Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ * जीवराज जैन ग्रंथमाला प्रकाशन Sapna जंबूदीव-पण्णत्ति - संगही हिंदी अनुवादक पं. शालचंद्र सिध्दान्तशास्त्री श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापूर. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमाला हिंदी पुष्प नं. ७ पउमणंदिक ओ जंबूदीव-पण्णत्ति-संगहो (जैन करणानुयोग विषयक महत्त्वपूर्ण प्राचीन प्राकृत-रचना) आलोचनात्मक रीतिसे पाठान्तरों व परिशिष्टों आदिसहित, प्रथमवार सम्पादित हिंदी अनुवादक पं. बालचंद्र सिध्दान्तशास्त्री सम्पादक प्रो. आ.ने. उपाध्ये प्रो. हीरालाल जैन त्रिलोकप्रज्ञषिके गणितपर हिन्दीमें प्रास्ताविक निबन्धलेखक प्रो.लक्ष्मीचंद्र जैन प्रकाशक श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ ४१०, दक्षिण कसबा सोलापूर -७ वी.नि.सवंत २५३० २००४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: सेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष, जैन संस्कृति संरक्षक संघ ४१०, दक्षिण कसबा, सोलापूर ७. Published By Seth Arvind Raoji President, Jain Sanskriti Sanrakshak Sangh, 410, South Kasba, Solapur 7. व्दितीय आवृत्ती, ३00 प्रतियाँ ई.सन २००४ Second Edition : 300 Copies A.D.2004 मूल्य : २००/- रुपये Price Rs. 200/ सर्वाधिकार सुरक्षित All Rights Reserved मुद्रक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jeevaraj Jain Granthmala, No. 7 PAUMANAMDI'S JAMBUDIVA - PANNATTI – SANGAHO (An Important Prakit Text dealing with Jain Cosmography etc.) Authentically Edited for the first time with Various Readings, Appendics etc. BY Prof. A.N.UPADHYE Prof. HIRALAL JAIN With an Introduction in Hindi on the Mathematics of Tiloyapannatti By Prof. LAKSHMICHANDRA JAIN And With the Hindi Paraphrase of Pt. BALCHANDRA SIDHDANTASHASRI Published By Shri Jain Sanskriti Sanakshak Sangh 410, South Kasba, Solapur - 7. Veer Samvant 2530 A.D. 2004 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - सूची ५- ७ ४ सम्पादकीय अंग्रेजी भूमिका तिलोयपण्णत्तिका गणित गणितके लेखकी विशेष शब्दसूची व शुध्दिपत्र प्रस्तावना १) खगोलविषयक जैन ग्रंथ .२) जं.प.सं.की हस्तलिखित प्रतियाँ ३) ग्रंथका विषय ४) अन्य ग्रंथोसे तुलना ५) ग्रंथकारका परिचय व रचनाकाल विषयानुक्रमणिका शुध्दिपत्र जंबूदीवपण्णत्तिसंग्रह - मूल और अनुवाद परिशिष्ट १) गाथानुक्रमणिका २) गणितगाथानुक्रमणिका ३) भौगोलिक शब्दसूची ४) विशेष शब्दसूची ५) आमेप्रतिके पाठभेद ६) क्षेत्रमान ७) कालमान ९ - १६ १ - १०४ १०५ - १०९ ११० ११० - १४३ १११ ११२ १२८ १४२ १४४ १५३ - २५४ १-५४ १ ३४ ३५ ४१ ४६ ५३ ५४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय तिलोय-पण्णचिका सम्पादन पूर्ण होते ही (प्रका. मा. २. १९५१) सम्पादकोंके सन्मुख उसी विषयका एक और अंय उपस्थित रह गया जिसने अभी तक दिनका प्रकाश नहीं देख पाया था । यह था पउभणविकत जंबूदीवपण्णत्ति । सम्पादकोंमेंसे एक (प्रो. ही. ला. जैन) को इस कठिन ग्रंथके सम्पादन व अनुवादका कार्य हाथमें लेनेकी बुद्धिमत्तामें सन्देह था, क्योंकि इसका पाठ अनेक स्थलोंपर अनिश्चित दिखाई देता था और उसकी प्राप्य प्रतियां बहुत दोष पूर्ण पाई जाती थीं । किन्तु अपेक्षा कृत कम वृद्ध सम्पादक (प्रो. आ. ने. उपाध्ये) इन कठिनाइयोंसे डरना नही चाहते थे। अन्ततः इस ग्रंथको मी स्मृतिशेष रह जानेसे बचाना तो अवश्य ही है। और जब यह बात है तो अन्य कौन और कब इस कार्यको करेगा ! अतः दोनों सम्पादक इस निर्णय पर पहुंचे कि वे सदैवके अनुसार इस कार्यको मी कंसे कंधा मिलाकर हाथमें लें, और उपलभ्य सामग्रीका यथाशक्ति सदुपयोग कर इस ग्रंथको मी प्रकाशमें लावें । पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीको इसके हिन्दी अनुवादका कार्य सौंपा गया, क्योंकि उन्हें ति. प. के अनुवादका मी अनुभव था। इस सम्मिलित प्रयासका फल प्रस्तुत ग्रंथ पाठकोंके सन्मुख है। वे ही देखकर कह सकेंगे कि सम्पादक कहां तक अपने दीर्घकालीन प्रयासमें सफल हो सके हैं। इस ग्रंयके मूल और अनुवादका मुद्रण सरस्वती प्रेस, अमरावती, में किया गया था। किन्तु प्रो. लक्ष्मीचन्द्रजीके. गणित सम्बंधी महत्वपूर्ण लेखके लिये शेष सामग्रीका मुद्रण रोक रखना पड़ा। जब यह लेख पूरा हुआ तब तक धवलाका कार्यालय अमरावतीसे उठकर बनारस चला गया था । और धवला कार्यालयसे ही इस ग्रंथके मुद्रणकी मी सम्हाल की जाती थी । अतः वह लेख बनारसके ज्योतिषप्रकाश प्रेस ( विश्वेश्वरगंज), में तथा परिशिष्टोंको बनारसके सरला मुद्रणालयमें छपवाना पड़ा। उसमेंके कुछ यूनानी अक्षरों, संकेतों तथा चित्रोंके बनवानेका विशेष प्रयास करना पड़ा जिसमें भी बहुत समय लगा। गणित लेख, तथा परिशिष्टोंका मुद्रण समाप्त होते ही पं. बालचन्द्र शास्त्री बीमार हो गये और वे बनारस छोड़कर अपने घर बीना चले गये । इससे प्रस्तावनादिका शेष भाग बनारसमें न छप सका और उसे निर्णयसागर प्रेस, बम्बई और वर्धमान प्रेस, सोलापूर में छपाना पड़ा । ऐसी परिस्थितिमें यदि पाठकोंको इस प्रथमें कागज व मुद्रण आदिकी बहुरूपता दिखाई दे तो वे कृपाकर क्षमा करेंगे। सम्पादकों और अनुवादकने तिलोयपण्णत्ति और जंबूदीवपण्णत्ति ग्रंथोंके गणित भागको सम्हालनेका अपनी शक्किभर प्रयास किया था। किन्तु उन्हें इस विषयमें अपनी सीमाका भान था । अतएव इन ग्रंथोंके गणित भागका समुचित रीतिसे किसी गणितके अधिकारी विद्वान् द्वारा अध्ययन करानेकी सम्पादकोंको इच्छा हुई। सौभाग्यसे उन्हें ऐसी योग्यता गणितके नवयुवक प्रोफेसर श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन एम. एस्सी. में दिखाई दी। उन्हें इस विषयमें खयं भी रुचि उत्पन्न हुई । अतः उन्होंने विशेषतः तिलोयपण्णत्तिके गणित भागका अध्ययन कर मुद्रित १०४ पृष्ठोंका वह लेख लिखा है जो इस ग्रंथके साथ प्रकाशित है। जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती ग्रंथों में प्रयुक्त विशेष संकेतों व चित्रों सहित गणितकी नाना प्रक्रियाओंके अतिरिक्त उन्होंने जो यूनानी, चीनी आदि लेखोंके साथ इनकी तुलना की है (देखिये गणित लेख पृ. १०, १३ आदि) वह बड़ी महत्त्वपूर्ण है । वर्तमानमें यह कह सकना तो कठिन है कि इस ज्ञानका प्राचीन कालमें क्या कोई आदान प्रदान हुआ था, और कौनने किसे कितना दिया व कितना लिया था । किन्तु यह विषय आग अनुसन्धान करने योग्य है । इस दिशामें प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्रजी प्रयत्नशील भी हैं। इस प्रकाशनके पश्चात् जैन खगोल विषयक दो और ग्रंथ अप्रकाशित रह जाते हैं। वे हैं संस्कृत लोकविभाग और त्रैलोक्य-दीपिका । इन ग्रंथोंको भी इसी ग्रंथमालामें प्रकाशित करानेका प्रयत्न किया जा हमें महान् दुःखके साथ कहना पड़ता है कि जैन संस्कृति संरक्षक संघकी प्रवृत्तियों पर उसके संस्थापक और आजीवन अध्यक्ष ब्रह्मचारी जीवराज भाईके निधनसे बड़ा वज्राघात हुआ है। संघके स्थापन कालसे मृत्युपर्यन्त संघकी साहित्यिक प्रवृत्तियोंके विकासकी ओर उनकी बड़ी तीव्र दृष्टि रहती थी। उसके किसी कार्यक्षेत्रमें वे किसी प्रकारकी ढिलाईको सहन नहीं करते थे । मार्गमें जो कठिनाइयां आतीं उन्हें वे अपने नैतिक बल और भौतिक साधनोंसे तुरंत दूर करनेका भरपूर प्रयत्न करते थे। उनकी मृत्युसे धार्मिक प्रवृत्तियों तथा जैन संस्कृतिकी सेवामें असीम दानशीलताका एक चमत्कारी जीवन समाप्त हो गया । हमारी यही भावना और प्रार्थना है कि उनकी आत्माको खर्गमें शान्ति मिले, तथा उनके आदर्शसे वर्तमान और भविष्यकी धनी पुरुषोंकी पीढियोंको खामित्व रहते अपने धनको सत्कार्यमें लगानेकी प्रेरणा मिलती रहे। हम अपने नये अध्यक्ष श्रीमान् सेठ गुलाबचन्द हीराचन्दका खागत करते हैं। वे पहलेसे ही टूस्ट कमेटीके सदस्यके नाते संघकी प्रवृत्तियोंसे भली भांति परिचित हैं, और उनसे पूर्ण सहानुभूति रखने आये हैं। हमें पूरा भरोसा है कि ट्रस्टके अन्य सदस्योंके सहयोगसे वे अपने महान् पूर्वाध्यक्ष द्वारा स्थापित परम्पराओंके संरक्षणमें कोई प्रयत्न शेष नहीं रखेंगे। वर्तमानमें हम बड़े संकटाकीर्ण और साथ ही आशाजनक कालमें चल रहे हैं। संकटाकीर्ण इसलिये क्योंकि आजकल धार्मिक बातोंमें प्रवृत्तियोंमें क्षीणता, वैयक्तिक दानशीलतामें शुष्कता तथा नवयुवकोंमें तत्त्वज्ञानकी अपेक्षा भौतिक विज्ञान व यंत्रचातुरीकी ओर अधिक आकर्षण दिखाई पड़ता है। और इससे मी ऊपर, सर्वनाशी असशस्त्र आकाशमें मंडरा रहे हैं व समस्त विद्वत्ता और संस्कृतिको एक इंकमें हवा बना कर उड़ा देनेकी धमकी दे रहे हैं। किन्तु फिर भी यह युग आशाजनक इसलिये है क्योंकि पूर्वोक्त कारणोंसे ही, एक ऐसी मी विचारधारा उत्पन्न हो गई है जो उक्त बहावका रुख बदल देना चाहती है। देशके तथा संसारके चिन्तन-शील विद्वान् मानवताके संरक्षण तथा जगत्की शान्ति व समृद्धिके लिये अब अपने चित्तको प्राचीन तत्त्वज्ञानकी ओर फेर. रहे हैं । इस विचारशीलतामें हमारे साहित्यके प्रत्येक पृष्ठ और प्रत्येक पंक्तिसे उद्भूत होनेवाला संदेश बहुत बलदायक सिद्ध हो सकता है । वह संदेश है जीव और प्रकृतिकी अनश्वरशीलता एवं भौतिक लाभोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक तत्त्वोंकी परमश्रेष्ठता । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय हमें आशा करना चाहिये कि इस दृष्टिकोणसे न केवल हमारे इस उपलब्ध साहित्यके अध्ययनका प्रसार होगा, किन्तु जो साहित्य अभी भी प्राचीन भंडारों और मंदिरोंकी अंधेरी कोठरियोंमें बन्द पड़ा है उमेः प्रकाशमें लानेकी ओर भी अधिक ध्यान दिया जायगा । भारतीय संस्कृतिको अभी भी अपना उचित स्थान प्राप्त करना है। _अन्तमें हम कृतज्ञतापूर्वक उन सब संस्थाओं और व्यक्तियोंके प्रति अपना ऋण स्वीकार करते हैं, जिन्होंने किसी न किसी प्रकार इस सम्पादनमें अपना सहयोग प्रदान करने की कृपा की है। विशेषतः संवके टूस्ट व व्यवस्थापक मंडलके सदस्य इस ओर उत्साह और अभिरुचिके लिये हमारे धन्यवादके पात्र हैं। जिन्होंने हमें अपनी हस्तलिखित प्रतियाँ उधार दी और जिन विद्वानोंने अपने परामर्श आदि द्वारा हमें उपकृत किया उन सबका हम बहुत आभार मानते हैं । सोलापूर ५-१-५८ सम्पादक, ही. ला. जैन आ. ने. उपाध्ये Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 1. JAINA AUTHORS ON COSMOGRAPHY Indian Cosmography is a subject of immense interest and an independent branch of study by itself; and it is evident from earlier studies (W. Kirfel : Die Kosmographie der Inder, Bonn u. Leipzig 1920, pp. 208–340) that Jaina cosmography occupies an important position therein. Jaina texts dealing with cosmography have a manifold interest : first, the cosmographical details are worked out in an elaborate plan which shows a remarkable consistency and vision; secondly, these details have a close connection with Jaina metaphysical and ethical doctrines; thirdly, the entire range of Jaina literature, especially of the Prathamānuyoga group, is so much permeated by these details that a clear understanding of them needs constant reference to standard works on cosmography; and lastly, there is found in them a good deal of knowledge of contemporary mathematics. A historian of the growth of human knowledge in different countries and ages has, therefore, a special interest in these works. In the Ardhamāgadhi canon there are some works dealing with this subject: the Sūrapampatti (Skt. Sūryaprajñapti, published with the Țīkā of Malayagiri, Agamodaya Samiti, Surat 1919), Jambuddiva-paņņatti (Skt., Jambūdvīpa-prajñapti, pub. with Sánticandra's Tika, Devachanda Lalabhāi Jaina Pustakoddhara, 52 & 54, Bombay 1920) and Cardapaņņatti (Skt., Candraprajñaptih). Besides the commentaries on the Tattvārthasūtra, which present good many cosmographical details especially in chapters 3-4, there are available many post-canonical texts : Umăsvāti's Jambūdvipa-samāsa with the commentary of Vijayasimha (Ahmedabad 1922); Jinabhadra's Samghayani with the commentary of Malayagiri (Bhavanagar Samvat 1973), Brhatkşetra-samāsa with the comm, of Malayagiri (Bhavanagar Sam. 1977 ); Haribhadra's Jambuddiva-sanghāyaṇi (Bhavanagar 1915) etc. (Schubring : Die Lehre der Jainas, Berlin u. Leipzig 1935, p. 216). Then there is a small but well-knit group of the pro-canonical texts to which belongs the Tiloya-paņņatti, already published, in two volumes, in the Jivarāja Jaina Granthamala, Sholapur 1943 and 1951. The Loyavibhāga was another ancient text but only a Sanskrit digest of it, the Lokavibhāga, has come down to us. The Tiloyasära of Nemicandra (Bombay 1917) with the comm. of Madhavacandra is an important text of this group. To this category of texts belongs the Jambūdiva-pannatti-saṁgaha (JPS) an authentic edition of which, along with the Hindl paraphrase etc., is being presented in this volume. (See JPS, The Indian Historical Quarterly, Calcutta, XIV, 1938, pp. 188 ff.) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 JAMBĪDĪVAPAŅŅATTI 2. JPS: Mss., CONTENTS, FORM ETC. There are very few Mss. of JPS preserved in public libraries (Jinaratnakośa, Poona 1944, p. 131 ); still, through the efforts of the editors, some Mss. could be secured from unexpected quarters. The text constituted here is based on five Mss. which are fully described in the Hindi Introduction. The readings from the sixth Ms. are noted in an appendix. The Prākrit text is defective in many places; and in the absence of any commentary etc., the editors had to face many difficulties. In all those few cases, wherever the editors have improved upon the text, the actual readings are duly noted in the foot-notes. It is hoped that this authentic vulgate will serve the purpose of all critical studies for the present. The Mss. often call this text by the name Jambūdvīpa-prajñapti, but the real title of the work, as mentioned in the colophons of various Uddeśas is Jambūdiva-paņņatti-samgaha (Skt. Jambūdvīpa-prajšapti-saṁgraha). The word Sangrah indicates that the author is compiling the contents from some earlier source the name of which was perhaps Divasāgara-paņqatti as indicated by gathā Nos. I, 6 & 18, XIII, 142. In the absence of more evidence it is not possible to say whether this reference applies to the Srutānga of the same name included under Parikarma which was a part of the 12th Anga, Ditthivāda, according to one tradition. In this work there are 2429 gāthās divided into thirteen Uddeías. The title of each Uddeśa, mentioned in the colophon at its close, is quite significant and gives a fair idea of its contents. The First Uddeśa ( Uvagghāya-patthāvo, in gathās 74 ) opens with the Mangala consisting of salutations to five Paramesthins. declares his object to present the contents of this work as they are traditionally received from Mahāvīra, through a series of teachers, Gautama to Lohācārya. Then follows a description of the extent, circumference and area of the Jambūdvīpa which stands at the centre of a series of oceans and islands. Then are detailed the Gopura-dvāras, Kşetras, mountains, rivers, and images of Jinas on their banks etc. · The Second Uddeśa (Bharaherāvaya-vaṁsa-vannano, in gathās 210 ) contains the descriptions of the seven Kşetras, Bharata etc., and of the six Kulaparvatas which divide them : in all there are 190 Khandas or sectors the extent etc. of which are described in details. Then the Vijayārdha mountain, with so many Vidyādhara towns on both of its Sreộis and with numerous Jinabhavanas on its different peaks, is described extensively. It is from this that the rivers Gangā and Sindhū flow out into the southern Bharata. The various ages, Şuşamā etc., are mentioned, along with the religious aptitude of the inhabitants. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 11 The Third Uddesa (Pavvada-padi-bhogabhūmi-vaņņaņo, in gathās 246) describes the Kulaparvatas, their peaks and temples on them. Then follow the glories of the deities Šri etc. who dwell in the lotus temples in the lakes on them, as well as those of the presiding gods residing on the Jambūvệkşas etc. The great river Gangă flows from the Padmahỉd on the Himavān mountain. Flowing for 500 yojanas it rushes into a big lake at the foot of that mountain : in its course it washes many an image of Jina. Incidentally we get the description of lakes, streams, temples etc. The Fourth Uddeśa (Mahăvidehāhiyāra, in gāthas 292 ) begins with the description of the Mandara mountain which stands at the centre of Tambūdvīpa. There are on it parks like Nandana etc. which are decked with gorgeous temples of Jina. It is in the Pāņduka park that the birth-consecration of a Tirthakara is celebrated by the gods. Incidentally the military glories of Sudharmendra are depicted here. The Fifth Uddeśa (Mandaragiri-Jiņabhavana-vapņaņo, in gathās 125 ) presents a detailed description dimensions etc.) of the Jinabhavanas on the Mandara mountain, with their various items of decoration, articles of worship and architectural sectors. The Indras of various grades carry on different forms of worship here. The Sixth Uddeśa (-Devakuru-Uttarakuru-viņņāsa-patthāro, in gathās 178) gives a detailed description of Devakuru and Uttarakuru with regard to their mountains, rivers, lakes, deities dwelling therein and the various trees there. There dwell various Nāgakumāras in different quarters and sub-quarters which have got special names. Some specific characteristics of the inhabitants are also noted in conclusion. The Seventh Uddeśa (-Kacchāvijaya-vaņņaņo, in gathās 153 ) sets forth a description of the Videha-kşetra located in between the two Kulaparvatas, Nişadha and Nīla. It is divided into various sections due to mountains and rivers. The Kacchāvijaya iş divided into Khandas, o Aryakhanda and five others Mlecchakhandas. Here dwell Cakravartins whose glories are elaborately noticed. The three Varnas, excepting the Brāhmaṇa, are there; and they are all devoted to Jinas. The rivers have given rise to certain islands the presiding gods of which are conquered by are honoured by Mleccha rulers. The Cakravartin is made to realize that there were many Cakravartins in the past. The Eighth Uddeśa(-puvva-videha-vaņņaņo, in gāthās 198) describes the Pūrvavideha with reference to its mountains, rivers, territories and capitals. The Ninth Uddeśa(-avara-videha-vaņņaņo, in gāthās 197 ) describes the Aparavideha with reference to its mountains, rivers, territories, and Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAMBUDIVAPANNATTI their capitals which bear different names and have their specific dimensions. On the banks of these rivers, there are twenty Vakṣara-parvatas the peaks of which are decked with the temples of Jina in which gods and Vidyadharas carry on regular worship. 12 The Tenth Uddeśa (Lavapa-samudda-vāvanṇapo, in gathās 102) describes the Lavana-samudra which surrounds the Jambudvipa on all the sides. Its dimensions, along with those of the Patalas therein, are duly noted, and the seasonal tides are indicated. There are eight mountains of Velamdhara gods. Then there are the Antardvipas which are inhabited by strangely figured human beings of abnormal habits. Those who lapse in their pious practices and religious standards are reborn among these. The Eleventh Uddeśa (-bahira-uvasam hāra-dīvasāyara-narayagadidevagadi-siddhakhetta-vanṇano, in gathās 365) describes the oceans and islands and lower and upper worlds. Detailed measurements of the Dhatakikhaṇḍa, of its mountains and of the oceans round about are given. It is due to Punyas and Papas that the beings go to the upper and lower worlds, of which the regions, residents (with their periods of life, heights etc.) etc. are elaborately discussed. The Twelfth Uddeśa (Joisaloya-vannano, in gāthās 193) describes the Vimanas of the Jyotisa or astral regions, the number of moons for different regions, the periods of life etc. of astral gods. The Thirteenth Uddeśa (Pramaņa-pariccheda, in gathas 176) enumerates and defines the various units of Time and Space and discusses their currency or use in different walks of life. Then follows an exposition of the means of valid knowledge with a view to establish the validity of omniscience, incidentally shedding light on different forms of knowledge. The glories of an omniscient divinity who is free from a number of physical wants and mental weaknesses are fully elaborated. This brief resumé of the chapters of JPS gives us a fair idea of the range of its contents. The Prakrit text is not well preserved: if a few more independent Mss. are available for collation, one can be more confident about its authenticity and come nearer the text as it left the hand of the author. Then alone one can explain the inconsistency and irrelevancy seen in some contexts (for instance, the description of the Kalpas in Uddeśa XI). The present text shows also some traditions different from those found in the Sarvärthasiddhi, Harivaṁśa etc. This JPS shows close relation with a number of other texts dealing with kindred topics. Comparing this work with the Jambudiva-pannatti of the Ardhamăgadhi canon, one is struck with some common contents: the canonical text of course is quite encyclopaedic. It is already known that JPS has a number of resemblances with the Tiloyapappatti (See the Hindi Intro. of TP, pp. 168 ff.) from which it has taken a good Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION deal of subject matter often expressed in identical or nearly identical gathas, Similarly it has some găthis common with the Mūlācāra of Vattakera, the Bțhat-kşetrasamasa of Jinabhadra, the Trilokasära of Nemicandra and the Jyotişkarandaka (for details, see the Hindi Intro.): some of these gāthās might have been a part of traditional memory of cosmographical knowledge current among Jaina monks. The entire work is written in găthā metre, and the Prakrit dialect used by the author can be called Jaina Sauraseni according to the terminology of Pischel (Grammatik der Prākrit-Sprachen, Strassburg 1900, pp. 19-20). In this work there are heavy descriptions of some regions, and they remind us of the long compounds in the Ardhamāgadhī canon. 3. PADMANANDI: THE AUTHOR Though no date of the composition is mentioned, the author Paümanamdi or Padmanandi has supplied us with some information about tual genealogy in the concluding verses (XIII. 155 ff.). There was a great saint Viranandi who was endowed with five Mahāvratas, pure in faith, possessed of knowledge and the merits of self-control and penance, free from attachment etc., heroic, full of fivefold conduct, kind to six classes of living beings. free from infatuation and above joy and sorrow ( 158–59). His great disciple was Balanandi, who was well-versed in the Sūtras and their interpretations, who was of deep wisdom, who abstained from scandalising others, who was free from attachment, who was endowed with faith, knowledge and conduct, and whose mind was free from anxieties round about (160-61). And his disciple was Paumaņaṁdi or Padmanandi, endowed with many a virtue, free from Dandas, pure with reference to three Salyas, free from three Gāravas, who had reached the other end of Siddhānta, who was endowed with penances and other vows, who was devoted to faith, knowledge and conduct, and who was free from preliminary sins (162-63). Padmanandi tells us that he received instructions in the scriptures from Srivijaya who was a great teacher of Paramāgama and endowed with spiritual values; and it is through his benign favour that he composed in short the various sections in this work (144-45, 153, 164). There was a famous and learned monk Māghanandi who was frec from attachment and aversion, who had crossed the ocean of scriptural knowledge, who was endowed with deep wisdom, austerities and self-control. His eminent pupil was Sakalacandra who had washed his sins in the ocean of Siddhanta, who was meritorious, and who practised austerities and various rules of conduct. Sakalacandra's great and famous pupil was Śrīnandi who was endowed with spotless knowledge and conduct, and who was pure in his right faith. It is for the sake of this Śrīnandi that Padmanandi wrote this JPS Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 JAMBŪDĪVAPANNATTI while he was staying in the town of Bara (Bara-ṇayara) in the country of Pariyatta or Pariyātra which was rich in lakes and wells, charming with residential buildings, populated by different people, full of wealth and corn, and further attractive on account of pious householders and hosts of monks. The king of that place was Sakti- or Santi- (Pkt. Satti- or Samti-) bhūpāla who was pure with right faith, who practised various vows, was endowed with good conduct, was ever generous in his gifts, was partial to Jainism and heroic, was endowed with many a virtue and honoured by many kings, and who was expert in various arts. 4. PADMANANDI'S AGE The time when Padmanandi lived is a problem in the absence of any mention of the date in the work itself. Obviously we have to piece together bits of external evidence and try to put broad limits for his age. a) The earliest Ms. of JPS, known to us, is that from Amera, and it is written in Samvat 1518 (-57-1461 A. D.). b) It is seen that JPS is indebted to a number of earlier works, some of which of authentic authorship and date, like the Mûlacara, Tiloya-paņṇatti, Bṛhat-Kṣetrasamāsa and Trilokasara. The Trilokasära of Nemicandra is to be assigned to the 10th century A. D. c) The Sanskrit text, Lokavibhaga, specifically mentions JPS and quotes a gatha from it; but the date of it is not-definite (Tiloyapanṇatti, part ii, Hindi Intro. p. 73). The evidence set forth above allows us to conclude that JPS of Padmanandi was composed after Trilokasara, i. e., after the 10th century A. D., but before 1461 A. D., that being the age of the Amera Ms. Some more evidence has to be sought to narrow down this period and put a specific date. Pāriyatra stands for the territory above the Vindhya, and also for its western range. Pt. Premi has suggested (Jaina Sahitya aura Itihasa, pp. 256 ff.) that Bara-nagara might be the same as Bara in the Kota area of Rajasthan; and it was a seat of the Bhaṭṭarakas in the 11th and 12th century A, D. He further suggests that Śakti-bhūpāla might be the same as Sakti-kumāra of the Guhilot dynasty of Rajasthan, roughly at the close of the 10th contury A. D. Sakti-kumāra seems to have been partial to Jainism, though he was a Pasupata by faith. So Padmanandi might have composed this JPS at the close of the 10th or at the beginning of the 11th century A. D. at the time of Śaktikumāra. 5. GENERAL EDITORIAL As soon as the edition of Tilloyapappatti was completed (Vol. II published in 1951), the editors had before then one more Prakrit work on the same subject to see the light of day, the Jambudiva-panṇatti of Paümanamdi. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION One of them (Prof. H. L. Jain ) had his doubts about the wisdom of taking in hand for edition and translation a very difficult text like it, obscure at many places, the available Mss. of which were very corrupt. But the younger of the two editors (Prof. A. N. Upadhye) would not be deterred by these apprehensions. After all, this text has to be rescued from oblivion. And if so, who else would do the job and when ? So at last the two agreed to put their shoulders together as usual and make as best use of the available material as possible. Pt. Balchandra Shastri who already had the experience of translating the Tiloyapaņņatti was harnessed for the Hindi paraphrase. The result of their joint labours is now before the world of scholars to see how far they have succeeded in their long drawn efforts. The printing of the text was done at the Saraswati Press, Amraoti. But the completion of the volume had to be delayed for the important essay on the mathematics of the Tiloyapaņņatti (TP) by Prof. Laxmichandra Jain, the printing of which had to be done at Banaras, owing to the shifting of the Dhavala Office through which the printing work was being looked ofter. For the printing of this essay many Greek letters and signs had to be specially cast and the figure blocks had to be made: this again required much labour and delay. Immediately after the printing of the mathematical essay and the appendices was over, but before this introduction could be sent to the press, Pt. Balchandra Shastri fell ill and had to leave Banaras for his home in Bina. Therefore the printing of the rest of this work had to be done at Bombay and Sholapur. Under these circumstances, if the readers find any odd variety of paper and printing in this volume they would kindly excuse us. The editors and the translator had done their best to handle the mathematical material as it occurred in these texts, viz., TP & JPS. But they were conscious of their limitations in this subject, and they desired to have the material studied adequately by a competent scholar of Mathematics. Luckily, they found a willing intellect in the young Professor of Mathematics, Shri Laxmichandra Jain. He has mainly studied the mathematical portions of the Tiloyapannatti and given his exposition in his Hindi Essay of 104 pages. Besides explaining the numerous mathematical processes of the Jaina works, with proper signs, symbols and diagrams, he has drawn pointed attention to certain peculiarities of Jaina Mathematics which have a similarity with ancient Greek and Chinese writings (for example see pp. 10 & 13). It would be hazardous at this stage to draw inferences regarding giving and borrowing. The points, however, deserve further study and investigation. Prof. Laxmichandra is himself continuing his studies in this direction. After this publication, there remain two more unpublished texts on the subject of Jaina Cosmology. They are the Lokavibhāga and Trailokyadipika in Sanskrit. Attempts are being made to include them also in this series, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 JAMBŪDĪVAPANNATTI The activities of the Sanskriti S. Samgha have received a very severe blow by the sad demise of its founder Brahmachari Jiva during the whole period of its functioning so far, was the Chairman of the Trust and of the Managing Committee, and kept a very vigilant watch on the progress of its work. He never allowed any slackness creeping into any sphere of its working, and tried to resolve every difficulty that came in the way, with the whole force of his moral power and material resources. With his death, a brilliant career of pious pursuits and unreserved charity in the cause of Jaina Culture, has come to an end. May his soul rest in peace, and may his example inspire the present and future generations of wealthy men to use their wealth for the right cause, so long as they are the masters of it! We welcome Seth Gulabchand Hirachand as our succeeding Chairman. As an old member of the Trust Committee, he was already well acquainted with the activities of the Sangha and had full sympathy for the same. We have no doubt that with the best co-operation of his colleagues on the Trust Board, he will not spare any pains to maintain the traditions built up by his noble predecessor. We are now passing through very difficult and yet hopeful times : difficult because religious values are on the decline, sources of p are drying up, young men have more attraction for science and technology than for humanities, and, above all, destructive weapons are hovering over our heads, threatening to turn all intellect and culture into vapour any moment; hopeful, because, for those very reasons, a thought process has started wants to reverse the movement. Sober people in our country as well as the world over are turning their mind to old values for the safety of humanity, for the peace and prosperity of the world. In this process of thought, much strength can be derived from the message emanating from every page and every sentences of our ancient literature, the message of eternity of life and nature, and supremacy of spiritual values over material gains. Let us hope that from this point of view not only this literature would continue to be studied, but more attention would be paid to bring to light what remains still hidden in the obscure corners of ancient Bhandars and temples. The great Indian Heritage has still to come in to its own. In the end, we gratefully acknowledge our debt to all those institutions and persons who have, in one way or another, helped in the edition and publication of this volume. In particular, our best thanks are due to the members of the Board of Trustees and Managing Committee of the Sangha for their interest and zeal, the owners of the Mss. utilized here and the scholars who have co-operated with us in this task. Sholapur A. N. UPADHYE 5-1-58 H. L. JAIN Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय-पण्णत्तिका गणित परम्परा के आधार पर त्रिकालवर्ती विश्व-रचना का सार रूप से परिचय कराने वाला यह (तिलोय पणत्ति नामक ) ग्रंथ मुख्यतः गणित ग्रंथ नहीं है। सूत्रबद्ध प्ररूपणा में केवल फलों का वर्णन तथा कहीं कहीं उपयोग में लाये गये सूत्रों का वर्णन रहता है। इस ग्रंथ में कहीं कहीं गणित की झलक होने से, गणना की शैली का कुछ वर्णन सम्भव हो सका है। ऐतिहासिक दृष्टि से, यह ग्रंथ महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। अन्य समकालीन अथवा कुछ पूर्वोत्तर ग्रंथों की तुलना में, इस ग्रंथ में कुछ ऐसे प्रकरण तथा निरूपण दिये गये हैं जिनके आधार पर तिलोय-पण्णत्ति की रचना से शताब्दियों पूर्व प्रचलित ज्ञान के विषय में आभास मिल जाता है। सबसे महत्वपूर्ण वस्तु असंख्यात विषयक संख्यायों की प्रतीकों के आधार पर प्ररूपणा है। इन प्रतीकों के आधार पर भाषा विज्ञान शास्त्री उनके उपयोग में लाये जाने वाले काल को निश्चित कर सकता है। यतिवृषभ के द्वारा कब इसकी रचना हुई, यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि इन क्रियात्मक प्रतीकों के उपयोग का रचना काल । दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु, विविध वेत्रासन आदि आकार के सांद्रों का घनफल, छेदविधि-निरूपण तथा वृत्त सम्बन्धी माप है। ज्यामिति के क्षेत्र में भारतवर्ष बहुत पीछे रहा है। परन्तु इन ज्यामिति विधियों के आधार पर मिश्र, बेबीलोन, यूनान, चीन, आदि देशों की रेखागणित से सह सम्बन्ध नहीं तो तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है। इसके पश्चात् संख्या प्ररूपणा, भेणि-प्ररूपणा और अल्पबहुत्व तथा ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का मात्र प्रतिपादन गणितज्ञ के लिये कितने रोचक होंगे, यह निम्न लिखित विवेचन से स्पष्ट हो जावेगा। संख्या सिद्धान्त आधुनिक गणितज्ञ के लिये संख्या शब्द की स्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता नहीं रहती। तिस पर भी, व्यापक रूप से सर्व प्रकारकी संख्याओं, वास्तविक और काल्पनिक, परिमेय और अपरिमेय, पूर्णोक और भिन्न आदि का निरूपण करने के लिये यह कहा जा सकता है कि संख्या केवल समान राशियों (ढेरों) की राशि है, और कुछ नहीं। गणित के इतिहास से प्रतीत होता है कि सबसे पहिले महावीराचार्य ने काल्पनिक संख्याओं को पहिचान कर उनको उपयोग में न लाने का कथन किया था। तथापि, जैसे आदमी का अर्थ आदमी की आधी ऊँचाई लेकर उसका उपयोग किया जा सकता है, उसी प्रकार काल्पनिक संख्याओं का आधुनिक-युगीन विभिन्न विद्वानों में विस्तृत और महत्वपूर्ण उपयोग हो चुका है। पायथेगोरियन युग में मी अनन्त के विषय में वार्तायें चल पड़ी थीं, परन्तु जीनो के तर्कों ने बाद के गणितज्ञों को उस ओर आगे बाने में भय उत्पन्न कर दिया था। जब गेलिलियो के पश्चात उन्नीसवीं सदी में जार्ज केटर ने अनन्त विषयक गणित की संरचना प्रारम्भ की, उस समय गणितज्ञों ने कहा था कि यह विषय १०० वर्ष अति पूर्व लाया गया है। किन्तु भारतवर्ष में यह विषय ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व प्रतिपादित हो चुका था। पुष्पदंत और भूतबलि के ग्रंथ षटखंडागम तथा उनके पश्चात् के प्रायः सभी प्रयों में असंख्यात और अनन्त शन्द बिलकुल साधारण शैली में उपयोग में लाये जाते हैं, मानों ये हमसे अपरिचित ही नहीं है। तिलोय-पण्णति में. असंख्यात और अनन्त के वास्तविक दर्शन को क्रमशः अवधिज्ञान तथा केवलज्ञानी का विषय बनाया है। वीरसेन ने अनन्त संज्ञा उस राशि को दी है, जो व्यय के होत रहने पर भी अनन्त काल में समाप्त न हो। संख्यात अथवा असंख्यात प्रमाण राशि, अनन्त Fraenkel, p. 2. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णतिकी प्रस्तावना में से व्यय कर दी जाने पर भी, अनन्त का प्रमाण अनन्त रहता है, अथवा उसकी अनन्त संज्ञा नष्ट नहीं हो सकती है । यद्यपि संख्या के २१ भेदों का उल्लेख तथा उन्हें उत्पन्न करने का पूर्ण विवरण तिलोय पण्णत्त में है, तथापि उन भेदों का वास्तविक अर्थ समझना वांछनीय हैं। संख्यात से उत्कृष्ट संख्यात की प्राप्ति होने पर, केवल १ जोड़ने पर जघन्य परीत असंख्यात प्राप्त हो जावे, पर उस संख्या में यह असंख्यात संज्ञा उपचार रूप में दी गई है । वास्तविक असंख्यात वहाँ से प्रारम्भ होता है, नहाँ उत्कृष्ट असंख्यात की प्राप्ति के लिये, वास्तविक असंख्यात संज्ञाधारी धर्म द्रव्यादि राशियों को क्रमबद्ध गणना से प्राप्त संख्यात में जोड़ा जाता हैं । इसी प्रकार, उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात में १ बोड़ने पर जघन्य परीत अनन्त की जो उत्पत्ति है वह अनन्त संज्ञा की धारी इसलिये है कि वह संख्या अत्र अवधिज्ञानी का विषय नहीं रही। इसलिये औपचारिक रूप से अनन्त शब्द द्वारा बोधित है, वास्तविक अनन्त नहीं हैं । अनन्त की प्राप्ति के लिये इस संख्या से क्रमबद्ध गणना के पश्चात् जो असंख्यात से ऊपर प्रमाण राशि उत्पन्न होती है, उसमें उपधारित ( Postulated ) अनन्त राशियां जत्र मिलाई जाती है तभी वह वास्तविक अनन्त संज्ञा की अधिकारिणी होती है । इनके आधार पर द्रव्य, क्षेत्र और काल के आधार पर कहे गये प्रमाण तथा उनका अल्पबहुत्व ( Calculus of relations ) मौलिक हैं, मनोरंजक भी है। यहाँ अस्पबहुत्व ( Comparibility ) के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में बतलाना आवश्यक है। वह यह कि किसी अनन्त से अपेक्षाकृत बड़ा अनन्त भी होता है। उदाहरणतः यह बात मन में साधारणतः नहीं बैठती है कि क्या अनन्त काल के एक एक करके बीतनेवाले समयों में संसारी जीव राशि कभी समाप्त नहीं होती । इस सत्य का दर्शन करने के लिये और समाधान के लिये हम पाठकों को कैटर द्वारा प्रस्तुत दशमलव तथा एक एक संवाद पर आधारित संततता ( Continuum ) के गणात्मक और प्राकृत संख्याओं की राशि ( १, २, ३, ་...) के गणात्मक का अल्पबहुत्व पठन करने के लिये आग्रह करते हैं । (जिनागम प्रणीत अल्पबहुत्व एवं आधुनिक राशि सिद्धान्त के अल्पबहुत्व के तुलनात्मक अध्ययन के लिये सन्मति सन्देश, वर्ष १, अंक ४ आदि देखिए ) । २ संख्याओं के विभाजन का यह विषय लौकिक गणित का नहीं है, वरन् अलौकिक अथवा लोकोत्तर गणित का है, जैसा श्री अकलंक देव के तत्त्वार्थवार्तिक में उल्लेख है । यूनान में भी, पायथेगोरियन युग में मीमतिकी ( paonpattan) शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसके विभिन्न अर्थ लगाये जाते हैं, तथापि यह निश्चित है कि लोगिस्तिकी ( AoTeatexn ) - गणना कला तथा अर्थमिति की (age,ountern ) —संख्या सिद्धान्त, ग्रीक गणित में मूलभूत था । प्लेटो ने कहा है—“But the art of calculation (ofeotexn ) is only preparatory to the true science; those who are to govern the city are to get a grasp of Loriotixn, not in the popular sense with a view to use in trade, but only for the purpose of knowledge, until they are able to contemplate the nature of number in itself by thought alone."" ज्यामिति अवधारणायें ति. प. में प्रथम महाधिकार की गाथा ९१ से लेकर १३५ वीं गाथा तक, ज्यामिति अवधारणाओं को इस शैली से रखा गया हैं कि ये ४४ वाक्य अथवा सूत्र जैन सिद्धान्त शास्त्री के लिये इतने सुपरिचित प्रतीत होंगे कि उनका महत्व दृष्टिगोचर नहीं होगा । जैन सिद्धान्तों को न जाननेवाले के लिये ये इतने अपरिचित सिद्ध होंगे कि उन्हें भी ये महत्व- विहीन प्रतीत होंगे। इनसे परिचित कराने में तो १] Fraonkel, p. 64, ? Heath, vol. i, pp. 12 to 14. Heath, vol. i. p. 13 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडोअपग्णसिका गणित एक ग्रंथ बनाना पड़ेगा, तथापि, यहां बहुत ही संक्षेप में सार रूप वर्णन ही सलक मात्र देने के लिये पर्याप्त होगा। अभेद्य पुद्गल परमाणु जितना आकाश व्यास करता है, उतने आकाशप्रमाण को प्रदेश कहा गया है। अमूत आकाश में इसके पश्चात् भेद की कल्पना का त्याग होना प्रतीत होता है, तथा मूर्त द्रव्य में ही भेद अथवा छेद की कल्पना के आधार पर मुख्य रूप से आकाश में प्रदेशों की कल्पना की गई है, जो अनुणिबद्ध है। आकाश जहां कथंचित् अखंड (Continuous) है, वहां कर्थचित् प्रदेशवान भी है। इस प्रदेश (खंड, Point) के आधार पर, संख्याओं का निरूपण करने के लिये उपमा-मान भी स्थापित किये गये हैं। पल्योपम और सागरोपम उपमा प्रमाण समय की परिभाषा के आधार पर स्थापित किये गये हैं। चौथे महाधिकार में गाथा २८४, २८५ में समय का स्पष्टीकरण किया गया है। सूच्यंगुल, प्रतयंगुल, बगश्रेणी, रज्जु आदि केवल एक महचा की सूचक नहीं हैं, वरन् जहां संख्या मान का प्ररूपण होता है, वहां इनका अर्थ, इन लम्बाइयों में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की गणात्मक संख्या है। एक स्कंध में अनन्त परमाणुओं के होने का अर्थ, संख्या प्ररूपणा के आधार पर, एक स्कंध (उवसनासन) की लम्बाई में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की संख्या अनन्त नहीं है, वरन् कुंछ और ही है। एक आवलिमें समयों की संख्या जघन्य युकासंख्यात होती है। इस प्रकार कथन कर, संख्या मान के लिये उपमा से काल प्रमाण और आयाम प्रमाण में सम्बन्ध स्थापित किया गया है। log. ( 27 ) ()-(प) जहां अं, सूच्यंगुलके प्रदेशोंकी गणात्मक संख्या है, म पस्योपम काल में स्थित समयोंकी संख्या है तथा अ, अद्धापल्य काल राशि (कुलक) में स्थित समयों की संख्या है। ऐसे प्रदेश की अवधारणा के आधार पर धर्मादि द्रव्यों में संख्या स्थापित कर, तथा शक्ति के अविभागी अंश के आधार पर केवलज्ञान आदि अनन्त राशियों की स्थापना कर, उनके सूक्ष्म विवेचनों को संख्या मान अथवा द्रव्यप्रमाण का विषय बनाया गया है। आधुनिक गणितश बिन्दुकी परिभाषाकी भी उपेक्षा करता है और बिन्दु कहलाई जानेवाली वस्तुओं की राशि से समारम्भ करता है। ऐसी अपरिभाषित वस्तुएँ एक उपराशि या उपकलक ( Subset) की रचना करती हैं जो सरल रेखा कहलाती है, इत्यादि । ऐसे अपरिभाष्य बिन्दु को लेकर, बोलज़ेनोंके साध्य के आधार पर, जार्ज केन्टर ने अनन्त विषयक गणित की संरचना की, जिसे अमूर्त राशि सिद्धान्त (Abstract set theory) कहा जाता है। बार्ज केन्टर ने, परिमित और पारपरिमित (Trans finite) राशियों पर कार्य करने में असंख्यात की उपेक्षा की है। परन्तु, पारपरिमित गणात्मक संख्याओं के विभिन्न प्रकार बतलाये गये हैं। इस प्रकार, पारपरिमित गणात्मकों और अखण्ड फैलाव (Conti. nuum ) के सिद्धान्तों से प्राप्त गणितीय दक्षता, अमूर्त राशि सिद्धान्त को जन्म दे चुकी है, परन्तु उसकी वृहद संरचना करते समय, गणितज्ञों के सम्मख विभिन्न मिथ्याभास ( Paradox) उपसि हुए हैं, जिनका सर्वमान्य समाधान नहीं हो सका है। समाधान के लिये, इस शताब्दी में गणितीय दर्शन में विभिन्न विचारधाराओं के आधार पर परिगणित (Meta-mathematics) की संरचना, गणितीय तकें के रूप में हो चुकी है। यह केवल प्रतीक रूप में है। ज़ीनों के तर्क भी सर्वमान्य समाधान को प्राप्त नहीं हो सके हैं, जहाँ परिमित रेखा में अनन्त विभाज्यता का खण्डन किया गया है। और मेरी समझ में अन्तिम दो तर्कों में समय की अवधारणा को अन्यथा युक्ति खंडन के आधार पर पुष्ट किया गया है। पायथेगोरियन युग में, बिन्दु की परिभाषा, "स्थिति वाली इकाई थी। पायथेगोरियन सिद्धान्त के अनुसार, फिलोलस ( Philolaus) ने कहा है "All things which can be known have १ सन्मतिसन्देश, वर्ष १, अंक २, पृ० ७. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना number; for it is not possible that without number anything can either be conceived or known." एरिस्टाटिल ने वस्तुओं के लक्षणों और संख्याओं के बीच दार्टान्त' आधारित कर, पायथेगोरियन सिद्धान्त को निम्न लिखित शब्दों में व्यक्त किया था "They thougt they found in numbers, more than in fire, earth or water, many resemblances to things which are and become; thus such and such an attribute of numbers is justice, another is soul and mind, another is opportunity, and so on and again they saw in number the attributes & ratios of the musical scales. Since, then, all things seemed in their whole nature to be the first things in the whole of nature, they supposed the elements of numbers to be the elements of all tbinge, and the whole heaven to be a musical scale and a number.3» __ जहां यूक्लिड ने बिन्दु को भाग रहित, विमाओं रहित कहकर छोड़ दिया है, वहां पायथेगोरियन परिभाषा, "monad having position" बहुत कुछ वैज्ञानिक प्रतीत होती है। प्लेटो द्वारा प्रतिपादित "चौडाई रहित श्रेणि breadthless length" की परिभाषा प्लेटो ने स्वयं दी है. "That of which the middle covers the end" (i. o. to an eye placed at either end and looking along the straight line);......" . रूप ( Figure) की परिभाषा मनोरंजक है, जिसे सुकरात (Soorates) ने इस प्रकार कहा et us regard as figure that which alone of existing things is associated with colour. यहाँ रंग (Colour) के विषय में विवाद उठने पर, सुकरातका उत्तर यह है, "It will be admitted that in geometry there are such things as what we call a surface or & solid, &s on; from these examples we may learn what we mean by figure; figure is that in which & solid ends, or figure is the limit (or extremity, nepas) of a solid." repas शब्द का उच्चारण परस होता है। यहां चौड़ाई रहित श्रेणि के समान ही एकानन्तकी परिभाषा वीरसेन ने दी है। रूपी अथवा मर्तिक पदार्थों (पुदगल) के विषय में अवधारणाएं पठनीय है। इस प्रकार, यूनानी ज्यामिति में परिभाषाये, स्वसिद्ध, उपधारणायें, आधारभूत थीं जिनके विषय में यही कहा जाता है कि उन्हें पायथेगोरियन वर्ग ने खोजा था। जिस प्रकार जैनाचार्यों ने स्वलिखित ग्रंथों में आचार्य परम्परागत ज्ञान का ही आधार सर्वत्र लिया है, उसी प्रकार पायथेगोरियन वर्ग ही आविष्कारकों का नाम हुआ करता था। Heath, vol. I, p. 67. २ इस सम्बन्ध में धवलाकार वीरसेन द्वारा उदधृत अंक एवं रैखिकीय का निरूपण देखने योग्य है। षटखंडागम (पु. १०)४, २, ४, १७३, पृ. ४२१-४३०, (१९५४)। तेजस्कायिक, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, जीवराशि की गणना भी त्रिलोक-प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित है। ३ Heath, vol. 1, So. 68. ४ Heath, vol. I. S0.293. ५ Heath, vol. I, So. 293. ६.ति. प. १,८४. ७Coolidge2, p. 28. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित पायथेगोरियन वर्ग के विषय में प्लेटो के कुछ कथन अति मनोरंजक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं "They have in view practicality, and are always speaking in a narrow and ridiculous manner of squaring and extending and applying and the like............. Then, my noble friend, geometry will draw the soul towards truth and create the spirit of philosophy, and raise up that which is now, unhappily, allowed to fall dowo....... And do you not know also that although they make use of visible forms and reason on them they are thinking not of those but of the ideal which they resemble, not of the figures which they draw, but of the absolute square, the absolute diameter and so on............ And when I speak of the other division of the intelligible you will understand me to speak of that other sort of knowledge which reason herself attains by the power of dialectio, using the hypotheses, not as first principles, but as base bypotheses, in order that she may soar beyond them to the first principle of the whole, and clinging to this and then to that which depends on this by successive steps. She may descend again without the aid of any sensible object from ideas through ideas, and in ideas she ends." उपर्युक्त वर्णन, ऐसा प्रतीत होता है, मानो आत्मा, आयत चतुरस्राकार लोक (जिसका तल वर्गाकार होता है), जम्बूद्वीप (जो वृत्ताकार होता है) के विष्कम्भ, आदि के विषय में किया जा रहा हो । वास्तव में, यूनान का पायथेगोरियन वर्ग अथवा बाद के दर्शनशास्त्री, गणित में क्या व्यावहारिक गणना के लिये रुचि रखते थे? नहीं, वे वास्तविक सत्य (absolute truth) के सम्बन्ध में ही रुचि रख कर, गणना करते थे। यही भारतवर्ष में वीरसेन तथा यतिवृषभ के परिकर्म ग्रंथादि विषयक उल्लेख से प्रतीत होता है। यदि जैनागम प्रणीत पुद्गल परमाणु के आधार पर कथंचित् प्रदेश संरचित आकाश की अवधारणाओं को लेकर आधुनिक ज्यामिति क्षेत्र में नये सुझाव दिये बावे तो प्रश्न उठता है कि अविभागी पुद्गल परमाणु किसे माना जावे। अनन्तान्त पुद्गल परमाणुओं का एक क्षेत्रावगाही होना, स्पर्श ( contact) के सिद्धान्त के लिये उपधारित हो, वह तो ठीक है, परन्तु क्या हम अणुविभंजन विधियों से उस अन्तिम परमाणु को प्राप्त करने की चरम सीमा तक पहुँच सकते हैं, अथवा नहीं डेन्टन का विचार है, "In fact, the ultimate partiole of matter presents great difficulties; it need not be the electron-probably is not-but the atomic notion of the constitution of matter does sprely demand an ultimate particle, and such reasoning as bas been suggested shows that to this ultimate particle no properties of any sort-not even magnitude can be assigned. The alternative of pushing the responsibility on to the member of an unending series of particles can hardly be said to satisfy the mind which demands a clear physical conception of nature, 3 १. Coolidge, pp. 26, 27. Coolidge, p. 24. Denton, p. 42. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्मसिकी प्रस्तावना 291 28 gera gag, ag fedt atyf asrlarat a 3991fa #215, “Besides possessing extension in space and time, matter POSAO8808 inertia. We shall show in due course that inertia, like extension; is expressible in terms of the intervol relation; but that is & development belonging to a later stage of our theory. Meanwhile we give an elementary treatment based on the empirical laws of conservation of momentum and energy rather than any deep-seated theory of the nature of inertia. For the discussion of space and time we have made use of certain ideal apparatus which can only be imperfectly realized in practice-rigid scales and perfect cyclic mechanisms or clooks, which always remain similar configurations from the absolute point of view. Similarly for the discussion of inertia we require some ideal material object, say a perfectly elastio billiard ball, whose condition as regards inertial properties remains constant from an absolute point of view, The difficulty that actual billiard balls are not perfectly elastic must be surmounted in the same way as the difficulty that sotual scales are not rigid. To the ideal billiard ball we can affix a constant number, called the invariant mass, (proper mass ) which will depote its absolute inertial properties; and this number is supposed to remain unaltered throughout the vicissitudes of its history, or, if temporarily disturbed during a collision, is restored at the times when we have to examine the state of the body."" Tİ, 27 HIT ( invariant mass-m) तथा सापेक्ष मात्रा ( relative mass-M) के विषय में, किये गये प्रयोगों के आधार पर मात्रा को शून्य से उत्पन्न करना तथा मात्रा को शून्य में बदल देना (विनष्ट कर देना) जैसी कल्पनाएं पाठक न बना ले, उसके लिये हम अगला अवतरण पढ़ने के लिये बाध्य करत ह-"It will thus be seen that although in the special problems considered the quantity m is usually supposed to be permanent, its conservation belongs to an altogether different order of ideas from the universal conservation of M.?" gati, 991 fitog fagan4 $( Point Electron ) ganes Tag *E142, faat faqe À 9C 61 PI, "Accordingly, I am of opinion that the point-electron is no more than a mathematical curiosity, and that the solution ( 78. 6 ) should be limited to values of r greater than a.'', इसके विषय में अभी हम कहने में असमर्थ हैं। निश्चित कार्य हो जाने पर हम निर्धारण करेंगे। इस प्रकार, आकाश में प्रदेशों की श्रेणियाँ मुख्य रूप से मानकर, विग्रहगति (कर्म निमित्तक योग) Eddington, The mathematical Theory of Relativity, pp. 29, 30. & Eddington, p. 33 Eddington p. 33. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित में, जीव और पुद्गलों की गति मानी गई है। डिस्कार्टीज़ और फरमेट के समान, यहाँ अकलंक ने तत्त्वार्थवार्तिक में निरूपण किया है कि चार समय (the now of Zeno) से पहिले ही मोड़े वाली गति होती है, क्योंकि संसार में ऐसा कोई स्थान ( कोनेवाला, टेढ़ा मेढ़ा ) नहीं है जिसमें तीन मोडे से अधिक मोडा लेना पडे। जैसे षष्टिक चावल साठ दिन में नियम से पक उसी तरह विग्रहगति भी तीन समय में समाप्त हो जाती है । इस आधार पर यदि बिन्दु की परिभाषा दी जावे और घटना कोx, y, 2 और यामों से निरूपित किया जावे तो भी, जैनागम प्रणीत वचनों का पूरा अर्थ नहीं निकल सकता। यहां तो अनन्तानन्त अलोकाकाश के बहुमध्यभाग में स्थित, जीवादि पांच द्रव्यों से व्याप्त और जगश्रेणी के घन प्रमाण लोकाकाश बतलाया गया है। ऐसे असंख्यात प्रमाण प्रदेशोंवाले काल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य, जीव और पुदगलों के स्वभाव से घटनायें परिणमन करने में स्वभावानुसार परिणत होते हैं। यहां प्रश्न उठता है कि क्या पायथेगोरियन युग के पांच नियमित सांद्र ( the five regular solids) ये ही हैं जिनके विषय में कहा गया है, "The same parenthetical sentence in Proclus.........also states that he ( Pythagoras ) discovered the 'putting together (ovaracto) of the cosmic figures' (the five regular solids.)"२. इस सम्बन्ध में हम ईचस (Aetius) के शब्दों को उद्धृत कर, हीथ का विचार प्रस्तुत करना उपयुक्त समझते हैं। •Pythagoras seeing that there are five solid 8, which are also called the mathematical figures, says that the earth arose from the cube, fire from the pyramid, air from the octahedron, water from the icosahedron and the sphere of the universe from the dodecahedron'. It may, I think, be con ceded that Pythagoras or the early Pythagoreans would hardly be able to construct' the five regular solids in the sense of a complete theoretical construction such as we find in Euol.XIII:.........But, there is no reason why the Pythago. reans should not have put together' the five figures in the manner in which Plato puts them together in the Timaeus, namely, by bringing a certain number of apgles of equilateral triangles, squares or pentagons severally together at one point so as to make a solid angle, and then completing all the solid angles in that way." पुनः, "According to Heron, however, Archemedes, who discovered thirteen semi-regular solids inscribable in a sphere, said that, 'Plato also know one of them, the figure with fourteen faces, of which there are two sorts, one made up of eight triangles and six squares, of earth and air; and already known to some of the ancients, the other again made up of eigat squares and six triangles, which seems to be more difficult.nx १तत्वा . वा. २,२८, १. २ Heath, vol. I. p. 168. ३ Heath, vol. 1, p. 159 ४ Reath vol. 1., p.295. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना इनके विषय में हम पाठकों का ध्यान प्रथम महाधिकार की १६८ वी गाथा से लेकर, महाधिकार के अन्त तक गाथाओं के रैखिकीय निरूपण की ओर आकर्षित करते हैं। कहा नहीं जा सकता, कि ये रैखिकीय विधियां कहां तक पांच सांद्रों सम्बन्धी उलझे हुए प्रश्न को सुलझा सकेंगो। समाधान अनुसंधान पर आश्रित है। अंक गणना इस अन्य से भी पूर्व के अन्यों, अनुयोगद्वार सूत्र' (१०० ई०पू०),तथा षट्खण्डागम में मनुष्य पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा से कोडाकोड़ाकोड़ि से ऊपर और कोडाकोड़ाकोडाकोहि से नीचे, अथवा छठवें और सातवें वर्गों के बीच की संख्या बतलाई गई है। यहां शून्य का स्थाना पद्धति में प्रयोग किया गया है। भारतीय गणित में ऐसा निरूपण पूर्व के ग्रन्थों में अभी अन्यत्र कहीं नहीं दिखा है । बख्याली हस्तलिपि में 0 प्रतीक का प्रयोग शून्य ( Emptiness) अथवा अग्राह्यता (Omission) के लिये हुआ प्रतीत होता है। वीरसेन के पूर्व के सूत्रों में कई शैलियों से संख्या का कथन किया गया है जिसके लिये सूत्र ५२,७१, ७२ आदि देखने योग्य है । तिलोय-पण्णत्ति में प्रायः सभी स्थानों में स्थानाही पद्धति का उपयोग है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि इसकी संरचना के समय तक दसार्हा संकेतना पूरी तरह उपयोग में आ चुकी थी। गाथा ३०८ (चतुर्थ महाधिकार ) में अचलात्म नामक काल की संकेतना दी गई है जो (८४).x(१०). प्रमाण वर्षों के तुल्य होता है। आगे निर्देशित किया है कि यह संख्यात काल वर्षों की गणना, उत्कृष्ट संख्यातकी प्राप्ति तक ले बाना चाहिये। यह नहीं कहा बा सकता कि, आर्यभट्ट से भी पूर्व वर्गमूल या घनमूल निकालने की रीतियां भारत वर्ष में प्रचलित थीं, परन्तु तिलोय-पग्णचि तथा षटखंडागम में आये हुर उल्लेखों से प्रतीत होता है कि यहां ऐसे कथन भी थे, "जगश्रेणी को जगश्रेणी के बारहवें वगमूल से भाजित करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह वंशा पृथ्वी के नारकियों का प्रमाण होता है। यद्यपि यूनानमें दशमलव पद्धति का प्रचलन ऐतिहासिक काल में सबसे पूर्व हुआ प्रतीत होता है, तथापि मिश्र में उनसे भी पूर्व दसारे पद्धति के आधार पर १, १०, १००, १००० आदि के लिये चिन्ह ये। इसी प्रकार बेबीलोन में भी दशमलव और षाष्ठिक पद्धतियों पर संख्याओं के निरूपण के लिये चिन्ह थे। आर्कमिडीज़ पद्धति उल्लेखनीय है। (१०) पर आधारित यह पद्धति काल के विषय में बड़ी संख्याओं की प्ररूपणा के लिये थी जिसके सम्बन्ध में कहा गया है, "This system was, however, a tour-de-force, and has nothing to do with the ordinary Greek numerical notation." इन सबकी तुलना में उत्कृष्ट संख्यात, गणना द्वारा उत्पन्न करने की रीति, जो तिलोय-पण्णत्ति में वर्णित है, वह दूसरे अंथों के आधार पर पायथेगोरियन युग की प्रतीत होती है। एक और नवीन रीति का वर्णन अत्यंत रोचक है। वह है वर्गण-संवर्गण विधि | इस विधि को शलाका निष्ठापन विधि भी १ अनु. सूत्र १४२. ३ द्रव्यप्रमाणानुगम ५ तिलोयपण्णत्ति २, १९६. & Heath, vol 1. p. 41. २ द्रव्यप्रमाणानुगम (पु. ३) सूत्र ४५. ४ यह संकेतना वर्णन अनुयोगद्वारसूत्र में भी है, और उसका प्रचलन उससे भी पूर्व काल में हुआ होगा । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडोयपण्णत्तिका गणित . कहते हैं। यदि २ को तीसरी बार वर्गित संवर्गित किया जावे तो २] अथवा (२५६)२५५ राशि प्राप्त होती है । सोचिये, कि यदि हम AnjTAaj) का मान निकालने जावेंगे तो क्या प्राप्त होगा । पुनः अईन्छेदों तथा वर्गशलाकाओं के द्वारा, इन संख्याप्रमाणों द्वारा प्ररूपित राशियों के अल्पबहुत्व का विश्लेषण किया जाता था। अर्द्धच्छेद आधुनिक log है तथा वर्गशलाका आधुनिक log loga है। बीरसेन ने तो द्रव्यप्रमाणानुगम में इस विधि का उपयोग इस तरह किया है कि बीजगणित के लिये अभूतपूर्व सामग्री का नवीं शतान्दि में उपस्थित होना एक आश्चर्यपूर्ण बात प्रतीत होती है। जहां इस गणित के नियमों से नवीं सदी के जैनाचार्य पूर्ण दक्षता को प्राप्त हो चुके थे वहां यूरोप में जान नेपियर और बर्जी द्वारा इसके पुनः आविष्कार की पुनरावृत्ति सत्रहवीं सदी में होती दिखाई देती है। ईसा से १०० वर्ष पूर्व ही अनुयोगहारसूत्र में (२)" को वह संख्या प्ररूपित किया है जो २ के द्वारा ९६ बार छेदी जा सके । तिलोय-पणती के प्रथम अधिकार की १३१, १३२ वी गाथाओं से ही अचच्छेद के नियमों का परिचय हो जाता है। आगे सातवें महाधिकार में गाथा ६१३ के पश्चात् सपरिवार चन्द्रों के बिम्बों का प्रमाण निकालने में, बीरसेन ने (0) अथवा यतिवृषम ने (१) जो प्ररूपण दिया है वह जिस प्रकार हम सरल विधि से आधुनिकता लाकर प्रदर्शित करने में प्रयत्न कर सके है वह अति मनारंबक और ऐतिहासिक महत्व की पस्त है। आगे भेटियों में समान्तर और गुणोत्तर भेटियों के योग, विभिन्न रूप से भेटियों की संरचना कर, उनके योग निकालकर, तथा विभिन्न रूप में अल्पबहुत्व का निरूपण, जैनाचार्यों की मौलिक वस्तु प्रतीत होती है। दूसरे महाधिकार में गाथा २७ से लेकर गाथा १०४ तक, नारक बिलों के विषय में उनके संकलन का विवरण महत्वपूर्ण है । इसी प्रकार पांचवें महाधिकार में पृष्ठ ५६३ से लेकर पृष्ठ ५९६ तक, द्वीप-समुद्रों के क्षेत्रफलों का अल्पबहुत्व उनकी दक्षता का प्रमाण प्रतीक है। भेढियों को इतने विस्तृत रूप में वर्णन करने का श्रेय जैनाचार्यों को है। यदि तिलोय-पण्णची का यह विवरण पूर्वाचार्यों से मिया गया है तो आर्यभट्ट से पूर्व श्रेढि संकलन सूत्रों का होना सिद्ध होता है। इस सम्बन्ध में यूनानी इतने आगे नहीं आये तथापि ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर पायथेगोरियन वर्ग काल में भी प्राकत संख्याओं के संकलन का प्रमाण मिलता है। निकोमेशस (Nicomachus) ने प्रायः १०० ईस्वी पश्चात् भेटियों के संकलन के विषय में, जो कुछ प्रदर्शित किया उसे देखकर आश्चर्य होता है कि जहाँ रोमन खेत गणकों (agrimensores) को प्राकृत संख्याओं के धनों का योग निकालने के लिये सूत्र ज्ञात था, वहाँ उसने सूत्र प्ररूपणा नहीं की है। इस आविष्कार के सम्बन्ध में कहा गया है-"It may have been discovered by the same mathematician who found out the proposition aotually stated by Nicomachus, whioh probably belongs to a much earlier time"." यथोचित सामग्री के अभाव में इस विषय में और कुछ कहना उपयुक्त नहीं है। १ सरलं स्पष्टीकरण के लिये, ब किसी संख्या ब की अ बार वर्गित संवर्गित राशि का प्रतीक है। B. B. Datta & A. N. singh P. 12 Part I. पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे जान नेपियर के लाग्एरिन के आधारभूत अंय 'The Constructio' से जैनाचार्यों की भेटियों पर आधारित अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका आदि का समन्वय तथा सहसम्बन्ध अवलोकन करने का प्रयत्न करें। ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी इसकी झलक का उल्लेख मात्र है (११,९६-१०३)। ४ Reath vol. 1. P. 76, vol. ii, PP.515&516. ५ Heath vol. 1. P. 109. ति.ग.२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना हो सकता है कि नवीं सदी में हुए महावीराचार्य और प्रायः ३०० वर्ष पूर्व हुए यतिवृषभ की गणनाविधियों में अन्तर रहा हो, तथापि यतिवृषभ कालीन जैनाचार्य का गणित प्रेथ न होने से इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। अन्त में, यह भी उल्लेखनीय है कि जैनाचार्यों की भांति यूनान में संख्याभी को २न के रूप में प्ररूपण करने का प्रचलन था। "The Neo-Pythagoreans improved the olassifioation thus. With them the 'even-times even' number is that which has its halves even, and so on till unity is reached'; in short, it is a number of the form 21", बीजगणित इस ग्रंथ में उपयोग में आये हुए प्रतीकों का उपयोग केवल संख्या निरूपण के लिये ही नहीं वरन् कुछ क्रियाओं के लिये भी हुआ है। वीरसेन द्वारा अर्द्धच्छेदों और वर्गशलाकाओं के प्रमाण को शन्दों में व्यक्त करना सरल सा प्रतीत होता है, तथापि यह कथन करना कि log. log. राशि,HIP से १ वर्ग स्थान भी ऊपर नहीं पहुँची है, वास्तव में यह निरूपण है - log, log, Tijlo = [[i]]ij+'log Tij + (Tij + e) log lij+log log lij स्पष्ट है, कि ऐसे निरूपणों से भरे हुए इस ग्रंथ के रचने में वीरसेन के पास क्रियात्मक प्रतीकत्व अवश्य रहा होगा। यतिवृषम के द्वारा जगश्रेणी का प्रतीक एक आड़ी रेखा होना, तथा उसके घन का रूप में प्ररूपित होना, नानाघाट शिलालेख काल से लेकर कुशन काल अथवा उससे भी बाद के क्षत्रप और आन्न शिलालेख कालीन प्रतीत होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि घटाने के लिये ऋण शब्द (रिण) का उपयोग, पृष्ठ ६०२ से लेकर ६१७ तक हुआ है। बख्शाली हस्तलिपि में रिण के + उपयोग में लाया गया है। + प्रतीक की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मतों को हम प्रस्तुत करते हैं, "The origin of the Bakhshali minus sign (+) has been the sub. ject of much conjecture. Thibaut suggested its possible connection with the supposed Diophantine negative sign (reversed 4, tachygraphio abbreviation for decis meaning wanting). Kaye believes it. The Greek sign for minus, however, is not s but î. It is even doutful if Diophantus did actually use it: or whether it is as old as the Bakhshali cross.* Hoernlepresumed the Bakhshali minus sign to be the abbreviation ka of the Sanskrit word kanita, or nu (or nu) of nyuna, both of which mean diminished and both of which abbreviations in the Brahmi characters would be denoted by a cross. Hoernle was right, thinks Datta, 80 far as he sought for the origin of + in a tachygrapbic abbreviation of some Sanskrit word. But, as neither the word kanita or pyuna is found to have been used in the Bakhshali work in connection with the subtractive operation, Datta finally, rejects the theory of Hoernle and believes it to be the abbre१ Heath vol. I. P. 72. २ षटखंडागम-द्रव्यप्रमाणानुगम पृष्ठ २४. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोषपण्णचिका मतिं viation ksa, from ksaya ( decrease) which ooours several times, indeed, more than any other word indicative of subtraction. The sign for ksa, whether in the Brahmi characters or in Bakhshali characters, differs from the simple cross (+) only in having a little flourish at the lower end of the vertical line. The flourish seems to have been dropped subsequently for convenient simplification"." तिलोय पण्णची में उपयोग में आये हुए प्राकृत शब्द 'रिण' के आधार पर हम भी अपना सुझाव रख सकते हैं। + चिह्न, रिण शब्द के रि अक्षर से ब्राह्मी लिपि के अनुसार (1) किया गया है। इस रिण शब्दको केवल परम्परागत आचार्यों द्वारा प्राप्त कार्य मार्गणाओं में स्थित नौवों की संख्या प्ररूपणा करने तथा उनमें अल्पबहुत्व दिखलाने के लिये प्रतीक निरूपण रूप में लिया गया है। हम यह कह सकते हैं कि रिण शब्द का उपयोग यतिवृषभ कालीन नहीं वरन् उनके पूर्व काल का है। इसके लिये प्रमाण हम, और आगे चलकर बतलावेंगे । रिण शब्द का प्रयोग उस काल का निरूपण करता जब कि + उपयोग में लाया गया होगा । और इस प्रकार रिण शब्द के उपयोग से, उपयोग में आये हुए अन्य प्रतीकों का काल निर्धारण हो सकता है। स्पष्ट है कि रिण शब्द से + धीरे धीरे किस प्रकार उपयोग में आने लगा होगा और यदि ऐसा हुआ है तो प्रतीकत्व का उपयोग बख्शाली काल से बहुत पूर्व का होना चाहिये । यह निर्णय करना भाषाविज्ञान शास्त्रियों के लिये है । उल्लेखनीय है कि धवलाकार वीरसेनाचार्य ने भी ऋण के लिये + प्रतीक का उपयोग किया है । पुनः, चौथे महाधिकार में गाथा १२८७ से लेकर १९९१ तक कोठों में शून्य का उपयोग क्या अता के लिये हुआ है, यह अभी नहीं कहा जा सकता । बख्शाली हस्तलिपि में भी ० का उपयोग खाली स्थान अथवा अग्राह्यता ( omission ) के लिये हुआ है। तथापि, शून्य का यह उपयोग खाली स्थान के लिये ही हुआ होगा, यह सम्भव प्रतीत होता है । भिन्न-भिन्न असंख्यात संख्याओं के निरूपण के लिये भिन्न-भिन्न प्रतीक लिये गये है। जैसे असंख्यात के लिये 8, असंख्यात लोक प्रमाण राशि के लिये ९, तथा 'असंख्यात लोक ऋण एक' के लिये ८ को उपयोग में लाया गया है, चिह्न ति. प. पृ. ६०३ पंक्ति २ में देखिये ) प्रतीक उपयोग में आया है। लिये प्रतीक रूप में हुआ है। मिश्र में तथा = ६० के लिये प्रतीक था । ९, लिखित स्थान में दिखाई देता है" = ५८६४ रिण रा. ४/४/६५६१ ४/६५५१६ ཨ་༤༤༣༥ ५ यह स्थापना कैसे उत्पन्न की गई है, यह समझने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। तथापि, बख्शाली हस्तलिपि में भू. प्रतीक का उपयोग मूल के लिये हुआ है। इसी प्रकार यहां तथा और दूसरी जगह भी ० का उपयोग योग के लिये किया गया प्रतीत होता है। 2 का अर्थ हम नहीं समझ सके हैं। इस प्रकार a,,, ९ में यूनानी झलक दिखाई देती है, तथापि, निम्न लिखित अवतरण पढ़ना वांछनीय है । इत्यादि । संख्यात के लिये... ( यह मिश्र में इसका उपयोग १०० की खड़ी लकीर १ का, ग्रीस में खड़ी लकीर १० का निरूपण करती थ १०० का प्रतीक था। आगे मू. अक्षर का उपयोग केवल निम्न 19 - २ मू. 2 . १३ मू. १ B. B. Datta & A, N. singh Part I. PP. 14, 15. २ खंडागम पु. १०, ४, २, ४, ३२, पृ. १५१. ३ ति प भाग २, पंचम अधिकार, पृष्ठ ६०९. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना “Ssade, a softer sibilant (=90), also called San in early times, was taken over by the Greeks in the place it oooupied after t......... The Phoenician alphabet ended with T; the Greeks first added T, derived from Vau apperently (......), then the letters o,x, Vand, still later, 2.........Now, as & is fully established at the date of the earliest inscriptions at Miletus (about 700 B.C.) and Naueratis (about 660 B.C.), the earlier entension of the alphabet by the letters कxy must have taken place not later then 760 B.C."" इस प्रकार, 6, 2, 3, के उपयोग के आधार पर रिण का उपयोग भी तिलोय-पण्णती की संरचना से पूर्व का प्रतीत होता है। रज्जु के लिये र, पल्य के लिये प, आदि प्रतीक ग्रहण करना स्वाभाविक है। दीन्द्रिय के लिये बीइंदिय शब्द का उपयोग प्राकृत में होता रहा है। सूर्यगुल के लिये और कहीं कहीं आवलि के लिये २ प्रतीक चुना है-इसका कारण, तथा उपयोग में लाये जाने के काल का निर्धारण करना अभी शक्य नहीं है। भिन्नों के लिखने की शैली बख्शाली हस्तलिपि के समान ही है। मिश्र में भी यही शैली प्रचलित थी। जैसे, २४ को nam और उश्र को ९९९०ी लिखा जाता था। बेबीलोन में भी खड़ी और आड़ी खूटियों के द्वारा संख्या निरूपण होता था, जैसे I<.........का अर्थ (६०) +१.. (६०) होता था। जिस तरह द्वि के लिये प्राकृत में बी है, उसी प्रकार यूनानी अक्षर दो का प्रतीक है। अन्य चिह्न प्राप्त नहीं हुए हैं। प्रतीकत्व के उपयोग के सिवाय, विभिन्न स्थानों में सूत्रों का उपयोग, तथा पत्र द्वारा अल्पबहत्व का निरूपण ही विभिन्न समीकारों की उत्पत्ति करता है, जो पठनीय है, तथा जिनसे पर्याप्त मात्रा में खोज की जा सकती है। अल्पबहुत्व का निरूपण ही विश्लेषण अथवा बीजगणित है, जिसके कुछ उदाहरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और जिनके पूर्वापर विरोध का खंडन करने के लिये वीरसेन अथवा यतिवृषभने अपने समय की प्रचलित युक्तियों की झलक दिखा दी है। वही झलक ऐतिहासिक दृष्टिसे कितने महत्व की है, यह स्वयं प्रकट हो जावेगा। मापिकी या ज्यामिति विधियां तिलोय-पण्णत्ती के विवरणसे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने बो भी खोजें की वे परम्परागत शन को सुलझाने, स्पष्ट करने के लिये ही की है। जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों के वृतरूप क्षेत्रों के क्षेत्रफल, धनुष, जीवा, बाण पार्श्वभुना तथा उनके अल्पबहुत्वों का प्रमाण निकालने के लिये उन्होंने वृत्त और सरल रेखा पर बहुत कार्य किया। यूनानियों ने भी वृत्त और सरल रेखा पर आधारित अंशदान दिया है। पुनः लोक के चतुरस्र आकार के कारण उन्होंने वेत्रासन के आकार के सांद्रों का छेदविधिसे विभिन्न प्रकार के ज्ञात क्षेत्रों में प्राप्त कर, घनफल निकाला है, जिनमें वातवलयों से वेष्टित आकाशका बनफल निकालना, उनकी पटुता का द्योतक है। क्षेत्रावगाहना के वर्णन के आधार पर उन्होने बेलनाकार, शंक्वाकार, क्षेत्रों के घनफल भी निकाले हैं। ये विधियां भारतीय शैली के आधार पर सूत्रबद्ध निरूपित है। यह सब होते हए, गोल क्षेत्र के धनफल का निरूपण न होना एक आश्चर्यपूर्ण बात प्रतीत होती है, क्योंकि गोलार्द्ध बिम्बों की अवगाहना तथा चंद्रादि की कलाओं के क्षेत्रफल आदि विषयों की चर्चाओं को भी THeath vol. 1. PP. 32-34. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलोयपण्णत्तिका गणित गणितीय निरूपण प्राप्त होना था। यूनान में गोलके सम्बन्धमें (पायथेगोरियन युग से अथवा उसके बाद के सूत्र की ) प्ररूपणा है, तथा जैनाचार्यों द्वाग उसका उपयोग न करना इस बातका सूचक है कि उन्होंने बो कुछ किया वह उनकी स्वतः की मौलिक प्रतिभाका अंशदान था जिसके बहुत से उदाहरण धवला टीका तथा तिलोय-पण्णचीमें बिखरे पड़े हैं। दृष्टिवाद अंगके आधार पर जम्बूदीपकी परिधिका उल्लेखितरूप में कथन ही इस बात का सूचक है कि तिलोय-पण्णत्तिकी संरचनाके पूर्व ही, १० का उपयोग के लिये हो चुका था। तथा ख ख पदसंसस्स पुढं का गुणकार २३.५ निश्चित करना एक अति कठिन गणनाके आधार पर प्राप्त हुआ होगा । यदि यह गणना बौद्धायन के शुल्व सूत्र कालीन है तो बौद्धायन द्वारा निश्चित T= ३°०८८, का मान इससे स्थूल है । यूनान में, आर्कमिडीज़ का प्रयत्न अति प्रशंसनीय माना जाता है। उसने 1 का मान इस रूपमें निश्चित किया था: तथापि, वीरसेनाचार्य द्वारा उपयोग में लाया गया सूत्र, 'व्यासं षोडशगुणित........."चीन के सुशंग चिह ( Tsu-chung-ohih) के द्वारा दिये गये के प्रमाण से मिलता जुलता है, जो षोडश सहित को निकाल देने पर एक सा हो जाता है। वास्तव में यह अत्यंत सूक्ष्म प्रमाण है जहाँ = १५५%३.१४१५९३ आदि प्राप्त होता है। इसकी विधि चीन में प्राप्य नहीं है, तथापि उसका उद्गम वीरसेनाचार्य द्वारा दिये गये सूत्र में निबद्ध है। जहां वीरसेन ने यह सूत्र नवीं सदी में उलेखित किया है, वहां सुशंग चिहने प्रायः ४७६ ईस्वी पश्चात् में लिया है। इससे प्रतीत होता है, कि चीनियों ने १६ व्यास+१६. + ३ (ब्यास)- परिधि सूत्र को प्रथम पद में से १६ निकाल कर सुधार किया होगा। अथवा, भारत में वह सूत्र चीन से लिया गया हो, बो १६ अधिक होने से गलत रूप में सूत्र बद्ध हो गया हो। यह एक ऐतिहासिक महत्व रखता है तथा चीन से गणितीय सम्बन्ध की परम्परा स्थापित करता है। . तिलोय-पण्णची के चतुर्य अधिकार में गाथा १८० और १८१ में दिये गये स्त्र अति महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। ये सूत्र, जीवा और धनुष का प्रमाण निकालने के लिये हैं, गणना/१० के आधार पर इन सूत्रों की संरचना का प्रमाण मिलता है। जीवा के विषय में बिलकुल ऐसा ही स्त्र, जीवा - [(व्यास)-(व्यास - बाण)२] रूप में, बेबीलोन में अभिलेखों के आधार पर २६०० वर्ष ईस्वी पूर्व उपस्थित होना, हमें आचर्य में सल देता है। वहां का मान निश्चित रूप से ३ होना स्वीकृत हो चुका है। वहां पायथेगोरियन १ सम्बदीपप्रशस्ति में कुछ मिन मान है। भिन्नता हाथ प्रमाण से प्रारम्भ होती है और इसके पश्चात् प्रमाण का कथन नहीं है (१-२३)। २ति.प.४,५५-५६. ३Coolidge P. 16. Coolidge P. 61. 4 Coolidge P. 61. .६ इस सूत्र की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में डा. अवधेशनारायणसिंह के विचार देखने योग्य हैं जो उन्होंने "वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ", सागर, (वीर नि.सं. २४७६ ) में प्रकाशित अपने "भारतीय गणित के इतिहास के बैन-लोत" में पृष्ठ ५०३ पर व्यक्त किये हैं। । ७ बम्बूद्वीपप्राप्ति में इस रूप में सूत्र मिलता है-बीवा =V बाण (विष्कम्भ-बाण) २-२३, ६-९. ८Coolidge P. 7. Coolidge P. 6. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटीवपतिकी प्रस्तावना साध्य के आधार पर इस सूत्र का होना उपयुक्त है। धनुष के सम्बन्ध में बैनाचारों द्वारा दिया गया सूत्र का/१० मान लेने के आधार पर है, वो बेबीलोन में अप्राप्य प्रतीत होता है। सूत्रों की ऐसी क्रमबद्धता के आधार पर, मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानो Caneiform texts' की विधि २६०० वर्ष ईस्वी पूर्व निश्चित करना शंकास्पद है।।१० का मान रखकर, उपयुक्त दो समीकारों द्वारा, कुछ ऐसे सम्बन्ध प्राप्त किये पा सकते हैं जो हाइजिन्स ने धनुष और बीवा के बीच, टेलर के साध्य के आधार पर प्राप्त किये है। आश्चर्य है कि महावीराचार्य ने इन सूत्रों को कुछ दूसरे ही रूप में दिया है। धनुष की लम्बाई =V५ (बाण) + (बीवार अवधा के क्षेत्रफल निकालने के लिये महावीराचार्य ने यो सूत्र दिया है, क्षेत्रफल =(जीवा + वाण) वह चीन में चिठ-चांग सुआन चु (Chiu-Chang suan-dhu) अथ से लिया गया प्रतीत होता है, जिसकी तिथि पुस्तकों के बलाये जाने की घटना के कारण निर्णीत नहीं हो सकी है। वहां, उनसे भी पूर्व के अंथ तिलोय-पण्णची में धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल वापरावा/० रूप में प्राप्त होना आचर्यजनक है ।घूनान में, सिकन्दरिया के हेरन ने, इनके प्रमाण और कुछ प्राप्त किये हैं। .... इनके पश्चात् महत्वपूर्ण सूत्र अनुपात सिद्धान्त (Theory of proportion) सम्बन्धी है। यतिवृषभ ने इन्हें, गाथा १७८१ (महाधिकार चौथा), से लेकर गाथा १७९७ तक शंकु समच्छिन्नकों (frustrums of oone) की पार्श्वभुजाओं (Slant lines) के सम्बन्ध में व्यक्त किये हैं । इनके सिवाय, वेत्रासन तथा अन्य आकार के वातवलय सम्बन्धी क्षेत्रों (लोक का वेष्टन करनेवाले क्षेत्रों ) निकालने में बो विरूपण दिया है वह सिकन्दरिया के हेरन (ईसा की तीसरी सदी) के Baptox00 सम्बन्धी घनफल के निरूपण की तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है। इसके आधार पर वेत्रासन (छोटी वेदी) सदृश आकार के समंद्रों का वर्णन अन्य धर्मग्रंथों में भी मिलना मनोरंजक है, और उनमें सम्बन्ध स्थापित करना इतिहासकारों का कार्य है। पुनः लोक का घनफल विभिन्न आकारों के क्षेत्रों में व्यक्त करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जो पायथेगोरियन कालीन विधियों से सम्पर्क स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। चौये अधिकार में गाया २४०१ आदि का निरूपण हेरन की Anchoring या tore की स्मृति स्पष्ट करती है। हेरन ने एक समच्छिनक का घनफल दो विधियों से निकाला है, परन्तु वीरसेन ने शंक्वाकार मृदंग रूप लोक की धारणा को अन्यथा सिद्ध करने के लिये जिस विधि का प्रयोग किया है, वह अन्यत्र देखने में Coolidge P. 7. २ चम्बूदीपप्रशप्ति में इसका मान V६ (बाण) + (जीवा) दिया है (२-२८, ६-१०). गणितसारसंग्रह अध्याय ७, सूत्र ४३. .. ३ ति. प. ४, २३७४. ४ Heath vol. (II) PP. 330, 331. ५ जम्बूद्वीपप्रशप्ति ३।