अत्णेट् । ततई, तर्हिता, वृहितः । तृणम् इति तु “भ्रूणतण" ( उ० १८६) इति निपातनाद् णे तरतेः ॥
___ अथ आत्मनेपदिषु दान्तावनिटौ च ॥
'२४ खिदिप दैन्ये ' । इदिचाद् " इङितः०" ३।३।२२ इत्यात्मनेपदे खिन्ते, चिखिदे । अनुस्वारेचाद् नेट् , खेत्ता, खिन्नः । सिदिच दैन्ये [३।११६], खिद्यते । खिदंत परिघाते [ ५।१२ ], खिन्दति ॥
२५ विदिप विचारणे' । विन्ते, विविदे । अनुस्वारेच्चान्नेट , वेत्ता । "ऋही." ४।२।७६ इति क्तयोस्तस्य वा नत्वे विनः, विनवान् , वित्तः, वित्तवान् ॥
अथ धान्तः सेट् च ॥ • २६ जिइन्धपि दीप्तौ' । इन्द्धे । “धुटो धुटि स्वे वा" ११३१४८ इति दलुकि इन्धे । “ जाग्रुप० " ३४४९ इति परोक्षाया वा आमि समिधांचक्रे, समीधे । इन्धिता । एदित्वात् क्तयोर्नेट् , जीवात् सति ते समिद्धः, समिद्धवान् । कर्मणोऽणि "भ्राष्ट्राग्नेः०" ३।२।११४ इति मे भ्राष्ट्रमिन्धः, अग्निमिन्ध: । क्विपि अग्नीत् । संपदादिविवपि समित् । “ दशना०" ४।२।५४ इति निपातनाद् नो लुकि घनि एधः । उणादौ "ऋज्यजि० " ( उ० ३८८ ) इति किति रे वीभ्रं विमलम् । “येन्धिम्यां०" (उ० ९६८) इत्यसि, एधादेशे च एधः ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे नविकरणः पिद् रुधादिगणः
सम्पूर्णः ॥
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अथ तनादयः (७)॥ अथ तनादय: उविकरणा वर्णक्रमेण प्रदर्श्यन्ते, तत्र उभयपदिष्वादौ नान्ताः सप्त सेटश्च ॥
'१ तनूयी विस्तारे' । यित्त्वं तनादित्वज्ञापनार्थम् । ईदित्वाद् — ईगितः " ३।३।९५ इति फलवकर्तयात्मनेपदे “ कृगतनादेः० " ३।४।८३ इत्यौ च तनुते । फलवतोऽन्यत्र “शेषात् " ३।३।१०० इति परस्मैपदे तनोति । “वम्यविति" ४।२।८७ इति वा उतो लुकि तन्वः, तन्मः; तनुवः, तनुमः । तथासोः " तन्म्यो वा०" ४।३।६८ इति वा सिजनयोः लुप् न चेट् , अतत, अतनिष्ट, अतथाः, अतनिष्ठाः । " तनः क्ये" ४।२।६३ इति नस्य वाऽऽत्वे तायते, तन्यते । तेने, ततान, तनिता, तनितव्यम् । " इबुध० " ४।४।४७ इति सनि वेट् , "तनो वा" ४।१।१०५ इति वा दीर्घ तितांसति, तितंसति, पक्षे तितनिषति । ऊदित्वात् क्वि वेट , " यमिरमि०" ४।२।५५ इति नलुकि तत्वा; इटि तनित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट , ततः, ततवान् । " तन्व्यधी०" ५।११६४ इति णे तानः, अवतानः, वितानः । “ तिकृती" ५।११७१ इति तिकि " न तिकि०" ४।२।५९ इति दीर्घनलुकोरमावे तन्तिः तन्त्रीः । विपि "गतिकारकस्य०" ३।२।८५ इति दीर्घ "गमां०" ४।२।५८ इति नलुकि परीतत् । घनि वितान:, संतानः, एकतान: । स्त्रियां क्तौ तति: पङ्क्तिः । “यपि" ४।२।५६ इति नलुकि प्रतत्य, वितत्य । उणादौ " सुसि-तनि-तुसेर्दीर्घश्च वा" ( उ० २०३) इति वा किति ते तात: पिता, ततं वाद्यविशेषः । “कृधूतनि०" ( उ० ४४०) इति किति सरे तसरः कौशेयसूत्रम् , 'तसरः सूत्रवेष्टनम् । सरस्तु पट्टसूत्रम् इत्येके । “ट्" (उ० ४४६) इति वटि तन्त्रं प्रधानम् । “ कुगुवलि०" ( उ० ३६५ ) इत्यन्ये तनयः पुत्रः । "भृमृत०" ( उ० ७१६ ) इत्युः तनुः । “ कृसिकम्मि० " ( उ० ७७३) इति तुनि तन्तुः । “ कृषिचमि०" ( उ० ८२९ ) इत्यूः, तनूः काय: । " तनेर्डउः" ( उ० ७४८) सन्वत् च, तितउः परिवपनम् । “तनेड्व च" (उ० ८७२) त्वक् । तोकं तुक इति च तौतेः के किकि च । तण्डुल इत्यपि तण्डेः उले ॥ १. त्रसरः सूत्रवेष्टनम् , अ. चि. १५७७, तसरः सूत्रवेष्टनम् , सरस्तु पट्टसूत्रम् ।
(क्षी. त. २६१)॥
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२८६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २२ षयी दाने ' । " षः सो०" २।३।९८ इति से निमित्ताभावाद् णस्य ने सनुते सनोति । " व्यञ्जनादे: " ४।३।४७ इति वाऽतो वृद्धौ असानीत् , असनीत् । " तन्म्यो वा०" ४।३६८ इति सिज्नयोः वा लुपि “सनस्तत्रा०" ४।३।६९ इति वाऽऽत्वे असात, असत, असनिष्ट; असाथाः, असथाः, असनिष्ठाः । सेने, ससान, सनिता, सनितुम् । “ इवृध०" ४।४।४७ इति सनि वेट , “नाम्यन्तस्था० " २।३।१५ इति षत्वे " सनि" ४।२।६१ इत्यात्वे सिषासति, पक्षे सनि षत्वभृते “णिस्तोरेवा०" २।३।३७ इति नियमाद् न पत्वम् ; सिसनिषति । ऊदिचात् वित्व वेट , “ आः खनि०" ४।२।६० इत्यात्वे सात्वा, पक्षे सनित्वा । वेटत्वात् क्तयोनेंट् , सातः, सातवान् । “ये नवा" ४।२।६२ इत्यात्वे सायते, सन्यते । “तिकृती० " ५।१।७१ इति तिकि " न तिकि०" ४।२।५९ इति दीर्घनलुगभावे सन्तिः । " तो सन०" ४।२।६४ इति वाऽऽत्वनलुकोः, सातिः, सतिः । “ सातिहेति०" ५।३।९४ इति क्तौ सातिः उणादौ " कुवापा०" ( उ० १) इत्युणि सानुः प्रस्थः ।।
___ ३ क्षणूग् ४ क्षिणूयी हिसायाम् ' । " स्वर्णात् " २१३ ६३ इति नस्य णत्वे क्षणुते, क्षणोति, चक्षणे, चक्षाण । " व्यञ्जनादेः " ४।३।४७ इति वा वृद्धेः "न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधे अक्षणीत् । क्षणिता । ऊदिचात् क्त्वि वेट् , “ यमिरमि० " ४।२।५५ इति नलुकि क्षत्वा, इटि क्षणित्वा । वेट्त्वात् । क्तयोर्नेट् , क्षतः, क्षतवान् । “न तिकि० " ४।२।५९ इति दीर्घनलुकोः प्रतिषेधे "म्नां" १।३।३९ इति णत्वापवादे नस्य ने क्षणुतात् क्षन्ति: । स्त्रियां क्तौ क्षतिः ।।
'४ क्षिणूयी' । “ रघुवर्णात्० " २।३।६३ इति नस्य णे गुणं नेच्छत्येके; क्षिणुते, क्षिणोति; चिक्षिणे, चिक्षेण, क्षेणिता, क्षेणितुम् । ऊदित्वात् क्त्वि वेट , " यमिरमि० " ४।२।५५ इति नलुकि क्षित्वा । इटि " वो व्यअनादेः " ४।३।२५ इति वा किन्वे क्षिणित्वा क्षेणित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , क्षित:, क्षितवान् । “तिकृती०" ५।११७१ इति तिकि " न तिकि० " ४।२।५९ इति दीर्घनलुकोः अभावे " म्नां०" ११३।६९ इति णत्वापवादे नस्य ने क्षिन्तिः, तो क्षितिः । अमुं न पठन्त्येके ॥
'५ ऋणूयी गतो' । " रघुवर्णात् " २।३।६३ इति नस्य णे "लघोः०" ४।३।४ इति गुणे अणुते, अर्णोति । " अनातो." ४।१।६९ इति पूर्वस्य आत्वे नेऽन्ते च आनृणे, आनर्ण । अर्णिता, अर्णितुम् । सनि " अयि र:” ४।११६
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८] धातुपारायणे तनादयः (७)
[ २८७ इति रस्य प्रतिषेधे " स्वरादेः०" ४।१।४ इति ने: एव द्वित्वे अणिनिषति । अदिचात् क्त्वि वेट , “यमिरमि० " ४।२।५५ इति नलुकि ऋत्वा । इटि " क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावाद् गुणे अर्णित्वा । वेदत्वात् क्तयोर्नेट् , ऋतः, ऋतवान् । तो ऋतिः ॥
६ तृणूयी अदने' । अदाने इत्यन्ये । “ रपृवर्णात्० " २।३।६३ इति नस्य णत्वे तणुते, तर्णोति, ततृणे, ततर्ण, तर्णिता, तर्णितुम् । ऊदिचात् क्त्वि वेट , “ यमिरमि० " ४।२।५५ इति नलुकि तृत्वा । इटि " क्त्वा" ४।३।२९ इति कित्त्वाभावे तर्णित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , तृतः, तृतवान् । “तिकृतौ०" ५।१।७१ इति तिकि “न तिकि०" ४।२।५९ इति दीर्घ नलुकोः अभावे " म्नां०" १।३।३९ इति णत्वापवादे नस्य ने तृन्तिः । क्तौ तृतिः ॥
'७ घृणूयी दीप्तौ'। " लघोः" ४३।४ इति गुणे " रघुवर्णात." २।३।६३ इति नस्य णे घणुते, पर्णोति, जघृणे, जघर्ण, घर्णिता, घर्णितुम् । अदिचात् क्वि वेट , " यमिरमि० " ४।२।५५ इति नलुकि घृत्वा । इटि " क्त्वा" ४।३।२९ इति किवाभावे घर्णित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , घृतः, घृतवान् घृतम् । “तिकतौ० " ५।११७१ इति तिकि "न तिकि०" ४।२।५५ इति दीघ नलुकोरभावे "म्नां०" ११३।३९ इति नस्य णापवादे ने घृन्तिः । णान्तोऽयमित्येके, तन्मते " तवर्गस्य ०" १।३।६० इति तस्य टे घण्टिः । " नाम्युपान्त्य०" ५।११५४ इति के घृणा । तो घृतिः । उणादौ " नाम्युपान्त्य०" ( उ० ६०९) इति किद् इः, घृणिः । उविकरणे ऋणू-तृणू घृणूधातूनां गुणं नेच्छन्त्येके; ऋणुते, ऋणोति; तृणुते, तृणोति; घृणुते, घृणोति । अकारोपान्त्यो णान्तश्चायमिति शिवः; घणोति, जघाण; घतः, घतवान् । तिकि घण्टिः ।।
- अथात्मनेपदिनौ नान्तौ सेटौ च ॥ ___ ८ वयि याचने ' । इदिवाद् " इङितः०" ३३ २२ इत्यात्मनेपदे वनुते । “अनादेशादेः०" ४।१।२४ इति एत्वस्य " न शस-दद." ४।१।३० इति प्रतिषेधे ववने । वनिता, वनितुम् । अदिच्चात् क्त्वि वेट , “ यमिरमि०" ४।२।५५ इति नलुकि वत्वा, इटि वनित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट , वतः, क्तवान् । णौ “कगेवनू०" ४।२।२५ इति हूस्वे अववनयति, संवनयति । अनुपसगस्य तु “ज्वल-बल." ४।२।३३ इति वा हस्वे वानयति, वनयति । “तिकृती" ५।१७१ इति तिकि " न तिकि०" ४।२।५५ इति दीप नलुकोः अभावे वन्तिः ।
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२८८ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ९नजसमासे अवन्तिः राजा । तो पतिः । उणादौ "वनिकणि०" ( उ० १६२) इात ठे वण्ठः 'अभिनिविष्टः । “ पनिवपिभ्यां णित्" (उ० ४२१) इति ईरे वानीरः वेतसः । वनिष्ठुः इति तु वनिपूर्वस्य तिष्ठतेः कित्यौ । वन पन भक्ती [११३२९-३३० ], वनति ॥
९ मनूयि बोधने' । मनुते, मेने । “तभ्यो वा." ४।३।६८ इति नसिचोः वा लुप्, न चेट् , अमत, अमनिष्ट, अमथाः, अमनिष्ठाः । मनिता, मनितम् । ऊदित्वात् वित्व वेट , " यमिरमि०" ४।२।५५ इति नलुकि ' मत्वा । इटि मनित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , मतः, मतवान् । मनिंच ज्ञाने [३।१२० ], मन्यते ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे उविकरणो यित्तनादिगणः
सम्पूर्णः ॥
१. अनभिनि' इति मु०, सं० प्रतौ च । अनि विष्टः इत्युणादिविवरणे ॥
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अथ क्रयादयः (८)॥ अथ क्रयादयः नाविकरणा वर्णक्रमेण प्रस्तूयन्ते, तत्राऽऽदौ। '१ डुक्रींग्श् द्रव्यविनिमये' । विनिमयः परिवर्तः । शिवं क्रयादित्वज्ञापनार्थम् । गित्त्वाद् " ईगितः " ३।३।९५ इति फलवकर्तर्यात्मनेपदे "क्रयादेः " ३२४७९ इति श्ना, “ एषामी०" ४।२।९७ इति तस्य ईत्वे क्रीणीते । फलवतोऽन्यत्र " शेषात् " ३।३।१०० इति परस्मैपदे, क्रीणाति । “परिव्यवात्" ३।३।२७ इत्यात्मनेपदे परिक्रीणीते, विक्रीणीते, अवक्रीणीते । “नश्चा०" ४।२।९६ इति न आल्लुकि क्रीणन्ति । “संयोगात् " २।१।५२ इति इयि चिक्रिये । “नामिनो०" ४।३।५१ इति वृद्धौ चिक्राय । “गौ क्रीजी." ४।२।१० इत्यात्वे क्रापयति । अनुस्वारेच्चान्नेट् , क्रेता, केतुम् । “ परिक्रयणे" शरा६७ इति वा चतुर्थी शताय परिक्रीतः, पक्षे करणे तृतीयैव, शतेन परिक्रीतः। “क्रीतात् करणादेः" २।४।४४ इति ड्याम् अश्वक्रीती । “य एचा." ५।१।२८ इति ये “क्रय्य: क्रयार्थे " ४।३।९१ इति निपातनात् अयि क्रय्या गौः, तदर्थादन्यत्र क्रेयम् । “ निन्ये व्याप्याद्" ५।१।१५९ इतीनि सोमविक्रयी, निन्द्यादन्यत्र, “कर्मणोऽण" ५।११७२ धान्यविक्रायः । अचि अलि च क्रयः । डिवचात् त्रिमकि क्रीत्रिमम् । उणादौ "क्रीकलि०" (उ० ३८) इतीके क्रयिकः क्रंता । " कावाची० " ( उ० ६३४ ) इति णो क्रेणिः क्रयविशेषः ॥
अथेदन्तोऽनिट् च ॥ २ पिंगु बन्धने' । “पः सो० " २।३।९८ इति से सिनीते, सिनाति । पोपदेशच्चाद् "नाम्यन्तस्था०" २।३।१५ इति पे सिष्ये, सिषाय । “सिचि परस्मै०" ४।३।४४ इति वृद्धौ असैषीत् । “ णिस्तोरेवा० " २।३।३७ इति नियमात् सनि न पत्वम् , सिसीपति । अनुस्वारेच्चान्नेट् सेता, सेतुम् । “ सेासे० " ४।२।७३ इति क्तयोस्तस्य नत्वे सिनो ग्रासः स्वयमेव । सिनोतेरेव नत्वमित्येके, तन्मते सितो ग्रासः स्वयमेव । कर्मकर्तुरन्यत्र सितः पाशेन । पिंगटु बन्धने [ ४।२], सिनुते, सिनोति ।।
३७
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२९०]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३अथेदन्तास्त्रयोऽनिटश्च ॥ '३ प्रींगश तृप्तिकान्त्योः' । कान्तिः अभिलाषः । प्रीणीते, प्रीणाति । पिप्रिये, पिप्राय । अनुस्वारेच्चान्नेट , प्रेता, प्रेतुम् , प्रीतः, प्रीतवान् । णौ "धूगश्रीगोः०" ४।२।१८ इति ने प्रीणयति । " नाम्युपान्त्य" ५।१५४ इति के प्रियः । “ स्थादिभ्यः" ५।३।८२ इति कर्मणि के प्रियः । प्रींच प्रीती [३।११० ], प्रीयते । श्रीगण तर्पणे [९।३७८ ], " युजादेः०" ३४।१८ इति वा णिचि प्रीणयति, प्रयते, प्रयति ॥
'४ श्रींगा पाके' । श्रीणीते, श्रीणाति, शिश्रिये, शिश्राय । अनुस्वारेचानेट , श्रेता, श्रेतुम् , श्रीतः, श्रीतवान् । क्तौ श्रीतिः ॥
५ मींगश हिंसायाम् ' । मीनीते, मीनाति । “ अदुरुपसर्गा० " २३७७ इति णे प्रमीणाति । एकदेशविकृतस्याऽनन्यत्वात् प्रमीणीते । मिम्ये, ममौ । यबकिङति “मिगमीगो०" ४।२।८ इत्यात्वे प्रमाय । णौ प्रमापयति । अनुस्वारेच्चान्नेट , माता, मास्यति खलचलि तु नाऽऽत्वम् , दुर्मयः । अचि अलि च मयः, प्रमय: विङति प्रमीतः, प्रमीतवान् . प्रमेमीयते । “ मिमीमा० " ४।१।२० इति सनि स्वरस्येति द्वित्वाभावे च प्रमित्सते, प्रमित्सति । " शाम्रयुधि०" ५।३।१४१ इति खलपवादेऽने दुर्मानम् , सुमानम् । उणादौ "मीमसि०" ( उ० ४२७) इत्यूरे बाहुलकानाऽऽत्वम् , मयूरः ॥
अथोदन्तावनिटौ च ॥ ६ युंगश बन्धने' । युनीते, युनाति, युयुवे, युयाव । अनुस्वारेत्वान्नेट् , योता, योतुम् , युयुषति । " इवृध०" ४।४।४७ इति वेटि यियविषति । " नीदाव्० " ५।२।८८ इति त्रुटि योत्रम् । युक् मिश्रणे [ २२२२ ], यौति, यविता । युणि जुगुप्सायाम् [९।२३७ ], यावयते ॥
'७ स्कुंगा आप्रवणे'। आप्रवणम् उद्धरणम् । “ स्तम्भू-स्तम्भू०" ३।४।७८ इति श्नाः नुश्च, स्कूनीते, स्कुनाति, स्कुनुते, स्कुनोति । चुस्कुवे, चुस्काव । अनुस्वारेत्वान्नेट , स्कोता, स्कुतः, स्कुतवान् ।।
___ अथोदन्तौ सेटौ च ॥ ___८ नूगश शब्दे ' । क्नूनीते, क्नूनाति, चुक्नुवे, चुक्नाव, अनावीत् । क्नविता । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट् , क्नूतः, क्नूतवान् , क्नूत्वा ॥
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१० ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
९ हिंसायाम् ' । गतावित्यन्ये । द्रुणीते, द्रुणाति, दुद्रुवे, दुद्राव, अद्रावीत् , द्रविता, द्रवितुम् ॥
अथ हान्तः सेट् च ॥ १० ग्रहीश उपादाने' । उपादानं स्वीकारः । “ग्रहवश्च०" ४११८४ इति वृति गृहीते, गृह्णाति, जगृहे, जग्राह । “ गृह्णो० " ४।४।३४ इति इटो दीर्धे ग्रहीता, ग्रहीतुम् । “व्यञ्जनादेः०" ४।३।४७ इति वा वृद्धेः "न विजागृ०" ४।३।४९ इति प्रतिषेधाद् अग्रहीत् । “रुदविद०" ४३३२ इति क्त्वासनोः कित्त्वे गृहीत्वा । “ 'ग्रहगुहश्च० " ४।४।५९ इति सनि नेट , जिघक्षति । भावकमणो: "स्वरग्रह" ३४६९ इति वा जिटि ग्राहिण्यते, ग्रहीष्यते, अग्राहिषाताम् , अग्रहीषाताम् , ग्राहिषीष्ट, ग्रहीपीष्ट, ग्राहिता, ग्रहीता । "पदास्वैरि०" ५।१।४४ इति क्यपि प्रगृह्य पदम् , अवगृह्य पदम् ; गृह्यका इमे परतन्त्रा इत्यर्थः । ग्रामगृह्याः ग्रामाद् बाह्या इत्यर्थः, पक्ष्येऽर्जुनगृह्याः । “गेहे" ५।११५५ इति के गृहम् । “वा ज्वलादि०" ५।११६२ इति णे ग्राहो जलचरः, पक्षेऽचि ग्रहः सूर्यादिः । “ ग्रहादिभ्यो० " ५११५३ इति णिनि ग्राही । "असरूपो." ५।१।१६ इति णके ग्राहकः । तृचि ग्रहीता । " धनुर्दण्ड ०" ५।११९२ इत्यणपवादेऽचि धनुग्रहः, दण्डग्रहः, सरुग्रहः इत्यादि । " सूत्राद् धारणे" ५।११९३ सूत्रग्रहः, धारणादन्यत्र “कर्मणोऽण" ५।१।७२ इत्यणि सूत्रग्राहः । “ रजःफले." ५।१।९८ इत्यौ रजोग्रहिः, सूत्रनिपातनाद् एत्वे फलेग्रहिः, मलग्रहिः । "सृग्लहः०" ५।३।३१ इत्यलि निपातनाद् ग्लहः अक्षाणाम् । “ वर्ष विघ्ने० " ५ ३५० इति वालि अवग्रहः, पक्षे घजि अवग्राहः । “प्राद् रश्मि०" ५।३।५१ इति वाऽलि प्रग्रहः, प्रग्राहः, रज्जु: तुलासूत्रं च । उत्पूर्वस्य "ग्रहः " ५।३।५५ इति पनि उद्याहः । “न्यवाच्छापे" ५।३।५६ 'निग्राहः ते वृषल भूयात् ' । एवम् अवग्राह: । “प्राल्लिप्सायाम् " ५।३।५७ ' पात्रप्रग्राहेण चरति पिण्डपातार्थी '। " समो मुष्टौ " ५।३।५८ संग्राहः मुष्टेर्दाढयम् । “ यज्ञे ग्रहः" ५।३।६५ पूर्वपरिग्राहः, उत्तरपरिग्राहः, वेदेर्यज्ञाङ्गभूताया ग्रहणविशेषः । स्त्रियां क्तौ " तेहादिभ्यः" ४।४।३३ इतीटि गृहीति:, निगृहीतिः । “कृगग्रहो." ५।४।६१ इति णमि जीवग्राहं ग्रहीतः । “ हस्तार्थाद् ग्रह०" ५।४।६६ इति णमि हस्तेन ग्रहणं हस्तग्राहं गृह्णाति । " नाम्ना ग्रहा० " ५।४।८३ इति गमि नामानि ग्रहीत्वा नामग्राहम् , १. ग्रह गृह इति मु० ॥
२. सनि वेट जि इति मु० ॥
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२९२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १०
नामानि ग्राहम् आह्वयति, " तृतीयोक्तं वा" ३११५० इति वा समासः । उणादौ " ऋमृ० " ( उ० ६३८ ) इत्यणौ ग्रहणिः प्रवाहिका ॥
अथ क्रयाद्यन्तर्गणः वादिः “खादेहस्वः " ४।२।१०५ इति स्वप्रयोजनः प्रदश्यते ॥
तत्रोदन्तास्त्रयः सेटश्च ॥ * ११ पूग पवने' । पवनं शुद्धिः । " वादेः०" ४।२।१०५ इति ह्रस्वे पुनीते, पुनाति । पुपुवे, पुपाव, पविता, पवितम् । किति " उवर्णात् " ४।४।५८ इति नेट , पूतः, पूतवान् । नाशे " पूदिवि०" ४।२।७२ इति क्तयोस्तस्य नत्वे पूना यवाः, नाशादन्यत्र पूतं धान्यम् । “ पुव० " ५।२।८५ इति इत्रे पवित्रोऽर्हन् । "ऋषिनाम्नोः करणे" ५।२।८६ पवित्रः ऋषिः, पवित्रं दर्भादि । “हलक्रोडा." ५।२१८९ इति त्रटि हलमूकस्योः पोत्रं मुखमित्यर्थः । “निरभेः०" ५।३।२१ इति घजि निष्पावः । “ न ख्यापूग० " २।३।९० इति प्रतिषेधात् " स्वरात् " २।३।८५ इति णत्वाभावेऽनटि प्रपवनम् , परिपवनम् । णो “णे " २।३८८ इति णत्वविकल्पाभावे प्रपावनम् , परिपावनम् । उणादौ " हुद्ग०" (उ० ८६३) इति तृ: पोता ऋत्विक् । “पुत्रादयः” ( उ० ४५५ ) इति त्रे निपातनात् पुत्रः । पूङ पवने [ ११६०० ], पवते ।।
अथ प्वाद्यन्तर्गणो ल्वादिः “ऋल्यादेः" ४।२।६८ इति नत्वार्थः प्रदर्श्यते॥
१२ लूगा छेदने' । " वादेः०" ४।२।१०५ इति हस्वे लुनीते, लुनाति । लुलुवे, लुलाव, लविता, लवितुम् । सनि “ ग्रहगुहश्च० " ४।४।५९ इति नेट् , लुलूपति । णौ सनि “ओन्तिस्था० " ४।१६० इति पूर्वस्योतः इत्वे लिलावयिषति । णौ डे " असमानलोपे० " ४।१।६३ इति सम्वच्चे अलीलवत् । किति " उवर्णात्" ४।४।५८ इति 'नेट् , “ ऋल्वादेः०" ४।२।६८ इति क्तक्तीनां तो नत्वे लूनः, लूनवान् , लूनिः । “ अमृल्यो० " ५।१।६९ इत्यके साधु लुनाति लवकः । “लू-धू-मू०" ५।२।८७ इति ने लूयतेऽनेन लवित्रम् । " निरभेः०" ५।३।२१ इत्यलपवादे पनि अभिलावः । उणादौ “धालू." ( उ० ७० ) इत्याणके लवाणकः कालः । " शीभी०" ( उ० ७१.) इत्यानके लवानको दात्रम् । " लूम्रो वा" ( उ० २०२) इति वा किति ते लूता क्षुद्र
१. वेट इति मु० ॥
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१४ ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[ २९३
जन्तुः, लोतः वस्तः । " स्वरेभ्य० " ( उ० ६०६ )
इत्यौ लविः दात्रम् ।
14
"
46
लूधू० ( उ० ६७९ ) इति किति नौ लूनि लवनः ।
मन् " ( उ० ९११)
इति मनि लोम |
4
46
"
44
१३ थू कम्पने ' । वादित्वाद् हूस्वे धुनीते, धुनाति । दुधुवे, दुधाव | धूमादितः " ४|४|३८ इति वेद्, धोता, धविता । धूग सुस्तोः ० ४|४|८५ इतीटि अधावीत् । णौ " धूगप्रीगो० " ४।२।१८ इति ने विधूनयति । किति " वर्णात् " ४|४|५८ इति नेट्, “ ऋत्वादेः ० " ४२२६८ इति क्तक्तीनां तो नत्वे धूनः धूनवान् धूनिः । धूगूद्र कम्पने [ ४६ ], धूनुते, धूनोति । धूत् विधूनने [ ५११६ ], धवति । धूगूण कम्पने [ ९१३७९ ], युजादिवाद् वा णिचि धूनयति, धवते, धवति ॥
66
•
अथ ऋदन्तास्त्रयः सेटश्च ॥
4
""
66
इट्
सिजा
19
17
१४ स्वगूशू आच्छादने ' । प्वादित्वाद् हूस्वे स्तृणीते, स्तृणाति । " स्कू च्छतो. " ४ ३३८ इति गुणे तस्तरे । गवि तस्तार | " वृतो नवा० ४।४।३५ इति वा इटो दीर्घे स्वरिता, स्तरीता; आस्तरितुम् आस्तरीतुम् । शिपोरात्मने " ४ ४ ३६ इति वेटू, आस्तरिष्ट, आस्तरीष्ट ।" ऋवर्णात् " ४ | ३ | ३६ इति सिचः किचे आस्तीष्ट । आस्तरिपीष्ट, आस्तीर्षीष्ट । सनि “ इवृध० ४|४|१४७ इति वे, आतिस्तरिषति, आतिस्तरीषति आविस्तीर्षति । ि ." ऋवर्णश्रि० ४|४|५७ इति नेटू, "ऋत्वादेः० ४ २०६८ इति क्तक्तीनां तो ने आस्तीर्णः, आस्तीर्णवान्, आस्तीर्णिः । णौ ङे सन्वद्भावापवादे "स्मृदुत्वर० " ४|१|६५ इति पूर्वस्यात्वे अतस्तरत् । आस्तार्यः । 4" अज्ञेत्रः प्रस्तरः । वेरशब्दे ० ५३६९ इति घञ पटस्य विस्तारः; शब्दे तु वाक्यविस्तरः | " छन्दोनाम्नि " ५|३|७० विष्टारपङ्किः । ' वृक्षासनयोः विष्टरः; उभय " वेः खः २।३।२३ इति षत्वम् । " अवात् तृस्तृभ्याम् " ५।३।१३३ इति करणाधारे घञि अवस्तार: । अलि घे वा स्तरो वस्त्रभेदः । उणादौ "तृस्तृतन्द्रि० " ( उ० ७११ ) इति ईः स्तरीः शय्या | स्तरीमा प्रावारः ||
" ॠवर्ण ०
५।१।१७ इति ध्यणि
५३६८ इत्यपवादे घञि
शङ्खप्रस्तारः । यज्ञे तु
66
99
"
46
१. वृक्षासनोवि इति मु०, तुलना ।
77
"
11
"
सुहृभृ० ( उ० ९१८ ) इति ईमनि
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________________
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० १५
4
66
४|२|१०५ इति हूस्वे कृणीते,
46
19
66
19
१५ कृश हिंसायाम् वादेः० कृणाति । “स्कृच्छतो ० " ४|३|८ इति गुणे चकरे, चकार । वृतो नवा० ४|४|३५ इति इटो वा दीर्घे करिता, करीता | सन इवृध० वेटि चिकरिषते, चिकरीषते, चिकीर्षति । किति " ऋवर्णश्रि० " नेदू, ॠवादेः ० ४२६८ इति ने कीर्णः कीर्णवान् कीर्यते । उणादौ कगश ० " ( उ० ४४१ ) इति वरटि कर्बरो व्याघः । कर्बरी भूमिः । " कृपकटि० " ( उ० ५८९ ) इत्यहे करहो धान्यावपनम् । हूस्वान्तोऽयमित्येके । कृत् विक्षेपे [ ५/२० ], किरति ॥
46
46
६६६
२९४ ]
66
44
I प्वादेः०
'१६ वृगूश् वरणे ' स्कृच्छतो. " ४ | ३८ इति गुणे ४|४ | ३५ इति इट वा दीर्घे वरिता, वरीता
इति नेटू, " ऋत्वादे: ० "
66
इषुध० ४|४|४७ इति
ܕܪ
ܙܪ
"
46
""
"
"
४।२।१०५ इति ह्रस्वे वृणीते, वृणाति ।
ववरे,
46
"
ववरुः । वृतो नवा०
। किति " ऋवर्णश्रि० " ४|४|५७ ४।२२६८ इति ने वर्णः, वर्णवान् वूर्णिः । सि
विवरिषति, विवरीपति, बुवृर्षति । उणादौ
64
ऋ० " ( उ० १९६ ) इत्युणे वरुणः; तस्य भार्या “ वरुणेन्द्र० २४६२ इति ङ्याम् आनि चान्ते वरुणानी । हूस्वान्तोऽयमिति नन्दी ||
अथ परस्मैपदिषु आदन्तोऽनिट् च ॥
64
"
: १७ ज्यांशु हानौ ' । वयोहानौ इत्येके । शेषात् ० परस्मैपदे ज्याव्यध० ४|१|८१ इति वृति “
64
"
"
99
दीर्घमवो ० वादेः० ४।२।१०५ इति ह्रस्वे जिनाति ४|१|७१ इति पूर्वस्य इत्ये जिज्यो । थवि " ' सृजिदृशि ० जिज्यिथ, जिज्याथ । अनुस्वारेवान्नेटू, ज्याता, ज्यातुम् ४।२।६८ इति ने जीनः, जीनवान् । स्त्रियां क्तिमपीच्छन्त्येके, ५।३।११८ इति अनौ ज्यानि: । अणपवादे “ आतो डो० " ५ १२७६ इति ब्रह्मज्यः । ज्यश्च यपि " ४|१|७६ इति वृदभावे प्रज्याय । जिन इति तु
66
46
जीण् ० " ( उ० २६१ ) इति किति ने जयतेः ॥
४|४|४७ इति
४|४|५७ इति कीर्णिः ।
क्ये
,
।
"
३|३|१०० इति
४|१|१०३ इति
" ज्याव्येव्यधि० "
४|४|७८ इति वेटि
जीवा । " ऋत्वादेः०
"
ܕܕ
जीनिः । “ग्लाहा ०"
अथेदन्ताश्चत्वारोऽनिटश्च ॥
64
'१८ रीशू गतिरेषणयोः । रेषणं हिंसा । प्वादेः० ४२ १०५ इति हूवेरिति । रय । " योऽनेकस्वरस्य " २|१|५६ इति यत्वस्य बहिरङ्गत्वेन
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________________
२२ ] धातुपारायणे क्यादयः (८)
66
22
स्वादेः० २ १/६३ इति दीर्घ मन्तर रिर्यु: । णौ " अतिरी० " ४।२।२१ इति पौ " रेपयति । अनुस्वारेच्चाट्, रेता, रेतुम् । रीणः, रणवान्, रीणि: ।
66
[ २९५
प्रत्यसिद्धत्वात् पूर्वस्य दीर्घाभावे रिर्यतुः,
64
।
44
लोलः
""
' १९ लींश् लेषणे ' “ प्वादे: ० " ४।२।१०५ इति हूस्वे लिनाति, लिलाय । णौ " लीलिनो० " ३ ३ ९० इत्यात्मनेपदे आत्वे च जटाभिरालापयते, श्येनो वर्तिकामुल्लापयते । यवक्ङिति "लीलीनो० " ४ २९ इति वाऽऽत्वे विलाय, विली । अनुस्वारेवान्नेट्, विलाता, विलेता । ४२१६ इति ले विलालयति, पक्षे " अर्तिरी० " ४।२।२१ इति पौ विलापयति । " लियो० " ४।२।१५ इति ने घृतं विलीनयति, पक्षे "नामिनो० " ४|३|५१ इति वृद्धौ घृतं विलाययति । “ ऋत्वादेः ० " ४ २२६८ इति तो ने लीनः, लीनवान्, लीनिः । लींच लेषणे [ ३|१०५ ], लीयते । लीण द्रवीकरणे [ ९२३७६ ], युजादित्वाद् वाणिचि घृतं विलीनयति, विलयति ॥
वान,
46
पुस्पौ " ४ | ३ | ३ इति गुणे ऋत्वादेः० ४।२।६८ इति तो ने
"
च स्रवणे [ ३|१०४ ], रीयते ॥
66
"
२० ब्लींशू वरणे ' । गतावित्यन्ये । वादेः० ४।२।१०५ इति स्वे निति । विलाय । याऽपवादे " संयोगात् " २।१।५२ इति इयि विलियतुः, विलियु: । अनुस्वारेचानेटू, ब्लेता व्लेतुम् । " ऋत्वादेः० ४२६८ इति तो ने व्लीनः ब्लीनवान्, व्लीनिः । णौ " अर्तिरी० " ४।२।२१ इति पौ " पुस्पौ” ४ | ३ | ३ इति गुणे व्लेपयति ॥
"
44
46
66
' २१ वीं गतौ ' । वादे:० ४।२।१०५ इति ह्रस्वे विनाति, लिल्वाय । याऽपवादे “ संयोगात् " २१११५२ इति इथि लिल्वियतुः । अनुस्त्रारेवानेट्, ल्वेता, ल्वेतुम् । ऋत्वादेः० ४।२।६८ इति तो ने ल्वीन, ल्वीनवीनि: । वादित्वमस्य नेच्छन्त्येके, तन्मते हूस्वाभावे वीनाति । ऋत्वादे: ० " ४/२/६८ इति नत्वाभावे ल्वीतः, ल्वीतवान् ल्वीतिः । ल्पींगू
19
श्लेषणे इत्यप्येके पठन्ति, " वादेः० " ४।२।१०५ इति हूस्वे ल्पिनाति ।
4.
ऋत्वादेः० ४२६८ इति तो ने ल्पीनः, ल्पीनवान्, ल्पीनिः ॥
अथ ऋदन्ता एकादश सेटश्च ॥
"
44
२२ कृ, २३ मृ, २४ शुशु हिंसायाम् ' । प्वादेः० ४।२।१०५ इति स्वे कृणाति । चकार । " स्कृच्छ्रतो० " ४|३|८ इति गुणे चकरतुः,
चकरुः ।
19
99
17
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२९६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २२
" वृतो नवा०" ४।४।३५ इति इटो वा दी, करिता, करीता । किति "ऋवर्णश्रि० " ४।४।५७ इति नेट् , "ऋल्वादेः० " ४।२।६८ इति तो ने कीर्णः, कीर्णवान् , कीणिः । “ इवृध०" ४।४।४७ इति सनि वेट् चिकरिषति, चिकरीषति, चिकीर्षति, उभयपदिष्वधीतोऽप्ययं फलवकर्तरि परस्मैपदार्थमिह पठितः । कृत् विक्षेपे [ ५।२० ], किरति ॥
'२३ मृ' । " प्वादेः०" ४।२।१०५ इति ह्रस्वे मृणाति । ममार । " स्कृच्छतो." ४।३।८ इति गुणे ममरतुः । “वृतो नवा०" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्घ मस्तिा, मरीता । किति “ ऋवर्णश्रि" ४।४।५७ इति नेट् , "ऋल्वादे: " ४।२।६८ इति तो ने मूर्णः, मूर्णवान् , मूर्णिः । उणादौ "म्र उत्" (उ० ८८९) 'मरुत् ॥
'२४ शृश्' । " प्वादेः " ४।२।१०५ इति इस्वे शणाति । क्ये शीर्यते । विशशार । "ऋः शूदृप्रः " ४।४।२० विशश्रतुः, विशश्रुः; पक्षे "स्कृच्छतो." ४।३।८ इति गुणे विशशरतुः, विशशरुः । " वृतो०" ४।४।३५ इति इटो वा दी विशरिता, विशरीता । किति "ऋवर्णश्रि०" ४।४।५७ इति नेट् , " अल्वादेः०" ४।२।६८ इति तो ने शीर्णः, शीर्णवान् , शीणिः । अचि शरः । " शबन्देः०" ५।२३५ इत्यारौ शरणशीलः शरारु: । " शकम०" ५।२।४० इति उकणि विशारुकः । “घुनाम्नि०" ५।३।१३० इति घे शृणन्ति तेन शरः । "श्री वायु०" ५।३।२० इति घञि शारो वायुः वर्णश्च; नीशागे हिमानिलापहं 'वस्त्रम् । गौरिवाकृतनीशारः, प्रायेण शिशिरे कृशः' ॥
उणादौ " किच्च" (उ० १०) इति किद् अ धातोश्च सरूपद्वित्वम् , शिशिरः । " जपढ० " ( उ० ४७ ) इतीके द्वित्वे रे चाऽऽदौ शर्शरीकः क्रिमिः, शर्शरीका माङ्गल्याभरणम् । “ शृङ्ग" ( उ० ९६ ) इति गे निपातनात् शृङ्गं विषाणम् , शाङ्गः पक्षी। " पतितमि० " ( उ० ९८ ) इत्यङ्गे शरङ्गः। "अनिश०" ( उ० १४५ ) इत्याटे शराट: शकुन्तः, शृङ्गाट इति तु " कपाट." ( उ० १४८) इत्याटे निपातनात् श्रयतेः । “ मृजश०" ( उ० १६७) इत्यठे शरठः आयुधम् । "जकत० " ( उ० १७३ ) इत्यण्डे शरण्डः । " तृकश ० " ( उ० १८७ ) इत्यणे शरणं गृहम् । “परात् श्री डित् " ( उ० २५५ ) इति वधे परश्वधः । “कृशसभ्य
१. उणादि विवरणे तु मृत प्राणत्यागे इत्यस्माद् धातो: 'मरुत्' शब्दः साधितः ॥
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२५ ] धातुपारायणे यादयः (८)
[२९७
ऊर चान्तस्य" ( उ० २९८ ) इति पे शूर्पो धान्यपवनभाण्डम् । “कृशगृ०" (उ० ३२९ ) इत्यमे शरभः । " अर्तीरि०" ( उ० ३३८) इति मे शर्म सुखम् । “ धाग्राजि० " ( उ० ३७९ ) इत्यन्ये शरण्यः त्राता । “ कृशप ०" ( उ० ४१८ ) इतीरे शरीरम् । " श्वसुरकुकुन्दुर० " ( उ० ४२६ ) इत्युरे निपातनात् शर्कुरः तरुणः । “ कुशवृभ्यः करः” (उ० ४३५) शर्करः, शर्करा । " कृगश० " ( उ० ४४१ ) इति वरटि शर्वरो रुद्रः, शर्वरं तमः, शर्वरी रात्रिः । "श्री नोऽन्तो हस्वश्च " ( उ० ४९८ ) इति खले शृङ्खला । " लटिखटि० " (उ० ५०५) इति वे शौं रुद्रः । " शणातेराव:" (उ० ५२०) शराकः । " ऋजिश. " ( उ० ५५४ ) इति कितीषे शिरीषः । " नाम्युपान्त्य० " ( उ० ६०९) इति किदिः, शिरिः हिंस्रः । “कुशकुटि०" ( उ० ६१९ ) इति वा णिदिः, शारिः यतोपकरणं-हस्तिपर्याण-शारिका च । शरिः हिंसा । "ऋद्धृमृ०" ( उ० ६३५ ) इति किति णौ शीणिः रोगः । “नीसावृ० " ( उ० ६८७) इति मौ शर्मिः मृगः । “कुन्द्रि०" ( उ० ६९५) इति से निपातनात् शरारिः आति: । " शस्तृ०" ( उ० ७०५) इति ङिति वो शीविः हिंस्रः । "भृमृत० " ( उ० ७१६) इत्युः, शरुः शरः हिस्रश्च । " उवर्ण०" ७।१।३० इति ये शरवे हितं शरव्यं वेध्यम् । “किमः श्री णित् " ( उ० ७२५) इत्युः, किंशारु: 'धान्यशूकम् । “ऋतशम्भ्रादिभ्यो रो लश्च" ( उ० ७२७) शालुः कषायः। " पराभ्यां शखनिभ्यां डित् " ( उ० ७२४ ) परशुः । शिग्रुः इति तु “शिग्रुगेरु०" ( उ० ८११ ) इति रौ निपातनात् शिनोतेः । कशेरूः इत्यपि “काच्छीडा डेरू:" (उ० ८५१) इति शेतेः । “ शुद० " ( उ० ८९४ ) इत्यदि शरत् । “मन्" (उ० ९११) इति मनि शर्म सुखम् । “मिथिरक्षी० " ( उ० ९७१ ) इति कित्यसि शिरः ॥
२५ पृश् पालनपूरणयोः' । " प्वादेः०" ४।२।१०५ इति इस्वे पृणाति । पपार । " ऋः शूदप्रः" ४।४।२० निपप्रतुः, निपाः; पक्षे “स्कृच्छ्रतो." ४।३।८ इति गुणे निपपरतुः, निपपरुः " वृतो नवा०" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्धे परिता, परीता । किति "ऋवर्णश्रि०" ४।४।५७ इति नेट् , “ ऋल्वादेः०" ४।२।६८ इत्यत्र प्रो वर्जनात् तो नत्वाभावेः पूत, पूर्तवान् , पूर्ति: । " णौ दान्तशान्त०" ४।४।७४ इति ते वा निपातनमस्याऽपीत्येके, पूर्णः, पारितः । अस्मादेव
१. धान्यशूखम् इति मु० ॥ 3८
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________________
२९८ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० २५
"
44
17
निपातनात् पूरेण के पूर्णः पूरितः । व्यभावे तु पूर्ण: । “ युवर्ण ० ५।३।२८ इत्यलि परः । उणादौ " पुलिभ्यां टित् पिपू च पूर्वस्य ( उ० ११ ) विपरी वृक्षजातिः । किच " अ: सरूपद्वित्वं च पुर्पुरः फेनः ।
46
( उ०
64
( उ० १८२ ) इति णे
“ कृगपृ० "
46
97
भाषा०
२९६ ) इति पे
इति कित्यणे पुरणः समुद्रः । पृथि० " ( उ० इति किती पुरीषम् । विदिपृभ्यां
46
३४७ ) इत्यमे
' ऋजिश ०
64
46
पृका० " ( ३० ७२९ ) इति किदुः, पुरुः महान् राजा च ।
( उ० ९०४ ) इति वन पर्व ग्रन्थिः । " रुद्यर्ति० " ( उ० ९९७ ) इत्यसि परुः पर्व |
66
गपदुर्वि ० " ( उ० ९४३ ) इति क्विपि पूः पुरी ||
"
4
66
१० ) इति कि पर्णम् ।
( उ०
ܕܕ
4
२६ बुश भरणे ' । वरणे इत्यन्ये । ओष्ट्यादिः । " प्वादेः० ४।२।१०५
19
४|३|८ इति गुणे बबरतुः, बबरुः ।
11
दीर्घे
" इवृध० ४५४४७
66
वरिता, बरीता । नामिनोऽनिट् " ४ | ३ | ३३ इति सनः बुबूर्षति । कति " ऋवर्णश्रि० "
इति वे वृणाति । वार | " स्कृच्छ्रतो ० वृतो नवा० ४|४|३५ इति इटो वा इति सनि वेटू, विवरिषति, विवरीषति । किन्त्वे “ ओष्ठ्याद्० " ४|४|११७ इत्युरि ४|४|५७ इति नेट्, “ऋत्वादे: ० " ४/२/६८ इति तो ने बूर्णः, वर्णवान्, बूर्णिः । उणादौ " ऋतष्टित् " ( उ० ९ ) इत्यः, सरूपद्वित्वं च बर्बरो म्लेच्छः ; बर्बरी कुञ्चितः केशः । " वृवृपृ० " ( उ० ७०९ ) इति नसौ वर्णसिः भूमिः || भर्जने च ' । भर्जनं पाकः । चकाराद् भरणे । भर्त्सने इत्यन्ये । वादे: ० " ४।२।१०५ इति हूस्वे भृणाति । बभार । वृतो नवा० ४|४|३५ इति इटो वा दीर्घे भरिता, भरीता । इवृध० ४|४|४७ इति सनि वेटू, बिभरिपति, बिभरीपति, बुभूषति । ऋवणश्रि० ४|४|५७ इति नेट्, भूर्णवान् भूणिः । उणादौ " ऋतछद्मवान् । भर्भरी श्रीः । “किच्च”
२७ भृगू
46
66
"
66
""
46
11
किति
"
ऋत्वादेः० ४।२।६८ इति तो ने भूर्णः,
ष्टित् " ( उ० ९ ) इत्यः सरूपद्वित्वं च भर्भरः
( उ० १० ) भुर्भुरः सञ्चयः ||
64
परमः |
( उ० ५५४ )
11
( उ० ५५८ ) इति कित्युषे पुरुषः ।
64
स्नामदि ० "
"
4
46
46
"
२८ दृश् विदारणे ' । भये इत्यन्ये । दृणाति । ददार | ४|४|२० ऋः शृदृतः ४ | ३|८ इति गुणे विददरतुः विददरुः । णौ डे पूर्वस्य सन्वभावापवादे अत्वे अददरत् । " वृतो नवा०
( उ० १८८ )
पर्पः प्लवः ।
दद्रतुः
"
वादे: ० " ४।२।१०५ इति स्वे
दद्रु
19
"
पक्षे "स्कृच्छतो ०
"
19
स्मृत्वर० ४|१|६५ इति
४ ४ ३५ इति इटो वा
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________________
5
३० ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[ २९९ दीचे दरिता, दरीता । किति " ऋवर्णश्रि०" ४।४।५७ इति नेट् , "ऋल्यादेः०" ४।२।६८ इति तो ने दीर्णः, दीर्णवान् , दीणिः । अचि दरः । गौरादित्वाद्
याम् दरी । उणादौ "कृ-वा-पा-जि० " ( उ० १) इत्युणि दारु काष्ठं भव्यं च । “ऋतष्टित् " ( उ० ९) इत्यः स्वरूपद्वित्वं च दर्दरो वाद्यविशेषः, ददरी सस्यलुष्टिः । “दकनृ० " ( उ० २७) इत्यके दरको भीरुः । " जपढ० " ( उ० ४७) इति ईके द्वित्वे रे चादौ दर्दरीकः वादिनविशेषः । “दुरो द्रः कूटश्च दुर च" ( उ० १५६) दुर्दुरुटः दुर्मुखः; चकारादुटे दुर्दुरुटोऽदेशकालवादी। णौ "ऋक्व० " (उ० १९६) इत्युणे दारुणः उग्रः । " श्वशुर०" ( उ० ४२६) इत्युरे निपातनाद् ददुंर मण्डूको मेघश्च । “लटिखटि०" ( उ० ५०५) इति वे दवः हिंस्रः, दर्वा जनपदः । " स्वरेभ्य इ." (उ०६०६) दरिः महाभिदा । " दपवृभ्यो विः" ( उ० ७०४) दर्विः तः । “तृदृभ्यां दुः" ( उ० ८४६) दर्दः कुष्ठभेदः । “शुभसेरद्" (उ० ८९४) दरत् क्षत्रियः । दरदो जनपदः । 'दरत् चेपदर्थेऽव्ययम् । प्राकृते दरेत्यर्धाल्पे, स एष संस्कृते कविभिन्त्या प्रयुक्तः, - दरदलितहरिद्रापिअराण्यङ्गकानि' [विद्धशालभमिका, ३।१७] | "द्रो हम्बश्व" (उ० ८९८) इति सदि दषत् शिला । दृ भये [१।१०१५]. दरति । णौ घटादित्वाद् ह्रस्वे दरयति । दृणातेः दारयति ।।
'२९ जा वयोहानौ । " वादेः०" ४।२।१०५ इति हस्वे जृणाति । जजार । " स्कच्छतो." ४।३।८ इति गुणे जजरतुः, जजरुः । “वृतो नवा." ४।४।३५ इति इटो वा दीर्घे जरिता, जरीता । किति “ ऋवर्णश्रि." ४४५७ इति नेट् , “ऋत्वादेः" ४।२।६८ इति तो ने जीर्णः, जीर्णवान् , जीणिः । क्त्वि " जवश्व०" ४।४।४१ इति इटि जरित्वा, जरीत्वा । जपच जरषि [३२], जीर्यति । पिचादङि जरा । जण वयोहानौ [ ९१३८१ ], "युजादेः० " ३।४।१८ इति वा णिचि जारयति, जरति ॥
_ '३० नश नये' । “ वादेः०" ४।२।१०५ इति हूस्वे नृगाति । ननार । " स्कृच्छतो." ४३८ इति गुणे ननरतुः, ननरुः । क्ये नीर्यते । “वृतो नवा०" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्षे नरिता, नरीता । किति " ऋवर्णश्रि०" ४।४।५७ इति नेट् , “ ऋल्लादे:०" ४।२।६८ इति तो ने नीर्णः, नीर्णवान् , नीणिः ।
१. तुलना क्षी. त. पृ. २७० । इषदर्थे त्वव्ययं देश्यपदं च, (लि. टि. पृ. ११३) ।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ३०
अचि नरः । स्त्रियां " नारी-सखी०" २१४७६ इति निपातनाद् ङ्याम् नारी । णौ घटादित्वाद् हस्वे नरयति ॥
३१ गश शब्दे ' । " प्वादेः" ४।२।१०५ इति हस्वे गृणाति । जगार । " स्कृच्छ्रतो०" ४।३।८ इति गुणे जजन्तुः, जजरुः । “ वृतो नवा" ४।४।३५ इति इटो वा दीर्घ गरिता, गरीता। किति "ऋवर्णश्रि" ४४५७ इति नेट , " ऋल्वादे:०" ४।२।६८ इति तो ने गीर्णः, गीर्णवान् , गीणिः । “युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि गरः । उणादौ " कुन ऋत उर च" ( उ० ७३४) इति उः, गुरुः । गृत् निगरणे [ ५।२१ ], गिरति ॥ _ '३२ ऋश गतौ' । " वादे:०" ४।२।१०५ इति इस्वे ऋणाति । क्ये ईर्यते । आर, आरतुः । " वृतो नवा०" ४४३५ इति इटो वा दीपं अरिता, अरीता । किति "ऋवर्णश्रि० " ४।४।५७ इति नेट् , “ ऋल्यादेः०" ४।२।६८ इति तो ने समीर्णः, समीर्णवान् , समीणि: । " इवृध० " ४।४।४७ इति सनि वेट , अरिरिषति, अरिरीषति । इडभावपक्षे इरादेशे दीर्घत्वे सनो द्वित्वे, पूर्वस्य इत्वे, द्वयोः पत्वे च ईषिषति ॥ वृत् प्वादिः । ल्वादिः । प्वादिादिश्च वृत् वर्तितः, संपूर्ण इत्यर्थः ॥
अथ परस्मैपदिष्वेवाऽऽदन्तोऽनिट् च । ___ '३३ ज्ञांश अवबोधने' । " जा ज्ञा०" ४।२।१०४ इति जाऽऽदेशे जानाति । फलवकर्तरि "ज्ञोऽनुपसर्गात् " ३।३।९६ इत्यात्मनेपदे धर्म जानीते । “पदान्तरगम्ये वा" ३।३।९९ स्वां गां जानीते, जानाति वा । उपप्तर्गात्तु " शेषात् " ३।३।१०० इति परस्मैपदे अवजानासि माम् । “निह्नवे ज्ञः " ३।३।६८ शतम् अपजानीते । “संप्रतेरस्मृतौ” ३३१६९ " समो ज्ञो०" २।२।५१ इति व्याप्ये वा तृतीयायां मात्रा संजानीते, मातरं संजानीते, नित्यं शब्दं प्रतिजानीते । "अननोः सनः " ३३।७० धर्म जिज्ञासते । अनोस्तु, पुत्रम् अनुजिज्ञासति पाठाय । कर्मण्यसति ज्ञः “अज्ञाने” २।२।८० इति करणे षष्ठयां सर्पिषो जानीते, सर्पिषा करणभूतेन प्रवर्तते इत्यर्थः । जज्ञे. जज्ञौ । “संयोगादेर्वाऽऽशिष्यः" ४।३९५ ज्ञेयात् , ज्ञायात् अङिति तु ज्ञासीष्ट । अनुस्वारेवान्नेट , ज्ञाता, ज्ञातुम् । “ ज्ञानेच्छा०" ५।२।९२ इति सति क्ते ज्ञात: । णौ " मारणतोषण" ४।२।३० इति इस्वे संज्ञपयति पशुम् , विज्ञपयति गुरुम् , ज्ञपयति शस्त्रम् । अन्यत्र ज्ञापयति । " इवृध." ४।४।४७ इति सनि वेद, जिज्ञपयिषति; पक्षे
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३७ ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[ ३०१
-
"ज्ञप्यापो०" ४।१।१६ इति द्वीप न च द्विः झीप्सति । " नाम्युपान्त्य० " ५।१।५४ इति के ज्ञः। " उपसर्गादातो." ५।११५६ इति डे प्रज्ञः । प्रज्ञाद्यणि प्राज्ञः । " प्राज्ज्ञश्च" ५।११७९ इति डे पथिप्रज्ञः । “ णौ दान्त०" ४।४।७४ इति के वा निपातनात् संज्ञप्तः पशुः; पक्षे " सेट्क्तयोः" ४।३।८४ इति णेलुकि संज्ञपितः । " उपसर्गाद्" ५।३।११० इत्यङि प्रज्ञा, उपज्ञा । उणादौ " प्लुज्ञायजि०" ( उ० ६४६) इति तो ज्ञातिः बन्धुः; ज्ञायते इति वा स्त्रियां तो ज्ञातिः । ज्ञानं ज्ञातिरिति तु नास्ति, प्रसिद्धेनापहृतत्वात् ॥