२१३-२१४; ४१३९, १३४-१३५, १०।२१, १।२८. ६ चम्बूद्वीपप्रशप्ति में इस सम्बन्ध में दी गई विधि तिलोयपण्णची में दी गई विधि के समान है (११-१०९). ७ गाथा २७० आदि, प्रथम महाधिकार! ८ Heath vol. (ii) P. 334, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित नहीं आई है। उस विधि से, घनफल निम्न लिखित श्रेदि का योग निकालने पर प्राप्त होता है जो बिलकुल ठीक है, र (न्याम) उत्सेध + (प. व्या,.उ. व्या २८ व्या १) व्या -व्या, उ व्या,-व्या.. ३. व्या३ - व्या)+ 'असंख्यात तक, क्योकि भविभागप्रविच्छेदों की संख्या, अंतिम प्रदेश प्राप्त करने तक अनन्त नहीं हो सकती है। हम अभी नहीं कह सकते कि यह विदारण विधि यूनानियों की विधियों के आधार पर है अथवा सर्वथा मौलिक है। बीरसेन ने क्षेत्र प्रयोग विधि के आधार पर जो बीजीय समीकारों का रैखिकीय निरूपण दिया है वह मी क्या यूनानसे लिया गया है, यह भी हम नहीं कह सकते; क्योंकि हो सकता है कि पारपरिमित गणात्मक संख्याओं के निरूपण के लिये ये विधियां भारत में पहिले भी प्रचलित रही हो। ज्योतिष सम्बन्धी एवं अन्य गणनायें त्रिलोक संरचना के विषय में कुछ भी कहना विवादास्पद है। यहाँ केवल दरियों के कथन तथा बिम्बों के अवस्थित एवं विचरण सम्बन्धी विवरण, पूर्वापर विरोध रहित एवं सुव्यवस्थित रखे गये हैं। रज्जु के कितने अच्छेद लिये जावे, इस विषयमें वीरसेन अथवा यतिवृषभ ने बिम्बों के कुल प्रमाण को परम्परागत ज्ञान के आधार पर सत्य मान कर, परिकर्म नामक गणित ग्रंथ में दिये गये कथन में 'रूपाधिक' का स्पष्टीकरण किया है। यह विवेचन वीरसेन अथवा यतिवृषमकी दक्षता का परिचय देता है। सातवें महाधिकार में चंद्रमा के बिम्ब की दूरी एवं विष्कम्भ के आधार, आंख पर आपतित कोण का माप आधुनिक प्राप्त सूक्ष्म मापों से १० गुणा हीन है"। गोलार्द्ध रूप चंद्रमा आदि के बिम्बों का मानना, उनकी अवलोकन शक्ति का द्योतक है, क्योंकि ये बिम्ब सर्वदा पृथ्वी की ओर केवल वही अर्द्धमुख रखते हुए विचरण करते हैं। सूर्य के विषय में आधुनिक धारणा धब्बों के आधार पर कुछ दूसरी ही है। उष्णतर किरणों तथा शीतल किरणों का क्या अर्थ है, समझ में नहीं आ सका है। इनका अर्थ कुछ और होना चाहिये, जिनके अधार पर, चंद्रमा आदि के गमन के कारण ही उसकी कलाओं का कारण सम्भवतः प्रकट हो सके (१) वृहस्पति से दूर मंगल का स्थित होना आधुनिक मान्यता के विपरीत है। गाथा ११७ आदि में समापन और असमापन कुंतल (Winding and Unwinding Spiral ) में चंद्र और सूर्य का गमन, सम्भव है, आर्क मिडीज के लिये कुंतल के सम्बन्ध में गणना करने के लिये प्रेरक रहा हो। पाययेगोरस के विषय में किसी सिकंदरियाके कवि ने प्रायः ३०० ई.पू. में कहा है “What inspiration laid forceful hold on Pythagoras when he discovered the subtle geometry of (the heavenly ) spirals and com १ षटखंडागम पु. ४, पृ. १५. २ षटखंडागम पु. ३, पृ. ४२-४३. ३ ति.प.७,३९. ४ Heath vol (ii) 64. तथा मन्सर के शिल्प शास्त्र के आधार पर लिखे गये ग्रंथ, The way of the Silpis" by G.K. Pillai (1948) के शिल्पीसूत्र में इस कुन्तल को द्यग्रस्थ सिद्ध किया गया है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना pressed in a small sphere the whole of the cirole which the aether embraces." पुनः, निम्न लिखित अवतरण विचारणीय है: "As regards the distances of the sun, moon and planets Plato has nothing more definite than the seven oiroles ‘in the proportion of the double intervals, three of each'' : the reference is to the Pythagorean tetsaxtyo represented in the annexed figure,... what precise estimate of relative distanoos Plato / 27 based upon these figures is uncertain." _ विविध गणनायें, गणित के प्रसंगानुसार, सुव्यवस्थित एवं उपयुक्त है। ग्रहों के सम्बन्धमें, उनके गमनविषयक शान का कालवध विनष्ट होना बतलाया है, तथापि वह अपोलोनियस तथा हिपरशस की खोली के आधार पर व्यवस्थित हो सकता है। जैनाचार्यों के चांद्र दिवस व मास के समान यूनान में भी एरिस्टरशस (Aristarchus) द्वारा २८१ अथवा. ई. पू. में, और हिपरशस द्वारा १६१ ई.पू.१२६ ई.पू. में चंद्र मास और चंद्र वर्ष की गणनाएं की गई थी। इसके सम्बन्ध में निम्न लिखित विचार पठनीय है। "We now learn that the length of the mean synodio, the sidereal, the anomalistic and the draconitio month obtained by Hipparchus agrees exactly with Babylonian cuneiform tables of date not later than Hipparchus, and it is clear that Hipparchus was in full possession of all the results established by Babylonian astronomy." परन्तु ; बहां तक पायथेगोरियन युग के बाद की (प्लेटो कालीन एवं उपरांत के) ज्योतिष का सम्बन्ध है, तिलोय-पण्णत्ती सदृश मूल ग्रंथ, उस यूनानी ज्योतिष के प्रभाव से सर्वथा अछते दृष्टिगत होते हैं। साथ ही, ऐसे ज्योतिष मूल ग्रंथों के भारतीय ज्योतिष के लिये प्रदत्त अंशदान सम्बन्धी विवेचन के लिये पाठकगण, पं० नेमिचंद्र जैन ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित "भारतीय-ज्योतिष का पोषक जैन-ज्योतिष" नामक लेख (जो 'वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ सागर में प्रकाशित हुआ है) देख सकते है। इस लेख में सुविश लेखक मुख्यतः निम्न लिखित निष्कर्षों पर पहुंचे प्रतीत होते हैं। (१) पञ्चवर्षात्मक युग का सर्व प्रथमोल्लेख जैन ज्योतिष-ग्रंथों में प्राप्त होना । (२) अवम-तिथि क्षय सम्बन्धी प्रक्रिया का विकास जैनाचार्यों द्वारा स्वतन्त्र रूप से किया जाना । (३) जैन मान्यता की नक्षत्रात्मक ध्रुवराशि का वेदाङ्गज्योतिष में वर्णित दिवसात्मक ध्रुवराशि से सूक्ष्म होना तथा उसका उत्तरकालीन राशि के विकास में सम्भवतः सहायक होना । (४) पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने की विकसित जैन प्रक्रिया, जैनेतर ग्रंथों में छठी शती के बाद दृष्टिगत होना। (५) जैन ज्योतिष में सम्वत्सर सम्बन्धी प्रक्रिया में मौलिकता होना । THoath rol. (i)P.163. Heath vol. I. P.313. ३ Hoath vol. (i) PP.264,265. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोपपण्णत्तिका गणित ( ६ ) दिनमान प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रिया में, पितामह सिद्धान्त का जैन प्रक्रिया से प्रभावित प्रतीत होना । (७) छाया द्वारा समय निरूपण का विकसित रूप इष्ट काल, भयाति आदि होना । यहाँ मन्सर ( सम्भवतः ५००-७०० ईस्वी पश्चात् अथवा इससे कुछ पूर्व १ ) के शिल्प शास्त्र पर आधारित भी पिल्लई के खोजपूर्ण ग्रन्थ, “The way of the Silpis” ( 1948 ) में वर्णित ज्योतिष सम्बन्धी खोजों का उपर्युक्त के साथ तुलनात्मक अध्ययन सम्भवतः उपयोगी सिद्ध हो । इनके अतिरिक्त आतप और तम क्षेत्र तथा चक्षुस्पर्शध्वान सम्बन्धी कथन, गणना के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। इन सब अवधारणाओं के हेतुओं का सिद्धान्तबद्ध स्पष्टीकरण करना, इस दशा में अशक्य है । मुख्यतः त्रिलोकप्रशति विषयक गणित का यह कार्य, परम श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जैन के सुसंसर्ग में समय समय पर प्रबोधित होकर रचित हुआ है। उनके प्रति तथा जिन सुप्रसिद्ध निस्पृही लेखकों के ग्रंथों की सहायता लेकर यह कार्य किया गया है उनके प्रति भी हम आभार प्रकट करते हैं। निर्देशित ग्रंथ एवं ग्रंथकारों की सूची (१) भी यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोय पण्णत्ती भाग १, २. - ति. प, ३ १७ सम्पादक प्रो. हीरालाल जैन, प्रो. ए. एन्. उपाध्ये, १९४२, १९५०. (२) भी धवला टीका समन्वित षट्खंडागम पुस्तक ३, पुस्तक ४. सम्पादक हीरालाल जैन, १९४१, १९४२. (३) A History of Geometrical methods, by Julian Lowell Coolidge Edn. 1940. (४) A History of Greek Mathematics, part I & II. by sir thomas Heath, Edn, 1921. (५) History of Hindu Mathematics, Part I & II. by Bibhutibhusen Datta, & Awadhesh Naryan singh, Edn. 1935, 1938. (E) Abstract Set theory, by Abraham A. Fraenkel, Edn. 1953. () The Mathematical Theory of Relativity by A. S. Eddington Edn, 1923. (c) The Development of Mathematics by E. T. Bell. Edn. 1945. (९) तत्त्वार्थरामवार्तिक, 'श्री अकलंकदेव' (१०) Relativity and commonsense. by F. M. Denton. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती ( प्रथम महाधिकार गा. ९१ ) श्रेणी का मान ७ राजू होता है। राजू एक असंख्यात्मक दूरी का माप है। इसीलिये जगश्रेणी को दर्शाने के निमित्त ग्रंथकार ने प्रतीक की स्थापना की जो कि अंग्रेजी के Dash (-) के समान है। इस जगश्रेणी का घन करने पर लोकाकाश का घनफल प्राप्त होता है। जगश्रेणी का घन ग्रंथकार ने एक के नीचे एक स्थापित तीन आदी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया है (E) इन तीन आड़ी रेखाओं का अर्थ तीन नगश्रेणी नहीं, किन्तु जगश्रेणी का घन होता है । परस्पर गुणन के लिये यह प्रतीक असाधारण है । = १६ ख ख ख इस प्रतीक के स्पष्टीकरण का निम्न प्रकार से अनुमान किया जा सकता. है। = यह लोकाकाश की स्थापना है जो एक (१) है। लोकाकाश स्थापना १ के बाद है। तत्पश्चात् ख ख ल की स्थापना अनंतानंत बहुमध्य भाग में यह लोकाकाश स्थित है। बहुमध्य भाग के कथन से नन्ते रूप में विस्तृत आकाश का मध्य निश्चित किया जा सकता है। बिलकुल ही अनिश्चित प्रमाण नहीं माना गया, जैसी कि आज के गणितशों की धारणा है। । सहित पांच द्रव्य ६ हुए, जिसकी अलोकाकाश के लिये है, जिसके यह अर्थ निकलता है कि अनन्तातात्पर्य यह कि अनन्तान्त एक (गा. १, ९३ - १३२ ) [ जो कि एक दिश माप ( Linear Measure ) दूरत्व के माप के लिये उवसन्नासन्न नाम से प्रसिद्ध एक दूरत्व की इकाई ( Unit ) माना गया है। इस स्कंध की रचना नाना द्रव्यों से होती मानी गई है। इस स्कंध के अविभागी अंश को भी परमाणु जगश्रेणी का प्रमाण प्रदर्शित करने के लिये है ], अन्य ज्ञात मापों की परिभाषायें दी गई हैं। स्कंध अथवा उसके विस्तार को प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु १ इस सम्बन्ध में आक्सफोर्ड के प्रसिद्ध गणितज्ञ F. H. Bradley के विचार निम्न प्रकार हैं "We may be asked whether Nature is finite, or infinite if Nature is infinite, we have the absurdity of a something which exists, and still does not exist. For actual existence is, obviously, all finite. But, on the other hand, if Nature is finite, then Nature must have an end, and this again is impossible. For a limit of extension must be relative to an extension beyond, And to fall back on empty space will not help us at all. For this (itself a mere absurdity) repeats the dilemma in an aggravated form. But we can not escape the conclusion that Nature is infinite. Every physical world is essentially and necessarily infinite." The Encyclopedia Americana, Vol. 15, p. 121, Edn. 1944, "With the intrusion of irrational numbers to disrupt the integral harmonies of the Pythagorean cosmos, a controversy that has raged of and on for well over two thousand years began: is the mathematical infinite a safe concept in mathmatical reasoning, safe in the sense that contradictions will not result from the use of this infinite subject to certain prescribed conditions (The 'infinities' of religion and philosophy are irrelevant for mathematics )"-Development of Mathematics, E. T. Bell, Page 548, ३ अंथकार द्वारा प्रतिपादित परमाणु का अर्थ अन्यथा न ले लिया जाये, तथैव श्री जी. आर. जैनी की Cosmology Old and New के ९४ वें पृष्ठ पर दिया गया यह अवतरण पढ़ना लाभदायक होगा - "It follows that a paramanu can not be interpreted and should not be inter Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित कहा गया है और एक स्कंध के अर्द्ध भाग को देश तथा चतुर्थ भाग को प्रदेश कहा गया है। स्कंध के अविभागी अर्थात् जिसका और विभाग न हो सके ऐसे अंश को परमाणु कहा है ( गाया ९५ )। यह परमाणु आकाश के बितने क्षेत्र को घेरे (रोके ) उसको प्रदेश कहते हैं। अन्य मापों का निरूपण इस भांति है८ उवसनासन्न स्कंध १ सन्नासन्न स्कंध ८ सन्नासन्न स्कंध १ त्रुटिरेणु स्कंध ८ त्रुटिरेणु " १ त्रसरेणु " ८ त्रसरेणु " १ रथरेणु " ८ रथरेणु " १ उत्तम भोगभूमि का बालान ८ उ. भो. वा. १ मध्यम मोगभूमि" " ८म. भो. बा. १ जघन्य " " " ८. भो. बा. १ कर्मभूमि का बालाग्र ८ कर्मभूमि के बालान १ लीक ८ लीके १ अंगुल इस परिभाषा से प्राप्त अंगुल, सूची अंगुल (सूच्यंगुल) कहलाता है, जिसकी संदृष्टि ( Sym. bol) २ मान ली गई है। यह अंगुल उत्सेध सूच्यंगुल भी कहा जाता है, जिसे शरीर की ऊंचाई आदि के प्रमाण जानने के उपयोग में लाते हैं। पांच सौ उत्सेध अंगुलों का एक प्रमाणांगुल माना गया है जिससे दीप, समुद्र, नदी, कुलाचल आदि के प्रमाण लेते हैं। एक और प्रकार का अंगुल, आत्मांगुल भी निश्चित किया गया है जो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में होनेवाले मनुष्यों के अंगुल प्रमाणानुसार भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न हुआ करता है। इसके द्वारा छोटी वस्तुओं (जैस झारी, तोमर, चामर आदि) की संख्यादि का प्रमाण बतलाते हैं। बहां जिस अंगुल की आवश्यकता हो, उसे लेकर निम्न लिखित प्रमाणों का उपयोग किया गया है ६अंगुल-१ पाद: २ पाद-१ वितस्ति: २वितस्ति-१ हाथ: २हाथ:१रिक्क. २ रिक्क-१दण्ड; १ दण्ड या ४ हाथ-१ धनुष -१ मूसल =१ नाली: २००० धनुष = १ क्रोश ४ कोश = १ योजन. reted as the atom of modern Chemistry, although originally the word was invented by the Greek philosopher Democritus ( 420 B.C.) to denoto something which oonld not be sub-divided (atom-a, not%3 ceuva I out).........But since the stom of chemistry has now been proved to be & Conglomeration of proton, neutrons and electrons, I venture to suggest that Parmanus are really these elemontary particles wich exist by themselves, or if at any future date & subelectron were to be dis. covered that should then be interpreted as the Paramang of the Jains." ... १ प्रदेश को त्रिविम आकाश (Three Dimensional Space ) की इकाई माना गया है बिसे पदार्थों का क्षेत्रमाप लेने के उपयोग में लाते हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णतिकी प्रस्तावना इसके आगे बढ़ने के पहिले यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इस योजन की दूरी आब-कल के रैखिक माप में क्या होगी? यदि हम २ हाथ-१गज मानते हैं तो स्थूल रूप से १ योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५४५ मील ( Miles) के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम १ कोश को आजकल के मील के समान लें, तो १ योजन ४००० मील ( Miles) के बराबर प्राप्त होता है। कर्मभूमि के बालाग्र का विस्तार आज-कल के सूक्ष्म यंत्रों द्वारा किये गये मापों के अनुसार इंच से लेकर इंच तक होता है। यदि हम इस प्रमाण के अनुसार योजन का माप निकालें तो उपर्युक्त प्राप्त प्रमाणों से अत्यधिक भिन्नता प्राप्त होती है । बालाग्र का प्रमाण पईच मानने पर १ योजन ४९६४८४८ मील प्रमाण आता है। कर्मभूमि का बालाग्राइच मानने से योवन ४७२७२ मील के बराबर पाया बाता है। बालान को इंच प्रमाण मानने से योजन का प्रमाण और भी बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में, हम १ योजन को ४५४५४५ मील मानना उपयुक्त समझकर, इस प्रमाण को आगे उपयोग में लावेंगे। (गा. १, ११६ आदि) पल्य की संख्या निश्चित करने के लिये ग्रंथकार ने यहां बेलन (पृ. २१ पर आकृति-१ देखिये) का घनफल निकालने के लिये सूत्र दिया है बो Trh के ही समान है। प्रथम, लम्ब वर्तुलाकार ठोस बेलन के आधार का क्षेत्रफल निकालने के लिये उसकी परिधि को प्राप्त किया है। परिधि को प्राप्त करने के लिये व्यास को V१० से गुणित किया है, अर्थात् पाराम की निष्पत्ति को V. माना है, जो ३.१६२२... के बराबर प्राप्त होता है। इसका उपयोग प्रायः सभी जैन शास्त्रों में वहां वृत्त क्षेत्र का गणित आया है, किया गया है। ईसा से सहस्रों वर्ष पूर्व भी इस प्रमाण के भिन्न भिन्न रूप उपयोग में लाये गये। ईसासे १६५० वर्ष पूर्व मिश्र के आहम्स के पेपीरसमें इस प्रमाण को ३.१६०५ लिया गया है। भास्कराचाये ने भी स्थूल मान के लिय/१० उपयाग किया है। 'व्यास १एच. टी. कालत्रक ने अनुमान रूप से लिखा है. “Braumgupta gave Vio which is eqnal to 3:1622....... Ho is said to have obtained this value by insoriving in a circle of unit diameter regular polygons of 12, 24, 48 and 96 siues & ouduulating successively their perimeters which he found to be V 9-68, V 9.81, V 9.86, V98-7 respootively and to have assumed that as number of sidos is increased inaefinitely, the yerimoter would approximate to V10". ब्रह्मगुप्त (६२८ वा सदी) और भास्कर ( १९५० वीं सदी) की बीजगणित के अनुवाद में पृष्ठ १.८ अध्याय १२ वा अनुच्छेद ४०. ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रीस में एंटीफोन के द्वारा ईसा से प्रायः ४०० वर्ष पूर्व दी गई Method of Exhaustion (निश्शेषण की रीति ) से भारतीयों ने प्रेरणा ली है। क्योंकि, भी सेनफोर्ड ने "This was the method of exhaustion, due in all probability to Antiphon (0430 B.O). This method was developed in connection with the quadrature' of the circle. It consisted of doubling & rodoubling the number of sides of a regular inscribed polygon, the assumption being that, as this process continued, the Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित २१ इस प्रकार प्राप्त करणी गत (irrational ) राशि को ग्रंथकार ने मान लिया है। त्रिज्या ३ है, जिसका वर्ग, प्राप्त हुआ। ऊँचाई १ योजन है। इस प्रकार घनफल ३१ प्राप्त किया गया है। मिन्न ३१ को लिखने के लिये आवकल के भिन्नों को लिखने की रीति का उपयोग नहीं होता था, वरन् २५ का अर्थ ३१ लेते थे। इस. माप के गड्ढे को विशिष्ट मैदे के रोमों के अविभागी: खंडों से भरे तो उन खंडों की संख्या जितनी होगी वह व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या है। अथवा ३१ घन प्रमाण योजनों में जितने उत्तम भोगभूमि के वालाग्र होते हैं वह संख्या है। यहां संख्या निदर्शन के लिये रैखिकीय निरूपण प्रशंसनीय है। भाकृति -१ (गा. १, १२३-२४) इन रोमों की संख्या=३३ (४) ४(२०००)3x(४)' ४(२४) ४(५००) ४(८)" प्राप्त होती है। यह गणना करने के लिये ग्रंथकार ने अपने समय में प्रचलित व्यवहार गणित का उपयोग किया है। इस गुणन क्रिया को तीन पंक्तियों में लिखा गया है जिनमें परस्पर गुणन करना है। गुणन का कोई प्रतीक नहीं दर्शाया गया है, केवल एक खड़ी लकीर का उपयोग प्रत्येक संख्या के पश्चात् किया है जो गुणन का प्रतीक हो भी सकती है और नहीं भी। एक पंकि यह है 801९६/५००1८1८1८1८1८1८1८1८। इत्यादि 80 इस प्रतीक का अर्थ यह प्रतीत होता है कि गुणन के पश्चात् प्रथम पंक्ति में तीन शून्य बदा दिये खावें। इसका गुणन किया जाय तो वह (१०००)४९६४५००४(८) के सम होगा। ऐसी ऐसी तीन पंक्तियां ली गई जिनका आपस में गुणन करने से एक संख्या प्राप्त की है बिसे मूल ग्रंथ में दहाई अथवा स्थानाऱ्या पद्धति ( Place value notation) का उपयोग करके शन्दों में और फिर अंकों में लिखा गया है। शब्दों में सबसे पहिले इकाई के स्थान और तब दहाई, सैकड़े आदि के स्थानों का उल्लेख किया गया है। व्यवहार पख्य से व्यवहार पल्योपम कालको निकालने के लिये व्यवहार पस्य राशि में १०० का गुणा करते हैं। बो राशि उत्पन्न होती है उतने वर्षों का एक व्यवहार पल्योपम काल माना गया है। इसके पश्चात् उदार पल्य =(व्यवहार पल्य-असंख्यात करोड़ वर्षों के समयों की राशि) differonos in area between the circle and the polygon would at last be exhausted." "A Short History of Mathematica" p. 310. भी बेल ने अपना मत व्यक्त किया है "The Greeks called it exhaustion ; Cavalieri in the seventeenth centary Oalled it the method of indivisibles and, as will appear in the proper place, got no closer to proof than the 'anoient Egyptions of at latest 1860 B. C. To us it is the theory of limits &, later, the integral, calculus." -Development of Mathematics p. 43. Edn. 1945. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना जितना गुणनफल प्राप्त हो उतने समयों का एक उद्धार पल्योपम माना गया है। यह गुणनफल राशि उद्धार पल्य कही गई है। और फिर अद्धा पस्य=(उद्धारपल्य राशि: असंख्यात वर्षों के समयों की राशि) जितना गुणनफल प्राप्त हो उतने समयों का एक अद्धा पल्योपम माना गया है और इस गुणनफल राशि को अद्धा पल्य माना गया है। इसे पल्य भी कहा गया है। इसके आगे १० कोडाकोड़ी व्यवहार पल्योपम-१ व्यवहार सागरोपम १. कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योपम=१ उद्धार सागरोपम १० कोड़ाकोड़ी अदा पल्योपम-१ अद्धा सागरोपम (गा. १. १३१) अब सच्यंगुलादि का प्रमाण निकालने के लिये अर्द्धच्छेद का उपयोग किया है। यह रीति गणन को अत्यन्त सरल कर देती है। छेदागणित का' प्रचुर उपयोग नवीं सदी के वीरसेनाचर्य द्वारा धवला टोका में हुआ है। आजकल की संकेतना में यदि किसी राशि य (x) के अर्द्धच्छेद प्राप्त करना हो तो य के अर्द्धच्छेद - छे.य अथवा Log,x होंगे। वास्तव में किसी संख्या के अर्द्धच्छेद उस संख्या के बराबर होते हैं जितने बार कि हम उसका अर्द्धन कर सकें। उदाहरणार्थ, यदि हम २ = य लें तो य के अर्द्धच्छेद अ होंगे। यदि अद्धापल्य के अद्धच्छेद Log,P से दर्शाया जाय, (जहां P अद्धापस्य है) तो जगश्रेणी = [ घनांगुल ( LogsP/असंख्यात ) __ और सूयंगुल = [P ( Log.P) इस तरह से प्राप्त सूच्यंगुल का प्रतीक पहिले की भांति २ और बगश्रेणी का प्रतीक एक आदी रेखा (-) दिया है। जगश्रेणा का मान इस सूत्र से निकाला जा सकता है, पर प्रश्न उठता है कि १जैनाचार्यों के द्वारा उपयोग में लाये गये छेदागणित को यदि आजकल की Logarithms (Gk : logos = reckoning, arithmos = number) की गणित का सर्वप्रथम और कुछ दृष्टियों से सदृश रूप कहा जाय तो गलत न होगा। इस गणित के दो स्वतंत्र आविष्कारक माने जाते हैंएक तो स्काटलैंड के बेरन नेपियर (१५५०-१६१७) और दूसरे प्रेग देश के जे. बी (१५५२१६३२)। इस गणित के आविष्कार के विषय में गणित इतिहासकार सेनफोर्ड का मत है, “The discovery of logarithms, on the other hand, has long been thought to have been independent of contemporary work, and it has been characterised as standing 'isolated, breaking in upon human thought abruptly without borrowing from the work of other intelleots or following known lines of mathematioal thought." -A short history of mathematios, P. 193. २ आब की संकेतना में यदि बेरन नेपियर के अनुसार n के Logarithm के प्रमाण को दर्शाया जाय तो वह 10 Loge (10'.n-1) होगा । यहाँ, प्रोफेसर प्लेफेअर के शब्दों में यह अभिव्यञ्जना स्पष्टतर हो जावेगी। __ "The numbers which indicate (in the Arithmetical Progression) the places of the terms of the Geometrical Progression are called by Napier, the logarithm of those terms."-Bulletin of Calcutta Mathematioal Society vol. VI.1914-16. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित २३ असंख्यात वर्षों की राशि कितनी ली जाय, क्योंकि असंख्यात कोई विशिष्ट संख्या नहीं है, किन्तु सीमा रूप दो असंख्यात संख्याओं के बीच में रहनेवाली कोई भी संख्या है। (गा. १,१३२) इसके पश्चात् प्रतगंगुल = (सूच्यगुल)२-४ (प्रतीक रूपेण ) और घनांगुल %3D (सूच्यंगुल) =६ (प्रतीक रूपेण ) इस स्पष्टीकरण से ज्ञात होता है कि लिये हुए प्रतीकों में साधारण गणित की क्रियायें उपयोग में नहीं लाई गईं, जैसे सूच्यंगुल का प्रतीक २, तो सूच्यंगुल के घन का प्रतीक ८ नहीं, अपि तु ६ लिया गया। इसी प्रकार जगप्रतर का प्रतीक () और जगश्रेणी का घन लोक होता है, जिसका प्रतीक (=) है। इस प्रकार की प्रतीक-पद्धति के विकास को हम जर्मनी के नेसिलमेन के शब्दों में Syncopated और Symbolio Algebra का मिश्रण कह सकते हैं। _जगश्रेणी इसके पश्चात् राजू' का प्रमाण = Raju ( Chain, a linear astrophysical measure ), is according to Colebrook, the distance which a Deva flies in six months at the rate of 2,057, 152 Yojanas in one क्षण, ie. instant of time. -Quoted by von Glassnappin "Der Jainismus". -Foot Note-Cosmology old & New p. 105, इस परिभाषा के अनुसार राजु का प्रमाण इस तरह निकाला जा सकता है-६ माह(५४००००)x६४३०४२४४६० प्रति विपलांश या क्षण क्योंकि, ६० प्रति विपलांश = १ प्रति विपल ६० प्रति विपल = १ विपल ६० विपल = १ पल ६० पल = १ घड़ी =२४ मिनिट (कला) .:. १ मिनिट ( कला ) = ५४०००० प्रतिविपलांश और १ योजन = ४५४५४५ मील ( या क्रोशक ) लेने पर, .:. ६ माह में तय की हुई दूरी = ४५४५.४५ x २०५७१५२ x६x३०४२४४६०४५४०००० मील ...१राजू = (१.३०८६६६६२...)४(१०)२१ मील श्री जी. आर. जैनी ने डॉ. आइंसटीन के संख्यात ( Finite.) लोक की त्रिज्या लेकर उसका घनफल निकाल कर लोक के घनफल (३४३ घन राजु) के बराबर रखकर राजु का मान १.४५४(१०)२१ मील निकाला है जो उपर्युक्त राजु मान से लगभग मिलता है । पर डॉ. आइंसटीन के संख्यात फैलनेवाले लोक की कल्पना को पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है-वह केवल कछ उपधारणाओं के आधार पर अवलम्बित है। भिन्न २ कल्पनाओं के आधार पर भिन्न २ लोकों ( universes ) की कल्पनायें कई वैज्ञानिकों ने की हैं । रिसर्च स्कालर पंडित माधवाचार्य ने राजू की परिभाषा निम्न तरह से कही है-"एक हजार भार का लोहे का गोला, इंद्रलोक से नीचे गिरकर ६ मास में जितनी दूर पहुँचे उस सम्पूर्ण लम्बाई को एक राजू कहते हैं।"-अनेकान्त vol.1,3. इस तरह दी गई परिभाषा से राजू की गणना नहीं हो सकती, क्योंकि इन्द्रलोक से वस्तुओं (Bodies) के गिरने का नियम ज्ञात नहीं है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णप्तिकी प्रस्तावना प्रतीक रूप में राजू को (७) लिखा जाता है। (गा. १,१४९-५१) 'वर्ग आधार पर स्थित त्रिलोक के चित्र के लिये आकृति-रादेखियेस्केल:- सें. मी. . रा. यहां, अर्व लोक, लारवयो. ..... 800000 मी. मध्यलोक (काले. रंगवारा प्रदशित) १००००० यो.४१रा.xरा., एवं अधोलोक स्पष्ट है। आझंति-२ वाहल्य ७ रा. अर्थात् ७ राजु है। ऊँचाई १४ राजु है। अवलोक की ऊँचाई ७ रिण बो. १००००० लिखा है। अर्थात् ग्रंथकार के समय में ऋण के लिये कोई प्रतीक नहीं रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। ऋण और धन के लिये क्रमशः आड़ी रेखा (-) और (+) प्रतीकों के आविष्कार का श्रेय बर्मनी के जे.विडमेन (१४८९) को है। ग्रंथकार ने दूसरी जगह रिण के लिये रि. का उपयोग भी किया है। धवलाकार वीरसेन ने मिश्र शब्द के लिये + प्रतीक दिया है। (गा. १, १६५) अधोलोक का घनफल निकालने के लिये लम्ब संक्षेत्र ( Right Prism ) का पनफल निकालने का सूत्र दिया है, जिसका आधार समलम्ब चतुर्मुत्र है। वह सूत्र है-(भाषार का क्षेत्रफलx संक्षेत्र की ऊँचाई ) संक्षेत्र का घनफल | आधार का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र दिया गया है। [मुख भूमि (इन दो समांतर रेखाओं की लम्ब दूरी)] १मित देश के गिजे में बने हुए महास्तप (Great Pyramid से या लोकाका का आकार किंचित् समानता रखता हुआ प्रतीत होता है। विशेष सहसम्बन्ध के विवरण के लिये सन्मति सन्देश, वर्ष १, अंक १३ आदि देखिये। २ षटर्खागम पुस्तक ४, पृष्ठ ३३०,ई. स. १९४२. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोयपण्णत्तिका गणित यह सूत्र आज भी उपयोग में लाया जाता है । (गा. १, १६६) अधोलोक का घनफल = x पूर्ण लोक का घनफल' । (गा. १, १६९) अवलोक का धनफल भी इसी विधि के आधार पर दो वेत्रासनों में विदीर्ण कर निकाला गया है। (गा. १, १७६-७९) इन गाथाओं में समानुपाती भागों के सिद्धान्त का उपयोग है। आकृति ३ में क ख ग घ एक समलम्ब चतुर्भुज है जिसमें कख और गप समांतर है तथा कष और खग 4 . बराबर है। कख का माप और घग का माप b है। से कख भूमि और घग मुख है। आाति यदि कस से उसी के समांतर d, ऊँचाई पर मुख की प्राप्ति करना हो तो सूत्र दिया है, .-[-]d=b, वहाँ b, चछ है। इसी प्रकार, -4-Pld = b, और साधारण रूप से, १ जंबूदीपप्राप्ति ११, १०९-१०. २ ये विधियाँ और नियम बबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी उल्लेखित हैं । १।२७ ४.३९% १०१२१. ३ समानुपात के सिद्धान्त के आविष्कार के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेखनीय है, " It is true that we bave no positive evidence of the use by Pythagoras of proportions in geometry, although he must have been conversant with similar figures, which imply some theory of proportion". ga:, "The anonymous author of a scholiam to Euclid's Book V, who is perhaps Prodlus, tells us that 'some say' that this Book, containing the general theory of proportion which is equally applicable to geometry, arithmetic, music and all mathematical science, 'is the discovery of Eudoxus, the teacher af Plato.' 3-Heath, Greok Mathematios, Vol. 1, pp. 85 & 325, Edn. 1921. साथ ही, कम से कम २१३ ईस्वी पूर्व के अभिलेखों के आधार पर, इस सम्बन्ध में चीनी अभिज्ञान पर कूलिज का अभिमत यह है, "The Chinese, be it noted, wore familiar with the properties of similar triangles and invented many problems connected with them”. -Coolidge, A History of Geometrical Methods, p. 22, Edn. 1940 ति. ग.४ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना a-2- d. = bn, जहाँ d, कोई भी इच्छित ऊँचाई है, और मुख b है। इसी प्रकार आकृति-४ में वही आकृति है और पग के समांतर किसी विवक्षित निचाई पर भूमि निकालने का साधारण सूत्र लिखा जा सकता है। b+[b]d=an. इस प्रकार, भूमि ७ राजु (१ बगभ्रेणी) तथा मुख १ राजु लेकर ग्रंथकार ने ऊँचाई सात राजु को आकृति-४ १राजु प्रमाण से विभक्त कर सात पृधियाँ प्राप्त कर उनके मुख और भूमि उपर्युक्त सत्र से निकाले हैं। फिर, उनका घनफल अलग अलग लम्ब संक्षेत्र (बिसका आधार समलम्ब चतुर्भुज है) सूत्र द्वारा निकाला है। इस रीति से कुल घनफल का योग १९६ धन राजु बतलाया है। (गा. १, १८०-८३) अधोलोक का घनफल एक और रीति से निकालकर बतलाते हैं। आकृति ५ में लोक के अंत स्केल- १em. - राग अर्थात् क ख से दोनों पार्श्वभागों अर्थात् कप और ख ग की दिशाओं से, क्रमशः ३ राजु, २ राजु और १ राजु भीतर की ओर प्रवेश करने पर उनकी क्रमशः ७ राजु, राजु और राजु ऊँचाईयाँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार यह क्षेत्र, भिन्न भिन्न आकृतियों के क्षेत्र में विभक्त हो जाता है। ये आकृतियों त्रिभुज और समलम्ब चतुर्भुज है, तथा मध्य क्षेत्र आयत जस गप है। ऐसे क्षेत्रों के क्षेत्रफल निकालने के लिये दो सूत्र दिये गये हैं। त्रिकोण क च य का क्षेत्रफल निकालने के लिये समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने के उपयोग में आकृति लाये जानेवाले सूत्र का उपयोग है। १ इस सम्बन्ध में मिश्र में प्रचलित विधि के विषय में यह विवादास्पद मत है "The triangles in their pictures look like long and undernoarishod isosceles triangles, and some commentators have assumed that the Egyptians believed that the area of an isosc: Ics triangle is one-half the product of two unoqual sides.” -Coolidge, A History of Geometrical Methods, p 10, Edn. 1940. २ इस सूत्र को महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह के सातवें अध्याय में ५० वीं गाथा द्वारा निरूपित किया है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोयपण्णत्तिका गणित यहाँ भुजा च मान ली जाय तो इस समकोण त्रिभुज का क्षेत्रफल = ( 22 ) सम्मुख भुजा शून्य होगी और ऊँचाई व थ होगी, इसीलिये वर्ग राजु प्राप्त होता है । दूसरा सूत्र इस प्रकार है-. बाहु युक्त क्षेत्र क च थ है। यहाँ ध्यास क च तथा लम्ब बाहु च थ मान लेने पर, क्षेत्रफल = = व्यास बाहुXT होता है । """ सूत्र का प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार क च थ प्रथम अभ्यंतर क्षेत्र, च छ त थ द्वितीय, और छ ज ष त तृतीय अभ्यंतर क्षेत्र हैं जिनके क्षेत्रफल क्रमशः हैं, और वर्ग राजु हैं । चूँकि प्रत्येक का बाहल्य ७ राजु है इसलिये इन तीनों क्षेत्रों का ( ओ माय लेने से सांद्र क्षेत्रों ( सम्म क्षेत्र) में बदल जाते हैं उनका ) घनफल क्रमशः हे २४३ और ४०३ घन राजु होता है। इसी तरह, पूर्व पार्श्व ओर से लिये गये क्षेत्रों का घनफल होता है। शेष मध्य क्षेत्र का घनफळ १७४७ = ४९ पन राजु होता है। सबका योग करने पर १९६ पन राजु अधोलोकका घनफळ प्राप्त होता है। शेष क्षेत्रों के लिये “भुज- पडिभुजमिलिदर्द्ध' of (गा. १, १८४-१९१ ) अधोलोक का घनफल निकालने के लिये तीसरी विधि भी है ( आकृति - ६ देखिये ) | स्केल:- १.०.०५.१ इस प्रशंसनीय विधि में क्षेत्र क ख ग घ में से १ वर्ग राजुवाले १९ क्षेत्रों को अलग निकाल कर शेष आकृतियों का क्षेत्रफल निकाला गया है और अंत में प्रत्येक के ७ राजु बाहुल्य से उन्हें गुणित कर अंत में सबका योग कर अधोलोक का घनफल निकाला गया है। आकृति में छाया वर्ग अलग दर्शाये गये हैं और बची हुई भुजायें समानुपात के प्रमेय द्वारा निकाल कर क्रमशः ऊपर से दोनों पावों में है,, 3,,, तथा डु अंत में उ या १ राजु प्राप्त की गई हैं। लोक के अंत की आकृति ख त थ द का क्षेत्रफल : [{ (1+3) +२ } x दय ] वर्ग राजु है, और घनफळ {(ě+उँ) ÷ २ } x १ x ७ घन राजु है। इसी प्रकार, समस्त शेष क्षेत्रों का घनफल, ६१ धन राजु प्राप्त होता है। इसमें १९ वर्ग क्षेत्रों का घनफल १९४७ = ११३ घन राजु जोड़ने पर कुल १९६ घन शत्रु, अधोलोक का घनफल प्राप्त होता है। = ५. * 1 म · br ... T. देश. २७ रा. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णन्तिकी प्रस्तावना (गा. १, १९३-९९ ) समानुपात के नियम के अनुसार भूमि से १३, १३, ३, " ..... आदि ऊँचाइयों पर उपर्युक्त नियम द्वारा विभिन्न मुखों के प्रमाण निकाले गए हैं जो आकृति -७ में दिये गये हैं । इसी प्रकार, यहाँ समलम्ब चतुर्भुज आधारखाले ९ लम्ब संक्षेत्र प्राप्त होते हैं जिनके घनफलों का योग करने पर ऊर्ध्व लोक का घनफल १४७ घन राजु प्राप्त होता है । स्केल:- १c.M. - १. ઢ नौग्रेविकसी भारण भारत सहस्त्रार महाशुक्र काष्ठ ब्रहोत्तर माहेन्द्र सौधर्म आकृति ७" आकृति Cals मूद नयन मलय जुल स्केल:- १ WIT (गा. १, २००-२०२ ) ( आकृति - ८ में ) पूर्व और पश्चिम से क्रमशः १ राजु और २ राजु ब्रह्म स्वर्ग के उपरिम भाग से प्रवेश करने पर स्तम्भोत्सेध क्रमशः क ख = राजु और ग घ = राजु प्राप्त होते हैं। शेष प्रक्रिया इस प्रकार है। कि च क ख क्षेत्र का क्षेत्रफल 3r = १××2 . च क ख संक्षेत्र का घनफल =१×ट्टै××७= = ६८ घन राजु इसी तरह संक्षेत्र क ख घग का घनफल - [+]×× = = १८है घन राजु = ३ ( संक्षेत्र च क ख ) इनके योग का चौगुना करके उसमें अवशेष मध्यभाग का घनफल जोड़ कर ऊर्ध्व लोक का घनफल निकाला गया है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित (गा. १, २०३-१४) . स्के ल:-१.m. - १. नौग्रेविकमी आरणमानत उस *कुल आकृति-९ में ऊर्व लोक को पूर्व पश्चिम से, ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के ऊपर से क्रमशः १ और २ राजु प्रवेश कर स्तंभों द्वारा विभक्त कर दिया है। इस प्रकार विभक्त करने से बाल छोटी भुजायें चित्र में बतलाये अनुसार शेष रहती है । निम्न लिखित स्पष्टीकरण से, इस छेदविधि द्वारा निकाला गया ऊर्ध्व लोक का घनफल स्पष्ट हो जावेगा। (प्रत्येक क्षेत्र का बाहल्य ७ राजु है) सौधर्म के त्रिभुज (बाह्य क्षेत्र) का धनफल =xsx३४७% ४३ घन राजु । सानाकुमार के बाल और अभ्यन्तर क्षेत्रों का घनफल =(23+9३४७४३३. = १३६ धनराजु । और इसके बाह्य त्रिभुज का धनफल = . xxx७-५३१ धन राजु । प्रहोला शेत्र सो आकृति - (यहाँ, गजु उत्सेध प्राप्त करना उल्लेखनीय है वो माहेन्द्र के तल से रा. ऊपर से लेकर ब्रमोचर के तल तक सीमित है।) .:. अभ्यन्तर क्षेत्र का घनफल -३- घन राजु । ब्रमोचर क्षेत्र का धनफल = 1 +१)x३४७ = ३ घन रानु । यही, कापिष्ठ क्षेत्र का भी धनफल है। महाशक का घनफल =(+)xx७ = २ धनराजु । सहसार का बाह्य पनफल%3D (+)xx७ = १ धनराजु । आनत का बाह्य और अभ्यंतर घनफल = (+)३४३४-३ धनराजु । " बाम धनफल 32xxx७-१ धनराजु । .:. अभ्यंतर का घनफल ३-१= =३ घनराजु । आरण का घनफल =(+)३४३४७% धनराजु । नौ वेयकादि का घनफल ४३४१४७= ३ घनराजु । पूर्वोक्त घनफलों का योग = ३५ धनराज है, इसलिये पूर्व पश्चिम दोनों ओर के ऐसे क्षेत्रों का घनफल ७. धनराजु होता है। इनके सिवाय, अर्द्ध घन राजुओं ( दल धनराजुओं ) का घनफल = २४४ x[३४१४७] % २८ घनराजु और मध्यम क्षेत्र (सनाली) का घनफल = १४७४७%3D४९ धनराजु । ... कुल घनफल=२८+ ४९+ ७०%3D १४७ घनराजु । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना यहाँ सांद्र घन क्षेत्रों को समान घनफलवाले अन्य नियमित सांद्र क्षेत्रों में बदलकर, तत्कालीन क्षेत्रमिति और सांद्र रैखिकी का प्रदर्शन किया गया है। सम्पूर्ण लोक को आठ प्रकार के समान घनफल (३४३ घन राजु) वाले सांद्रों (Solids) में परिणत किया है। इनमें से जिन क्षेत्रों का रूप चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया गया है, वे अनुमान से बनाये गये हैं, क्योंकि मूल गाथा में इन क्षेत्रों के केवल नाम दिये गये हैं, चित्र नहीं। स्केल:- १cm. = गड (१) सामान्य लोकइसका वर्णन पहिले ही दे चुके हैं। चित्रण के लिये आकृति-२ देखिये। (२) घनाकार सांद्र-- यह आकृति-१० में दर्शाया गया है । इसका घनफल = ७४७४७= ३४३ घनराजु है। स्केल:-c...१ (३) तिर्यक्आ यत चतुरस्त्र या Cuboid (आयतज)- इसका घनफल ३३४७४१४ या ३४३ धन रानु है । (आकृति ११ देखिये) आति:-११ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित (गा. १, २१७-१९) (४) यवमुरज क्षेत्र-( आकृति-१२ देखिये)। यह आकृति, क्षेत्र के उदन समतल द्वारा प्राप्त छेद (Vertical Section) है। इसका विस्तार ७ राजु यहाँ चित्रित नहीं है। यहाँ मुरज का क्षेत्रफल (रा+१रा)-२}x १४रा-{१४}x१४ =३४ वर्ग राजु Statun.in 7 121 122 110 1/ 3 /26 VIVOLVEVps . गज---१५ अर्गत ल =३४७ = ४. घन राजु = २२०३ धन राजु । इसलिए, मुरज ( रा.२)xx राजु%x६% वर्ग राजु, एक यव का क्षेत्रफल = x = ३५ वर्ग राजु; इसलिये, २पा का घनफल = x =२४ घन राजु-१२२३ घन राजु । इस प्रक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना (५) यवमध्य क्षेत्र - ( पू. ३१ पर आकृति - १३ देखिये ) । यह आकृति, क्षेत्र के उदग्र समतल द्वारा प्राप्तछेद ( Vertical section ) है। इसका आगे-पीछे ( उत्तर-दक्षिण) विस्तार ७ राजु यहाँ चित्रित नहीं है । १२ = वर्ग राजु, यहाँ, यवमध्य का क्षेत्रफल ( १ + २ ) x इसलिये, ३५ यवमध्य का क्षेत्रफल = ५ X = ४९ वर्ग राजु; इस प्रकार, ३५ यवमध्य का घनफल = ४९४७ घन राजु = ३४३ घन राजु; और, एक यवमध्य का घनफल = = १९ घन राजु । इस गाथा के उपरान्त दिया गया निदर्शन | == | इस चित्र से ही स्पष्ट है । = ३५ यवमध्य का घनफल है तथा विभक्त कर ३५ यवमध्यों को प्राप्त करना है। (गा. १, २२० ) मन्दराकार क्षेत्र - ( आकृति - १४ देखिये ) । इस क्षेत्र की भूमि ६ राजु, मुख १ राजु, स्केल:- १.१.१.[१०० ऊँचाई १४ राजु, और मुटाई ७ राजु ली गई है। पुनः, समानुपात के सिद्धान्तों के द्वारा क्रमश: भूमि से +3+2, +3+2, 3+3+2+ है', ¥ + 3 + ई + *' + * और अंत में डे +3+2+ * ++ राजुओं की ऊँचाईयों पर मुखों के विस्तार निकाले हैं। ये ऊँचाइयों साधित करने पर, क्रमशःर्डे, २, ३, ५३ है और अर्थात् १४ राजु प्राप्त होती हैं । [ यहाँ २२१ से २२४ वीं गाथाओं का स्पष्टीकरण बाद में करेंगे । ] ऐसे मन्दाकार क्षेत्र का घनफल = १४X७ = ३४३ घन राजु है । दूसरी रीति से, इस क्षेत्र को ऊपर दी गई ऊँचाइओं पर विभक्त करने से ६ क्षेत्र प्राप्त होते हैं । (4) एक == का अर्थ यह है कि १४ राजु ऊँचाई को पाँच बराबर भागों में आकृति - ९४ X Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपग्णत्तिका गणित जब ऊँचाई राजु ली जाती है तो उस ऊँचाई पर व्यास उपर्युक्त नियम के अनुसार ६-[ ] x=0 राजु प्राप्त होता है। इसी प्रकार जब ऊँचाई ! या २ राजु ली जाती है तो विस्तार ६ - {(21)४२} अर्थात् ३७ या राजु प्राप्त होता है। इस प्रकार, इसी विधि से उन भिन्न भिन्न ऊँचाहओं पर विस्तार क्रमशः १११, १४, ११ प्राप्त होते हैं । अन्तिम माप, ४ अर्थात् १ राजु, मंदराकार क्षेत्र का मुख है और भूमि -१६ या ६ राजु है। इस प्रकार प्राप्त विभिन्न क्षेत्रों के घनफल निम्न लिखित रीति से प्राप्त करते हैं। प्रथम क्षेत्र का घनफल = = [१२६ + ११६]xx७= ४८४ धनराजु । द्वितीय क्षेत्र का घनफल AA धनराजु । द्वितीय क्षेत्र का घनफल = [१६+४]xzxv=२२० धनराजु । तृतीय क्षेत्र का घनफल = [३३१+१४]xxx८४३ धनराजु । चतुर्थ क्षेत्र का घनफल = [+]xx७ = १९९३२ धनराजु । पंचम क्षेत्र का घनफल = [w+PM]xx = धनराजु । षष्ठम क्षेत्र का घनफल == [R+]x¥x७= ६५०४ धनराजु । इन सबका योग ३४३ धनराजु प्राप्त होता है । यह प्रमाण सामान्य लोक के घनफल के तुल्य है। तृतीय और पंचम क्षेत्र के घनफलों को प्राप्त करने की विधि मूल गाथा से नहीं मिलती है । इसका स्पष्टीकरण करते हैं (आकृति-१६ 'अ', 'ब' देखिये) प्राकृति- १५ आकृति १५ मानिस तृतीय क्षेत्र और पंचम क्षेत्र में से अंतर्वर्ती करणाकार क्षेत्रों को अलग कर, एक जगह स्थापित करने से, निम्न लिखित आकृति प्राप्त होती है, जिसका घनफल +xx३४७ = घनराजु प्राप्त होता है । आकृति-१६ 'स' देखिये। ___ इस प्रकार ग्रंथकार ने तृतीय और पंचम क्षेत्रों में से चार ऐसे त्रिभुजों को ( जिनकी : १ योजन लम्बाई और ३ योजन ऊँचाई हैं ) निकाल कर, अलग से, मंदराकार क्षेत्र में सबसे ऊपर स्थापित किया है। तृतीय क्षेत्र में से जब २४(80x1)xx७ अर्थात् घन राजु घटाते हैं तो ति. ग.५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जद्धीवपतिकी प्रस्तावना अर्थात् १ घन राजु बच रहता है। यही प्रमाण मूलगाथा में दिया गया है। इसी प्रकार पंचम क्षेत्र में से २५xxx७ अर्थात् धन राजु घटाते है तो मुलगाथानुसार ४-५ अर्थात् "घन गजु प्राप्त होते हैं। अंतिम उपरिम भाग में स्थित क्षेत्र का घनफल रहता है। इस प्रकार, कुल घनफल ३४३ धन राजु प्राप्त किया गया है। (गा. १, २२०-२३१) यहां आकृति-१५ मन्दराकार क्षेत्र का उदन छेद ( vertical seotion) है। त्रिभुज क्षेत्र A. B.O. D. से यह चूलिका बनी है, प्रत्येक त्रिभुज क्षेत्र का आधार र राजु तथा ऊँचाई। चूलिका 4 राजु घोराजु इन चार त्रिभुज क्षेत्रों में से तीन क्षेत्रों के आधार से चूलिका का आधार (11x३=21) बना है और एक त्रिभुज क्षेत्र के आधार से चूलिका की चोटी की चौड़ाई राजु बनी है। १ मूल में दिये हुए प्रतीकों ( २२० वी गाथा ) का स्पष्टीकरण इस तरह से हो सकता है। १२ का अर्थ १४७ ऊँचाई और .४७ आधार है। समलम्ब चतुर्भुज के चित्र का (शेष पृ. ३५ पर देखिये) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजोवपत्तिका गणित (गा. १, २३२-३३) (७) दृष्य क्षेत्र- यह आकृति-१७ कथित क्षेत्र का उदन छेद ( vertical section) है। इसके आगे पीछे ( उत्तर दक्षिण) के विस्तार ७ राजु का चित्रण यहाँ नहीं हुआ है। बाहरी दोनों प्रवण क्षेत्रों का घनफल राजुx १४ राजु४७४२ ie oJAB+01 HG = ९८ धनराजु । भीतरी दोनों प्रवण क्षेत्रों का घनफलx७४२ xkoB+Y KTG--१३७५ धन राजु । दोनों लघु प्रवण क्षेत्रों का घनफल३४७४२ L NDo+xxBF२=५८५ घन राजु । यव क्षेत्र- यव का घनफल : oxxx+KINu+N DE (३+३+ ४)+७=१.४७-४९ घनराजु । 44 (गा. १, २३४) (८) गिरिकटक क्षेत्र-पांचवीं आकृति, यव मध्य क्षेत्र, को देखने पर शात होता है कि उसमें २० गिरियां है। एक गिरि का घनफलषनराजु है, इसलिये २० गिरियों का घनफल २०४६ १९६ पन राजु प्राप्त होता है। ३५ यवमध्यों का घनफल ३४३ घन राजु आता है जो ( २०गिरियों के समह में शेष उल्टी गिरियों के घनफल को मिला देने पर) कुल गिरिकटक क्षेत्र का मिश्र घनफल कहा गया है। इस प्रकार हमें गिरिकटक क्षेत्र Immm.. -. और यवमध्य क्षेत्र के निरूपण में विशेष भेद नहीं मिल सका है। अर्थ इस भाति है कि भूमि ६ बोवन को भागों, १ भाग और ३,२,३,६ राजुओं में विमक किया है। उचाई को समान रूप से विभक करने पर विस्तार ३ राजु लिखा हुआ है और १४ राजु ऊँचाई को ७,७ राज में विभक्त कर लिखा गया है। . प्र.७२।१२ का अर्थ ५४५४२. भर्षात् राजु हानि-वृद्धि प्रमाण हो सकता है । शेष स्पष्ट नहीं है। -- - - -- - - - . . .| - -- Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना अगली गाथाओं (२३४-२६६) में ऊर्ध्व और अधोलोक क्षेत्रों को इन्हीं आठ प्रकार की आकृतियों (figures) में बदल कर प्ररूपण किया गया है। उपर्युक्त विवरण, यूनानियों की क्षेत्र प्रयोग विधि (method of application of areas) के विवरण के सहश है। इन गाथाओं में भिन्न भिन्न घनफल लेकर, सामान्य लोक अथवा उसके भागों अधोलोक और ऊर्च लोक) के घनफल के तुल्य उपर्युक्त आकृतियों को प्राप्त करने के लिये वर्णन दिया गया है। प्रक्रियाएँ और आकृतियों वही होगी। (गा. १-२६८) E -. Fया इन चित्रों में निदर्शित लम्बाइयों के प्रमाण मान रूप नहीं लिये गये है। (आकृति-१८ देखिये) . .. गा. २७० में वातवलयों से वेष्टित लोक १८ और १९ वी आकृतियों से स्पष्ट हो जावेगा। ग्रंथकार ने जिन स्थानों का वर्णन किया है उन्हीं को आकृति-१९ और २० में ग्रहण किया गया हैं। werer जनगपाप सात-१८ स्लः -.cn:-राज . . ....... - . 4000. GMMAR - . १६ -- - छाल-१६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोवपण्णत्तिका गणित (गा. १, २६८) सर्व प्रथम, (आकृति १९ 'अ' और 'ब' ) लोक के नीचे वातवलयों द्वारा वेष्टित क्षेत्रों का घनफल निकालते हैं। च द एक आयतज ( ouboid ) है लम्बाई ७ राजु, चौड़ाई ७ राजु और उत्सेध या गहराई ६०००० योजन है, .:. उसका घनफल = ७ राजु ७ राजु४६०००० यो. = ४९ वर्ग गजुx ६०००० यो. होता है। इसे ग्रन्थकार ने मलगाथा में प्रतीक द्वारा स्थापित किया है, यथा: = ६००००............(१) अब पूर्व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को लेते हैं। वे हैं, फ ब पूर्व की ओर और फ ब सदृश क्षेत्र पश्चिम की ओर । फ ब एक समान्तरानीक (parallelepiped) है, जिसका धन फल लम्बाई x चौड़ाई xउत्सेध होता है। इस क्षेत्र में उत्सेध १ राजु है, आयाम ७ राजु और बाहल्य या मुटाई ६०००० योजन है .:. दोनों पार्श्व भागों में स्थित वातक्षेत्रों का घनफल =२४[७ राजु४१ राजु ६०००० योजन ] =७ वर्ग राजु-१२०००० योजन ४९ वर्ग राजुx13...योजन होता है। इसे मूल में, = २२७०० लिखा गया है। ....... (२) (१) और (२) परिणामों को जोड़ने पर ४९ वर्ग राजु (६०००० योजन+१२.०० योजन ) अर्थात् ( ४९ वर्ग राज)(५४० योजन ) घनफल प्राप्त होता है जिसे ग्रंथकार ने = ५४०००० लिखा है।..........I __ अब उत्तर दक्षिण की अपेक्षा ( अर्थात् सामनेवाला वातवलय वेष्टित लोकांत भाग) पफ तथा पफ के साश पीछे स्थित लाब संक्षेत्र समच्छिन्नक (frustrum of a right prism)हैं। यहां उत्सेध १ राजु ( vertical heightl raju), तल भाग में आयाम ७ राजु, मुख ६९ राजु और बाहल्य ६०.०० योजन है। .:. इसका घनफल=२४३४१ राजु-( राजु)४६०००० योजन __=३ वर्ग राजु४६०००० योजन १ वातवलयो से वेष्टित वरिमाओं के घनफल निकालने की रीति क्या ग्रीस से प्राप्त हुई, यह नहीं कहा जा सकता। पर, ग्रंथकार द्वारा उपयोग में लाये गये नियमों की तुलना श्री सेन्फोर्ड द्वारा प्रतिपादित विषय “The Study. of Indivisibles" से करने योग्य है । "Cavalieri (1598-1847) mado extensive use of the idea of indivisibles, that is, of considering a surface the smallest element of a solid, & line the smallest element of a surface, and a point that of a line. This concept was the foundation of Cavalieri's famous theurem which reads as follows : If between the same parallels, any two plane figures are constructed, and it in them, any straight lines beidg drawn equidistant from the parallels, the enclosed portions of any one of these lines are equal, the plane figures are also equal to one another, and if between the same parallel planes any solid figures are constructed, and if in them, any planes being drawn equidistant from the parallel planes, the included plane figures out of any one of the planes 80 draws are equal, the solid figures are likewise equal to one another."-"A Short History of Mathematics'', By Sanford, p. 315. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ka इसे ग्रंथकार ने जंबूदीवपण्णसिकी प्रस्तावना = ४९ वर्ग राजु x इसे ग्रंथकार ने ५५२०००० लिखा है। ३४३ I में (३) जोड़नेपर ४९ वर्ग राजु X अर्थात् ४९ वर्ग राजु x ज ३१९८०००० ३४३ ७रा. ५५२०००० योजन होता है । ३४३ · (३) ४९४५४००००, ५५२०००० ३४३ ३४३ योजन प्राप्त होता है । ENT. ३१९८०००० २४३ लिखा है । II + १६+१२ २ कृति:- २० सम पूर्व में आकृतियां प फ ब भ और त थ हैं; तथा ऐसी ही पश्चिम में आकृतियां हैं जो संक्षेत्रों के (frustrum of triangular prisms ) है । हानि वृद्धि क्रमश: १६, १२, १६, १२ योजन है, तथा आयाम ७ की कुल धनफल = २४७ राजु × १३ राजु ४ | योजन) ३४३ २५७ राजु X १३ राजु १४४ ( . बोलन) = ४९ वर्गराजु Xx योजन लोक के अन्त से १ राजु ऊपर तक ६०००० योजन बाहस्यवाले वातवलय क्षेत्रों की गणना के पश्चात् उनसे ऊपर स्थित क्षेत्रों की गणना करते हैं। यहां ( आकृति २० 'अ' ) वात बढ्यों का बाहस्य पूर्व पश्चिम तथा उत्तर दक्षिण में क्रमश: १६ योजन, १२ योजन, १६ योजन और लोकशिखर पर १२ योबन चित्र में बतलाये अनुसार हैं । इनका कुल योजन है । > उत्सेध १३ योजन है, इसलिये इन आकृतियों १७८३६ ३४३ -योजन होता है । ३४३ इस प्रकार की गणना, राजु और योजन में सम्बन्ध अव्यक्त होने से बिलकुल ठीक तथा प्रशंसनीय है । |इसे प्रथकार ने = १७८३६ ૨૪૨ लिखा है ।.........(४) अब, उत्तर दक्षिण अर्थात् सामने के भागों में स्थित पद, वध, और त क तथा ऐसे ही पीछे के क्षेत्रों का घनफल निकालते हैं। ये भी त्रिभुजीय क्षेत्रों के समच्छिनक हैं । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोषपणत्तिका गणित ३९ /१६+१२योजन २ पद के घनफल के लिये उत्सेध ६ राज, मुख १ राजु, भूमि राजु तथा बाहल्य क्रमशः १६, १२ योबन है, इसलिये इसका तथा ऐसी ही पीछे की आकृति का कुल घनफल = २४(६ राजु)-(११ राज) (१६१ १२ योजन) = वर्ग राजु x १४ योजन = ४९ वर्ग राजु ४४४ योजन होता है। इसे अन्यकार ने = ३१ लिखा है ।.........(५) इसी प्रकार, ब ध तथा त क और उनके समान दक्षिण में स्थित क्षेत्रों के घनफल के लिये कुल उत्सेध ७ राजु है; हानि-वृद्धि १, ५, ६ राजु है तथा बाहत्य में भी हानि-वृद्धि १२, १६, १२ है। ऐसे संक्षेत्र समछिन्नकों का कुल घनफल=२४७ राजुx राजु = ४२ वर्ग राजु ४१४ योजन =४९ वर्ग राजु योजन होता है । इसे ग्रंथाकार ने = १८८ लिखा है । ......(६) अब लोक के ऊपर के घनफल को निकालते हैं (आकृति २० 'व' )। न यहां उत्सेध २ कोस + १ कोस + १५७५ धनुषयोजन है। ___ आयाम १ राजु, चौड़ाई ७ राजु है ... इस आयतब (Cuboid) का घनफल शा. २o a = १ राजु ४७ राजुx ३०३. योजन = ४९ वर्ग राजु x ३०३. योजन होता है। इसे ग्रन्थकार ने = ३०३. लिखा है ।............(७) ७५७५ ८०.. १०१ शेष मागों के विषय में अन्थकार ने नहीं लिखा है। शायद वह घनफल इनकी तुलना में उपेक्षणीय गिना गया हो अथवा उनकी गणना ही न की गई हो। यह बात स्पष्ट नहीं है। जहां तक उस उपेक्षित धनफल का सम्बन्ध है, वह भी सरलता से निकाला जा सकता है। उपर्युक्त ७ क्षेत्रों का कुल घनफल = ४९ वर्गराजु १०२४१९८३४८७ योजन प्राप्त होता है। ......III Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना इसे ग्रन्थकार ने = १०२४१९८३४८७ । १०९७६० लिखा है।......(८) इसके पश्चात् आठो पृध्वियों के अधस्तन भाग में वायु से अवरुद्ध क्षेत्रों के घनफल निकाले गये हैं जिनकी गणना मूल में स्पष्ट है । समस्त पृथ्वियों के अधरतन भाग में अवरुद्ध क्षेत्रों का कुल घनफल ४९ वर्ग राजुx (१०९२००० योजन) होता है जिसे ग्रंथकार ने = १०९२००० स्थापित किया है .IV आठ पृथ्वियों का भी कुल घनफल मूल में बिलकुल स्पष्ट है जो ४९ वर्ग राजुx (१३६६४०५६ योबन) है, जिसे......V ग्रन्थकार ने = ४३६६४०५६ लिखा है। जब III, IV, और V के योग को सम्पूर्ण लोक (=) में से घटाते हैं तो अवशिष्ट शुद्ध आकाश का प्रमाण होता है । उसकी स्थापना बो मूल में की गई वह स्पष्ट नहीं है । आकृति-२. देखिये । यहां एक उल्लेखनीय बात यह है कि सिकन्दरिया के हेरन ने (प्रायः ईसा की तीसरी सदी में ) वेत्रासन सदृश सांद्र ( wedge shaped solid, Bouloxo0, 'little altar' ) के घनफल को लाभग उपर्युक्त विधियों द्वारा प्राप्त किया है। यदि नीचे का आधार माहीत-२१ ' और 'b' भुजाओंवाला आयत है तथा ऊपर का मुख '०' और 'd' भुजाओवाला आयत है तो उत्सेध '' लेने पर पनफल निकालने का सूत्र यह है {. (a+c) (b+d)+7 (a-०) (b-d)}h यह घनफल, वेत्रासन को समान्तरानीक (parallelepiped ) और त्रिभुब. संक्षेत्र ( triangular priem ) में विदीर्ण कर, प्राप्त किया गया है। पुनः बेबीलोनिया में, प्रायः ३००० वर्ष पूर्व, पृथ्वी माप के (Yeuperpta) विषय में उपर्युक्त विवरण से सम्बन्ध रखनेवाला चतुर्भुज क्षेत्र सम्बन्धी अभिमत कुलिन के शब्दों में यह है । "When four measures are given the area stated is in every case greater than possible no matter what the shape, de la Fuye explains this by the ingenious hypothesis that the Babylonians used for area in terms of sides the incorrect formula F=1(a + a') (b + b). This gives the correct result only in the case of the rectangle. It is ourious that we find the same incorrect formula in an Egyptian inscription that scarcely antedated the christian era, Heath, Groek Mathematios, vol (ii) p. 333, Edn, 1921. Coolidgo, A History of Geometrical Mothods, p. 5, Edn. 1940. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर १६००० योजन ४€ रक्षप्रभा (गा. २, ९ ) पंक ८४००० योजन कीचड़ तिलोयपण्णसिका गणित चित्रादि १६ भेद प्रत्येक १००० योजन मोटी एवं वेत्रासन आकार की । गा. २, २६-२७ – कुल बिल ८४ लाख हैं । वे इस प्रकार हैंर. प्र. श.प्र. बा. प्र. पं. प्र. ३०००००० २५००००० १५००००० १०००००० म. प्र. ५ शेष छः पृथ्वियों गा. २, २८ - सातवीं पृथ्वी के ठीक मध्य में नारकी बिल हैं। अन्त्रहुल पर्यंत में नीचे व ऊपर एक एक हजार योजन छोड़कर पटलों (discs ) में क्रम से नारकियों के बिल है । गा. २, ३६- पटल के सब बिलों के बीचवाला इन्द्रक बिल और चार दिशाओं तथा विदिशाओं मिल श्रेणिबद्ध कहलाते हैं। शेष श्रेणिबद्ध बिलों के इधर उधर रहनेवाले बिल प्रकीर्णक के पति कहलाते हैं । गा. २, ३७ - इन्द्रक बिल, सात पृथ्वियों में क्रमशः १३, ११, ९, ७, ५, ३, १ हैं । प्रथम इंद्रक बिल और द्वितीय इंद्रक बिल के लिये आकृति - २२ 'अ', और 'ब' देखिये । of ४८. आकृति २२ का अन्बहुल ८०००० योजन पानी 8€ धू. प्र. ३००००० पूछ ४७ त. प्र. ९९९९५ 62 आकृति २२ बं ४७ ४१ ४७ गा. २, ३९ - कुल इंद्रक बिल ४९ हैं । गा. २, ५५ - दिशा और विदिशा के कुल प्रकीर्णक बिल (४८४ ) + (४९४४) = ३८८ है । इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल को मिलाने पर प्रथम पाथड़े के कुल बिल ३८९ होते हैं । गा. २, ५८ -- रूपरैखिक वर्णन देने के पश्चात्, ग्रंथकार श्रेणीव्यवहार गणित का उपयोग कर समान्तर भेटि ( Arithmetical Progression ) के विषय में, इस प्रकरण से सम्बन्धित अशात की गणना के लिये सूत्र आदि का वर्णन करते हैं । ति. ग. ६ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीषपण्णत्तिकी प्रस्तावना यदि प्रथम पाथड़े में बिलों की कुल संख्या हो और फिर प्रत्येक पाथड़े में क्रमश: d द्वारा उत्तरोत्तर हानि हो तोn पाथड़े में कुल बिलों की संख्या प्राप्त करने के लिये {a-(n-1)d) सूत्र का उपयोग किया है। यहाँ a=३८९ है, d%3D८ है और n-४ है ... चौये पायड़े में इन्द्रक सहित श्रेणिबद्धबिलों की संख्या १३८९-(४-१८३६५ है। गा. २, ५९-- n वें पायड़े में इन्द्रक सहित श्रेणिबद्ध बिलों की संख्या निकालने के लिये ग्रंथकार साधारण सूत्र देते हैं : (-५+१-n)d+५ यहां = ३८९ है; इष्ट प्रतर अर्थात् इष्ट पाथड़ा n वां है। गा. २, ६०- यदि प्रथम पायड़े में इन्द्रक सहित श्रेणिबद्ध बिलों की संख्या है और n वै पाथड़े में an मान ली जाय तो n का मान निकालने के लिये इस साधारण सूत्र (general formula) को उपयोग किया है : [---]n गा.२, ६१-- यहां ' प्रचय (common difference) है। किसी श्रेदि में प्रथम स्थान में जो प्रमाण रहता है उसे आदि, मुख (बदन) अथवा प्रभव (first term) कहते हैं। अनेक स्थानों में समान रूप से होनेवाली वृद्धि अथवा हानि के प्रमाण को चय या उत्तर (common difference) कहते हैं और ऐसी वृद्धि हानिवाले स्थानों को गच्छ या पद ( term) कहते है। गा. २, ६२- यदि भेटियों को वृद्धिमय माने तो रसप्रभा में प्रथम पद २९३ आदि ( first term) है, गच्छ ( number of terms) १३ है और चय (common difference) ८है। इसी प्रकार अन्य पृध्वियों का उल्लेख अलग अलग है,चय सबमें एकसा। ऐसी श्रेढियों का कुल संकलित धन अर्थात् इंद्रक सहित श्रेणिबद्ध बिलों की कुल संख्या निकालने के लिये सूत्र दिया गया है। गा. २, ६४- यहां कुल धन को हम S, प्रथम पदको है, चय को d और गच्छ को n द्वारा निरूपित करते हैं तो सूत्र निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है। S=[(n-1)d + (१-१) d+(३.२)] यहां इच्छा १ है अर्थात् पहिली श्रेदि के बिलों की कुल संख्या प्राप्त की है। इसे हल करने पर हमें साधारण सूत्र (general formula) प्राप्त होता है : S B[२ + (n-1)d] इसी प्रकार दूसरी श्रेटि के लिये जहाँ इच्छा है S=[(n-३)d+(२-१)d+ (a.२)] अर्थात् वही साधारण सूत्र फिर से प्राप्त होता है : __s= [२+(n- १)d] लिखा १ मूल गाथाको देखने से ज्ञात होता है कि (१३ - १) लिखने के लिये प्रथकार ने है । इसी प्रकार (१-१) लिखने के लिये लिखा है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्तिका गणित संकलित धन निकालने के लिये ग्रंथकार दूसरे सूत्र का कथन करते हैं। उसे उपर्युक्त प्रतीकों से निरूपित करने पर, इस प्रकार लिखा जा सकता है : s= [{('=')' +('=')}d+4]n यह समीकार ऊपर दी गई सब श्रेढियों के लिये साधारण है । उपर्युक्त संख्या “५" महातमःप्रभा के बिलों से सम्बन्धित होना चाहिये । इन्द्रक बिलों की कुल संख्या ४९ है, इसलिये यदि अंतिम पद ५ को 1 माना जाय, & को ३८९; और d (प्रचय) ८ हो तो 1 = a – (४९ - १) d अर्थात् ५ = ३८९ - ३८४ =५ इस प्रकार जो यहां ५ लिया गया है, वह सब श्रेटियों के अंत में जो श्रेटि है, उसका अंतिम पद है। गा. २, ६९ --- सम्पूर्ण पृथ्वियों के इन्द्रक सहित श्रेणिबद्ध बिलों के प्रमाण को निकालने के लिये आदि पांच first term A ) चय आठ ( common defference D ) और गच्छ का प्रमाण उनंचास ( number of torms N ) है। मा. २, ७० - यहां सात पृथ्वियां हैं जिनमें श्रेटियों की संख्या ७ है। अंतिम श्रेटि में एक ही पद ५ है । इन सब का संकलित घन प्राप्त करने के लिये ग्रंथकार ने यह सूत्र दिया है। s' = {(N + ७)D – (3 + १)D + २A] N = = 5 [RA + (N - १)D], यहां ७ इष्ट है । गा. २, ७१ - ग्रंथकार ने दूसरा सूत्र इस प्रकार दिया है । S' = ' = [NR' ×D+^]N २ N =[RA+ (N - १)D] ४३ = यहां N = ४९, A = ५, D = ८ है । ( गा. २, ७४ - इन्द्रक रहितं बिलों ( श्रेणीबद्ध बिलों ) की संख्या निकालने के लिये इन्द्रकों को अलग कर देने पर पृथ्वियों में श्रेणीबद्ध बिलों की श्रेटियों के आदि prathvi beginning from the Ratnaprabha) ( number of terms ) प्रत्येक के लिये क्रमशः १३, ११, यहां भी साधारण सूत्र दिया गया है, जो सब पृथ्वियों के की संख्या) निकालने के लिये निम्न लिखित रूप में प्रतीकों द्वारा first term in the respective क्रमशः २९२, २०४ इत्यादि हैं । गच्छ इत्यादि हैं और चय ८ है । अलग अलग धन को ( श्रेणिबद्ध बिलों दर्शाया जा सकता है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदीवपणतिकी प्रस्थापना s" _ [n.d] + [२n.s] -nd_nd + २na-nd_ a-nd-(n - १)d + २a] n . जहां n गच्छ, d प्रचय और 8 आदि हैं। गा.२,८१-द्रको रहित बिलों (श्रेणिबद्ध बिलों) की समस्त पृथ्वियों में कुल संख्या निकालने के लिये ग्रंथकार सूत्र देते हैं। यहां भादि ५ नहीं होकर ४ है, क्योंकि महातमःप्रभा में केवल एक इन्द्रक और चार श्रेणिबद्ध बिल हैं । यही आदि अथवा A है; ४९, N है और प्रचय ८, D है। इसके लिये प्रतीक रूप से सूत्र यह है: s' = (- ४)D+ (w•a) + (SN) -FA+ (x - १)p+a] - [RA + (- १)p] गा. २, ८२-८३- आदि [ first term A) निकालने के लिये ग्रंथकार सूत्र देते हैं :. [s"+8]+[D.७]-[७- १+x] D A = = जिसका साधन करने पर पूर्ववत् साधारण सूत्र प्राप्त होता है। यहां इच्छित पृथ्वी ७वीं है जिसका आदि निकालना इष्ट था। इच्छा कोई भी राशि हो सकती है। गा. २, ८४-चय [ common difference D] निकालने के लिये ग्रंथकार सूत्र देते हैं, D= S" + ((x - १])-(478) इसे साधित करने पर पूर्ववत् साधारण सूत्र प्राप्त होता है। गा. २, ८५- इसके पश्चात् ग्रंथकार रक्षप्रभा प्रथम पृथ्वी के संकलित धन (श्रेणिबद्ध मिलों की कुल संख्या) को लेकर पद १३ को निकालने के लिये निम्न लिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं; वहाँ n= १३, S" = ४४२०, d८ और - २९२ आदि है। --१ (१) (-)-(-) इसे साधित करने पर पूर्ववत् समीकार प्राप्त होता है। गा. २, ८६- उपयुक्त के लिये दूसरा सूत्र भी निम्न लिखित रूप में दिया गया है। 1-( २d.s") + (-१)-(-१)}d Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकीपपणतिका गणित इसे साधित करने पर पूर्ववत् समीकार प्राप्त होता है। गा.२,१०५-इन्द्रकों का विस्तार समान्तर दि (Arithmetical progression) में घटता है। प्रथम इन्द्रक का विस्तार ४५०,०००० योजन और अंतिम इंद्रक का १०,०००० योजन है। कछ इंद्रक बिल ४९ हैं। यह गच्छ की संख्या है जिसे प्रतीक रूप से हम n द्वारा निरूपित करेंगे । आदि ४५००००० (8) और अंतिम पद १०००००(1) तथा चय ( Common difference)d है तो d निकालने के लिये सूत्र ग्रंथकार ने यह दिया है: dam यहां n अंतिम पद के लिये उपयोग में आया है। प्रथम बिल से यदि n बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो उसे प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित सूत्र का उपयोग किया गया है। B-.-(p-१)d. यदि अंतिम विल से n ३ बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो सूत्रको प्रतीक रूप से निम्न प्रकार निबद्ध किया जा सकता है: bab+(n-१)d. बह और b. उन nवे बिलों के विस्तारों के प्रतीक है। यहां विस्तार का अर्थ व्यास (diameter) किया जा सकता है। गा. २, १५७-इन बिलों की गहराई (बाहल्य) समान्तर दि में है। कुल पृथ्वियां ७ है। यदि nवीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य निकालना हो तो नियम यह है: _n वीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य = (n+१) ४३ इसी प्रकार, 7 वीं पृथ्वी के श्रेणिबद्ध बिलों का बाहस्य = (+1)४४ - (७-१) इसी प्रकार, n वीं पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों का बाहल्य = + १)" गा. २, १५८- दुसरी रीति से बिलों का बाहल्य निकालने के लिये ग्रंथकार ने उनके 'आदि के प्रमाण क्रमशः ६, ८ और १४ लिये हैं। पृथ्वियों की संख्या ७ है। यदि n वीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य निकालना हो तो सूत्र यह है: nवीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहस्य = (६+n) यहां ६ को आदि लिखें तो दक्षिणपक्ष = (e+n) होता है। इसी प्रकार, nी पृथ्वी के श्रेणिवर बिलों का वाहत्य = ८+n) होता है। यदि ८ को आदि लिखें तो दक्षिण पक्षप्रकीर्णक बिलों के लिये भी यही नियम है। आगे गाथा १५९ से १९४ तक इन बिलों के अन्तराल (inter space) का विवरण दिया गया है जो सूत्रों की दृष्टि से अधिक महत्व का प्रतीत नहीं हुआ है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणतिकी प्रस्तावना गा. २, १९५ - धर्मा या खप्रभा के नारकियों की संख्या निकालने के लिये पुनः जगश्रेणी और घनांगुल का उपयोग हुआ है। प्रतीक रूप से, धनांगुल के लिये ६ लिखा गया है और उसका धनमूल सूच्यंगुल २ लिखा गया है' । ४६ आज कल के प्रतीकों में घर्मा पृथ्वी के नारकियों की संख्या = जगभेणी x ( कुछ कम ) NE गश्रेणी X [ कुछ कम (६) ] = = बगश्रेणी x [ कुछ कम (२)] = जगश्रेणी x [ कुछ कम मूल गाथा में इसका प्रतीक दिया गया है। आड़ी रेखा बगश्रेणी है। १२ ३३ का अर्थ स्पष्ट नहीं है । वास्तव में उन्हीं प्राचीन प्रतीकों में लिखा जाना था (१) । गा. २, १९६ - इसी प्रकार, वंशा पृथ्वी के नारकी बीवों की संख्या आजकल के प्रतीकों में (सं) जिसमें कि ( बगश्रेणी करता है । (२)* ] बगश्रेणी + ( बगश्रेणी ) = लगश्रेणी + ( जगश्रेणी ४०९६ इसे मैथकार ने प्रतीक रूप में १२| लिखा है। स्पष्ट है कि इसमें प्रथम पद जगश्रेणी नहीं है का भाग देना है। यह प्रतीक केवल अगश्रेणी के बारहवें मूल को निरूपित १ यहां गश्रेणी का अर्थ बगश्रेणी प्रमाण सरल रेखा में स्थित प्रदेशों की संख्या से है। बगश्रेणी असंख्यात संख्या के प्रदेशों की राशि है । असंख्यात संख्यावाले प्रदेश पंक्तिबद्ध संलग्न रखने पर गश्रेणी का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रदेश, आकाश का वह अंश है जो मूर्त पुद्गल द्रव्य के अविभाज्य परमाणु द्वारा अवगाहित किया जाता है। इसी प्रकार सूच्यंगुल (२) उस संख्या का प्रतीक है बो सूच्यंगुल में स्थित पंक्तिबद्ध संलग्न प्रदेशों की संख्या है। सूच्यंगुल भी नगश्रेणी के समान, एक दिश, परिमित रेखा - माप है । २ करणी का चिह्न तथा उसके उपयोग के विषय में गणित के इतिहासकारों का मत है कि इटली और उत्तर यूरोप के गणितज्ञों ने पंद्रहवीं सदी के अन्त से उसे विकसित करना आरम्भ किया था । विरा सेन्फोर्ड ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है, "Radical signs seem to have been derived from either the Capital latter R or from its lower case form, the former being preferred by Italian writers and the latter by those of northern Europe. Before the addition of the horizontal bar which showed the terms affected by the radical sign, varions symbols of aggregation were developed "A Short History of Mathematics" p. 158. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णतिका गणित गा.२, २०५-रौरुक इन्द्रक में उत्कृष्ट आयु असंख्यात पूर्वकोटि दर्शाने के लिये ग्रंथकार ने प्रतीक निरूपण इस तरह की है: पुव । । गा. २, २०६- प्रथम पृथ्वी के शेष ९ पटलों में उत्कृष्ट आयु समान्तर श्रेदि में है, जिसका चय ( हानि वृद्धि प्रमाण) = १- है। चतुर्थ पटल में आदि , पंचम पटल में 3, षष्ठम पटल में सागरोपम, इत्यादि । शेष वर्णन मूल में स्पष्ट है। यहां विशेषता यह है कि आयु की वृद्धि विवक्षित (arbitrary) पटलों में समान्तर श्रेटि में है। इसी प्रकार गाथा २१८, २३० में दिया गया वर्णन स्पष्ट है। गा.३.३२-चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार २५० योजन, तथा ऊंचाई मध्य में ४ योजन और अंत में अर्ध फोस प्रमाण है। इसे ग्रंथकर ने आकृति-२३ अके रूप में प्रस्तुत किया है। - . -२२०यो . आकतिक २५० झाकृति:-अ.. रा का अर्थ स्पष्ट नहीं है। का अर्थ ३ कोस।। २५० विस्तार अर्थात् २५० व्यासवाला वृत्त त्रिविमा रूप लेने पर (Taken as a tbree dimensional figure) होता है। ४, मध्य में उत्सेध है। इस प्रकार यह चित्र (आकृति-२३ब)नीचे एक रम्भ के रूप में है जिसकी ऊंचाई कोस है। उसके उपर ४ योजन ऊंचाईवाला शंक स्थित है। आकृति-२३ (स) से वर्णित वृक्ष का स्वाभाविक रूप स्पष्ट हो जाता है। कार २५०यो. आहतररस' इन्द्र के परिवार देवों में से ७ अनीक ( सेनातुल्य देव ) भी होते हैं। सात अनीकों में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है उनमें से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के बराबर है। इसके पश्चात् अंतिम कक्षा तक उत्तरोत्तर, प्रथम कक्षा से दूना दूना प्रमाण होता गया है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदोषपण्णत्तिकी प्रस्तावना असुरकुमार की सात अनीके होती है। नागकुमार की प्रथम अनीक में ९ भेद होते हैं, शेष द्वितीयादि अनीके असुरकुमार की अनीकों के समान होती हैं। यदि चमरेन्द्र की महिषानीक (भैसों की सेना) की गणना की जाय तो कुल धन एक गुणोत्तर श्रेटि (geometrioal progression ) का योग होगा। यहां गच्छ ( number of terms) का प्रमाण ७ है, मुख ( first term ) का प्रमाण ४००० है, और गुणकार ( common ratio) का प्रमाण २ है। संकलित धन को प्राप्त करने के लिये सत्र का उपयोग किया गया है। यदि S, को n पदों का योग माना जाय जब कि प्रथमपद और गुणकार (Common Ratio): होतब, {(r.r.rrrrr......upto n terms)- १}+ (r-१)xa=S. अथवा, s,= (-१) इस प्रकार ७ अनीकों के लिये संकलित धन ७ (SI) आ पाता है। वैरोचन आदि के अनीकों का संकलित धन इसी सूत्र द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। गा. ३, १११- चमरेन्द्र और वैरोचन इन दो इन्द्रों के नियम से १००० वर्षों के बीतने पर आहार होता है। गा. ३, ११४-इनके पन्द्रह दिनों में उच्छ्वास होता है। गा. ३, १४४- इनकी आयु का प्रमाण १ सागरोपम होता है। इसी प्रकार भूतानन्द इन्द्र का १२३ दिनों में आहार, १२३ मुहूर्त में उच्छास होता है। भूतानन्द की आयु ३ पल्योपम, वेणु एवं वेणुधारी की २३ पल्योपम, पूर्ण एवं वशिष्ठ की भायु का प्रमाण २ पल्योपम है । शेष १२ इन्द्रों में से प्रत्येक की आयु १३ पल्योपम है। १ गुणोत्तर श्रेदि के संकलन के लिये जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी नियम दिये गये है। २९, ४।२०४, २०५, २२२ आदि । २ इसके सम्बन्ध में Cosmolgy old & New में दिये गये Prologue का footnote यहाँ पर उद्धृत करना आवश्यक प्रतीत होता है। ___ "Judge, J. L. Jaini, in the "Jaina Hostel Magazine" Vol. VII, Number 3, page 10, bas observed that there is a fixed proportion between the respiration, feeling of hunger and the age of the celestial beings. The food interval is 1,000 years and the respiration ode fortnight for every Sagar of age. The proportion of food interval to respiration is thus, 1 to 24000. Be bas further observed that if & man lived like a god, we shuuld have a legitia ate feeling of hunger only once in the day. A Normal person has 18 respirations to the minute, or 18 x 60 x 24=26920 in 24 huurs, roughly 24,000".-G. R.JAIN, "Cosmology old and New", P.XIII, Edn. 1942. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोपपण्णचिका गणित गा. ४, ६ - नाली के बहुमध्य भाग में चित्रा पृथ्वी के ऊपर ४५००००० योजन विस्तार फेल... ( diameter ) बाळा अतिगोल मनुष्यलोक है ( आकृति -२४) । अतिगोल का अर्थ बेलनाकार हो सकता है, क्योंकि अगली गाथा में उसका बाद्दल्य १ लाल योजन दिया है। (A right circular cylinder of which base is of rad, 2250000 and height is 100000 yojans ) । = = व्यास को ते, त्रिज्या d, गा. ४, ९ – व्यास से परिधि निकालने के लिये म का मान V १० लिया गया है और सूत्र दिया है परिधि (व्यास) २ x १० अथवा ciroum. /(dism), 10. यहां को और परिधि को ० माना बाय तो c=/१०. d=२ /१० वृत का क्षेत्रफल निकालने के लिये खून दिया परिधि x अर्थात् क्षेत्रफल गया है: परिधि (व्यास) र व्यास Y १०. (त्रिया). अथवा, area = इसी प्रकार, लम्ब वर्तुल रम्म का यह है : - 20 घनफल ( volume ) को मूल में 'विदफ' लिखा गया है। = आधार का क्षेत्रफल X ( उत्सेध या बाहल्य ) 89 व्यास ૪ (radius) २. घनफल निकालने का सूत्र परिधि जैसी बड़ी संख्या १४२३०२४९ को अंकों में लिखने के साथ ही साथ शब्दों में इस तरह लिखा गया है परिधि क्रमशः नौ, चार, दो, शून्य, तीन, दो, चार और एक, इन अंकों के प्रमाण हैपद्धति का उपयोग है। यह दसा = गा. ४, ५५-५६— सम्भवतः, यहां ग्रंथकार का आशय निम्न लिखित है: बम्बूदीप का विष्कम्भ १००००० योजन है। उसकी परिधि निकालने के लिये x का मान V१० लिया गया है । १० का वर्गमूल दशमलव के ५ अंक तक निकालने के पश्चात् छठवें अंक से ३. कोश की प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि छठवां अंक ७ होने से योजन को कोश में परिवर्तित करने पर २८ की ही प्राप्ति होगी और भी आगे गणना करने पर प्रतीत होता है कि १० के वर्गमूल को आगे के कई अंकों तक निकालने के पश्चात् क्रमशः धनुष, किस्कू, हाय, आदि में परिधि की गणना की S २३२१३ २०५४०६ प्रमाण उवसन्नासन्न बच २३२१३ १०५४०९ गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि ३ उवसन्नासन्न प्रमाण के पश्चात् रहता है । उवसन्नासन्न नामक स्कंध में अनन्तानन्त परमाणुओं की कल्पना के आधार पर, अंथकार ने उक्त भित्रीय प्रमाण में परमाणु की संख्या को, दृष्टिवाद अंग से. ख ख द्वारा निरूपित करना चाहा है। परन्तु दूरी का प्रमाण निकालने के लिये उपसन्नासन के पश्चात् अथवा पहिले ही, प्रदेश द्वारा निरूपण होना आवश्यक है। सूच्यंगुल में प्रदेशों की संख्या के प्रमाण के आधार पर १ उवसन्नासन द्वारा व्याप्त आकाश में अनन्तानन्त संख्या प्रमाण परमाणु भले ही एकावगाही होकर संरचकरूप स्थित हों, पर उतने ति. ग. ७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना व्यास आकाश का प्रमाण अनन्तान्त प्रदेश कदापि नहीं हो सकता। इस प्रकार, इस सीमा तक किया गया यह प्ररूपण लाभप्रद न हो, पर उनके द्वारा खोजे गये पथ का प्रदर्शन करता है। इसके पूर्व अनन्तानन्त आकाश का निरूपण ग्रंथकार ने ख ख ख द्वारा किया था। यहां परमाणुओं की अनन्तानन्त संख्या बतलाने के लिये २३२१३ द्वारा निरूपण किया गया है और इसे "खखपदस्ससस्स पुर्ट" का १०५४०९ गुणकार बतलाया है ताकि परिभाषानुसार अंतिम महत्ता प्रदर्शित की जा सके। यह कहा जा सकता है कि ख' अनंत का प्रतीक था और उसमें गुणनमाग की कल्पना उसी तरह सम्भव थी जैसी कि परिमित संख्याओं (finite quantities ) में मानी जाती है। गा. ४, ५९.६४- इसी प्रकार, क्षेत्रफल की अंत्य महत्ता को प्रदर्शित करने के लिये, १८४५५ उवसन्नासन्न में परमाणुओं की संख्या ग्रंथकार ने ४८४५५ ख ख द्वारा निरूपित की है। ऐसा प्रतीत १०५४०९ होता है मानों पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण, अर्घ अधः, इन तीन दिशाओं में अंत न होनेवाली श्रेणियों द्वारा संरचिंत अनन्त आकाश की कल्पना से ख ख ख की स्थापना की गई हो। .... गा. ४,७०- यहां आकृति-२५ देखिये । यदि विष्कम्म (व्यास) को d माने, परिधि को 0 मानें और मिज्या को - मानें तो (द्वीप की चतुर्थीथ परिधि रूप धनुष की बीवा )२ = (१) ४२ 1000002 kar 2991, ( chord of a quadrant aro 12 1 = (१) ४२ = २x२ ___पाययेगोरस के साध्यानुसार भी इसे प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि (म क) + (म क) = (क ख) प्राकृति- -- होता है । ग्रंथकार ने फिर इस चतुर्थाश परिधि तथा उसकी बीवा में सम्बन्ध बतलाया है। यथाः १ सम्भवतः 'ख ख ख. अनंतानंत आकाश के प्रतीक के लिये ख शब्द से लिया गया है जहां ख का अर्थ आकाश होता है। या आधुनिक अनंत का प्रतीक मौर्यकालीन ब्राझी लिपि के अनुसार ख से लिया गया प्रतीत होता है। २ वास्तव में आयाम सम्बन्धी एक दिश निरूपण के लिये 'ख' पद लेना आवश्यक है, तथा क्षेत्र सम्बन्धी द्विदिश निरूपण के लिये 'ख ख पद लेना आवश्यक है। इसी प्रकार का प्ररूपण कोस, वर्गकोस आदि में होना आवश्यक था, जिसे ग्रंथकार ने संक्षिप्त निरूपण के कारण न किया हो। उवसन्नासन्न के अंतिम परिणाम को लेकर, हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि उन्होंने १० का वगेमूल दशमलव के किस अंक तक निकाला था, पर अति क्लिष्ट होने से, तथा 2 का सूक्ष्म निरूपण न होने से इस दिशा में अब प्रयत्न करना लाभप्रद नहीं। जम्बूद्वीपप्रशप्ति, १२३, में आनुपूर्वी के अनुसार (११८; १।१८), TT का प्रमाण केवल हाथ प्रमाण तक दिया गया है, मो कुछ भिन्न है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोषपण्णसिका गणित - - १.१७* (चतुर्थश परिधि की बीवा)२४१%=(चतुर्थाश परिधि)२ अथवा, यदि बीवा का ऊपर दिया गया मान लेकर साधन करें तो (चतुर्थोश परिधि) - [२x६]४५-५० = १० अथवा, चतुर्थीच परिधि =V... आबकल, इस (Quadrant are of a circle ).को लिखा जाता है जहां 7 का म ३.१४१५९.."है। (गा. ४, ९४-२६९) . भरत क्षेत्र : (आकृति-२७ अ देखिये।) यहां विस्तार कर ५२६६ योजन है। चित्र में सदाफ विजयाई पर्वत है। गध%२३८१योबन है। दक्षिण विजयाद की बीवाफ - ९७४८१३ योजन है, तथा विजयाद की बोवा सद% १०७२०१७ योधन तथा धनुष स ह प फ द = १०७४३१२ योबन है । चूलिका = (सद-१५) = ४८५३१ योजन है। क्षेत्र और पर्वत की पाश्वभुना = स हद फ= ४८८३१ योजन है। भरत क्षेत्र के उत्तर भाग की बीवा का प्रमाण = अब= १४४७१६ योजन है तथा पशुटर अध% १४५२८१२ योबन है। चूलिका- ६- १८७५१४ योजन है। इत्यादि । साथ ही पार्श्वभुजा अ सब द= १८९२११ योजन है। और यहां चित्र मान प्रमाण पर - नहीं बनाये जा सकते हैं क्योंकि १००००० योजन विस्तार की तुलना में ५२६६६ योजन के प्ररूपण से चित्र स्पष्ट न हो सकेगा। यहां (अकृति-२७ ब) अवधा बघश भरत क्षेत्र है और उससे दुगुने विस्तार ‘क ख' वाला च छ झन आकृति हिमवान् पर्वत है। स सरोवर ५०० योजन पूर्व पश्चिम में तथा १००० योजन उत्तर दक्षिण में विस्तृत है । गंगा, प्रथम, पूर्व की ओर ५०० योजन बहती है और तब दक्षिण की ओर मुड़कर सीधी ५२३३३३३३ योजन हिमवान Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर कर दक्षिण भारत क्षेत्र म र १९७१ योजन [(r) -(r-h)] अबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना पर्वत के अंत तक चाकर, विजयाद्ध भूमि प्रदेश में मुड़ती है। वहां वह पूर्व पश्चिम से आई हुई उन्ममा और निममा से मिलती है। पुनः वह विजयाई को पार कर दक्षिण भरत क्षेत्र में ११९१योषन तक पाकर, पूर्व की ओर मुडकर, मागध तीर्थ के पास समुद्र में प्रवेश करती है। इसी प्रकार सम्मितीय गमन सिंधु नदी का है। गा. ४, १८०- इस गाथा में ग्रंथकार ने उस दशा में जीवा निकालने के लिये नियम दिया है जब कि बाण और विष्कम्भ दिया गया हो। बाण (height of the Begment) को यहां के द्वारा, विस्तार (diameter ) को d द्वारा प्ररूपित कर बीवा ( chord ) का मान निम्न लिखित सूत्र रूप में दिया जा सकता है। जीवा = [()-(-1) - यहां भी पायथेगोरस के नाम से प्रसिद्ध साध्यका उपयोग है। यहां आकृति-२६ से स्पष्ट है कि (उफ)२ = (उप) + (पफ)२ ... (पफ)२ (उफ)-(उप)२ .:. २ पफ %DV [(उफ)२ - (३५)] गा.४, १८१- इस गाथा में प्रथकार ने उस दशा में धनुष का प्रमाण निकालने के लिये स्त्र दिया है बब कि बाण और विष्कम्भ का प्रमाण दिया गया हो। धनुष ( Length of the aro bounding • मारुति च the segment ) का प्रमाण निम्न लिखित रूप में दिया जा सकता है:१ वृत्त की बीवा प्राप्त करने के लिये, बेबीलोनिया निवासी भी प्रायः इसी रूप के सूत्र का उपयोग करते थे जिसके विषय में कूलिज का अभिमत यह है, "The Pythagorean theorem appears even more clearly in Neugebaper and Btravo's translation of another of the cuneiform texts, which we may date somewhere around 2600 B. 0."- Coolidge, A History of Geometrical Mothodo, p. 7, Edn. 1940. सूत्र प्रतीकरूपेण यह है : बीवा =V{di -(d-२)२} जम्बूद्वीपप्रशप्ति में, जीवा =V ४. वाण (विष्कम्भ-बाण ) रूप में दिया गया है। २।२३, ९ श्रादि । इसी प्रकार धनुष =V६ (बाण ) + (बीवा )२ प्ररूपित है । २।२४, २९; ६।१०. + + Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित धनुष = [d+h)-(d] यह देखने के लिये कि यह कहां तक शुद्ध है, हम अर्द्ध वृत्त का धनुष प्रमाण निकालने के लिये h=r रखते हैं। इस दशा में धनुष = V२{[d+rj२ - (d)} DVR[९२ - २] __=Verb =/१० प्राप्त होता है, जिसे आजकल के प्रतीकों में लिखा जावेगा। यह सत्र अपने दंग का एक'। उन गणितज्ञों ने का मान १० मानकर इस सूत्र को जन्म दिया। अनु कल कलन से यदि इसका मान ठीक निकालें तो इस सत्र को साधित करना पड़ेगा: V२-(r-h)२ Total Aro= ? | Ve+( )dx. अथवा, पान के आधार पर, केन्द्र पर आपतित कोण प्राप्त कर धनुष का प्रमाण निकाला जा सकता है। गा. ४, १८२-बब बीवा ( chord ), और विस्तार (diameter ) दिया गया हो तो बाण (Height of the segment) निकालने के लिये यह सूत्र दिया है: h=4-[d cohord]] ---[•-(chord) १हालैण के प्रसिद्ध गणित और भौतिकशास्त्री हाइबिन्स (१६२९-१६९५) ने धनुष और' और बीवा से सम्बन्धित निम्न लिखित सूत्र दिये हैं। --_8[Half the Aro Chord of the wholo Aro 46 A .Chord+256(quarter the aro)-40(Half the aro) .. of the aro) Doarly इन सूत्रों में Chord का मान VIE-(r-h)२] रखा जा सकता है तथा ग्रन्थकार द्वारा दिये गये सूत्र से तुलना की जा सकती है। २ चम्मूदीपप्राप्ति २२५, ६।११. स्पष्ट है, कि यह सूत्र, निम्न लिखित समीकरण को साधित करने पर प्राप्त किया गया होगा:४h+(बीया)२-८r.h%D0, यहां b =r4 [* - (चीवा)] प्राप्त होता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना उपर्यत सूत्र में + की जगह केवल - (ऋण) ग्रहण करना उल्लेखनीय है। प्रास होनेवाले दो प्रमाणों में से छोटी अवधा के लिये प्रमाण प्राप्त करना उनके लिये इष्ट था। पुनः, गाथा, १८० और १८१ में दिये गये सूत्रों में से निरसित (eliminate) करने पर धनुष, जीवा और बाण में सम्बन्ध प्राप्त होता है: (धनुष) = ६h + (बीवा)२ तथा, ४ ॥+४ (जावा) को ४ (अर्द धनुष की बीना)र लिखने पर हमें निम्न लिखित सम्बन्ध प्राप्त होता है: (धनुष) = २ ॥२+४(अर्द्ध धनुष को जीवा)२ इसी प्रकार अन्य सम्बन्ध भी प्राप्त किये जा सकते हैं। गा.४, २७७-२८३- इन गायाओं में नियय काल का स्वरूप बतलाया गया है। गा.