अथेदन्तोऽनिट् च ॥ '३४ क्षिषन हिंसायाम'। क्षिणाति. चिक्षाय । “संयोगात" २११५२ इति याऽपवादे इयि चिक्षियतः, चिक्षियुः । अनुस्वारेच्चान्नेट , क्षेता, क्षेतुम् । सानुबन्धत्वात् “ क्षेः क्षी चा०" ४।२।७४ इति क्तयोस्तस्य नत्वाऽभावे क्ष्यादेशाभावे च क्षितः, क्षितवान् । पिचादङि क्षिया । "श्वादिभ्यः " ५।३।९२ इति तो क्षितिः । दीर्घान्तोऽयमित्येके, क्षीणाति, क्षीतः, क्षीतवान् । किं क्षये [१।१०], क्षयति । क्षित् निवासगत्योः [ ५।१७ ], क्षियति ॥
अथेदन्तावनिटौ च ॥ "३५ वीं वरणे' । वीणाति । प्यादिस्यमित्येके; तन्मते " वादेः " ४।२।१०५ इति हस्वे विणाति । विवाय । यापवादे " संयोगात्" २१५२ इति इयि वित्रियतुः विवियुः । अनुस्वारेवान्नेट , व्रता, बेतुम् , बीतः, बीतवान् , बीतिः । उणादौ " बियो हिक् " ( उ० ७१० ) व्रीहिः ॥
'३६ भ्रींश भरणे' । भये इत्यन्ये । भ्रीणाति । वादिरयमित्येके, तन्मते " वादेः” ४।२।१०५ इति हुम्वे भ्रिणाति । विभ्राय । याऽपवादे "संयोगात् " २।११५२ इति इयि विभ्रियतः, विभ्रियुः। अनुस्वारेच्चान्नेट , भ्रता, भ्रतुम् , भ्रीतः, श्रीतवान् , भ्रीतिः । “युवर्ण० " ५।३।२८ इन्यलि भ्रयः ।।
__अथ ठान्तः सेट् च ॥ '३७ हेठा भूतप्रादुर्भावे' । भूतप्रादुर्भावः अतिक्रान्तोत्पत्तिः । “तवर्गस्य." ११३६० इति नस्य णत्वे हेतृणाति । "व्यअनाच्छनाहेरानः" ३।४।८० हेठानः । जिहेठ, हेठिता, हेठितुम् , हेठितः । हेठि विनाधायाम् [ १।६७६ ], हेठते ॥
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३०२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३८
अथ डान्तः सेट् च ॥ '३८ मृडश सुखने' । " तवर्गस्य० ॥ १।३।६० इति नो णे मृडणाति । " व्यञ्जनात्० " ३।४।८० इति श्नाहेः आने मृडानः । ममर्ड, मर्डिता, मृडितः । " क्षुधक्लिश" ४३३१ इति क्त्व: किल्वे मृडित्वा । " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के मृडः । उणादौ “ऋच्यजि० " ( उ० ४८) इति किति ईके 'मृडीकः सुखकृत् । मृडत् सुखने [५।४४ ], मृड ति ॥
अथ थान्ताश्चत्वारः सेटश्च ॥ '३९ श्रन्थश् मोचनप्रतिहर्षयोः' । “नो व्यञ्जनस्या०" ४।२।४५ इति नलुकि श्रध्नाति, श्रथान । कर्मकर्तरि “एकधातौ०" ३।४।८६ इति जिक्यात्मनेपदेषु प्राप्तेषु किरादित्वात् “भूषार्थ" ३।४।९३ इति क्यञ्योरभावे श्रथ्नीते माला स्वयमेव । अश्रन्थिष्ट माला स्वयमेव । शश्रन्थ । “ वा अन्य०" ४।१२७ इति अत ऐत्वे, द्वित्वाभावे नो लुकि च अंथतुः, श्रेथुः, श्रेथिथ; पक्षे शश्रन्थतुः, शश्रन्थुः । “ स्क्रसृवृ०" ४।४।८१ इति इटि शश्रन्थिय । श्रन्थिता, श्रन्थितुम् , श्रथितः, श्रथितवान् । " दशनावोद०" ४।२।५४ इति निपातनाद् नलुकि घनि प्रश्रयः, हिमश्रथः । " णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने श्रन्थना । “ऋत्तष० " ४।३।२४ इति क्त्वो वा कित्त्वे, श्रथित्वा, श्रन्थित्वा । श्रथुङ् शैथिल्ये [११७१७], श्रन्थते । श्रन्थण सन्दर्भ [९।३९२ ], " युजादेः " ३।४।१८ इति वा. णिवि श्रन्थयति, श्रन्थति ॥
__४० मन्थन् विलोडने ' । मध्नाति । हो मथान । ममन्थ, मन्थिता, मन्थितुम् , मथितः, मथितवान् । “ऋतुष०" ४।३।२४ इति क्त्वो वा किल्वे मथित्वा, मन्थित्वा । घजि मन्थः । उणादौ " संस्तुस्पृशिमन्थेरानः " (३० २७६) मन्थानः खजकः । मन्थ हिंसासंक्लेशयोः [ १।२९२ ], मन्थति ॥
४१ ग्रन्थ सन्दर्भ' । सन्दर्भो बन्धनम् । अनाति । हौ प्रथान । कर्मकर्तरि “ एकधातौ०" ३४८६ इति जिक्याऽऽत्मनेपदेषु प्राप्तेषु "भूषार्थ." ३।४।९३ इति क्यञ्योरभावे ग्रनीते माला स्वयमेव, अग्रन्थिष्ट माला स्वयमेव । जग्रन्थ । " वा श्रन्थ० " ४।१।२७ इति अत एत्वे द्वित्वाभावे नो लुकि च ग्रेथतुः, ग्रेथुः । " स्क्रसृवृ०" ४४८१ इति इटि ग्रेथिथ; पक्षे जग्रन्थतुः, जग्रन्थुः,
१. मृडोकम् इति उणादि विवरणे ॥
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४५ ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[ ३०३
जग्रन्थिथ । ग्रन्थिता, ग्रन्थितुम् , ग्रथितः, ग्रथितवान् । “ऋत्तप०" ४।३।२४ इति क्त्वो वा किन्वे ग्रथित्वा, ग्रन्थित्वा । घभि ग्रन्थः । उणादौ “ पदिपठि०" ( उ० ६०७) इति इः, ग्रन्थिः पर्व । ग्रथुङ कौटिल्ये [ ११७१८ ], ग्रन्थते । ग्रन्थण सन्दर्भ [ ९॥३९३ ], “युजादेः०" ३।४।१८ इति वा णिचि ग्रन्थयति, ग्रन्थति ।।
'४२ कुन्थश् सङ्क्लेशे' । श्लेषणे इत्यन्ये । कुश्नाति । हौ कुथान । चुकुन्थ, कुन्थिता, कुन्थितुम् , कुथितः, कुथितवान् । "ऋत्तष०" ४।३।२४ इति क्त्वो वा कित्त्वे कुथित्वा, कुन्थित्वा । घभि कुन्थः । स्थादित्वात् के कुथ्यते इति कुथः, कुथा, कुथं वा वर्णकम्बलः । “क्तेटो." ५।३।१०६ इत्यः, कुन्था । उणादौ "भृमृत." ( उ० ७१६) इत्युः, कुन्थुः सूक्ष्मजन्तुः । “ते लुग्वा" ३।२।१०८ इत्युत्तरपदलुकि कुन्थुदयापरः 'कुन्थुभंगांस्तीर्थकरः। कुथु हिंसासंक्लेशयोः [ ११२८८ ], उदित्वान्ने कुन्थति, कुन्थ्यते ॥
__ अथ दान्तः सेट् च ॥ . '४३ मृदश् क्षोदे' । मृद्नाति । हौ मृदान । ममर्द, मर्दिता, मृदितः । "अजातेः शीले" ५।१११५४ इति णिनि नगरमी, प्राकारमर्दी । “क्षुधक्लिश०" ४।३।३१ इति क्त्वः कित्त्वे मृदित्वा । " क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति कर्मणि विपि मृद् । उणादौ “मृदेवोऽन्तश्च वा" ( उ० ४९) इति ईके मृद्वीका, मृदीका च द्राक्षा । “ मृयुन्दि०" ( उ० ३९९) इति कित्यरे मृदरो व्याधिः । "मृदिकन्दि० " ( उ० ४६५) इत्यले मर्दलो मुरजः ॥
अथ धान्तौ ॥ ४४ गुधशु रोषे' । गुध्नाति । हौ गुधान । जुगोध, गोधिता, गोधितुम् , गुधितः । “क्षुधंक्लिश" ४३३१ इति क्त्वः किल्वे गुधित्वा । "वो व्यञ्जनादे:." ४।३।२५ इति सनो वा किन्वे जुगुधिषति, जुगोधिपति । भिदाधङि गोधा । उणादौ "कुथिगुधेरूमः" (उ० ३५३) गोधूमः । गुधच् परिवेष्टने [ ३३१२ ], गुध्यति ।।
'४५ बन्धंश बन्धने' । बध्नाति, हौ वधान । बबन्ध । संयोगान्तत्वाद् " इन्स्यसंयोगा०" ४।३।२१ इति किवाभावे बबन्धतुः, बबन्धुः। अनुस्वारेच्चान्नेट् , " गडदबादे:०" २२११७७ इति बस्य मे संभन्स्यति । संबन्धा, बद्धः । “बन्धेर्नाम्नि" ५।४।६७ इति णमि कुक्कुटीवन्धं बद्धः । “आधारात्" ५।४।६८
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३०४ ]
चारकपालः ।
हतबन्धं बद्धः । उणादौ " दृकन ० गौरादित्वाद्याम् बन्धकी पांसुला बन्धकः । ( उ० १५७ )
।
मृमनि० ( उ० ५८ ) इति ऊके
46
बन्धेः
19
इति किल्यूटे वधूटी ।
64
"
दिननग्न०
64
( उ० २६८ ) इति ने निपातनाद् 'ब्रघ्नः रविः । शुषीषि० " ( उ० ४१६ ) इति किति इरे बरः 66 भृमृत ( उ० ७१६ ) इत्युः, बन्धुः ॥
।
"
,
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४५
"
( उ० २७ ) इत्यके बन्धकः
19
अथ भान्तास्त्रयः सेटश्च ॥
4
'४६ क्षुभश संचलने क्षुम्नादीनाम् " २|३|९६ इति णत्वाभावे क्षुम्नाति, क्षुम्नीतः, क्षुम्नन्ति । हौ क्षुभाण । चुक्षोभ, क्षोभिता, " क्षुब्धविधि० " ४|४|७० इति ते निपातनाद् नेद् क्षुब्धः क्षुभितः अन्यः । क्षुभि सञ्चलने [ ११९४८ ], क्षोभते । क्षुभच् सञ्चलने [ ३।५६ ], क्षुभ्यति । पुष्याद्यङि अक्षुभत् ॥
अक्षोभीत् । मन्थचेत्,
.1
46
46
१. व्रनो इति मु० ॥
6
४७ म ४८ तुम अदुरुपसर्गा० "
66
हिंसायाम् ' । 'पाठे० " २।३।९७ इति णो ने नम्नाति । २|३|७७ इति नो णे प्रणम्नाति । हौ नभान । ननाभ । " अनादेशादे: ० " ४|१|२४ इति अत एत्वे द्वित्वाभावे च नेमतुः नेभुः । नमिता, नमितः ॥
4
४८ तुभशू' । तुम्नाति, तुतोभ, तुतुभतुः, तुतुभुः, तोभिता, तुभितः । भि-तुभि हिंसायाम् [ ११९४९, ९५० ], नमते, तोभते । गम-तुमच हिंसायाम् [ ३।५७, ५८ ], नभ्यति, तुभ्यति ॥
अथ वान्तः सेट् च ॥
4
""
"
४९ खवश् श्वत्' । यथा हेठा भूतप्रादुर्भावे तथाऽयमपि, वर्णक्रमानुशेघेन तु तत्रैव न पठितः । अनुनासिके च० ४|१|१०८ इति व ऊटि "ऊटा " १२/१३ इत्यतः वेखौनाति । ऊटं, “ खो:० " ४|४|१२१ इति वलुकं च नेच्छन्त्येके, तन्मते खबूनाति । हौ खवान । चखाव, खविता खवितुम्, ववित्वा, खवितः । क्विपि खौः । चान्तोऽयमित्येके, चान्तं धात्वन्तरमित्यन्ये, तन्मते " तवर्गस्य ० " १|३|६० इति नो जत्वे खच्नाति । हौ खचान । खचितः खचितवान्,
चिम् ॥
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५४ ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[३०५ अथ शान्तौ सेटौ च ॥ '५० क्लिशोश् विवाधने' । " तवर्गस्य०" ०३।६० इति नो अस्य "न शात् " ११३।६२ इत्यभावे क्लिश्नाति । हो क्लिशान । चिक्लेश । औदिचाद् वेट् , क्लेष्टा, क्लेशिता । क्तक्त्वासु “पूक्लिशिभ्यो." ४।४।४५ इति वेटि क्लिष्टः, क्लिशितः, क्लिष्टवान् , क्लिशितवान् , क्लिष्ट्वा । "वो व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति विकल्पापवादे "क्षुधक्लिश" ४।३।३१ इति किल्वे क्लिशित्वा । उणादौ " क्लिशः के च" ( उ० ५३०) इति शे केशः । क्लिशिच् उपतापे [३।१३३ ], क्लिश्यते । क्लिश्यति इति तु आत्मनेपदस्याऽनित्यत्वज्ञापनात् ॥
'५१ अशश भोजने' । अनाति । हौ अशान । आश, अशिता, अशितः । "भावे चाशिताद्" ५।१।१३० इति निर्देशात् साप्यादपि कर्तरि क्ते दीर्घ च आपूर्वादविवक्षितकर्मणो वा क्ते आशितः तृप्तः । “ वेयिवद्" ५।२।३ इति निपातनाद् भूतमात्रे क्वसुः न चेट , नाशीत , अनाश्वान् । “ भुजिपति." ५।३।१२८ इति कर्मणि अनटि अशनम् । क्यनि “ क्षत्त०' ४।३।११३ इति निपातनाद् अशनायति बुभुक्षः । क्षुधोऽन्यत्र अशनीयति दातुम् । उणादौ "इष्यशि०" ( उ० ७७ ) इति तककि अष्टका पितृदेवत्यं कर्म । अधिः इति तु "तविङ्कि" (उ० ६९२ ) इति रौ अश्नोतेः । अशौटि व्याप्ती [ ४।२९ ], अश्नुते ।।
अथ षान्ताः सप्त सेटश्च ॥ '५२ इपश् आमीक्ष्ण्ये' | आभीक्ष्ण्यं पौनःपुन्यम् । इष्णाति । हो इषाण । इयेष, एषिता, इषितः, इषितवान् । तादौ “सहलुभेच्छ० " ४।४।४६ इति इट वा अतोऽपीत्येके, एष्टा, एषिता । वेट्त्वात् क्तयोनेंट् , इष्टः, इष्टवान् । इषच गती [ ३१२५ ], अन्विष्यति । इषत् इच्छायाम् [५।१०५ ], इच्छति, इष्टः ॥
___ ५३ विषश विप्रयोगे' । विष्णाति । हौ विषाण । विवेष, वेषिता । "वौ व्यअनादेः०" ४।३।२५ इति क्त्वासनोः वा कित्त्वे विषित्वा, वेपित्वा, विविषिषति, विवेषिषति । विषितः । “ नाम्युपान्त्य० " ५।१५४ इति के विषम् । विषू सेचने [ ११५२३ ], वेषति । विष्लंकी व्याप्ती [ २१८५ ], वेविष्टे, वेवेष्टि, अविषत् ।।
'५४ पुष ५५ प्लुपश् स्नेहसेचनपूरणेषु' । ग्रुष्णाति, हौ ग्रुषाण । पुप्रोप, प्रोपिता, गुषितः । “क्रुत्संपदा०" ५।३।११४ इति विपि विट् । उणादौ "निघृपी०" (उ० ५११) इति किति वे पुष्वा निवृत्तिः ॥
36
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३०६ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ५५'५५ प्लुषम् ' । प्लुष्णाति । हौ प्लुषाण । प्लोषिता । प्लुषितः । पुषू, प्लुष दाहे [ ११५३२, ५३३ ], प्रोपति, प्लोषति । प्लुषच दाहे [ ३।६८ ], प्लुष्यति ॥
'५६ मुषण स्तेये ' । मुष्णाति. हौ मुषाण । मुमोष, मोषिता, मुषितः । "रुदविद०" ४।३।३२ इति क्त्वासनोः किच्चे मुषित्वा, मुमुषिषति । उणादौ "विचिपुषि० " ( उ० २२) इति किति के मुष्कः पेलम् । “मुर्दीर्घश्च" (उ० ४३) इति इके मूषिकः, अजादित्वादापि मूषिका ॥
'५७ पुषश् पुष्टौ' । पुष्णाति, हौ पुषाण । पुपोष, पोषिता । पुष पुष्टौ [ ११५३६ ], पोषति । पुपंच पुष्टौ [ ३॥३२ ], पुष्यति, पोष्टा ॥
'५८ कुषश् निष्कर्षे' । निष्कर्षः बहिष्कर्षणम् । कुष्णाति । कर्मकर्तरि " कुषिरजेः०" ३।४।७४ इति वा परस्मैपदे श्ये च कुष्यति पादः स्वयमेव, पक्षे " एकधातौ०" ३।४।८६ इति क्याऽऽत्मनेपदयोः कुष्यते पादः स्वयमेव । हो कुषाण । चुकोष, कोषिता । "वो व्यञ्जनादेः०" ४।३।२५ इति सनो वा कित्त्वे चुकुषिषति, चुकोषिषति । "क्षुधक्लिश०" ४।३।३१ इति क्त्वः किन्वे कुषित्वा । निरः परात् “ निष्कुषः" ४।४।३९ इति वेट , " हशिटो." ३।४।५५ इति सकि निरकुक्षत् , पक्षे सिचि निरकोपीत् । सनि निश्चुकुक्षति । "उपान्त्ये" ४ ४।४४ इत्यत्र किचम् निश्चुकुषिषति । निश्चुकोषिषति, निष्कोटा, निष्कोषिता । “क्तयोः" ४।४।४० इति इटि निष्कुषितः, निष्कुषितवान् । उणादौ " कुषेः कित् " ( उ० ८०) इति ईतके कुपीतकः ऋषिः । " कुषेर्वा० " ( उ० १६४) इति वा किति ठे कोष्ठः, कुष्ठम् । प्रकोष्ठः दोषः । "पिप्लुपि० " ( उ० ७०७ ) इति सिकि कुक्षिः । " सिविकुटि." (उ० ७५३) इति कित्याको कुषाकुः अग्निः ॥
अथ सान्तः सेट च ॥ '५९ ध्रसून उन्छे' । ध्रस्नाति । हौ धसान । दध्रास, धसिता, ध्रसितुम् । अदिचात् क्त्वि वेट , ध्रस्त्वा, धसित्वा । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट् , ध्रस्तः, ध्रस्तवान् । ध्रसण उत्क्षेपे [ ९।१९५ ], ध्रासयति ॥
अथाऽऽत्मनेपदी ऋदन्तः सेट् च ॥ '६० वृश संभक्तौ' । संभक्तिः संसेवा । " इङित:०" ३।३।२ इति आत्मनेपदे “ एषामी०" ४।२।९७ इति ईत्वे वृणीते । वत्रे । " वृतो नवा० "
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६० ] धातुपारायणे क्रयादयः (८)
[ ३०७
66
66
"
४ | ३ | ३ ३ इति सनः किरवे वुवृर्षते । किति " ऋवर्णश्रि०”
66
"
,,
,
४|४|३५ इति इटो वा दीर्घे वरिता, वरीता इटू सिजाशिषः ० " ४|४|३६ इति वेटि अवरिष्ट, अवरीष्ट; पक्षे " ऋवर्णात् " ४।३।३६ इति सिचः किचे अवृत । वरिषीष्ट, पक्षे वृषीष्ट । इवृध० ४|४|४७ इति सनिवेट्, विवरिषते, विवरीषते; पक्षे " नामिनोऽनिट् ” ४|४|५७ इति नेटू, वृतः, वृतवान् वृत्वा । ये निपातनाद् वर्यम् उपेयम्, वार्यम् अन्यत् । पर्तिवरा कन्या । वृभिश्चि० ५|२|७० 'युवर्ण० " ५।३।२८ इत्यलि वरः । उणादौ द्वित्वे आदौ च रे 'वर्वरीका सरस्वती । वृड एण्यः ( उ० ३८२ ) वरेण्यः । वृट् वरणे [ ४९ ], वृणुते, वृणोति । वृगणू आवरणे [ ९।३८० ], “ युजादे: ० " ३|४|१८ इति वा णिचि वारयति पक्षे वरते, वरति ॥
वर्योपसर्या ० ५।१।३२ इति ५।१।११२ इति खे
46
भृवृजि०
46
"
इति टाके वराकः, वराकी ।
46
46
"
जपद ० ( उ० ४७ ) इति ईके
દ દ દ
44
44
ܕܪ
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र विरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे नाविकरणः शित् क्रयादिगणः सम्पूर्णः ||
१. उणादिविवरणे तु ' बृग्ट् वरणे ' इत्यस्माद् धातोः 'वर्वरीका शब्दः साधितः ॥
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64
“ धातोरनेकस्वगद्०
"
"
'१ चुरणू स्तेये ' । णित्रं चुरादित्वज्ञापनार्थम् । स्वार्थिकत्वेनान्तरङ्गत्वाद् विशेषविधानाच्च कर्त्रादिकारकापेक्षत्वेन बहिरङ्गेभ्यः सामान्य विहितेभ्यश्च तिवादिभ्यः प्रागेव " 'चुरादिभ्यो० ३|४|१७ इति स्वार्थे णिचि, णिजन्तस्यापि क्रियार्थत्वाद्धातुत्वे “ शेषात् ० " ३ | ३|१०० इति परस्मैपदे चोरयति । णिचो गिच्चाभावात् फलवत्कर्तयत्मनेपदं नास्ति । चन्द्रस्तु णिच्यपि उभयपदित्वमानासीत् णिज्विकल्पं ३ | ४|४६ इति परोक्षाया आमि चोरयांचकार । णिश्रि० " ३|४|५८ इति ङे अचूचुरत् । चोरयन्तं प्रायुङ्क्त इति णिजन्तात् 'प्रयोक्तृव्यापारे० " ३ | ४ | २० इति णिगि “ णेरनिटि " ४।३।८३ इति णिचो लुक्यपि णिजात्याश्रयणात् समानलोपित्वाभावात् " उपान्त्यस्या० ४२०३५ इति “ लघोर्दीर्घो० " ४|१।६४ इति पूर्वस्य दीर्घे च अच्चुत् । कर्मकर्तरि एकधातौ ० " ३|४|८६ इति ञिक्यात्मनेपदेषु प्राप्तेषु " भूषार्थ • ३।४१९३ इति ञिक्योरभावे अचूचुरत गौः स्वयमेव चोरयते गौः स्वयमेव । ञिच एव प्रतिषेधाञ्ञिटि चोरिष्यते गौः स्वयमेव । चोरयिता । 'सेदूक्तयोः ४|३|८४ इति लुकि चोरितः, चोरितवान् । अचि चोरः । गौरादित्वाद् ङथाम् चोरी | प्रज्ञाद्यणि चौरः । " णिवेत्ति ० " ५।३।१११ इति अने चोरणा । णिचोऽनित्यत्वादभावे भिदादिनिपातनादङि चुरा | छत्रादित्वादञि चुराशीलः चौरः, “अणत्रेये ० " २|४|२० इति याम् चौरी । “युवर्ण ० " ५|३|२८ इत्यलि चोरः ।
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अथ चुरादयः ( ९ ) ॥
अथ णितश्चुरादयो वर्णक्रमेण प्रस्तूयन्ते, तत्राssदौ—
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इह पण - चितुप्रभृतीनां सनकार निर्देशमकृत्वा उदित्करणं चुरादिणिचोऽनित्यस्वज्ञापकं न च ' चिन्त्यते ' इत्यादौ नलोपाभावार्थम् ; ततो णिज्लुकः स्थानित्वेन उपान्त्यत्वाभावान्नलुकोऽप्रसङ्गात् तेन चोरति चिन्तति इत्यादि सिद्धम् । इदं च ज्ञापकं, 'घुषेरविशब्दे " ४।४।६८ इति विशन्दनप्रतिषेधः, अयं हि विशन्दने घुषेरिट्प्रतिषेधाभावार्थः, स च णिचोऽनित्यत्वेऽनेकस्वरत्वादेव सिद्धः । तेन महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्पमाणवाः [ पातञ्जल महाभाष्य, ७।२।२३ ] इत्यपि सिद्धम् ॥
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१३ ] धातु पारायणे चुरादयः (९)
[ ३०९
अथ ऋदन्तौ ॥ '२ पृण पूरणे' । स्वार्थे णिचि पारयति । क्ये पार्यते । " धातोरनेकस्वराद्" ३२४४६ इति आमि पारयांचकार । " साहिसाति०" ५।११५९ इति शे पारयः । ऋदन्तोऽयमित्येके । पूंक पालन पूरणयोः [ २१७६ ] पिपति । पृङ्त् व्यायामे [ ५।१५१ ], व्याप्रियते ॥
'३ घृण स्रवणे' । धारयति, घारयामास । धू सेचने [ १।२० ], घरति घृतम् । घृ सू आवरणे इति पूर्वे पेठुः ॥
अथ कान्ता अष्टौ ॥ ...४ श्वल्क ५ वल्कण भाषणे' । श्वल्कयति, श्वल्कयांचकार ॥
'५ वल्कण' । वल्कयति, वल्कयांचकार । अलि वल्कः त्वरुत्वक् । वल्कलम् इति तु वलेः कलकि ॥ ... '६ नक ७ धक्कण नाशने' । नक्कयति, धक्कयति ॥
८ चक्क ९ चुक्कण् व्यथने ' । चक्कयति । उणादौ " मुरल० " (उ० ४७४) इति निपातनादले चक्कलम् , चक्कलकम् ॥
___ '९ चुकण' । चुक्कयति । अचि अलि वा चुकः । चिक्क इति कौशिकः । चिक्कसम् चिकणम् ॥ . १० टकुण बन्धने ' । उदित्वान्ने टयति, अलि विटङ्कः । "पुनाम्नि." ५।३।१३० इति घे टङ्कः दृषद्दारणः, अनटि टङ्कनम् । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इति अने टकना ॥ ____ ११ अर्कण स्तवने ' । अर्कयति । अचि अलि वा अर्कः ॥
___ अथ चान्तौ ॥ १२ पिच्चण कुट्टने ' । पिञ्चयति । पिचुः इति तु " परिश्चातः" ( उ० ७३५) इति पचे: औ रूपम् ||
__ १३ पचुण् विस्तारे' । उदित्त्वान्ने प्रपञ्चयति, अलि प्रपश्चः । पचुङ् व्यक्तीकरणे [ ११६५७ ] पश्चते । “ नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१ इति णके पश्चिका । अचि गौरादित्वाद् ड्याम् विपश्ची । घनि न्यक्वादित्वात् कत्वे पङ्कः ।।
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १४
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अथ छान्तः ॥ '१४ म्लेछण म्लेच्छने ' । म्लेच्छनम् अव्यक्ता वाक् । म्लेच्छयति । म्लेच्छ अव्यक्तायां वाचि [ ११११९], म्लेच्छति ॥
अथ जान्ता एकादश ॥ '१५ ऊर्जण् बलप्राणनयोः' । प्राणनं जीवनम् । ऊर्जयति । “दिद्युद्" ५।२२८३ इति क्विपि ऊर्छ । "शत्सः" २०११९० इति नियमादत्र संयोगान्तलुक् नास्ति । ऊर्ग अस्यास्ति इति “ ऊर्जा विन्वलावश्चान्तः " ७।२।५१ ऊर्जस्वी, ऊर्जस्वलः । भिदाधङि ऊर्जा । क्ते ऊर्जितम् ॥
'१६ तुजु १७ पिजुण हिंसाबलदाननिकेतनेषु'। निकेतनं गृहम् । उदित्वान्ने तुअयति, पिनयति । उणादौ "ऋच्छिचटि०" (उ० ३९७) इति अरे पिञ्जरः । " पिअिमझि०" ( उ० ४८८ ) इति ऊले पिञ्जूलः हस्तिबन्धनपाशः । लुजुमप्येके पेटुः, लुञ्जयति । लोक-तर्केति दण्डकेऽनयोः पुनः पाठः अर्थभेदार्थः आत्मनेपदार्थः सकर्मकार्थश्च, तुञ्जयते, पिञ्जयते । तुजु बलने च [ १११६२ ], तुओत, पिजुकि संपर्चने [ २।५२ ], पिङ्क्ते ।।
'१८ क्षजुण् कृच्छ्रजीवने' । उदित्वान्ने क्षमयति । क्षजुङ् गतिदानयोः [१११००१] क्षमते । घटादित्वाद् अिणम्परे णौ वा दीर्घ अक्षाञि, अक्षञ्जि ।
'१९ पूजण् पूजायाम् ' । पूजयति । " य एच्चा०" ५।१।२८ इति ये पूज्यम् । णके पूजकः । याजकादित्वात् “ कर्मजा तृचा च" ३१८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि षष्ठीसमासः, गुरूणां पूजकः गुरुपूजकः । “ज्ञानेच्छा!" ५।२।९२ इति सति ते "क्तयोरसदा." २।२।९१ इत्यत्र सदर्थस्य वर्जनात् प्रतिषेधाभावे "कर्तरि" २।२।८६ इति षष्ठयां राज्ञां पूजितः । “ज्ञानेच्छा ०" ३११८६ इति प्रतिषेधाचात्र न षष्ठीसमास: । " भीषीभूषि०" ५।३।१०९ इति अङि पूजा॥ ___'२० गज २१ मार्जण शब्दे' । गाजयति, मार्जयति । मर्चमर्जावपि एके पठन्ति; मर्चयति, मर्जयति, मर्जिता ॥
२२ तिजण निशाने ' । तेजयति । तेजयामास । “णिवेत्ति० " ५।३।१११ इति अने तेजना । तिजि क्षमानिशानयोः [ १६६६७ ], "गुप्तिजो० ॥ ३४५
१. घस्वान्त इति मु०॥
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३७ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३११
इति सनि तितिक्षते, निशाने तु तेजते । उणादौ “ अस्" ( उ० ९५२ ) इति असि तेजः ॥ ___ २३ वज २४ व्रजण मार्गणसंस्कारगत्योः' । मार्गणः बाणः, तस्य संस्कारे गतौ च । मार्गसंस्कारेऽपीत्यन्ये । वाजयति, बाजयति । वज, ब्रज गती [१३१३६, १३७ ], वति, व्रजति ॥ ___ '२५ रुजण् हिंसायाम् ' । रोजयति, रोजयांचकार ॥
- अथ टान्तास्त्रयोविंशतिः ॥ "२६ नटण अवस्यन्दने' । अवस्यन्दनं भ्रंशः । " जासनाट." २।२।१४ इति कर्मणो वा कर्मत्वे " शेषे” २।२।८१ इति षष्ठयां चोरस्योबाटयति । णके नाटकम् । णट नृतौ [ १११८७], नटति, नतो घटादित्वाद् हस्वे नटयति शाखाम् । नतेरन्यत्र घटादित्वाभावे नाटयति नटम् । नड इति नन्दी । नडः नाडी, प्रणालः, प्रणाली ॥
' २७ तुट २८ चुट २९ चुटु ३० छुटण् छेदने' । तोटयति, चोटयति । उदिचान्ने चुण्टयति । छोटयति, आच्छोटयति । " नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१ इति णके छोटिका,, अनटि आच्छोटनम् । छुटत् छेदने [५।१२२ ], छुटति ॥
'३१ कुट्टण कुत्सने च' । चकारात् छेदने । कुट्टयति । " वृभक्षि" ५।२।७० इति टाके कुट्टाकः, इक्षुकुट्टाकः, कुट्टाकी । अलि कुट्टः । रम्यादित्वात् कर्तरि अनटि कुट्टनी । उणादौ " कुट्टिवेष्टि" ( उ० ३४९) इति इमे कुट्टिमं संस्कृतभूतलम् ।।
'३२ पुट्ट ३३ चुट्ट ३४ षुट्टण अल्पीभावे'। पृट्टयति, चुट्टयति, "षः सो." २१३१९८ इति से सुट्टयति । पोपदेशत्वाद् “णिस्तोरेवा." २॥३॥३७ इति पे सुषुट्टयिषति । अपोपदेशोऽयमनादरार्थश्चत्यन्ये; तन्मते षत्वाभावे सुसुट्टयिषति ॥
'३५ पुट ३६ मुटण संचूर्णने ' । पोटयति, अचि पोटा। भासार्थेऽपि वक्ष्यते । पुटत् संश्लेषणे [५।१२७], पुटति ॥
___'३६ मुटण' । मोटयति, अनटि मोटनम् । मुटत् आक्षेपप्रमर्दनयोः [५।१२५ ], मुटति ॥
___ '३७ अट्ट ३८ स्मिटण अनादरे' । अट्टयति । अलि अट्टः । अचि अट्टा, अट्ठां करोति इति क्यङि अट्टायते । स्मेटयति । अषोपदेशत्वात् पत्वाभावे सिस्मेटयिषति । अट्ट अल्पीभावे इत्येके ।।
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३१२]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३९ '३९ लुण्टण स्तेये च' । चकारादनादरे । लुण्टयति । " वृङ्भक्षि०" ५।२७० इति टाके लुण्टाका, लुण्टाकी । णिजभावे "क्तेटो" ५।३।१०६ इत्यः, लुण्टा ॥
'४० स्निटण स्नेहने' । स्नेटयति ॥
'४१ घट्टण चलने' । घट्टयति । अलि संघट्टः । “णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने घट्टना । "पुंनाम्नि" ५।३।१३० इति करणाधारे घे घट्टः नद्यवतरणस्थानम् , अचि अरघट्टः । घट्टि चलने [१६६८ ], घट्टते ।
'४२ खट्टण संवरणे' । खट्टयति मुखम् ॥ ___ '४३ षट्ट ४४ स्फिटण हिंसायाम् ' । “प: सो० " २।३।९८ इति से सट्टयति । पोपदेशत्वाद् "णिस्तोरेवा०२३॥३७ इति षत्वे सिषयिषति । णके सट्टकः । अयं बलदाननिकेतनेष्वपि इत्यन्ये । स्फेटयति, णके स्फेटकः "पुनाम्नि." ५।३।१३० इति घे स्फेटः संस्फेटश्च तुमुलयुद्धम् । स्फिटण अनादरे इत्यन्ये । । '४५ स्फुटुण परिहासे' । उदित्चाने स्फुण्टयति । अयं स्फुटण इत्येके, स्फोटयति ॥
'४६ कीटण वर्णने' । बन्धे इत्यन्ये । कीटयति । अचि कीटः ॥
४७ वटुण विभाजने' । उदिवाने वण्टयति । डान्तोऽयमित्येके, वण्डयति। . अचि वण्ड: । वटु विभाजने [१।२०५ ], घण्टति ॥ - ४८ रुटण रोपे' । रोटयति । अणि ग्रामरोटः । रुटु स्तेये [१।२०६], रुष्टति ॥
'४९ शठ ५० श्वठ ५१ श्वठुण संस्कारगत्योः' । शाठयति । शठ कैतवे च [११२२२ ), शठति । अचि शठः । श्वाठयति ॥ .. ' ५१ श्वठुण' । उदित्चान्ने श्वण्ठयति ॥
'५२ शुठण आलस्ये' । शोठयति । शुठ गतिप्रतीघाते [११२२३], शोठति ॥
'५३ शुठुण शोषणे' । उदित्याने शुण्ठयति । अचि शुण्ठः । गौरादित्वाद् याम् शुष्ठी । शुटु शोषणे [ ११२२६ ], शुण्ठति ॥ . ५४ गुठण वेष्टने ' । उदिवाने गुण्ठयति । " णिवेत्ति०" ५।३।१११ इति अने गुण्ठना । ते अवगुण्ठितः ।।
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६५ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[३१३
अथ डान्ताः सप्तदश ॥ '५५ लडण उपसेवायाम् ' । लाडयति । डस्य लत्वे उपलालयति । लड विलासे [ १।२५४ ], लडति । जिह्वोन्मन्थने घटादित्वाद् णिगि हुस्वे लडयति ॥
'५६ स्फुडण् परिहासे' । उदित्वान्ने स्फुण्डयति । णके स्फुण्डिका ॥
'५७ ओलडुण उत्क्षेपे' । उदिवान्ने ओलण्डयति । “ सेटक्तयोः" ४।३८४ इति णे कि ओलण्डित:, ओलण्डितवान् । ओदिदयमित्यन्ये; तन्मते लण्डयति । णिजिटोरनित्यत्वात् “ सूयत्यादि." ४।२।७० इति क्तयोस्तस्य नत्वे लण्डणः, लण्डणवान् । ओदित्करणबलात् णिज्व्यवायेऽपि नत्वमित्यन्ये; लण्डिनः, लण्डिनवान् । 'लदुण् अपि इति चान्द्राः; अवलन्दयति उष्ट्रम् ॥
'५८ पीडण गहने ' । गहनं बाधा । पीडयति । डे " भ्राजभास." ४।२।३६ इति वा हस्वे अपीपिडत् , अपिपीडत् । “ भीषिभूषि०" ५।३।१०९ इत्यत्र बहुवचनादङि पीडा । अवगाहने इत्यन्ये । तिलपीलकः ॥ ____ ५९ तडण आघाते' । ताडयति । उणादौ णिचोऽनित्यत्वादभावे "शलिबलि. " ( उ० ३४ ) इति आके तडाकं सरः । तिन्तिडीक इति तु "सृणीका." ( उ० ५० ) इति ईके निपातनात् तिमः । “ तडेरागः" ( उ० ९७ ) तडागं सरः । “ हुसृरुहि०" ( उ० ८८७) इति इति तडित् । “कमिवमि०" (उ० ६१८ ) इति णिदिः, ताडिः ।।।
'६० खड ६१ खड्डुण भेदे' । खाडयति ॥ '६१ खडण्' । उदित्वान्ने खण्डयति ॥
'६२ कडुण् खण्डने च' । चकाराद् भेदे । उदिवान्ने कण्डयति । खुडण्, खण्डने इत्येके, खुण्डयति, खुण्डितः ॥
'६३ कुडुण् रक्षणे' । उदित्त्वान्ने कुण्डयति । कुडुङ् दाहे [११६९०], कुण्डते ॥ '६४ गुडुण् वेष्टने च' । चकाराद् रक्षणे । उदित्वान्ने गुण्डयति ॥... '६५ चुडुण छेदने' । उदिवाने चुण्डयति ॥ १. तुलना:-चान्द्रा लदिमप्याहुः, (क्षी. त. पृ. २८०) ॥
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३१४]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ६६ '६६ मडुण् भूषायाम् ' । उदित्वान्ने मण्डयति । “भूषाक्रोधार्थ० " ५२।४२ इत्यने मण्डनशीलो मण्डनः । " युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि मण्डः । "णिवेत्ति" ५३।१११ इत्यने मण्डना । मडु भूषायाम् [१।२३१ ], मण्डति । मडुङ् वेष्टने [ १६९२ ], मण्डते ॥
'६७ भडण कल्याणे' । उदित्वान्ने भण्डयति । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने भण्डना । दान्तोऽयमित्यन्ये, भन्दयति । उणादौ णिचोऽनित्यत्वाद् भन्देन लुक् च वा (द्र० उ० ३९१) इति रकि भद्रं भन्द्रं च कल्याणम् । भडुङ् परिभाषणे [ ११६९३ ], भण्डते, मण्डः ।
६८ पिडुण संघाते' । उदित्वान्न पिण्डयति । पिडुङ संघाते [११६८४ ], पिण्डते, पिण्डः, पिण्डी । पडुण अयमित्येके, पण्डयति । पडुङ् गतौ [११६८२], पण्डते, पण्डितः, पण्डः, पण्डा ।।
'६९ ईडण् स्तुतौ' । ईडयति । ईडिक् स्तुतौ [ २।५६ ]; ईट्टे ॥
'७० चडुणू कोपे' । उदिवाने चण्डयति । अचि चण्डः । “न वा शोणादेः " २।४।३१ इति वा ङ्याम् चण्डी, चण्डा । चडुङ कोपे [ ११६९७ ], चण्डते, चण्डालः ॥
७१ जुड ७२ चूर्ण ७३ वर्णण प्रेरणे' । प्रेरणं दलनम् । जोडयति, लत्वे जोलयति । क्ते जोडितम् ॥
___ अथ णान्ताः षट् ॥ '७२ [ चूर्णण ] ' । चूर्णयति । अचि चूर्णः। उणादौ " स्वरेभ्य०" ( उ० ६०६) इति इ., चूर्णिः ।।
'७३ [वर्णण ] । वर्णयति । " णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने संवर्णना ॥
'७४ चूण ७५ तूणण संकोचने ' । चूणयति । " युवण" ५।३।२८ इत्यलि चूणः । तूणयति । "युवर्ण०" ५।३।२८ इत्यलि तूणः । उणादौ " जम्बीराभीर०" ( उ० ४२२ ) इति ईरे तूणीरः ॥
'७६ श्रणण दाने'। श्राणयति । "णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने विश्राणना । क्लीवेऽनटि विश्राणनम् । “भीषिभूषि० " ५।३।१०९ इत्यत्र बहुवचनादनापवादे अङि श्राणा यवागूः । “यमोऽपरिवेषणे० " ४।२।२९ इत्यत्र णिचो
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८२ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३१५ ग्रहणाद् एषु " घटादेः०" ४।२।२४ इति इस्वो नास्ति, णिचोऽनित्यत्वादभावपक्षे तु गिगि हस्वे श्रणयति । श्रण दाने [ १११०४२ ], श्रणति ॥ '७७ पूणण संघाते' । पूणयति ॥
__ अथ तान्ताः षट् ॥ ' ७८ चितुण स्मृत्याम् ' । उदित्वाने चिन्तयति । " णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यनापवादे " भीषिभूषि०" ५।३।१०९ इत्यङि चिन्ता । भीष्यादिभ्योऽनापवादेऽप्रत्ययेऽपि गेलुंकि भीषादीनां सिद्धौ अविधानं गेलकोऽनित्यत्वज्ञापनार्थम् , तेन गेलुंगभावे " संयोगात्" २।११५२ इति इयि चिन्तिया । तथा
न यमेन न जातवेदसा, न कुबेरेण न वज्रपाणिना । 'मधवो युधि 'सुप्रकम्पया, श्वसनेनैव वसुन्धरापते ॥ __ अत्र सुप्रपूर्वात् कम्पः खलि गेलगमावे गुणेऽयादेशे च सुप्रकम्पया इति सिद्धम् । ज्ञापकेन च क्वचिदेव णिलुगभावो ज्ञाप्यते । आमादिषु तु सर्वत्राऽव्यभिचारी अयादेश इत्यामन्तेति वचनम् ॥
“७९ पुस्त ८० बुस्तण आदरानादस्योः' । पुस्तयति । अलि पुस्तं लेप्यकर्म । णके पुस्तकम् । अयं वन्दने इति चन्द्रः ॥
८० बुस्तण' । बुस्तयति । उणादौ " स्वरेभ्य० " (३० ६०६) इति इ., बुस्तिः शुष्कुली ॥
८१ मुस्तण संघाते' । मुस्तयति । अचि मुस्ता ॥
८२ कृतण संशब्दने' । संशब्दनं ख्यातिः । “ कृतः कीर्तिः " ४।४।१२२ कीर्तयति । उ " ऋद]वर्णस्य " ४।२।३७ इति कीयादेशाऽपवादे ऋतो वा ऋति अचीकृतत् , अचीकीर्तत् । “ सातिहेति०" ५।३।९४ इति निपातनादनाऽपवादे क्तो कीर्तिः । उणादौ " स्वरेभ्य" (उ० ६०६) इति इ., कीतिः ।।
१. माधवो इति रा० प्रतौ । २. सुप्रकम्ययाः इति हेमहंसगणिकृते न्यायार्थमञ्जूषायाः न्यासे (पृ. १८५ ) ॥
३. अनेन सूत्रेण तु 'स्वरान्तेभ्यः धातुभ्यः इ. प्रत्ययो भवति। कीर्तिशब्दस्तु "किलिपिलि."(उ०६०८) इत्यनेन साधितः ।।
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आचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते [ षा० ८३
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८३ स्वर्त ८४ पण गतौ' । स्वर्तयति । अषोपदेशत्वाद् “ णिस्तोरेवा ० " २|३|३७ इति न त्वम्, सिस्वर्तयिषति । षोपदेशोऽयमिति नन्दी । “णिस्तोरेवा ०" २|३|३७ इति षत्वे सिष्वर्तयिषति । अयं कृच्छ्रजीवनेऽपीत्यन्ये ॥
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३१६ ]
अथ थान्ताश्चत्वारः ॥
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८४ पण ' | उदिचाने पन्थयति, परिपन्थयति ॥
' ८५ श्रथण् प्रतिहर्षे ' । प्रतियत्ने इत्यन्ये । श्राथयति । श्रथ बन्धने च [ ९ ३९६ ], इति युजादौ पठिष्यमाणोऽपि अर्थभेदादिह पुनरधीतः । आत्मनेपदे न रूपान्यत्वार्थमिह पाठ इत्येके, श्राथयते ॥
' ८६ पृथण प्रक्षेपणे ' । पर्थयति । अयं पर्थणू इत्येके, पार्थण इत्यन्ये; तन्मते पयति, पार्थयति ॥
6
८७ प्रथण प्रख्याने ' । प्रक्षेपणे इत्येके । प्राथयति । डे “
४। १ ६५ इति सन्वद्भावापवादे पूर्वस्यात्वे अपप्रथत् ||
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स्मृदुत्वर०
अथ दान्ताः पञ्च ||
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' ८८ छदणू संवरणे ' । छादयति । ऊर्जने तु घटादित्वाद् हूस्वे छदयति । णौ “ दान्तशान्त ० ४|४|७४ इति ते वा निपातनात् छन्नः छादित: । णके उच्छादकः । " कर्मजा चा च " ३|१|८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि याजकादित्वात् षष्ठीसमासः; राजोच्छादकः । क्विपि छदेरिस् " ४।२।२३ इति स्वे तनुच्छत् । करणाधारे ' पुंनाम्नि० ५|३|१३० इति ४ |२| ३४ इति हूस्वे छदः, प्रच्छदः, उरश्छदः । उणादौ " इति त्रुटि छत्त्रम् 1 हुयामा ० ( उ० ४५१ ) इति 'मन् " ( उ० ९११ ) इति मनि छद्म । " रुरूपवि० "
" एकोपसर्गस्य० "
टू " ( उ० ४४६ ) .
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99
त्रे
हूस्वाभावे छात्त्रः ।
44
( उ० ९८९ ) इति
इस छदिः । अदन्तोऽप्ययमित्येके छदयति । छदणू अपवारणे [ ९१३९८ ],
66
युजादे: ० " ३ | ४|१८ इति वा णिचि छादयति
छदति
रूपान्यत्वार्थं चेह
पाठः, छादयते; अत्राऽऽत्मनेपदं सिद्धम् ||
66
"
"
46
' ८९ चुदण् संचोदने ' । संचोदनं नोदनम् । चोदयति । य एच्चा० ५।१।२८ इति ये चोद्यम् । " णिवेत्ति ० " इत्यने चोदना । भिदाद्यङि निपातनात् चूडा ॥
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१०२ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[३१७ '९० मिदण स्नेहने' । उदित्वाने मिन्दयति । अचि मिन्दः कुष्ठी । टान्तोऽयमित्येके, मिण्टयति । नायमुदिदिति कौशिकः, मेदयति ॥
"९१ गुर्दण निकेतने' । पूर्वनिकेतने इत्येके; पूर्वनिकेतनम् आद्यो निवासः । " म्वादेः " २।१।६३ इति दीर्घे, गूर्दयति । गुदि क्रीडायाम् [११७३४ ], गूर्दते ॥
९२ छर्दण् वमने ' । छर्दयति । उणादौ " पदिपठि० " (उ० ६०७) इति इः, छर्दिः; सान्तस्तु “रुच्यचि० " ( उ० ९८९) इति इसि कृणत्तेः । इह गर्दण् शब्दे इत्येके पेठुः, गर्दयति गर्दभः । भ्वादौ गर्दति । अयं गर्ने इत्यपरे ॥
अथ धान्ताः पञ्च ॥ +९३ बुधण् हिंसायाम् ' । उदिवाने बुन्धयति । ठान्तोऽयमित्यन्ये, बुण्ठयति ॥ '९४ वर्धण् छेदनपूरणयोः' । वर्धयति ॥ '९५ गर्धण् अभिकाङ्क्षायाम् ' । गर्धयति ॥
'९६ बन्ध ९७ बधण संयमने' । बन्धयति । बन्धश् बन्धने [ ८।४५], बध्नाति ।। '९७ वधण्' । बाधयति । डे अवीवधत् । बधि बन्धने [११७४६], वीभत्सते ।।
__ अथ पान्ता अष्टौ ॥ '९८ छपुण गतौ' । उदिच्चान्ने छम्पयति ॥ '९९ धपुण् क्षान्तौ ' । उदिचान्ने क्षम्पयति ॥
१०० ष्ट्रपण समुच्छाये'। "पः सो० " २।३९८ इति से स्तूपयति । षोपदेशत्वात् "णिस्तोरेवा०" २।३।३७ इति षे तुष्ट्रपयिषति । अोपदेशोऽयमित्यन्ये, तुस्तूपयिषति । स्तुपण इत्येके, स्तोपयति । ष्ट्रपच समुच्छाये [३५४ ], स्तूप्यति ॥
'१०१ डिपण क्षेपे' । डेपयति । डिपिण् संघाते [ ९।२६४ ], डेपयते ॥ '१०२ रुपण व्यक्तायां वाचि' । ह्रापयति ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० १०३
'१०३ डपु १०४ डिपुण संघाते' । अभिमर्दने इत्येके । उदित्वान्ने डम्पयति, डिम्पयति । भान्तावेतौ इत्यन्ये; डम्भयति, डिम्भयति । अचि डिम्भः ॥
— १०५ शूर्पण माने' । तालव्यादिः । शूर्पयति । अचि “पुनाम्नि०" ५।३।१३० इति करणेऽधिकरणे वा घे शूर्पः ।।
अथ बान्ता अष्टौ ..१०६ शुल्बण सर्जने च' । चकारान्माने । तालव्यादिः । शुल्बयति । अचि शुल्बम् ॥
१०७ डबु १०८ डिबुण क्षेपे' । उदित्वान्ने डम्बयति, विडम्बयति । उणादौ " जठर०" (उ० ४०३ ) इत्यरे आडम्बरः ॥
१०८ डिबुण' । उदिवाने डिम्बयति । अचि डिम्बम् अशस्त्रकलहः । केचित्त दमदभुदिभूनपि भान्तानिह अधीयते; दाभयति, दम्भयति, दिम्भयति ॥
__१०९ सम्बण सम्बन्धे' । सम्बयति । पोपदेशोऽयमित्यन्ये । “णिस्तोरेवा." २।३।३७ इति षत्वे सिपम्बयिषति । तालव्यादिरयमिति द्रमिलाः । शम्बयति शम्बलम् । साम्ब इत्येके, साम्बयति । अलि साम्बः ॥
* ११० कुखुण् आच्छादने' । उदिचाने कुम्पयति । " भीषिभूषि० ". ५।३।१०९ इत्यङि कुम्बा ॥
'१११ लुबु ११२ तुवुण अर्दने ' । उदिचाने लुम्बयति । उणादौ "स्वरेभ्य." (उ० ६०६) इति इ., लुम्बिः ॥ .
— ११२ तुषुण' । उदिवाने तुम्बयति । अचि गौरादित्वाद् ङ्याम् तुम्बी । " तिकृतौ० " ५।१७१ इति अके तुम्बकः । तुपुण् इत्यप्यन्ये, तुम्पयति ॥
'११३ पुर्बण निकेतने' । “म्वादेन मिनो० " २।१।६३ इति दी पूर्वयति । अचि पूर्वः । पूर्व इत्यमरकोशे ओष्ठयान्तेषु पठितः, तत् प्रकृतित्वानुरोधाद् बान्तेष्वयमस्माभिरिहाधीतः ॥
अथ मान्तः ॥ ११४ यमण परिवेषणे' । अपरिवेषणे इत्यन्ये । यामयति अतिथींश्चन्द्रमसं वा । परिवेषणादन्यत्र “ यमोऽपरिवेषणे णिचि च" ४१२।२९ इति हस्वे यमयति ।।
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१२५ ] धातुपारायणे चुरादय: ( ९ )
अथ यान्तः ॥
"
' ११५ व्ययण क्षये ' । व्याययति ॥
[ ३१९
अथ रान्तास्त्रयः ॥
' ११६ यत्रुण संकोचने ' । उदित्वाने यन्त्रयति, नियन्त्रयति । " णिवेत्ति०' ५|३|१११ इत्यने यंत्रणा ॥
' ११७ कुद्रुण अनृतभाषणे' । उदिश्वान्ने कुन्द्रयति । ङे अचुकुन्द्रत् । गादिमिति अन्ये; गुन्द्रा भद्रमुस्ता ।।
' ११८ श्वभ्रण गतौ ' । श्वभ्रयति । अचि श्वभ्रम् ॥
अथ लान्ताः षोडश ॥
११९ तिल स्नेहने ' । तेलयति । णिचोऽनित्यत्वादभावे “नाम्युपान्त्य ०" ५|१|५४ इति के तिलाः । उणादौ " कीचक० " ( उ० ३३ ) इत्यके निपातनात् तिलकम् । तिलत् स्नेहने [ ५/९१ ], तिलति ॥
6
, १२० जणू अपवारणे | जालयति । के जालकम् । अचि जालम् ।
अयं लजणू इति नन्दी, लाजयति । अचि लाजाः । जल घात्ये [ १९७३ ], जलति ॥
' १२१ क्षणू शौचे ' । शौच शौचकर्म । क्षालयति, क्षालितम् ॥
6
१२२ पुलण् समुच्छ्राये ' । पोलयति । पुल महत्त्वे [ १९८० ], पोलति । तुदादौ अप्ययं इत्येके, पुलति ॥
6
"
१२३ बिल भेदे ' । ओष्ठ्यादिः । वेलयति । उणादौ णिचोऽनित्यत्वादभावे " "विलिमिलि ० ( उ० ३४० ) इति किति मे विल्मं प्रकाशम् । " निघृषी ० " ( उ० ५११ ) इति किति वे बिल्वम् । भिल इति कौशिकः, भेलयति, भिल्मम् । बिलत् भेदने [ ५/९५ ], बिलति ॥
' १२४ तलणू प्रतिष्ठायाम् ' । तालयति, उत्तालयति । अचि तालः | स्वार्थे के तालिका | णिचोऽनित्यत्वात् तलति । अचि तलम् ॥
' १२५ तुलणू उन्माने ' । तोलयति । " भीषिभूषि० " ५।३।१०९ इत्यङि तोला | बाहुलकाद् “ णिवेत्ति० " ५|३|१११ इत्यने तोलना । णिचोऽनित्यत्वाद
46
१. बिलि इति मु० । उणादि विवरणे तु विलतू वरणे, विल्मं प्रकाशः ॥
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३२० ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [धा० १२५भावे " नाम्युपान्त्य० " ५१५४ इति के तुलः, आपि तुला । मिदाद्यङि अपि तुला । तुलयति इति तुलशब्दाद् “णिज् बहुलं०" ३।४।४२ इति णिचि रूपम् ॥
___ १२६ दुलण उत्क्षेपे' । दोलयति । अचि स्त्रियामापि दोला । "सेटूक्तयोः" ४।३३८४ इति णेलुकि दोलितः । “ मीषिभूषि०" ५।३।१०९ इत्यङि दोला । उणादौ णिचोऽनित्यत्वादभावे " नाम्युपान्त्य ०" ( उ० ६०९ ) इति किदिः, दुलिः कच्छपी । अन्दोलयतीति तु रूढेः, यथा प्रेढोलयति, वीजयति ॥.
१२७ बुलण निमजने' । बोलयति, बोलितम् । अनटि बोलनम् । णिचोऽनित्यत्वाद् " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के बुलः ॥
१२८ मूलण रोहणे' । मूलयति, अचि मूलम् । उणादौ " स्वरेभ्य" ( उ० ६०६) इति इ., मृलि: । मुल इति नन्दी, मोलयति । णिचोऽनित्यत्वाद् " नाम्युपान्त्य०" ५।१।५४ इति के मुलः । मूल प्रतिष्ठायाम् [११४२७], मूलति ॥
१२९ कल १३० किल १३१ पिलण क्षेपे' । कालयति गाः । अचि कालयति क्षिपति स्वेषु स्वेषु पर्यायान्तरेषु भावान् इति कालः । कलण संख्यानगत्योः [९।३४२ ], अदन्तः, सङ्कलयति । अलि कलः । कलि शब्दसंख्यानयोः [ ११८१४ ], कलते ॥
'१३० किल' । केलयति । उणादौ " स्वरेभ्यः" ( उ०६०६) इति इ., केलिः । किलत् श्चत्यक्रीडनयोः [ ५।८६ ], किलति ॥
· १३१ पिलण्' । पेलयति । अचि पेलम् । पेल्यन्ते वस्त्रादीनि अस्यामिति पाहुलकाद् अनडपवादः, “शंसिप्रत्ययात् " ५३।१०५ इति अ, भिदादित्वाद् वाङि पेला । णिचोऽनित्यत्वात् पिल्यते ॥
* १३२ पलण् रक्षणे' । पालयति । पाल इति चन्द्रः, पाली ॥
१३३ इलण प्रेरणे' । एलयति । " उपसर्गस्यानिण" ११२।१९ इति अवर्णलोपे प्रेलयति, परेलयति । D ऐलिलत् , अचि एला । इलत् गतिस्वप्नक्षेपणेषु [५।८७ ], इलति ॥
१३४ चलण भृतौ' चालयति । चल कम्पने [ ११९७२ ], चलति । कम्पने घटादित्वाद् हस्वे चलयति । चलत् विलसने [५।९२], "अवर्णादश्नो०" २।१।११५ इति शतुर्वाऽन्ताऽऽदेशे चलती चलन्ती स्त्री कुले वा ॥
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१४४ ] धातुपारायणे चुरादय: ( ९ )
अथ वान्तः ॥
' १३५ सान्त्व सामप्रयोगे । सान्त्वयति । अपोपदेशत्वाद् “णिस्तोरेवा० " २३३७ इति त्वाभावे सिसान्त्वयिषति । षोपदेशोऽयमिति एके, सिषान्त्वयिषति । साम सान्त्वप्रयोगे इति चन्द्रः, सामयति । डे उपान्त्यस्या० ४।२।३५ इति ह्रस्वे असीसमत् । सामणू सान्त्वने [ ९१३२९ ], अदन्तः, अससामत् ||
46
44
[ ३२१
ܕܪ
अथ शान्तः ॥
' १३६ धूशणू कान्तीकरणे ' । धृशयति । दन्त्यान्तोऽयमित्येके, धूसयति । जठरक्रकर० ( उ० ४०३ ) इत्यरे धूसरः । मूर्धन्याऽन्तोऽयमित्यन्ये, धूषयति ।
"
अथ षान्ताश्चत्वारः ॥
"
' १३७ श्लिषण श्लेषणे ' । श्लेषयति । श्लिष्ट दाहे | ११५३१ ], श्लेषति । षिंच आलिङ्गने [ ३।६७ ], श्लिष्यति ॥
' १३८ लूषण हिंसायाम् ' । लूपयति ॥
' १३९ रुषण रोषे ' । रोषयति । रुष हिंसायाम् [ ११५१४ ], रोषति । रुपच रोषे [ ३।७२ ] रुष्यति ॥
अथ सान्ताः षट् ||
' १४१ पसुणू नासने ' । दिवाने पंसयति । उणादौ ( उ० ७१८ ) इत्यौ पांसुः ॥
"
,
१४० प्युषण उत्सर्गे ' । प्योषयति । णिचोऽनित्यत्वात् पुप्योष । प्युषच विभागे [ ३।७३ ], प्युष्यति ॥
" पंसे दीर्घश्व
99
66
१४२ जणू रक्षणे ' । उदिवाने जंसयति । दहुणू इत्यप्येके, दंहयति ॥ ' १४३ पुंसणू अभिमर्दने ' । पुंसयति । के उत्पुंसितम् । उणादौ नञः पुंसे: " ( उ० ३२ ) इत्यके नखादित्वाद् नञोऽदभावे नपुंसकम् ॥
"
| १४४ ब्रूस १४५ पिस १४६ जस १४७ बर्हणू हिंसायाम् ' । ब्रूसयति । पेसयति । गतौ अयमित्येके, बलदाननिकेतनेष्वपीत्यन्ये । पितृ गतौ [ ११५४६ ], defa । ऋनुबन्धत्वाद् णौ डे हूस्वाभावे अपिपेसत् । एके त्वाहुः नायम् ऋदित्
૪૧
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३२२ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [पा० १४४
तथा च णिचोऽनित्यत्वात् चौरादिकेनैव पेसति इति प्रयोगसिद्धौ भ्वादौ पाठोऽस्याऽऽत्मनेपदार्थः, पेसते ॥
* १४६ जस' । “जासनाट० " २२२।१४ इति कर्मणो वा कर्मत्वे "शेषे" २।२।८१ इति षष्ठ्यां चौरस्य उजासयति ।।
अथ हान्तौ ॥ '१४७ बर्हण ' । बर्हयति । वहि प्राधान्ये [ ११८६२ ], 'वईते ॥
“१४८ णिहण स्नेहने' । “पः सो." २३९८ इति से स्नेहयति । पोपदेशत्वाद् “णिस्तोरेवा० " २।३।३७ इति पत्वे सिष्णेहयिषति । णिहीच प्रीती [३९८ ], स्निह्यति ॥
अथ क्षान्तास्त्रयः ॥ — १४९ प्रक्षण म्लेच्छने' । प्रक्षयति । अनटि प्रक्षणम् । भ्वादौ प्रक्ष रोषे इत्येके, प्रक्षति ॥
१५० भक्षण अदने' । भक्षयति । णिगि “ भक्षेहिंसायाम् " २२२१६ इति अणिकर्तुः कर्मत्वे भक्षयति गौः यवान् , भक्षयति गां यवान् मैत्रः । अत्र यवानां प्रसवप्ररोहधर्मत्वेन चेतनत्वाद् भक्षणे प्राणवियोगलक्षणा हिंसा अस्त्येव । हिंसाया अन्यत्र “गतिबोधा. " २२२१५ इति प्राप्तमपि कर्मत्वं न भवतीति "हेतुकत" २२।४४ इति कर्तरि तृतीयायां भक्षयति पिण्डी शिशुना मैत्रः, " शीलिकामि०" ५।११७३ इति अणपवादे णे मांसभक्षा स्त्री। "युवर्ण" ५।३।२८ इत्यलि भक्ष: ॥ '१५१ पक्षण परिग्रहे ' । पक्षयति । कर्मण्यणि पक्षः ।।
अथोभयपदी क्षान्तः ॥ '१५२ लक्षीण् दर्शनाङ्कनयोः' । अङ्कन चिह्नम् । ईदिच्चाद् “ ईगितः " ३३३९५ इति फलवत्कर्तर्यात्मनेपदे लक्षयते, फलवतोज्यत्र " शेषात्० " ३३१०० इति परस्मैपदे लक्षयति । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इति अने लक्षणा । " करणाधारे" ५।३।१२९ इत्यनटि लक्षणम् । उणादौ " तकश०" (उ० १८७) इत्यणे लक्षणम् । " लक्षेर्मोऽन्तश्च" (उ० ७१५) इति ई:, लक्ष्मीः । लक्षिण आलोचने [ ९।२४९ ], अर्थविशेषे चुरादिः, लक्षयते ॥
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१५९ ] धातुपारायणे चुरादय: ( ९ )
[ ३२३
' इतोऽर्थविशेषे आलक्षिणः' । इतः परम् अर्थविशेषे चुरादयो लक्षिणूपर्यन्ताः प्रस्तूयन्ते तत्राऽऽदौ आदन्तः -
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""
,
46
' १५३ ज्ञाणू मारणादिनियोजनेषु' | मारणादयो " मारण- तोषण- निशाने ज्ञश्व" ४|२|३० इति सूत्रोक्ताः तेषु नियोजने चार्थे । जानातिश्चुरादिः । मारणे मारण ० ४।२।३० इति स्वे संज्ञपयति पशुम् तोषणे विज्ञपयति गुरुम् । आज्ञपयति, आज्ञपितः । सनि इवृध० " ४|४|४७ इति वेटू, जिज्ञपयिषति; पक्षे " ज्ञप्याप० ४|१|१६ इति ज्ञीपि द्वित्वाभावे च ज्ञीप्सति । निशाने प्रज्ञपयति शस्त्रम् । नियोजने आज्ञापयति भृत्यम्, ज्ञापितः, ज्ञापितवान् ; अत्र मारणाद्यर्थाभावात् स्वाभावः । उक्तेभ्योऽर्थेभ्योऽन्यत्र न चुरादिः इति ब्रूयादित्वात् आजानाति ॥
"
श्नाः,
अथ उदन्तः ॥
"
। इसने इत्येके । व्यावयति शरान् सहते इत्यर्थः । च्यवते ।।
6
' १५४ च्यु सहने अन्यत्र च्युं गतौ [ ११५९४ ],
अथ ऊदन्तः ॥
| १५५ भ्रूणू अवकल्कने ' । अवकल्कनं मिश्रीकरणम् । भावयति दघ्नौदनम् । विकल्कने इति नन्दी; भावयेत् ब्राह्मणं तपः । अवकल्पने इत्यन्ये; भावयति साधुः समयम् । भू सत्तायाम् [ ११ ], भवति । प्राप्तौ तु भूङः ० ३।४।१९ इति वा णिङि भावयते, पक्षे ङिच्चाद् इङितः ३।३।२२ इति आत्मनेपदे भते ॥
66
"
44
97
अथ कान्तास्त्रयः ॥
' १५६ बुक्कण् भषणे ' । भाषणे इत्येके, आभाषणे इत्यन्ये । बुक्कयति श्वा चौरान् | भषणादन्यत्र बुक्क भाषणे [ १/५४ ], बुक्कति ॥
• १५७ रक १५८ लक १५९ रंग १६० लगणू आस्वादने ' । राकयति, लाकयति | आसादने इत्यन्ये, आराकयति, आलाकयति धर्मम् ॥
अथ गान्तास्त्रयः ॥
6
• १५९ रग । रागयति ॥
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३२४ ]
आचार्य श्रीमचन्द्रविरचिते
१६० लग | लागयति । अन्यत्र र शङ्कायाम् [ १।१०२३], रगति ।
,
66
घटादे: ० "
४।२।२४ इति स्वे
लगे सङ्गे [ ११०२४ ], लगति । णिगि रगयति, लगयति ॥
धा० १६०
' १६१ लिगुणू चित्रीकरणे ' । उदिवाने लिङ्गयति शब्दम् ; स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गैश्वित्रीकरोतीत्यर्थः । उल्लिङ्गयति । अचि लिङ्गम् । [ ११९० ], लिङ्गति, आलिङ्गति ॥
अन्यत्र लिगु गतौ
अथ चान्तास्त्रयः ||
4
१६२ चर्च अध्ययने ' । चर्चयति शास्त्रम् । " भीषिभूषि० " ५।३।१०९ इत्यङि चर्चा | अन्यत्र चर्चत् परिभाषणे इति केचित् ; चर्चति ॥
6
१६३ अञ्चण विशेषणे ' । विशेषणम् अतिशयः । अञ्चयति अर्थम्, व्यक्तीकरोतीत्यर्थः । अन्यत्र अञ्च गतौ च [ १८९० ], अञ्चति ॥
6
,
१६४ मुचणू प्रमोचने' | मोचयति शरान् । प्रयोजने इत्यन्ये, मोचयति कुण्डले प्रयोजयतीत्यर्थः । अन्यत्र मुचि कल्कने इत्येके, मोचते । मुच्छ्रंती मोक्षणे [ ५६ ], मुञ्चते, मुञ्चति ॥
अथ जान्तौ ॥
' १६५ अर्जणू प्रतियत्ने' । प्रतियत्नः संस्कारः । अर्जयति, हिरण्यं निवेशयतीत्यर्थः । डे आर्जिजत् । अन्यत्र तु अर्ज सर्ज अर्जने [ ११४२, १।१४३ ], अर्जति ॥
"
१६६ भजणू विश्राणने ' । विभ्राणनं विपचनम् । भाजयति, विभाजयति । अचि अलि वा भाज: । स्त्रियां " भाजगोण० ” २|४|३० इति ङ्याम् भाजी पक्वा चेद्, भाजा अन्या । अन्यत्र तु भजीं सेवायाम् [ ११८९५ ], भजते, भजति ॥
अथ दान्तास्त्रयः ॥
4
"
२७ ) इति अके चटका ।
१६७ पट १६८ स्फुटण् भेदे ' । चाटयति । अनटि उच्चाटनम् । णिचोऽनित्वात् चटति, विचरति । उणादौ " दुकनृ० ( उ० स्फोटयति, आस्फोटयाञ्चकार । अर्थान्तरे तु स्फुट्ट विसरणे [ ११२०९ ], स्फोटति स्फुटि विकसने [ १।६६९], स्फोटते । स्फुटत् विकसने [ ५।१२६ ], स्फुटति ||
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१७२ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३२५ '१६९ घटण संघाते' । घाटयति । अनटि उद्घाटनम् । उद्घाटितः कपाट: । अर्थान्तरे तु घटिषु चेष्टायाम् [ १११००० ], घटते । घटादित्वाद् इस्वे घटयति । 'हन्त्यर्थाथ; येऽन्यत्र हन्त्यर्थी हिंसाः पठ्यन्ते, तेऽप्यत्र चुरादौ वेदितव्याः' । हनंक हिंसागत्योः [२।४२ ], घातयति । हिंसु तृहप हिंसायाम् [६।२२, २३], हिंसयति, तर्हयति । तत्तद्गणपाठ-सामर्थ्यात्तु हन्ति, हिनस्ति, तृणेढि इत्यादयोऽपि । अनेनैव च सिद्धेऽन्येषां हिंसार्थानां चुरादौ पाठः आत्मनेपदादिगतरूपभेदार्थः ॥
अन्ये तु चटास्फुटौ घट च हन्त्यर्था इत्याचं पाठं मन्यन्ते; अस्यार्थः -चट इत्ययं धातुः, आपूर्वश्च स्फुट इति, घट इत्ययं च त्रयोऽप्येते हन्त्यर्था हिंसाः सन्तश्चुरादौ भवन्ति; चाटयति, आस्फोटयति, घाटयति, हन्ति इत्यर्थः । अर्थान्तरे तु न चुरादित्वम् ; चटति, आस्फुटति, घटते । अपरे त्वन्यथा व्याचक्षते; चटास्फुटौ आस्फुटत्यर्थे चुरादिः, चाटयति । घट च; अयं च आम्फुटत्यर्थे चुरादिः, घाटयति । अन्यत्र चटति, घटते ॥
अथ णान्तः ॥ १७० कणण निमीलने' । काणयति चक्षुः, अचि काणः । अर्थान्तरे तु कण शब्दे [ ११२७० ], कणति । गतौ घटादित्वाद् णिगि इस्वे कणयति ।।
अथ तान्तः ॥ १७१ यतण निकारोपस्कारयोः' । निकारः खेदनम् , यातयति अरिम् । "णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने यातना तीव्रव्यथा । उपस्कारे यातयति दरिद्रो नागरस्य धनम् । यातयति 'छिद्रं राजा, प्रच्छादयतीत्यर्थः । प्रतियातयति, प्रतिबिम्बयतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु यतैङ् प्रयत्ने [ ११७११ ], यतते । निरश्च प्रतिदाने, निरः परो यतिः प्रतिदानेऽर्थे चुरादिः, निर्यातयति, ऋणम् शोधयतीत्यर्थः ॥
अथ दान्ताः षट् ॥ '१७२ शब्दण उपसर्गाद् भाषाऽऽविष्कारयोः' । भाषो भाषणम् । भाषे आविष्कारे चार्थे शब्द इत्ययं धातुरुपसर्गात्परः चुरादिः, विशब्दयति, प्रशब्दयति । प्रतिशब्दयति, प्रतिश्रुत्कामाऽऽविष्करोतीत्यर्थः । योगविभागोऽत्र इति नन्दी । शब्द
१. च्छिद्रं इति मु० ॥
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३२६ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्र विरचिते [ धा० १७२
I
उपसर्गादित्येकः, शब्द इत्ययं घातुरुपसर्गात्परः चुरादिः प्रशब्दयति, विशब्दयति । भाषissfasarरयोः इत्यपरः, अनुपसर्गार्थीयमारम्भः । पूर्वस्तु भाषणाऽऽविष्कारार्थः; शब्दयति, विशब्दयति । अन्यस्तु शब्द शब्द क्रियायामित्यधीते; शब्दयति । 'भष refप शब्द विशेषक्रियारूपत्वादत्रैवान्तर्भावः, ततः उपसर्गादाविष्कारे इति पठित्वा प्रशन्दयति, विशन्दयति इत्याविष्कारमात्रे उदाहरन्ति ||
' १७३ षूदणू आस्रवणे ' । क्षरणे इत्येके से सुदयति । षोपदेशत्वात् " णिस्तोरेवा० ” अनटि निसूदनम् । अर्थान्तरे तु षूदि क्षरणे ५|१|५४ इति के सूदः ॥
[
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।
षः सो० " . २।३।९८ इति २/३ | ३७ इति पत्वे सुषूदयिषति । ११७३६ ], सूदते । “नाम्युपान्त्य० "
6
१७४ आङः क्रन्दणू सातत्ये ' । आङः परः क्रन्द इत्ययं धातुः सातत्येऽर्थे चुरादिः; आक्रन्दयति । अलि आक्रन्दः । अर्थान्तरे तु क्रदु रोदनाऽऽह्वानयोः [ १।३१६ ], आक्रन्दति ।
•
१७५ वदणू आस्वादने ' । संवरणे इत्यन्ये । 46 षः सो० " २३१९८ इति से स्वादयति । षोपदेशत्वाद् “नाम्यन्तस्था० ” २।३।१५ इति षत्वे असिवदत् । अर्थान्तरे तु वदि आस्वादने [ १७२९ ], मैत्राय स्वदते दधि ॥
4
१७६ आस्वदः सकर्मकात् ' । आङ्पूर्वात् स्वदतेः सकर्मकात् णिज् भवति, आस्वादयति यवागूम् । अन्ये तु ग्रसणू ग्रहणे [ ९११९६ ], पुषण धारणे [ ९।१८८], दलणू विदारणे [ ९।१८४], लोक तर्केति भाषार्थदण्डकः, पूग्णू आप्यायने [ ९।१८३ ], स्वदणू संवरणे इति क्रमेण पठित्वा व्याख्यान्ति; ग्रसिमारभ्य आस्वदः स्वदमभिवाप्य यो धातुः पठितस्तस्मात् सकर्मक क्रियावचनादेव णिज् भवति । ततोऽकर्मकेम्यो णिचो व्यावृत्तिः ॥
• १७७ मुदणू संसर्गे ' । मोदयति सक्तून् सर्पिषा । मोदयति उष्णा अप: शीताभिरद्भिः । उभयत्र संसृजतीत्यर्थः । 66 नाम्नि पुंसि च ५।३।१२१ इति के मोदकः । अर्थान्तरे तु मुदि हर्षे [ १।७२६ ], मोदते ॥
"
अथ धान्तः ॥
। प्रसहनम् अभिभवः । अप्रसहने इत्येके । अप्रसहनम् " ऋदृवर्णस्य " ४|२|३७ इति गुणापवादे ऋतो वा
' १७८ घण् प्रसहने ' अमर्षः । शर्धयति अरिम् । डे १. भाष इति मु० पा० ||
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१८४ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३२७ ऋति अशीशृधत् , अशशर्धत् । अर्थान्तरे तु धूङ् शब्दकुत्सायाम् [१९५८ ], शर्धते । शृधृग् उन्दे [ ११९१० ], शर्धते, शर्धति ॥
अथ पान्तः ॥ '१७९ कृपण अवकल्कने ' । अवकल्कनं मिश्रीकरणं सामर्थ्य च । कल्पयति । अवकल्पने इत्यन्ये, कल्पयति वृत्तिं राजा । चन्द्रस्तु भूकृषौ द्वावपि अवकल्कने चिन्तने इति व्याख्यत् ; संभावयति, अवकल्पयति । अर्थान्तरे तु कृपौङ् सामर्थ्य [११९५९ ], कल्पते ॥
अथ भान्तः ॥ १८० जमुण नाशने' । उदित्त्वाने जम्भयति । क्ये जम्म्यते । जभण् इति चन्द्रः । " जमः स्वरे" ४।४।१०० इति स्वरात्परे ने जम्भयति । अर्थान्तरे तु जभुङ् गात्रविनामे [ ११७८२] जम्भते ॥
अथ मान्तः ॥ १८१ अमण रोगे'। “ अमो कम्यमि०" ४।२।२६ इत्यत्र अमो वर्जनाद् "यमोऽपरिवेषणे०" ४।२।२९ इत्यत्र णिचो नियमार्थत्वाद् वा हस्वाभावे "रुजार्थस्या." २।२।१३ इति वा कर्मणः कर्मत्वे शेषषष्ठ्याम् आमयति चौरस्य ज्वरः । अलि आमः । उणादौ " कुगुवलि." ( उ० ३६५) इत्यये आमयो रोगः ।
"श्वन्मातरिश्चन्' ' ( उ० ९०२) इत्यनि निपातनाद् अरीन् आमयति इति अर्यमा . रविः । अर्थान्तरे तु अम गतौ [ ११३९२ ], अमति । घनि अमः ॥
अथ रान्तौ ॥ १८२ चरण असंशये' | विचारयत्यर्थान् । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने विचारणा । अन्ये तु चरण संशये इति पठन्ति । विचारणा हि संशये सति भवति इति चाहुः । अर्थान्तरे तु चर भक्षणे च [ ११४१० ], चरति ॥
— १८३ पूरण आप्यायने ' । पूरयति । अर्थान्तरे तु पूरैचि आप्यायने [३१२५], पूर्यते ॥
अथ लान्तः ॥ ' १८४ दलण विदारणे' । दालयति, दाग्यतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु दल त्रिफला विशरणे [ ११४१३-४१४ ], दलति । णिगि घटादित्वाद् हस्वे दलयतीत्येके ।।
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३२८ ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ था० १८५
अथ वान्तः ॥ '१८५ दिवण अर्दने' । देवयति शत्रून् । परिदेवयति, अतिदेवयति । अतिपूर्वादेव णिच् इत्येके । अर्थान्तरे तु दिवूच क्रीडादौ [ ३३१ ], दीव्यति ॥
.अथ शान्तः ॥ “१८६ पश १८७ पषण बन्धने ' । पाशयति पाशैः अश्वम् ।।
अथ षान्ताश्चत्वारः ॥ — १८७ पषण' । पापयति पाशैः अश्वम् । दन्त्यान्त्योऽयमित्येके । अर्थान्तरे तु पषी बाधनस्पर्शनयोः इति मूर्धन्यान्तः, तालव्यान्तो, दन्त्यान्त्यश्च आचार्यभेदेन; पशते पशति, पषते पषति, पसते पसति ।।
१८८ पुषण धारणे' । पोषयति आभरणम् , धारयतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु पुष पुष्टौ [ ११५३६ ], पोषति । पुषंच पुष्टौ [ ३।३२ ], पुष्यति । पुषश् पुष्टौ [ ८५७ ], पुष्णाति ॥
__ १८९ घुषण विशब्दने' । विशब्दनं विशिष्टशब्दकरणं नानाशब्दनं वा; घोषयति, उद्घोषयति । अविशब्दने इन्येके; अपघोषयति, पापम् अपहनुते इत्यर्थः । ऋदित्करणं चुरादिणिचोऽनित्यत्वे लिङ्गम् , तेन " ऋदिच्छ्वि० " ३४।४५ इति इति वाऽङ्गि अघुषत् ; पक्षे अघोषीत् । घोषति । 'जुघुषुः पुष्पमाणवाः' [पातअल महाभाष्य, ७।२।२३] इति विशब्दनेऽपि भवन्ति । नायम् ऋदिदिति कौशिकः । अर्थान्तरे तु घुष शब्दे [ ११४९७ ], घोषति । आङः क्रन्दे, ऋन्दः सातत्ये इत्यन्ये । आङः परो घुषिः क्रन्देऽर्थे चुरादिः भवति, आघोषयति । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने आघोषणा । अन्ये तु आङः क्रन्दः सातत्ये इति पठन्ति । आङः परात् क्रन्देः सातत्येऽर्थे णिज् भवति; आक्रन्दयति नित्यम् , अन्यत्र आक्रन्दति ॥
* १९० भूष १९१ तसुण् अलङ्कारे' । भूषयति कन्याम् , भूष अलङ्कारे [११५३७ ], भूषति ॥
अथ सान्ताः सप्त ॥ * १९१ तसुण्' । उदिचान्ने तंसयति । " 'नाम्नि०" ५।३।१३० इति करणे घे अवतंसः । तसु अलङ्कारे [ ११५३८ ], तंसति ॥
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२०० ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[३२९ १९२ जसण ताडने'। जासयति । " जासनाट० ॥ २॥२॥१४ इतिकर्मणो वा कर्मत्वे " शेषे" २२१८१ इति षष्ठ्याम् चौरस्य उजासयति । अर्थान्तरे तु जमूच मोक्षणे [३८० ], जस्यति । जसण हिंसायाम् | ९।१४६] इति पठितोऽप्यर्थभेदात् पुनरधीतः ॥
. . १९३ सण वारणे' । धारणे इति नन्दी । ग्रहणे इत्येके । वासयति मृगान् , निराकरोतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु सैच भये [ ३।२८ ], त्रस्यति, सति ॥
. . १९४ वसण स्नेहच्छेदाबहरणेषु' । स्नेहे वासयति वसा । छेदे वासयति वृक्षम् । अवहरणे वासयति अरीन् , मारयतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु वसं निवासे [ ११९९९ ], वसति । वसिक आच्छादने [ २।५९ ], वस्ते ॥
. १९५ ध्रसण उत्क्षेपे' । उन्छे इन्येके । ध्रासयति । अर्थान्तरे तु ध्रवश् उञ्छे [ ८५९], ध्रस्नाति । उकारादी इमो इत्येके, उध्रासयति, उध्रस्नाति ॥
— १९६ ग्रसण् ग्रहणे' । ग्रासयति फलम् । अर्थान्तरे तु प्रसूङ् अदने [ ११८५४ ], ग्रसते ॥
___ १९७ लसण शिल्पयोगे' । लासयति दारु, भ्रमादिना तक्ष्णोतीत्यर्थः । अर्थान्तरे तु लस श्लेषणक्रीडनयोः [११५४३], लसति । भ्वादौ पाठः शिल्पयोगेऽपि णिजभावार्थः । एवमन्यत्रापि । पान्तोऽयमित्येके', लापयति दारु । अन्यत्र लषी कान्तौ [ १।९२७ ], लषति, लष्यति । तालव्यान्त इति तु कौशिकः ॥
अथ हान्तः ॥ - १९८ अर्हः पूजायाम् ' । अयति । उ आर्जिहत । "णिवेति०" ५।३।१११ इत्यने अर्हणा । अर्थान्तरे तु अर्ह पूजायाम् [ ११५६४ ], अर्हति ॥
अथ क्षान्तः ॥ · १९९ मोक्षण असने' । मोक्षयति शरान् । “युवर्ण० " ५।३।२८ इति अलि मोक्षः । अन्यत्र मोक्षति ॥
अथ वर्णक्रमेण भासार्थाः। तत्र कान्तौ ।। '२०० लोक, २०१ तर्क, २०२ रघु, २०३ लघु, २०४ लोच, २०५ विछ, २०६ अजु, २०७ तुजु, २०८ पिजु, २०९ लजु, २१० लुजु, २११ भजु,
१. क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०, ३३०) ॥
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३३०.]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २१२
२१२ पट, २१३ पुट, २१४ लुट, २१५ घट, २१६ घटु, २१७ वृत, २१८ पुथ, २१९ नद, २२० वृध, २२१ गुप, २२२ धूप, २२३ कुप, २४ चीव, २२५ दशु, २२६ कुशु, २२७ सु, २२८ पिसु, २२९ कुसु, २३० दसु, २३१ बर्ह, २३२ घृहु, २३३ वल्ह, २३४ अहु, २३५ वहु, २३६, महुण भासार्थाः । लोकयति, विलोकयति । ऋदिचाद् “उपान्त्यस्य०" ४।२।३५ इति हम्वाभावे अलुलोकत् । अन्यत्र लोकङ् दर्शने [ ११६१२], लोकते ॥ .
२०१ तर्क' । तर्कयति । “युवर्ण० " ५।३।२८ इत्यलि तर्कः, वितर्कः । ते तर्कितः । गणान्तरेषु अपठिता अन्यत्र दण्डके पाठाद् धातव एवेति अर्थान्तरे, तर्कति ॥
अथ 'घान्तौ ॥ २०२ रघु २०३ लघु' । उदित्त्वाने रवयति, लङ्घयति । अन्यत्र रघुड़ लघु गती [ ११६३७-६३८ ], रडते, लवते ॥ . .
अथ चान्तः ॥ २०४ लोच' । लोचयति, आलोचयति । ऋदित्वाद् " उपान्त्यस्य." ४।२।३५ इति हस्वाभावे अलुलोचत् । अन्यत्र लोच दर्शने [ १६४६ ], लोचते ॥
अथ छान्तः ॥ २०५ विछ' । " स्वरेभ्यः" ११३।३० इति द्वित्वे विच्छयति । अन्यत्र विछत गती [ ५।२९ ], " अशवि ते वा " ३।४।४ इति वा ये विच्छायति, विच्छति ॥
.... अथ जान्ताः षड् उदितश्च ॥ '२०६ अजु' । अञ्जयति । अन्यत्र अौष व्यक्त्यादौ [ ६।१६ ], व्यनक्ति ॥
२०७ तुजु' । तुप्रयति । तुजु बलने च [११६२ ], तुअति ।। . “२०८ पिजु' । पिअयति । अन्यत्र विजुकि संपर्चने [ २।५२], पिङ्क्ते ।।
* २०९ लजु' । लायति । अन्यत्र लजु भर्त्सने [ १।१५५ ], लचति ॥ १. धान्तौ इति मु०॥
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२२० ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
'२१० लुजु' । लुमयति । अन्यत्र लुमति ॥ *२११ भजु । भक्षयति । अन्यत्र भोंप आमदने [ ६।१४ ], भनक्ति ॥
अथ टान्ताः पञ्च ॥ '२१२ पट'। पाटयति । अन्यत्र पट गतौ [१।१९५], पटति । पटण् ग्रन्ये [९।२९४ ], अदन्तः, पटयति ॥
'२१३ पुट' । पोटयति । अन्यत्रं पुटन संश्लेषणे [५।१२७], पुटति ॥
'२१४ लुट'। लोटयति । अन्यत्र लुटि प्रतीघाते [ ११९४१], लोटते । लुटच विलोटने [ ३।३४], लुट्यति ॥
'२१५ घट'। घाटयति । अन्यत्र घटिष चेष्टायाम् [१११०००], घटते। णिगि “घटादेः०" ४।२।२४ इति हुस्वे घटयति । घटण संघाते [९।१६९] इति पठितोऽपि सकर्मकार्थम् अर्थविशेषार्थं च पुनरिहायमधीतः ॥ _ '२१६ घटु'। उदित्त्वान्ने घण्टयति । अचि घण्टा । अन्यत्र घण्टति ॥
.. इस रुटनटौ टान्तौ लडुतडौ च डान्तौ केचिदधीयते । रुट रोटयति । अन्यत्र रुटि प्रतीपाते [११९४० ], रोटते । नट नाटयति । अन्यत्र गट नृतौ [१।१८७], नटति । भ्वादौ आत्मनेपदीति नन्दी, नटते । लड्डु, उदिचान्ने लण्डयति । अन्यत्र लण्डति । तड ताडयति, अन्यत्र तडति ॥
अथ तान्तः ॥ * २१७ वृत' । वर्तयति । अन्यत्र वृतूङ् वर्तने [ ११९५५ ], वर्तते ॥ .
अथ थान्तः ॥ २१८ पुथ' । पोथयति । अन्यत्र पुथच् हिंसायाम् [३।११ ], पुथ्यति ।।
अथ दान्तः ॥ २१९ नद' नादयति । अन्यत्र गद अव्यक्ते शब्दे [१।२९९], नदति ।।
अथ धान्तः ॥ ' २२० वृध' । वर्धयति । अन्यत्र वृधूङ् वृद्धौ [ ११९५७ ], वर्धते ॥
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३३२]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [N०२२१
% 3D
अथ पान्तात्रयः ॥ '२२१ गुप' । गोपयति । अन्यत्र गुपौ रक्षणे [ १।३३२ ], "गुपौधूप." ३।४।१ इत्याये गोपायति ॥
' २२२ धूप' । धूपयति । अन्यत्र धृप संतापे [ ११३३४ ], धूपायति ॥ — २२३ कुप' । कोपयति । अन्यत्र कुपच् क्रोघे [ ३।४८ ], कुप्यति ॥
अथ वान्तः ॥ • २२४ चीव' । चीवयति । अन्यत्र चीग् अषीवत् [ ११९२१ ]. चीवते
वीवति ॥
अथ शान्तावुदितौ च ॥ — २२५ दशु' । दंशयति । अन्यत्र दश दशने [ ११४९६ ], दशति ॥ ' २२६ कुशु' । कुंशयति । अन्यत्र कुंशात ॥
अथ सान्ताश्चत्वार उदितश्च ॥ '२२७ प्रसु' । सयति । अन्यत्र सति ॥ * २२८ पिसु' । सियति । अन्यत्र सिति ।। * २२९ कुसु' । कुंसयति । अन्यत्र कुंसति ।। - २३० दसु' । दसयति । अन्यत्र दसति ।।
अथ हान्ताः षट् वर्हवल्हौ मुक्त्वा उदितश्च ॥ * २३१ वर्ह' । वहयति । अन्यत्र वहि प्राधान्ये [ ११८६२ ], वहते ॥
* २३२ वृहु' । वृहयति । “णिवेत्ति० " ५३।१११ इत्यने वृंहणा । अन्यत्र वृहु शब्दे च [११५६० ], वृंहति ।।
— २३३ वल्ह' । वल्हयति । अन्यत्र वल्हि प्राधान्ये [ ११८६३ ], वल्हते ॥
' २३४ अहु' । अंहयति । अन्यत्र अहुङ् गतौ [ ११८५८ ], अंहते ॥ :: २३५ बहु' । वहयति ॥
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[ ३३३
२४२ ] धातुपारायणे चुरादय: ( ९ )
' २३६ महुणू ' । मंहयति । अन्यत्र बहु महुहू वृद्धौ [ १८७३-८७४ ], हते मंहते । लोकृतदयः स्वार्थे णिचमुत्पादयन्ति मासार्थाश्चेति पारायणम् । भासयति दिशः, दीपयति, इन्धयति, प्रकाशयति । गणान्तरपाठस्तु एषामात्मनेपदादिकार्यार्थः ॥
अथात्मनेपदिनः तत्रोदन्तः ||
64
नेपदे यावयते धर्म जाल्मः । युक्कू मिश्रणे [ २।२२], यौति । युजिरयमित्येके, योजयति ॥
२३७ युणि जुगुप्सायाम् । इदिखाद् " इङितः ० " ३।३।२२ इति आत्मय एच्चा० " ५।१।२८ इति ये याव्यम् । अन्यत्र युंगूस बन्धने [ ८२६] युनीते, युनाति ।
अथ ऋदन्तः ॥
। विज्ञापने इत्येके । गारयते । अन्यत्र गृत् निगरणे [ ८|३१ ] गृणाति । कृणीति चन्द्र:, कारयते । किरति ॥
4
' २३८ गुणि विज्ञाने ' [ ५/२१ ], गिरति । गुशू शब्दे अन्यत्र कृत् विक्षेपे [ ५/२० ],
अथ चान्तः ॥
6
२३९ वश्चिपू प्रलम्भने ' । प्रलम्भनं मिथ्याफलाख्यानम् । वञ्चयते । " णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने वञ्चना | अन्यत्र वञ्चू गतौ [ १ १०६ ], वञ्चति । इदवादेव णिजन्ताद् आत्मनेपदे सिद्धे " प्रलम्भे गृधिवच्चेः " ३२३३८९ इति तद्विधानं णिगन्ताद्फलवत्कर्त्रर्थमित्येके ||
अथ टान्तः ॥
4
1
२४० कुटि प्रतापने । कोटयते, उत्कोटयते । अन्यत्र कुटत् कौटिल्ये [ ५।११२ ], कुटति ॥
अथ दान्तौ ॥
6
२४१ मदणू तृप्तियोगे ' । तृप्तिशोधने इत्यन्ये' । तृप्तेः शोधनं संपत्तिः । मादयते । अन्यत्र मदे हर्षे [ ३३९३ ], माद्यति । हर्षग्लपनयोः घटादित्वाद् णिगि स्वे, मदयति ॥
4
२४२ विदिणू चेतनाख्यान निवासेषु । वेदयते सुखम् चेतयते इत्यर्थः । आवेदयते धर्मम्, आख्यातीत्यर्थः । वेदयते गृहम् निवासं करोतीत्यर्थः ।
↑
१. क्षीरस्वामी (क्षी. स. पू. २९७ ) ॥
ܕ
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३३४ ]
आचार्यश्रीमचन्द्रविरचिते [ बा० २४२
विवादेऽप्यन्ये, प्रवेदयते वादिना । अन्यत्र विदक् ज्ञाने [ २१४१], वेत्ति | विदि सत्तायाम् [ ३।११५ ], विद्यते । विश्रंती लाभे विन्दति । विदिपू विचारणे [ ६।२५ ], विन्ते ॥
[ ५८ ], विन्दतें,
अथ नान्तः ।।
6
,
२४३ मन मे । स्तम्भो गर्वः । मानयते, विमानयते वृषलः; पक्षे मनति इति चन्द्रः । अन्यत्र मनिच् ज्ञाने [ ३|१२० ], मन्यते । मनूथि बोधने [ ७१९ ], मनुते ॥
अथ लान्तौ ॥
4 २४४ बलि २४५ भलिणू आभण्डने ' ' । आभण्डनं निरूपणम् । बलि: ओष्ठयादिः, उद्वालयते । भालयते, निभालयते । अन्यत्र वलि संवरणे [ ११८०७ ], बलते । भलि परिभाषणादौ [ १।८१२ ], भलते ||
अथ वान्तः ॥
* २४६ दिविणू परिक्रूजने ' । देवयति गन्त्री । अन्यत्र दिवच् क्रीडादौ [ ३१ ] दीव्यति ॥
अथ षान्तः ॥
"
२४७ वृषिण शक्तिबन्धे' । आवर्षयते ग्रामः, शक्ति बध्नातीत्यर्थः । शक्तिबन्धः प्रजनासामर्थ्यमित्यन्ये । वर्षयते वर्षधरः । तवर्गतुर्यादिः अयं सामर्थ्य वारणार्थ इत्येके, धर्षयते अरीन् । केचिदमुमुदितं णिचोऽनित्यत्वार्थं पठन्ति, तन्मते शक्तिबन्धेऽपि णिचोऽभावाद् आत्मनेपदामाचे वर्षति । ऊदिचात् क्त्वि वेटू, वृष्ट्वा वर्षत्वा । अर्थान्तरे तु बृष्ट सेचने, वर्ष
11
.
अथ सान्तः ॥
6
66
२४८ कुत्सि अवक्षेपे ' । कुत्सयते । मीषिभूषि० ५।३।१०९ इत्यत्र बहुवचनाद् अङि कुत्सा | बाहुलकाद् " णिवेत्ति ० " ५।३।१११ इति अने कुत्सना ॥
१. णे इति मु० ॥
२. क्षीरस्वामी ( क्षी.. त. पृ. २९६ ) ।।
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२६६ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
अथ क्षान्तः ॥
4
२४९ लक्षिण आलोचने । लक्षणं लक्षयते । अन्यत्र लक्षीणू दर्शनाऽङ्कनयोः [ ९।१५२ ], लक्षयति, लक्षयते । णिचोऽनित्यत्वाद् लक्षते ॥
अथ आत्मनेपदिन एवार्थान्तरेऽपि चुरादयः ॥ अथ कान्तास्त्रयः ॥
' २५० हिष्कि २५१ किष्किणु हिंसायाम् ' । हिष्कयते । क्ते हिष्कितम् । हितम् इति तु हिकी अव्यक्ते शब्दे [ ११८८९ ] इत्यस्य ॥
[ ३३८
,
* २५१ किष्किणू ' । किष्क्रयते । उणादौ “ पृकाहृषि० इति उः, किष्कुः वितस्तिः । किष्किन्धा इति तु किमप्यन्तर्दधाति इति पृषोदरादित्वात् दधातेः ।।
' २५२ निष्क्रिण परिमाणे ' । निष्कयति । अचि निष्कः ॥
99
( उ० ७२९ )
अथ जान्तः ॥
२५३ तर्जिणू संतर्जने ' । तर्जयते । करणेऽनटि तर्जनी । यतु लक्ष्ये तर्जयति इति परस्मैपदं दृश्यते तथा भर्त्सयति, निशामयति, भालयति, कुत्सयति, वञ्चयति, निवेदयतीत्यादि; तद् भ्वादो राजग दुम्राजि इति पुनः भ्राजिग्रहणेनाssत्मनेपदस्यानित्यत्वज्ञापनात् सिद्धम् । तर्ज भर्त्सने [ १।१५६ ] तर्जति ॥
अथ ठान्तः ॥
अथ टान्तौ ॥
6
२५४ कूटि अप्रमादे' । आप्रदाने इत्यन्ये कूटयते । अलि कूट: । कूटणू दाहे [ ९२९३ ], अदन्तः कूटयति ॥
4
२५५ त्रुटि छेदने ' । त्रोटयते रज्जुम् । डान्तोऽयमित्येके, उत्त्रोडयते तृणम् | त्रुटत् छेदने [ ५।१२३ ], त्रुट्यति त्रुटति ।
। शठते । च शठः ।
46
6
२५६ शठिण श्लाघायाम् ' । णिवेत्ति० ५|३|१११ इत्यने शाठना । शट इति नन्दी । शल इति कौशिकः । शठ कैतवे च [ १।२२२ ], शठति, शठः ॥
१. दुर्ग: (क्षी. त. पृ. २९५ ) ।।
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३३६ ]
माचार्यश्रोहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २५७
अथ णान्तात्रयः ॥ '२५७ कूणिण संकोचने' । कूणयते मुखम् । के कूणितं चक्षुः । उणादौ " स्वरेभ्य० " ( उ० ६०६ ) इत्यो कूणिः ॥
' २५८ तूणिण पूरणे' । तूणयते । अलि तूणः । उणादौ "जम्बीरामीर०" ( उ० ४२२) इतीरे तूणीरः । तूलेति चन्द्रः ।। ___'२५९ भूणिण आशायाम् ' । आशङ्कायामित्येके, भ्रूणयते । अलि भ्रूणः ॥
अथ तान्तौ ॥ २६० चितिण संवेदने' । चेतयते । अशिति विषये गेलुंकि व्यञ्जनान्तत्वाद् " इडितो." ५।२।४४ इत्यने चेतनाशील: चेतनः । अप्रत्ययापवादे “णिवेत्ति" ५।३३१११ इत्यने चेतना । " रम्यादिभ्यः०" ५।३।१२६ इति कर्तरि अनटि चेतनः । चितै संज्ञाने [ ११२७८ ], चेतति ।
२६१ वस्ति २६२ गन्धिण् अर्दने' । वस्तयते । अचि वस्तः । उणादौ " स्वरेग्य. " ( उ० ६०६ ) इत्यो वस्तिः ।।
अथ धान्तः ॥ .. २६२ गन्धिण' । गन्धयते । अलि गन्धः । अनटि गन्धनम् । उणादौ " गन्धेरर चान्तः" ( उ० ५०८) इति वे गन्धर्वः ॥
अथ पान्ताश्चत्वारः ॥ ' २६३ डपि २६४ डिपि २६५ डम्पि २६६ डिम्पि २६७ डम्भि २६८ डिम्भिण संघाते' । डापयते । डेपयते । डम्पयते । डिम्पयते ॥
अथ भान्तौ ॥ '२६७ डम्भि' । डम्भयते ।। '२६८ डिम्भिण ' । डिम्भयते । अचि डिम्भः ॥
अथ मान्तास्त्रयः ॥ * २६९ स्यमिण वितर्के' । “यमोऽपरिवेषणे० " ४।२।२९ इत्यत्र ण्यधिकारेऽपि णिग्रहणं नियमार्थम् , तेन “ अमोकम्यमि०" ४।२।२६ इति हूस्वाभावे
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२७१ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३३७ स्यामयते । स्यम् शब्दे [ ११३८७ ], स्यमति । णिगि “ अमो०" ४।२।२६ इति हस्वे स्यमयति. ॥
२७० शमिण आलोचने'। शामयते, विशामयते । “णौ दान्त." ४।४।७४ इति क्ते वा निपातनात् शान्तः, पक्षे " सेटक्तयोः " ४।३।८४ इति ओर्लक, शामितः । शमूच उपशमे [ ३८७ ], शाम्यति । णिगि “शमोऽदर्शने " ४।२।२८ इति हुस्वे शमयति रोगम् ॥
२७१ 'कुस्मिण कुस्मयने ' । मतिदृष्टे बुद्धयुत्प्रेक्षितेऽर्थे इत्यन्ये । कुत्सितं स्मयनम् , कुस्मयनम् । कुस्मयते, प्रकुस्मयते, आकुस्मयते । क्ये कुस्म्यते । " धातोरनेकस्वरा०" ३।४।४६ इत्यामि कुस्मयांचक्रे । उ अचुकुस्मत । सनि चुकुस्मयिषते । कुस्मयिता, कुस्मयितव्यम् । विपि णिलुको “न सन्धि०" ७४।१११ इति स्थानित्वप्रतिषेधस्य स्कोर्लुक्यभावात् स्थानित्वे " संयोगस्यादौ०" २।१।८८ इति सस्य लुगभावे, संयोगान्तलोपे तु णिलुको “न सन्धि०" ७४।१११ इति स्थानित्वप्रतिषेधात् " पदस्य " २०११८९ इति मस्य लुकि सुकूः साधुकूः । "णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने कुस्मना । कुस्मयित्वा, प्रकुस्म्य ॥
___ कुपूर्वेण स्मिडैव कुस्मयते इति प्रयोगसिद्धेयर्थोऽयमिति चेत् , नैवम् , अनिष्टापत्तेः तथा हि, । “गतिक्वन्य० ॥ ३॥१॥४२ इति समासस्य नाम्नैव सह विधानात् तिवाद्यन्तेन सहाभावे "प्रथमोक्तं प्राक् " ३११४८ इति प्राक्त्वानियम इति स्मयतेकु इत्यपि स्यात् , उपसर्गस्य च धातोः प्राक्त्वनियमात् कुप्रस्मयते । अडागमस्य च धात्वादित्वात् कोरग्रतः पाते क्वस्मयत । क्ये “ दीर्घश्चि० " ४।३।१०८ इति दीर्घे कुस्मीयते । एकस्वरत्वाच्च परोक्षाया आमभावे कुसिमिये । अद्यतन्यां सिचि क्वस्मेष्ट । सनि “ ऋस्मि०" ४।४।४८ इतीटि “णिस्तोरेवा." २।३।३७ इति नियमात् षत्वाभावे कुसिस्मयिषते । तृचि तव्ये चानुस्वारेवादिडभावे कुस्मेता, कुस्मतव्यम् । विपि “ इस्वस्य त:" ४।४।११३ इति तेऽन्ते कुम्मित् । " स्त्रियां०" ५।३।९१ भावाकोंः क्तौ कुस्मितिः । क्त्वि कुस्मित्य-कुप्रस्मित्येत्यादीनि रूपाणि स्मिङः प्राप्नुवन्ति । अथ कथं कुस्मति इति ? कुपूर्वात् स्मयतेः "क्वचित् " ५।१।१७१ इति डे कुस्म इवाचरतीति क्विपि क्रियार्थत्वाद् धातुत्वे "शेषात्" ३।३।१०० इति परस्मैपदे भविष्यति । कुस्मनाम्नस्तु णिजबाहुलकानेष्यते ॥
१. तुलनार्थ विशेषार्थ च द्रष्टव्या क्षी. त. (पृ. २९७ ) ।
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३३८]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० २७२
अथ रान्तास्त्रयः ॥ '२७२ गूरिण उद्यमे' । गूरयते, उद्गॅरयते खड्गम् । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने गूरणा, आगूरणा । गूरैचि गतौ [ ३।१२९ ], गूर्यते ॥
' २७३ तन्त्रिण कुटुम्बधारणे' । कुटुम्ब परिवारः । उपलक्षणं चैतत् । तन्त्रयते, तन्त्रयांचक्रे । अचि अलि वा तन्त्रम् । कर्मणोऽणि स्वतन्त्रः । उणादौ " पदिपठि०" ( उ० ६०७) इत्यौ तन्त्रिः वीणास्त्रम् । “तृस्तृतन्द्रि०" ( उ० ७११) इति ईः, तन्त्रीः शुष्कस्नायुः आलस्यं च । कुटुम्ब इत्यपि धातुरिति चान्द्राः , कुटुम्बयते ॥
' २७४ मन्त्रिण गुप्तभाषणे' । मन्त्रयते । “ग्रहादिभ्यो." ५।११५३ इति णिनि मन्त्री । अलि मन्त्रः । उणादौ "पदिपठि०" (उ० ६०७) इत्यो मन्त्रिः सचिवः ॥
___ अथ लान्तः ॥ '२७५ ललिण ईप्सायाम् ' । लालयते । अचि लालः, कुत्सितो लालः कुलालः, कर्मणोऽणि कुं लालयते कुलालः । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने लालना । णिचोऽनित्यत्वाद् " इडितो." ५।२।४४ इत्यने लालनाशीला ललना । क्ते ललितः । लाला इति तु “ भिल्लाच्छमल्ल. " ( उ० ४६४ ) इति निपातनाद् ले लातेः । लड विलासे | १२२५४ ], ऋफिडादित्वाद् डस्य लत्वे ललति । णिगि जिह्वोन्मन्थने घटादित्वाद् दृस्वे ललयति श्वा जिह्वाम् । 'गलिण लावणे इत्यप्येके, गालयसे, उद्गालयते । गल अदने [ ११४५२ ], गलति ॥
अथ शान्तौ ॥ ' २७६ स्पशिण ग्रहणश्लेषणयोः' । स्पाशयते । उ " स्मृतृत्वर० " ४।१।६५ इति सन्बद्भावापवादे पूर्वस्याऽन्वे अपस्पशत् । “णौ दान्तशान्त" ४।४।७४ इति क्ते वा निपातनात् स्पष्टः, पाशितः । पपी बाधनस्पर्शनयोः [११९२६ ], अयं स्पशीत्येके; स्पशते, स्पशति । " व्यञ्जनाद् " [५।३।१३२] घजि स्पाशः ॥
१ मुद्रिते चान्द्रधातुपाठे 'तत्रि कुटुम्बधारणे' इत्येवमेकधातुरूपं सूत्रं पठ्यते, स चापपाठः । (क्षी. त. टि. पृ. २९३) । तुलना:- क्षी. त. (पृ. २९३ ) ॥
२. क्षीरस्थाभी, (क्षी. त. पृ. २९५, पृ. १२७ ) ॥
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२८० ] धातुपारायणे चुरादय: ( ९ )
[ ३३९
6
२७७ दंशिणू दशने ' । दंशयते । " णिवेत्ति ० " ५|३|१११ इत्यने दशना । अनटि दंशनम् । दशुणू भासार्थः [ ९/२२५ ], दंशयति । दश दशने [ १।४९६ ], दशति । दाशिणू दाने इत्यप्येके, दाशयते । दाशृगू दाने [ ११९२२ ], दाशते, दाशति ॥
अथ सान्तौ ||
6
२७८ दंसि दर्शने च 1 चकाराद् दशने । सयते । क्के दंसितः । । दसुण भासार्थः [ ९| २३० ], दंसयति,
पृषोदरादित्वात् टे नस्यात्वे च दासी अन्यत्र दंसति ||
' २७९ भत्सिंणू संतर्जने '
इत्यने भर्त्सना ||
1 भर्त्सयते ।
" णिवेत्ति० "
अथ क्षान्तः ॥
"
' २८० यक्षिण पूजायाम् ' । यक्षयते । अलि यक्षः । उणादौ " सात्मन् ० ( उ० ९१६ ) इति मनि यक्ष्मा रोगः ॥
आत्मनेभाषाः ||
५।३।१११
इतोदन्ताः ॥
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44
"
इत उर्ध्व युजादेः प्रागदन्तत्वं धातूनां विधीयते, ततश्च अतः ४३८२ इत्यल्लुकः स्थानित्वाद् गुणवृद्वयोः समानलोपित्वाच्च सन्वद्भावदीर्घोपान्त्यहृस्वानामभावः, यथा सुखयति, रचयति; अत्र अतः ४ | ३ |८२ इत्यल्लुकः स्वरादेशत्वेन पूर्वविधि प्रति स्थानित्वाद् गुणवृद्धद्यभावः । अररचत् असुसुखत् अत्र समानलोपित्वाद् “ असमान लोपे० " ४|१|६३ इति पूर्वस्य सन्वद्भावः, लघोर्दीर्घो ० ४। १ ६४ इति दीर्घश्च न भवति । असुसूचत्, अत्रोपान्त्य हूस्वाभावः ।
'
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66
"
अङ्कादीनां तु उक्तफलाभावेऽपि पूर्वाचार्या नुरोधेनादन्तेषु पाठ: । णिजभावे - नेकस्वरत्वाद् यडूनिवृत्यर्थ इत्येके । द्रमिलास्तु एवंप्रकाराणामच्त्वविधानसामर्थ्याद् अल्लोपाभावं मन्यन्ते, ततश्च " ञ्णिति " ४ | ३|५० इति वृद्धौ प्वागमे च दुःखापयति, लक्षापयति, वण्टापयति, रंहापयति, अर्थापयते सत्रापयते, गर्वापयते इत्युदाहरन्ति । ते हि " णिति " ४|३|५० इति वृद्धि स्वरमात्रस्येच्छन्ति ॥
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३४० ]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० २८१
. तत्र कान्तौ ॥ * २८१ अङ्कण लक्षणे' । अङ्कयति । सनि “ स्वरादे:०" ४।१।४ इति केद्वित्वे अश्चिकयिषति । अनदन्त एवायमित्येके । अकुङ् लक्षणे [ ११६१० ], अङ्कते ॥
* २८२ ब्लेष्कण् दर्शने' । ब्लेष्कयति । णिजभावेऽप्यदन्तत्वार्थोऽस्य पाठः, तेनानेकस्वराद् यङ् न भवति । एवं मृत्रि-रूक्षि-गविप्रभृतीनां पाठे प्रयोजनमुन्नेयम् ; अनदन्ता एवैते' इत्येके ॥
अथ खान्तौ ॥ २८३ सुख २८४ दुःखण तक्रियायाम् ' । सुखनं दुःखनं च तक्रिया;. सुखयति, असुसुखत् । अचि सुखम् । दुःखयति । अचि दुःखम् ॥
अथ गान्तः ॥ ' २८५ अङ्गण पदलक्षणयोः' । अङ्गयति । सनि अधिगयिषति । अस्यापि पूर्वाचार्यानुरोधेनाऽदन्तेषु पाठः ॥
। अथ घान्तः ॥ * २८६ अघण् पापकरणे' । अधयति । सनि अजिघयिषति ॥
अथ चान्तौ ॥ '२८७ रचण प्रतियत्ने' । रचयति, रचयांचकार, अररचत् । “णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने रचना ॥
'२८८ सूचण पैशून्ये ' । सूचयति । अपोपदेशत्वात् षत्वाभावे असुसूचत् । “ अट्यति० " ३।४।१० इति यङि सोमूच्यते । 'स्मिप्रभृतिभिः साहचर्याद् एकस्वराणामेव हि षोपदेशस्मृतिः अत एव सूत्र-सत्र-संग्राम-साम-समाज-स्थूल-स्तनस्तेन-स्तोम-सुखानामषोपदेशत्वात् सोसूच्यते, सिसत्रयिषते इत्यादौ न षत्वम् । णके सूचकः । अचि सूचः । गौरादित्वाद् ड्याम् सूचयति सूत्रमार्गमिति सूची । " नाम्नि पुसि च" ५।३।१२१ इति णके भीरुष्ठानादित्वात् षत्वे विचिका । उणादौ “ रुक्मग्रीष्म० " ( उ० ३४६ ) इति मे निपातनात् सूक्ष्मः । “पुत्रादयः" (उ० ४५५) इति त्रे निपातनात् सूत्रम् । " स्वरेभ्यः" (३० ६०५) इत्यो सूचिः॥
१. तुलना:-क्षीरतरङ्गिणी ( पृ. ३१४ ) ॥
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२९९ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३५१
अथ जान्ताश्चत्वारः ॥ - २८९ भाजण पृथकमणि' । भाजयति, विभाजयति, अबभाजत् । क्ते भाजितम् । क्त्वो यपि विभाज्य ॥
'२९० सभाजण प्रीतिसेवनयोः' । 'प्रीतिदर्शनयोरित्यन्ये । समाजयति । क्ये सभाज्यते । उ अससमाजत् । अनटि सभाजनम् ॥
'२९१ लज २९२ लजुण प्रकाशने' । लजयति, अललजत् ॥
- २९२ लजुण्' । उदिवाने लायति । लजुण भासार्थः [९।२१० ], लअयति । लज-लजु भर्सने [ ११५४-१५५ ], लजति, लअति ॥
अथ टान्ताः सप्त ॥ '२९३ कूटण दाहे ' । आमन्त्रणेऽपीत्येके। कूटयति डे अचुकूटत् । अचि कूटम् ॥
'२९४ पट २९५ वटण ग्रन्थे । ग्रन्थो वेष्टनम् । पटयति रज्जुम् , वेष्टयतीत्यर्थः । एवं वटयति । विभाजनेऽप्ययमित्यन्ये । उ अपपटत् , अववटत् । पट गतौ [ १११९५ ], पटति । पटण भासार्थः [ ९।२१२ ], पाटयति । वट वेष्टने [१३१७६ ], वटति । णिगि परिभाषणे घटादित्वाद् हुस्वे वटयति । वटुण विभाजने [ ९२९९ ], वण्टयति ॥
'२९६ खेटण भक्षणे' । खेटयति । उ अचिखेटत् । णके खेटकं फलकः, अलि खेटो ग्रामः । “णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने आखेटना । नायं खेटः,
खेड इति देवनन्दी, खेडयति । खिट उत्त्रासे [१११७८ ], खेटति, अचीखिटत् ।। ___ '२९७ खोटण क्षेपे' । खोटयति । डे अचुखोटत् । अलि खोटः । डान्तोऽयमिति देवनन्दी, खोडयति । दान्त इत्यन्ये, खोदयति ॥
'२९८ पुटण संसर्गे'। पुटयति । डे 'अपुपुटत् । पुटत् संश्लेषणे [५।१२७], पुटति । पुटण भासार्थः [ ९।२१३], पोटयति ॥
'२९९ वटुण विभाजने ' । उदिवाने वण्टयति । वण्टापयतीत्यप्येके । बटु विभाजने [ ११२०५], वण्टति ॥
१. प्रीतिदर्शने इति क्षीरस्वामी, (क्षी. त. पृ. ३१६) ॥ २. खेड इति दौर्गाः, (क्षी. त. पृ. ३१४)॥ ३. क्षीरस्वामी अपि, (क्षी. त. पृ. ३१४)॥ ४. अ पुटत् इति मु० ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३००
D
अथ ठान्तौ ॥ - '३०० शठ ३०१ श्वठण 'सम्यगभाषणे' । शठयति, श्वठयति । डे अशशठत् , अशश्वठत् । शठ कैतवे च [१।२२२ ], शठति । णिगि शाठयति । शठ श्वठ चठुण संस्कारगत्योः [ ९।४९, ५०, ५१ ], शाठयति, श्वाठयति, श्वण्ठयति ।
अथ डान्तः ॥ '३०२ दण्डण दण्डनिपातने ' । दण्डयति । दण्डादे म्नो णिचि दण्डयत्यादिसिद्धौ दण्डणप्रभृतीनां पाठो यथाभिधानं णिचं विनाऽपि प्रयोगार्थः । अत एवाऽदन्तत्वमप्यनेकस्वरकार्यार्थ फलवत् ॥
अथ णान्ता अष्टौ ॥ '३०३ व्रणण गात्रविचूर्णने ' । व्रणयति । उ अवव्रणत् । अचि व्रणः । प्रण शब्दे [ १।२६२ ], व्रणति । णिगि वाणयति ॥ . .