४, २८५-८६- म्यवहार काल की इकाई 'समय' मानी गई है। इसे अविभागी काल भी माना है वो उतने काल के बराबर होता है, बितने काल में पुद्गल का एक परमाणु आकाश के दो उत्तरोत्तर स्थित प्रदेशों के अन्तराल को तय करता है। ___ असंख्यात समयों को एक आवलि और संख्यात आवलियों का एक उच्छवास होता है-इसे अंथकार ने निम्न लिखित रूप में भंकसंदृष्टियों द्वारा प्रदर्शित किया है। हो सकता है कि असंख्यात का निरूपण २ तथा संख्यात का ६ के द्वारा किया हो । आगे, उच्छवास = १ स्तोक, ७ स्तोक = १७व, ३८३ लव = १ नाली, २ नाली = १ मुहूर्त, ३. मुहूर्त =१ दिन, १५ दिन = १ पक्ष, २ पक्ष = १ मास, २ मास =१ ऋतु, ३ ऋतु = १ अयन, २ अयन - १ वर्ष, और ५ वर्ष = १ युग होता है। इस प्रकार, आगे बढ़ते हुए, एक बड़ा व्यवहार १ यहाँ स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि किस गति से. परमाणु गमन करता होगा, क्योंकि मैदतम गति कहना भी आपेक्षिक निरूपण है प्रकेवल नहीं। वीरसेन के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है, कि परमाणु ऐसे एक समय में १४ राजु प्रमाण दूरी भी अतिक्रमण कर सकता है। पर, पुनः समय अपरि. षित ही रहता है, क्योंकि एक समय में विभिन्न दूरियों का अतिक्रमण गति को स्पष्ट कर देता है, पर स्वयं अस्पष्ट रहता है। यदि समय को अविभागी मानते हैं तो एक समय में १४ राजु अतिक्रमण होने से, ७ राजु अतिक्रमण कब हुआ होगा-इस तर्क का स्पष्टीकरण नहीं होता, क्योंकि समय, "अविभाज्य" कल्पना के आधार पर सम्भव नहीं है। इस प्रकार यह कथन एक उपधारणा (postulate) बन जाता है, वहां तर्क और विवाद को स्थान नहीं है। डाक्टर आईसटीन ने भी प्रकाश की अचल गति के सिद्धान्त को उपधारित कर, माइकेल्सन मारले प्रयोग आदि को समझाया है, जहां यदि प्रकाश की लहर पर ही बैठकर, प्रकाश के समान गतिमान होकर कोई अवलोकन कर्त्ता गमन करे तो वह यही अनुभव करेगा कि प्रकाश उसके आगे वही गति से बा रहा है, जैसा कि उसने गतिहीन अवस्था में अनुभव किया था। ऐसे लोक सत्य (universal truth) का अनुभव छद्मस्थ नहीं कर सकते। पर, गणितीय अंतर्दृष्टि से यह सम्भव है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो एलिया के जीनो ने अंतिम दो तर्कों द्वारा इसी प्रश्न का समाधान करने का प्रयास किया हो। जीनो ( ४९५ १ ४३५१ ईस्वी पूर्व) के चार तर्कों का सर्वमान्य समाधान गत प्रायः २३०० वर्षों से नहीं हो सका है। विशेष विवरण के लिये "Greek Mathematics by Heath, pp. 271-283, Edn. 1921". दृष्टव्य है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित 'काल प्रांत किया गया है। यह अचलाम है जो (८४) ३१ x (१०) १० वर्षों के समान है। मूल में दो बीच के नाम नहीं दिये गये हैं जिससे (८४)X (१०) २० वर्ष ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह संख्यात काल के वर्षों की गणना द्वारा, उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त हो जाने तक ले जाने का संकेत है। अगले पृष्ठ पर उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त करने की रीति दी गई है । गा. ४, ३१०-१२ यहां यह बात उल्लेखनीय है कि चैनाचार्यों ने प्राकृत संख्याओं एवं राशि (Bet) सिद्धान्त के द्वारा असंख्यात और अनन्त की अवधारणाओं का दर्शन कराने का प्रयत्न किया है । असंख्यात और अनन्त की प्राप्ति प्राकृत संख्याओं पर क्रमबद्ध क्रियाओं द्वारा तथा असंख्यात एवं अनन्त गणात्मक संख्यावाली राशियों की सहायता से की है। यह बात भी सूचित कर दी गई है कि 'संख्यात' चौदह पूर्व के ज्ञाता अंत केवली का विषय है ( देखिये पृ० १८०), 'असंख्यात' अवधिज्ञानी का विषय है ( पृ० १८२), और 'अनन्त' केवली का विषय है ( पृ० १८३ ) अर्थात् इन्हीं निर्दिष्ट व्यक्तियों को इनका दर्शन (perception) हो सकता है। जैसे असंख्यात प्रदेशों युक्त दांगुल की सरल रेखा का दर्शन हमारे लिये सहब है, उसी तरह 'अनन्त रूप में अवस्थित फेवली के लिये अनन्त रूप में दृष्टिगोचर होती होगी। इस पर सभी एक मत न हों, के इतने उच्च भेणियुक्त आदर्श की कल्पना करना भी हानिप्रद नहीं है। शान की साममियां पर शान के विकास अनन्त ( infinite ) के कई प्रकार जैनाचार्यों ने स्थापित किये हैं जैसे (१) नामानन्त ( Infinite in Name), स्थापनानन्त ( Attributed Infinite ), (३) द्रम्यानन्त ( Infinity of substances ), (४) गणनानन्त (Infinite in Mathematics ), (५) १ In history of Western philosophy the term Infinite to aretpoy is mot with, apparently for the first time, in the teaching of Anaximander (6th cent. B. C. ). He used is to describe what be conceived to be the primal matter, principle', or origin of all things."-Encyclopaedia Brittannica, Vol. 12, p. 340, Edn. 1929. "The chief types of infinitude which come to the attention of the mathe. matician and philosopher are cardinal infinitude, ordinal infinitude, the infinity of measurement, the oo of algebra, the infinite regions of geometry and the infinite of metaphysics".-The Encylopedia Americana, vol. 15, p. 120. Edn. 1944. ३ आगे, गणितीय अनन्त धारणा को निम्न लिखित रूप से इस तरह प्रदर्शित किया है, "If the law of variation of a magnitude is such that x becomes and remains greater than any preassigned magnitude however large, then x is said to become; infinite, and this conception of infinity is denoted by oo " इसी के सम्बन्ध में जेम्स पायरपॉट ( James Pierpont) हिलते है, "Historically the first number to be considered were the Positive integers 1, 2, 3, 4, 5, 6... we shall denote this system of numbers by w This system is ordered, infinite......The symbols + are not numbers; io. they do not lie in w. They are introduced to express shortly certain modes of variation which occur constantly in our reasonings." The Theory of Functions of Real Variables, Vol. 1, p. 80. एक प्रसिद्ध गणितश का अनन्त के सम्बन्ध में विचार इस प्रकार उल्लेखित है "An infinite number, "says Bosanquet, "would be a numb r which is no particular number, for every particular is finite. It follows from this that infinite number is unreal." The Enoyalopedis Americana, Vol. 15, p. 121. पर जैनाचायों द्वारा दी गई अनन्त की आगे के पृष्ठ पर देखिये ) ५५ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना अप्रदेशिकानन्त (Dimensionless Infintesimal), (६) एकानन्त (One directional Infinity ), (७) उभयानन्त (Two direotional Infinity ), (८) विस्तारानन्त (Superficial Infinity), (९) सर्वानन्त (Spatial Infinity ), (१०) भावनानन्त (Infinity of Knowledge), (११) शाश्वतानन्त ( Everlasting). आगे, गणनानन्त का विशद विवेचन दिया गया है। सबसे पहिले स्थूल रूप से संख्या को जैनाचार्यों ने तीन भागों में विभाजित किया है; (१) संख्यात Finite or numerable, (२) असंख्यात Innumerable, और (३) अनंत Infinite. यहां हम, सुविधा के लिये, वैज्ञानिक ढंग से प्रतीकों द्वारा इन विभाजनों का निरूपण करेंगे। संख्यात को B, असंख्यात को A, तथा अनन्त को I के द्वारा निरूपित करेंगे। संख्यात को तीन भागों में विभाजित किया गया है: अपन्य संख्यात, मध्यम संख्यात और उत्कृष्ट संख्यात जिन्हें हम क्रमशः 85, Sm, और Su लिखेंगे । असंख्यात को पहिले परीतासंस्मत, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात में विभाबित कर, पुनः प्रत्येक को बपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में विभाजित किया गया है, जिन्हें हम क्रमश: Ap, Ay, Aa sitt Apj, Apm, Apa; Ayj, Aym, Ayu ata Aaj, Aam, Aao od निरूपित करेंगे। इसी प्रकार, अनन्त का पहिले परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त में विभाजन के पश्चात् इनमें से प्रत्येक को बपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट श्रेणी में रखा है। हम इन्हें क्रमश: Ip, Iy, II और Ipj, Ipm, Ipu; Iyj, Iym, Iyu तथा Iij, Iim, Iin द्वारा निरूपित करेंगे। उत्कृष्ट संख्यात (Sa) को प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित क्रिया का वर्णन है:-जम्बूद्वीप के समान लम्ब वर्तुल रम्भाकार १ लाख योजन विष्कम्भ ( Diameter ) बाले तथा १ हजार योजन उत्सेध ( height) वाले चार कुंड स्थापित करते हैं। ये क्रमशः शलाका कुंड, प्रतिथलाका कुंर, महाशलाका कुंड और अनवस्थित कुंड कहलाते हैं। अन्तिम अनवस्थित कुंर को यदि दो सरसों से भरा बावे तो इस राशि प्रमाण बघन्य संख्यात होता हैISi=२। यहां यह उल्लेखनीय है कि १ की गणना, संख्यात में नहीं है। यह प्रथम विकल्प है। २से ऊपर की वे सब संख्याएं बो उत्कृष्ट संख्यात तक प्राप्त नहीं होती, मध्यम संख्यात [Sm>२ पर SmPage #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णतिका गणित की संख्या युग्म ( Even Number )है, इसलिये अन्तिम सरसों उपर्युक्त संख्या के द्वीप. समुद्रों का अतिक्रमण कर समुद्र में गिरेगा। जिस समुद्र में गिरे उसके विष्कम्भ के बराबर फिर से बेलनाकार १००० योजन गहरा कर खोदकर उसे सरसों से पूर्ण भरे और इसी समय ऊपर लिखी हुई क्रिया की समाप्ति को दर्शाने के लिये शलाका कुंड में एक सरसों डाले। इस प्रकार की क्रिया फिर से की जाय ताकि यह दूसग कुंड भी खाली हो जाय; तभी शलाका कुंड में दूसरा सरसों डाले और बिस द्वीप या समुद्र में उपर्युक्त कुंड का अन्तिम सरसों पड़े उसी के विष्कम्भ का और १००० योजन गहराई का बेलनाकार कुंड खोदकर फिर उसे सरसों से भरकर पुनः खाली कर शलाका कुंड में तीसरा सरसों डाले। यह क्रिया करते करते जब शलाका कुंड भी भर बाये तब प्रतिशलाका कुंड भरना आरम्भ करे। अब वह भी भर बाये तब एक एक सरसों उसी प्रकार महाशलाका कुंड में भरना आरम्भ करे। उसके पूरा भरने पर संख्यात द्वीप समुद्रों का अतिक्रमण कर अन्तिम सरसों जिस द्वीप या समुद्र में पड़े उसी के विस्तार का और १००० योजन गहराई का कुंड खोदकर उसे सरसों से पूर्ण भर दे। जितने सरसों इस गड़े में समागे वह अपन्य परीतासंख्यात Apit और इसमें से १ षटा देने पर उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होता है। Su= Apj-१ इस प्रकार SubSm>Sj>१ और Apj>Su तथा परिभाषानुसार Apu > Apm > Api ti Apu अर्यात् उत्कृष्ट परीत असंख्यात प्राप्त करने के लिये इसी का विरलन करके, एक एक रूप के प्रति वही संख्या देकर परस्पर गुणन करने से बघन्य युक्तासंख्यात प्राप्त होता है, जो उत्कृष्ट परीत असंख्यात से केवल १ अधिक होता है: [Apf] Pi-Ayj - Apu+१ इसके पश्चात् परिभाषा के अनुसार, ___Ayu>AymAyi>Apu है। उत्कृष्ट युक्त असंख्यात प्राप्त करने के लिये, बघन्य युक्त असंख्यात का वर्ग करने से बो बघन्य असंख्यात प्राप्त होता है, उसमें से १ पटाना पड़ता है: [Ayj]' =Aaj= Ayu+१ ag Aan > Aam > Aaj > Ayuti Aau का मान Ipj से १ कम है। इस Ipi ( बघन्य परीत अनंत ) को प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित क्रिया हैof Equality, Majority, and Minority bave no place in Infinities, but only in termi. nato quantities......". यहां Numbers का आशय केवल प्राकृत संख्याओं १, २, ३.."इत्यादि से है। __ अच, इसी पुस्तक में पृष्ठ २७५ पर अंकित यह अवतरण देखिये "Resolving Simplicius' doubt about the conceit of 'assigning an Infinite bigger than an Infinito,' Cantor proceeded to describe any desired nunbar of such bigger Infinities. First, there is said to be no difficulty in imagining an orderd infinite class; the natural numbers 1.2,3,......themselres suffice. Beyond all these, in ordinal numeration, lies wi boyond w lios w+1; thon w+2, and so on, until w2 is reached, when w2+1, W2+2.......are attainod; beyond all these lies wo, and ति. ग.८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जंभूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना आरम्भ में Aaj की दो प्रतिराधियां स्थापित करते है, इनमें से एक Aajराशि को शलाका प्रमाण स्थापित करते हैं। दूसरी Aaj राशि को विरलित कर उतनी ही राशि पुंष को १, १, रूप में स्थापित कर, परस्पर में गुणन कर b राशि उत्पन्न करते हैं, और Aajशलाका प्रमाण राशि में से १ घटा देते हैं। अब राशि का विरलन कर १, १, रूप को b राशि ही देकर परस्पर गुणन करके राशि उत्पन्न करते हैं और अब Aajशलाका प्रमाण राशि में से १ और घटा देते है। यह क्रिया तब तक करते बाते हैं, जब तक कि शलाका प्रमाण राशि Aaj समाप्त नहीं हो जाती। प्रतीक रूप से; FAajTAai = b: [b] =0; [0] =d; did=e; इसी प्रकार करते जाने के पश्चात् बब Aaj बार यह क्रिया हो चुके तब मान को j राशि उत्पन्न होती है। फिर से, 5 राशि की दो प्रति राशियां करके, एक को शलाका रूप स्थापित कर और दूसरी को विरलित कर, एक, एक भंक के प्रति ही स्थापित कर परस्पर मुणन करने से बोk राशि उत्पन्न हो तो शलाका प्रमाण राशि में से एक घटा देते हैं। फिर इस को लेकर उसी प्रकार विरलित कर, १,१रूप के प्रति k.k. स्थापित करने पर बो राशि उत्पन्न हो तो शलाका प्रमाण स्थापित राशि में से १ और घटा देते हैं। इस प्रकार यह क्रिया तब तक करते जाते हैं, जब तक किj शलाका राशि समाप्त नहीं हो जाती । प्रतीक रूप से; =k : [s] =1;[1]= m,... इत्यादि जब तक करते जाते हैं, अब तक कि बार यह क्रिया न हो बावे, और अंत में मान लो Pराशि उत्पन्न होती है। अब फिर से P राशि की दो प्रतिराशियां करके, एक को शलाकारूप स्थापित कर और दूसरी को विरलित कर, एक, एक अंक के प्रति P ही स्थापित कर परस्पर गुणन करने से बो Q राशि उत्पन्न boyond this w2+1, and so on, it is said, indefinitely and for ovor. If the first stop-after which all the rest seems to follow of itself-offers any difficulty, we have to grasp the soheme 1, 3, 6,...' 2n+l,......I2, in which, after all the odd natural numbers have been counted off, 2, which is not one of them, is imaginod as the next in order. One purpose of Cantor in constructing these transfinite ordinals. w.w+1......was to provide a means for the counting of well ordered classeg. a class being well-ordered if its members are ordered and eaoh has a unique 'Successor'." इसके पश्चात् दूसरे अवतरण में इसी पृष्ठ पर उल्लिखित है “For cardinal numbers also Cantor described 'an Infinito bigger than an Infinite' to confound the Simpliciuses....... He proved ( 1874) that the olass of all algebraic numbers is denumerable, and gave ( 1878 ) a rule for constructing an infinite non-denumerable class of real numbers. Were we to make a list of specta cularly unexpected discoveries in mathmatics, there two might head our list.” परन्तु, जहां जैनाचार्यों ने वरिमा में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की संख्या समतल या सरल रेखा पर, स्थित प्रदेश बिन्दुओं की संख्या से भिन्न मानी है, वहां जार्ज कैंटर ने असद्भासी-सा दिखनेवाला प्रतिपादन किया है जो इसी पुस्तक में पृष्ठ २७७ पर इस प्रकार अंकित है- "Cantor proved ti instance all the points in the whole space can be put in one-one correspondence with Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलोयपण्णत्तिका गणित हो, तो शलाका प्रमाण राशि P में से एक घटा देते हैं। फिर Q को लेकर उसी प्रकार विरलित कर, १,१रूप के प्रति Q. स्थापित करने पर बो R राशि उत्पन्न होती है, तो शलाका प्रमाण स्थापित राशि P में से १ और घटा देते। इस प्रकार यह क्रिया तब तक करते जाते हैं, जब तक कि शलाका राशि P समाप्त नहीं हो जाती । प्रतीक रूप से; [P] = Q, [aj = R इत्यादि और जब यह क्रिया P बार की जा चुके तब अंत में उत्पन्न हुई राशि मान लो T है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीरसेनाचार्य ने D को Aaj की तीसरी बार वर्गित सम्बर्गित राशि कहा है। हम, इस तीसरी बार वर्गित सम्वन्ति प्रक्रिया के लिये संकेतना का उपयोग करेंगे। all the points on any straight-line segment. In a plane, for example, there are preoisely as many points on A segment an inoh long as there are in the entire plane. (1) This, of course, is oontrary to common sense; but common sense exists chiefly in order that reason may have its simpliciuses to contradict & onlighten". और, अमिनवावधि में ही प्रसाधित वह प्रश्न बिसने कैटर को भी स्तब्ध कर दिया था, यह था, "Another problem whiob bafiled Cantor was to prove or disprove that there exists a clase whose cardinal number exceeds that of the olass of natural numbers and is exoveded by that of thoolses of real numbers..." इस प्रकार के अल्पबहत्व (comparability) सम्बन्धी प्रकरण में जैनाचार्यों ने बो परिणाम सत्रों द्वारा उल्लिखित कियेखोज की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। विशद विवेचन के लिये Fraenkel की "Abstraot Set Theory" दृष्टव्य है। आगे, बैनाचार्यों की अनन्ती की अवधारणा से हारवर्ड के प्रोफेसर रायस की निम्न लिखित कुछ अवधारणाओं से तुलना करिये, बो Enoyolopedia Americana vol. 15 के पृष्ठ १२० आदि से यहां उधृत की गई है: ____ "1) The true infinite, both in magnitude and in organisation, although in one sense endless, & so incapable in that sense of being completely grasped, is in another, and preciso sense, something perfootly determinate. 2) This determinateness is a character which indeed, includes and involves the endlessness of an infinite series, but the more endlenness of an infinite series is not its primary character, but simply a negatively result of the self representative character of the whole system. 3) The endlessness of this series means that by no merely successive process of counting in God or in man, is its wholeness ever exhausted. 4 ) In consequence the whole endless series in so far as it is a reality must be prosent, as a determinato order, but also all at once, to the absolute experience. It is the process of successive counting, as such, that remains, to the end incomplete so as to imply that its own possibilities are not yet realized........." गणित के इतिहासकारों द्वारा कहा जाता है कि सबसे पूर्व प्राकृत संख्याओं के द्वारा इस संहति से दूसरी नवीन संहति (भिन्नों) की खोज बेबीलोन और मिश्र के निवासियों ने व्युत्क्रम करने की रीति (Method of Inversion) से की थी। प्राथमिक व्युत्क्रम की अन्य रीतियां योग और वियोग: | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णचिकी प्रस्तावना यहां उल्लेखनीय है कि तिलोयपण्णति की उपर्युक्त शलाका निष्ठापन विधि से मो राशि प्राप्त होती है वह उपर्युक्त तीसरी बार वर्गित सम्वर्गित राशि से कई कदम ( steps ) आगे जाकर प्राप्य है । इस प्रकार वीरसेन तथा यतिवृषभ की इस विषयक निरूपणा (treatment) भिन्न भिन्न है जिससे परिकलित औपचारिक असंख्यात एवं औपचारिक अनन्त की अर्हाए भिन्न प्राप्त होती है। यह तथ्य ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ग्रंथकार कहते हैं कि इतने पर भी उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात प्राप्त नहीं होता। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश और एक बीव; इन चारों की प्रदेश (Spatial Points) संख्या लोकाकाश में स्थित प्रदेशों की गणात्मक संख्या प्रमाण है। प्रत्येक शरीर और बादर प्रतिष्ठित राशियां (अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि और प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि) दोनों क्रमशः असंख्यात लोक प्रमाण है। इन छहों असंख्यात राशियों को T में मिलाकर प्राप्त योग से पहिले के समान तीन बार वर्गित सम्वर्गित राशि प्राप्त करते हैं। फिर भी, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात राशि उत्पन्न नहीं होती। मान लो उपर्युक्त क्रिया करने पर U राशि उत्पन्न होती है। इस तरह प्राप्त U राशि में स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाभ्यवसायस्थान, मन, वचन, काय योगों के अविभागप्रतिच्छेद और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय', इन राशियों को मिलाकर पूर्व के ही समान तीन बार वर्गित सम्बनित करने पर जो राशि V उत्पन्न होती है वह बघन्य परीतअनंत (lpj) प्रमाण संख्या होती है। इसमें से १ घटाने पर उत्कृष्ठ असंख्यातासंख्यात प्रमाण संख्या प्राप्त होती है। प्रतीक रूप से । lpj%Aau+१=v+१ और lpu>lpm>lpj इसके पश्चात् बघन्य युक्तानन्त प्राप्त करते हैं। घात बढ़ाना और मूल निकालना हैं। ये सभी क्रियाएं प्राचीन काल में ज्ञात थीं। मूल निकालने की क्रिया से अपरिमेय संख्याओं का तथा ऋणात्मक संख्याओं के मूल निकालने से काल्पनिक संख्याओं का आविष्कार हुआ। जैनाचार्यों ने शलाकात्रय निष्ठापन विधि से तथा उपधारित असंख्यात राशियों के योग से ऐसी संख्याओं को निकालने का प्रयत्न किया जिन्हें उन्होंने असंख्यात संशा दी. तथा उपधारित अनन्त राशियों के मिश्रण द्वारा प्राप्त राशियों से प्राप्त प्रमाण संख्याओं को अनन्त संज्ञा दी- अनन्त अर्थात् जिसे उत्तरोत्तर गिनकर अथवा व्यय कर या एक अथवा संख्यात अलग कर कभी भी समाप्त न किया जा सके। १ "The biggest unit of time is the Maha-kalpa ( महाकल्प ) made up of two aeons Avgarpni and Utsarpni, each consisting of 4134526303082031777496121920000000000000000000000000000000000000000000000. 0000 ( 77 digits ) solar years. (The Brahm Kalpa of the Hind us also consits of 77 digits but the digits do not agree )", Cosmology Old and New, Page 231. धर्म द्रव्य के प्रदेश असंख्यात, अधर्म द्रव्य के प्रदेश असंख्यात तथा उस एक जीव के (बो केवलीसमुद्घात के समय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है) प्रदेश भी असंख्यात माने गये हैं। लोक के प्रदेश असंख्यात है। असंख्यात लोक प्रमाण का अर्थ लोक के प्रदेशों की गणात्मक संख्या असंख्यात राशि की असंख्यातगुनी राशि । प्रत्येक शरीर और बादरप्रतिष्ठित जीवों को Souls in ordinary vegetation और Souls in vegetable parasitio groups कहा जा सकता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित Iyj = [IpjjPi = अभव्य सिद्ध राशि और Iyj = Ipu+१ फिर Iyu>lym>Iyi>Ipu तथा Iij= [Iyi] = Iyu+१ Iसे उत्कृष्ट अनन्तान्त प्राप्त करने के लिये जघन्य अनन्तानन्त को पूर्ववत तीसरी बार वर्गित सम्वनित करने पर भी Iiu प्राप्त नहीं होता। मान लो ८ प्रमाण संख्या प्राप्त होती है। इस में सिद्ध, निगोद बीव, वनस्पति, काल, पुद्गल और समस्त अलोकाकाश की छह अनन्त गणात्मक संख्याओं को मिलाकर योग को पूर्ववत् तीन बार वर्गित संगित करते हैं, तिस पर भी उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त न होकर मान लो राशि उत्पन्न होती है। इस B में, तब, केवलज्ञान अथवा केवलदर्शन के अनन्त बहुभाग ( उक्त प्रकार से प्राप्त राशि से हीन !) मिलाने पर Iiu उत्पन्न होता है। वह भाजन है, द्रव्य नहीं है, क्योंकि इस प्रकार वर्ग करके उत्पन्न सब वर्ग राशियों का पुंज (8) केवलज्ञान केवलदर्शन के अनन्तवें भाग है। यह ध्यान देने योग्य है कि Aa तथा Ii को Aam तथा lim अथवा अजघन्यानुत्कृष्ट Aa तथा Ii निर्देशित किया गया है। अब हम कुछ उल्लेखनीय बातों का विवेचन करेंगे। यद्यपि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों की संख्या का प्रमाण लोकाकाश में माने गये प्रदेशों की संख्या से असंख्यातगुणा है, तथापि उपचार से उस प्रमाण को असंख्यात संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार, यद्यपि उपरोक्त प्रमाण से असंख्यात लोक प्रमाण संख्या गुणा प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव राशि के गणात्मक का प्रमाण है तथापि उपचार से उसे असंख्यात लोक प्रमाण कहा गया है। स्मरण रहे कि 'असंख्यात' शब्द से केवल एक संख्या का बोष नहीं होता, वरन् उस सीमा में रहनेवाली संख्याओं का बोध होता है जो न तो संख्यात है और न अनन्त । इस प्रकार असंख्यात संख्या की असंख्यातगुणी संख्या भी असंख्यात सीमा में ही रहेगी. उसका उलंघन न करेगी। जैसा, मुझे प्रतीत होता है, उसके अनुसार, मध्यम असंख्यात-असंख्यात भी संख्यात है। अर्थात् उसकी गणना हो सकती है, पर उसे उपचार रूप से असंख्यात की उपाधि दे दी गई है। वास्तविक असंख्येयता तभी प्रविष्ट करती है जब कि धर्मादि द्रव्यों के असंख्यात प्रमाण प्रदेशों से मध्यम असंख्यातासंख्यात को युक्त करते हैं। इसके पूर्व, उत्कृष्ट संख्यात तक ही अलकेवली का विषय होने के कारण, तदनुगामी संख्या यद्यपि असंख्यात कहलाती है, पर परिभाषानुसार नहीं होती, उपचार से कहलाती हैं। असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान प्रमाण संख्या का आशय स्थितिबन्ध के लिये कारणभूत आत्मा के परिणामों की संख्या है। इसी प्रकार इससे भी असंख्यात लोक गुणे प्रमाण अनुभागबन्धाभ्यवसायस्थान प्रमाण संख्या का आशय अनुभागबन्ध के लिये कारणभूत आत्मा १ सिद्धों की संख्या अभी तक अनन्त मानी गई है पर वह सम्पूर्ण लोक के जीवों की कुल संख्या से अनन्तगुनी हीन है। निगोद जीवों (akin to bacteria and unicellular organism of modern biology but conceived to die and to come to life eighteen times during time of one breath ) की संख्या सिद्धों की संख्या से अनन्तगुनी बड़ी मानी गई है। वनस्पतिकाय जीवों की संख्या भी सिद्धों की संख्या से अनन्तगुनी बड़ी मानी गई है। उसी प्रकार लोकाकाश के पुद्गल द्रव्य के परमाणुओं की संख्या जीव राशि से अनन्तगुनी बड़ी मानी गई है। त्रिकाल में समयों की कुल संख्या पुद्गल के परमाणुओं की संख्या से अनन्तगुनी मानी गई है और अलोकाकाश के प्रदेशों की संख्या अनन्तानन्त मानी गई है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जीवपत्तिकी प्रस्तावना के परिणामों की संख्या है। इससे भी भसंख्यात लोक प्रमाणगुणे, मन वचन काय योगों के अविभागप्रतिच्छेदों ( कर्मों के फल देने की शक्ति के अविभागी अंशों) की संख्या का प्रमाण होता है। इसी प्रकार यद्यपि उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात और अन्य परीतानन्त में केवल १ का अंतर हो चाने से ही 'अनन्त' संशा उपचार रूप से प्राप्त होती है। अवधिशनी का विषय उत्कृष्ट असंख्यात तक का होता है, इसके पश्चात् का विषय केवलशानी का होने से, अनन्त संशा प्राप्त हो पाती है। वास्तव में, व्यय के अनन्त काल तक भी होते रहने पर बो राशि क्षय को प्राप्त न हो उसे 'अनन्त' कहा गया। इस प्रकार, बब जघन्य अनन्तानन्त की तीन बार वर्गित सम्बनित राशि में, अनन्त राशियां मिलाई जाती है, तभी उसकी अनन्त संज्ञा सार्थक होती है। वीरसेनाचार्य ने अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल के अनन्तत्व के व्यवहार को उपचार निबन्धनक बतलाया है। भव्य बीव राशि भी अनन्त है। शंका होती है कि अब अर्द पुद्गलपरिवर्तन काल की समासि हो जाती है तो भन्य बीव राशि भी क्यों क्षय को प्राप्त न होगी। इस पर आचार्य ने कथन किया है कि अनन्त राशि वही हैबो संख्यात या असंख्यात प्रमाण राशि के व्यय होने पर भी अनन्त काल से भी क्षय को प्रासन ही होती। अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल, यद्यपि 'अनन्त' संज्ञा को अवधिज्ञान के विषय का उलंघन करके प्राप्त है, तथापि असंख्यात सीमा में ही है। इस प्रकार, व्यय के होते रहने पर भी, सदा अक्षय रहनेवाली भव्य बीव राशि समान और भी राशियां बो क्षय होनेवाली पुद्गलपरिवर्तन काल बैसी सभी राशियों के प्रतिपक्ष के समान, उपर्युक्त विवेचनानुशार पाई जाती है। बाई केटर ने प्राकृत संस्थाओं (१, २, ३,...."अनन्त तक) के गणात्मक प्रमाण को एक राशि अथवा कुलक मान किया है, जिसे No (Aleph Nought) प्रतीक से निर्देशित किया है। इस अनन्त प्रमाण राधि से, गण्य (Denumerable) राशियों के प्रमाण स्थापित किये गये हैं और सिद किया गया है कि २No=No, तया (No) = No आदि । हसी प्रकार No से बड़ी संख्या का आविष्कार, गणित क्षेत्र में अद्वितीय है। कर्ण विधि (Diagonal Method) के द्वारा सिद्ध किया गया है कि . २No>No. विशद विवेचन अत्यन्त रोचक है तथा बैनाचार्यों को विधियों से उनका तुलनात्मक अध्ययन, सम्भवतः गणित के लिये नवीन पथ प्रदर्शित कर सकेगा। यहां प्रथकार ने यह भी कथन किया है कि वहां वहां संख्यात S को खोबना हो, वहां वहां अबपन्यानुत्कृष्ट संख्यात (Sm) पाकर ग्रहण करना चाहिये (बो एक स्थिर राशि नहीं है वरन् ३ से लेकर भागे तकाकी कोई भी राशि हो सकतीहैबो उत्कृष्ट संख्यात से छोटी)। उसी प्रकार यहां वहां असंख्यातासंख्यात की खोज करना हो वहां वहां अबघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात (Aa ग्रहण करना चाहिये; तथा अंत में वहां वहां अनन्तानन्त का ग्रहण करना हो वहां वहां lim का ग्रहण करना चाहिये। गा.४, १४४३-मूल में वो संदृष्टि दी गई है उसमें चौथी पंक्ति में रुद्र की अंक संदृष्टि ४ मान कर प्रतीक रूप से उसे उन चौंतीस कोठों में स्थापित किया गया है। गा.४, १६२४- हिमवान् पर्वत की उत्तर बीवा २४९३२६९ योजन, तथा धनुपृष्ठ २५२३०१ योचन है । यह सब गणना, उपर्युक्त सूत्रों से, का मान V१० मान कर की गई है। १ षटखंडागम, पुस्तक ४, पृष्ठ ३३८, ३३९. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णसिका गणित (गा. ४, १७८० आदि) मान को प्रमाण न लेकर मेरु पर्वत का आकार आकृति-२८ 'अ', 'ब' से स्पष्ट हो जावेगा २५ PLAN यह आकृति रम्भों तथा शंकु समच्छिन्नकों से बनी हुई है। मूल गाथा में इसे समान गोल शरीरवाला मेरु पर्वत 'समवतणुस्स मेस्स' कहा गया है। सबसे निम्न भाग में चौड़ाई या समतल आधार का व्यास १००९०२.योजन है और यह समान रूप से घटता हआ १०००.० योजन ऊंचाई पर, केवल १००. योबन चौड़ा रह गया है। मेरु पर्वत का समान रूप से ह्रास ऊपर की ओर होता है। प्रवण रेखा लम्ब से 9 कोण बनाती है जिसकी स्पर्श निष्पत्ति, स्प0 = = ४५... - .::. है । यहां आकृति-२९ अ और ब देखिये । b. -- -- १0000 पो. ---- +-१२०००यो +-to -. ..- . -१००० १०..प्राकृति मो. यो. १६ मल भाग में १००० योजन तक समरूप से यह पर्वत हासित होता गया है। व्यास, तल में १.०९०१५योजन है तथा १००० योजन ऊँचाई पर १०००० योजन है। इसलिये, प्रवण रेखा यहां भी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणतिकी प्रस्तावना ५०० उदन रेखा से 8 कोण पर अमिनत है, जिसकी स्पर्श निष्पत्ति स्प8 = ४५ो - ५०० है। १००० ११००० इसके पश्चात्, ५०० योजन की ऊँचाई पर जाकर व्यास ५०० योजन चारों ओर से घट माता है तथा इसी व्यास का रम्भ ११००० योजन की ऊंचाई तक रहता है। यहां ( आकृति-२९ स) उदय रेखा अथवा रम्भ की जनन रेखा प्रवण रेखा से कोण बनाती है, जिसकी स्पर्श निष्पति फिर से है। . इसी प्रकार, ५१५०० योजन ऊपर खाकर व्यास चारों ओर ५०० योजन घटता है तथा उस पर ११००० योजन उत्सेध की रम्भ स्थापित रहती है। अंत में २५००० योजन ऊपर और चाकर ५०० योजन त्रिज्या चारों ओर से ४९४ योजन कम होती है, इसलिये केवल १२ योवन चौड़े तलवाली तथा ४० योजन उत्सेध की, मुख में ४ योजन व्यासवाली चूलिका सबसे ऊपर, अंत में, रहती है (आकृति-२९ द)। चूलिका की पार्श्व रेखा उदन से 'कोण बनाती है जिसकी स्पर्श निष्पत्ति स्प' है। गा.४,१७९३-इस गाथा में, शंकु के समच्छिन्नक की पार्श्व रेखा का मान निकालनेके लिये जिस सूत्र का प्रयोग किया है वह प्रतीकरूप से यह है. (आकृति-३० अ) यहां भूमि D, मुख d, ऊँचाई h, पार्श्वभुजा को 1 माना गया है, तदनुसार; . साक्षति २० गा. ४, १७९७ - बिस तरह त्रिभुज संक्षेत्र ( Triangular Prism) के समच्छिमक (Frustrum) के अनीक समलम्ब चतुर्भुज होते हैं, उसी प्रकार शंकु के समन्छिनक को उम्र समतल द्वारा केन्द्रीय अक्ष में से होता हुआ काटा बावे तो छेद से प्राप्त आकृतियां भी समलम्ब चतुर्भुव प्राप्त होती है। इसलिये, यहां स्त्र में, पहिले दिया गया स्त्र उपयोग में लाया जाता है। LIV(D-d) + (E)२ - - यदि, चूलिका के शिखर से 5 योजन नीचे विष्कम्म निकालना हो, तो निम्न लिखित सूत्र का उपयोग किया जा सकता है। (आकृति-३० ब) ------x r=h [P]+b प्राकृत - अथवा : = D - [(E-)(PHP)] उपर्युक्त सूत्रों का उपयोग, १७९८-१८०० गाथाओं में किया गया है । गा. ४, १८९९-- इस गाथा में समवृत्त रवस्तूप, “समवट्टो चेट्टदे. रयणथूहो” का नाम शंकु के लिये आया है। गा, ४, ७११ आदि- ग्रंथकार ने समवशरणके स्वरूप को आनुपूर्वी ग्रंथ के अनुसार वर्णन करने में कुछ क्षेत्रों का वर्णन किया है । मुख्य ये है- . १ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ४१३९. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित सबसे पहिले सामान्य भूमि का वर्णन है जो सूर्यमंडल के समान गोल, बारह योजन प्रमाण विस्तारवाली (ऋषभदेव तीथकर के समय की) है। इसके पश्चात् , स्तूप का वर्णन है जिसके सम्बन्ध में आकार, लम्बाई, विस्तार, आदि का कथन नहीं है। गा. ४, ९०१- सम्भवतः सदा प्रचलित महाभाषाएँ १८ तथा क्षुद्रभाषाएँ (dialects )७०० है', ऐसा ज्ञात होता है। गा. ४, ९०३-९०४- विशेषतया उल्लेखनीय यह वाक्य है "भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य धनि तीनों संध्याकालों में नव मुहतों तक निकलती है"। गा.४, ९२९- यहां उन विविध प्रकार के बीवों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण दी है जो जिन देव की वन्दना में प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं। गा. ४,९३०-३१- कोठों के क्षेत्र से यद्यपि बीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है. तथापि वे सब जीव लिन देव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। बालकप्रभृति जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तमहतं काल के भीतर संख्यात योबन चले जाते हैं (यहां इस गति को मध्यम संख्यात ग्रहण करना चाहिये, पर मध्यम संख्यात भी कोई निश्चित संख्या नहीं है)। गा. ४,९८७-९७-दूरश्रवण और दूरदर्शन ऋद्धियों की इस कल्पना को विशान ने क्रियात्मक कर दिखलाया। वह ऋद्धि आत्मिक विकास का फल थी, यह Radio या television भौतिक उन्नति का फल है। दूरस्पर्श तथा दूरघ्राण भी निकट भविष्य में कार्यान्वित हो सकेगा। इसी प्रकार हो सकता है कि दूरस्वादित्व प्रयोग भी संभव हो सके। दास्वादित्व की सिद्धि के लिये दशा है: बिहेन्द्रिया भतशानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा आंगोपांग नामकर्म का उदय हो। सीमा, बिहा के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र के बाहिर, संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित विविध रस है। दूरस्पर्शत्व ऋद्धि के लिये सीमा संख्यात योजन है। इसी प्रकार दूरघ्राणस्व ऋद्धिसिद्ध व्यक्ति संख्यात योजनों में प्राप्त हुए बहुत प्रकार की गंधों को सूंघ सकता है। दूरश्रवणत्व तथा दग्दर्शित्व भी संख्यात योजन अर्थात् ४००० मील गुणित संख्यात प्रमाण दूरी की सीमा तक सिद्ध होता है। ऋद्धिसिद्ध व्यक्ति को बाह्य उपकरणों की आवश्यकता न थी, पर आज बाह्य उपकरणों से अनेक व्यक्ति उस ऋद्धि का विशिष्ट दशाओं में लाभ प्राप्त कर सकते हैं। गा.४,२०२५- इस गाथा में अस वद अन्तर्वच क्षेत्र का विष्कम्भ निकालने के लिये सूत्र दिया गया है जब कि अब बीग तथा च स बाण दिया गया हो। यहां आकृति-३१ देखिये। D=वृत्त का विष्कम्भ Diameter 0=बीवा ohord h= बाण height of the segment Chard भाकृति- ३१ ____-(१)-(१-b) +h pa-D १ अभिनवावधि में प्राप्त "भूवलय" प्रथ को अंकक्रम से विभिन्न भाषाओं में पढ़ा जा सकता है। इस पर खोज हो रही है। ति. ग. ९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना ४ गा. ४, २३७४- इस गाथा में धनुष के आकार के (segment) क्षेत्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल निकालने के लिये सूत्र दिया गया है। पिछली गाथा में लिये गये प्रतीकों में धनुषाकार क्षेत्र ( segment) अ स ब च का क्षेत्रफल = (10) ४१० =hC/२० यह सूत्र अपने ढंग का एक है । महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह (७७०३ ) में इसका उल्लेख किया है । इस सूत्र का प्रयोग अर्द्ध वृत्त का क्षेत्रफल निकालने के लिये किया जाय तो h का मान r और 0 का मान D लेना पड़ेगा। तदनुसार अर्द्ध वृत्त का क्षेत्रफल =FP/2 = VR गा. ४, २३९८-२४००- आकृति-३२ अ में बीचका वृत्त क्षेत्र बम्बूद्वीप का निरूपण, तथा शेष क्षेत्र लवण समुद्र का निरूपण करता है। इसका आकार एक नाव के ऊपर दूसरी नाव रखने से बंबूद्वीप प्राप्त हुई आकृति-३२ ब के समान है। लवण समुद्र २००००.यो. १००००० यो मारुति-२५' आकृति-३२६(अ) विवरण से (आकृति-३२ स) शत होता है कि लवण समुद्र की गहराई १००० योजन है। अपर विस्तार १००.० योजन और तल विस्तार २००००० योजन है। चित्र में मान को प्रमाण नहीं लिया गया है। यह समुद्र, चित्रा पृथ्वी के उपरिम तल से ऊपर कूट के आकार से आकाश में ७०० योजन ऊँचा स्थित है। गा. ४,२४०३ आदि-हानि वृद्धि का प्रमाण मेरु आकृति की गणना के समान यहां भी है। १९० हानि AN तल अ.३५ मिनाली की वृद्धि प्रमाण लेकर, भूमि अथवा मुख से इच्छित ऊँचाई या गहराई पर, विष्कम्भ निकाला जा सकता है। रेखांकित भाग बहुमध्य भाग है, जहां चारों ओर (घेरे में ) उत्कृष्ट, मध्यम व बघन्य एक हजार आठ पाताल है। ये सब पाताल बड़े ( vessel) के आकार के हैं। - 20000 - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित MUM YASH F१००००० भाल ३२५ १०००० यो. इस आकृति ( ३२ द) में ज्येष्ठ पाताल का आकार आदि दिये गये हैं। ये पालाल क्रम से हीन होते हुए (मभ्य भाग से दोनों ओर ) नीचे से क्रमशः वायु भाग, बल एवं वायु से चलाचल भाग, और केवल जल भाग में विभाजित हैं। -१००००० इन पातालों के पवन सर्व काल शुक्ल पक्ष में स्वभाव से (१) बढ़ते हैं और कृष्ण पक्ष में पटते हैं। शुक्ल पक्ष में कुल पंद्रह दिन होते हैं। प्रत्येक दिन पवन की २२२२६ योजन उत्सेध में वृद्धि होती है, इस प्रकार कुल वृद्धि शुक्र पक्ष के अंत में २२२२३ ४ १५ - २००० योजन होती Tooooयो. है। इससे बल केवल ऊपरी त्रिभाग में तथा वायु निम्नादो त्रिमागों में ३०.. उत्सेध तक रहते हैं। आकृति-३२१ में रेखांकित भाग, जल एवं वायु से चलाचल है अर्थात् उस भाग में वायु और बल, पक्षों के अनुसार बढ़ते घटते रहते हैं। चम वायु बढ़कर दो विभागों को शकृपक्षांत में व्याप्त कर लेती है तो बल, सीमांत का उलंघन कर, आकाश में चार हजार धनुष अथवा दो कोस पहुँचता है। फिर कृष्ण पक्ष में यह घटता हुआ, अमावस्या के दिन, भूमि के समतल हो जाता है। इस दिन, ऊपर के दो त्रिभागों में जल और निम्न त्रिभाग में केवल वायु स्थित रहता है। कम घनत्ववाली वायु का, जल के नीचे स्थित रहना, आकृते-25 अस्वाभाविक प्रतीत होता है, किन्तु वह कुछ विशेष दशाओं में सम्भव भी है। गा.४.२५२५-ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रंथकार को शात था कि दो वृत्तों के क्षेत्रफलों के अनुपात उनके विष्कम्भों के वर्ग के अनुपात के तुल्य होते हैं। यदि छोटे प्रथम वृत्त का विष्कम्भ D, तथा क्षेत्रफल A, हो, और बड़े द्वितीय वृत्त का विष्कम्भ D, तथा क्षेत्रफल A, हो तो 000001 100000.. २८ 2200002 -A,) अथवा DIA; गा.४, २५३२ आदि-इन सूत्रों में एक और आकृति का वर्णन है। वह है, 'वाकार आकृति'। इष्वाकर पर्वत निषध पर्वत के समान ऊंचे, लवण और कालोदधि समुद्र से संलम तथा अभ्यंतर भाग में अंकमुख व बाह्य भाग में क्षुरप्र के आकार के बतलाये गये हैं। प्रत्येक का विस्तार १००० योजन और अवगाह १०० योजन है। १ बम्बूद्वीपप्रासि, १०८७. वृत्त के सम्बन्ध में समानुपात नियम २।११-२० में भी है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना गा. ४, २५७८ - १७८१वीं गाथा में वर्णित मुख्य ( जम्बूद्वीपस्थ ) भेरु के सम्बन्ध में लिखा गया है। इस गाथा में धातकीखण्डद्वीपस्थ मन्दर नामक पर्वत का वर्णन है। इस मेरु का विस्तार तल भाग में १०००० योजन तथा पृथ्वीपृष्ठ पर ९४०० योजन है। यहां हानि वृद्धि प्रमाण १०००० - ९४०० है। यह १००० ६८ ९४०० - १००० ८४००० = ० I अवगाह के लिये है । भूमि से ऊपर, हानि वृद्धि प्रमाण, गा. ४, २५९७ - इस गाथा में दिये गये सूत्र का स्पष्टीकरण १८० वीं गाथा में दिया गया है । गा. ४, २५९८ – इस गाथा में दिये गये सूत्र का स्पष्टीकरण २०२५ वीं गाथा में दिया गया है। गा. ४, २७६१ - इस गाथा में दिया गया सूत्र वृत्त का क्षेत्रफल निकालने के लिये है' । वृत्त या समानगोल का क्षेत्रफल = V[D2] 2 × १० _ D±x/0 ४ = -(2) V १० जिसे हम x x± लिखते हैं । गा. ४, २७६३ - इस गाथा में वलयाकृति वृत्त अथवा वलय के आकार की आकृति का क्षेत्रफल निकालने के लिये सूत्र दिया है ( आकृति-३३ देखिये) । नगश्रेणी [सूच्यंगुल] यदि प्रथम वृत्त का विस्तार D तथा द्वितीय का D2 माना जाये तो वलयाकार ( रेखांकित ) क्षेत्र का क्षेत्रफल /{1D,-(D, -D,)]'×(P++D+)x. [2D, =/१०/(D2 + Dq)(D, – D,) (४) २ [2] १० प्राकृति- ३३ गा. ४, २८१८- इस गाथा में दिये गये सूत्र का स्पष्टीकरण २०२५वीं गाथा में देखिये । गा. ४, २९२६— -५१८ - १ = सामान्य मनुष्य राशि प्रमाण । २ २ जिसे हम [12 - 1 ] लिखते हैं । इस प्रमाण को इस तरह लिखा गया है : जगश्रेणी में सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूल का भाग देने पर बो लब्ध आवे उसमें से एक कर्म कर देने पर उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। यहां [सूच्येगुल] ५१८ को लिखने की शैली, पुष्पदंत और भूतबलि द्वारा संरचित षट्खंडागम के सूत्रों से मिलती जुलती है। जैसे, द्रव्यप्रमाणानुगम में सत्रहवीं गाथा में नारक मिथ्यादृष्टि जीव राशि के प्रमाण का कथन यह है । 66. "तासि सेदीर्ण विक्खभसूची अंगुल - बग्गमूळ विदियग्गमूलगुणिदेण ।” १ बम्बूद्वीपप्रशति १०।९२. २ जम्बूद्वीपप्रशति, १० १९१. ३ षट्खडागम —— द्रव्यप्रमाणानुगम, पृष्ठ १३१. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोषपण्णतिका गणित गा. ५, ३३ - इस गाथामें अंतिम आठ द्वीप-समुद्रों के विस्तार मी गुणोचर भेटि में दिये गये हैं। अन्तिम स्वयंभूवर समुद्र का विस्तार (जगभ्रेणी:२८)+ ७५००० योजन दिया गया है। इस समुद्र के पश्चात् १ राजु चौड़े तथा १००००० योजन बाहल्यवाले मध्यलोक तल पर पूर्व पश्चिम में - "{१ राजु -[ ( राजु +७५००० यो०) + (६ राजु + ३७५०० यो०) + गजु+ १८७५० यो०)+.......... ५०... योजन]}" बगह बचती है। यद्यपि १ राजु में से एक अनन्त भेदि भी घटाई बावे तब भी यह लम्बाई राजु से कुछ कम योजन बच रहती है। यह स्थापना सिद्ध करती है कि उन गणितज्ञों को इस गुणोत्तर, असंख्यात पदोंवाली भेदियों के योग की सीमा का शान भी था। गा.५,३४- यदि २n समुद्र का विस्तार D. मान लिया बाय और २n+वें द्वीप का 'वस्तार Daमान लिया बाय तब निम्न लिखित सूत्रों द्वारा परिभाषा प्रदर्शित की जा सकेगी। De= 3Dani.x२-D,x३= उक्त द्वीप की आदि सूची DD Dan+ ४३ - D,४३= , मध्यम सूची D = Dar, ४४-D,x३= , बाह्य सूची यहाँ D, अम्बूद्वीप का विष्कम्भ है। इस सूत्र का परिवर्तित रूप द्वीपों के लिये मी उपयोग में लाया जा सकता है। D,V...rn द्वीप या 1 गा. ५, ३५- n द्वीप या समुद्र की परिधि = "YoxBH ____D, समुद्र की सूची इस सत्र में कोई विशेषता नहीं है। गा.५,३६- यहाँ इस सिद्धान्त की पुनरावृत्तिो . कि वचों के व्यासों के वर्गों की निष्पति का मान उतना ही होता है जितना कि वृत्तों के क्षेत्रफलों की निष्पति का। यदि n द्वीप या समुद्र की बाह्य सूची Dnb तथा अभ्यंतर सूची (अथवा आदि सूची) Dna परूपित की जावे तो (Dnb)२ - (Dna)२ . 2) = उक्त द्वीप या समुद्र के क्षेत्र में समा जानेवाले बम्बूद्वीप क्षेत्रों (DAR की संख्या होती है। यहाँ D, जम्बूद्वीप का विष्कम्म है तथा De=DDrubt, चूँकि किसी भी द्वीप या समुद्र की बाह्य सूची, अनुगामी समुद्र या दीप की आदि या आभ्यंतर सूची होती है। गा. ५,२४२- स्थूल क्षेत्रफल निकालने के लिये, ग्रंथकार ने 1 कामान स्थूल रूप से ३ ले लिया है और निम्न लिखित नवीन सूत्र दिया है वे द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल = [Dn-D.K)HD.} यहाँ [Dn-D.K३)२ को भायाम कहा गया है। Dn; n द्वीप या समुद्र का विकाम है। इस सूत्र का उद्गम निकालने योग्य है। इस सूत्रको दूसरी तरह भी लिख सकते हैं। D.-२(-१) D, लिखने पर , Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णात्तिकी प्रस्तावना n द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल = [२- D,- D,Jn-1 D, =(३D,)२ [२० - १ - १]२n-1 होता है। n वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के लिये सूत्र यह है :बादर क्षेत्रफल - DD[Dna + Dnm+ Dnb]. यहाँ Dnb का मान = [२१२-' +२-२ + २-3+......+२+२}+ १]D, है। ___Dna का मान = [२१२-२ +२"-3+......+२} + १]D, है। Dnm - Dob+ Dna - २ इनका मान रखने पर, बादर क्षेत्रफल = २"-' D[Dna + ३(Dna + Dnb) +Dnb] = २०-(D,)-[ ३ { २+२((-१+२ +२((-१२ = ३(२"-') (D,)[१ + २४-1 - २+२(-१+ २-')], = ३२[२-१](D)[२-१-१] यह सूत्र, २४२वी गाथा में दिये गये सूत्रानुसार फल देता है। गा. ५, २४४- यह सूत्र पिछली गाथा के समान है। {Log (Apj) + १} वे द्वीप या समुद्र' का क्षेत्रफल, (Api) (Apj-१){९.०० करोड़ योजन वर्ग योजन हागा। पिछली (२४३) गाया में n वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ३२(D)[२-1] [२-1 - १] बतलाया गया है बो ९(१०००००)२ [२-"] [२-१-१] के बराबर है। यदि हम n=Log: Apj+ १ लिखें तो, n-१-Log Apj होगा और इसलिये, २-1=Apj हो बावेगा। इस प्रकार, ग्रंथकार ने यहाँ छेदागणित के उपयोग का निदर्शन किया है। उन्होंने बघन्य परीतासंख्यात को १६ के द्वारा प्ररूपित किया है और १ कम जघन्य परीतासंख्यात को (१६-१) नहीं लिखा है वरन् १५ लिखा है चो उस समय के प्रतीकत्व ज्ञान के संपूर्ण रूप से विकसित न होने का द्योतक है। . इसी प्रकार, {Log. (पल्यापम)+१} द्वीप का क्षेत्रफल . =(पल्योपम) (पल्योपम -१)४९०००००००००० वर्ग योजन होता है। आगे, स्वयंभरमण समुद्र का क्षेत्रफल निकालने के लिये २४३ या २४४वीं गाथा में दिये गये सत्र बादर क्षेत्रफल=Dn(३२) (Dn-D) का उपयोग किया गया है। इस समुद्र का विष्कम्भ Dn = +७५००० योजन है, इसलिये, बादर क्षेत्रफल = [ जगश्रेणी + ६७५००० यो. ] (जगणी + ७५००० यो. - १००.०० यो.) = ९.(बगश्रेणी) + जगभेणी (Fax (-२५... यो. ) + ६७५००० यो.) - (२५००० यो.४६७५००० यो.) = (जगभेणी ) + [११२५०० वर्ग यो.४१ रानु] -१६८७५०००००० वर्ग योजन होता है। १ ग्रंथकार ने लिखा है, कि यह द्वीप क्रमांक होगा अर्थात् यह संख्या उनी- अयुग्म होगी। -९८ ७४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित ३ गा. ५, २४५-प्रतीक रूपेण, इस गाथा का निरूपण यह होगा:___ मान लो, इच्छित द्वीप या समुद्र nवा है; उसका विस्तार DD है तथा आदि सूची का प्रमाण Dnaहे। तब, शेष वृद्धि का प्रमाण = २Dn - (Dnt Dna) होता है। इसका साधन करने पर २D-Dna प्राप्त होता है। यहाँ Dn = २ -D, है तथा Dna = १+२[२+२+...... + २-२] है । अर्थात् , Dna = [१+ २(२-१-२)]D, यो. है। . २ Dn- Dna -२"Dh+[- १ - २" + ४]D, =D. ___ = १००००० योजन होता है। गा. ५, २४६-४७- 'प्रतीक रूप से:५०... योजन+Dna = Dnb+ [Dn - २०००००] इस सूत्र में भी Dna, Dnb और Dn का आदेशन ( substitution ) करने पर दोनों पक्ष समान आ पाते हैं। गा.५.२४८-प्रतीक रूप से:उक्त वृद्धि का प्रमाण -18(Dnb)- Dna} ___ = १३ लाख योजन है। गा. ५, २५०-प्रतीक रूप से : (EDn - ३००.००)-{१Dn-३००००० वर्णित वृद्धि का प्रमाण = - गा. ५, २५१- प्रतीक रूपेण, वर्णित वृद्धि का प्रमाण = 4Dn-{Dn-८०००००। १२ गा. ५, २५२- चतुर्थ पक्ष की वर्णित वृद्धि को यदि Kn मान लिया जाय तो इच्छित वृद्धिवाले (n) समुद्र से, पहिले के समस्त समुद्रों सम्बन्धी विस्तार का प्रमाण-Kn-२००००० होता है। (३Dn - ३०००००)-(१-३०००००)। यह सूत्र गा.५, २५३- वर्णित वृद्धि२५१ वी गाथा में कथित सूत्र के सरश है। अंतर केवल द्वीप और समुद्र शन्दों में है। १ यहां वर्णित वृद्धियों का व्यावहारिक उपयोग प्रतीत नहीं होता। द्वीप और समुद्रों के विस्तार १,२,४,८,......अर्थात् गुणोत्तर श्रेदि में दिये गये हैं। तथा द्वीपों के विस्तार १,४,१६, ६४..... भी गणोचर भेदि में बिसमें साधारण निष्पत्ति ४ है। उसी प्रकार समुद्रों के विस्तार क्रम ३२,......आदि दिये गये हैं वहाँ साधारण निष्पत्ति ४ है। इन्हीं के विषय में गुणोत्तर श्रेदि के योग निकालने के सूत्रों की सहायता से, भिन्न २ प्रकार की वृद्धियों का वर्णन ग्रंथकार ने किया है। विस्तार क्रमशः २, ८, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदीवपत्तिकी प्रस्तावना -ART - । गा. ५, २५४- वर्णित वृद्धि का प्रमाण = DD - १००००°४२+ ३००००० है। गा. ५, २५५-५६- अर्द जम्बूद्वीप से लेकर n द्वीप तक के द्वीपों के सम्मिलित विस्तार का प्रमाण = Dn+Dn - २ - १००००० - १०००. है। यहां Dn = ४Dn-२t; क्योंकि यहां केवल द्वीपों के अल्पबहुत्व को निम्भित करने का प्रसंग चल रहा है। गा. ५, २५७ - वर्णित वृद्धि = Dn - १००००० + २००००० अथवा, =Dn+५००००० है। गा. ५, २५८- अधस्तन द्वीपों के, दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तार का योगफल २Dn-५०००००। गा. ५, २५९- इष्ट (n) समुद्र के, एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में वृद्धि का प्रमाण =D+४००००° है। यह प्रमाण अतीत समुद्रों के दोनों दिशाओं सम्बन्धी, विस्तार की अपेक्षा से है। गा. ५, २६०- अतीत समुद्रों के दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तार का योग =२Dn-४००००० है। गा.५,२६१-'वर्णित क्षेत्रफल वृद्धि का प्रमाण : ३(Da-१०००००)xrDn (१०००००)२ बो बम्बूद्वीप के समान, खंडों की संख्या होती है। गा. ५,२६२-द्वीप समुद्रों के क्षेत्रफल क्रमशः ये हैं : प्रथम द्वीप : V०(२००१) १० (२५००००००००) वर्ग योजन द्वितीय समुद्र । ( )()] V१०[६२५००००००००-२५००००००००] तृतीय द्वीप : ( )-(०)]= ४२२५०००..... - ६२५........] चतुर्थ समुद्र : V१०(१०) [(:)-(१)] V०(१०)[२१०२५ - ४२२५] वर्ग योजन इत्यादि । १ यह पहिले बतलाया जा चुका है कि वे दीप या समुद्र का क्षेत्रफल . =VT (Dnb)- (Das)२} है। इसी सत्र के आधार पर विविध क्षेत्रों के क्षेत्रफलों का अस्पबहुत्व प्रदर्शित किया गया है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोपपण्णसिका गणित यहां लषण समुद्र का क्षेत्रफल (१०)२ [६००] वर्ग योजन है जो जम्बूद्वीप के क्षेत्रफल (१०)८३ [२५] वर्ग योजन से २४ गुणा है। धातकीखंड द्वीप का क्षेत्रफल (१०)८३ ३६००] वर्ग योजन है जो जम्बूद्वीप से १४४ गुणा है। इसी प्रकार, कालोदधि समुद्र का क्षेत्रफल [१०८३ [१६८००] वर्ग योजन है बो जम्बूद्वीप से ६७२ गुणा है तथा इस कालोदधि समुद्र का क्षेत्रफल धातकीखंड द्वीप की खंडशलाकाओं से ४ गुना होकर ९६ अधिक है, अर्थात् ६७२% (१४४४४)+ ९६ । पुनः, पुष्करवर द्वीप का क्षेत्रफल = (१०) (१०)-(१९) वर्ग योजन अथवा (१०) ३ [७२०००] वर्ग योजन है जो जम्बूद्वीप से २८८० गुणा है तथा कालोदधि समुद्र की खंडशलाकाओं से चौगुना होकर ९६४२ अधिक है, अर्थात् २८८० = (४४६७२)+२(९६) है; इत्यादि । साधारणतः यदि किसी अघस्तन द्वीप या समुद्र की संरशलाकायें Ksn' मान ली बांय बहां n' की गणना घातकीखंड द्वीप से आरम्भ हो तो, उपरिम समुद्र या द्वीप की खंडशलाकाओं की संख्या (४xKsn')+ २०'-१)(९६) होगी। इसी गणना के आधार पर, ग्रंथकार ने, - चौगुणे से अतिरिक्त प्रमाण लाने के लिये गाथास्त्र कहा है, वो प्रतीक रूप से इस प्रक्षेप ९६ का मान निकालने के लिये निम्न लिखित रूप से प्ररूपित किया जा सकता है। प्रक्षेप ९६- Kng' प्रक्षप ९५- Dn १००० -१००००० इस सत्र में Ken' उस द्वीप या समुद्र की खंडशलाकाएं तथा DD' विस्तार है। गा. ५,२६३- लवण समुद्र की खंड शलाकाओं से धातकीखंड द्वीप की शलाकाएं (१४४-२४) या १२० अधिक है। कालोदधि की खंड शलाकाएं धातकीखंड तथा लवण समुद्र की शलाकाओं से ६७२-(१४४+२४) या ५०४ अधिक है। यह वृद्धि का प्रमाण (१२०)४४+२४ लिखा जा सकता है। इसी प्रकार अगले द्वीप की इस वृद्धि का प्रमाण (५०४)xx}+ (२४२४) है। इसलिये, यदि घातकीखंड से n' की गणना प्रारम्भ की जावे तो इष्ट n' वे द्वीप या समुद्र की खड शलाकाओं की वर्णित वृद्धि का प्रमाण प्रतीक रूप से (9 .)-१ }४८ होता है। यहां Dn', n' वे द्वीप या समुद्र का विष्कम्भ है। यह प्रमाण उस समान्तरी गुणोत्तर (Arithmetioo Geometric series) भेटि का n' वा पद है, जिसके उत्तरोत्तर पद पिछले पदों के चौगुने से क्रमशः २४४२" अधिक होते हैं। यद्यपि इसे Arithmetico Geometrio series कहा है तथापि यह आधुनिक वर्णित श्रेदियों से भिन्न है। Dn' स्वतः एक गुणोत्तर संकलन का निरूपण है बो ८ से प्रारम्भ होकर उत्तरोत्तर १६, ३२, ६४, १२८ आदि हैं। वृद्धि के प्रमाण को n' वा पद, मानकर बननेवाली भेटि अध्ययन योग्य है। इस पद का साधन करने पर {(D+२०००००० ०००००१ ४८ प्रमाण प्राप्त होता है। गा. ५, २६४ n' वें द्वीप या समुद्र से अधस्तन द्वीप समुद्रों की सम्मिलित खंड शलाकाओं के लिये ग्रंथकार ने निम्न लिखित सूत्र दिया है: ति. ग. . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावमा उक्त प्रमाण = [P: - १०....]x[D.' - १.०.००, १२५०००००००० यहां n' की गणना धातकीखंड द्वीप से आरम्भ करना चाहिये। यह प्रमाण दूसरी तरह से भी प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि यह, Dna परिधि के अन्तर्गत क्षेत्रफल में, बम्बूद्वीप के क्षेत्रफल की राशि जैसी इतनी राशियां सम्मिलित होना दर्शाता है, इसलिये यह प्रमाण [D] पर भी होना चाहिये। इसी के आधार पर ग्रंथकार ने उपयुक्त सूत्र निकाला होगा। गा. ५, २६५- अतिरिक्त प्रमाण ७४४ = - - Ksn' . Dn'२००००० गा.५, २६६- इस गाथा में ग्रंथकार ने बादर क्षेत्रफल निकालने के लिये 1 का मान ३ मान लिया है। इस आधार पर, द्वीप-समुद्रों के क्षेत्रफल निकालने के लिये ग्रंथकार ने सूत्र दिया है। nवै द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल निकालने के लिये Dn विस्तार है तथा आयाम (Dn - १०००००)९ है। इन दोनों का गुणनफल उक्त द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल होगा। यह दूसरी रीति से [(Pa')-(P)'] होगा और इस प्रकार, * D. (Dn - १०००००) = ३ [(P) -(P)] मान रखने पर, दोनों पक्ष समान सिद्ध किये जा सकते हैं। यहां 1 को ३ मानकर बादर क्षेत्रफल का कथन किया है। गा. ५, २६७- उपर्युक्त आधार पर अधस्तन द्वीप या समुद्र के क्षेत्रफल से उपरिम द्वीप अथवा समुद्र के क्षेत्रफल की सातिरेकता का प्रमाण _____Dnx९००००० है। यहां n को गणना कालोदक समुद्र के उपरिम द्वीप से आरम्भ की गई है। यह, वास्तव में उत्तरोत्तर आयाम को वृद्धि का प्रमाण है । गा.५, २६८-- n द्वीप या समुद्र से अधस्तन द्वीप-समुद्रों के पिंडफल को लाने के लिये गाथा को प्रतीक रूपेण इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है : अधस्तन द्वीप-समुद्रों का सम्मिलित पिंडफल = . [Dn - १०००००] [९(Dr-१०००००)-९०००००] ३ • यह दूसरी रीति से ३(१) आवेगा। यदि उपर्युक्त मान रखे जावे तो ये दोनों समान प्राप्त होंगे। गा. ५, २६९- यहां अतिरेक प्रमाण ३ {[२Dn - २०००००] (३०००००)- ३(०२०) } है। गा. ५, २७१- अधस्तन सब समुद्रों का क्षेत्रफल निकालने के लिये गाथा दी गई है। चूंकि द्वीप ऊनी संख्या पर पड़ते है इसलिये हम इष्ट उपरिम द्वीप को (२n-१) वां मानते हैं। इस प्रकार, अधस्तन समस्त समुद्रों का क्षेत्रफल: Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोषपण्णसिका गणित __ [Dan-, -३०००००] [९(D21-,-१०००००)-९००...] +-१५ प्राप्त होता है। इस सूत्र की खोज वास्तव में प्रशंसनीय है। गा. ५, २७२- वर्णित सातिरेक प्रमाण को प्रतीकरूप से निम्न लिखित रूप में प्रस्तुत किया बा सकता है: EI Dna+Dnm+Dnb]४०००००}-१८०००००००००० यहाँ n की गणना वारुणीवर समुद्र से आरम्भ होती है। इस प्रकार, वारुणीवर समुद्र से लेकर अपस्तन समुद्रों के क्षेत्रफल से उपरिम (आगे के) समुद्र का क्षेत्रफल पन्द्रहगुणे होने के सिवाय प्रक्षेपभूत ४५५४०००००००००० योजनों से चौगुणा होकर १६२०००००००००० योजन अधिक होता है। गा.५, २७३- अतिरेक प्रमाण प्रतीक रूपेण (Dnm)x९०००००+२७०००००००००० होता है। गा.५,२७४-बब द्वीप का विष्कम्भ दिया गया हो, तब इच्छित द्वीप से (बम्बूद्वीप को छोड़कर) अधस्तन द्वीपों का संकलित क्षेत्रफल निकालने का सूत्र यह है : (Dan-,-१०००००)[(Dan-,-१०००००)९-२७०००००]:१५ यहाँ Dan-1, २n - १वीं संख्या क्रम में आने वाले द्वीप का विस्तार है। गा.५, २७५- जब क्षीरवर द्वीप को आदि लिया बाय अथवा n' की गणना इस द्वीप से प्रारम्भ की जाय तब वर्णित वृद्धि का प्रमाण सूत्र द्वारा यह होगा: (D."+-१०००००) ९x४००००० गा.५, २७६-घातकीखंड द्वीप के पश्चात् वर्णित वृद्धियाँ त्रिस्थानों में होती हैं। जब n' की गणना धातकीखंड द्वीप से प्रारम्भ होती है; तब वर्णित वृद्धियाँ सूत्रानुसार ये हैं : Dnx. Dnx; Dnxx २ २ गा.५,२७७- अधस्तन द्वीप या समुद्र से उपरिम द्वीप या समुद्र के आयाम में वृद्धि का प्रमाण प्राप्त करने के लिये सूत्र दिया गया है। यहाँ n' की गणना घातकी खंड द्वीप से प्रारम्भ होती है। प्रतीक रूप से आयाम वृद्धि DAX९०० है । गा.५, २८०-८१- यहाँ से कायमार्गणा स्थान में जीवों की संख्या प्ररूपणा, यतिवृषभकालीन अथवा उनसे पूर्व प्रचलित प्रतीकत्व में दी गई है। तेबस्कायिक राशि उत्पन्न करने के लिये निम्नलिखित विधि ग्रंथकार ने प्रस्तुत की है। इस रीति को स्पष्ट करने के लिये आंग्ल वर्ण अक्षरों से प्रतीक बनाये गये हैं। सर्वप्रथम एक घनलोक ( अथवा ३४३ धन राजु वरिमा) में जितने प्रदेश बिन्दु है, उस संख्या को Gl द्वारा निरूपित करते हैं। अब इस राशि को प्रथम बार वर्गित सम्वगित करते हैं तब | Gll राशि प्राप्त होती है। १ गोम्मटसार जीवकांड गाथा २०३ की टीका में घनलोक से प्रारम्भ न कर केवल लोक से प्रारम्भ किया है। प्रतीत होता है कि घनलोक और लोक का अर्थ एक ही होगा। स्मरण रहे कि लोक का अर्थ असंख्यात प्रमाण प्रदेशों की गणात्मक संख्या है। मुख्य रूप से एक परमाणु द्वारा व्यास आकाश के प्रमाण के आधार पर प्रदेश की कल्पना से असंख्यात संलग्न प्रदेश कथंचित् अखंड लोकाकाश की संरचना करते है अथवा एक लोक में असंख्यात प्रदेश समाये हुए है। इस प्रमाण को लेकर कायमार्गणा स्थान में तेजस्कायिक बीवों की संख्या की प्राप्ति के लिये विधि का निरूपण किया गया है। (शेष आगे पृ.७६ पर देखिये) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूरीवपत्तिकी प्रस्तावना होता यह क्रिया एक बार करने से अन्योन्य गुणकार शलाका का प्रमाण एक होता है। जितने बार यह वर्गन सम्वर्गन की क्रिया की जावेगी उतनी ही अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण होगा। ग्रंथकार बतलाते हैं कि पल्योपम . logz lo है। यहाँ सम्भवतः असंख्यात का प्रमाण असंख्यात Aam होना चाहिए। यदि [GI]G1 = २' हो अथवा log [ (GI)Gl] = K हो तो K का प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण होता है । यहाँ न तो धन लोक का स्पष्टीकरण है और न लोक का ही। इस तरह उत्पन्न राशि को भी असंख्यात लोक प्रमाण कहा गया है। इस महाराशि का वर्णन सम्वर्गन करने पर OGl प्राप्त होता है। इस समय अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण २ हो जाता है तथा राशि GI का वर्गन सम्बर्गन दो बार हो जाता है, इस प्रकार वर्णित रीति से Gl का वर्गन सम्बर्गन Gl बार करने पर मानलो L राशि उत्पन्न होती है । इस समय' अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण घन लोक बिन्दुओं की संख्या अथवा Gl के बराबर होता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह L राशि इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है। इसके सिवाय log. log [L] मी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है। यदि L-२ हो तो K' भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है। अब वर्ग सम्बर्गन की क्रिया L राशि को लेकर प्रारम्भ करेंगे। इस राशि का प्रथम बार वर्गन सम्बर्गन किया तब (L) राशि प्राप्त होती है तथा अन्योन्य गुणकार शलाकाओं की संख्या al+१ हो जाती है और ग्रंथकार कहते हैं कि (L)" उसकी वर्गशलाकायें तथा अईच्छेदशलाकाएँ तीनों ही राशियों इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण होती हैं। अब इस राशि का दूसरी बार वर्गन सम्वर्गन किया तो आगे चलकर, ग्रंथकार ने तेजस्कायिक राशि का प्रमाण = किया है, जहां a का अर्थ असंख्यात हो सकता है। का प्रयोग = अथवा लोक के पश्चात् होना इस बात का सूचक है कि = अथवा घनलोक से, तेजस्कायिक जीव राशि को उत्पन्न किया गया है जो द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा से असंख्यात लोक प्रमाण बतलाई गई है। साथ ही असंख्यात लोक प्रमाण के लिये जो प्रतीक ९ दिया गया है वह ==a.से भिन्न है। यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि असंख्यात शब्द से केवल किसी विशिष्ट संख्या का निरूपण नहीं होता, परन्तु अवधिज्ञानी के ज्ञान में आनेवाली उत्कृष्ट संख्यात के ऊपर की संख्याओं का प्ररूपण होता है । ९, प्रतीक ९ अंक से लिया गया प्रतीत है, जहाँ ३ का धन ९ होता है। ३ विमाओं (उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम, तथा ऊर्व अधो भाग) में स्थित लोकाकाश जो जगश्रेणी के घन के तुल्य घनफलवाला है, ऐसे लोकाकाश को ९ लेना उपयुक्त प्रतीत होता है; पर, इस ९ प्रतीक को असंख्यात लोक प्रमाण गणात्मक संख्या का प्ररूपण करने के लिये उपयोग में लाया गया है। १ ग्रंथकार ने यहाँ अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण GI (घनलोक) न लेकर केवल लोक ही किया है जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ लोक और घनलोक में कोई अंतर नहीं है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगोत्रपत्रिका मानिस राशि प्राप्त होगी और तब भन्योन्य शलाकाओं की संख्या Gl+२ हो नावेगी तथा उत्पन्न महाराशि, उसकी वर्गशलाकाएँ तथा उसकी अर्द्धच्छेदशलाकाएँ इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है। ग्रंथकार कहते हैं कि दो कम उत्कृष्ट संख्यात लोक प्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकाओं के दो अधिक लोक प्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकाओं में प्रविष्ट होने पर चारों ही राशियां असंख्यात लोक प्रमाण हो जाती है। यह कथन असंख्यात की परिभाषा के अनुसार ठीक है। क्योंकि दो कम उत्कृष्ट संख्यात लोक प्रमाण बार और वर्गन सम्वर्गन होने पर अन्योन्य गुणकारशलाकाओं की संख्या = Gl+२+ [Su]GI -२ = [Su+१]GI तथा Su+१= Apj अथवा जघन्य परीतासंख्यात हो जावेगी। इस प्रकार चारों राशियां, इतने बार के वर्गन सम्वर्गन से असंख्यात लोक प्रमाण हो जावेगी। यहां असंख्यात शब्द का उपयुक्त अर्थ लेना वांछनीय है। इस प्रकार, जब L राशि का वर्गन सम्वर्ग L बार किया जावेगा तो अंत में मान लो M राशि उत्पन्न होगी। यहां स्पष्ट है कि M, M की वर्गशलाकाएं तथा अर्द्धच्छेदशलाकाएं और साथ ही अन्योन्य गुणकार शलाकाएं ये चारों ही राशियां इस समय असंख्यात लोक प्रमाण होगी। इसी प्रकार M राशिको M बार वगित सम्वनित करने पर भी ये चारो राशियां अर्थात् स्त्पन्न हुई ( मान लो) राशि N, उसकी वर्गशलाकाएं और अर्द्धच्छेदशलाकाएं तथा अन्योन्य गुणकारशलाकाएं ये सब ही इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती। अब चौथी बार N राशि को स्थापित कर उसे [N-M-L-GIबार वर्गित सम्बनित करने पर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है जो असंख्यात धन लोक प्रमाण होती है। ग्रंथकार ने इस तरह उत्पन्न हुई महाराशि को= प्रतीक द्वारा निरूपित किया है। इस प्रकार तेवस्कायिक राशि की अन्योन्य गुणकार शलाकाएं NR, क्योंकि, N-(x+L+al)+ (x+L+Gl)=N होता है। ग्रंथकार ने "अतिक्रांत अन्योन्य गुणकार शलाकाओ" शब्द M+L+GI के लिये व्यक्त किये है। यहां ग्रंथकार ने असंख्यात लोक प्रमाण के लिये ९ प्रतीक दिया है। इस प्रकार, पृथ्वीकायिक राशि का प्रमाण (तेजस्कायिक राशि + ते. का. रा.) होता है। अथवा, दक्षिण पश्च का प्रमाण (= =) होता है । १ घनलोक तथा लोक का अंतर संशयात्मक है, तथापि धनलोक लिखने का आशय हम पहिले बतला चुके है। इसके विषय में वीरसेनाचार्य ने कहा है कि कितने ही आचार्य चौथी बार स्थापित (N) शलाका राशि के आधे प्रमाण के 'व्यतीत' होने पर तेजस्कायिक जीवराशि का उत्पन्न होना मानते हैं तथा कितने ही आचार्य इस कथन को नहीं मानते हैं, क्योंकि, साढ़े तीन बार राशि का समुदाय वर्गधारा में उत्पन्न नहीं है। यहां वीरसेनाचार्य ने वर्गशालाकाओं तथा. अर्द्धच्छेदशलाकाओं के प्रमाण के आधार पर अनेकान्त से दोनों मतों का एक ही आशय सिद्ध किया है और विरोध विहीन स्पष्टीकरण किया है जो षटखंडागम में देखने योग्य है । षटखंडागम, पुस्तक ३, पृष्ठ ३३७. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुद्धीवपण्णतिकी प्रस्तावना यह प्रमाण = अथवा ( असंख्यात घन लोक) के तुल्य निरूपित किया गया है। इसी प्रकार, जलकायिक राशि का प्रमाण प्रतीक रूपेण,२ (= ९) (३.५) होता है । अथवा, यह = [ 1] या है। इसी प्रकार वायुकायिक राशि का प्रमाण; (= .. १) (= ... १६) होता है । अथवा, यह = १.१ [+३] या = .....है। यहां, . असंख्यात लोक+१. १५ अख्यात लोक. असंख्यात लोक होना चाहिये पर ग्रंथकार ने (असंख्यात लोक+१) को (९+१) न लिखकर १० लिख दिया है जो प्रतीक प्रतीत नहीं होता। आगे १० का वारंवार उपयोग हुआ है, इसलिये स्पष्ट हो जाता है कि वह ( असंख्यात लोक+१) का प्ररूपण करने के लिये प्रतीकरूप में ले लिया गया है। २इस अध्याय में ग्रंथकार ने प्रतीकत्व के आधार पर परस्परागत शान का निर्देशन सरल विधि से स्पष्ट करने का अद्वितीय प्रयास किया है। गणितश इतिहासकार श्री बेल के ये शब्द यहां चरितार्थ होते प्रतीत होते हैं-"Extensive traota of mathematics contain almost no symbolism. while equally extensive tracts of symbolism contain almost no mathematics." यदि इस व को सुधार करने का प्रयास सतत रहता तो जैन गणित की उपेक्षा इस तरह न होती और विश्व की गणित के आधुनिक इतिहास में इसका भी नाम होता। वह केवल इतिहास की ही वस्तु न होकर अध्ययन का विषय होकर उत्तरोत्तर नवीन खोजों से भरी होती। गणित में प्रतीकत्व के विकास के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने कठिनता से अवधारणा में आनेवाली संख्याओं के निरूपण के लिये प्रतीकों का स्वतंत्र रूप से विकास किया। अन्य भारतीय गणितज भी उनके इस विकास से या तो अनभिज्ञ रहे या उन्होंने इसकी कोई कारणों वश उपेक्षा की। धन, ऋण, बराबर, मिन, भाग, गुणा आदि के चिह्नों का उपयोग इस ग्रंथ में नहीं मिलता है। परन्तु मस्तिष्क के परे की संख्याओं या वस्तुओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रतीक देकर और उन्हीं पर आधारित नई संख्याओं को निरूपित करने का प्रयास स्पष्ट है। इस समय तक धन के लिये धन, ऋण के लिये ऋण लिखा जाता था। बराबर और गुणा के लिये कोई चिह नहीं मिलता है। भिन्न ३ को लिखा करते थे। भाग निरूपण के लिये भी कोई विशिष्ट चिह नहीं मिलता । वर्गमूल के लिये मी केवल 'धग्गमूल' लिखा जाता था । अर्द्धच्छेद के log: सरीखा सरल कोई भी प्रतीक नहीं मिलता। वर्ग या कृति, इत्यादि घातांकों को शब्दों से निर्देशित किया जाता था। यद्यपि, अभी तक अलौकिक गणित सम्बन्धी गणित अथ प्राप्त नहीं हो सका है बो क्रियात्मक प्रतीकत्व (Operational symbolism) के उपयोग का समर्थन कर सके, तथापि बीरसेनाचार्यकाल में अर्द्धच्छेद वथा वर्गशलाकाओं के आधार पर विभिन्न द्रव्य प्रमाणों के अल्पबहत्व का निदर्शन, बिना क्रियात्मक प्रतीकत्व के प्रायः असम्भव है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णसिका गणित १० पुन : ( असंख्यात लोक + १) की निरूपणा करता है। इसके पश्चात्, तेजस्कायिक बादर राशि का प्रमाण = माना गया है तथा सूक्ष्म राशि का प्रमाण (a) रिण (1) अर्थात् (=a)[१ रिण 4.] अथवा असंख्यात लोक रिण १ 11 माना गया है, जिसे ग्रंथकार ने प्रतीकरूपेण, लिखा है। असख्यात लोक यहां (असंख्यात लोक रिण १) के लिये प्रतीक ८ दिया गया है। .. इसी प्रकार, वायुकायिक बादरराशि का प्रमाण ३.१०.१०.१ . है; तथा सूक्ष्म राशि का प्रमाण = १०.३० १०.६ अथवा = १.१०.१०.८ है। यहां १०, (असंख्यात लोक + १) तथा८, (असंख्यात लोक - १) का निरूपण करते हैं। . . अब, जलकायिक बादर पर्याप्तक राशि का प्रमाण ग्रंथकार ने प्रतीक द्वारा बतलाया है । यहां = जगप्रतर है, प पस्योपम है, ४ प्रतगंगुल है और 8 असंख्यात का प्रतीक है। अब इस राशि में आवलि के असंख्यात माग का भाग दिया जाता है, तो पृथ्वीकायिक बादर पर्याप्त बीवों की संख्या का प्रमाण मिलता है। वहां आवलि का असंख्यातवा भाग प्रतीक रूप से प्रथकार ने लिया है जिसका 20. ४० प्रमाण आवलि असंख्यात आवलि a अर्थ-होता है (या लिखना चाहिये असंख्यात लोक था, पर वास्तव में यहाँ असंख्यात प्रमाण का अर्थ असंख्यात लोक ही है ) जिसके लिये प्रतीक है। इस प्रकार, पृथ्वीकायिक पर्याप्त बादर जीवराशि का प्रमाण ग्रंथकार ने प्रतीकरूपेण = पर दिया है। स्पष्ट है कि प्रतीक रूपेण निरूपण, अत्यन्त सरल, संक्षिप्त, युक्त एवं सुग्राम है। 5. इसके पश्चात् , तेजस्कायिक बादर पर्याप्त राशि का प्रमाण प्रतीक रूप से ८ दिया गया है वहाँ ८ को आवलि का प्रतीक माना है। यह बतलाना आवश्यक है कि जब आवलि का प्रतीक ८ माना गया है तो आवलि के असंख्यातवें भाग को न लेकर । क्यों लिया गया है ? इसके दो कारण हो सकते हैं। एक यह, कि असंख्यात लोक प्रमाण राशि (९) की तुलना में आवलि (बघन्य युक्त असंख्यात समयों की गणात्मक संख्या की १ यदि संख्या है और इस संख्या को ९ द्वारा भाजित करने से जो लब्ध आवे वह इस संख्या में जोड़ना हो तो क्रिया इस प्रकार है:- +3= १०३ = 3.१० । इसका ९वां भाग और घोड़ने पर . १०x१० प्राप्त होता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूनीवपणतिकी प्रस्तावना प्रतीक रूप राशि ) और एक का अन्तर नगण्य है। दूसरा यह, कि ९ के साथ ८ का उपयोग करने पर कहीं उसका अर्थ (असंख्यात डोक-१) प्रमाण राशि न मान लिया जाय । इस प्रकार ४. (आवलि ) लिखे जानेवाले प्रमाण में आवलि के स्थान पर ८ का उपयोग नहीं हुआ प्रतीत होता है। गोम्मटसार बीवकाण्ड में गाथा २०९ में आवलि न लेकर घनावलि लिया गया है। घनावलि शन्द ठीक मालूम पड़ता है। आवलि यदि २ मानी बावे तब बनावलि की संहष्टि ८ हो सकती है। परन्तु, यह इसलिये सम्भव नहीं है कि २ को सूच्यंगुल का प्रतीक माना गया है। स्मरण रहे कि उपयुक्त प्रतीक रूप राशियों ( Sets) का उल्लेख, उन राशियों में मुख्य रूप से आकाश में प्रदेशों की उपधारणा के आधार पर समाये चानेवाले प्रदेशों की गणात्मक संख्या बतलाने के लिये किया गया है। आगे वायुकायिक बादर पर्याप्त राशि को ग्रंथकार ने प्रतीक रूप से लिखा गया है। यहाँ संख्यात == धन लोक को संदष्टि प्रतीत होती है पर ग्रंथकार द्वारा वहाँ केवल लोक शब्द उपयोग में लाया गया है। संख्यात राशि के प्रतीक के लिये तिलोयपण्णति माग २, पृ. ६०२ देखिये । मुविधा के लिये हम आगे चलकर इसे Q द्वारा प्ररूपित करेंगे। तदुपरान्त, पृथ्वीकायिक बीवों की 'सूक्ष्म पर्याप्त बीव राशि' तथा सूक्ष्म अपर्याप्त बीयराशि के प्रमाण, क्रमशः, प्रतीक रूपेण तथा = निरूपित किये गये हैं। प्रथम राशि को प्राप्त करने के लिये = १.८) प्रमाण को अपने योग्यसंख्यात रूपों से खंडित करके उसका बहुमाग ग्रहण करना पड़ता है। दूसरी राशि उक्त प्रमाण का एक भाग रूप ग्रहण करने पर प्राप्त होती है। इसका कारण यह है कि अपर्याप्तक के काल से पर्याप्तक का काल संख्यात गुणा होता है। स्पष्ट है, कि पृथ्वीकायिक सूक्ष्मराशि का वां भाग पर्याप्त जीव राशि ली गई है तथा भाग अपर्याप्त जीव राशि ली गई है। ___सकायिक जीव राशि का प्रमाण प्रतीक रूपेण, लिया गया है। गोम्मटसार बीवकांड गाथा २११ के अनुसार ४ प्रतरांगुल है, = जगप्रतर है, २ आवलि है, तथा a असंख्यात है। इस प्रकार, आवलि के असंख्यातवें भाग (२) से विभक्त प्रतरांगुल (१) का भाग नगपतर (= ) में देने से प्रमाण राशि स जीव राशि प्राप्त होती है। इसके पश्चात् ग्रंथकार ने प्रतीक रूप से, सामान्य वनस्पतिकायिक जीव राशि का प्रमाण यह दिया है: सर्व बीवराशि रिण [...] रिण [=(:)] अंतिम पद =a(-) समस्त तेजस्कायिक, पृथ्वीकायिक, वायुकायिक तथा जलकायिक राशियों के योग का प्रतीक है। ४ का अर्थ हम छः में से इन चारों कार्यों के जीव ले सकते हैं। शेष - तथा - का निश्चित अर्थ कहने में अभी समर्थ नहीं है। उपर्युक्त बीव राशि में से असंख्यात लोक प्रमाण राशि घटाने पर साधारण वनस्पतिकायिक जीव राशि उत्पन्न होती है । यथा : Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडोवपणतिका गणित (सर्व बीवराशि रिण%3Dरिण =a/४ ) (असंख्यात लोक प्रमाण). असंख्यात लोक के लिये ९ संदृष्टि हो सकती है, पर यहां असंख्यात लोक प्रमाण से प्रत्येक वनस्पति बीव गशिका आशय है । जिसका प्रमाण ग्रंथकार ने, आगे,=a = प्ररूपित किया है। शेष बचनेवाली संख्या के लिए ग्रंथकार ने १३= प्रतीक दिया है। यह संदृष्टि किस आधार पर ली गई है, स्पष्ट नहीं, तथापि ९और ४ अंकों के पास होने के कारण ली गई प्रतीत होती है। सम्भवतः १३ का स्पष्टीकरण षटखेरागम पुस्तक ३ में पृष्ठ ३७२ आदि में वर्णित विवरण से हो सके। इसके पश्चात् , साधारण बादर वनस्पतिकायिक बीवराधि १३= द्वारा प्ररूपित की गई है वहाँ ९ असंख्यात लोक का प्रतीक है। इस राशि को १३= में पटाने पर १३= . प्रमाण राशि साधारण सूक्ष्म वनस्पति कायिक जीवराशि बतलाई गई है। यहाँ ८ का अर्थ, 'असंख्यात लोक रिण एक' है। पुनः, साधारण बादर पर्यात बनस्पतिकायिक बीनराशि का प्रमाण प्रतीक रूपेण १२= लिया है वहाँ ७ अपने योग्य असल्यात लोक प्रमाण राशि को मान लिया गया है। इसे १३ = में से घटाने पर प्रतीक रूपेण साधारण बादर अपर्याप्त जीव राशि १३.६ प्ररूपित की गई है। इस प्रकार अपने योग्य असंख्यात लोक प्रमाण राशि में से एक घटाने पर बो राशि प्राप्त होती है, उसे ६ द्वारा निरूपित किया गया है। पुनः, १३= ६ का या माग साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवराशि तथा वां भाग अपर्याप्त बीवराशि का प्रमाण बतलाया गया है। . असंख्यात लोक प्रमाण राशि बो = = ली गई थी, वह प्रत्येकशरीर वनस्पति जीवों का प्रमाण भी है। आगे, ग्रंथकार ने अप्रतिष्ठित प्रत्येकथरीर वनस्पतिकायिक बीवराशि को असंख्यात लोक परिमाण बतलाकर = प्रतीक रूपेण प्ररूपित किया है। इसमें चर असंख्यात लोकों का गुणा करते है तब प्रतिष्ठित बीवराशि का प्रमाण == ==a प्राप्त होता है। बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवराशि का प्रमाण : पृ. का. वा. आवलि प. बीवराशि है। यहाँ प्रेथकार ने फिर से -को-नई असख्यात असंख्यात असंख्यात लोक प्रमाण लिया है। इसलिये प्रमाण आता है। आगे, बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकघरीर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त बीवराशि तक का वर्णन तथा प्रतीक स्पष्ट हैं। ति. ग, " अथवा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना इसके बाद, ग्रंथकार ने प्रतीकरूपेण दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चतुरिंद्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों के प्रमाण मूल गाथा में प्रदर्शित किये हैं जो क्रमशः । ८ .१५८६४ तथा = ...१ . ६१२० हैं । जहां = जगप्रतर है, ४ प्रतरांगुल है, २ आवलि है, तथा a असंख्यात का प्रतीक है। इन राशियों की प्राप्ति क्रमशः निम्न रीति से स्पष्ट हो जावेगी। - अलग स्थापित करते हैं तथा, २६१' चार जगह अलग २ स्थापित करते हैं । दो इंद्रिय जीवों का प्रमाण निकालने के लिये ८२ में 1 का गुणा करने से प्राप्त राशि को = २. 1 में से घटा देने पर अवशिष्ट = २ राशि बचती है जिसे अलग स्थापित किये प्रथम पुंज में मिलाने पर अथवा अथवा = २ १ (८४४४८१) + (८४८१४९) ४१ अथवा = २.१ ८४२४ प्रमाण राशि प्राप्त होती है । तीन इंद्रिय जीवों का प्रमाण प्राप्त करने की निम्न लिखित रीति है। २.१४ को २ २ १ में से घटाते हैं जिससे - २ १. रिण = २ १ १ प्रमाण राशि अथवा ८.२८ प्रमाण राशि प्राप्त होती है। इस अवशिष्ट राशि के समान खंड करने पर = २८४१ प्रमाण प्राप्त होता है । इसे द्वितीय पुंज में मिलाने पर अथवा = २ १ ६१२० प्रमाण ४ ४ '६५ प्रमाण प्राप्त होता है। उपर्युक क्रियाएं प्रतीक ९ को अंक मानकर की गई है। ये कहां तक ठीक है कहा नहीं जा सकता। ९ को अंक सम्भवतः इसलिये मान लिया गया हो किका विरलन किया गया है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार, चार इंद्रिय जीवों का प्रमाण = २८८१ = २१.८ (5) + ८१ ८१ " (९)" = २ १५८६४ बतलाया गया है। अथवा ४ ६५६१ इसी तरह पांचहन्द्रिय जीवों का प्रमाण तिकोपपत्तिका गणित अथवा = २ १ १ = २ १ ८ ( ९ )" + ((0) ८१ ૪ = २ १५८३६ ६५११ बतलाया गया है । पर्याप्त नीबों की संख्या निकालने के लिये उपर्युक्त रीति में 2 के बदले केवल संख्यात ५ लेते है, जिससे उल्लेखित प्रमाण प्राप्त हो जाता है । दोइद्रिय अपर्याप्त बीबों की राशि को ग्रंथकार ने वास्तव में निम्न प्रकार निरूपित किया है : २ १ ८४२४ २५६१ Font == (4). +/ 유용 पंचेन्द्रिय तिर्येच संज्ञी अपर्याप्त राशि बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवराशि अंतिम दो स्थापनाओं में कुछ ऐसे प्रतीक है जिनका अर्थ इस समय प्राप्त सामग्री से ग्राह्य नहीं है। ये क्रमशः मू. " ,, t " तो ग्रीक अक्षर सिगमा तथा ग्रीक अक्षर ओमेगा तथा ९ रो के समान और & एल्फा के समान प्रतीत होता है । यद्यपि ९, ९ अंक से लिया गया प्रतीत होता है और & असंख्यात का प्ररूपण करता है, तथापि और 12 के विषय में खोज आवश्यक है, क्योंकि ये वर्णाक्षर विभिन्न युगों में यूनान में पूर्वीय देशों से प्रविष्ट हुए । गा. ५, ३१४-१५- अप बहुत ( Comparability ) : यहां ४ प्रतरांगुल है ८ घनावलि है, तथा & असंख्यात है । (-) 8 ६१२० ६५६१ निष्पत्ति का प्ररूपण . ( ) / (४६५५३६४५४५) है। = प ઢ यह प्रमाण ८×××६५५३६४५४५ ५५ होता है । इस राशि को ग्रंथकार ने असंख्यात विभाग में रखा है। यह स्पष्ट भी है, क्योंकि, जगप्रतर का प्रमाण असंख्यात और 8 का प्रमाण मी असंख्यात है । संशी पर्याप्त, अशी पर्याप्त से संख्यात अथवा ४ गुने हैं। ८ तीन इंद्रिय अशी अपर्याप्त राशि तीन इंद्रिय पर्याप्त राशि से असंख्यातगुणी है। यह प्रमाण आवलि के प्रमाण पर निर्भर है। इसी प्रकार दोइंद्रिय अपर्याप्त जीवराशि से असंख्यातगुणी अप्रतिष्ठित प्रत्येक जीवराधि है जो रस्य के प्रमाण पर निर्भर है। चलकायिक बादर पर्याप्त जीव हैं तथा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव पर्याप्त जीव ँ हैं । Heath, A History of Greek Mathematics, vol. 1, pp 31-33 Edn. 1921. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 /9 प निरूपण यह है : अथवा अथवा इसलिये, ४ & निष्पत्ति ( ratio ) को ग्रंथकार ने असंख्यात प्रमाण कहा है। यहां प्रतीक टाइप के अभाव में हम संख्यात के लिये द्वारा प्ररूपित कर रहे हैं। संदृष्टि के लिये ति प भाग २. ६१६-६१७ देखिये । इसके पश्चात्, ग्रंथकार ने तेजस्कायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीवराशि और बायुकाधिक बादर अपर्याप्त जीवराशि को असंख्यात कड़ा है। = } /{ ९.५ अथवा जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना Y'a Q'q' ==& १०१०१० रिण ९·९*९*९ = ९*९*९*९ १९९.९९ '८' ९*९*९*९ [९·५·[ = a*१०*१०*१० रिण ९९९९ ] स्पष्ट है कि यह राशि असंख्यात है। यहां बिंदु का उपयोग गुणन के लिये हुआ है। इसके पश्चात्, ग्रंथकार ने साधारण बादर पर्याप्त और वायुकायिक सूक्ष्म पर्याप्त की निष्पत्ति को भी असंख्यात विभाग में रखा है। यथा: ११८. १०. १०. १०. ८.४ / ९. ९. ९. ९.५ (१३) ९·९*९*९*५ ९७ १०१०'१०८'४ १३ इससे ज्ञात होता है कि है की निष्पत्ति अवश्य ही असंख्यात होना चाहिये । अर्थात् १३ प्रतीक द्वारा प्ररूपित राशि ( a & ) के समान अथवा उससे बड़ी होना चाहिये । साधारण बादर अपर्याप्त और साधारण बादर पर्यास की निष्पत्ति असंख्यात प्रमाण कही गई । यथा : } 8 १२६/१११, जो वास्तव में केवल संख्यातगुणी प्रतीत होती है पर यह निष्पत्ति ह ६ के प्रमाण पर निर्भर है। यदि ६ को घनांगुळ मान लिया जाय, तो उसमें प्रदेशों की संख्या असंख्यात मानकर यह निष्पत्ति असंख्यात मानी जा सकती है। आगे ग्रंथकार ने सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण बादर अपर्याप्त की निष्पत्ति अनन्त मानी है । यथाः १२ ८ / १३·६ अथवा ८४७ ५४६ ९४५ ऐसा प्रतीत होता है कि इस निष्पत्ति को उपचार से अनन्त कहा गया है। इस समय कहा नहीं जा सकता कि ८, ६, ७ और ५ को यहां किन अर्थों में ग्रहण किया गया है। गा. ४, ३१८ - अवगाहनाओं के विकल्प का कथन, धवला टीका के गणित का अनुसंधान करते समय, सुगमता से सम्भव हो सकेगा । गा. ५, ३१९-२० यहां सम्भवतः ग्रंथकार ने निम्न लिखित सांद्र के घनफल का प्ररूपण किया है। यह एक ऐसा उदय रम्भ है, जिसका आधार, समद्विबाहु त्रिभुज सहित अर्धवृत है। आधार शंल आकृति कहा जा सकता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनम तिकोषपण्णसिका गणित इस शंखाकार आकृति (३४ अ) का क्षेत्रफल (3)+ ४८ = ७३.२८ वर्ग योजन प्राप्त होता है। यदि रम्भ का उत्सेध ५ योजन हो, तो घनफल, आधार का क्षेत्रफल तथा उत्सेघ का गुणन फल, होता है। इसलिये, यहां घनफल ७३.२८४५ अथवा बादररूपेण ३६५ धनयोजन प्राप्त होगा। हो सकता है कि ग्रंथकार द्वारा निर्देशित आकृति की नियोजना दूसरी रही हो। ऐसे क्षेत्र के क्षेत्रफल का स्त्र ग्रंथकार ने दिया है: [(विस्तार) - (इ) + (इ)]x इसे शंखक्षेत्र का गणित कहा गया है । यहां, विस्तार १२ योजन एवं मुख ४ योजन है। भnिi स्केल-tem. १. यह आकृति सम्भवतः चित्र ३४ ब में बतलाये हुए सांद्र के सहश हो सकती है। आकृति ४ ___ आगे, पद्म के आकार के सांद्र का धनफल निकालने के लिये सूत्र दिया गया है। यह सांद्र बेलनाकार होता है। इसका घनफल निकालने के लिये आधुनिक सूत्र T. २. h. का उपयोग किया गया है, जहां का मान ३ लिया गया है, २r अथवा व्यास १ योजन है तथा उत्सेध १०००१ योजन है। आकृति-३४ स देखिये। महामत्स्य की अवगाहना, आयतज ( cuboid ) के आकार का क्षेत्र है, जहां घनफल ( लम्बाई ४ चौड़ाई ४ ऊँचाई ) होता है। आकृति: Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ स्केल... - &c.m.= १रा. जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना भ्रमरक्षेत्र का घनफल निकालने के लिये बीच से विदीर्ण किये गये अर्द्ध बेलन के घनफल को निकालने के लिये उपयोग में लाया गया सूत्र दिया गया है। सूत्र मेंग का मान ३ लिया गया है। आकृति - ३४ द देखिये । आकृति २४द गा. ७, ५-६ - ज्योतिषी देवों का निवास बम्बूदीप के बहुमध्य भाग में प्राय: १३ अरव योजन के भीतर नहीं है'। उनकी बाहरी चरम सीमा = x ११० योजन दी गई है। यह बाह्य सीमा एक .४९ राजु से अधिक शात होती है। वहाँ बाह्य सीमा १ राजु से अधिक है उस प्रदेश को अगम्ब कहा गया है। ज्योतिषियों का निवास शेष गम्य क्षेत्र में माना गया है। गा. ७, ७- चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे, ये सब प्रथकर्ता के अभिप्रायानुसार अंत में घनोदवि वातवलय ( वायु और पानी की वाष्प से मिश्रित वायुमंडल) को स्पर्श करते हैं। तदनुसार, इन समस्त देवों के आसपास किसी न किसी तरह के वायुमंडल का उपस्थित होना माना गया है । गा. ७, ८- पूर्व पश्चिम की अपेक्षा से उत्तर दक्षिण में स्थित ज्योतिषी देव वनोदधि वातवलय को स्पर्श नहीं करते । ( 1 ) गा. ७, १३-१४ - इन गाथाओं में फिर से प्रतरांगुल के लिये प्रतीक ४ तथा संख्यात के लिये Q ( यथार्थ प्रतीक मूल ग्रन्थ में देखिये ) लिया गया है। १ इस महाधिकार में ग्रंथकार ने ज्योतिष का बृहत् प्ररूपण नहीं किया है किन्तु रूपरेखा देकर कुछ हो महत्त्वपूर्ण फलों का निर्देशन किया है । ज्योतिर्लोक विज्ञान का अस्तित्व भारत, बेबीलोन, मिश्र और मध्य अमेरिका में ईसा से ५००० से ४००० वर्ष पूर्व तक पाया जाता है। आकाश के पिंडों की स्थिति और अन्य घटनाओं के समय की गगनाएँ तत्कालीन साधारण यंत्रों पर आधारित थीं । प्राचीन काल में, ग्रहणों का समय, एकत्रित किये गये पिछले अभिलेखों के आधार पर बतलाया जाता था । पर ग्रहण, बहुधा, बतलाये हुए समय पर घटित न होकर कुछ समय पहिले या उपरांत हुआ करते थे। इस प्रकार बादर रूप से प्राप्त उनके सूत्र प्रशंसनीय तो थे, पर उनमें सुधार न हो सके। जब मिलेशस के येल्स ( ग्रीस का विद्वान ) ने ईसा से प्रायः ६०० वर्ष पूर्व प्रयोग द्वारा बतलाया कि चंद्रमा पृथ्वी की तरह प्रकाशहीन पिंड है और जो प्रकाश हमें दिखाई देता है वह सूर्य का परावर्तित प्रकाश है। तब ग्रहण का कारण चंद्र का सूर्य और पृथ्वी के बीच आना और पृथ्वी का सूर्य और चंद्र के बीच आना माना जाने लगा । सर्वप्रथम, ग्रीस के निवासियों ने पृथ्वी को गोल बतलाया; उत्तर में दिखाई देते थे, उनके बदले में दक्षिण दिशा में दूर तक यात्रा करने में पड़े। साथ ही, चंद्रग्रहण के समय पृथ्वी की छाया सूर्य पर वृत्ताकार दिखाई दी। नीज (ईसा से २७६-१९६ वर्ष पूर्व ) ने इसके आधार पर पृथ्वी की त्रिज्या प्रायः ४००० मील से कुछ कम निश्चित कर दी। भी क्योंकि वो नक्षत्र उन्हें उन्हें नये नक्षत्र दिखलाई यहां तक कि इरेटोस्थिगणना के आधार पर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विछोयपण्णत्तिका गणित गा.