'३०४ वर्णण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु' । वर्णक्रिया वर्णनं वर्णकरणं वा । कथां वर्णयति, सुवर्ण वर्णयति । विस्तारे वर्णनेयम् । गुणवचनं स्तुतिः शुक्लायुक्तिर्वा, राजानम् उपवर्णयति । "नाम्नि पुंसि च" ५।३।१२१ इति णके वर्णकः ॥ ' '३०५ पर्णण हरितभावे' । पर्णयति । अचि पर्णम् ॥
३०६ कर्णण भेदे ' । कर्णयति, आर्णयति ।।
'३०७ तूणण संकोचने ' । वितूणयति मुखम् । डे व्यतुतूणत् । चूण तूणण संकोचने [ ९।७४, ७५ ], असमानलोपित्वाद् "उपान्त्यस्या०" ४।२।३५ इति इस्वे अतूतुणत् ॥
'३०८ गणण संख्याने' । गणयति । ( " २६ च गणः " ४११६७ इति पूर्वस्याऽन्वे ईति च अजगणत , अजीगणत् । णके गणकः । “कर्मजा तृचा च" ३।११८३ इति प्रतिषिद्धोऽपि " पत्तिस्थौ०" ३३११७९ इति षष्ठीसमासः, पत्तिगणकः, स्थगणक: । स्त्रियामापि गणयति धनागममिति गणिका । अलि गणः । "णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने गणना ॥
१. असम्यग्भाषणे इति क्षीर० (क्षी त. पृ. ३११)॥ २. 'ईश्च ग° इति मु० ॥
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३१५ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३४३ '३०९ कुण ३१० गुण ३११ केतण आमन्त्रणे, आमन्त्रणं गूढोक्तिः; कुणयति, गुणयनि । डे अचुकुण , अजुगुणत् । कुणत् शब्दोपकरणयोः [५।५२ ], कुणति । णिगि डे अचूकुणत् ॥
अथ तान्तास्त्रयः ॥ '३११ केतण' । केतयति, संकेतयति । डे अचिकेतत् , क्ते केतितः । क्त्वो यपि संकेत्य । अयं निश्रावणनिमन्त्रणयोरपीत्येके' ॥
'३१२ पतण गतौ वा ' । वाशब्दो णिजदन्तत्वयोः युगपद्विकल्पार्थः, पतयति । हु अपपतत् । "शीश्रद्धा०" ५।२।३७ इति आलौ " आमन्ता०" ४३८५ इति णेरयि पतनशीलः, पतयालुः, पक्षे पतति । " व्यअनादेः०" ४३७८ इति वा वृद्धौ अपातीत् , अपतीत् । पत्ल. गतौ [ ११९६२ ], पतति, अपप्तत् ।।
'३१३ वातण गतिसुखसेवनयोः'। सुखसेवनयोः इत्येके । वातयति, डे अक्वातत् । नायं वातः किन्तु वा इत्येके, वापयति, निर्वाप्य गतः । वांक गतिगन्धनयोः [२५], वाति ॥
अथ थान्तौ ॥ '३१४ कथण वाक्यप्रबन्धे' । वाक्यप्रतिबन्धे इत्यन्ये । प्रतिबन्धो विच्छेदोदीरणात् । वदने इत्यपरे । कथयति । D अचकथत् । णके कथकः । " भीषिभूषि० " ५।३।१०९ इत्यङि कथा । " पुनाम्नि० " ५।३।१३० इत्याधारे घे आगत्य कथ्यतेऽस्मिमिति आस्कथः, वर्चस्कादित्वात् सोऽन्तः । क्त्वो यपि " लघो:०". ४।३।८६ इति पेरयि संकथय्य । कथम् अचीकथत् ? ' भूरिदाक्षिण्यसंपन्न, यचं सान्त्वमचीकथः ' [ ] इति प्रयोगं दृष्ट्वा ये गणयतेरन्यस्यापि पूर्वस्य ईत्वमिच्छन्ति, तन्मते भविष्यति, प्रकृत्यन्तरं वाऽन्वेष्यम् ॥ ___३१५ अथण दौर्बल्ये ' । श्रथयति । ऋफिडादित्वाल्लत्वे श्लथयति । डे अशश्लथत् । श्रथण प्रतिहर्षे [ ९।८५ ], श्राथयति । अथण बन्धने च [९।३९६], "युजादेः० " ३४।१८ इति वा णिचि श्राथयति, श्रथयति । श्रथुङ शैथिल्ये [ १७१७ ]. श्रन्थते ॥
१. विश्रामणाऽऽमन्नणयोरिति क्षीर० (क्षी. त. पृ. ३१६)॥
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३४४ ]
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३१६
अथ दान्तौ ॥
"
३१६ छेद द्वैधीकरणे ' । छेदयति । ङे अविच्छेदत् । क्ते छेदितम् । यपि विच्छेद्य ॥
' ३१७ गदणू गर्जे ' । गर्जो मेघशब्दः । गदयति । ङे अजगदत् । गद व्यक्तायां वाचि [ १।२९७ ], गदति । णिगि गादयति । हे अजीगदत् ॥ अथ धान्तः ॥
' ३१८ अन्धणू दृष्ट्युपसंहारे ' । अन्धयति । सनि “ इति नस्य द्वित्वप्रतिषेधाद् घेरेव द्वित्वे अन्दिधयिषति ॥
न बदनं ० " ४|११५
अथ नान्ताश्चत्वारः ॥
4
३१९ स्तन गर्जे ' । गर्जो मेघशब्दः । स्तनयति । ङे अतस्तनत् । अपोपदेशत्वात् त्वाभावे तिस्तनयिषति । उणादौ " हृषिपुषि० " ( उ० ३९७ ) इति इत्नौ स्तनयित्नुः गदयित्नुश्च मेघः । स्तन शब्दे [१ ३२३ ], स्तनति । णिगि शब्दादन्यत्र न घटादित्वम् स्तानयति ॥
' ३२० ध्वनणू शब्दे ' । ध्वनयति । ङे अदध्वनत् । ध्वन शब्दे [ १ ३२५ ], ध्वनति । णिगि शब्दादन्यत्र घटादित्वाभावे ध्वानयति ॥
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३२१ स्तेन चौर्ये ' । स्तेनयति । ङे अपोपदेशत्वात् पत्वाभावे अतिस्तेनत् । अचि स्तेनः ॥
' ३२२ ऊनण् परिहाणे ' । ऊनयति । डे मा भवान् ऊभिनत् । अचि ः । ते नितम् ॥
अथ पान्तास्त्रयः ॥
' ३२३ कृपण दौर्बल्ये ' । कृपयति । ङे अचक्रपत् । नन्द्यादित्वादने कृपणः । स्त्री चेत् कृपणा । मृगया० ५|३|१०१ इति निपातनाद् अनापवादेऽङि कृपा |
66
"
कृपौ सामर्थ्य [१९५९], कल्पते । कृपणू अवकल्कने [ ९।१७९ ], कल्पयति ॥
4
३२४ रूपणू ' रूपक्रियायाम् ' । रूपक्रिया राजमुद्रादिरूपस्य करणम्, रूपयति । णके रूपकम् । अलि रूपम् । णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने रूपणा । रूपप्रदर्शनं वा रूपक्रिया; निरूपयति, निरूपणा ||
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१. तुलना:- क्षीरतरङ्गिणी पृ. ३२१ ॥
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३३३ ] धातुपारायणे चुरादयः (९) ... '३२५ क्षप ३२६ लाभण प्रेरणे' । क्षपयति । अचि क्षपा ॥ "
अथ भान्तः ॥ - '३२६ लाभण' । लाभयति । डे अललाभत् । अचि अलि वा लाभ: । लभण' इति सभ्याः ; लभितम् , विलभना । डुलभिष् प्राप्तौ [११७८६ ], लभते । णिगि लम्भयति ॥
- अथ मान्ताः पञ्च ॥ '३२७ भामण क्रोधे'। भामयति । डे अबभामत् । मामि क्रोधे [११७८७ ], भामते । णिगे डे अवीममंत् ॥ ... '३२८ गोमण उपलेपने' । गोमयति भूमिम् । डे अजुगोमत् । उणादौ “ गयहृदय०" ( उ० ३७०) इति निपातनादये गोमयं गोशकृत् ॥
'३२९ सामण सान्त्वने' । सान्त्वनं प्रीणनम् । सामयति, अससामत् । अपोपदेशत्वात् पत्वाभावे सिमामयिषति ॥
'३३० श्रामण आमन्त्रणे' । श्रामयति । डे अशश्रामत् ॥
'३३१. स्तोमण श्लाघायाम् ' । स्तोमयति । डे अतुस्तोमत् । अलि स्तोमः । " ज्योतिरायुाम्० " २।३।१७ इति षत्वे अनिष्टोमः ॥
अथ यान्तः ॥ . '३३२ व्ययण वित्तसमुत्सर्गे'। वित्तसमुन्सर्गस्त्यागः, गतावित्येके । व्यययति । डे अवव्ययत् । अलि व्ययः । व्ययी गतौ [ १९१८ ], व्ययते, व्ययति, अव्ययीत् । णिगि व्याययति । वित्त इति धात्वन्तरमित्येके'; वित्तयति, वित्तितः, वित्तयित्वा ॥
अथ रान्तास्त्रयोदश ॥ '३३३ सूत्रण विमोचने ' । विमोचनं मोचनाभावः, ग्रन्थनम् इति यावत् । सूत्रयति । डे असुमूत्रत् । “ अव्यति० " ३।४।१० इति यङि सोसूयते । अचि स्त्रम् । “ हेतुतच्छील०" ५।१।१०३ इत्यत्र त्रस्य वर्जनात् कर्मणोऽणि सूत्रकारः ॥
१. तुलना:-क्षी. त. पृ. ३२१, ३१७ ॥ २. क्षीरस्वामी, (क्षी. त. पृ. ३२१) । ____३. दुर्गादासः (श. क. पृ. ३८५) ॥
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३४६]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [धा० ३३४
'३३४ मूत्रण प्रसवणे'। मूत्रयति । डे अमुमूत्रत् । “ अव्यति० " ३।४।१० इति यङि मोमूत्र्यते ॥
'३३५ पार ३३६ तीरण कर्मसमाप्तौ' । पारयति, अपपारत् । अलि पारम् । “ साहिसाति" ५।१५९ इति शे पारयः । ते पारितम् । “णिवेत्ति" ५।३।१११ इत्यने पारणा ॥
'३३६ तीरण' । तीरयति । ॐ अतितीरत् । अचि अलि वा तीरम् ॥
'३३७ का ३३८ गात्रण शैथिल्ये। कत्रयति । उ अचकत्रत । क्त कत्रितः । अयं कण इत्येके, कर्बयति, कत्रितम् । चन्द्रस्तु कर्तण इति ऋदितं मन्यते, कर्तयति । कत्थण इति देवनन्दी; कत्थयति ॥
' ३३८ गात्रण' । गात्रयति । डे अजगात्रत् ।।
'३३९ चित्रण चित्रक्रियाकदाचि दृष्ट्योः' । चित्रयति, आलेख्यं करोति, कदाचित् पश्यति वा इत्यर्थः । वैचित्र्यकरणार्थोऽयं, न चित्रक्रियार्थ इत्यन्ये, तन्मते चित्रयति, वैचित्र्यं संपादयति, कदाचित् पश्यति वेत्यर्थः । ते चित्रितम् । "णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने विचित्रणा ॥
' ३४० छिद्रण भेदे ' । छिद्रयति । उ अविच्छिद्रत् । अचि छिद्रम् ।। .
'३४१ मिश्रण संपर्चने' । संपर्चनं श्लेष: । मिश्रयति । ढे अमिमिश्रत् । अचि मिश्रः ॥
'३४२ वरण ईप्सायाम् ' । वरयति कन्याम् । अववरत् । अचि वरः ॥
' ३४३ स्वरण आक्षेपे' । स्वरयति । असस्वरत् । आक्षेपादन्यत्र औस्त्र शब्दोपतापयोः [ ११२१ ], स्वरति । णिगि स्वारयति ।
' ३४४ शारण दौर्बल्ये ' । तालव्यादिः, शारयति । डे अशशारत् । शर इति नन्दी, अशशरत् ॥
३४५ कुमारण क्रीडायाम् ' । कुमारयति । डे अचुकुमारत् । अचि कुमारः; कुत्सितो मारोऽस्येति, "कमेरत उच्च" ( उ० ४०९) इत्यारे कमतेर्वा । लान्तोऽयमित्येके, कुमालयति ॥ १. दुर्गः, (क्षी. त, पृ. ३१८) ॥ २. क्षीरस्वामी, (क्षी. त. पृ. ३२०) ।
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३५४ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[३४७
अथ लान्ताः पश्च ॥ '३४६ कलण संख्यानगत्योः' । कलयति । उ अचकलत् । कलि शब्दसंख्यानयोः [११८१४ ], कलते । णिगि कालयति । कलण क्षेपे [९।३४६ ], कालयति गाः ॥
'३४७ शीलण उपधारणे' । उपधारणम् अभ्यासः परिचयो वा, शीलयति । डे अशिशीलत् । अलि शीलम् । शील समाधौ [११४२१ ], शीलति । णिगि डे 'अशीशि (शिशी) लत् ॥
'३४८ वेल ३४९ कालण उपदेशे' । वेलयति । उ अविवेलत् । अचि वेला । वेल चलने [११४४३ ], वेलति ॥ - '३४९ कालण' । कालयति । डे अचकालत् । कालोपदेश इत्यर्थनिर्देश इत्येके ।
'३५० पल्यूलण लवनपवनयोः' । पल्यूलयति क्षेत्रं सबुसधान्यं वा । के अपपल्यूलत् । पल्यूल इत्येके । वल्यूल इत्यन्ये । पप्पूल इत्यपरे ॥
अथ शान्तः ॥ ___ '३५१ अंशण समाघाते' । समाधानो विभाजनम् । अंशयति रिक्थम् । अलि अंशः । चन्द्रो दन्त्यान्तमाह, व्यसयति, मयूरव्यंसकः ॥
अथ षान्तास्त्रयः ॥ '३५२ पषण अनुपसर्गः' । पष इत्ययं धातुरनुपसर्गोऽदन्तो णिचमुत्पादयति पषयति अपपषत् । गत्यर्थोऽयमित्येके । अनुपसर्ग इति किम् ? प्रपषति । पपी बाधनस्पर्शनयोः [ ११९२६ ], पषते, पपति । पषण बन्धने [ ९।१८७ ] पापयति । तालव्यान्तोऽयमित्येके, केचित्तु इमं तालव्यान्तमधीत्य ब्याचक्षते पश इति धातुः अर्थानिर्देशात् भ्वादिश्चुरादिश्चानुपसर्गः चुरादिग्दन्तः, पशयति । अनुपसर्ग इति किम् ? प्रपशति । तालव्यान्त एव वाऽदन्त इत्यन्ये, पशयति, पाशयति ॥
'३५३ गवेषण मार्गणे' । गवेषयति । डे अजगवेषन् । अनटि गवेषणम् ॥
'३५४ मृषण क्षान्तौ' । शान्तिः तितिक्षा । मृषयति, डे अममृषत् । अनटि मृषणम् । मृषीच तितिक्षायाम् [ ३३१४१ ], मृष्यते, मृष्यति, मृषिण तितिक्षायाम् [९।४०९], “ युजादेः०" ३।४।१८ इति वा णिचि मर्षयति, मर्षति ।। १. अत्र तु समान लोपत्वाद् हूस्वो न भवति । दृश्यताम् ३३९ तमे पृष्ठे १५ तमपंक्तिततः॥ २. तुलना:-क्षो. त पृ. ३१२ ॥
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३४८ ]
अथ सान्तास्त्रयः
"
३५५ रस आस्वादनस्नेहनयोः ' । रसयति । ङे अररसत् । अलि रसः । उणादौ " खसिरसि० " ( ( उ० २६९ ) इत्यने रसना । रस शब्दे [ १।५४२ ], रसति । णिगि रासयति । घञि रासः ||
4
३५६ वास उपसेवायाम् ' । वासयति । ङे अववासत् । णके वासकः । 'णिवेत्ति ० " ५|३|१११ इत्यने वासना । वसं निवासे [ ११९९९ ] वसति । वसिक् आच्छादने [ २।५९ ] वस्ते | वस स्नेहादौ [ ९।१९४ ], वासयति । डे अवीवसत् ॥
66
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३५५
' ३५७ निवास आच्छादने ' । निवासयति । ङे अनिनिवासत् । सनि निनिवासयिषति । क्त्वि निवासयित्वा । वासणू उपसेवायाम् [ ९।३५६ ], निपूर्वस्य ङे न्यवसत् । त्वयपि निवास्य ।।
अथ हान्ताः पञ्च ॥
"
66
३५८ चहणू कल्कने ' | कल्कनं दम्भः । चयति । डे अचचहत् । ञिणम्परे णिचि चहणः शाठये " ४ | २|३१ इति वा दीर्घे अचाहि, अचहि, चाचाहम्, चहचहम् । “ युवर्ण ० " ५।३।२८ इत्यलि विहः । चह कल्कने [ १।५५३ ], चहति । णिगि चाहयति । ङे अचीचहत् ॥
44
"
महिनं राज्यम्, वास्तु
' ३५९ महणू पूजायाम् ' । महयति । ङे अममहत् । पुन्नाम्नि ० इत्याधारे घे महः उत्सवः । गौरादित्वाद् ड्याम् मही । मह पूजायाम् [ ११५६५), महति । उणादौ " महेर्णिद् वा " ( उ० २८५ ) इति इने माहिनं तदेव | श्रदक्षि० ( उ० ३७३ ) इत्याय्ये इति णेरयि महयाय्यः अश्वमेधः । " महाविभ्यां टित् " महिषः, महिषी । स्वरेभ्य० " ( उ० ६०६ ) इति इ:, महि: ( उ० ८८४ ) इति कतरि महान् ॥
66
46
19
आमन्त० ४१३३८५
( उ० ५४९ ) इतीषे । "दुहिवृहि ० "
66
ܙܙ
6
३६० रद्दणू त्यागे ' । रहयति । ङे अररहत् । अलि विरहः । रह त्यागे
[ १।५५४ ], रहति । णिगि राहयति ||
ܪ
'
३६१ रहुणु गतौ' । उदिवाने रंहयति । अदन्तत्वबलाद्
अतः
४ | ३ |८२ इति लुकं बाधित्वा अनुपान्त्यस्याप्यतो " णिति " ४|३|५० इति वृद्धौ
64
अतिरी०
४।२।२१ इति पौ हापयति । रहु गतौ [ ११५५५ ] रंहति
।।
46.
"
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३६७ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३४९
"३६२ स्पृहण ईप्सायाम् ' । " स्पृहेप्प्यं वा" २।२।२६ इति व्याप्यस्य वा संप्रदानत्वे पुष्पेभ्यः स्पृहयति । अकर्मकत्वाद् " गत्यर्था०" ५।१।११ इति कर्तरि ते पुष्पेभ्यः स्पृहितो मैत्रः, पक्षे पुष्पाणि स्पृहयति । कर्मणि क्ते पुष्पाणि स्पृहितानि मैत्रेण । अपस्पृहत् । “शीश्रद्धा०" ५।२।३७ इत्यालो " आमन्त०" ४।३।८५ इति णेरयि स्पृहाशीलः स्पृहयालुः । “भीषिभूषि०" ५।३।१०९ इत्यङि स्पृहा । उणादौ "श्रुदक्षि०" ( उ० ३७३) इति आय्ये स्पृहयाय्यं घृतम् ॥
अथ क्षान्तः ॥ '३६३ रूक्षण पारुष्ये' । रूक्षयति । डे अरूक्षत् । अचि रूक्षः । अनटि विलक्षणम् । क्त्वो यपि विरूक्ष्य ॥ अथाऽदन्तेष्वेव कुहणिमभिव्याप्याऽऽत्मनेपदिनः, तत्र गान्तः ॥
'३६४ मृगणि अन्वेषणे'। इदिचाद् " इङितः०" ३।३।२२ इति आत्मनेपदे मृगयते । “ मृगयेच्छा०" ५।३।१०१ इति शे निपातनाद् मृगया । क्ते मृगितम् ॥
अथ थान्तः ॥ . '३६५ अर्थणि उपयाचने ' । अर्थयते। पूर्वाचार्यानुरोधाददन्तेष्वस्य पाठः, एवं सत्रिगोरपि । केचित्तु अदन्तपाठवलाद् अतो [४।३।८२] लुकं बाधित्वाऽनुपान्त्यस्यापि “णिति" ४।३५० इति वृद्धौ " अतिरी." ४।२।२१ इति पौ अर्थापयते, सत्रापयते, गर्वापयते इत्याहुः । डे आतिथत । सनि अतिथयिषते । क्ते अर्थितम् । अलि अर्थः । “णिवेत्ति०" ५।३।१११ इत्यने प्रार्थना ॥
अथ दान्तः ॥ — ३६६ पदणि गतौ' । पदयते । उ अपपदत् । पदिंच गतौ [३।११४], पद्यते । णिगि उपपादयति ॥
अथ मान्तः ॥ '३६७ संग्रामणि युद्धे' । संग्रामयते शरः । असंग्रामयत । सनि अपोपदेशत्वात् पत्वाभावे सिसंग्रामयिषते । अलि " पुग्नाम्नि" ५।३।१३० इति आधारे घे वा संग्रामः । क्त्वि संग्रामयित्वा । अयं परस्मैपदीत्येक', संग्रामयति ॥ १. क्षीरस्वामी, (क्षी. त. पृ. ३२०) ।
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३५.]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३६८
अथ रान्तास्त्रयः ॥ ___ ३६८ शूर ३६९ वीरणि विक्रान्तौ' । शूरयते । डे अशुशूरत' । अचि शूरः । शूरैचि स्तम्भे [ ३।१३० ], शूर्यते । णिगि डे अशुशूरत ॥
'३६९ वीरणि' । वीरयते । उ अविवीरत' । अचि वीरः । “य एच्चा०" ५।१।२८ इति भावे ये वीर्यम् ॥
'३७० सत्रणि संदानक्रियायाम् ' । सन्तानक्रियायामित्येके । सत्रयते शत्रुन् । डे अससत्रत' । सनि अषोपदेशत्वात् पत्वाभावे सिसत्रयिषते ॥
__ अथ लान्तः ॥ '३७१ स्थूलणि परिवहणे' । परिवहणं पीनत्वम् । स्थूलयते । हे अतुस्थूलत' । सनि अपोपदेशत्वात् षत्वाभावे तुस्थूलयिषते । अचि स्थूलः ॥
अथ वान्तः ॥ '३७२ गर्वणि माने' । गर्वयते । उ अजगर्वत । अलि गर्वः । गर्व दर्षे [ ११४६२ ], गर्वति ॥
___ अथ हान्तौ ॥ '३७३ गृहणि ग्रहणे' । गृहयते । उ अजगृहत । " शीश्रद्धा० " ५।२।३० इत्यालौ गृहयालुः । क्ते गृहितम् ॥
' ३७४ कुहणि विस्मापने' । कुहयते । डे अचुकुहते । णके कुहकः । भिदाधडि कुहा नाम नदी । “णिवेत्ति० " ५।३।१११ इत्यने कुहना दम्भः । उणादौ " मिवमि० " ( उ० ५१ ) इत्युके कुहुकम् आश्चर्यम् । “पृकाहवि० " ( उ० ७२९ ) इति किद् उः, कुहुः नष्टचन्द्राऽमावास्या । "नृतिशधि०" ( उ० ८४४) इति किद् ऊः, कुहः सैव ॥ अवसिता अदन्ताः ॥
१. "त् इति मु० । अत्र आत्मनेपदी धातुः, परस्मैपदिनः रूपं तु अशुद्धम् ।। २. 'सत्त्र संतान क्रियायाम्' इति क्षीरस्मामी, (क्षी. त. पृ. ३१७) ॥ ३. कुहुकः इति मु० ॥
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३७९ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
अथ विकल्पितणिचो युजादयः ॥ '३७५ युजण संपर्चने '। "युजादेः०" ३।४।१८ इति वा णिचि योजयति, पक्षे न्याय्यविकरणः शव योजति । युजिच समाधौ [ ३३१११ ], युज्यते । युनूंपी योगे [ ६४ ]; युक्त, युनक्ति । 'इह युजादीनां नियतो णिज्विकल्पः, चुरादीनां तु यथादर्शनं णिजनित्य इत्युक्तमेव ॥
अथ ईदन्तास्त्रयः ॥ '३७६ लीण द्रवीकरणे' । “लियो नोऽन्तः" ४।२।१५ इति नेऽन्ते घृतं विलीनयति, पक्षे "नामिनो०" ४३५१ इति वृद्धौ विलाययति । " लीङ्लिनोर्वा " ४।२।९ इति आत्वमस्याऽपीत्येके, तन्मते वाऽऽत्वे " लो लः" ४।२।१६ इति वा लेऽन्ते घृतं विलालयति; पक्षे " अतिरी." ४।२।२१ इति पौ विलापयति । लीडलिनोर्चा० " ३३९० इत्यात्मनेपदमात्वं चास्यापि णिच्यपीत्येके, कस्त्वाम् उल्लापयते, आलापयते, अपलापयते । णिजमावे विलयति, लयति । लींच श्लेषणे [३।१०५ ], लीयते । लींश् श्लेषणे [ ८१९], लिनाति ॥
'३७७ मीण मतौ' । मतिर्मननम् । गतावित्यन्ये । माययति, मयति । मीड्च् हिंसायाम् [ ३३१०३], मीयते । मींग्श हिंसायाम् [८५], मीनाति, मीनीते ॥
__३७८ प्रीगण तर्पणे ' । गित्वस्य णिजमावे फलवकर्तर्यात्मनेपदार्थत्वाद् गिचि “धृगप्रीगोः" ४।२।१८ इति नेऽन्ते, "शेषात्" ३।३।१०० इति परस्मैपदे श्रीणयति । क्रथादेरेव नामच्छन्त्येके, तन्मते " नामिनो०" ४३५१ इति वृद्धौ प्राययति', पक्षे प्रयते, प्रयति । प्रींच प्रीती [ ३३११० ], प्रीयते । श्रींगश दृप्तिकान्त्योः [ ८३ ], प्रीणीते, प्रीणाति ॥
अथ ऊदन्तः ॥ '३७९ धृगण कम्पने' । “धूगग्रीगोः०" ४।२।१८ इति ने धृनयति । नं नेच्छन्त्येके धावयति', पक्षे गित्वात् फलवत्कर्तरि आत्मनेपदम् । अन्यत्र तु " शेषात्" ३३।१०० इति परस्मैपदम् , धवते, धवति । धूगट् कम्पने [४६], धूनुते, धुनोति । धृत् विधूनने [५।११६ ], धुवति । धूग्श् कम्पने [ ८1१३ ], धुनीते, धुनाति ॥ १. तुलना:-क्षो. त. पृ. ३०५, ३०८ ॥ २. क्षीरस्वामी, (क्षो. त. पृ. ३०७) ॥
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३५२ ]
आचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते [ बा० ३८०
अथ ऋदन्तः ॥
"
,
३८० वृगूणू आवरणे ' । वारयति, पक्षे गिच्चात् उभयपदे वरते, वरति । वृट् वरणे [ ४1९] वृणुते, वृणोति । वृङ्शू संभक्तौ [ ८/६० ], वृणीते ॥
अथ ऋदन्तः ॥
4
66
३८१ जणू वयोहानौ' । जारयति । णिवेत्ति० ५।३।१११ इत्यने जाणा । पक्षे जरति । ज्रीति नन्दी, ज्राययति, ज्रयति । जंबूचू जर सि [ ३२ ], जीर्यते । जृशू वयोहानौ [ ८|२९ ], जृणाति ॥
अथ कान्तौ ॥
6
"
३८२ ची ३८३ शीकणू आमर्षणे । चीकयति, चीकति ॥
"
,
' ३८३ शीकिः तालव्यादिः । शीकयति, शीकति । डे अशीशिकत् । शी सेचने [ १६११], शीकते । णिगि डे ऋदिवाद् हस्वाभावे अशिशीकत् ॥
अथ गान्तः ॥
' ३८४ मार्गण अन्वेषणे ' । मार्गपति, मार्गति । अमार्गीत् ॥
अथ चान्ताश्चत्वारः ॥
6
,
३८५ पृच संपर्चने ' । संपर्वयति, संपर्चति । यङि परपृच्यते ।
पृचैकू संपर्चने [ २।५० ], संपृक्ते । पृचैप् संपर्के [ ६।१० ], संपृणक्ति ॥
' ३८६ स्विणू वियोजने च ' । चकारात् संपर्चने । रेचयति, रेवति । रिचंपी विरेचने [ ६२ ], रिक्ते, रिणति ॥
"
३८७ वचणू भाषणे' । संदेशने इत्येके । वाचयति वचति । ४|१।७२ इत्यत्र यौजादिकस्याऽग्रहणाद् वृदभावे क्ये वच्यते । डे वचं भाषणे [ २।३८ ], वक्ति । क्ये उच्यते ॥
"यजादि ० " अवीवचत् ।
4
३८८ अर्चिणू पूजायाम् ' । अर्चयति, पक्षे इदिच्चादात्मनेपदे शवि अर्चते । अर्च पूजायाम् [ १।१०४ ], अर्चति ॥
१. ऋदन्त इति मु० ॥ २ तुलना - चन्द्रः संदेशे चुरादिमाह (क्षो त, पृ. ३१० ) ॥
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३९५ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
___ अथ जान्तौ ॥ '३८९ वृजेण् वर्जने' । वर्जयति, वर्जति । ऐदित्वात् क्तयोनेंट् , अपवृक्तः, अपवृक्तवान् । घनि वर्गः । वृजैकि वर्जने [२१५३], वृक्ते ॥
'३९० मृजौण शौचालङ्कारयोः' । “ मृजोऽस्य० " ४।३।४२ इति वृद्धौ मार्जयति । "णिवेत्ति०" ५।३।१११. इत्यने मार्जना । क्ते " सेट्क्तयोः" ४।३।८४ इति टुंकि मार्जिता रसाला, मर्जितेति रूढः, पक्षे मार्जति । औदिचाद् वेट मार्जिता, माझं । वेट्त्वात् क्तयोर्नेट्, मृष्टः, मृष्टवान् । मृजौक् शुद्धौ [ २१३९ ], माष्टिं ॥
। अथ ठान्तः ॥ '३९१ कठुण् शोके ' । उदिवाने कण्ठयति, उत्कण्ठति । कटुङ् शोके .. [११६७८ ], कण्ठते, उत्कण्ठते ॥
अथ थान्ताश्चत्वारः ॥ ___३९२ श्रन्थ ३९३ ग्रन्थण् सन्दर्भे ' । सन्दर्भो बन्धनम् । श्रन्थयति, श्रन्थति । ग्रन्थयति, ग्रन्थति । श्रथुङ् शैथिल्ये [ ११७१७]. श्रन्थते। ग्रथुङ् कौटिल्ये [ १७१८ ], ग्रन्थते । श्रन्था मोचनप्रतिहर्षयोः [८१३९ ], अथ्नाति । ग्रंथश सन्दर्भ [ ८१४१], प्रथ्नाति ॥
'३९४ क्रथ ३९५ अर्दिण् हिंसायाम् ' । क्राथयति, चौरस्य उत्क्राथयति । ऋथति । ऋथ हिंसाः [१।१०४५], णिगि घटादित्वाद् एस्वे चौरम् उत्कथयति ।।
अथ लाघवार्थं थान्तमध्ये एव अर्थानुगुण्येन दान्तः ॥
' ३९५ अर्दिण' । इदिचाद् अस्य णिजभावे आत्मनेपदे न सार्थकत्वाद् णिचि "शेषात्० " ३।३।१०० इति परस्मैपदे अर्दयति । अर्दते। परस्मैपद्ययम् इत्येके, अर्दति । अर्द गतियाचनयो: [१।३०१], अर्दति ।
૪૫
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=
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [पा० ३९६-. ' ३९६ अथण बन्धने च' । चकाराद् हिंसायाम् । मोक्षणे इत्येके । श्राथयति, श्रथति । अयं श्रन्थप हिंसार्थः इत्यन्ये, श्रन्थयति, श्रन्थति ॥
अथ दान्ताश्चत्वारः ॥ '३९७ पदिण भाषणे'। सन्देशने इत्यन्ये । वादयति, संवादयति । पक्षे इदिवादात्मनेपदे वदते । क्ये वद्यते । वद व्यक्तायां वाचि [ ११९९८ ], पदति । यजादित्वाद् य्वृति उद्यते ॥
- '३९८ छदम् अपवारणे' । छादयति, छदति । छदणू संवरणे [९।८८ ], . ऊर्जने घटादित्वाद् इस्वे छदयति ॥
__'३९९ आङः सदण गतौ' । आङः परः सद इत्ययं धातुः गतावर्थे युजादिः, आसादयति, आसीदति । आसदति इत्येके । अनुस्वारेचाटू इत्यन्ये, आसत्ता, आसात्सीत् । आङोऽन्यत्र सीदति, गतेरन्यत्र सीदति । पलं विशरणादौ [ ११९६६ ], असदत् ॥
- ४०० मृद सन्दीपने' । छर्दयति, छर्दति । "कृतवृत०" ४।४।५० इत्यत्र तदसाहचर्येण रुधादेरेव ग्रहणात् सादाविविकल्पाभावे छर्दिष्यति । ऐदिदयमित्येके । "डीयश्वि०" ४।४।६१ इति तयोर्नेट् कृष्णः, कृष्णवान् । ऊपी दीप्तिदेवनयोः [६८ ], कृन्ते, छृणत्ति ॥
अथ धान्तः ॥ '४०१ शुन्धिण शुद्धौ' । शुन्धयति, शुन्धते । अनिदिदित्येके, शुन्धति । ते शुन्धितम् । शुधंच शौचे [३।४० ], शुध्यति ॥
अथ नान्तौ ॥ : ४०२ तनूर्ण श्रद्धाघाते ' । श्रद्धोपकरणयोः इत्यन्ये । तानयति, तनति । क्त्वि अदित्वाद् वेट् , तान्त्वा, तनित्वा । वेट्न्वात् क्तयोर्नेट , नितान्तः, नितान्तवान् । " तन्व्यधि०" ५।११६४ इति णे तानः श्रद्धाहीनो जनः । तयि विस्तारे
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४०९] धातुपारायणे चुरादयः (९)
[ ३५५
[१], तनुते, तनोति । ते ततः । “उपसर्गाद् दैर्ये" उपसर्गपूर्वः तनू दैर्येऽर्थे युजादिः, आतानयति, वितानयति, प्रतानयति; आतनति, वितनति, प्रतनति । अन्यत्र तनोति । वन श्रद्धोपहिंसनयोः इति चान्द्रं पारायणम् ॥
४०३ मानण पूजायाम् । मानयति, मानति । अयं मन इत्येके, मानयति, मनति । मानि पूजायाम् [ १७४९ ], मीमांसते ॥
अथ पान्तास्त्रयः ॥ '४०४ तपिण दाहे' । तापयति, पक्षे इदिचाद् आत्मनेपदे तपते । तपं सन्तापे [ ११३३३], तपति । तपिंच अश्चर्य वा [ ३३१२४ ], तप्यते ॥ . ४०५ तृपण प्रीणने '। सन्दीपने इत्येके । तर्पयति, तर्पति । ते तृपितम् । अयं चूतण दपण सन्दीपने इत्येके, चर्तयति, चैतति; दर्पयति, दर्पति । दृपौच हर्षमोहनयोः [ ३।४७ ], दृप्यति । तृपौच प्रीती [ ३।४६ ], तृप्यति । तुपट प्रीणने [४।२३], हप्नोति ॥
'४०६ आप्लणू लम्भने ' । लम्भनं प्राप्तिः । आपयति, आपति । लदिचादडि आपत् । क्ते आपितम् । “ वाऽऽमोः" ४।३।८७ इति यपि णेर्वाय अस्यापीत्येके, प्रापय्य प्राप्य वा गतः । आप्लँट व्याप्ती [ ४।२२ ], आमोति ॥
अथ भान्तः ॥ ४०७ दृभैण भये' । दर्भयति, दर्भति । ऐदिचात् क्तयोनेंट, दृन्धः, दृब्धवान् । दृभैत् ग्रन्थे [ ५७५ ], दृभति ।।
अथ रान्तः ॥ '४०८ ईरण क्षेपे' । गतावित्येके । क्षेपः प्रेरणम् । ईरयति, ईरति । ईरिक गतिकम्पनयोः [२।५७ ], ईर्ते ॥
अथ षान्ताश्चत्वारः ॥ '४०९ मृषिण तितिक्षायाम् ' । मर्षयति, पक्षे इदिचादात्मनेपदे मर्षते । मृध सहने च [ ११५२८ ], मर्षति । मृषीच तितिक्षायाम् [३।१४१ ], मृष्यते, मृष्यति । मृषण क्षान्तौ [ ९।३५४ ], अदन्तः, मृष्यति । णिचोऽनित्यत्वाद
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ था० ४०९मृषति, अदन्तत्वाद् न गुणः। अर्चि-अदि-शुन्धि-तपि-वदि-मृषयः षडपि परस्मैपदिन इति भीमसेनीयाः ॥
४१० शिषण असर्वोपयोगे'। असर्वोपयोगः अनुपयुक्तत्वम् , शेषयति, शेषति । शिष्लँप् विशेषणे [ ६।२० ], शिनष्टि । विपूर्वोऽतिशये, अतिशय उत्कर्षः, विपूर्वः शिषिः अतिशये युजादिः, विशेषयति, विशेषति । क्ये 'विशेष्यते । सिचि व्यशेषीत् । शिष्लुप् विशेषणे [ ६२० ], विशिनष्टि, व्यशिषत् ॥ .
' ४११ जुषण परितर्कणे' । परितर्पण इत्येके । जोषयति, जोषति । जुषैति प्रीतिसेवनयोः [ ५।१५८ ], जुषते ॥
* ४१२ धृषण प्रसहने' । प्रसहनम् अभिभवः । वर्षयति, धर्षति । "ऋदुपान्त्याद्०" ५।१४१ इति क्यपि प्रधृष्यम् । आदिदयमित्येके, तन्मते " नवा भावाऽऽरम्भे" ४।४।७२ इति क्तयोर्वा नेट्, प्रधृष्टमनेन । " न डी० " ४।३।२७ इति कित्त्वाभावे प्रधर्षितमनेन, प्रधृष्टः, प्रधृष्टवान् , प्रधर्षितः, प्रधर्षितवान् । निषाट प्रागल्भ्ये [ ४।२७], धृष्णोति ॥
। अथ सान्तः ॥ ' ४१३ हिसुण हिंसायाम् '। उदिचाने हिंसयति, हिंसति । हिसुपु हिंसायाम् [६।२२ ], हिनस्ति ॥
अथ हान्तौ ॥ '४१४ गर्हण विनिन्दने' । गर्हयति, गर्हति । गर्हि कुत्सने [ ११८६० ],
गहते ॥
' ४१५ षहण मर्षणे' । “पः मो०” २।३।९८ इति सत्वे साहयति । 'सहति कलभेभ्यः परिभवम् ' ( सुभाषित० ६३१)। पहि मर्षणे [१।९९०),
सहते ॥
१. विशि इति मु. पा० ॥
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४१५ ] धातुपारायणे चुरादयः (९)
बहुलमेत निदर्शनम् , यदेतद् भवत्यादिधातुपरिगणनं तदाहुल्येन निदर्शनत्वेन ज्ञेयम् । तेनाऽत्रापठिता अपि क्लविप्रभृतयो लौकिकाः, स्तम्भूप्रभृतयः सौत्राः, चुलुम्पादयश्च वाक्यकरणीया धातव उदाहार्याः । वर्धते हि धातुगणः, यल्लक्ष्यम् ॥
मिलन्त्याशासु जोमूता, विक्लवन्ते दिवि ग्रहाः । उपक्षपयति प्रावृट्, क्षीयन्ते कामिविग्रहाः ॥
इत्यादि । मुसलक्षेपहुङ्कार स्तोभैः कलमखण्डिनि । कुचविष्कम्भमुत्तभ्ननिस्कुभ्नातीव ते स्मरः ।। 'नीपानन्दोलयन्नेष, प्रेड्डोलयति मे मनः । पवनो विजयन्नाशा, ममाशामुच्चुलुम्पति ॥ तावत् खरः प्रखरमुल्ललयांचकार ॥
(शिशुपाल० ५७) यद्वा भूवादिगणाष्टकोक्ताः स्वार्थणिजन्ता अपि बहुलं भवन्ति । चुरादिपाठस्तु निदर्शनार्थः, यदाहुः -
निवृत्तप्रेषणाद्धातोः, प्राकृतेथें णिजिष्यते ॥ 'लक्ष्यम् :
___ 'रामो राज्यमकारयन्' [ रामा० यु० १२८।१०५] । अकरोदित्यर्थः । रजयति वस्त्रम्. रजति इत्यर्थः । मेदयति कृत्यान् , भिनत्ति इत्यर्थः । तापयति, वाचयति, वाहयति, घातयति; तपति, वक्ति, वहति, हन्तीत्यर्थः । यद्वा प्रयोज्यव्यापारेऽपि प्रयोक्लव्यापाराऽनुप्रवेशो णिगं विनाऽपि बुद्धयाऽऽरोपाद् बहुलं भवति ॥
' जजान गर्भ मघवा' । इन्द्रः अजीजनत् इत्यर्थः । 'एकं द्वादशधा जज्ञे'। जनितम् इत्यर्थः । षभिहलैः कृषति, कर्षयतीत्यर्थः ॥
१. नयनान्दों' इति क्षी. त. पृ. ३२२ ॥ २. विशेषार्थिना द्र० बृहवृत्ति: ३३८८ ॥ ३. जजान गर्भमहिमानमिन्द्रः (अथर्व० ३।१०।१२) इति क्षीरतरङ्गिण्याम् [पृ. ३२२]॥
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३५८]
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४१५वान्ति पर्णशुषो वाता, वान्ति पर्णमुचोऽपरे । वान्ति पर्णरुहोऽप्यन्ये, ततो देवः प्रवर्षति ।
॥ इति ॥ अथवा नाम्नो “णिज बहुलम्" ३४४२ इत्येव सिद्धेः तत्र सूत्रच्छिद्रान्धदण्डादयः उदाहरणार्थाः, तेनाऽदन्तेषु अनुक्ता अपि बहुलं द्रष्टव्याः। तेन स्कन्ध समाहारे, ऊष छुरणे, स्फुट प्रकटभावे, वसं निवासे इत्यादयोऽपि भवन्ति । तथा ओजयति ओजः ॥ 'तडित्खचयतीवाशाः' । पांसुर्दिशां मुखमतुत्थयदुत्थितोद्रेः।
[शिशुपालवध, ५२] इति ॥
इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे :- स्वार्थे णिजन्तो णिच्चुरादिगणः संपूर्णः ॥
समर्थितं चेदं धातुपारायणमिति ॥
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१. वान्ति पर्णशुषो वातास्तत: पर्णमुचोऽपरे। ततः पर्णरुहः पश्चात् ततो देवः प्रवर्धते ॥ उणादिविवरण, २० ॥
२. पांशु० इति क्षी. त. पृ. ३२३ ॥
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प्रथमं परिशिष्टम्
-- -
'कण्ड्वादिधातवः ॥ १ कन्ड्ग गात्रविनामे कण्डूयति । २ महीङ् वृद्धचर्चयोः महीयते । ३ हणीङ् रोषे हृणीयते । ४ मन्तु रोषे वैमनस्ये च मन्तूयति । ५ असु मानसोपतापे अस्यति । वल्गु माधुर्यपूजयोः वल्गूयति । ७-८-९-१० वेङ् लाङ् वेट लाट धौत्ये अस्वप्ने पूर्वभावे च वेयते, लायते, वेट्यति, लाव्यति। ११ लिट् अल्पार्थकुत्सयोः लिव्यति । १२ लोट् दीप्तौ लोयति । १३-१४ इरज इरस इर्ष्यायाम् इरपति इरस्यति। १५ भिष्णज उपसेवायाम् मिष्णज्यति । १६ भिषज् चिकित्सायाम भिषज्यति । १७ उरस ऐश्वर्ये उरस्यति । १८ नन्द समृद्धौ नन्द्यति । १९ कुषुम क्षेपे कुषुभ्यति । २० संभूयस प्रभूतार्थे संभूयस्यति । २१-२२ इयस इसस ईर्ष्यायाम् इयस्यति, इसस्यति । २३ पुष्प सन्तोषे पुष्पति । २४ उपस प्रभातार्थे उपस्यति । २५ रेषा चित्र रेषायति । २६ पयस् प्रसवे पयस्यति । २७ वेला समयार्थे बेलायति । २८ चरण गतौ चरण्यति । २९ अगद औषधे अगवति । ३०-३१ तिरस तरण प्रसिद्धौ तिरस्यति, तरण्यति । ३२ दुवस परितापपरिचरणयोः टुवस्यति । ३३ कुसुम क्षेपे कुसुभ्यति । ३४-३५-३६ एला केला खेला विलासार्थे एलायति केलायति खेलायति । ३७ मेधा आशुग्रहणे मेधायति । ३८ मगध परिवेष्टने मगध्यति । ३९ समर युद्धे समयति । ४० सुख सुखीभवने सुख्यति । ४१ दुःख दुखीभवने दुःख्यति । ४२-४३ भुरण पुरण गतौ भुरण्यति पुरण्यति । ४४ भरण धारण-पोषण-युद्धेषु भरण्यति । ४५ चुरण चौर्यचेतनयोः चुरण्यति । ४६ इषध शरधारणे इषध्यति । ४७-४८ तन्तस पम्पस दुःखार्थो तन्तस्यति, पम्पस्यति । ४९ गद्गद वाक्यस्खलने गद्गद्यते । ५० तुरण स्वरायाम् तुरण्यति । ५१ सपर पूजायाम् सपर्यति ॥ १. इह धातुपारायणे ये कण्ड्वादिधातवः न संगृहिताः ते ग्रन्थातरेभ्य उदृत्य अत्र प्रदर्श्यन्ते॥
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[ ३६०
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते [ धा० ३५४
द्वितीयं परिशिष्टम्
'सौत्रा धातवः ॥
१ स्तम्भू स्तम्भे' । स्तभ्नाति स्तम्नोति । ( " स्तम्भू० ३।४।७८ सूत्रे दर्शितः ) ||
"
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"
'२ तन्द्रा आलस्ये' । तन्द्राति । ( " शीश्रद्धा ० " ५।२।३७ सूत्रे दर्शितः ) ||
३
fa ज्ञाने' । कयति । ( " जनिपणि० " उ० १४० सूत्रे दर्शितः) ॥ ' ४ पति पतने' । पतयति । ( " शीश्रद्धा ० " ५।२।३७ सूत्रे दर्शितः) | '५ गृही ग्रहणे' । गृहयति । ( " शीश्रद्धा ० "५|२| ३७ सूत्रे दर्शितः ) ॥ '६ चिरि हिंसायाम् ' । चिरिणोति । ( “चिरेरिटो भू च " सूत्रे दर्शितः) ॥
उ० १४९
'७ जुं वेगे' | जवति । ( " जनिपणि० " उ० १४० सूत्रे दर्शितः) ॥ गतौ' । क्रवते ॥
' ८ क्रुडू
'९ भू प्राप्तौ ' । भावयते भवते । ( " भूङः प्राप्तौ णिङ् " ३।४।१९ सूत्रे दर्शितः) ॥
'१० तर्क विचारे ' । तर्कति ॥
' ११ कक्क १२ कर्क हासे । कर्केति । ( "कर्केशरुः " उ० ८१३ सूत्रे दर्शित: ) । ' १३ सिक सेवने ' | कति || ("पृषिरअिसिकि० " उ० २०८ सूत्रे दर्शितः) ।।
' १४ मर्क संप्रच्छने ' । मर्कति । ( " दिव्य विश्र० " ० १४२ सूत्रे दर्शितः) ॥ ' १५ चक्कि भ्रमणे ' । चङ्कते । ( " वाश्यसि० " उ० ४२३ सूत्रे दर्शितः) ॥ ' १६ मकि गतौ ' । मकते । ( " ककिमकि० " उ० २४५ सूत्र दर्शितः ) ॥
1
' १७ रिखि लिखेस्तुल्यार्थे ' । रेखति ॥
' १८ कगे मिथःसंप्रहारे' । कगति । ( ' कगेवनू०" ४।२।२५ सूत्रे दर्शितः) ।। १९ अर्ध मूल्ये ' । अर्धति |
' २० मर्च शब्दे' | मर्चयति ( " मी - शलि० " उ० २१ सूत्रे दर्शितः) ॥
१. इद धातुपारायणे ये सौत्रा धातवः न संद्गृहिता: ते ग्रन्थान्तरेभ्य उद्धृत्य अत्र प्रदश्यते ॥
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४२ ] धातुपारायणे द्वितीयं परिशिष्टम्
'२१ मा सौन्दर्य च'। चकारात् शब्दे, मअति । ("ऋच्छिचटि०" उ० ३९७ सूत्रे दर्शितः) ॥
'२२ पञ्ज रोधे' । पचति । ("ऋच्छिचटि०" उ० ३९७ सूत्रे दर्शितः) । '२३ का शब्दे' । काति । ("अग्यङि०" उ० ४०५ सूत्रे दर्शितः) । '२४ रण्ट प्राणहरणे' । रण्टति । ("कोरुरुण्टिरण्टिभ्यः" 3०२८ सूत्रे दर्शितः)॥ '२५ घटु शब्दे'। घण्टति ॥ '२६ मट हासे' । मटति । ("कृपकटि." उ० ५८९ स्ने दर्शितः) ॥ ' २७ कुठ छेदने' । कोठति । ("तुषिकुठिम्यां कित्” उ० ४०७ सूत्रे दर्शितः) । '२८ क्रुड शब्द' । क्रोडति ॥ '२९ उड संघाते' । ओडति । ("उडेरुपक्” उ० ३११ सूत्रे दर्शितः) । '३० वड आग्रहणे' । वडति ("कृश०" उ० ३२९ सूत्रे दर्शितः) ॥ '३१ णडण् भ्रंशे' । नडति । (“नडेणित्" उ० ७१२ सूत्रे दर्शित:) ॥ '३२ किणत् शब्दगत्योः' । किणति । ("निघृषी." उ०५११ सूत्रे दर्शितः) । '३३ कुत गुम्फप्रीत्योः' । कोतति । ("भुजिकृति०" उ० ३०५ सूत्रे दर्शितः)॥ '३४ पुत गतौ । पोतति । ("कुतिपुति०" उ० ७६ सूत्रे दर्शितः) ॥ '३५ लत आदाने' । लतति । ("कुतिपुतिः” उ० ७६ सूत्रे दर्शितः) ।। '३६ सात सुखे' । सातति । ("साहिसाति०" ५।११५९ सूत्रे दर्शितः) । '३७ कथ वाक्यप्रबन्धे' ॥ '३८ उद आघाते' । ओदति । ("कुटिकलि०" उ०१२३ सूत्रे दर्शितः)॥ "३९ क्षद हिंसासंवरणयोः ' । क्षदति । (“हुयामा०" उ० ४५१ सूत्रे दर्शितः)॥
'४० सुन्द हिंसासौन्दर्ययोः' । सुन्दति । ("ऋच्छिचटि०” उ० ३९७ ने दर्शितः) ॥
'४१ कदि वैक्लव्यछेदनयोः'। कदते । ( "कदेणिद् वा” उ० ३२२ सूत्रे दर्शितः) ॥ -- ४२ मिश्रृग् मेघाहिंसासंगमेषु' । मेधति, मेधते ॥
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आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते [ धा० ४३ - '४३ धनरु धान्ये । दधन्ति । ("भृमृ" उ० ७१६ सूत्रे दर्शितः) ॥
'४४ रिप कुत्सायाम् ' । रेपति ॥ , '४५ कप कम्पने' । कम्पति । ( "कटिपटि०” उ० ४९३ सूत्रे दर्शितः) ॥
'४६ क्षुप हासे' । क्षोपति ॥ '४७ टुप संरम्भे' । टोपति ॥ '४८ बिम्ब दीप्तौ' । विम्बति ॥
४९ रिभि ५० स्तुम्भू ५१ स्कम्भू स्तम्भे । विरेभते, स्तुम्नाति, स्तुम्नोति, विष्कम्नाति, विस्कम्नोति ॥
'५२ स्कुम्भू विसारणे च' । विष्कम्नाति, विस्कम्नोति । ( "स्तम्भू०" ३२४७८ सूत्रे दर्शित:) ॥
"५३ दम वञ्चने । दभति ॥ '५४ डिम हिंसायाम् ' । डेमति । ("डिमेः कित्" उ० ३५६ सूत्रे दर्शितः)॥ '५५ धम शब्दे' । धमति । ("सदिवृति०" उ० ६८० सूत्रे दर्शितः) । '५६ पीय पाने' । पीयति । ("खलिफलि." उ० ५६० सूत्र दर्शितः) ।। '५७ उर गतौ'। ओरति । (" उरेरशक्" उ० ५३१ सूत्रे दर्शित:) ।। • ५८ तुर त्वरणे' । तोरति ॥ '५९ तन्द्रि सादमोहयोः । तन्द्रते । ( "तृस्तृ०" उ० ७११ सूत्रे दर्शितः) । '६० चुल परिवेष्टने' ॥ '६१ उल दाहे' । ( "उले." उ० ८२८ मत्रे दर्शितः) । '६२' लुल कम्पने '। लुल्यते । ( "कुलिलुलि०" उ० ३७२ सूत्रे दर्शितः) ।। “६३ सल्ल गतौ' । ("दृक." उ० २७ मने दर्शितः) ।
'६४ हल्ल घूर्णने' ॥ '..'६५ भिलण भेदे'। भेलयति । (“विलिभिलि०” उ० ३४० सूत्रे दर्शितः ॥
'६६ धन्व ६७ तव गतौ' । धन्वति । तवति । ( "उक्षितक्षि०" उ० ९०० छत्रे " तवे " उ० ५५० सूत्रे च दर्शितौ) ॥
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६८ ] धातुपारायणे द्वितीयं परिशिष्टम्
'६८ पशी ६९ स्पशी बाधनग्रथनयोश्च' । “स्मृदृ०" ४।१।६५ सूत्रे दर्शितः) । '७० ऋशत् गतिस्तुत्योः' । ऋशति । ("ऋशिजनि०" उ०३६१ सूत्रे दर्शितः)॥ '७१ मिष भये' । भेषति । ("मिषेः०” उ० १३१ सूत्र दर्शितः) । '७२ युषी सेवने' । योषति । (युष्यसि." उ० ८९९ सूत्रे दर्शितः) ॥ '७३ लुस हिंसायाम् ' । लोसति । ( "ऋषिवृषि०" उ० ३३१ सूत्रे दर्शितः) ॥
'७४ पसी गतिबन्धननिवासेषु' । पसते । ( "मृशीपसि." उ० ३६० सूत्रे दर्शितः) ॥ . '७५ भसक मर्सनदीप्त्योः '। बभस्ति । (“हुयामा०" उ० ४५१ सूत्रे दर्शितः)।
'७६ लुहं हिंसामोहयोः' । लोहति ॥ "७७ रिहं हिंसाकत्थनादौ ॥ '७८ चुक्ष शौचे' । चुक्षति ॥ '७९ चिक्षि विद्योपादाने' । चिक्षते ॥
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तृतीयं परिशिष्टम् ..लौकिक-वाक्यकरणीय-आगमिका धातवः ॥
___ लौकिका धातवः ॥ “१ क्लवि वैक्लव्ये' ॥ '२ वीजण व्यजने' । ['राजहंसैरवीज्यत' इति प्रयोगानुसारेण] ॥ '३ हीलण निन्दायाम् ॥
'४ आन्दोलण् ५ हिन्दोलणू ६ प्रबोलण. दोलने' । [ 'चलितं कंपितं धूतं वेल्लितान्दोलितेऽपि' इति अभिधान चि० ६.११७ प्रयोगानुसारेण] ॥
___ '७ रुषण रूक्षणव्याप्त्योः ।' [ 'करीव सोन्तगिरि रेणु रुषितः' इति प्रयोगानुसारेण] ॥
वाक्यकरणीयाः धातवः ॥ .... '१ चुलुम्प छेदने' । चुलुम्पति ॥ '२ कुच उद्भेदने' । कुचति ॥ [ 'कुञ्चिकायां तु कूचिका'] '३ धटण बन्धने' । निर्धाटयति ॥ '४ अवधीरण अवज्ञायाम्' । [ "तन धर्ममवधीरय धीर]
'५ उद्धृषत् ६ उल्लकसत् उच्छ्वसने । उडुपति, उच्छ्वसति । [रोमोद्गम उद्घषणमुल्लकसनमित्यपि अ. चि. २।२२० ] ॥.
आगमिका धातवः ॥ १ दट्ट आच्छादने' । २ विकुर्व विक्रियायाम् । '३ कुर्व करणे'। '४ उषण निवासे'। '५ युई उद्धरणे' । १. इह धातुपारायणे ये लौकिका: वाक्यकरणीया आगमिकाश्च धातषो न संगृहिता ते ग्रन्थान्तरेभ्य उद्धृत्य अत्र प्रदर्श्यन्ते ॥ .
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चतुर्थ परिशिष्टम्
_ 'धातुसूचिः अकारादिक्रमेणात्र धातुपाठः प्रदर्श्यते । सूचकाई गणस्याद्यं द्वितीयं धातुसूचकम् ॥
धातुक्रमांक
धातु
धातुक्रमांक
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१ अत्र सूची निरनुबन्धाः धातवः दर्शिताः, यत्र उदित् धातुस्त स्वरात् नोऽन्तः कृत्वा दर्शितः । यथा धातुपाठे प्रोक्तः 'अहुङ् गतौ' अत्र अंह १, ८५८ इति दर्शितः॥
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चतुर्थ परिशिष्टम्
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धातुक्रमांक | धातु
धातुक्रमांक
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६५९
९
६०
३८०
६२०
૮૭૮
१.१
५३
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ चतुर्थ परिशिष्टम्
धातुक्रमांक
धातु
धातुक्रमांक | धातु
5
बृज
३८९
व्यय
३३२
वृत् वृत्
व्यय व्ये
वृत
२१७
व्रज
वृध
९५७ २२०
व्रण
वृध वृश्
२६२ ३०३
व्रण व्रस्थ
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५२०
५२७
जी
૨૭
१०७
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९९२
वेण बेथ
शंस् आ-शंन् शक्
वेप
७५४
or on mo or
वेल वेल्ल वेष्ट
३४८ ४४२
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६४८
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व्य व्यथ् व्य व्यय
१०४१ ६८५ ९६७
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९१८
।
an
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातुतिः
धातु
धातुक्रमांक |
धातुक्रमांक
शप
३८३
१४० १७२
शब्द
७७०
शी शील
शम्
७
शम
शील
शर्ब
३६३
शीशांस्
शव शल्
शुक्
शल
शुच्
शल्भ
७७२
शुन्
शुच्य्
४०३ ૨૨૩
४९३
शश् शष
८२
૨૨૬
शस् शाख
शुट शुण्ठ शुण्ठ शुध्
१
शा शान् शार
९९५
३४४
३२२
शुन्धु शुन्ध
शास्
९४७
R
आ-शास् शि शिश् शिधु
शुभ शुम्भ शुभ्भू शुल्बू शुष
शि
शिट
शिल्
२
१३०
शिष्
शिष् शिष
४२४
शी
शधू
शीक
९५८
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ परिशिष्टम्
धातु
धातुक्रमांक । धातु
धातुक्रमांक
१७८
२७५
४३४
श्लङ्ग
शो.
श्लाख श्लाघ्
शोण
शौड़ प्रचुत प्रच्युत् श्मील
प्रिल प्रिल
श्लोक
प्रलाण
श्रा
१०४२
श्वञ्च
श्रण श्रण श्रथ्
श्वद
३०१
८५
अथ्
श्वण्ठ श्वभ्र
११८ .
१५०
।
श्रथ् अन्थ् श्रन्थ् श्रन्थ् श्रम
श्वल्क श्वल्ल
३९२
श्वस श्वि
श्रा
श्चित् श्विन्द
७२०
श्राम् श्रि
श्रि शिष
ष्ठि
ष्ठि
| वष्क
,.६२९
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातुसूचिः
[ ३९७
धातु
गण
धातुक्रमांक
धातु
धातुक्रमांक
३०
३६७
साधु
संग्राम संस्तु
४० १०२७
सान्त्व साम्
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३२९
सग
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सज्ज स
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१७३
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सन्
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३४० २९०
सपू . समाज सम् सम्ब
३६४
३६५
सल
सप्रच् सस् सस्
२८८ ३३३ ७३६
सह
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९८ ]
चतुर्थ परिशिष्टम्
धातु
धातुक्रमांक | धातु
धातुक्रमांक
४०० ५०३
स्तिप् स्तिम् स्तीम स्तु स्तुच
मज
मृज
मुप
३४१
।
स्तुभ
सभ सम्भ
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३७३ ६३६
सेव
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सो
७५२
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७८०
स्कम्भ स्कु.
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१०२९ १०३०
७१०
स्थग
१००५
स्खद् स्खल् स्तक
४४८
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१०१८ ३२३
१३६ ३७१ १०४३
स्तन स्तन् स्तन् स्तन्
स्मथ् स्नस् स्ना
१०४९ ३१९
स्तम्
स्निा
७७९
स्तिथ्
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातुसूचिः
[ ३९९
धातु
..
गण
धातुक्रमांक | धातु
धातुक्रमांक
स्यम
३८७ २६९
स्नै
४९
स्पन्द
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स्यम् स्रस् स्रस्
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७४२
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स्पश् स्पृश
९८
नि
३७१
स्पृह
स्फट्
२०८
स्फिट् स्फाय
स्वञ्
८०४ २०९
स्वद्
७२९
स्वद
स्वद
१७६
स्वन्
स्वन
२०५२
स्वप्
स्वर
३४३
स्फुन्द स्फुण्ड् स्फुर स्फुल् स्फूर्छ
६
स्वत स्वर्द
१४७ १२७
७३०
७३१
स्वाद् स्विदू स्विद
स्विन्द
७२०
स्मि स्मिद् स्मील स्मूर्छ
१२८
१०१४
१८८
स्मृ स्मृ स्यन्दू
२१७
७२८
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०० ]
चतुर्थ परिशिष्टम्
धातु
धातुक्रमांक |
धातुक्रमांक
हन्
४२
m
३९४
३९७
७०२
हस्
८४१
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१०५७
हि
हग
१०२५
हित
८८९
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७०४
७३७
हिन्द
ह्रीच्छ
हिष्क्
२५७
१०२६
हस्
७३८
२४८
२४
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ
अंश १,३९१ उ. १९, ३५१
अंस १,३९१ उ.
अंहति २,४२ उ. अंहस् १,८५८ उ.
अंडित १,८५८
अंह्नि १,८५८ उ.
अक्तु ६,१६ उ.
अक्ष ४,२९ उ.
अक्षधु ३,१
अक्षन् १,५७० उ.
अक्षर १,५७०३. ९७१/४, २९उ
पञ्चमं परिशिष्टम् 'शब्दसूचिः
अक्षि १,५७० उ. । ४,२९ उ
अक्षितृ १,५७०
अगस् १,१३९ उ.
अगाध १,७४३
अगार ५, २१ (उ.)
अग्नि १,१०२२ उ.
अग्निचित् ४५
अग्निचित्या ४५
अग्निमिन्ध ६, २६
अनिष्टुत् २,६६
अग्निष्टोम ९,३३१ अग्निष्टोमयाजिन् १९९१ अग्नीध् ६,२६
अग्र १,१०२२ उ.
अग्रणी १,८८४
अङ्क १,६१० अङ्कति १,१०५ उ.
अङ्कना १,६१०
अङ्कुर १,६१० उ.
अङ्कर १,६१० उ. अङ्क ६, १६
अङ्ग १,८३
अङ्गमेजय - १,१४८, ६५९ अङ्गार १,८३ उ. अङ्गुरि १,८३. उ. अङ्गुलि · १,८३ उ.
१ अत्र सुचौ प्रथममङ्कं गणसूचकं ततः परं धातुचकम् | ये शब्दा एकाधिकधातुषु आयान्ति तेषां अङ्कानि यथाक्रमम् दर्शितानि । यथा अक्षर १,५७०,९७१ । अयमर्थ:- अक्षरशब्दः ५७० तमे ९७१ तमे च प्रथमगणधातौ उपलभ्यते ।
ये शब्द गणान्तरेषु अपि आयान्ति तेषां निर्देशार्थं दण्ड: ।' निर्दिष्टः, यथा अंश १,३९१ उ. । ९,३५१ अत्रायमर्थः - अंशशब्दः प्रथमगणे ३९१ तमे नवमगणे च ३५१ तमे धातौ उपलभ्यते ।
ये शब्दा उणादिसूत्रेण साधिता उणादिसूत्रविवरणे व साक्षात् लब्धाः तत्र 'उ. ' इति निर्देशः कृतः । ये तु उणादिसूत्रेण साधिता अपि विवरणे न लब्धाः तत्र '[उ.]' इति निर्देशः कृतः । ये शब्दा उणादिसूत्रेण न साधिताः किन्तु उणादि प्रत्ययेनाऽपि ये सिद्धिः भवन्ति ते ( उ ) इति संज्ञया निर्दिष्टा ।
ये पुनः शब्दा एकस्मिन्नेव धातु-विवरणे एकाधिकवारं साधिताः तत्र 'च' इति निर्देशः कृतोऽस्ति ॥
५१
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२ ]
अङ्ग्य ६, १६
अङ्घ्रि १,६३९
अचितृ १,८२०
अज १,१३९
अजगर ५, २१ अजर्य ३२
अजवाह १,९९६
अजस्त्र ३,८०
अजा ११३९
अजिन १,१३९ उ.
अजिर १,१३९ उ.
अञ्चति १,१०५
अञ्चित १,१०५
अञ्चितृ १,८९०
अञ्जलि ६,१६ उ.
अञ्जस् ६,९६ उ.
अञ्जितृ ६, १६ अञ्जिष्ठु ६,१६ उ.
अञ्जिष्णु ६,१६ उ.
अटन १,१९४
अनि १,१९४ उ. अटवि १,१९४ उ.
अटाटा १,१९४
अटाट्या १,१९४
अट्ट १,६७४ । ९,३७
अट्टा ९,३७
अट्या १,१९४
अड् १,२५७
अण १,२५९
अणक १,२५९ च
अणि १,२५९ उ.
अणु १,२५९ उ.
अणुश्रू ३,२२ अण्ठित १,६८१
अण्ड १,२५९ उ.
अण्ड २,४९
अतसी १,२७९ उ.
अति १,७९०
अतिचारिन् १,४१०
अतितृ १,२७९
अतिथि १,२७९ उ.
अतिथिवेदम् २,४१
अतिदुर्लम्भ १,७८६
अतिसुलम्भ १,७८६
अतीसार १,२५
अत्क १,२७९ उ. अति १,२७९
अत्त २,१
अत्रि २,१ उ.
अस्मिन् २,१ उ. अत्न १,२७९ उ. अत्ययिन् २,१७
अत्याय २,१७
अत्यासम् ३,७८
अद् १,२५७,६७४
अदस् २,१ उ.
अद्भुत १,१ उ.
अमर २,१
अद्रि २,१ उ. अधिजिगमिषितव्य २,४६
अधिप २,९
अधीत् २,४६
[ पञ्चमं परिशिष्टम्
अधीति २,४६
अधीष्टि ३,२५
अध्यापक २,४६
अध्याय २,४६
अध्यायक २,४६
अध्येतृ २,१६,४६ अध्येमन् २,४६
अध्येय २,४६
अध्येषणा ३,२५
अध्ये २,४६
अध्वन् २,१ उ.
अध्वर १,२३
अनर्दिन् १,३०३
अनस् २,३१ उ.
अनाश्वस् ८,५१
अनितृ ३,१२१ अनिमिष ५, १०६
अनीक २,३१ उ. अनुगादिन १,२९७
अनुज ३,१२२
अनुध १,९९८
अनुप्रपातम् १,९६२
अनुप्रपादम् ३, १९४
अनुप्रवेशम् ५,१०१
अनुभव १,१
अनुयाज १,९९१
अनुराध ४, १९
अनुरोद्धृ ३,१९८ अनुरोधिन् ३,११८।६, १ अनुलेपिका ५, १०
अनुवाक २,३८
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
शवधिः
[१०३
।
अनुष्टुभ् १,७८१ उ. अनूचान २,३८,६७ अनूत्त २,८०. अनुराध ४,१९ अनेहस २,४२ उ० अनोकह १,१०२० उ.. अन्त १,३९१ उ० अन्तक १,२८५ अन्तर्षण २,४२ अन्तर्धन २,४२ अन्तर्घात २,४२ अन्तधि २,८१ अन्त्र १,३९१ उ. अन्द १,३०८ अन्दा १,३०८ अन्दू १,३०८ अन्धस् २,१ उ. अन्न २,१ च उ०, ३१ उ० अन्नप्रद १,७ अन्नाद २,१ अन्य २,३१ उ. अन्यथाकारम् १,८८८ अम्वय २,१७ अन्विष्य ३,२५ अन्वेषणा ३,२५ अप् ४,२२ उ० अपगारम् ५,१५० अपगोरम् ५,१५० अपचारिन् १,४१० अपचिति १,९१७ अपत्रपा १,७६२
अपत्रविष्णु १,७६२ अपत्राप्य १,७६२ अपराधिन् ४,१९ अपरोधिन् ६,१ अपलाषिन् १,९२७ अपयव २,४८ अपालु ४,२२. उ० अपि ४,२२ उ० अपिधान २,८१ अप्तु ४,२२ उ० अष्तृ ४,२२ उ. अप्सरम् १,२५ उ. अब्द ४,२२ उ. अभिचारिन् १,४१० अभिजन ३,१२२ अभिनिष्टान १,३२३ अभिभाविन् १,१ अभिभर ५,१९ अभिराप्य १,३३५ अभिलषण १,९२७ अभिलाप्य १,३३६ अभिलाष ८,१२ अभिलाष १,९२७ अभिलाषिन् १,९२७ अभिलाषुक १,९२७ अभिसारिका १,२५ अभिसुसस् ४,१ अभिहव १,९९४ अभ्यमिन् १,३९१ अभ्यर्ण १,३०१ अभ्यघातिन् २,४२
अभ्युद्न ५,३७ अभ्र १,४०७ (उ.) अमित १,४०७ अम १,३९१ । ९,१८१ अमक १,३९१ . अमत्र १,३९१ उ. अमर ५,१९ (उ.) अमावस्या १,९९९ अमावास्या १,९९९ अमितृ १,३९१ - अमित्र १,३९१ उ. अम्बा १,७६४ (उ.) अम्बल १,७६४ उ. अम्भम् १,३९१ उ. ७७६
उ।४,२२ उ. अम्भित १,७७६ अय २,१७ च अयस् २,१७ उं. अयुत २,२२ अयोगुड ५,१२० । अयोधन २,४२ अरघट्ट १,६६८।९,४१ अरणि २,७७ उ. अरण्य २,७७ उ.. अरनि २,७७ उ. अरर २,७७ उ. अररि २,७७ उ. अररु २,७७ उ. अरविन्द ५,८ अरिंदम ३,८८ अरितृ ८:३२ अरंतुद ५,१ .
|
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०४ ]
अरुण २,७७ उ.
अरुस् २,७७ उ.
अर्क १,१०४ उ. । ९,११
अ
१,१०४
अर्ग १,६६४ :
अर्ध १,५६४ च (उ.)
अर्चा १,१०४
अचित १,१०४
अचितृ ५, २६
अर्चिस् १,१०४ उ. १५, २६ उ.
अर्ध्य १,१०४।५, २६ अर्जुन १,१४२ उ.
अर्जुनगृह्य ८,१०
अर्णस् २,७७ उ.
अणित ७,५
अर्तितृ १,२८७
अ १,२६ । २,७७
अश्रु २,१ उ.
अर्थ २,७७ उ. १९,३६५
अर्थित ९,३६५
अर्ध ३,४३ ।
अर्धभाज् १८९५ अर्धितृ ३,४३ । ४, २१
अर्पित ५,६५
अर्भ २,७७ उ.
अ २,७७ उ. अर्थ १,२६ अर्यमन् ९,१८१ उ. अर्व १,४७६
अर्वन् २७७ उ.
अर्शस् २,७७ उ.
अषितृ ५,१०४
अर्हणा ९, १९८
अर्हत् १,५६४
अहिं १,५६४
अलंकरिष्णु १,८८८
अलक १,९१९ उ.
अलका १,९१९ उ.
अलक्त १,९१९
अलम् १,९१९
अलम्बुसा १,७६६ उ.
अलर्क १,९१९ उ. अलस १,५४३
अलाबू १,७६६ उ,
अलि १,९१९ उ.
अलिक १,९१९ उ.
अलिन्द १,९१९ उ.
अलीक १,९१९ उ.
अलीका १,९१९ उ.
अव १,५८९
अवकर ५, २०
अवकाश ३,१३५
अवख्युस् २,६४ उ.
अवगाह १,८७१
अवग्रह ८,१०
अवग्राह ८,१० च
अवगृह्य ८, १० अववक्षस्- २,६४ [3.]
अवचक्षुस् २,६४ उ.
अवट १,४८९ उ.
अवतंस .१,२३८/९,१९१ (उ.) अवतर १,२७
पञ्चमं परिशिष्टम्
अवतान ७,१
अवतार १,२७
अवत्त २,८० । ३,५
अवदाघ १,५५२
अवदाह १,५५२
अवध १,९९८
अवनाय १,८८४ अवनि १,४८९ उ.
अवन्ति ७,८ ( उ )
अवभृथ १, ८८६. उ.. १,१
अवश्यभाव्य
अवश्याय १,६०६
अवसंचक्षुस् २,६४ उ.
अवसान- ३,७
अवसाय ३७
अवस्कर ९, २०
अवस्तार ८, १४
अवहार
१,८८५
1
अघावन १,२७३
अवावरी १,२७३
अवि १,४८९ उ., ५८९ उ.
अवितृ १,४८९
अविन १,४८९ उ.
अविष १,४८९ उ.
अविषी १,४८९ उ.
अवी १,४८९ उ.
अवोद ६, १९ अव्यर्थिनं १,१००२
अव्यथिष १,१००२ उ.
अव्यथिषी १,१००२ उ.
अव्यथ्य १,१००२ अव्याथिन १,१००२
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः ... अव्याथ्य १,१००२ . अशन ८,५१ .. . अशनि ४,२९ उ. अशितृ ४,२९ । ८,५१ . अशोकः १,१४ उ. अश्रि १,८८३ उ. । ४,२९उ.
...: ८,५१ उ. अश्व ४,२९ उ.. अश्वक्रीती ८,१.... अश्वमेध १,९०९ .. अश्वयुज् :३ १११ ..... अश्वसंख्य २,१३ : - अश्वस्यद १,९५६ . . अषित १,९३१... अष्टका १,२९ उ.1८,५१ उ. अष्टन् ४२९ उ............ अष्टावङ्क १,१०६ अष्ट: १,५७० । ४,२९ असि ३,७८. उ.असित १,९३२ । ३.७८ अंसु ३,७८ उ.. असुर ३,७८ उ. .... असुरि ३,७८ उ.. असूर्यपश्या १,४९५ : अस्थि ३,७८ उ.. अस्थिहरः १,८८५ अहन् २,७३ उ. अहि १,८५८ उ. आकर्ष १,५०६ आकष १,५०७ आकाय ४,५
आकाश १,८३० आकृत ५,१४९ आक्रन्द १,३१६, १००७,
९,१७४ आक्रन्दन १,१००७ आक्रीडिन् १२४३ आक्रोश. १,९८६ आक्रोशक १,९८६ आक्रोष्ट्र १,९८६ आख १,९१३ .... आखन १९१३ .. आखनिक १,९१३ आखनिकवक १,९१३ आखर : १,९१३ - आखान. १,९१३ :... आखु १,९१३ उ.आखूत्थ १३५ आखेटक १,१७८ आखेटना ९२९६ आख्य २०६४ आख्यात २,१३ । आख्येय २,६४ . आगन्तु. १,३९६ उ. . आगम. १,३९६ ... आगस् २,१७ उ.. . आगामिन् : १.३९६ उ. आगरणा ९,२७२ आघातुक २,४२.. आघोषणा ९,१८९ आघ्रा १,३ आचर्य : १,४१०
आचाम १,३८० .. आचामक १,३८० आचाम्य १,३८०३ आचार्य १,४१० आचिकीर्षणि १,८८८ उ. आच्छोटन ९,३० आजि १,१३९ आज्य ६,१६ ... आडम्बर ९,१०७ [उ.] आढ्य १,३०, ६२७ उ. आढयंभविष्णु १,१ आढ्यंभावुक १,१ :आणि १,२५९ उ. . आणुक १,२५९ उ... आणूकः १,२५९ उ. आण्ड १,२५९ उ. आण्डू १,२५९ उ, आतङ्क १,५२ - आति १,२७९ उ... - आत्त २,८०, आत्मभरि १,८८६ ॥२,८२ आत्मन् १,२७९ उ... आदर ५,१५२ आदरिन् ५,१५२ . आदर्तृ ५,१५२ :आदायचर १,४१० आदि .२,८० आदिषद्. १,९६६ आदृत्य ५,१५२ . आदेवक १,८१७१३,१ आदेशम् ५,४
।
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६ ]
आधार १,६०२ ।५, १५३
आधोरण १, ४११
आनू १,१२३
आन २,३१
आनाम्य १,३८८
आनाय १,८८४
आपण १,७१०
आपणिक १,७१० उ.
आपतिक १,९६२ उ.
आपाल्य १,९६२
आपित ९,४०६
आपीन १,८०५
आप्त ४,२२
आप्लव १,५९८
आप्लाव्य १,५९८
अबिलम् ५,९५
आम १,३९१ । ९,१८१
आमय ९, १८१ उ.
आमाद् २,१ आमिष ५, १०६ ( उ )
आमोटक ५,१२५
आमोटन १,२०२
आम्नाथ १,६ आम्र १,३९१ ( उ )
आयतस्तु २,६६
आयामिन् १,३८६
आयाम्य १,३८६
आयु २,१७ उ.
आयुध ३,११७
आयुस् २,१७ उ. आयोधन ३,११७
अरब्ध १,७८५
आरभ्य १,७८५
आरम्भ १,७८५
आरम्भक १,७८५
आरम्भण १,७८५
आरम्भम् १,७८५
आरव १,५९९ । २,२७
आरेक १,६१६
आरेका १,६१६
आरकिट १,६१६
आरोह १,९८८
आर्य १,२६
आलम्भ १,७८६
आलम्भक १,७८६
आलम्भम् १,७८६
आलम्भ्य १,७८६
आलाप १,३३६
आलि १,९१९ उ.
आलेह २,७१
आलोक १,६१२
आलोचन १,६४६
आलोचना २,६४६
आवसथ १,९९९ उ.
१,९९९ उ.
आवसथ्य
आविध ३, १४
आवेल ५,९४
आव्याध ३,१४
आशंसा १,८५३
आशंसु १,८५३
आशासन २,६०
आशासितृ २,६०
पञ्चमं परिशिष्टम्
आशास्ति २,६०
आशित ८,५१ आशितंभव १,१
आशितं भवा १,१
आशिस २,३७,६०
आशु ४,२९ उ आश्चर्य १,४१०
आसना २,६१
आसार १,२५
आसाव्य ४, १
आसितृ २,६१
आसुति ४,१
आस्कथ ९,३१४
आस्तार्य ८,१४
आस्तीणि ८,१४
आस्फालन ५,८५
आस्फोट १,२०९
आस्य ३,७८ च उ.
आस्या २,६१
आस्रव १,१५.
आस्राव १,१५
आहव १,९९४
आहाब १,९९४ अह्वय १,९९४
आह्वातृ १,९९४ आह्नाय १९९४
ho
इ
इक्षु ३,२५. १५,१०५ उ. इक्षुकुट्टाक ९,३१
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
इच्छा ५,१०५
इच्छु ५,१०५
इज्या १,९९१
इञ्जितृ १,६६२
इड २,५६ उ.
इडा २,५६ च [ उ. ]
इत २,१७
इत्य २,१७
इत्या २,१७
इत्वर २,१७
इत्वरी २,१७
इन २,१७ उ.
इन्दन १,३०९
इन्दा १,३०९
इन्द्र १,३०९उ. । ६,१९ उ.
इन्धितृ ६,२६
इन्विका १,४८८.
इन्वित १,४८८
इभ २,१७ उ.
इरंमद ३,९७
इरा २,१७ उ.
इला ५,८७
इष् ५,१०५
इष ५,१०५
इषीका १,५०५७. ८३३ उ. इषु १,८३३ उ.
इष्टका ३,२५ उ. । ५,१०५ उ. इष्टि १,९९१ । ३,२५ १५,१०५
chr
ईक्षण १,८८२.
ईड २,५६ उ.
ईडा २,५६ च [ उ. ]
ईडि २,५६
ईड्य २,५६
ईषत् २,१७
ईर २,५७
ईरितृ २,५७
ईक्ष्मन् १,४०१
ईयितृ १,४०१
ईन् १,४०१
ईर्य २,५७
ईर्ष्या १,४०२
ईर्ष्यालु १,४०२ उ.
ईडियट १,४०२
ईश २,५८
ईशा २,५८
ईशान २,५८ च. उ.
ईशितृ २,५८
ईश्वर २,५८ ( उ )
ईश्वरा २,५८
ईश्वरी २,५८. । ४,२९ उ. ईषदाढभव १,१ ईषा १,५०५,८३३
ईषीका १,५०५, उ. ८३३ उ. ईह १,८५७
ईहा १,८५७ ईहित १,८५७
उ
उक्थ २,३८ उ,६७ उ. उक्षन् १,५६६ उ.
उक्षितृ १,५६६
उखा १,६३,५२९ उ. उखास्रस् १,८४४, ९५३ च
उग्रपश्य १ ४९५
उचित ३,३३ उ
उचितृ ३,३३
उच्चाटन ९,१६७
उच्चार १,४१०
उच्यैःकारम् १,८८८
उच्चाटन १,२०३ १५,१२१
उच्छादक ९,८८
उच्छित ५,३०
उच्छीथ २,४७ उ.
उच्छ्रय १,८८३
उच्छ्राय १,८८३ उज्जिघ्र १,३ उज्झितृ ५,४१
[ ૪૦૦
उञ्छ ५,३२
उञ्छित ५,३२
उठ १,२१८ उति १,९९२
उत्कण्ठ १,६७८
उत्कण्ठा १,६७८
उत्कण्ठुल १,६७८ उ.
उत्कर ५,२० उत्कलिका १,८१४ उ. उत्कार ५, २०
उत्कुट ५,११२
उत्कोच १,९६१ उत्कोट ५,११२ उत्कोटक ५,११२
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________________
४०८]
पञ्चमं परिशिष्टम्
उत्क्रोश १,९८६ उदेजय १,६५९ उत्क्रोशक १,९८६
उद्गातृ १,३७ उ. उत्तंस १,५३८
उद्गार ५,२१ उत्तरपरिग्राह ८,१० उदगीथ १,३७ उत्तानशय २७ । उग्राह ८,१० उत्पचिष्णु १,८९२ उद्घ २,४२ उत्पतिष्णु १,९६२ उद्घट्टक १,६६८ उत्पलमालभारिन् १,८८६ । उद्घाटन १,१००० चा९,१६९ उत्पश्य १,४९५
उदास १,९३३ उत्पात १,९६२ उदासिन् १,९३३ उत्पिब १,२
उद्बाव १,१३ उत्प्रेक्ष्य १,८८२
उद्रेक १,६१४ उत्फुल्ल १,४१४
उधम १,४ उत्स ६,१९ उ.
उद्धय १,२८ उत्सङ्ग १,१७३
उद्ध्च ५,४१ .. उत्साहिन् १,९९० उभास १,८४६ उद् ५,४१
उद्भासिन १,८४६ उदक ६,१२ उ.
उधाव २,२२ उदकस्पर्श ५,९८ उद्र ६,१९ उ. उदक्त १,१०५
उद्रिक्त १,६६४
उबर्ह ५,१०७ उदज १,१३९
उद्विजितृ ५,१५४ । ६,१७ उदञ्चन १,१०५
उन्दित ६,१९ उदभ्रज . ५,२
उन्दुर ६,१९ उ. उदमज ५,३८
उनय १,८८४ उदर ६,१९ उ.
उन्नामितृ १,१००० । उदरंभरि १,८८६ । २,८२ उन्नाय १,८८४ : .. उदरपूरम ३,१२५ उन्नेतृ १८८४ उ. उदवाह १,९९६ : उन्मदिष्णु ३,९३ उदाज १,१३९
उन्मादिन ३,९३ उदिति १,९९८
उन्मुह ३,१५
उन्मेष ५,१०६ उपक्रन्तृ १,३८५ उपक्रम १,३८५ उपगीति १,३७ उपघातम् २,४२ उपचाथ्य ४५ उपचेय ४५ उपजाप १,३३८ उपज्ञा ८,३३ उपदंश १,४९६ उपदा २,८० उपदाय ३,१०१ उपधा २,८१ उपनिषद् १,९६६ उपपादुक ३,१९४ उपयम १,३८६ उपयाम १,३८६ उपराधिन् ४,१९ उपरोधम् ६,१ . उपरोधिन् ६.१ उपलघातम् २,४२ उपलब्धि १,७८६ उपलभा १,७८६ उपलम्भ १,७८६ उपलम्भम् १,७८६ उपलम्भ्य १,७८६ उपशाय २,४७ उपसद् १,९६६ उपसर १,२५ उपसर्या १,२५ उपसार्या १,२५,
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________________
शब्दसूचिः ..
[४०९
उपस्कारम् ५,२०
उलप १,८०७ उ, उपस्कीर्ण ५,२०
उलूक १,६१२ उ. उपस्थानीय / १,५ उल्का १,९६० उ. उपहव . १,९९४
उल्मुक १,९६० उ. उपहर १,९९४ उ.
उल्लाघ १,६४३ उपात्त २,८०
उल्लाघवत् १,६४३ उपाध्याय २,४६
उल्ब १,९१९.उ. उपाध्याया २,४६
उल्वण १,२६१ (उ.) उपाध्यायी २,४६
उशन २,४३ उ. उपानह ३,१४२
उशिज २,४३ उ. उपावृत् १,९५५
उशीर २,४३ उ. उपासना २,६१ । उषस् १,५२९ उ. ९९९ उ. उपास्ति २,६१
उष्ट्र १,२२९ उ. उपेय ३,१०९
उष्ण १,५२९ उ. उपयिषस् २,१७ उष्णिह ३,९८ उप्ति १,९९५
उष्णिहा ३,९८ उप्तिम १,९९५
उन्न १,९९९ उ. उब्जित ५,३४ उभ. ५,७१ उभयतः स्पाशा १,९२६ उभितृ ५,७१
ऊचिवस् २,६७ . उमा १,४८९ उ. उम्भितृ ५,७२
ऊति १,४८९, ९९२ उर् १,४७०
ऊन १,४८९ उ.।९, ३२२ उरग १,३९६
ऊनित ९।३२२ उरण १,२६ उ.
ऊम १,४८१ उ. उरश्छद ९,८८
ऊयितृ १,८०० उरस् २,७७ उ. ऊरु २,६५ उ.
ऊ ९,१५ उहव्यवस् ५,११८ [उ.] | ऊर्जस्वल ९,१५
ऊर्जस्विन् ९,१५ ऊर्जा ९,१२ ऊर्णा २,६५ उ. ऊर्दी १,७३२ ऊर्ध्वपूरम् ३,१२५ ऊर्ध्वशय २,४७ ऊर्ध्वशोषम् ३,६५ ऊर्मि २,७७ उ.. ऊर्वारु १,४७० उ. ऊवित १,४७० ऊष १,५०४ ऊषण १,५०४ ऊषर १,५०४ च ऊष्मन् १,५०४ (उ.) ऊह १,८७० ऊहा १,८७०
ऋक्ष ५,१०४ (उ.) ऋच् ५,२६ ऋच्छितृ ५,२८ ऋजीक १,६६४ उ, ऋजीष १,६६४ उ. ऋजु १,१४२ उ. ऋज्य १,६६४ ऋञ्जित १,६६५ ऋण १,२६ उ.
ऋति ७,५ (उ.) । ऋतीयित १,२८७
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________________
पश्चमं परिशिष्टम्
ऋतु २,७७ उ.
। एषण ,२५ ऋत्विज् १,९९१
एषणा . ५,२५. . ऋध्य ३,४३
एषितृ ३,२५ च ।५,१०५। ऋपय ५,६५
८,५२ च ऋभुक्षिन् २,७७ उ.
एष्ट ३,२५॥५,१०५१८,५२ ऋम्फित ५,६६
एण्य ३,२५ । ५,१०५ ऋषभ. ५,१०४ उ. .. ऋषि ५,१०४ उ. ऋष्टि ५,१०४ (उ.)
ओक ३,३३ ऋष्य ५,१०४
ओकस् ३,३३ उ. ओजस् १,५२९ उ.।५,३४ उ.
ओतु १,४८९ उ. . एक २,१७ उ.
ओतृ १,५८९ एककर १,८८८
ओदन ६,१९ उ. एकतान ७,१
ओदनगर ५,२१ एजित १,६५९
ओझन् ६,१९ पठितृ १,६७५
ओम् १,४८९ उ. एण २,१७ उ.
ओषधि २,८१ (उ.) एत २,१७ उ
ओषितृ १,५२९ पतृ १,११।२,१७ । ३,१०९ / ओष्ठ १,५२९ उ. एध १,७४१ ॥६,२६ एधस् १,७४१ उ.।६,२६ उ. एधित १,७४१ एनस् २,१७ उ. कंस १,७८९ उ.।२,६२ एरा २,१७ उ.
कंसा २,६२ एर्वारु १,४७० उ. कसित २,६२ एल ५,८७
ककित १,६१८ एला ५,८७।९,१३३ कक्कोल १,९८१ [उ.] पलित ५,८७
कक्खट १,६२ उ. एष ३,२५
कक्खा १,६२
कक्ष १,५०७ उ. कक्षा १,५०७ [उ.] कङ्क १,६२२ (उ.) . कङ्कण १,६२२ उ. कङ्कणीक १,२७१ उ.. कङ्कित १,६२२ कच १,६४९ : कच्छू १,५०७ उ. कञ्चुक . १,६५० उ.. कञ्च्य १,६५० .. कट १,१७४ कटक १,१७४ उ. . कटप्रू १,५९७ .. कटम्ब १,१७४ उ. कटि १,१७४ उ.. कटीर १,१७४ उ. कटु १,२७४ कटुर १,१७४ उ. .. कटवरी १,१७४ उ.. कठ १,२१६... कठाकु १,२१६ उ. कठिन १,२१६ उ. कठार १,२१६ उ. कड् १,२५६ :
कडक ५,४५ कडङ्गर . ५,४५ उ. . कडत्र १,१०३४ उ.।५,४५ उ. कडम ५,४५ उ. कडम्ब ५,४५ उ... कडार १,१०३४ उ.।५,१५३.
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________________
धातुसूचिः
कडित ५, ४५
कडित्र ५,४५ उ.
कडेवर ५,४५ उ.
कड्ड १,२५६
कड्डा १,२५६
कण १,२७०, १०३८
कणिका १,२७०
कणित १,२७२
कणीक १,२७० उ.
कणीका १,२७० उ.
कणीचि १,२७० उ. कणक १,२७० उ. कण्टक १,१९९ उ.
कण्ठ १,२७० उ.
कण्ड १,२७० उ. ६८७
कण्डरा १,६८७ [3.]
कण्डित १,६८७
कण्डु १,६८७ उ.
कण्डू १.५०७ उ.
कण्डोल १,६८७ उ.
कण्व १,२७० उ.
कत्रितः ९,३३७ कत्थन १,७१९ कथक ९,३१४ ( उ.)
कथा ९,३१४
कद् १,२५६.
कदा १,१००६
कनक १,३३१ उ.
कनीनिका १,३३१ उ.
कन्तु १,७८९ उ.
कन्द १,३१५ ( उ. )
कन्दम् १,१००६
कन्दरा १,३१५ [3.]
कन्दा १,१००६
कन्दु १,३१५ उ.
कन्दुक १,३१५ उ. ७८९ छ.
कन्या १,३३१ उ. कन्यादर्शम् १,४९५
कपाटघात २,४२
कपाटन २,४२
कपि १,७५७ उ.
कपिष्ठल १,९७६
कपोल १,७५७ उ.
कफेलु २,५७ उ.
कबर
१,५९० ४. ७६७ उ.
कबरी १,५९० उ. ७६७ उ.
कबि १,७६७ [उ. ]
कबितृ १,७६७
कमठ १,७८९ उ.
कमन
१,७८९ च
कमर १,७८९ उ.
कमल १,७८९ उ.
कमितृ १,७८९
कम्पन १,७५७
कम्पया १,७५७
कम्पा १,७५७
कम्पितृ १,७५७
कम्प्र १,७५७
कम्बल १,७८९ उ. -
कम्य १.७८९
कम्र १,७८९
करक १८८८ उ. ५,२० उ.
[ ४११
करका १,८८८ उ. १५,२०उ. करङ्क १,८८८ उ. । ५,२० उ. करङ्ग ५,२० उ.
करच ५,२० उ. करणि १,८८८ उ.
करण्ड १,८८८ उ. १५,२० उ. करभ ५,२० उ. करम्ब १,३६७,७६५ च, उ., ८८८ उ.
करम्भ १,७७७,८८८ उ.
करह ८,१५ उ.
१,८८८ उ.
कराल करि १,८८८ उ. करितृ करिशकर ३,१३७ उ.
५,२०१८, १५, २२
करीतृ ५,२०१८, १७, २२ करीर १,८८८ उ. ५,२० उ. करीरी ५,२०
करीब ५,२० उ.
करुणा ५,२० उ.
करेणु
१,८८८ उ.
कर्क १,८८८ उ.
कर्कर ५,२० उ.
कर्करी ५,२० उ.
कर्ण ५,२० उ.
कर्णवेष्टक १,६७३
कर्णेजप १,३३८
कर्णे पितृ १,३३८
कर्तन ५,११
कर्तरि ५,११ उ.
कर्तितृ ५,११ । ६,१८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम्
-
-
-
कतृ १,८८८१४८ कलुष १,८१४ उ. कर्दम १,३०६ उ. कलेवर ५,४५ उ. कर्दा १,३०६
कल्क १,८१४ उ. कर्पास १,८८८ उ. कल्प १,९५९ च कर्पूरस्फटा १,२०८ कल्पितृ १,९५९ कर्बट १,३५५ उ. कल्प्तृ १,९५९ कर्बर ८,१५ उ.
कल्प्य १,९५९ कर्बरी ८,१५ उ.
कल्मष १,८१४ उ. कर्बुर १,३५५ उ.,७६७ उ. कल्माष १,८१४ उ. कर्मकर १८८८
कल्मास १,८१४ उ. कर्मकरी १,८८८
कल्य १,८१४ कर्मन् १,८०८ उ.
कल्याणखुरा ५,७९ कर्व १,४६०
कल्याणगुदा १,७३५ कर्शितृ ३,६४
कल्याणवाला १,८०७ कर्षक १,५०६ उ.५,५ उ.. कल्ल १,८१५ कर्पू १,५०६ उ.॥५,५ उ. कल्लित १,८१५
कल्लोल १,८१५ उ. कल १,८१४।५,४५१९,१२९
कवक २,२८ उ. कलङ्क १,८८८उ.।५,२० उ. कवि १,६९० उ. कलत्र १,१०३४ उ.५,४५ उ. कशा १,४९० कलना १,८१४
कशितृ १,४९० कलम १,८१४ उ.१५,४५उ कशेरु ८,२४ उ. कलल १,८१४ उ. कश्मीर १,४९० उ. कलह २,४२,७३१५,४५ उ. कष १,५०७ कला २,८९४ ..
कषि १,५०७ उ. कलापक १,२ उ. कषीका १,५०७ उ. कलाय १,८१४ उ. कस १,९८७ कलि १,८१४ उ.५,४५ उ. | कसितृ १,९८७ कलिका १,८१४ च उ. काक १,३६ उ., ६१८ कलित १,८१४
काकादन २,१ . कलिल १८१४ उ. काकादनी २,१
काङ्क्ष १,१८६ काच १,६४९ काञ्चन १,६५० उ. काश्चि १,६५० उ. काश्चिक १,६५० [उ.] काट १,१७४ काण १,२७०२,१७० काणुक १,२७० उ. काणूक १,२७० उ. काण्ड १,२७० उ. कातृ १,३६ कान्ति १,७८९ कान्दम् १,१००६ काव्य १,७६७ काम १,७८९ कामदुघ २,६९ कामन १,७८९ कामना १,७८९ कामयान १,७८९ कामयित १,७८९ कामल १,७८९ उ. कामुक १,७८९ काम्य १,७८९ काय ४,५ कारण १,८८८ कारा १,८८८ काराल १,८८८ उ. कारि १,८८८ उ. कार १,८८८ उ.. कार्य १,८८८ कार्षक १,५०६ उ. १५,६ उ.
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________________
शब्दसूचिः
काल १,८१४ च । ९,१२९ । किलास ५,८६ उ. । कुटिल ५,११२ उ. कालना १,८१४
किलिकिल ५,८६ उ. कुटीर ५,११२ उ. कालि १,८१४ [3] किशोर ३,१३३ उ.
कुट्ट ९,३१ कालिका १,८१४ . किष्किन्ध ९,२५१
कुट्टनी ९,३१ काव्य १,७६९
कुट्टाक ९,३१ काश १,४९०,८३० चा४,१३५ कीट ९,४६ (उ.) कुट्टाको ९,३१ काशि १,४९० उ., ८३० उ. | कीनाश ३,१३३ उ. कुट्टिम ९,३१ उ. काशितृ १,८३० । ३,१३५ । कीणि ८,१५,२२
कुठार १,२२४ उ. काषि १,५०७ उ. कीर्ति ९,८२ च, उ. कुडङ्ग ५,१३० [उ.] काष्ठ १,८३० उ.। ३,१३५उ. कील १,४२२
कुडव ५,१३० उ. काष्ठभिद् ६,५ कीलक १,४२२
कुडितृ ५,१३० काष्ठभेद ६,५ कीलन १,४४५
कुट्मल ५,११२ कास १,८४५,९८७ कीला १,४२२
कुण ५,५२ कासा १,८४५
कीलाल १,४२२ उ. कुणाल ५,५२ उ. कासित १,८४५
कीलि १,४२२ [उ.] ४४५ || कुणिन्द ५,५२ उ. कासू १,९८७ उ. कीलितृ १,४२२
कुण्ट १,२०१ किङ्कर १,८८८ कुक १,६१९
कुण्ठ १,२२४ उ. किङ्करा १,८८८ कुकूल २,२८ उ.
कुण्ड १,२०१,६९० ।५,५० किङ्करी १,८८८
कुक्कटीबन्धम् ८,४२ किंशार ८,२४ उ. कुक्षि ८,५८ उ.
कुण्डपाय्य १,२ किकिदीवि ३,१ उ. कुक्षिम्भरि १,८८६ । २,८२ | कुण्डल १,६९० उ. किखि १,१०२१ उ. कुच् १,१०२
कुण्डा १,६९०५,५२ किङ्किणीका १,२७१ ठ. कुच १,९६१ । ५,११७ कुण्डितृ १,६९० किट १,१७७ कुचितृ ५,११७
कुण्डी १,६९०।५,५२ किटी १,१७७ कुञ्चिका १,१०२
कुतृ ५,१४८ किर ५,२० कुञ्जर ३,२ उ.
कुत्सना ९,२४८ किरण ५,२० उ. कुट ५,११२
कुत्सा ९,२४८ किराट ५,२० उ. कुटप ५,११२ उ. कुथ ८,४२ (3.) किरि ५,२० उ. कुटर ५,११२ [उ.] कुथा ८,४२ (उ.) किरीट ५,२० उ. कुटि ५,११२ उ. कुथुम ३,१० (उ.) किलाट ५,२० उ. ८६ उ. कुटितृ ५,११२
कुन्थ ८,४२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४]
पवम परिशिष्टम्
कुन्था ८,४२
कुषाकु ८,५८ उ. कुन्थितृ. ८,४२
कुषीतक ८,५८ उ. कुन्थु ८,४२ च, उ. कुष्ठ ८,५८ उ. कुन्द १,७४० उ.
कुष्ठल १,९७६ कुष्य १,३३२।३,४९ कुसित ३,७७ उ. कुमार १,७८९ उ.। ९,३४५ ।। कुसितायी ३,७७
कुसुम ३,७७ उ. कुमारघातिन् २,४२ कुसुम्भ १,३७७ (उ.) कुमारभृत्या २,८२
कुस्मना ९,२७१ कुमुद १,७२६
कुस्मायितृ ९,२७१ . कुम्बा १,३६८।९.११० कुस्मित् ९,२७१ कुरर ५,७७ उ.
कुस्मिति ९,२७१ कुख ५,७७ उ.
कुस्मतव्य ९,२७१ कुरु १,८८८ उ.1 ५,२० उ. कुस्मेतृ ९,२७१ कुरुचर. १,४१०
कुहक ९,३७४ कुरुचरी १,४१०
कुहना ९,३७४ कुरू १,८८८
कुहा ९,३७४ कुर्दन १,१४९
कुहु ९,३७४ उ. कुल १,९८१
कुहुक ९,३७४ उ. कुलटा १,२१० उ. कुहू ९,३७४ उ. कुलदमन ३,८८
कृच १,५९० उ. कुलव ५,१३० उ. कूचवार ४९ कुलाल १,९८१ उ.९,२७५ च कूची १,५९० उ. कुल्मल ३,६० उ. कूज १,१५१ कुवल १,८०७ (उ.) कूजित १,२७२ कुवली १,८०७ (उ.) कूट ९,२५४,२९३ कुवितृ ५,१४९
कूणि ९,२५७ [उ.] कुश ३,६० (उ.) कूप १,५९० उ. कुशल ३,६० उ. कूर्च ५,२० उ. कुशा ३,६०
कूर्चक ५,२० उ. कुशी ३,६०
कूचिका ५,२० उ.
कूदित १,७३३ कूर्प ५,२० उ. कूल १,४२३ कूलङ्कषा १,५०७ कूलमुद्रुज ५,३६ कूलमुबह १,९९६ कूलितृ १,४२३ कूवर १,५९० उ. कृक १,८८८ उ. कृकवाकु २,३८ उ. कृच्छ्र ५,११ उ. कृडितृ ५,१२९ कृण्वितृ ४,२५ कृत् ५,११ . कृति १,८८८ कृत्तिका ५,११ उ.६,१८ उ. कृत्य १,८८८ कृत्या १,८८८ उ. कृत्रिम १, ८८८ . कृत्स्न ५,११ उ. कृपण १,१००९ उ.९,३२३ कृपणा ९.३२३ कृपा १,१००९। ९,३२३ कृपीट १,९५९ उ. कृमि १,८८८ उ. कृमुक १,३८५ उ. कृवि १,८८८ उ. कृश ३,६४ च (उ.) कृशवत् ३,६४ . कृशानु ३,६४ उ. कृषक १,५०६ उ.५,५ उ.
.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
कृषि १,५०६ उ. १५,५ उ.
कृषिक १,५०६ उ. १५,५उ.
कृष्टपच्य १,८९२
कृष्टि ५,५ उ०
कृष्ण १,५०६ उ. १५,५.उ.
कृसर १,८८८ उ.
केकय १,९१७ उ.
केतकी १, २८६
केतन १,२८६ केतु १,९१७ उ.
केपितृ १,७५५
केरड ५,२० उ.
केलि १,४४५. । ५,८६ उ. । ९,१३० उ. केलिकिल ५,८६ उ..
केलित १,४४५ ।५,८६
केवल १,८२० उ. केश ३,१३३. उ. । ८,५० उ.
कैलिकिल ५,८६ उ..
कोक १,६१९ ( उ० )
कोकितु १,६१९ कोकिल १,६१९ उ. कोच १,९६१ कोचितृ १,९६१
कोटर ५,११२ उ.
कोटि ५,११२ उ
कोण ५,५२३
कोणितृ ५,५२ कोट १.५९० । २,२८
कोथ ३,१०८. कोथितृ ३,१०
कोथूम ३,१० उ.
कोप ३,४८
कोपन ३,४८
कोपिट ३,४८
कोमल १,७८९ उ.
कोरितृ ५,७७
कोल १,९८१-२
कोलित १२,९८१
कोश ३,६०
कोशिट ३,६०
कोशी ३,६०
कोषितृ ८,५८
कोष्ठ ८,५८ उ.
कोसितृ ३,७७ [ कौरव्य १,८८८ ]
वनवितृ ८८
क्नसितृ ३,२७ च.
क्नूषित १,८०२
कमर १,४०६
ऋतु १,८८८ उ.
कदा १,१००७
कन्दम् १,१००७
कन्दा १,२००७
कपितृ १,१००९
क्रम १,३८५ च
कमुक १,३८५ उ.
क्रय
८,१
ऋयिक ८१ उ.
कय्या ८,१३
क्रव्याद् २,१
क्रव्याद २,१
कष्ट्ट १,५०६ /५,५
क्रान्तुम् १,३८५ उ.
क्रान्दम् १,१००७. क्रिमि १,३८५ उ०, ८८८ उ. क्रिया १,८८८
क्रीडा १,२४३
कीत्रिम ८, १
क्रुञ्च् १,१०१
कुचा १,१०१.
क्रुध् ३,४१
कुश १,९८६
कुश्वन १,९८६ उ.
क्रूर ५,११ उ. क्रेणि ८,१ उ. क्रेतृ ८,१
क्रेय ८१
क्रोड ५,२० उ.
कोट ३.४१
क्रोधन ३,४१
क्रोश १,९८६ च
[ ४१५
कौटु १,९८६ उ.
कोष्ट १,९८६
कौञ्च १,१०१
क्लदा १,१००८
क्लन्दम् १,१००८
क्लन्दा १,१००८
कलम ३,९४
क्लमितृ ३,९४ क्लमन ३,९४
क्लान्दम् १,१००८
क्लिन्दित १,७२५
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१६ ]
क्लीब १,७८६
क्लीबा १,७८६
क्लीबितृ १,७८६ क्लेदु ३,३६ उ.
क्लेश १,८३१
क्लेशक ३,१३३
क्लेशा १,८३१
क्लेशापह २,४२ क्लेशितृ १,८३१ । ३,१३३ ॥
८,५०
क्लेष्ट्र ८,५०
Faण १,२७१
क्वणित १ २७२
क्वथ १,९६४ क्वथितृ १,९६४
क्वाण १,२७१
क्वाथ १,९६४ च.
क्वाथिका १,९६४
क्वेलित १,४४६
क्ष
क्षक्षम् १,१००१
क्षक्ष १,१००१
क्षञ्जित १,१००१ क्षणित ७,३
क्षति ७,३ क्षत्रियापशद १,९६७
क्षन्ति ७,३
क्षन्तु १,७८८ । ३९२ क्षपा ९,३२३
क्षम् १,७८८ उ.
क्षम ३.९२
क्षमा १,७८८ । ३,९२ (उ.)
क्षमितृ १,७८८ । ३,९२
क्षमिन् ३,९२
क्षम्य १,७८८
क्षय ५,१७
क्षयिन ५, १७
क्षम्य ५, १७
क्षर १,९७१
क्षरित १,९७१
क्षव २,२६
क्षवथु २,२६
क्षवितृ २,२६
क्षव्य २,२६
क्षात्रम् १,१००१
क्षातृ १,४२ क्षान्ति १,७८८ । ३९२
क्षान्तुम् १,७८८ उ.
क्षार १,९७१
क्षारी १,९७१
[क्षार्य १,९७१]
क्षाव्य २,२६
क्षितक ५,१७
क्षितायुस् ५,१७
क्षिति ५,१७।७,४ । ८,३४
क्षिन्ति ७,४
क्षिप ५, ३ ( उ . )
क्षिपक ५,३ उ.
क्षिपका ५,३ उ.
क्षिपणि ५,३ उ.
[ पश्चमं परिशिष्टम्
क्षिपणु ५,३ उ. क्षिप्णु ३,१५/५, ३
क्षिप्र ५, ३ उ क्षिया ५,१७।८,३४
क्षीणक ५,१७
क्षीणायु ५,१७
क्षीब. १,७६९ श्रीबितृ १,७६९
क्षीण १,१०
क्षीर २,१ उ.
क्षीरपाण १,२
क्षीरपान १,२
क्षुत् २,२६
क्षुद्र ७,७ उ.
क्षुधू ३,३९
क्षुधुन ३,३९ उ.
क्षुब्ध १,९४८ । ३,५६ । ८, ४६ क्षुर ५,७८ (उ.)
भ्रूण २,२६ उ.. क्षेणितृ ७,४
क्षेत्र १,१०।५,१७ । ८,३४
क्षेत्र ५,१७ उ.
क्षेप्तृ ३,१५ । ५,३
क्षेम ५,१७ उ.
क्षेमङ्कर १,८८८
क्षेमकार १,८८८
क्षेमधृत १,६०२
क्षेय ५,१७
क्षेषितृ १,४६४ । ३,२४
श्रोतृ ६,७
क्षोध्धृ ३,३९
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
क्षोभ ३,५६ । ८,४६.
क्षोरित ५,७८
क्षौधुक ३,३९
क्ष्णवितृ २,२४
क्ष्मायितृ १,८०३ च
क्ष्मीलित १,४१८
क्ष्वेड १,९४५
वेडा १,३००,९४५
श्वेत्तृ १,३००
वेदितृ १,३०० । ३.३८
ख
ख १,९१३ । ४,२९ उ.
खखा १,६२ खज १,१४६
खजाक १,१४६ उ. खजाका १,१४६
खञ्ज १,१४७
खञ्जन १,१४७
खञ्जरीट १,१४७ उ.
खट १, १८६
खटिका १,१८६. खटी १,१८६
खट्वा १,१८६ उ.
खण्ड १,६८८ ( उ ) खण्डित १,६८८
खदा १,२९६
खदिर १,२९६ उ. खनक १,९१३
५३
खनकी १,९१३
खनि १,९१३ उ.
खनितृ १,९१३
खनित्र १,९१३ खरणादिन १,२९९
खरनादिन १, २९९
खर्जू १,१४५ उ:
खर्जूर १,१४५ उ.
खर्द १,३०७ -
खर्दा
१,३०७
खर्ब १,३५६
खर्व १,४६१
खल १, ४४९ ( उ )
खलत १,४४९ उ. खलति १,४४९ उ.
खलि १,४४९ उ.
खलितृ १,४४९
खलीन १,४४९ उ.
खल्व १,४४९ उ.
खल्या १,४४९ उ.
खल्वाट १,४४९ उ. खवितृ ८,४९
खशय २,४७
खाज १,१४६
खाज्य १,१४६
खातृ १,४१
खात्र १,९१३ उ.
खादक १,२९४
खानि १,९१३ उ. खिदा ५,१२
खिल १,४४७
खुण्डित १,६८९
खुर ५,७९ ( उ )
खेट १,१७८ । ९,२९६
खेटक १,१७८ ।९,२९६
[ ४१७
खेत्तृ ३,११६।५,१२ । ६,२४
खेय १,९१३
खेल १,४४७
खेला १,४४७
खेल १,४४७
खेवितृ १,८२१
खोट ९,२९७
खोड १,२५१
खोरा १,४१२
खोरिका १,४१२
खोरित १,४१२ । ५,७९
खोला १,२५१
खौ ८,४९
ख्यसू २,६४ उ.
ख्याय २,६४
ग
१,३९६ उ.
१,९५
गगन
गग्घा
गङ्गा १,३९६ उ.
गज १,१७१
गञ्जा १,१६४
गड १,१०३४ गडयन्त १,१०३४ उ.
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८]
[ पश्चमं परिशिष्टम्
गडयन्ती १,१०३४ उ. गडी १,१०३४ गण ९,३०८ गणक ९,३०८ गणना ९,३०८ गणिका ९,३०८ गण्ड १,२३२, ३१० (उ.)/ गण्डयन्त १,२३२ उ. गण्डि १,२३२ उ. गण्डिका १,२३२ गत्वर १,३९६ गद १,२९७ गदयित्नु ९,३१९ उ गदा १,२९७ गद्गद १,२९७ उ. गध १,२९७ गन्तृ १,३९६ . गन्ध ९,२६२ गन्धन ९,२६२ गन्धर्व ९,२६२ उ. गम १,३९६ गमिन् १,३९६ उ. गर ५,२१ । ८,३१ गरभ ५,२१ उ. गरितृ ८,३१ गरीतृ ८,३१ गरुत् ५,२१ उ. गर्ग ५, १ उ. गर्गर ५,२१ उ. गर्गरी ५,२१ उ. गर्जित १,२७२
गदि १,८६० गर्दै १,८७२ गर्त ५,२१ उ. गर्तृ १,१९ गर्दभ १,३०४ उ.।९,९२ गर्दा १,३०४ गर्ध ३,४४ गर्धन ३,४४ गर्धितृ ३,४४ गर्ष १,३५७ गर्भ ५,२१ उ. गर्भूत् ५,२१ उ. गर्व १,४६२।५,२१ उ. ।
९,३७२ गर्ह १,८६० गर्दा १,८६० गर्हित १,८६० गल १,४५२ गल्भितृ १,७७४ गल्हित १,८६१ गवल १,५९१ उ. गवादन २,१ गवेषण ९,३५३ गव्यूति २,२२ गहन १,९३९ उ. गहर १,९३५ उ. गाढ १,८७१ गाण्डि १,२३२ उ. गाण्डिव १,२३२ गाण्डी १,२३२ गाण्डीव १,२३२
गातु १,३७ उ. गातृ १,३७, ५८६ गात्र १,३९६ उ. गाथक १,३७ गाथा १,३७ उ. गाधन १,७४३ गाधिः १,७४३ उ. गाधितृ १,७४३ गान्त्र १,३९६ उ. गामुक १,३९६ गायन १,३७ गायनी १,३७ गाह १,८७१ . गाहितृ १,८७१ गाही १,८७१ गिर ५,२१ गिरि ५,२१ उ. गिरिश २,४७ गिरिशय २,४७ गिल ५,२१ गीणि ५,२१ । ८,३१ गुच्छ ३,१२ उ. गुजितृ ५,११९ गुञ्जा १,१५३ गुञ्जित १,२७२ गुड ५,१३१ (उ.) गुडा ५,१३१ (उ.) गुडितृ ५,१३१ गुणशालिन् १,७०० गुण्ठना ९,५४ गुतृ १,५९१ । ५,११३
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
[४१९
गुत्स ३,१२ (उ.) गुद १,७३५ (उ.) गुन्द्रा ९,११७ (उ.) गुप्ति १३३२,७६३ गुम्फितृ ५,७० गुर १,४८१ गुरितृ ५,१५० गुरु ८,३१ उ. गुरुपूजक ९,१९ गुलिका ५,१३१ गुल्फ १,४५२ उ. गुवाक १,५९१ उ. गुवित ५,११३ गुह १,९३२ (उ.) गुहा १,९३६ गुह्य १,९३५ गृढि १,९३५ गृथ ५,११३ उ. गृरणा ९,२७२ गृरित ३,१२९ गूर्जर ३,१२९ उ. गर्दित १,७३४ गर्वितृ १,४८१ । गृहित १,९३५ गृञ्जन १,१६६ उ. गृढि १,८७२ गृदिघ ३,४४ गृध्नु ३,४४ गृध्र ३,४४ उ. गृह १,८७२ । ८,१० गृहमेधिनू १,९०९
गृहयालु ९,३७३ गृहा १,८७२ गृहित ९,३७३ गृहीति ८,१० गृह्यक ८,१० गेपितृ १,७५६ गेय १,३७ गेषितृ १,८३४ गेहानुप्रपादम् ३,११४ गेहानुप्रवेशम् ५,१०१ गो १,३९६ उ. गोन २,४२ गोचर १,४१० गोड १,९३५ गोतृ १,५९१ गोत्र १,५९१ उ. गोद २,८० गोदुह २,६९ गोधा २,८१। ३,१२१८,४४ गोधित ३,१२ । ८.४४ गोधूम ३,१२ उ.1८,४४ उ. गोपन १,७६३ गोपना १,३३२ गोपाया १,३३२ गोपायितृ १,३३२ गोपाल १,९८२ गोपितृ १,३३२ । ३,४९ गोपोषम् १,५३६ । ३,३२ गोप्त १,३३२ गोप्य १,३३२ ॥ ३,४९ गोफितृ ५,६९
गोमय ९,३२८ [ उ.] गोमयनिकाय ४,५ गोयूति २,२२ गोयोग ३,१११ गोलक ५,१३१ गोविन्द ५८ गोष्ठितृ १,६७१ गोष्ठ १,५ गोष्पदपूरम् ३,१२५ गोष्पदप्रम् २,१४ । ३,१२५ गोसंख्य २,६४ गोस्यद १,९५६ गोझ १,९३५ ग्रन्थ ८,४१ ग्रन्थना १,७१८ ग्रन्थि १,७१८ उ. । ८,४१ उ. प्रसित १,८५४ ग्रह ८,१० ग्रहणि ८,१० उ. ग्रहीतृ ८,१० च ग्राम १,८५४ उ. ग्रामगृह्य ८,१० ग्रामणी १,८८४ ग्रामनाय १,८८४ ग्रामरोट ९,४८ ग्रामवासिन् १,९९९ ग्रामेबासिन् १,९९९ ग्रावस्तुत् २,६६ ग्रास १,८५४ ग्राह ८,१० ग्राहक ८,१०
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२०
पञ्चमं परिशिष्टम्
ग्राहम् ८,१० ग्राहित ८,१० ग्राहिन् ८,१० ग्रीवा ५,२१ उ. ग्रीष्म १,८५४ उ. ग्लसितृ १,८५५ ग्लह १,८७२ । ८,१० ग्लहित १,८७२ ग्लादृ १,८७२ ग्लातृ १.३१ ग्लानि १,३१ ग्लास १,८५५ ग्लास्नु १,३१ म्लाह १,८७२ ग्लेपितृ १,७५८ ग्लौ १,३१ उ. ग्लौच १,११८
घण्टि ७,७
घृण्टि ७७ घतन २,४२ (उ.) घृणित १,७०७ घन २,४२
घृत १,२० उ. ७,७।९,३ घनाघन २,४२
धृतच् १,२८३ घर्घरीका १,२० उ. घृतश्च्यू त् १,२८३ घर्णित ७,७
घृतस्पृश् ५,९८ धर्म १,२०
घृतस्यन्द १,९५६ घर्षितृ १,५३४
घृति ७७ घस्तृ. १,५४४
धृन्ति ७,७ घस्मर. १,५४४
घोटक १,९३९ । ५,१२० घन १,५४४ उ. घोणा १,७०८ । ५,५३ घाटम् १,१०००
घोतृ १,५९२ धात २,४२
घोर ,२,४२।५,८० घाति २,४२ उ. घोरितृ ५,८० घात्य २,४२
घोषयित्नु १,४९७ उ. घास १,५४४ । २,१
घ्राण १,३ घिष्णितृ १,७०५
घ्रात १,३ धूषितृ १,८४३
घ्राय १,३ घुट १,९३९
ध्वाषन् १,७०८ धुटिका १,९३९ । ५,१२० घुटितृ ५,१२० घुण १,७०८ । ५,५३ धुण्णितृ . १,७०६ | ङोतृ १,५९३ घुरुधुर ५,८० उ. घुघुर ५,८० [उ.] घूक १,५९२ उ. घूरावन् १,७०९
चकम् १,६२१ घृरितृ ३,१२६
चकासितृ २,३६ पूर्णित १,७०९ । ५,५४ । | चकोर १,६२१ उ., १०१९ उ. घृणा १,२० उ.। ७,७ चक्कल ९,८ [उ. धृणि १,२० उ.।७,७ उ. | चक्कलक ९,८ [उ.]
धंसित १,८५६ घट १,१००० घटना १,१००० घटम् १,१००० घटा १,१००० (उ.) घटिंधम १,४ घट्ट १,६६८ । ९,४१ घट्टना १,६६८ । ९,४१ घट्टित १,६६८ घण्टा ९,२२६ (उ.)
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातुस्रुचिः
चमस ३,२७
चक्र १,८८८ उ.
चक्रधर १,८८७ ( उ.)
चक्षण २,६४
चक्षस् २,६४ उ.
चक्षितृ २,६४
चक्षुस् २,६४ उ.
चङ्क १,१०७
चङ्क्रमण १,३८५
बञ्चल १,१०७ उ.
चचा २,१०७ ( उ.)
चञ्चु १,१०७ उ.
चचुर १,४१० चटका ९,१६७ [उ.] चणक १,२७२ उ.,१०४० उ.
वण १,९१७ उ. चण्ड १,६९७ । ९,७० (उ.)
चण्डाल १,६९७ उ. । ९,७०
चण्डि १,६९७
चण्डी १,६९७ ।९,७० चतितृ १,८९९
चतुर १,८९९ उ.
चतुर १,८९९ उ..
चत्वर १,८९९ उ.
चदितृ १,९०३ चन्दन १,३१३ (उ.)
चन्दनसार १,२५
चन्दिर १,३१३ उ.
चन्द्र १,३१३ उ. चन्द्रमस् २,१५ उ. चप १,३३९
चपट
१,३३९ उ.
चपल
१,३३९ उ.
चपेट
१,३३९ उ.
चमर
१,३८० उ.
चमस १,३८० उ.
चमसी १,३८० उ.
चमू १,३८० उ.
चय १,७९५
चयितृ १,७९५
वर १,४१० (उ.)
चरक १,४१० (उ.)
चरण १,४९० उ.
चरम १,४१० उ.
चराचर १,४१०
चरि १,४१० उ.
चरितृ १,४१० चरित्र १,४१०
चरिष्णु १,४१० चरी १,४१०
चरु १,४१० उ. चर्करीत २.४५ ( उ० )
चर्करीति २,४५
चर्चा ९,१६२ चर्चिका ५,२४
चर्तित ५,५५
च
५,५५
चर्ब १,३५८
चर्वण १,३५८
चर्मन् १,४१० उ.
चर्मपूरम् ३,१२५ चर्य १,४१०
[ ४२१
चर्या १,४१०
चविं १,४५३
चर्षणि १,५०६ उ.
चर्षणी १,५०६ [उ.]
चल १,९७२ । ५,९२
चलन १,९७२
चलाचल १,९७२
चलित १,९७२ । ५,९२
षक १,५१९,९२८ उ. चषाल १,९२८ उ.
वषि १,५१९,९२८
चह १,५५३
चहम् १,५५३ । ९,३५६
चाकम् १,६२१
चाचल १,१०७,९७२
चाणस् १,९१७ उ.
चाणूर १,२७२ उ. चाप १,३३९
चामर १,३८०
चाय १,७९५ चाय १,९१७
चार १,४१०
चारि १,४१० उ.
चारित्र १,४१० उ. चारु १,४१० उ.
चार्वाक १,४५३ उ.
चार्वाघाट २,४२
चावाघात २,४२
चाल १,९७२ च । ५,९२
चाष १,२२८
चाहम् १,५५३ । ९,३५६
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२ ]
चिकित्स्य १,२८६ चिकूण ९९ ( उ )
चिक्कस ९,९
चिक्लिद ३,३६
चित्र १,२७८
चिति ४,५
चित्त १,२७८ (उ. )
चित्ति १,२७८
चित्र ४, ५ उ. चित्रा ४,५ [ उ.]
चित्रित ९,३३९
चिन्ता ९,७८
चिन्तिया ९,७८
चिल्ल १,४३१
चीर ४,५ उ.
चीवर १,९२१ उ.
चीवितृ १,९२१
चुक्क ९,९
चुक्र १,६२१ उ.
चुच्यित १,४०४
चुटितृ ५, १२१ १,२५८
चुड्ड १,२५८
चुणितृ
५,१४३
चुण्टन १,२०४
चुण्ड १,२०४
चुद्र १,२५८
चुप्प १,३४२ उ.
चुप्र १,३४२ उ.
चुरा ९,१ चुल्ल १,४३०
चुल्लि १,४३० उ.
चुल्लित १,४३०
चूडा ९,८९
चूण ९,७४
चूरितृ ३,१३२
चूर्ण ९,७२ घूर्णपेषम् ६, २१
चूर्णि ३,१३२ उ. । ९,७२ उ.
चूर्ति १,४१०
षितृ १,४९८
चेटक १,१९१
चेटि १,१९१ उ. चेतन
चेतना १,२७८ । ९,२६०
चेतय १,२७८
१,२७८ । ९,२६० च.
चेतस् १,२७८ उ.
चेतृ ४,५
चेय ४५
चेल १,४४४ च । ५,९३
चेलकनोपम् १,८०२
चेलित १,४४४ । ५,९३
चेष्टा १,६७०
चकीर्षित १,८८८
चोट ५, १२१
चोटक ५,१२१
चोदना ९,८९
चोद्य ९,८९
चोपन १,३४२
चोपितृ १,३४२ चोर ९,१ च (उ. )
चोरणं ९,१
पञ्चमं परिशिष्टम्
चोरयितृ ९, १ चोरी ९,१
चौर ९,१ च
चौरंकारम् १,८८८
चौरी ९,१
यवन १,५९४
च्युति १,२८० [ उ.] योतितृ १,२८०
छ.
छगल ३,६ उ.
छत्त्र ९,८८ उ. छद ९,८८ छदिस् ९,८८ उ.
छद्मन् ९,८८ उ.
छन्दस् १,३१३ उ. छर्दि ९,९२ उ. छर्दितृ ६,८
छर्दिस ६,८ उ. । ९,९२ उ.
छल ३,६ उ.
छषितृ १,९२९ छाग ३,६ उ.
छागल ३,६ उ.
छातृ ३,६
छात्र ९,८८ उ.
छाया ३,६ उ. छित्ति ६,६
छिदा ६, ६
छिदि ६,६ उ.
छिदिर ६.६ उ.
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
[४२३
छिदुरा ६,६ छिद्र ६,६ उ.1९,३४० छिन्नरुह १,९८८ छुटित ५,१२२ छुर ५,१४५ छुरिका ५,१४५ छुरितृ ,१४५
ध ६,८ छृण्ण ९,४०० छेदित ९। ३१६ छोटिका ५,१२२ । ९,३० छोप्तृ ५,६१
जक्षित २,३३ जगत् १,३९६ च उ. जग्धि २.१ नधन २,४२ उ. जघन्वत् २,४२ जन्निवस २,४२ जङ्घा ३,१२२ उ. जञ्जपूक १,३३८ जट १,१८१ च जटा १,१८१ । ३,१२२ उ. जटायु २,१७ उ. जटाल १,१८१ जटिल १,१८१ (उ.) जठर ३,१२२ उ. जड १,९७३
जतु ३,१२२ उ. अत्रु ३,१२२ उ. जन ३,१२२ जनक ३,१२२. उ. जननी ३,१२२ जनयित्नु ३,१२२ उ. जनार्दन १,३०१ जनि ३,१२२ उ. जनितृ ३,१२२ जनुस् ३,१२२ उ. जन्तु ३,१२२ उ. . जन्मन् ३,१२२ उ. जन्य ३,१२२ च, उ. . जन्यु ३,१२२ उ. . जप १,३३८ जपितृ १,३३८ जप्य १,३३८ जभ्य १,३७९ जम्बू ३,१२२ उ. जम्भ १,३७९ (उ.) जम्भक १,३७९ जम्भन १,७८२ अम्भितृ १,३७९,७८३ जयन्त १,८ उ. जयिन् १,८ जय्य १,८ जर ३,२ जरत् ३,२ जरती ३,२ जरन्त ३,२ उ. जरा ३,२१८,२९
जरायु २,१७ उ. जरितृ ३,२१८,२९ जरीतृ ३,२।८,२९ अचित ५,२३ जर्जर ३,२।५,४० उ. जर्जरी ३,२ उ. जनित ३,३९ जर्तृ १,९ नल १,९७३ जलंधर १,६०२ जलासह १,९९० जल्प १,३३७ जल्पाक १,३३७ जल्पाकी १,३३७ जव १,५९६ जवन १,५९६ अषित १,५०९ जसितृ ३,८० जागरा २,३५ जागरितृ २, ५ जागरूक २,३५ जागर्या २,३५ जागृवि २,३५ उ. जाणू ३,१२२ उ. जाति ३,१२२ . जातृ १,४३ जानु ३,१२२ उ. जाप्य १,३३८ जाया ३,१२२ उ जायान २,४२ जायु १८ उ.
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४ ]
जार ३, २
जारणा ९,३८१
जारभरा २,८२
जाल १,९७३ च । ९,१२०
जालक ९,१२०
जिघ्र १,३
जित्य १,८
जित्या १,८
जित्वन् १,८ उ.
जित्वरी १,८ च उ.
जिन ८,१७ उ.
जिवितृ १,४८७
जिष्णु १,८
जिह्वा २,७१ उ.
जीनि ८,१७
जीमूत १,६०१ [ उ. ]
जीर १,८ उ.
जीरदानु १,४६५ उ.
जीणि ८,२९
जील १,८ उ.
जीव १,४६५
जीवक १,४६५
जीवग्राहम् ८, १०
जीवथ १,४६५ उ.
जीवनश ३,५९ जीवनाशम् ३,५९
जीवन्त १,४६५ उ.
जीवन्ती १,४६५ उ.
जीवातु १,४६५ उ.
जीविका १,४६५
जीवितृ १,४६५
जुगुप्सा १,७६३
जुडितृ ५,१३२
जुष्य ५,१५८
जुहू २,७२
जू १,५९६
जूति १,५९६
जूरित ३,१२७
जूर्णि १,१०५४ उ.
जूर्ति १,१०५४
जूष १,५१७
जूषा १,५१७
जूषितृ १,५१७
जृम्भ १,७८४
जृम्भा १,७८४
जृम्भितृ १७८४
जेतृ १,८
जेम १,३८४ जेमन १,३८४
जेय १,८
जेषितृ १,५२२,८३६
जेहित १,८६७
जैवातृक १,४६५ उ.
जोड ५, ४२ जोडित ५,४२, १३२
जोतितृ १,७१३
जोतृ १,५९६
जोषितृ ५,१५८
ज्यातृ ८,१७ ज्यानि ८, १७
ज्योतिष्क १,९३७ ज्योतिम् १,७१३, ९३७ उ.
पञ्चमं परिशिष्टम्
ज्योतृ १,५९५
ज्योन्ताक १,५९५ उ.
जेट १,९
ज्वरम् १,१०५४
ज्वल १,९६०
ज्वलन १,९६०
ज्वलित १,९६०
ज्वारम् १,१०५४
ज्वाल १,९६०
ज्वाला १,९६०
ज्ञ
ज्ञ ८, ३३ ज्ञाति ८,३३ च उ.
ज्ञातृ ८,३३
ज्ञापना ९,१५३
झ
झञ्झा १,३८३ उ.
झट १,१८२
झटा १,१८२
झर ३,३
झर ३, ३
झरितृ २,३
झर्चितृ ५,२४
झर्झर ३,३ उ. ५,४० उ.
झर्झरी ३,३ उ.
झर्झरीक ३,३ उ. झर्झरीका ३,३ उ.
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः ।
[४२५६
झझितृ ५,४० . झष १,५१०,९२३ . शषितृ १,५१०, ९२३ झाट १,१८२
टङ्क ९,१० टङ्कन ९,१० टङ्कना ९,१० टले १,९७४ टाल १,९७४ टीका १,६३४ च. टीकितृ १,६३४ टेकित १,६३३ ट्वल १,९७५ ट्वाल १,९७५
त: तन्ति ७,१
तन्तु ७,१ उ. तंसितृ १,५३८
तन्तुवाय १,९९२ तकितृ १,५१
तन्त्र ७,१ उ. । ९,२७३ तक्य १,५१ . तन्त्रि ९,२७३ उ. तक १,१०८ उ. । ६,१२ उ. | तन्त्री ९,२७३ उ. तक्षक १,५७१ . तपन १,३३३ तक्षन् १,५७१. उ.. तपस् १,३३३ उ. तक्षित १,५७१
तप्तृ १,३३३,३,१२४ तक्ष्णी १,५७१
तप्य १,३३३ ततृ ६,१२.. . तम ३,८९ . . तञ्चितृ ६,१२ च. तमस् ३,८९ उ.. तञ्जित ६,१३ .. तमसा ३,८९ उ. .. तट -१,१८५ (उ.) तमितृ ३,८९ तटाक १,१८५ उ.
तमिन् ३,८९ तडाक .९,५९ उ. : : तमी ३,८९ तडाग ९,५९ उ... - तमोपह २,४२ तडित् ९,५९ उ. तयितृ १,७९७ तण्डित १,६८६ - तरङ्ग १,२७ उ. तण्डु १,६८६ उ...
तरणि १,२७ उ. तण्डुल १,६८६ उ ।७,१ उ. तरण्ड १,२७ उ.. तत ७१ उ.
तरि १,२७ उ. तति ७,१
तरितृ १,२७ .. तत्वदृश्वरी १,४९५ तरी १,२७ उ. तनय ७,१ उ.
तरीतृ १,२७ तनितव्य ७,१
तरु १,२७ उ. तनित ७,१
तरुण १,२७ उ. तनु ७,१ उ.
तर्क ९,२०१। । तनुच्छद् ९,८८
त' ६,१८ उ. तनू ७.१ उ.
तर्जनी ९,२५३
.
डयितृ. ३,१०६ डिपितृ ५,१४४ डिम्ब ९,१०८ डिम्भ ९,१०४,२६८. डेपितृ ३,५३ । ५,१४४ . डेप्य ३.५३।५,१४४
ढि १,३९७ दौकित १,६२७
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६ ]
तर्दृ ५,१०८
तर्णितृ ७,६
तर्दा १,३०५
तर्दितृ ६,९ तर्पितृ ३, ४६ । ४, २३
त ३,४६
तर्फितृ ५,६३
वर्ष १,२७ उ । ३,६९
तर्षम् ३,६९
तर्षितृ ३,६९
तसे १,२७ उ. तर्हितु ५, १०८ । ६,२३
तल ९, १२४
तलुन १,२७ उ.
वष्ट १,५७१
तसर ७,१ उ.
तसितृ ३,८१
ताटक १,१८५
ताडघ २,४२
ताडघात २,४२
ताडि ९,५९ उ. ताण्डव १,६८६
तात ७,१ उ. तादृक्ष १,४९५
तादृश् १,४९५
तादृश १,४९५
तादृशी १,४९२
तान ७,१ । ९,४०२
ताम्र ३,८९ उ.
तायित १,८०६ च. तायिन १,७९७,८०६
तारक १,२७
तारका १,२७
तारा १,२७
तारिका १,२७
तार्क्ष्य १,५७४
ताल ९,१२४
तालिका ९,१२४
तालु १,२७ उ.
ति १,७९०
तिक ४, १६
तिग ४, १७
तिग्म १,६६७ उ.
तितउ ७,१ उ.
तिन्तिडीक ९,५९ उ. तिमि ३,१७ उ, ८९ उ.
तिमिर ३,१७ उ.
तिरीट १,२० उ.
तिर्यक्कारम् १,८८८
तिल १,४३९/५, ९९ । ९, ११९ तिरंतुद ५, १
तिलक. ९,११९ उ.
तिलपीलक ९५८
तिल्लित १,४४०
तीक्ष्ण १,६६७ उ.
ती मितृ ३,१८
तीर १,२७ । ९,३३६
तीर्थ १,२७ उ.
तीर्थ भर्तृ १,८८६
तीवर १,४६८ उ.
तीवितृ १,४६८ तीव्र १,४६८ उ.
पञ्चमं परिशिष्टम्
तुक् ७,१
तुङ्ग ११६२ उ.
तुच्छ ५,१ उ.
तुआ १,१६२
तुञ्जिता १,१६२
तुटि ५,१२४ [.] तुटितृ. ५,१२४
तुडि ५,१३३ [.]
तुडितृ ५,१३३
तुण्ड १,६९५ । ५, ४७ उ.
तुण्डि १,६९५ उ.
तुण्डि
१,६९५
तुत्थ ५,१ उ. -
तुद ५,१ व उ.
तुदन ५,१ उ.
तुन्दपरिमार्ज २,३९ तुन्दपरिमृज २,३९
तुम्फित १,३४८
तुम्बक ९,११२ .
तुम्बी १,३७० | ९११२ तुर १,४७१
तुल ९, १२५
तुला ९,१२५ च तुष ३,७०
तुषार ३,७० उ. तुष्टि ३,७० तुहिन १,५६२ उ. तूक २,२१ उ.
वडा १,२४५
तूण ९,७५,२५८ ( 3.)
तूणीर ९,७५ उ. २५८ उ.
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूधिः
[४२७
% 3D
तूदी ५,१ [उ.] तूप २,२१ उ. . खुर ३,१३१ तरण ३,१३१ वरित ३,१३१ तूणि १,१०१० उ. ।
३,१३१ उ. तूर्य ३,१३१ तर्वितृ १,४७१ तूल १,४२५ तूलि १,४२५ तृलिका १,४२५ तुलित १,४२५ तृषा १,४९९ तषितृ १,४९९ तंहितृ ५,१०९ तृक्ष १,५७४ तृक्षित १,५७४ तृण ६,२३ उ.
तेगितृ ४,१७ तेजन १,६६७ तेजना ९,२२ तेजनी १,६६७ . तेजस् १,६६७ उ. ।
९,२२ उ. तेपितृ १,७५०,७५३ तेप्त १,७५० तेमन ३,१७ ... तेमितृ ३,१७ तेलिन १,४३९ । ५,९१ तेवा १,८१६ तेवितृ १,८१६
तैलपषम्
६,२१
अङ्कित १,६२४ त्रपा १,७६२ प्रपितृ १,७६२ . त्रपु १,७६२ उ. त्रप्त १,७६२ । ३,४६ प्रसर ७१ त्रसितृ ३,२८ त्रस्नु ३,२८ त्रातृ १,६०५ त्रि ५,७९ उ. त्रिष्टुभ् १,७८१ उ. त्रुटितृ ५,१२३ धुडितृ ५,१४२ त्रोटक ५,१२३ त्रोटि ५,१२३ उ. बौकितृ १,६२८ ज्यूषण १,५०४ त्वक्षितृ १,५७२,५७८ त्वङ्ग १,९१ त्वच् ५,२५ । ७,१ उ. त्वच ५,२५ त्वचितृ ५,२५ त्वरा १,१०१० त्वरित १,१०१० - त्वष्ट १,५७२,५७८, उ.,
९३० उ. त्विष् १,९३० त्वेष्ट १,९३० त्सरु १,४०५ उ. त्सरुग्रह ८,१०
तृति ६,६
तृन्ति
६,६
तैलस्यन्द १,९५६ तोक २,२१ उ.। ७,१ उ. तोटक ५,१२४ तोणितृ ५,४७ तोतृ. २,२१ तोत्तृ ५,१ तोत्र ५,१ . तोभितृ ३.५८ ॥ ८,४८ तोलना ९,१२५ तोला ९,१२५ तोष्ट ३,७० तोसल १,५३९ उ. तोसित १,५३९ त्यक्तृ १,१७२ त्याग १,१७२
त्यागिन् १,१७२ - | त्याज्य १,१७२
तृपित ९,४०५ . तृप्र ३,४६ उ. तृपय ५,६३ तृम्फितृ ५,६४ तृष् ३,६९ तृषा ३,६९ तृष्णज् ३,६९ तृष्णा ३,६९ च, उ. तेकितृ १,६३२ । ४,१६
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८ ]
थ
थुडित ५, १३५ थूर्वि १,४७२
द
दंश १,४९६
दंशन ९, २७७
दंशना ९,२७७
दंशी १,४९६
दं १,४९६ दंष्ट्रा १,४९६
दक्ष १,८७५
दक्षम् १,१०१२
दक्षा १,१०१२
दक्षाय्य १,८७५ उ.
दक्षिण १,८७५ उ.
दक्षिणा १,८७५ उ. दक्षितृ १,८७५, १०१२ दग्धृ १,५५२
दण्ड ३,८८ उ.
दण्डग्रह ८, १०
दण्डधार १,८८७
दण्डोपघातम् २,४२
दत्त १,७
दत्त्रिम २,८०
दद २,८०
ददर २,३४
ददितृ १, ७२७
दध १,७४५। २,८१
दधि १,७४५ उ. । २,८१ दधिति १,७४५
वधृष् ४, २७
दन्त ३,८८ उ.
दन्दशूक १,४९६
दन्द्रमण १,३९३
दभ्र ४, २४ उ.
दम ३,८८
दमितृ ३,८८
दमिन् ३,८८
दमुनस् ३,८८ उ.
दमूनस् ३,८८ उ.
दम्भितृ ४,२४
दम्य ३,८८
दया १,७९९
दयालु १,७९९
दयितृ १,७९९
दयू ३,१
दर १,१०१५ १८,२८
दरक ८,२८ उ.
दरद १,१०१५ उ. । ८,२८ उ.
दरि ८,२८ उ.
दरितृ ८,२८
दरिद्र २,३४ दरिद्राण २,३४
दरिद्रायक २,३४ च
दरिव्रि २,३४
दरी ८,२८
दरीतृ ८,२८
दर्दर ८,२८ उ.
दर्दरी ८,२८ उ.
पञ्चमं परिशिष्टम्
दर्दरीक ८,२८ उ.
दर्दुर ८,२८ उ.
दई २,३४ उ. । ८,२८ उ.
दर्पितृ ३,४७
दते ३,४७
दर्फित ५,६७
दर्भ ५,१५२ उ.
दर्भितृ ५,७५
दर्व ८,२८ उ.
दवि ८,२८ उ.
दर्श १,४९५ दर्शनीयमानिन् ३,१२०
दर्हित १,५५६
दल १,४१३
दलप १,४१३ उ..
दलित ९,४१३
दल्भ १,४१३ उ.
दव १,१२ न । ४,१२
दवथु ४,१२
दवितृ ३,१००
दशन् १,४९६ उ.
दशन १,४९६
दसितृ ३,८२
दस्यु ३,८२ उ.
दस्र ३,८२ उ.
दहन १,५५२ उ.
दाक्षम् १,१०१२
दाघ १,५५२
दातृ १,२९ । २,१२,८० ।
३,५,१०१
दांत्र २,१२
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
धातुस्रुचिः
दान १,७
दानु १,७ उ.
दामन १,६०४ उ
दाय २,८० च । ४,५, १०१
दायाद २,८०
दारु १,७१२,८० १८,२८उ.
दारुण ८,२८ उ.
दाघाट २,४२
दाघात २, ४२
दाव १,१२ । ४, १२
दाश १, ९२२ ( उ )
. दाशितृ १,९२२
दाश्वसू १,९२२
दास १,९३३
दासितृ १,९३३
दासी १,९३३ ।९, २७८
दाहा १,५५२
दिदिवि ३,१ उ.
विद्युत् १९३७
दिधिषू २,८१ उ.
दिधीषू २,८१ उ.
दिन ३,५ उ.
दिन्वित १,४८६ दिलीप १,४१३ उ.
दिव् ३,१ उ.
दिवन् ३,१ उ.
दिवौकस् ३,३३
दिश् ५,४
दिशा ५४
दिष्टि ५४ दिष्ट्या ५,४ उ.
दीक्षा १,८८१ दीक्षित १,८८१ च
दीदिवि ३,१ उ.
दीन ३,१०१ उ.
दीप ३, १२३
दीपितृ ३,१२३ च
दीप्ति ३,१२३
दीप्र ३, १२३
दीणि ८,२८
दीवि ३,१ उ.
दुःख ९,२८४ ( उ. )
दुःशासन २,३७
दुःषंधि २,८१ दुःषूति २,४९
दुडित ५, १४०
दुन्दुभिवेषण १,८१८
दुरयन १,७९०
दुरादयंभव १,१
दुर्दुरूट ८,२८ उ.
दुर्दुरूट ८,२८ उ.
दुर्धर्षण ४,२७
दुर्मय ४४ । ८,५
दुर्मर्षण १,५२८ । ३,१४१
1
दुर्मान ८५
दुर्योधन ३,११७
दुर्लभ १,७८६
दुर्लय ३,१०५
दुर्लभ १,७८६
दुलायन १,७९०
दुलि ९,१२६ उ.
दुष्प्रलम्भ १,७८६
दुहितृ २,६९ उ.
दुह्या २,६९
दूडाश १,९२२
दृढय १,३०
दूत ३,१०० उ.
दूर २,१७ उ.
दूरेपाकु १,८९२
दूर्वा १,४७३ दृर्वित १,४७३
दूषण ३,६६
दूषिका ३,६६ उ.
दूषीका ४,६६ उ.
दृढ १,५५७
वृति ५,१५२ उ.
दृतिहारि १८८५
इन्भृ ५,७५ उ.
दृ ३,४७ उ.
[ ४२९
दृप्रा ३,४७ उ.
दृब्ध ९,४०७
दृम्फित ५,६८
दृषत् ८,२८ उ.
दे
२,७०
देय २,८० । ३,५
देव ३,१
देवक ३० ९
देवट १,८१७ उ. । ३,१ उ. देवदर्श १,४९५
देवर १.८१७ उ. । ३,१ उ.
देवल १,८१७ उ । ३,१ उ. देविका ३,१ (उ.) देवितृ १,८१७
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३० ]
देवी ३,१ देवृ ३,१ उ. देष्टृ ५,४
देहली २,७० उ.
दोग्धृ २,६९
दोड ५,१४०
दोतृ १,१२ । ४,१२
दोला ५,१४० | ९,१२६ व
दोष्ट ३,६६
दोस् ३,८८. उ.
दोह २,६९
दोहद २,६९ उ.
दोहिन २,६९
दोह्या २,६९
धव्य २,१९
धातृ १,३३
चाव्य २,१९
घु २,१९ उ.
घो २,१९ च उ.
द्योतन १,९३७
चोट २.१९
व्रप्त ३,४७
द्रमितृ १,३९३
द्रमिल १,३९३ उ.
द्रव १,१३
द्रविण १,१३ उ.
द्रवितृ ८, ९
द्रष्टृ १,४९५
प्राषित १,६४४
द्राघिमन् १,६४४
व्राति १,६९८
द्रातृ १,३४ । २,८ च वाहित १,८६९
द्रु १,१३ उ.
द्रुघण २,४२
द्रुघन २,४२
द्रुण ५,४९
हुणा
१,१३ उ.
डुणी १,१३ । ५,४९
द्रुहिण ३,९६ उ.
ब्रेक १,६१४
द्रोग्ट ३.९६
ब्रोदृ ३,९६
द्रोण १,१३ उ. ५,४९
द्रोणमाय १,६०३
द्रोणितृ ५,४९
द्रोणी १.१३ उ. १५,४९
व्र १,१३
द्रोह ३,९६
द्रोहि ३.९६
द्रोहिन् ३,९६
इ १,२२
द्वार १,२२ उ.
द्वार १,२२ (उ.).
द्वि ५,७१ उ.
द्विप १,२
द्विष २,६८
द्विषंतप १,३३३
द्वेष २,६८
द्वेषिन् २,६८
द्वेष्टृ २,६८
द्वेष्य २,६८
पञ्चमं परिशिष्टम्
द्वहतषम् ३,६९ द्वन्यात्यासम् ३,७८
धन १,३२४ धनञ्जय १.८
धनित १,३२४
धनुर्ग्रह ८, १०
धनुस १,३२४. उ.
धनू १.३२४ उ.
धन्वन् १,३२४, ४५८ उ.
धम १,४
धमक १,४ उ.
धमनि १,४ उ.
धय १,२८
धरणि २,६०२ उ.
धर्तृ १,८८७ १५, १५३
धर्म १,६०२ उ.
धर्मकामा १,७८९
धर्मकामी १,७८९
धर्मप्रद २,८० धर्मशीला १, ४२१
धर्षित ४,२७
धव ४,६
धवितृ ४, ६ । ८, १३
धवित्र ४, ६
धाक २,८१ उ.
धाणक २,८१ उ.
धातु २,८१ उ.
धातृ १,२८२,८१
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः .
ध्वर्तृ १,२३ ध्वस्ति १,९५४ ध्वाङ्क १,५८५ ध्वान्त १,३२५
धात्री १,२८ धानका २,८१ उ. धाना २,८१ उ. धान्य २,८१ उ. धान्य विकाय ८,१ धाम २,८१ उ. धामन् २,८१ उ. धाय १,२८।२,८१ धारया २,८१ घारय १,६०२ . धारा १,६०२ । २,८१
धारु १,२८ धार्य ५,१५३ धावक १,९२० धावित १,९२० धिक्षित १,८७७ धिन्वित ४,२६ धी १,३० धीर २,८१ उ. धीवन् १,३० उ. धीवर १,३० उ. धुक्षितृ १,८७६ धुर १,४७४ च उ. धुवक ५,११६ उ. धुवका ४,६ उ.1५,११६ उ. धुवितव्य ५,११६ धुवितृ ५,११६ धूनि ८,१३ (उ.) धृपायित १,३३४ धूपितृ १,३३४ धूम ४,६ उ.
धूर ३,१२८ धरितृ ३,१२८ धूर्त १,४७४ उ. धूषित १,४७४ धूसर ४,३ उ.। ९,१३६ उ. धृति १,६०२ धृष्णज् ४,२७ . धृष्णु ४,२७ धेतृ ३,१०२ । ५,१६ धेनु १,२८ उ. धेय २,८१ धोतृ ४,६ च । ८,१३ धोरित १,४११ धौति १,९२० ध्माय १,४ ध्यातृ १,३० ध्रसितृ ८,५९ ध्राडित १,६९९ ध्रातृ १,३२
नंष्ट ३,५९ नकुल १,९८१ नक्ष १,५७६ नक्षत्र १,५७६ उ. नख १,६४ । ३,१४२ उ.. नखम्पचा १,८९२ नगरघात २,४२ नगरघ्न २,४२ नगरमर्दिन् ८,४३ नग्न ५,१५५ (उ.) नग्नङ्करण १,८८८ नट १,१८७ (उ.) नड १,९७८ ९।२६ नति १,७९४ नद १,२९९ नदनु १,२९९ उ. नदी १,२९९ नदीषण २,६ नदीष्णात २,६ नदीस्न २,६ नळू ३,१४२ नध्र ३,१४२ ननान्दृ १,३१२ उ. नन्तृ १,३८८
ध्रुव १,१६ । ५,११४ ध्रुवक ५,११४ उ.) ध्रुचित ५११४ ध्रुविल ५,११४ उ. धेकित १,६१५ ध्रोतृ १,१६ ध्वंस १,९५४ ध्वज १,१३२ ध्वन १,३२५ ध्वनि १,३२५ उ. ध्वनित १,३२५
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२.]
नन्द १,३१२
नन्दक १,३१२ नन्दथु १,३१२
नन्दन १,३१२
नन्दन्त १,३१२ उ.
नन्दन्ती १,३१२ उ.
नन्दयन्त १,३१२ उ.
नन्दयित्नु १,३१२ उ
नन्दा १,३१२
नन्दिन् १,३१२
नन्दी १,३१२
नपत् २,९
नपुंसक ९,१४३ उ.
नप्तृ १,३८८ उ.
नभस् १,९४९ उ. । ३,१४२उ.
नभितृ ३,५७ । ८,४७
नभ्य ३,५७
नम्राज् १,६६१
नमस् १,३८८ उ.
नमुचि ५,६ [उ.]
नमेरु १,६०३ उ.
नम्र १,३८८
नय १,८८४ व
नयितृ १,७९४,७९८
नर ८,३०
नरित ८.३०
नरीत ८,३०
नर्त ३,९
नर्तक ३,९
नर्तितृ
३.९
नर्दा १,३०४
नल १,९७८
नलद १,९७८
नलित १,९७८
नव २,२३:
नवन् २,२३ उ.
नवितृ २,२३
नवेदस् २,४१ [ उ. ]
नश् ३,५९
नशितृ ३,५९
नश्वर ३,५९
नश्वरी ३,५९
नसितृ १,८५१
नहुष ३,१४२ उ.
नांष्ट्र ३,५९ उ.
नाकु १,३८८ उ.
नाटक १,१८७ । ९,२६
नाडिघम १,४ नाडी १,९७८ । ९,२६ (उ.)
नाथ १,७१६
नाथन १,७१६
नाथहरि १,८८५
नाधितृ १,७४७
नान्द १,३१२
नान्दी १,३१२
नाभि ३,१४२ उ.
नामग्राहम् ८,१०
नामन् १,३८८ उ.
नामादेशम् ५,४
नाय १,८८४ च.
नारी ८,१०
नाल - १,९७८
[ पचमं परिशिष्टम्.
नाला १,९७८
नाली १,९७८
नाव्य २,२३
नाशन ३,५९
नास १,८५१
नासा १,८५०
नासिका १,८५०,८५१ च. उ.
नासितृ १,८५० निस २,६३
निंसितृ २,६३
निस्य २,६३
निःषंधि २,८१
निःषूति २४९. निकटं १,१७४
निकर ५, २०
निकष १,५०७
निकषा १,२०७ उ.
निकाय ४५
निकाय्य ४,५
निकार ५,२०
निकेतून १,२८६
निक्वण १,२७१
निक्त्राण १,२७१
निक्षितृ १,५७३
निगद १,२९७
निगम १,३९६
निगाद १,२९७
निगाद्य १,२९७
निगार ५, २१
निगृहीति ८,१० निग्राह ८,१०
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
[४३३
निघ २,४२. निघस २,१ निघृष्व १,५३४ उ. निचेय ४५ निज २,८३ निजोहव १,९९४ निञ्जित २,५४ नितान्त ९,४०२ निदाघ १,५५२ निद्रा १,३४ (उ.) निद्रालु १,३४ निद्रित १,३४ निधन २,८१ उ. निधय १,२८ निधुवन ५,११६ निनद १,२९९ निनाद १,२९९ निन्दक १,३११ निन्दा १,३११ निन्वित १,४८४ निपठ १,२१३ निपठिति १,२९३ . निपद्या ३,१९४ । निपाठ १,२१३ निपात १,९६२ निपुण ५,५० निमूलकाषम् १,५०७ निमेष ५,१०६ नियम १,३८६ नियाम १,३८६
नियोज्य ३,१११ निरक्षिन् १,५६७ निरयण १,७९० निराकरिष्णु १,८८८ निरुपणा ९,३२४ निर्झर ३,३ निर्मोक ५,६ - निर्वाण २,५ निवृत्ति १,९५५ उ. निलय ३,१०५ निलयन १,७९० निलिम्प ५,१० निश १,४९४ निशा १,४९४ निशीथ २,४७ उ. निशुम्भ १,३७७ निषङ्ग १,१७३ निषद्या १,९६६ निषद्वर १,९६६ उ. निषय ४,२ निषाद १,९६६ च. निषादिन १,९६६ निष्क ९,२५२ (उ.) निष्कोषितृ ८,५८ निष्कोष्ट ८,५८ निष्ठीवन ३,२३ निष्ठेवन ३,२३ निष्ण २,६ निष्णात २,६ निष्पाव १,६००।८,११ ।
निष्पेष ६,२१ निसर्ग ३,११२ निसदन ९,१७३ निस्वन १,३२७ निस्वान १,३२७ । निहव १,९९४ निहाक २,७३ उ. निहाका २,७३ उ. नीकाश १,८३० । ३,१३५ नीत्त २,८० नीथ १,८८४ उ. नीप १,८८४ उ. नीर १,८८४ उ. नीरुज ५,३६ नीणि ८,३० नील १,४२० नीलङ्गु १,४२० उ. नीला १,४२० च नीलित १,४२० नीली १,४२० च नीवार ४,९ नीवि १,४६९ उ.।९९३ उ. नीवितृ १,४६९ नीवृत् १,९५५ नीव्र १,४६९ उ. नीशार ८,२४ नुति २,२३ नुवितृ ३,११५ नृ १,८८४ नृचक्षस् २,६४ उ.
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४३४ ]
[ पञ्चमं परिशिष्टम्
पताका १,९६२ उ. पति १,७९२ ॥२,९ उ. पतिवरा ४,९। ८,६० पतिघ्नी २,४२ पत्काषिन् १,५०७ पत्तन १,९६२ उ. पत्ति , ३,११४ उ. पत्तिगणक ९,३०६
नृत्त ३,९ नृत्य ३,९ नृप २,९ नृपयाजक १,९९१ नृशंस १,५५० नेतृ २,८३ नेग २,८३ नेतृ १,८८४ (उ.) नेत्र १,८८४ नेदि १,६४४ नेदितृ १,९०५,९०६ नेप १,८८४ उ. नेमि १,८८४ उ. नेलित ५,९६ नेषितृ १,५२५,८३७ नेष्ट १,८३७ उ., ८८४ उ. नोत्तृ ५,५६ नौ ५,५६ उ. न्ति १,७९४ न्यकु १,१०५ उ. न्यञ्चु १,१०५ न्याद २,१ न्याय २,१७ च न्युज ५,३४ न्युजित ५,३४
पक्त्रिम १,८९२ पक्ष ९,१५१ (उ.) पङ्क १,६५७ । ४,१३ (उ.) पचा १,८९२ पचेलिम १,८९२ उ. पञ्चन १,१५७ उ. पञ्चाल १,६५७ उ. पश्चिका १,६५७।९,१३ पट १,१९५ पटचर १,४१० पटल १,१९५ उ. पटह १,१९५ उ.।२,४२ पटीर १,१९५ उ. पटु १,१९५ उ. पटुंमन्य ३,१२० पटुमानिन् ३,१२० पटोपकर्षम् १,५०६ पटोल १,१९५ [उ.] पट्टन १,१९५ उ. पविंमन्या ३,१२० पणाया १,७१० पणायितृ १,७२० पणितृ १,७१० पण्ड १,६८२ । ९,६८ उ. पण्डा १,६८२ । ९,६८ पण्य १,७१० पत १,९६२ पतङ्ग १,९६२ उ. पतत्र १,९६२ उ. पतन १,९६२ पतयालु १,९६२ ॥ ९,३१२
पत्त्र १,९६२ . पत्सल १,९६२ उ. पथ १,९६३ (उ.) पथितृ १,९६३ पथिन् १,९६३ र. पथिप्रज्ञ ८,३३ पद ३,११४ पदन ३,११४ पदवि ३,११४ [उ.] पदवी ३,११४ उ. पदाजि १,१३९ उ. पदाति १,२९७ पद्म ३,११४ उ.. पद्र ३,११४ उ. पनस १,७४८ उ. पम्फुल १,४१४ पयस् १,२ उ, ७९२ उ. पयस्काम १,७८९ पयस्कार १.८८ पयितृ १,७९२ पयोधस् २,८१ उ. पर ८,२५ (उ.)
पक्ति १,८९२ पक्त १,८९२
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शब्दसूचिः
परन्तप १,३३३ । ३,१२४ परम ८,२५ उ.. परमेष्ठ १,५ परमेष्ठिन् १,५ उ.. परशु ८,२४ उ. परश्वध ८,२४ उ. . पराण २,३१ परिकृश ३.६४ परिक्शवत् ३,६४ परिक्षेपक ५,३ परिक्षेपिन् ५,३ परिखा १,९१३ परिघ २,४२ च परिघातन २,४२ परिचक्षुम् २,६४ उ. परिचर्या १,४१० . परिचाय्य ४,५ . परिचारक १,४१० परिचय ४५ परिणाय १,८८४ परितृ ८,२५ परिदाहिन १,५५२ परिदेवक ३,१ परिदेविन् १,८१७ परिपवन ८,११ परिपावन ८,११ परिभव १,१ परिभविन १,१ च परिभाव १.१ परिभाविन् १,१ परिमल १,८१०
। परिमार्य २,३९ ।
परिमृज्य २,३९ परिमोहिन् ३,९५ परिवादक १,९९८ परिवादिन् १,९९८ परिवाप १,९९५ परिवृढ १,५५८,५६० परिवेष २,८५ परिवेषक २,८५ परिव्रज्या १,१३७ परिव्राज् १,१३७ परिव्राजक १,१३७ परिव्राज्य १,१३७ परिषद् १,८४२,९६६ परिषय ४२ परिष्टुत् २,६६ परिष्वक्ति ५,१५७ परिष्वङ्ग ५,१५७ परिसारिन् १,२५ परीतत् ७१ परीतृ ८,२५ परीत्त ३,५ परीष्ट ३२५ परुत् ८,२५ उ. पर्क ६,१० पर्जन्य १,२२६ उ. पर्डितृ ५,४३ पर्ण ८,२५ उ. । ९,३०५ पर्णध्वस् १,९५४ पणितृ ५,४६ पढे २,७६ । ४,१३।५,१५१
पर्दन १,७३९ पर्दित १,७३९ पर्यङ्क १,१०५ पर्याय २,१७ पर्यषणा ३,२५ पर्वत १.४५५ उ. पर्वन् ८,२५ उ. पवितृ १,४५५ पर्श ५,९८ [उ.] पर्षद १,८४२ उ. पर्षित १,५२८,८४२ पल १,९८२ पलल. १,९८२ उ. पलायित १,७९० पलाल १,९८२ उ. पलाशशातन १,९६७ पलाशशातनी १,९६७ पलिघ २,४२ पलित १,९८२ च उ. पलिन १,९८२ पल्यङ्क १,१०५ पल्लि १,४४१ उ. पल्बल १,९६२ उ. पवन १,६०० च उ, । ८२९ पवि १,६०० उ. पवितृ १,६००,८२९ । ८,११ पवित्र १,६००। ८,२१ पशु १,४९५ उ. पश्य १,४९५ पषितृ १,९२६ पस्पस १,९२६
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पञ्चमं परिशिष्टम्
पांसु ९,१४१ उ. पाक २,९ उ. पाका २,९ पाकय १,८९२ पाजस् २,९ उ. पाटल १,१९५ उ. पाठक १,२१३ पाणि १,७१० उ. पाणिंधम १,४ पाणिघ २,४२ पाणिघात २,४२ पाणिसा ३,११२ पाण्डर १,६८२ उ. पाण्डु १,६८२ उ. पाण्डुर १,६८२ पाण्य १,७१० पात १,९६२ पाताल १,९६२ उ. पाति २,९ उ. पातु १,२ उ. पातृ १,४७१२,९ पात्र २,९ उ. पात्रप्रवाह ८,० पात्री १,२ (उ.) पाथ १,९६३ पाथस् २,९ पाद ३,११४ पादुका ३,११४ पादू ३,११४ उ. पाप २,९ उ. पाप्मन् १,९६२ उ.
पामन् १,२ उ. । २,९ उ. | पिण्डी १,६८४ । ९,६८ पामन २,९
पिण्याक ६,२१ उ. पामा १,२ उ.
पितु १,२ उ. पाय १,२
पितृ २,९ उ. पायु. १,२ उ.
पितृघातिन् २,४२ पार २,७६।९,३३५ पितृव्यचस् ५,११८ [उ.] पारणा ९,३३५
पित्तन. २,४२ . पारय २,७६ । ९,१,३३५ पिधान २,८१ पार्श्व ५९८ उ. पिनाक ६,२१ उ. पार्श्वशय २,४७ पिन्धित १,४८२ पाणि १,५२६ उ., ८४२ उ. पिपीलक १,४१९ पाल १,९८२
पिपीलिका १,४१९ (उ.) पाली ९,१३२
पिप्परी ८,२५ उ. पाष १,९२६
पिब १,२ पाषाण १,९२६ उ. पिशाच ५,१३ उ.. पिक ५,१५ उ. पिशित ५,१३ उ. पिङ्ग २,५२ (उ.) पिशुन ५,१३ उ. पिचु ९,१२ उ. पिस १,५४६ पिच्छ ३,१०८ उ. पिच्छा ५,३१
पीक ५,१५ उ. पिञ्छ ३,१०८ उ. पीठ ३,१०८ उ. पिञ्जर २,५२ उ. ।९,१७ उ. पीडा ९,५८ पिञित २,५२
पीतक १,२ पिज़ल २,५२ उ.।९,१७ उ. पीतद्रु १,१३ उ. पिटक १,१८३ च उ. पीतु १,२ उ. पिटाक १,१८३
पीथ १,२ उ. पिठर १,२२१ उ. पीयु २,४ उ. पिठिर १,२२१,८९२ उ. पीला १,४१९ पिण्ड १,६८४
पीलिल १,४१९ पिण्डि १,६८४ उ. पीलु ३,१०८ उ. पिण्डितृ १,६८४ | पीव १,४६६
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शब्दसूषिः .. ... .
पीवन् १,६०७ उ. पीवर १,४६६ उ.,६०७ उ. पीवरी १,६०७ पीवा १,४६६ पीवित १,४६६ पुंख्याति २,६४ . पुंख्यान २,६४ घुम् २,९ उ. पुट ५,१२७ . पुटित ५,१२७ पुटी ५,१२७ पुण ५,५० पुण्ड ५,५० उ. पुण्डक १,२९९ पुण्डरीक १२९९ उ.।
पुरोधस् २,८१ उ. पुर्पुर ८,२५ उ. पुल १,९८० पुलक १,९८० उ. पुलस्ति १,९८० उ. पुलि १,९८० [उ.] पुलिक १,९८०. उ. पुलिन १,९८० उ. पुलिन्द १,९८० उ. पुष्कर १,५३६ उ. पुष्करसद् १,९६६ पुष्कल १,५३६ उ.
पूरितृ ३,१२५ पूर्ण ८,२५ च पूर्ति ८,२५ पूर्व ९,११३ पूर्व १,४५४ (उ.) पूर्वज ३,१२२ पूर्वपरिग्राह ८,१० पूर्वसर १,२५ पूर्वसरी १,२५ पूर्वितृ १,४५४ पूल १,४२६ पूलितृ १,४२६ पूली १,४२६ पूषन् १,५०० उ. पूषित १,५०० पृच्छा ५,३३ पृञ्जित २,५१ पृण ५,४६ पृथिवी १,१००३ उ. पृथु १,१००३ उ. पृथुक १,१००३ (उ.) पृथ्वीका १,१००३ [उ.] पृदाकु १,७३९ उ. पृश्नि ५,३३ उ. पृष १,५२६ पृषत् १,५२६ उ. पृषत १,५२६ उ. पृषती १,५२६ उ. पृषित १,५२६ उ. पृष्ट १,५२६ उ. पृष्णि १,५२६ उ.
पुष्पप्रचाय ४५ पुष्पाहर १,८८५ पुष्पितृ ३,१६ पुष्य ३,३२ पुस्त ३,७५ उ. । ९,७९ पुस्तक ३,७५ ॥ ९,७९ पूग १,६०० उ. पूजक ९,१९ पूजा ९,१९ पूजार्ह १,५६४ पूजार्हा १,५६४ पूज्य ९,१७ पूति १,८०१ च उ. पून ८,११ पूय १,८०१ पूयित १,८०१ पूयी १,८०१ पूरण ३,१२५
पुण्ड १,२९९ उ.।५,५० उ. पुण्य १,६०० उ. ।५,५० उ. पुत्र १,६०० उ. । ८,११ उ. पुर ५,८१ । ८,२५ उ. पुर ५,८१ पुरन्दर ५,१५२ पुरःसर १,२५. पुरःसरी १,२५ पुरण ८,२५ उ. पुरीष ८,२५ उ. पुरु ५,८१ उ.। ८,२५ उ. पुरुष ५,८१ उ. । ८,२५ उ. | पुरुषवाहम् १,९९६ पुरुखस् २,२७ उ. पुरोडाश १,९२२
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४३८]
पश्चम परिशिष्टम्
पृष्य १,५२६ पेटक १,१८३ उ. पेटा १,१८३ पेडा १,१८३ पेतृ ३,१०८ । ५,१५ पेल १,४३२ ॥९,१३१ पेलक १,४३२ पेलव १,४३२ उ. पेला १,४३२ । ९,१३१ पेलित १,४३२ पेवितृ १,८२४ पेशल ५,१३ उ. पेशि ५,१३ उ. पेष्ट ६,२१ पेसित १,५४६,५४७ पेस्वर १,५४६ पैशाच ५,१३ पोटा ५,१२७ । ९,३५ पोणितृ ५,५० पोत १,६०० उ. पोतृ १,६०० उ. । ८,११ उ. पोत्र १,६०० । ८,११ (उ.) पोथितृ ३,११ पोरितृ ५,८१ पोल १,९८० पोलित १,९८० पोषयित्नु १,५३६ उ. पोषित १,५३६ । ८,२७ पोष्ट ३,३२ । ८,५७ पोसित ३,७५ पौर्णमासी ३,८६
प्ति १,७९२ प्यात १,६०७ प्योषितृ ३,७३ प्योसित ३,२९,७४ प्रकमन १,७८९ प्रकामना १,७८९ प्रकाश १,८३० प्रकोष्ट ८,५८ प्रक्रन्त १,३८५ प्रक्रम १,३८५ प्रक्वण १,२७१ प्रक्वाण १,२७१ प्रक्षीब १,७६९ प्रख्य २,६४ प्रख्यान २,६४ प्रख्यापनीय २,६४ . प्रगमन १,३९६ प्रगमना १,३९६ प्रगल्भ १,७७४ प्रगल्भा १,७७४ प्रगीति १,३७ प्रगृह्य ८,१० प्रग्रह ८,१० प्रग्राह ८,१० प्रघण २,४२ प्रघस २,१ प्रघाण २,४२ प्रच्छद ९,८८ प्रजनिष्णु ३,१२२ प्रजविन १,५९६ प्रजा ३,१२२
प्रज्ञ ८,३३ प्रज्ञाः ८,३३ प्रणव २,२३ प्रणाडिका १,९७८ प्रणाय्य १,८८४ प्रणाल १,९७८ । ९,२६ प्रणालिका १,९७८ प्रणाली १,९७८ ॥ ९,२६ प्रणिंसन २,६३ प्रणिंसनीय २,६३ : प्रणिक्षण १,५७३ प्रणिक्षित १,५७३ प्रणिदातृ १,६०४ प्रणिन्दन १,३११ प्रणील १,४२० प्रणोद ५,५६ प्रतपन ३,१२४ प्रति १,१००३ उ. . प्रतिदिवन् ३,१ उ. . प्रतिपद ३,११४ प्रतिबोधिन् १,९६८ ।
३,११९ (उ.) प्रतिभू १,१ प्रतिशीन १,६०६ प्रतिशीनवत् १,६०६ प्रतिश्याय १,६०६ प्रतिकश १,४९० प्रतिष्णात २,६ प्रतिष्णान २,६ प्रतिष्णिका २,६ प्रतिस्कीर्ण ५,२०
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शब्दसूचिः
[१३९
प्रपातुक १,९६२ प्रपावन ८,११ प्रप्स २,२ प्रभव १,१ प्रभवन ११
प्रतिस्न २,६ प्रतीकाश १,८३० । ३,१३५ प्रतोद ५,१ प्रत्त २,८० प्रत्ति १,१००३ उ. प्रत्यय २,१७ । ३,१०९ प्रत्याय २,१७ प्रथम् १,१००३ प्रथम १,१००३ उ. प्रथा १,१००३ प्रथितृ. १,२००३ प्रदीप ३,१२३ प्रदाघ १,६४४ प्रद्राव १,१३ प्रद्राविन् १,१३ प्रधर्षित ९,४१२ प्रधि २,८१ प्रधृष्ट ९,४१२ प्रधृष्य ९,४१२ प्रनयितृ १,७९४ प्रनर्तन ३,९ प्रनिसन २,६३ प्रनिंसनीय २,६३ प्रनिक्षण १,५७३ प्रनिश्चितृ १५७३ प्रनिनन्दन १,३११ प्रपञ्च १,६५७ ॥ ९,१३ प्रपवण १,६०० प्रपवणीय १,६०० प्रपवन ८,११ प्रपा १,२
प्रभा २,३ प्रभान २,३ . प्रभापना २,३ प्रभाम् १,७८७ प्रभाव १,१ प्रभावना १,१ प्रभु १,१ प्रभृति २,८२ उ. प्रमद ३,९३ प्रमय ४,४८,५ प्रमा २,७९ प्रमाण २,७९ प्रमातृ ४,४ प्रमाथ १,९६५ प्रमाथिन् १,९६५ प्रमाद ३,९३ प्रमाद्य ३,९३ प्रमिति २,७९ प्रमीला १,४१५ प्रमेय २,७९ प्रयाज १,९९१ प्रयमिन् १,३८६ प्रयाम्य १,३८६ प्रयायिन् २,४ प्रयासिन् ३,७९ प्रयोज्य ३,१२१
प्ररुध ६,१ प्ररुह १,९८८ प्ररोह १,९८८ प्रलय ३,१०५ प्रलाप १,३३६ प्रलापिन् १,३३६ प्रव १,५९७,९९२ प्रवंग १,३९६ प्रवक १,५९७ प्रवग १,३९६ प्रवचनीय २,३८,६७ प्रवण १,२६१ प्रवयण १,१३९ प्रवर ४,९ प्रवाच्य २,३८,६७ प्रवाण् १,२६१ प्रवावन् १,२६१ प्रवासिन् १,९९९ प्रवाह १,९९६ प्रवाहण १,९९६ प्रविघाटयितृ १,१००० च प्रवेतृ १,१३९ प्रवेपन १,७५४ प्रवेष्ट १,६७३ प्रव्रज्या १,१३७ प्रशंसा १,५५० ८५३ प्रशंस्य १,५५० प्रशस्य १,५५० प्रशाम् ३,८७ पशास्तृ २,३७ प्रश्न ५,३३
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४४०]
पञ्चमं परिशिष्टम्
प्रश्नथ १,७१७ । ८.३९ । प्रश्नय १,८८३ प्रष्ट ५,३३ प्रष्ठ १,५ प्रसङ्गय १,१७३ प्रसर १,२५ प्रसव ३,९९ प्रसविन् २,४९ प्रसा १,१०११ प्रसार १,२५ प्रसारिन् १,२५ प्रसित १,१०११ प्रसू २,४९ प्रसेवक ३,२१ प्रस्कन्द १,३१९ प्रस्कन्दन १,३१९ (उ.) प्रस्ताव २,६६ प्रस्तुम्पक १,३४४ प्रस्तोतृ २,६६ प्रस्थम्पच १,८९२ प्रस्थायिन् १,५ उ. प्रस्न २,६ प्रस्नवितृ २,२५ प्रस्नापक २,६ प्रस्त्राव १,१५ प्रहि १,८८५ उ. प्रहृत्ति १,७३८ । प्राकषिक १,५०७ उ. प्राकारमर्दिन् ८,४३ प्राछ् ५,३३ प्राजन १,१३९
प्राजित १,१३९ प्राज्ञ ८,३३ प्राश्च १,१०५ प्राविवाक ५,३३ प्राण् २.३१ प्राण २,३१ च प्राणित २,३१ प्रातृ २,१४ . प्राथम् १,१००३ प्रापणिक १,७९० उ. प्राप्ति ४,२२ . प्रार्थना ९,३६५ प्रावरित ४,९ प्रावरीतृ ४,९ प्रावार ४,९ प्रावृष् १,५२७ प्रासङ्ग १,१७३ प्रासाद १,९६६ प्रिय ३,११०। ८,३ च प्रियंवद १,९९८ प्रियेक्षा १,८८२ पुष्वा १,५३२ उ. । ८,५४ उ. प्रेक्षा १,८८२
प्रोतृ १,५९७ प्रोथ १,५९७ उ. ९०० प्रोथितृ १,९०० पोर्णवितृ २,६५ प्रोणुवितृ २,६५ प्रोषित १,५३२ । ८,५४ प्लक्ष ३,६८ उ. प्लव १,५९८ । ८,२५ (उ.) प्लवी १,५९८ प्लीहन् १,८५९ (उ.) प्लेहित १,८५९ प्लोतृ १,५९८ प्लोषित १,५३३ । ३,६८।
८५ प्सातृ २,२ प्साय २,२ प्से य २,२
प्रेक्षण १,८७ प्रेण्वन १,४८८ प्रेत ३,११० । ८,३ प्रेन्वन १,४८८ प्रेषण ३,२५ प्रैष ३,२५ प्रेष्य ३,२५ । ५,१०५
फक्का १,५० फक्कित १५० फनस १,७४८ उ. फल १,४१,४,४२८,९८३ फलक १,४१४ च उ. फलहक १,४१४ उ. फलित १,४२८,९८३ फलेग्रहि ८,१० फलेपाकु १,८९२ फल्गु १,४१४ उ. फल्गुन १,४१४ उ.
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शब्दसूचिः
फल्गुनी १,४१४ उ.
फाण्ट १,१०३७
फाल १,९८३
फालि १,४१४ उ.
फुल्ल १,४१४ ४२९
फुल्लित १,४२९
फेन १,८०४ उ.
फेला १,४३३
फेलित १,४३३
레
बंहित १,८७३ बदरी १,२९५ उ.
बधक १,७४६
बधिर ८, ४५ उ.
बन्धक ८, ४५ उ.
बन्धकी ८, ४५
बन्धु ८, ४५ उ.
बन्धूक ८, ४५ उ.
बत्रित १,४०८
बभ्रु १,८८६ उ,
बरितृ ८, २६
बरी ८, २६ बर्बर १, ३६२ उ. । ८,२६ उ. बर्बरी १,३६२ उ. । ८,२६ उ.
बर्ड १,८६४
बर्हक १,५५९
बर्हत १,५५९
५६
बर्हिण १,८६४ ( उ. ) १,८६४
बर्हि
बर्हिष्प्रस्तर ८,१४
बर्हिस् १,५६० उ.
बल १,८०७ च ९७९
बलत १,९७९ उ.
बलाका १,८०७ उ. बलित १,९७९
बल्बज १,८०७ उ.
बल्वजा १,८०७ [उ.]
बल्हि १,८६५ [उ.]
बल्हि १,८६५
बहिस् १,८७३ उ.
बहु १,८७३ उ.
बहुन्तुद ५, १
बहुल १,८७३ उ. २,१०
बाण १,२६३ च
बाध १, ७४४
बाधन १, ७४४
बाधा १, ७४४
बाधितृ १,७४४
बार्ड १,८६४
बाल १,८०७,९७९
बाला १,९७९ बाल्हि १,८६५ [ उ.] बाल्हिक १,८६५ बाल्हीक १,८६५ उ. बाहु १, ७४४ उ ८७३ उ.
बाहुघात २, ४२
बाहुन २,४२
[ ४४१
बिन्दु १,३१० उ. । २,४१ उ.
बिल ५,९५
बिल्म ५,९५
बिल्व ५,९५ उ. । ९,१२३ उ.
बीजरुहा १,९८८
बीजवाप १,९९५
बुक्का १,५४
बुध १,९१२,९६८ ।
३,११९ (ड.)
बुधान १,९६८ उ. ।... ३,११९ ( उ.)
बुघ्न ३,१९९ उ.
बन्दि १९०४
बन्धित १,९०४
बुभुक्षा ६,१५
बुल ९,१२७
स्ति ९,८० [ उ. ] बूणि ८, २६
बृंहक १,५६०
बृहत् १,५६०
बृहत् १,५५८ उ.
बृहती १,५५८ उ.
बेलितृ ५,९५ बोधृ १,९६८ । ३,११९
बोध १,९१२, ९६८ च
बोधि ३,११९ उ. बोधितृ १,९१२, ९६८ बोलन ९, १२७
ब्रह्मन्न २,४२
ब्रह्मर्ति १,४१०
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४४२ ]
पञ्चमं परिशिष्टम्
ब्रह्मज्य ८,१७ ब्रह्मद्विषु २,६८ ब्रह्मन् १,५६० उ. ब्रह्मभूय १,१ ब्रह्मवद्या १,९९८ ब्रह्महत्या २,४२ ब्रह्महन् २,४२ ब्रह्मोधा १,९९८ प्रामणब्रुव २,६७ ब्राह्मणाच्छसिन् १,५५०
भन्दन १,७२२ भन्दितृ १,७२२ भन्द्र १,७२२ उ.१९,६७ उ. भय २,७४ भयानक २,७४ उ. भर १,८८६ । २,८२ भरट १,८८६ उ. भरत १,८८६ उ. भरथु २,८२ . भरितृ ८,२७ भरीतृ ८,२७ भरु १,८८६ उ.. भर्ग १,६६६ (उ.) भर्पा ५,२ भजू १,६६६ उ. १५,२ उ. भर्तृ १,८८६ च उ. । २,८२ भर्त्सना ९,२७९ भर्भर ८,२७ उ. भरी ८,२७, उ... भर्मित १,३७६ भर्शितृ ३.६१
भ
भक्ति १,८२५ भक्तृ १,८९५ भक्ष ९,१५० भग १,८९५ भगन्दर ५,१५२
भवितृ २,४४ भविन् १,१ भविष्णु १,१ भव्य १,१।२,४४ भष १,२२१ भषक १,५२१ भषितृ. १,५२१ भषी १,५२१ भा १,८५६ । २,३ भाग १,८९५ भागिन् १,८९५ भाग्य १,८९५ भाज ९,१६६ . भाजा. ९,१६६ भाजी ९,१६६ भाटक १,१८४ भाटि १,१८१ उ. भाण १,२६४
. भाण्ड १,६९३ उ., ७८७ उ. ' भातृ २,३ . भानु २,३ उ. भाम १,७८७ (उ.) भामितृ १,७८७ भामिनी १.७८७ भार १,८८६ । २,८२ भारहार १,८८५ भार्य १,८८६४२,८२ भार्या १,८८६ । २,८२ भालु १,८८६ उ.
भालुक १,८१२ उ. • भाल्लुक १,८१३ उ.
भङ्गा ६,१४
भज्य १,८९५
भलित १,८१२ भट १,१८४
भल्ल १,८१३ भटित्र १,१८४ उ. भल्लि १,८१३ [उ.] भटिल १,१८४ उ. भल्लितृ १,८१३ भण्ड १,६९३।९,६७ (उ.) भल्लूक १,८१३ उ. भण्डना १,६९३ । ९,६७ भव १,१ (उ.). भण्डितृ १,६९३
भवत् २,३ उ. भदन्त १,७२२ उ.
भवती २,३ उ. भद्र १,७२२ उ. । ९,६७ उ. | भवन - १,१ उ.
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________________
शब्दस्रुचि:
भाव १,१
भाविन ११ उ.
भावुक १,१ (उ.)
भाव्य १,१
भाष १,८३२
भाषा १,८३२
भाषितृ १,८३२
भाष्य १,८३२
भासु १,८४६ १२,३
भासन्त १,८४६ उ.
भासयन्त १,८४६ उ.
भाला १,८४६
भासितृ १,८४६
भासुर १,८४६
भास्वर १,८४६
भिक्ष १,८८०
भिक्षा १,८८०
भिक्षाक १,८८०
भिक्षाकी १,८८०
भिक्षाचर १,४१०
भिक्षितृ १,८८०
भिक्षु १,८८०
भित्त ६,५
भित्ति ६,५
भित्तिका ६,५ उ.
भिदा ६,५
भिदि ६,९ उ.
भिदिर ६५ उ.
भिदुर ६,५ भिदेलिम ६,५ उ. भिद्य ६,५
भित्र ६,५ उ.
भिल्म ९, १२३
भी २,७४
भीति २,७४
भीरु २,७४
भीरुक २,७४
भीलुक २,७४
भीम २,७४ उ.
भीष्म २,७४ उ.
भुज ५,३७ च । ६,१५
भुजग ५,३७ भुजिष्य ६,१५ उ.
भुज्यु ६,१५ उ.
भुण्ड १,६९६
भुण्डि
१,६९६
भुरिज् १८८६ उ. भुर्भुर ८,२७
भुवन १,१ उ.
भू १, १ । २,४४
भूगोल ५,१३१
भूत १,१ उ.
भूति १,१
भूमि १,१ उ.
भूरि १,१ उ.
भृणि ८,२७ ( उ )
भूषण १,५३७
भूषा १,५३७ भूषितृ १,५३७
भ्रष्णु १,१
भृगु १,८८६ उ. । ५,२ उ.
भृङ्गार २,८२ उ.
भृज्जन ५,२ उ.
भृज्य १,६६६
[ ४४३
भृतक २,८२
भृति २,८२
भृत्य १,८८६ । २,८२
भृत्रिम २,८२
भृमि १,९७० उ. । ३,९१ उ.
भृश १,८८६ उ. । ३,६१ उ. भृष्टि ५, २
भेक २,७४ उ.
भेत्तु ६,५
भेर २,७४ उ.
भेल २,७४ उ.
भेषितृ १,९२४
भोक्तृ ५,३७।६,१५
भोग ५,३७ ।६,१५
भोगिन ६, १५
भोग्य ५,३७
भोग्या ६, १५
भोज ६, १५
भोज्य ६,१५
भ्यसित १,८५२
भ्रंश १,९५२
भ्रंशितृ ३,६२
अज्जन ५,२ उ.
भ्रद्ग्य ५,२ भ्रम १,९७० । ३,९१
भ्रमर १,९७० उ.
भ्रमि १,९७० उ. । ३,९१ उ.
भ्रमितृ १,९७० । ३,९१
भ्रमिन ३,९१
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૪૪ ]
भ्रमी ३,९१
भ्रय ८,३६
भ्रष्टक
१,९५२
भ्रष्ट १,९५२
भ्रष्ट ५,२
भ्राक्ति १,६६१
भ्राज़ १,८९४
आज
१,६६१,८९४ च
भ्राजित १,६६१,८९४
भ्राजिष्णु १,६६१
भ्रम १,९७०
भ्राष्टि १,६६१
भ्रष्ट्र ५,२ उ.
भ्रष्ट्रमिन्ध ६,२६
भ्राट्रोपकर्षम् १,५०६
भ्रासथु १,८४७
असितृ १,८४७
भ्रिति ८,३६
त्रुडित ५,१३९
भ्रू १,९७० उ. । ३,९१ उ.
भ्रूण ९, २५९ ( उ . )
भ्रूणहन् २,४२
ब्रेजित १,६६०
तृ ८,३६
श्रेष १,९२५
प्रेषितृ १,९२५
लक्ष १,९३६
लक्षितृ १,९३६
भ्लासथु १,८४८
भ्लासितृ १,८४८
म
मंहित १,८७४
मकुर १,६०९ उ.
मक्ष १,५६८
मक्षिका १५६८ उ.
मक्षितृ १,५६८
मख १,६७,५६५ उ.
मगध १,८५ उ.
मघवन् १,६४१ उ.
मङ्कण १,६०९ उ.
मङ्कन १,६०९
मङ्कना १,६०९
मङ्कतृ ५,३८
मल १,७०
मङ्ग १,८५
मङ्गल १,८५ उ.
मङ्गल १,८५ उ.
मचित १६५४
मच्छ ३,९३ उ.
मज्ज ५,३८
मज्जथु ५,३८
मजनू ५,३८ उ.
मज्जन ५, ३८ ( उ )
मज्जा ५,३८
मञ्च १, ११०, ६५६ ( उ. ) मञ्चिका १,६५६
मञ्चितृ १,६५६
मञ्चुका १,६५६ [ उ.]
मञ्जूषा ५,३८ उ.
मठ १,२१५
[ पञ्चमं परिशिष्टम्
मठर १,२१५ उ. ३,१२० उ.
मणि १,२६६ उ. मणिक १,२६६ [उ.]
मणित १,२७२
मण्ठित १,६७७
मण्ड १,६९२ । ९,६६ (उ.)
मण्डक. १,६९२
मण्डन १, २३१ च । ९,६६ उ.
मण्डना ९,६६
मण्डयन्त १,२३१ उ.
मण्डयित्नु १,६९२
मण्डल १,६९२ उ.
मण्डली १,६९२
मण्ड
१,६९२
मण्डूक १,२३१ उ., ६९२ उ.
मण्डूर १,६९२ उ.
मतङ्ग ३,१२० उ. मति ३,१२०
मत्सर ३,९३ उ.. मत्सी ३,९३
मत्स्य ३,९३ उ.
मथ १,९६५
मथितृ १,९६५
मथिन १,९६५ उ.
मथुरा १,९६५ उ.
मद ३,९३
मदन ३,९३ ( उ. ) मदितृ ३,९३ मदिरा १,७२३ उ. । ३,९३ उ.
मठु ५,३८ उ.
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
:
[४४५
मद्ग्य ५,३८ मद्य ३,९३ मद्र १,७२३ उ. मधु ३,१२० उ. मधुपर्क ६,१० मध्य १,३० (उ.) मनस् ३,१२० उ. मनि ३,१२० उ. . मनितृ ७,९ मनु ३,१२० उ.. . मनुस् ३,१२० उ... मनोहर १,८८५ मन्तु ३,१२० उ. मन्तृ ३,१२० (उ.) मन्त्र ९,२७४ (उ.) मन्त्रि ९,२७४ उ. मन्त्रिन् ९,२७४ मन्थ १,२९२ । ८,४० मन्थान ८,४० उ. मन्थितृ ८,४० - मन्द १,७२३ । ३,१२० उ. | मन्दर १,७२३ उ. मन्दा १,७२३. मन्दाक १,७२३ (उ.] मन्दाकिनी १,७२३ मन्दार १,७२३ उ. मन्दित १,७२३ मन्दिर १,७२३ उ. मन्दुरज ३,१२२ मन्दुरा १,७२३ उ. मन्द्र १,७२३ उ.
मन्या ३,१२० (उ.) । मन्यु ३,१२० उ. मभ्रत १,४०९ मय १,७९३।४,४।८,५(उ.)| मयित १,७९३ मयु ४,४ उ. मयूर २,२७ । ८,५ उ.... मयूरव्यंसक ९,३५१ . मरक ५,१९ उ. . मरमर ५,१९ उ. मरिच ५,१९ उ. मरितृ ८,२३ मरीचि ५,१९ उ. मरीतृ ८.२३ मरु ५,१९ उ. मरुत् ५,१९ उ. । ८,२३ उ. | मरूक ५,१९ उ. मर्जिता ९,३८८ मर्जित ९,२१ मर्डितृ ५,४४ । ८,३८ . मर्णितृ ५,४८ . मत ५,१९ उ. . मर्तृ ५,१९ मर्त्य ५,१९ च उ. मर्दल ८,४३ उ. मर्दितृ ८,४३ मधित १,९११ मर्मन् ५,१९ उ. मर्मर ५,१९ उ. .. मर्मरीक ५,१९ उ.. मर्माविध् ३,१४
मर्वितृ १,४५६, ४५७ मर्षण ३,१४१ मर्षितृ १,५२८ । ३,१४१ मष्ट ५,१०२ मल १,८१० । २,३९ उ. मलाहि ८,१० मलय १,८१० उ. मलित १,८१० मलिम्लुच १,११४ मल्ल १,८११ मल्लक १,८११ च उ. मल्लिका १,८११ च उ. मल्लितृ १,८११ मल्ली १,८११ मवितृ १,६०१ मव्या १.३९९ मशक १,४९२ उ. मशितृ १,४९२ मषित १,५१२ मसि ३,८६ उ. मस्कितृ १,६३१ मस्त ३,८६ उ. मस्तक ३,८६ (उ.) मस्तु ३.८६ उ. मह १,५६५ । ९,३५९ महत् १,५६५ उ., ८७४ उ.।
महयाय्य ९,३५७ महस् १,५६५ उ. महारजन १,८९६ उ. महि ९,३५९ [उ.]
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________________
४४६ ]
पश्चम परिशिष्टम्
१.१२४
महित १,५६५
मार्जना २,३९ । ९,३९० । मीढ्वस् १,५५१ महिन १,५६५ उ.।९,३५९उ. मार्जार २,३९ उ. मीन ३,१०३ उ. महिष १,५६५उ.९,३५९ उ. मार्जाल २,३९ [उ.] मीमांसा १,७४९ महिषी १,५६५ उ.। मार्जिता २,३९ । ९,३९० मीमितृ १,३९५ ९,३५९ उ. मार्जित २,३९
मीलन १,४१५ मही १,५६५,८७४ [उ.]। माट्ट २,३९ । ९,३९० मीलित १,४१५
मालमारिन् १,८८६ मीवितृ. १,४६७ मांस १,७४९ उ.। ३,१२० उ.
माला १,८१० । २,१५ उ. | मुकुर १,६०९ उ.. मांसपचन १.८९२
मालूर १,८१० उ. मुक्षितृ १,५६९ मांसपाक १,८९२ च माष १,५१२
मुख १,५६९ उ. मांसभक्षा ९,१५० मास् ३,८६
मुखतःकारम् १,८८८ मांस्पचन १,८९२
मास २,१५ उ.। ३,८६ मुचि ५,६ [उ.] मांस्पाक १,८९२ माह १,९३४
मुञ्चितृ १,६५५ माढय १,३० माहा १,९३४
मुञ्ज १,१६८ माणव १,२६६ उ.
माहितृ १,९३४ मुटितृ ५,१२५ मातङ्ग ३,१२० उ.
माहिन १,५६५ उ.। मुण्ठितृ १,६७९ मातरिश्वन १,९९७ उ.
मुण्ड १,६९४ । ५,५० उ., मातुलघातिन् २,४२ मिच्छितृ ५,३१ मातृ १.६०३,७४९ उ. २,१५ मितम्पच १,८९२
मुण्डज ३,१२२ . २,७९ । ३,१०३।८,५ मित्र १.९४४ उ. मुण्डितृ १,६९४ मात्रा २,१५ उ. मित्रद्रुह् ३,९६
मुद १,७२६ माथ १,९६५ मित्रद्विष् २,६८
मुदिर १,७२६ उ, मित्रभू १,१ .
मुद्ग १,७२६ उ. मान १,७४९ । ३,१२० .. मित्रशिस २,३७
मुद्गर १,७२६ उ. मानन १,७४९ मित्रिम ४,९
मुद्गरी १,७२६ उ. माया १,६०३ उ.। २,१५ उ. मिन्द ९,९०
मुद्रा १,७२६ उ. मायु ४,४ उ. मिन्वित १,४८३
मुनि ३,१२० उ. मार ५,१९ मिश १,४९१ .
मुनिप्रबर्ह १,८६२ मारक ५,१९
मिन ९,३४१ . मुर १,४७९ मारीच ५.१९ उ. मिह १,५५१ मार्ग २,३९
। मिहिर १,५५१ उ...] मुरुमुर ५,८२ उ..
मादिन ३,९३ ...
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूषिः
[ ४४७
मुर्मुर ५,८२
मृकण्डु ५,१९ उ. मुल ९,१२८ . मृगया ९,३६४ मुष्क ८,५६
मृगयु २,४ उ मुसल ३,८५
मृगित ९,३६४ मुस्ता ३,८५ / ९,८१
मृजा २,३९ मुहुरि ३,९५ उ. .. मृड ५,४४ । ८,३८
मृडानी ५,४४
मृडीक ८,३८ उ. मूक १,६०१ उ.
मृणाल ५,४८ उ. मूत १,६०१ उ.
मृत ५,१९ उ.
मृत्यु ५,१९ उ. मूर्ख ३,९५ उ.
मृद् ८,५३ मूळ १,१२६
मृदर ८,४३ उ. मूर्छित १,१२६
मृदीका १,१००४ उ.। मृणि ८,२३
८,४३ उ. मूर्ति १,१२६
मृदु १,१००४ उ. मृर्वा १,४७१ -
मृद्वीका १,६००४ उ.। मृवित १,४७९ मूल १,४२७,६०१ उ.। मृध १,९११
९,१२८
मृशान ५,१०२ उ. मूलकोपदंशम् १,४९६ मृश्य ५,१०२ मूलवृश्च् ५,२७
मृषण ९,३५२ मूलि ९,१२८ [उ.] मृषोध १,९९८ मूलित १,४२७
मृष्टि २,३९ मूष १,५०२
मेकल. ४,४ उ. मूषक १,५०२
मेखला ४,४ उ. मूषा १,५०२,६०१ उ. मेघ १,५५१ मूषिक १,५१३ उ.। ८,५६ उ. मेघकर १,८८८ मूषिका १,५१३ । ८,५६ मेढ १,५५१ मूषित १,५०२ मूषी १,५०२
| मेतृ ३,१०३
मेथ १,९०१,९०२ मेथि १,९०१ उ. मेथित १,९०१,९०२ मेथी १,९०१,९०२ मेद १,९४४ । ३.३७ मेदस् १,९४४ उ.।३,३७ 3. मेदितृ १,९०७,९०८।३,३७ मेदिनी ३,३७ मेदुर १,९४४ । ३,३७ मेधा १,९०९ मेधि १,९०९ [उ.] मेधितृ १,९०२ । मेध्य १,९०९ मेनका ३,१२० उ. मेनि ३,१२० उ. मेपितृ १,७५९ मेय २,७८ मेरु १,६०३ उ.।२,१५ उ.।
मेरुदृश्वन १,४९५ मेलन १,४१५ मेल ५,९७ मेलितृ ५,९७ मेशितृ १,४९१ मेष १,५२४ । ५,१०६ (उ.) मेषितृ १,५२४ । ५,१०६ मेसर ३,१०३ उ. मेहन १,५५१ मेघ १,५५१ मोक्त ५,६ मोक्ष ५,६ उ.। ९,१९९
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८]
पञ्चमं परिशिष्टम्
मीग्धृ ३.९५ - -- मोटन ९.३६ . . . मोढ ३,९५ मोणितृ ५,५१ मोदक १,७२६ । ९,१७७ मोदमान १,७२६ मोदित १,७२६ मोरित ५,८२ मोषितृ १,५१३ । ८,५६ मोसितृ ३,८५ मोह ३,९५ मोहित ३,९५ मौ १,३९९ मौति १,३९९ मौर्वी १,४७९ म्रक्षण ९,१४९ म्रदा १,१००४ प्रदित १,१००४ म्रष्ट ५,२ म्लातृ १,३२ म्लानि १,३२ म्लास्नु १,३२ म्लिष्ट १,११९ म्लेच्छ १,११९ (उ.)
यज्ञ १,९९१ यज्य १,९९१ यज्वन् १,९९१ यति १,३८६, ७११ उ. यतित १,७११ यत्न १,७११ . यथाकारम् १,८८८ : यन्तृ १,३८६ यन्त्र १,३८६ उ.. यन्त्रणा ९,११६... यब्धृ १,३७८ यभ्य १,३७८ यम १:३८६ यमक १,३८६ यमल १,३८६ उ. यमुना १,३८६ उ. यम्य १,३८६ ययी २,४ उ. ययु २,४ उ. यव २,२२ यवन २,२२ (उ.) यवस २,२२ उ. यवाष २,२२ उ.. यवास २,२२. उ. यवितृ २,२२१८,६ ... यशस् ४,२९ उ. .. यशस्करी १,८८८ ... यष्टि १,९९१ उ...
याचथु १,८९१ याचित्रिम १,८९१ याचा १,८९१ याच्य १,८९१ याजक १,९९१ याज्य १,९९१ यातना ९,१७१ यातु २,४ उ. . यातृ १,७११ उ.२,४ यात्रा २,४ उ.. याभ १,३७८ : याम १,३८६ । २,४ उ. यामन् २,४ उ. यायजूक १,९९१ यायावर २,४ . यायिन, २,४ याव २,२२ .' यावक २,२२ यावजीवम् १,४६५ यावद्वेदम् .५,८ यावस २,२२ उ. याव्य २,२२ । ९,२३७ युग ३,१११ युगन्धर १,६०२ युग्म ३, १११ उ. युग्य ३,१११ यु १,१२९ युज् ३,१११ च, ... युजान ३,१११ उ. . युञ्ज ३,१११ . युध ३,११७
यक्ष ९,२८० (उ.) यक्ष्मन् ९,२८० उ. यजुस् १,९९१ उ.
यसितृ ३.७९ याग १,९९१
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दसूचिः
[ ४४९
युवति २,२२ उ.
रक्षा १,५६७ युवन् २,२२ उ. रक्षितृ १,५६७ यूका २,२२ उ.
रघु १६३८ उ. यूति २,२२
रकतृ १,८९६ । ३,१३९ ।। यूथ २,२२ उ.
रङ्ग १,७८,८९६ । यूप २,२२ उ.
३,१३९ (उ.) यूष १,५१६ । २,२२ उ. रङ्ग्य १,८९६ यूषा २,२२
रवित १,६३७ यूषितृ १,५१६
रचना ९,२८७ (उ.) यूषी १,५१६
रजक १,८९६ येषितृ १,८३५
रजत १,८९६ उ. योक्तृ ३,१११ ॥ ६,४ रजन १,८९६ उ. योकत्र ३,१११
रजनि १,८९६ उ. योग ३,१११
रजनी १,८९६ योगिन ३,१११
रजम् १,८९६ उ.. योग्य ३,१११
रजोग्रहि ८,१० योजन ३,१११ .
रज्जु ३,११२ उ. । ५,३५ उ. योजना ३,१११
रज्जुच्छिद् ६,६ योतितृ १,७१२
रटित १,२११ योतृ २,२२ । ८,६
रण १,२६० च योत्र ८,६
रणन १,२६० योधृ ३,११७
रणित १,२७२ योनि २,२२ उ.
रत्न १,९८९ उ. योमि २,२२ उ.
रथ १,९८९ उ. योषा २,२२ उ.
रथन्तर १,२७ रथगणक ९,३०८
रथचक्रचित् ४५ रंहस् १,५५५ उ. रथावर्त १,९५५ रहित १,५५५
रद १,२९८ रक्षस् १,५६७ उ., ९८९ उ. | रदन १,२९८ च
रधित ३,४५ रन्तृ १,९८९ रपितृ १,३३५ रभस् १,७८५ उ. रभ्य १,७८५ रम १,९८९ रमण १,९८९ रमणी १,९८९ रमभ १,९८९ उ. रमा १,९८९ रम्ब १,३६७ रम्बित १,७६५ रम्भ १,७८५ रम्भा १,७७७,७८५ (उ.) रम्भितृ १,७७७ रम्य १,९८९ रयित १,७९६ रव २,२७ रवण १,५९९ उ.२,२७ च उ. रवथ २,२७ उ. रवि १,५९९ उ.। २,२७ उ. रवितृ २,२७ रशना ४,२९ उ. रश्मि ४,२९ उ. रस १,५४२।९,३५५ रसन १,५४२ [उ.] रसना १,५४२।९,३५५ रसित १,५४२ रस्ना १,५४२ उ.,८४९ उ.
Page #494
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________________
४५० ]
पश्चमं परिशिष्टम
रिक्थ ६,२ उ. रिक्षण १,७३ रिष्व १,५१५ उ. रीणि ८,१८ रुक्म १,९३८ उ.।
रेक्तृ ६,२ रेरितृ १,८९७ रेणु ३,१०४ उ. रेतस् ३,१०४ उ. रेतृ ३,१०४ । ५,१४ ।
राका २,११ उ. राक्षस १,५६७ राग १,८९६ च ।
३,१३९ रागिन् १,८९६ ।३.१३९ राधित १,६४२ राजकृत्वन १,८८८ राजघ २,४२ राजन् १,८९३ उ. राजन्य १,८९३ उ. राजयुध्वन् ३,१२७ राजसूय २,४९।४,१ राजस्नापक २,६ राजानक १,८९३ उ. राजितृ १,८९३ राजोच्छादक ९,८८ रातृ १,३८ । २,११ रात्रि २,११ उ. राद्धि ४,१९ राधृ ३,१३ । ४,१९ राध ४,१९ राप्य १,३३२ राम १,९८९ रामा १,९८९ राशि ४,२९ उ. राष्ट्र १,८९३ उ. रास ९,३५५ रासक १,८४९ रासभ १,८४९ उ. रास्ना १,५४२ उ., ८४९ उ.
रुक्मिणी १,९३८ रुचि १,९३८ उ. रुचिर १,९३८ (उ.) रुच्य १,९३८ रुजा ५,३६ रुट १,९४० रुण्ट १,२०६ रुद्र २,२९ च, उ. रुध ६,१ रुधिर ६,१ उ. रुम्र १,९८९ उ. रुरु १,५९९ उ.। २,२७ उ. रुवथ २,२७ उ. रुष् ३,७२ रुह १,९८८ रुवन् १,९८८ उ. रूक्ष ९,३६३ रूक्षपेषम् ६,२१ रूढि १,९८८ रूप ९,३२४ (उ.) रूपक ९,३२४ रूपणा ९३२४ रूप्य ३,५१ [उ.] रे ३,१०४
रेतोधस् २,८१ उ. रेधिवम् ३,४५ रेपम् ३,१०४ उ. रेपितृ १,७६० . रेफ ३,१०४ उ. रेफितृ ५,६२ रेभितृ १,७७५ रेवती १,८२८ । ३,१०४ रेवन्त १,८२८ उ. रेवा १,८२८ रेवितृ १,८२८ रेषा १,८४० रेषित १,५१५ ८४० रेष्ट १,५१५ । ५,१००
.
रैपोषम् १,५३६ रोक १,९३८ रोक्तृ ५,३६ रोग ५,३६ रोचन १,९३८ च, उ. रोचना १,९३८ च, उ. रोचनी १,९३८ रोचिष्णु १,९३८ रोधिम् १,९३८ उ. रोच्य १,९३८
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________________
शब्दसूचिः
[ ४५१
रोड १,९८८ रोतृ १,५९९ । २,२७ रोदितृ २,२९ रोदुस् २,२९ उ. रोधृ ६,१ रोप ३,५ रोषण ३,७२ रोषित १,५१४ । ३,७२ रोष्ट्र १,५१४ । ३,७२ । ५,९९ रोह १,९८८ रोहन्त १,९८८ उ. रोहन्ती १,९८८ उ. रोहि १,९८८ उ. रोहिण १,९८८ [उ.] रोहिणी १,९८८ च रोहित् १,९८८ उ. रोहित १,९८८ उ. रौहिष १,९८८ उ.
लज्जा ५,१५६ लजालु ५,१५६ उ. लजितृ ५,१५६ लट १,२१० लटक १,२१० लट्वा १,२१० उ. लड १,२५४ . लडना १,२५४ लपन १,३३६ लपितृ १,३३६ लब्धि १,७८६ लब्धृ १,७८६ लब्ध्रिम १,७८६ लभा १,७८६ लभ्य १,७८६ लम्ब १,७६६ लम्बिका १,७६६ लम्भ १,७७८ लम्भम् १,७८६ लम्भितृ १,७७८ ललना ९,२७५ ललित ९।२७५ ललाटन्तप १,३३३ लवक ८,१२ लवाणक ८,१२ उ. लबानक ८,१२. उ. लवि ८,१२ उ. लवितृ ८,१२ लवित्र ८,१२ (उ.) लशुन १,९२७ उ.. लषितृ १,९२७
लस १,५४३ लसिका १,५४३ लसित १,५४३ लांश् १,१२१ लाधित १,६४३ लाज १,१५७ । ९,१२० लाञ्छन १,१२१ लाट १,२१० लाटक १,२१० दातृ २,१० लाप्य १,३३६ लाभ ९,३२६ लाभम् १,७८६ लाल ९,२७५ लालना १,१०३६ । ९,२७५ लाला १,१०३६ । ९,२७५[उ.] लालांश् १,१२२ लालितक १,१०३६ लास्य १,५४३ लिखक ५,२२ उ. लिखनीय ५,२२ लिङ्ग १,९० । ९,१६१ (उ.) लिम्प ५,१० लिश ३,१३४ लिह २,७१ लीनि ८,१९ लुठितृ ५,१२८ लुडितृ ५,१२८,१३४ लुण्ट १,२०७ लुण्टा १,२०७ । ९,३९ लुण्टाक १,२०७।९,३९
लक्षण ९,१५२ च, उ. लक्षणा ९,१५२ लक्ष्मी ९,१५२ उ. लग्न १,१०२४ लघु १,६३८ उ.
लधनीय १,६३८ लचितृ १,६३८ लजितृ ५,१५५
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________________
[ पञ्चमं परिशिष्टम्
लुण्टाकी ९,३९ लुण्ठ १,२२५ लुप्ति ५,९ लुम्बि १,३६९ [उ.]।
लोष्टित १,६७२ लोष्टु १,६७२ (उ.) लोहित १,९८८ (उ.) ल्पीनि ८,२१ ल्वीति ८,२१ ल्वीनि ८,२१ ल्वेतृ ८,२१
लुष १,५०१ लूता ८,१२ उ. लूनि ८,१२ च, उ. लेख ५,२० च. लेखा ५,२२ लेखितृ ५,२२ लेढ २,७१ लेपितृ १,७६१ लेप्तृ ५,१० लेश ४,१३४ । ५,१०३ लेष्ट ४,१३४ । ५,१०३ लेह २,७२ लेह्य २,७१ लोक १,६१२ लोकम्पृण ५,४६ लोचक १,६४६ लोटित ३.३४ लोत ८,१२ उ. लोप ५,९ लोप्तृ ५,९ लोपत्र ५,९ उ. लोब्धृ ३,५५ । ५,७६ लोभितृ ३,५५ ॥ ५,७६ लोमन् ८,१२ उ. लोषितृ १,५०१ लोष्ट १,६७२ (उ.)
वक २,३८ वक्तृ २,३८,६७ वक्त्र २,३८ उ. वक्र १,१०६ उ.,६०८ उ. वक्षस् १,५७७ उ. वङ्कतृ १,१०६,६०८ वङ्कितृ १,६०८ वक्रि १,६०८ उ. वन १,८४ वडा १,६४० वजित १,६४० वक्षस् २,३८ उ. वज्र १,१३६ उ. वज्रधर १,८८७ (उ.) वञ्च १,१०६ वञ्चथ १,१०६ उ. वञ्चना ९,२३९ वट १,१७६ वटक १,१७६ बटि १,१७६ उ.
वटु १,१७६ उ. वठर १,२१४ उ. वडवा १,७०१ उ. वणिज् १,७२० उ. वण्ट १,२०५ वण्ठ १,६८०1७,८ उ. वण्ठितृ १,६८० घण्ड १,६९१ । ९,४७ (उ.) वण्डित १,६९१ वति १,३२९ । ७,८ वत्स १,९९८ उ. वत्सर १,९९९ उ. वद १,९९८ (उ.) वदन्य १,९९८ वदाम्य १,९९८ उ.. वदावद १,९९८ उ. वदितृ १,९९८ वध २,४२ वधक २,४२ उ.. वधन २,४२ उ. वधि १,७४६ उ. वधित २,४२ उ. वधू १,९९६ उ. वधूटी ८,४५ उ. वध्य २,४२ च उ. वन १,३२८ वनितृ १,३२८,३२९।७,८ वनिष्ठु ७,८ उ. वन्ति १,३२९ । ७,८ वन्दन १,७२१ वन्दना १,७२१
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________________
शब्दसूधिः
[ ४५३
वर्शितृ ३,६३ वर्ष १,२२७ (उ.) वर्षा १,५२७ (उ.) वर्षितृ १,५२०,५२७ वर्षक १,५२७ वर्ण्य १,५२७ वह १,८६२ १५,१०७ वहित १,५५८,५५९,८६२ ।
वन्दारु १,७२१
वरेण्य ८,६० उ. वन्दि १,७२१ उ.
वर्क ६,११ वन्दितृ १७२१
वर्कितृ १,६२० बन्दिन् १,७२१
वर्ग ६,११ । ९,३८९ (उ.) धन्दी १,७२१
वर्च १,६५३ धप १,९९५
वर्चस् १,६५३ उ. वपा १,९९५
वर्चित १,६५३ । ६,११ वपुस १,९९५ उ. वर्जितृ २,५३ घप्त १,९९५
वर्द्व ५,१०७ वप्प १,९९५ उ.
वर्ण ४,९ उ. वप्र . १,९९५ उ.
वर्णक ९,३०४ वम १,९६९
वर्णसंघाट २,४२ वमथु १,९६९
वर्णसंघात २,४२ वमितृ १,९६९
वर्णसि ८,२६ उ. वमिन् १,९६९
वर्गु ४,९ उ. वयस् १,७९१ उ. । २,१८ उ. | वर्तक १,९५५ च, उ. वयितृ १,७९१
वर्तका १,९५५ च, उ. वयुन १,१३९ उ.
वर्तनि १,९५५ उ. वयोधस् २,८१ उ.
वर्ति १,९५५ उ. वर ४,९८,६०।९,३४२ (उ.) | वर्तिका १,९५५ च, उ. वरण ४,९ उ.
वर्तित ३।११४ वरण्ड ४,९ उ.
वर्तिका १,९५५ उ. वरत्रा ४,९ उ.
वर्त्मन् १,९५५ उ. वराक ८,६०
वर्धन १,९५७ वराकी ८,६०
वर्धिष्णु १,९५७ वराह २,४२ (उ.) वधं १,९५७ उ. परितृ ८,१६,६०
वयं ४,९।८,६० वरीतृ ८,१६,६०
वर्या ४,९ वरुण ८,१६ उ.
वर्वर ४,९ उ. वरुणानी ८,१६
वर्वरीका ८,६० उ. वरूथ ४,९ उ.
वर्श ३,६३
वल १,८०७ वलय १,८०७ उ. वलि १,८०७ उ. . वलितृ १,८०७ वलीक १,८०७ उ. वल्क १,८०७ उ. । ९,५ वल्कल १,८०७ च, उ. ।
वल्ग १,७७ वल्गु १,८०७ उ. वल्भ १,७७३ वल्भित १,७७३ वल्मीक १,८०७ उ. वल्ल १,८०८ वल्लभ १,८०८ उ. वल्लरि १,८०८ उ. बल्लव १,८०८ उ. वल्ला १,८०८. वल्लि १,८०८ उ. वल्लित १,८०८ वल्लूर १,८०८ उ. वल्हित १,८६३
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________________
४५४ ]
पञ्चमं परिशिष्टम्
वश २,४३ (उ.) वाग्याम १,३८६ वशंवद १,९९८
वाच् २,३८,६७ वशितृ २,४३
वाचंयम १,३८६ वषितृ १,५११
वाच्य २,३८,६७ वसति १,९९९ उ. वाज १,१३६ बसन २,५९ च.
वाञ्छा १,१२२ वसन्त १,९९९ उ. वाट १,१७६ वसाति १,९९९ उ. वाटी १,१७६ वसि १,९९९ उ. वाडितृ १,७०१ वसितृ ३,८३
वाढ १,८६८ वसु १,९९९ उ.
वाणि १,२६१ उ. वसुन्धरा १,६०२ वाणिज १,७१० बसुरोचिस् १,९३८ उ. वाणी १,२६१ उ. वस्कृत १,६३०
वाण्टि १,२६१ वस्त १,९९९ उ. । ३.८३ उ. वात २,५ उ.
वातघ्न २,४२ वस्ति १,९९९ उ.।२,२९ उ.।। वातमज १,१३९ ___३,८३ उ. । ९,२६१ उ. वातृ १,४८,९९२ ॥२,५ वस्तु १,९९९ उ. वाद १,९९८ वस्तृ २,५९ । ३,८३ वादि १,९९८ उ. बस्त्र २,५९ उ.
वादित्र १,९९८ उ. वस्न १,९९९ उ.
वाद्य १,९९८ वह १,९९६
वानर १,३२९ उ. वहाभ्रश् २,६२
वानीर १,३२९ उ. । ७,८ उ. वहित्र १,९९६ उ. वापि १,९९५ उ. वति १,९९६ उ.
वाप्य १,९९५ . वह्य १.९९६
वाम १,९६९ च ।२,५ उ. वांश १,१२२
वामक १,९६९ वाक २,३८
वामन् २,५ उ. वाक्य २,३८,६७
वामन १,९६९ च । २,५ वाक्यविस्तर ८,१४ वामि १,९६९ उ.
वामी १,९६९ वाय १,९९२ वायस १,७९१ उ. । २,१८ वायु १,४८ उ.। २,५ उ. वार ४,९ उ. वारि ४,९ उ.. वार्ताक १,९५५ उ. वार्ताकी १,९५५ उ. वार्ता १,९५५ वार्य ४,९।८,६० वाल १,७०१,८०७ वालधि २,८१ वावदूक १,९९८ (उ.) वावृत्यमाना ३,११३ वाशन २,४३।३.१३६ याशा ३,१३६ वाशिका ३,१३६ वाशित १,२७२ वाशितृ ३,१३६ वाशुर ३,१३६ उ. . वासक ९,३५६ वासना १,३५६ . वासर १,९९९ उ. वासस् २,५९ उ. वासि १,९९९ उ. वासी १,९९९ वास्तु १,९९९ उ. वाह १,९९६ वाहन १,९९६ वाहित १,८६८ वाद्य १,९९६
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________________
शब्दसूचिः
वि १,९९२ उ. विकत्थन १,७१९ विकत्थिन् १,७१९ विकपित १,७५७ विकसुक १,९८७ उ. विकस्वर १,९८७ विकाषिन् १,५०७ विकास १,८४५ . विकिर ५,२० विक्लीबा १,७८६ विक्षाव २.२६ विघन २,४२ विघस २,१ विघ्न २,४२ विचक्षण २,६१ उ. विचख्युस् २,६४ उ. विचह ९,३५८ विचारणा ९,१८२ विचितृ ५,१८२ विचित्रणा ९,३३९ 'विच्छायितृ ५,२९ विच्छितृ ५,२९ विच्छित्ति ६,६ विज २८४.. विजावन् ३,१२२ विट १,१९२ विटङ्क ९,१० बिडाल १,२५२ उ. वितण्डा १,६८६ (उ.) वितर्क ९,२०१ वितदि ६,९ [उ.]
वितर्दिका १,३०५ । ६,९ । विपिन १,७५४ उ. वितस्ता ३,८१ उ.
विपिब १,२ वितस्ति ३,८१ च, उ.
विपुल १,९८० वितान ७,१ च
विपूय १,६०० वित्त ३,११५ । ५,८ विप्र २,९ उ. विथुर १,७१५ उ. १००२ उ. विपुष ८,५४ विद् २,४१
विभा २,३ विद २,४१ (उ.) विभु १,१ विदथ. २,४१ उ. विभ्राज् १,६६१ च विदर्भ ४,२४
वियम १,३८६ विदभृत १,८८६ वियाम १,३८६ विदाहिन् १,५५२ विरह १,५५४ । ९,३६० विदि २,४१ उ. विराज् १,८९३ विदुर २,४१
विराट १,२११ (उ.) विद्या २,४१
विराव १,५९९ विद्युत् १,९३७
विरिष्ध १,७७५ विटाविन् १,१३ विरुक्षण ९,३६३ विद्वस् २,४१
विरोचन १,९३८ उ. विध २,८१ । ३,१४ । ५,५८ विलगित १,७९ विधम १,४
विलभना ९,३२६ विधस् २,८१ उ.।५,५८ उ.
विलम्बिका १,७६६ विधा २,८१
विलातृ ३,१०५ । ८,१९ विधि २,८१
विलाय ३,१०५ विधु ३,१४ उ.
विलाल ५,९५ उ. विधुन्तुद ५,१.
विलाषिन् १,९२७ विनाशक ३,५९
विलास १,५४३ विनीय १,८८४
विलासिन् १,५४३
विलेत ३,१०५। ८,१९ विन्दु १,३१० । २,४१ विलेपिका ५,१० विपश्ची ९,१३
विल्म ५,९५ उ. १९,१२३ उ. विपर्यय. २,१७ | विविदिवस २,४१.। ५८
विन्द ५,८
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________________
पश्चम परिशिष्टम
विविद्वस् २,४१ । ५,८ । विधूचिका ९,२८८ विविशिवश् ५,१०१
विष्कम्भ १,७८० विविश्वश् ५,१०१
विष्किर ५,२० विवेक २,८४ । ६.३ विष्टप ५,१०१ उ. विवेचन २,८४
विष्टम्भ १,७७९ विशद १,९६७
विष्टर ८,१४ विशरितृ ८,२४ विष्टारपङ्कित ८,१४ विशरीत ८,२४
विष्ठल १,९७६ विशस्त १,५४९
विष्णु २,८५ उ. विशस्तृ १,५४९ उ.
विष्फार ५,१४६ विशाय २,४७
विष्फाल ५,१४७ विशारुक ८,२४
विस ३,७६ (उ.) विशिप ५,१०१ उ. विसर १,२५ विशेष ६,२० च
विसर्गिन् ३,११२ विशेष्य ६.२०
विसार १,२५ विश्न ५,२९
विसारिन १,२५ विश्रम ३.९०
विस्त ३,७६ उ. विश्रयिन् १,८८३
विस्तार ८,१४ विश्रवस् ४,११ [उ.]
विस्फार ५,१४६ विश्राणन ९.७६
विस्फाल ५,१४७ विश्राणना ९,७६
विस्फोट १,२०९ विश्राम ३,९०
विस्रम्भ १,९५१ विश्राव ४,११
विश्रम्भिन् १,९५१ विश्च ५,१०१ उ.
विहङ्ग १,३९६ विश्वम्भरा १,८८६ । २,८२ विहङ्गम १,३९६ विश्वप्सन् २,२ उ. विहग १,३९६ विश्वभोजस् ६,१५ उ. विहित्रिम २,८१ विष २,८५ । ८,५३ (उ.) । विहेठना १,६७६ विषम १,३८९
विड्वल १,१०५६ विषय ४२
वीक्ष १,८८२ विषाद १,९६६ च वीधि १,९९२ उ.
वीणा १,८९८ उ. वीत २,१८ वीति २,१८ वीत्त १,७ । २,८० वीघ्र ६,२६ उ. वीभा १,७७२ वीभितृ १,७७१ वीर २,१३९ उ. । ९,३६९ वीर्य ९,३६९ बुडित ५,१३७ . वुस ३,८४ वर्णि ८,१६ वृंहणा ९,२३२ वृंहित- १,२७२ वृंहित १,५६० वृक १,६२० । ४,९ उ. वृक्य १,६२० वृक्ष १,८७८ । ५,२७ उ. वृक्षित १,८७८ वृति १,९५५ उ. ... वृत्त १,९५५ वृत्ति १,९५५ वृत्य ४,९ वृत्र १,९५५ उ. वृत्रवध २,४२ उ. वृत्रहन् २,४२ वृद्धि १,९५७ वृन्ताक १,९५५ उ. वृन्ताकी १,९५५ उ. वृश ३,६३ (उ.) वृश्चिक ५,२७ उ.
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________________
शब्दसूधिः
[४५७
वृष १,५२७ वृषदंश १,४९६ वृषन् १,५२७ उ. वृषभ १,५२७ उ.. वृषल १,५२७ उ. वृषा १,५२७ उ. वृष्णि १,५२७ उ. वृष्य १,५२७ वेक्तृ २,८४।६,३ वेग २,८४ १५,१५४ (उ.) :| वेटक १,१९२ वेण १,८९८ वेणि १,८९८ उ. । २,१८ उ. वेणिका १,८९८ : वेणित १,८९८ वेणु १,१३९ उ.। २,१८ उ. वेण्णा १,८९८ उ. वेतन २,१८ उ. . वेतस २,१८ उ. .. वेतृ २,१८ वेत्तृ ३,११५।५,८।६,२५ वेत्र २,१८ उ. वेद २,४१ च. वेदना २,४२ वेदय २,४१ वेदविद् २,४१ वेदि २,४१ उ. वेदितृ २,४१ वेधस् . २,८१ उ.।५,५८ उ. . वेन १,१३९ उ.
वेनि २,१८ उ.
व्यथा १,१००२ वेपथु १,७५४
व्यथित १,१००२ वेपितृ १,७५४
व्यदधृ ३,१४ वेमन १,९९२ उ. व्यध ३,१४ वेय १,९९२
व्यभिचरिन् १,४१० उ. वेलका १,४४३
व्यभिचारिन् १,४१० च. वेला १,४४३ । ५,९४ । व्यय १,९१८ । ९,३३२
. ९,३४८ व्ययित १,९१८ वेलित १,४४३ । ५,९४ । व्यलीक १,९१९ उ.. वेल्लितृ १,४४२
व्यलीका १,९१९ उ. वेश ५,१०१
व्यवस्था १,५ वेशन्त ५,१०१ उ. व्यवस्थिति १,५ वेष २,८५
व्याघ्र १,३ वेषितृ १,५२३ । ८,५३ व्याड १,२५३ (उ.) वेष्टक १,६७३
व्यात्युक्षी १,५६६ वेष्टितृ १,६७३ व्याथम् १,१००२ वेष्ट २,८५ । ५,१०१ व्याध ३,१४ वेष्य २,८५
व्यापार ५,१५१ वेसर १,१३९ उ. ५४८ उ. | व्याभाषक १,८३२ वेसितृ १,५४८ ॥३,७६ व्याल १,२५३ वेहत् १,८६६ उ. व्याहारिन् १,८८५ वेहित १,८६६
व्युष्ट ५,३० वैयवस्थ १,५
व्युष्टा ५,३० वैशेषिक ६,२०
व्येय १,९९३ वोढ १,९९६
व्रज १,१३७ वोसितृ ३,८४
व्रजोपरोधम् ६,१ व्यज १,१३९
व्रज्या १,१३७ व्यड १,२५३
व्रण १,२६२ । ९,३०३ व्यथन १,१००२
वघ्न ८,४५ उ. व्यथम् १,१००२
व्रश्चितृ ५,२७
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________________
४५८ ]
पश्चम परिशिष्टम्
व्रष्ट ५,२७ ब्रीड ३,८ व्रीडा ३,८ व्रीति ८,३५ बीला ३,८ व्रीहि ८,३९ उ. बुडितृ ५,१३८ व्रत ३,१०७ । ८,३५ ठलीनी ८,२० ब्लेतृ ८,२०
श
शंभु १,१ शंसितृ १,५५० शंस्तृ १,५५० उ. शक ३,१३७ शकट ३,१३७ उ. शकटि ३,१३७ उ. शकल ३,१३७ उ. शकित ३,१३७ शकुन ३,१३७ उ. शकुनि ३,१३७ उ. शकुन्त ३,१३७ उ. शकुन्ति ३,१३७ उ. शकृत् ३,८७ उ. १३७ उ. शकृत्करि १,८८८ शकोट ३,१३७ उ. शक्ति ३,१३७ शक्तृ ३,१३७ च
शकय ३,१३७।४,१५ (उ.) | शब्द १,९१६ उ. । ३,१४० उ. शक्र ३,१३७ उ.
शब्दप्राछ् ५,३३ शक्ल ३,१३७ उ. शमितृ ३,८७ शक्वन् ३,१७ (उ.)
शमिन् ३,८७ शक्वरी ३,१३७ (उ.)
शमिष्ठल १,९७६ शङ्का १,६१७
शम्बल ९,१०९ (उ.) शङ्कित १,६१७
शम्य ३,८७ शुङ्कु ३,८७ (उ.)
शय २,४७ (उ.) .
शयत २,४७ उ. शङ्कला १,६१७ उ.
शयथ. २,४७ उ. . शङ्ख ३,८३ उ.
शयन २,४७ शङ्ख प्रस्तार ८,१४
शयानक २,४७ उ. शचितृ १,६४८
शयालु २,४७ . शची १,६४८ उ.
शयितृ २,४७ शट १,१७९
शयु २,४७ उ. . शठ १,२२२ ।
शय्या २,४७ ९,४९,२५६ (उ.)
शर ८,२४ च (उ.) . शण्ड १,६८५ । ३,८७ उ.
शरङ्ग ८,२४ उ. शण्डितृ १,६८५
शरठ ८,२४ उ.. शण्ढ ३,८७ उ.
शरण ८,२४ उ. शतसू २,४९
शरण्ड ८,२४ उ. शत्रु १,९६७ उ.
शरण्य ८,२४ उ. शत्रुघ्न २,४२
शरद ८,२४ उ. शत्रुह २,४२
शरभ ८,२४ उ. शद १,९६७
शरत्र्य ८,२४ शद्रि १,९६७ उ. शराट ८,२४ उ. शपथ १,९१६ उ. शरारि ८,२४ [उ.] शप्तृ १,९१६ । ३,१४० शरारु ८,२४ शप्य १,९१६
शराव ८,२४ उ. शबर १,१४ उ. शरि ८,२४ उ. शबल · १,९९६ उ. शरीर ८,२४ उ.
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शब्दसूचिः
शरु ८,२४ उ.
शषित १,५१८ शर्कर ८,२४ [उ.] शष्प १,५१८ उ. शर्करा ८,२४ उ. शसितृ . १,५४९ शर्कुर ८,२४ उ. . शस्त्र १,५४९,५५० उ. ८५३ शर्ध १,९५८
शाक ३,१३७ शर्धनह १,९५८ । २,७३ शाकपण १,७१० शर्धित १,९१०
शाखा १,६०।२,४७ उ. . शर्म ८,२४ उ.
शाखोट १,६० उ. शर्मन् ८,२४ उ.
शाट १,१७५ शर्मि ८,२४ उ.
शाटक १,१७५ शर्व. १,४७८ ॥ ८,२४ उ. शाटी १,१७५ शर्वर ८,२४ उ.
शाठ ९,२५६ शर्वरी ८,२४ उ.
शाठना ९,२५६ शर्शरीक ८,२४ उ. शाण १,१०४१ (उ.) शहरीका ८,२४ उ.
शाति ३,४ शल १,८०९ च, ९८४ शात ३,४ शलभ १,८०९ उ., ९८४ उ. शाद १,९६७ । ३,४ उ. शलल १,८०९ उ. ९८४ उ. शान्त ९,२७० शलाका १,८०९ उ. १८४ उ. शान्ति ३.८७ शलादु १,८०९ उ. शाप १,९१६ । ३,१४० शलालु १,८०९ उ. शामितः ९,२७० शलित १,८०९,९८४ शाय ३,४ शल्क १,८०९ उ., ९८४ उ. शार ८,२४ शल्भा १,७७२
शारि ८,२४ उ. शल्भितृ १,७७२
शाङ्ग ८,२४ उ. शल्य १,८०९ उ. ९८४ उ. शाल १,९८४ शल्यक १,८०९,९८४ शाला १,७००,८०९,९८४ । शव १,१४,४५९ शश १,४९३
शालि १,७०० उ. ८०९ उ. शशक १,४९३ शशित १,४९३ । शालु ८,२४ उ.
शालूक १,७०० उ. ८०९ उ.
९८४ उ. शाल्मलि १,९८४ उ.. शासित २,३७ शास्ति २,३७ शास्तृ २,३७ उ.. शिक्षक १,८७९ शिक्षा १,८७९ शिक्षित १,८७९ शिखर १,६० उ.।२,४७ उ. शिखा २,४७ उ. शिग्नु ८,२४ उ. शिवाणक १,९७ उ. शिवानक १,९७ उ. शिञ्जित २,५५ शिञ्जित २,५५ शिञ्जिनी २,५५ शिति ३,४ शिथिर १,७१७ उ. शिथिल १,७१७ उ. शिम्बा १,९५८ [उ.] शिरस् १,८८३ उ.।८,२४ उ. शिरि ८,२४ उ. शिरीष ८,२४ उ. शिशिर ८,२४ उ. शिल ५,८९ शिला ५,८९ शिव २,४७ उ. शिवा २,४७ उ. शिशु ३,४ उ. शिश्न २,४७ उ.
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________________
४६० ]
[पञ्चमं परिशिष्टम्
शिष १,५०८ शिष्टि २,३७ शिष्य २,३७ शीकन १,६११ शीकर १,६११ उ. शीका १,६११ शीकित १,६११ शीत १,६०६ । २,४७ उ. | शीतल २,४७ उ. शीधु २,४७ उ. शीधुपी १,२ शीन १,६०६ । २,४७ उ. शीभर १,७७० उ. शीभा १,७७२ शीभितृ १,७७० शीणि ८,२४ च, उ. शीवि ८,२४ उ. शीर्षघातिन् २,४२ शील १,४२१ । २,४७ उ.।।
शुनक ५,६० [उ.] शुनिन्धय १,२८ शुनिन्धयी १,२८ शुन्धित ९,४०१ शुभ १,९४७।५,७३ शुभ्र १,९४७ उ.।५,७३ उ. शुम्भा १,३७७ शुम्भितृ ५,७४ शुल्ब ९,१०६ शुल्व १,९८४ उ. शुश्रुवस् ४,११ शुषि ३,६५ उ. शुषिर ३,६९ उ.. शुष्क ३,६५ (उ.) शुष्कपेषम् ६,२१ शुष्कवत् ३,६५ शुष्म ३,६५ उ. शुष्मन् ३,६५ उ. शूति १,९९७ शूद्र १,९६७ उ. शूर १,१४ उ. । ३,१३० ।
९,३६८ शूरितृ ३,१३० शूर्प ८,२४ उ. ९,१०५ शूल १,४२४ शूलित १,४२४ । शूषा १,५०३ शृङ्खलतोदिन ५,१ शृङ्खला ८,२४ उ. शृङ्ग ८,२४ उ. शृङ्गाट ८,२४ उ.
शृत १,४६,१०१३ ।
२,७ च शृधू १,९५८ उ. शेखर १,६० उ. । २,४७ उ. शेतृ ४,३ शेप २,४७ उ. शेपस् २,४७ उ... शेपाल २,४७ उ. . शेफ २,४७ उ. शेफस् २,४७ उ. . शेय २,४७ शेलितृ ५,८९ शेलु ५,८९ उ. . शेव २,४७ उ. शेवल २,४७ उ. शेवा २,४७ उ. शेवाल २,४७ उ. शेष १,५०८ च ६,२० (उ.) शेषितृ १,५०८ . शेष्ठ १,५०८ । ६,२० शैलूष १,४२१ उ. शैवल २,४७ उ. शैवाल २,४७ उ. शोक १,९९ शोकापनुद. ५,५६ शोचन १,९९ शोचितृ ३,१३८ शोचिस् १,९९ उ. शोच्य १,९९ शोण १,२७४ च. शोणा १,२७४
शुक १,१४ उ. ५३ शुक्ति १,४०३ च शुक्ल १,५३ उ. शुङ्ग ३,८७ उ. शुच १,९९ शुचि १,९९ उ. शुच्यितृ १,४०३ शुण्ठ ९,५३ शुण्ठि १,२२६ उ. शुण्ठी १,२२६ । ९,५३ शुन ५,६०
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________________
शब्दसूचिः
शोणित. १,२७४ उ. शोणी १,२७४ शोतृ १,१४ शोधृ ३,४० शोनितृ ५,६० शोभन १,९४७ च.. शोभा १,९४७॥ ५,७३ शोभितृ ५,७३ शोष्ट ३,६५ शौ १,४५९ शौडीर १,२३३ उ. श्मशान २,४७ श्मश्रु १,८८३ उ. श्मीलिन १,४१६
श्यात १,६०६ " श्याम १,६०६ उ. श्यामाक १,६०६ उ. श्यैत १,६०६ उ. श्येन १,६०६ उ. श्येनचित् ४,५ अङ्कित १,६२५ श्रद्धा २,८१ श्रद्धालु २,८१ श्रन्थना १,७१७ । ८,३९ श्रन्थि १,७१८ उ. श्रन्थित १,७१७ । ८,३९ श्रमण ३,९० श्रमणा ३,९० श्रमितृ ३,९० श्रमिन् ३,९०
श्रम्य ३,९० श्रय १,८८३ (उ) श्रयितृ १,८८३ श्रवण ४,११ च, उ. श्रवस् ४,११ [उ.] श्रधिन् ४,११ श्राणा २,७ १.९,७६ श्रातृ १,४६ । २,७ श्राय १,८८३ श्राविन् ४,११ श्रिष १,५३० श्री १,८८३ श्रीति ८,४ श्रुति ४,११ श्रू ३,२२ श्रेणि १,८८३ उ. श्रेतृ ८,४ श्रेवितृ ३,२२ श्रेषितृ १,५३० श्रोणि १,२७५ उ. । ४,११ उ. श्रोणी १,२७५ . श्रोतृ ४,११ श्रोत्र ४,११ उ. प्रलक्ष्ण ३,६७ उ. प्रलङ्कित १,६२६ श्लाघा १,६४५ प्लाषित १,६४५ प्रलेष ३,६७ . श्लेषित १,५३१ श्लेष्ट १,५३१ । ३,६७ श्लेष्मन् १,५३१ । ३,६७ उ.
श्लोक १,६१३ श्लोकवच २,३८ श्लोकवद १,९९८ श्लोकित १,६१३ श्वङ्क १,६२३ श्वङ्कितृ १,६२३ श्वन १,९९७ उ. श्वपच १,८९२ श्वपाक १,८९२ श्वभ्र ९,११८ (उ.) श्वयथु १,९९७ श्वयित १,९९७ श्वशुर ४,२९ उ.. श्वश्रु ४,२९ श्वसित २,३२ श्वाविध् ३,१४ श्वास २,३२ श्वित्र १,९४३ उ. श्वेत १,९४३ श्वेतवाली १,८०७ श्वेय १,९९७
षण्ड १,६८५ उ. षष १,९९० उ. ष्ठ्यात १,३९ ष्ठीवन १,४६३
ठेवन १,४६३ प्ठेवितृ १,४६३ । ३,२३
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________________
पञ्चमं परिशिष्टम
सन्नाह ३,१४२ सम्पद ३,११४
सम्पर्क २,५०। ६,१० सङ्कथय्य ९।३१४ सङ्कर्षण १,५०६
सम्पर्किन् २,५०। ६,१०
सम्पचितृ २,५० । ६,१० सङ्कसुक १,९८७ उ.
सम्पाति १,९६२ उ. सङ्कास १,८३० । ३,१३५
सम्पीति १,२ सङ्घष १,५०६
सम्पृच्य २,५० सङ्केत १,२८६
सम्प्रदातृ १,७ सङ्कोच १,९६१ । ५.११७
सम्फल १,४१४ सङ्कोचक १,१०२
सम्फुल्ल १,४१४ सकन्दन १,३१६,१००७
सम्बन्दधृ ८,४५ सङ्ख्याकर १,८८८
सम्भार्य २,८२ सङ्ग्राम ९,३६५
सम्भु १,१ सयाह ८,१०
सम्भृत्य २,८२ सङ्घट्ट ९,४१ सङ्कर्षण १,५३४
सम्मद ३,९३ सश्चक्ष्य २,६४
संग्राम ९,३६७ सञ्चचक्षुस् २,६४ उ.
संयम १,३८६ सञ्चर १,४१०
संयाम १,३८६ सञ्चाय्य ४५
संयाव २,२२ सञ्चारिन् १,४१०
संयुग ३,१११
संरभ्य १,७८७ सञ्चय ४५
संराव १,५९९ । २,२७ सज्वारिन् १,१०५४
संरोधिन् ६,१ सन्तान ७,१
संलाप १,३३६ सन्दर्भ ५,७५
संवनन १,३२९ सन्दाव १.१२
संवर्णना ९,७३ सन्द्राव १,१३
संवादिन् १,९९८ सन्धा २,८१
संवासिन् १,९९९ सन्धि २,८१
संवेशिन् ५,१०१ सन्ध्या १,३०।२,८१ उ. | संव्यात १,९९३
संव्याहारिन् १,८८५ संशय २,४७ संशितव्रत ३,४ संसर्गिन् ३,११२ संसर्पा १,३४१ संस्तव २,६६ संस्तितृ. २,४० संस्था १,५ संस्फेट ९,४४ संहार १,८८५ संहित २,८१ सक्तु १,६४७ उ. सक्थि १,१७३ उ. सखि २,१३ उ. सङ्क्त १,१७३ सचिव १,३४० उ., ६४७ उ. सजुष ५,१५८ सज १,१३८ । सटा १,१८९ (उ.) सट्टक ९,४३ सति १,३३० च । ७,२ सत्तृ ५,५७ सत्त्र १,९६६ उ. सत्यङ्कार १,८८८ सद १,९६६ । ५.५७ सदस् १,९६६ उ. सदृक्ष १,४२५ सदृश् १,४९५ सदृश १,४९५
सझन् १,९६६ उ. | सनित १,३३० । ७,२
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________________
[ ४६३
.
शब्दसूचिः सन्ति १,३३० । ७,२ सपितृ १,३४० सप्तन् १,३४० उ. . सप्ति १,३४० उ. सब्रह्मचारिन् १,४१० सभाजन ९,२९० सम १,३८९ समक्न १,१०५ समज १,१३९ समज्या १,१३९ समय २,१७ च समया २,१७ उ. समर्दिन् १,३०१ समवसर्या ३,११२ समाज १,१३९ समाह्वय १,९९४ समितृ १,३८९ समिथ २,१७ उ. समिध् ६,२६ समीयिवस् २,१७ समीरण २,५७ उ. समीणि ८,३२ समुद्ग ५,३४ . समुद्र ६,१९ उ. समूलकाषम् १,५०७ समूलघातम् २,४२ सम्राज् १,८९३ सरक १,२५ च, उ. सरट १,२५ उ. सरड् १,२५ उ. सरण १,२५
सरणि १,२५ उ. सरण्ड १,२५ उ. सरण्यु १,२५ उ. सरयु १,२५ उ. सरयू १,२५ उ. सरित् १,२५ उ. सरीसृप १,३४१ (उ.) सर्जिका १,१४३ सर्जु १,१४३ (उ.) सर्तृ १,२५ सर्प १,३४१ (उ.) सर्पिस १,३४१ उ. सर्तृ १,३४१ सर्व १,२५ उ. सर्वकष १,५०७ सर्वन्तप १,३३३ सर्वसह १,९९० सर्ववेदस् २,४१ [उ.] सर्षप १,२५ उ.. सवन ४,१ उ. सवितृ २,४९।३,९९ ॥५,१८ सव्येष्ठ १,५ उ. ससित २,४५ सस्फुर ५,१४६ सस्य २,४५ उ. सह १,९९० सहकृत्वन १,८८८ सहन् १,९९० सहयुध्वन् ३,११७ सहस् १,९९० उ.. सहसान १,९९० उ.
सहस्र १,५४५ उ. सहित २,८१ सहित १,९९० सहित्र १,९९० सहिष्णु १,९९० सहुरि १,९९० उ. सह्य १,९९० (उ.) सान्नाय्य १,८८४ साति १,३३० च । ३,७।
७,२ च सात १,४४ । ३,७ सात्मन् ३,७ उ. सात्म्य ३,७ साद १,९६६ च । ५,५७ सादि. १,९६६ उ. सादिन् १,९६६ साधन ४,२० साधु ४,२० उ. साधुकुस् ९,२७१ साधुघु १,२५८ साधुनिकाय ४५ साधुपरिवेषक २,८५ साध्वध्यापक २,४६ साध्वारम्भिन् १,७८५ साध्वालम्भिन् १,७८६ सानु १,३३० उ. । ७,२ उ. सान्ति १,३३० सामग १,३७ सामगी १,३७ साम्ब ९,१०९ साय ३.७ उ.
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________________
४६४ ]
सायक ४, २
सार १,२५
सारथि १,२५ उ.
सार्थ १,२५ उ.
साल १,४३८
सास्ना २,४५ उ.
साह १,९९०
साहय १,९९०
सावस् १,९९०
सिंह ५,७ उ. । ६,२२ उ.
सिंहविनर्दिन् १,३०३
सित ४,२ उ, । ८,२ सिघ्र १,३२१ उ.
सिध्रक १,३२९ सिन ४,२ च उ. । ८,२
सिन्धु १,९५६ उ.
सिमीक १,३८७ उ.
सिरा ४,२ उ.
सिल ५,९०
सीता ४,२ उ. सीमिक १,३८७ उ.
सीर ४,२ उ.
सीवन ३,२१
सुक ४,१ उ.
सुकटङ्कर १,८८८
सुकनू १,३३१
सुकावन् १,३३१
सुकुस् १,२८३ । ९,२७१
सुकृत् १,८८८
सुख ९,२८३ ( उ ) । सुखवर्धन १९५७
सुगई १,८६० सुगमन् १,८६०
सुगवन १,८६०
सुधिन् १,७०७
सुधिनावन् १७०७
सुध्यावन् १७०७
सुजुर १,४७५
सुजूर १,१०५४
सुन् १,७९०
सुत ४,१ उ. २,२० उ.
सुतयू १,८१६
सुतयोमन् १८१६
सुतवन् ४, १
सुतुर १,४७१
सुते १,८१६
सुतेवन १,८१६
सुतोर १,४७१
सुतोमेन १,४७१
सुतोर्वन् १,४७१
सुत्या ४,१
सुत्वन् ४, १
सुत्वरी ४,१
सुदर्शन १,४९५
सुदान २,८०
सुदुर १,४७३
सुदोहन २,६९
सुघुत्वन् २,१९
सुद्योवन् २,१९
सुद्विष् २,६८
सुधा १,९२०
सुधान २,८१
पञ्चमं परिशिष्टम्
सुधावन १,९२०
सुक्ष्मिन् १८७७ सुधिष्. १,८७७
सुधुक्ष्मन् १,८७६
धुं १,८७६
सुधोमन् १९२०
सुधौ १,९२०
सुनत् १,७९४
सुनमन् १,७९४
सुनवन् १,७९४
सुनस् १,८५१
सुनीथ १,८८४ उ.
सुन्द - ४,१ उ.
सुन्मन् १७९४
सुन्वत् ४, १
सुन्वन् १७९४
सुपमन् १,७९२
सुष्मन् १७९२
सुप्रकम्पया ९,७८
सुप्वन् १,७९२
सुमन् १,७९०
सुमर्षण १,५२८
सुमान ८,५
सुम् १,४८०
सुम्भन १,३७७
सुयामन् २,४
सुयावन् १,४८८
सुयुत् २,२२
सुयोधन ३,११७ सुयोमन् २,२२
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________________
शब्दषिः
..
[ ४६५
सुयोवन् २,२२ सुयो २,२२ - सुर ४,१५,८३ सुरा ४,१२,८३ सुरापाण १,२ सुरापी १,२ सुरुसुर ५,८३ उ. सुलभ १,७८६ सुलाम १,७८६ सुवमन् १,७९१ सुवर्चला १,६५३ उ. सुघर्चिका १,६५३ सुवा १,९९२ सुवामन् १,९९२ सुवावन् १,९९२ सुष्मन् १,७९१ . सुशव १,४५९ सुशवी १,४५९ सुशासन २,३७ सुशोच् . १,४०३ सुशोच्मन् १,४०३ सुशोच्चन् १,४०३ सुषन्धि २,८१ . सुषूति २,४९ सुषेध १,३२१ सुष्ठे १,४६३ सुष्ठयू १,४६३ सुष्ठ्योवन १,४६३ सुसूर्मन् १,४००,५७९ सुसूर्धन् १,१००
। सुह १,३९७
| सुहर् १,३९८ सुहर्मन् १,३९८ सुहर्वन १,३९८ सू २,४९ . सूकरनिचय ४५ सूक्ष्म ९,२८८ उ.. सूच ३,२१ उ. । ९,२८८ सूचक ९,२८८ मृत्रि ९,२८८ [उ.] सूची ३,२१ उ. । ९,२८८ सूढि १,३९७ सूत् १,९९२ सृत २,२० उ. ४९।४,१ उ. सूतक २,४९ मृतका २,४९ सूति २,४९ सूतिका २,४९ सूत्त २,८० मृत्या २,४९ सूत्र ३,२१ उ.९,२८८ उ. ३३३ सूत्रकार ९,३३३ सूत्रग्रह ८,१० सूत्रग्राह ८,१० सूत्रधार १,८८७ सूत्वन् १,९९२ सूद १,७३६ ॥ ९,१७३ सूदन १,७३६ सूदित १,७३६ च सूदी १,७३६ सन् १,७९४
सूना ४,१ उ. मृनु २,४९ उ. सूप २,२० उ.। ४,१ उ. सूर २,४९ उ. सूरत १,९८९ उ. सूरथ १,९८९ उ. सूर्क १,४०० सूक्षित १,५७९ सूर्मन् १,५७९ सूक्ष्यितृ १,४०० सूर्य १,२५ सूष १,५०३ (उ.) सूषितृ १,५०३ सृषी १,५०३ सृगाल १,२५ उ. सृणि १,२५ उ. मृणीका १,२५ उ. मृत्वर १,२५ सृत्वरी १,२५ (उ.) सृष्य . १,३४१ सृप्रा १,३४१ उ. समर १,२५ सृष्टि ३,११२ सेकित १,६३५ सेक्तृ ५,७
सेक्त्र ५,७
सेतु ४,२ उ. सेतृ ४,२।८,२ सेत्र ४,२ सेधृ १,३२०,३२१ । ३,४२
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________________
४६६ ]
पञ्चमं परिशिष्टम्
सेध १,३२१
स्तनितृ १,३२३ सेधित १,३२१
स्तबक २,६६ उ. सेना ४,२ उ.
स्तम १,३९० सेनाचर १,४१०
स्तमितृ १,३९० सेरु ४,२
स्तम्बकरि १,८८८ सेलितृ ५,९०
स्तम्बधन २,४२ सेवन १,८१८ । ३,२१ स्तम्बघ्न २,४२ सेवा १,८१९
स्तम्बरम १,९८९ सेवितृ १,८१८ । ३,२१ स्तम्भ १,७७९ सोढ १,९९०
स्तम्भितृ १,७७९ सोतृ १,१७ । २,२०,४९ ।। स्तर ८,१४
___३,९९ । ४,१ स्तरितृ ८,१४ सोम ४,१ उ.
स्तरी ८,१४ उ. सोमविक्रयिन् ८,१ स्तरीतृ ८,१४ सोमसुत् ४,१
स्तरीमन् ८,१४ सोरितृ ५,८३ स्तर्दृ ५,११० सोहित ३,३१
स्तर्तृ ४,७ स्कन्तु १,३१९
स्तर्हितृ ५,११० स्कन्द १,३१९
स्तव २,६६ (उ.) स्कन्ध १,३१९ उ. स्तीमितृ ३,२० स्कन्धस् १,३१९ उ. स्तुति २,६६ स्कम्भित १,७८० स्तुत्य २,६६ स्कुन्दितृ १,७४० स्तूप २,६६ उ. । ३,५४ स्कोतृ ८७
स्तूपितृ ३,५४ स्खदित १,१००५ स्तूंहितृ ५,१११ स्खदा १,१००५
स्तृक्षित १,५७५ स्खल १,४४८
स्तृण्ड ५,१११ स्खलन १,४४८
स्तेघितृ ४,२८ स्खलितृ १,४४८
स्तेन १,४० उ. । ९,३२१ स्तन १,३२३
स्तेपितृ १,७५१,७५२ स्तनयित्नु ९,३१९ उ. स्तेमितृ ३,१९
स्तोक १,६५८ ॥ २,६६ : स्तोतृ २,६६ स्तोत्र २,६६ स्तोभ १,७८१ । २,६६ स्तोम २,६६ उ. । ९,३३१ स्त्यातृ १,४० स्त्री १,४० उ. स्त्य नुज ३,१२२ स्थ्याख्य २,१३ . स्थण्डिलशायिन् २,३७ स्थल १,५ उ. ९७६ स्थला १,९७६ स्थलित १,९७६ स्थली १,९७६ मा स्थव १,५ उ. स्थविर १,६ उ... स्थाणु १,५ उ. .. स्थायिन् १,५ . स्थायुक १,५ स्थाल १,५ उ. ९७६ स्थाली १,५,९७६ स्थावर १, स्थास्नु १,५ स्थिर १,५ उ... स्तुडितृ ५,१३६ । स्थुल ५,१३६ (उ.). स्थूणा १,५ उ. स्थूर १,५ उ... स्थूरवाकु २,३८ उ. स्थूल ९,३७१ स्थूलपृषती १,५२६ उ.
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________________
शब्दसूचिः
[ ४६७
स्यमितृ १,३८७ स्यमीक १,३८७ उ. स्योमन् ३,२१ स्रज् ३,११२ स्रष्ट ३,११२ । ५,३५ स्रस्ति १,९५३ स्रातृ १,४५ त्रुच् १,१५ उ. खुति १,१५ त्रुव १,१५ उ.
स्नसित .३,२६
स्प्रष्ट ५,९८ स्नातृ १,४९ । २,६ स्फटिक १,२०८ उ. . स्नायु १,४९ उ.।२,६ उ... स्फर ५,८४ स्नावन् २,६ उ.
स्फरक ५,८४ स्निह् ३,९८
स्फरितृ ५,८४ स्नुषा २,२५ उ.. स्फलक ५,८४ स्नुहि ३,९७ उ... स्फलितृ ५,८४ स्नेग्धृ ३,९८
स्फा १,८०४ स्नेदृ ३,९८
स्फायितृ १,८०४ स्नेह ३,९८
स्फार १,८०४ उ. । ५,८४ स्नेहितृ ३,९८
स्फिर १,८०४ उ. स्नोग्धृ ३,९७
स्फुट १,२०९,६६९। ५,१२६ स्नोड ३,९७
स्फुटितृ ५,१२६ स्नोहित ३,९७
स्फुण्डिका ९,५६ स्पन्द १,७२४
स्फुण्डितृ १,६६९ स्पन्दन १,७२४ स्पन्दित १,७२४
स्फुरितृ ५,१४६ स्पर्तृ ४,१४
स्फुलिङ्ग ५,१४७ उ. स्पर्ध १,७४२
स्फूर्ति १,१२७ । ५,१४६ स्पर्धन. १,७४२
स्फेट ९,४४. .. स्पर्धा १,७४२
स्फेटक ९,४४ स्पर्धिष्णु १,७४२
स्फोट १,२०९,६६९ । ५,१२६ स्पर्श ५,९८ .
स्फोटित १,६६९ स्पष्ट ९।२७६
स्मर १,१८ स्पष्ट ५,९८
स्मर्तृ १,१८ । ४,१४ स्पर्श १,९२६
स्मीलितृ १,६१७ स्पाश १,९२६ । ९,२७६ स्मूर्छा १,१२८ स्पाशित ९।२७६ स्मृति १,१८ स्पृहयाय्य ९,३६२ उ. स्मेर १,५८७ स्पृहयालु ९,३६२ स्मेतृ १,५८७
स्यन्दन १,९५६ उ..
रेकितृ १,६३६ स्रोतस् १,१५ उ. . स्रोतृ १,१५ स्व १,७९० च स्वक्ति ५,१५७ स्वङ्कतृ ५,१५७ स्वत् १,७९० स्वतन्त्र ९,२७३ स्वदन १,७२९ स्वन १,३२७ स्वनितृ १,३२७ स्वपोषम् १,५३६ । ३,३२ स्वप्तृ २,३० स्वप्न २.३० (उ.) स्वप्नज् २,३० स्वमन् १,७९० स्वयम्भू १,१ स्वर १,२१ स्वरितृ १,२१ स्वरु १,२१ उ.
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________________
४६८ ]
पञ्चमं परिशिष्टम
हव १,९९४।२,७२ च हविस् २,७२ उ. हव्य २,७२ हस १,५४५ उ. हसित १,५४५
..
स्वर्ग १,२१ उ. स्वगमाय १,९९४ स्वर्तृ १,२१ स्वर्दित १,७३० स्वस ३,७८ उ. स्वाढचंभव १,१ स्वादु १,७२९ उ. स्वादुङ्कारम् १,८८८ स्वान् १,१२३ स्वान १,३२७ स्वान्त १,३२७ स्वाप २,३० स्वित्वन् २,१७ स्वनू १,४८८ स्विनोमन् १,४८८ स्वे २,१७ स्वेत्तृ ३,३५ स्वेद १,९५६ स्वेदित ३,३५ स्वेन १,४८८ स्वेमन् २,१७ स्बेवन् २,१७ स्वैरिन् २,५७ स्वोमन् १,८००
हतु २,४२ उ. हर्तृ १,७२८ हत्या २,४२ हत्याभूय १,१ हथ २,४२ उ. हदन १,७२८ हनि २,४२ उ. हनु २,४२ उ. हन्तृ २,४२ हम्मितृ १,३९४ हय १,३९७ । ४,१० हयित १,३९७ हयी १,३९७ । ४,१० हयुषा १,३९७ उ. हरि १,८८५ उ. हरिण १,८८५ उ. हरित् १,८८५ उ. हरित १.८८५ उ. हरिछ १,१३ उ. हरिमन् १,८८५ उ. हरीमन् १,८८५ हरेणु १,८८५ उ. हर्तृ १,८८५ (उ.) हर्यित १,३९८ हर्षयित्नु १,५३५ उ. हर्षितृ १,५३५ । ३,७१ हर्षुल १,५३५ उ. । ३,७९ उ.
हस्तग्राहम् ८,१० हस्तबन्धम् ८,४५ हस्तवर्तम् १,९५५ हस्तिघात २,४२ . हस्तिघ्न २,४२ हस्र १,५४५ हाटक १,८८८ ... हातृ २,७३,७८ हानि २,४२ उ. ७३ हायन २,७३,७८ हाल १,९७७ हाला १,९७७ हाव्य २,७२ हास १,५४५ हिंस ६,२२ हिंसक ६,२२ हिंसा ६,२२ हिंसित ६,२२ हिंसितृ ६,२२ . हिंसीन ६,२२ उ. हिंसीर ६,२२ उ. . . . हिंस्र ६,२२ हिका १,८८९ हिक्वित् १,८८९ हिडम् १,१०३५ व
ho
हंस २,४२ उ. हठ २,१७ हडि १,९७७ [उ.]
२,१७
हलाहल १,९७७
हलि १,९७७ उ. । हलितृ . १,९७७
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________________
शब्दसूधिः
हिण्डन १,७०४ हिण्डि १,७०४ उ. हिण्डित १,७०४ हिन्धित १,४८५ हिम २,१२ उ.।
हिमश्रथ १,७१७ । ८,३९ हिरण्य १,८८५ उ.. हिलिहिल ५,८८ उ. हीक ४,१० उ. हीडम् १,१०३५
हुरि ५,१४१ [उ.) हुरित ५,१४१ हुड १,९८५ [उ.]।
५,१४१ [उ.] हुण्ड १,६८३ . हुण्डा १,६८३ हुण्डि १,६८३ उ. हुण्डिका १,६८३ हुण्डित १,६८३
हेठितृ १,६७६ । ८,३७ हेड १,७०२ हेडम् १,१०३५ हेडित १,७०२,१०३५ हेति २,४२।४,१० हेतु ४,१० उ. हेतृ ४,१० . हेम २,४२ उ. । ४,१० उ. | हेमन् ४,१० उ. हेमन्त २,४२ उ. हेय २,७८ हेला १,७०२।५,८८ हेलित ५,८८ हेलिहिल ५,८८ उ. हेषा १,८४१ हेषित १,२७२ हेषित १,८४१ हैलिहिल ५,८८ उ. होड १,७०३ । ५,१४१ होडा १,७०३ होडितृ १,७०३ होतृ २,७२ च, उ. होत्र २,७२ उ. होत्रा २,७२ उ.
होम २,७२ उ. | होल १,९८५
होलित १,९८५
ह्नव्य २,४८ हनाव्य २,४८ इनोतृ २,४८
ह्नलित १,१०५७ यस् २,७३ उ. हद १,७३७ हसित १,५४० हस्त्र १,२४० उ. हाद १,७३७ हादितृ १,७३७ ही २,७५ ह्रीक २,७५ उ. हीकु २,७५ उ. ह्रीच्छा १,१२४ हेतृ २,७५ हेय २,७५ हेषा १,८३९ हेषितृ १,८३९ हलसित १,५४१ ह्लादितृ १,७३८ लीक २,७५ उ. लीकु २,७५ उ. हर्तृ १,२४ हलित १,१०५६ द्वाय १,९९४ च
हृदय १,८८५ उ. हदिक १,८८५ उ. हल्लास १,५४३
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________________
षष्ठं परिशिष्टम
ग्रन्थकारा इमे सर्वे हेमाचार्येण संस्मृताः । आर्याः पृ. ५९ । पं. १०
देवनन्दी ३४१ । १८,२० 'कण्वः ३७१३, ४६ । १, ६६०५
'द्रमिलः ३५ ॥ २४, २०८।२, २३२ । २६, कौशिकः १०२, २८१२५, ३५।२४, ४६।१३, |
२५६ । २४, २५७ । १०, ३१८ । १३ ५३।१४, ६२१, ८१४१, ८९।११,
नन्दी १२२ १२२, १५४१८, २१६ । २६. १५, ९।४, ९४ । १५, ९६ । ११,
२९४ । १५, ३१६ । २, ३१९ । १४, १३२ । १६, १५३।३, १८४।१४,
३२०।१०, ३२३।१६, ३२५ । २६, २२,३०९।१५, ३१७१२,३१९।२०,
३२९।५, ३३१ । १५, ३३५१२३, ३२८ । १७, ३२९ । १७, ३३५ ॥२३
३४६ । २२, ३५२ । ६. गुप्तः १७१३
पारायणिकः १०३।२ चन्द्रः ४५।१,५३१७, ७२।२२, ९१ । ९,
पूर्वाचार्य १२९॥५, १३५।२३, १४ । १९, १०९।६, १०९।१६, १५४१४,
१५२।१, १६१ । ३ २७७ । ८, ३०८।७, ३१५११५, पूर्वः ३८ ॥ १४, ३०९।७, ३२६ । २
३२१।४, ३२७।५,३३४१६, ३४७।१५, भीमसेनीयाः ३५६।२ चान्द्राः ५३।७, ३१३ । ९, ३३३ । १२,
वामनः १०।४, १००।१९, १२८१५, ३३८ । ८,
वृद्धाः १।१५, ९७।२० चारकाः ६४।१०
शिवः १७३ । ३, २८७ । २१ जयकुमारः ८।१८
| सभ्याः १९९ । २४, ३४५।४
सप्तमं परिशिष्टम्
आचार्यहेमचन्देण ग्रन्था उल्लिखिता इमे ।। अमरकोशः ३१८ । २२
भाष्यम् ३।१३, ५१ ॥ १७ चान्द्रं पारायणम् ३५५।३
वाचकवार्तिकम् ४० । १८, २०४।९ धातुपाठः ३६।१ पारायणम् ३३३१२
स्मृति: ९२।९ १ क्षीरतरङ्गिण्यां 'कण्व' स्थाने कण्ठ इति पाठ उपलभ्यते । पृ. २४ । ३, ४६।१, ६६ । ५।। २ क्षीरतरङ्गिण्यां 'द्रमिल' स्थाने द्रमिड इति पाठः दृश्यते । पृष्ठ २२ । ६, १९८ । ११,
२०७४ १८, २५२ ॥ ६, २३६ ॥ ५, .
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________________
अष्टमं परिशिष्टम् उद्धृतगद्य-पद्यानां सूचिरत्र प्रदर्श्यते ।
गण १०
धा. ११५
१५२
१८१ .
गण ९
धा. २४
आरेकंसंशयेऽप्याहुः। ईक्षितव्यं परस्त्रीभ्यः । उदयति हि सं... उदयति विततोय...
(शिशुपाल० ४।२०) उन्नामिताखिल... एकं द्वादशधा जज्ञे । एकवचनमुत्सर्गः... एतन्मन्दविपक्व...
(काव्यप्रकाश ७ । १४२) कमलवनोदघाटनं... (शारङ्ग पद्धति १३८)(सूर्यशतक प्रलो० २) कलां नार्घन्ति... ( महाभारत सभापर्व ३८ । ३६ ) कश्चित्तमनुवर्तते । (सि. हे. बृ. पृ. ३ । ३ । १) कायमानः सिद्धोनादि... (काव्यालङ्कार ५ ।२ । ८३) गौरिवाकृतनीशारः... (महाभाष्य ३।३।२१, पृ. वृ. ५।३।२०) ग्राममद्य प्रवेक्ष्यामि... (पा. ६।१।१५२ काशिकाटीका) जजान गर्भ मघवा। (तुलना अथर्ष० ३ । १० । १२) जायते अस्ति..... (निरुक्त १ । २९) जिवाशतान्यु... जुघुषुः पुष्यमाणवाः । ( महाभाष्य ७।२।२३, उ.वि.२० ) तडित्खचयतीवाशाः । ततो वावृत्यमाना सा । ( भट्टीकाव्य ४ । २८ ) तां प्रातिप्रदि...( वाक्यपदीय ३११३४ ) तावत्खरः प्रखर मुल्ललयां चकार । ( शिशुपाल० ५। ७) तुइत्यंहः...
( कविरहस्य प्रलो० ३२ ) दरदलितहरिद्रा...
(विद्धशालभञ्जिका ३।१७) धातोरर्थान्तरे वृत्ते...
(वाक्यपदीय ३।७।८८) धात्वर्थः केवलः शुद्धो...
३२७
१५७ ३२८ ३५८ २२८ गण १ ३५७ १५ ३११८
धा. १
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________________
४७२ ]
अष्टमं परिशिष्टम्
गण १०
धा. ७८
गण १०
धा.४१५
२३४
2066 र
ર૭
१५२ गण १
न चोपलेभे...
(भट्टीकाव्य ३।२७) नमस्तुङ्ग शिरश्चुम्बि- (हर्षचरित १) न यमेन न जातवेदसा... नव ज्वरो लङ्घनीयः। निपातश्चोपसर्गश्च...
(गणरत्नमहोदधि पृ. ४३) नित्यं न भवनं यस्य... ( तन्त्रवार्तिक २ । ११) निवृत्तप्रेषणाद्धातोः... [सि. हे. बृ. वृ. ३।३ । ८८ ] नीपानान् दोलयन्नेषः... परार्थे क्लिश्यंत: सतः । पांसुर्दिशां मुख...
(शिशुपाल० ५।२) पूर्वापरीभूतं...
(निरुक्त १ । १) प्रकृतेर्गुणसम्मुढाः...
( भगवद्गीता ३ । २२ ) प्रतिचस्करे न खैः । . (शिशुपाल० ११४७ ) प्रतिरवपरिपूर्णा... a (कविरहस्य श्लो. ४२) प्रभवतीति स्वाम्यर्थः... प्रविघाटयिता समु...
( कीराता० २।४६ ) प्राप्तक्रमा...
(वाक्यपदीय ३।१।३५ ) प्रियं प्रोथमनुव्रजेत् । ( उद्धृतम् अने, कै. २ । २१६ ) भूवादयो धातवः
(पा. १।३।१) महिपाल वचः श्रुत्वा... (महाभाष्य ७।२।२३, उ० वि० २०) माङ्गलिकत्वात् प्रथमस्य... मिलन्त्याशासु जीभूता...(शृङ्गारप्रकाशे इति पुरुषकारः पृ. ९८) मुसलक्षेपहुङ्कार.... (उद्धृतम् अनेकार्थ कै० ३।६७१) मेथिबद्धोऽपि हि भ्राम्यन् .. (द्र. सुभाषितरत्नावली २९५८ इति क्षी. त. पृ. १२५ ) मेरुं स्पर्धिष्णुनेवान्यो... यद्वायुरन्विष्टमृगैः.... ( कुमारसंभव १।१५ ) राजर्षिकल्पो रजयति रामो राज्यमकारयत् ।
(रामा० युद्ध १२८ ॥ १२५ इति क्षी, त. पृ. ३२२) वान्ति पर्णशुषो वाता:...
( उ० वि०२०)
धा. १
०
ર૪
गण ३
धा. २६
३५८
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________________
उद्धरणसूचि :
पु.
.२२९
५९
२३३
રક
१२०
५६
८
'
२३
३५६
68
१५७
.२१९
५.१
૮૭
६०
६९.
२७
१२
४
V
१२
१७
२१
३
ક
१५
१७
१७
विदितं विन्तेर्विनं ...
शवतिर्गतिकर्मा
शुशरेरिशरः शरैः ।
शेषो भुवं धीयते ।
श्रोतारमुपलभति
श्वेतं नीलति मरकतकान्त्या ।
संशय्यकर्णादिषु तिष्ठते यः । सकर्मकाऽकर्मकत्वं ...
सज्जमानमकार्येषु ।
सहति कलभेभ्यः....
सा नित्या सा महानात्मा...
सावष्टम्भनिशुम्भसुम्भन०
[ ४७३
सुखं स्वपिति गौर्गंडी ।
स्वाधीने विभवेत्यहो ...
हम्मतिः सुराष्ट्रेषु | हेडः प्रसादौ प्रभोः ।
( महाभाष्य ८।२।५८ )
( महाभाष्य आ० ११५)
महति कलभेभ्यः परिभवम् । ( सुभाषित. ६३१ इति क्षी. त. पृ. ३०६ )
( सुभाषिता० ६३१ )
( वाक्यपदीय ३ । १ । ३४ )
( मालतिमाधव ५ १२२ )
( किराता० ३ । १४ ) ( कर्मयोगामृततरङ्गिणी )
( का० नीति ४ । ४१ )
( सुभाषितावलि - ३२३६ )
( महाभाष्य आ० ११५ )
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________________
नवमं परिशिष्टम् परःशता ये निर्विष्टा नामोल्लेखं बिना मताः। पृष्ठ-पत्यानुसारेण तेषां सूचिः प्रदर्श्यते ॥ अभिशायच कस्यायं कस्मिन् ग्रन्थे च विद्यते । निदर्शनं यथाप्राप्त तेषामपि प्रदर्श्यते ॥ पृष्ठ पनि
कस्य मतः कस्मिन् ग्रन्थे क्षीरस्वामी
(क्षी. त. पृ. ८३) अन्ये तु ,
(क्षी. त. पृ. १४४) इत्येके
अन्ये
दुर्ग
(क्षी. त. पृ. ३२)
.
केचित्
वोपदेषः (कविकल्पद्रुम पृ. ६३) दुर्गः (क्षी.त.पृ. ३२) काशकृत्स्नः । (का. धा. पृ. ८) श्रीरस्वामी
(क्षी. त. पृ. ३४)
अन्ये
पके
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३९) काशिकाकार (क्षी. त. टि. पृ. ४१)
पके केचित
क्षीरस्वामी (ली. त. पृ. ४२)
बोपदेवः (कविक. पृ. ८५) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ४६) काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. २०७)
अन्ये
अन्यः
केचित्
अन्ये
एके
।
पोपदेवः (कविक. पृ. ९७ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५३)
, (क्षी. त. पृ. ५४)
अन्ये
पके
Page #519
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________________
मतान्तर सूचिः
पृ.
२८
of of 8
२९
२९
२९
३०
३०
Mmmm
३०
३१
३२
३२
३२
३२
३६
३७
३७
३७
३८
४०
४६
५०
५१
५२
.D
२३
१
67
१६
१६
29
१२
१६
५.
१८
१४
२३
२४
२.
१३
१६
२५
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१२
४
१९
२१
१६
6 ू
एके
अन्ये
अन्ये
केचित्
अन्ये
एके
केचित्
अन्ये
अन्ये
एके
अन्ये
अन्ये
अन्ये
अन्ये
पके
अन्ये
एके
"
१९
,
येषाम
अन्ये
केचित्
एके
केचित्
एके
,
केचित्
कस्य मतः
[ ४७५
कस्मिन् ग्रन्थे
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५५ ) शाकटायनः (मा. धा. पृ. ११३ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५५ )
स्वामी - काश्यपौ ( मा. धा. पू. क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ.
११४ ) ५६ )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५७ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पू. ५७ )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५८ )
दुर्ग: (क्षी. त. पृ. ५९ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ५९ ) वोपदेवः (कविक. पू. १०७ ) १८ )
काशकृत्स्नः (का. धा. पृ काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. १८ ) वोपदेवः (कषिक. पू. ११० ) काशकृत्स्नः (का. धा. पू. १८ )
वोपदेव: (कविक, पृ. १३२ )
काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. १६१ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ६५ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १५३ )
वोपदेवः (कविक. पू. १७५ )
क्षीरस्वामी (श्री. त. पू. ८९ )
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमं परिशिष्टम्
पृ.
पं.
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्थः
५८.
२२
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ८४)
PM
कैश्चित्
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ८६)
अन्यैः एके अन्ये
केचित्
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ९९)
मैत्रेयः (मा. धा. पृ. १७४) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ९५)
६७११
N० .
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ९३) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १३)
एके
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ९३)
केचित
अन्ये अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २७) क्षीरस्वामी (क्षो. त. पृ. ३०)
वोपदेवः (कविक. पृ. ७३)
दुर्गः (श्री. त. पृ. ३६)
एके
क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. ४७)
येषाम अन्ये
अन्ये
क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. १५)
एके.
Page #521
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________________
मतान्तरधिः
[४७७
पृ
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्थे
एके
अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १८) अन्ये अन्ये
भोजः (क्षी. त. पृ. १४) येषाम् काशकृत्स्नः ( का.धा. पृ. ६४) मैत्रेयः (धा. प्र. पृ. ९) ये तु पाणिनीयाः ( महाभाष्य ३१११५) (क्षी. त. पृ. ६७) [ अन्ये]
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ६० ) काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. ७६.)
काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. ७६) एके
अन्ये
ये तु
ये
.
०
1०४
-
१०५
-
V०.
-
एके अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ७७) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ६३) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ९१) __दुर्गः (क्षी. त. पृ. ९१) चन्द्र-दुर्गों (क्षी. त. पृ. ९२) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ८७)
एके
पके
केचिद् कश्चिद
१२३
ये तु
क्षीरस्वामी (क्षो. त. पृ. १३१)
पके अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १२३)
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमं परिशिष्टम्
कस्य मत:
पके
कस्मिन् ग्रन्थे दुर्गः (क्षी. त. पृ. १२४ ) क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. ११५)
कचित्त
क
१२३
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १२५)
१२५
१२६
अन्ये
एके
१२७
१२७
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १२६) ___, ( , १२७) दुर्गः ( , १५८) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १२८ ) मैत्रेयः (धातुप्रदीपः पृ. ६५)
१२८
ये तु अन्ये अन्ये
१३०
२३०
कैयट-क्षीरस्वामिनी (क्षी. त. पृ. १२८)
आहेत: (क्षी. त. पृ. १०१)
१३१
पके
एके
श्रीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १२२)
., (.,, ११९.)
अन्ये
पके
१४०
अन्ये
क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. ११६)
१४१
राक
१४१ २४३
अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ११७)
, ( , १२२) भोजः ( , १९४)
अन्ये अन्ये अन्ये अन्ये
दुर्गः (क्षी..त. पृ. १०५) क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. १०६)
मैत्रेयः (धा. प्र. पृ. ५७)
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतान्तरसषि
कस्य मत:
५५
अन्यैः
कस्मिन् ग्रन्थे .
पञ्चिका (श्री. त. पृ. ११०) ... क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. १०८)
. कौमाराः (क्षी. त. पृ. ११२)
अन्ये
केचितु
भोजः (सरस्वतीकण्ठा. १।१।१९२)
१६४
अन्ये अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १८०) ___ , ( , १८०)
ये तु
एक
एके
एक
अन्ये ।
१७३
अन्य
१७४
भीरस्वामी (क्षी. त. पृ. १८९) स्वामि-सम्मताकार-मोजाः (मा..धा. वृ. पृ. ३६८)
भीरस्वामी (क्षी. त. पू. १८३)
एके येतु
अन्ये
अन्ये
• । केचित्
.. कालापः (मा..धा. वृ. पृ. ३८१)
केचित् पके पके
१८४ २८४ १८७
सम्मताकारः (मा.धा. वृ. १३३५) आत्रेय-मैत्र-स्वामि-काश्यपाः (मा. धा. इ. १३३२)
अन्ये
७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
t.]
[ मधर्म परिशिष्टम्
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्थे । * अन्ये वर्धमान-संमताकार-हरदत्त-गर्गादयः (मा. धा. वृ. पृ. ३३२)
वर्धमानादि (मा. धा. वृ. पृ. ३३२ ) : अन्ये
आत्रेयादयः ( मा. धा. पृ. पृ. ३३५)
.. १८७
येषाम
येषाम
एके
'एके
आर्यः (मा. था. . पृ. ३९७) क्षीरस्वामी (क्षी, ते. पृ. १९४)
अन्यैः अन्ये
२०४
केचित्
२०४ २०५
२०७
अन्ये कश्चित्तु अन्ये एके पके
: आत्रेय-मैत्रेयी (मा. धा. वृ. पृ. ४०३) स्वामि-धनपाल-शाकटायनाः (मा. धा वृ. पृ. ४०७)
२०८
एके
एके
२१६ २१८
जिनेन्द्रबुद्धि-वर्धमानौ (मा. धा. वृ. पृ. ४४१)
अन्ये
कातन्त्र(व्याकरण)कारः (मा. धा. . पृ. ४३९) चन्द्र: चन्द्र:
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २१७ )
२२१
Ar
केचितु
२२४
अन्ये अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २०१)
__ (क्षी. त. पृ. २०२)
अन्ये
- दुर्गादासः (कविकल्प. टी.: . ३५)
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्धरणसचिः
[४८१
कस्यमत:: .
कस्मिन् ग्रन्थे
२२६
एके
२२६
दुर्गः (क्षी. त. पृ. २०३)
२२६
२२७
कश्चित् एके अन्ये अन्ये केचित्तु
२२८
२२८
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २११) बोपदेवः ( कविकल्प, पृ. १२६ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २०७) चन्द्रः (चान्द्र धातुपाठ) वोपदेवः ( कविकल्प. पृ. ११८)
एके
२३२
अन्ये अन्ये
२३३ २३४
एके
..." ..
२३४
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २०७ )
" ( , पृ. २०८ )
,, ( , पृ. २०८) दुर्गादासः ( कविकल्प. टी. पृ. ६०)
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २१३)
२३५
२३९ - २३९ २३९ ,
२२
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २२७ )
अन्ये केचित्तु . अन्ये पके. अन्ये अन्ये एके अन्ये
२४१ २४१
२४२
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २२८ ) . मैत्रेयः (धातुप्रदीप पृ. १०३)
રકર २४२ ૨કર
एके
क्षीरस्वामी (क्षी, त. पृ. २२९)
२४३
२४३
२४३
अन्ये एके अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २२८ )
२४५
२४५
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८२ ]
पृ.
२४५
२५०
२५१
२५३
२५४
ܐܐ
२५५
२५५.
२५६
२५७
२५८
२५९
२६०
२६०
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२६३
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२६४
२६५.
२६५
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२६६
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ༀ སྠཽ ལྒ སྠཽ, ལྷ ཤྲཱ སྠཽ, སྠཽ ལྷ སྠཽ, སྥོ, - - བྷ སྠཽ, ཨྠ སྠཽ,
केचित्तु
एके
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""
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अन्ये
एके
कस्य मतः
19
अन्ये
अन्ये
अन्ये
[ नवमं परिशिष्टम्
कस्मिन् ग्रन्थे
क्षीरस्वामी ( श्री. त. पृ. २५३ )
(
29
""
पृ. २५४ )
वामनः ( मा. धांः बृ. पृ. ४८२ )
दुर्ग: (क्षी. त. पृ. २३६ ) चन्द्रः ( चान्द्र धातुपाठ )
afteeamet (aft. a. g. 280)
दुर्ग: (क्षी. त. पू. २४०) काशकृत्स्न: ( का. धा. पृ. १६४ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४५ )
जिनेन्द्रबुद्धि: ( न्यास भा. २ | पृ. ४८५ )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४४ )
आत्रेय - मैत्रेयौ ( मा. धा. वृ. पृ. ४६० ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २३७ ) ( चान्द्र धातुपाठ ).
चन्द्रः
""
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४२ )
दुर्ग: ( क्षी. त. पृ. २४१ ) दुर्ग ( क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४६ )
>
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Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतान्तरसचिः
[४८३
पृ.
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्थे
२७५
अन्ये
२७२
अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४५)
२७३
अन्ये अन्ये अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४५)
२७४
२७४
अन्ये 'अग्ये
२
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४५) 'मैत्रेयः (मा. धा. वृ. टि. पृ. ४७७ )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २४५) आत्रेयः (मा. धा. वृ. पृ. ४७७)
२७६
अन्य
अन्ये
२८०
अन्ये
क्षीरस्वामी ( श्री. त. पृ. २६०)
०
"A
२८१
२८
आत्रेय-मैत्रेयौ (मा. धा. वृ. पृ. ५०८) शाकटायन-क्षीरस्वामिनी (
, )
अन्ये
२८७
एके
२८७
२८१
२२
अन्ये
२९४ .
चन्द्रः क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २६२ ) दुर्गः ( , , ) देवनन्दी
देवनन्दी २९४
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २७१) २२ २९५ १४ अम्ये
चन्द्रः १ ‘स्फुर स्फुरणे संचलने दीप्तौ च " इति मैत्रेयः ( मा. धा. वृ. टि. पृ. ४७७ ) २ 'आत्रेयस्तु स्फुर स्फुरणे स्फुल संचलने' इति पपाठ (मा. धा. वृ. पृ. ४७७ )
।
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८४]
नधर्म परिशिष्टम्
कस्य मतः ।
कस्मिन् ग्रन्थे क्षीरस्वामी (क्षी, त. पृ. २७१)
एके
२२५
२०७ २९८
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २६९) काशकृत्स्नः ( का, धा. पृ. १८३)
अन्ये अन्ये
२९८
२९८
अन्ये
३०१
एके
देवनन्दी
...
अन्ये
३०१
अन्ये एके
३०५
३०३ अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २७४ ) एके
" (., पृ. २७६ ) .३०४
दुर्गः... ( , , ) ३०४
काश्यपः (मा. धा. वृ. पृ. ५३३) ३०९
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८१ )
, (.,, पृ. २८२ ) .
" ( , पृ. २९०) । अन्ये
'मैत्रेयादयः (मा. धा. वृ... ५४६) अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८२ ) ३११ ३१२
अन्ये ३१२ १२ अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८३ )
चन्द्रः ३१२ १३
काशकृत्स्नः (का. धा. पृ. १८८ )
देवनन्दी ३१२ १५
मैत्रेयः (मा. धा. वृ. टि. पृ. ५४९) एके
क्षीरस्वामी (श्री. त. पृ. २८४ ) १ वजि मार्ग-संस्कारयोर्गतौ चेति मैत्रेयादयः । ( मा. धा. वृ. पृ. ५४६ ) . २ बन्धने इति मैत्रेयः ( मा. धा. वृ. टि. पृ. ५४९)
ल
अन्ये
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतान्तरसूषिः ।
प.
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्थे
३१३ .
अन्ये अन्ये
३१३ ३१३ ३१४ ३१४
दुर्गः (क्षी. त. पृ. २५८) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८४ )
अन्ये
अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८७ ) मैत्रेयः ( मा. धा. पृ. पृ. ५४०) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८०. ) .., ( , पृ. २८१ )
एके
अन्ये
कातंत्र: ( का. धा. टि. पृ. १९४ )
३१६
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २९१ )
अपरे
३१७
अन्ये
पके
३१८ ३१८
अन्ये केचित्तु
..दुर्गः (क्षी. त. पृ. २९२ )
अन्ये
३१८ ३१८
पके
क्षीरस्वामी ( श्री. त. पृ. २८१ ) दुर्गः (क्षी. त. पृ. २९०)
अन्ये
३१८२५
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमं परिशिष्टम्
पृ.
कस्य मतः
कस्मिन् ग्रन्धः क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८५)
३१२
पके
अन्ये
दुर्गः (क्षी. त. पृ. २८९) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २८९)
, (क्षी. त. पृ. २९२)
पके
३२२
३२१
अन्ये
एके
३२३
३२३
अन्ये
पके
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २९८)
अन्ये
રક
३२३ ३२४
दुर्गः (क्षी. त. पृ. ३०३) __मल्लः ( आ. चं. पृ. ४१)
३२४
केचित् अन्ये एके अन्ये अपरे
शाकटायन-माधवौ (मा. धा. वृ. पृ. ५५८) .
३२५
३२६ ३२६
अपरः अन्यः
दुर्गः (क्षी. त. पृ. २६८) एके अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०५) क्षीरस्वामी-धनपाल-शौकटावनाः (मा. धा. वृ. प.५६३)
३२६
पक
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०१)
३२६ ३२७
अन्ये
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०२)
३२७
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतान्तर सूचिः
पृ..
३२८
३२८
३२८
३२९.
३२९
३२९
३२९
३३३
३३३
३३३
३३४
*
३३४
३३४
३३५
३३५
३३६
३३७
३३८
३३८
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कस्मिन् ग्रन्थे
काश्यप- मैत्रेयी (मा. धा.. पू. ५५८, टि. च पृ. ५५८ )
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एके
कस्य मतः
काश्यप- मैत्रयों (मा. धा. बृ. पू. ५५९) क्षीरस्वामी (श्री. व. पू. ३०० )
क्षीरस्वामी (क्षी. व. पू. ३०३ )
"
27
दुर्गादासः (कविकल्पम पू. ५० )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २९६ )
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27
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. २९५ )
१२७ )
२९३ )
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दुर्ग: ( श्री. त. पृ. २९५ )
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"
Page #532
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________________
४८८ ]
पृष्ठ
३४१
३४१
३४१
३४३
३४३
३४३
३४३
३४३
३४३
३४५
३४५
३४६
३४६
३४६
३४७
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३४७
३४७
३४७
३४७
३४७
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केचित्तु
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अन्ये
कश्य मतः
[ नवमं परिशिष्टम्
कस्मिन् ग्रन्थे
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पू. ३१५ )
३११ )
""
39
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३२१ ) दुर्गादास : ( कविक. पू. १७९ ) दुर्ग: ( श्री. त. पृ. ३१८ ) क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३२० )
दुर्गादास : (श. क. पू. ५०८ )
दौर्गा: (क्षी. त. पृ. ३१५ )
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३२० ) [ कैयट ( मा. धा. वृ. पृ. ५७३ ) ]
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०७ )
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषटिप्पणानि
[ ४८९
पृष्ठ
कस्व मत:
कस्मिन् ग्रन्थे
३५२
३२३
३५४
३५४ ३५४
अन्ये
अन्ये दुर्गादासः (श. क. पृ २५९) क्षीरस्वामी (.क्षी.त.पृ.३०९) एके अन्ये एके एक
क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०८)
, ३०९) एके एके क्षीरस्वामी (क्षी. त. पृ. ३०७)दुर्गादासः(श. क. पृ.२५९) एके एके एके
क्षीरस्वामी (श्री. स. पृ. ३०८) शाकटायन (मा. धा. पृ. ५६७)
३५५
३५६
पके
दशमं परिशिष्टम
विशेष टिप्पणानि १ पृ. ३४ । पंक्ति ३, गुञ्जितं सिंहादौ- तुलना, गुञ्जितं भ्रमरादौ, गृञ्चितं सिंहादौ
इत्यादि । क्षी. त. पृ. ६९ ॥ २ ४१ । १६ स्तन- “स्तन-ध्वन-स्वन-स्यम-पम-टमाः षड् ये भ्वादौ व्यञ्जनान्ताः कथिताः
सन्ति ते षडपि अदन्ताः इति सभ्याः " । न्याय० न्या० पृ. १९२ ॥ ३ ४१ । १८ अभिनिष्टानो-तु० अभिनिःष्टानो क्षी. त. पृ. ७० ॥ ४ ६२ । १० शश-शशण इति अयमधिको धातुः सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तावुक्तोऽस्ति । न्याय०
न्या० पृ १९२ ॥ ५ ७१ । १४ कलां-तुलना -मासे मासे हि ये बालाः कुशाग्रेणैव भुञ्जते । सन्तुष्टोपासकानां
ते कलां नाईन्ति षोडशीम् । योगशास्त्र स्वो टीका पृ. ४२४ ॥ ६ ७५ । १ कटपू-तु० 'कटपूर्नदीतारः' क्षी.त. पृ. १४६ ॥ ७ ७९ । ६ आरेकं-तु० 'आरेकं संशयं प्राहु.' क्षी. त. पृ. २८ ॥ ८ ८३ । १६ आनृओ-तु० आनृजे क्षी. त. पृ. ३६ ॥
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९० ]
दशमम्- पकादर्श परिशिष्टम्
९
८७ | ६ चण्डी चण्डाया स्वयं चण्डते सा चण्डा, चण्डस्य स्त्री ( या स्त्रयं न चण्डते ) तु चण्डी इति विवेकः । क्षी. त. टि. प्र. ५० ॥
१० ८९ । २६ जीवाभया- 'कुम्भाभया' इति काव्यप्रकाशे पाठः दृश्यते ॥ ११ ९२ । ९ स्मृतिः - स्मृतिपदेनात्र भाष्यमभिधीयते । तत्र चायं पाठः
6 अजदन्त्यपराः सादयः षोपदेशाः स्मिङ् स्वदि- स्विदिस्वञ्जि-स्वपयश्च सृषि-सृजि - स्तृस्त्यासेट - सृवर्जम (६।१।६४ ) | अज्दन्त्यौ सात परौ येषां ते सकारादयः सर्वे चोपदेशा इत्यर्थ: ( उद्योत ) क्षी. त. टि. पृ. १७ ॥
१२ १२२ । ९ प्रविघाटयिता 'प्रविघातयिता ससुत्पतन' इति क्षीरतरङ्गिण्यांपाठः (पृ. १९०४ ) || १३ १५५ । १९ दरद तु० दरद् रोमकदेश. क्षी. त. पू. ११० | दर्दीस्ताननाम्ना संप्रति प्रसिद्धः क्षी. त. टि पृ. ११० ॥
१४ १८४ । १३ अयं प्रजैड़- पृचैड़ सम्पर्कने इत्ययमैव मृजैकि इति कौशिकः न्याय०
न्या० पृ. १९३ ॥
१५ २५७ । १० पिछेति तु० 'पिच्छत् इति द्रमिला ः ' । न्याय० न्यास पृ. १९३ ।। १६ ३१० | १३ आत्मनेपदार्थ:- लोकृ-तर्कदण्डके तु इमौ ( गण ९ । धा. २०७, २०८ ) परस्मैपदिनौ दृश्येते । पृ. ३३३ । ३ तत्र च गणान्तर पाठ स्त्वेषामात्मनेपदादिकार्यार्थ ' इति च पाठः ॥
१७ ३३३ | १३ सकर्मकार्थः - गण ९ । धा. २१५ घट धातोः विवरणेऽपि सकर्मकार्थम् ' इति पाठः । किन्तु न लोक तर्कबहिः स्थिताः गण ९ । १६ तुजु १७ पिजुण् आदयः अकर्मकाः । अतः किं अस्य ' सकर्मकार्थ:' इति पदस्य अर्थः ? पृ. ३२६ । १६ आस्वदः सकर्मकात् ......अन्ये तु इति कृत्वा यो अभिप्रायः प्रदर्शितः स क्षीरस्वामिसम्मतः क्षीरतरङ्गिण्यां (पृ, ३०४) पट, पुट....... 'पते सकर्मका भासार्था णिचमुत्पादयन्ति इति पाठ: ' क्षीरतरङ्गिणीकारक्षीर स्वामिअभिप्रायेण च लोक तर्कादयः सकर्मका एव चिमुत्पादयन्ति ।
१८ ३३९।१४ आत्मनेभाषाः - आत्मने भाषेत्यात्मनेपदिनां पूर्वाचार्य संज्ञेयम् । धातु प्रदीप पृ. ११०
गण धातु
१ । ५८९ १ । ७५०
१ | ९९२
१ | ९९३
२ । १८
२ । ४२
२ । ४५
५ । ११४ ५ । १५७
एकादशं परिशिष्टम्
उद्धृतन्यायसूचिश्च अधुनेह प्रदर्श्यते ।
वार्णात् प्राकृतं बलीय || आगमशासनमनित्यम ||
वात्प्राकृतं बलीय [ न्याय. ४४ ] ॥ बहिरङ्गमित्वमन्तरङ्गे दीर्घेसिद्धम् [ न्याय. २० ] ॥ असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे [ न्याय. २०] ।
तिवा शवा...... [ न्याय. १८ ] ॥
27
""
39
डिवेन कित्त्वं बाध्यते [ न्याय. ७ ] ॥ नत्रा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात् ॥
6
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि पत्रकम्
पति
शुद्धम् सिद्धेः खनेररीटः
पृष्ठ ११८
पति शीर्षक
शुद्धम्। ८८८ पटपटाकरोति
स्म्यजस
१४
डिति वौ
११८ *११८ ११८
११३
११३
Mus
कंगट यातायाम् घ्यणि याच्या घ्यणि भ्रातरो ध्यणि घिनणि एकधाती
*१२०
प्रतिश्यायः अवश्यायश्च वर्जाः कौमुद्यां शीको डित विशेषमि पुन्नाम्नि घे नी घ्यणि (उ० ५२८) इति भृमृत द्वित्वे अस्याऽत्र पाठः 'भाषा
११५ ११५
२४
१२१
रङ्ग्यः
*१२१
११६
१२२
भ्रंशः
२०
शीर्षके
१२३
१९७ ११७
८८८ गतिसंज्ञायां घ्यणि
१२३
गौरादित्वाद ऋदित्त्वाद् मिमेदे मिमेधे ऋदित्वाद सूमुखनि शाशपीति
भुङ्कते
१२४
१२
भुङ्क्ते
* एतद् चिह्नाङ्कितस्थले मुद्रणवेलायाम् सीसकाक्षरभङ्गेन साता अशुद्धिः, अत: यासु
प्रतिषु अशुद्भिः विद्यते तत्र संशोध्या।
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि पत्रकम्
पृष्ठ १२४ *१२४
पङ्गिः २५
शुद्धम् । शाशप्ति नेट चायः
पृष्ठ १५४
पति २०
शुद्धम् । जीत्त्वात
शैघ्ये
१५५
१२६
• क्ते
१२७
त्वेषते वामनकाव्या धुतेः
१५६
२४
प्रयुङ्क्ते घर्भः कर्मकर्तरि अहगीत् प्रयुङ्क्ते इत्यदादिलदित्त्वादडि
मित्वम
*१३१
किदीः,
अम् संस्ध्वंम् खंमध्वंस् वेट्त्वात्
*१३३
*१६३
१६३
१३३ १३३
वृदभ्यः०
१६३
१६४
अवखंसने सास्यन्ति
m v m4
नेट
*१३४
१४०
१४०
*१६८
१४०
हूस्वाभावे कुत्सादिकपि રાસાર एवाऽऽलुः अवौ दाधौ दा अधियन्ति णिस्वम् दीर्घश्च्वीय व्याधि सुयोमा गुडगोधूमः ग्रहगुह दिवत्त्वादथुः ८०७
स्वपः २।३।५७ इत्या ___२९ 'मिह पाठः
न श्विजागृ રર जागरणशीलो
देर्लुकि १७. विन्दुः
१६९
१४०
२६
नेट 'रभिवर्जाः कम्पने २चालशब्दा १घात्ये क्षी. त. पृ. इत्युणादिवि संविभ्याम् यजादीवचेः परस्मै ६१६)] प्रादू वहः स्नेहनोपहस्वादि कार्य .
१४१
*१४३
१४५
___ 0
१४७ १४८
२२
- १५२
१४
१७६
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि पत्रकम्
[४९३
पृष्ठ
पति
शुद्धम्
पृष्ठ पति उणादिविवरणे *१९२६ દારા शासम्
१९३ तिया शवा प्रवृत्त्य
१९४ "भावकर्मणोः" ३४६८ *१९४ सप्तम्याम् । सध्नो वधेय॑णि
अलि हेतुकर्तृतो जेहीयते ऋदन्तोऽयं ऋल्वादेः
१७७
१७७
ܘܐ
कते
१९४ १९६
१७८
कित्त्वे
औः उपसर्गादातः
१७८
१७८
१९७
हिः ,
*१७९
*१९८
२७
१७९
१५
१८१ .
२०१
२०२
२०२
यजादिवश वीरणीमूलम् प्रादुरु उपान्त्योत्वे डिनिर्दे डितनिर्द यद् गणेन वि टित्त्वपक्ष ऊर्वादिभ्यः ऊवंशयः एच्चा प्राणिप्रसवे क्तयोर्नेट
२८
२०६
१४
टुडुभंक व्युक्त ऋदित्वात् “ऋ ऋदित्वात् कित्वाभावादत्र ऋतष्टित् ऋतष्टित् राध्नोति समृखनि केचित्तु तर्षः रोषणशीलः ड्याम् क्रित्व "ईगितः" ३१३.९५ क्त्वि युजिशुन्धि क्त्वि वपि मदैचपर्यन्तं
२१७
२०
२१७
२१८
क्षुम्नादीनाम्
ब्रुवो
१९१ १९१
१२ २६
अधिक्षावहि अ. द्वयुक्त
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९४]
शुद्धि पत्रकम्
पनि
पृष्ट २१९
पति २६
शुद्धम् मांडक तिजियुजेर्ग
*२२०
१५
२२० २२०
शुद्धम् घिनणर्थ शमितुम् वित्व नोऽप्रशानो इन्याम् क्त्वि
२२७ ૨૨૭ २२७
२२०
२२८
१५
७. MC00
W०
वेट्त्वात्
२२८
क्त्वि यां
क्यबपयादे वेटत्वात् अथ. दान्ता यडि कसिपदि शकधृष - सहयुध्वा राजयुध्वा रुधादित्वात् अंनुरुन्छे
३
.
२
२२१
अम्
२२१ २२१
__२०
२०
२२१
२६
द
२२१
१७
७९
स्तम्भे
૨૨
वित्व पक्षे क्वि दुचाम् हुस्वत्वे क्त्वि वैचित्त्ये । वैचित्त्यम् औदित्त्वात घत्वे परदेवि ऋद्रुहेः स्नुग्धः नाभ्युपान्त्य
२३४ ર૪ ૨૭
लूदित्वात् लिशिंवर्जाः शेके, शशाक शकलम
२२३ २२३
२३५
२३६
२२३
क्यो अभ्यषुणोत् सुयजो वनिप् सिरा।" कृसिकमि
२२३ २२३ २२३
घनि
२५
दिदीषते बहिरङ्त्वाद स्था० बीडच
२३९ शीर्षके २३९ २४ २४० . १ २४० ३
धुवका ऋदन्तात्रयो गवर्जाऽनि
आस्तर्यते
क्यपि
के दीर्घ च हीकः
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि पत्रकम्
पृष्ठ
__ पति
२४१
२६
स्फरति
२६७
२४१ २४२ રકર
२६७
७७
२८
शुद्धम् कृसिकमि श्वादिभ्यः व्यत्यशकत २२८ प्रतिरित्सति ऋत्यार तभ्रमि दघ्नोति
श्वादिभ्यः
*२४३
P
२४
२४४
१९
२४५
२७७
भज्ज्यते
इत्वे कडुङ स्वदक्तुम स्वक्त्वा ऋदित्त्वाद् "ऋ ऋदित्वाद
२७७
૨૪૮ २४८ २४९
२४
२७८
२७८
२५०
१३
वादिभ्यः पान्तो कृषिचमि गृलुप नदीवल्लि. क्षिताऽऽयुः क्षी अभिवति
२५१ १ २५२ . १
२७९
कुड्यम् ऋदित्वाद
२५२
२७९
२५२
द्वे रश्चादौ ऋतष्टित्
२८०
*२८०
तृण्णवान् पंच
२५४
१ .
रूपे
२८०
ऋत
*२८१
तनक्ति
*२५४
२५४
१४
गरिष्यति ऋल्वादेः गीणिः ऋतष्टित्
अतनक क्विपि क्तयोर्नेट
इत्यये
MN
इत्यन्ये
४
क्विपि ऋतष्टित् ल्ययोश्च
कृसिकमि क्षणोति अनुस्वारेत्त्वा सनि
२८९
*२६०
२५
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________________ 496 ] शुद्धि पत्रकम् पृष्ठ पति शुद्धम पृष्ठ पति शुद्धम् 303, 300 292 રર૪ *330 332 292 292 293 28. - 28 20 कुंशति 296 * सेचने [3527) तुलना ऋषिनाम्नोः ऋषिः ऋत्विक वेट उभयत्र तुलना:- 8 / 3 / 93 पाणिनीय व्या० ऋल्वादेः सृपप्रथि ऋवर्णथि संयोगा वादिभ्यः દારૂારૂક १चान्द्राः २गलिण 294 338 *298 341 28 *298 25 346 अपुटत् विश्रामणे इति चिददृष्ट्योः पंक्तितः अचुकुहत नमिच्छन्त्येके ऋदन्त कम्पति *308 20 पचुण् 310 तुञ्जति 352 315 376 229 ज्वर 320 17 शष्कुली पर्थयति श्वैत्य पंसेर्दीर्घश्च शब्दण् 476 480 1 1 ग्रन्थे पृ. पं. *325 भाष | इति श्री धातुपारायणम् 10 .