७.३६- पृथ्वीतल से चंद्रमा की ऊँचाई ८८० योजन बतलाई गई है। एक योजन का माप आधुनिक ४५४५ मील लेने पर चंद्रमा की दूरी ८८.४४५४५ अथवा ३७,९३६०० मील प्राप्त होती है। भाधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार वैशानिकों ने चंद्रमा की दूरी प्रायः २.३८००० मील निश्चित की है। गा.७.३६-३७-हाँ आधनिक वैज्ञानिकों ने चंद्रमा को स्वप्रकाशित नहीं माना है, वहाँ प्रयकार के अनुसार चंद्रमा को स्वयं प्रकाशवान मानकर उसे शीतल बारह हजार किरणों सहित बतलाया है। न केवल वहाँ की पृथ्वी ही, वरन् वहाँ के बीच भी उद्योत नामकर्म के उदय से संयुक्त होने के कारण स्वप्रकाशित कहे गये हैं। गा.७, ३९- ग्रंथकार के वर्णन के अनुसार नैन मान्यता में चंद्रमा अर्द्धगोलक (Hemispherical) है| उस अर्द्ध गोलक की त्रिज्या २६ योजन मानी गई है अर्थात् व्यास प्रायः २(380X४५४५ = प्रायः ४१७२ मील माना गया है आधुनिक ज्योतिषविज्ञों ने अपने सिद्धान्तानुसार इस प्रमाण को प्रायः २१६३ मील निश्चित किया है। इस प्रकार ग्रंथकार के दत्त विन्यासानुसार यदि अवलोकनकर्ता की आंख पर चंद्रमा के व्यास द्वारा आपतित कोण निकाला बाय तो वह रेडियन अथवा ३.५९ कला (3.59 minutes ) होगा। आधुनिक यंत्रों से चंद्रमा के व्यास द्वारा आपतित कोण प्रायः ३१ कला (31"7") प्राप्त हुआ है। यह माप या तो प्रकाश के किसी विशेष अज्ञात सिद्धान्तानुसार हमें यंत्रों द्वारा गलत प्राप्त हो रहा है अथवा ग्रंथकार द्वारा दिये गये माप में कोई त्रुटि है। यहां एक विशेष बात उल्लेखनीय यह है कि चैन मान्यतानुसार अर्द्धगोलक ऊर्ध्वमुख रूप से अवस्थित है बिससे इम चंद्रमा का केवल निम्न माग ( अर्द्ध माग) ही देखने में समर्थ है। इसी बात की आधुनिक वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि चंद्रमा का सर्वदा केवल एक ही और वही अर्द्ध भाग हमारी भोर होता है और इस तरह हम चंद्रमा के तल का केवल ५९% भाग ( कुछ और विशेष कारणों से) देखने में समर्थ है। वेधयंत्रो से प्राप्त अवलोकनों के आधार पर कुछ खगोलशास्त्रियों का अभिमत है कि मंगस आदि ग्रहों के भी केवल अद्ध विशिष्ट माग पृथ्वी की भोर सतत रहते है। इसका कारण, उनका भक्षीय परिभ्रमण उपधारित किया गया है। गा.७,६५- इसके पश्चात, ग्रंथकार ने सूर्य की ऊँचाई चंद्रमा से ८० योजन कम अथवा ८०० योजन (आधुनिक ८०.४४५४५-३६३६००० मील)तलाई है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने सूर्य की दूरी प्रायः ९२, ७००,... मील निमित की है। ईसासे प्रायः चार सौ वर्ष पूर्व ग्रीक विद्वानों ने आकाश पिंडों के दैनिक परिभ्रमण का कारण पृथ्वी का स्वतः की अक्ष पर परिभ्रमण सोचा। पर, एरिस्टाटिल (ईसासे ३८४-३२२ वर्ष पूर्व) ने पृथ्वी को केन्द्र मानकर शेष चंद्र, सूर्य तथा ग्रहों का परिभ्रमण क्लिष्ट रीति द्वारा निश्चित किया। यह ज्ञान अपना प्रभाव २००० वर्ष तक जमाये रहा। इसके विरुद्ध पोलेण्ड के कापरनिकस (१४७३-१५४३) ने सम्पूर्ण बीवन के परिश्रम के पश्चात् सूर्य को मध्य में निश्चित कर शेष ग्रहों का उसके परितः परिभ्रमणधील निभित किया। सूर्य से उनकी दरियां भी निश्चित की। इसके पश्चात. प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री बान केपलर (१५७१-१६३०) ने ग्रहों के पथों को ऊनेन्द्र निश्चित किया तथा सूर्य को उनकी नाभि पर स्थित बतलाया। उसने यह भी निश्चित किया कि ग्रह से सूर्य को जोड़नेवाली त्रिज्या समान समयमें समान क्षेत्रों (reas)को तय करती है। और यह कि किसी ग्रह के आवर्त काल के अंतराल के बर्ग (Square of the periodio time) और उसकी सूर्य से माध्य दूरी ( mean distance) के घन, की निष्पति निश्चल रहती है। दूरबीन ने भी वृहस्पति और शनि आदि ग्रहों के उपग्रहों को खोजने में सहायता की। सन् १६८७ में न्यूटन ने विश्वको जान केपलर के फलों Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुद्धीवपण्णसिकी प्रस्तावना गा.७,६६-चैन मान्यतानुसार, सूर्य को प्रकाशवान तथा १२००० उष्णतर किरणों से संयुक्त माना है। उसमें बीयों का रहना निम्भित किया है तथा उन्हें भी स्वतः प्रकाशित बतलाया है। ३ गा.७, ६८-सूर्य को मी चंद्रमा की तरह अई गोलक बतलाया गया है, वहां उसका विस्तार योजन अथवा sx४५४५-प्रायः ३५७६ मील निश्चित किया गया है। वैज्ञानिकों ने व्यास का प्रमाण ८६४,००० मीस निश्चित किया है। अवलोकनकर्ता की आंख पर बैन मान्यानुसार दत्त विन्यास के आधार पर सूर्य का व्यास हा रेडियन अथवा ३.३८ कला (3:38 minuts) आपतित करेगा। पर, आधुनिक यंत्रों द्वारा इस कोण का मध्य मान प्रायः ३२ कला (32 minuts) निश्चित किया गया। गा.७.८३-बुध ग्रह की ऊँचाई पृथ्वीतल से सम्बरूप ८८८ योजन अथवा ४०.३५.९६.मील बतलाई गई है। आधुनिक वैज्ञानिको ने अपने सिद्धांतों के आधार पर इस दूरी को प्रायः ४६,९२९,२१० मील निश्चित किया है। इन्हें भी ग्रंथकार ने अर्द्ध गोलक कहा है। गा.७.८९-शुक्र ग्रहों की ऊंचाई पृथ्वीत से लम्ब रूप ८९१ योबन अथवा ४,४९,५९५ मील बतलाई गई है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह दूरी २५,६९८,३०८ मील निमित की है। इन नगर तलों की किरणों की संख्या २५००बतलाई गई है। गा.७,९३-वृहस्पति ग्रहों की ऊँचाई पृथ्वीतल से लाबरूप ८९४ योजन अथवा मील बतलाई गई है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह दूरी ३९०,३७६.८९२ मील निश्चित की है। गा..,९६- मंगल ग्रहों की उंचाई पृथ्वीतल से लम्ब रूप ८९७ योजन अथवा ४०,७६,८६५ मील बतलाई गई है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह दूरी ४८.६४३,०३८ मील निश्चित की है। गा.७, ९९-शनि ग्रहों की ऊंचाई पृथ्वीतल से लम्ब रूप ९०० योजन अथवा ४०,९०,५०० मील बतलाई गई है। आधुनिक सिद्धान्तों पर यह दूरी ७९३.१२९.४१० मील निश्रित की गई है। गा. ७, १०४.१०८-इसी प्रकार, नक्षत्रों की ऊँचाई ८८४ योजन तथा अन्य तारागगों की ऊँचाई ७९० योजन है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने ताराओं को सूर्य सदृश प्रकाश का पुंज माना है। सबसे पास के तारे Alpha Centauri की दूरी उन्होंने सूर्य की दूरी से २२४,००० गुनी मानी है। अन्य तारों की दूरी तुलना में अत्यधिक है। के आधार पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति का एक महान् नियम दिया। इसी शक्ति के आधार पर ज्वार और भाटे की घटनाओं को समझाया गया। सन् १८४५ के पश्चात् तीन नवीन ग्रहों यूरेनस, नेपच्यूव और प्लूटो का गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर आधारित प्रवैगिकी तथा दूरबीन की सहायता से आविष्कार हुआ । दूरबीन के सिवाय, वितन्तु दरबीन तथा सूर्यरश्मिविश्लेषण और फोटोग्राफी आदि से अब आकाश के पिंटो की बनावट, उनके वायुमंडल, उनकी गति आदि के विषय में निश्चित रूप से आश्चर्यजनक एवं महत्त्वपूर्ण बातें बतलाई जा सकती है। वैज्ञानिकों ने पृथ्वी का वायुमंडल केवल प्रायः २०० मील की ऊँचाई तक निश्चित किया है। सूर्य, चंद्र और ग्रहों के विषय में तो उनकी जानकारी एक चरम सीमा तक पहुँच चुकी है। चंद्रकलाओं का कारण प्रकाशहीन चंद्र का सूर्य से प्रकाश प्राप्त होना तथा चंद्र का विशेष रूप से गमन करना बतलाया गया है। सूर्य में उपस्थित काले धब्बों का आवर्तीय समय में दृष्टिगोचर होना भी सूर्य का विशेष रूप से गमन तथा उसी में उपस्थित विशेष तत्वों को बतलाया गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अब सूर्य और चंद्र ग्रहण का बिलकुल ठीक समय गणना द्वारा निकाला जाता है। सूर्य के स्वपरिभ्रमण को सूर्यरश्मिविश्लेषण या रंगावलेक्ष यंत्र द्वारा हाप्लर के सिद्धान्त का उपयोग कर परिपष्ट किया गया है। इनके सिवाय. वर्षों में Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित गा. ७, ११७ आदि - जितने वलयाकार क्षेत्र में चंद्रबिम्ब का गमन होता है उसका विस्तार ५१०६योजन है । इसमें से वह १८० योजन जम्बूद्वीप में तथा ३३०६ योजन लवण समुद्र में रहता | आकृति - ३५ देखिये । चंद्रबाल जम्मू '1920 एक-एक बीथी का अंतराल ३५१ वलयाकार क्षेत्र का विस्तार ५१० ૧ चित्र का माप प्रमाण नहीं है :बिन्दुओं के द्वारा दर्शाई गई परिधि जम्बूद्वीप की है जिसका विस्तार १००००० योजन है । मध्य में सुमेरु पर्वत है जिसका विस्तार १०००० योजन है। चंद्रों के चारक्षेत्र में पंद्रह गलियां हैं जिनमें प्रत्येक का विस्तार योजन है, क्योंकि उन्हीं में से केवल चंद्रमा का गमन होता है। चूंकि यह गमन एकसा होना चाहिये अर्थात् चंद्र का हटाव अकस्मात् ( प्रायः ४८ घंटे के पश्चात् ) एक बीथी से दूसरी बीथी में न होकर प्रतिसमय एकसा होना चाहिये, इसलिये चंद्र का पथ समापन (winding) और असमापन ( unwinding) कुंतल ( spiral ) होना चाहिये । योजन अथवा [प्रायः ३५३ x ४५४५ मील], १६१३४७३ मील है । योजन अथवा [ प्रायः ५११ x ४५४५ मील ], २३२२४९५ मील है । आकृति-२५ दृष्टिगोचर होनेवाले धूमकेतुओं तथा विविध समय पर उल्कापात करनेवाले उल्कातारों के पथों को भी निश्चित किया जा चुका है। पृथ्वी का भ्रमण न केवल अपनी अक्ष पर, वरन् सूर्य के परितः भी माना जाता है । मंडल का १२ मील प्रति घंटे की गति से, हरकुलीज नामक नक्षत्र के विगा तारे के पास solar apex ( सौर्यशीर्ष ) की ओर गमन निश्चित किया गया है। पर, वैज्ञानिक पृथ्वी की यथार्थ गति आज तक नहीं निकाल सके और आइंसटीन के कथनानुसार प्रयोग द्वारा कभी न निकाल सकेंगे। पृथ्वी की शुद्ध एवं निरपेक्ष गति को कुछ अवधारणाओं के आधार पर माइकेल्सन और मारले ने अपने अति सूक्ष्म प्रयोगों द्वारा निकालने का प्रयत्न किया था, पर वे जिस फल पर पहुँचे उससे भौतिक शास्त्र में नवीन उपधारणाओं ( postulates ) का पुनर्गठन आइंसटीन ने सापेक्षवाद के आधार पर किया । यह सिद्धान्त तीन प्रसिद्ध प्रयोगों द्वारा उपयुक्त सिद्ध किया जा चुका है । आज कल ज्योतिषशास्त्रियों ने सम्पूर्ण आकाशको ८८ खंडों में, ८८ नक्षत्रों के आधार पर विभाजित किया है । आकाश के किसी भी भाग का अच्छा से अच्छा अध्ययन तथा उस भाग में आकाशीय पिंडों का गमन फोटोग्राफी के द्वारा हो सकता है। तारों के द्वारा विकीर्णित प्रकाश और ताप ऊर्जा ( energy) के आपेक्षिक मानों को सूक्ष्म रूप से ठीक निश्चित करने के लिये कई महत्ता संहृतियां (magnitude systems ) स्थापित की गई है, वे क्रमशः ( Visual Magnitudes ) दृष्ट या आभासी महत्ताएं, ( Photographic Magnitudes ) भाचित्रणीय महत्ताएँ (Photo-visual Magnitudes) भाभासी महत्ताएं और ( Photo-eleotric Magnitudes ) भाविद्युतीय महत्ताएं आदि हैं। सन् १७१८ में महान् ज्योतिषी हेली ने बतलाया कि हिपरशसके समय से तीन उज्ज्वल तारे सीरियस, आकंचरस वि. ग. १२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना परिधिपथ बढ़ जाता है । जम्बूद्वीप में दो चंद्र माने गये हैं जो सम्मुख स्थित रहते हैं। चारों ओर का क्षेत्र संचरित होने के कारण चारक्षेत्र कहलाता है। गा.७, १६१- अभ्यंतर चंद्रबीथी की परिधि ३१५०८९ योजन तथा त्रिज्या (बम्बद्वीप के मध्य बिन्दु से ) ४९८२० योजन मानी गई हैं। यदि का मान 10 अथवा प्रायः ३.१६ लिया जाय तो परिधि (४९८२०)४२४३.१६ = ३११७०२.४ योजन प्राप्त होती है। गा.७, १७८- बाह्य मार्ग की परिधि का प्रमाण ३१८३१३ ३१ योजन है। गा,७,१८९-इस गाथा में एक महान् सिद्धान्त निहित है। बब त्रिज्या बढ़ती है तब थ बढ़ जाता है और नियत समय में ही वह पथ पूर्ण करने के लिये चंद्र व सर्य दोनों की गतियां बढ़ती जाती हैं जिससे वे समान काल में असमान परिधियों का अतिक्रमण कर सके। उनकी गति काल के असंख्यातवे भाग में समान रूप से बढ़ती होगी अर्थात् बाह्य मार्ग की ओर अग्रसर होते हुए उनकी गति समत्वरण ( uniform acceleration) से बढ़ती होगी और अन्तः मार्ग की ओर आते हुए सम विमन्दन ( uniform retardation) से घटती होगी। गा.७,१८६- चंद्रमा की रेखीय गति (linear velocity) अन्तः बीथी में स्थित होने पर १ मुहूर्त (या ४८ मिनिट ) में ३१५०८९६२२२ = ५०७३ योजन होती है। अथवा, चंद्रमा की गति इस समय १ मिनिट में प्रायः ५.७४४४५४५ ४८०४४० मील रहती है । ४८ गा.७, २००-- जब चंद्र बाह्य परिधि में स्थित रहता है तब उसकी गति १ मिनिट में प्रायः ४५ = ४८५२७३२१ मील रहती है। ४८ और एलडेबरान अपने पड़ोसी तारों की अपेक्षा अपनी स्थिति से कुछ मापने योग्य मान में हट गये हैं। तब तक तारों को एक दूसरे की अपेक्षाकृत स्थिति में सर्वदा स्थिर माना जाता था और इस आविष्कार ने 'तारों के ब्रह्माण्ड की अवधारणा में क्रांति उत्पन्न कर दी। क्या और अन्य तारे भी हजारों वर्षों में ऐसी ही गति से गमन कर अपनी अपनी स्थिति से हटते होंगे? हेली के इस आविष्कार का नाम Proper Motions of Stars रखा.गया। तारों के इन यथार्थ गमनों Proper Motions को समझाने के लिये सम्पूर्ण सौर्यमंडल का गमन हरकुलीज नक्षत्र के विगा तारे की ओर मानने का प्रयास किया गया है, पर उन्लु. एम्. स्मार्ट के शब्दों में, "At present, we are ignorant of the propermotions of all but the nearest stars; when our inquiries embrace the most distant regions of the stellar universe the solar motion can then be defined in relation to the whole body of stars reg rded As a single immense group. Even then we are no nearer the conception of absolute solar motion, for extra stellar space is unprovided with anythings in the shape of fixed land marks', यह स्थिति भी असंतोषजनक है, क्योंकि सूर्य या तारों की प्रकेवल गति (absolute velocity) निकालना एक कल्पना (abstraction) मात्र है। इससे केवल सूर्य की गति की दिशा का ज्ञान भर होता है। इन यथार्थ गमनों (Proper motions) में चक्रीय परिवर्तन भी होते हैं। सन् १९०४ के पूर्व वैज्ञानिकों ने यही धारणा बना रखी थी कि तारों का गमन ( movement) किसी अचल नियम के आधार पर नहीं होता है। उसके पश्चात् सन् १९०४ में प्रोफेसर केपटिन (Kapteyn ) ने तारों के दो प्रकार की धाराओं (streams of star ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोषपण्णत्तिका गणित .. .... कुछ नमागेजन - - गा.७,२०१ आदि-चंद्रमा की कलाओं' तथा ग्रहण को समझाने के लिये चंद्रबिम्ब से ४ प्रमाणांगुल नीचे कुछ कम १ योबन विस्तारवाले काले रंग के दो प्रकार के राहओं की कल्पना की गई है, एक तो दिन राहु और दूसरा पर्व राहु । राहु के विमान का बाहल्य ३ योजन है। आकृति-३६ देखिये। स्केला-२": "मोजल मीलों में इसका प्रमाण ४५४५४ अथवा १४२११ मील है। दिनराहु की गति चंद्रमा की गति के समान मानी गई है और उसे कलाओं का कारण माना गया है । ४. योजन __गा.७, २१३-चांद्र दिवस का प्रमाण ३११४५ प्राकृतिः -३५ मुहूर्त अथवा ३११४४८ मिनिट अथवा २४ घंटे ५०२३६ मिनिट माना गया है। गा.७, २१६-पर्वराह को छह मासों में होनेवाले चंद्रग्रहण का कारण माना गया है। गा.७, २१७- इस राहु का इस स्थिति में गतिविशेषों से आ जाना नियम से होता माना गया है। चंद्रों की तरह बम्बूद्वीप में दो सूर्य माने गये हैं जो चार क्षेत्रों में उसी समान गमन करते हैं। विशेषता यह है कि सूर्य की १८४ गलियां। प्रत्येक गली का विस्तार सूर्य के व्यास के समान है तथा प्रथम पथ और मेक के बीच का अंतराल ४४८२० योजन है जो चंद्र के लिये भी इतना ही है। प्रत्येक बीथी का अंतराल २ योजन अथवा ९०९० मील निश्चित किया गया है। गा. ७,२२८-बम्बूद्वीप के मध्य बिन्दु को केन्द्र मान कर सूर्य के प्रथम पथ की त्रिज्या (५०००० -१८० = ४९८२० योजन है। दोनों सूर्य सम्मुख स्थित रहते हैं। गा. ७,२३७- अंतिम पथ में स्थित रहने पर दोनों सूर्यों के बीच का अंतर २४ (५००३३०) योजन रहता है। सूर्यपथ भी चंद्रपथ के समान समापन winding और असमापन unwinding कुंतल spiral के समान होता है। चन्द्रमा सम्बन्धी १५ ऐसे चक्र और सूर्य के सम्बन्ध में १८४ ऐसे चक्र होते हैं। गा.७, २४६ आदि-भिन्न २ नगरियों को दर्शाने के लिये उनकी परिधियां (उनकी केन्द्र से दूरी अथवा अक्षांश रेखाएं )दी गई हैं। ये नगरियां इस प्रकार स्थित मानी गई है कि प्रत्येक की परिधि 'उत्तरोत्तर क्रमश: १७१५७१ और १४७८६ योजन बढ़ी हुई ली गई हैं। १ वैज्ञानिकों ने दूरबीन के द्वारा ग्रहों में भी चंद्र के समान कलायें देखी हैं जिनका समाधान उसी सिद्धान्त पर होता है जिस सिद्धान्त पर चंद्रमा की कलाओं के होने का समाधान होता है। त्रिलोकसार में उपर्युक्त कथन के सिवाय एक और कथन यह है-अथवा कलाओं का कारण चंद्रमा की विशेष गति है। का आविष्कार किया जिसके सम्बन्ध में श्री डब्लु. एम. स्मार्ट के ये शब्द पर्याप्त हैं, "Star streaming remains a puzzling phenomenon : tentative explanations have indeed been offered, but it would appear that its complete elucidation is a task for future Astronomers." प्रथम महत्ता ( first magnitude ) का तारा सीरियस जिसकी दूरी ४७,०००,०००,०००,००० मील मानी गई है, दृष्टिरेखा की तिर्यक (cross) दिशा में १० प्रति सेकण्ड की गति से चलायमान निश्चित किया गया है। रश्मिविश्लेषक यंत्रों के द्वारा तारों का भिन्न २ श्रेणियों में विभाजन कर. भिन्न-भिन्न रंगोंवाले तारों के भिन्न-भिन्न तापक्रम को निश्चित कर उनकी, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबूदीपपण्णसिकी प्रस्तावना YS गा.७.२६५ आदि-जिस प्रकार चंद्रमा की गति बाह्य मार्ग की ओर अग्रसर होते हुए समत्वरण से बढ़ती है उसी प्रकार सूर्य की भी गति होती है। वह भी समान काल में असमान परिधियों को सिद्ध करता है। एक मुहूर्त अथवा ४८ मिनिट में प्रथम पथ पर उसकी गति ५२५१३१ योजन अथवा एक मिनिट में प्रायः ५२५१३४४५४५ = ४९७२५१३, मील होती है । ४८ गा.७, २७१-- १८४वे मार्ग में उसकी गति १ मिनिट में प्रायः ५३०५४४५४५ =५०२३४०११५ मील होती है। गा. ७, २७२- चंद्र की तरह सूर्य के नगरतल के नीचे केतु के ( काले रंग के ) विमान का होना माना गया है । जहां विस्तार और बाहल्य राहु के विमान के समान माना गया है। गा. ७, २७६- यहां ग्रंथकार ने समस्त जम्बूद्वीप तथा कुछ लवण समुद्र में होनेवाले दिन-रात्रि के प्रमाण को बतलाने के लिये मुख्यतः १९४ परिधियों या अक्षांशों में स्थित प्रदेशों का वर्णन किया है। गा. ७, २७७- जब सूर्य प्रथम पथ में अर्थात् सबसे कम त्रिज्यावाले पथपर स्थित होता है तो सब परिधियों में १८ मुहूर्त का दिन अथवा १४ घंटे २४ मिनिट का दिन और १२ मुहूर्त की रात्रि अथवा ९ घंटे ३६ मिनिट की रात्रि होती है ( यहां मुहर्त को दिन-रात का ३० वां भाग लिया गया है)। ठीक इसके विपरीत जब सूर्य बाह्यतम पथ में रहता है तब दिन १२ महतं का तथा रात्रि १८ की होती है। गा.७,.२९०- ग्रंथकार ने उपयुक्त प्रकार से दिन-रात्रि होने का कारण सूर्य की गति विशेष बतलाया है। गा.७, २९२-४२०- इन गाथाओं में दिये गये आतप व तिमिर क्षेत्रों का स्पष्टीकरण निम्न लिखित चित्र से स्पष्ट हो जावेगा। यहां आकृति-३७ देखिये (पृ. ९३)। जब सूर्य प्रथम बीथी पर स्थित होता है उस समय आतप व तिमिर क्षेत्र गाडी की उद्धि (spokes) के प्रकार के होते हैं। मान लिया गया है कि किसी विशिष्ट समय पर ( at a particular instant) उस बीथी पर सूर्य स्थिर है। उस समय बननेवाले आतप व तिमिर क्षेत्र के वर्णन के लिये गाथा २९२-९५, ३४३ और ३६२ देखिये। ___ जब सूर्य बाह्य पथ में स्थित रहता है तब चित्र ठीक विपरीत होता है, अर्थात् तापक्षेत्र तिमिरक्षेत्र के समान और तिमिरक्षेत्र तापक्षेत्र के समान हो जाता है। दृष्टिरेखा ( line of sight) में गति को भी निश्चित किया गया है। २०० मील प्रति सेकंड से लेकर २५० मील प्रति सेकंड तक की गतिवाले तारे प्रयोगों द्वारा प्रसिद्ध किये जा सके हैं। ये गतियां उन तारों के यथार्थ गमनों ( proper motions) का होना सिद्ध करती है। तारे और भी कई तरह के होते हैं, जैसे द्विमय या युग्म तारे ( double stars), चल तारे ( variable stars) राक्षस और बौने तारे (giant and dwarf stars ) इत्यादि । अन्त में नीहारिकाओं ( Nebulae) के विशद विवेचन में न पडकर केवल उनके प्रकारों तथा उनके अवलोकनीय प्रयोगों द्वारा आधुनिक ब्रह्माण्ड की अवधारणा की झलक देखना ही पर्याप्त होगा। अपने लक्षणों के आधार पर तारापुंज नीहारिकाओं को चार प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है: अंध नीहारिकाएं (dark nebulae)धुंधली नीहारिकाए (diffuse luminous nebulae), Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकोषपण्णातिका गणित १७A LSEISA SARTACT ति चित्र में चन्द्रमा और सर्य की स्थितियां किसी समय पर क्रमशः और प्रतीकों द्वारा दर्शाई गई। इस दशा में आतप और तम क्षेत्र के अनुपात ३.२ में है अर्थात् आतप क्षेत्र १०८', १०८ तथा तम क्षेत्र ७२, ७२' के अन्तर्गत निहित हैं। आतप व तिमिर क्षेत्रों का विस्तार केन्द्र से लेकर लवण समुद्र के विष्कम्भ के छठवें भाग तक है अथवा ५००००+२०.१०.८३३३३३ योजन तक है। मेरु पर्वत के ऊपर क ख भाग में ९४८६६ योजन चाप पर सूर्य का आतप क्षेत्र रहता है और क ग भाग में ६३२३३ योजन चाप पर तिमिर क्षेत्र रहता है चाहे चन्द्रमा वहां हो या न हो। इसी प्रकार सम्मुख स्थित अन्य सूर्य का आतप और तिमिर क्षेत्र रहता है। ये क्षेत्र सूर्य के गमन से प्रति क्षण बदलते रहते है अथवा सूर्य की स्थिति के अनुसार तिष्ठते है। सूर्य की इस स्थिति में अन्य परिधियों पर भी इसी अनुपात में आतप एवं तिमिर क्षेत्र होते हैं। ग्रहीय नीहारिकाएं (planetary nebulae) और कुन्तल नीहारिकाएं (spiral nebulae). रंगावलेक्ष (spectroscope) या रश्मिविश्लेषक यंत्र द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि तारों के गोल पुंज (globular olusters) दृष्टिरेखा की दिशा में मध्यमान से (average) ७५ मील प्रति सेकंड की गति से चलायमान है। उपर्युक्त श्रेणियों में प्रथम तीन प्रकार की नीहारिकायें तो आकाशगंगा के क्षेत्र के आसपास पाई जाती है और अन्तिम श्रेणी की नीहारिकाएं आकाशगंगा से दूर पाई जाती हैं। रश्मिविश्लेषक यंत्रों की सहायता से प्राप्त फलों से वैज्ञानिकों ने निश्चित किया है कि भिन्न भिन्न दरी पर स्थित नीहारिकाएं दरी के अनुसार अधिकाधिक प्रवेग से दृष्टिरेखा ( line of sight Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदीवपणतिकी प्रस्तावना यहां आतप क्षेत्र का क्षेत्रफल सूत्रानुसार निम्न लिखित होगाक्षेत्रफल मच छ%=(त्रिज्या)२४(कोण रेडियन माप में) = ३९८३३३३३) २. . = ३(८३३३३३) २.६ T का मान /१० लेने पर, ग्रंथकार ने इस क्षेत्रफल को प्रायः ६५८८.७५०००० वर्ग योजन निश्चित किया है। इसी प्रकार तिमिर क्षेत्र मचब का क्षेत्रफल १९८३३३३३). होता है। का मान०लेकर यह प्रमाण प्रायः ४३९२०५०००० वर्ग योजन होता है। ३४३वी गाथा के बाद विशेष विवरण में ताप क्षेत्र निकालने का साधारण सूत्र दिया गया है। किसी विशिष्ट दिन, जिसमें M मुहुर्त हो, बब कि सूर्य nवीं बीथी पर स्थित हो तब P परिधि पर तापक्षेत्र निकालने के लिये निम्न लिखित सूत्र है। or radial velocity) या अरीय दिशा में हमसे दूर होती जा रही हैं। जैसे २३,०००,००० ल प्रति सेकण्ड की गति से दृष्टिरेखा में, और १०५,०००,००० प्रकाश वर्ष दूर की नीहारिकाएं प्रति सेकण्ड १२,००० मील प्रति सेकण्ड की गति से दृष्टिरेखा में हमसे दूर होती जा रही हैं। सन् १७५० में दूरबीन की सहायता से नीहारिकाओं के प्रदेश का आवरण हटा और गठित गोल पुंज (compaotglobular oluster), चपटे होते जानेवाले अनेन्द्रब की भांति (Hattening ellipsoidal) और असमापन कुन्तल (unwinding spiral) नीहारिकाएं दृष्टिगोचर हुई, जिनमें औसत नीहारिका हमारे सूर्य से चमक में ८५००००००गुनी तथा मात्रा में १०००००००००० गुनी निश्चित हुई, जहां दिखनेवाली धुंधलाहट, उसकी दूरी के अनुसार थी। हमारी आकाशगंगा एक पुरानी असमापन कुन्तल नीहारिका निश्चित की गई जिसकी अंतर्तारीय वरिमा ( interstellar space) में विभिन्न प्रकार की वायु के बादल और धूल होने से आकाशगंगा के हृदय और धारा (edge ) में स्थित नीहारिकाओं की ऊर्जाएँ ( energy ) बड़े परिमाण में हम तक पहुँचने से रुक गई। यह भी देखा गया कि वरिमा (space) के किसी निश्चित क्षेत्र में नीहारिकाओं की संख्या दरी के अनुसार समरूप से बढ़ती है। वैज्ञानिकों ने फिर नीहारिका के विषय में आधुनिक दूरबीन से चार प्रकार के माप प्राप्त किये। ये क्रमशः आभासी महत्ता (apparent magnitude), विस्थापन महत्ता (displacement magnitude), संख्या महत्ता ( number magnitude) और रंग विस्थापन न्यास ( oolour displacement data) हैं। इस प्रकार प्राप्त न्यासों से उन्होंने सम्भव ब्रह्माण्डों के विषय में सिद्धान्तों के परिणामों की तुलना कर उन्हें सुधारने का प्रयास किया। उनके सम्भव ब्रह्माण्डों की एक झलक निम्न लिखित संकलित अंग्रेजी अवतरणों से अधिक स्पष्ट हो जावेगी क्योंकि उसके अनुवाद से शायद कुछ ति हो जावे। "With the relativist cosmologiat's postulations that the geometry of space is determined by its contents & that all cbservers regardless of locations, 808 the same general picture of the Universe, it is proved mathematically that either the universe is unstable, expanding or contracting. Another aspect of such universo depends upon the curvature calculated. When redshifts are interpreted as velocity shifts, curvature is taken positive ensuring a closd space, finito volume and a definite universe at a Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोपपण्णसिका गणित तापक्षेत्र - = M (P) योजन | यहां M का मान, n वीं बोथी के प्रमाण से निकाला जा ६० सकता है। इस प्रकार, तापक्षेत्र न केवल दिन की घटती बढ़ती पर, वरन् परिधि पर भी निर्भर रहता है । इसका स्पष्टीकरण यह है— कोई भी परिधि का पूर्ण चक्र अथवा सूर्य द्वारा मेरु की पूर्ण प्रदक्षिणा १८+१८+१२+१२ मुहूर्ती अथवा ६० मुहूर्ती में संपूर्ण होती है। क्यों ज्यों सूर्य बाह्य मार्ग की ओर जाता है त्यो त्यों दिन का प्रमाण प्रतिदिन घटता है और तापक्षेत्र में हानि मुहूर्त P २ P X वर्ग योजन होती है। यह प्रमाण योजन होगा । ६० ६१ १०x१८३ यहां सूर्य के कुल अंतरालों की संख्या १८३ है । स्पष्ट है, कि सूर्य के दूर जाने पर तापक्षेत्र में हानि होने से तमक्षेत्र में वृद्धि होगी । गा. ७, ४२१ आदि -- ४२२वीं गाथा में उल्लेखित सूत्रों का त्रिवरण पहिले दिया जा चुका है । यहां विशेष उल्लेखनीय बात चक्षुस्पर्श क्षेत्र है। सूर्य P. वीं परिधि पर स्थित रहता है तब चक्षुस्पर्शक्षेत्रPयोजन होता है। यहां ९ मुहूर्ती में सूर्य निषध पर्वत से अयोध्या तक की परिधि को समाप्त करता है तथा सम्पूर्ण परिधि के परिभ्रमण (revolution ) को ६० मुहूर्त में सम्पूर्ण करता है। उत्कृष्ट चक्षुस्पर्शध्यान के लिये P का मान ३१५०८९ योजन है। गा. ७, ४३५ आदि- भिन्न २ परिधियों पर स्थित भिन्न २ गये समय के आधार पर उन नगरियों के स्थानों को इन गाथाओं में निश्चित कर सकते हैं और उनकी बीच की दूरी योजनों में निकाल सकते हैं, के बीच अंतराल है उतने काल में सूर्य द्वारा बितनी परिधि तय होगी उतना उन नगरों के बीच परिधि पर अंतराल होगा । अन्य परिधियों पर स्थित नगरियों के बीच की दूरी भी निश्चित की जा सकती है। नगरियों में एक ही समय दिये दिये गये न्यासों के आधार पर क्योंकि जितना उनके समय ९५ गा. ७, ४४६ - चक्रवर्ती अधिक से अधिक ५५७४८ योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को देख सकता है। particular instant expanding with time. It dates back to about 2x10 years, though, the stars of our galaxy are thought to be born 1019 years ago. If the curvature is taken negative the formula shows an open hyperbolic space of radius_ 3.5 x 108 parsecs an infinite srationary universe of mean density 10-80gm / om. Limiting care of zero curvature is "lat" Fuolidean space with an infinite radius. Other theories propounded in favour of expanding universe are the 1) kinematic theory based on Euclidean space and mathmatical structure of special relativity and 2) the creation of matter theory. The former is unscientific because of its indefinite definition of distance and avoidance of observational date. The latter is not sound as it assumes creation of matter out of nothing in the form of hydrogen atoms and there is no evidence of its, steady state of universe, assumption. Thus we seem to face, as once before in the days of Copernicus a choice between a small finite universe and a universe infinitely large plus a new principle of nature." देखें, यह समस्या, वितन्तु ज्योतिर्लोकविज्ञान ( Radio Astronomy) और माउंट पालोमर की २०० दूरबीन तथा अन्य नवीन आविष्कार कहां तक सुलझा सकते है । इसके साथ ही संसार के द्वीपों की कल्पना की एक झलक को हम स्मार्ट के शब्दों में प्रस्तुत करेंगे, "According to our present viewe, the universe is a vast assemblage of separate Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जंबूदीवपण्णतिकी प्रस्तावना गा. ७, ४५४-५६- सूर्य का पथ सूची चय २ + योजन है । ६१ ક भिन्न-भिन्न जगहों ( जम्बूद्वीप, वेदिका और लवण समुद्र ) के चारक्षेत्रों में उदयस्थानों को निकालने के लिये उस जगह के चारक्षेत्र के अंतराल में का भाग देते हैं। एक मीथी का मार्ग समाप्त होने पर हटाव योजन होता है। इसी समय दूसरी बीवी पर एक परिभ्रमण के पश्चात् उदय होता है। इस प्रकार सर्व उदयस्थानों की संख्या १८४ है । ४८ १७० a गा. ७, ४५८ आदि- ग्रहों के विषय का विवरण काल वश नष्ट हो चुका है। चंद्र के आठ पथों में ( क्रमशः पहिले, तीसरे, छठवें, सातवें, आठवें, दशवें, ग्यारहवें तथा पंद्रहवें पथ में ) भिन्न-भिन्न नक्षत्रों का नियमित गमन बतलाया गया है। अथवा, भिन्न-भिन्न गलियों में स्थित नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं। गा. ७, ४६५-४६७- एक चंद्र के नक्षत्रों की संख्या २८ बताई गई है पर कुछ नक्षत्रों की संख्या ( जगश्रेणी ) + [ संख्यात प्रतरांगुल x १०९७३१८४०००००००००१९३३३१२]x७ बतलाई गई है । यह राशि निश्चित रूप से असंख्यात है। इसी प्रकार समस्त तारों की संख्या भी असंख्यात बतलाई गई है। सम्बूद्वीप के १ चंद्र के २८ नक्षत्रों के ताराओं से बने हुए आकार बतलाये गये हैं। वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं और बीवों के आकार के वर्णित है। गा. ७, ४७५-७६- आकाश को १०९८०० गगनखंडों में विभक्त किया गया है जिसमें, १८३५ गगनखंड नक्षत्रों के द्वारा १ मुहूर्त में अतिक्रमित होते हैं। इस गति से कुछ गगनखंड चलने में = ५९१०७ मुहूर्त लगते हैं अथवा १०९८०० x घंटे अथवा ४७ घंटे, ५२ मिनिट ९ ४८ २८५ १८३५ १०९८०० १८३५ १८३५ सेकंड लगते हैं। आधा मार्ग तय करने में २३ घंटे ५६ मिनिट ४२ गा. ७, ४७८ आदि भिन्न २ नक्षत्रों की गतियां मिस्र २ सभी नक्षत्र, यद्यपि भिन्न परिधियों में स्थित है, तथापि वे ५९ कर लेते हैं । systems, each of great dimensions, which however, are smali in comparison with the stupendous distances by which any two neighbouring systems are separated from one another. We may liken the universe to a broad ocean studded with small islands of varying sizes; one of the largest of these islands is believed to represent the systems of which the solar system is but a humble member, the galactic system as it is called The other systems are the spiral nebulae whose number we can but vaguely guess."-"The Sun, The Stars, And The Universe." p. 269. इस तरह हम यह अनुभव करते हैं कि आधुनिक ज्योतिष के सिद्धांतों तथा उनके आधार पर प्राप्त फलों की तुलना हम जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत ज्योतिर्लोक से तभी कर सकते हैं जब कि चन्द्र और सूर्य आदि तथा वायुमंडल सम्बन्धी बातों को हम भली भांति किन्हीं निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर रख सकें। जहां तक पृथ्वीतल से ज्योतिष चिम्बों की दूरी का सम्बन्ध है, किसी भी स्थान से उनकी दूरी विभिन्न स्थानों के लिये अति भिन्न-भिन्न अस्पतम और अधिकतम होती है। इसका मध्यमान पृथ्वी के होंगे जैसा कि जम्बूद्वीप के क्षेत्रों के विस्तार से स्पष्ट है । इसी उदम ऊँचाई दी है। आधुनिक दूरियों के वर्णन में हमने केवल पृथ्वी की मात्र एक योजना के घेरे में आ जाने से सम्बन्धित है। स्पष्ट है कि मेरु के परितः बिम्बों का परिभ्रमण पथ पृथ्वीतल के अवलोकनकर्ता की आंख पर तिर्यक शंकु आपतित करता है । सेकंड लगते हैं । परिधियों में होने के कारण मित्र है। मुहूतों में समस्त गगनखंड तय कारण हमने केवल पृथ्वीतल से उनकी मध्यमान दूरियों का वर्णन किया है जो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित गा. ७, ४९३ - जिस नक्षत्र का अस्त होता है उस समय उससे १६वां नक्षत्र उदय को प्राप्त होता है । गणना स्पष्ट है, क्योंकि दिन और रात्रि में १८ : १२ आदि का अनुपात रहता है, इसलिये स्थूल रूप से १७ और ११; १६ और १२ आदि नक्षत्र क्रमशः ताप और तम क्षेत्र में रहते होंगे । गा. ७, ४९८ - सूर्य, चन्द्र और ग्रहों का गमन कुंचीयन या समापन कुन्तल ( winding spiral) असमापन कुंतल ( unwinding spiral ) में लेता है पर नक्षत्र तथा तारों का 'भयनों का नियम' नहीं है। गा. ७, ४९९ - सूर्य के छः मास ( एक अथन ) में १८३ दिन-रात्रियां तथा चंद्रमा के एक अयन में १२ दिन होते हैं । ६३० १५० रेडियन का कोण आपतित १००५४२ १००५ १०९८०० पुनर्वसु आदि १००५X३ शेष १० रेडियन का कोण "" २०६८०० १०६८०० करता है। शतभिषक आदि आपतित करते हैं। ये एक चंद्र के नक्षत्र है। इसी प्रकार से दूसरे चंद्र के भी नक्षत्र है। ३०४४८ गा. ७, ५१० - सूर्य, चंद्रमा की अपेक्षा, तीस मुहूर्ती या घंटों में घ× ६० ३०x४८ अधिक शीघ्र गमन करता है । तथा, नक्षत्र सूर्य की अपेक्षा ६० शीघ्र गमन करते हैं । ६२ ६२ गा. ७, ५१५ - इसके पश्चात् भिन्न २ नक्षत्रों में सूर्य या चंद्र कितने काल तक गमन करेंगे यह आपेक्षिक प्रवेग ( relative velocity ) के सिद्धांत पर निकाला गया है । जैसे, अभिजित नक्षत्र के सम्बन्ध में (जिसका विस्तार ६३० गगनखंड है ), सूर्य का आपेक्षिक प्रवेग अभिजित नक्षत्र को विश्रामस्थ मान लिया जाने पर १ दिन में १५० गगनखंड है । इस प्रकार, सूर्य अभिजित नक्षत्र के साथ ६३० × ३० x ४८ घंटे गमन करेगा । १५०×६० ६३० १०९८०० गा. ७, ५०१ - अभिजित नक्षत्र का विस्तार आंख पर - • दिन या ४ अहोरात्र और ६ मुहूर्त अधिक अथवा G गा. ७, ५२१ - इसी प्रकार अभिजित नक्षत्र की अपेक्षा ( इसे विश्रामस्थ मानकर ) चन्द्रमा का आपेक्षिक प्रवेग १ मुहूर्त में ६७ गगनखंड है, क्योंकि इतने समय में चन्द्रमा नक्षत्रों से १ मुहूर्त में ६७ गगनखंड पीछे रह जाता है। अभिजित नक्षत्र का विस्तार ६३० गगनखंड है, इसलिये इतने खंड तय करने में चन्द्रमा को करेगा । यह समय घंटे घंटों में ६ × घंटे अधिक ६१ ६० = ९३७ मुहूर्त लगेंगे। इतने समय तक चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र के साथ गमन घंटे है । इसे त्रिलोकसार में आसन्न मुहूर्त कहा गया है । गा. ७, ५२५ आदि- सूर्य के एक अयन में १८३ दिन होते हैं। दक्षिण अयन ( annual southward motion ) पहिले और उत्तर अयन ( northward annual motion ) बाद में होता है। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन अपरान्ह समय में पूर्ण युग की समाप्ति ( ५ वर्ष की समाप्ति ) होने पर उत्तरायण समाप्त होता है । इस समय के पश्चात् नवीन युग प्रारम्भ होता है। पांच वर्ष में १२ × ५ = ६० दिन अथवा दो माह बढ़ते हैं, क्योंकि सूर्य के वर्ष के ३६६ दिन माने गये हैं । सूर्य की अपेक्षा से चन्द्रमा का परिभ्रमण २९३ दिनों में होता है । इसलिये चन्द्र वर्ष २९३ × १२ = ३५४ दिन का होता है । इस प्रकार एक चन्द्रवर्ष सूर्यवर्ष से १२ दिन छोटा होता है इसलिये एक युग या पांच वर्ष में चन्द्र वर्ष के युग की अपेक्षा ६० दिन या २ मास अधिक होते हैं। उत्तरायण की समाप्ति के पश्चात् दक्षिणायन भावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन जब कि अभिजित नक्षत्र और चन्द्रमा का योग रहता है, प्रारम्भ होता है, वही नवीन पांच वर्षवाले युग का प्रारम्भ है । पूर्ण ति, ग. १३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना जब सूर्य प्रथम आभ्यंतर बीथी पर होता है तब सूर्य का दक्षिण अयन का प्रारम्भ होता है । जब वह अंतिम बाह्य बीथी पर स्थित होता है तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। जब एक अयन की समाप्ति होकर नवीन अयन का प्रारम्भ होता है उसे आवृति ( frequency or repetition ) कहा गया है। अयन के पलटने को भी आवृत्ति कहते हैं। दक्षिणायन को आदि लेकर आवृत्तियाँ पहली, तीसरी, पांचवी, सातवीं और नवमी, पांच वर्ष के भीतर होंगी क्योंकि पांच वर्ष में दस अयन होते हैं। इसी प्रकार उत्तरायण की आवृत्तियां इस युग में दूसरी, चौथी, छठवीं, आठवीं और दसवीं होती है। इस प्रकार दक्षिणायन की दूसरी आवृत्ति श्रावण मास के कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को होती है जबकि चंद्रमा मृगशीर्ष नक्षत्र में तिहता है। यह आवृत्ति १ चंद्रवर्ष के पश्चात् १२ दिन बीत जाने पर हुई। इसी प्रकार दक्षिणायन की तीसरी आवृत्ति श्रावण शुक्र दशमी के दिन चंद्रमा जब विशाखा नक्षत्र में स्थित रहता है तब होती है । इस प्रकार श्रावण मास में दक्षिणायन की पांच आवृत्तियां ५ वर्ष के भीतर होती है। उत्तरायण की प्रथम आवृत्ति १८३ दिन बीत जाने पर अर्थात् माघ मास में कृष्णपक्ष की सप्तमी ( चंद्र अर्द्ध वर्ष बीत जाने के ६ दिन पश्चात् ) तिथि को जब कि चंद्रमा हस्त नक्षत्र में स्थित रहता है, होती है। इसी प्रकार उत्तरायण की दूसरी आवृत्ति २६६ दिन पश्चात् या चंद्र वर्ष के बीत जाने पर १२ दिन पश्चात् उसी मान मास में शुक्ल पक्ष की चौथी तिथि पर जब कि चंद्रमा शतभिषक नक्षत्र में स्थित रहता है, तब होती है । इसी प्रकार अन्य आवृत्तियों का वर्णन है । ९८ इसी आवृत्ति के आधार पर समान्तर भेदि बनने से ( formation of an arithmetical progression) विधुप और आवृत्ति की तिथि निकालने के लिये तथा शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का निश्चय करने के लिये सरल प्रक्रिया सूत्ररूप से दी गई है। "विषु" पूर्ण विश्व में दिन और रात्रि के अंतराल बराबर होने को कहते हैं। इस समय सूर्य आभ्यंतर और बाह्य बीथियों के बीचवाली बीथी में रहता है, अथवा विषुवत् रेखा, ( भूमध्य रेखा ) पर स्थित रहता है। दक्षिणायन के प्रारम्भ के चंद्र के चतुर्थांश वर्ष बीत जाने के ३ दिन पश्चात् सूर्य इस बीथी को ९१३ दिन पश्चात् प्राप्त होता है। इस समय कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया रहती है और चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में स्थित रहता है। दूसरा विद्युप इस समय के चंद्र अर्द्ध वर्ष के बीत जाने पर ६ दिन पश्चात् होता है । जब कि चंद्र वैसाख मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को घनिष्ठा नक्षत्र में रहता है। इस प्रकार कुल विद्युपों की संख्या उत्सर्पिणी काल में निकाली जा सकती है। दक्षिण अयन, पस्य का असंख्यातर्वा भाग या होता है। विद्युप का प्रमाण इससे दूना है अर्थात् २ प्रतीक है। बहां प पस्यका और & असंख्यात का यहां अचर ज्योतिषियों का निरूपण किया गया है । बगश्रेणी ५६ बगभेणी २८ + ३७५०० योजन है तथा समुद्र का विष्कम्भ + स्वयंभूवर द्वीप का विष्कम्भ ७५००० योजन है । मानुषोत्तर पर्वत से आदि लिया गया है तथा ५०००० योजन समुद्र की बाहरी सीमा के इसी तरफ तक का अंतराल बगश्रेणी '+ ( ७५००० - ११५२५००० - ५०००० ) योजन २८ अथवा जगभेणी २८ इसलिये कुल वलयों की संख्या • ११५००००० योजन होता है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोवपत्तिका गणित गिश्रेणी- ११५००००.]..... अथवा ,खगोणी - २३ होती है। पुष्करवर समुद्र के प्रथम वलय में २८८ चंद्र व सूर्य है। किसी द्वीप अथवा समुद्र के प्रथम वलय में . उस द्वीप या समुद्र का विष्कम्भ X९ होती है। प्रत्येक द्वीप समुद्र का स्थित चंद्र व सूर्य की संख्या - विस्तार उत्तरोत्तर द्विगुणित होता गया है और प्रारम्भ पुष्करवर द्वीप से होता है जहां विष्कम्म १६००००० योबन है। इस प्रकार सूत्र बनाया गया है। प्र. ७६४ आदि-सपरिवार चन्द्रों के लाने का विधान : अभी तक, जैसा मुझे प्रतीत हुआ है उसके अनुसार, वीरसेनाचार्य के कथन की पुष्टि का प्रतिपादन निम्न लिखित होगा। पृष्ठ ६५८ पर गाथा ११ में ग्रंथकार ने सम्पूर्ण ज्योतिष देवों की राशि का प्रमाण: अगश्रेणी बतलाया है। (२५६ प्रमाणांगुल) जगप्रतर पृष्ठ ७६७ - ज्योतिष बिम्बों का प्रमाण ६५५२५५३६र अथवा / अगश्रेणी .. १ (२५६ प्रमाणात) बतलाया है। तथा, इसमें प्रत्येक विम्ब में रहनेवाले तत्मायोग्य संख्यात जीव ( १६५५३६१ ) का गुणा करने पर सम्पूर्ण ज्योतिषी देवों, अथवा ज्योतिषी जीव राशि का प्रमाण प्राप्त होता है । स्मरण रहे कि जगश्रेणी का अर्थ, जगभेणी में स्थित प्रदेशों की गणात्मक संख्या है, तथा प्रमाणांगुल का अर्थ प्रमाणांगुलकुलक में प्रदेशों की गणात्मक संख्या है। इस न्यास के आधार पर वीरसेन ने सिद्ध किया है कि यद्यपि परिकर्मसूत्र में रज्ज के अर्द्धच्छेदों की संख्या, 'द्वीप-समुद्र की संख्या में रूपाधिक जम्बूद्वीप के अर्द्धच्छेदों के प्रमाण को मिला देने पर प्राप्त होती है, तथापि उस कथन का अर्थ उपयुक्त लेना चाहिये । यहां रूपाधिक का अर्थ अनेक से है, जहां अनेक, संख्यात, असंख्यात दोनों हो सकता है, एक नहीं | यह सिद्ध करने में, उनकी अद्वितीय प्रतिभा का चमत्कार प्रकट हो जाता है। आगमप्रणीत वचनों में उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी, पर, उन वचनों की वास्तविक भावना को युक्तिबल से सिद्ध करने की प्रेरणा भी थी। इस प्रकार, परिकर्म के वचनों का यथार्थ अर्थ प्रकट करने के लिये, उन्होंने पूर्वाचार्यों के के कथनों को आगमानुसार, गणित की कसौटी पर पुनः कसा। स्पष्ट है, कि तिलोयपण्णत्ती के इस अवतरण में वीरसेन की शैली का प्रवेश हुआ है, पर यह सुनिश्चित प्रतीत होता है कि यतिवृषभ ने परिकर्मसूत्र से इस आगमपणीत ज्योतिष बिम्ब संख्या के प्रमाण का विरोध वीरसेन से पहिले निर्दिष्ट कर दिया था, और उनके पश्चात् वीरसेन ने उसका निरूपण कर परिकर्मसूत्र का उपयुक्त अर्थ स्पष्ट किया। हम इसका निरूपण कुछ आधुनिक शेली पर करने का प्रयत्न करेंगे। . स्पष्ट है कि बम्बूद्वीप के विष्कम्म १००००० योजन को इकाई लेकर यदि अन्य द्वीप-समुद्रों के विष्कम्भों को प्ररूपित करें तो वे क्रमशः लवणोदय के लिये २इकाईयां, धातकी द्वीप के लिये ४इकाईयां. कालोदपि समुद्र के लिये ८काईयां, पुष्करवरद्वाप के लिये १६ इकाईयां, इत्यादि होगे। वह बतलाया जा चुका है कि एक चद्र के परिवार में एक सूर्य, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र तथा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीवपण्णतिकी प्रस्तावना ६६९७५०००००००००००००० तारे होते हैं। जम्बूद्वीप में २ चंद्रमा, लवण समुद्र में ४ चंद्रमा, धातकीखंड में १२ चंद्रमा, कालोदक समुद्र में ४२ चंद्रमा, पुष्करवर अर्द्ध द्वीप में मानुषोत्तर पर्वत से इसी ओर ७२ चंद्रमा, तथा मानुषोत्तर से बाहर प्रथम पंक्ति में १४४ चंद्रमा अपने अपने परिवार सहित हैं। मानुषोत्तर से बाहर की प्रथम पंक्ति, द्वीप से ५०००० योजन आगे जाकर है जहां चंद्रों की संख्या १४४ है । उससे आगे एक एक लाख योजन आगे जाकर, उत्तरोत्तर सात पंक्तियां अथवा वलय है जहां के चंद्रों का प्रमाण इस आदि प्रमाण १४४ से ४ प्रचय को लेकर वृद्धि रूप है, अर्थात् वहां क्रमशः १४८, १५२, १५६,.. आदि चंद्रों की संख्या है। इसके आगे के समुद्र की भीतरी पंक्ति में २८८ चंद्र है। यहां भी, एक एक लाख योजन चल चलकर वलय स्थित हैं जहां चंद्र त्रिम्बों का प्रमाण ४, ४ प्रचय लेकर वृद्धि रूप है । पुनः इस समुद्र के आगे जो द्वीप है वहां २८८४२ प्रमाण चंद्र बिम्ब प्रथम पंक्ति में हैं और १, १ लाख योजन 'चल चल कर उत्तरोत्तर स्थित ६४ पंक्तियों में ४, ४ प्रचय लेकर चंद्र त्रिम्बों का प्रमाण वृद्धि रूप अवस्थित है। इस प्रकार प्रथम तीन द्वीपों ( जम्बूद्रीप, धातकीखंड द्वीप और पुष्करवर द्वीप ) तथा दो समुद्रों ( लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र ) को छोड़कर, भगले समुद्र तथा द्वीपों में स्थित चंद्रों के प्रमाण को निकालने के लिये न्यास दिया गया 1 तृतीय ( पुष्करवर ) समुद्र में वलयों या पंक्तियों की संख्या ३२ है, इसलिये यहां गच्छ ( number of terms ) ३२ है । प्रथम पंक्ति में २८८ चंद्र बिम्ब हैं, इसलिये २८८ गुण्यमान राशि (first term ) है । ४ प्रचय ( common difference ) है । चतुर्थ ( वारुणीवर ) द्वीप में वलयों की संख्या ६४ है, इसलिये गच्छ ६४ है । प्रथम पंक्ति में ( २८८ x २ ) = ५७६ चंद्र है, इसलिये गुण्यमान राशि ५७६ है । ४ प्रचय है । इसी प्रकार पांचवें ( वारुणीवर ) समुद्र में गच्छ १२८, गुण्यमान राशि ११५२ है तथा ४ प्रचय है । इस प्रकार, इन द्वीपों तथा समुद्रों में चंद्र बिम्बों का प्रमाण, हम समान्तर भेटि के संकलन के आधार पर सूत्र का प्रयोग करेंगे । हां गच्छ n है, गुण्यमान राशि ( प्रथम पद ) 8 है, तथा प्रचय d है, वहां, १०० कुल धन = इसलिये, तृतीय समुद्र में, समस्त चंद्र त्रिम्बों का प्रमाण = ३२ { २ × २८८ + (१२ – १ ) x ४ } २ = ३२ × २८८ + (३२ - १) ४६४ होता है । चतुर्थी ( वारुणीवर ) द्वीप में, समस्त चंद्र बिम्बों का प्रमाण = - ¥ x { २' x २८८ + (६४ - १ ) x ४} = ६४ × २ × २८८ + (६४ - १) ४६४४२ होता है । पंचम ( वारुणीवर ) समुद्र में, समस्त चंद्र बिम्बों का प्रमाण {28+ (n - १)d } होता है । - १२८ x २ x २८८ + (१२८ - १) ४४ } = = ६४ × २३ × २८८ + (१२८ - १ ) ६४२ होता है । इत्यादि । यदि कुल द्वीप समुद्रों की संख्या 1 ली जावे तो पांच द्वीप छूट जाने के कारण, हमें केवल n - ५ ऐसे होनेवाले प्रमाणों का योग, कुल चंद्र बिम्बों का प्रमाण निकालने के लिये करना पड़ेगा। इस योग में Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित पुष्करवर आदि ५ छोड़े हुए द्वीप-समुद्रों के चंद्र बिम्बों का प्रमाण मिला देने पर समस्त चंद्र बिम्ब संख्या का प्रमाण प्राप्त होगा। इस प्रकार (n - ५) द्वीप-समुद्रों के चंद्र बिम्बों का प्रमाण निकालने के लिये हमें, उपर्युक्त (n-५) उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त संख्याओं का योग प्राप्त करना पड़ेगा। वह योग निम्न लिखित श्रेढि रूप में दर्शाया जा सकता है :६४४२८८[३+२+२+२+......(n-५) पदों तक] +(६४)२३+२+२+२५+......(n-५) पदों तक] -६४[१+२+२ +२+.......(n-५) पदों तक] इसका प्रमाण, योगरूप में लाने के लिये हम गुणोत्तर श्रेदि के संकलन सूत्र का उपयोग करेंगे। बहां प्रथम पद हो, साधारण निष्पति (Common ratio) हो n गच्छ ( Number of terms ) हो वहां, संकलित धन = alP- १) होता है । इस तरह, कुल धन का प्रमाण यह है :-- T - १ ६.[२८८ १३(४१-१) } - १{१९२०१)} +६४ ३ ३४-८-१)}] अथवा, यहहै:६४[ .२-4)३२-(२)--4)-५७१] कुल चंद्र निम्नों के परिवार सहित समस्त ज्योतिष बिम्बों की संख्या यह होगी:(६६९७५०००००००००००११७)[[ Hin-4)}२-(२)(n-4)- ५७४]] +शेष पांच द्वीप समुद्रों के चंद्र बिम्बो का परिवार सहित संख्या प्रमाण] ............"I यहां ध्यान देने योग्य संख्या (२in-)) अथवा (२-५)(२-1) है। हमें मालूम है, कि रज्जु के अर्द्धच्छेदों का प्रमाण प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित सूत्र का आभय लेना पड़ता है: ___n+(१ या s)+log: (ब)= log: (२) जहां, n द्वीप-समुद्रों की संख्या है। 8 संख्यात संख्या है, ज, जम्बूद्वीप के विष्कम्भ में स्थित संलग्न प्रदेशों की संख्या है बो असंख्यात (मध्यम असंख्यातासंख्यात से कम) प्रमाण है;र, एक राजु प्रमाण अथवा बगभेगी के सातवें भाग प्रमाण सरल रेखा में स्थित संलग्न प्रदेशों की संख्या है। यह भी शात है कि जम्बूद्वीप के विष्कम्भ में १०००.०४६x२x२x२x२x२०००x४ प्रमाणांगुल होते हैं। एक प्रमाणांगुल में ५०० उत्सेध अंगुल होते हैं तथा उस सूख्यंगुल में प्रदेशों की संख्या के अर्द्धच्छेद का प्रमाण ( log.)२ होता है वहां प, पस्योपम काल में स्थित समयों की संख्या है। यहां १ आवलि में जघन्य युक्त असंख्यात समय बतलाये गये हैं। इसलिये प्रमाणांगुल (५०. अं०) एक असंख्यात प्रमाण राशि है बो उत्कृष्ट संख्यात के ऊपर हाने से अत केवली के विषय की सोमा का उलंघन कर जाती है। जम्मूदीप के इस विष्कम्म को हम अधिक से अधिक २४. प्रमाणांगुल भी ले लें तो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बाहीपपण्णत्तिकी प्रस्तावना n+(8 या १)+log, [२४. प्रमाणांगुल ] = log, र होता है, अथवा n+( या १)+४० प्रमाणांगुल=log, र होता है, अथवा n-५ % ( log: र-५-(8 या १)-४० प्रमाणांगुल) होता है। यदि हम 8 की जगह १ लें तो अधिक से अधिक n-५ = { log: र-log. (२). प्रमाणांगुल } होता है अथवा n-५ = { log३२" प्रमाांगुल } होता है । मकर सर्व ज्योतिष जिजों की संख्या, II से I में (n-५) का मान रखने पर = (६६९७५०००००००००००११७[६४ [ प्रमाणांगुल)-प्रमाणांगुल-५७३]] स्पष्ट है कि, ( प्रमाणांगल' तथा ५७३, प्रथम पद की तुलना में नगण्य है । इस प्रकार, प्रथम पद के हर में (२५६)२ प्रमाणांगुल आने के लिये, २ की बात ८० से काम नहीं चल सकता; क्योंकि उसके गुणक sx६४४६६९७५०००००००००००११७ में अड़च्छेदों की संख्या प्रायः ७७ या ७८ रहती है। इसलिये (२५६२ को उत्पन्न करने के लिये जहां १६ अर्दन्छेद अधिक होना चाहिये वहां ८०.७७ अथवा ३ अर्द्धच्छेद ही भागहार में २ की बात में रहते हैं। यदि रज्जु को बगभेणी में बदलने के लिये ४९ का भाग भी देना हो तथापि ५ अर्द्धच्छेद और जुड़ेंगे और इस प्रकार १६ के स्थान में केवल ८ ही २ की घात भागहार में रहेगी। इसलिये, १ की जगह संख्यात लेना उपयुक्त है। साथ ही, जिन पदों को घटाना है, उनसे भागहार में वृद्धि ही होगी। प्रथम पांच द्वीप-समद्रों के ज्योतिष बिम्बों का प्रमाण इस तुलना में नगण्य है। परिशिष्ट (१) Apj का प्रमाण श्रेदि के रूप में निम्न लिखित विधि से प्राप्त किया जा सकता है। चतुर्थ अधिकार की गाथा ३०९ के पश्चात् के विवरण के अनुसार तीन अवस्थित कुंड (शलाका, प्रतिशलाका तथा महाशलाका) और एक अनवस्थित (unstable) कुंड एक से माप के स्थापित किये जाते हैं। मान लो प्रत्येक में 'क' बीज समाते हैं। इस अनवस्थाकुंड से एक-एक बीज निकालकर क्रम से द्वीप-समद्रों को देते चाने पर क वें द्वीप अंथवा समुद्र में अन्तिम बीब गिरेगा। इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास गुणोत्तर श्रेदि के पद को निकालने की विधि के अनुसार २(क- १ लाख योजन होगा। यह क्रिया समाप्त होते ही रिक्त शलाकाकुंड में एक बीज डाल देते हैं। यहां सर्वप्रथम बीज शलाकाकुंड में गिराया जाता है। अब इस ध्यासवाले अनवस्थाकुर में 1..(क-२) । बीब समावेगे । इस परिमाण को क, द्वारा प्ररूपित करेंगे। इन क, बीमों को अब अगले द्वीप-समुद्रों में एक-एक छोड़ने पर अंतिम बीज (क+क,) दीप अथवा समुद्र में गिरेगा । इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास २ -१ लाख योजन होगा। इस क्रिया के समाप्त होते ही शलाकाकुंड में पुनः एक बीज डाल देते हैं। इतने व्यासवाले अनवस्थाकुंड में ई......(२क+२क-२) बीच समावेगे । इस परिमाण को क, द्वारा प्ररूपित करेंगे । क-२ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित इन क, बीजों को अब आगे के द्वीप-समुद्रों में एक-एक छोड़ने पर अंतिम बीज (क+क,+क.) वै द्वीप अथवा समृद्र में गिरेगा। इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास २(क+क, + क२-१) लाख योजन होगा। इस क्रिया के समाप्त होते ही शलाकाकुंड में पुनः एक बीज डाल देते हैं। इतने व्यासवाले अनवस्थाकुंड में ...रक + २, +२२-२) बीज समावेगे। इस प्रमाण को क द्वारा कX२ प्ररूपित करेंगे। इस प्रकार यह विधि तब तक संतत रखी जावेगी जब तक कि शलाकाकुंड न भर नावे, अर्थात् यह विधि क बार की जावेगी। स्पष्ट है कि इस क्रिया के अंत में अतिम बीज क+क,+क +क+.........+कक..वें दीप अथवा समुद्र में गिरेगा। इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास २(क+क+..........+क-१-१) लाख योजन होगा। इस व्यासवाले अनवस्थाकंर में }....(२क + २क, +.........+ २कक-१-२)। बीज समा कx२ वेंगे । इसका प्रमाण कक से निर्दिष्ट करेंगे । स्मरण रहे, कि यहां शलाकाकुंड भर चुका है और प्रतिशलाकाकुंड में अब १ बीज डाला जावेगा। इतने व्याम के इस अनवस्थाकुंड को लेकर पुनः एक शलाकाकुंड भरा जावेगा और उस क्रिया को क बार कर लेने पर प्रतिशलाकाकुंड में पुनः १ बीज डाला जावेगा। स्पष्ट है कि 'क' 'क' बार यह क्रिया पुनः पुनः कितने बार की बावेगी ! 'क' बार की जावेगी, तभी प्रतिशलाकाकुंड भरेगा। इस क्रिया के अंत में अंतिम बीज क+क +कर+......+कक+......+कर+......कक'-, वे द्वीप अथवा समुद्र में गिरेगा । इस द्वीप या समुद्र का व्यास निकाला जा सकता है, तथा इस व्यास के अनवस्थाकुर में समाये गये बीजों की संख्या भी निकाली जा सकती है। यहां प्रतिशलाकाकंड पूर्ण भर चुका है और १ बीच महाशलाकाकुंड में इस क्रिया की एक बार समाप्ति दर्शाने हेतु डाल दिया बाता है। उक्त प्रतिशलाकाकुंड को भरने के लिये जो क्रिया कर बार की गई। उसे पुनः पुनः अर्थात् क बार करने पर ही महाशलाकाकुंड भरा जावेगा। स्पष्ट है कि महाशलाकाकर मरने पर इस महा क्रिया में अंतिम बीज क+क,+कर+......+कक +......+ कर+......+कर +......+कक -१ व दीप या समुद्र में गिरेगा। इस दीप या समद का व्यास २(क+का+...... + कक --१) लाव योबन होगा। इतने प्यासवाले अनवस्थाकंड में !....(२क + २क, +......+ २कक'-,-२), पाकx२ बीज समावेंगे जिसे हम कक द्वारा प्ररूपित कर सकते हैं। यही प्रमाण Apj है जो Su से मात्र एक अधिक है। यहां यतिवृषभ का संकेत है कि यह चौदह पूर्व के ज्ञाता तकेवली का विषय है। अंतिम श्रतकेवली भद्रबाह थे जिनके समीप से मुकटधारियों में अंतिम 'चंद्रगुप्त' दीक्षा लेकर सम्भवतः दक्षिण की ओर चल पड़े.थे। परिशिष्ट (२) तिलोयपण्णती, ४,३१० (पृ. १८०-८२) के प्रकरण को और भी स्पष्ट करना यहां आवश्यक है। यतिवृषभ ने यहां संकेत किया है कि वहां जहां असंख्यात का अधिकार हो वहां वहां Ayj ग्रहण करना चाहिए। यहां संदेह होता है कि क्या लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों का भी यही प्रमाण माना चाय! Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना इसके उत्तरं में यही कहा जा सकता है कि जहां पल्योपम, अवलि आदि की गणना का सम्बन्ध है वहां Ayj का ग्रहण करना चाहिए तथा इस सम्बन्ध में तो लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या गणना की अपेक्षा से वास्तव में संख्या के अतीत होने से जो भी उसका प्रमाण है उसे उपधारणा (postulation) के आधार पर मात्र असंख्यात से अलंकृत कर देना ही उचित समझा गया है, वहां Ayj का ग्रहण करना वांछनीय नहीं है। यह तथ्य तब और भी स्पष्ट हो जाता है, जब कि हम देखते हैं कि { log} अं-प इस समीकार का निर्वचन हम पहिले ही दे चुके हैं। अं सूच्यंगुल में स्थित प्रदेशों की गणात्मक संख्या का प्रतीक है और प पस्योपमकाल राशि में स्थित समयों (The now of zeno) की गणात्मक संख्या का प्रतीक है। पल्योपमकाल में स्थित समयों की संख्या का प्रमाण, देखते हुए हमें बन सूयंगुल में स्थित प्रदेशों की संख्या का आभास मिलता है तो यह निश्चय हो जाता है कि लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या, गणना की अपेक्षा अतीत है। केवल काल की गणना में असंख्यात शन्द के लिये Ayiका ग्रहण हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार आवलि में असंख्यात समय का अर्थ Ayj समय हुआ। वहां उद्धार पल्य को असंख्यात कोटि वर्षों की समयसंख्या से गुणित करने का प्रकरण है वहां भी इस असंख्यात को Ayi के रूप में ग्रहण करने पर हमारा यह विभ्रम दूर हो जाता है कि मैं न मालूम क्या है। दूमरी बगह आये हुए असंख्यात शन्द Ayj के लिये प्रयुक्त नहीं हुए हैं इसी कारण यहां अधिकार शब्द का प्रयोग हुआ है। संख्यधारा में Apj का प्रमाण सुनिश्चित है इसलिये Apj का Apj में Apj बार गुणन होने पर जो Ayj की प्राप्ति हुई है, वह भी सुनिश्चित अचल संख्या प्रमाण है। जिस पल्योपम के आधार पर सूज्यंगुल प्रदेश राशि को संख्या का प्रमाण बतलाया गया है उस समयराशि ( अद्धापल्य काल राशि) में स्थित समयों की संख्या का प्रमाण = {Apj (कोटि वर्ष ममय राशि)२४(दसार्हा पद्धति में लिखित ४७ अंक प्रमाण समय राशि) = (Apj)(दसा: पद्धति में लिखित ६१ अंक प्रमाण) {१ वर्ष समय राशि प्रमाग' =(Apj) दसाऱ्या पद्धति में लिखित ६१ अंक प्रमाण संख्या) (२) (१५)२(३८३)२(७)२. Sm}s यहां Sm एक चल ( variable) क्रमबद्ध, प्राकृत संख्या युक्त राक्ति है जिसके अवयव Su तथा Sj की मध्यवर्ती प्राकृत संख्याओं के पद ग्रहण करते हैं। यहां Sm का निश्चित प्रमाण शात नहीं है पर विज्ञान के इस युग में उसकी नितान्त आवश्यकता है। सम्भवत: और Su के बीच का यह प्रमाण निश्चित करने में मूलभूत कणों के गमन विज्ञान में दक्ष भौतिकशास्त्रां कुछ लाभ ले सके। Sm को इसी रूप में रख उन आचार्यों ने क्या सहज भाव को अपनाया है अथवा आंकिकी पर आधारित सम्भावना (probability) को व्यक्त किया है । हम अभी नहीं कह सकते । षटखंडागम, पु. ३, प्रस्तावना पृ० ३४, ३५. महाकोशल महाविद्यालय लक्ष्मीचन्द जैन एम्. एस्सी. जबलपुर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ। पृष्ठ २७ शब्द-सूची शब्द शब्द अकलंक देव अनुश्रेणि Alonga world lines| आत्मा Soul भक्षांश Latitude ९२ अन्तराल अन्तराल Interval - ४५ आधार Base अधीयपरिभ्रमण अन्यथायुक्तिखंडन आन्ध्र शिलालेख Axial revolution ८७ | ___Reductio-ad-absurdum Andhra inscription १० महगणना Numeration ८ अन्योन्यगुणकारशलाका Mutual आनुपूर्वी __multiple-log ७६ आदि | आयतचतुरखाकार मागुल अपोलोनियस Rectangular Finger (width) १९,२३ अभेद्य Indivisible आयाम Length अखंड Continuous अमूर्त Abstract आयु Age ४८ भचल मात्रा अयन Solstice आर्कमिडीज ८,१३,१५ :: Invariant mass अर्द्धगोलक | आर्यभट्ट अचलारम Hemisphere ८७,८८ आवलि Ameasure of time A measure of time ५५ अर्द्धच्छेद log to the base two ३,१२,५४,८० माविमञ्जन आवृत्ति ९,१०,१५,७६ Period (frequency) ९८ IAtomio splitation ५ अर्द्धपुदलपरिवर्तन afania (Extra) ७७ इच्छा Quantity wished ४४ Ameasure of time ६२ इष्वाकार Are ६७ भतिगोल Right ciroular अलोकाकाश Empty.space शिस oylinder ४९ अलौकिकी Non-Worldly ईसा Christ भदा पल्य (akin to arithmetica.)२ उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात A measure of time ३ अल्यबहुत्व Comparability A kind of innumerable ६० भधर्म द्रव्य Rest-causality | १,२,९,११,१२,८३ | उत्कृष्ट संख्यात An entity) ७ अवगाहना उत्तर Latter ૪૨ भषस्तन द्वीप Space occupied ?? उदयस्थान Rising place ९६ Inner island ७४/ अवधा Segment १४,५४ उपधारणा Postulate अनन्त Infinite १-३,५, अवधारणायें Concepta४ उपधारित Postulated २,५ ५५-६, ६०, ६२ अवधिशान १,१२,५५ उपमा-मान Simile-measure ३ अनन्त विभाज्यता Divisibility अविभागप्रतिच्छेद उपराशि Subset ad-infinitum Ultimate part | उपरिम द्वीप Outer island ७४ मनन्तानन्त अवशिष्ट Remaining ४० ऋद्धि Atindot Infinite १८ असंख्यात. Innumerablet-३, एक एक संवाद One-one अनीक Army ४७,४८ ७,५६-७,६१,७६ correspondence अनुपात सिकान्त आकाश Space ३,५,६ एकानन्त . Theory of proportion १४ आतपक्षेत्र १७,९२I Uni-directional infinite ४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तिलोयपण्णत्तीका गणित ue ५२ शब्द पृष्ठ) . शब्द . . पृष्ठ शब्द पृष्ठ एरिस्टरशस १६ | गणनानन्त छेदविधि एरिस्टाटिल ३! Numerical infinite ५६! Mediation method १,१२ औपचारिक Formal २ गणात्मक Cardinal छेदा गणित Logarithm २२,७० कक्षा Class ४७ गति Motion जगप्रतर (World surface) कणेविधिDiagonal method६२। गली Path १ A measure of area २३ कायमार्गणा गिरिकटक क्षेत्र ३५ जगप्रेणी (World-line) a Soul's bodily search ७५ गुणोत्तर श्रेढि Geometrioal measure of length ३,७, काल Time __ Progression ९,४८,६९ ८,१०,१८,२२,४६,४८ काल द्रव्य Time-causality ७ गेलिलियो | जघन्य अनन्तानन्त ६१ कुण्ड Pit ५६ गंगा जघन्य परीतानन्त कुन्तल (Spiral) १५,८९ ग्रह Planets जघन्य परीतासंख्यात कुशनकाल ग्रीस जम्बूद्वीप कूलिज | घटना Event जलकायिक जीवराशि Set of केन्टर (जार्ज) घनफल Volume .. water-bodied souls .८. केवली Omniscient १,३,५५ घनमूल Cube Root ८ जीनो Zono क्रमबद्ध Ordered घनलोक Volume of Universe जीव Soul (Living-being) ६,७ क्रियात्मक(प्रतीकस्व) Operational . २५-२९,७५ जीवा Chord १३,५०,५२ symbolism पनवातवलय जैनाचार्य ९,१०,१२-३,१६ क्षत्रप शिलालेख Atmosphere ३६ आदि ज्यामिति Geometry Kshatrap inscriptions१० घनाकार Cube ज्यामिति अवधारणाएं क्षुर .. ६७ चक्षुस्पर्श धान (क्षेत्र) क्षेत्र प्रयोग विधि Method of Geometrical concepts ? Range of vision 24,84 ज्यामिति विधियां application of | चतुर्भुज समलम्ब areas Geometrical methods Trapezium क्षेत्रफल Area २५,२६ ज्योतिष Astronomy १,१५ (अल्पबहुव) ७२ चन्द्रविम्ब (सपरिवार) | टेलर (त्रिभुज) Moon's family ,१५,१९ रिस्कार्टीज (दीप) ६९,७०,७ चय Common differenoo ४२ | डेन्टन | चान्द्र दिवस Lunar day १६ तस्वार्थवार्तिक (वृत्त) चार क्षेत्र Motion-space | तर्क Logic क्षेत्रावगाही चिउचांग सुआन चु १४ तिमिरक्षेत्र ..१७,९२ चीन १,१३,१४ तिर्यक्-आयत-चतुरस Cuboids. खंडशलाका Piece-log . ७३ चूलिका Top ५१ | तेजस्कायिक जीवराशि Set of गगनखंड Sky-division ९६ चैत्य fire bodied souls ७५ गच्छ Number of terms ४२ छेद Section ३ त्रसकायिक जीवराशि . ४९,५० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द . पृष्ठ असनाली पल्योपम A measure of timeबख्शाली काल विकालवी ३,२१,७६ 'बख्शाली हस्तलिपि ८,१० निलोकसंरचना १५ पाताल ६६-७ वर्जी सशंग चिह १३ पायथेगोरस . १५,५०,५२ बहुमध्यभाग Exact centre ७ दक्षिणपक्ष Right hand side ७९ पायथेगोरियन वर्ग बाण Height of a segment प्रशमलव Decimal २ पायथेगोरियन सिद्धान्त -५२-३ दिव्यध्वनि Divine sound ६५ ४,७,८,९,१६ बालाग्र Tip of hair २०,२१ एज्य क्षेत्र Conical ३५ पारपरिमित गणात्मक 27654 Width रहिवाद अंग Trans finite cardinal ५६ fare Point इब Substance पार्श्वभुजा fata Disc अनुष Are १४,५२-४ पांचसांद्र विळ Hole (Dwellings of धर्मद्रव्य Motion causality पुगल Matter and electricity | ___the hells) ४१,४५ - [entity] ३,४,५,६,७,१८ | बीजगणित Algebra माना.पार शिलालेख ९,१० | पुन्च (पूर्व) atit Orbit निकोमेशस ९० आदि पुष्पदन्त नियमित सांद्र Regular solid बृहस्पती Jupiter १५ पूर्वकोटि बेबीलोन विपत्ति Ratio २०,४ पृथ्वीकायिक जीवराशि Set of १,८,१२-४,४० बेलन Cylinder २० पिवर (बान) earth bodied souls 60 बोलजेनो सिलमेन २३ | पृथ्वीमाप ४० Rn Dino ४१ पेपीरस (आहम्स) बौद्धायन २० अवसूचीचय ब्राझी लिपि | प्रकीर्णक तारे * Torm प्रचय Common differeno०४२ परमाणु Ultimate partiole of | प्रतरांगुल भव्यजीवराशि mammatter or energy)४९| भारत Ameasure of area ३, परम्परा Tradition भारतीय प्रतिराशि परम्परागत Traditional भाषा ४ प्रतीक Symbol १,३,१०-२, . २. २३-४,४६ भास्कराचार्य ५.१५ प्रदेश Space-point भूतबलि १,६८ परिगणित. ३,५,६,७,१८ | भेद प्रभव Meta-mathematics माल Mara परिषिCiroumference १३,५९प्राकत संख्या प्रमाण Measure मथीमतिकी Mathemation २ परिमित Finite मन्दर ६८ _Natural number २,९,५५ गीत (Trans) ५६ | प्लेटो २,४,१६ मन्दराकार क्षेत्र ३२-३४ TY A measure of time फमेंट ७महत्ता Magnitate ३ १२,२०,२२ फिलोलस ३ महावीराचार्य १,१०,१४,६६ ४२ भरतक्षेत्र . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ मिश्र Egypt मेरु ६३ १०८ तिलोयपाल्पत्तिका गणित शब्द पृष्ठा शब्द मंसर. १७ वगमूल Square root ८ श्रुतकेवली Imbiber of मापिकी Measuration १२ वर्षशलाका log of log to the | scriptural knowledge ५५ मिथ्याभास Parador | base two ६,७,९,१० श्रेणि Series १,८,११| वलय Ring ६८,७० भेणिप्ररूपणा मुख First term ४२ | वातवलय Atmosphere३६आदि षटखंडागम मूल Root | वायुकायिक जीवराशि Set of । षष्ठिक चावल air bodied souls ८० पाष्टिक पदति मोड़ा Turn | वास्तविक सत्य Sexagesimal measure यतिवृषभ ५,९,१०-१६ विग्रहगति Motion of a soul समच्छिन्नक Frustram ३७-८ for anow birth ६,७ समद्विबाहु Equilateral ८५ यवमध्य क्षेत्र विजयाई समय Ultimate part of time विदारण विधि यवमुरज क्षेत्र (The now of Zeno) विद्युन्मय कण Electron ३,७,२२,५४ माम Coordinatea विन्दफल Volume समवसरण (स्तूप) ६४-५ युक्त विमा Dimension समवृत्त स्तूप विवक्षित Arbitrary यूनान १,२,५,८,१०,१३-४,१६ Circular pyramid विश्वरचना World structure १ | समान गोल Sphere यूनानी ज्यामिति ४,९,११-२,१५ विष्कम्भ Width ५,६५,६९ ! समानुपात सिद्धान्त यूनानी ज्योतिष विस्तार Width, or Theory of proportion २५ योजन A measure of diameter | समान्तर भेदि distance २०,८७! विंडमेन २४ Arithmetical progression रज्जु A kind of length वीरसेन १,४,५,८-१५,२२,२४ ९,४१,४४,४७ • measure ३,१२,१५,१८,२४ ५९,६२ समान्तरानीक रंग वृत्त Circle १२ Parallelepiped ३७ राशि Set वृद्धि Increase ७१-२ समान्तरी गुणोत्तर श्रेदि राशि सिद्धान्त वेत्रासन १,१४,२५,४०,४१ Arithmatico-geometria रिम Minus १०,११-२ शक्ति progression रेखा (सरल) Straight line संकलित धन Sum of series शलाकानिष्ठापन रोमन खेत गणक Log-filling ४२ ४३,४८ लम्ब संक्षेत्र Right prism शंकु समच्छिन्नक संख्यात.Numerable २,५४,५६ लोकाकाश Universe७,१८ Frustrum of acope १४ संख्या प्ररूपणा लौकिकी Worldly | शंक्वाकार मृदंग) Conical १४ Number of exposition | (akin to logistica) शंख सूत्र संख्या मान Measure बदन First term शुल्व सूत्र १३ संख्या सिद्धान्त वर्गग-सम्वर्गण ५,९,५९,६०/शून्य Zero ६,८,११ / Theory of number १,२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची शब्द शब्द शब्द संशा denomination २ सिंधु स्थानाहा पद्धति Place-value संततता Continuum सुकरात Socrates notation system ८,२१,४९ स्पर्श Touch संदृष्टि Symbol सूची Width स्वप्रकाशित Self illuminant८७ सागरोपम सूच्यंगुळ A measure of स्वसिद्ध Axiom सातिरेकता Excess ७४ हाइजीन्स सापेक्ष मात्रा Relative mass६ length ३,१२,२२,४९ हिपरशस सामान्य लोक सूर्य Sun सिकन्दरिया १४,१५ स्कन्ध Molecule ३,१८-९ हेरन १४,४० गणित लेख का शुद्धि-पत्र era.in पृष्ठ पंक्ति सुधार पृष्ठ पंक्ति भूल सुधार २ नीचे से १२ १८ नीचे से १ अनन्तानन्त अनन्तानन्त' नीचे से १० परमाणु परमाणु नीचे से ८ २१ नीचे से ३ Egyptions Egyptians ३ ऊपर से १५(अं)-4log३(अ) ( =ylogs(प) ४० नीचे से १ ६२ नीचे से १७ No । ऊपर से ४ intervol interval ७ ऊपर से१८mathemetical mathematical नीचे से १२ २No>No २ > .M १ऊपर से ८ पुनः ८८ ऊपर से ७ minuts minutes ११ नीचे से ९ की ऊपर से ८ नीचे से ८ थ ९७ नीचे से ९ motien motion - - नीचे से ५ १०३ नीचे से ११ ककर १५ ऊपर से ३ व्यार-व्यार १०४ ऊपर से६ ग्रं-प{log} {log:प) ऊपर से ८ zeno Zeno १८ नीचे से ६ नीचे से६ राकि राशि थी व्या, व्या, PP र ऊपर से ८ eno_Lono Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १ खगोल विषयक जैन ग्रंथ प्राचीन भारतने इस विश्व को कैसा जाना माना है, यह विषय बड़ा रोचक एवं अध्यापनकी एक स्वतंत्र शाखा ही है। प्रारंभमें विद्वानों द्वारा इस विषय का जो कुछ अनुसंधान किया गया है ( उदाहरणार्थ, देखिये 'डब्ल्यू. किरफेल 'कृत जर्मन भाषा का ग्रंथ 'डइ कॉस्मोग्राफी डेर इंडेर' लीपजिग १९२०, पृ. २०८-३४०) उससे सुस्पष्ट है कि भारतीय लोक-विज्ञान में जैन आचार्यों द्वारा किया गया चिन्तन भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । इस विषय की जैन रचनायें अनेक दृष्टियोंसे रुचिकर पाई जाती हैं। उनमें लोकका आकार प्रकार संबंधी विवरण बड़े विस्तारसे, बड़ी सुसंगतिसे एवं बड़ी कल्पना के साथ किया गया है। इस विवरण का जैन तत्त्वज्ञान व चारित्र संबंधी नियमोंके साथ भी घनिष्ट संबंध है। तथा समस्त जैन साहित्य और विशेषतः उसका कथात्मक भाग, इस लोक-ज्ञान संबंधी विवरणोंसे इतना ओतप्रोत है कि वह, विना उक्त विषयके विशेष ग्रंथोंका सहारा लिये, स्पष्टतः समझा नहीं जा सकता। उनकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि उनमें अपने रचनाकाल के गणितज्ञान का भी खूब समावेश पाया जाता है। इस प्रकार नाना देशों और युगों में मानवीय ज्ञान के विकास का इतिहास समझने के लिये ये लोकविज्ञान विषयक जैन ग्रंथ बड़े रोचक हैं। अर्धमागधी श्रुताङ्ग के भीतर कुछ रचनायें ऐसी हैं जिनमें इस विषयका वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार हैं: (१) सूरपण्णत्ति ( सं. सूर्य-प्राप्ति, मलयगिरि की टीका सहित प्रकाशित, आगमोदय समिति, सूरत, १९१९) .. (२) जम्बुद्दीवपण्णत्ति ( सं. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शान्त्याचार्य की टीका सहित प्रकाशित, देवचन्द __ लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ५२ और ५४, बम्बई, १९२०) (३) चंदपण्णत्ति ( सं. चन्द्रप्रशप्ति) श्रुतांगोंके उत्तर कालीन अन्य जैन ग्रंथों में भी इस विषयका बहुत विवरण मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक आदि टीकाओंमें यह वर्णन खूब आया है। इस विषयके अन्य ग्रंथ हैं: (१) उमास्वातिकृत जम्बूद्वीपसमास (विजयसिंहकृत टीका सहित प्रकाशित, अहमदाबाद १९२२) (२) जिनभद्रकृत संघायणी (मलयगिरिकृत टीका सहित प्रकाशित, भावनगर सं. १९७३) . (३) बृहत्क्षेत्रसमास ( मलयगिरिकृत येका सहित प्रकाशित, भावनगर सं. १९७७) (४) हरिभद्रकृत जम्बुद्दीव-संघायणी ( भावनगर १९१५ ). आदि । इन ग्रंथोंका उल्लेख डब्ल्यू. शुबिंग कृत 'डइ लेहरे डेर जैनाज़' (लीपजिंग १९३५ पृ. २१६) में पाया जाता है। , श्रुतांग-संकलनसे पूर्वकालीन जैन ग्रंथों की एक अन्य भी परम्परा है । इसी परम्परा का एक ग्रंथ 'तिलोयपणत्ति' दो भागों में प्रस्तुत ग्रंथमाला में ही प्रकाशित हो चुका है ( शोलापुर, १९४३, १९५१ )। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं. दी. प. की हस्तलिखित प्रतियां दूसरा ग्रंथ 'लोयविभाग' भी इसी प्राचीन परम्परा का था, किन्तु अब केवल उसका संस्कृत संक्षिप्त रूपांतर ' लोकविभाग' ही उपलभ्य है । नेमिचन्द्रकृत 'तिलोयसार' (सं. त्रिलोकसार, बम्बई, १९१७) और उसकी माधवचन्द्रकृत टीका इस ग्रंथसमूह की एक महत्वपूर्ण रचना है। प्रस्तुत 'जम्बूदीवपणत्तिसंगह' भी इसी शाखा का एक ग्रंथ है जिसे यहां एक प्रामाणिक पाठ संशोधन, हिन्दी अनुवाद व परिशिष्टों आदि सहित ग्रंथमाला के इस पुष्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। (देखिये जं. दी. प. सं. इंडियन हिस्टॉरीकल क्वार्टरली, कलकत्ता, १४, सन् १९३८ पृ. १८८ आदि ) २ जं. दी. प. सं. की हस्तलिखित प्रतियां इस ग्रंथ की बहुत थोड़ी प्राचीन प्रतियां पुस्तकालयों में पाई जाती हैं ( देखिये जिनरत्नकोश, पूना १९४४, पृ. १३१)। किन्तु फिर भी सम्पादकों को कुछ अन्य प्रतियां अनपेक्षित स्थानों से प्राप्त करने में सफलता मिली है । इन प्राचीन प्रतियोंका वर्णन निम्न प्रकार है: १. ग्रन्थकी प्रेसकापी शोलापुर प्रतिके आधारसे करायी गयी थी। यह प्रति वैशाख शुक्ला १ संवत् १९७१ में लिखी गयी है। इसमें लिपिकारका नाम आदि नहीं है। पत्र संख्या उसकी ८२ है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल दि. जैन पाठशालासे प्राप्त हुई थी। इसका उल्लेख टिप्पणमें पाठभेद देते समय श प्रतिके नामसे किया गया है। २. दूसरी प्रति ' भाण्डारकर ओरिएण्टल इंस्टीटयूट पूनासे प्राप्त हुई थी। इसमें नौवां और दसवां ये २ उद्देश पूर्णतया त्रुटित हैं। इसके अतिरिक्त उसमें ११ वे उद्देशकी भी २९० गाथायें अनुपलब्ध है। इस प्रतिका निर्देश पाठभेद देनेमें प प्रतिके नामसे हुवा है। ३. तीसरी प्रति उस्मानाबादकी है । इसकी पत्र संख्या ९९ है। यह श्रावण कृष्णा द्वादशी मंगलवार सं. १९६० में लिखी गयी है । प्रति लेखकने अपने नाम आदिका निर्देश नहीं किया है । इसकी तथा शोलापुर प्रतिकी आधारभूत कोई एक ही प्रति रही है, ऐसा हम अनुमान करते हैं। इसका उल्लेख टिप्पणमें उ प्रतिके नामसे हुआ है। ४. चौथी प्रति श्री ऐ. पन्नालाल जैन सरस्वती भवन, बम्बई की है । इसकी पत्र संख्या १०२ है। यह आगरा जिलाके अन्तर्गत मोमदी ग्रामवासी किसी पीतांबरदास नामक वैश्यके द्वारा माघ सुदी १० रविवार ( संवत्का निर्देश नहीं है ) को लिखी गयी है । इसका उल्लेख टिप्पणमें ब प्रतिके नामसे किया गया है। इसकी तथा पूनाकी प्रतिकी आधारभूत भी कोई एक ही प्रति रही है, ऐसा इन दोनों प्रतियोंके पाठभेदोंकी समानताको देखते हुए निश्चित-सा प्रतीत होता है। ५. पांचवीं प्रति कारंजा बलात्कार भण्डारसे प्राप्त हुई है। इसकी पत्र संख्या ५९ है। यह प्रति चैत्र शुक्ला तृतीया संवत् १७८६ में लिखकर पूर्ण की गयी है । इसके लिखने में जितने भागमें स्याहीका उपयोग हुआ है उतना कागजका भाग अत्यन्त जीर्ण हो गया है, स्याहीके उपयोगसे रहित हांशियेका भाग उसका बहुत अच्छा है । यह प्रति हमें मुद्रणकार्यके प्रारम्भ हो चुकनेके पश्चात् प्राप्त हो सकी है । अत एव उसका उपयोग क प्रतिके नामसे केवल अन्तिम ५ उद्देशों (९-१३ ) में ही किया जा सका है। यद्यपि उपर्युक्त सभी प्रतियां प्रायः अशुद्धिप्रचुर और यत्र तत्र स्खलित भी हैं, फिर भी उनमें कारंजा प्रति अपेक्षाकृत शुद्ध कही जा सकती है । लिपि उसकी सुवाच्य और आकर्षक भी है। ग्रन्थके पूर्णतया मुद्रित हो जानेपर हमें एक प्रति श्री वीरसेवा-मंदिरके विद्वान् पं. परमानन्दजी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जंबूदीवपण्णन्तिकी प्रस्तावना 1 शास्त्रीकी कृपासे प्राप्त हुई है । यह प्रति पण्डितजी के द्वारा ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बईकी प्रतिके आधारसे लिखी गई है । इसके ऊपर उन्होंने आमेर प्रति ( ज्येष्ठ शुक्ला ५ वि. संवत् १५१८ ) से मिलान करके कुछ महत्त्वपूर्ण पाठभेदोंका निर्देश किया है । मुद्रित ग्रन्थसे मिलान कर उनकी एक तालिका परिशिष्ट (पृ. ४६-५२ ) पर दे दी गयी है । पाठभेदों की अपेक्षा इस ( आमेर प्रति ) में और कारंजा प्रतिमै बहुत कुछ समानता पायी जाती है । उपर्युक्त पांचों प्रतियां यत्र तत्र त्रुटित एवं अशुद्धिपूर्ण रही हैं। इस कारण संशोधनके लिये किसी एक प्रतिको आदर्श मानकर चलना अथवा कोई विशेष नियम बनाना और तदनुसार शब्दशः या तत्त्वतः अनुसरण करना कठिन काम था। फिर भी मूलमें एक अर्थपूर्ण पाठभेद देनेका प्रयत्न किया गया है। जहां प्रतियों के पाटके अनुसार अनुवाद करना शक्य नहीं प्रतीत हुआ वहां प्रतियोंके पाठभेदका टिप्पणमें निर्देश कर सम्भावित शुद्ध पाठ देनेका प्रयत्न किया गया है । सन्दर्भ, अर्थ और उपलब्ध साधनसामग्री के आधारसे पाठका निर्णय यथाशक्ति पूर्ण सावधानीसे किया गया है । 1 आशा है कि इस सम्पादन के द्वारा फिर हाल इस विषयके अध्ययन और अनुसन्धानका काम चल जायगा । प्रतियोंपर प्राय: इस ग्रंथका नाम 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति अंकित पाया जाता है । किन्तु उद्देशोंकी पुष्पिकाओं के उल्लेखानुसार ग्रंथका ठीक पूरा नाम ' जंबूदीवपण्णत्तिसंग्रह ' ( जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति-संग्रह ) है । ' संग्रह ' शब्द से यह सूचित होता है कि ग्रंथकारने किसी अन्य प्राचीन स्रोतसे अपने विषयका संकलन किया | गाथा १-६ और ८ तथा १३-१४२ से ध्वनित होता है कि वह स्रोत 'दीव सागर पण्णत्ति ' नामका ग्रंथ था । महावीर तीथैकरके उपदेशोंके आधारपर उनके गणधरों द्वारा निर्मित श्रुताङ्गों से बारहवे अंग दृष्टिवादके प्रथम भाग ' परिकर्म ' के भीतर गिनाई गई पांच ' प्रज्ञप्तियों में चौथे स्थानपर यह नाम पाया जाता है :- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रशति । क्या उक्त उल्लेखका इस श्रुतरचनासे कोई संबंध है, यह अन्य प्रमाणके अभाव में कुछ कहा नहीं जा सकता । ३ ग्रंथका विषय इस ग्रंथमें सब मिलाकर २४२९ गाथायें व १३ उद्देश हैं। प्रत्येक उद्देशकी पुष्पिकामै उस उद्देशके विषयका सुस्पष्टतासे निर्देश पाया जाता है जो इस प्रकार है: (१) उपोद्घात प्रस्ताव (२) भरतैरावतवर्णन (३) पर्वत- नदी - भोगभूमि वर्णन (४) महाविदेहाधिकार ( ५ ) मंदरगिरि - जिन भवनवर्णन (६) देवकुरु - उत्तरकुरु - विन्यास प्रस्ताव ( ७ ) कच्छाविजयवर्णन (८) पूर्वविदेहवर्णन (९) अपरविदेहवर्णन (१०) लवणसमुद्रवर्णन (११) बहिरुपसंहारद्वीप-सागर-नरकगतिदेवगति-सिद्धक्षेत्रवर्णन (१२) ज्योतिर्लोकवर्णन और (१३) प्रमाणपरिच्छेद । १. प्रथम उद्देश केवल ७४ गाथायें हैं। यहां सर्व प्रथम ६ गाथाओं में क्रमशः अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु परमेष्ठियों की वन्दना करके द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके रचनेकी प्रतिज्ञा की गयी है । तत्पश्चात् गा. ७ में सर्वज्ञका नामस्मरण और गा. ८ में वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुत-गुरुपरिपाटी के अनुसार कथन करनेकी इच्छा प्रगट करते हुए तदनुसार ही आगे चलकर बतलाया है कि विपुलाचलपर स्थित भगवान् वर्धमान जिनेन्द्रने जो प्रमाण नयसंयुक्त अर्थ गौतम गणधर के लिये कहा था उसे ही उन गौतम सुधर्म (अपर नाम लोहार्य ) गणधरको तथा इन्होंने जंबू स्वामीको कहा। ये तीनों अनुबद्ध केवली थे । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय तत्पश्चात् (१) नन्दी (२) नन्दिमित्र (३) अपराजित (४) गोवर्धन और (६) भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए । तत्पश्चात् (१) विशाखाचार्य (२) प्रोष्ठिल (३) क्षत्रिय (४) जय (५) नाग (६) सिद्धार्थ (७) धृतिषण (८) विजय (९) बुद्धिल (१०) गंगदेव और (११) धर्मसेन ये दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर (१) नक्षत्र (२) यशपाल (३) पाण्डु (४) ध्रुवषेण और (५) कंसाचार्य ये पांच ग्यारह अंगोंके धारी हुए । तत्पश्चात् (१) सुभद्र (२) यशोभद्र (३) यशोबाहु और (४) लोहाचार्य ये चार आचारांगके धारक हुए। इतनी मात्र श्रुतधारकोंकी परम्पराका निर्देश करके ग्रन्थकार आचार्यपरम्परासे प्राप्त द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके कहनेकी पुन: प्रतिज्ञा करते हैं। ___ आगे चलकर पच्चीस कोड़ाकोड़ि उद्धार पल्य प्रमाण समस्त द्वीप-सागरोंके मध्यमें स्थित जम्बूद्वीपके विस्तार, परिधि और क्षेत्रफलका निर्देश करके उसकी जगती ( वेदिका) का वर्णन करते हुए बतलाया है कि उसके विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार गोपुर द्वारोंपर क्रमश: इन्हीं नामोंके धारक प्रभावशाली चार देव स्थित हैं। यहां इनमेंसे प्रत्येकके बारह हजार योजन प्रमाण लंबे-चौड़े नगर हैं। जम्बूद्वीपमें ७ क्षेत्र, १ मन्दर पर्वत, ६ कुल पर्वत, २०० कांचन पर्वत, ४ यमक पर्वत. ४ नाभिगिरि. ३४ वृषभगिरि, ३४ विजयार्ध, १६ वक्षार पर्वत और ८ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके अलग अलग वेदियां व वनसमूह भी हैं । जम्बूद्वीपमें स्थित नदियों की संख्या १४५६०९० बतलायी है । पश्चात् नदीतट, पर्वत, उद्यानवन, दिव्य भवन, शाल्मलि वृक्ष और जम्बू वृक्ष आदिके ऊपर स्थित जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करके अन्तमें ग्रन्धकर्ता श्री पद्मनन्दिने जिनेन्द्रसे बोधिकी याचना कर इस उद्देशको समाप्त किया है। २. दूसरे उद्देशमै २१० गाथायें हैं। यहां क्षेत्रविभागका वर्णन करते हुए बतलाया है कि जंबूद्वीपमें क्रमश: भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये ७ क्षेत्र तथा क्रमश: इनका विभाग करनेवाले हिमवान् , महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह कुलपर्वत स्थित हैं। जंबूदीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र-पर्वतोंमें क्षेत्रसे दूना पर्वत और उससे दूना विस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्यमें स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है । यह क्रम अन्तिम ऐरावत क्षेत्र त प्रकार जंबूद्वीपके १९० खण्ड ( भरत १+ हिमवान् २+ हैमवत ४+ महाहिमवान् ८+ हरिवर्ष १६+ निषध ३२+ विदेह ६४+नील ३२+ रम्यक १६+ रुक्मि ८+ हैरण्यवत ४+ शिखरी २+ और ऐरावत ११९०) हो गये हैं । इनमैसे अभीष्ट क्षेत्र या पर्वतका विस्तार जाननेके लिये जंबूद्वीपके विस्तार (१००००० योजन) में १९० का भाग देकर लब्धको विवक्षित क्षेत्र या पर्वतके खण्डोंसे गुणित करना चाहिए। गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्रों और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहां धनुषपृष्ठ, बाहु ( दीर्घ धनुषर्मेसे हस्व धनुषको कम करनेपर शेष क्षेत्रका अर्ध भाग ), जीवा, चूलिका ( दीर्घ जीवामेंसे हस्व जीवाको कम करनेपर शेष क्षेत्रका अर्ध भाग ) और बाणका प्रमाण लाने के लिये गणितसूत्र दिये गये हैं। विजयार्धका वर्णन करते हुए वहां उसकी दक्षिण अणिमें पचास और उत्तरश्रेणिमें साठ विद्याधर नगरोंका निर्देश करके गाथा ४० में उनकी सम्मिलित संख्या २०० बतलायी है जो विचारणीय है। कारण कि उपर्युक्त कथनके अनुसार ही वह संख्या ५०+६०=११० होनी चाहिये । यदि इसमें ऐरावत क्षेत्रस्थ विजया पर्वतके भी नगरों की संख्या सम्मिलित कर ली जाती है तो वे २२० नगर होने चाहिये। ___ यहां विजयाध पर्वतके वर्णनमें उसके ऊपर स्थित ९ कटोका नामनिर्देश करके उनके ऊपर स्थित जिनभवनों और देवभवनोंका तथा उद्यानवनोंका भी वर्णन किया है। उक्त पर्वतके दोनों ओर तिमिल Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना ओर खण्डप्रपात नामकी दो गुफायें हैं। इन्हीं गुफाओं के भीतरसे आकर गंगा और सिंधू नदियां दक्षिण भरतमें प्रविष्ट होती हैं । आगे जाकर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए सब विदेहक्षेत्रों, पांत्र म्लेच्छावण्डों और सच विद्याधरनगरों में एक चतुर्थ काल वर्तमान बतलाया है। देवकुरु व उत्तरकुरुमैं प्रथम, हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों में तृतीय, तथा हरिवर्ष व रम्यक क्षेत्रोंमें द्वितीय काल ही सदो रहता है। प्रसंग पाकर यहां इन कालोंमें होनेवाली आयु, उत्सेध और भोजन आदिका नियम भी बतलाया गयो है। कौन जीव किन परिणामोंसे भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, इसका विवरण करते हुए उन भोगमूमियों में प्रथम चार गुणस्थान बतलाये हैं। . मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित नगेन्द्र (स्वयंप्रभ ) पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें युगल रूपमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच जीव रहते हैं । काल यहांपर सदा तीसरा (सुषमदुषमा) ही रहता है । नगेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीप एवं स्वयम्भूरमण समुद्रमै दुःषमाकाल, देवोंमें मुषम-सुषमा, नारकियोंमें अतिदुःषमा तथा तिर्यंचों व मनुष्यों में छहों कालोंके रहने का उल्लेख किया गया है। अन्तमें उक्त छहों कालोंके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए इस उद्देशको समाप्त किया गया है। ३. तृतीय उद्देशमै २४६ गाथायें हैं। यहां हिमवान् और शिखरी, महाहिमवान् और रुक्मि, तथा निषध और नील कुलाचलोंके विस्तार, जीवा, धनुषपृष्ठ, पार्श्वपुजा और चूलिकाका प्रमाण बतला कर उनके ऊपर स्थित टोंके नामोंका निर्देश किया गया है । इन कटों के ऊपर जो भवन स्थित हैं उनका भी यहां वर्णन किया है । तत्पश्चात् हिमवान् और महाहिमवान् आदि छह कुलपर्वतोंके ऊपर जो पद्म और महापद्म आदि तालाव हैं उनमें स्थित कमलभवनोंपर निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन छह देवियोंकी विभूतिका निरूपण है । पद्महदमें स्थित समस्त कमलभवन १४०११६ हैं। जम्बू और शाल्मलि वृक्षोंके ऊपर जो भवन स्थित हैं उनसे इनकी संख्याकी समानताका उल्लेख करके यहां इन वृक्षोंके अधिपति देवोंकी चार महिषियोंके चार भवन अधिक (१४० १२०) बतलाये गये हैं। यहां जो जिन भवन पाये जाते हैं उनका भी उल्लेख कर दिया है। ... . हिमवान् पर्वतके मध्यमें जो पद्मद्रह स्थित है उसके पूर्वाभिमुख तोरण द्वारसे गंगा महानदी निकली है। वहांसे निकलकर यह नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर पूर्वकी ओर ५०० योजन जाकर फिर दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है । इस प्रकार पर्वतके अन्त तक जाकर वहां जो वृषभाकार नाली स्थित है उसमें प्रविष्ट होती हुई वह पर्वतके नीचे स्थित कुण्डमें गिरती है । यह गोलकुण्ड ६२१ योजन विस्तृत और १० योजन गहरा है । इसके बीचोंचीच एक ८ योजन विस्तृत द्वीप और उसके भी मध्यमें एक पर्वत है। इसके ऊपर गंगादेवीका गंगाकूट नामक प्रासाद है। गंगा नदीकी धारा उन्नत भवन के शिखरपर स्थित जिनप्रतिमाके ऊपर पड़ती है। फिर यहांसे निकलकर वह गंगा नदी दक्षिणकी ओर जाकर विजयाकी गुफार्मेसे जाती हुई पूर्व समुद्रमें गिरती है। प्रसंगानुसार यहां गंगादिक नदियोंकी धारा, कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डस्थ पर्वत, तदुपरिस्थ भवन और तोरण आदिकोंके विस्तारादिकी भी प्ररूपणा की गई है। .. , अन्तमें हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हैरण्यवत इन चार क्षेत्रोंके मध्यमें स्थित नाभिगिरि पर्वतोंका वर्णन करते हुए इन क्षेत्रोंमें प्रवर्तमान कालोंका पुन: निर्देश करके भोगभूमियोंकी व्यवस्थाका भी पुनरूलेख किया गया है। ४. चतुर्थ उद्देश, २९२ गाथायें हैं। यहां सुदर्शन मेरुका कथन करते हुए प्रारम्भकी ३-९ गाथाओं में जो लोकका स्वरूप बतलाया गया है वह स्पष्ट नहीं हुआ है। आगे उक्त लोकका विस्तार व ऊंचाई Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय ११५ आदिका कथन है जो प्राय: सभी ग्रन्थों में समान रूपसे पाया जाता है । इस लोकके बहुमध्य भागमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मध्यमें जम्बूद्वीप है और उसके मध्यमै विदेह क्षेत्रके भीतर मन्दर पर्वत है। उसका विस्तार पातालतलमें १००९०१ यो., पृथिवीतलके ऊपर (भद्रशाल वनमें ) १०००० यो., और ऊपर शिखरपर (पाण्डुक वनमें ) १००० यो. है । यह मूल भागमें १००० यो. वज्रमय, मध्यमें ६१००० यो. मणिमय और ऊपर ३८००० यो, सुवर्णमय है। . । यहां मेरु पर्वतकी परिधि आदिका निर्देश करते हुए बतलाया है कि मेरुका भद्रशाल नामका प्रथम वन पूर्व-पश्चिममें २२००० यो. विस्तृत है। इसके मध्यमें १०० यो. आयत, ५० यो. विस्तृत और ७५ यो. ऊंचे ४ जिनभवन हैं। उनके द्वारों की उंचाइ यो., विस्तार ४ यो., और विस्तारके समान प्रवेश भी ४ ही यो. है । इनकी पीठिकायें १६ यो. दीर्घ और ८ यो. ऊंची हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओंकी उंचाई ५०० धनुष है। नन्दीश्वर द्वीपमें स्थित ५२ जिनभवनोंकी भी रचनाका यही क्रम है। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंमें स्थित जिन भवनोंका विस्तारादि उक्त जिनभवनोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर आधा आधा है। मेरुके ऊपर पृथिवीतलसे ५०० यो. ऊपर जाकर नन्दन वन, ६२५०० यो. ऊपर सौमनस वन और ३६००० यो. ऊपर पाण्डुक वन स्थित है । इनमेसे पाण्डुक वनके मध्यमें ४० यो. ऊंची वैडूर्यमणिमय चूलिका है । इसका विस्तार मूलमें १२ यो., मध्यमें ८ यो. और शिखरपर ४ यो. है। चूलिकाके ऊपर एक बाल मात्रके अन्तरसे सौधर्म कल्पका प्रथम ऋतु विमान स्थित है । पाण्डुक वनके भीतर ईशान दिशा (पूर्वोत्तर कोण ) में पाण्डुकशिला, आमेय ( दक्षिण-पूर्व ) दिशामें पाण्डुककंचला, नैऋत्य ( दक्षिण-पश्चिम) कोणमें रक्तकंबला और वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कोणमें रक्तशिला; ये ५०० यो. आयत, २५० यो. विस्तृत व ४ यो. ऊंची ४ शिलायें स्थित हैं । प्रत्येक शिलाके ऊपर ५०० धनुष आयत, २५० धनुष विस्तृत और ५०० धनुष ऊंचे ३-३ पूर्वाभिमुख सिंहासन स्थित हैं। इनमेंसे मध्यका जिनेंद्रोंका, दक्षिण पार्श्वभाग, स्थित सौधर्म इन्द्रका और वाम पार्श्वभागमें स्थित सिंहासन ईशानेन्द्रका है । ईशान दिशामें स्थित पाण्डुक शिलाके ऊपर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका, आमेय कोणमें स्थित पाण्डुककंबला शिलाके ऊपर अपरविदेहोत्पन्न तीर्थकरोंका, नैऋत्य कोणमें स्थित रक्तकंबला शिलाके ऊपर ऐरावतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका और वायव्य कोणमें स्थित रक्त शिलाके ऊपर पूर्व विदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक चर्निकायके देवों द्वारा किया जाता है। प्रसंग पाकर यहां सौधर्मेन्द्रकी सप्तविध सेना और ऐरावत हाथीका भी विस्तृत वर्णन किया गया है। . ५. पांचवे उद्देशमै १२५ गाथायें हैं । यहां मन्दर पर्वतस्थ जिनेन्द्रभवनोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि त्रिभुवनतिलक नामक जिनेन्द्रभवनकी गन्धकुटी ७५ यो. ऊंची, ५० यो. आयत और इतनी ही विस्तृत है । उसके द्वार १६ यो. ऊंचे, ८ यो. विस्तृत और विस्तारके बराबर ( ४ यो.) प्रवेशसे सहित हैं (गा. २-४ यहां असम्बद्धसी प्रतीत होती हैं )। मन्दर पर्वतके भद्रशाल नामक प्रथम वनमें चारों शाओम ४ जिनभवन है। इनका आयाम १०० यो., विस्तार इससे आधा (५० यो.), ऊंचाई ७५ यो. और अवगाह आधा योजन (२ कोस ) है । इन जिनभवनों में पूर्व, उत्तर और दक्षिणकी ओर ३ द्वार हैं। ये द्वार ८ यो. ऊंचे और इससे आधे विस्तृत हैं। इन जिनभवनों में पूर्व-पश्चिममें ८००० मणिमालाये और इनके अन्तरालोंमें २४००० सुवर्णमालायें लटकती हैं। द्वारों में कर्पूरादि सुगन्धित द्रव्योंसे संयुक्त २४००० धूपचर हैं। सुगन्धित मालाओंके अभिमुख ३२००० रत्नकलश हैं । बाह्य भागमें ४००० मणिमालायें, १२०००. सुवर्णमालायें, १२.००० धूपघट और १६००० कंचनकलश हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना उन जिनभवोंके पीठ १६ यो. से कुछ अधिक आयत, ८ यो. से कुछ अधिक विस्तृत और २ यो. ऊंचे हैं। यहाँकी सोपानपंक्तियां १६ यो. लंबी, ८ यो. विस्तृत, ६ यो. ऊंची और २ गम्यूति अवगाहवाली हैं । इन सोपानोंकी संख्या १०८ है । उनमेंसे एक एक सोपानकी उंचाई कुछ अधिक ५५ से कम ५०० धनुष (६ यो. १०८ = ४४४२ धनुष ) है। उन पीठोंकी पेदियां २ कोस ऊंची और ५०० धनुष विस्तृत हैं । वहां स्थित देवच्छंद नामक गर्भगृह स्फटिकमणिमय भित्तियोंसे सहित; वैडूर्यमणिमय खंभोंसे संयुक्त और ३ सोपान से युक्त हैं। इन भवनों में विराजमान अनादि-निधन जिनेन्द्रप्रतिमा ५.. धनष ऊंची और उत्तम लक्षण-व्यंजनोंसे परिपूर्ण हैं। एक एक जिनभवनमें १०/-... जिनप्रतिमायें हैं। इनमें प्रत्येक प्रतिमाके साथ १०८-१०८ प्रातिहार्य होते हैं। ___ यहां उक्त जिनभवनोंके भीतर सिंहादिक चिहोंसे सुशोभित दस प्रकारकी ध्वजाओं, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, सभागृह, स्तूप, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष और वन-वापियों आदिका भी वर्णन किया गया है। इन जिनभवनों में चार प्रकारके देव अपनी अपनी विभूतिके साथ आकर अष्टाहिक दिवसोंमें पूजा करते हैं। इस वर्णनमें यहां आनेवाले सौधर्मादिक १६ इन्द्रोंके नामोंका उल्लेख किया गया है, जो दोनों सम्प्रदाय गत १२ इन्द्रोंकी मान्यताके विरुद्ध है। उक्त इन्द्रोंके यान-विमान क्रमशः ये हैं- १ गज, २ वृषभ, ३ सिंह, ४. तुम हंस, ६ वानर, ७ सारस, ८ मयूर, ९ चक्रवाक, १० पुष्पक विमान, ११ कोयल विमान, १२ गरुड़ विमान, १३ ( आनतेन्द्रके यानविमानका निर्देश गा. १०५ में होना चाहिये था जो नहीं हुआ है) १४ कमल विमान १५ नलिन विमान और १६ कुमुद विमान । इनके हाथोंमें उस समय निम्न सामग्री रहती है१ वत्र, २ त्रिशूल, ३ असि, ४ परशु, ५ मणिदण्ड, ६ पाश, ७ कोदण्ड, ८ कमलकुसुम, ९ पूगफलौका गुच्छा, १० गदा, ११ तोमर, १२ हल-मूसल, १३ सित कुसुममाला, १४ कमलमाला, १५ चम्पकमाला और १६ मुक्तादाम। ६. छठे उद्देशमें १७८ गाथायें हैं। यहां देयकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है। उत्तरकुरु क्षेत्र मेरु पर्वतके उत्तर और नील पर्वतके दक्षिणमें है । इसके पूर्वमें माल्यवान् पर्वत और पश्रिममें गन्धमादन शैल है । उसका विस्तार ११८४२२२ यो. है। वहां नील पर्वतके दक्षिणमें १००० यो. जाकर सीला नदीके उभय तटोंपर २ यमक पर्वत हैं। इन दोनों पर्वतोंके बीच ५०० यो. का अन्तर है। नील पर्वतके दक्षिणमें २५०० यो. जाकर सीता नदीके मध्यमें नीलवान् , उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत और माल्यवान् नामके ५ द्रह हैं । इनकी लम्बाई १००० यो., चौड़ाई ५०० यो. और गहराई १० यो. है। इनके भीतर स्थित कमलभवनोंमें द्रह जैसे नामवाली नागकुमारी देवियां सपरिवार निवास करती हैं। यहां कमलों की संख्या आदि पद्मद्रहके समान है । इन द्रोंके पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागोंमें १०-१० कांचन शैल स्थित हैं। पांचों द्रहों सम्बन्धी कांचन शैलोंकी संख्या १०० है । ___ उत्तरकुरुके मध्यमें मेरुके उत्तर-पूर्व कोण; सुदर्शन नामक जम्बूवृक्ष स्थित है। इसकी पूर्वादिक चारों दिशाओंमें चार विस्तृत शाखायें हैं। इनमें उत्तरकी शाखापर जिनेन्द्रभवन और शेष तीन शाखाओपर नम्बूद्वीपके अधिपति अनाहत यक्षके भवन हैं। इसके परिवार वृक्षों की संख्या १४०११९ है। .. मंद्र पर्वतके दक्षिण पार्श्वभागमें देवकुरु क्षेत्र है । इसके पूर्व में सौमनस तथा पश्चिममें विद्युत्लभ नामक गजदन्त पर्वत स्थित हैं । यहां भी निषध पर्वतके उत्तरमें १००० यो. जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोपर चित्र और विचित्र नामके २ यमक पर्वत हैं। इनके आगे ५०० यो. जाकर सीतोदा नदीके मध्यमें Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय निषधद्रह, देवकुरु, सूर, सुरस और विद्युत्तेज नामके ये ५ द्रह है । इनमें स्थित कमलभवनोंपर रहनेवाली नागकुमार देवियों के नाम ये हैं-- निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सूरकुमारी, सुलसा और विद्युत्प्रभकुमारी । इ.स. सिर देयों मनोका पनि कले हुए यहां दिनाओं और विदिशामाक निदेशक निम्न शब्दोंका प्रयोग किया गया है --सिंह, श्वान, धय, सिंह, वृषभ, गज, खर, गज, ढंख (ध्वांक्ष), धय, धूम, सिंह, मंडल, गोपति, खर, नाग और ढंख । इन शब्दोका प्रयोग उक्त अर्थमें कहीं अन्यत्र देखने में नहीं आया। प्रत्येक द्रहके पूर्व-पश्चिम दोनों पार्श्वभागों में दस दस कंचन शैल हैं। यहां देवकुरु क्षेत्रमें मंदर पर्वतकी उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्वाति नामका शाल्मलि वृक्ष स्थित है । इसका वर्णन जम्बू पृक्षके समान है । इन देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंमें युगल-युगल रूपसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तीन पल्योपन प्रमाण आयुसे संयुक्त और तीन कोस ऊंचे होते हैं । आहार वे तीन दिनके पश्चात् करते हैं , वह भी बेरके बराबर | उनमें नपुंसक वेद नहीं होता-सभी स्त्री और पुरुष वेदवाले ही होते हैं। वे मरकर नियमतः देवों में ही जन्म लेते हैं। (७) सातवे उद्देशमें १५३ गाथार्य है। इसमें विदेह क्षेत्रका वर्णन किया गया है । यह क्षेत्र निषध व नील कुलपर्वतोंके बीच में स्थित है । विस्तार उसका ३३६८४८ यो. प्रमाण है । इसके बीच में सुमेरु पर्वत और उससे संलग्न चार दिग्गज पर्वत हैं। इस कारण वह पूर्वविदेह और अपरविदेह रूप दो भागोंमें विभक्त हो गया है। बीचमें सीता और सीतोदा महानदियों के बहने के कारण प्रत्येकके और भी २-२ भाग हो गये हैं। उक्त चार भागोंमेंसे प्रत्येक भागके मध्यमें ४ वक्षार पर्वत और उनके भी बीचमें ३ विभंगा नदी हैं । इस कारण उनमेंसे प्रत्येकके भी ८-८ भाग हो गये हैं। इस प्रकार ये ३२ भाग ही ३२ विदेहके रूपमें प्रसिद्ध हैं। इनमें नील पर्वतके दक्षिण, सीता नदीके उत्तर, उत्तरकुरुके पूर्व और चित्रकूट वक्षारके पश्चिम भागमें कच्छा विजय स्थित है। इसका विस्तार नील पर्वतके पासमें ७३३३. यो. और सीता नदीके तटपर २२१२ यो. है। इसके वीचोंबीच विजयार्ध पर्वत स्थित है । यहां रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियां नील पर्वतस्थ कुण्डोंसे निकल कर विजयाकी गुफाओंके भीतरसे जाती हुई सीता महानदीमें प्रविष्ट होती हैं । इस कारण उक्त कच्छा विजय ६ खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इनमें सीता नदीकी ओर बीचका आर्यखण्ड तथा शेष पांच म्लेच्छ खण्ड कहे गये हैं। आर्यखण्डके बीचमै क्षेमा नामकी नगरी स्थित है। इसका आयाम १२ यो. और विस्तार ९ यो. प्रमाण है । प्राकारपरिवेष्टित उक्त नगरीके १००० गोपुरद्वार और ५०० खिड़कीद्वार हैं। रथ्याओंकी संख्या १२ हजार निर्दिष्ट की गयी है । यहां चक्रवर्तीका निवास है जो ३२ हजार देशोंके अधिपतियोंका स्वामी होता है । इसके अधीन ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पट्टन, २६ हजार नगर, ५००-५०० ग्रामोसे संयुक्त ४००० मडंब, ३४ हजार कर्बट, १६ हजार खेट, १४ हजार संवाह, ५६ रलद्वीप और ९६ करोड़ ग्राम होते हैं। यहां क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण हैं , ब्राह्मण वर्ण नहीं है। जैन धर्मके सिवाय अन्य धर्म भी यहां नहीं पाये जाते । तीर्थकरादि ६३ शलाकापुरुषों की परम्परा यहां चलती ही रहती है । यह कच्छा विजयका वर्णन हुआ। ठीक यही वर्णनक्रम महाकच्छा आदि शेष ३१ विजयोंका भी समझना चाहिये। ___ कच्छा विजयके रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे अन्तरित मागध, वरतनु और प्रभास नामके तीन द्वीप हैं । इन तीनो द्वीपोंके अधिपति देव अपने अपने द्वीपके ही नामसे प्रसिद्ध हैं । दिग्विजयमें प्रवृत्त हुआ चक्रवर्ती प्रथमतः इन द्वीपोंके अधिपति देवोंको अपने अधीन करता है। इसी प्रकारसे दक्षिणकी ओरके देव-विद्याधरोंको Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना वशमें करके यह विजया पर्वतकी गुफार्मेसे जाकर उत्तरके म्लेच्छ खण्डोंको भी अपने अधीन करता है। उस समय म्लेच्छ राजाओंकी प्रार्थनापर मेघमुख नामका देव चक्रवर्तीकी सेनापर घोर उपसर्ग करता है, फिर भी चक्रवर्ती के प्रभायसे उसमें किसी प्रकारका क्षोभ नहीं होता । इस समय समस्त सैन्यका रक्षण चर्मरत्न और छत्ररत्न के द्वारा होता है । अन्तमें वह इन म्लेच्छ राजाओंपर केवल विजय ही प्राप्त नहीं करता, बलि उनके द्वारा हाथी और घोड़ों आदिके साथ ही अनेक कन्या-रत्नोंसे भी सत्कृत होता है । इस समय उसे यह महान गर्य होता है कि मुझ जैसा प्रतापी पृथिवीपर अन्य कोई भी नहीं है। इसी अभिमानसे प्रेरित होकर वह निज कीर्तिस्तम्भको स्थापित करनेके लिये ऋषभगिरिके निकट जाता है। किन्तु यहां समस्त पर्वतको ही नाना चक्रवर्तियोंके नामोसे व्याप्त देखकर वह तत्क्षण निर्मद हो जाता है। अन्तत: वह दण्ड रत्नसे एक नामको विसकर वहां अपना नाम लिख देता है। इस प्रकार वह छहों खण्डोंको जीतकर वापिस क्षेमा नगी में प्रविष्ट होता है। (८) आठवें उद्देशमें १९८ गाथायें हैं। यहां पूर्वविदेहका वर्णन करते हुए बतलाया है कि कच्छा देशके पूर्वमें क्रमशः चित्रकूट पर्वत, सुकच्छा देश, ग्रहवती नदी, महाकच्छा देश, पद्मकूट पर्वत, कच्छकावती देश, द्रहवती नदी, आवर्ता देश, नलिनकूट पर्वत, मंगलावर्ता देश, पंकवती नदी, पुष्कला देश, एकशैल पर्वत और महापुष्कलावती देश है । इसके आगे देवारण्य नामका वन है । उक्त सुकच्छा आदि देशोंकी राजधानियोंके नाम क्रमसे ये हैं- क्षेमपुरी, अरिष्टनगरी, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधि और पुण्डरीकिणी । महापुष्कलावती देशसे आगे पूर्वमें देवारण्य नामका वन है ।। ___ इसके आगे दक्षिणमें सीता नदीके दक्षिण तटपर दूसरा देवारण्य वन है । इसके आगे पश्चिम दिशामें जाकर क्रमसे निम्न देश, पर्वत और नदियां हैं - वत्सा देश, त्रिकूट पर्वत, सुवस्सा देश, तप्तजला नदी, महावत्सा देश, वैश्रवणकूट पर्वत, वत्सकावती देश, मत्तजला नदी, रम्या देश, अंजनगिरि पर्वत, सुरम्या देश, उन्मत्तजला नदी, रमणीया देश, आत्मांजन पर्वत और मंगलावती देश । इन देशोंकी राजधानियां क्रमश: ये हैंमुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुभा और रत्नसंचया नगरी । इन नगरियोंका वर्णन क्षेमापुरीके समान है । इन सब देशों, नदियों और पर्वतोंकी लम्बाई समान रूपसे १६५९२२० यो. मात्र है। समानताका कारण यह है कि इनमेंसे कच्छा-सुकच्छा आदि नील पर्वतकी वेदिकासे लेकर सीता नदीके तट तक तथा वत्सा-सुवत्सा आदि निषधपर्वतकी वेदिकासे लेकर सीता नदीके तट तक आये हुये हैं। अत एव विदेहके विस्तार से सीता नदीके विस्तारको कम करके शेषको आधा कर देनेपर इनकी लम्बाईका उपर्युक्त प्रमाण आ जाता है । जैसे- ३३६८४१५ - ५०० + २ = १६५९२३२६ । (९) नौवें उद्देशमै १९७ गाथायें हैं । यहां अपरविदेहका वर्णन करते हुए बतलाया है कि रत्नसंचयपुरके पश्चिममें एक वेदिका और उस वेदिकासे ५०० यो. जाकर सौमनस पर्वत है। यह पर्वत भद्रशाल, वनके मध्यसे गया है । निषध पर्वतके समीपमें उसकी उंचाई ४०० यो. और अवगाह १०० यो. है । विस्तार उसका ५०० यो. मात्र है। फिर इसी पर्वतकी उंचाई और अवगाह क्रमशः वृद्धिंगत होकर मंदर पर्वतके समीपमें ५०० और १२५ यो. हो गये हैं । इसकी लम्बाई ३०२०९,६. यो. है । सौमनस पर्वतसे ५३००० यो. पश्चिममें जाकर विद्युत्प्रभ नामका पर्वत है । इसकी उंचाई आदि सौमनस पर्वतके समान है । इसके पश्चिनमें ५०० यो. जाकर एक वेदिका है। उपर्युक्त वेदिकाके पश्चिममें पद्मा नामका देश है । यह गंगा-सिन्धु नदियों और विजयाध पर्वतके वारण ६ खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इसकी राजधानी अश्वपुरी है। इस पदमा क्षेत्रके आगे पश्चिममें क्रमशः Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय अद्धावती पर्वत, सुपड़ा देश, क्षारोदा नदी, महापद्मा देश, विकटावती पर्वत, पद्मकावती देश, सीतोदा नदी, शंखा देश, आशीविष पर्वत, नलिना देश, स्रोतोवाहिनी नदी, कुमुदा देश, सुखावह पर्वत और सरिता नामका देश है । मुपद्मा आदि उक्त ७ देशोही राजधानियोंके नाम क्रममः ये हैं-सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और विगतशोका । इसके पश्चिममें देवारण्य बन है । __इसके उत्तरमें सीतोदा नदीके उत्तर तटपर दूसरा भी देवारण्य है। उसके पूर्व में क्रमशः निम्न देश, पर्वत और नदियां हैं--- वप्रा देश, चन्द्र पर्वत, सुवप्रा देश, गम्भीरमालिनी नदी, महावमा देश, सूर (सूर्य) पर्वत, वप्रकावती देश, फेनमालिनी नदी, वल्गु देश, महानाग पर्वत, सुवल्गु देश, ऊर्मिमालिनी नदी, गन्धिला देश, देव पर्वत और गन्धमालिनी देश । इन देशोंकी राजधानियां क्रमसे ये हैं- विजयपुरी, वैजयन्ती जयन्ता, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या । इन सब नगरियों का वर्णन क्षेमा नगरीके ही समान है। इसके पूर्वमें एक वेदी और उसके आगे ५०० यो. जाकर गन्धमादन पर्वत है। इसके पूर्वमें ५३००० यो. जाकर माल्यवान् पर्वत है । इसके आगे पूर्व में ५०० यो. जाकर नील पर्वतके पासमें एक और वेदिका है। नदियों के किनारेपर स्थित २० वक्षार पर्वतोंके ऊपर जिनभवन हैं जहां देव व विद्याधर जिनपूजन करते हैं । (१०) दसवे उद्देशमें १०२ गाथायें हैं । इस उद्देशमें लवणसमुद्रका वर्णन है। यह समुद्र जंबूद्वीपको सब ओरसे घेरकर वलयाकारसे स्थित है । विस्तार इसका पृथिवीतलपर २ लाख योजन और मध्यमें १० हजार यो. है । गहराई एक हजार यो. है । इसके भीतर तटसे ९५ हजार योजन जाकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें क्रमशः रांजनके आकारमें ये चार महापाताल स्थित हैं- पाताल, वलयमुख ( वडवामुख ), कदम्बक और यूपकेसरी। इनका विस्तार मूलमें और ऊपर १० हजार योजन है। इनके मध्यविस्तार और उंचाईका प्रमाण १ लाख यो. है । इन पातालोंके नीचेके त्रिभाग (३३३३३} यो.) में वायु, मध्यम त्रिभागमें जल-वायु और ऊपरके त्रिभागमें केवल जल स्थित है । शुक्ल पक्षमें मध्यम त्रिभागके भीतर उत्पीड़न होनेपर उसका जलभाग ऊपर आ जाता है और वहां केवल वायु ही रह जाती है । इस प्रकारसे समुद्रमें क्रमश: इस पक्षमें जलवृद्धि होती है। कृष्ण पक्षमे इसके विपरीत उसी मध्यम त्रिभागमें उत्तरोत्तर जलकी दुद्धि होनेसे समद्रमें क्रमशः जलकी हानि होती है। इस क्रमसे पूर्णिमाके दिन लवण समुद्रकी जलशिखाकी उंचाई १६ हजार यो. और अमावस्याके दिन ११ हजार यो. रहती है। उसमें प्रतिदिन २२२२२ ( ३३३३३३ : १५ = ) यो. प्रमाण जलकी वृद्धि और हानि हुआ करती है। इसी प्रकार विदिशाओंमें ४ मध्यम पाताल और अन्तरदिशाओंमें १ हजार जघन्य पाताल भी हैं। जघन्य पाताल दिशा और विदिशागत पातालोंके मध्यमें १२५-१२५ हैं। दिशागत पातालोंकी अपेक्षा विदिशागत मध्यम पातालोंकी तथा इनकी अपेक्षा जघन्य पातालोंकी उंचाई और विस्तार आदि उनके दसवें भाग प्रमाण है । इस प्रकार सब पाताल १००८ हैं। लवण समुद्र में वेदिकासे ४२ हजार यो. जाकर वेलंधर देवांके ८ पर्वत है। ये पर्वत पूर्वादिक दिशाओं में स्थित पातालोंके दोनों ओर हैं । उनके नाम ये हैं- कौस्तुभ, कौस्तुभभास, उदक, उदकभास, शंख, महाशंख, उदक और उदवास । समुद्रकी वेलाको धारण करनेवाले नागकुमार देवोंकी संख्या १४२००० है। इनमें ७२ हजार देव बाह्य वेलाको, ४२ हजार देव अभ्यन्तर वेलाको और २८ हजार देव जलशिखाको धारण करते हैं। पातालोंके दोनों ओर तथा जलशिखाके ऊपर आकाशमें उक्त देवोंके १४२००० नगर स्थित हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जंबूदीवपण्णक्तिकी प्रस्तावना वेदिकासे १२ हजार यो. जाकर वायव्य दिशामें गौतम द्वीप है जो १२ हजार यो. ऊंचा और इतना ही विस्तीर्ण भी है। इसके अतिरिक्त यहां दिशाओं ४, विदिशाओंमें ४ और इनके अन्तरालमें ८, तथा हिमवान्, शिखरी और २ विजया इन पर्वतोंके दोनों ओर ८; इस प्रकार ये २४ अन्तरद्वीप हैं। इन द्वीपोंमें एक जंघावाले, पूंछवाले, सींगवाले एवं गूंगे इत्यादि विकृत आकृतिके धारक कुमानुप रहते हैं। इनमें एक जंघावाले कुमानुष गुफाओंमें रहकर मिट्टीका भोजन करते हैं तथा शेष कुमानुष पुष्प-फलभोजी होते हैं । इनके यहां उत्पन्न होने के कारणों को बतलाते हुए कहा गया है कि जो प्राणी मंदकषायी होते हैं, कायक्लेशसे धर्मफल को चाहनेवाले हैं, अज्ञानवश पंचामि तपको तपते हैं, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तपश्चरग करते हैं, अभिमानमें चूर होकर साधुओंका अपमान करते हैं, गुरुके पासमें आलोचना नहीं करते हैं, मुनिसंघको छोडकर एकाकी विहार करते हैं, सब जनों के साथ कलह करते हैं, जिनलिंगको धारण करके पापाचरण करते हैं, सिद्धान्तको छोड़कर ज्योतिष-मंत्रादिकों में विश्वास करते हैं, संयत वेष धन-धान्यादिको ग्रहण करते हुए कन्याविवाहादिका अनुमोदन भी करते हैं, मौनसे रहित होकर भोजन करते हैं, तथा सम्यक्त्वकी विराधना करते हैं, वे सब मरकर इन कुमानुोंमें उत्पन्न होते हैं। इनमें जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे मरकर यहांसे सौधर्मादिक स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं तथा शेष भवनत्रिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं। (११) इस उद्देशमें ३६५ गाथायें हैं। यहां द्वीप-सागर, अधोलोक तथा ऊर्चलोक वर्णित हैं। द्वीप-सागरोंमें धातकीखण्ड द्वीपका वर्णन करते हये बतलाया है कि ४ लाख योजन प्रमाण विस्तारवाला यह द्वीप लवण समुद्रको वेष्टित करके स्थित है। इसके दक्षिण और उत्तर भागमें २ इष्वाकार पर्वत हैं जो लवणसे कालोद समुद्र तक आयत हैं। विस्तार उनका एक एक हजार (१०००) यो. है। इनसे धातकीखण्डके दो विभाग हो गये हैं। प्रत्येक विभागमें जंबूद्वीपके समान भरतादिक ७ क्षेत्र और हिमवान् आदि ६ कुलपर्वत स्थित हैं। मध्यमें एक एक मेरु पर्वत है। इनमें हिमवान् पर्वतका समविस्तार २१०५३५. यो. है। इससे चौगुणा (८४२११. ) विस्तार महाहिमवान्का और उससे भी चौगुणा ( ३३६८४११. ) निषध पर्वतका है । आगे नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंका विस्तार क्रमसे निषध, महाहिमवान् और हिमवान्के समान है। यह धातकीखण्डके एक ओरका पर्वतरुद्ध क्षेत्र हुआ। इतना ही पर्वतरुद्ध क्षेत्र उसके दूसरी ओर भी है। इसमें दो इष्वाकार पर्वतोंका क्षेत्र ( २००० यो.) मिला देनेपर सब पर्वतरुद्ध क्षेत्र इतना होता ह- २१०५ ५.४ ३(१ + ४ + १६ + १६ + ४ + १) ४२/+ १००० + १००० = १७८८४२१२ यो. होता है। धातकीखण्ड द्वीपकी आदिम (१५८११३९), मध्यम (२८४६०५०) और बाह्य (४११०९६१) परिधियों से उक्त पर्वतरुद्ध क्षेत्रको कम कर देनेपर शेष समस्त भरतादिक विजयों का क्षेत्र होता है । इसमें २१२ (भ. १ + हैम. ४ + हरि १६ + विदेह ६४ + र. १६ + हैर. ४ + ऐ. १)x २ = २१२ का भाग देकर लब्धको १, ४ व १६ आदिसे गुणित करनेपर क्रमसे भरत, हैमवत व हरिवर्प आदि क्षेत्रोंका विस्तार होता है । जैसे- ३(१५८ ११३९ - १७८८४२,२२) २१२ १४ १ = ६६१४ १२६ भरतका अभ्यन्तर विस्तार। ई ( २८४६०५० – १७८८४२ ) २१२ १४१ = १२५८१३२६. भरतका मध्यम विस्तार । ३(४११०९६१ - १७८८४२ ) २१२१४ १ = १८५४७३३ भरतका बाह्य विस्तार । इन Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय क्षेत्रोंका आकार गाड़ीके पहिये में स्थित आरोंके मध्यवर्ती क्षेत्रके समान है । आगे धातकीखण्ड द्वीपको चारों ओरसे वेष्टित करके कालोद समुद्र स्थित है। इसका विस्तार ८ लाख यो. है । लवण समुद्र के समान अन्तरद्वीप यहां पर भी हैं जिनमें कुमानुष रहते हैं। इसके आगे १६ लाख यो. विस्तृत पुष्करवर द्वीप है। इसके बीचोंबीच वलयाकारसे मानुषोत्तर पर्वत स्थित है, जिससे कि इस द्वीपके २ भाग हो गये हैं। मानुषोत्तर पर्वतके इस ओर पुष्करार्ध द्वीपमें स्थित भरतादिक क्षेत्रों और हिमवान् आदि पर्वतों की रचना धातकीखण्ड द्वीपके समान है। यहां पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण ३५५६८४ यो. है । पुष्करार्धंकी आदिम परिधि ९१७०६०५ यो, मध्यम परिधि ११७००४२७ यो. और बाह्य ( मनुष्यक्षेत्रकी ) परिधि १४२३०२४९ यो. है । भरतादिक क्षेत्रोंके विस्तारको निकालने का जो नियम घातकीखण्ड द्वीपमें बतलाया गया है वही नियम यहां भी लागू होता है । जंबूद्वीपसे लेकर पुष्करार्ध पर्यन्त यह सब क्षेत्र अढ़ाई द्वीप या मनुष्यक्षेत्र के नामसे प्रसिद्ध है । मानुषोत्तर पर्वतसे आगे मनुष्य नहीं पाये जाते । पुष्करवर द्वीपके आगे पुष्करवर समुद्र, वारुणीवर द्वीप, - वारुणीवर समुद्र, क्षीवर द्वीप, श्रीवर समुद्र, घृतवर द्वीप और घृतवर समुद्र इत्यादि क्रमसे असंख्यात द्वीप और समुद्र स्थित हैं । अन्तिम द्वीपका और समुद्रका भी नाम स्वयम्भूरमण है । लवण और कालोद समुद्रोंको छोड़कर शेष सब समुद्रोंके नाम द्वीपोंके ही समान है। इन ग्रन्थोंमें आदिके और अन्तके १६-१६ द्वीपों और समुद्र के नाम पाये जाते हैं। पुष्करवर और स्वयम्भूरमण द्वीपोंके मध्य में जो असंख्यात द्वीप- समुद्र स्थित हैं उनमें केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्येच जीव ही उत्पन्न होते हैं। इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी उंचाई २ हजार धनुष मात्र होती है । युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले ये सच मंदकषायी व फलभोजी होते हैं तथा मरकर नियमसे देवलोकको जाते हैं। लवणोद, कालोद और स्वयम्भूरमण इन तीन समुद्रोंमें ही मगर - मत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते हैं; शेष समुद्रोंमें जलचर जीव नहीं हैं। आगे चलकर यहां गाथा ९६ से गाथा १०४ तक जो ग्रन्थीका वर्णन किया गया है वह किस आधारसे किया गया है तथा उसका अभिप्राय क्या है, यह विचारणीय है । १२१ आगे 'कर्मभूमिज मनुष्य एवं मत्स्यादि तिर्यच जीव पापसे अधोलोकमें और पुण्यसे ऊर्ध्वलोक में जाते हैं ' यह प्रसंग प्रस्तुत करके अधोलोकका आकार व विस्तार आदिका निर्देश करते हुए वहां पर स्थित रत्नप्रभादिक ७ पृथिवियोंका उल्लेख किया गया है। रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग, पंकभाग और अब्बहुलभाग इस प्रकार ३ भाग हैं। इनमेंसे पंकभागमें राक्षस जातिके व्यन्तरों और असुरकुमार जातिके भवनवासियों के आवास हैं, शेष व्यन्तरों और भवनवासी देवोंके आवास खरभागमें हैं। यहां संक्षेपमें इन देवोंके भवनोंकी संख्या, आयुप्रमाण, शरीरोत्सेध और अवधिविषयकी भी चर्चा की गयी है। तत्पश्चात् नारकियों के बिलोंकी संख्या और ४९ प्रस्तारों का नामोल्लेख करके वहां प्राप्त होनेवाले भयानक दुखोका वर्णन किया गया है। ऊर्ध्वलोकका वर्णन करते हुए बतलाया है कि पृथिवीतलसे ९९ हजार यो. ऊपर जाकर मेरा पर्वतकी चूलिकाके ऊपर चालाय मात्र के अन्तरसे ऋतु विमान स्थित है। इसका विस्तार मनुष्यलोकके समान ४५ लाख यो. मात्र है । इसके ऊपर असंख्यात करोड़ योजनोंके अन्तरसे क्रमशः विमल व चन्द्र आदि प्रभविमान पर्यन्त ३१ इन्द्रक पटल हैं जो सौधर्म कल्पके अन्तर्गत हैं। इनमें प्रथम ऋतु इन्द्रकके आश्रित पूर्वादिक दिशाओं ६२-६२ श्रेणिबद्ध विमान हैं। आगे उत्तरोत्तर विमलादिक पटलों में १-१ श्रेणिबद्ध कम होता गया है । श्रेणिचद्धों के बीच प्रकीर्णक विमान हैं । इनमें उत्तर दिशाके सब श्रेणिबद्धों तथा वायव्य व ईशान कोकं प्रकीर्शकों का स्वामी उत्तर ( ईशान ) इन्द्र और शेष सब विमानोंका स्वामी दक्षिण ( सौधर्म ) इन्द्र Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना होता है । अन्तिम प्रभ इन्द्रकके आश्रित जो २३-२३ श्रेणियोंकी ४ श्रेणियां हैं उनमेंसे दक्षिण दिशागत श्रेणिके १८वें श्रेणिवद्धमें सौधर्म इन्द्रका तथा उत्तर दिशागत श्रेणिके १८वें श्रेणिबद्धर्मे ईशान इन्द्रका निवास है । यहां वहतसी देवांगनाओं तथा अन्य सामानिक आदि विशाल परिवार के साथ रहते हुए ये इन्द्र अनुपम सुखका उपभोग करते हैं । ऊपर सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलसे लेकर शतार-सहस्रार युगल तक पांच कल्पयुगर्लोमें क्रमसे, ७, ४, २,१ और १ पटल हैं । आगे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन ४ कल्पोंमें ६ पटल हैं। यहां तक 'कल्प' संज्ञा है । आगे इन्द्र सामानिक आदिकी कल्पनासे रहित होने के कारण अवेयक आदि कल्पातीत गिने जाते हैं। ग्रैवेयकोंमें नीचे, मध्यमें और ऊपर क्रमसे सुदर्शन, अमोघ व सुप्रबद्ध आदि ३-३ पटल हैं। इनके ऊपर ९ अनुदिशोंका एक आदित्य पटल तथा अनुत्तर विमानोंका एक सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम पटल है। यहां संक्षेपमें इन देवोंकी आयु और शरीरोत्सेव आदिका भी कुछ वर्णन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें जो कल्पोंका वर्णन किया गया है वह क्रम रहित, असम्बद्ध और कुछ पुनरुक्त भी प्रतीत होता है । इसमें जहां किसी अनावश्यक विषयका अनेक वार वर्णन किया गया है वहां आवश्यक विषयकी चर्चा भी नहीं की गयी है। उदाहरणार्थ गाथा २११ आदिमें सौधर्म कल्पक ३१ पटल करके और सौधर्म इन्दके अवस्थानको बतला करके भी आगे फिरसे गाथा २२५ आदिके द्वारा प्रभ विमानका उल्लेख करके सौधर्म इन्द्रके अवस्थान व सुधर्मा सभा आदिकी चर्चा की गयी है । इसके विपरीत ऋतु आदि इन्द्रकोंसे जो ६२, ६१ आदि ( १-१ कम ) श्रेणिवद्ध विमानोंकी विमानश्रेणियां निकली हैं उसका निर्देश करना आवश्यक था, फिर भी उसका निर्देश यहां नहीं किया गया है। इसी प्रकार जैसे २१८ वीं गाथा ३१ पटलोका सम्बन्ध सौधर्म कल्पके साथ बतलाया है उसी प्रकार शेष कल्पोंसे सम्बद्ध पटलोंकी भी पृथक् पृथक् संख्याका उल्लेख करना आवश्यक था, जो नहीं किया गया है । यही नहीं, बल्कि शेष पटलोंका जो यहां (गा. ३२८ आदि) नामोल्लेख किया है वह भी कुछ दुरूह ही है। कल्प १२ हैं या १६ इस प्रकारकी संख्याका उल्लेख भी यहां देखनेमें नहीं आता । यद्यपि गाथा ३४१ में सौधर्मसे लेकर अच्युत पर्यन्त कल्प जानना चाहिये, ऐसा निर्देश किया है। फिर भी वहां न एक निश्चित संख्या है और न समस्त नामोंका निर्देश भी। इसी प्रकार यहां सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं परिवार देवोंका वर्णन करते हुए विना किसी प्रकारके सम्बन्धकी सूचनाके ही गाथा २४४-२४५ आदिमें संख्यात व असंख्यात योजन विस्ताखाले विमानोंका उल्लेख किया गया है। विचार करनेपर इस असंगतिका एक कारण कल्यों विषयक मतभेद भी प्रतीत होता है। तिलोयपण्णत्ती ( महा. ८, गा. ११५, १२७-२८, १४८ और १७८ आदि) में १२ और १६ कल्पोंकी मान्यताका उल्लेख स्पष्टतापूर्वक किया गया है। इतना ही नहीं, बल्कि वहांपर १२ कल्योंकी मान्यताको प्राथमिकता भी दी गई है। तदनुसार ही वहां (म. ८, गा. १२९-१३४, १३७-१४६ ) कल्पोंकी सीमाका निर्धारण करते हुए किस कल्पके अन्तर्गत कितने इन्द्रक, अगिवद्ध और प्रकीर्णक विमान है; यह भी स्पष्ट रतला दिया है। इसके अतिरिक्त समस्त विमान संख्याका भी उल्लेख वहांपर (८, १४९-१५१) प्रथमतः १२ कल्पोंकी मान्यतानुसार ही किया गया है । यह संख्याका क्रम तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( ४, २२) में भी ठीक इसी प्रकारसे पाया जाता है। आगे जाकर वहां श्रेणिवद्ध और प्रकीर्णक विमानोंकी अलग अलग संख्या १ आनतं प्राणताख्यं च पुष्पकं चानते त्रयम् । अच्युते सानुकारं स्यादारुणं चाच्युतं त्रयम् ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय १२३ और उसके निकालनेकी रीति आदिका कथन भी प्रस्तुत मान्यताके ही अनुसार विस्तारसे पाया जाता है। तत्पश्चात् वहां 'जे सोलस कप्पाइं केई इच्छंति ताण उवएसे' (८-१७८ ) इत्यादि कहकर विमानोंकी समस्त संख्याका उल्लेख १६ कल्पोंकी मान्यताके अनुसार भी किया गया है (८, १७८-१८५)। इसके मात् फिर भी वहां संख्यात व असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान, उनका बाहल्य, वर्णभेद और आधारविशेष आदिका समस्त कथन १२ कल्पोकी मान्यताके अनुसार ही किया गया है। इससे निश्चित होता है कि तिलोयपणत्तिकारको यही मान्यता इष्ट रही है। इसके विपरीत सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और- हरिवंशपुराग आदिके रचयिताओने १६ कल्पोंकी मान्यताको अभीष्ट मानकर तदनुसार ही अपने अपने ग्रन्थों में इन कल्पोका वर्णन किया है। यहां तत्त्वार्थवार्तिक १४, १९, ८) में एक विशेषता और भी देखनेमें आती है, वह है १४ इन्द्रोंकी मान्यता । यही मान्यता महाकलंक देवको इष्ट भी रही है । इसीलिये उन्होंने "त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ताः, द्वादश इष्यन्ते..." इत्यादि उल्लेख भी कर दिया है। इस मान्यताका अनुसरण श्री श्रुतसागर सूरिने हमी अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमें किया है। किन्तु यह अभिमत किस लोकानुयोग ग्रन्थमें रहा है, यह अभी देखने में नहीं आया है । उपर्युक्त मान्यताके अनुसार वे १४ इन्द्र ये हैं---- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, प्रयोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आरण और अच्युत । तिलोयपण्णत्ती ( म. ५, गाथा ८४-९७ ) में अष्टाहिक पूजामहोत्सवके निमित्त नन्दीश्वर द्वीपको जानेवाले इन्द्रोंका निर्देश करते हुए भी यद्यपि १४ इन्द्रोंका ही नामोल्लेख किया है, किन्तु ये १४ इन्द्र उपर्युक्त १४ इन्द्रोंसे भिन्न हैं--- यहां आनतेन्द्र और प्राणतेन्द्रका तो नामोल्लेख है, किन्तु लान्तवेन्द्र और कापिष्ठन्द्रका नामनिर्देश नहीं है। यह भी सम्भव है कि वहां इन दो इन्द्रोंके नामोंका उल्लेख करनेवाली गाथायें प्रतियोंमें छूट गयी हों। प्रकत जंबूद्वीपपण्णत्तीमें भी एक ऐसा ही प्रकरण है। यहां ( ५, ९३-१०८) अष्टाहिक पर्वमें पूजाके निमित्त महा विभूतिके साथ मन्दर पर्वतस्थ जिनभवनोंमें आते हुए इन्द्रोंका जो वर्णन किया है उसमें २६ इन्द्रोंके नामोंका निर्देश है जब कि उनकी मान्यता १२ या १४ संख्या तक ही सीमित है । ऋतु इन्द्रक आदिसे कितने श्रेणिबद्ध विमानोंकी श्रणियां पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित हैं , इस विषयमें दो मतभेद उपलब्ध होते हैं- एक ६३, ६२, ६१ आदिका तथा दूसरा ६२, ६१, ६० आदि का (देखिये ति, प. गाथा ८, ८३-८५)। हरिवंशपुराणमें ६३ आदि श्रेणिबद्धोंकी मान्यताको स्वीकार किया गया है (देखिये श्लोक ६,६३)। इसके विपरीत तत्त्वार्थवार्तिक (पृ. २२५) आदिमे ६२ आदिकी मान्यताका अनुसरण किया गया है। इन विविध मान्यताओंके कारण भी यदि ग्रन्थकर्ताने प्रकृत कल्पोंका वर्णन स्पष्टतासे न किया हो तो यह असम्भव नहीं कहा जा सकता है। (१२) बारहवें उद्देशमें ११३ गाथायें हैं। यहां ज्योतिष पटलके वर्णनकी प्रतिज्ञा करके सर्वप्रथम यह बतलाया है कि ८८० यो. ऊपर जाकर चन्द्रका विमान है। चन्द्रविमानोंका विस्तार व आयाम ३ गम्यति और १३०० धनुषसे कुछ अधिक है। इन विमानोंको प्रतिदिन १६ हजार आभियोग्य जातिके देव खींचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे सिंह, गज, वृषभ और घोड़ेके आकारमें ४-४ हजार रहते है। इसी प्रकार १६ हजार आभियोग्य देव सूर्यविमानके, ८ हजार ग्रहगणोंके, ४ हजार नक्षत्रोंके और २ हजार ताराओंके वाहक हैं। जंबूद्वीपमें २, लवणसमुद्रमें ४, धातकीखण्डमें १२, कालोदधिमें ४२ और पुष्कराध द्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तर पर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र है। यहां आदिका प्रमाण ४४, उत्तर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना (चय ) का ४ और गच्छका प्रमाण ८ है। एक कम गच्छके अर्ध भागको चयसे गुणित करके प्राप्त राशिम आदिको मिला दे और फिर उसे गच्छसे गुणित करे । इस नियमके अनुसार सर्वघनका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। जैसे- ४-१४४ + १४४ ४ ८ - १२६४ । यही क्रम शेष द्वीप-समुद्रोंो भी चन्द्रबिम्बों और सूर्यविम्बोंकी संख्या लाने में अभीष्ट है । विशेषता केवल इतनी है कि आदि (१४४ ) और गच्छ (८) के प्रमाणको उत्तरोत्तर दुगुणा करते जाना चाहिये। चयका प्रमाण सर्वत्र ४ ही रहता है। ___इसका अभिप्राय यह है कि मानुषोत्तर पर्वतके आगके द्वीप-समुद्रोंमें जिसका जितना विस्तारप्रमाण है उतने विस्तारमें १-१ लाख योजन जाकर ज्योतिषियोंका १-१ वलय है। इनमेंसे प्रथम वलयमें स्थित चन्द्रोंकी संख्या पूर्व द्वीप या समुद्र के प्रथम वलयसे दुगुणी होती है। आगे शेप वलयों में उत्तरोत्तर ४-४ चन्द्र अधिक होते जाते हैं । उदाहरणार्थ पुष्करवर समुद्रका विस्तार ३२ लाख यो. है, अत एव यहां वलयोंको संख्या ३२ है। इनमेंसे प्रथम वलयमै बाह्य पुष्कराध द्वीपके प्रथम वलयकी अपेक्षा दुगुणे (१४४ x २ = २८८) चन्द्र स्थित हैं। यही यहां आदिका प्रमाण है। गच्छ यहां ३२ है। अत एच पूर्वोक्त नियमके अनुसार क्रिया करनेपर यहांकी समस्त चन्द्रसंख्या इस प्रकार प्राप्त होती है ४४ + २८८४३२ = ११२००.. इसी प्रकरणमें २० वीं गाथा करणसूत्रके रूपमें आयी है। किन्तु पूर्व सम्बन्ध आदिकी सूचना न होनेसे उसका अभिप्राय ज्ञात नहीं हो सका है । इसके आगे ११ गाथाओंमें (२२-३२ ) पुष्करवर समुद्रसे लेकर नन्दीश्वर द्वीप तक प्रथम वलयस्थ चन्द्रोंकी संख्याका निर्देश किया गया है। परन्तु इसका सामान्य परिशान जब ‘णवरि विसेसो जणि आदिमगच्छा य दुगुगदुगुणा दु।' इस पूर्व गाथा (१९) के द्वारा ही करा दिया गया था तब फिर इन गाथाओंके रचनेकी क्यों आवश्यकता हुई, यह विचारणीय है। यही नहीं, किन्तु इसमें एक भूल भी हो गयी प्रतीत होती है। वह यह कि तिलोयपणत्ती (पृ. ७६१-६२), धवला (पु. ४, पृ. १५१) और त्रिलोकसार (३५०,३६०) में पुष्करवर समुद्रके प्रथम वलयमें २८८ तथा आगेके द्वीप समुद्रोंमें स्थित प्रथम वलयोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी चन्द्रसंख्या निर्दिष्ट की गयी है। किन्तु यहां वह संख्या १४४ और आगे उत्तरोत्तर 'इससे दुगुणी बतलायी है। यदि यह किसी भूलका परि. णाम नहीं है तो पूर्वापरविरुद्ध तो है ही। कारण कि पूर्वमें गा. १५-१९ द्वारा यही चन्द्रसंख्या बाह्य पुष्करार्धमें १४४ और आगेके द्वीप-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी दुगुणी बतलायी जा चुकी है। तत्त्वार्थवार्तिक और हरिवंशपुराणमें ज्योतिषी देवोंकी यह संख्या कुछ भिन्न रूपमें पायी जाती है। यथा-तत्त्वार्थवार्तिकमें अभ्यन्तर पुष्करार्धके समान बाह्य पुष्करा द्वीपमें भी सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या ७२ ही निर्दिछ की गयी है। आगे पुष्करवर समुद्र में उक्त सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषियोंकी वह संख्या इससे चौगुणी और फिर प-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी ही बतलायी गई है। यहां वलयक्रमानुसार उन ज्योतिषियोंकी संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। जैसे- बाह्ये पुष्कराद्धे च ज्योतिषामियमेव संख्या। ततश्चतुर्गुणा पुष्करवरोदे। ततः परा द्विगुणा द्विगुणा ज्योतिषां संख्या अवसेया (त. वा. . २२०)। परन्तु हरिवंशपुराणमें तत्त्वार्थवार्तिकके समान दोनों पुष्कराधों में ७२-७२ सूर्य-चन्द्रोंका उल्लेख करके भी तिलोयपण्यत्ती आदिके समान बाह्य पुष्करार्धमें मानुषोत्तर पर्वतसे ५० हजार योजन आगे जाकर चक्रवाल (वलय) स्वरूपसे सूर्यचन्द्रादिकोंके अवस्थानका संकेत किया गया है। उसके आगे १-१ लाख योजन जाकर उनके उत्तरोत्तर ४-४ अधिक होते जानेका भी उल्लेख वहां पाया जाता है। तत्पश्चात वहां यह बतलाया है कि धातकीखण्ड द्वीप आदिमें जो सूर्य-चन्द्रादिकी निश्चित संख्या है उसे तिगुणी करके विगत द्वीप-समुद्रों की संख्याको मिलानेसे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय १२५ भागे आगेके द्वीप-समुद्रोंके सूर्य-चन्द्रादिकोंकी संख्या होती है। उदाहरणार्थ धातकीखण्डमें १२ सूर्यचन्द्र हैं। अतः उससे आगेके कालोद समुद्रमें उनकी संख्या इस प्रकार होगी- १२४३३६; इसमें विगत अं. बी. और लवण स. की ६ संख्याको मिला देनेपर वह ३६+६=४२ हो जाती है । इसे तिगुणी करके विगत द्वीप-समुद्रोंकी संख्या मिला देनेपर वह आगे पुष्कराध द्वीपके सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या हो जाती है४२४३+ (१२+४+२) = १४४ ( उभय पुष्करार्धगत सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या ७२+७२ ) । परन्तु वलय स्वरूपसे इस संख्याकी व्यवस्था किस प्रकार होगी, इसका कुछ भी स्पष्टीकरण वहांपर नहीं किया गया है (इ.पु.६,२६-३३) । श्रुतसागर सूरिने अपनी तत्त्वार्थवत्तिमै मानुनोत्तर पर्वतके पूर्व में ज्योतिषियोंकी निश्चित संख्या बतला करके उसके आगे बाह्य पुष्कराध द्वीप और पुष्करवर समुद्र में उक्त संख्याको परमागमसे जान लेनेकी प्रेरणा की है। यथा- मानुषोत्तराद् बहिः पुष्कराद्धे पुष्करसमुद्रे च सूर्यादीनां संख्या परमागमाद् बेदितव्या (त. पू., पृ. १६०-६१)। इसके आगे प्रस्तत उद्देशमै गा.३३-९१ तक उक्त चन्द्र-सर्यादिकोंकी संख्याके लाने के क्रमका वर्णन है । परन्तु वहां कोई उदाहरण या अंकविन्यास आदिका संकेत नहीं है । इसका सुव्यवस्थित वर्णन श्री बीरसेनाचार्यने अपनी धवला टीका (देखिये पर्ख. पु. ४, पृ. १५०-१६०) में किया है। यहांका बहुतसा गद्यभाग (पृ. १५२-५८) तिलोयपण्णत्ती पृ. ७६४ से ७६६ में ज्योंका त्यों पाया जाता है। अन्तिम पंक्तियोंमें जो थोडासा शब्दभेद दोनों जगह पाया जाता है वह इस प्रकार है एसा तप्पाओग्गः ..... पमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारी जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयमुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छसाहणहमम्हेहि परूविदा प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भवलविज़ुभितगुणप्रतिपन्नप्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशवत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एस्थ इदमित्थमेवेत्ति...... (पु. ४, पृ. १५७ )। एसा तप्पाओग्ग..... पमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरियउवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपणत्तिसुत्ताणुसारिणी, जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयमुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छसाधणहमेसा परूवणा पलविदा । तदो ण एत्थ इदमिस्थमेवेत्ति ....... (ति प. पृ. ७६६ )। तत्पश्चात् यहां ज्योतिषी देवोंके अवस्थान, आयु और विमानतलविस्तारका कुछ वर्णन करके यह बतलाया है कि ज्योतिषी देवोंकी जो जो संख्यायें जंबूद्वीपमें कही गयी हैं वे स्थिर ताराओंको छोड़कर दुगुणी दुगुणी जानना चाहिये (गा. १०४ ) । परन्तु ये संख्यायें दुगुणी दुगुणी कहां समझी जावें, इसका कुछ भी उस्लेख वहां नहीं है। आगे जंबूद्वीपमें स्थिर ताराओंकी ३६ संख्याका उल्लेख करके गा. १०६-८ में फिरसे भी जंबूद्वीपादिमें चन्द्रादिकोंकी उक्त संख्याका उल्लेख किया गया है। इससे हम यदि इस निष्कर्षपर पहुंचें कि प्रकृत ग्रन्थके कर्ताने इसमें न पुनरुक्तिका ध्यान रक्खा है और न पूर्वापर क्रमिक सम्बन्धका भी, तो यह अनुचित न होगा । अर्थबोध करानेके लिये आवश्यक शब्दोंकी जैसी सुसम्बद्ध रचना होनी चाहिये थी, उसे हम यहां नहीं पाते हैं। प्रकृत उद्देशमें ही जहां सबसे पहिले ज्योतिषी देवोंके भेद और उनके निवासस्थानादिका कथन किया जाना चाहिये था वहां उसका कुछ भी वर्णन न करके सबसे पहिले ८०० यो. ऊपर चन्द्रका अवस्थान बतलाया गया है। यह परम्परागत वर्णनशैलीके प्रतिकल है। यहां ज्योतिष पटलका वर्णन करने के लिये एक स्वतन्त्र उद्देशकी रचना करके भी ज्योतिषी देवोंके भेद, उनका पारिवारिक सम्बन्ध, उनके संचारका क्रम और नक्षत्रोंके नाम, इत्यादि उल्लेखनीय विषयों के सम्बन्धमें कुछ भी प्रकाश न डालकर एक मात्र चन्द्रोंकी संख्यामें ही उद्देशका अधिकांश भाग समाप्त कर देना कुछ आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना यहां ज्योतिषियंकि अवस्थानके कथनमें जो ९वीं गाथा आयी है वह सर्वार्थसिद्धि ( ४, १२ ) तथा तत्त्वार्थवार्तिक ( ४, १२, १०) में उद्धृत एक प्राचीन गाथा है । कुछ शब्दपरिवर्तनके साथ उक्त गाथा त्रिलोकसार ( ३३२ ) मैं उपलब्ध होती है। इसके आगे जो यहां २ गाथायें (९५-९६ ) आयुकी प्ररूपणा करनेवाली हैं वे मूलाचार ( १२, ८१-८२ ) और तिलोयपण्णत्ती ( ७,६१४-१५ ) में उपलब्ध होती हैं और सम्भवतः वहींसे यहां ली गयी हैं । १२६ I १३. तेरहवें उद्देशमें १७६ गाथायें हैं । सर्वप्रथम यहां कालके व्यवहार और परमार्थरूप दो भेदों का उल्लेख करके तत्पश्चात् समय व आवलिका आदि अचलात्म पर्यन्त व्यवहार कालके भेदोका निर्देश किया गया है । आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसन्नासन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुलके भेदसे ३-३ प्रकारका है । ५०० उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है । परमाणु व अवसन्नासन्न आदिके क्रमसे जो अंगुल निष्पन्न होता है वह सूच्यंगुल कहलाता है । इसके प्रतरको प्रतरांगुल और घनको वनांगुल कहते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जिस जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं. उनके अंगुलको आत्मांगुल कहा जाता है इनमें उत्सेधांगुलसे नर-नारक आदि जीवोंके शरीरकी उंचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । कलश, झारी, दण्ड, धनुष, बाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण आत्मांगुलकी अपेक्षा निर्दिष्ट होता है। प्रमाणांगुलके द्वारा दीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत और जिन भवन आदिके विस्तारादिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है । 1 । छह अंगुली का पाद, २ पादका वितस्ति, २ वितस्तिका हाथ, २ हार्थोका किष्कु, २ किष्कुओंका दण्ड या धनुष, २००० धनुषका कोस ( गव्यूति ) और ४ कोसका योजन होता है। एक प्रमाणयोजन विस्तृत और इतने ही गहरे गड्ढेको पल्य कहा जाता है । इसे एक दिनसे लेकर सात दिन तकके मैढ़के ऐसे रोमखण्डोंसे, जिनका कि दूसरा खण्ड न हो सके, सघन भरकर १००-१०० वर्ष में १-१ बालाग्रके निकालने में जितना काल व्यतीत होता है उतने कालको व्यवहारपल्योपम काल कहा जाता है । इसके प्रत्येक रोमखण्डको असंख्यात करोड़ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करके एक एक समयमे १-१ रोमखण्डके निकालने पर जितने कालमें वह रिक्त होता है उतना एक उद्धार पल्योपम होता है । १० कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योंका एक उद्धार सागरोम होता है । समस्त द्वीप समुद्रों की संख्या अढ़ाई उद्धार सागरोपमांके रोमखण्डों के बराबर है । उद्धार पत्रके रोमखण्डोंको १०० वर्षोंके समयोंसे खण्डित करके १-१ समयमै १-१ रोमखण्ड के निकालनेपर जितने कालमें वह रिक्त होता है उतने कालको अद्धा पल्योपम कहा जाता है । तिलोयपण्णत्ती ( १-१२९ ) और हरिवंश - पुराण ( ७-५३ ) में इन रोमखण्डों को भी असंख्यात करोड़ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करनेका उल्लेख पाया जाता है । उपर्युक्त १० कोड़ाकोड़ी अद्धा पल्यों का एक अद्धा सागरोपम होता है । १० कोड़ाकोड़ि अद्धा सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी और उतना ही एक उत्सर्पिणी काल होता है । इस अद्धा पल्यके द्वारा चतुर्गतिके जीवोंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति, और कायस्थितिका प्रमाण जाना जाता है । इसके पश्चात् यहां सर्वज्ञके साधनार्थ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और अविरूद्ध आगम प्रमाणका निर्देश करते हुए धूमानुमानसे अनिका उदाहरण देकर (गा. १३-४५) यह बतलाया है कि जो सूक्ष्म, अन्तरित और दूरस्थ पदार्थोंको ज्ञानके द्वारा जानता है वह सर्वज्ञ है । इसके द्वारा “ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ " इस आप्तमीमांसागत कारिकाको लक्ष्यमें रखकर ग्रन्थकारने सर्वज्ञको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है । तत्पश्चात् वहां यह बतलाया है कि जिसके राग, द्वेष और Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय १२७ मोह ये तीन दोष नहीं हैं वह असत्य भाषण नहीं करता है; इसीलिये उसका वचन प्रमाण है । वह प्रमाण दो प्रकारका है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी सकल और विकलके भेदसे दो प्रकारका है । सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान और विकल प्रत्यक्ष अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वाधि तीन भेद अवधिज्ञानके तथा ऋजुमति मन:पर्यय और त्रिपुलमति मन:पर्यय ये दो भेद मन:पर्ययज्ञानके हैं । आगे परोक्ष भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोका निर्देश करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाका स्वरूप उदाहरण देकर इस प्रकार बतलाया है- 'देवदत्त' इस प्रकार सुनकर विचार रहित जो सामान्य ज्ञान होता है वह अवग्रह है । हरि, हर और हिरण्यगर्भ इनके मध्य देव कौन है, इस प्रकारकी बुद्धिका नाम ईहाज्ञान है। जो कर्मकलपतासे रहित है वह देव है, इस प्रकारकी बुद्धिको अवाय कहा जाता है। राग-द्वेष रहित सर्वशका कभी विस्मरण न होना, यह धारणाज्ञान कहलाता है । अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रहके लक्षण बतलाया है कि इन्द्रिय और नोइन्द्रियके द्वारा दूरसे होनेवाले अर्थग्रहणको अर्थावग्रह तथा स्पर्शपूर्वक चक्षुके विना शेष चार इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध एवं शब्द के ज्ञानको व्यंजनावग्रह कहते हैं । मतिपूर्वक जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे- धूमको देखकर अमिका ज्ञान अथवा नदीपूरको देखकर उपरिम वृष्टिका ज्ञान | 1 तत्पश्चात् क्षुधा तृषादिसे रहित देवका कीर्तन करते हुए यहां अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवपरिगृहीत ८ आठ मंगल द्रव्यों, ८ प्रतिहार्यों और ९ केवललब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शीलों और ८४ हजार गुणों (देखिये पृ. २४९ का विशेषार्थ ) का भी निर्देश मात्र किया है । अन्तर्मे प्रस्तुत जंबूदीवपण्णत्तीका पराम्परागत सम्बन्ध अरहन्त परमेष्ठी से बतलाते हुए यह निर्देश किया है कि जिनमुखोद्गत परमागमके उपदेशक श्री विजय गुरु विख्यात हैं। उनके पास में जिनागमको सुनकर कुछ उद्देशोंमें यहां मैंने मनुष्य क्षेत्रके अन्तर्गत ४ इष्वाकार, ५ मंदर शैल, ५ शाल्मलि वृक्ष, ५ जंबू वृक्ष, २० यमक पर्वत, २० नाभिगिरि, २० देवारण्य, ३० भोगभूमियां, ३० कुलपर्वत, ४० दिग्गज पर्वत, ६० विभंग नदियां, ७० महानदियां, ३० पद्मद्रहादि, १०० वचार पर्वत, १७० वैताढ्य पर्वत, १७० ऋषभगिरि, १७० राजधानियां, १७० षट्खण्ड, ४५० कुण्ड और २२५० तोरण इत्यादि बहुतसे ज्ञातव्य विषयोंका वर्णन उक्त श्री विजय गुरुके प्रसादसे किया है । ग्रन्थ लिखनेका निमित्त बतलाते हुए यहां यह निर्दिष्ट किया है कि राग-द्वेषसे रहित व श्रुत सागरके पारगामी माघनन्दी गुरु प्रसिद्ध हैं । उनके शिष्य सिद्धान्त- महासमुद्रमै कपताको धो डालनेवाले गुणवान् सकलचन्द्र गुरु हुए हैं। उनके भी शिष्य निर्मल रत्नत्रयुके धारक श्री नन्दिगुरु विख्यात हैं। उन्हीं के निमित्त यह जंबूदीवपण्णत्ती लिखी गयी है । अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकर्ता श्री पद्मनन्दी मुनि कहते हैं कि पांच महाव्रतोंके धारक, रत्नत्रय से पवित्र और पंचाचार परिपालक श्री वीरनन्दी नामके प्रसिद्ध ऋषि थे । उनके उत्तम शिष्य सूत्रार्थविचक्षण विख्यात बलनन्दी हुए । इनके भी शिष्य त्रिदण्डरहित, शल्यत्रयपरिशुद्ध, गारवत्रय से रहित, सिद्धान्त पारगामी और तप-नियम- योगसे संयुक्त पद्मनन्दी नामक ( प्रकृत ग्रन्थके कर्ता ) मुनि हुए । श्री विजय गुरुके समीपमें सुपरिशुद्ध आगमको सुनकर मुनि पद्मनन्दिने इस ग्रन्थको लिखा है । ग्रन्थरचना के स्थान और वहांके शासकका नामनिर्देश करते हुए यह बतलाया है कि वारां नगरका प्रभु नरोत्तम शक्ति भूपाल था जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध, व्रतकर्मको करनेवाला, निरन्तर दानशील, जिनशासन वत्सल, वीर, नरपतिसंपूजित और कलाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्यसे परिपूर्ण, सम्टष्टि और मुनि जनोंसे मण्डित, जिन भवन से विभूषित रमणीय पारियात्र देशके अन्तर्गत था । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जंबूदीव पण्णत्तिकी रचनाके समय उसके कर्ताने किन ग्रन्थोंका उपयोग किया है, यह निश्चित रूप से नहीं बतलाया जा सकता है। तथापि जिन प्राचीन ग्रंथोंसे उसका कुछ साम्य व वैषम्य दिखाई देता है वे निम्न प्रकार हैं १ तिलोयपण्णत्ती- यह जैन भूगोल विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है और सम्भवतः वर्तमानमें उपलब्ध इस विषय के सब ग्रन्थोंमें प्राचीनतम भी है । इसका प्रकाशन इसी ग्रन्थमालासे २ भागों में हो चुका है । जंबूदीवपण्णत्तीकी रचनाके समय यह ग्रन्थ उसके रचयिताके सामने रहा है और उसका उपयोग भी खूब किया गया है । तुलनात्मक दृष्टिसे इन दोनों ग्रन्थोंके विषयमें तिलोयपण्णत्तीकी प्रस्तावनामै ( देखिये भा. २, प्रस्तावना पृ. ६८-७३ ) बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वहां तिलोयपण्णत्तीकी ऐसी कितनी ही गाथाओंका उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें मुनि पद्मनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमै विना किसी परिवर्तनके अथवा यत्किंचित् परिवर्तन के साथ ले लिया है। वहां निर्दिष्ट गाथाओंके अतिरिक्त जंबूदीवपण्णत्तीकी और भी निम्न गाथाओंका क्रमसे तिलोयपण्णत्तीकी निम्न गाथाओंसे मिलान किया जा सकता है जं. प. द्वितीय उद्देश - (१) ४०, (२) ४१, (३) ९७, (४) १२०, (५) १४६, (६) १५२, (७) १५५, (८) १५६, (९) १९९, (१०) २००, (११) २०१, (१२) चतुर्थ उ. ४५, (१३) ११३, (१४) ११४, (१५) २१३ से २१९, (१६) सातवां उ. १४८, (१७) तेरहवां उ. १६, (१८) २७. ति. प. चतुर्थ महाधिकार - (१) १२६, (२) १३९, (३) २४०, (४) ३३४, (५) ३६८, (६) ३७२, (७) ३३७, (८) ३३८, (९) १५१९, (१०) १५४१, (११) १५१८, (१२) १८१५(१३) २२७९, (१४) २२८०, (१५) आठवां म. २६० से २६६, (१६) चतुर्थ म. २६९, (१७) प्रथम म. ९८, (१८) १०९. २ मूलाचार - यह श्री बटुकेराचार्यविरचित मुनियोंके आचारका सांगोपांग वर्णन करनेवाला एक प्राचीन ग्रन्थ है । इसके पर्याप्तिसंग्रहिणी नामक १२ वे अधिकार में कुछ अन्य भी विविध विषयोंका संग्रह किया गया है ( देखिये ति प. २, प्रस्तावना . ४२ ) । इस अधिकारमें आयी हुई निम्न गाथायें जंबूदीवपण्णत्तीके कर्ता द्वारा सीधी इसी ग्रन्थसे अथवा पीछेके किसी अन्य ग्रन्थमें उद्धृत देखकर ली गयी हैं- जं. प. ११ १३७-३८, मूला १२ ७५-७६ जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना ४ अन्य ग्रंथोंसे तुलना जं. प. त्रि.सा. १३९ २१ ४, ३४ १३,३५ ९६ ९५ १४०-४१ १७८ ३५३ १०९-१० e ७८ ३ त्रिलोकसार - श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्तीके द्वारा विरचित यह एक भूगोल विषयक अनुपम ग्रन्थ है । इसकी रचना प्रौढ़ और अपने आपमें परिपूर्ण है । इसमें जैन भूभागसे सम्बद्ध प्रायः सभी विषयोंका समावेश है। यहां पूर्वपरम्परासे आई हुई तथा कितने ही पूर्वाचार्यो की भी सैकड़ों गाथाओंको इस प्रकारसे आत्मसात् कर लिया गया है कि उनकी पृथक्ताका बोध ही नहीं होता । जंबूदीवपण्णत्तीमें अनेक गाथायें ऐसी हैं जो ज्योंकी त्यों या कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ त्रिलोकसारमें भी उपलब्ध होती हैं। उदाहरण स्वरूप ऐसी कुछ गाथायें ये हैं १३,३६ ९३ १३, ३७ ९४ १२,९५-९६ ८१-८२ १२, २८-४१ १३,४३ ६,७ ९९-१०२ ९२ ७६१ १३-४३ ८५ ६, ११ ७६४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना । (१) इनमें गाथा ४- ३४ बृहत् क्षेत्रसमास (१-७) में भी इसी रूपमें पायी जाती है। (२) गा. १३-३५ ज्योतिष्करण्डमें (गा. ७८ ) भी पायी जाती है। वहां इसके चतुर्थ चरणमें 'पल्लं ' के स्थानमें 'जान' पद पाया जाता है । (३) गाथा १३ - ३६ सर्वार्थसिद्धि (३-३८) में उद्धृत पायी जाती है ' (४) गा. १३ - ३७ त्रिलोकसारमें कुछ परिवर्तित रूपमें है जो इस प्रकार हैसत्तमजम्मावीणं सत्तदिणन्भंतरहि गहिदेहिं । सहं सणिचिदं भरिदं बालग्गकोडी हिं ॥ ९४ ॥ यही गाथा जंबूदीवपण्णत्तीसे बहुत कुछ समानता रखती हुई ज्योतिष्करण्डमें भी इस प्रकार उपलब्ध होती है होती है एकाहिय- बेहिय-तेहियाण उक्कोससत्तरत्ताणं । सम्म सन्निचियं भरियं बालग्गकोडीणं ॥ ७९ ॥ यहां टीकाकार श्री मलयगिरिने एकाहिक आदि पदका अर्थ इस प्रकार किया है- मुण्डित शिरसि या एकेनाहा प्ररूदास्ता एकाहिकाः, या द्वाम्यामहोम्यां ता द्वयाहिका यास्त्रिभिरहोभिस्ताख्याहिकाः । ' सम्म ' का अर्थ ' संमृष्ट- आकर्णमृतम् ' किया है। (५) गा. १३ - ३८ त्रिलोकसारमें कुछ परिवर्तित रूपमें है वस्ससदे वस्ससदे एक्केक्के अवहिदम्हि जो कालो । तक्कालसमयसंखा णेया ववहारपल्लस्स ॥ ९९ ॥ यही गाथा जंबूदीव पण्णत्तीसे कुछ थोडे ही परिवर्तन के साथ ज्योतिष्करण्डमें इस प्रकार उपलब्ध १२९ वाससए वाससए एक्केके अवहियंमि जो कालो । सो कालो नायव्वो उवमा एक्कस्स पलस्स ॥ ८१ ॥ (६) गा. १३, ३९-४० त्रिलोकसारमें कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ इस प्रकार पायी जाती हैं जिससे पस्यविषयक मान्यता भेद भी सूचित होता है- ववहारेयं रोमं छिष्णमसंखेनवाससमयेहिं । उद्धारे ते रोमा तक्कालो तत्तियो चैव ॥ १०० ॥ उद्धारेयं रोमं छिण्ण मसंखेज्जवाससमयेहिं । अद्धारे ते रोमा तत्तियमेत्तो य तक्कालो ॥ १०१ ॥ (७) गा. १३ -४१ ज्योतिष्करण्ड (गा. २) में भी पायी जाती है। जंबूदीवपण्णत्तीमें इसका अन्तिम चरण है- उवमा एक्कस्स परिमाणं । इसके स्थान में त्रिलोकसारमें 'हवेज एकस्स परिमाणं ' और ज्योतिष्करण्डमें 4 एकस्स भवे परीमाणं' है। ये दोनों पाठ संगत हैं, परन्तु जं. प. में प्रयुक्त ' उवमा' पद पुनरुक्त E (८) गा. १३ -४३ मूलाचार (१२-८५ ) में भी पायी जाती है। (९) गा. ६-११ वृहत्क्षेत्रसमास (१ - ४१) मैं भी यत्किंचित् शब्दपरिवर्तन के साथ पायी जाती है। ४ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र - उक्त नामसे प्रसिद्ध एक ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी विद्यमान चवां उपांग ग्रन्थ माना जाता है। यहां सर्वप्रथम मंगल के रूपमें पंचनमस्कार मंत्र प्राप्त होता है । तत्पश्चात् । यह Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना ग्रन्थावतार के सम्बन्ध में यहां यह बतलाया गया है कि उस कालमें उस समय मिथिला नामकी समृद्ध नगरी थी । उसके बाहिर उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशाभागमें यहां माणिभद्र नामका चैत्य था । राजाका नाम जितशत्रु और रानीका नाम धारिणी था । उस समय वहां महावीर स्वामीका आगमन हुआ । परिषद् आयी और धर्मश्रवण कर वापिस गयी । उस समय श्रमण भगवान् महावीरके ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । गोत्र उनका गोतम था । वे सात हाथ ऊंचे और समचतुरस्रसंस्थान से सहित थे। उन्होंने तीन वार आदाहिण-पदाहिण करके भगवानकी वन्दना की और नमस्कार किया । तत्पश्चात् वे बोले कि भगवन् ! जंबूद्वीप कहां है, वह कितना बड़ा है, और किस आकारका है ? इस क्रमसे उन्होंने जंबूद्वीपके विषयमै अनेक प्रश्न पूछे और तदनुसार भगवान्ने उसी क्रमसे उनके प्रश्नोंका उत्तर दिया । इन्द्रभूति गणधरका अन्तिम प्रश्न यह था कि भगवन् ! जंबूद्वीपको इस नामसे क्यों कहा गया है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि हे गौतम ! इस जंबूद्दीप नामक द्वीपमें बहुतसे जंबूवृक्ष और जंबूवनखण्ड स्थित हैं। यहां सुदर्शन नामका जंबूवृक्ष है जिसके ऊपर अनादृत नामका एक महर्द्धिक देव रहता है । इसी कारण इस द्वीपको जंबूद्वीप कहा जाता है । 1 उस समय श्रमण भगवान् महावीरने मिथिला नगरीमें माणिभद्र चैत्यके भीतर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं, बहुत देवों और बहुत देवियोंके मध्य में स्थित होकर इस प्रकार व्याख्यान किया, भाषण किया, और प्रज्ञापन किया । इसीका नाम 'जंबूदीवपण्णत्ती' या 'जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति' हुआ । विपयक्रमके अनुसार इस ग्रन्थको निम्न १० अधिकारों में विभक्त किया जा सकता है- १ भरत क्षेत्र २ काल ३ चक्रवर्ती ४ वर्ष वर्षधर ५ तीथैकराभिषेक ६ खण्ड योजनादि ७ ज्योतिषचक्र ८ संवत्सर ९ नक्षत्र और १० समुच्चय । १ भरत क्षेत्र - इस अधिकारमें जंबूद्वीपकी जगती, भरत क्षेत्र, वैताढ्य पर्वत, सिद्धायतन, दक्षिणार्ध भरत कूट देवकी राजधानी ( अन्य जंबूद्वीपस्थ ), उत्तरार्ध भरत और वृषभ कूट पर्वतका वर्णन है । २ काल - इस अधिकारमें सर्वप्रथम अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालोंके ६-६ भेदोका निर्देश करके आवलिका, उच्छ्वास, निःश्वास और मुहूर्त आदिका प्रमाण बतलाया गया है । तत्पश्चात् परमाणुको दो भेदोंमें विभक्त कर उसका स्वरूप' बतलाते हुए उसन्हसहिया ( अवसन्नासन्न ), सव्हिसहिया, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु; क्रमशः देव - उत्तरकुरु, हरिवर्ष रम्यकवर्ष, हैमवत हैरण्यवत वर्ष एवं पूर्वापर विदेहों में उत्पन्न मनुष्यों का चालाग्र; लिक्षा, यूक, यवमध्य और अंगुलके प्रमाणकी प्ररूपणा में इन सबको उत्तरोत्तर क्रमसे आठ आठ गुणा बतलाया गया है। आगे चलकर १० प्रकारके कल्पवृक्षोंका उल्लेख करके उस कालमै उत्पन्न हुए नर-नारियों के आकारका वर्णन किया गया है। यहां मानुषियों की प्ररूपणा में वैरसे लेकर क्रमश: ऊपरके सभी अंगों व उपांगों का वर्णन है । इसके अतिरिक्त यहां उन ३२ लक्षणोंका भी नामोल्लेख (पृ. ५५-५६ ) कर दिया गया है जिनकी धारक नारियां हुआ करती हैं । १ तुलनाके लिये प्रस्तुत ग्रन्थ ( दि. जं. प. ) की गाथा १३, १६-१८ देखिये । २ तुलना के लिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा १३, १९-२३ देखिये । इस प्रकरण में जो 'सत्थेण सुतिक्खेण वि' आदि गाथा ( १३-१८ ) आयी है वह अपने इसी रूपमें इस (वे.) जंबूदीवपण्णत्ती (१.४२), अनुयोगद्वार सूत्र, ज्योतिषकरण्ड (गा. २, ७३ ) और कुछ परिवर्तित रूपसे तिलोयपण्णत्ती ( १-९६) में भी पायी जाती है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३१ यहां सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमा कालोंके नर-नारियोंकी आयु, शरीरोत्सेध, पृष्ठकरण्डक (पृष्ठास्थियां) और बालरक्षण आदिका वर्णन प्रायः दिगम्बर जंबूदीवपण्णसी' और तिलयेयपण्णत्ती आदिके समान ही पाया जाता है । सुषम-दुःपमा नामक तीसरे कालके अन्तिम त्रिभागमें जब पल्योपमका आठवां भाग शेष रह जाता है तब ऋषभ जिनको भी ग्रहण करके १५ कुलकर पुरुष उत्पन्न होते हैं। इनके नाम प्रायः सर्वत्र समान ही पाये जाते हैं । ऋषभ जिनेन्द्रके वर्णनमें यहां यह बतलाया है कि दीक्षा ग्रहण करते समय उन्होंने चतुर्मुष्टि लोच किया तथा साधिक एक वर्ष तक वे चीवर (देवदूष्य) के धारी रहे । ये वर्षाकालको छोड़कर हेमंत और ग्रीष्म ऋतुओं में ग्राममें १ रात्रि और नगरमें ५ रात्रि रहते थे। इनके पांच कल्याणक (गर्भावतार, जन्म, राज्याभिषेक, दीक्षा एवं केवलज्ञान ) उत्तरापाह नक्षत्रमें तथा छठा (परिनिर्वाण ) कल्याणक अभिजित् नक्षत्रमें सम्पन्न हुआ था। उनके निर्वाणकालके समय सुषमदुःषमा कालमें ८९ पक्ष ( ३ वर्ष ८ माह और १५ दिन) शेष रहे थे। शिर्वाण महोत्सवमें सौधर्म इन्द्रने चतुर्निकाय देवोंको आज्ञा देकर एक भगवान् तीर्थंकरके लिये, एक गणधरोंके लिये और एक शेष अनगारोंके लिये; इस प्रकार ३ चिताओंकी रचना करायी। तब शक्र देवेन्द्रने तीर्थकरके शरीरको क्षीरोदकसे नहलाया, गोशीर्ष चन्दनसे लेपन किया, हंसलक्षण पटशाटक ( वस्त्र) पहिनाया, और सब अलंकारोंसे विभूषित किया। फिर ३ शिविकाओंकी विक्रिया कराकर उनमें शोकसे संतप्त होते हुए क्रमशः तीर्थंकर, गणधरों एवं शेष अनगारोंके शरीरको आरूढ कर चिताओंमें स्थापित किया। तत्पश्चात् देवेन्द्रने अग्निकुमार और वायुकुमार देवोंको बुलाकर उनके द्वारा क्रमशः अग्निकाय और वायुकायकी विक्रिया करायी। इस प्रकार निर्वाणमहोत्सव करके उपर्युक्त सौधर्म आदि इन्द्रोंने नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर अंजनगिरि आदि नियत स्थानों में ८ दिन तक महामहिमा की । पश्चात् वहांसे अपने अपने स्थानमें आकर उन्होंने तीर्थकरके सकह (दंष्टा) आदि जिन अंग-उपांगोंको ले लिया था उन्हें यहां अपने अपने विमानादिके पास वज्रमय गोल समुग्गयों (डिब्बों) में रक्खा। अन्तमें यहां क्रमसे दुःषमसुषमा, दुःपमा और दुःषमदुःषमा कालों में होनेवाली नर-नारियोंकी अवस्थाओंका भी वर्णन किया गया है । ३ चक्रवर्ती- यहां सर्वप्रथम गौतम गणधर भगवान्से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! इस भरत वर्षको भरत वर्ष नामसे क्यों कहा जाता है ? इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने उक्त क्षेत्रकी 'भरत' इस संज्ञाका कारण भरत चक्रवर्तीको बतलाते हुए उनके चरित्रका विस्तारसे वर्णन किया है। उक्त वर्णनमें यहां विनीता नगरी, भरत चक्रवर्तीकी सुन्दरता, चक्र रत्नकी उत्पत्ति, तन्निमित्तक महोत्सव प्रवर्तन, दिग्विजय, ऋषभ कूट १ देखिये दि. ज. प. गा. २, ११०-१६५. २ ति. प. ४, ३३६-४०९. ३ एक मुष्टि शिखास्थानकी रही, सुन्दर दिखनेके कारण इन्द्रके आग्रहसे उसका लोच नहीं किया (जं. प्र. पृ.८० में दी गयी टिप्पणके अनुसार )। ४ ति. प. ४-५५३ ५ तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत जं. प. गाथा २, १७७-२०९; ६ तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा ७, ११५-१४५; ति. प. ४, १३०४-६९. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना पर्वतके पूर्व कटकपर नामलेखन, विनमी विद्याधरके द्वारा भेटमें स्त्री रत्न (सुभद्रा) और नमी विद्याधरके द्वारा रत्नोंका समर्पण, सुभद्रासौन्दर्य, भरत चक्रवर्तीका निधियों और रत्नोंकी प्राप्ति के लिये अष्टमभक्त ग्रहण करना, नौ निधियोंकी प्राप्ति और उनका स्वरूप, चक्र रत्नका वापिस विनीता राजधानीकी ओर प्रयाण करना, विनीता राजधानीमें प्रवेश, भरत राजाके द्वारा १६००० देवों और ३२००० राजाओं आदिका यथायोग्य सत्कार, महा राज्याभिषेक, १४ रत्नोंके उत्पत्तिस्थान, चक्रवर्तीकी विभूति', कदाचित् मजनगृहसे निकलकर आदर्शगृहमें प्रविष्ट हो आत्मनिरीक्षण करते हुए भरत राजाको शुभ परिणामों के निमित्तसे आवरणीय कर्मोके क्षयपूर्वक केवलशान एवं केवलदर्शनकी प्राप्ति, स्वयमेव आभरणालंकारका परित्याग, पंचमुष्टि लोच करना, आदर्शगृहसे निकलकर प्रव्रज्याका ग्रहण करना, कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवली पर्यायमें रहकर चार अघाति कोके सीण होनेपर निर्वाणप्राप्ति, तथा भरत क्षेत्रमें पल्योपम आयुवाले महर्डिक भरत देवके निवासका निर्देश, इत्यादि विषयोंका यहां विस्तारपूर्वक कथन किया गया है। ४ वर्ष-वर्षधर- यहां क्षुद्र हिमवान् पर्वतका वर्णन करते हुए उसके अवस्थान, विस्तारादि, उसके उपरिम भागमें स्थित पद्मद्रह, उसके मध्यमें स्थित कमल, उसके भी मध्यम स्थित भवन, श्रीदेवीके परिवारदेव-देवियोंके कमलभवन, श्रीदेवीका निवास, पद्मद्रहके पूर्व तोरण द्वारसे गंगा महानदीका निर्गमन, पर्वतसे गंगा नदीके पतनस्थानमै जिहिका (नाली) का अवस्थान, गंगाप्रपातकुण्ड, तोरण, गंगाप्रपातकुण्डके मध्यमें स्थित गंगाद्वीप, वहां गंगादेवीका भवन तथा १४ हजार नदियोंसे पुष्ट हुई गंगा महानदीका पूर्व लवणसमुद्रमें प्रवेश; इन सबका यहां वैसा ही वर्णन किया गया है जैसा कि जंबूदीवपण्णत्ती और तिलोयपण्णत्ती आदि अन्य दिगम्बर ग्रन्थोंमें । __आगे चलकर सिंधू नदीके वर्णनक्रमको गंगा नदीके समान बतलाकर उसकी कुछ विशेषताओंका निर्देश करते हुए रोहितंसा नदीके उद्गम आदिका वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् क्षुद्र हिमवाके ऊपर ११ कटोंका नामोल्लेख करके सिद्धायतन कट और क्षुद्र हिमवान् कूटका निरूपण विशेष रूपसे किया गया है। तत्पश्चात् यहां क्रमसे हैमवत वर्ष, महाहिमवान् पर्वत, हरिवर्ष, निषध पर्वत, महाविदेह, नीलवान् पर्वत, रम्यक वर्ष, रुक्मी पर्वत, हैरण्यवत वर्ष, शिखरी पर्वत और ऐरावत वर्ष; इन क्षेत्र-पर्वतोंकी विस्तृत प्ररूपणा की गई है। : ५ तीर्थकराभिषेक- इस अधिकारमें दिक्कुमारिकाओं तथा सपरिवार सब इन्द्रोंके द्वारा अपनी अपनी विभूतिके साथ मेरु पर्वतके ऊपर किये जानेवाले जिनजन्माभिषेककी प्ररूपणा की है। १ उस्सप्पिणी इमीसे तइयाए समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चकवट्टी भरहो इअ नामधिज्जेण ।।१।। अहमंसि पढमराया अहम भरहाहिवो गरवरिंदो। णस्थिमहं पडिसत्त जियं मए भारह वासं ॥२॥ पृ. २१८. तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा ७, १४६-४९. ति. प. ४, १३५१-५५. २ देखिये पृ. २२७ सूत्र ८९-९० गा.१-१४; तुलनाके लिये देखिये ति. प. ४, १३८४-८६. ३ पृ. २५८ सूत्र १२०.; ति.प. ४, १३७७-८२. ४ पृ. २५९ सूत्र १२१.; ति. प. ४, १३७०-१४००. ५ कमलोंकी समस्त संख्या यहां (पृ. २७४) १२० लाख बतलाई गई है जब कि प्रस्तुत जं. प. (३, १२६ ) और ति. प. (४, १६८९ ) में वह १४० ११६ ही निर्दिष्ट की गई है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३३ ६ खण्डयोजनादि-इस अधिकारमें भरत क्षेत्र (५२६६) प्रमाण जंबूदीपके खण्ड, उसका क्षेत्रफल, वर्षसंख्या, पर्वतसंख्या, क्टसंख्या, तीर्थसंख्या (मागध आदि), विद्याधरश्रेणिसंख्या, चक्रवर्तिक्षेत्रादिसंख्या, महाद्रहसंख्या तथा नदीसंख्याका निर्देश किया गया है। ७ ज्योतिषचक्र-- इस अधिकारमें चन्द्र-सूर्यादिकोकी संख्याका निर्देश करके सूर्यमण्डलोकी संख्या, उनका क्षेत्र, अन्तर व विस्तारादि, दिन-रात्रिप्रमाण, तापक्षेत्र, चन्द्र-सूर्यादिकी उत्पत्ति, इन्द्रज्युति तथा चन्द्रमण्डलों और नक्षत्रमण्डलोंकी संख्या आदिकी प्ररूपणा की गई है। ८ संवत्सर- यहां नक्षत्रसंवत्सर, युगसंवत्सर, प्रमाणसंवत्सर, लक्षणसंवत्सर और शनिश्वरसंवत्सर, इन ५ संवत्सरोका निर्देश करके इनसे प्रत्येकके भी पृथक पृथक भेद मतलाये गये हैं। आगे संवत्सरके मासोका उल्लेख करते हुए श्रावण आदि आषाढ पर्यन्त मासनामोंको लौकिक बतलाया गया है । इनके लोकोतरीय नाम ये हैं-१ अभिनंदित, २ प्रतिष्ठ, ३ विजय, ४ प्रीतिवर्धन, ५ श्रेयःभेय, ६ शिव, ७ शिपिर, ८ हेमंत, ९ वसंत, १० कुसुमसंभव, ११ निदाघ और १२ वनविरोध । इसी प्रकार १५ दिन और उनकी तिथियों के तथा १५ रात्रि और उनकी भी तिथियोंके नामोंका उल्लेख करते हुए एक एक अहोरात्रके ३० मुहूर्तोका निर्देश किया गया है। इसी अधिकारमें बब व चालव आदि ११ करणोंका विवरण करते हुए चन्द्रसंवत्सरको आदि संवत्सर, दक्षिणायनको आदि अयन, वर्षाऋतुके आदि ऋतु, श्रावण मासको आदि मास, कृष्ण पक्षको आदि पक्ष, अहोरात्रि आदि दिन, रुद्र मुहूर्तको आदि मुहूर्त, वष करणको आदि करण, तथा अभिजित् नक्षत्रको आदि नक्षत्र बतलाया है । ९ नक्षत्र- यहां २८ नक्षत्रोंके नामोंका निर्देश करके योग, देवता, गोत्र, संस्थान, चंद्र-सूर्ययोग, कुल, पूर्णिमा, अमावस्या और संनिपात; इनके आश्रयसे उनकी विशेष प्ररूपणा की गई है । १० ज्योतिपचक्र-यहां चन्द्र-सूर्य विमानोंके नीचे-ऊपर ताराओंकी विविधरूपता, उनका परिवार, मेरुसे अन्तर, लोकान्तसे अन्तर, पृथिवीतलसे अन्तर, अन्य नक्षत्रोंके अभ्यन्तर, वाह्य एवं नीचे ऊपर न संचार, विमानोंकी आकृति व प्रमाण, उनके वाहक देव, गति, ऋद्धि, तारान्तर, अग्रमहिषी, परिषद् , स्थिति तथा अल्पबहुस्ख; इन सबका वर्णन किया गया है। ११ समुच्चय-इस अधिकारमें जंबूद्वीपस्थ तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव, इनकी जघन्य व उत्कर्षसे संख्या बतलाकर कितनी निधियां व रत्न चक्रवर्तीके उपभोगम आते हैं। इसका निरूपण किया है । अन्तमें जंबूद्वीपके आयाम आदिका उल्लेख करके उसकी शाश्चतिक-अशाश्वतिकता आदिकी चर्चा की गई है। ५ ज्योतिष्करण्ड- यह वालभ्य वाचनाका अनुसरण करनेवाले किसी आचार्यके द्वारा रचा गया है । इसमें निम्न २१ अधिकार हैं- १ कालप्रमाण २ संवत्सरप्रमाण ३ अधिकमासनिष्पत्ति ४ पर्व-तिथिसमाप्ति ५ अवमरात्र ६ नक्षत्रपरिमाण ७ चन्द्रसूर्यपरिमाण ८ चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रगति ९ नक्षत्रयोग १० चन्द्रसूर्यमण्डलविभाग ११ अयन १२ आवृत्ति १३ मण्डलमें मुहूर्तगतिपरिमाण १४ ऋतुपरिमाण १५ विषुव १६ व्यतिपात १७ तापक्षेत्र १८ दिवस वृद्धि १९ अमावस्या-पौर्णमासी २० प्रणष्ट पर्व और २१ पौरुषी। उपर्युक्त विषयोंका सूर्यप्रज्ञप्तिमें जो विस्तृत वर्णन पाया जाता है उसका प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ताने यहां । किया है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीपतिकी प्रस्तावना यहां कुछ ऐसी अनेक गाथायें हैं जो जंबूदीवपण्णत्ती और ज्योतिष्करण्ड दोनों ही ग्रन्थोंमें समान रूपमें पायी जाती हैं । यदि कहीं कुछ विभक्तिभेद या शब्दभेद है भी तो वह नगण्य ही है। कितनी ही परम्परागत प्राचीन गाथाओंके उपलब्ध रहनेसे हालमें उनके पूर्वापरक्रमको स्थिर करना कुछ अशक्यसा है । फिर भी भविष्य में अन्वेषणकर्ताओंके लिये यह उपयोगी सामग्री बन सके, इसी विचारसे उनको तुलनात्मक दृष्टिसे यहां उपस्थित किया जाता है । दोनों ग्रन्थोंमें उपलब्ध समान गाथायें १३४ जं. प. ज्यो.क. २,२४ २,१११ १८१ ६,९ ८५ १८० १२, १०६ १२, १०९ १२, ११० १३,४ १३, ११-१२ ८८ ६२-६३ १२० १२३ १२४ १३, १५ १३, १८ १३, २२ १३,३५ १३, ३७ १३,३८ १३,४१ १३,४२ ७२ ७३ ७४ ७८ ७९ ८१ ८२ ८३ (१) गाथा २,२४ में प्रयुक्त शब्द दोनोंमें समान हैं, किन्तु वे परिवर्तित रूपमें हैं । यह गाथा ज्योतिष्करण्डके अनुसार बृहत्क्षेत्रसमास ( १,३९ ) में भी पायी जाती है । (२) गा. २,१११ ज्योतिष्करण्डमें इस प्रकार है सुमसुसमा य सुसमा हवई तह सुसमदुस्समा चैष । दूसमसुसमा य तहा दूसम अइदुस्समा चेव ॥ ८५ ॥ आगे दोनों ग्रन्थों ( जं. प. ११२-११४ और ज्यो. क. ८६-८७ ) में इन कालोंके प्रमाणकी प्ररूपणा समान रूपसे की गई है । (३) गाथा ६,९ कुछ थोडेसे परिवर्तनके साथ ज्योतिष्करण्ड ( १८० ) और बृहत्क्षेत्रसमास ( १,३६ ) में इस प्रकार पायी जाती है ओगाहूणं विक्खंभमो उ उग्गाहसंगुणं कुब्बा | चउहि गुणियस्स मूलं मंडलखेत्तस्स अवगाहो ॥ बृहत्क्षेत्रसमास में 'अवगाहो' के स्थान में 'सा जीवा' पाठ है। ज्योतिकरण्डमें यद्यपि 'अवगाहो' पाठ है, परन्तु टीकाकार श्री मलयगिरिने 'जीवा' पदको लक्ष्यमै रखकर ही उसकी टीका की है । यथास ' मण्डलक्षेत्रस्य' वृत्तक्षेत्रस्य प्रस्तावादिह जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धिनो विवक्षितस्यैकदेशस्य भरतादेरारोपित'धनुराकारस्य जीवा प्रत्यंचा भवति । ये ही टीकाकार बृहत्क्षेत्रसमासके भी हैं। इससे मिलता-जुलता करणसूत्र त्रिलोकसारमै इस प्रकार है - इसुहीणं विक्खभं चउगुणिदिणा हदे दु जीवकदी ( ७६० का पूर्वार्ध ) । (४) गा. १२,१०६ दोनोंमें समान स्वरूपमें ही अवस्थित है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जंबूदीपण्णत्ती में इस अभिप्रायको प्रगट करने वाली एक और भी गाथा ( १२, १४ ) पूर्वमें दी जा चुकी है। (५) गा. १२, १०९-१० में प्रथम गाथा ज्योतिष्करण्ड में इस प्रकार हैनक्खत्तट्ठावीसं अट्ठासीई महग्गहा भणिया । एससी परिवारो एत्तो ताराविमे सुणसु ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३५ दूसरी गाथा (११०) दोनोंमें समान रूपमें ही पायी जाती है । विशेषता यह है कि उपर्युक्त ज्योतिष्करण्डकी गाथामें जो 'एत्तो ताराविमे सुसु' कहकर आगे ताराओंके प्रमाण के कहने की जो प्रतिज्ञा की गयी है उसीका निर्वाह अगली गाथा द्वारा होनेसे वहां इस दूसरी गाथाकी स्थिति दृढ़ है । इन दोनों गाथाओं के पहिले जंबूदीवपण्णत्ती में जो 'बे चंदा वे सूरा' आदि गाथा ( १०८ ) है वह बृहत्क्षेत्रसमास में भी कुछ नगण्य परिवर्तनके साथ इस प्रकार उपलब्ध होती है दो चंदा दो सूरा नक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना । छावत्तरं गहसयं जंबूद्दीवे वियारीणं ॥ १-३९५. इससे आगेकी गाथामें यहां जंबूद्वीपमें संचार करनेवाले ताराओं की समस्त संख्याका निर्देश किया गया है। यहां इन दोनों गाथाओं की स्थिति आवश्यक प्रतीत होती है। इसका कारण यह है कि बृहत्क्षेत्रसमासके पांच अधिकारों से यहां प्रथम जंबूद्वीपाधिकार समाप्त होता है। अतः पूर्व में समस्त क्षेत्र पर्वतादिकोंकी प्ररूपणा करके अन्तमें जंबूद्वीपमें अवस्थित ज्योतिर्गणका भी कुछ न कुछ उल्लेख करना आवश्यक ही था। परन्तु जंबूदीवपण्णत्ती में ऐसी आवश्यक स्थिति इन गाथाओंकी नहीं प्रतीत होती, कारण कि यहां प्रकारान्तरसे इस अर्थकी प्ररूपणा इससे पूर्वमें ८७ और ८८वीं गाथाओंके द्वारा की ही जा चुकी थी । ( ६ ) गाथा १३, ४ दोनों ग्रन्थों में इस प्रकार है कालो परमणिरुद्धो अविभागी तं विजाण समओ ति । सुमो अमुत्ति-अगुरुगल हुवत्तणलक्खणो कालो ॥ जं. दी. X x X कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेजा वह हु उस्सासनिस्सासो | ज्यो. क. ८८. जहां तक हम इन दोनों गाथाओंकी शब्दरचनापर ध्यान देते हैं तो हमें ज्योतिष्करण्डकी यह गाथा जैसी प्रकरणसंगत प्रतीत होती है वैसी जंबूदीवपण्णत्तीकी नहीं प्रतीत होती । इसका कारण यह है कि ज्योतिष्करण्डकी गाथा पूर्वार्द्धमें समयका लक्षण बतलाकर आगे उसके उत्तरार्द्ध द्वारा उच्छ्वासनिःश्वासके लक्षणकी प्ररूपणा की गयी है। यहां आवलीका उल्लेख मूलमै नहीं है, पर टीकाकारने उसका उल्लेख कर दिया है । परन्तु जंबूदीवपण्णत्तीकी उक्त गाथाके पूर्वार्द्ध में समयका लक्षण बतलाकर आगे उत्तरार्द्ध में कालका लक्षण बतलाया गया है । इसके आगे कुछ गाथाओं द्वारा फिर आवली आदि अन्य कालभेदोंकी प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार बीचमें जो कालका स्वरूप बतलाया गया है वह जहां गाथा २ में कालके व्यवहार और परमार्थ ये दो भेद बतलाये गये हैं वहां यदि बतलाया जाता तो अधिक उपयोगी होता । ( ७ ) गाथा १३, ११-१२ दोनों ग्रन्थोंमें समान रूपमें ही पायी जाती हैं। इनमें जो कुछ थोड़ासा भेद है भी वह उल्लेख योग्य नहीं है। 'चुलसीदिगुणं हवेज ' के स्थानमें जो ज्योतिष्करण्ड में 'चुलसीहगुणाई हो ' पाठ है वह व्याकरणकी दृष्टिमें ग्राह्म ही प्रतीत होता है । दूसरी नाथा ( १३, १२) सर्वार्थसिद्धि ( ३, ३१ ) में भी उद्धृत देखी जाती है। आगे जंबूदीवपण्णत्ती (१३ व १४ ) और ज्योतिष्करण्ड (६४-७१) दोनों ही ग्रन्थोंमें पूर्वसे आगेके कालभेदोंका निर्देश किया गया है। विशेषता यह है कि जहां जंबूदीवपण्णत्ती में अंगान्त ( पर्योग-नयुतांग आदि) भेदों और उनके गुणकारका कुछ भी उल्लेख नहीं हुआ है वहां ज्योतिष्करण्डमें उन दोनोंका स्पष्टता Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना पूर्वक उल्लेख कर दिया गया है। यहां पूर्वके आगे ये काळभेद लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन इत्यादि रूपसे भिन्न ही पाये जाते हैं। जंबूदीवपण्णत्तीमें उपर्युक्त दोनों बातोंका उल्लेख न होनेसे उनका यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता है। यह उपेक्षा प्रकृत कालभेदों विषयक विविध मतभेदोंको लक्ष्यमें रखकर बुद्धिपुरस्सर ही की गयी प्रतीत होती है। (८) इसके पश्चात् ज्योतिष्करण्डमें यह गाथा आती है जो जं. प. की गा. १३, १५ से बहुत कुछ समानता रखती है एसो पण्णवणिज्जो कालो संखेजओ मुणेयव्यो। वोच्छामि असंखेज कालं उवमाविसेसेणं ॥ ७२॥ (९) आगे जं. प. में तीन (१६-१८) गाथाओंके द्वारा परमाणुका स्वरूप बतलाया गया है। इनमें प्रथम गाथा 'अंतादिमज्झहीणं' आदि सर्वार्थसिद्धि (५-२५) में भी उधृत रूपसे उपलब्ध होती है। तीसरी गाथा 'सत्येण सुतिक्खेण' आदि ज्योतिष्करण्ड (७३) में प्रायः ज्योंकी त्यों उपलब्ध होती है। स्थानमें 'पमाणाणं' पाठ है जो परमाणुको आगेके अंगुल आदि रूप अन्य सब प्रमाणोंका आदिभूत प्रगट करता है । यह अभिप्राय ‘पमाणेण' पदसे उपलब्ध नहीं होता। इस गाथाका पूर्वार्द्ध तिलोयपण्णत्ती ( १-९६ ) में भी पाया जाता है। वहां 'किर ण सक्क' के स्थानमें 'किरस्सक' पाठ है । प्रकृत गाथामें जो परमाणुका लक्षण किया गया है वह टीकाकार श्री मलयगिरिके अभिप्रायानुसार अनन्त सूक्ष्म परमाणुओंके संघातसे उत्पन्न हुए व्यावहारिक परमाणुका लक्षण किया गया है । इसकी पुष्टिमें टीकाकार द्वारा अनुयोगद्वारसूत्रका उल्लेख किया गया है । इस व्यावहारिक परमाणुकी मान्यता सम्भवतः किसी अन्य दि. ग्रन्थमें नहीं है । किन्तु जंबूदीवपण्णत्तीके कर्ताने गा. १३-२१ में उसकी निष्पत्ति आठ सन्नासन्नों द्वारा स्पष्टतया स्वीकार की है जो तिलोयपण्णत्ती (१,१०४) और तत्त्वार्थवार्तिक (३,३८.७) आटिकी मान्यताके विरुद्ध है । इन ग्रन्थोंमें आठ सन्नासन्नोसे एक त्रुटिरेणुकी निष्पत्तिका उल्लेख किया गया है। किन्तु जंबूदीवपण्णत्तीमें त्रुटिरेणुका कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। . (१०) गाथा १३,२२ ठीक इसी रूपमें ही ज्योतिष्करण्डमें पायी जाती है। इसमें परमाणु पदसे पूर्व गाथामें निर्दिष्ट व्यावहारिक परमाणुको ग्रहण किया गया है , अन्यथा यह क्रम पूर्वोक्त (गा. १९-२१) क्रमके विरुद्ध पड़ता है। ज्योतिष्करण्डमें यह गाथा 'सत्येण सुतिखेण ' आदि पूर्वोक्त गाथाके अनन्तर ही पायी जाती है । (११) तेरहवें उद्देशकी ३५, ३७, ३८, ४१ और ४२ वीं गाथायें ज्योतिष्करण्ड में क्रमशः निम्न संख्याओंसे अंकित पायी जाती हैं-७८, ७९, ८१, ८२ और ८३ । इनमें अन्तिम गाथाको छोड़कर शेष ४ गाथायें चूंकि त्रिलोकसारमें भी उपलब्ध हैं, अत: उनके पाठभेद आदिके सम्बन्धमें वहींपर (पीछे पृ. १२८-२९) सूचना कर दी गयी है। अन्तिम गाथाका पूर्वार्द्ध दोनों में समान है। उत्तरार्द्ध में कुछ थोडासा ही भेद है जो इस प्रकार है ओसप्पिणीय कालो सो चेवुस्सप्पिणीए वि ।। जं. प. ओसपिणीपमाणं तं चेवुस्सप्पिणीए वि || ज्यो. क. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना ६ बृहत्क्षेत्रसमास-इसका विशेष परिचय तिलोयपण्णत्तीकी प्रस्तावना (भा. २, पृ. ७३-७७) में दिया गया है। जंबूदीवपण्णत्ती और वृहत्क्षेत्रसमासमें निम्न गाथायें समानस्वरूपसे पायी जाती हैं , उनमें कोई उखनीय भेद नहीं है जं. प. छठा उ. गा. ९, १०, ११, १२, बारहवां उ. ११०. बृ. स. प्र. अ. गा. ३६, ३९, ४१, ३८, ३९५. इनके अतिरिक्त निम्न गाथा कुछ शब्दपरिवर्तनके साथ इस प्रकार उपलब्ध होती है-- जस्थिच्छसि विक्खमं कंचणसिहरा दु ओवदित्ताणं । तं सगकायविभत्तं सिरसहिदं जाण विखंमं । जं. ६-४७ जत्थिच्छसि विक्खमं मंदरसिहराहि उबइत्ताणं । एक्कारसहि विभत्तं सहस्ससहियं च विक्खमं ॥ बृ. १-३०७ ७ वैदिक ग्रंथो से तुलना-- जैन भौगोलिक ग्रन्थोंमें भूभागका वर्णन करते हुए यह बतलाया है एक लाख योजन विस्तृत वलयाकार जंबूद्वीपके ठीक बीचमें मेरु पर्वत है। मेरुके दक्षिण महाहिमवान् और निषध ये तीन पर्वत तथा इनके कारण विभागको प्राप्त हुये भरत, हैमवत और हरिवर्ष ये तीन क्षेत्र हैं। इसी प्रकारसे उसके उत्तरमै नील, रुक्मि और शिखरी पर्वत तथा रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावतक्षेत्र स्थित हैं। निषध और नील पर्वतोंके अन्तरालमें विदेह क्षेत्र अवस्थित है। यहां मेरुके ईशान कोणमे माल्यवान् , आमेयमें सौमनस, नैऋत्यमें विद्युत्प्रभ और वायव्यमें गन्धमादन नामके ये चार गजदन्न पर्वत हैं। इनमें सौमनस और विद्युत्प्रभ गजदन्तोंके मध्यमें अर्ध चन्द्रके आकारमें देवकुरु तथा गन्धमादन और माल्यवान् गजदन्तोंके मध्यमें उत्तरकुरु क्षेत्र अवस्थित है। इस प्रकार जंबूद्वीपमें इन दो क्षेत्रोंके साथ नौ वर्ष है। ठीक इसी प्रकारसे वैदिक सम्प्रदायके भौगोलिक ग्रन्थों में भी एक लाख योजन विस्तारवाले गोल जंबूद्वीपका वर्णन पाया जाता है। यहां भी जंबूद्वीपके मध्यमें मेरु पर्वतका अवस्थान है। इस मेरुके चारों ओर चतुष्कोण इलावृत नामक वर्ष अवस्थित है। इलावृतके पूर्वमें उसकी सीमाभूत माल्यवान् पर्वत तथा उसके आगे पूर्व समुद्र तक फैला हुआ भद्राश्व वर्ष है। उक्त इलावृतके पश्चिममें गन्धमादन पर्वत और उसके आगे पश्चिम समुद्र तक फैला हुआ केतुमाल वर्ष है । इलावृतके दक्षिगमें समुद्रकी ओरसे क्रमशः हिमवान. हेमकट और निषध ये तीन तथा उसके उत्तर में नील, श्वत और शृंगवान् ये तीन इस प्रकार छह पर्वत स्थित हैं । दक्षिण समुद्र और हिमवान्के मध्यमें भारतवर्ष, हिमवान् और हेमकूटके मध्य में किम्पुरुष, हेमकट और निषधके मध्यमें हरियर्ष, नील और श्वेत पर्वतोंके मध्यमें रम्यकवर्ष, श्वेत और शंगवान्के मध्यमें हिरण्यमय वर्ष, तथा शृंगवान् और उत्तर समुद्रके मध्यमें उत्तरकुरु वर्ष अवस्थित है। उपर्युक्त छह क्षेत्रों में भारत वर्ष और उत्तरकुरु धनुपाकार तथा शेष चार क्षेत्र और उक्त छह पर्वत पूर्वसे पश्चिम समुद्र तक दण्मुयत् आयत हैं । इस प्रकार इलावृत, भद्राश्व और केतुमाल वर्षों को लेकर जंबूद्वीपमें नौ वर्ष (क्षेत्र) अवस्थित है। १ वायुपुराण, विष्णुपुराण, कम और मत्स्यपुराण आदि । २ श्वेत (रुक्मि), श्रृंगवान् (शृंगी शिखरी)। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जंबूदीषपण्णत्तिको प्रस्तावना जिस प्रकार जैन भूगोलमें मंदर पर्वतके उत्तरेंमें जंबूवृक्ष अवस्थित है उसी प्रकार वैदिक भूगोलमें भी मेरुकी पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः मंदर, गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व नामक पर्वतोंके ऊपर कदम्ब, जंबू, पीपल और वट ये चार वृक्ष स्थित हैं। दोनों सम्प्रदायोंमें विशेषता यह है कि जहां जैन भूगोलमें जंबूद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित करनेवाला लवण समुद्र, उसको वेष्टित करनेवाला धातकीखण्ड द्वीप, उसको वेष्टित करनेवाला कालोद समुद्रः इस प्रकार उत्तरोत्तर एक दुसरेको वेष्टित करनेवाले असंख्यात द्वीप-समुद्र स्वीकार किये गये हैं वहां वैदिक भूगोलमें इसी प्रकारसे एक दूसरेको वेष्टित करनेवाले केवल निम्न सात द्वीप और सात ही समुद्र स्वीकार किये गये हैं- जंबूद्वीप, लवणसमुद्र, प्लक्षद्वीप, इक्षुरससमुद्र, शाल्मलीद्वीप, सुरासमुद्र, कुशद्वीप, घृतसमुद्र, क्रौंचद्वीप, क्षीरसमुद्र, शाकद्वीप, दधिसमुद्र, पुष्करद्वीप और शुद्धसमुद्र । (विशेष जाननेके लिये देखिये ति. प. २, प्रस्तावना पृ. ८१-८७) चातुर्दीपिक भूगोल काशी नागरी प्रचारिणी सभाके दारा प्रकाशित सम्पूर्णानन्द-अभिनन्दन ग्रन्थ 'पुराणों में चातुदीपिक भूगोल और आर्योंकी आदिभूमि' शीर्षक एक लेख श्री रामकृष्णदासजीका प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखक महाशयने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि सप्तद्वीपा भूगोलकी अपेक्षा चातुर्दीपिक भूगोल अपेक्षाकृत प्राचीन है और उसका वर्णन कोरी कल्पना न होकर आधुनिक भूगोलसे भी कुछ सम्बन्ध रखता है। इसका अस्तित्व अभी भी वायुपुराणमें कुछ अवशिष्ट है। इसका सद्भाव सम्भवतः ऋग्वेदकालसे है, क्योंकि ऋग्वेदमें जिन चार समुद्रोंका उल्लेख है वे इन्हीं चार द्वीपोंसे सम्बद्ध चार दिशाओंके चार समुद्र हैं। पाठकों की जानकारीके लिये हम उपर्युक्त लेखका सारांश प्रायः लेखकके ही शब्दों में यहां साभार लेखकका अनुमान है कि मेगास्थिनेके समयमें भी यही चार दीपवाला भूगोल चलता था, क्योंकि वह लिखता है-“भारतीय तत्त्वज्ञ और पदार्थविज्ञानवेत्ता भारतके सीमान्तपर तीन और ये तीन देश सीदिया, वैक्टिया तथा एरियाना हैं" जो मोटे तौरपर चतुर्तीपी भूगोलके जंबूद्वीपेतर अन्य तीन द्वीपोंसे मिल जाते हैं। अर्थात् सीदियासे उसके भद्राश्व तथा उत्तरकुरु एवं वैक्ट्रिया तथा एरियानासे केतुमाल दीप अभिप्रेत हैं। अशोकके समय तक प्राचीन परम्पराके अनुसार चतुर्दीप भूगोल ही चलता था, क्योंकि उसके शिलालेखोंमें जंबूद्वीप भारतवर्षकी संज्ञा है। महाभाष्यमें सप्तद्वीपा पृथिवीकी चर्चा है। अत एव सप्तद्वीप भूगोल अशोक तथा महाभाष्यकालके बीचकी कल्पना जान पड़ती है। यह चातुर्दीपिक भूगोल सप्तद्वीपा भूगोलके समान कल्पनाप्रधान नहीं है। इसका आधार प्रायः वास्तविक है, अत एव उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोलसे हो जाता है। यूनानी लेखकोंने लिखा है कि भारतीयोंको अपने देशके भूगोलका स्पष्ट शान है। वह अवान्तर ब्योरों सहित चतुर्तीप-भू-वर्णनपर ही घटता है, किसानोंकी भरमारवाले इस सप्तद्वीप भूगोलपर नहीं। १ बौद्ध सम्प्रदायवर्णित भूगोलके लिये देखिये ति. प. २, प्रस्तावना पृ.८७-९०. २ सप्तद्वीपा वसुमती त्रयो लोका:- महाभाष्य पस्पशाहिक. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३९ चतुर्द्वप भूगोल जंबूद्वीप पृथिवीके चार महाद्वीपोंमेंसे एक है और भारत वर्षका दूसरा नाम है । वही सप्तद्वीप भूगोल में एक इतना बड़ा द्वीप बन जाता है कि चतुद्वप भूगोलमेंके उसीके चराचरीवाले अन्य तीन द्वीप ( भद्राश्व, केतुमाल और उत्तरकुरु ) उसके वर्ष होकर उसके अन्तर्गत हो जाते हैं, और भारत वर्ष नामसे वह स्वयं अपना ही एक वर्ष मात्र रह जाता है। तथापि यह जंबूद्वीपका वर्णन इस दृष्टिसे बड़े कामका है कि इसमें चतुर्द्धपि सम्बन्ध में बहुतसे कामके ब्योरे मिल जाते हैं, क्योंकि, वस्तुतः सप्तद्वीपवाला जंबूद्वीप चतुर्दीपा पृथिवीके ही अवान्तर खण्डोंको प्रधानता देकर रचा गया है। यथा -- चतुद्वीपी भूगोलका भारत(जंबूद्वीप) जो मेरु तक पहुंचता है, सप्तद्वीप भूगोलमेंके जंबूद्वीपमें तीन वर्षों में बँट गया है। अर्थात् 'देस' के लिये भारत वर्ष, जिसका वर्ष पर्वत हिमालय है। उसके उपरान्त हिमालयके उस भागके लिये जिसमें पीले रंगवा मंगोलोंकी वस्ती है, किम्पुरुष वर्ष' - - जिसमें प्लक्ष खण्ड पुरुरवा आख्यानकी प्लक्ष पुष्करिणी तथा वेदका प्लक्ष प्रस्रवण है, जहांसे सरस्वतीका उद्गम है। तथा जिस वर्षका नाम आज भी कनौरमै अवशिष्ट है। यह वर्ष तिब्बत तक पहुंचता था, क्योंकि, वहां तक मंगोलों की बस्ती है । तथा उसका वर्ष पर्वत हेमकूट ही, जो कतिपय स्थानोंमें हिमालयान्तर्गत वर्णित हुआ है, तिब्बत है जहां आज भी बहुतायतसे सोना निकलता है । यही भारत ( सभा पर्व ) के अर्जुनकृत उत्तर दिग्विजयका हाटक प्रदेश है । — हरिवर्ष से हिरातका तात्पर्य है जिसका पर्वत महामेरु श्रृंखला अन्तर्गत निषध ( हिंदूकुश ) है जो मेरु तक पहुंच जाता है । इसी हरिवर्षका नाम अवेस्तामें ' हरिवरजो' मिलता है जो उसमें आयक चीजस्थानके मध्य माना गया है। वह एक प्रकारसे अपने यहांकी कल्पनासे मिल जाता है, क्योंकि यह स्थान अपने यहांके भू-केन्द्र सुमेरुके चरणतलमें ही है । यों जिस प्रकार चतुर्दीपका भारत ( जंबूद्वीप ) तीन भागों में बंटकर महत्तर जंबूद्वीप के तीन 'वर्ष' बन गये, उसी प्रकार रम्यक, हिरण्मय तथा उत्तरकुरु नामक वर्षो विभक्त होकर चतुद्वप भूगोलवाले उत्तरकुरु महाद्वीपके तीन वर्ष बन गये हैं । किन्तु पूर्व और पश्चिमके द्वीप भद्राश्व और केतुमाल यथापूर्व दोके दो ही रह गये हैं । अन्तर केवल इतना है कि यहां वे दो महाद्वीप नहीं, एक द्वीपके अन्तर्गत दो वर्ष हैं। साथ ही इन सबके केन्द्रीय मेरुको मेखलित करनेवाला इलावृत भी एक स्वतन्त्र वर्ष बन गया है। यों उक्त चार द्वीपोंसे पल्लवित तीन उत्तरी, तीन दक्षिणी, दो पूर्व-पश्चिमी तथा एक केन्द्रीय वर्ष इस जंबूद्वीपके नौ वर्षोंकी रचना कर रहा है। प्रस्तुत लेखमै निम्न स्थानोंको आधुनिक भूगोलसे इस प्रकार सम्बद्ध बतलाया गया हैमेरु- वर्तमान भूगोलका जो पामीर प्रदेश है वही पौराणिक मेरु है । इसके पूर्व से निकली हुई यारकंद नदी ही सीता नदी तथा पश्चिमसे निकली हुई आमू दरिया वा आक्शस ही सुक्षु नदी है । इसके दक्षिण में दरद - काश्मीरमें बहने वाली कृष्णगंगा नदी ही पौराणिक गंगा नदी हो सकती है। इसके उत्तर में थिपानसानके 'अंचलमै वसा हुआ देश ( उत्तरकुरु), पूर्वमें मूज- ताग ( मूंज) एवं शीतान (शीतान्त ) पर्वत, १ तथा किम्पुरुषे विप्रा ! मानवा हेमसन्निभाः । दशवर्षसहस्राणि जीवन्ति प्लक्षभोजनाः ॥ ८ ॥ कूर्म, ४६. २ यह नाम सुत्रंशु, सुचक्षु और सुपक्षु आदि कई रूपों में विकृत हुआ है । इसके मंगोलियन नाम अक्शु और बक्शू, तिब्बती नाम पक्शू, तथा चीनी नाम पो-स्सू वा फो-त्सू तथा आधुनिक स्थानिक नाम स्विश ( विश्वकोष २६,९१० ), बप्पश और बखां इन संस्कृत नामोंसे ही निकले हैं । इसकी उत्पत्ति मेरुके पश्चिमी सर सितोद (जैन भूगोलमै सीतोदा नदीका उल्लेख हुआ है ) से कही गई है । ३ थियानसान की प्रधान शाखा कुरुक-ताग अर्थात् कुरुक पर्वतका कुरुक शब्द कुरुका ही रूप लक्षित होता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना श्रिममें बदख्शा (वैदूर्य) पर्वत, और पश्चिम-दक्षिणमें हिंदूकुश (निषध) पर्वत स्थित हैं। उत्तरकुरु-दूसरी शतीके प्रसिद्ध रोमन इतिहासवेत्ता टालमीने उत्तरकुरुकी अवस्थिति पामीर प्रदेशमें बतलाई है। ऐतरेय ब्राह्मणके अनुसार उत्तकुरु हिमवानके परे था। इंडियन ऐंटिक्वेरी (१९१९, पृ. ६५ तथा आगे) के एक गवेषणापूर्ण निवन्ध प्रतिपादित किया गया है कि उत्तरकुरु शकों और हुणोंके तीमान्तपर थिपानसान पर्वतके तले था। वायुपुराणके निम्नांकित वचनसे भी उत्तरकुरु सम्बधी इस मतकी पुष्टि होती है उत्तराणां कुरूणां तु पार्श्व ज्ञेयं तु दक्षिणे । समुद्रमूर्मिमालाढ्यं नानास्वरविभूषितम् ॥ ४५-५८ भौमिक स्थितिके अनुसार यह बिलकुल यथार्थ है, क्योंकि, उपर्युक्त स्थापनाके अनुसार उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान ठहरता है । उसका समुद्र अरल सागर जो प्राचीन कालमें कैस्पियनसे मिला हुआ था, वस्तुतः प्रकृत प्रदेशके दाहिने पार्श्वमें पडता है। सीता नदी-यह वर्तमान भगोलकी यारकंद नदी है । चातुर्दीपिक भूगोलके अनुसार यह मेरुके पूर्ववर्ती भद्राश्व महादीपकी नदी है । चीनी लोग इसे संस्कृत नाम सीताके अनुसार अब तक सी-तो कहते हैं। यह काराकोरमके शीतान नामक स्कन्धसे निकल कर पामीरके पूर्वकी ओर चीनी तुर्किस्तानमें चली गई है। उक्त शीतान पुराणोंका शीतान्त है एवं काराकोरम पुराणोंका कुमुंज या मुंजवान, जिसका वैदिक नाम मूजवान था। भाज भी उसीके अनुसार उसे मूज-ताग अर्थात् मूज पर्वत कहते हैं । सीता नदी तकलामकानकी विस्तीर्ण मरुभूमि से होती हुई, एक आध और नदियोंके मिल जानेके कारण तारीम नाम धारण करके लोपनूर नामक खारी झीलमें, पहिले जिसका विस्तार आजसे कहीं अधिक था, जा गिरती है । इसका वर्णन वायुपुराणमें मिलता है । कृत्वा द्विधा सिंधुमरून् सीताऽगात् पश्चिमोदधिम् । ४७,२३. सिंधुमरु तकलामकानके लिये बहुत ही उपयुक्त नाम है , क्योंकि इस मरुभूमिकी एक विशेषता यह है कि इसका बालू देखने में ठीक समुद्र (सिंधु) जैसा जान पड़ता है । पश्चिमोदधिसे लोपनूर झीलका तात्पर्य है। सुवंशु- जिस प्रकार सीता मेरुके पूर्वकी नदी है उसी प्रकार सुवंशु मेरुके पश्चिमकी नदी है। इसके कई रूप मिलते हैं; यथा- सुचक्षु, सुवक्षु एवं सपक्षु । इसकी उत्पत्ति मेरुके पश्चिमी सर सितोदसे कही गई है, जहांसे निकलकर “ नानाम्लेच्छगणैर्युक्त ' केतुमाल महाद्वीपसे बहती हुई यह पश्चिम समुद्रमें चली गई है। वर्तमान आमू दरिया वा आक्शस ही सुवक्षु है, यह निर्विवाद है । इसके मंगोलियन नाम अक्शू १ ताग यह तुर्की शब्द पर्वत अर्थका बोधक है। २ यहां पश्चिम शब्द अवश्य ही किसी अन्य शब्दका अपपाठ है जो लोपनूरकी नामवाचक संज्ञा रहा होगा, क्योंकि सीता नदीके पूर्व समुद्रमें जानेका स्पष्ट उल्लेख रहनेसे उसके पश्चिम समुद्रमें गिरनेकी सम्भावना नहीं है । दूसरे, यहांकी भौमिक स्थिति भी ऐसी है कि वह पश्चिमकी ओर जा भी नहीं सकती। ३ जैन भूगोलमें मेरुके पश्चिमकी ओर अपर विदेहमें बहनेवाली सीतोदा नदीका उल्लेख मिलता है। ४ वायुपुराण ४२।५७,७४. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्कीपिक भूगोल १४१ और वक्र, तिब्वती नाम पशू, तथा चीनी नाम पो-स्सू वा फो-स्सू, तथा आधुनिक स्थानिक नाम बखिश' बखश और बखां उक्त संस्कृत नामोंसे निकले है। प्राचीन कालसे अभी थोड़े दिन पहले तक पामीरके पश्चिमी भागवाली सिरीकोल झील (विक्टोरिया लेक) इसका उद्गम मानी जाती थी, जो पौराणिक सितोद सर हुई। इन दिनों यह अरालमें गिरती है, किन्तु पहले कैस्पियनमें गिरती थी । यही चतुर्दीपी भूगोलका पश्चिमी समुद्र हुआ। गंगा- यह काश्मीरके उत्तरकी कृष्णगंगाके सिवा दूसरी नदी नहीं हो सकती, क्योंकि इसके उपकण्ठके निवासियोंमें 'दरदांश्च सकाश्मीरान्' अर्थात् दरद और काश्मीरका उल्लेख हुआ है। ये नाम वायुमें मेरुकी चारों दिशाओंकी नदियोंके वर्णनमें भाते हैं। यह हरमुकुट पर्वतकी प्रसिद्ध गंगावल झीलसे निकलती है जिसे आज भी वहांके लोक गंगाका उद्गम मानते हैं। इससे जान पडता है कि किसी समय कृष्णगंगा गंगाकी गिनती थी। इसी गंगाकी रेतमें सोना भी पाया जाता है, इसीलिये उसका नाम गांगेम है। इस नदीका नाम जंबू भी है, क्योंकि जंबू नदीको गंगाके भेदोंमें गिना है। सोनेका नाम गांगेयके साथ बांधूनद भी है। पौराणिक भूगोलमें उसकी भौमिक स्थिति भी यही है। यही कारण है कि सप्तद्वीप भूगोलमें जंबूद्वीपकी नदी गंगाके बदले जंबू है। निषध-इस पर्वतसे हिंदूकुश शृंखलाका तात्पर्य है। हिंदूकुशका विस्तार वर्तमान भूगोलके • अनुसार पामीर प्रदेशसे, जहांसे इसका मूल है, काबुलके पश्चिम कोहे-बाबा तक माना जाता है। " कोहे-बावा . और बंदे-बाबाकी परंपराने पहाडोंकी उस ऊंची शृंखलाको हेरात तक पहुंचा दिया है। पामीरसे हेरात तक मानों एक ही श्रृंखला है"। अपने प्रारम्भसे ही यह दक्षिण दावे हुए पश्चिमकी ओर बढ़ता है। यही पहाड़ मीकोका परोपानिसस है। और इसका पार्श्ववर्ती प्रदेश काबुल उनका परोपानिसदाय है। ये दोनों ही शब्द स्पष्टतः 'पर्वत निषध' के प्री रूप हैं, जैसा कि जायसवालने प्रतिपादित किया है। 'गिर निसा (गिरि निसा)' भी गिरि निषधका ही रूप है। इसमेंका गिरि शब्द एक अर्थ रखता है। पौराणिक भूगोलमें पहाड़की श्रृंखलाको 'पर्वत' और एक पहाड़को 'गिरि' कहते हैं अपर्वाणस्तु गिरयः पर्वभिः पर्वताः स्मृताः । वायु. ४९। १३२. __ अंग्रेजी में क्रमशः माउंटन और हिल जिन अर्थों में आते हैं, ठीक उन्हीं अर्थों में ये शब्द आते थे। इस भांति गिरि निषधका अर्थ हुआ निषध शृंखलाका एक पहाड़ और वात भी यही है। लोक-पद्मके पश्रिमी पर्वत निषधके 'केशरायलों में त्रिशृंग नामका भी पहाड़ आता है। वह त्रिशृंग अन्य नहीं, यही तीन शृंगवाला 'गिरि निसा' अर्थात् कोहेमोर है । इससे निर्विवाद रूपसे सिद्ध होता है कि हिंदूकुश ही अपने यहांका निषध पर्वत है। पौराणिक वर्णनों में कहीं तो इस निषधको मेरुके पश्चिम और कहीं दक्षिण कहने का यह अर्थ होता है कि इसकी स्थिति मेरुके पश्चिम-दक्षिणमें है, वस्तुतः ऐसा है भी। इलावृत वर्ष-पुराणों के अनुसार इलावृत चतुरस्र है और मेरु शरावाकृति है। इधर वर्तमान भूगोलमें पामीर प्रदेशका मान १५०४ १५० मील है, अर्थात् चतुरस्र है इसी प्रकार वह चारों ओर हिंदूकुश, १ विश्वकोष २६१९१०. २ भुवनकोषांक पृ. ४३. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना काराकोरम, काशार और अल्ताई पहाडोंकी ऊंची चोटियोंकी पट्टीसे परिमण्डित है-यह ठीक सकोरेकी आकृति हो गई, ऊंची चोटियोंकी शृंखला जिसकी दीवार हुई और बीचका चतुरस्र पैदा हुआ। यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि इस पामीरमें मेरु शब्द आश्लिष्ट है, यह शब्द सपाद-मेरुका जन्य है। मेरुके सम्बन्धमें सपाद-मेरु मेरुके महापादका व्यवहार प्रायः हुआ है, अतः यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरुका अंग जान पड़ता है। जैसा कि विद्वानोंका अनुमान है, अवश्य यह शब्द कश्यपमेरुका अपभ्रंश है। नीलमत पुराणके अनुसार भी काश्मीर कश्यपका क्षेत्र है। साथ ही तैत्तिरीयक अरण्यक (११७) में कहा गया है कि महामेरुको कश्यप नहीं छोड़ता। पौराणिक कालमें मेरु-मण्डल (पामीर प्रदेश ) का नाम कांबोज था। हैमवत- यह पहले भारत वर्षका ही दूसरा नाम रहा है। यथा इमं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम् । मत्स्य. ११२।२८. आगे चलकर वह स्वतन्त्र एक वर्ष मान लिया गया है। यथा इदं तु भारतं वर्षे ततो हेमवतं परम् । - भारत भीष्म ६।७. उपर्युक्त विषय-वर्णन और ग्रंथान्तरोसे तुलना द्वारा प्रस्तुत ग्रंथका संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो जाता है। ग्रंथका प्राकृत पाठ अनेक स्थलों पर सुरक्षित नहीं पाया जाता, यदि कुछ और हस्तलिखित व स्वतंत्र प्राचीन प्रतियां मिलाने के लिये हस्तगत हो जाय तो ग्रंथका और भी अधिक प्रामाणिक पाठ तैयार हो सकता है जिसे हम निश्चयसे लेखककी सच्ची रचना कह सकें। और तभी संभवतः ग्रंथके कुछ अशोकी असंगति और अप्रासंगिकताका निराकरण किया जा सकेगा ( उदाहरणार्थ, देखिये उद्देश १३ में कल्पोंका विवरण)। इस ग्रंथकी परम्परा कुछ बातोंमें सर्वार्थसिद्धि, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथोसे भिन्न पाई जाती है। किन्तु अर्धमागधी श्रुतांगकी जम्बूदीव-पण्णत्तिसे उसकी कुछ विषयोंमें आश्चर्यजनक समता दिखाई देती है। तिलोयपण्णत्तिके साथ उसका साम्य प्रचुर मात्रामें पाया जाता है। वहांकी अनेक गाथायें यहां जैसीकी तैसी अथवा कुछ हेर फेरके साथ पाई जाती हैं। उसकी जो गाथायें मूलाचार, बृहत्क्षेत्रसमास, त्रिलोकसार और ज्योति करण्डकमें भी पाई जाती हैं वे संभवतः जैन आचार्यों में परम्परासे प्रचलित करणानुयोगका अंश हों ! - यह संपूर्ण ग्रंथ गाथा छन्दमें और प्राकृत भाषामें रचा गया है। यह प्राकृत प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पिशेलके मतानुसार जैन शौरसेनी कहलाने योग्य है। कुछ क्षेत्रोंके भारी वर्णन हमें अर्धमागधीके लम्बे लम्ये समासोंसे युक्त रचनाशैलीका स्मरण कराते हैं। ५ ग्रंथकारका परिचय व रचनाकाल ग्रंथम उसके रचनाकालका कोई निर्देश नहीं है। तथापि ग्रंथकारने प्रशस्तिमें अपनी जो उपर्युक्त गुरुपरम्पराका वर्णन किया है (उद्देश १३, गा. १५३ आदि ) उसके अनुसार उनके गुरुका नाम वलनन्दि गरुके गुरुका नाम वीरनन्दि था। ग्रंथकार पद्मनन्दिने शास्त्रका ज्ञान विद्यागुरु श्रीविजयसे प्राप्त किया था और इस ग्रंथकी रचना उन्होंने माघनन्दिके शिष्य सकलचन्द्र के शिष्य श्रीनन्दिके लिये की थी। जिस नगरमें यह ग्रंथ लिखा गया था उसका नाम 'बारा नगर' था जो पारियत्त (पारियान) देशमें था जहां शक्तिकुमार (या शान्तिकुमार ) नामके राजा राज्य करते थे। पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक लेखमें यह प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया है कि विन्धाचलसे उत्तरका प्रदेश ही पारियात्र कहलाता था; राजस्थानके कोटा प्रदेशामें जो एक कसया चारा नामका है वही ग्रंथकारका बारा नगर होना चाहिये: नदिसंबकी • Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकारका परिचय व रचनाकाल १४३ पट्टावली में जो वाराके भट्टारकोंकी गहीका उल्लेख है जिसमें वि. सं. ११४४ से १२०६ तकके १२ भट्टारकोंके नाम दिये हैं, उसीसे संबद्ध पद्मनन्दिकी गुरुपरम्परा हो सकती है; तथा राजपूतानेके इतिहासमें जो गुहिलोत वंशी राजा नरवाहनके पुत्र शालिवाहनके उत्तराधिकारी शक्तिकुमारका उल्लेख मिलता है, वही ग्रंथमें उल्लिखित राजा होना संभव है। आटपुर ( आहाड़ ) के शिलालेखमें गुहदत्त (गुहिल ) से लेकर शक्तिकुमार तककी पूरी वंशावली दी है। यह लेख वि. सं. १०३४ वैशाख शुक्ला .१ का लिखा हुआ है। अतः यही काल जम्बूदीवपण्णत्तिकी रचनाका सिद्ध होता है (देखिये ना. प्रेमी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास' (बम्बई १९५६) में पृष्ठ २५६-२६५ पर 'पद्मनन्दि की जंबूदीव-पण्णत्ति' शीर्षक लेख)। उपलभ्य हस्तलिखित प्रतियोंमेंसे आमेरसे प्राप्त प्रति संवत् १५१८ की लिखी हुई है। अतः ग्रंथकारका उससे पूर्व होना स्पष्टतः प्रमाणित है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका १८ २४ २५ विषय ___ गाथा विषय गाथा १ प्रथम उद्देश (पृ. १-८) क्षेत्र-पर्वतोंकी खण्डव्यवस्था और उनका पंचपरमेष्ठिवन्दन करके दीप-जलधिप्रज्ञप्तिक विस्तारादि ___ कहनेकी प्रतिज्ञा क्षेत्रादिके बाणका प्रमाण सर्वज्ञगुण प्रार्थन क्षेत्रादिकी कलाओंकी संख्या वर्धमान जिनको नमस्कार करके श्रुतगुरु भरतादिके गुणकारोंका निर्देश परिपाटके कहनेकी प्रतिज्ञा कलाओंमें भरतादिकोंका विस्तार वर्धमान जिनसे लेकर आचारांगधारी विपरीत क्रमसे विदेहादिके बाणका प्रमाण २२ आचार्यों तकका नामोल्लेख जीवा, धनुषपृष्ठ, बाण, वृत्तविष्कम्भ, जीवाआचार्थपरम्परागत द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके करणी, धनुषकरणी, इषुकरणी, पार्श्वभुजा ___ कथनकी प्रतिज्ञा और चूलिकाके निकालने का विधान २३ द्वीप-सागरोंकी संख्याका निर्देश भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें स्थित वैताव्य जंबूदीपके विस्तार और परिधिका प्रमाण २० (विजयाई ) पर्वतोंका वर्णन परिधिप्रमाण लाने की विधि २३ वैताब्यपर्वतस्य जिनभवनोंका वर्णन वृत्त क्षेत्रके क्षेत्रफल निकालनेका विधान वैताब्य पर्वतोंके उभय पार्श्वभागोंके स्थित जंबूद्वीपका क्षेत्रफल वनखण्डोंका वर्णन जंबूद्वीपकी वेदिका और उसका विस्तारादि वैतान्य पर्वतस्थ तिमिस्र और खण्डप्रपात जगतीके इच्छित विस्तार जाननेकी रीति २८ जगतीकी उपरिम वेदिकाका उल्लेख ___ गुफाओंका वर्णन वेलंधर देवोंके नगर ३२ दक्षिण और उत्तर भरतक्षेत्रके बाणका प्रमाण ९९ विजयादिक गोपुरद्वारोंका वर्णन दक्षिण भरतकी जीवा और धनुषपृष्ठका प्रमाण १०१ जगतीके अभ्यन्तर भागमें स्थित वनखण्डौका उत्तर भरतकी जीवा और धनुषपृष्ठका प्रमाण १०३ वर्णन उत्तर भरतके मध्यम खण्ड में स्थित वृषभजंबदीपके भीतर स्थित क्षेत्रादिकोंकी संख्याका गिरिका उल्लेख १०५ निर्देश सब भरतक्षेत्रोंके मध्यम (आर्य) खण्डमें कुलाचल आदिकी वेदिकाओंकी संख्याका प्रवर्तमान ६ कालोंका नामोल्लेख और निर्देश उनका प्रमाण ११० नदीतट व पर्वतादिके ऊपर स्थित जिनप्रति विदेहादि क्षेत्रों में प्रवर्तमान शाश्वतिक कालोंका माओंको नमस्कार उल्लेख उद्देशान्त मंगल ७४ सुषमादि कालोंमें होनेवाले नर-नारियों के २ द्वितीय उद्देश (पृ. ९-३१) शरीरादिका प्रमाण ११९ उद्देशके आदिमें ऋषभ जिनको नमस्कार दस प्रकारके कल्पवृक्षोंका वर्णन १२६ सात क्षेत्रोंका नामोल्लेख २ । प्रथम तीन कालों ( भोगभूमियों ) का वर्णन १३८ UP ० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० विषयानुक्रमणिका १४५ विषय गाथा विषय गाथा मानुपोत्तर पर्वतके आगे और नगेन्द्र पर्वतके विस्तारका प्रमाण पूर्वमें स्थित असंख्यात द्वीपोंमें प्रवर्तमान । इन कूटोंके शिखरौपर स्थित भवनोंके कालका निर्देश करते हुए वहां उत्पन्न विस्तारादिका प्रमाण होनेवाले तिर्यंचोंका वर्णन १६६ इन कूटस्थ भवनोंकी शोभा द्वीप-समुद्रोंके प्राकारांका निर्देश गिरिवरकूटों, गिरिवरशिखरों और गिरिवरनगोंके विविध स्थानोंमें प्रवर्तमान कालोंका निर्देश १७३ ऊपर जिनभवनोंका उल्लेख चतुर्थ कालका वर्णन कुलपर्वतोपर स्थित ६ द्रहोंके नामोंका निर्देश पंचम कालका वर्णन १८६ तटवेदियोंका अवस्थान छठे कालका वर्णन १८८ द्रहांके आयाम आदिका प्रमाण प्रथमादि कालोमें होनेवाले नर-नारियोका पदमद्रहमें स्थित पदमकी उंचाई आदिका ___ वर्णन १०० उल्लेख पांच भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें अवस्थित इन द्रहोंमें स्थित कलभवनों में रहनेवाली ___ उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी कालोका निर्देश २०६ देवियोंका नामोल्लेख अन्तिम मंगल स्वरूप अजित जिनको नमस्कार २१० इन देवियोंकी सुन्दरताका वर्णन ३ तृतीय उद्देश (पृ. ३२-५६) श्री आदिक देवियोंके समस्त कमलभवनोंकी संख्याका निर्देश करके उनके परिवारका सम्भव जिनको नमस्कार करके शैलस्वभाव. वर्णन निरूपणकी प्रतिज्ञा निषध पर्वत पर्यन्त उन द्रहों में स्थित कमलोंके छह कुलपर्वतोंका नामोल्लेख हिमवान् और शिखरी पर्वतोंकी उंचाई आदिका विस्तारादिके दुगुणे-दुगुणे होनेका निर्देश १२७ जंबूद्रुमस्थ जंबूगृहोंकी समस्त संख्याका प्रमाण इन पर्वतोंके उभय पार्श्व भागांम स्थित निर्देश १२८ वनखण्डोंका उल्लेख समस्त जंबूगृहों और पद्मगृहोंमें जिनभवनों के ___ अवस्थानका उल्लेख महाहिमवान् और रुक्मि पर्वतोंकी उंचाई १३३ शाल्मलिद्रुमस्थ गृहों की संख्या १३४ आदिका प्रमाण निषध और नील पर्वतोंकी उंचाई उत्तम व जघन्य गृहोंका अवस्थान १३८ आदिका प्रमाण पद्मा आदिके ऊपर स्थित जिनभवनोंका वर्णन १३९ इन कुलपर्वतोंकी राजासे तुलना पद्मादि द्रहोंसे निकली हुई गंगादि नदियों का अंजन, दधिमुख, रतिकर, मंदर और कुण्डल उल्लेख तथा शेष पर्वतोंके अवगाहका प्रमाण पद्म द्रहसे निकलकर आगे जाती हुई गंगा हिमवान् पर्वत आदिकोंके ऊपर स्थित कूटोंकी नदीका वर्णन संख्या और उनके नामोंका निर्देश गंगादि कुण्डो, कुण्डद्वीपों, कुण्डनगों और मानुषोत्तर, कुण्डल और रुचक पर्वतौके कुण्डग्रासादोंका विस्तार टोंकी उंचाई गंगादि नदियोंकी धाराके विस्तारका प्रमाण १६८ छह कुलपर्वतोंके टोंकी उंचाई व गंगादि नदियों के धारापतनोंकी दीधताका प्रमाण १६५ १४७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना विषय . गाथा विषय गाथा नदीकुण्डस्थ प्रासादोंकी सुंदरताका दिग्दर्शन १७० मेरुकी पार्श्वभुजाका प्रमाण गंगा नदीका कुण्डद्वारसे निकलकर समुद्र में भद्रशाल वनका वर्णन प्रवेश भद्रशाल वनमें स्थित ४ जिनभवनोंका समुद्रप्रवेशमें गंगादि नदियोंके तोरणद्वारोंकी वर्णन उंचाई आदिका प्रमाण १७६ नन्दीश्वरद्वीपस्थ ५२ जिनभवनोंका इन तोरणद्वारोंकी सुंदरताका वर्णन विस्तारादि तोरणद्वारोंपर स्थित प्रासादाम रहनेवाली शेष ३ वनोंमें स्थित जिनभवनोंका देवियों का वर्णन १८७ विस्तारादि पूर्व व अपर समुद्रमें प्रविष्ट होनेवाली शेष मेरुओं सम्बन्धी जिनभवनोंका उल्लेख नदियोंका निर्देश मंदरवनों में स्थित सच जिनभवनों की संख्याका गंगादि नदियों के प्रवाहके विस्तार व निर्देश करके उनका कुछ विशेष वर्णन ६८ उंचाईका प्रमाण आठ दिग्गजेन्द्र पर्वतोंका वर्णन भरतादि क्षेत्रोंमें स्थित नदियोंकी संख्या १९६ मंदर पर्वतकी प्रथम श्रेणिका निर्देश नदियोंके सोपानों और वनोंका वर्णन २०० नन्दनादि वनों में स्थित सोमादिक लोकपालोंके हैमवत आदि क्षेत्रोंमें स्थित वृत्त वैताड्क्यों चार चार भवनोंका नामोल्लेख आदि (नाभिगिरि) का वर्णन बलभद्रकुटका वर्णन हैमवत आदि क्षेत्रोंकी दक्षिण-उत्तर जीवाओंका नन्दनवनमें स्थित ८ टोके नाम व उनका निर्देश २२८ विस्तारादि द्वीपके दक्षिण-उत्तर भागोंके स्वामी सौधर्म कूटगृहों में निवास करनेवाली दिक्कन्याव ईशान इन्द्रोंका उल्लेख २३३ कुमारियोंका उल्लेख हैमवत व हैरण्यवत तथा हरिव रम्यक नन्दनवनकी विदिशागत वापियोंका वर्णन क्षेत्रों में प्रवर्तमान कालोंका निर्देश करक सौमनस वनका वर्णन १२६ भोगभूमियोंका वर्णन २३४ पाण्डुक बनके मध्यमें स्थित चूलिकाका अन्तिम मंगल २४५ विस्तारादि १३२ . ४ चतुर्थ उद्देश (पृ. ५७-८६) चूलिकाके ऊपर बालाग्र मात्रके अन्तरसे ऋतु आद्य मंगलपूर्वक सुदर्शन मेरुके कथनकी विमानका अवस्थान १३६ प्रतिज्ञा पाण्डुक वनमें स्थित ४ शिलाओं के नाम व लोकका स्वरूप विस्तार आदिका वर्णन मंदर पर्वतकी उंचाई आदिका वर्णन २१ जिनजन्माभिषेक महोत्सवमै सपरिवार मंदर पर्वतकी सुंदरताका वर्णन __ आनेवाले इन्द्र के पारिषद और ७ अनीक कटि, शिर और कायका लक्षण देवों का वर्णन मेरुके इच्छित आयाम, परिधि और क्षेत्रफल लोकपाल व आत्मरक्ष देवोंका उल्लेख २५० - निकालनेके करणसूत्र ऐरावण हाथीका वर्णन २५३ मेमकी परिधियोंका प्रमाण ईशानादि शेष इन्द्रोंका आगमन २७१ २०९ । M . Y wwr २६ ३२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६७ वतस्थ विषयानुक्रमणिका १४७ विपय गाथा विषय गाथा अहमिन्द्र देवों का स्वस्थानमें स्थित रहते तोरणके आगे २-२ प्रासादोंका निर्देश हुए ही ७ पैर जाकर नमस्कार करनेका उनके आगे १०८० ध्वजाओंके अवस्थानउल्लेख २७६ का निर्देश उक्त देवगणोंकी सुंदरताका वर्णन २७७ आगे ४ वनखण्डकि अवस्थानका निर्देश अभिषेक कलशोंके विस्तारादिका निर्देश कर जिनभवन की सुंदरताका वर्णन जिनजन्माभिषेकका दिग्दर्शन २८३ देव-देवांगनाओं द्वारा किये जानेवाले पूजाउद्देशान्त मंगल २९२ महोत्सवका वर्णन ५ पंचम उद्देश (पृ. ८७-९९) जंबूद्वीपस्थ मेरुके समान शेष मेरुपर्वतों, . सुपार्श्व जिनको नमस्कार करके मंदर पर्वतस्थ कुलपर्वतों, वक्षारपर्वतों और नन्दनजिनभवनके प्ररूपणकी प्रतिज्ञा वनोंमें स्थित जिनभवनोंके विस्तारादिकी त्रिभुवनतिलक जिनेन्द्रभवनका नामनिर्देश विभिन्नताका निर्देश करके उसकी गन्धकुटीके विस्तारादिका पूजामहोत्सवार्थ यहां आनेवाले १६ इन्द्रों व प्रमाण अन्य देवोका वर्णन मंदर पर्वतके प्रथम वनमें स्थित ४ जिन इनके द्वारा किये जानेवाले पूजामहोत्सवका भवनोंका विस्तारादि वर्णन ११२ उन जिनभवनोंके ३ द्वारोंका उल्लेख करके नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डल द्वीप, मानुषोत्तर पर्वत उनके विस्तारादिका प्रमाण और रुचक पर्वतपर स्थित जिनभवनोंकी भवनद्वारोंके पार्श्वभागोंमें लटकती हुई मणि समानताका निर्देश १२० मालाओं, धूपघटो, रत्नकलशों, बाह्यभागस्थ अन्तिम मंगल १२५ मणिमालाओं, सुवर्णमालाओं, धूपघटों और ६ छठा उद्देश (पृ. १००-११७) . सुवर्णकलशोंकी संख्या पुष्पदन्त जिनेन्द्रको नमस्कार करके देवकुरु पीठोंके विस्तारादिका प्रमाण ___ व उत्तरकुरु क्षेत्रोंके कथनकी प्रतिज्ञा १ सोपानोंकी संख्या व उनाईका निर्देश २३ उत्तरका अवस्थान व विस्तारादि पीठवेदियोंकी उंचाई आदिका उल्लेख २४ नीलपर्वतके धनुषपृष्ठ और माल्यवान् पर्वतके देवच्छंद (गर्भगृह ) का उल्लेख २५ आयामका प्रमाण जिनप्रतिमाओंका वर्णन २७ वृत्तविष्कम्भके विधानपूर्वक उत्तरकुरुके वृत्त- . . ध्वजसमूहांका वर्णन विष्कम्भका निर्देश तोरणद्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, सभागृह, जीवा, धनुपपृष्ठ, वाण और वृत्तविष्कम्भके पीठ, स्तूप, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, ध्वजसमूह लानेकी विधि और वापियोंका वर्णन उत्तरकुरुका विस्तार 'शेप ३ दिशाओंमें स्थित जिनभवनोंके वर्णन दो यमक पर्वतोंका वर्णन ___ क्रमका निर्देश नीलवान् आदि ५ द्रहोंका वर्णन देवोंके कीड़ाप्रासादोंका वर्णन इन द्रहोंमें स्थित कमलों और वहां रहनेवाली उनकी पूर्वदिशामें स्थित तोरणका विस्तारादि ६२ नीलकुमारी आदि देवियोंका वर्णन २० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..८६ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना विषय गाथा विषय गाथा दहोंके पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागोंमें स्थित कच्छा आदि इन विजयोंकी विशेषताका १०.१० कंचनशैलोंका वर्णन दिग्दर्शन सीता नदीका समुद्रप्रवेश नील पर्वतके पासमें कच्छा विजय सम्बन्धी सुदर्शन नामक जंबू वृक्षका वर्णन वण्डोंके विस्तार आदिका प्रमाण ७३ देवकुरुका अवस्थान कच्छा विजयस्थ वैताव्यका वर्णन दो यमक पर्वतों, १०० कंचन पर्वतों और वैताम्यके मूलमें कच्छाखण्डौका विस्ताप्रमाण ८४ ५द्रहोंका निर्देश ८२ रक्ता-रक्तोदा नदियोका विस्तार शाल्मलि वृक्षका अवस्थान सीता नदीके तटपर कच्छास्यण्डोंका विस्तारचित्र और विचित्र नामक यमक पर्वतोंका प्रमाण वर्णन ८७ रक्ता-रक्तोदा नदियोंका कुण्डोंसे निर्गम और निषधद्रह आदि ५ द्रहोंका वर्णन ११८ सीतानदीमें प्रवेश द्रहोंमें रहनेवाली निषधकुमारी आदि तोरणद्वारोंकी उंचाई आदिका उल्लेख .. ५ देवियोंका वर्णन १३४ मागध, बरतनु और प्रभास द्वीपोंका उल्लेख १०४ द्रहों के दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित १०-१० कच्छा विजयके वण्डोंका विभाग ___ कंचन शैलोंका १४४ चक्रवर्तियों की विशेषता १११ स्वाति नामक शाल्मलि वृक्षका वर्णन १४८ चक्रवर्तियोंकी दिग्विजयका वर्णन ११५. उत्तरकुर और देवकुरु क्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए ऋषभ शैलको देखकर चक्रवर्तीके मानमर्दनका मनुष्योंका वर्णन निर्देश १४८ उद्देशान्त मंगल १७८ उद्देशान्त मंगल - ७ सातवां उद्देश (पृ. ११८-१३३) ८ आठवां उद्देश (पृ. १३४-१५३) श्रेयांस जिनको नमस्कार करके विदेह क्षेत्रके विमल जिनेन्द्रको नमस्कार करके पूर्व विदेहके कथनकी प्रतिज्ञा कथनकी प्रतिज्ञा महाविदेह क्षेत्रका अवस्थान व विस्तार आदि चित्रकूट पर्वतका वर्णन मेरुका विस्तार और आयाम सुकच्छा विजयका अवस्थान २ वनखण्डौं, ४ देवारण्यों, ८ वेदिकाओं, क्षेमपुरीका वर्णन १२ विभंगानदियों, १६ वक्षारों, ३२ ग्रहवती विभंगानदी - विजयों और ६४ गंगा-सिंधू नदियोंके महाकच्छा विजय आयामका निर्देश अरिष्ट नगरी कमसे इन सबके विस्तारप्रमाणका निर्देश पद्मकूट पर्वत इच्छित विजयादिकोंके अभीष्ट विस्तारके कच्छकावती विजय जाननेका विधान अरिष्टपुरी कच्छा विजयका वर्णन द्रहवती विभंगानदी कच्छाविजयस्थ क्षेमा नगरीका वर्णन आवर्ता विजय क्षेमा नगरीके राजा (चक्रवर्ती) का वर्णन खड्गा नगरी १४ AU WW ४३ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलिनकूट पर्वत मंगलावर्त विजय विषय मंजूषा नगरी पंकवती विभंगानदी विभंगानदियोंके तोरणद्वारोंकी उंचाई आदिका उल्लेख पुष्कला विजय औषधि नगरी पर्व महापुष्कलावती विजय पुण्डरीकणी नगरी इसके पूर्व सुवर्णवेदिका देवारण्यका वर्णन इसकी दक्षिण दिशागत द्वितीय देवारण्यका वर्णन नसंचया नगरीका वर्णन पूर्वविदेहकी विशेषता उद्देशान्त मंगल विषयानुक्रमणिका गाथा ३९ ४२ ४६ ४८ ५१ ५५ ६१ उसके पश्चिममें स्थित वेदिकाका उल्लेख ८६ १०१ विजय, सुसीमा नगरी व त्रिकूट पर्वत; १०३ सुबत्सा विजय, कुण्डला नगरी व तप्तजला विभंगा नदी महावत्सा विजय, अपराजिता नगरी व वैश्रवणकूट पर्वत बसकावती विजय, प्रभंकरा नगरी व मत्तजला विभंगानदी रम्या विजय, अंकावती नगरी व अंजनगिरि पूर्व सुरम्या विजय, पद्मावती नगरी व उन्मत्तजला विभंगानदी भिंगाके आयाम आदिका वर्णन रमणीय विजय, शुभा नगरी व आत्मांजन पर्वत मंगलावती विजयका वर्णन ६४ ६८ ७२ ७५ ७७ ११४ १२३ १३२ १४० १५० १५७ १६५ १७५ १९१ १९३ १९८ विषय ९ नौवां उद्देश (पृ. १५४ - १७२ ) १४९ धर्म जिनेन्द्रको नमस्कार कर अपरविदेहके कथनकी प्रतिज्ञा रत्नसंचया नगरीके पश्चिममें स्थित सुवर्णमय वेदिकाका उल्लेख वेदिकासे ५०० योजन जाकर स्थित सौमनस पर्वतकी उंचाई आदिका निरूपण सौमनस पर्वत के पश्चिम में स्थित विद्युत्प्रभ पर्वतके आयामादिका निरूपण सुवर्णमय वेदीका उल्लेख पद्मा विजय, अश्वपुरी नगरी व श्रद्धावती पर्वत पद्माकावती विजय, विजयपुरी व सीतोदा नदी शंखा विजय, अरजा नगरी व आशीविष पर्वत नलिना बिजय, विरजा नगरी व स्रोतोवाहिनी नदी कुमुदा विजय, अशोका नगरी व सुखावह पर्वत सरिता विजय, विगतशोका नगरी व सुवर्णमय वेदिका वेदिका पश्चिममें देवारण्यका अवस्थान विजयादिकोंका विस्तारप्रमाण विजयोंके आयामका प्रमाण द्वितीय देवारण्य और सुवर्णमय वेदिका प्रा विजय, विजयपुरी व चन्द पर्वत सुप्रा विजय, वैजन्ती नगरी व गम्भीरमालिनी नदी महावप्रा विजय, जयन्ता नगरी व सूर्य पर्वत १६ सुपद्मा विजय, सिंहपुरी नगरी व क्षारोदा नदी २४ महापद्मा विजय, महापुरी नगरी व विकटावती पर्वत गाथा ३ १० १३ ३२ ३९ ४६ ५५ ६४ ७३ ७८ ७९ ८७ ८८ ९३ १०२ ११२ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा . जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना विषय विषय गाथा वप्रकावती विजय, अपराजिता नगरी व लवणसमुद्रकी दिकाकी उंचाई आदि फेनमालिनी नदी १२२ उद्देशान्त मंगल १०२ वल्गू विजय, चक्रपुरी व महानाग पर्वत १३० ११ ग्यारहवां उद्देश (पृ. १८५-२२२) सुवल्गू विजय, खड्गपुरी ऊर्मिमालिनी नदी १३९ गन्धिला विजय, अयोध्या नगरी व देव पर्वत १४९ मल्लि जिनेन्द्रको नमस्कार कर दीप-समुद्रादिके गन्धमालिनी विजय कथनकी प्रतिज्ञा १५७ अवध्या नगरीका वर्णन धातकीखण्ड द्वीपका अवस्थान व विस्तार १६४ विदेह क्षेत्र में सम्प्रदायान्तरोंके अभावका दो इष्वाकार पर्वतोंका उल्लेख उल्लेख क्षेत्रों व पर्वतो आदिका विस्तार १७१ सुवर्णमय वेदिका १७३ धातकीखण्डमें स्थित क्षेत्रों व पर्वतोंका आकार ८ गन्धमादन पर्वत १७६ धातकीखण्डकी मध्य व वाह्य परिधिका प्रमाण ११ मालवन्त पर्वत १७८ पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण सुवर्णमय वेदिका १८२ पर्वतरहित क्षेत्रके २१२ खण्डोंका निर्देश यक्षार पर्वतोंपर स्थित जिनभवनोका वर्णन १८६ भरतक्षेत्रका विस्तार उद्देशान्त मंगल १९७ धातकीखण्ड व पुष्कर द्वीपों में स्थित मेरुओंका वर्णन १० दसवां उद्देश (पृ.१७३-१८४) इन मेरुओं, इष्वाकारों व धातकीवृक्षों कुंथु जिनेन्द्रको नमस्कार कर लवणसमुद्रके आदिके वर्णनकी पूर्व वर्णनसे समानताका कथनकी प्रतिज्ञा निर्देश लवणसमुद्रके विस्तारका निर्देश कर उसमें धातकीखण्डके जंबूद्वीपप्रमाण खण्डोंका निर्देश स्थित ज्येष्ठ, मध्यम और जघन्य धातकीखण्डका क्षेत्रफल पातालोंका निरूपण कालोदक समुद्रका वर्णन पूर्णिमा व अमावस्याके दिन लवणसमुद्रकी पुष्करवर द्वीपका वर्णन उंचाई जंबूद्वीपादि १६ द्वीपोंके नामोंका निर्देश समुद्रमें होनेवाली हानि-वृद्धिका वर्णन समुद्रोंके नामोंका उल्लेख वेलंधर देवोंके ८ पर्वतोंका वर्णन लवण, कालोद और स्वयम्भूरमणको छोड़कर पन्नग देवोंके नगरीका उल्लेख शेष समुद्रोंमें जलचर जीवोंके न होने का गौतम द्वीपका वर्णन उल्लेख २४ कुमानुषद्वीपोंका अवस्थान लवणसमुद्रादिमें स्थित मत्स्यादिकोकी उंचाई कुमानुषोंका वर्णन लवणसमुद्रादिके जलका स्वाद कुमानुष पर्याय प्राप्त होनेके कारण ग्रन्थीका अवस्थान कुमानुषोंके यौवन व उत्सेध आदिका निरूपण ८० लोकका आकार व विस्तार आदि लवणसमुद्रकी परिधिका प्रमाण सात पृथिवियोंका नामोल्लेख कर स्नप्रभा लवणसमुद्रके जंबूद्वीपप्रमाण खण्ड, क्षेत्रफल पृथिवीका वर्णन ११२ . और सूची आदिके लानेका विधान शेष ६ पृथिवियोंकी मुटाईका प्रमाण १२२ ३५ G . ८८ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय भवनवासी और व्यन्तरोंके आवास इन पृथिवियोंमें तथा भवनवासी व व्यन्तर देवोंकी आयु आदिका उल्लेख रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें स्थित नरकका अवस्थान व संख्या पृथिवीक्रमसे नरक प्रस्तारोंकी संख्या व नाम नरकों में उत्पन्न होने के कारणों व वहांके दुःखका वर्णन रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण विविध क्षेत्रोंसे नरकोंमें उत्पन्न होने वाले जीवका उल्लेख द्वीप - सागर संख्या अढ़ाई द्वीप व स्वयम्भूरमण द्वीपको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें उत्पन्न हुए तिर्ये चोंका स्वरूप विमलादिक इन्द्रक विमानोंका उल्लेख इकतीसर्वे पटलका वर्णन प्रभ विमानका वर्णन सौधर्म इन्द्रका वर्णन विमानोंका विस्तार व आकृति सौधर्म इन्द्रकी आयु आदिका वर्णन सौधर्म इन्द्रकी देवियांका वर्णन सौधर्म इन्द्रके परिवारदेवों का वर्णन ईशान इन्द्रका वर्णन शेष इन्द्रक पटलोंका नामोल्लेख विमानोंका अन्तर आदि वैमानिक देवोंके शरीरोत्सेध व आयुका प्रमाण सुरालयमै उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तिर्यचका उल्लेख ईषत्प्राग्भार पृथिवीका वर्णन विषयानुक्रमणिका गाथा १२३ १८६ अढ़ाई द्वीपमें उत्पन्न मनुष्य-ति ये चौकी गति १९० ऋतु विमानका वर्णन १९३ २०२ १३७ १४२ १४५ १५६ १७८ १७९ १८३ २१३ २२५ २३० २४४ २५० २५८ २७० ३०९ ३२८ ३४४ ३४६ ३५६ ३५९ विषय चन्द्र विमानका वर्णन सूर्य आदि विमानोंके वाहक देवोंकी संख्या जंबूद्वीपादिकमें चन्द्रोंकी संख्याका निर्देश आगे के द्वीप - समुद्रों में चन्द्रसंख्याके लानेका विधान उद्देशान्त मंगल ३६.५ १२ बारहवां उद्देश (पृ. २२३-२३४ ) नमिनाथको नमस्कार कर ज्योतिष पटलके कथनकी प्रतिज्ञा पुष्करवर समुद्रको आदि लेकर नंदीश्वर द्वीप पर्यन्त चन्द्रसंख्याके क्रमका उल्लेख आगे द्वीप समुद्रों में भी उक्त क्रमका निर्देश सूर्य, तारा, ग्रह और नक्षत्रोंकी संख्या के क्रमका उल्लेख असंख्यात द्वीप - समुद्रों में समस्त चन्द्रसंख्याके लानेका विधान १५१ ज्योतिषी देवोंके भवनोंका वर्णन ज्योतिष राशिके लानेका विधान पांच प्रकारके ज्योतिषी देवकी पृथक् पृथक् समस्त संख्या लाने के गुणकारोंका निर्देश समस्त ज्योतिषियोंकी संख्या ज्योतिषी देवोंका अवस्थान चन्द्रादिकोंकी आयुका प्रमाण चन्द्रमण्डलादिकों के विस्तारका प्रमाण ताराओंका अन्तरप्रमाण सूर्यों व चन्द्रोंके अन्तरका प्रमाण मेरुसे ज्योतिषी देवोंका अन्तर जंबूद्वीपकी अपेक्षा दुगुणी दुगुणी ज्योतिष संख्याका निर्देश एक चन्द्रका परिवार • गाथा १ २ ११ १३ १६ २१ ३३ ३४ ३६ ७४ ७६ ८७ ८९ ९२ १०४ जंबूद्वीपमें स्थिर ताराओंकी संख्या १०५ जंबूद्वीपादिकमें चन्द्र-सूर्योकी संख्याका निर्देश १०६ जंबूद्वीपमें संचार करनेवाले ज्योतिषियों की अलग अलग संख्याका निर्देश ९५ ९७ १०० १०१ १०३ १०८ १०९ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?'१२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना विषय गाथ . विषय गाथा ज्योतिषी देवोंके प्रासादोंका वर्णन उद्देशान्त मंगल १३ तेरहवां उद्देश (पृ. २३५-२५४) पार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार कर प्रमाणभेदके कथनकी प्रतिज्ञा कालके दो और तीन भेदोंका निर्देश । समयादि रूप कालभेदोंका वर्णन . परमाणुका स्वरूप अवसन्नासन्नादि मानभेदोंका उल्लेख अंगुलभेदोंका वर्णन पाद व वितस्ति आदि मानभेदोंका स्वरूप पल्योपमके भेद व उनका स्वरूप पल्य-सागर आदि ८ मान भेदोंका निर्देश सर्वज्ञसाधनार्थ प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका उल्लेख प्रत्यक्ष व परोक्षके भेद-प्रभेदोंका वर्णन आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोंका विवरण भुतज्ञानका वर्णन व्यक्तिकी प्रमाणतासे वचनों की प्रमाणताका उल्लेख सर्वज्ञका स्वरूप देवके विविध नामोंका निर्देश पंच कल्याणकोंका उल्लेख स्वाभाविक १. अतिशयोंका उल्लेख KWWW.KI घातिक्षयसे उत्पन्न १० अतिशयोंका उल्लेख ९८ देवकृत १४ अतिशयोंका उल्लेख आठ मंगलद्रव्योंका विवरण . ११२ आठ प्रतिहार्योंका विवरण १२२ घातिकमोंके क्षयसे उत्पन्न गुणोंका उल्लेख . १३१ १८ हजार शीलों व ८४ लाख गुणोंका निर्देश सर्वज्ञभाषित अर्थके ग्रहणकी प्रेरणा १३७ ग्रन्थकर्ता द्वारा आचार्य परम्परागत परमेष्ठि भाषित ग्रन्थार्थके लिखे जानेकी सूचना १४० श्री विजय गुरुके समीपमें जिनागमको सुनकर .. अढाई द्वीपमें स्थित इष्वाकारादि पर्वतों, शाल्मलि आदि वृक्षों, महानदियों तथा तीन लोक सम्बन्धी अन्य विकल्पोंके किये गये वर्णनकी सूचना १४४ माघनन्दी गुरुके प्रशिष्य और सकलचन्द्र गुरुके शिष्य श्रीनन्दी गुरुके निमित्त जंबू द्वीपप्रज्ञप्तिके लिखे जानेकी सूचना १५३ ग्रन्थकर्ता द्वारा अपने दीक्षागुरु वलनन्दी _और प्रगुरु वीरनन्दीका उल्लेख १५८ पारियात्र देशके अन्तर्गत वारा नगरमै स्थित रहकर शक्ति या शान्ति भूपालके शासनकालमें प्रकृत ग्रन्थके लिखे जानेका उल्लेख १६८ अन्तिम मंगल १७१ V No Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमणंदि-विरइया जंबूदीवपण्णत्ती [पढमो उद्देसो] देवासुरिंदमहिदे दसद्धरूवूणकम्मपरिहोणे । केवलणाणालोए सद्धम्मुवदेसए' अरुहे ॥" अट्ठविहकम्मरहिए भट्टगुणसमण्णिदे' महावीरे । लोयग्गतिलयभूदे सासयसुहसंठिदे सिद्धे ॥२ पंचाचारसमग्गे पंचेंदियणिज्जिदे विगयमोहे। पंचमहन्वयणिलए पंचमगइणायगायरिए ॥१ परसमयतिमिरदलणे परमागमदेसए उवज्झाए । परमगुणरयणणिवहे परमागमभाविदे वीरे ।।। णाणागुणतर्वणिरए समयन्भासग्गहायपरमरथे । बहुविविहजोगजुत्ते जे लोए सम्वसाहुगणे ।। ५ ते वंदिण सिरसा वौच्छामि जहाकमेण जिणदिई। भायरियपरंपरया पण्णतिं दीवजलधीणं॥ सम्वण्डं सम्वजिणं भवियंभोरुहदिवायरं भवरहियं । सम्वामरवइमहिय सध्वण्हुगुणं समादिसहु ॥ देवेन्द्रों व असुरेन्द्रोंसे पूजित, दसके आधेसे एक कम अर्थात् चार घातिया कोसे रहित, केवलज्ञान रूप प्रकाशसे सहित, और समीचीन धर्मके उपदेशक अरिहन्तोंको; आठ प्रकारके कर्मोंसे रहित, आठ गुणोंसे समन्वित, महावीर, लोकशिखरके तिलक स्वरूप, और शाश्वत सुखमें स्थित सिद्धोको; पंचाचारसे युक्त, पांच इन्द्रियोंके विजेता, मोहसे रहित, पांच महाव्रतोंके स्थानभूत, और पंचम गतिके नायक आचार्योंको; परसमय रूप अंधकारको नष्ट करनेवाले, पुरमागमके उपदेशक, उत्कृष्ट गुण रूप रत्नोंके समूहसे युक्त और परमागमके संस्कारसे सहित वीर उपाध्यायोंको; तथा नाना गुण युक्त तपमें निरत, स्त्रसमयाभ्यास अर्थात् शास्त्रस्वाध्यायसे परमार्थको ग्रहण करनेवाले और बहुत प्रकारके योगोंसे युक्त जो लोकमें सर्वसाधुगण हैं; उनको शिरसे नमस्कार करके ययाकमसे जिनभगवान्के द्वारा उपदिष्ट एवं आचार्यपरम्परासे प्राप्त हुई द्वीपसमुद्रोंकी प्रज्ञप्तिको कहता हूं ॥ १-६॥ सर्वज्ञ, भव्य रूप कमलोंके लिए दिवाकर स्वरूप, भवसे रहित, और सर्व अमरपतियोंसे पूजित समस्त जिन सर्वज्ञगुणको प्रदान करें ॥७॥ १प सद्धम्मुवएसदा, ब सद्धम्मुवयेसदा. २ पब समणिदे. ३५ ब पंचेदियणिजदे. ५५ णाणातवगुण. ५ उप ससमयम्भाव गहिय, ब ससमयसप्तादगहिय, श समयन्मावगहिय. ६ उपश बहुविह. ७पब मवरहिंदं. ८ उश वारहियं. जं.दी. १. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती [ १.८ णमिऊण' वढमाणं ससुरासुरवंदिदं विगयमोहं। वरसुदगुरुपरिवाडि वोच्छामि जहाणुपुथ्वीए ॥८ विउलगिरितुंगसिहरे जिगिदईदेण वड्डमाणेण । गोदममुणिस्स कहिदं पमाणणयसंजुदं अत्यं ॥ ९ तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण | गणधरसुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिटुं॥१० चदुरमलबुद्धिसहिदे तिण्णेदे गणधरे गुणसमग्गे। केवलणाणपईवे सिद्धिं पत्ते णमंसामि ॥" णदीय दिमित्तो अवराजिदैमुणिवरो महातेओ। गोवणो महप्पा महागुणो भद्दयाहू य ॥ १२ पंचेदे पुरिसवरा च उदसपुवी हवति णायब्वा । बारसभंगधरा खलु वीरजिणिंदस्स णायब्वा ॥ १३ तह य विसाखायरिओ पोटिलो खत्तिमो य जयणामोराणागो सिद्धत्यो वि य धिदिसणो विजयणामो य ॥१४ बुद्धिल्ल गंगदेवो धम्मस्सेणो य होइ पच्छिमओ। पारंपरेण एदे दसपुवधरा समक्खादा ॥ १५ णक्खत्तो जसपालो पंडू धुवसेण कंसआयरिओ । एयारसंगधारी पंच जणा होति णिहिट्ठा ॥ १६ । णामेण सुभद्दमुणी जसमद्दो तह य होइ जसबाहू । आयारधरा णेया अपरिछमो लौहणामो य ॥ १७ आइरियपरंपरया सायरदीवाण तह य पण्णत्ती। संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणुपुवीए ॥ १८ सुर एवं असुरोंसे वंदित और मोहसे रहित वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके उत्तम श्रुतके धारक गुरुओंकी परम्पराको अनुक्रमसे कहता हूं ॥ ८ ॥ विपुलाचल पर्वतके उन्नत शिखरपर जिनेन्द्र भगवान् वर्धमान स्वामीने प्रमाण और नयसे संयुक्त अर्थका गौतम मुनिको उपदेश दिया। उन्होंने ( गौतम गणधरने ) लोहार्यको, और लोहार्य अपर नाम सुधर्म गणधरने जम्बू स्वामीको उपदेश दिया ॥ ९-१०॥ चार निर्मल बुद्धियों ( कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, संमिन्नश्रोतबुद्धि और पदानुप्तारिणी बुद्धि) से सहित, गुणोंसे परिपूर्ण, केवलज्ञान रूप उत्कृष्ट द्वीपकसे संयुक्त और सिद्धिको प्राप्त इन तीनों गणधरोंको नमस्कार करता हूं ॥ ११ ॥ नन्दी, नन्दिमित्र, महा तेजस्वी अपराजित मुनीन्द्र, महात्मा गोवर्धन और महागुणोंसे युक्त भद्रबाहु, ये पांच श्रेष्ठ पुरुष चौदह पूर्वोके धारक अर्थात् श्रुतकेवली थे, ऐसा जानना चाहिये । वीर जिनेन्द्रक [ तीर्थमें ] इन्हें बारह अंगोंके धारक जानना चाहिये ॥ १२-१३ ॥ तथा विशाखाचार्य, प्रेष्ठिल, क्षत्रिय, जय नामक, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय नामक, बुद्धिल्ल, गंगदेव और अन्तिम धर्मसेन, ये परम्परासे दस पूर्वोके धारक कोहे गये हैं ॥१४-१५॥ नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवषेण और कंसाचार्य, ये पांच जन ग्यारह अंगोंके घारक निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १६ ॥ नामसे सुभद्र मुनी, यशोभद्र, यशोबाहु और अन्तिम लोहाचार्य, ये चार आचार्य आचारांगके धारी जानना चाहिये ॥१७॥ आनुपूर्वी के अनुसार आचार्यपरम्परासे प्राप्त सागर-द्वीपोंकी समस्त प्रज्ञप्तिको संक्षेपमें कहता हूं ॥ १८ ॥ पच्चीस कोडाकोड़ी उद्धार पल्पोंमें १उ नविऊण, पब श णविऊण. २५व सुधम्मणा य द वलु. ३ उप तिनेदे, ब सिनेदे. ४पब नमसामि. ५उ श णदि.६पब दिमित्ते. ७ प अवराजिय, व अवयविय. ८पब तेऊ. ९पब लोहणामे य. १० उप श समस्थं, ब समछा. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :-१. २७) पढमो उद्देसो पणुवीसकोडिकोडी उद्धारपमाणपल्लसंखाए । जत्तियमेत्ता रोमा तावदिया होति दीउदधी ॥११ रविमंडलं व वट्टो विक्खंभायामजोयणालक्खो । दीवोदधीण मज्झे जंबूदीवो समुहिटो ॥ २० परिधी तस्स दुणेया लक्खा तिण्णेव सोलससहस्सा | बेसयसत्तावीसा जोयणसंखा पमाणेणं ॥ २१ गाउ तिणि वि जाणसु अट्ठावीसा सयं च धणुसंखा | तेरस अंगुलपव्या अद्वंगुल मेव सविसेसं ॥ २२ विक्खंभेणब्भत्थं विक्खंभ' दसगुणं पुणो काउं। जं तस्स वग्गमूल परिरयमेदं वियाणाहि ॥ २३ विक्खंभचदुब्भागेण संगुणं' होइ परिधिपरिमाणं । पदरगदं खेत्तफलं लई रविमंडलाण तहा ।। २४ सत्तसयणउदिकोडीसमधियछप्पण्णसयसहस्साई। चदुणउदिं च सहस्सा दिवसयजोयणा णेया ॥ २५ जोयणअट्टच्छेधा विउलामलवज्जवेदिया दिव्वा । परिवेढिदूण अच्छदि जंबूदीवस्स सम्वत्तो ॥२६ मूले बारह जोयण मज्झे भटेव जोयणा णेया । उवार चत्तारि हवे वित्थारो तीए जगदीए ॥ २७ जितने रोम समा सकते हो उतने द्वीप-समुद्र हैं ॥१९॥ द्वीप समुद्रोंके मध्यमें सूर्यमण्डलके सदृश गोल और एक लाख योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित जम्बूद्वीप कहा गया है ॥२०॥ उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस प्रमाण योजन, तीन गव्यूति, एक सौ अट्ठाईस धनुष, तेरह अंगुल और आध अंगुलसे कुछ अधिक जानना चाहिये ॥२१-२२ ॥ विष्कम्भसे गुणित विष्कम्भको अर्थात् विष्कम्भके वर्गको दसगुणा करके पुनः उसका जो वर्गमूल हो वह परिधिका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २३ ॥ उदाहरण- जम्बूद्वीपका विष्कम्भ १००००० यो; V१०००००-१०३१६२२७ यो. ३ कोश १२८ धनुष १३३ अंगुलसे कुछ अधिक, यह जम्बूद्वीपकी परिधिका प्रमाण है। परिधिप्रमाणको विष्कम्भके चतुर्थ भागसे गुणा करनेपर रविमण्डलके सदृश गोल क्षेत्रोंका प्रतरगत क्षेत्रफल प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ उदाहरण- परिधि साधिक ३१६२२७३ यो.; ३१६२२७३ ४ १ ० ० ० ०० = साधिक ७९०५६९४१५० यो. जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल । जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल सात सौ नब्बै करोड़ छप्पन लाख चौरानबै हजार एक सौ पचास योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ २५ ॥ आठ योजन ऊंची, विशाल दिव्य निर्मल वज्रमय वेदिका जम्बूद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित करके स्थित है ॥ २६ ॥ उस जगतीका विस्तार मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ ही योजन और ऊपर चार योजन प्रमाण जानना १पब पणवीस. २पब दीवुदधी. ३पय गाउअ.४उ विवखंमेण भरथं विक्खम,ब विक्खंतेणप्त विक्वंत, श विभेण य भत्तं विक्वंमं. ५ उ विक्खंभवदुभागण य संगुणं, ब विक्खंतबहुभागेण संगुणं, श मिक्खंभ चमोगण य संगणं. ६ उ अड्डठेघा; प अटुग्छेदा, व अटुछेधा, श अच्छेचा. ७ प प परिवेटदूण Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती [ १.२८ सोलसदलमिछगुणं' (१) जस्थिच्छसि सोलसद्धभागम्मि । सोलसदलबलसहिदं इच्छफलं होइ जगदीए ॥२८ चत्तारिधणुसहस्सा उत्तंगा कणयवेदिया दिव्वा । वरवज्जणीलमरगयणाणाविहरयणसंछण्णा ॥ २९ तिस्सेव य जगदीए उवरिं वरवदिया रयणचित्ता। पंचसयदंडभित्तों वित्थारो तीऐ पण्णत्तो ।। ३ चत्तारिधणुसहस्सा अड्डादिज्जासएहि परिहीणा । बेजोयणवित्थिण्णा दोस वि पासेसु जगदीए ॥३॥ घेलंधरदेवाणं हवंति णगराणि तत्थ रम्माण। अब्भंतरश्मि भागे महोरगाणं च विण्णेया ॥ ३२ भहिसेयणदृसालाउववादसभाघराणि रम्माणि । पायारगोउरालय अणाइणिहणाणि सोहंति ॥३३ कंचणपवालमरगयकक्केयणपठमरायमणिणिवहा । तोरणवंदणमाला सुगंधगंधुदधुर्या रम्मा ॥ ३४ पुण्णागणागचंपयअसोयवरबउलतिलयवच्छादी । उभो पासेसु तहाँ उववणसंडा विरायति ॥ ३५ कल्हारकमलकंदलणीलुप्पलकुमुदकुसुमसंछण्णा । पोक्खरिणिवाविवप्पिणिसुंदीहियाओ विरायति ॥३६ १ चाहिये ॥ २७ ॥ सोलहके अर्थ माग अर्थात् आठ योजनकी उंचाईमें जहाँ कहीं भी जगतीके विस्तारके जाननेकी इच्छा हो [ वहां जगतीके शिखरसे जितना नीचे उतरे हों उतनेमें एकका भाग देनेपर जो प्राप्त हो उसमें ] सोलहके दलके दल अर्थात् चार (१६२२ = ४ ) को मिलानेपर जगतीके अभीष्ट विस्तारका प्रमाण होता है । [जैसे उपरिम भागसे १ योजन नीचे उतर कर यदि वहांका विस्तार जानना है तो वह १ + ४ = ५. इस प्रकारसे पांच योजन एक कोश होगा ]॥ २८ ॥ उसी जगतीके ऊपर चार हजार धनुष ऊंची उत्तम वज्र, नील और मरकत आदि नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। रत्नोंसे चित्रविचित्र उस उत्तम वेदिकाका विस्तार पांच सौ धनुष मात्र कहा गया है ॥ २९-३० ॥ जगतीके दोनों पार्श्वभागोमें अढ़ाई सौ धनुष कम जो चार हजार धनुष प्रमाण विस्तार है वापर बेलंधर देवोंके दो योजन विस्तीर्ण रमणीय नगर हैं। उसके अभ्यन्तर भागमें महारग देवोंके नगर जानना चाहिये ॥३१-३२॥ उनमें अभिषेकशाला नाट्यशाला और उपपादसभा, ये प्राकार एवं गोपुरालयोंसे संयुक्त अनादि-निधन रमणीय घर शोभायमान हैं ॥ ३३ ॥ वे रमणीय भवन सुवर्ण, प्रवाल, मरकत, कर्केतन और पद्मराग मणियोंके समूहसे निर्मित; तोरण एवं वंदनमालाओंसे मुशेभित, तथा सुगन्धित गन्धके प्रसारसे युक्त हैं ॥३४॥ वेदिकाके उभय पार्श्वभागोंमें पुन्नाग, नाग, चम्पक, अशोक, उत्तम वकुल और तिलक आदि वृक्षोंसे सहित उपवनषण्ड विराजमान हैं ॥ ३५ ॥ वनषण्डोंमें कल्हार (सफेद कमल), कमल, कंदल, नीलोत्पल और कुमुद कुसुमोसे व्याप्त पुष्करिणी, वापियां, वप्रिणी (१) एवं उत्तम दीर्घिकायें विराजमान हैं ॥ ३६ ॥ स्वाभाविक सौन्दर्यसे संयुक्त, और जिन--सिद्धभवन. १श दलम्मिगुण. २पब मेता. ३ श सीय. ४ पब विछिन्ना. ५ उश सभाव्वराणि. ६ उ सुगंधगंधद्धया, प सुगंधुसंधधुया, ब सुगंधुगंधच्या. ७ उ उभत्तुं पासेसु तहा, प उभऊणसेस तहा, बयमऊपासेसु सहा. ८ उपब पोखराणिवाविवप्पिण, श पोखरण व वि विचप्पिण. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १८) पढमा उद्देसो सयलं जंबूदीव' परिरयदि पुरं सभावरसपुग्णं । जिणसिद्धभवणणिवेहं को सका वण्णिउं सयलं ॥ ३७ जंबूदीवस्स तहा गोउरदाराणि होति चत्तारि । विजयं तु वेजयंत जयंतमपराजिय चेव ॥३८ पुवादिसणं विजयं दक्षिणभागेण वइजयंतं तु । होइ य पच्छिमभागे जयंतमपराजियं च उत्तरदो ॥३९ वरणियरयणमरगयणाणारयणोवहारकयसोदा । जोयणभट्ठस्सेहा तदद्धविक्खंभभायामा ॥४० सिंहासणछत्तत्तयभामंडलचामरादिसंजुत्ता। अरुहाण ठिया पडिमा गोउरदारेसु सम्वेसु ॥४१ विजयंतवइजयंता जयंतअपराजिदा सुरा होति । पल्लाउगा सुरूवा चदुसु वि दारेसु बोद्धन्वा ॥४२ वरपट्टणं विरायइ विजयंतकुमारसुरवरिंदस्स । बारहसहस्सजोयणविक्खंभायामणिहिटुं ॥४३ रयणमया पासादा वेरुलियमया य कंचणमया य । ससिकंतसूरकता कक्केयणपउमरागमया ॥४४ एवं भवसेसाणं देवाणं पुरवराणि णेयाणि । वरगोउरदारादों उरि गंतूण तिटुंति ॥ ४५ दारंतरपरिमाणं बावण्णा जोयणा मुणयन्वा । उणासीदिसहस्सा णिहिट्ठा सम्वदरसीहि ॥४६ पण्णत्तरिसय णेया बत्तीसा धणुपमाण णिद्दिट्ठा । तिण्णव अंगुलाई तिज्जव संखा समदिरेया ।।४७ सोलसजोयणऊणा जंबूदीवस्स परिधिमज्झिम्सि | दारंतरपरिमाणं चदुभजिदे होइ ज ल ॥४८ समूहसे युक्त वह पुर समस्त जम्बूद्वीपको परिवेष्टित करता है। उसका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ! ॥ ३७॥ जम्बूद्वीपके [ चारों ओर ] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, ये चार गोपुरद्वार हैं ॥ ३८ ॥ इनमेसे पूर्व दिशामें विजय, दक्षिण भागमें वैजयन्त, पश्चिम भागमें जयन्त और उत्तर दिशामें वैजयन्त गोपुरद्वार है ॥ ३९ ॥ उत्तम सुवर्ण, रत्न, मरकत और नाना रत्नोंके उपहारसे शोभायमान ये द्वार आठ योजन ऊंचे और इससे आधे विष्कम्भ व आयामसे सहित हैं ॥ ४०॥ सब गोपुरद्वारोमें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादिसे संयुक्त अरिहन्त जिनोंकी प्रतिमायें स्थित हैं ॥११॥ चारों द्वारोंपर क्रमशः विजयन्त, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, ये चार सुन्दर देव हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण जानना चाहिये ॥ ४२ ॥ विजयंतकुमार सुरेन्द्रका उत्तम पुर विराजमान है। इस नगरका विष्कम्भ व आयाम बारह हजार योजन प्रमाण कहा गया है।॥४३॥ इन नगरोंमें रत्नमय, वैडूर्यमणिमय, सुवर्णमय तथा चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन और पद्मराग मणियोंसे निर्मित प्रासाद हैं ॥ १४॥ इसी प्रकार शेष देवोंके श्रेष्ठ नगर जानना चाहिये । ये नगर उत्तम गोपुरद्वारोंसे ऊपर जाकर स्थित हैं ॥ ४५ ॥ विजयादिक द्वारोके अन्तरालका प्रमाण सर्वदर्शियों द्वारा उन्यासी हजार बावन योजन, पचत्तर सौ बत्तीस धनुष, ती अंगुल और तीन जौ ( ७९०५२ यो., ६ कोश, ७५३२ धनुष, ३ अंगुल, ३ यव ) से कुछ अधिक निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥४६-४७॥ जम्बूद्वीपकी परिधिमेसे सोलह योजन कम कर शेषमें चारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना उक्त द्वारोंका अन्तरप्रमाण होता है ॥४८॥ १ उप य जंबुद्दीवं. २ ५ ब सिद्धवयणणिवहं. ३ पब वैजयंतं ५ 3 दिसेण विजयं, श दिसेण विजयं. ५उश असहाण ठिया, प अरहाण ठिय, ब अरहाण विया. ६उ सुतूबा, पब सरूवा, शतवा. ७ उ वा वि, व श बहुसु वि. ८ उ श हारादो. ९ उ श दरिसिदि. १० उ प प श समाधिरेया. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबुदीवपण्णत्ती ११.४९जगदीदो गंतूणं बेगाउँववित्थडा परमरम्मा । अभंतरम्मि भागे वणसंडा होति णिविट्ठा ॥ ४९ फणसंबतादाडिमसज्जज्जुणालिकेरकदलीहि । वरबउलतिलयचंपयअसोयरुक्खेहि संछण्णा ॥ ५० णाणादुमगणगहणं उज्जाणं सुरहिसीयलच्छायं | चिंचामोयसुगंधं सुरखेयरकिण्णरसणाई' ॥ ५१ वेगाउदउविद्धा उज्जाणवणस्स वेदिया दिवा । पंचधणुस्सयविउला कंचणमणिरयणपरिणामा ॥ ५२ णाणातोरणणियहा मणिकंचणमंडिया परमरम्मा । साप्तयणाइणिपणा जाणाविहरूवसंपण्णा ॥ ५३ उज्जाणजगइतोरणगोउरदारेसु हाँति सम्वेसुं । जिणइंदाणं पडिमा अकिधिमा सासयसहाग ॥ ५४ जंबूदीवे णेया सत्तेव य तथ होंति खेत्ताणि । एको मंदरसिहरी छम्चेव य कुलगिरी तुंगा ॥ ५५ बिणि सया णायब्वा कण यणा विविहरयणपरिणामा। चत्तारि होति जमगाणाभिणगा तेत्तिया चेव ॥ ५६ रिसभणगा चउतीसा वेयडी तेत्तिया मुणेदब्दों। वक्खारणों सोलस जाणामणिरयणपरिणामा ॥५७ भट्टेव दिसगइंदा णाणामाणिविष्फुरंतकिरणोहा । तावदिया वेदीओ विदेहमज्झम्मि णिहिट्ठा ॥५८ पुव्वावरायदाणं वंसधराणं हवंति णायव्या । सोलस वरवेदीओ जाणामणिरयणणिवहाओ ॥ ५९ जगतीसे अभ्यन्तर मागमें जाकर दो कोश विस्तृत परम रमणीय वनषण्ड निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १९॥ ये वनषण्ड पनस, आम, ताड, दाडिम, सर्ज, अर्जुन, नारियल, कदली, उत्तम वकुल, तिलक, चंपक और अशोक, इन वृक्षोंसे व्याप्त हैं ॥ ५० ॥ वह उद्यान नाना वृक्षसमूहोंसे गहन, सुगन्धित शीतल छायासे सहित, चिंचा ( इमली) की आमोदसे मुगन्धित और देव. विद्याधर एवं किन्नरोंसे सनाथ हैं ॥ ५१ ॥ उस उद्यान-वनकी दो कोश ऊंची व पांच सौ धनुष विस्तृत सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे निर्मित दिव्य वेदिका है। यह वेदिका नाना तोरणसमूहोंसे सहित, मणियों एवं सुवर्णसे मंडित, अतिशय रमणीय शाश्वत, अनादि-निधन और नाना प्रकारके रूपों ( मूर्तियों) से सम्पन्न है ॥५२-५३ ॥ उद्यान-वनकी जगतीके तोरण युक्त सब गोपुरद्वारोंमें अकृत्रिम और शाश्वत स्वभाववाली जिनन्द्रोंकी प्रतिमायें होती हैं ॥ ५४ ॥ वहां जम्बूद्वीपमें सात क्षेत्र, एक मंदर शिखरी (सुमेरु) और छह उन्नत कुलगिरि हैं ॥ ५५ ॥ भिन्न भिन्न रत्नोंके परिणाम स्वरूप दो सौ कनकनग (कंचनगिरि), चार यमक पर्वत और उतने ही नाभिपर्वत भी जानना चाहिये ।। ५६ ॥ चौंतीस वृषभनग, उतने ही वैताड्डय और नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम स्वरूप सोलह वक्षारपर्वत हैं ।। ५७ ॥ विदेहके मध्यमें नाना मणियोंके प्रकाशमान किरणसमूइसे युक्त आठ दिग्गजेन्द्र और उतनी ही वेदिकायें कही गयी हैं ॥ ५८ ॥ पूर्व-पश्चिम लंबे वर्षधरों (पर्वतों) की नाना मणियों व रस्नों के समूहसे युक्त सोलह उत्तम वेदिकायें जानना चाहिये ॥ ५९॥ जबूद्वीपमें क्षेत्रोंकी अठारह वेदियां हैं। मणियों व रत्नोंके स्फुरायमाण किरणोंसे १पध गाउद. २उताडिमसज्जमुण, प ताडिमसंजज्जुणा, ब ताडिमसज्जज्जुणा., श ताडिमसज्जुण. ३ उपब दिष्वामोयसुगंधं. ४ उ किन्नरसणाई, पब निरसनेहं. ५५ उच्छेद्धा, ब उम्चिद्धा. ६श ओउर. ७ पब अकट्टिमा. ८ उश तित्थ. ९ उप.बश सिहरो. १०उ जुग्मा, श जुग्गा. ११ पनामिनगा तेत्थिया, ब मामिणगा तेहिया. १२५ब वेदडा. १३ पब मुणे यय्वा. १५उपशवाक्खारणगा. १५ उ सोसा, पब वीसा. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ६९] पढमो उद्देसो वंसाणं वेदीओ अट्ठारस हाँति जंबुदीवन्हि । बेगाउदउविद्धा मणिरयणफुरतकिरणोहा ॥६० पुव्वावरायदाभो वंसधराणं हवंति वेदीभो । उत्तरदक्खिणदीही वैसाणं हॉति णिद्दिट्ठा ॥ ६१ बावण्णसया णेया वेदीमो हॉति रथणमइयामो | कुंडजमहाणदीण णिहिट्ठा सव्वदरसीहिं ।। ६२ चउदसमदाणदीण भट्ठावीसा हवंति वेदीभो । चउवीसा विण्णेया पउमादीण दहाणं तु ॥ ६३ कुंडाणं णिहिट्ठा दसूणसयवेदिया समुत्तुंगा । कंचणरयणमयाओ पंचेव य धणुसया विउला ।। ६४ सव्वाभो वेदीओ तोरणणिवहा हवंति णायव्वा । विक्खंभुस्सेहहि य अवगाहेहि हवे सरिसा ॥ ६५ तिणि सदा एक्कारा मणिकंचगमंडिया णगाणेया। तावदिया वेदीओ णगाण सव्वाण दीवस्स ॥ ६६ बारस चदुसहिय दहा दहाण वेदी हवंति तावदिया। च उदसमहाणदीओ छावत्तरि कुंटजणदीओ ॥ ६. णउदी चउदसलक्खा छप्पण्ण सहस्स होदि परिमाण । दीवस्स णदी णेया तावदिया दुगुणवेदीओ ॥ ६८ - चत्तारि धणुसहस्सा उत्तुंगा धणुसहस्सअवगाडा । पंचसयदंडविउला सम्वाओ होति वेदीमो ॥ ६९ युक्त ये वेदियां दो कोश ऊंची हैं ॥६० ॥ वर्षधरों की वेदियां पूर्व-पश्चिम लम्बी और क्षेत्रोंकी वेदियां उत्तर-दक्षिण लम्बी कही गयी हैं ॥ ६१ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट कुण्डोंसे निकली हुई महानदियोंकी रत्नमय वेदिकायें बावन सौ जानना चाहिये ॥६२ ॥ चौदह महानदियोंकी वेदियां अट्ठाईस और पद्मादिक द्रोंको चौबीस जानना चाहिये ॥ ६३ ॥ कुण्डोंकी उन्नत वेदिकायें दस कम सौ (९०) कही गयी हैं । ये सुवर्ण व रत्नमय वेदिकायें पांच सौ धनुष प्रमाण विस्तृत हैं ॥ ६४ ॥ तोरणसमूहसे संयुक्त सब वेदियोंको विष्कम्भ, उत्सेध और अवगाहमें सदृश समझना चाहिये ।। ६५ ॥ जम्बूद्वीपमें मणियों व सुवर्णसे मण्डित तीन सौ ग्यारह पर्वत और उन सब पर्वतोंकी उतनी ही वेदियां जानना चाहिये [कुलपर्वत ६ + विजयार्ध ३४ + वक्षारगिरि १६ + गजदन्त ४ + दिग्गजेन्द्र ८ + नाभिगिरि ४ + वृषभाचल ३४ + यमक ४ + कंचनशैल २०० + मेरु १ = ३११.] ॥ ६६ ॥ चार सहित बारह अर्थात् सोलह द्रह ( कुलपर्वतस्थ ६ और विदेह क्षेत्रस्थ १०) और उतनी ही द्रहोंकी वेदिया हैं। चौदह महानदियां और छय तर ( बत्तीस विदेह सम्बन्धी ६४, विभंग नदी १२ ) कुण्डज नदियां हैं ॥६७ ॥ द्वीपकी नदियोंका प्रमाण चौदह लाख, छप्पन हजार, नब्बै जानना चाहिये । इनसे दूनी उनकी वेदियां हैं (सीता-सीतोदा २ + बत्तीस विदेहस्थ ६४ + विभंग १२ + सीता-प्तीतोदापरिव.र १६८००० + वि. नदीपरिवार ८९६००० + छह भरतादि क्षेत्रोंकी ३९२०१२ = १४५६०९०.] ॥ ६८ ॥ सब वेदियां चार हजार धनुष प्रमाण ऊंची, एक हजार धनुष प्रमाण अवगाहवाली और पांच सौ धनुष विस्तृत होती हैं ॥ ६९ ॥ उत्तम नदियों के किनारोपर, पर्वतोपर १उ श उव्वद्धा. २उश दविखणदेहा, ब दक्षिणदीह. ३प ब धणसया. ४ प सब्वाओव दी तो तोरण, ब सम्वाऊ व दीछो तोरण, ५पचट्ठ, बचद्व. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] जंबूदीवपण्णत्ती [१. ७०वरणइतडेसु गिरिसु य उज्जाणवणेसु दिठवभवणेसुं । सेंवलिजंधुदुमेसु य पउमिणिसंडेसु सम्वेसुं ॥ ७० दिसिगयवरेसु भट्ठसु वक्खारणगेर्से णाहियणगेसुं । कंचणणगेसु रम्मा वरमंदरपब्वदे तुंगे ॥ ७॥ गंगाकूडेसु तहा वेदवणगेसु रिसभसेलेसुं। जलवाहिणिकुंडेसु य विदेहवसाइखेत्तसुं ॥ ७२ गोउरदारेसु तहा मणिमयवरतोरणेसु रम्मसु । णिम्मलवरदेहधरा जिणपडिमामो मसामि ॥ ७३ अण्णाणतिमिरदलणो मुणिगणधरकुमुयसंडबोहयरो। वरपटमणदिमहिमो जिणवरचंदो दिसउ बोहिं॥७१ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे उवग्घायपस्थामो णाम पढमउद्देसी समतो ॥१॥ उद्यान-वनोंमें, दिव्य भवनोंमें, शाल्मलिवृक्ष, जम्बूवृक्ष, सब पद्मिनीषण्ड, श्रेष्ठ दिग्गज, आठ वक्षार नग, नाभिनग, कंचननग, उन्नत एवं श्रेष्ठ मन्दर पर्वत, गंगाकूट, वैताड्डयनग, ऋषभशैल, नदीकुण्ड, विदेहवर्षदि क्षेत्र, गोपुरद्वार और रम्य महा मणिमय उत्तम तोरण, इन स्थाने में स्थित निर्मल एवं उत्तम देहको धारण करनेवाली रमणीय जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करता हूं ॥ ७०-७३ ॥ अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाला, मुनि एवं गणधर रूपी कुमुदसमूहका विकासक और पद्मनन्दिसे पूजित जिनवररूपी चन्द्र बोधिको प्रदान करे ॥ ७४ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें उपोद्घातप्रस्ताव नामक प्रथम उद्देश समाप्त हुआ॥१॥ १उश वरणयतडेसु, ब वरणतडेसु. २पब णमेसु. ३ उश जलचाहिणि.४ उश दलणे. ५ उश. "पस्पत्तिसंगहे उवम्ब्वायपरथावो णाम पटम, पब पक्षणत्तिसंगहे उउवाघाययऊणपढम. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बिदिओ उद्देसो ] उसभजिर्णिवं पणमिय दसद्धसयचावदीहरं जाई । जंबूदीवस्स तहा खेत्तविभागं पवक्खामि ॥ १ इद होइ भरहखेत्तो तत्तो हेमव्वदो' य हरिवंसो । तह य विदेहो रम्मग हेरण्णवदो य भइरवदो ॥ २ कप्पतरुधवलछत्ता उवचणससिधवलचामर डोवा | बहुकुंडरयणकंठाँ वण कुंडलमंडियांगंडा ॥ ३ वेइकडिसुत्तसोदा णाणापव्वयफुरंतवरमउडा | वरणइजलच्छदारों खेत्तणरिंदा विरायंति ॥ ४ पुष्वावरेण दीहा सत्त विखेत्ता विणासपरिक्षीणा | कुलपब्वयकयसीमा वित्थिष्णा दक्खिणुत्तरदो ॥ ५ एक्कखंडो भरहो दुगुणो हिमवंतवित्थडो दिट्ठो । दुगुणदुगुणा दु सब्वे सत्त विभागा मुणेयब्वा ॥ ६ जाव दु विदेहवसो पग्वदखेतान होइ परिवडी । तत्तो भद्धद्धखभो जात्र दु एरावदो वंसो ॥ ७ कुलगिरिखेताणि तद्दा तेरस भागा हवंति णायग्वा । एयट्ठकए सव्वे णउदिसँय होदि पिंडेण ॥ ८ उदिसएण विभक्त जोयणलक्खं पुणेो वि इच्छगुणं । विक्खभं गायन्न खेत्तादिणं तु जं रुद्धं ॥ ९ दसके आधे अर्थात् पांच सौ धनुष लंबे स्वामी ऋषभ जिनेन्द्रको नमस्कार करके जम्बूद्वीप के क्षेत्रविभागको कहता हूं ॥ १ ॥ यहां जम्बूद्वीपमें भरतक्षेत्र, हैमवत, हरिवर्ष विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत, ये सात क्षेत्र हैं ॥ २ ॥ कल्पवृक्षरूपी धवल छत्रोंसे सहित, चन्द्रमा के समान धवल उपवनरूपी चामरोंके विस्तारसे संयुक्त, बहुत कुण्डरूपी रत्नमय कण्ठाभरणों से सुशोभित, वनरूपी कुण्डलोंसे अलंकृत कपोलोंवाले, वेदीरूपी कटिसूत्रों सेशोभायमान, नाना पर्वतरूपी प्रकाशमान उत्तम मुकुटोंसे युक्त, और उत्तम नदीजलरूपी निर्मल द्वारोंसे विभूषित, ऐसे क्षेत्ररूपी राजा विराजमान हैं ॥ ३-४ ॥ पूर्व-पश्चिम लंबे, विनाशसे रहित और कुलपर्वतों से की गयी सीमासे संयुक्त ये सातों क्षेत्र दक्षिण-उत्तर में विस्तृत हैं ॥ ५ ॥ [ जम्बू द्वीपके एक सौ मब्बै भागोंमें ] एक खण्ड ( भाग ) भरत क्षेत्र है । उससे दुगुणा विस्तृत हिमवान् पर्वत बतलाया गया है। इस प्रकार विदेह क्षेत्र तक चार क्षेत्र व तीन कुलपर्वत, ये सात विभाग उत्तरोत्तर दूने जानना चाहिये । विदेह क्षेत्र तक पर्वत और क्षेत्रों के विस्तार में उत्तरोत्तर वृद्धि तथा उससे आगे ऐरावत क्षेत्र तक उनके विस्तारमै उत्तरोत्तर आधी आधी हानि होती गई है ।। ६-७ ॥ छह कुलपर्वत तथा सात क्षेत्र, ये जम्बूद्वीपके तेरह भाग जानना चाहिये । इन सबको इकट्ठा करनेपर पिण्ड रूपसे एक सौ नब्बे भाग होते हैं ॥ ८ ॥ एक लाख योजनमें एक सौ नब्बैका भाग देकर पुनः इच्छा से गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उतना क्षेत्रादिकों का विष्कम्भ जानना चाहिये ॥ ९ ॥ विशेषार्थ - चूंकि विदेह पर्यन्त चार क्षेत्र और तीन कुलपर्वत, ये सात विभाग १ उ खेतो तो हेमपव्वदो, श 'खेतो हेयमव्वदो. २ श रमगो, ब रमग. ३ व कुंदरयकंवा, प कुंदरयय कंठा. ४ प ब बेहक्कडि. ५ उ वरणइजलंत होरा, प व वरणइजलंतद्वारा, श चरणइजलंत होए. ६ प ब णवदि. जं. दी. २. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ ܐ जंबूदीवपण्णी [२.१० पंचसमा छवीसा दिवसमा जोयणा समुद्दिट्ठा । उणवीसदिमे भागे छच्चेष कला दु भरहस्स ॥ १० धरणि दुगुणो धरणिधरादो दु वसुमई दुगुणा । एवं दुगुणा दुगुणा पम्बदखेत्ता मुणेयब्वा ॥ ११ बाव दु विदेहवंसो सच विभागा हवंति दुगुणा तु । तसो मद्दलओ' जाव वु एरावदो बंसो ॥ १२ सारिसदेगन्तरि चउदहओयणसहस्स पंचकला। हिमगिरिवडे वियाणसु भायामो भरहवंसस्स ॥ १३ खोपणमद्वापीसा पंचसया तह य चउदहसहस्सा । एयारकला गेया भरहस्स वु होइ धणुप ॥ १४ सादिकला दुगुणा खेचजुदा तेसु होइ इसुसंखा । धरणीधरणिधराणं लाव दु परमंदिरे मज्जते ॥ १५ एक्कादीस्तुत्तरे अण्णोष्णगुणेहि हवइ जं छ । रुबूर्ण भादिगुणं खेसादीण कछा णेया ॥ १६ उत्तरोत्तर दूने दूने तथा आगे के छह विभाग उत्तरोत्तर आधे आधे विस्तारवाले हैं; अत एव उनकी खण्डव्यवस्था इस प्रकार है- भरत क्षेत्र १ + हिमवान् २ + हैमवत ४ + महाहिमवान् ८ + हरि १६ + निषेध ३२ + विदेह ६४ + नील ३२ + रम्यक १६ + रुक्मि ८ + हैरण्यवत ४ + शिखरी २ + ऐरावत १ = १९० । अब उक्त क्षेत्रों व पर्वतों में से अभीष्ट क्षेत्र या पर्वतके विस्तारको ज्ञात करने के लिये जम्बू द्वीपके विस्तार १००००० योजनमें १९० का भाग देकर लब्धको अभीष्ट क्षेत्र या पर्वतके खण्डों से गुणा करना चाहिये । इस रीति से अभीष्ट विस्तारका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । उदाहरण स्वरूप यदि हमें विदेह क्षेत्रका विस्तार ज्ञात करना है तो वह १०४ =३३६८४८ इस प्रक्रिया से प्राप्त हो जाता है ( देखिये तिलोयपण्णत्ती ४-१०२ आदि ) । ་་ १९० = भरत क्षेत्रका विष्कम्भ पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागों में से छह भाग कहा गया है [ १००००० : १९० x १ ५२६ योजन । ] ॥ १० ॥ [ क्षेत्र से ] दूना पर्वत और पर्वतसे दूना क्षेत्र, इस प्रकार पर्वत और क्षेत्र उत्तरोत्तर दूने दूने जानना चाहिये ॥ ११ ॥ विदेह वर्ष तक सात विभाग दूने और उसके पश्चात् ऐरावत वर्ष तक आधी आधी हानि होती गयी है ॥ १२ ॥ हिमवान् पर्वतके तटमें भरतक्षेत्रका आयाम चौदह हजार चार सौ इकत्तर योजन और पांच कला ( १४४७१) प्रमाण है ॥ १३ ॥ भरत क्षेत्रका धनुषपृष्ठ चौदह हजार पांच सौ अट्ठाईस योजन और ग्यारह कला (१४५२८३३) प्रमाण जानना चाहिये ॥ १४ ॥ क्षेत्रादिककी कलाओंको दुगुणा करके उनमें क्षेत्रके मिलानेपर [ भरतक्षेत्रके कम करनेपर ! ] मेरुपर्वतके मध्य माग तक क्षेत्र व पर्वतोंका बाणप्रमाण आता है: ||१५|| उदाहरण - हरिवर्ष का विस्तार ८४२१ १६६६°° ( कला ); हरिवर्षका वाण । १६३१५ एकको आदि लेकर एक-एक अधिक उसमें से एक कम करके आदिसे गुणित कलाओं का प्रमाण जानना चाहिये ( ! ) ॥ १६ ॥ २ - १७५१११ ३१०००० = १९ wat = १६०००० x १९ अंकों को परस्पर गुणित करनेसे जो प्राप्त हो करनेपर प्राप्त राशि प्रमाण क्षेत्रादिकोंकी द्वीप अर्थात् जम्बूद्वीप के आयामको एक सौ १ प ब धरणिधरादो. २ उ वसुमह दुगुणा, शवसमुह दुगुणा ३ प ब अद्धद्वषखऊ ४ खेचदा तोसु ५उत्तर प व दुसर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.२०) विदिओ उदेसी णउदिसदेहि विभतं दीवायाम विहीण समसुण्ण खेसादीण या कलसंखों इच्छसंगुणिदा।। इच्छागुण विण्णेया भरहादिविदेहवंसपरियंता। एकादिगुणदुगुणा सत्तेव य होति णिपिट्ठा ॥10 उणवीसगुणं किया पंचसया जायणा य छवीसा । छच्चेव कलासहिया कलसंखा होइभरहस्स ॥ चक्षुसुण्णएक्कतियससपण्णरसएक्कतीस तेसट्टी। भरहादिकला या उणवीसगदेहि छेदेहि .. नब्बैसे विभक्त करके दोनों राशियोंमें शून्यको अपवर्तित कर इच्छासे गुणित करनेपर क्षेत्रादिकी कलाओंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ १७ ॥ भरत क्षेत्रको आदि लेकर विदेह क्षेत्र तक क्रमसे एकको आदि लेकर दूने दूने सात ही गुणकार बतलाये गये हैं, उन्हें इच्छागुणकार जामना चाहिये ॥ १८॥ विशेषार्थ- भरत क्षेत्रसे दूना विस्तार हिमवान् पर्वतका, उससे दूना हेमवत क्षेत्रका, उससे दूना महाहिमवान् पर्वतका, इस प्रकार विदेह क्षेत्र तक चूंकि उत्तरोत्तर दूना दूना विस्तार होता गया है। अत एष भरत, हिमवान् , हैमवत, महाहिमवान्, हरि, निषध और विदेह, इन सात स्थानोंके विस्तारप्रमाणको लानेके लिये क्रमशः १, २, ४, ८, १६, ३२ और ११, ये सात गुणकार बतलाये गये हैं । विदेह क्षेत्रसे आगे नील, रम्यक, रुक्मि, हेरण्यवत, शिखरी और ऐरावत, इन छह स्थानोंका विस्तार चूंकि उत्तरोत्तर भाधा आधा होता गया है, अतः इन सबके विस्तारको लानेके लिये क्रमसे ३२, १६, ८, ४, २ और १ ये छह गुणकार जानना चाहिये । उक्त १३ स्थानोंके अंकोंका योग चूंकि १९० होता है, अत एष अमीष्ट स्थानके विस्तारप्रमाणको लानेके लिये जम्बूद्वीपके विस्तार (१००००० योजन ) में १९० का भाग देकर लब्धको इच्छित गुणकारसे गुणित करना चाहिये । उदाहरण- हरिवर्ष क्षेत्रका विस्तार लानेके लिये १००.०४ १६ = १६.०० ( कलाओंमें ) = ८४२११ हरिवर्षका विस्तार । पांच सौ छब्बीस योजनोंको उन्नीससे गुणा करके उसमें छह कला और मिलानेपर भरतक्षेत्रकी कलाओंकी संख्या प्राप्त होती है ॥ १९ ॥ चार शून्योंक ऊपर एक, तीन, सोत, पन्द्रह, इकतीस और तिरेसठके रखनेपर उन्नीस भागोंसे क्रमश: मरतादिककी कलाओंका प्रमाण जानना चाहिये, अर्थात् चार शून्य और एक अंक प्रमाण ( १९९° ) भरत, चार शून्य और तीन अंक प्रमाण (३....) हिमवान्पर्वत, चार शून्य और सात अंक प्रमाण (५९) हैमवत, चार शून्य और पन्द्रह अंक प्रमाण (१५९९० ) महाहिमवान् पर्वत, चार शून्य और इकतीस अंक प्रमाण १९:०० हरिवर्ष, तथा चार शून्य और तिरेसठ (६३९:००) अंक प्रमाण निषध पर्वतकी कलाओका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २०॥ १ समस्ण. १ प लासखा. ३ एयरस, श पणरस. पर दि. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] जंबूदीपण्णत्ती [ २.२१ अणुटुबाचूलीजीवाणं इसुगणाण दीवस्स । उणवीसभागभजिदे जे लद्धा ते कला गया ॥ २१ पणणउदा तेसट्ठा इगितीसा तिपणसन्ततियएक्का । इसु होति विदेहादो उणवीसदिभागेदस सदस्सगुणा ॥२२ इसुरहिदं विक्खंभं इसुसंगुणिदं पुणेो वि चदुगुणिदं । घेतूण वग्गमूलं लद्धा जीवा समुद्दिट्ठा ॥ २३ कहि गुणिदं इसुवगं पक्खेवेढूण जीववग्गग्मि । धणुपङ्कं णायब्वं लई तब्वग्गमूलं तु ॥ २४ विक्खंभ पहुंचाणं' वग्गविसेसस्स दवइ जं मूलं । भवणिय विक्खंभादो सेसस्स दल इसुं जाणे ॥ २५ द्वीपके धनुषपृष्ठ, चाप, चूली, जीवा और बाण समूहों को उन्नीस भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उतनी कलायें जानना चाहिये ॥ २१ ॥ उन्नीससे भाजित और दस हजार से गुणित पंचान, तिरेसठ, इकतीस, तिगुने पाँच अर्थात् पन्द्रह, सात, तीन और एक अंक प्रमाण क्रमसे विदेहादिके बाण होते हैं ॥ २२ ॥ = ५०००० यो. विदेहका १००००× ६ ३=३३१५७१ निषधका बाण, बाण, १६३१५१५ हरिक्षेत्रका १९ १००००X१५ बाण, ७८९४ ३६८४ हैमवत १९ क्षेत्रका बाण, ५२६. १९००००० 10000 १९ १९ १२८१०००००००० X ४ ३६१ हैमवत क्षेत्रकी जीवा । - १००००३ १९ ५४१८०००००००० ३६१ = २ भरतका बाण । बाणसे रहित विष्कम्मको बाणसे गुणा करके पुनः चारसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके वर्गमूल प्रमाण जीवा कही गई है || २३ || उदाहरण - इस प्रक्रियाक अनुसार हैमवत क्षेत्रकी जीवाका प्रमाण इस प्रकार होगा- बाण १९००००० ; विष्कम्भ १९ १९ i ७०००० = ७०००० १९ = ५१२४०००००००० ३६१ इसका वर्गमूल १७६ ० ० ० ० = = महाहिमवान् का बाण, १५७८१६ हिमवान्का बाण, १८३०००० १९ उसे विष्कम्भमेंसे घटाकर शेषको उदाहरण – विष्कम्भ १९० ० ० ० ० १९ ; 00000000 ३६१ १००००x९५ १९ १००००X३१ = १९ १८३०००० १९ छइसे गुणित वाणके वर्गको जीवाके वर्ग में मिलाकर जो लब्ध हो उसका वर्गमूल निकालने पर धनुषपृष्ठका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २४ ॥ उदाहरण हैमवत क्षेत्रका बाण १००००४७ १९ 00000 ७०००० - X ६ = २९४०००००००० जीवावर्ग ५१२४ १९ १९ ३६१ 9 ३६१ + २९४०००००000 ३६१ १९ ; इसका वर्गमूल _७ ३६०७० = ३८७४०१९ हैमवत क्षेत्रका धनुषपृष्ठ. विष्कम्भ और प्रत्यंचा ( जीवा ) के वर्गको परस्पर घटाकर जो उसका वर्गमूल हो आधा करनेपर बाणका प्रमाण जानना चाहिये || २५ ॥ यो., इसका वर्ग ३६१० ० ० ० ० . ००००५१२४०००००००० ० ० ; १ ६ १ ० ० ० ० ; जीवावर्ग ३६१ ३६१ १९०००००१७ = १०००० x १ १९ x = ; इसका वर्गमूल ७१५८१२ १९ १९ १९ ; ३६८४ हैमवत क्षेत्रका बाण । ७०००० १९ १२८१०००००००० ३६१ = i १७६७४३९. १४०००० १९ ३०९७६०००००००० ३३१ १४०००० १९ १ उब धणुपठवाहु, श धणुपठचाहु. २ प ब उणवीसविभाग. ३ उ उसुरहिदं, प ब उसरहिंद. ४ प ब छह. ५ उ प ब श तं वग्गमूलं. ६ उ रा पङच्चाणं, प व पचार्ण. ÷ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.३० विदिओ उदेसी [१५ चदुगुणसूहि भजिदं जीवावगं पुणो वि इसुसहिद । परिमंडलखेसस्स दु विक्खम होइ णायब्वं ॥२६ उग्गादेहि विहणं उग्गाढचरकएहि अब्भत्थं । दीवस्स दु विक्खंभं जीवाकरणी वियाणाहि॥ २७ छरचेव य इसुवग्गं जीवाकरणाजुदं तु जं लद्धं । णेया तं धणुकरणी उष्टुिं जिणवरिंदेहि ॥२८ जीवावग्गविसोधियधणुवग्गादो वेज्ज जं सेसं । बारसदलेहिं भजिदे इसुकरणी तं वियाणाहि ॥ २९ भणुगुरुचावविसेसं सेसं दलिउण हवइ जं लखें। बोद्धब्वा पस्सभुजा सम्वधणूणं विणिहिट्टा ॥३. १९ चौगुणे बाणसे भाजित जीवाके वर्गमें पुनः बाणके मिलानेपर वृत्त क्षेत्रका विष्कम्भ जानना चाहिये ॥२६॥ उदाहरण- (१) भरत क्षेत्रका विष्कम्भ '१११°; उसकी जीवाका वर्ग ७५ ६००००००००,७५६०००००००० : (१९९०°- ४ + २००० = १२००००= १००००० यो. जम्बू द्वीपका विस्तार । (२) हैमवत क्षेत्रका विष्कम्भ ७०.., जीवाका वर्ग ५१ २ ४ ० १९:००.. : ५९ २४०००० ० ० ० ० * ( ७००.० x १ ) + ५०००० = १. १०००००=१००००० यो. वृत्त क्षेत्र जम्बू दीपका विस्तार । अवगाह अर्थात् बाणसे रहित द्वीपके विष्कम्भको चौगुणे बाणसे गुणा करनेपर जीवा वर्गका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २७ ॥ उदाहरण- जम्बू द्वीपका विष्कम्भ १९०००००, हैमवत क्षेत्रका बाण ७००००, १९००००० - १६° x ( १९° ४४ )= ५१ २ १०००००००० हैमवत क्षेत्रकी जीवाका वर्ग । छहगुणे बाणके वर्गको जीवाके वर्गमें मिलानेपर जो प्राप्त हो उतना जिनेन्द्र देवने धनुषके वर्गका प्रमाण कहा है ॥ २८ ॥ उदाहरण- हैमवत क्षेत्रकी जीवाका वर्ग ५१२ ४००००००००; उसका बाण "१०००, ५१२ ४०००००००० + ( १९९० x ६) = ५४ १८०००००००० हैमवत क्षेत्रके धनुषका वर्ग। धनुषके वर्ग से जीवाके वर्गको घटाकर जो शेष रहे उसमें बारहके दल अर्थात् छहका भाग देनेपर बाणके वर्गका प्रमाण जानना चाहिये ॥२९॥ उदाहरण-हैमवत क्षेत्रके धनुषका वर्ग ५४ १८०००००००० ; उसकी जीवाका वर्ग ५१२ ४००००००००, ५४ १८०००००००० - ५१ २ ४०००००००० * १२ = ४ ९०००००००० हैमवत क्षेत्रके बाणका वर्ग । ___ अणु अर्थात् छोटे चापको बड़े चापमेंसे घटाकर शेषको आधा करनेपर जो प्राप्त हो उसे सब धनुषोंकी पार्श्वभुजा निर्दिष्ट की गई समझना चाहिये ॥ ३० ॥ उदाहरण- दक्षिण भरतका चाप ९७६६११ विजयाका चाप १०७४३१५, १०७४३१५- ९७६६११ ९७७१३ , ९७७१ २ = ४८८३ विजयाप्रकी पार्श्वभुजा । ३६५ १ उश खेतस्स वि विक्क्षम. २ उश जिनवरेहिंव ३ उश पस्सम्जवा, पब पस्समुचा. ication International Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] जबूदीवपण्णत्ती [२.११जीवा गुरुमणुसुद्धा' सेसद्धं चूलिया समुट्ठिा । जंबूदीवस्स तहा गायब्वा सधजीवाणं ॥ ३॥ भरहेरावयमझे वेयड्डा भूधरा समुत्तुंगा । रयदमया णायव्वा अणाइणिहणा समुट्ठिा ॥१२ पणुवीसा उब्विों पण्णासा जोयणा दु विस्थिण्णा | छच्चेव य सक्कोसा अवगाढा होति णिहिटा ॥ ३३ अदाला सत्तसया गवयसहस्साणि जोयणायामा । बारसकलाविसेसो वेदवाणं तु दक्खिणदो ॥ ३४ वीसा सत्तसदाणि य दसयसहस्साणि उत्तरे पासे । बारह किंचूणकला पुष्वावरसलिकणिहिपुट्ठा ॥ ३५ चत्तारिसया गेया अडसीदा जोयणाणि पस्सभुजा । वेदड्डाण णगाण य सुद्धा सोलस कला हॉति ॥ ३६ पंचेव जोयणसदा चउंदसपरिहीणचूलिया णेया । भरहस्सेरवदस्स य वेदहाणं समुट्टिा ॥ ३७ दसदसजायणभागा उवरि गंतूण गिरिवराण तहा। दो दो सेढी पवरा वित्थिण्णा दसदसाणेया ॥ ३४ दक्खिणवरसेढीए पण्णास पुरवरा समुद्दिट्टा । णाणाविहरयणमया सट्ठी पुणु उत्तरे पासे ॥ ३९ विज्जाहराण जयरा भणाइणिहणा सहावणिप्पण्णा । रयणमया बिग्णिसया सवेदिया तोरणाडोवा ॥४. ___ बड़ी जीवामें से छोटी जीवाको घटानेपर जो शेष रहे उसके अर्थ भाग प्रमाण जम्बू द्वीपकी सब जीवाओंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ ३१ ॥ उदाहरण- दक्षिण भरतकी जीवा ९७४८११, विजयार्धकी जीवा १०७२०११; १०७२०१३ - ९७४८१३ २ = १८५३४ विजयार्धकी चूलिका । ___भरत क्षेत्रके मध्यमें और ऐरावत क्षेत्रके मध्यमें उन्नत, रजतमय, अनादिनिधन वैताढ्य पर्वत कहे गये जानना चाहिये ॥ ३२ ॥ ये वैताढ्य पर्वत पच्चीस योजन ऊंचे, पचास योजन विस्तीर्ण और एक कोश सहित छह योजन अवगाहसे सहित हैं ॥ ३३ ॥ दक्षिणकी ओर वैताब्य पर्वतकी जीवाका प्रमाण नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला है ॥ ३४ ॥ उत्तर पार्श्वभागमे आयाम अर्थात् जीवाका प्रमाण दस हजार सात सौ बीस योजन और कुछ कम बारह कला है । उक्त पर्वत पूर्व-पश्चिम समुद्रको छूते हैं ॥ ३५॥ वैताढ्य पर्वतोंकी पार्श्वभुजा चार सौ अठासी योजन और साध सोलह कला प्रमाण जानना चाहिये ( देखिये गा. ३० का उदाहरण ) ॥ ३६ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्राके वैताढ्योंकी चूलिका चौदह कम पांच सौ ( ४८६ ) योजन प्रमाण जानना चाहिये ( देखिये गा. ३१ का उदाहरण ) ॥ ३७॥ इन श्रेष्ठ पर्वतोंके ऊपर दस दस योजन जाकर दस दस योजन विस्तीर्ण दो दो उत्तम श्रेणियां हैं ॥ ३८ ॥ इनसे दक्षिण श्रेणीमें पचास और उत्तर पार्श्वभागमें साठ श्रेष्ठ नगर कहे गये हैं । ये नगर नाना प्रकारके रस्नोंसे निर्मित हैं ॥ ३९ ॥ ये विद्याघरोंके दो सौ नगर अनादि-निधन, स्वभावनिष्पन्न अर्थात् अकृत्रिम, बेदिकाओंसे सहित, और तोरणोंके आटोपसे युक्त हैं ॥ ४० ॥ उक्त नगर पन १श सिद्धी, पब सुधी. २उश उत्थिद्धा. ३उश देससयसहस्साणि. ४उश पस्सउजा. पपरसगुजा. ५ श मरहस्स रेवदस्स, पबमरहस्स वेवस्स. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५३) बिदिओ उद्देसो [१५ उवक्षणकाणणसहिया पोक्खरिणीवाविवप्पिणसणाहा । जिणसिद्धभवणणिवहा को सक्कइ वणिर्ड सयलं ॥४१ तत्तो दस उप्पडया दसैजोयणवित्थडा' मुणेयन्वा । अभिजोगाणं णयरा णाणामणिकिरणपरिणामा ॥ ४२ रयणमयवेदिणिवहा वरगोउरभासुरा रयणचित्ता। मणिम्यवर पासादा सन्चे सोहंति ते विमला ॥ ४३ परकप्परुस्खणिवहा णाणाविहतरुगणेहि कयसोहा । वावीतडायपउरा वरचेइयभवणसंछण्णा ॥ ४४ सोधम्मीसाणाणं देवाणं वाहणा सुरा' हॉति । दोसु वि सेढीसुतहा देवा वररूवसंपण्णा ॥ ४५ जोयणपंचुप्पइया तत्तो अभिजोगपुरवरहितो । दसजोयणवित्थिण्णा वेदवणगाण वरसिहरा ॥ ४६ तियसिंदेचावसरिसा जिम्मल बालिंदुभासुराडोवा । वरवेदीपरिखिप्ता मणितोरणभासुरा रम्मा ॥ १७ सम्मि समभूमिभागे जाणामणिविप्फुांतकिरणम्मि । हाति णव चेव कूडा चणमणिमंडिया दिवा ॥४८ पढमा य सिद्धकूडा पुग्वेण य होंति सम्वकूडाणं । बिदिया य भरहकूडा तदिया खंडप्पवादा य !! ४९ चउथा य माणिभहा वेदकुमार पंचमा कूडा। छटा य पुण्णभद्दा तिमिसगुहा सत्तमा कूडा ॥ ५० भट्ठम य भरहकूडा णवमं वेसमणे तुंगवरकूडा। छज्जोयण सक्कोसा उच्छेहा डोंति ते सम्वे ॥ ५॥ विक्खंभायामेण य छच्चेव य जोयणा सकोसा य । मूले हवंति कूदा वेदहाणं समुट्टिा ॥ ५२ मज्झे चत्तारि हवे अट्टादिज्जा य कोसपरिसंखा। उवरि तिण्णेव भवे जोयणसंखा विणिहिट्ठा ॥ ५३ उपवनोंसे सहित; पुष्करिणी, वापी एवं वप्रिणियोंसे सनाथ, तथा जिनों व सिद्धोंके भवनसमूहसे संयुक्त हैं । इनका सम्पूर्ण वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥४१॥ विद्याधरश्रेणियोंसे दस योजन ऊपर जाकर वन-उपवनोंसे सहित, दस योजन विस्तृत और नाना मणियोंके किरणोके परिणाम स्वरूप आभियोग्य देवोंके नगर हैं ॥ ४२ ॥ रत्नमय वेदिसमूहसे सहित, उत्तम गोपुरोसे भास्वर, रत्नोंसे विचित्र और मणिमय उत्तम प्रासादोंसे संयुक्त वे सब निर्मल नगर शोभायमान हैं ॥ ४३ ॥ उक्त नगर उत्तम कल्पवृक्षोंके समूहसे सहित, अनेक प्रकारके तरुगणोसे शोभायमान, प्रचुर वापियों व तालावोंसे संयुक्त, और उत्तम चैत्यालयोंसे व्याप्त हैं ॥ १४ ॥ इन दोनों ही श्रेणियों में रहनेवाले वे देव-उत्तम रूप युक्त सौधर्म एवं ईशान इन्द्रके वाहन जातिके देव हैं ॥ ४५ ॥ उन अभियोगपुरोंसे पांच योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तीर्ण वैताढ्य पर्वतोंके उत्तम शिखर है ॥ १६॥ इन्द्रधनुषके सदृश रमणीय वे शिखर निर्मल बाल चन्द्रके समान भास्वर, उत्तम वैदियोंसे वेष्टित, और मणितोरणोंसे शोभायमान हैं ॥४७॥ नाना मणियोंकी प्रकाशमान किरणोंसे संयुक्त उस समभूमिभागमें सुवर्ण एवं मणियोंसे मण्डित दिव्य नौ कूट हैं ॥ ४८ ॥ उनमें सब कूटोंके पूर्व की ओरसे प्रथम सिद्धकूट, द्वितीय भरतकूट, तृतीय खण्डप्रपात, चतुर्थ माणिभद्र, पंचम वैताढ्यकुमारकूट, छटा पूर्णभद्र, सातवां तिमिश्रगुह कूट, आठवा भरतकूट और नौवां वैश्रवण नामक उन्नत उत्तम कूट है। ये सब कूट एक कोश सहित छह योजन ऊंचे हैं ॥ ४९-५१ ॥ वैताट्य पर्वतोंके ये क्ट विष्कम्भ व आयामसे भी मूलमें एक कोश सहित छह योजन, मध्यमें अढ़ाई कोश सहित चार योजन तथा ऊपर तीन योजन प्रमाण निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५२-५३ ॥ उक्त कूटोंकी परिधियां १उश उववण काणणसहिया दस २ उश वित्तुडा. ३ उश मुसुरा. ४ उश पुरखरेहतो, ब पुरखरेहिं . ५उश तिय संद६ उ श च उचा य माणिभदा, पचउत्था य मणिभदा, ब चउभ य मर्माणमद्दा, ७ उ श वेदड़ा ८डशणमण. ष पण्णास्सा. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] जंबूदीवपण्णत्ती [ २.५४ मुसु हाँति वीसा पण्णारस ऊणिया दु मज्झेसु । सिहरेसु गर्व विसेसा जोयणसंखा दु परिधीको ॥ ५४ पासाद वक मग उरधवला मळ वेदिया परिक्खिता । देवाण होति नगरा वेदगुणगाण सिहरेर्खु ॥ ५५ कूडे होंति दिग्वा जिर्णभवणा विप्फुरतमणिकिरणा । भ्रमराण चारुभवणा कीढणसाला विसाला य ॥ ५६ मरगयमुणालवण्णा गोरोयणकमल कुसुर्मसंकासा । गोखीरसंखवण्णा भिण्णंजणसच्छहा पवरा ॥ ५७ ससिकुमुदद्दे मवण्णा मसोयपुण्णाय बउलसमतेया । वरवज्जणीलविद्दुमणाणाविहरयणपरिणामा ॥ ५८ गाउन आयामेण य गाउदभद्धा हवंति विस्थिण्णा । गाउदच्चदुभागूणा उच्छेहा दिष्वजिणभवणा ॥ ५९ कंचणमणिपायारा भट्टाल यरयगतोरणाडोवा । वलद्दीमडवपठरा भणोवमा रूवसंठाणा || ६० वरवज्जकवाढजुदा गोडरदारेहिं सोहिया' रम्मी । जिणसिद्धर्विवणिवा अकिट्टिमा रयणपरिणामा ।। ६१ भिंगारकळसदप्पणवरचामरमंडिया पर मरम्मा | घंटापडायपउरा सुगंधगंधुद्धदो रम्मा ॥ ६२ कंबंवकुसुमदामा णाणाकुसुमोवहारकयसोहा । चारणमुणिगणसद्दिया तियसिंदणमंसिया रम्मा ॥ ६६ जिदणीलमरगयकक्केयणपउमराथकय सोहा । कंचणपवालवे रुलिनाणामणिरयणसं कृण्णा ॥ ६४ मूलमें कुछ कम बीस योजन, मध्यमें कुछ कम पन्द्रह योजन तथा ऊपर साधिक नौ योजन प्रमाण हैं ।। ५४ ॥ वैताढ्य पर्वतोंके शिखरों पर प्रासादवलय, गोपुर और धवल एवं निर्मल वेदिका वेष्टित देवोंके नगर हैं ॥ ५५ ॥ कूटोंपर चमकते हुए मणिकिरणों से सहित दिव्य जिनमवन व देवोंके सुन्दर भवन और विशाल क्रीडनशालायें हैं ॥ ५६ ॥ ये जिनभवन मरकत व मृणालके सदृश वर्णवाले, गोरोचन व कमलपुष्प के सदृश; गोक्षीर व शंख जैसे वर्णवाले भिन्न अंजनके सदृश चन्द्र, कुमुद व सुवर्णके समान वर्णवाले; अशोक, पुन्नाग व बकुलके सदृश तेजवाले [ वनोंसे वेष्टित ; तथा उत्तम वज्र नीलमणि, विद्रुम एवं नाना प्रकारके रत्नोंके परिणाम स्वरूप हैं ॥ ५७-५८ ॥ उक्त दिव्य जिनभवनोंका आयाम एक कोश, विस्तार आध कोश और उंचाई एक चतुर्थ भागसे कम एक कोश प्रमाण है ॥ ५९ ॥ उक्त जिनभवन सुवर्ण एवं मणिमय प्राकारों से सहित, अट्टालय व रत्नतोरणोंसे संयुक्त, प्रचुर हज्जों व मण्डपोंसे युक्त और अनुपम रूप व आकारवाले हैं ॥ ६० ॥ उक्त जिनभवन वज्रमय उत्तम कपाटोंसे युक्त, गोपुरद्वारोंसे शोभित, रमणीय, जिनबिम्ब व सिद्धविम्बों से सहित, अकृत्रिम और रत्नों के परिणाम रूप हैं ॥ ६१ ॥ ये निस्य जिनभवन भृंगार, कलश, दर्पण व उत्तम चामरेंसे मण्डित; अतिशय रमणीय, प्रचुर घंटा व पताकाओं सहित, सुगन्धमे व्याप्त, रमणीय, लटकती हुई पुष्पमालाओंसे संयुक्त, नाना कुसुम के उपहार से शोभायमान, चारण मुनिगणसे सहित, इन्द्रोंसे नमस्कृत, रमणीय, वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पद्मराग मणियोंसे की गई शोभासे सम्पन्न सुवर्ण, प्रबाल व वैडूर्य आदि नाना प्रकारके मणियों व रत्नोंसे व्याप्तः भंभा, मृदंग, मर्दल, १ उश वण. २ उश सिरेसु. ३ उ जण. ४ ब विस्फुरंत, श वि पब्जरंत ५ प अमरा चारू, व अमरा चार° ६ ब कुसम ७ उश गाउछ ८ प य व र ९ उश सोहिय. १० व रेम. ११ गंधदुदा. १२ प व दामो १३ श वेलि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिदिओ उसो भंभामुदिंगमद्दलजयघंटेीकंसतालसंजुत्ता । पड्डपडहसं व काहलव खुंदुहि सहगंभीरा ॥ ६५ संगीयणसाला अहिसेयसभाघरा परमरम्मा । कीडणसाला विउला गाणाविहरूवसंठाणा ॥ ६६ पुण्णागणायचंपय असोयबउलादिदिव्त्ररुक्लेर्हि । उज्जाणेहिं समंता सोहंता णिच्चजिणभवणा ॥ ६७ कमलोयरवण्णाभा णिम्मलससिकिरणहारसंकासा । वियसियचंपयवण्णा नीलुप्पलसच्छहा केई || ६८ कमलुप्पलसंछण्णा पउमिणिसंडेहिं मंडिया दिव्वा । विजाहरसुरमहिया गरुडोरयजक्खकयपूषा ॥ ६९ अमलियकोरंटणिभा पारावय मोरकंठसंकासा । मरगयपवालवण्णा दिणयरकिरणापहा य व ॥ ७० बोसट्टरयणमाला मुत्तामणिहेमजालकयसोहा । गोसीसैमलय चं दणकालाय रुघूमगंधड्ढा ॥ ७१ सुरइयदेवच्छंदा चीणं सुर्यैपट्टसुत्तनिवहेहिं । णाणाविहवण्णेहि य वत्थसुमालाहि सोहंता ॥ ७२ बलिगंधपुष्कपरा मणिमयवरदीवियादिदिगंता । णाणाविहरूवेहि य विहाणणिवहेहि सोहंति ॥ ७३ एवं वेदड्ढेसु य निणभवर्णा वण्णिदा समासेण । अवसेसण गाणं एसेवे' कमो मुणेयब्वो ॥ ७४ -२. ७४ ] जयघंटा व कंसतालोंसे संयुक्त; पटु पटह, शंख, काहल एवं उत्तम दुंदभी बाजोंके शब्दसे गम्भीर; संगीतशाला, नृत्यशाला व अभिषेकसभा गृहोंसे अतिशय रमणीय; विस्तृत क्रीडनशालाओंसे सहित, नाना प्रकारके रूप व आकारोंवाले; तथा चारों ओर पुन्नाग, नाग, चम्पक, अशोक और बकुल आदि दिव्य वृक्षोंवाले, उद्यानोंसे शोभायमान हैं ॥ ६२-६७॥ इनमेंसे· कितने ही कमलोदरवर्णकी आभावाले, कितने ही निर्मल चन्द्रकिरण एवं हारके सदृश, कितने ही विकसित चम्पकपुष्पके समान वर्णवाले, और कितने ही नील कमलके सदृश हैं ॥ ६८ ॥ कमल व उत्पलोंसे व्याप्त, पद्मिनीसमूहोंसे मण्डित, दिव्य, विद्याधरों एवं देवोंसे पूजित; गरुड, उरग एवं यक्षों द्वारा रची गई पूजाको प्राप्त; निर्मल कोरंट वृक्ष सदृश, कबूतर व मयूर के कण्ठके सदृश, मरकत व प्रबाल जैसे वर्णवाले, सूर्यकिरणोंक सदृश प्रभावले, श्रेष्ट, विकसित रत्नमालाओंसे सहित; मुक्ता, मणि व सुवर्णजालसे की गई शोभाको प्राप्त; गोशीर, मलय चन्दन और कालागरुके धुएंके गन्धसे व्याप्त; नाना प्रकार के वर्णवाले चीनांशुक ( रेशम ), पट्ट ( कोश) व सूतसे रचे गये देवच्छन्द से सहित, वस्त्र एवं मालाओंसे शोभायमान; प्रचुर बलि, गंध एवं पुष्पोंसे युक्त और मणिमय उत्तम दीपादिकोंसे दैदीप्यमान वे जिनभवन नाना प्रकारके रूपोंवाले साधनसमूहों से शोभायमान हैं ।। ६९-७३ ॥ इस प्रकार वैताढ्य पर्वतोंपर स्थित जिनभवनोंका संक्षेपसे वर्णन किया गया है । यही क्रम शेष पर्वतोंपर स्थित जिनभवनों का भी जानना चाहिये ॥ ७४ ॥ [ १७ १ उ जयवंडा, श जयव्वडा २ उ केई. ३ श जक्खरचयपूया. ४ प किरण पहा यदा, व किरणपहा यरा. ५ उश गोसीर. ६ उश कालायर ७ उ वीणंसुय. ८ प ब प्रत्योः 'बलिगंध...' इत्यादिगाथेयं नोपलभ्यते । ९ प वेदढसु य जिणभवण, ब वेदद्दसु ह निभुवण. १० प ब अवसेसागा. ११ ब यसेव. जं. दी. ३. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती [ २. ७५ छत्तत्तयसिंहासणवरचामरकुसुमवरिससंपण्णा । भामंडलादिसहिदा जिणपडिमाओ णमंसामि ॥ ७५ गाउयवस्थिपणा दोसु वि पासेसु पव्वदायामा । वेदड्ढाण णगाणं वणसंडा होति णिहिडा || ७६ बेगाउद उव्विद्धा पंचधणुस्सयपमाणवित्थिण्णा । णाणातोरणणिवहा वरवेदिविहूसिया रम्मा ॥ ७७ फणसंचतालदाडिम असोयपुण्णायणायरुक्खेहिं । वरबउलतिलयचंपयकुंकुमकप्रणिवदेहिं ॥ ७८ एलातमालचंदणलवंगक्रक्कोलकुंद णिवहेहिं । णारंगतुंगलवली सज्जज्जुणकुडयजादीहि ' ॥ ७९ पूँगफलर त्तचंदणध वैधम्मणणालिकेरकदलीहिं । आसत्थतालतिं दुगणग्गोपलासपउरेहिं ॥ ८० कंचणकयंत्रकेयइकणवीरकसायकुज्जयादीहिं । णाणावणगुंछेहि" य उज्जाणवण विरायंति ॥ ८१ कल्हारकमलकंदलणी लुप्पलफुल्लियाहि विउलाहिं । सोहंति सरवरेहि य वप्पिणवावीहि पउराहि ॥ ८२ 1 सव्वे व तहा वितरदेवाण होति वरणयरा । पायारगोउरजुया णाणामणिरयणपासाया ॥ ८३ सत्ततला विष्णेया कंचणमणिरयणमंडिया दिव्वा । मणिगणजलंत थंभा पीलुप्पल कमलगन्भाही ॥ ८४ १८ ] तीन छत्र, सिंहासन उत्तम चामर और कुसुमवृष्टिसे सम्पन्न तथा भामण्डलादि से सहित जिनप्रतिमाओंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ७५ ॥ वैताढ्य पर्वतोंके दोनों ही पार्श्वभागों में पर्वतोंके बराबर लंबे और दो कोश विस्तीर्ण वनखण्ड निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ७६ ॥ ये रम्य वनखण्ड दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण, और नाना तोरणसमूहोंसे संयुक्त ऐसी उत्तम वेदिकासे विभूषित हैं || ७७ || ये उद्यानवन पनस, आम्र, ताल दाडिम, अशोक, पुन्नाग और नाग वृक्षोंसे; उत्तम बकुल, तिलक, चम्पक, कुंकुम और कर्पूर वृक्षोंके समूहोंसे; एला, तमाल, चन्दन, लवंग, कंकोल ( शीतलचीनी ) व कुंद वृक्षोंके समूहोंसे; नारंगी, तुंग (पुन्नाग), लवली, सर्ज, अर्जुन, कुटज व जाति (चमेली या जावित्र) के वृक्षोंसे; पूगफल (सुपाड़ी), रक्त चंदन, धव, धम्मण, नारियल, कदली, अश्वत्थ, ताल, तेंदू, न्यग्रोध, पलाश, कांचन ( कचनार ? ), कदंब, केतकी, कणवीर ( कनेर ), कषाय और कुज्जक आदि नाना वनवृक्षोंसे विराजमान हैं ॥ ७८-८१ ॥ ये वन कल्हार, कमल, कन्दल और नीलोत्पल फूलोंसे सहित; विपुल सरोवरों तथा प्रचुर वप्रिण (नहर ) एवं वापियोंसे शोभायमान हैं ॥ ८२ ॥ सत्र वनोंमें प्राकार व गोपुरोंसे युक्त और नाना मणिमय एवं रत्नमय प्रासादोंसे सहित व्यन्तर देवोंके श्रेष्ठ नगर हैं ॥ ८३ ॥ उक्त व्यन्तरनगर सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे मण्डित; दिव्य मणिसमूहसे चमकते हुए स्तम्भोंसे सहित, तथा नीलोत्पल व कमलगर्भके समान आभासे संयुक्त सात तलोंवाले जानना चाहिये ॥ ८४ ॥ इनमेंसे कितने ही प्रासाद कुंकुमवर्ण, १ उ क्रुडयस जाहीहि, ब कुंडयजादीहिं, श कुडयजाहीहि. २ श पुंगफलरत्तयंदण. ३ उ घर, श धव. ४ उ किंदूमणलोह, प किंतुमणग्गोह, व किंदुमणगोह, श किंदूमणलगोह. ५ उश गच्छे हि. ६ उ उज्जाणविणा. ७ उ श वाविहि पउरेहि ८ उश गोउरज्जया, प ब गोउरजुय. ९ प सब्भाहा, व छहप्ताहा. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ९४ ] बिदिओ उद्देसो [ १९ कई कुंकुमवण्णा कुंदेदुनुसाहारसंकासा । केई सिंदूराहा वियसियणीलुप्पलच्छाया ॥ ८५ सयवत्तगम्भवण्णा गोरोयणकुमुदनादिसंकासा । णिदंतकणयषण्णा दिणयरकिरणप्पभा केई॥ ८६ सम्वे अकिहिमो खछु जिणिंदमवणेहि सोहिया रम्मा । वितरणयरा दिव्या को सक्का वण्णिउं सयलं ।। ८७ अहेव य उविदो पंचासा जोयणा हवे दीहा । बारह विस्थारेण य महागुहा होंति दो दो दु ।। ८८ पुग्वेण होति तिमिसा खंडपवादा य होति पच्छिमदो। वरवज्जकवाडजदा णाणामणिरयणपरिणामा-॥ ८९ जमलकवाडा दिव्वा छच्चेव य जोयणा दु विस्थिण्माअहेव य उव्विद्धा वेदड्ढाणं विणिद्दिहा ॥९. गंगादी सरियाओ' दूरेण य संकुडित्तु दाराणं । रंधेसु पइहाओ णागिणियाओ जहाँ धरणिं ॥ ९१ पण्णास समधिरेयाँ गंतूणं जोयण्णाणि तेसु पुणो । रंधमुहणिग्गदाओ णागीव जहा विलमुहादो ॥ ९२ गंगासिंधू सरिया अहेव य जोयणाणि विस्थिण्णा । पव्वदगुहासु दिव्वा गच्छंतीओ विरायंति ॥ ९३ वणवेदीपरिखित्ता वरतोरणमंडिया परमरम्मा । पविसित्तु वुत्तरेहि य दक्खिणदारेहि णिग्गंति ॥ ९४ कितने ही कुंद पुष्प, चन्द्र, तुषार व हारके सदृश, कितने ही सिन्दूरके समान कान्तिवाले, कितने ही विकसित नीलोत्पलके समान शोभावाले, कितने ही शतपत्र ( कमल ) के गर्भके समान वर्णवाले, कितने ही गोरोचन, कुमुद व जाति (चमेली) के सदृश, कितने ही निर्धान्त अर्थात् निर्मल सुवर्णके समान वर्णवाले, तथा कितने ही सूर्यकिरणों जैसी प्रभासे सहित हैं। ये सब रमणीय दिव्य व्यन्तरनगर अकृत्रिम व जिनेन्द्रभवनोंसे शोभित हैं। इन नगरोंका समस्त वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥ ८५-८७ ॥ वैताढ्य पर्वतोंमें आठ योजन ऊंची, पचास योजन दीर्घ और बारह योजन विस्तृत दो दो महागुफायें हैं ॥ ८८ ॥ इनमें वज्रमय उत्तम कपाटोंसे संयुक्त एवं नाना मणियों व रत्नोंके परिणामरूप तिमिस्र गुफा पूर्वमें और खंडप्रपात गुफा पश्चिममें है ॥ ८९ ॥ वैताढ्योंकी उन उभय गुफाओंके दिव्य युगल कपाट आठ योजन ऊंचे और छह योजन विस्तीर्ण कहे गये हैं ॥ ९० ॥ जिस प्रकार नागिनियां पृथिवीमें प्रवेश करती हैं उसी प्रकार गंगादिक नदियां दूरसे ही संकुचित होकर उन द्वारोंके छेदोंमें प्रविष्ट हुई हैं ॥ ९१ ॥ उक्त नदियां गुफाओंमें पचास योजनसे कुछ अधिक जाकर बिलमुखसे नागिनीके समान गुफामुखसे निकली हैं ॥ ९२ ॥ आठ योजन विस्तीर्ण होकर पर्वतोंकी गुफाओंमें जाती हुई वे दिव्य गंगा-सिंधू नदियां शोभायमान होती हैं ॥ ९३ ॥ वन व वेदियोंसे वेष्टित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित और अतिशय रमणीय ये गंगा-सिंधू नदियां उत्तर द्वारोंसे प्रवेश करके दक्षिण द्वारोंसे बाहर निकलती हैं ॥ ९४ ॥ उनमेंसे प्रत्येक गुफामें दो दो योजन दीर्घ दो दो नदियां हैं, जो गंगा-सिंधूमें १ उ णिग्धांत, श णिग्गंत. २५ ब अकट्टिमा. ३ उ उच्छिधा, श उस्थिदा. ४ उ श पश्चिमादो. ५ उच्छिदा, श उस्थिद्धा. ६ उ गंगादिसरीयाओ, पगंगादि सरीयाओ, व गंगादिं सरीयऊ, श गंगादिसरायाओ. ७ उ श जह. ८ उ श समिधिरया. ९ उ मुरखादो, पश मुसादो. १० उ श जोयणाण. ११ उ पस्त्रित्ता, पवश परिकत्ता. १२ उ श धुत्तरेहि, प वरेहि. १३ उ णिग्रंति. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] जंबूदीवपणती [ २.९५ एक्क्म्मै गुहम्मदु दो दो दु हवंति तत्थे सरिदाओ । दो दो जोगणीहा गंगासिंधूसु पविसंति ॥ ९५ वेदड्ढवरगुहेसु य पणुवीसौ जोयणाणि गतूण । पुन्त्रावराग्रदाओ सरियाओ होति णिद्दिष्ट्ठा ॥ ९६ णगगुहकुंड विणिग्गय मणितोरणमंडिया परमरम्मा । वड्ढइरयणविणिम्मियसंकमहुदीहि वित्थिष्णा ।। ९७ वणवेदी परिखित्ती उम्मग्गणिमग्गसलिलणामाओ । सब्वेसिं गायन्त्रा वेदड्ढगुहाण सरिदाओ ॥ ९८ भरस्स दु विक्खंभो विक्खभविहूणरूप्पसेलस्स | सेसद्धं इर्खु जाणे बेसय अडतीस तिष्णि कला ॥ ९९ दक्खिणभरहे या उत्तरभरहे य होंति तावदिया। जोयणगणेगां णेया पमाणगणगेहिं" निद्दिद्वा ॥ १०० अडदाला सत्तसया णवयसेहेस्साणि होति णिद्दिडा । दक्खिणभरहे जीवा बारसभागा य सविसेसा ॥ १०१ छावा सत्तसया णवयसहस्साणि जोयणा गया । समहियएककला पुणु दक्खिणभरहस्स धणुपद्धं ॥ १०२ बावीसा सत्तसया दुसयसहस्साणि जोयगा णेया । बारस किंचूर्ण कला उत्तरभरहस्स दीहत्तं ' ॥ १०३ T प्रवेश करती हैं ॥ ९५ ॥ वैताढ्य पर्वतोंकी उन उत्तम गुफाओंमें पश्चीस योजन जाकर पूर्व-पश्चिम आयत उक्त नदियां हैं, ऐसा निर्देश किया गया है ॥ ९६ ॥ पर्वतकी गुफाओंके कुण्डोंसे निकली हुई, मणितोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, बढ़ई रत्न से निर्मित संक्रम (पुल) आदि से सहित, विस्तीर्ण और वनवेदियोंसे वेष्टित उन्मग्नसलिला व निमग्नसलिला नामक नदियां सब वैताढ्य पर्वतोंकी गुफाओंमें जानना चाहिये ॥ ९७-९८ ॥ भरतक्षेत्रके विस्तारमेंसे विजयार्धके विस्तारको कम करके शेषको आधा करनेपर [ ( - ) + ] = ४५२५ = २३८६ यो. ) दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला प्रमाण दक्षिण भरतका बाण ( विस्तार ) जानना चाहिये । इतना ही विस्तार उत्तर भरतका भी है । यह योजनोंकी संख्या प्रमाणगणक द्वारा निर्दिष्ट की गई है ॥ ९९-१०० ॥ दक्षिण भरतकी जीवा नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह भागों कुछ अधिक कही गयी है ४५२५ ४५२५ 11 १०१ ॥ दक्षिण V १० १९ १९ × *१२ " ×४ = ९७४८] भरतका धनुषपृष्ठ नौ हजार सात सौ छ्यासठ योजन और एक कलासे कुछ अधिक जानना चाहिये [ + ( ४५१५° ×६ ) =९७६६९ ] ॥ १०२ ॥ उत्तर भरत ( विजयार्ध ) की दीर्घता ( जीवा ) दश हजार सात सौ बाईस [ वीस ] योजन और बारह कला ( १०७२०१३ स कुछ कम जानना चाहिये ॥ १०३ ॥ १८५२२४ १९ [ १ उ रा एक्कक्कम्मि २. उश तस्स. ३ प ब पणवीसा ४ प ब रयणि ५ उ प ब श पहदीह. ६ उश परिक्खिन्ना, प ब परिक्खित्ता. ७ उ विक्खंभा ८ प इंसु, ब यसु, श हसु ९ प ब बेसह अडसीस १० उ प ब श गणणे. ११ उ प ब श गणणेहि. १२ प ब णवइ. १३ उश दससय, व दसए.. १४ उ ब दीहत्वं, श दीहत. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ११४ ] बिदिओ उद्देसो [२१ तेदाला सत्तसया दसय सहस्साणि पुण्णरस भागा । किंचिविसेसेणधिया उत्तरभरहस्त धणुपद्वं ।। १०४. जोयणसद्धि पणासा वित्थडा समुद्दिद्वा । वसहगिरिणामधेया कंचनमणिरयणपरिणामा ॥ १०५ वणवेदियपरिखित्ता गागाविहतोरणेहि कयसोहा । उज्जाणभवणणिवा जिणचेइयमंडिया रम्मा ॥ १०६ चक्करमाणमहणा णाणाचक्कीण णामसंछण्णा । उत्तरभरहद्धेसु य मज्झिमखंडेसु ते होंति ॥ १०७ भरस्स जहा दियौ तव एरावयस्स बोधव्वा । सोर्सि खेत्ताणं एसेव कमो मुणेो ॥ १०८ जह खेत्ताणं दिट्ठा दीवाणं तह य होइ विष्णेया । वेदीणदीणगाणं वंसाणं वण्णणा तह ये ॥ १०९ सव्वभरहाण या मज्झिमखंडेसु कालसमयाणि । छच्चे होंति दिव्वा तहेव एरावदाणं तु ॥ ११० सुसमसुसमा य सुसमा सुस्समदुसमा य होंति णिहिद्वा । दुस्समसुसमा दुसमा दुस्समदुसमा य विष्णेया ॥ १११ चत्तारि सागरोवमको डाकोडी हवंति णिद्दिष्ठा । सुसमसुसमा य कालो बोद्धव्त्रो' आणुपुव्वीर्य ॥ ११२ सुसमा तिण्णेव हवे सुस्समदुसमा य विग्णि णिद्दिट्ठा | दुस्समसुसमा एक्का बादालसहस्सवरिसूणा ॥ ११३ दुस्समकालो ओ इगिवीससहस्स हवइ परिसंखा । दुस्समदुसमस्स तहा इगिवीससहस्सवासाणं ॥ ११४ उत्तर भरत ( विजयार्ध) का धनुषपृष्ठ दश हजार सात सौ तेतालीस योजन और पन्द्रह भागोंसे (१०७४३३५ ) कुछ अधिक है ॥ १०४ ॥ उत्तर भरतार्धो में मध्यम खण्डोंके भीतर सौ योजन ऊंचे, पचास योजन विस्तृत; सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके परिणामरूप; वनवेदी से वेष्टित, नाना प्रकार के तोरणोंसे शोभायमान, उद्यानों एवं भवनोंके समूहसे सहित, जिनचैत्योंसे मण्डित, चक्रवर्तियों के अभिमानको नष्ट करनेवाले, और नाना चक्रवर्तियों के नामोंसे व्याप्त वृषभ गिरि नामक रमणीय पर्वत हैं ।। १०५-१०७ ।। जैसे भरत क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही ऐरावतकी भी जानना चाहिये । शेष सब क्षेत्रोंका यही क्रम समझना चाहिये । अर्थात् ऐरावतका वर्णन भरतके समान, हैरण्यवतका वर्णन हैमवतके समान, रम्यकका वर्णन हरिके समान, तथा उत्तरकुरुका वर्णन देवकुहके समान है ॥ १०८ ॥ जिस प्रकारसे जम्बूद्वीपादिक द्वीपों के क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है उसी प्रकार वेदी, नदी, पर्वत और क्षेत्रोंका भी वर्णन जानना चाहिये ॥ १०९ ॥ सत्र भरतक्षेत्रोंके मध्यम खण्डोंमें छह ही कालसमय जानना चाहिये। उसी प्रकार ऐरावत क्षेत्रोंके मध्यम खण्डों में भी दिव्य छह ही काल होते हैं ॥ ११० ॥ सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और दुषमसुषमा, ये उन छह कालोंके नाम जानना चाहिये ॥ १११ ॥ अनुक्रमसे सुषमसुषमा काल चार कोड़ाकोडी सागरोपम, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषमदुषमा दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुषमसुषमा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुषमा काल इक्कीस हजार वर्ष तथा दुषमदुषमा काल भी इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण जानना चाहिये ॥ ११२-११४ ॥ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इन दोनोंमेंसे एक १ उशप तेदाल. २ ब उछिद्धा. ३ प ब प्रत्योः १०८ तमगाथाया द्वितीय तृतीय चतुर्थचरणानि, १०९तमगाथायाश्च प्रथमचरणं नोपलभ्यते । ४ उ सव्वेसे, श प्रतौ त्रुटितं जातमेतत् ५ उशया. ६ उ श छवेव. ७ ब वहंति ८ उ प व श बोधव्वा. ९ उश आणुपुवीणा. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] जंबूदीवपण्णत्ती [२. ११५सायरकोडाकोटी दससंगुण एककालपरिसंखा । उक्सप्पिणि अवसप्पिणि विणि विपीसा हवे कम्पो ॥११५ सम्वविदेहेसु तहा सबरपुलिंदाण पंचखंडेसु । एको चउत्थसमओ विज्जाहरसव्वणसु ॥ ११६ उत्तरकुल्सु पदमो कालो सब्वेसु हका णिदिहो । हेमवदेसु य तदिओ तहेव हेरण्णवासेसु ॥ ११७ हरिरम्मगवरिससे य विदिओ कालो जिणेहि पण्णत्तो । सव्वाणं खेत्ताणं एसेव कमो मुणेयम्वो ॥ ११८ पदमम्मि कालसमए छच्छेवै य धणुसहस्सउत्तुंगा । तिण्णिपलिदोवमाऊ गराण णारीण बोदवा ॥ ११९ जमलजमला पसूया वरलक्खणवंजणेहि संजुत्ता। बदरपमाणाहारा अहमभत्तेहि पारिति ॥ १२० बिदियम्मि कालसमये चत्वारिसहस्स होंति चावाणि । वे पलिदोवम आऊ मणुयाणं दिव्वरूवाणं ।। १२१ हरडाफलपरिमाणं आहारं दिव्वसादसंपण्णं । छठमभत्तण गरा भुंजंति य सादुकलिदाणि ॥ १२२ तदियम्मि कालसमये बे चेव सहस्स होति चावाणिं । आमलपमाणहारा चउत्थभत्तेण पारिति ॥ १२३ मरणारिगणा तइया उत्तमरूवा कसायपरिहीणा । वरवइरसुसंघडणा पलिदोवमाउगा सव्वे ॥ १२४ कालका प्रमाण दशसे गुणित एक कोडाकोड़ी सागर अर्थात् दश कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। इन दोनोंको मिलाकर बीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण एक कल्प होता है ॥ ११५ ॥ सब विदेहोंमें, शबर व पुलिन्दों ( म्लेच्छों ) के पांच खण्डोंमें, तथा विद्याधरोंके सब नगरोंमें एक चतुर्थ काल रहता है ॥ ११६ ॥ सब उत्तरकुरुओंमें प्रथम काल तथा हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रोंमें तृतीय काल निर्दिष्ट किया गया है ॥ ११७॥ हरिवर्ष और रम्यक वर्षों में जिन भगवान्के द्वारा द्वितीय काल कहा गया है। [ अढाई द्वीपोंके ] सब क्षेत्रोंका यही क्रम समझना चाहिये ॥ ११८॥ पहिले कालके समयमें नर-नारियोंकी उंचाई छह हजार धनुष और आयु तीन पल्योपम प्रमाण जानना चाहिये ।। ११९ ॥ इस कालमें युगल युगल स्वरूपसे उत्पन्न, उत्तम लक्षण व व्यंजनोंसे सहित, और बेरके बराबर आहार करनेवाले नर-नारी अष्टमभक्तसे अर्थात् तीन दिनके अन्तरसे भोजन करते हैं ॥ १२० ॥ द्वितीय कालके समयमें दिव्य रूपवाले मनुष्योंकी उंचाई चार हजार धनुष और आयु दो पल्योपम प्रमाण होती है ॥ १२१॥ इस कालमें मनुष्य हरड फलके बराबर दिव्य स्वादसे संपन्न आहारको षष्ठभक्त अर्थात् दो दिनके अन्तरसे ग्रहण करते हैं ॥ १२२ ॥ तृतीय कालके समयमें शरीरकी उंचाई दो हजार धनुष होती है। आंवलेके बराबर आहार करनेवाले मनुष्य वहां चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिनके अन्तरसे भोजन करते हैं ।। १२३ ।। उस समय नर-नारियोंके सब समूह उत्तम रूपसे सहित, कार्योसे रहित, उत्तम वज्रमय शुभ संहनन अर्थात् वज्रर्षभनाराचसंहननसे युक्त और पल्योपम प्रमाण आयुके धारक होते हैं ॥ १२४ ॥ इन तीनों ही कालोंमें मनुष्योंके पूर्वकृत पुण्य कर्मोके .............. १प ब कप्पे. २ उ श वरसेसु. ३ उ कालसमपछच्चेव, ब कालसमयछच्चेव, श समपत्थञ्चेव. ४ उ साधु, ब साहु, श साधु. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १३४ ] बिदिओ उद्देसो [२३ तीसु वि कालेसु तहा णराण तरुसंभवा विउलसोक्खा । होति वरविउलभोगा पुव्वकियसुकयकम्मेहिं ॥ १२५ मज्जवरतुरियअंगा भूसणतेयालया परमरम्मा । भायणभोयणरुक्खा पदीववरवत्थमलंगा ॥ १२६ मज्जगदुमा णेया कादंबरिसीधुमज्जमादीणि । खीरदधिसपिपाणा सुगंधसलिलाणि ते दिति ॥ १२७ तूरंगदुमा णेया पडुपडहेमुइंगझलरीसंखा । दुंदुभिभभाभेरीकाहलघंटादि ते दिति ॥ १२८ भूसणदुमा वि णेया कंठाकडिसुत्तणेउरादीया । वरहारकडयकुंडलतिरीडैमउडादिया दिति ॥ १२९ जोइसदमा वि णेया दिणयरकोडीण किरणसंकासा' । णक्खत्तचंदसूरा तारांगहकिरणपडिवक्खा ॥ १३० गिहअंगदुमा णेया पासाया सत्तभूमिया दिव्वा । पायारवलहिगोउररयणमया सव्वदा दिति ॥ १३१ भायणदुमा विणेया कंचणमणिणिम्मियीं थाला | भिंगारकलसगग्गरिचरूपिठरादी य ते दिति ॥ १३२ भोयणदुमा वि णेया तित्तंवलकसायमहुरसंजुत्ता । असणादिचदुवियप्पा अमियाहारा सया दिति ॥ १३३ दीवंगदुमा णेया पवालफलकुसुमणिच्चपज्जलिया। दीवा इव पज्जलिया णिच्चुज्जोया समुत्तुंगा ॥ १३४ उदयसे कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न व अतिशय सुखकारक प्रचुर उत्तम भोगसामग्री प्राप्त होती है ॥ १२५ ॥ उक्त कालोंमें उत्तम मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, तेजांग, आलयांग, भाजनांग भोजनांग, दीपांग, उत्तम वस्त्रांग और माल्यांग ये अतिशय रमणीय कल्पवृक्ष होते हैं ॥ १२६ ॥ जो कादम्बरी व सीधु आदि मद्यविशेषोंको; दूध, दही व घी रूप पेय पदार्थोंको; तथा सुगन्धित जलको दिया करते हैं उन्हें मद्यांग जातिके वृक्ष जानना चाहिये ।। १२७ ॥ जो पटु पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुदुंभी, भंभा, भेरी, काहल और घंटा आदिको देते हैं उन्हें तूर्यांग वृक्ष जानना चाहिये ॥ १२८ ॥ जो कंठा, कटिसूत्र नूपुर आदिक, उत्तम हार, कटक, कुण्डल, किरीट और मुकुट आदिको देते हैं उन्हें भूषणांग वृक्ष जानना चाहिये ॥ १२९॥ करोड़ों सूर्योकी किरणोंके सदृश तथा नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, तारा और ग्रहोंकी किरणोंके प्रतिपक्षी ज्योतिषवृक्ष जानना चाहिये ॥ १३० ॥ जो सर्वदा प्राकार, वलभी एवं गोपुरोंसे सहित रत्नमय सात भूमियोंवाले प्रासादोंको देते हैं उन्हें गृहांग द्रुम जानना चाहिये ॥१३१ ॥ जो सुवर्ण एवं मणियोंसे निर्मित थाल, भृगार, कलश, गागर, चर .( लोटा ) और पिठर आदिको देते हैं उन्हें भाजन द्रुम जानना चाहिये ॥ १३२ ।। जो सदा तिक्त, आम्ल, कषाय एवं मधुर रससे संयुक्त अशनादि ( अन्न, पान, खाद्य, लेह्य ) चार प्रकारके अमृतमय आहारको देते हैं उन्हें भोजन द्रुम जानना चाहिये ॥ १३३ ॥ जो पत्र फल एवं कुसमोंसे नित्य प्रज्वलित होते हुए जलाये गये दीपकोंके समान नित्य उद्योत रूप होते हैं उन ऊंचे वृक्षोंको दीपांग द्रुम जानना चाहिये ॥ १३४ ॥ जो नेत्र, अंशुक, चीन (चीनपट्ट), १ पब कादंबर. २ उश पडय. ३ उश वरहाखडयकुंडलातरडि. ४ प ब विरससंकासा. ५ पब चंदतारा. ६ पब मगिरयणणिम्मिया. ७प ब गिग्गरि. ८ श पीउराही. ९ उ श तित्वकलसाय, पतित्तवकसाय, ब वित्तवकसायं. १० उ श पवाला. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती [२. १३५वस्थंगमा णेया णेत्तंसुगचीणखोमैदुगुलादि । वरपट्टनुत्तपउरा गाणावस्थाणि ते दिति ॥ १३५ मलंगदुमा णेया चंपयपुण्णायणायकुसुमेहिं । वरपंचवण्णपटरा सुगंधमाला सया दिति ॥ १३६ एवं ते कप्पदुमा णराण फल दिति पुण्णवंताणं । देवोवणीय सञ्चे दसंगभोगा समुद्दिहा ॥ १३७ तीस वि कालेस तहा तिणाणि चउरंगुलाणि णिद्दिडा । सरहीणि कोमलाणि य दसवण्णाणि" सोहंति ॥ १३८ धरणिधरा विण्णेया विद्दममगिरयणकणयपरिणामा । दिब्बामोयसुगंधा' णाणाविहकप्पतरुणिवहा ॥ १३९ धरणी वि पंचवण्णा मरगयगलिंदणीलमणिणिवहा । वरपउमरायविद्दमणिम्मलमणिकणयपरिणामा ॥ १४० पोक्खरिणिवाविदीही वरणदियाओ य रयणसोबाणा | अमदमहुखीरपुण्णा मणिमयवाहि सोहंति ।। १४१ सूवरसियालसुणहा तरच्छसीहा य सप्पसहला । काका गिद्धादीया जीवा मंसासिणो णरिथ ॥ १४२ संखपिपीलियमकुणदंसामसया य विच्छियादीया । विगलिंदिया य गस्थि दु सुसमादिएसे तिसुकाले॥ १४३ तीहि वि" कालेहि जुदा खेत्तेसु य बहुविहेसु रम्मेसु । जे उप्पज्जति गरा ते संखेवेण वोच्छामि ॥ १४४ क्षौम और दुकूल आदि उत्तम रेशम और सूतके बने वस्त्रोंको देते हैं उन्हें वस्त्रांग द्रुम जानना चाहिये ॥ १३५ ॥ जो सदा चम्पक पुन्नाग एवं नाग वृक्षके पुष्पोंसे [ निर्मित ], उत्तम पांच वर्णोसे युक्त सुगंधित मालाओंको देते हैं उन्हें माल्यांगद्रुम जानना चाहिये ॥ १३६ ॥ इस प्रकार दशांग भोगोंको देनेवाले वे सब देवोपुनीत कल्पवृक्ष पुण्यवान् मनुष्योंके लिये उनके पुण्यके फलको ( सुख-सामग्री ) देते हैं ॥ १३७ ॥ तीनों ( सुषमसुषमा, सुषमा व सुषमदुषमा ) ही कालोंमें चार अंगुल ऊंचे सुगंधित और दशार्ध अर्थात् पांच वर्णवाले कोमल तृण शोभायमान होते हैं ।। १३८ ॥ उन कालोंमें विद्रुम, मणि, रत्न, एवं सुवर्णके परिणाम रूप; दिव्य आमोदसे सुगंधित और नाना प्रकारके कल्पवृक्षोंके समूहसे युक्त पर्वत होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३९ ।। इन कालोंमें पांच वर्णवाली पृथिवी मरकत, गल्ल एवं इन्द्रनील मणियोंके समूहसे युक्त और उत्तम पद्मराग, विद्रुम, निर्मल मणि एवं सुवर्णके परिणाम रूप होती है ॥ १४० ॥ उस समय रत्नमय सोपानोंसे युक्त तथा अमृत, मधु व दूधसे परिपूर्ण; पुष्करिणी, वापी, दीर्घिका और उत्तम नदियां मणिमय बालुओंसे शोभायमान होती हैं ॥ १४१ ।। इन कालोंमें शूकर, शृगाल, कुत्ता, तरक्ष, सिंह, सर्प, शार्दूल, काक और गृद्ध आदिक मांसभोजी जीव नहीं होते हैं ॥ १४२ ॥ दो वार सुषम अर्थात् सुषमसुषम आदि तीन कालोंमें शंख, पिपीलिका, मत्कुण, दंशमशक और विच्छ आदिक विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं ।। १४३ ॥ इन तीनों ही कालोंसे युक्त बहुत प्रकारके रमणीय क्षेत्रोंमें जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं उनकी संक्षेपसे प्ररूपणा करते हैं ॥ १४४ ॥ उन कालोंमें मृदुता एवं आर्जवसे . १ उ श वत्तुंग. २ श वीणखोम. ३ उ श दुगुल हि. ४ प ब गरा फलं ५ उ श दसद्धाविण्णाणि. ६ ब सुगंधी. ७ उ श पिपीणिय.८ उपप श विगलंदिया. ९ पब णस्थि दुसुमादीएस. १. उ प ब श तीहि मि. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १५४ ] बिदिओ उद्देसो [ २५ मिदुमज्जव संपण्णा मंदकसाया विणीयसीला ये । कोधमदमायहीणा उप्पज्जंति य नरा तेसु ॥ १४५ माहारदाणणिरवा जदीसु वर विविधजोगजुत्तेसु । संजमतवोधणेसु य णिग्गंथेसु य गुणधरेसु ॥ १४६ चडविदाणं भणियं तिविहं पसं जिणेहि निहिं । दाऊण पत्तदाणं मकम्मभूमीसु जायंति ॥ १४७ काहार अभयदार्ण भागमाणं च मे सहपदाणं | संखेवेणुद्धिं चउविहदाणं मुणिवरेहिं ॥ १४८ साहू उत्तम मज्झिमपतं तु सावया गया | अविरसम्मादिट्ठी जद्दण्णपतं समुद्धिं ॥ १४९ भवाससी सियतणू जिस्संगी काम कोहपरिहीणो । मिच्छतसंसिदमणो णायन्दो सो अपतो चि ॥ १५० ववाससोसियतणू णिस्सँगो कामकोहपरिहीणो । सम्मससंसिदमणो णायब्वो उत्तमो पत्तो ॥ १५१ एवं पत्तविसेस दाणं दाऊण तेसु जायंति । अणुमोदणेण केई मणुया तिरिया व विष्णेया ॥ १५१ कम्मभूमिजादा वे तेसु हवंति भोगभूमीसु । संपुष्णचंदवयणा समचरसरीरसंठाणा ॥ १५३ बज्जिकूण बका उणवण्णदिणेहि जोग्वणा होति । सम्यकलापतट्ठा वरलक्खणभूसियसरीरा ॥ १५४ मंदकषायी विनीत स्वभाववाले तथा क्रोध, मद व मायासे रहित मनुष्य उत्पन्न होते हैं ॥ १४५॥ जो मनुष्य उत्तम व विविध योग अर्थात् समाधिसे युक्त, संयम एवं तप रूप धनसे सहित और [ मूल व उत्तर ] गुणोंको धारण करनेवाले ऐसे निर्मन्थ यतियोंके लिये आहारदान देनेमें निरत रहते हैं वे उन भोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १४६ ॥ जिन भगवान्ने चार प्रकारका दान और तीन प्रकारके पात्र कहे हैं । मनुष्य पात्रदान देकर अकर्मभूमियों ( भोग भूमियों ) में उत्पन्न होते हैं ॥ १४७ ॥ मुनिवरोंने आहारदान, अभयदान, शास्त्रदान और औषधदान, इस प्रकार संक्षेपसे चार प्रकारका दान कहा है ॥ १४८ ॥ साधुओं को उत्तम पात्र और श्रावकों को मध्यम पात्र जानना चाहिये | अविरतसम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र कहा गया है ॥ १४९ ॥ उपवाससेि शरीरको कृष करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम-क्रोधसे विहीन, परन्तु मनमें मिथ्यात्व भावको धारण करनेवाले जीवको अपात्र [ कुपात्र ] जानना चाहिये ॥ १५० ॥ उपवाससि शरीरको कृष करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम-क्रोध से विहीन और मनमें सम्यक्त्व भावको धारण करनेवाले जीवको उत्तम पात्र जानना चाहिये ॥ १५१ ॥ इस प्रकार कितने ही मनुष्य व तिथेच पात्रविशेषको दान देकर और कितने ही उसकी अनुमोदनासे उन भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १५२ ॥ जो जीव कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए हैं वे उन मोगभूमियोंमें पूर्ण चन्द्र के समान मुखसे सहित और समचतुरस्रशरीरसंस्थान से युक्त होते हैं ॥ १५३ ॥ भोगभूमियोंमें युगल स्वरूपसे उत्पन्न होकर ये जीव उनंचास दिनोंमें यौवन से युक्त, सब कलाओंके रहस्यको प्राप्त और उत्तम लक्षणोंसे भूषित शरीरके धारक हो जाते हैं ।। १५४ ॥ भिन्न इन्द्रनील मणिके समान केशोंवाले, अभिनव लावण्य ४ प व प्रोनोपलभ्यते गाधेयम् । ५ श १ उश विदु. २ उश या. ३ प व अविरह. तिमो. ६ प चति. ७ उश समच उरंसासरीर. जं. डी. ४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] जंबूदीपणती [ २. १५५ मिहिणीका अभिणव छायप्रणेवसंपण्णा । सुहसायरमज्झगया पीलुप्प सुरहिणीसासा ॥ १५५ रोगजरापरिद्वीणा बणागसहस्वबलबत्ता । भारतकुमुद्रचळणा णवचंपयकुसुमगंधता ॥ १५६ दिव्यामुळमध] हारंगयक यतुडियकय सोहा । वरदणाणुकित्सा मणिकुंडलमंडियागंडा ॥ १५७ तिवलीरंगम्सा माहरण विहूसिया परमरुवा । भोत्तूर्ण विश्व भोगे सब्वे देवतणमुर्विति ॥ १५८ ब्रहामणेहि मणुमा मरिजणं तस्थ भोगभूमीसु । भवणवद्दवाणविवरजोइसदेवेषु गच्छेति १५९ जे पुण सम्मादिद्वी देवेहिं विवोहिया हवे तेसु । ते कप्पवासभवणे उप्पज्जंतीण अण्णत्थ ॥ १३० तिरिया वि तेसु णेषा जुबळा जुवा हवंति निद्दिट्ठा | सरला मंदकखाया जाणाविद्दआदिसंजुत्ता ॥ १६१ गयबरसीहतुरंगा हरिणा रोज्झा य स्वरा महिला । वाणरगवेडजवळा वयवर्षेवर • छपाईया ॥ १६२ लुकको किलाण जुबला पारावग्रहंसकुररेकारंडा । किंजक्कचक्कवाया सिहिसारसँकुंचयादीया ॥ १६३ सह मायाणं भोगा वह तिरियाणं वियाण सध्वाणं । आउबल भोगरिद्धी सभासदो होइ णिहिट्ठा ॥ १६४ 1 रूपसे सम्पन्न, सुख-समुद्रके मध्यको प्राप्त, नील उत्पल जैसी सुगंधित निश्वाससे सहित, रोग ब जरासे रहित, नौ हजार हाथियोंके बराबर महान् वलसे संयुक्त, किंचित् रक्त वर्ण कमलके समान चरणोंवाले, नवीन चम्पकके फूल जैसी गंधते युक्त, दिव्य एवं निर्मल मुकुटके धारक; हार, अंगद, कटक और त्रुटिक ( हाथका आभरणविशेष ) से की गई शोभाको प्राप्त, उत्तम चन्दन से अनुलिप्त, मणिमय कुण्डलोसे मंडित कपोलोवाले, मध्य भागमें विली रूप तरंगों से संयुक्त, आभरणों से विभूषित और उत्तम रूपके धारक के सब जीव दिव्य मोगोंको भोगकर देव पर्यायको प्राप्त करते हैं ॥ १५५ - १५८ ॥ वहाँ भोगभूमियोंमें मनुष्य ( नर-नारी क्रमशः ) क्षुत अर्थात् छींक और जृम्भा के साथ मरकर भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष देवोंमें जाते हैं ।। १५९ ॥ परन्तु उनमें जो जीव देवों द्वारा प्रबोधको प्राप्त होकर सम्यग्दृष्टि होते हैं वे कल्पवासी देवोंके विमान में उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र ( भवनवासी आदिकोंमें ) नहीं उत्पन्न होते ॥ १६० ॥ उन भोगभूमियों में सरल, मन्दकषायी और नाना प्रकारकी जातियोंसे संयुक्त उत्तम गज, सिंह, तुरंग, हरिण, रोझ, शूकर, महिष, वानर, और गवेलक (भेड़ ) इनके युगल; वृक, व्याघ्र व तरक्ष आदिके तथा शुक व कोयलके युगल; पारावत, हंस, कुरर, कारण्ड, किंजक्क, चक्रवाक, मयूर, सारस और क्रौंच भादिक तिर्यंच भी युगल-युगल स्वरूपसे होते हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥ १६११६३ ॥ वहां जैसे मनुष्यों के भोग होते हैं वैसे ही सब तिर्यचों के भी जानना चाहिये । इनकी आयु, बल, भोग व ऋद्धिकी संक्षेपसे प्ररूपणा की गई है ॥ १६४ ॥ सब ही १ लायण, श लावण. २ उश तबली. ३ उ रा सोसून. ४ उ ववम श बरखम्ग. ५ उश कबर. ६ वा सामर. ७ उ रा सषाणं. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14tani बिर्दिी उसी होति म मिच्छादिट्ठी सासस्सिा में माविरदा चैव । सारि गुणवाणी सो भौगम्भीड । दिनों दुकालसमभो भसंसदीये य होति णियमेण । मणुसुत्तरातु परदो दिवरपधयों नाम in भूधरणगिंदणामो सयंभुरमणम्मि दीवममम्मि । हवइ मणुसोत्तरी बिय पोक्सारबरदीवमन्मम्मि ॥ १५. एदम्मि मजमभागे जुवला जुवला तिरिक्खजादीया । कापण्णरूवेकडिया विम्माशुमावेण ॥ ११ पलियोषमाउगाते ममदापारी कसायपरिहीणा । कप्पतरुजणियमोगा सी देवचणमुर्विति ॥ ९९ . भूमितर्णरुक्खपवदसरसरिपोक्खरिणिदीहियादीनि जाष्णि दुपुष त एत्य विवर्णां सपा ॥ .. दीवाण समुदाण य पायारा भट्टजीयधिद्धा चांगोंडरसंती णाणामणिरय वणवैदियपरिखित्ता मणिवोरणमाया परमरम्मा । उववर्णकार्णणसहियां दीवसा वियैति पदेसु विणिट्टिो जिणभवविहूसिएसु रम्मसु । संस्समदुसमो कालो मट्टिदो संबदीवसु ॥ अक्षाणहिसयंभुरवणे सयंभुरवणस्स दीवमन्मम्मि । मूहरणगिपरदो दुस्समकालो समुष्टिो ॥.. देवेसु सुसमसुसमो गिरए भइदुस्समो दवइ कालो। उरचेव काहसमया तिरिक्खमण्माण णिरिट्वा । 14. मोगभूमियोंमें मिध्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत- [सम्यग्दृष्टि ], ये चार गुणसान होते हैं ॥१६५॥ मानुषोत्तर पर्वतसे आगे नगेन्द्र (स्वयम्प्रम) पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें निषमतः तृतीय कालका समय रहता है ।। १६६ ॥ जिस प्रकार पुष्करवर द्वीपके मध्यमें मानुषोचर पर्वत है, उसी प्रकार स्वयंभरमण द्वीपके मध्यमे नगेन्द्र नामक पर्वत है ॥ ११ ॥ [ मानुषोत्तर भौर नगेन्द्र पर्वतके ) इस मध्यभागमें कर्मके प्रभावसे लावण्यमय रूपसे युक्त तिर्यच जातिके अनेक युगल हैं ॥१६८॥ पत्योपम प्रमाण भायुवाले, अमृतमोजी, कषायोंसे रहित और कल्प वृक्षोंसे उत्पन्न भोगोंसे युक्त थे सब तिपंच जीव देव पर्यायको प्राप्त होते हैं ॥१६९॥ भूमि, तृण, वृक्ष, पर्वत, तालाब, नदी, पुष्करिणी और दार्षिका मादिकों. का जैसा पूर्वमें वर्णन किया गया है पैसा सब वर्णन यहापर भी करना चाहिये ॥१७० ॥ द्वीप और समुद्रोंके प्राकार ( जगती) आठ योजन ऊंचे; चार गोपुरोंसे संयुक्त भौर नाना मणियों एवं रस्नोके परिणाम रूप होते हैं ॥११॥ वनवेदियोंसे वेष्टित, मणिमय तोरणोंसे मतित, अतिशय रमणीय और वन-उपवास सहित द्वीप-समुद्र विराजमान हैं ॥१७२ ॥ जिनभवनोंसे विभूषित इन समस्त रमणीय द्वीपोंमें सुषमदुषमा काल अवस्थित कहा गया है ॥ १७३ ॥ नगेन्द्र पर्वतके परे स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में दुषमा काल कहा गया है ॥ १७४ ॥ देवोंमें सुषमसुषमा, नारकियोंमें अतिदुषमा और तिथंच मनुष्योंके छहों कालसमय कहे गये हैं १३श सासणमिच्छा य, पब सासणमिस्सा इ. २ [ असंखधवेस होवि]. ३ प प निदपम्पो. मोमा. ५ श लोयसरूवं. ६ 0 कम्माणमावणे.. उश अवदाहार. ८ शतप. १५ पणिणा. १० उश णिनिक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] बूदीवपण्णवी [२.१७६मशानुचरादुतो माणुसलेत्तम्मि लम्विहो कालो । भरहेसु रेवदेसु समासदो होइ गिट्ठिो ॥ १७॥ निकालसमजराण उक्स्स देहपरिमाणं । पंचसयदेडमेत्ता जहण सत्तेवरयणीमो ॥ १७७ माळणि पुण्यकोटी उक्कस्सं हेति ताण मणुवाणं । वीसुत्तरसयवासा जहण्णमाङ समुट्ठिा ॥ १७८ पदम्मि काकसमये वित्थयरा सयलचक्कवट्टीयो। बलदेववासुदेवा परिसर ताण जायेति ॥ १७९ भरतपरमदेवावीसा पाठिहरसंजुत्ता। पंचमहाकल्लाणा भइसयचउत्तीससंपण्णा ॥१८. बारहबरचक्कधराउदसरयणाहिवा महासत्ता। खंडभरहणादाणवणिहिमक्खीणवरकोसा ॥101 संबिधुकंदवण्णा गर्वबलदेवा मणंतबलजुत्ता । इकरयणभूसियकरा उत्तमभोगा महातेया ॥ १८२ मरहबरणाहा व व यवासुदेवचक्कहरा । सत्तविहरयणणाहाणीलुप्पळसंणिमसरीरा॥१८३ पीलुप्पासमाया विसंस्मरहादिवा महासचा । गव चैव समुद्दिट्टा परिसत्तू वासुदेवाणं ॥ १८. गाय कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा । दुस्समसुसमे काले उत्पत्ती ताण बोरम्बा ॥ १८५ ॥ १७५॥ मानुषोत्तर पर्यन्त मानुषक्षेत्रके भीतर भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें संक्षेपसे छह प्रकारका काल कहा गया है ॥१७६ ॥ चतुर्थ कालके समयमें मनुष्यों का उत्कृष्ट देहप्रमाण पांच सौ धनुष मात्र और जघन्य सात ही रत्नि होता है ।। १७७ ॥ चतुर्ष कालमें उन मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि और जघन्य आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण कही गयी है ।। १०८ ॥ इस कालके समयमें तीर्षकर, सकलचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके ( वासुदेवोंके ) प्रतिशत्रु उत्पन्न होते हैं ॥ ७९ ॥ इसी कालमें प्रातिहार्योसे संयुक्त, पाच महाकल्याणोंसे सहित और चौतीस अतिशयोसे सम्पन चौबीस अरहन्त परमदेव । तीर्थकर ) होते हैं ॥१८०॥ चौदह रत्नोंके अधिपति, महाबलवान्, छह खण्ड रूप भरतक्षेत्रके स्वामी, नौ निधियोंसे सहित और विनश्वर उत्तम कोष (खजाना) से संयुक्त श्रेष्ठ बारह चक्रधर होने हैं ॥१८१॥ शंख, चन्द्र व कुन्द पुष्पके समान वर्णवाले; अनन्त बलसे युक्त, हायमें हल रत्नको धारण करनेवाले एवं उत्तम मोगोंसे संयुक्त महातेजस्वी नौ बलदेव होते हैं ॥१८२॥ भरत क्षेत्रके आधे (तीन) खण्डोंके अधिपति, सात प्रकारके रस्नोंके स्वामी, नील कमलके समान वर्णवाले शरीरसे सहित और चक्रको धारण करनेवाले (अर्धचक्री) नौ वासुदेव होते हैं ॥१८३ ॥ नील कमलके समान कान्तिवाले, तीन खण्ड रूप भरतक्षेत्रके अधिपति और महाबलवान् नौ वासुदेवोंके नौ ही प्रतिशत्रु कहे गये हैं ॥ १८ ॥ उद, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा कालमें जानना चाहिये ॥ १८५॥ दुषमाकालके आदिमें मनुष्य सात हाथ ऊंचे maamirm........... ............. १श खेदेसु. २ उपक्कवादीया, श चावादीया. ३ ७ श सरिकदु. ५ उशपथ. शताम. ५ . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १९६] विदिओ उदेसो दुस्समकालादीए माणुसया' सत्तहस्थ उस्सेधा । वीसुत्तरसयवासा परमाऊ ताण णिहिट्ठा ॥ १८६ पंचमहालयसाणे भाऊ सयवासे होति परिसंसा । अट्ठा रयणीओ सरीरपरिमाण णिहिट्ठा ॥ १०७ दुस्समदुसमे मणुया मट्ठा हत्थ देहउस्सेधों । परमाऊ वासयया काळादीए समुट्ठिा ॥ १८४ छट्टमकालयसाणे सोलसवासाणि होइ परमाऊ । एया रयणी या उच्छे ही सम्वमणुयाण ॥ १८९ पढमे विदिये दिये काले जे होति माणुसा पवरा । ते भवमिन्चुविहुणा एयंतसहहि संजुत्ता ॥१९. घडये पंचमकाळे मणुया सहदुस्खसंजुदा गेया। छठुमकाले सम्वे गाणाविहदुक्खसंजुत्ता ॥९॥ चरये पंचमका केहगरा दिग्वस्वसंपण्णा । बत्तीसलक्खणधराणीलुप्पलसुरहिणीसासा ॥ १९२ संपुण्णचंदवयणा मत्तमहागयवरिंदमारूढा । धवलाइवत्तचिण्डा सियचामरधुम्बमाणसम्बंगा॥१९३ रंगतवरतुरंगा वियब्धडा गुलगुलंतगजंता । रहवरफुरतेणिवहा बहुजोहणिरुद्धसंचारा ॥ १९४ हारविराइयवच्छा जाणामणिविष्फुरतमणिमउहा। केजरभूसियरा वरकुंडलमंडियागंडा । १९५ बररोगसोगहीणा वियसियसयवत्तगम्भसंकासा । दीसंति दिग्वमणया पुग्वं'. सुकएकिम्मे ॥ १९६ होते हैं । उस समय उनकी उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण कही गयी है ॥ १८६ ॥ पंचम कालके अन्तमें आयु सौ [ वीस ! ] वर्ष और शरीरका प्रमाण सादे तीन रनि कहा गया है ॥ १८७ ॥ दुषमदुषमा कालके आदिमें मनुष्य साढ़े तीन हाय प्रमाण शरीरोत्सेधसे सहित और सौ [ वीस ? वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुवाले कहे गये हैं ॥१८८ ॥ छठे काल के अन्तमें सब मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु सोलह वर्ष और उंचाई एक रनि प्रमाण जानना चाहिये ॥ १८९ ॥ प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालमें जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त मुखोंसे संयुक्त होते हैं ॥ १९०॥ चतुर्थ और पंचम कालमें मनुष्य सुख-दुःखसे संयुक्त तथा छठे कालमें सभी मनुष्य नाना प्रकारके दुःखोंसे संयुक्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १९१ ॥ चतुर्थ व पंचम कालमें कुछ ही दिव्य मनुष्य पूर्वकृत पुण्य कोंके उदयसे दिव्य रूपसे सम्पन्न, बतीत लक्षणों के धारक, नील कमलके समान सुगन्धित निश्वाससे युक्त, सपूर्ण चन्द्रके समान मुखवाले, मदोन्मत्त महागजेन्द्रपर आरूढ, धवल छत्र रूप चिहसे सहित, सफेद चामरोंसे ढोरा जा रहा है समस्त अंग जिनका, उत्तम तुरंगोंके संचारसे सहित, गुल-गुल गर्जना करनेवाले विशाल हाथियोंकी घटासे संयुक्त, उत्तम रयोंके समूहसे स्फुरायमान, बहुतसे योद्धाओंके निरोध युक्त, संचारसे सहित, हारसे शोभायमान वक्षस्थलसे युक्त, नाना मणियोंसे प्रकाशमान मणिमय मुकुटसे विभूषित, केयूरसे भूषित हावाले, उत्तम कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंसे संयुक्त; जरा, रोग एवं शोकसे रहित और विकसित कमलगर्भके सदृश प्रभावाले दिखते हैं ॥ १९२-१९६ ॥ [ उक्त कालोंमें ] १ उ मथसूया, शमशुसया. २[समवीस, ३ उ श अहवा, प व असहा. ४ उ श उब्धिा , पर उठेवा. ५[बीसझ्या.] ६उब उछेहा. ७पब पउरा.८ उश धुधमाण, बट्ठमाण. ९उश करत. १. पुणे. ................................. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवपण्णता बहिरंधकान्वा कोटी दालिद स्वपरिहीणो । राणा मणांहसरणा होणंगविरूवसठाणा ॥.. खुज्जा वामणरुवा जीणाविहवाहिवेवणसरीरा। बहुकौहमाणपंडरा लोहिट्टा मायसंमण्णा ॥१९८ संबंधसयणरहिया घरगुत्तरत्तदारपंरिहीणा । खप्परकरकहत्या देसतरगमणपरिहल्या ॥ देहि सिदणकलुणा मिक्स हिंति लाहपरिहीणा । फुरिदकसणिवहा जूयाकिक्साह सं . साहिडिवलंपरा पुहिगलणाहहादीया । दीसंति जरा बहवा पुण्वक्कयपावकम्मैहि॥३॥ घट्टमकाकस्सी एरावदमरहसणामाणं । मज्झिममनवखंडा खयगामी होति मिट्टिा ॥३.१ दुम्विट्रियणीवट्ठीमारीपरपक्कतक्करेंगणेहि। ईदीहि सममिमूदा जासति हु देसविसंयांणि गणणातीहि पुणो अवप्पिणिहदरकाससमयहि । बहुएहि बहते पासरिधरी समुरिट्ठा ॥ton कप्पेसु मसंसँसु ये परावयमरहणामसु । जिणमवणा पण्णता मण्णभवणी समुट्ठिा ॥ २०५ पंचसु भरहेसु वहा पंचसु एरावसु सु । भवसस्पिणि उस्सप्पिणि भवटिवा मिट्टी ॥२॥ बार किगापासुक्कामवहिदा जहर होति विणायणी।वह काकसहावामवाहिश हीति नियमे ॥ मातसे मनुष्य पूर्वकृत पापकोसे बहरे, अंधे, काने, मूक, कोढ़ी, दरिद्र, सुन्दर रूपसे रहित, दोन, अनाथ, अशरण, हीनांग, विरूप आकृतिवाले, कुबडे, वामन (बौने ) रूपसे युक्त, नाना प्रकारकी न्याषियोंसे पीड़ित शरीरवाले, बहुत व प्रचुर क्रोध-मानसे सहित, लोमी, मायासें परिपूर्ण, सम्बन्धी व स्वज। (कुटुम्बी जनों) से रहित; घर, पुत्र, कलत्र और पन्चेंसि विहान; खापर व करकसे युक्त हावाले, देशान्तर गमनसे संतप्त देहि। इस प्रकार दोन एवं करुणापूर्ण वचन बोल कर भिक्षाके निमित्त इधर-उधर घूमनेवाले, परन्तु मिक्षालामसे रहित, स्फोटंयुक्त अत एव दुर्गन्धमय अंग व केशोंके समूहसे सहित, जूं व लोखोसे व्याप्त, तथा खटीक, डोम, शबर, पुलिंद, चण्डालं व नाहल आदि जातियों में उत्पन्न दिखते हैं ॥ १९७-२०१॥ छठे कोलके अन्तमें ऐरावत व भरत नामक क्षेत्रोंके मध्यम आर्यखण्ड विनाशको प्राप्त होनेवाले निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ २०२॥ दुष्ट (अतिवृष्टि ), अनावृष्टि, मारि, परचक और तस्करसमूह रूप ईतियोंसे अभिभूत होकर देश-विषय नष्ट होते है ॥२०३ ॥ पुनः बहुन असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप काल-समयोंके वीतं जानेपर पाषण्डिधरा (पाखण्डमय पृथिवी) कही गयी है ॥२०४ ॥ असंख्यात कल्पोंमें ऐरावत व भरत नामक क्षेत्रोंमें जिनभवन कहे गये हैं, अन्य देवताओंके भवन नहीं कहे गये हैं ॥२०५॥ पांचं मरत तथा पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल स्थित रहते हैं ॥ २०६॥ जिस प्रकार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष अवस्थित है, तया जिस प्रकार दिन और रात्रि अवस्थित है, उसी प्रकार नियमसे वे कालस्वभाव भवस्थित हैं ॥२०७॥ १शन. २ उश कोटी. इ माण. ४५ व विसंतरगमणपरिहत्या. ५ शरितिक परदेवि वि. ६ पुटियन, पप गिरंग, श फरिदग्ग. ७ पब अरकेस या. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. २१.] विदिओ उसो भवसप्पिणिम्मि का तहेव उपसप्पिणिम्मि कामम्मि । उप्पजंलि महप्पा तेसहिसलागवरपुरिसा n... होऊण भौगम्मी भट्टारसउवडिकोडिकोडीया। भरहक्खंडविभागं मच्छदि कालाणुभावेण'.९ भाजिर्य भजियमहर्ष बपुणम्भवं भय विमलणाम । वरपउमणविणमियं वंदे मजरामर बरुवं . ॥य बबुरीवपण्णत्तिसंगहे भरहेरावयंवसवण्णणो णाम विदिको सो समतो॥१॥ . अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काळमें तिरेसठ शलाकामहापुरुष उत्पन्न होते हैं ॥२०८॥ अठारह कोडाकोडि सागर प्रमाण काल तक भोगभूमि होकर (शेष दो कोडाकोडि सागरोपममें] भरतखड. विभाग कर्मभूमिस्वरूपसे स्थित होता है ॥ २०१॥ जिनका माहात्म्य अजित अर्थात् जीता नहीं गया है और जो पुनर्जन्मसे रहित, अद्भुत निर्मल ज्ञानके धारक, उत्तम पद्मनन्दि मुनिसे वन्दित, तथा अजर व अमर होकर रोगसे रहित हैं; उन अजितनाथ भगवान्को में नमस्कार करता हूं ॥ २१० ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें भरत-ऐरावतक्षेत्रवर्णन नामक द्वितीय उदेश समाप्तामा ॥२॥ Hum... १५ कलाथमावेण [ कामाशमावेण ]. २ इश अदुयं. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तदिमो उहेसो] संभवजिणं णमंपिय सईदसुरसंधुयं अचलेणाणं । संखवेण समग्गं सेलसहावं' पवक्खामि ॥" हिमवंतमहाहिमवं णिमहोणीलो य रुप्पसलो य । सिहरी विय बोधवा वंसधरा हॉति णिदिवा ॥१ हिमवंतसिरिसेका कणयमया विविहरयणसंछण्णा । जोयणसयउग्विद्धाभवगाहा हॉति पणवीसा ।। बावण्णसमधिरेया सहस्स परिमाण होति विस्थिण्णा । बारसकला वि या उणवीसगदेहि छेदेहि ॥ पुम्वावरेण दीहा एवत्तरि चदुसदों य पंचकला । चउरस चेव सहस्सा कणिपासेसु णिहिट्ठा ॥ ५ पश्चिमपुवायामो बत्तीसा णवसया य पण्णत्ता । चउवीस पि सहस्सा उक्कटतमेसु पासेसु ॥ पदस व सहस्सा पंचव सया हवंति भस्वीसा । एयार कला गेया कणिवणुपट्ट सेकाणं ॥ . पणुवीसं च सहस्सा बेसयतीसा य चउकला महिया । उक्कटुणुयपहा सेकणं हॉति णिहिट्ठा ॥ ८ पंचासा विणिसया पंचसहस्सा य मद्धकलसहिया। पण्णरस कला या पस्सभुजा पम्वदाणं तु॥९ बावण्णसया तीसा जोयणसंखापमाणमुहिट्ठा । भट्टमकलसंखा गाण चूली वियाणाहि ॥ .. इन्द्रोंके साथ देवोंके द्वारा संस्तुत तथा अविनश्वर ज्ञानवाले सम्भव जिनको नमस्कार करके संक्षेपसे समस्त पर्वतोंके स्वरूपको कहते हैं ॥१॥ हिमवान् , महाहिमवान्, निषध, नील, रूप्य (रुक्मि ) और शिखरी, ये छह कुलाचल कहे गये हैं ॥२॥ इनमेंसे हिमवान् और शिखरी पर्वत सुवर्णमय, विविध रत्नोंसे व्याप्त, सौ योजन ऊंचे और पच्चीस योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ ३ ॥ ये दोनों पर्वत एक हजार बावन योजन और एक योजनके उन्नीस भागोम से बारह भाग प्रमाण (१०५२१३) विस्तीर्ण हैं ॥ ४ ॥ उक्त दोनों कुलाचल कनिष्ठ पार्श्व भागोंमें अर्थात् भरत एवं ऐरावत क्षेत्रकी ओर चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और पांच कला (१४४७१५) प्रमाण पूर्व-पश्चिम दीर्थ कहे गये हैं ॥५॥ ये दोनों कुलपर्वत उत्कृष्टतम पार्श्वभागोंमें अर्थात् हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रकी और चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन [ व एक कला ] ( २४९३११) प्रमाण पूर्व-पश्चिम आयत कहे गये हैं ॥६॥ इन शैलीका कनिष्ठ धनुषपृष्ठ चौदह हजार पांच सौ अट्ठाईस योजन और ग्यारह कला (१४५२८१६) प्रमाण जानना चाहिये ॥७॥ इन शैलोंका उत्कृष्ट धनुषपृष्ठ पंच्चीस हजार दो सौ तीस योजन चार कला अधिक (२५२३० १ ) कहा गया है ॥८॥ दोनों पर्वतोंकी पार्श्वभुजा पांच हजार तीन सौ पचास योजन और अर्ध कला सहित पन्द्रह कला (५३५०३१) प्रमाण जानना चाहिये ॥९॥ दोनों पर्वतोंकी चूलिका बावन सौ तीस योजन और साढ़े सात कला (५२३०६४) प्रमाण कही गयी हैं ॥ १० ॥ .......................................... १पब गर्मसिय इंदुसुर. २ उश अवलं. ३ उ श सोलसहावं. ४ उपप श सममिरेवा ५उपशचसहा ६७ पबश बहतीसा ७उपबश अफलं. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३.२० ] तदिओ उद्देसो [ ३३ वणयपरियरिया णाणाविहतोरणेहिं कयसोदा । बहुकप्परुक्खाणिवहा सुगंध गंधुदुदो रम्मा ॥ ११ लवली लवंग डरा चंपय मंदारबउळ गंधड्डा । पुण्णागणागणिवद्दा अद्दमुत्तलया उलसिरीयां ॥ १२ कप्पूरणियर रुक्खा असे यफणसंबजं बिरसणाही । तालदुमणालिणिव कयलीहिंतालसंछण्णा ॥ १३ बहुकुसुमरेणुपिंजल अलि उल गिज्जय महुरसद्दाला । पवण्त्रसचलिपपलवपायवणयंत अहिरामा ॥ १४ भूधरपमाणदीहा बेगाउद विस्थढा समुद्दिट्ठा | वरभूइराण होंति हु वणसंडा उहयपासेसु ॥ १५ तद् य महाहिमवंतो अज्जुणवण्णो फुरंतमणिणिवहो । रुप्पियसेलो णमो रुपमभो रयणसंछष्णो ॥ १६ पणाला भवगाहा बे वि जगा बेसदा समुत्तुंगा । वादालसदा विउलाँ दसुत्तरा दसकला अधिया ॥ १७ चउत्तरि छच्च सया सोलसभागा हवंति णिद्दिट्ठा | सत्तत्तीससहस्सा जहण्ण आयाम सेलाणं ॥ १८ इगितीला णव य सदा छच्चैव कला हर्वति णिद्दिट्ठा । तेवणं च सहस्सा उक्कस्सायाम सेलाणं ॥ १९ दस चैव कला या चत्ताला सत्त जोगणसदाणि । भट्ठत्तीससहस्सा जहण्णघणुपट्ट सेलाणं ॥ २० इन उत्तम पर्वतों के उभय पार्श्वभागों में वनवेदिय से वेष्टित, नाना प्रकारके तोरणोंसे शोभायमान, बहुतसे कल्पवृक्षोंके समूहोंसे सहित, सुगंध गंधसे व्याप्त, रमणीय, प्रचुर लवली एवं लवंग वृक्षों सहित चम्पक, मन्दार एवं वकुलकी गंध से व्याप्तः पुन्नाग एवं नाग वृक्षोंके समूह से सहित, अतिमुक्त लताओं से व्याप्त शोभासे सम्पन्न, कर्पूर वृक्षों के समूह से संयुक्त; अशोक, पनस, आम्र एवं जंबीर वृक्षों से सनाथ; ताल द्रुम व नाली ( एक लता ) के समूहों से सहित, कदली व हिंताल वृक्षोंसे आच्छन्न, बहुतसे पुष्पोंकी धूलिसे पीतवर्ण हुए भ्रमरों के समूइसे किये जानेवाले मधुर गान (गुंजार ) से शब्दायमान, वायुसे प्रेरित होकर चंचलताको प्राप्त हुए पत्तावाले वृक्षों के मधुर नाचसे अभिराम, तथा पर्वतके बराबर लम्बे और दो कोश विस्तृत ऐसे वनखण्ड कहे गये हैं ॥११- १५|| महाहिमवान् पर्वत प्रकाशमान मणियों के समूइसे युक्त, श्वेतवर्ण तथा रत्नोंसे व्याप्त रुक्मि पर्वत रजतमय जानना चाहिये ॥ १६ ॥ दोनों ही पर्वत पचास योजन अवगाइसे युक्त, दो सौ योजन ऊंचे और दश कला अधिक ब्यालीस सौ दश योजन ( ४२१०१ ) प्रमाण विस्तृत हैं ॥ १७ ॥ इन शैलोकी जघन्य लम्बाई सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और सोलह भाग ( ३७६७४६६ ) प्रमाण कही गई है || १८ | उक्त शैलोंकी उत्कृष्ट लम्बाई तिरेपन हजार नौ सौ इकतीस योजन और छह कला ( ५३९३१६ ) प्रमाण कही गई है ॥ १९॥ उक्त शैलेंाका जघन्य धनुत्रपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और दश कला (१८७४०६९) प्रमाण जानना चाहिये ॥ २० ॥ उक्त शैलोका उत्कृष्ट धनुषपृष्ठ सता १ उ सुगंधुगंधुधुद्दा, व सुगंधागंधुद्धदा. २ उश लयाउलसिरिया. ३ प जंविरणाहा, ब जांवरणार. ४ ब सालदुमा सालिणिवह ५ ब गिज्जंति, ६ उ श णेये ऊ रुप्पमओ ७ प ब विलुला. ८ उश अविया. जं. दी. ५. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.] जंबूदीवपण्णत्ती [१.२१देचे सदा या तेणउदा दसकला समुहिट्ठा । सत्तावण्णसहस्पा धणुपद्रुक्कस्स सेकाण ॥ २॥ छाहत्तरि बिण्णिसदा णव य सहस्साणि जोयणा गेया।णव य कला अदकला पासभुजा होंति सेलाणं ॥ २२ भठ्ठावीसं च सदै जट्ठसहस्साणि जोयणुदिट्ठा । अद्र य पंचमभागा णगाण चूली वियाणाहि ॥ २१ तवणिज्जमभो' णिसहो वेरुलियमो दुणीलवण्णो दुबे विणगा विण्णेया जाणामणिरयगचिंचइदा ॥ २५ चत्तारिसया तुंगा सदभवगाढा' फुरंतमणिकिरणा। सोलससहस्स भरसय बादाला ये कला हेदा ॥ २५ पूगुत्तरणक्यसया तेहत्तरि तह सहस्स सेलाणं | सत्तरस कला गया जहण्णजीया समुट्ठिा ॥ २६ चउणडदिं च सहस्सा सदं च छप्पण्ण बे का अधिया। पुवावरेण णेया आयामा ति उक्कस्सा ॥ २० यत्तारि कला अधिया सोलस चुलसीदिजोयणसहस्सा |णीलणिसहाण या जहण्णधणपट्ट णिट्टिा ॥ २८ छादाला तिण्णिसदा चउवीससहस्सणीलणिसहाणं । एर्ग च सदसहस्सं णव भागा जेट्टधणुपट्टे ॥ २९ पण्णट्टि सदा णेया वीससहस्सा य णालणिसहाणं । पस्सभुजा णायब्वा भड्ढादिज्जा कळा भहिया ॥३० सत्तावीसं च सदी दस य सहस्साणि बे कला अधिया । णीलणिसहाण गेया चूलियसंखा समुट्टिा ॥३१ घन हजार दो सौ तेरानबै योजन और दश कला ( ५७२९३१) प्रमाण कहा गया है॥२१॥ उक्त शैलोंकी पार्श्वभुजा नौ हजार दो सौ छयत्तर योजन और साढ़े नौ कला (९२७६३१) प्रमाण जानना चाहिये ॥ २२ ॥ उक्त पर्वतोंकी चूलिका साढ़े चार भागोंसे अधिक आठ हजार एक सौ अट्ठाईस योजन (८१२८१४) जानना चाहिये ॥२३॥ निषध पर्वत सुवर्णमय और नील पर्वत वैडूर्यमणिमय नीलवर्ण है। नाना मणियों व रत्नोंसे मण्डित ये दोनों ही पर्वत चार सौ योजन ऊंचे, सौ योजन अवगाहसे युक्त, प्रकाशमान मणिकिरणोंसे सहित, और सोलह हजार आठ सौ ब्यालीस योजन व दो कला ( १६८४२३२२ ) प्रमाण विस्तारवाले हैं ॥ २४-२५॥ इन शैलेोकी जघन्य जीषा तिहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और सत्तरह कला ( ७३९०११३) प्रमाण कही गई जानना चाहिये ॥ २६ ॥ उक्त पर्वतोंकी उत्कृष्ट लम्बाई ( जीवा ) पूर्व-पश्चिम चौरानबै हजार एक सौ छप्पन योजन और दो कला ( ९४१५६३२) अधिक जानना चाहिये ॥ २७ ॥ नील व निषघ पर्वतोंकी जघन्य घनुषपृष्ठ चौरासी हजार सोलह योजन और चार कला अधिक ( ८४०१६१ ) जानना चाहिये ॥ २८ ॥ नील और निषधका उत्कृष्ट धनुषपृष्ठ एक लाख चौबीस हजार तीन सौ छयालीस योजन और नौ भाग (१२१३४६११) प्रमाण है ॥ २९ ॥ नील व निषध पर्वतोंकी पार्श्वभुजा बीस हजार एक सौ पैंसठ योजन और अढ़ाई कला अधिक (२०१६५ ) जानना चाहिये ॥ ३० ॥ नील निषध पर्वतोंकी चूलिकाका प्रमाण दश हजार एक सौ सत्ताईस योजन और दो कला अधिक (१०१२७१२६ ) कहा गया है ॥ ३१ ॥ ये सब ही लम्बे पर्वत वेदियोंसे सहित, मणिमय १.उश तबमज्जमओ. २ प ब सदेवअवगाटा. ३ उश सदा. ४७ प व श केवला. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३...] तदिओ उद्देसो सम्वे वि वेदिसहिदा मणिमयजिणचेहएहि संपण्णा । उववणकाणणसहिया दीगिरिंदा मुणेयन्वा ॥ ३२ घरदहसिदादवत्ता सरिचामरविज्जमाणे बहुमाणा । कप्पतरुचारुचिण्हा वसुमइसिंहासणारूढा ॥ ३३ घेदिकडिसुत्तणिवहा मणिकूडफुरतैदिन्यवरमउदा । णिज्झरपलं बहारा तरकुंडलमंडियागंडा॥३४ सुरघरैकंठाभरणा वणसंडविचित्तवत्थकयसोहा । गोउरतिरीडमाला पायारसुगंधदामट्ठा ।। ३५ तोरणकंकणहत्था वज्जपणालीफुरतकेऊरा । जिणभवणतिलयभूदा भूहरराया विरायति ||३६ अंजणदाहिमुहरहयरमंदरवरकुंडलाण सेलाणं । ति सहस्सवगाढा' सोदयचउभाग सेसाणं ।। ३७. वजमया अवगाहाँ गिरीण सिहरा हवंति रयणमया । दहसरिकुंडाण तहा भूमितहा वजपरिणामा ॥ ३४ एयारसट्ठणवणवअट्टेयारस हवंति कूडाणि । हिमवंतादो गेया जाव दु वरसिहरिपरियंता ॥ ३९ सिद्धहिमवंतभरहा इलो गंगा इवंति कूडाण । सिरिरोहिदसिंधुसुग हेमवदा वेसमणणामा ॥ ४० जिनचैत्योंसे सम्पन्न बार वन उपचनास सहित हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३२ ॥ उत्तम द्रहरूपी धवल आतपत्रसे सहित, नदीरूपी चामरोंसे वीज्यमान, बहुत प्रमाणसे सहित, कल्पवृक्षरूपी उत्तम चिोसे युक्त, पृथिवीरूपी सिंहासनपर आरूढ, वेदीरूप कटिसूत्रसमूहसे संयुक्त, मणिमय कूट रूप प्रकाशमान उत्तम दिव्य मुकुटसे मुशोभित, निररूपी लम्बे हारसे अलंकृत, वृक्षरूपी कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंवाले, सुरगृहरूपी कण्ठाभरणसे विभूषित, वनखण्डरूपी विचित्र वस्त्रोंसे शोभायमान, गोपुररूपी किरीटमालासे रमणीय, प्राकाररूपी सुगन्धित मालासे वेष्टित, तोरणरूप कंकणसे विभूषित हाथोंवाले, वज्रमय नाली रूप प्रकाशमान केयूरसे सहित, और तिलक स्वरूप जिनभवनोंसे संयुक्त ऐसे कुलाचल रूपी राजा विराजमान हैं ॥ ३३-३६ ॥ अंजनगिरि, दघिमुख, रतिकर पर्वत, मन्दर (मेरु ) और उत्तम कुण्डल नग, इन शैौंका अवगाह हजार योजन प्रमाण तथा शेष पर्वतोंका वह अपनी उंचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण होता है ॥ ३७ ॥ पर्वतोंके अवगाह (नीव) वनमय और शिखर रत्नमय होते हैं। द्रइ, नदी तथा कुण्डोंके भूमितल वन स्वरूप होते हैं ॥ ३८ ॥ हिमवान्से लेकर शिखरी पर्वत पर्यन्त उक्त पर्वतोंके क्रमसे ग्यारह, आठ, नौ, नौ, आठ और ग्यारह कूट हैं ॥ ३९ ॥ सिद्धक्ट, हिमवान्कूट, मरतकूट, इलाकुट, गंगाकूट, श्रीक्ट, रोहित (रोहितास्या) क्ट, सिन्धुकट, सुराकुट, हैमवतकट, और वैश्रवणकूट, ये ग्यारह कूट हिमवान् पर्वतपर स्थित हैं |॥४०॥ सिद्धकूट, [महा] हिमवान्कूर, १५ वरदहसियादिवण्णा. २ उश विजमाण. ३ उश किरत, पब फुरति. ४ उ सुरम्बर, शरघर. ५ उश करत. उपवश सहस्सुवगाटा. ७ प व अवणेहा. ८ उपबश परियत्ता.९ पबईला. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबूदीवपण्णत्ती [३.४१ सिद्धहिमवतणामा हेमन्वदरोहिदा य हिरिकूडा । हरिसोहणहरिवंसा वेरुलिय वंति कूडाणं ॥४॥ तह सिद्धणिसधैहरिदो धिदि विदेहहरिविजय तह य सीदोदा । भवरविदेहा रुजगो कूडाणं होति णामाणि ॥४२ सिद्धवरणीलकूडा पुग्वविदेदा सिदा य कित्तीया। णारी अवरविदेहा रम्मग अवदसणामाणि ॥ ४३ वरसिद्धरुप्परम्मगणरकताबुद्धिरुप्पकूला य । हेरण्णवदा कंचग जामाणिहवंति कूडाणं ॥१४ तह सिद्धसिहरिणामा दिरपणरसदेविरतलच्छीया । कणय तह रत्तवदिया गंधारों रयदमणिहेमा ॥ ४५ वसहरमाणुसुत्तरकुंडलरुजगादिवाण सेलाणं । जावदिया अवगाहा तावदिया कूड उच्छेहा ॥ ४६ पणुवीसा पण्णासा सय सय पण्णास तह य पणुवीसा । दिमवंतणगादीण कृठाण होति उन्छेहा ।। ४७ सोदयदलविस्थिण्णा आयामा होति सवकूडाणं । मुलेसु समुद्दिट्टा जाणामगिरथणपरिणामा || १८ मद्धत्तेरसजीयणं पणुवीसा तह य होंति पण्णासा। पण्णाला पणुवीसा बारस वे चेव कोसहिया ॥ ४९ हैमवतकूट, रोहित्कूट, ह्रीकूट, हरिशोभन (हरिकान्ता ) कूट, इरिवर्षकूट और वैडूर्यक्ट , ये माठ कूट महाहिमवान् पर्वतपर स्थित ह ॥ ४१ ॥ तथा सिद्ध कूट, निषधकूट, हरितकूट, धृतिकूट, [व] विदेहकूट, हरिविजयकूट, सीतोदाकूट, अपरविदेहकूट और रुचककूट, इस प्रकार ये निषघ पर्वतपर स्थित नौ कूटोंके नाम हैं ॥ ४२ ॥ उत्तम सिद्धकूट, नीलकूट, पूर्वावदेहेकूट, सीताकुट, कीर्तिकूट, नारीकूट, अपरविदेहकूट, रम्यककूटं और अवतंस (अपदर्शन, उपदर्शन ) कूट, ये नौ कूट नील पर्वतपर स्थित हैं ॥ ४३ ॥ उत्तम सिद्धकूट, रुप्य (रुक्मि) कूट, रम्यककूट, नरकान्ताकूट, बुद्धिकूट, रुप्यकूलाकूट, हैरण्यवतकूट और कंचनकूट, ये रुक्मि पर्वतपर स्थित आठ कूटों के नाम हैं ॥ ४ ॥ तथा सिद्धकूट, शिखरीकूट, हैरण्यवतकूट, रसदेवीकूट, रक्ताकूट, लक्ष्मीकूट, सुवर्ण[ कूला ] कूट, रक्तवतीकूट और गान्धार (गन्धवती ) कूट, रजत (ऐरावत ) कूट और मणिकांचनकूट, ये ग्यारह कूट शिखरी पर्वतपर स्थित हैं ॥ १५ ॥ मानुषोत्तर, कुण्डलगिरि, और रुचकगिरि, इन वर्षधर शैलें|का जितना अवगाह है उतना उनके कूटोंका उत्सेध है ॥ १६ ॥ हिमवान् पर्वतादिकोंके कूटोंका उत्सेध क्रमसे पच्चीस, पचास, सौ, सौ, पचास तथा पचीस योजन प्रमाण है ॥४७॥ नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप ये सब कूट मूल भागोंमें अपनी उंचाईके अर्थ भाग प्रमाण विस्तीर्ण व इतने ही आयत कहे गये हैं ॥ ४८ ॥ उन कूटों के उपर्युक्त विस्तार व आयामका प्रमाण कमसे साढ़े बारह योजन, पच्चीस योजन, पचास योजन, पचास योजन, पच्चीस योजन और दो कोश अधिक बारह योजन है ॥४९॥ maatanaanem... उपब हरि. २ उश णिसिध. ३ उश हारिद, पब हारिदा. ४ उपबश खिदि. ५उश कित्तिय.६श णामाण. ७ उश रण. ८ उपब शरतविदिया. ९ ब गंधारी. १.उश जोयथ. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३.६० ] तदिओ उद्देस वित्थिण्णायामेण य पण्णरसा जोयणा य वरभवणा । अड्डादिज्जा कोसा कूकाणं होंति सिहरेसु ॥ ५० सक्कोसा इगितीसा उग्विद्धा विविहरयणपरिणामा | जोयणचउत्थभागा अवगाढा ताग विदिट्ठा ।। ५१ अट्ठेत्र जोयणाई तोरणद्वारा हवंति उत्तुंगा । चडजे यणत्रित्थिण्णा अणाइणिद्दणा वियाणाहि ।। ५२ णाणामणिगणनिविडा कणयमया त्रिप्फुरंतमणिकिरणा । सत्तत्तका पासाया सुगंधगंधुद्धदो रम्मा ॥ ५३ कालागरुगंधड्ढा संगीदमुदिंगसद्दगंभीरा । लंबं तरयणमाला बहुकुसुमकयच्चणपणाही || ५४ पजलं तर यणदीवा णाणाविद्यवथैवि उलकय सोहा । वरवज्जणीलमरगयकक्केयणपुस्सैरागमया ॥ ५५ पयारवळ हिगोउरडववणसंडेद्दि मंडिया दिव्त्रा । दीहा समचउरंसा अणेगसंठाणपरिणामा ॥ ५६ अरविंदोरवण्णा णीलुप्पल कुमुद गन्भसंकासा | चंपयमंदारणिभा गोरायणसच्छद्दा के त्रि || ५७ वरचित्तकम्मपरा सदस्सखंभेहि सोहिया रम्मा । पवरच्छराहि भरिया मच्छेरयेरूवसाराहि ॥ ५८ कुंदेंदुखत्रण्णा गोखीरतुसारहारसंकासा | मरगयपवालवण्णा वियसियसयवत्तसंकाला || ५९ सत्तट्टमभूमीया णवदसभूमी अणेगभूमीया । जिणसिद्धभवणणिवद्दा मणिकं चणरयणपरिणामा ॥ ६० कूटोंके शिखरोंपर पन्द्रह योजन और अढ़ाई कोश विस्तार व आयामसे युक्त उत्तम भवन हैं || ५० ॥ विविध रत्नों के परिणाम रूप उन भवनों की उंचाई एक कोश सहित इकतीस योजन और अत्रगाह योजनके चतुर्थ भाग प्रमाण कहा गया है ।। ५१ । उन भवनों में आठ योजन ऊंचे और चार योजन विस्तीर्ण अनादिनिधन तोरणद्वार जानना चाहिये ॥ ५२ ॥ उक्त प्रासाद नाना मणिगणोंसे व्याप्त, सुवर्णसे निर्मित, प्रकाशमान मणिकिरणों से सहित सात तलवाले, सुगन्ध गन्धसे व्याप्त, रमणीय, कलागरुके गन्धसे युक्त, संगीत व मृदंगके शब्दसे गम्भीर, लम्बायमान रत्नमालाओं से संयुक, बहुत कुसुमें द्वारा की गई पूजा से सनाथ, प्रकाशमान रत्नदीपक से सहित, नाना प्रकारके वस्त्रोंसे की गई महती शोभासे सहित; उत्तम वज्र, नील मणि, मरकत, कर्केतन और पुखराज मणियाँस निर्मित; प्राकार, वलभी ( छज्जा ), गोपुर एवं उपवन समूहोंसे मण्डित दिव्य, दीर्घ, समचतुष्कोण, अनेक आकारोंमें परिणत, कोई कमलके उदर जैसे वर्णवाले, कोई नीलोत्पल व कुमुदके गर्म सदृश, कोई चम्पकव मन्दार पुष्प के सदृश, कोई गोरोचनके समान कान्तिवाले, उत्तम प्रचुर चित्रक्रियासे संयुक्त, हजार खमोंसे शोभित, रम्य, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपवाळी उत्तम अप्सराओंसे परिपूर्ण; कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख के समान वर्णवाले; गोक्षीर, तुषार एवं हारके सदृश, मरकत व प्रवाल जैसे वर्णवाले, विकसित कमलके सदृश, सात-आठ भूमियोंवाले, नौ-दश भूमियोंवाले व अनेक भूमियोंवाले, जिनभवनों व सिद्धमवनों के समूह से सहित मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंके परिणाम रूप पुन्नाग व तिलकके सदृश वर्णवाले, १ व गंधुद्धदा. २ उ ब वछ, श वच्छ, ३ उश पुंस. ४ श पवस्त्थराहि. ५. श अत्रय. ३७ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबूदीवपण्णत्ती पुण्णागतिलसवण्णा पारावपमोरकंठसंकासा । 'कंदलकल्हारणिभा केदहकणवीरसंकासा ॥ . मंदारतारकिरणा सत्तच्छदसालकुसुमसंकासा । किंसुर्यमुणालवण्णा दुखकुरसिरिसकुसुमसंकासो॥६२ पारसमसागवण्णा णववियसियरत्तकुसुमसंकासा । इंदीवरदलवण्णा विभिण्णसियकुसुमसंकासा ॥ १३ पायारसंपरिउहावरगोउरमडिया परमरम्मा। धवंतघयवडाया मणितोरणसंकल्ला विउला॥ वरभूहरसंकासा णाणाविहचारुभवणसंकण्णा । दिध्वमणोवमरूवा असंखसुरसुंकुला रम्मा ॥ ६५ पोक्खरणिवाविपउरा सरिसरवरदीहियाहि परिपरिया। उववणकाणणसहिया भलिउलकुलजणियेक्षकारा ॥१६ गिरिवरकूडेसु वहा गिरिवरसिहरसु गिरिवरणोसु । होति सुराणं पुरवर जिणभवणविहूसिया रम्मा ॥ ६. विर्खभायामेहि य उन्छेहेहि य हवंति जावदिया | वेदडणमम्मि तदा तावदिया मंबुजेसु गिहा ॥ ६८ पउमो य महापउमो विगिंछवरकेसरी य पुंडरिमो । तह य महापुंडरिमो महादहा होवि भचलेसु ॥ ६९ दहकुंरणगणदीण य वणदीवपुराण कूडसेढीणं । तरवेदी णिहिट्ठा मणितोरणमंडिया दिवा ॥ ७. सेलाणं उम्छेहो दसगुणिद दहाण होइ मायामा । दसमजिदे भवगाई पंचगुणं हवा विक्खमं ॥७॥ ................................... कबूतर व मयूरके कण्ठके सदृश, कंदल व कल्हारके समान वर्णवाले, केतकी व कनैरके सदृश, मन्दारके समान निर्मळ किरणोंवाले, सप्त छद व शाल वृक्षोंके कुसुमेकि समान, किंशुक व मृणाल जैसे वर्णवाले, दूर्वाङ्कुर व शिरीष कुसुमके सदृश, पाटळ व अशोक समान वर्णवाले, नवीन विकसित रक्त कुसुमोंके सदृश, कमलपत्रके तुल्य वर्णवाले, विकसित सित कुसुमेकि सदृश, प्राकारसे वेष्टित, उत्तम गोपुरासे मण्डित, अतिशय रमणीय, फहराती हुई वजा-पताकाओंसे सहित, मणितोरणोंसे व्याप्त, विस्तृत, उत्तम भूघरके सदृश, नाना प्रकारके सुन्दर भवनोंसे युक्त, दिव्य व अनुपम रूपवाले, असंख्य देवोंसे व्याप्त, रम्य, प्रचुर पुष्करिणी व वापियोंसे सहित, नदी, सरोवर एवं दीर्घिकाओंसे परिपूर्णः वन-उपवनोंसे सहित, और म्रमरसमूहके मंकारसे युक्त हैं ॥ ५३-६६ ॥ पर्वतोंके कूटोंपर, पर्वतशिखरोंपर तथा पर्वतन गोंपर भी इसी प्रकार जिनमवनेंस विभूषित एवं रमणीय देवोंके उत्तम भवन होते हैं ॥ ६ ॥ जितना विष्कम्भ, आयाम और उत्सेध वैताड्ढय पर्वतपर स्थित गृशंका है उतना ही वह कमलोंपर स्थित गृहोंका भी है ॥ ६८ ॥ पद्म, महापम, तिमिछ, केसरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक, ये महा द्रह उक्त कुलाचलोंपर स्थित हैं ॥ ६९ ॥ द्रइ, कुण्ड, पर्वत, नदी, वन, दीप, पुर, कूट और विद्याधरश्रेणियों के मणितोरणोंसे मण्डित दिव्य तटवेदियो कही गई हैं॥ ७० ॥ पर्वतोंके उत्सेधको दशसे गुणित करनेपर द्रोंका आयाम, उसमें दशका माग देनेपर उनका अवगाह, और पांचसे गुणित करनेपर उनका विस्तार होता है ॥१॥ १बती ६१ तमगाषाया उपराई १रतमगाथायाम पूार्ड नोपलम्यते. २१ सय ३१t दुष्यंकरसिरसकसुमामा. ४३श गवाधियसिय. ५ उ श जाणिय. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. ७९ ] तदिओ उद्देसो [ ३९ उच्छे पंचगुणं विक्खंभं हवइ दुगुण आयामं । पण्णासेण विभतं विक्लभं हवइ अवगाहं ॥ ७२ आयामो दु सहस् विक्खर्भ पंचजोयणसदाणि । हिमगिरि सिहरिदहाणं दुगुणा दुगुणा परं तत्तो ॥ ७३ मझे दहस्स पउमा बे कोसा उट्टिदा जळतादो! चत्तारि य वित्थिष्णा मज्झे मंते य दो कोसा ॥ ७४ वेरुलियविमळणाÖ एयारसहस्सपत्तवरणिचिदं । सिरिणिकयं णत्रत्रियसिय दहमज्यो होइ बोदग्वा ॥ ७५ तस्स वरपरमकलिया वेरुलियकवाड तोरणदुवारं । कूढागार महारिहवाघारियकुलवरदामं ॥ ७६ कोर्स आयामेण य कोसद्धं होदि चैव विरिथण्णं । देसूणएक्ककोसं उच्छेदो तस्स भवणस्स ॥ ७७ सिरिद्दिरिधिदिकित्ति तहा बुद्धी लच्छी य देवकण्णाओ । एदेसु दद्देसु सदा वसंत फुल्लेसु पउमेसु ॥ ७८ दक्खिणदह पमाणं सोहम्मिंदस्स होति देवीभो । उत्तरदहवासिणीभ ईसानिँदस्स बोहब्वा ॥ ७९ = १००० यो. उसके उक्त द्रहका अवगाह | गुणित करनेपर दहका विस्तारप्रमाणको पचास से [ उदाहरण- हिमबान्का = [ उदाहरण- हिमवान् पर्वतका उत्सेध यो. १००; १००× १० ऊपर स्थित पद्मद्रहका आयाम | १०० ÷ १० = १० यो. १००×५ = ५०० यो उसका विस्तार ।] उत्सेधको पांचसे विस्तार और उससे दूना उनका आयाम होता है । विभक्त करनेपर उनके अवगाहका प्रमाण होता है ॥ ७२ ॥ उत्सेध यो. १००; १०० x ५ = ५०० यो पदूमद्रहका विस्तार । ५०० x २ = १००० यो. उसका आयाम । विस्तार यो. ५००; ५०० : ५० १० यो. उसका अवगाह । ] हिमवान् और शिखरी पर्वतोंपर स्थित दहोंका आयाम एक हजार योजन और विष्कम्म पांच सौ योजन प्रमाण है । इसके आगे महाहिमवान् और रुक्मि [ आदि ] पर्वतों पर स्थित द्रहोंका आयाम व विष्कम्भ उत्तरोत्तर दूना दूना है ॥ ७३ ॥ द्रइके मध्य में जलसे दो कोश ऊंचा तथा मध्यमें दो कोश व अन्तमें दो ( १ + १ ) कोश, इस प्रकार से चार कोश विस्तीर्ण कमल है ॥ ७४ ॥ उक्त कमळ वैडूर्यमणिमय निर्मल नाल और ग्यारह हजार उत्तम पत्र से युक्त है द्रइके मध्य में नवविकसित [ कमलके ऊपर ] ॥७५॥ उत्तम कमलकलिकाके ऊपर स्थित उक्त भवनका द्वार वैडूर्यमणिमय युक्त तथा कूटागार (शिखराकार गृह) व बहुमूल्य लम्बी उत्तम पुष्पमालाओं से सहित है ॥ ७६ ॥ वह भवन एक कोश आयामत्राला, अर्ध कोश विस्तीर्ण और देशोन ( पादोन ) एक कोश (३) ऊंचा है ॥ ७७ ॥ द्र में फूले हुए इन कमलोंपर सदा श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी, ये देवकन्यायें निवास करती हैं ॥ ७८ ॥ दक्षिण दोंके पदूमेंॉपर स्थित देवियां सौधर्म इन्दकी, और उत्तर द्रहोंमें निवास करनेवाली देवियां ईशान इन्द्रकी जानना चाहिये ॥ ७९ ॥ पद्मपर उत्पन्न ये देवियां नीलोत्पलके समान । श्री देवीका गृह है कपाों व तोरणोंसे निश्वासवाली, अभिनव ४ प बोस्या गाधायाः १ उप व मह, रा मुह. १ उश देधूण ३ उ रा कुठेसु. पूर्वोत्तरार्द्ध योर्व्यत्ययो दृश्यते । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..] जंबूदीवपण्णत्ती [३. ८०णीलुप्पलणीसासा अक्षिणवलावण्णरूवसंपण्णा । दसणसुहवसुहार णिम्मलवरकणयसंकासा ॥ ८० सुकुमारपाणिपादा भाहरणविहूसिया मणभिरामा । कोइलमहुरालावा कलगुणविण्णाणसंपण्णा ॥ ८॥ इंसबहुगमणदछ। पीणोरुपमहरा धवलणेत्ता । संपुण्णचंदवयणा णववियसियकमलगंधड्ढा ॥ ८२ सकुमारवरसरीरा भिण्णंजणणिदणीलवरकेसा । वियरणियंबमणोहरथणभरभजंतवरमहा ॥ ८३ पलिदोवमाउठिदिया विज्जाहरसुरणराण मणखोहा । पउमेसु समुप्पण्णा महिलाधम्मेण उप्पण्णा ॥ ८४ सिरियादीदेवीण परिवारगणाणे पउमवरभवणा | लक्खं चत्तसहस्सा सच पण्णरस परिसंखा ॥ ८५ सम्वाण देवीणं तिण्णेव हवंति ताण सुरपरिसा । सत्ताणीया य तहा देवा बररूवसंपण्णा ॥ ८६ भन्भतरपरिसाणं भाइचो सुरवरो हवे पमुहो। बहुविहदेवसमग्गो भोलग्गइ सददकालं सो ॥ ८७ संणपदकदमो उप्पीलियसारपट्टिया मज्झे । धणुफलहससिहस्थो सूरसमत्यो मदिपगम्भों ।। ८८ पजतमहामउमओ वरहारविहूसिमो विउलवच्छो । कडिसुतकडयकोंडलवस्थादिमलंकियसरीरो ॥ ८९ ....... लावण्यमय रूपसे सम्पन्न, देखनेमें सुभग व सुखकर, निर्मल एवं उराम सुवर्णके सहश प्रभावाली, सुकुमार हाथ-पैरोवाली आमरणोंसे विभूषित, मनको अभिराम, कोयळके समान मधुरभाषिणी; कलाओं, गुणों एवं विज्ञानसे सम्पन्न, हंसवधू (हंसी) के समान गमनमें दक्ष, स्थूल जंघा व पयोधरीसे सहित, धवल नेत्रोंवाली, सम्पूर्ण चन्द्रके समान मुखसे सहित, नव विकसित कमलके गन्धसे . व्याप्त, सुकुमार उत्तम शरीरवाली, मिन्न अंजनके समान स्निग्ध उत्तम नोले केशविाली, विशाल नितम्ब एवं मनोहर स्तनोंके भारसे भंग होनेवाले मध्य भागसे संयुक्त, एक पल्योपम प्रमाण आयुस्थितिसे संयुक्त, विद्याघर, देव एवं मनुष्यों के मनकी क्षोमित करनेवाली, और महिलासे युक्त होती हैं ॥ ८०-८४ ॥ श्री आदि देवियों के परिवारगणोंके कमलोंपर स्थित उत्तम भवन एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह (१४०११५) हैं ॥ ८५॥ सब देवियोंके तीन सुरपरिषत् तथा उत्तम रूपसे सम्पन्न सात अनीक देव होते हैं ॥ ८६ ॥ अभ्यन्तर पारिषदोंका प्रमुख आदित्य नामक उत्तम देव होता है। वह बहुत प्रकारके देवोंसे युक्त होकर सतत काल [श्री देवीकी ] सेवा करता है ।। ८७ ।। वह आदित्य देव युद्धके लिये तत्पर होकर कवचको बांधे हुए, मध्यमें कसकर श्रेष्ठ पट्टिकाको बांधनेवाला, हायमें धनुष, पटा ( या धनुषफलक ) एवं शक्तिको लिये हुए, शूमेिं समर्थ, मतिप्रगल्भ (बुद्धिमान् ) प्रकाशमान महा मुकुटसे सहित, उत्तम हारसे विभूषित, विशाल वक्षस्थल से संयुक्त; तथा कटिसूत्र, कटक, कुण्डल, एवं वखादिसे अंलकृत शरीरसे युक्त १.पब दसणसुहवसुहगरा. २७ प व श दछा. ३ उश उप्पणा. ४ प व गणणा. ५ उश संपुण्णा. ६पय उलग्गह सदकालं, ७ब मदियगशो, श मदियगम्भो. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.९९ ] तदिओ उद्देसो [ ५१ करवाल कांत कप्परे णाणाविहपहरणेहिं हस्थेहिं । तियसेद्दि समाजुतो माणं सिरसा पडिछेह ॥ ९० बत्तीससहस्वार्ण देवाणं सामिमो महासत्तो | अच्छरबहुपरिवारो भिच्चो सो पडमदेवीए ॥ ९१ दक्खिणपुब्वदिसाए तत्र तु भवणाणि होति दद्दमज्झे । बत्तीस सहरसाई व पढमिणिमज्झम्मि नेयाणि ॥९१ मज्झिमपरिसाण पहू चंदो णामेण णिग्गयपयाओ । चालीससहस्साणं देवाणं होइ सो राया ॥ ९३ वरमडडकुंडलधरो उत्तम मणिरमणपवरपालंबो । कडिसुतक्रणय कंठावरहारविहूसियसरीरो ॥ ९४ असिपरसुकणयमुग्गरभुसुंठिमुसकादिमाउहकरेद्दि । देवेद्दि समाजुत्तों ओोहग्गह साणुराण || ९५ दक्खिणदिसाविभागे' भवणाणि हवंति तस्स जलमज्झे । चालीससहस्त्राणि य दरवियसियकमलगभेसु ॥९६ बाहिरपरिसाहिवई गर्ने सि णामेण जिग्गयपयावो । भडदालीससुराणं सहस्सगुणिदाण सो सामी ॥ ९७ पजलंतवर विरीडो णाणामणिविप्रं तमणिम उडो । भालुलियधवलणिम्मलचलंत मणिकुंडलाभरणो ॥ ९८ कोदंडदंडसम्वभिडीवालादियांहि हत्याहि । असुरेहिं समाजुत्ता' भच्छ है भाणं परिच्छंती ॥ ९९ होकर हाथोंमें तलवार कुन्त, खप्पर एवं अन्य नाना प्रकारके आयुवोंसे युक्त हाथोंबाळे देवों (अंगरक्षकों) से युक्त होकर आज्ञाको सिरसे ग्रहण करता है ।। ८८-९० ॥ बत्तीस हजार देवोंका स्वामी, महाबलवान् और अप्सराओंके बहुत परिवारसे सहित वह पद्मवासिनी श्री देवीका भृत्य ( सेवक ) है ॥ ९१ ॥ द्रहके भीतर दक्षिण-पूर्व दिशा (आग्नेय) में पद्मिनियोंके मध्य में उसके बत्तीस हजार भवन जानना चाहिये ॥ ९२ ॥ मध्यम पारिषदों का प्रभु प्रतापी चन्द्र नामक देव है जो चालीस हजार देवोंका स्वामी होता है ॥ ९३ ॥ उत्तम मुकुट व कुण्डलोंका धारक, उत्कृष्ट मणि एवं रत्नोंके श्रेष्ठ प्रालंब ( गळेका भूषणविशेष ) से सहित; कटिसूत्र, कटक, कंठा और उत्तम हारसे विभूषित शरीरवाला वह चन्द्र देव असि, परशु, बाण, मुद्गर, भुशुण्डि एवं मूसल आदि आयुधोंसे युक्त हाथोंवाले देवोंसे युक्त होकर अनुरागपूर्वक श्री देवी की सेवा करता है ॥ ९४-९५ ॥ उसके दक्षिणदिशा भागमें जलके मध्यमें किंचित् विकसित कमलों के मध्यमै चालीस हजार भवन हैं ।। ९६ ।। बाह्य परिषदोंका अधिपति जो प्रतापी जतु नामक देव है वह अड़तालीस हजार देवोंका स्वामी होता है ॥ ९७ ॥ प्रकाशमान उत्तम किरीटसे सहित, नाना मणियों से दैदीप्यमान उत्तम मणिमय मुकुटसे अलंकृत, आलोडित धवल निर्मल एवं चंचळ मणिमय कुण्डल रूप आभरणोंसे सुशोभित वह जतु नामक प्रधान देव कोदण्ड, दण्ड, शर्वल ( कुन्त, वछी या सव्वल ) और मिन्दिपाल आदि अस्त्रोंसे युक्त हाथोंवाले देवोंसे युक्त हो कर आज्ञाकी प्रतीक्षा करता हुआ स्थित रहता है ।। ९८-९९ ।। सरोवर के बीच दक्षिण १श परकर. २ उ समाज्जुतो, व समाजुत्ता, श समाहुतो. ३ उ दिसाविभागो श दिसो विभागो. ४ उ पारिसाहिवह जदु, प ब परिसाणहवई जडु, श पारिसाखिश्यावो जडु. ५ उ श आलुलिद, ६ उ समाजतो, श समाहतो. ७ रा अच्छायि. नं. बी. ६. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ३.१०० दक्खिणपच्छिमकोणे भवणाणि हवंति तस्स सरमझे । भडदालीसाणि तहा सहस्सगुणिदाणि कमलेसु ॥१०० गयवरतुरयमहारहगोवद्दगंधग्वणहृदासा ये । सत्ताणीया या सत्ताहिं कछाहिं संजुक्ता ॥ १०१ उत्तुंगदंतमुसला मंजणगिरिसनिभ महाकाया । महुरिंगणयणजयलो सुरिंदधणुसंणि पट्ठा ॥ १०२ पगळंतद्ाणगंडा त्रियडघडो गुलुगुलंतगंजंता । इरिथघडाणं सेण्णं सत्तद्दि भागेद्दि संजुत्तं ॥ १०३ पढमे भागम्मि गया जे दिट्ठा ते हवंति दुगुणा दु । बिदिए भागे या गयसेवणं होइ देवाणं ॥ १०४ एवं दुगुणा दुगुणा सत्त विभागा समासदो णेया । सत्तन्हं अणियाणं एसेव कमो मुणेयब्दो ॥ १०५ वगंततुरंगेहि य वरचामरमंडिएहिं दिग्वेदिं । अस्ताणं' वरसेण्णं सत्तहि भागेहि निदिट्टै ॥ १०६ मणिरयणमंडिएहि य पढायैणिवदेहिं धवलछतेहिं" । सप्ताह कच्छेोहं तद्दा रहवरसेण्णं वियाणाहि ॥ १०७ ककुदखुरसिंगैलंगुल भासुरकाएहि दिग्वरूवेहि" | सत्तविभागेहि तहा गोवइसेण्णं वि णिहिं ॥ १०८ महुरेहि मणहरेहि य सत्तस्सरसंजुदेद्दि गिज्जत १५ । गंधग्वाणं सेण्णं सत्तद्दि कच्छेहि संजुत्तं ॥ १०९ पश्चिम कोणमें कमलों पर उसके अड़तालीस हजार भवन हैं ॥ १०० ॥ उत्तम गजेन्द्र, तुरंग, महा रथ, गोपति ( वृषभ ), गन्धर्व, नर्तक और दास, ये सात कक्षाओंसे संयुक्त सात सेनायें जानना चाहिये ॥ १०१ ॥ उपर्युक्त गजराज उन्नत दांत रूपी मूसलोंसे सहित, अंजनगिरिके सदृश, महाकाय, मधु जैसे पीतवर्ण नेत्रोंसे युक्त, इन्द्रधनुत्रके सदृश पृष्ठत्राले, गण्डस्थलों से बहते हुए मदसे संयुक्त तथा विशाल हाथियों के समूहमें गुल-गुल गर्जना करनेवाला हस्ति सैन्य सात भागों से युक्त होता है ॥ १०२ - १०३ ॥ देवोंकी इस्तिसेनाके जितने हाथी पहिले मागमें कहे गये हैं, उनसे दूने वे द्वितीय भागमें जानना चाहिये । इस प्रकार देवोंकी गजसेना आगे आगे के भागोंमें दूनी दूनी होती जाती है ॥ १०४ ॥ इस प्रकार संक्षेपसे सात विभाग दूने दूने जानना चाहिये । सातों अनीकों का यही क्रम जानना चाहिये ॥ १०५ ॥ उत्तम चामरोंसे मण्डित होकर गमन करते हुये दिव्य तुरंगोंसे अबकी उत्तम सेना सात भागों से युक्त निर्दिष्ट की गई है ।। १०६ ।। मणि एवं रत्नोंसे मण्डित पताकासमूहों और धवल छत्तोंसे युक्त सात कक्षावाली रथोंकी सेना जानना चाहिये ॥ १०७ ॥ ककुद, खुर, सॉंग और पूंछसे शोभायमान शरीरखाले तथा दिव्य रूपसे युक्त बैलोंकी सेना भी सात विभागों से युक्त कही गई है ॥ १०८ ॥ मधुर व मनोहर सात स्वरोंसे संयुक्त गाती हुई गन्धकी सेना सात कक्षाओंसे युक्त होती है ।। १०९ ।। अतिशय रूपवाले तथा आभरणोंसे विभूषित - १ उश वासाय, पब दासा या. २ प सणिना, ब सणिण ३ श महु पिगलयणहुयला. ४ उ श सनिमा ५ प वियडधड, ब वियट घड. ६ प ब सेणा. ७ श सत्तिहिं. ८ उ संब्जुचं, प ब संजुत्ता, शदुतं ९ उश आस्साण. १० श सेण्णं वियाणाहि विदिट्ठी. ११ ए मंडियपडाय, श मंडिए पडाय १२ प ब धवलकण्णोहि. १३ ट श सिंग १४ उ रा दिवरूनेहि . १५ उश गिजांत. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३. ११९ 1 तदिओ उद्देसो [ ४३ अदिसयरूत्राण' तहा आभरणविद्धूसिदाग देवाणं । णच्चणगायणलेवणं सतहि भागेहि निहिं ॥ ११० दासीदासेहि वडा कंठादिपविविरूवभिवेद्दि । होइ तह दाससेण्ण' सत्तहि कच्छाहि संजुतं ॥ १११ पच्छिम दिसाविभागे सरवर मज्जाम्मि सररुद्देसु तद्दा' । सत्तेव व वरगेहा सत्ताणीयाण' णिद्दिट्ठा ॥ ११२ सामाणिमो सुरिंदो भाभरणविहूसिओ परमरूवो । चत्तारिसहस्साणं देवाणं अहिवई धीरो ॥ ११३ संपुण्ण बंद वयणो पलंबबाहू य सत्यसम्वंगो । नीलुप्पलणीसासो अणित्रकणियारसंकासो ॥ ११४ पच्छिमउत्तरभागे उत्तरभागे य पुष्त्रउत्तर दे। ' । तह चत्तारिसहस्सा वस्स गिद्दा होति परमेसु ॥ ११५ दिग्बामदेहधरा दिव्याभरणेहि भूसियसरीरा । मणिगणजलंतमउडा वरकुंडलमंडियागंडा ॥ ११६ सिंहासनम गया वरचामरविज्ञमाण बहुमागा । धवळादवत्तचिण्डा चदुदेवसहस्सपरिवारा ॥ ११७ सिरिदेविपादरक्खा चउरो य हवंति तेजसंपण्णा । बहुविहजोसमग्गा भोळांता परिचरंति ॥ ११८ भवणाणि ताण" हुति हु चसु विय दिसासु पडमफुले सु" । पत्तेयं पत्तेयं चदुरो चदुरो सहस्वाणि ॥ ११९ नर्तकों व गायकों की सेना सात भागोसे युक्त कही गई है ॥ ११० ॥ दासी दासों तथा वंठ वामन या अविवाहित ) आदि विविध प्रकार के स्वरूपवाले भृत्योंसे संयुक्त दासों की सेना सात कक्षाओं से युक्त होती है ॥ १११ ॥ सरोवर के बीच पश्चिम दिशा-भागमें कमलों के ऊपर सात अनीकोंके सात ही उत्तम गृह निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ११२ ॥ आभरणोंसे विभूषित, धीर और उत्तम रूपवाला सामानिक सुरेन्द्र चार हजार देवोंका अधिपति होता है ॥ ११३ ॥ उक्कं सुरेन्द्र पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाला, लम्बे बाहुओंसे सहित, स्वस्थ सब अत्रयवें से सुशोभित, नीलोत्पल के समान निश्वाससे युक्त और नवीन कनेरपुष्पके सदृश होता है ॥ ११४ ॥ पश्चिम-उत्तर भाग (वायव्य), उत्तरभाग तथा पूर्व-उत्तर भाग ( ईशान ) में पद्मों के ऊपर उसके चार हजार गृह हैं ॥११५|| दिव्य व निर्मल देहके धारक, दिग्प आभारणोंसे भूषित शरीरवाले, मणिसमूह से चमकते हुए मुकुटसे शोभायमान, उत्तम कुण्डलें से मण्डित कपोलोसे संयुक्त, सिंहासन के मध्य में स्थित, उत्तम चामरोंसे वीज्यमान, बहुमानी, धवल आतपत्र रूप चिह्नसे सहित, चार हजार परिवार देवोंसे संयुक्त, श्री देवीके चरणोंकी रक्षा करनेवाले, तेजस्वी, तथा बहुत प्रकारके योद्धाओं से सहित वे देव श्री देवी की सेवा करते हुए परिचर्या करते हैं ॥। ११६-१८॥ उनमें से प्रत्येकके चारों दिशाओं में कमलपुष्पों के ऊपर चार चार हजार भवन हैं ॥ ११९ ॥ १ अ श अदियसत्वाण. १ अतोऽमे बत्रतौ ' रसिकेहिं · निरिठ्ठा ॥ एवंविधः पाठः । ३ श होह सवग्रहसेणं. ४ बप्रतावतोध्ये इति पाठः । ५ श सरव्हेसलहेसचा ६ उ प ब श सत्ताणीयाणि पच्छिम उत्तरभागे म पुम्ब उत्तरदो. ९ प ब तस्स हि गिद्दा होंति नियमेसु. १२ उपमकुळे, श पउपबुलेत. होइइदाहा सत्तेव पवरंगेहा सवाणायनि ' सरवदेषु सहा सत्ताणीयाणि णिरिट्ठा ॥ " ७ उ प ब श वणियारि. ८ उश १० ब जोय. ११ उप व शतानि Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 जंबूदीपणती [ ३.१२० कुंदैदु संखहिमचयणिम्मलवरहारभूसियावच्छा । मणिगण करओ हामियदिणय रकर कुंडला भरणा ॥ १२० भट्ठोत्तरसयसंखा पडिहारा मंतिणो यं दूदा य' । बहुपरिवारा धीरा उत्तमरूवा विणीदा य ॥ १२१ भवणाणि ताणे दिट्ठा दद्दमशे देति पउमगउमेसु । भट्ठोत्तराणि णेया सदाणि दिसविदिसमागेसु ॥ १२२ सब्वाणि वरधराणि य तोरणपायारसरवरादीणि । पडमिणिसंडाणि तहा अणाइणिद्दणाणि जाणाहि ॥ १२३ भवणाणि विणायच्त्र कंवणमणिरय गव मइयाणि । गलिंदणील मरगयदिणय रसखिकिरणणिवद्दाणि ॥ १२४ भवणे तेसु या पुण्क्कय सुकयकम्मजोगेण । उप्पज्जंति हु देवा देवीओ दिध्वरुवा ॥ १२५ एयं च सयसहस्सा' चालीससहस्स हैति णिद्दिट्ठा' । एवं च सयं णेया सोलस कमळाण परिसंखा || १२६ विक्खमुच्छेहादी परमाणं दुगुणद्गुणवडी दु । हिमवंतादो णेया जाव दु सिद्दी गिरिंदो य || १२७ I जंबूदुमेसुं एवं परिसंखा होति जंबुगेाणं । णवरि विसेसो जाणे चत्तारिदुमाहिया जंबू ॥ १२८ जंबूदुमाद्दिवस्सेदु चत्तारि हवंति तस्स महिसीओ। चत्तारि अंबुगेहा देवीणं होति णिडिट्ठा ॥ १२९ कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं हिमसमूह के समान स्वच्छ उत्तम हारसे भूषित वक्षस्थलवाले, मणिसमूहकी किरणोंसे सूर्यकिरणों को तिरस्कृत करनेवाले कुण्डलोसे अलंकृत, बहुत परिवारवाले, धीर, उत्तम रूपसे युक्त और विनयको प्राप्त हुए ऐसे एक सौ आठ प्रतीहार, मंत्री व दूत होते हैं ॥ १२०-१२१ ॥ द्रके मध्य में दिशा-विदिशा भागोंमें पद्मों के बीच में उनके एक सौ आठ भवन निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ १२२ ॥ सब उत्तम घर, तोरण, प्राकार, सरोवरादिक तथा पद्मिनीखण्ड अनादि निधन हैं, ऐसा जानिये ॥ १२३ ॥ ये भवन सुवर्ण, मणि, रत्न एवं वज्रसे निर्मित और इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त व चन्द्रकान्त मणियों के समूह से संयुक्त हैं ॥ १२४ ॥ उन भवनों में पूर्वकृत पुण्य कर्म के योगसे दिव्य रूपवाले देव और देवियां उत्पन्न होती हैं ।। १२५ ।। उन कमलोकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह ( १ + ३२००० + ४०००० + ४८०००+७+४००० + १६००० + १०८ १४०११६ ) जानना चाहिये ॥ १२६ ॥ हिमवान्से लेकर निषेध पर्वत पर्यन्त कमलों के विष्क्रम्म व उत्सेधादिकमें दुगुणी दुगुणी वृद्धि जानना चाहिये ॥ १२७ ॥ इसी प्रकार जम्बू "वृक्षोंके ऊपर जम्बूगृहोंकी भी संख्या है। यहां केवल इतना विशेष जानना चाहिये कि जम्बू वृक्ष चार वृक्षोंसे अधिक हैं ॥ १२८ ॥ जो देव जम्बू वृक्षका अधिपति है उसकी चार पट्टदेवियां हैं। उन देत्रियोंके चार जम्बू वृक्ष निर्दिष्ट किये गये हैं ।॥ १२९ ॥ इस 1 १ उ हिम्मरयणिम्मल, श हिम्मरयणिमाल. २ उ प ब य पहुदा य श य पहुदा या. ३ व श ताणि. ४ उ साणि वरव्वराणि, श सयाणि वरव्वराणि ५ श वियाणव्वा. ६ उ मज्ज, श म झ. ७ प य एवं. ● वा सहसहस्सा ९ उश होति ति णिर्दिट्ठा १० उ रा जंबूदुमे ११ उ प व श जंबूदुमाविवरस. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३० १४० १ तदिओ उसो (94 एदेण कारणेण व दुसहिया' होंति अंबुगेहाणि । जह वण्णणा सरस्स' तु तह अंधुदुमस्स' निदिट्ठा ॥ १३० उणवीसा एयसमं चाळीससहस्स तह य जंबुधरा । एवं च सयसहस्सं अंबुस्स दु होंति परिवारा ॥ १३१ बीसहियस या चाळीससहस्स एगउक्खं च । जंबूदुमपरिसंखा णिष्ट्ठिा सब्वदरिसीरिं ॥ १३९ जावेदिय संभवणा जावदिया तह य परमवरभवणा । तावदिया णिहिट्टा जिणभवणा होति रमणमया ॥ १३३ मावदिय जंबुगेहा जाणाविहकणवरयणपरिणामा । तावदिया जायच्या सामलिरुववाण परिगेहा ॥ १३० नवयुगयुग सुण्णं चत्तारि य एग होति परिसंखा । थाणक्क्रमेण णेया सामलिरुक्खस्स परिवारा ॥ १३५ सुणकर्णं चत्तारि य एय होति णिरिट्ठा। सामलितस्वर सम्बा थाणाणुक्रमेण जाणाहि ॥ १३६ एवं महाराणं परिसंखा ताण होति णिदिट्ठा | खुल्लमघरणित्रहाणं को वण्णह ताण परिसंखा ॥ १३७ भिमुद्दा या उत्तमगेहा इवंति णिष्ट्ठिा | ताणाभिमुद्दा सेसा जहण्णगेद्दा वियाणाहि ॥ १३८ पउमेसु सामष्टीसु य जंबूहक्खे य रयणपरिणामा | जिणभवणा पिट्ठिाँ भक्किट्टिमा सासदसभावा ॥ १३१ भिंगार कलस दप्पणवुवुर्घटादिधयवडाएहिं । सोहंनि जिणाण घरा मणिकंचणमंडिया दिव्या ॥ १४० कारण पद्मगृहों की अपेक्षा जम्बू वृक्ष चार अधिक हैं । जैसा वर्णन सरोवरका किया गया है बैसा ही जम्बू वृक्षका भी बताया गया है ॥ १३० ॥ जम्बू वृक्ष के उत्तम परिवारवृक्ष एक लाख चालीस हजार एक सौ उन्नीस है ॥ १३१ ॥ जम्बू वृक्षों की संख्या सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट एक लाख चालीस हजार एक से। बीस जानना चाहिये ॥ १३२ ॥ जितने जम्बूभवन और जितने पद्मभवन हैं उतने ही रत्नमय जिनभवन भी कहे गये हैं ॥ १३१ ॥ नाना प्रकार के सुवर्ण एवं रत्नोंके परिणाम रूप जितने जम्बूगृह हैं उतने ही शाल्मलिवृक्षोंके भी गृह जानना चाहिये || १३४ ॥ नौ, एक, एक, शून्य, चार और एक ( १४०११९ ) इस प्रकार स्थान (अंक- ) क्रमसे शाल्मलिवृक्ष के परिवारवृक्षों की संख्या जानना चाहिये ॥ १३५ ॥ शून्य, दो, एक, शून्य, चार और एक, ( १४०१२० ) इस प्रकार स्थान ( अंक ) क्रमसे सब शाल्मलिवृक्षोंकी संख्या निर्दिष्ट की गई जानना चाहिये ॥ १३६ ॥ इस प्रकार उन महागृहों की संख्या निर्दिष्ट की है । उनके क्षुद्र घरोंके समूहों की संख्याका वर्णन कौन कर सकता है ! ॥ १३७ ॥ उत्तम गृह पूर्वाभिमुख निर्दिष्ट किये गये हैं। शेष जघन्य गृह उनके सन्मुख जानना चाहिये ||११८ ॥ पदूमों, शाल्मलिवृक्षों और जम्बूवृक्षों के ऊपर रत्नों के परिणाम रूप अकृत्रिम और शाश्वत स्वभाववाले निनभवन निर्दिष्ट किये गये हैं ।। १३९ ॥ मणियों और सुवर्ण मण्डित ये दिव्य जिनभवन भृंगार, कलश, दर्पण, वुन्बुद, घंटादिक एवं ध्वजा-पताकाओंसे शोभायमान होते हैं ॥ १४० ॥ उन जिनभवनोंमें सब उपकरणोंसे सहित जिनप्रतिमायें १ प ब या चतुसिया २ उ जह वण्णण्णा सरस्स, ब जह वण्गणा सहस्व, श अह व वजना सहस्स. ३ जंयुसरहस, व अंबुहुमरस ४ उ प ब जनुधरा, श अंबुजरा ५ श य एायुग परिसंवा श महाव्वराने ७ उ श प्रविट्ठा, व रिणरिट्ठा. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनूदीवपणती वरचामरभामंडकछत्तत्तयकुसुमवरिसणिवहहिं । सम्वोवकरणसहिया जिगपडिमाभो विरायति ॥११ उववादपरा गेया महिसेयधरा य मंडणघरा य । भत्थाणघरा विडला गम्भवरा कीरण य ॥ ११२ णास्पषरा विचित्ता वरवरमुदिंगपागंभीरा । मोहणघरा विसाका कालागरुसुरहिगंधडा ॥ १४३ डोळाघरा य रम्मा जाणामणिविप्फुरंतकिरणोहा । संगीयधरा सुंगा सभाषरा ति रमणीया ॥११॥ एवं भवसेसाणं दीवाणं सुरवराण' पउमेसु । जंबूस सामकीसु य संखापरिमाण णिट्टिा ॥ ११५ पडमस्सं सिहरिजस्स यतिपणेव महाणदी समुट्ठिा । भवसेसाण दहाणं सरियामोहति दो दो॥१४६ गंगा पडमददादो जिस्सरिदूणं तु तोरणदुवारे । पुष्वाभिमुहेण गर्यो पंचेव य जोयणसदाणि || १४७ गंगाकुटमपत्ता जोयणमद्धेण दक्खिणे वलिया। पंचेव जोयणसया तेवीसा भड़कोसधिया ॥ ११८ हिमवंतमंतमणिमयवरकूटमुहम्मि वसहस्वाम्म । पविसित्तु पद धारा सयजोयणतुंगससिधवला ॥ १४९ उत्तम चामर, भामंडल, तीन छत्र और कुसुमवृष्टिके समूहोंसे विराजमान हैं ॥ १४१ ॥ उक्त जिनभवनोंमें विशाल उपपादगृह, अभिषेकगृह, मण्डनगृह, भास्थानगृह, गर्मगृह और विस्तृत क्रीडागृह जानना चाहिये । इनके अतिरिक्त उत्तम तूर्य एवं मृदंगके शब्दसे गंभीर विचित्र नाटक गृह, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त विशाल मोहनगृह (मैथुनगृह ), नाना मणिओंके प्रकाशमान किरणसम्हसे युक्त रमणीय दोलागृह, उन्नत संगीतगृह और रमणीय सभागृह भी होते हैं ॥१४२-११४॥ इसी प्रकार अवशेष द्वीपोंके पों, जम्बूवृक्षों और शाल्मलिवृक्षोंपर स्थित उत्तम देवों की संख्याका प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥११५॥ पद्म द्रह और शिखरी पर्वत पर स्थित महापुण्डरीक द्रहसे निकली हुई तीन तीन महानदियां तथा शेष द्रहोंसे निकली हुई दो दो नदियां कही गई हैं ॥ १४६ ॥ गंगानदी पद्म द्रहके पूर्व तोरणद्वारसे निकलकर पांच सौ योजन प्रमाण पूर्वकी और जाकर गंगाक्टको न पाकर अर्ध योजन पूर्वसे दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है। पुनः पांच सौ तेईस योजन और अर्ध कोशसे अधिक आगे जाकर हिमवान्पर्वतके अन्तमें वृषमाकार मणिमय उत्तम कूट ( नालि ) के मुखमें प्रवेश करके सौ योजन ऊंचेसे चन्द्रके समान धवल गंगानदीकी धारा नीचे गिरती है ॥ १४७-१४९ ॥ विशेषार्थ- यहा पर्वतके ऊपर दक्षिणकी और जो गंगा नदीका ५२३१ योजन प्रमाण जाना बतलाया गया है उसका कारण यह है कि गंगा नदी पर्वतके ठीक मध्यमें से जाती है। अत एव पर्वतके विस्तार (१०५२१३ यो.) मेंसे नदीके विस्तार (42 यो.) को घटाकर शेषको आधा करनेपर दक्षिणकी ओर जानेका उपर्युक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है१०५२१३-६+२% ५२३११ । श क्षधरा. व सरवराण. शवसवइम्मि. उश सिहरिमस य. "श पुम्वामिमुहे पगया. ५१श अह. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १५९) सदिओ उद्देसो [१७ छज्जोयण सक्कोसा पणालिया विस्थडा मुणेयम्वा । मायामेण य या बे कोसा तेत्तिया बहला ॥ १५. सिंगमुहकण्णजीहाणयणाभूयादिएहि गोसरिसा । वसह त्ति तेण णामा णाणामणिरयणपरिणामा ॥१५॥ तत्तो दुगुणा दुगुणा पणालिया वसहरूवसठाणा । ताव गया णायब्वा जाव दुणिसहगिरिसिहरे ॥ १५२ तत्तो मन्द्वद्धखया वज्जपणालीण रयणणिवहाणं । विक्खभा मायामा बहलपमाणा समुट्टिा ॥ १५५ गंगा जम्हि दु परिदा सधरादो तहि हवे कुंडे' । दस मौयणावगाहं धरणियले सव्वदो वर्ल्ड' ॥ ५४ सरिमुखदसगुणविउला तस्स दु बहुदेसमज्मभागम्मि । दीवो रयणविचिचो विस्थिण्णो जोयणा मट्ठ ॥ १५५ बज्ममयमहादीवे बेकोससमुट्ठिदे सिदजलादो । तम्हि बहुमजनभागे णगोतमो होइ णिरिहो ॥ १५६ दसजायणउन्धिद्धों' मूले पत्तारि जायणायामो । बे जोयश मज्मम्मि य उरि एगो समुदिट्ठी ।। १५७ तस्स दु मज्मे दिग्वो पासादो कणरयणपरिणामो । मणिगणजलतखंभो गंगाकूडो ति णामेण ॥ १५८ बेधणुसहस्सतुंगो भट्टादिरजा धणि विस्थिण्णो । णचंपयगंधही संपुण्णमिर्यककिरणोहो' ॥ ५९ नालीका विस्तार छह योजन एक कोश, आयाम दो कोश और इतना ही उसका बाहल्य मी जानना चाहिये ॥१५०॥ नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप यह नाली चूंकि सींग, मुख, कान, जिला, नयन और भ्रू आदिकोंसे गौके सदृश है, इस कारण उसका नाम 'वृषभ ' है ॥१५१ ॥ इसके आगे निषध पर्वत पर्यन्त उक्त वृषभाकार नालीका विस्तारादि उत्तरोत्तर दुगुणा दुगुणा जानना चाहिये ॥ १५२ ॥ निषध पर्वतसे आगे रस्नसमूहसे निर्मित उक्त नालियों के विष्कम्म, आयाम और बाहल्यका प्रमाण उत्तरोत्तर आधा आधा हीन कहा गया है ॥ १५३ ॥ गंगानदी हिमवान् पर्वतसे जहां गिरी है वहां पृथ्वीतलपर सव ओरसे गोल दश योजन गहरा कुण्ड है ॥१५४॥ गंगा नदीकी धारासे दशगुणे (६४१०% १२३ यो.) विस्तारवाले उक्त कुण्डके ठीक बीचमें रत्नोंसे विचित्र आठ योजन विस्तृत द्वीप है ॥ १५५ ॥ धवक जलसे ऊपर दो कोश ऊंचे उस महा द्वीपके बहुमध्य भागमें उत्तम वज्रमय पर्वत कहा गया है ॥ १५६ ॥ यह पर्वत दश योजन ऊंचा और मूलमें चार योजन, मध्यमें दो योजन तथा ऊपर एक योजन आयाम ( विस्तार ) वाला कहा गया है ॥१५७ ॥ उसके मध्य भागमें सुवर्ण व रत्नोंके परिणाम स्वरूप एवं मणिगोंसे प्रकाशमान खम्भोंसे सहित गंगाकूट नामक दिव्य प्रासाद है ॥ १५८ ॥ नवीन चम्पककी गन्धसे व्याप्त और सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान किरणसमूइसे सहित वह प्रासाद दो हजार धनुष ऊंचा व बदाई (हजार ] धनुष विस्तीर्ण है [ति. प. १-२२५ और त्रि. सा. ५८८ में इसका विस्तार मूलमें ३००० मध्यमें २००० और ऊपर १००० धनुष प्रमाण बतलाया गया है ] ॥ १५९॥ सूर्यमण्डलके ............-. १उ कूडा, पब कुंडगे, श कूदं. १ उप वढं, पब बटु ३ प समद्विदो मिद', श कोससमविदे सिद. ४ उ उवितो, श विरहो.५श जोयणायामे. शते. पप किरणेहो. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) जंबूदीवपण्णी [१.१५.. पणमय वरसुवाग चालीसवणुप्पमाणविरिषण्णो| भारचमंडळणिभो मसीविषणुउण्णमो दियो । बरबेदिनपरिखिचडगोठरमंखिए परमरम्मै | दिग्बवणसंग्जुसे गंगादेवी व वसई " मिणपडिमासंकणो भवणीवरि तुंगकूडसिहरम्मि। पणुवीसविस्थडा सा गंगाधारा वहिं पह ॥ १६२ वरदीवा रणगा कुंडविठलपासादा | दुगुणा दुगुणा या णिसधो ति धराधको जाम ॥ ॥ कोसा मासटा पणवीस सर दुमद्धपंचसदा। गंगादियकुंडाणं विष्णेया बोयणा होति ॥ १५४ भर सोला बक्षीसा उसट्ठा जोयणा हवे दीवा । दस वीसा चालीसा मसीदि तुंगा वहा सेला ॥ ५५ पत्तारि भट्ट सोलस बत्तीसा विस्था य मूले सु । दोण्णि चतुरट्ट सोकस मोसु इति सेवाणं ॥ १॥ एप दुप चदुर भट्ट य विस्थारा हति तुगसिहरेसु । सरिइंडणगाण तहा णिहिट्ठा होति णियमेण ॥ १. पणुवीसा पपणासा जोयणसद सदा समुष्टिा । गंगादीसरियाण या धारा हवे हेदा ॥ १५८ जोयणसदेक्क ये घट हिमकुंदमुणाकसंखसंकासा । दीहा धारावरणा गंगादीणं सरीणं तु. १६९. सम्वे वि वेदिणिवहा वरवोरणमंदिया परमरम्मा । पवरम्छरेहि मरिया मोरयरूवसाराहि ॥ १७. .. ........ सहश उसका रत्नमय उत्तम दिव्य द्वार चालीस धनुष प्रमाण विस्तीर्ण और अस्सी धनुष उन्नत है ॥ १६०॥ उत्तम वेदीसे वेष्टित, चार गोपुरोसे मण्डित और दिव्य बनखण्डोंसे युक्त उस अतिशय रमणीय प्रासादमें गंगादेवी निवास करती है ॥१५१ ॥ वहाँ भवनके ऊपर स्थित जिनप्रतिमासे युक्त उन्नत कुटशिखरपर वह गंगानदीकी धारा पच्चीस योजन विस्तृत होकर गिरती है ॥ १६२॥ निषधपर्वत पर्यन्त उत्तम कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डनग और विशाल कुण्डप्रासाद, ये सब दूने दूने जानने चाहिये ॥ १६३ ।। उक्त गंगादिक कुडाका विस्तार क्रमसे बासठ योजन दो कोश, एक सौ पच्चीम योजन, दो सौ व अर्ध सौ (बदाई सौ) तथा पांच सौ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १६४॥ कुण्डस्य दीपोका विस्तार क्रमशः पाठ, सोलह, बत्तीस और चौंसठ योजना तथा उनमें स्थित शैलेकी उंचाई क्रमशः दश, बीस, चालीस और अस्सी योजन प्रमाण है ॥ १६५॥ उक्त शलाका मूलविस्तार कमसे चार, आठ, सोलह और बत्तीस योजन; तथा मध्यविस्तार दो, चार, आठ और सोलह योजन है ॥ १९६॥ नदीकुण्डस्थ उक्त पर्वतोंका विस्तार उन्नत शिखरोंपर नियमसे एक, दो, चार और आठ योजन प्रमाण कहा गया है ॥ १६७ ॥ गंगादिक नदियोंकी धाराका विस्तार क्रपसे पच्चीस, पचास, सौ और दो सौ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १६८॥ हिम, कुन्दपुष्प, मृणाल और शंख जैसे वर्णवाले गंगादिक नदियोंके धारापतनोंकी दीर्घता उत्तरोत्तर एक सौ, दो सौ और चार सौ योजन प्रमाण है ॥१६९ ॥ नदीकुण्डस्थ पर्वतोंके ऊपर स्थित सब ही प्रासाद वेदीसमूहसे सहित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, डश परिखिये. १उशतहि वसइ. शतरंग. ४उश णिसथो विपराचलो जामा, पणिसधधराचको बाम. ५उश सदं अदसदा, बसदंतपंचसदा. उ एय दुप चहुबा , श एयपस्य बबुबह. .प.बस. उपाश पवरमहि. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १८०] तदिओ उद्देसो [ ४९ शिकणोदिरामा अच्छेरयरूवसारसंठाण | पुप्फोवयारपउरा वंदणमालुज्जलसिरीया ॥ १७१ णिवडंतसलिलपउरा सियचामरहारतारसंकासा। लंबंतरयणमाला मणिकमलकदरचणसणाहा ॥ १७२ घंटोकिंकिणणिवहा जलधारापार्यजणियझंकारा । जिणसिद्धबिणिवहा सरिकुंडणगाण पासाया ॥१७॥ णीसरिदूण य गंगा कुंडदुवारेण दक्षिणाभिमुखी । वेदवगुहामझे पुव्वसमुई अणुप्पत्ता ॥ १७४ मणिमंख्यिाण णेया वस्जिदमसारगलमइयाणं । वरतोरणार्ण हेट्टा" बिलेण पइसंति सरियाओ ॥ १७५ तेणउदिजोयणाई उत्तंगो विविहरयणसंछण्णो । तिपणेव हवे कोसा परिसंखा तस्स जाणीहि ॥ १७६ बे कोसा बासट्टा वित्थारो तोरणे समुद्दिट्टो । बे कोपा अवगाढ। ये कोसा" होइ बहुलेण ॥ १७७ अवसेसतोरणाणं णिम्मलमणिकणयरयणणिवहाणं । दुगुणा दुगुणा णेया विस्थारो जाम सीदोदा ॥ १७८ गंगासिंधूतोरण बासट्ठी जोयणा दुबे कोसा । भरहम्मि समुद्दिट्ठा लवणसमुद्दप्पवेसेसु ॥ १७९ रोहारोहिदतोरण पणुवीस सदाणि जोयणपमाणा। हेमवदे विस्थिपणा सायरसलिलप्पवेसेस ॥ १८० आश्चर्यजनक उत्तम रूपवाली अप्सराओंसे परिपूर्ण, सद। मनको रमानेवाले, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूप व आकृतिसे सहित, प्रचुर पुष्पों के उपचारसे सहित, वन्दनमालाओंसे उज्ज्वल शोभाको प्राप्त, गिरते हुए प्रचुर जलसे संयुक्त; धवल चामर, हार व मोती (या तारा) के सदृश; लम्बायमान रत्नमालाओंसे युक्त, मणिमय कमलोंसे की गई पूजासे सनाय, घंटा व किंकिणियोंके समूहरो सहित, जलधाराके पातसे उत्पन्न हुए झंकारसे परिपूर्ण, तथा जिन एवं सिद्धोंकी प्रतिमाओं के समूइसे युक्त हैं ॥ १७०-१७३ ॥ गंगानदी गंगाकुण्डद्वारसे निकलकर दक्षिणाभिमुख होती हुई वैताढ्य पर्वतकी गुफाके मध्यमेंसे पूर्व समुद्रको प्राप्त होती है ॥ १७४ ॥ गंगादिक नदियां मणियोंसे मण्डित और वजं, इन्द्र [- नील ] एवं मसारगल्ल ( एक रत्न जाति ) से निर्मित उत्तम तारणों के नीचे बिलमेंसे समुद्रमें प्रवेश करती हैं ॥ १७५ ॥ विविध रस्नोसे व्याप्त उस तोरणकी उंचाईका प्रमाण तेरानबै योजन और तीन कोश जानना चाहिये ॥ १७६ ॥ उक्त तोरणका विस्तार बासठ योजनादकोशः अवगाह दो कोश और बाहल्य दो कोश प्रमाण है ॥१७७॥ सीतो पर्यन्त निमला माण, सुवर्ण एवं रत्नों के समूह रूप सेस तोरणों का विस्तार उत्तरोत्तर दूना दूना जानना चहिय क्षेत्रमें गंगा और सिन्धुके तोरण लंधणसमुक प्रवेशम बासष्ठे योजन और ना कोश प्रमाण विस्तीर्ण कहे, 'म । हमवतक्षत्र में रोहित व शहितास्या के तारण वर्णसमुहक प्रवेशम एक सपञ्चसि योजन प्रमणि विस्तीर्ण हार क्षत्री हीरत्व हाट FPSE FIER FM ipsis FTCT GISIES FIFFE 5146 FFP FPOFIE SEE FITS ITrig. TE TEET DEFri ||19-0080bs १उपबश परछरेहि.२उव्वंटा,श वग. ३उर्श धारापाय, पंब धाराथांय."उश सिरि. ५ ब अणुपत्ता, श अणुप्पत्त. ६ प तोरणेण, ब तोरणण. ७ उ श हिवा. ८ श परियाओ. ९ उश द्रिोणारं चिहि, मायापिविष्टपबद तारको शाबिछा सौदोहा. स्म शासपुदायसह... IF माघ ३ .15TE OPE, जै. दी. ७. की EPFFEमगीली Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] जंबूदीवपण्णत्ती [ १. १८१ हरिहरिकता तोरण बेसवण्णासजेोयणपमाणा | हरिवरिले वित्यिण्णा लवण समुद्दपत्रेसेसु || १८१ सीदासीदोदाणं तोरणदारा हवंति विश्थिण्णा । पंचेव जोयणसदा विदेहमज्झग्मि लवणंते ॥ १८२ I लंच तरयणपरा मुत्तादामेहि मंडिया दिव्वा । णाणापडायमाला पवणपणच्चंत साहाहिं ॥ १८३ चामरघंटा किंकिणिवं देणमालाहि सोहिया पत्ररा | भिंगार कलस दप्पणचामीयर कमलकयसोदा || १८४ मणिसाल है जिगपवर कणयमयसीद्दवालयसणाद्दा | वरचामरादिसदिया जिणपडिदविहूसिया रम्मा ॥ १८५ वज्जिदणील मरगय कक्कयणपुस्स रागपरिणामा कंचणपत्रालणिवा तोरणद्वारा समुद्दिट्ठा ॥ १८६ मे इलकलावै मणिगणकरणिय र विभिणअंधयाराभो । कडि सुत्तक डकुंडलवरहारविहूसियंगीभो ॥ १८७ लाय पणरूत्र जोवण बहुगुणसंदोह मुव्वतीओ। कलर डिदमिदुपजंपियदसणुज्जलचंदधवलामो ॥ १८८ दिणयरकरणियरायविभिण्णसयवत्तगब्भगउराओ । सरसमय मेघविरहिय संपुष्णनियं कवयणाभो ॥ १८९ उष्णयपीणपक्षेोहर उर्वरिविरायंतचारुद्वाराभो । ससिदलिदै कुमुदकुवलय वियसियसययत्तणेत्तामो ॥ १९० भ्रमेण होंति ताओ देवीओ तोरणाण रम्माओ । मणिमयपासादेसु य णाणामणिविष्फुरंत किरणेसु ॥ १९१ कान्ता के तोरण लवण समुद्र के प्रवेशमें दो सौ पचास योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १८९ ॥ विदेह के मध्य में सीता-सीतोदा के तोरणद्वार लवणसमुद्र के समीप पांच सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १८२ ॥ उक्त तोरणद्वार लम्बायमान प्रचुर रत्नोंसे सहित, मुक्तामालाओं से मण्डित, दिव्य, पवन से प्रेरित होकर आकाशमें नाचनेवाली नाना पताकाओं के समूहों और चामर, घंटा, किंकिणी व वन्दनवारोंसे शोभित; श्रेष्ठ; भृंगार, कलश, दर्पण व सुवर्णकमलों से शोभायमान; मणिमय शालभंजिका (पुतली) एवं श्रेष्ठ सुवर्णमय सिंह बालकों से सनाथ, उत्तम चामररादिकोंसे सहित जिनप्रतिमाओंसे विभूषित, रमणीय, वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पुखराज मणियों के परिणाम रूप और सुवर्ण एवं मूगाओंके समूह से युक्त कहे गये हैं ॥ १८३-१८६ ॥ इन तोरणोंपर स्थित नाना मणियों का प्रकाशमान किरणोंसे सहित मणिमय प्रासादों में मेखलाकलाप में जड़ी हुई मणियों के किरणसमूह से अन्धकारको नष्ट करनेवाली; कटिसूत्र, कटक, कुण्डल एवं उत्तम हारसे विभूषित शरीरखाली; लावण्यमय रूप, यौवन एवं बहुतसे गुणोंके समुदायको धारण करनेवाली; कलरटित व मृदु प्रजल्पनमें [ प्रगट होनेवाले ] दांतोंसे उज्ज्वल एवं चन्द्रके समान धवल, सूर्यके किरणसमूहसे आहत होकर विकासको प्राप्त हुए कमलके मध्य भागके समान गौर वर्णवाली, शरत्कालीन मेघोंसे रहित सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली, उन्नत एवं स्थूल पयोधरोंके ऊपर विराजमान सुन्दर हारसे अलंकृत, तथा चन्द्रसे विकासको प्राप्त हुए कुमुद, कुवलय व विकसित कमलके समान नेत्रोंवाली वे रमणीय देवियां धर्म के प्रभावसे उत्पन्न होती हैं ॥ १८७ -१९१ ॥ गंगा, रोहित्, इरित्, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता, १ ब सोहाहिं. २ उ किंकिण, शकिंकण. ३ उ प ब श साठ इंजिगमवर कणयलया. ४ उपबश चामरराहि. ५ उ कलाभ, श कलाण. ६ उ विहिण, श विहिण. ७ उ शकलरिमिदमहु, प ब काकेरिडिदमिह° ८ उश उबर ९ उश दनिद. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -1. १५८] तदिओ उद्देसो गंगा य रोहिदा सा पुर्ण ही सादा य होति णारी य । वसे सुवण्णकूला रत्ता वि य पुस्यगा सरिदा ॥११२ सिंधू य रोहिदासा हरिकंता चेव होइ सोदोदा । अपरेण य गरकता रुप्पक्कूला य रत्तवदिगा य ॥ १९३ उज्जोयण सक्कोला पवहीं अंते य दसगुणों वासो। भरहेरवदणदीगं बसे वैसे हवे दुगुगा॥ १९५ कोसद्धं उच्छेदो पवहीं अंते य दसगुणो होदि । भरहेरवदणदीण वसे बसे हवे दुगुणा ॥ १९५ भरहेराबदएक्के भट्ठावीसा नदीसहस्साणि । दुगुणा दुगुगा परदो वैसे वैसेसु णादम्बा ॥ १९६ वैसे महाविदेहे सरिदसहस्साणि होति चउसट्टी। दस चेव सदसहस्सा कुरुवसेग च धुलसीदि ॥ १९० धोइसगसदसहस्सा छप्पण्णा तह सहस्स गउदी य । परिमाणं णादवं जंबूदीवस्स सरिदामो॥ १९८ नदियां [ अपने अपने ] वर्षमें पूर्व समुद्रको जानेवाली हैं ॥ १९२ ॥ सिन्धु, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, नरकान्ता, रूप्यकूला और रक्ताती (रक्तोदा), ये नदियां अपर समुद्रको जानवाली हैं ॥ १९३ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रों की नदियों का प्रवाह प्रारम्भमें छह योजन और एक कोश प्रमाण होता है। वही अन्तमें इससे दशगुणे विस्तारवाला हो जाता है। यह नदीप्रवाह [विदेह वर्ष तक ] एक वर्षसे दूसरे वर्षमें दुगुणा होता गया है ॥ १९४ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रोंकी नदियों का अर्थ कोश ऊंचा प्रवाह अन्तमें दशगुणा (५ को.) हो जाता है । यह प्रवाह आगे प्रत्येक क्षेत्रों दुगुणा समझना चाहिये ॥१९५॥ भरत और ऐरावतसे प्रत्येक क्षेत्रमें अट्ठाईस हजार नदियां हैं। इससे आगे क्षेत्र-क्षेत्रमें उनका प्रमाण दुगुणा जानना चाहिये ॥ १९६ ॥ महाविदेह क्षेत्रमें दस लाख चौंसठ हजार (१२ विदेहोकी गंगा-सिन्धू आदि ६४ नदियोंकी सहायक नदी १४०००४ ६४ = ८९६०००, दोनों कुरु क्षेत्रोंकी ८४०००४२१६८०००; १६८००० + ८९६००० = १०६४०००.) और प्रत्येक कुरु क्षेत्रमें चौरासी हजार नदियां हैं ॥ १९७ ॥ जम्बूद्वीपकी समस्त नदियों का प्रमाण चौदह लाख छप्पन हजार नब्बै जानना चाहिये (गंगा-सिन्धूकी सहायक नदी १४००० ४२ = २८०००, रोहित्-रोहितास्या ५६०००, हरित्-हरिकान्ता ११२०००, देव व उत्तर कुरुमें सीता सीतोदाकी सहायक नदी ८१००० ४ २ = १६८०००, विदेहक्षेत्रस्य गंगा व सिन्धू आदि ६४ नदियोंकी सहायक नदी ६४४१४००० = ८९६०००; गंगादि १४ बत्तीस विदेहस्थ गंगा-सिन्धू आदि ६४, विभंगा १२, २८०००+५६०००+ ११२००० + १६८००० + ८९६००० + ११२००० + ५६००० + २८०००+१+६१ १२ % १४५६०९०, यहाँ विमंगा नदियोंकी सहायक ३३६००० नदियों की विवक्षा नहीं की गई है) ॥ १९८॥ नदियोंके उभय तटोंपर मणिमय तोरणांसे मण्डित, दो गव्यूति उंची १श गंगा य विसा पुण. २ उपपई, श यवहो. ३७ श सगुणा बाबी, एच सगणो बीसो.४उपश पहे.५पएको, येो. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२1 बूदीवपण्णत्ती उभयतडेसु णदीण मणितोरणमंडिया मणभिरामा' । वरवेदी णिहिट्ठा येगाउदउण्णया दिवा ॥ १९९ ससिकंतरयणणिवहा मणिगणकरणियरणासियतमाहा । वजिदणीलमरगयकक्केयणपउमरायमया ॥ २०० वरइंदीवरवण्णा कुंदेंदुतुसारहारसंकासा । गयगवलकज्जलणिहा गोरोयणसच्छा पवरा ॥ २०१ चंपयबसायवण्णा पुण्णागपियंगुकुसुमसंकासा । किंसुयपवालवण्णा पफुल्लियकमलसंकासा ॥ २०२ सम्वणईणं या रमणीया विविहरयणसंछण्णा । सोवाणा णिहिट्ठा वचंपयसुरहिगंधड्ढा ॥२०३ फणसंवताडदाडिमपियंगुणारंगचीवरसणाहा । बहुणाशिकरकदलीसज्जज्जुणकुडयसंछण्णा ॥ २०४ गोसीसमलयचंदणकप्पूरकर्यबसालतपउरा । पुण्णागणागचंपयवियसियकणवीरवणणिवहा ॥ २०५ पवणवसचलियपल्लवमसोयहिंतालपाडलसणाहा । गुंजंतमत्तमहुयरिअलिउलेकुल जणियझंकारा ॥ २०६ बहुजादिजूहिकुज्जयतंबूलमिरी इवेल्लिसंछण्णा। मंदारकुंदकेदगिअहमुत्तलयाउलसिरीया ॥ २०७ दिग्वामोयसुयंधा गाणाफलफुल्लणिवहसंछपणा । दोसु वि तडेसु होति हु सव्वाण णहीण वगसंडा ॥ २०८ मनोहर दिव्य उत्तम वेदियां निर्दिष्ट की गई हैं ॥१९९॥ सब नदियों [ की उक्त वेदियों ] के चन्द्रकान्त रत्नोंके समूहसे युक्त, मणिगणोंके किरणसमूहसे अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाले; वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन और पद्मराग मणियोंसे निर्मित; कोई उत्तम इन्दीवरके समान वर्णवाले; कोई कुन्दपुष्प, तुषार एवं हारके सदृश; कोई गज, गवल (जंगली पशुविशेष ) अथवा काजलके सदृश, कोई गो।चनके सदृश कान्तिवाले, कोई चम्पक व अशोकके समान वर्णवाले, कोई पुन्नाग व प्रियंगु कुसुमके सदृश, कोई किंशुक ( पलाश ) के कोमल पत्र जैसे वर्णवाले, तथा कोई विकसित कमलके सदृश, ऐसे नाना प्रकारके रत्नसे व नवीन चम्पक जैसी सुगन्धमय गन्धसे व्याप्त रमणीय उत्तम सोपान कहे गये हैं ॥२००-२०३ ॥ सब नदियोंके दोनों ही किनारोंपर पनस, आम्र, ताड़, दाडिम, प्रियंगु, नारंग और चीवर वृक्षोंसे सनाथ; बहुतसे नालिकेर, कदली, सर्ज, अर्जुन और कुटज वृशे से व्याप्त; गोशीस, मलय चन्दन, कपूर, कदम्ब और शाल वृक्षोंकी प्रचुरतासे सहित; पुनाग, नाग, चम्पक, विकसित कनेर और वन ( वृक्षविशेष ) वृक्षोंके समूइसे सहित; वायुके वश होकर हिलते हुए पत्तोंवाले अशोक, हिंताल और पाटल तरुओंसे सनाय; गुंजार करती हुई मधुकरी (भ्रमरी) और भ्रमरों के समूहोंसे उत्पन्न हुए झंकारसे सहित; बहुतसी जाति (मालती), जूही, कुन्जक, ताम्बूल और मिरिचकी बेलोंसे व्याप्त; मंदार, कुन्द, केतकी और अतिमुक्त ( माधवी लता) लताओं के समूहकी शोमासे सम्पन्न, दिव्य सुगन्धसे सुगन्धित, तथा नाना फल-फूलों के समूहसे व्याप्त वनखण्ड हैं ॥ २०४-२०८ ॥ भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रको छोड़कर शेष १ उश ससितोरण २श माणिमिरामा. ३ उश किसूपपवाड, पब केसुयपबाल. ४शवीवर, ५ उ महुयरिअलि उल, पब महुअरअलि उल, श महुयरिउल. ६ पब मरीचिवल्लिं. ७ उ श कुस्ल. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. २१४] तदिओ उद्देसो सद्धावदि विगढावदिए गंधावदि मालवंतपरियंता । वंसेसु चसु एदेणारया ववेदड्ढा ॥२०९ जोयणसहस्स एदे वित्यिग्णा तेत्तियं च उम्बिद्वा । सवस्थ समा णेषा पल्लगसंडाण कंचणमया य॥ २१० तिण्णवे सहस्साणं वासहि चेव हॉति सदमे । वेदड्डाण परिरओ वट्टाणं जंबुदीवम्हि ॥ २११ ते गिरिवरे अपत्ता सरिदामो मजायणपमाणं । पुवावरेण गंता लवणसमुई समुपयंति ॥ २१२ मुहभूमिविसेसेग य उच्छपभजिदं तु सा हवे वढी । वड़वी इछागुणिर्द मुहप्पखित्ते य होइ बट्टफलं॥ वयणखिदिरहिपउच्छपहिदइच्छगुगम्मि वरणाक्खित्ते । सायरणदीणगाणं' पदेसवढी समुट्टिा ॥ २१४ चार क्षेत्रोंमें श्रद्धावती, विकटावती, गन्धवती और अन्तिम माल्यवान् ये चार वृत्त वैताढ्य जानना चाहिये । २०९ ॥ ये सुवर्णमय वृत वैताग्य एक हजार योजन विस्तीर्ण, इतने ही ऊंचे, सर्वत्र समान विस्तारवाले व पत्यके ( कुशूल ) के आकार जानना चाहिये ॥ २१०।। जम्बूद्वीपमें वृत्त वैताढ्योंकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ (३१६२) योजन प्रमाण है ॥ २११ ॥ गंगादिक नदियां अर्ध योजन प्रमाणसे उन वृत्त वैताढ्यों को प्राप्त न होकर अर्थात् उनसे अर्ध योजन इधर रहकर ही पूर्व व पश्चिम की ओरसे लवणसमुद्रको प्राप्त होती हैं ॥२१२॥ भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेषमें उत्सेकका माग देनेपर वृद्धिका प्रमाण आता है । इस वृद्धिक इच्छाले गुणित कर मुखमें मिला देने पर अभीष्ट स्थानमें विवक्षित क्षेत्रका विस्तार जाना जाता है ।। २१३ ॥ उदाहरण- श्रद्धावान् नामक वृत्त वैताड्ढ्य १००० यो. ऊंचा है। इसका विस्तार मूलमें १००० यो. और ऊपर ५०० यो. है । इसका मध्यविस्तार प्रकृत करणसूत्र के अनुसार निम्न प्रकार होगा- भूमि १००० यो., मुख ५००, उत्सेध १०००, १०००-५०० = ३ वृद्धि । इच्छा ५०० यो.; ५०० x ३ = २५० यो.; ५०० + २५० = ७५० यो. मध्यविस्तार । वदन (मुव) और क्षिति (भूमि ) को परस्परमें घटाकर शेषों उंचाईका भाग देकर जो लब्ध हो उसे इच्छासे गुणित कर मुखमें मिला देनेपर सागर, नदी व नोंमें होनेवाली प्रदेशवृद्धिका प्रमाण होता है ॥२१॥ उदाहरण - लवणसमुद्रमें पूर्णिमाके दिन १६००० यो. और अमावस्याके दिन ११००० यो. प्रमाण जलकी उंचाई समभूमितलसे होती है । १६००० यो. की उंचाईपर उसका विस्तार १०००० यो. रहता है । अत एव भूमि का प्रमाण २ ला. यो. और मुखका प्रमाण १०००० यो. है। १६००० यो. नीचे जाकर यदि १९०००० यो. की वृद्धि होती है तो ११००० यो. नीचे जाकर कितनी वृद्धि होगी-२०००००-१०००० = १९. वृद्धिपमाण, १ ९० x ११००° = १३०६२५,१३०६२५+ १०००० = १४०६२५ यो.। १पब सदावदिविगडावदि. २उशविणे. ३५ब वेदहाण, ४उश पढगं, पब वाहाणं. ५ उपबश अढ.६श मुहनोभूमिविसेसेण. ७श भूहयखिते. ८ पब बटिफलं. ९श पगाणं. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबूदीवपण्णत्ती हेमवदस्त य मझे णादिगिरिदो विचित मणिणिवहो । वणवेदीपक्खित्तो मणितोरणमंडिमो रम्मो ॥ २१५ तस्स णगस्स दु सिहरे वणवेदीपरिउडो परमरम्मो । वरतोरणछज्जतो सुरणयरो उत्तमो होइ ॥ २१॥ मणिकंचणपरिणामा पासादा सत्तभूमिया दिग्वा । ससिकंतसूरकताककेपणपुस्परायमया ॥ २१७ बहुविवि भवणणि हो वावीपुरवरिणिउत्रवगसमग्गो । सुरसुररिपरिइण्णो जिणभवणविहूसिमो दियो । वरमकुंडलधरो पलंयबाहू पसस्थसम्बंगो । सादी गामेण सुरो मतबकरूवसंपण्णी ॥ २१९ तस्स गरस्स राया पलिदोवमभाउगो महासत्तो। सिंहासणम मगदो सेविजइ सुम्सहस्सहिं ॥ २२० एवं भवसेसाणं देवाण हवंति णाभिसेलेसु । णगराणि विचित्ताणि दु जह पुग्वं वणिया सयला ॥ २२॥ हरिवंसस्स दु माझे गाभिगिदिस्स पुरवरे विउले । भरुणप्पभो ति णामो देवो तो तत्थ णिहिट्ठो ॥ २२२ पडमपभो त्ति णामो रम्मगवंसस्स ववेदढे । सुरणगरमि य राया णिहिट्ठो सम्वदरिसीहि ॥ २२३ गामेणे पमासो त्ति य हेरण्णवदस्प णाभिगिरिसिहरे । सुरपट्टणम्मि राया अच्छइ सुहेसायरे धीरो ॥ २२४ सम्पाणं च णगाणं णगणगराणं तु णगवणाणं च । एसेवं कमो यो समासदो होइ णिहिटो ॥ २२५ हैमवत क्षेत्रके मध्य में विचित्र मणियों के समूहोंसे सहित, वनवदीसे वेष्टित और मणिमय तोरणोंसे मण्डित रम्य नाभि गिरीन्द्र स्थित है ।। २१५॥ उस पर्वतके शिखरपर वनवेदीसे बेष्टित और उत्तम तारणसे सुशोभित अतिशय रमणीय श्रेष्ठ सुरनगर है ।। २१६ ।। उपर्युक्त नगरके सात भूमियोंवाले, मणियों एवं सुवर्णके परिणाम रूप दिव्य प्रासाद चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन एवं पुखराज मणियोंसे निर्मित हैं ॥ २१७ ॥ उक्त नगरमें वापी, पुष्करिणी एवं उपवनोंसे सहित; सुरसुन्दरियोंसे व्याप्त व जिनभवनोंसे विभूषित विविध प्रकारके बहुतसे दिव्य भवन हैं ॥ २१८॥ उत्तम मुकुट एवं कुण्डलोंका धारक, लम्बे बाहुओंसे संयुक्त, प्रशस्त सब अवयसि सहित और अनन्त बल व रूपसे सम्पन्न स्वाति नामक देव उस नगरका राजा है। पत्योपम प्रमाण आयुके धारक, महाबलवान् और सिंहासनके मध्यको प्राप्त इस देवकी हजारो देव सेवा करते हैं ।। २१९-२२०॥ इसी प्रकार शेष नाभि शैलोंपर मी देवोंके जो विचित्र नगर हैं उनका सब वर्णन पूर्व वर्णनके समान है ॥ २२१ ॥ हरिवर्ष क्षेत्रके मध्यमें स्थित नामि गिरीन्द्र के विशाल एवं श्रेष्ठ पुरमें अरुणप्रभ नामका वह अविपति देव है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ॥ २२२ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा रम्यक क्षेत्रके वृत्त वैताट्यपर स्थित सुरनगरका राजा पद्मप्रभ नामक देव बतलाया गया है ॥२२३ ॥ हरण्यवतक्षेत्रस्थ मामि गिरिके शिखरपर स्थित मुखके सागर स्वरूप सुरपुरमें प्रभास नामक साहसी देव रहता है ॥२२॥ समस्त पर्वतों, पर्वतस्थ नगरों एवं बनोंके वर्णन का संक्षेपसे यही क्रम जानना चाहिये १श हेमम्ववस्स मम्झे. २३ पश शिवह. ३ उश सेततु..श गामणि. ५श ५.६१ गाणं गगराणं. ७ श एसोक. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. २३.] तदिओ उद्देसो सव्वाण भूहराणं वणवेदी तोरणा मुणेयम्चा । देवणगराण वितहा वणसंहाणं तहा चेय ॥ १२६ सम्वेस भूहरेस य सरवरणगरेस उववणवणेस । जिणभवणा गायनानिद्रिा जिणवरिदेहि। २२७ हिमवंतस्स दुमूले जा जीवा उत्तरेण णिट्रिा । हेमवदस्स य सा खलु दक्खिणजीवा' वियाणाहि ॥ २१८ हिमवंतमहंतस्स दुजा जीवा दक्खिणेण णिहिट्ठा । हेमवदस्य सा खलु उत्तरजीवा वियाणाहि ॥ १२९ दिमवंतमहंतस्स दुजा जीवा उत्तरेण णिहिट्ठा। हरिवंसस्स दुसा खलु दक्खिणजीवा वियामहि ॥ २३. णिसधगिरिस्स दुमूले जा जीवा दक्खिगेण णिहिट्रा। हरिवंसस्स दुसा खलु उत्तरजीवा वियाणाहि॥ जह दक्षिणम्मि भागे तह चेव य उत्तरेसु णायवा। मायामा विक्र्खभा समासदोहोति सम्वाणं ॥ २१२ सोहम्मिदो सामी दक्षिणभागस्स होदि णिहिट्ठो। ईसाणिदो सामी उत्तरभागस्स दीवस्स ॥ २३१ हेरण्णवदे खेत्ते तहेव हेमन्वदम्मि सम्मि । सुस्समदुसमो कालो अवटिदो सम्बदा होइ ।। २३४ हरिवरिसम्मि य खेत्ते रम्मगर्वसम्मि होड णायचा । ससमो कालो एक्को भवट्रिदो सम्वकालं तु॥२१५ बे चउ चउ दुसहस्सा धणुप्पमाणा हवंति उच्छेहा। एगदुगविग्णिएगापल्लाऊ ते मुणेयम्वा ॥ २३६ जे कम्मभूमिमणुया दाणं दाऊण उत्तमे पत्ते । अणुमोदणेण तिरिया ते होंति इमासु भूमीसु ॥ २१० ............... ॥२२५॥ समस्त पर्वतों, देवनगरों तथा वनखण्डोंके वनवेदी और तोरण उसी प्रकार जानना चाहिये ।। २२६ ॥ सब पर्वत, श्रेष्ठ सुरपुर और वन-उपवनोंमें जिनेन्द्रों द्वारा निर्दिष्ट जिनमवन जानना चाहिये ॥ २२७ ॥ हिमवान् पर्वतके मूलमें जो उत्तरजीवा कही गई है वह निश्चयसे हैमवत क्षेत्रकी दक्षिणजीवा जानना चाहिये ॥ २२८॥ महाहिमवान् पर्वतकी जो दक्षिणजीवा कही गई है वह निश्चयसे हैमवत क्षेत्रको उत्तरजीवा समनना चाहिये ॥ २२९ ॥ महाहिमवान् पर्वतकी जो उत्तरजीवा निर्दिष्ट की गई है वह निश्चयतः हरिवर्ष क्षेत्रकी दक्षिणजीवा जानना चाहिये ॥ २३० ।। निषधगिरिके मूलमें जो दक्षिणजीवा कही गई है वह निश्चयतः हरिवर्षकी उत्तरजीवा जानना चाहिये ॥२३१॥ जिस प्रकार दक्षिण भागमें क्षेत्रों व पर्वतोंका संक्षेपसे आयाम व विस्तार बतलाया गया है उसी प्रकार उत्तर भागोंमें भी सब क्षेत्रों व पर्वतोंका भायाम व विस्तार जानना चाहिये ॥२३२॥ द्वीपके दक्षिण भागका स्वामी सौधर्म इन्द्र और उत्तर भागका स्वामी ईशान इन्द्र कहा गया है ॥ २३३ ॥ हैरपक्त क्षेत्रमें तथा हैमवत क्षेत्रमें सर्वदा सुषमदुषमा काल अवस्थित हैं ॥ २३४ ॥ हरिवर्ष क्षेत्रमें और रम्यक क्षेत्रमें सर्वदा एक सुषमाकाल अवस्थित है [ देवकुरुमें सदा सुषमसुषमा काल अवस्थित है ] ॥२३५॥ [ हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हरण्यक्त क्षेत्रोंमें ] शरीरकी उंचाई क्रमश दो हजार, चार हजार, चार हजार और दो हजार धनुष प्रमाण तथा आयु एक, दो, दो और एक पल्य प्रमाण जानना चाहिये ।। २३६ ॥ जो कर्मभूमिज मनुष्य हैं वे उत्तम पात्रको दान देकर तथा जो कर्मभूमिज तिथंच हैं वे दानदाताकी अनुमोदनासे इन क्षेत्रोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २३७ ॥ वहां मरणको मी १ उघ उत्तरीवा. २५ व श प्रतिषु २२९ तमगाचाया उत्तराई २३० तागाधायाम पूर्वा नोपलम्पो. शपणि. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] जम्बूदीवपण्णत्ती [ ३. कालगदा विय संता विमाणवासेसु ताण उत्पत्ती । ण य अण्णत्थुष्पत्ती भकालमरणेहि ण मं ॥ २३८ मज्जवरतूरभूसणजोदिसगिद्दभायणाण कप्पदुमा । भायणपदीववत्था दुमाण विहवंति दस भैया ॥ २३९ बहुविद्दमणिकिरणाद्दयषणतिमिर जलं ततुंगवर मउडा । सरसमग्रघणविणिग्गयर विभासुरकुंडला भरणा ॥ २४० • समय जणि मासु र विज्जुज्जलतेय मे हलकलावा | बद्दलघणपं कैवियलिय संसिधवल पलंबवरद्वारा || २४१ मरगयर विणिग्गयकिरणसमुच्छलय मे रुगिरिधीरा । परिइण्णरयण बहुविद्दसागरगंभीर मज्जाया ॥ २४२ पगलंतदाणणिज्झर भूद्दरसमस रसैमत्तगयगमणा । तरुणस सिधवलखरणहैकरिदारणसीद्दविक्कंता || २४३ मियमय कप्पूरारुहरियंदणबहलपरिमलामोया । णाणागुणगणकलिया दाणफला भोगसंपर्णा ॥ ६४४ हलमुसलकलसचामरर विससिभवणादिलक्खणोवेदा । दीसंति पवरपुरिसा सब्वासु नि भोगभूमीसु ॥ २४५ अइसय असे वणिवई अट्टमहापाडिद्देरसंजुत्तं । वरपठमणंदिणमियं अभिनंदणजिणवरं वंदे ॥ २४६ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंग पव्त्रदणदी भोगभूमिवण्णणो णाम सदिलो उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥ होती है, अन्यत्र उनकी उत्पत्ति प्राप्त होनेपर उनकी उत्पत्ति विमानवासी देवों में सम्भव नहीं है । तथा वे अकालमरणोंसे नहीं मरते हैं ॥ २३८ ॥ वहां मद्यांग, उत्तम तुयोग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, भोजनांग, प्रदीपांग और वस्त्रांग, इस प्रकार दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं ॥ २३९ ॥ इन सभी भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुए पुरुष बहुत प्रकारके मणियों की किरणोंसे सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाले चमकते हुए उन्नत उत्तम मुकुटको धारण करनेवाले, शरत्कालीन मेघोंसे निकले हुए सूर्य के समान देदीप्यमान कुण्डलोंसे भूषित, वर्षाकालमें उत्पन्न हुई प्रकाशमान बिजली के समान उज्ज्वल तेजवाले मेखलाकलापले संयुक्त, सान्द्र घन ( बादल ) रूपी पंकसे रहित चन्द्र के समान धवल लम्बे उत्तम हारसे सुशोभित, मरकत रत्नों से निकली हुई किरणोंसे विस्तारको प्राप्त हुए मेरु पर्वत के समान धैर्यशाली, बहुत प्रकार के रत्नोंसे व्याप्त सागरके समान गम्भीर मर्यादावाले, बहते हुए मदरूपी झरने से युक्त होकर पर्वतकी उपमाको धारण करनेवाले सरस मत्त गजके समान गमन करनेवाळे, तरुण चन्द्रके समान धवल तीक्ष्ण नखें|प्ते हाथीको विदारण करनेवाले सिंहके समान पराक्रमके धारक, मृगमद ( कस्तूरी ), कपूर, अगरु और हरित् चन्दनके समान सघन परिमल से सुगन्धित, नाना गुणगणोंसे सहित, दानफलके आभोगों से सम्पन्न; तथा इल, मूसल, कलश, चामर, सूर्य, चन्द्र और भवन आदि रूप चिह्नों से युक्त दिखते हैं ।। २४०-२४५ ॥ समस्त अतिशयोंके समूइसे सहित, आठ मद्दा प्रातिहार्यो से संयुक्त, और पद्मनन्दिसे नमस्कृत, ऐसे अभिनन्दन जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २४६ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संग्रह में पर्वत, नदी व भोगभूमि वर्णन नामक तृतीय उद्देश समाप्त हुआ ॥ ३॥ १ प ब द्रुमाण हवंत. २ उ प ब जाणिय, ३ उपणिहर ६ प ब संपुण्णा. FFI .08 1 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चउत्थो उहेसो] सुमइ जिगिंदं पणमिय सुविसुद्धचरित्तणाणसंपणं । सुपहुत्तरयणसिहरं सुदंसणं संपवक्खामि || सम्वागासस्स तहा तस्स दु बहुमजादेसैभागम्मि । लोगो भगाइलिहणो णिहिट्ठो सम्वदरिसीहि ॥२ लोयस्स ठिदी या वलहीमायार होइ णिहिट्ठा । पुम्वावरेण दीहो उत्तर तह दक्खिणे रहसो ॥१ पुष्वावरेण लोगो मूले माझे तहेव उवरिस्मि । परवेत्तासणझक्करिमुदिंगसंठाणपरिणामो॥ उत्तरदक्षिणपासे संठाणो टंकठिषणगिरिसरिसो। महवा कुलगिरिसरिसो मायदचउर्रसदरणमिणो । ५ उवरीदो णीसरिदो पाटो पुण घेव होइ णिस्सरिदो । उत्तरदक्खिणपासे णिहिट्ठो सम्वदरिसीहि ।। देवच्छंदैसमाणो छज्जासरिसोय तणघरसमाणा । पत्रीपरखसमाणो देहिमभागस्स संठाणो ॥. छज्जाए जह भंते छज्जो घडिदो व मज्मसंठाणो । बोहिस्थतलसमाणो कवडियोपुट्ठिसरिसो वा ॥ . अतिशय विशुद्ध चरित्र एवं ज्ञानसे सम्पन्न सुमति जिनेन्द्रको नमस्कार करके प्रभूत ( बहुतसे ) रत्नशिखरोंसे संयुक्त सुदर्शन मेरुका वर्णन करता हूं ॥१॥ सर्वदर्शियोंने सर्व आकाशके बहुमध्यदेश भागमें अर्थात् ठीक बीच अनादि-निधन लोक निर्दिष्ट किया है ॥२॥ लोककी स्थिति वलभी अर्थात् ढालू छतके भाकार कही गई जानना चाहिये । यह लोक पूर्व-पश्चिममें दीर्घ और उत्तर तथा दक्षिणमें दूस्त है ॥ ३ ॥ यह लोक पूर्व-पश्चिममें मूलमें उत्तम वेत्रासन, मध्यमें झालर, तपा उपरिम मागमें मृदंगके आकारसे परिणत है ॥ ४ ॥ लोकका आकार उत्तर-दक्षिण पार्य भागमें टांकीसे उकेरे हुए पर्वतके सदृश है । अथवा आयतचतुरस्र व किंचित् नमित वह लोक कुलपर्वतके समान है ॥ ५ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा वह लोक उत्तर-दक्षिण पार्श्व भागमें ऊपरकी ओरसे निःसृत अर्थात् बाहर निकला हुआ, फिर संकुचित हुआ, तथा फिरसे भी निःसृत बतलाया गया है।॥ ६ ॥ उक्त लोकके अधस्तन भागका आकार देवच्छंद ( जिन भगवान्का आसन ) के सदृश, छज्जाके सदृश, तृगघरके सदृश, अयत्रा पक्षीके पंख समान है।॥ ७ ॥ जिस प्रकार छज्जाक अन्तम अर्थात् छज्जाकी [ समतल ] घटना होती है वैसा मध्य लोकका आकार है । तथा ऊर्थ लोकका आकार बहित्र अर्थात् नावके तल सदृश, कपर्दिका ( कौड़ी ) के पृष्ठ भागके समान, अथवा शिखरपर उलटा किये .................... १पद बहुमज्मदेस. २ उ उत्तर दह दक्खिणे. श उत्तर दक्षिणे. ३ उश देतासणि. ४ पद पाठो. ५ उ श णिस्सरिदे. ६ ५ ब पासो. ७ ब देवद. ८ श समो. ९प बन्जयिससरिसो. १० ब समाणेण. ११ प वोहित्यतल, उब घोहितल, १२ उ कबलियापुष्टि पकवलीयापुठि, ब कबलीया. पुब्धि, शकेवलियापुद्धि. जं. दी.. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] जंबूदीवपण्णत्ती छन्वुडेसरावसिहरी उवविठ्ठसरावसंपुडायारो' । पिरचो अणाइणिहणो तसथावरमसुगणावासो' || ९ पुग्यावरेण या ससेव य तस्स होति रज्जूणि । दक्खिणउत्तरपासे एमओ रज्जू समुट्ठिो ॥ १० माझे सिहरे य पुणो एया रज्जू य होह विस्थिण्णा । मूले" य बमलोए सत्त दु तह पंच रज्जूणि ॥" उच्छेहेण य णेया चउदसरज्जू जिणेहि पण्णत्ता । सत्तेव य आयामो विक्खंभो होइ एक्को दु ॥ १२ तस्स दु मजो गेयो लोगो पंचेंदियाण णिहिट्ठो । झल्लीमायारो खलु णिदिठ्ठो जिणवरिंदेहि ॥ १३ तसजीवाणं लोगो चउदहारज्जूणि होइ उच्छेहो । विक्खंभायामेण य एया रज्जू मुणेयवा ॥ १४ पंचेंदिवाण लोगे वादरसुहुमा जिणेहि पण्णत्ता | परदो बादररहिदो सुहुमा सम्वस्थ विण्णेया ॥ १५ पच्छिमपुष्वरिसाए विक्खंभो तस्स छोह लोयस्स | सत्तेगपंचएया मूलादो होति रज्जूणि ॥ १६ दक्खिणउत्तरदो पुण विखंभो होइ सत्त रज्जूणि ! चदुसु वि दिसाविभागे घउदस रज्जूणि उत्तुंगो ॥१७ लोयस्स तस्स या अणेयसंठाणरूवजुत्तस्स । उवमादीदत्स तहा बहुभेदपयत्यगन्भरस ॥ १८ हुए सकोरेके शिखरके सदृश; एवं समस्त आकार शरावसंपुट अर्थात् दो सकोरोंको एकके ऊपर दूसरा उलटा कर रखे हुए सकारोंके आकारका है । यह लोक अनादिनिधन तथा त्रस और स्थावर जीवोंका निवासस्थान है ॥ ८-९॥ यह लोक पूर्व-पश्चिममें सात राजु और दक्षिण-उत्तर पार्श्वमें एक राजु (?) कहा गया है ॥१०॥ उक्त लोक मध्यों व शिखरपर एक राजु, मूलमें सात राजु, और ब्रम्हलोकमें पांच राजु विस्तीर्ण है ॥ ११॥ जिनमगवान्ने उक्त लोकका उत्सेध चौदह राजु, आयाम सात . राजु और विष्णम्म एक राजु (1) प्रमाण कहा है ॥ १२॥ जिनेन्द्र भगवान्न उसके मध्यमें झालरके आकार पंचेन्द्रियोंका लोक कहा है ॥ १३ ॥ त्रस जीवोंका लोक (सनाली ) चौदह राजु ऊंचा और एक राजु प्रमाण विष्कम्भ व थायामसे युक्त जानना चाहिये ॥ १४ ॥ जिन भगवान्ने पंचेन्द्रियोंके लोकमें बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकारके जीव बतलाये हैं। इसके परे वह बादर जीवोंसे रहित है। सूक्ष्म जीव सर्वत्र जानने चाहिये ॥ १५॥ उस लोकका विष्कम्भ पूर्व-पश्चिम दिशामें नीचेसे क्रमशः सात, एक, पांच और एक राजु प्रमाण है ॥ १६॥ उक्त लोकका विष्कम्म दक्षिण-उत्तर दिशामें सात राजु है । उंचाई उसकी चारों ही दिशाविभागमें चौदह राजु प्रमाण है ॥ १७॥ बहुत प्रकारके पदार्थोंको गर्भमें धारण करनेवाले और अनेक भाकार व रूपसे संयुक्त उस उपमातीत ( अनुपम ) लोकके बहुमध्य देशमें दूने दूने १ब सम्वुदु, श उबुद्ध. २ उ श उवदिवसागव. प व उवविद्वस राव ३ प ष संपुष्यारो. ४ उश असगुणावासो, पब भणुगणावासो. ५ उ प ब श मूलो. ६श झल्लय, ७ उ पब श लोगो. ८ उश सहुमाए निणेहि, पब सुहुम जिणहि. ९५ ब दिसामु भागे. १० उ श उवमादीतस्स. ११ पब गतस्स. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.२८ चंउत्यो उदेसी [५९ तस्स बहुमजावेसे दुगुणा दुगुणा हवंति विस्थिण्णा । बहुविहंदीवसमुहा माणामणिकणयसंचण्णा । १९ गणणादाण' वहा सापरदीवाण मज्झमागम्मि । होदि हुअंदीवो तस्स दु मज्से विदेहो दु ॥ ३० मंदरमहापलिंदो विदेहमम्मम्मि होइ णिहिट्ठो । जम्माभिसेयपीढो जिगिंदयंदाण' णायम्बी ॥१॥ मोगादों बज्नमयो सहस्स वह जोयणो समुट्ठिो । णवणवदि उग्छेहो णाणामणिरपणपरिणामो ॥ ११ पायालतले गेया विक्खंभायाम तस्स मेरुस्स । दस य सहस्सा गउदि य दस चेव कला मुणेषम्वा ॥ २३ धरणीपट्टे या दस चेव सहस्स भइसालवणे | लिहरे एयसहस्सा विस्थिण्णों पंडुकवणम्मि ॥ २४ मूले मो उवरि बज्जमभो मणिमओय कणयममो। तह एयं च सहस्सा इगिसटिसहस्स भरती ॥२५ घणसमयघणविणिग्गयरविकिरणपुरंतभासुरी दियो । बहुविविहरयणमंडियवसुमहमरगे व उत्तुंगो॥२६ तियासिवसाहयसुरवरकर्यजम्मणमहिगतरणिग्धोसो। जिणमहिमजणियविक्कमसुरवणचंतरमणीमो ॥२७ ससिधवलहारसंणिभखीरोवहिउच्छलंतसलिलोहो । सुरसयसहस्ससंकुलकोलाहलरावरमणीभो ॥ २८ . ......................................." विस्तारवाले तथा नाना मणियों व सुवर्णसे व्याप्त बहुत प्रकारके द्वीप-समुद्र जानना चाहिये ॥ १८-१९ ॥ उन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मध्य भागमें जम्बू द्वीप और उसके भी मध्यमें विदेह क्षेत्र है ॥ २०॥ विदेइके मध्यमें जिनेन्द्र-चन्द्रोंके जन्माभिषेका पीठ (आसन ) स्वरूा मन्दर महाचलेन्द्र (भेरु) कहा गया है ॥ २१॥ नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप उक्त पर्वतका वज्रमय अवगाढ (नीव) एक हजार योजन और उंचाई निन्यानौ हजार योजन प्रमाण कही गई है ॥ २२ ॥ उस मेहका विष्कम्भ व आयाम पातालतलमें दश हजार नब्बै योजन और दश कला (१००९०११) प्रमाण जानना चाहिये ।। २३ ।। उक्त मेरु पृथिवीपृष्ठपर भद्रशाल वनमें दश हजार योजन प्रमाण तथा शिखरपर पाण्डुक वनमें एक हजार योजन प्रमाण विस्तीर्ण है ॥ २४ ॥ मेरु पर्वत मूलमें एक हजार योजन प्रमाण वज्रमप, मध्यमें इकसठ हजार योजन प्रमाण मणिमय, और ऊपर अड़तीस हजार योजन प्रमाण सुवर्णमय है ॥ २५ ॥ मणि, सुवर्ण, रत्न एवं मरकत रूप. पृथिवीको धारण करनेवाला वह सुमेरु रूप नरपत वर्षाकालमें मेघोंसे निकले हुए सूर्यको किरणोंसे प्रकाशमान, दिव्य, विविध प्रकारके बहुतो रत्नोंसे मण्डित पृपिवीके मुकुटके समान उन्नत, इन्द्र सहित उत्तम देवों द्वारा की गई जन्ममहिमा (जन्मकल्याणक) के समय वादिनोंके शब्दसे संयुक्त, जिनमाहात्म्यसे उत्पन्न हुर पराक्रमसे युक्त इन्द्र के सत्यसे रमणीक, चन्द्र अथवा धवल हारके साइश क्षीरोदाधिक उछलते हुए जलसम्हसे १ .२३ गणणादीषण. शनिमिवावाण. ४ उपाओ, पामेना . ५. बस्स. ६ उशपिविण्णा. ७श मासणागेवा, प्रती 'मासुरागा' इत्येवं लिलिया नrat मासु रिमो' एवं संशोषितच पाठोऽस्ति. शतिषसिंह. १-कर. १. उशमस्सि. ११ मिया, भिरोसे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] जैबूदीपणाची ( ४.२९ कष्पतरुजनिय बहुविहपवणवसुच्छलिये कुसुमगंध। । मयरंदरेणुवासिय साणुसिलाविड कवडर मो' || २९ कम्मधणबहलकक्खडसिलचूरणजिणवरिंदभवणोघो । मणिकणयरयणमरगयधरणीहरणरवई मेरू ॥ ३० जो बहुवे। सो हु कडी' जो बहुभागो सि। ति णिद्दिट्ठो । जो उच्चो सो काम सध्वणगाणं समुद्दिट्ठो ॥३१ डिसिर विसुद्ध सयकाय विभाजिदं तु इच्छगुर्ण । सिरसहियं णिडिट्टो इच्छायामं हवे या ॥ ३२ 'दस विक्खंभेण गुणं विश्वंभं तहस लद्ध जं मूलं । वहाण दीवसायरगिरीण परिधी हवे तं तु ॥ ३३ विक्वं भवग्गदस गुणकरणी वहस्स परिरभो होइ । विक्खभचदुम्भागे परिश्यगुणिदे हवे गणिदं ॥ ३४ सहित, लाखों देवेंस व्याप्त होनेपर उनके कोलाहल शब्दसे रमणीक, कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई बहुत प्रकारको वायुके प्रभावसे उछलते हुए कुसुमोंकी गन्धसे व्याप्त, परागकी धूलिसे सुगन्धित सानुशिला युक्त विशाल तटोसे रमणीय, तथा कर्म रूपी अतिशय सघन कठोर शिलाओं को चूर्ण करनेवाले जिनेन्द्र भवनों के समूह से सहित ३ ॥ २६-३० ॥ सत्र पर्वतका जो बहुभाग है वह कटि, जो लघु भाग है वह शिर, और जो उच्च भाग है वह काय कहा गया है ॥ ३१ ॥ कटि और शिरको परस्पर घटाकर शेषमें अपनी कायका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे इच्छासे गुणा करके शिरमें मिला देनेपर इच्छित आयामका प्रमाण जानना चाहिये || ३२ ॥ = उदाहरण- मेरु पर्वत की चूलिकाका विस्तार मूलमें १२ यो. और ऊपर 8 यो. है । उंचाई उसकी ४०. यो. है । अत एव उसका विस्तार इच्छित २० यो. की उंचाईपर इस करणसूत्र के अनुसार इस प्रकार होगा- कटि १२, शिर ४, काय ४०; १४ }; पं x २० = 8, 8 + ४ = ८ यो । विष्कम्भसे गुणित विष्कम्भको दशसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके वर्गमूल प्रमाण वृत्त द्वीप, सागर और पर्वतों की परिधि होती है ॥ ३३ ॥ उदाहरण - मेरुका तलविस्तार १००९० V/१११००० ११'x १० = १५१ १११००० = ११९१० से. ( कुछ अधिक ) तलविस्तार की परिधि । विष्कम्भके वर्गको दशगुणा करके उसका वर्गमूल निकालनेपर वृत्त क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण होता है । इस परिधिको विष्कम्भके चतुर्थ भागसे गुणा करनेपर उसका क्षेत्रफळ प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ उदाहरण - इस करणसूत्र के अनुसार पृथिवीतलपर १०००० यो विस्तृत मेरुका क्षेत्रफल इस प्रकार होगा √१००००×१० = ३१६२३ यो. ( कुछ कम ) परिधि । ३१६२३ × १०००० = ७९०५७९०० वर्ग यो क्षेत्रफळ । ― १ उश पत्रण सुकलिय, प ब पवणत्रछुरिय. २ उप व श रम्मे. ३ उ कम्मम्मणवहलवर, रा कम्माणलक्खद. ४ श णरवरयीमेत ५ उश जो बहुवो हु कडी. ६ गाथेयं नोपलभ्यते पचप्रत्योः । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेउत्यो उद्देसो मेरुस्स इच्छपरिधी' इच्छायामं च इच्छखेत्तफलं । एयग्गेण मणेण य आणिज्जो करणगाहाहि ॥ ३५ इगितीसं च सहस्सा व य सया जोयणा य दस चेव । बे य कला साहीया महोतले परिरओ तस्स ॥३॥ इगितीसं च सहस्सा छच्च सदा जोयणा य तेवीसा । किंचिविसेसेशृणा उवरितले परिरय' तस्स ॥३७ . इगितीसं च सदाई बावट्टि जोयणा य साधीया। मंदरसिहरे परिधी णिदिट्टा सव्वदरिसीविं॥३८ कडिसिरविसेसअद्धम्हि वग्गिदे कायवगावक्खित्ते । तस्स वग्गमूलं तं खलु बाई वियाणादि॥३९ वण उदि च सहस्सा सदं च बेचेव जोयणाणं तु । सविसेसों' बोद्धव्वा रज्जू मेरुस्स पस्सभुजा ॥ ४० वजिदर्ण लमरगयकक्केयणरयणकणयपरिणामो । अचलो अणाइणिहणो चदुकाणणमंडिभो मेरू' ॥" णामेण भसालो सुरखेयरंगरुडकिण्णरावासो । मेरुस्स पढमकाणण णाणातहाणरमणीमो ॥१२ पावसं च सहस्सा पुष्वावरविस्थटो परमरम्मो। भायामेण वियाणह विदेहविक्खंभपरिगाणो ॥४३ चंयकर्भवपउरी भसोयपुण्णायणायसंछगणो । मंदारसालणिवही सत्तच्छयचूयवर्णणिचिो ॥४१ इन करणगाथाओंके द्वारा मेरुकी इच्छित परिधि, इति आयाम और इच्छित क्षेत्रफलको एकामगन होकर लाना चाहिये ॥ ३५ ॥ मेहके नीचे परािधिका प्रमाण इकतीस हजार नौ सौ दश योजन और साधिक दो कला है ॥ ३६ ॥ उपरिम भागमें उसकी परिधिका प्रमाण इकतीस हजार छह सौ तेईस योजनसे कुछ कम है- १००.०४ १०= ३१६२३ यो. से कुछ कम ॥ ३७ ॥ मेरुशिखरपर परिधिका प्रमाण सर्वदर्शियोंने इकतीस सौ बासठ योजनसे कुछ अधिक कहा है ४१००.२४ १० = ३१६२ यो. से कुछ अधिक ।। ३८ ॥ कटि और शिरको परस्परमें घटाकर जो शेष रहे उसके वर्गमें कायके वर्गको मिला देने पर जो उसका वर्गमूल हो उतना बाहु (पार्श्वभुजा) का प्रमाण जानना चाहिये ॥ ३९ ॥ मेरुकी पार्श्वभुजाका प्रमाण निन्यानबै हजार एक सौ दो योजनसे कुछ अधिक है- 111००००-१०००) + ९९... = २०२५००००+९८०१०००००० = ९९१०२ यो. (कुछ अधिक) ॥ ४० ॥ वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन रत्न एवं सुवर्ण के परिणाम रूप वह अनादि-निधन मेरु पर्वत चार वनोसे मण्डित है ।। ४१॥ देव, विद्याधर, गरुड (देवविशेष) और किन्नरोके आवास रूप मेरुका भद्रशाल नामक प्रथम वन नाना वृक्षोंके वनोंसे रमणीय है ॥ ४२ ॥ अतिशय रमणीय वह भद्रशाल वन पूर्व-पश्चिममें बाईस हजार योजन प्रमाण विस्तृत है । उसका आयाम विदेह क्षेत्रके विस्तारके बराबर जानना चाहिये ॥ १३ ॥ उक्त वन प्रचुर चम्पक एवं कदम्ब वृक्षासे सहित अशोक, पुनाग व नाग वृक्षोंसे व्याप्त, मन्दार व शाल वृक्षोंके समूहसे संयुक्त, सप्त छद व ............ १प य मेरुस्स इह परिधी, श मेरुस्स परिधी. २ उ तले परिरओ तस्स, शतले मस्स. ३५ 'अहि मग्गदे. उश अबिसेसो. ५शककरणकणय. ६पब मत्तो.७श खेयल.८उ सत्तब्यच्यवण, पब सत्तभ्यषण, शमत्तस्यव्यवण. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) जग्बूदीपणाची कप्पणियरको तमालहितालतालवाउलिदो । लवलीलवंगकलिदो बइमुत्तख्याउलसिरीयो ॥ ४५ णारंगफणसपड़रो कदलीवणमंदिसो परमरम्मो । बहुजादिमल्लिखचियो कुंदणकटयपरियरिभो ॥ ५६ वरणालिएररहमो पूराफलतरुवरेहि रमणीमो । तंबूलवलिगणो कुंकुमघरछेहि पिंचामो ॥ १७ एकामिरीहणियहो कक्कोलाजान्दिपलसमिद्धो य । चंदणपायवेणिधिमो भगळयाकथुरियसमग्गो ॥ ४८ तस्स बास्पदु मज़ो जिणियंदाण' विगमोहाणं । कंचणमणिरयणमया चत्तारि इति भवणाणि ॥ ४९ सोसयमायामा पपणासा विस्थड़ा समुहिट्टा । पण्णत्तरि उच्छेहा जाणामणिरमणपरिणामा ॥ ५० भदेव जोडणाई उच्छेहा होति ताण दाराणि चडजोयणविधिण्णा विस्थिपणसमप्रवेसा ॥५॥ सोलसडोयणदीदा पीडामा होति ताण णिहिता । भट्टेव य उबिदा ममिकिरणवलसतिमिरानो ॥ ५२ तेसु जिणा परिमा पंचधणुस्सयपमाणइच्छेहा । होति सुरासुरमहिश णःणामणिकणयपरिणामा ॥ ५५ एवं चेव दुणेवा गंदीसर चेय णाम दीवस्स । वाणजिणघराणं विखंमायामउदा ॥१॥ भान वृक्षोके वनोंसे व्याप्त, कर्पूर वृक्षोंके समूहसे युक्त; तमाल, हिंताल एवं ताळ वृक्षोंसे व्याकुलित; लवली व लवंग वृक्षोंसे कलित, अतिमुक्त लताओंके समूहसे सुशोभित, नारंग व पक्स वृक्षोसे प्रचुर, कदलीवनसे मण्डित, अतिशय रमणीय, बहुत जातिके मल्लि ओंसे खचित, कुंद, अर्जुन एवं कुटज वृक्षोंसे वेष्टित; उत्तम नालिकेर वृक्षासे निर्मित, सुपारीक उत्तम वृक्षोंसे रमणीय, ताम्बूल बेलोंसे गहन, कुंकुम वृक्षसे मस्ति , इलायची. व मिरिचके वृक्षसमूहसे युक्त, ककोल व जातिफलॉस समृद्ध, चन्दन वृक्षोंसे निचित, तथा अगरलता व कस्तूरीसे समग्र है ॥४१-४८॥ उस बनके मध्यमें मोहसे रहित हुए जिनेन्द्र रूप चन्द्रोंके सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे निर्मित चार भवन हैं ॥ १९ ॥ नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप वे जिनभवन सौ योजन बायत, पचास योजन विस्तृत और पचत्तर योजन ऊंचे कहे गये हैं ॥ ५० ॥ उक्त जिनमवनोंके द्वार आठ योजन ऊंचे, चार योजन विस्तृत और विस्तारके समान प्रवेशवाले होते हैं ॥५१॥ मणिकिरणोंसे अन्धकारको नष्ट करनेवाले उनके पीठ सोलह योजन दीर्घ और आठ योजन ऊंचे होते हैं ॥५२॥ उनके ऊपर सुर व असुरोंसे राजित माना मणियों एवं सुवर्णके परिणाम रूप पांच सौ धनुष ऊंची जिनप्रतिमायें होती है ॥५३ ।। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर नामक द्वीपके बावन जिनगृहोंके भी विष्कम्भ, आयाम और उंचाईका प्रमाण जानना चाहिये ॥५४॥ सब ही भद्रशालोंमें स्थित जिनगृह तीन छत्र, सिंहा प १हितालतालवारलदो, श हितालवाव्यो. २५ महणे. उशगोस पिचली, कुमणहि बिविय ४५समयो. ५ पाक्य, श पाल.. ६५ अर. बिगिंदोबाण. सा, शोषणाए य. १५वहति ताणि दूराणि, यति इससुमागण. १.पपरेसो. ११पब बलिद. १२ तेसि. १३ मिणध्वताणं. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. ६३ ] च उत्यो उद्देसो [ ६३ छत्तत्तय सीहासणभामंडलच्चामर। दिसंजुता । बहुकुसुमन रिसद् दुहिम सोय रुक्खेदि अहिरामा' ॥ ५५ भिंगार कल सदरपण बहुधवलचामरसणाद्दा | घंटापडायपउरा मंगलकलसेहिं संछष्णा ॥ ५६ बहुविविधपुष्पमाला मुप्तादामेहि सोहिया' रम्मा । दज्ांतर्धूमणिवहा बहुकुसुमकयच्चणसणाद्दा ॥ ५७ सिदद्दरिक सणसामरत्तं सुयपट्टसुत्तनिवदेहि । बहुविधयमाला उलपवणपणच्चंत सोहंता ॥ ५८ वरपडद्दभेरिमद्दल भंभावीणादिकं सतालेहिं । वज्र्जततूरपउरा काहलकोलाहलरवेहिं ॥ ५९ संगीस दबहिरियच्छरणच्चतमणहराकोय। " । पवरच्छराहि भरिया सुरवरणिनद्देहिं सोहंता ॥ ६० रयणमयवेदिणिवा मणितोरणबहुविहेद्दि छज्जेता" | वरणेसालपउरा अहिले यघरेहिं रमणीया ं ॥ ६१ पोक्खर निवाविवप्पिण बहुभवणविचिन्तकप्प रुक्खे हैं । सोइति जिणाण घरा सम्वेसु वि भद्दसालेसु ॥ ६२ एवं जे जिणभवणा निदिट्ठा भद्दसालवणंसंडे | वउसु वि भवसेसु वि वणेसु ते होंति मजुद्धा ॥ ६३ सन, मामण्डल और चामरादिस संयुक्त; बहुत कुसुमवृष्टि, दुंदुभि और अशोक वृक्षों से रमणीय श्रृंगार, कलश, दर्पण, बुद्बुद और बहुतसे धवल चामरोंसे सनाय घंटा एवं पताकाओं से प्रचुर, मंगलकलशों से व्याप्त, बहुतसी पुष्पमालाओं एवं मुक्कामालाओं से शोभित, रमणीय, ऊपर उठते हुए धुंएके समूह से सहित, बहुतसे फूलों द्वारा की गई पूजासे सनाथ; धवल, हरित, कृष्ण, श्यामल और रक्त वस्त्रों व रेशमी वस्त्रोंके समूह से शोभायमान; वायुसे प्रेरित होकर नाचनेवाली बहुत प्रकारकी ध्वजाओं के समूह से रमणीय, उत्तम पटह, मेरी, मईल, मंभा, बीणादि एवं कांस्पतालों तथा काहलके कोलाहल शब्दों के साथ बजते हुए प्रचुर चाजोंसे सहित; संगीत शब्दसे बहिरी हुई अप्सराओंके नृत्य से मनोहर दिखनेवाले, श्रेष्ठ अप्सराओंसे परिपूर्ण, उत्तम देवोंके समूहों से शोभायमान रत्नमय वेदियों के समूहसे युक्त, बहुत प्रकारके मणितोरणोंसे सुशोभित, उत्तम एवं प्रचुर नाट्यशालाओंसे साइत, अभिषेकगृहोंसे रमणीय तथा पुष्करिणी, वापियों एवं वप्रिणियोंसे सहित, बहुत प्रकारके भवनों व विचित्र कल्पवृक्षों से शोभायमान हैं ॥ ५५-६२ ॥ इस प्रकार जो जिनभवन भद्रशाल वन खंडमें कहे गये हैं उनसे आधे आधे वे शेष चारों ही वनों हैं ॥ ६३ ॥ उनका उत्सेध, १ उश दाहि. २ उ अहिराम. प ब अ सेरामा, श अराम. ३ श वुल्वध ४ विविहमंडमाला. ५ड सोसिया, श सोईया. ६ उश उकंत, प उसंत, ब ( अष्पष्टम् ). ७ उश सुतानिवे, प ब हि. ८ श विहुविह. ९ उपवणपणअंत, श पवलपणभ्वंत. १० उश सिंगीय. ११ प ब महिरिया. १२ व मणहराचोहा. १३ प प्रत्याः ६१-६२तमगाथयोर्व्यत्ययो दृश्यते । १४ वा सोहंता १५ उपया पह Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.) जंबूदीवपण्णत्ती [१.६४उन्छेहा मायामा विक्खंभा जोयणा य जे दिवा । गंदणसोमणपंडुववणेसु ते होति मखदा ॥ ६४ जंबूतीवस्स जहा मेस्स हवंति दिवमिणभवणा । सेसाण मेरूण तह एव इति जिणभवणा ॥ १५ जह भहसालवणे जिणभवणा वण्णिदा समासेण | तह वण्णणा य सेसा सोमणसादीसु वि वणेसु ॥६६ एकेक्कवरणगाणं वणसंडा सोलसा समुट्ठिा । सन्वेसु वर्गसु तहा जिणभवणा हॉति णायावा ॥ ६७ मंदरवणेसु गया जिणभवणाणं पमाणपरिसंखा । मसिदी इति विट्ठा उत्तमणाणप्पदीवेहि ॥ ६८ एवं उत्तमभवणा' सम्वे वि हवंति कंचणमयाणि । णाणारयणविचित्ता णिच्चुज्जोवा सुगंधडा ॥ ६९ सम्व भणाइणिहणा सम्वे वरदिग्वरूवंसपण्णा । सम्वे मतिरूवा सम्वे बहुदेवदेविसंपण्णा ॥ ७० सम्चे तोरणणिवहा सम्वे वरवेदिएहि संजुत्ता। सम्वे सणसाला सध्वे सोही जिणभवणा ॥.. मंदरमहागिरीण जिणभवणावण्णणा जहाचेव । भवससाण गिरीण जिणभवणावण्णणा तह य ॥ ७२ सम्वाण गिरिवरा जिणवरभवणा जहा समुद्दिटा । सम्वाण दीवाणं जिणवरभवणा तहा चेव ॥ ७३ आयाम और विष्कम्भ जितने योजन प्रमाण भद्रशाल वनमें कहा गया है, उससे वह उत्तरोत्तर आधा आधा होता हुषा नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनमें है ॥ ६४ ॥ जिस प्रकार जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुके दिव्य जिनभवन हैं, उसी प्रकार शेष मेरुओंके भी जिनभवन होते हैं ॥६५॥ जिस प्रकार भद्रशाल वनके जिनभवनोंका संक्षेपसे वर्णन किया है, उसी प्रकार शेष सौमनसादिक वनों में भी स्थित जिनभव।का वर्णन रना चाहिये ॥ ६६ ।। एक एक उत्तम पर्वतके सोलह वन-खंड कहे गये हैं। तथा इन सब वनोंमें जिनभवन भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥६७ ॥ मन्दर पर्वत सम्बन्धी वनोंमें जिनभवनोंके प्रमाणकी संख्या असी है, ऐसा उत्तम ज्ञानरूपी दीप से संयुक्त जिन भगवान्ने कहा है ।। ६८ ॥ इस प्रकार सब ही उत्तम भवन सुवर्णसे निर्मित, नाना रत्नोंसे विचित्र, नित्य प्रकाशमान, सुगन्ध गन्धसे व्यात, सब ही अनादि-निधन, सब ही उत्तम दिव्य रूपसे सम्पन्न, सब ही अचिन्त्य रूपसे सहित, सब ही बहुतसे देव-देवियोंसे व्याप्त, सब ही तोरणसमूहसे संयुक्त, सब ही उत्तम वेदियोंसे सहित, तथा सब ही जिनभवन नाट्यशालाओंसे सहित होते हुए शोभायमान हैं ॥ ६९-७१ ।। जिस प्रकार मन्दर महापर्वतों सम्बन्धी जिनभवनोंका वर्णन किया गया है, उसी प्रकार शेष पर्वतोंके जिनभवनों का वर्णन समझना चाहिये ॥ ७२ ॥ जिस प्रकार [ जम्बूद्वीप ] सम्बन्धी सब श्रेष्ठ पर्वतोंके जिनेन्द्रभवन कहे गये हैं, उसी प्रकार सब द्वीपोंके [ पर्वतोपर ] जिनेन्द्रभवन समझना चाहिये ॥ ७३ ॥ भद्रशाल वनमें मेरुके प्रदक्षिण क्रमसे १उ जोयणाण णिट्ठिा. श जोयणा णिविट्ठा, २उणंदसणसोमण, श णंदशणसोमण, ३ ब पंडवणे. ४५ ब अवणा. ५ उणिक नोवा, श णिक जोवा. ६ पब बहुदेवासछण्णा. ७पब सेजुलता. ८ उ श सपहसाला, पब सुपहसाला. ९पब मंदिर. १०उ भवणाण जहा, श भवणावष्णाण जहा. ११श जीवाणं, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. ८11 चउत्यो उद्देसो [१५ ताहि चेव भइसाले मेरुस्स पदाहिणेण णिहिट्ठा । णामेण दिसगइंदा भट्टेव य पम्वया हॉति ॥ ७॥ पउमोत्तरी य जीलो सोवस्थिय भंजणो य कुमुदो य । पम्वदपलासणामो भवदंसो रोयणगिरी 4' ॥ ७५ सपजायणगोनदा सयजायणवित्थडा हु मूलेसु' सिहरसु य पण्णाला पणुवीसा गाढ भरणियले ॥ ॥ सीदासीदादाणं तदेसु ते होंति पबदा रम्मा । एकेकाण णदीणं चउरो पटरो य णायम्वा ॥७ वणवेदीपरिखित्ता मूलेसु तहा णगाण सिहरेसु । मणितोरणेहि रम्मा णाणामणिरयणदिपंता ॥.८ सिहरेसु देवणपरा णाणापासादभूसिदा रम्मा | सुरसुंदरिसंछण्णा वरपोक्खरिणीहि कयसोहा || ०९ धुवंतपयवाया जिणभवणविहूसिया मणमिरामा । सुरसयसहस्सपउरा भणाइणिहणा हु गयरा ॥ ८. णयरेसु तेसु राया णामेण य दिसगइंदणामसुरा । पलिदोवमाउगा ते अच्छति महाणुभावेण ॥ ८॥ पंचसया उच्चत्तं मंदरतलपीठियांखिदितलादो । विधिण्णा पंचसया पढमा सेटी णगवरस्स । .. वर्णवेदीपरिखित्ते मणितोरणमंदिदे पढमपीढे । चदुसु वि दिसासु रम्मा सुरभवणा ति चत्तारि ॥ स्थित बाठ दिग्गजेन्द्र नामक पर्वत कहे गये हैं ।। ७४ ॥ पनोत्तर, नील, स्वस्तिक, अंजन, कुमुद, पलाश पर्वत, अवतंस और रोचनगिरि, ये उन दिग्गज पर्वतोंके नाम हैं ॥ ७५ ।। उक्त पर्वत सौ योजन ऊंचे, मूलमें सौ तथा शिखरोंपर पचास योजन विस्तृत, और पृथ्वीतलमें पच्चीस योजन अवगाहसे युक्त हैं ।। ७६.॥ वे रमणीय पर्वत सीता-सीतोदा नदियों में से एक एकके तटोंपर चार चार जानने चाहिये ॥ ७७ ॥ उक्त पर्वत मूलमें और शिखरोंपर वनवेदीसे वेष्टित, मणिमय तोरणोंसे रमणीय और नाना मणियों एवं रत्नोंसे देदीप्यमान हैं ।। ७८ ॥ पर्वतोंके शिखरोंपर जो देवनगर हैं वे नाना प्रासादोंसे भूषित, रमणीय, सुरसुन्दरियोंसे व्याप्त, उत्तम पुष्करिणियोंसे शोमायमान, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, मनको अभिराम, लाखों देवोंसे प्रचुर और अनादि-निधन हैं ॥ ७९-८० ॥ उन नगरोंमें जो दिग्गजेन्द्र पर्वतोंके समान नामवाले अधिपति देव हैं वे पत्योपम प्रमाण आयुके धारक होते हुए वहां महा प्रभावके साथ रहते हैं ॥ ८१ ॥ मन्दरतलपीठिका रूप. पृथिवीतलसे पांच सौ योजन ऊपर जाकर पांच सौ योजन विस्तीर्ण मेरु पर्वतकी प्रथम श्रेणी (प्रथम परिधि) है ।। ८२ ॥ पनवेदीसे वेष्टित एवं मणिमय तोरणांसे मण्डित उक्त प्रथम पीठपर चारों ही दिशाओंमें रमणीय चार देवप्रासाद हैं ।। ८३ ॥ वहां सोम, यम, वरुण और कुबेर उ गरीपा, श गरी य. २ उश वित्थडा यति मूलेस. ३ उश जिहरेस. ४ ड परश गगण. ५ उश भूमिदा, व भूमिया. (प मंदिरगिरिपोटिया, व मंदिरगिरिलटिया. ७ उ शखिदितला. ८ उशषण, ९ उश दिससु. नं.दी.. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जेवण [ ४. ८४ मणिभवण चारणाय गंधग्वणिवासचित्तणामाणि । सोमजमवरुणघणवइदवाणं कीडणागेहा ॥ ८४ चिक्सभायामेण य जोयणतोसा हवंति जायन्त्रा । पण्णासा उत्तुंगा वरभवणा रयणपरिणामा ॥ ८५ दवणमि या ते भवणा विविहरयणपरिणामा । पुन्त्रादिदिसविमागे पदाहिणा' होंति मेहस्स ॥ ८६ भट्टा कोडीओ गिरिकण्णाभो हवंति भवणेषु । एक्क्रेक्केसु वियाणद णिद्दिट्ठा जिणवरिंदेहि ॥ ८७ हायपण वजे । ग्वणैभच्छेन यपेच्छणिज्ज सम्वा हुँ । सोमादीदेवाणं णायध्वा होति कण्णाओ ॥ ८८ सोमपास पंडुयाणं एसेव कमो हवइ णायध्वो" । देवीण परिसंखा भवणाणं चात्रि एमेवे ॥ ८९ जवरि विसेसो जाणे उच्छेद्दायाम वह र्य विक्खंभा । णामाणि य भवणाणं अण्णणं' होंति मिडिट्ठा : ९० वज्जमवणेो य णामो वज्जप्पह तह सुवण्णणामा य । अवरो सुवण्णतेमो सोमणसवणस्स णायध्वा ।। ९१ विक्सभायामेण य पण्णरसा जोयणा समुद्दिट्ठा | 'पणुवीसा उच्छेद्दा वरभवणा होंति रयणमया ॥ ९२ कोहिय अंजणणाम हारिद्दों" भवण सेदणामो य । पासादा पंडवणे णाणामणिरयणसंछण्णा ॥ ९३ विक्स भाषामैण य भट्ट" जोयणा समुद्दिट्ठा। भद्वत्तेरसतुंगा रयणमया पंडुवणगेहा ॥ ९४ देवोंके क्रमशः मणिभवन ( मान, मानी ), चारणालय, गन्धर्वनिवास और चित्र नामक क्रीडागृह है ॥ ८४ ॥ रत्नों के परिणाम रूप वे उत्तम भवन तीस योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित तथा पचास योजन ऊंचे जानना चाहिये ॥ ८५ ॥ विविध रत्नोंके परिणाम रूप मे भवन नंन्दन वनमें मेरुके प्रदक्षिणक्रमसे पूर्वादिक दिशामागमें स्थित हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८६ ॥ एक एक भवनमें साढ़े तीन करोड़ गिरिकन्यायें होती हैं, ऐसा जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट किया गया जानो ॥ ८७ ॥ आश्चर्यजनक लावण्य, रूप और यौवन से दर्शनीय उक्त सब कन्यायें सोमादिक देवोंकी जाननी चाहिये ॥ ८८ ॥ यही क्रम सौमनस और पाण्डुक बनमें स्थित गृहोंका भी जानना चाहिये। वहां देवियों व भवनों की भी संख्या समान है ॥ ८९ ॥ विशेष केवल इतना जानना चाहिये कि भवनका उत्सेध, आयाम तथा विष्कम्भ और नाम भिन्न भिन्न कहे गये हैं ॥ ९० ॥ वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णतज, ये सौमनस वनके भवनोंके नाम जानना चाहिये ॥ ९१ ॥ उक्त रत्नमयं उत्तम भवन पन्द्रह योजन विष्कम्भ व आयामसे सहित तथा पच्चीस योजन ऊंचे कई गये ॥ ९२ ॥ लोहित, अंजन, हारिद्र और श्वेत ( पाण्डु ), ये पाण्डुक वनमें स्थित रत्नोंसे व्याप्त हैं ॥ ९३ ॥ उक्त उन प्रासादोंके नाम हैं । ये प्रासाद नाना मणियों एवं पाण्डुक धनके रत्नमय भवन साढ़े सात योजन प्रमाण तथा साढ़े बारह योजन ऊंचे हैं ॥ ९४ ॥ फहराती हुई १ उश पदाहिणे ( शप्रतौ ' पदाहिणे' इत्यत आरम्य हवंति मवणे' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितः ). १ उश डोघण. ३ उ प ब श सव्वास. ४ उ श णायव्वा ५ श वात्रि एममेत्र. ६ लह य ७ प ब अण्णाना. ८ बपणारसा ९ प बप्रत्योः १२तमगाथाया उत्तरार्द्ध नोपलभ्यते. १० उ श हारियो ११ उ रा अष्ट्ठट्ठम विष्कम्भ व आयाम से सहित ध्वजापताकाओं से सहित, उत्तम Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो उद्देसो धुम्वतधयवाया वरतोरणमंडिया परमरम्मा । कालागरुगंधडा बहुँकुसुमकयच्चणसणाहा ॥ ९५ सिंहासणसंजुसा कोमलपलंकसयगतलपउरा । पयरच्छराहि भरिया मच्छरयरूवसाराहि ॥९६ सम्वे वि पंचवण्णा णाणामणिकणयरयणसंछण्णा । उदियमंडलणिभा संपुण्णमियंकटम्जोवा ॥ ९७ सोमजमवरुणवासवणामाणं होयवादेवाणं । ते हॉति हु पासादा पुष्वक्कयसुकयकम्महि ॥९८ जोयणसहस्स तुंगो विरियण्णायाम तेत्तिमो दिट्ठो। बलभद्दणामकूडो जाणामणिरयणपरिणामो ॥१५ - पुग्वुत्तरम्मि भागे ईसाणे होह गंदणषणस्स । बलभद्दणामदेवो सिहरम्ति महाबलो वसह ॥... गंदणवण रुभिता पंचसया जोयणा दु णिस्सरिदो । भायासं पंचसया क्षेधित्ता ठाई सो सेलो ॥... सिरम्मि तस्स या देवाण पुरा हवंति रमणीया। पापारगोउरजुदा वावीवणसंडसंजुत्ता ॥१०१ गंदणमंदरणिसधा हिमविजया रुजयसायरा वज्जो'। अहेव समुविठ्ठा मेरुस्स पदाहिणे कूग ॥. विक्खंभायामेण य पंचेव सयाणि होति मूलेसु । उच्छेहा पंचसया तदद्ध सिहरेसु विस्थिण्णा ॥ १०४. तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, कालागरुके गन्धसे व्याप्त, बहुत कुसुमासे की गई पूजासे सनाथ, सिंहासनसे संयुक, प्रचुर कोमल पर्यक ( पलंग) एवं शय्यातलोंसे सहित, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपवाली उत्तम अप्सराओंसे परिपूर्ण, सब ही पांच वर्णधाले, नाना मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे व्याप्त, उदयको प्राप्त हुए सूर्यमण्डलके सदृश, और सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान उद्योतवाले वे प्रासाद सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक लोकपालोंके पूर्वकृत पुण्य कर्मसे होते हैं ॥९५-९८ ॥ नन्दन वनके पूर्वोत्तर माग रूप ईशान दिशामें एक हजार योजन ऊंचा, इतना ही विस्तीर्ण व भायत, नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप बलभद्र नामक कूट कहा गया है। उसके शिखरपर महा बलवान् बलभद्र नामक देव निवास करता है ।। ९९-१०० ॥ वह पर्वत पांच सौ योजन प्रमाण नन्दन वनको रोककर फिर यहांसे निकाल पांच सौ योजन प्रमाण आकाशको रोककर स्थित है ।। १०१ ॥ उसके शिखरपर प्राकार व गोपुरोंसे युक्त तथा वापी और वनखण्डोंसे संयुक्त देवोंके रमणीय नगर हैं ॥ १०२ ॥ [ जिनमवनों के दोनों पार्श्वभागों में ] मेरुके प्रदक्षिण रूपसे नन्दन, मन्दर, निषध, हिम (हिमवान् ), विजय ( रजत), रुचक, सागर और वज, ये आठ कूट कहे गये हैं ॥१३॥ ये कूट मूटमें पांच सौ योजन विष्कम्म व आयामसे सहित, पांच सौ योजन ऊंचे, गौर शिखरोंपर इससे आधे अर्थात् अढाई सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १.१ ॥ नन्दन १ संवद्या. य. उश पराय, पब राय, परय.५. अपक्षक, पब उत्यकश उदयक. श गंदणवमिता.. श निस्सरिद पवमा. मा. अरुजसायरावस्जो, श अपजसायरवाजे. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] जबूंदीवपण्णत्ती [१.१०५ गंदणवणस्स कूडा पुवादिकमेण होति णायम्वा । जिणईदवरघराणं उभयप्पासेसु दो दो दु ॥ १०५ गिरिकृडवरगिहेस य दिब्वामलरूवदेहधारीमो । दिसकष्णकुमारीभो वसंति परिवारजुत्तामो ॥१०६ कण्णकुमारीण घरा कोसायामा तदद्धविक्खंभा । पण्णरस धगुसदाई उत्तुंगा कूडसिहरेसु ॥ १०७ मेषकरा मेघवदी सुमेघा तह मेघमालिणी णाम | तोयंधरा विचित्ता मणिमालिणि णिदिदा इदरों ॥ १०८ एदामो देवीओ भटेव य होति तेसु कूडेसु । अंदणवणस्स या पदाहिणे मंदरगिरिस्त ॥ १०९ उप्पलकुमुदा लिणा तह उप्पलउज्जला दु णामाओ । दक्खिणपुग्वे णेया वावीमो होति विमलामो . भिंगा भिंगणिभा तह कज्जलवर कज्जलाभ पवराभो । दक्षिणपश्छिमभागे जिम्मलजलपुण्णवावीमो ॥ सिरिभदा सिरिकता सिरिमहिदा तय होदि सिरिणिलया। अवरुत्तरम्मि भागणीलुप्पलकुमुदछण्णाभो ॥ लिणा य लिणगुम्मा कुमुदा कुमुदप्पभा य वावीभोपुवुत्तरम्मि भाग णायचा गंदणवणस्स ॥११३ पणुवीसा विक्खंभा पण्णासा जोयणा य आयामा । दस जोयणावगाढा वावीण पमाणपरिसंखा ॥ ११४ दिणयरमजहचुंबियवियसियसयवत्तसंडणिवहाभो । मपरंदरेणुपिंजरससिधवलसुगंधसलिलामो ॥१५ -.......................... वनके · उपर्युक्त कूट पूर्वादिक्रमसे जिनभवनोंके दोनों पार्श्वभागों में दो दो होते हैं, ऐसा मानना चाहियेना १०५ ।। गिरिके कूटें.पर स्थित गृहोंमें दिव्य व निर्मल रूपसे युक्त देहको धारण करनेवाली दिक्कन्याकुमारियां अपने परिवारसे युक्त होकर निवास करती हैं॥१०६ ॥ कूटशिखरोंपर स्थित उक्त दिक्कन्याकुमारियोंके गृह एक कोश आयत, इससे आधे विस्तृत, और पन्द्रह सौ धनुष प्रमाण ऊंचे हैं ॥१०७॥ मन्दरगिरि सम्बन्धी नन्दन वनके उन कुटोंपर प्रदक्षिणक्रमस मेघकरा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, तोयंधा, विचित्रा, मणिमालिनी और अनिंदिता, ये आठ देवियां रहती हैं ॥ १०८-१०९॥ नन्दन वनके दक्षिण-पूर्वमें उत्पला, कुमुदा, नलिना व उत्पलोज्वला नामक निर्मल वापिकायें जाननी चाहिये ॥ ११० ॥ उसके दक्षिण-पश्चिम भागमें भंगा, भृगनिभा, कजला तथा कजलामा नामक निर्मल जलसे परिपूर्ण श्रेष्ठ वापियां हैं ॥ १११ ॥ उसके पश्चिमोत्तर भागमें नीलोत्पल और कुमुदोसे व्याप्त श्रीभद्रा, श्रीकान्ता, श्रीमहिता तथा श्रीनिलया नामक वापियां हैं ॥ ११२ ॥ नन्दन क्मके पूर्वोत्तर भागमें कुमुदोसे व्याप्त नलिना, नलिनगुल्मा, कुमुदा और कुमुदप्रभा नामक वापियां हैं ।। ११३ ॥ विष्कम्म पच्चीस योजन, आयाम पचास योजन, और अवगाद दश योजन, यह उन वापियों के प्रमाणकी संख्या है ॥ ११४॥ उक्त सब वापियां दिनकर (सूर्य) की किरणोंसे चुम्बित होकर विकासको प्राप्त हुए कमलखण्डोंके समूहसे सहित, परागकी धूलिसे पीत वर्णको प्राप्त हुए चन्द्रवत् धवल । उ उमयपासेस, प य उमये पासेसु, -श उमणे पाससु. २ प ब वसति ३ पब पण्णरस धदाई. ४उश मणमालिणि इदिदा पहा. ५पब सिरिमहदा. ६ उ गुम्मा कुमुदप्पमा य वावीओ, श गुम्मा कुमुदा कुमुदप्पलकुमुदण्ण्णाओ. ७शप्रतावेतस्या गाथाया उत्तरार्द्ध त्रुटितम्. ८पब पण्णासा जोय आयामा १उ दिणयरमउहविय, श दियणरमओहचिविय. १. पब विया वियसियसत्तचत्त, श वियसियसियवस. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १२५ ) त्यो उद्देसो १९ सिसिरयरकरविणिग्गयेविभिण्णवर कुमुद कुसुमपउराभो । पवणवस चलियेणिम्मलत रंगरंगंत रमणाओ || गयणयरजुवई मज्जणत्रियत्रियधम्मिल्ल कुसुमणित्राओ । खपरैविलासिणि उरपर्दकुंकुमपंकेण कित्ताओ ॥ विज्जाहरवर सुंदरि जल कीडासराव मुद्दलाओ । उच्छलियदूर बहुजल पडायसंघारमणाभो ॥ ११८ वणवेदीजुत्तामो वरतोरणमंडियाओ सव्वाओ । सोहंति हुं वादीओ निम्मलसलिलेहिं पुण्णाओ ॥ ११९ दक्खिणदिसाविभागे सोइम्मिदस्स होंति वावीओ | उत्तरदिसाविभाए ईसादिस्त जायन्वा ॥ १२० बावीस होंति गेा तरंगसंघट्टेस गंभीरा । दिव्यामोयसुगंधा रयणुज्जलैकिरणविंजरिया ॥ १२१ बासट्टिजोयणाई बे कोसा वरघरा" समुत्तुंगा । सक्कोसा इगितीसा विक्खंभायाम गिट्ठिा ॥ १२२ तेषु घरेसु वि या णाणामणिविष्फुरंत किरणेसु । सीहासणा विचित्ता इंदाण सभा समुद्दिट्ठा १२३ इंदा सलोयवाला भच्छरसहिदा य वात्रिभवणेसु । कीडति पहिट्ठमणा पुष्वक्कर्येणिम्मलतवेण ॥ १२४ एवं सोमणसवणे वावीओ विमलसलिलपुष्णाभो । कंचणकूडा य तथा पासादा होति णायव्वा ॥ १२५ सुगन्धित जलसे परिपूर्ण, चन्द्रकिरणोंके निकलने से विकासको प्राप्त हुए प्रचुर उत्तम कुमुदकुसुमसे युक्त, पत्रनके प्रभावसे उठती हुई निर्मल तरंगों के चलनेसे रमणीय, विद्याधरयु- नियोंके स्नान करनेमें निकले हुए चोटीके फूलों के समूह से संयुक्त, विद्याधरविलासिनियों के उरस्थल से निकले हुए कुंकुमपंकसे लिप्त, विद्याधरों की श्रेष्ठ सुन्दरियों की जलक्रीड़ाके शब्द से मुखरित, दूर तक उछलते हुए बहुत से जलबिन्दुओंके संघातसे रमणीय, वन और वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, और निर्मल जलसे परिपूर्ण होती हुई शोभायमान हैं ॥ ११५-११९ ॥ दक्षिणदिशा विभागमें सौधर्म इन्द्र की वापियां और उत्तरदिशा विभागम ईशान इन्द्रकी वापियां जाननी चाहिये ॥ १२० ॥ वापियों में तरंगों के टकरानेके शब्द से गम्भीर, दिव्य आमोदसे सुगन्धित और रत्नों की उच्च किरणोंसे पीत वर्ण हुए गृह बासठ योजन दो कोश ( ६२ ३ यो. ) इकतीस ( ३१ योजन प्रमाण कहा किरणोंसे सहित उन गृहों में भी विचित्र ) होते हैं ॥ १२१ ॥ इन उत्तम गृहोंकी उंचाई और विष्कम्भ तथा आयाम एक कोश सहित गया है || १२२ || नाना मणियोंकी प्रकाशमान सिंहासनोंसे युक्त इन्द्र की सभा कही गई है १२३ ॥ पूर्वकृत तपके प्रभावसे लोकपालें। और अप्सराओंसे सहित इन्द्र मनमें हर्षित होते हुए इन वापीभवनोंमें क्रीड़ा करते हैं ॥ १२४ ॥ इसी प्रकार सौमनस वनमें भी निर्मल जलसे परिपूर्ण वापियां, कंचनकूट तथा प्रासाद जानना चाहिये ॥ १२५ ॥ नन्दन वनसे बासठ हजार पांच सौ ॥ १ प ब सिसियरकरविणिग्गिय २ श विलिय. ३ उ गयणयरज्जुवई, प ब गहणयरजुवय, श गणय हुबई. ४ श लम्मिल्ल, ५३ श खयल, प व खर. ६ उ उस्यदु, प ब उखड, श उरपड. ७ उ श विवाहरिवरसुंदरि, प ब विवाहवसुंदरि उ शकील, प व कीला. ९ उ जलपडियसंन्याय, प व जलपडायसंघाय, श जलपाण्यसंध्याय १० उ सोहंति बहु. ११ श संवह. १२ श सुरंधा नयज्जलं. १३ श जोयणाए. १४ उ रा मख्वरा १५ उश न्वरेसु. १६ उ पुव्वकय, रा पुष्वकरा. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 。 1 जंबूदीवपण्णी 18. १२६ बासा च सहस्सा पंचसया जोषणा व उपया' । णवगादु वा सो मगसवर्ग' समुद्दिनं ॥ १२६ पंचेव' जोयणपया विस्थिष्णो रयणजाल किरणोहो । देवासुरिंदणिव हो जिणभवणविहूसिनो दिग्वो ॥ १२७ बेगाउदउध्विद्धा पंचधणुस्सय पमाणविस्थिण्णा । वणवेदी णिडिट्ठा णंदणत्रणसोमणस्त्राणं ॥ १२८ अवसेसाण वणाणं सव्त्राण गिरीण सव्वसरियाणं । उच्छेदो विक्खंभो एसेव कमो दु वेद।णं ॥ १२९ तत्तो' सोमणसाद। उडुं छत्तीसजोयणसहस्सा गंतूण पंडुकवणं होइ महातेयसंपणं ॥ १३० छज्जेोयणपरिहीणो पंचसया जोयणा य विस्थिष्णो । बहुविहरु गाउरो वरमंदर सिहरवणंडो ॥ १३१ पंडुकवणस्स मज्झे वेरुलियमया दु' चूलिया दिट्ठा' । मणिगणजकं तणिवा जोयण - लिीस उलूंगा ॥ १३२ बारह जोयण मूले मझे भट्ठे व जोयणा नेया । सिहरे चत्तारि हवे विक्खंभायामपरिसंखा ॥ १३३ मंदर महानगाणं बेदीणं चूलियाण कूडाणं । सब्वाण पब्वदाणं भवणःणं वरघराणं च ॥ १३४ هی योजन ऊपर सौमनस वन कहा गया जानना चाहिये ॥ १२६ ॥ यह दिव्य वन पांच सौ योजन विस्तीर्ण, रत्नसमूहकी किरणमालासे संयुक्त, देवेन्द्र एवं असुरेन्द्रों के समूह से सहित, और जिनभवनों से विभूषित है ॥ १२७ ॥ नन्दन वन और सौमनस वनकी वनवेदी दो कोश ऊंची और पांच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण कही गई है ॥ १२८ ॥ शेष सत्र वनों, पर्वत और सत्र नदियोंकी वेदियोंकी उंचाई व विष्कम्भका यही क्रम जानना चाहिये ॥ १२९ ॥ सौमनस वनसे छत्तीस हजार योजन ऊपर जाकर महा तेजसे सम्पन्न पाण्डुक वन है ॥ १३० ॥ उत्तम मन्दर पर्वत के शिखर सम्बधी यह बन-खण्ड छह योजन कम पांच सौ ( ४९४ ) योजन विस्तीर्ण व बहुत प्रकार के प्रचुर वृक्षोंके समूह से सहित वनखण्डों से संयुक्त है ॥ १३१ ॥ पाण्डुक वनके मध्य में चमकते हुए मणिसमूहोंसे सहित और चालीस योजन ऊंची दीर्घ वैडूर्यमय चूलिका है ॥ १३२ ॥ इसके विष्कम्भ और श्रायामका प्रमाण मूळमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन, और शिखरपर चार योजन जानना चाहिये ॥ १३३ ॥ कटि ( मूत्रविस्तार ) और शिर ( शिखरविस्तार ) को परस्पर में घटाकर [ शेषको उत्सेबसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो ] उतना भूमिकी अपेक्षा इनके विष्कम्भमें हानिका तथा मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है । इसको अभीष्ट स्थानकी उंचाईसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसे मूलविस्तारमेंसे कम करने अथवा मुखमें मिला देनेपर अभीष्ट स्थानमें इच्छित विस्तारका प्रमाण होता है । इन करणगाथाओंके द्वारा मन्दर महापर्वतों, वेदियों, चूलिकाओं, कूटों, १ श वाविडि २श उप्पनिया ३ प ब सोमणवाण ४ उ रा पंचेण ५ श सम्माण सम्वगिरीण. १ उश ससो. ७ ब पवरो. ८ उश वेतुलियमया घु, प व वेदलियमहा दु. १ ज श दिधा. १० वरम्बराणं, का वरम्यणाणं. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो उद्देसो कडिसिरविसुद्धसेसं इच्छगुणं तह य चेव काऊणं । विक्खंभहाणि-वड्डी भाणिज्जो करणगाहाहि ॥ १५ तुंगो चूलियसिहरोन विलग्गा उडुविमाणणामस्स। तलमागे' णायचा बालपमाणेण णिविटा॥१३ उत्तरकुरुमणुयाणंकोमलसुकुमालेणिद्धवण्णण । सिहरितलमज्झमागे केसेण दु अंतरं होई ॥१३७ पंडुकसिला विणेया कणयमया विविहरयणसंछण्णा । पुवुत्तरम्मि भागे ईदाउहसंणिहा होइ ॥ १३८ दक्खिणपुग्वादिसाए पंडुकवरकंबला सिला होइ । कुंदिंदुसंखवण्णा अट्ठमिससिसणिभा रम्मा ॥ १३९ दक्षिणपच्छिमभागे['जासवणणिभा दु दधणुसरिसाणामेण रत्तकंबलमहासिला होहणायम्बा ॥१४. उत्तरपच्छिमभागे] सुरिंदधणुसंणिभा परमरम्मा | रत्तसिला णायग्बा तवणिज्जणिमा समुट्ठिा ॥१४॥ पंचसया मायामा विस्थार तदद्ध होति णिहिट्ठा । चत्तारि जोयणाई उत्तुंगामो वरसिलामो ॥१४२ महउज्जलरूवामी वरसोरणमंडियाओ दिवाओ। वरवेदियजुत्तामो मणिरयणफुरंतकिरणाभो ॥१३ एगेगसिलापसिंहासण तिणि तिगिण णिहिट्ठा । मणिकंचणपरिणामा जिम्मलससिकतकिरणोहा ॥ १४५ ...................... सब पर्वत। (:) भवनों और उत्तम गृहके इच्छित विस्तारको लाना चाहिये (देखिये पाछे गाथा ३२) ॥ १३४-३५ ॥ उन्नत चूलिकाशिखर बालके प्रमाणसे ऋतु नामक विमानके तलभागसे नहीं लगा है, अर्थात् मेरुचूलिकाके ऊपर बाल मात्रके अन्तरसे ऋतु विमान निरालम्ब स्थित है, ऐसा निर्दिष्ट जानना चाहिये ॥१३६ ॥ मेरुके शिखर और ऋतु विमानतलके मध्य भागमें उत्तरकुरुमें उत्पन्न मनुष्योंके कोमल, सुकुमार एवं स्निग्ध वर्णवाले एक बाल मात्रका अन्तर है ॥ १३७ ॥ पूर्वोत्तर भाग (ईशान ) में इन्द्रायुध (इन्द्रधनुष ) के सदृश और विविध रत्नास व्याप्त सुवर्णमय पाण्डुकशिला जानना चाहिये ॥ १३८ । दक्षिण-पूर्वदिशा ( आग्नेय) में कुंदपुष्प, चन्द्रमा एवं शंखके समान वर्णवाली अष्टमीके चन्द्रके सदृश मणीय उत्तम पाण्डुकंबला नामक शिला है ॥ १३९ ॥ दक्षिण-पश्चिम भाग (नैऋत्य ) में जपाकुसुम व इन्द्रधनुषके सदृश रक्तकंबला नामक महा शिला जाननी चाहिये ।।१४०॥ उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भागमें इन्द्रधनुष के सदृश, अतिशय रमणीय और तपनीयके समान प्रभावाली रक्तशिला कही गई है ॥१४१॥ इन उत्तम शिलाओंकी लम्बाई पांच सौ योजन, विस्तार इससे आधा अर्थात् अढ़ाई सौ योजन और उंचाई चार योजन प्रमाण कही गई है ॥ १४२॥ उक्त शिलायें अतिशय उज्ज्वल रूपवाली, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, श्रेष्ठ वेदीसे संयुक्त और मणि एवं रत्नोंकी प्रकाशमान किरणोंसे सहित हैं ॥१४३ ॥ एक एक शिलापट्टपर मणि व सुवर्णके परिणाम रूप तथा निर्मल चन्द्रकान्त मणियोंके किरणसमूहसे संयुक्त तीन तीन सिंहासन कहे गये हैं ॥१५४ ॥ ये सिंहासन पांच सौ धनुष ऊंचे, पांच सौ धनुष आयत, १उलग्रह, श लिग्रह. २ प य उडभागो. ३ श उत्तरकुणुयाण. ४ उश कुसुमाल. ५उ गिधवणेण, श गिधवलेण. ६ उश मागो. उश°उहसणिहाइ, ब उहसणिहा होय. ८प-बप्रत्यास्त्रुटतोऽयं कोष्ठकस्थ: पाठः।उ'मागे जासवणनिमा दुइंदुघणु, शमागे सुरिंदधशु. १.उतबणिज्जुणिमा, पब तवणिज्जमा. शतवणिशणिमा. ११ उश पदे, पब यहे. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती [४. ११५ पंचधणुस्सयतुंगा भायामाते इति पंचसया। विक्खंभेण य या भरढादिज्जा धणुसदाणि || ११५ पुस्वामिमुद्दा सम्वा सिदादवसा सचामरागोवा | मझेर ति दिवा सिंहासण जिणवरिंदाण ॥ सोहम्मीसाणाणं इंदाण होति दासु पाससु । दाहिणवामदिसाए जहाकमेणं समुट्ठिा ।। १४७ ईसाणदिसाभागे भरहजिणिदाण' दिग्बदेहाणं | पंदुकसिलावले' तह जम्मणमहिमा समुट्ठिा ॥१४८ भवरविदेहाण तहा वस्पंडुयकंबलम्मि धूमदिसे । वररत्तकंबलम्मि दु णेरदि एरावदाणं तु ॥ १४९ वाउदिसे रत्तसिला पुग्वविदेहाण जिणवरिदाणं । जम्मणमहिमा मेरुप्पदाहिणेण तु गंतूर्ण ॥१५. ससुरासुरदेवगणा भागंतूर्ण महाविभूदीए । सिंहासणेसु दिव्या जम्मणमहिम पकुम्वति ॥ १५१ संखवरपरहमणहरसिंहणिणाएहि घंटसद्देहि । भवणवईवाणतिरबोइसकप्पाहिवा देवा ॥ १५२ णाळण जिणुप्पा हरिसीह महाविभूदिजुत्तहि । आगच्छति सुरवरा छायंता णहयझ सयलं ॥ १५३ इंदो वि महासत्तो तीहि य परिसाहि सत्तअणियाहि । गयवरखंधास्तो एइ महाइसिंपण्णी ॥ १५४ रविससिजदु ति णामा परिसाण महदरा समुहिट्ठा । भभंतरमझिमवाहिराण कमसो मुणयन्वा ।। १५५ और अढाई सौ धनुष प्रमाण विकम्मसे सहित जानना चाहिये ॥ १४५॥ सब सिंहासन पूर्वाभिमुख, धवल आतपत्रसे संयुक्त और चामरोके आटोपसे सहित हैं। इनमें मध्यके सिंहासन जिनेन्द्रोंके होते हैं ॥१४६ ॥ उनके दोनों पार्श्वभागोंमें यथाक्रमसे दक्षिण और वाम (उत्तर ) दिशामें सौधर्म और ईशान इन्द्र के सिंहासन कहे गये हैं ॥ १४७॥ ईशान दिशाभागमें स्थित पाण्डुकशिलातलपर दिव्य देहके धारक भरतक्षेत्र सम्बन्धी जिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा कही गई है ॥ १४८॥ अग्नि दिशामें स्थित उत्तम पाण्डुकम्बल शिलापर अपर विदेह सम्बन्धी जिनेन्द्रोंकी तथा नैऋत्य दिशामें स्थित उत्तम रक्तकम्बल शिलापर ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी जिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा कही गई है ॥ १४९॥ वायुदिशामें स्थित रक्तशिलापर पूर्व विदेह सम्बन्धी मिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा जानना चाहिये । मुर और असुरोंसे सहित देवगण मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए महा विभूतिके साथ पाकर सिंहासनोंपर दिव्य जन्ममहिमाको करते हैं ॥ १५०-१५१ ॥ भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पाधिपति देव क्रमशः शंख, उत्तम पटह, मनोहर सिंहनाद और घंटाके शब्दसे जिन भगवान्की उत्पत्तिको जानकर सहर्ष महा विभूतिसे युक्त होकर समस्त आकाशतलको आच्छादित करते हुये आते हैं ॥१५२-१५३॥ महा बलवान् इन्द्र भी तीन परिषद और सात अनीकोंसे युक्त हो उत्तम हाथ के कन्धेपर चढ़कर महा ऋद्धिके साथ आता है ॥ १५ ॥ अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिषद्के कपसे रवि चन्द्र और जतु नामक महत्तर कहे गये जानना चाहिये । १५५ ॥ अभ्यन्तर परिषद् उसाण, पब इसाण, श इसोण. २पब जिणंदाण. ३ पब तहे. ४ उश 'दिसो. ५उ दिग्वे, पब दिल्बो, श दिव्वा. ६श भावणाहर. उश तिणि. ८ पब रिधि. ९उश ति णा परिसाणं. १० उ महधरा, श महुधरा.. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. १६६ ] त्यो उसो [ ७३ बारसयसयसहस्सा अभंतरपारिसा सुरा होंति । चउदसय सय सहस्सा मज्झिमपरिसा समुद्दिट्ठा ॥ १५६ पोलसय सय सहस्सा बाहिरपरिसासुराण परिसंखा । सब्वे वि दिन्वरूचा णाणाविद्दपद्दरणाभरणा' ॥ १५७ तिण्ण वि परिसर कहिया एतो सत्ताणिया पवक्खामि । सोद्दम्मकप्पवासी इंदस्सर महाणुभावस्स ॥ १५८ वसभरहतुरयेमयगलणञ्चणगंधन्वभिच्चवग्गणं । सत्ताणीया दिट्ठा सत्तहि कच्छाहि संजुत्ता ॥ १५९ तुलसीदिसयसहस्सा [वैरवसभा संखकुंदसंकाला । पढमाए कच्छाए पुरदो गच्छेति लीकाहिं ॥ १५० सहसा ] या कोडी हवंांत वरवसभा | जासवणकुसुमवण्णा मणिरयणविहूसिया बिदिए || १६१ तिष्णेन य कोडीओ छत्तीसा ससस्स वरवसहा । णीलुप्पलसंकासा तदियाकंच्छम्मि णिडिट्ठा ॥ १६२ वेब य कोडीको वाइत्तरिसयसदस्स वरवसदा । मरगयमणिकिरणोहा चढत्थकच्छट्टिया जंति ॥ ११३ तेरह वह कोडीको चडदाला सबसहस्त्र वरवसदा । कणयणिमा विष्णेया पंचमकच्छहि णिदिट्ठा ॥ १३० छब्बीसा कोडीनो अट्ठासीदा य सबसहस्साणि । छट्ठर्मकच्छे दिट्ठा भिण्णंजणस कहा बसभा || १६५ तेवण्णा कोडीनो छातरि सबसदस्स बरवसभा | सत्तमकच्छे दिट्ठा किंसुयकुसुमप्पभा' या ॥ १६६ देव बारह लाख, मध्यम परिषद चौदह लाख और बाह्य पारिषद सोलह लाख प्रमाण कहे गये हैं । ये सब ही देव दिव्य रूपसे संयुक्त और नाना प्रकारके आयुधों एवं आभरणोंसे विभूषित होते हैं । १५६ - १५७ ॥ तीनों ही परिषदोंका कथन किया जा चुका है । अब यहसि आगे मद्दा प्रभावसे युक्त सौधर्म इन्द्रकी सात अनीकोका वर्णन करते हैं ॥ १५८ ॥ वृषभ, रथ, तुरंग, मदगल (हाथी), नर्तक, गन्धर्व और भृत्यवर्ग, इनकी सात कक्षास संयुक्त सात सेनायें कही गई हैं ॥ १५९ ॥ प्रथम कक्षामै शंख एवं कुंद पुष्पके सदृश धवल चौरासी लाख उत्तम वृषभ लीलापूर्वक आगे जाते हैं ॥ १६० ॥ द्वितीय कक्षा जपाकुसुमके सदृश वर्णवाले और मणि एवं रत्नोंसे विभूषित वे उत्तम वृषभ एक करोड़ अङ्गसठ लाख होते हैं ॥ १६९ ॥ तृतीय कक्षा में नील कमलके सदृश वर्णवाले उत्तम वृषम तीन करोड़ छत्तीस लाख कहे गये हैं ॥ १६२ ॥ चतुर्थ कक्षा में स्थित मरकत मणिकी किरणोंके समूह के समान कान्तिवाले उत्तम वृषभ छह करोड़ बहत्तर लाख होते हैं ॥ १६३ ॥ पंचम कक्षा में सुवर्णके सदृश बर्णवाले उत्तम वृषभ तेरह करोड़ चालीस लाख निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १६४ ॥ छठी कक्षा में भिन्न अंजनके सदृश कान्तिवाले वृषभ छब्बीस करोड़ अठासी लाख कहे गये हैं ॥ १६५ ॥ सातवीं कक्षामें किंशुक कुठुमके समान प्रभावाले उत्तम वृषभ तिरेपन करोड़ छयत्तर लाख कहे गये समझना चाहिये ॥ १६६ ॥ उनके मध्य मध्यमें बजते हुए महा बादित्रों के १ उशपहरणावरणा, प ब यहरणावरणे. ५ उ तिणि, श विग ३ उश इंदस, व इंदरला. * या महाभावस्था. ५ प व वससरहरिय. ६ शविष्य ७ उ-शमत्योस्त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः । ८ श ओटुम ९ प ब प्पहा. नंदी. १०. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [१.१६७० मझे माझे तेसिं वजंतमहंततूरणिग्घोस । जिणजम्मणमहिमाए' वसभाणीया समुच्छरिया ॥ १६७ घंटाकिंकिणिणिवहा वरचामरमडिया मणभिरामा। मणिकुसुममालपउरामणोवमा रूवसंपण्णा ॥१६८ घरकोमलपल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते । सोहंति दु गच्छंता चलंतधरणीहरा चेव ॥ १६९ कोडीसय छन्भहिया भडसट्टा लक्ख होति णिहिट्ठा । सत्तविभागाण तहा वसभाणीयाण परिसंखा ॥ १७० रूवूणभट्ट विरलिय दो दो दाऊण तेसु रूबेसु । भण्णोण्णगुणेण तहा फलेण रूवर्णजादेण ॥ १७॥ भादिमकच्छं गुणिदे सत्त वि कच्छाण होदिवसभाणं । परिसंखा णिहिट्ठा जिणिंदईदेहिणाणीहि ॥ १७२ सम्याण अणीयाणं कच्छाणं पिंडेसंखपरिमाणं । एस कमो णायब्वो संखेषण य समुद्दिटुं° ॥ १७३ सिसिरयरहोरहिमचयसंखेंदुमुणालकुंदकुमुदाभा । धवलादवत्तभासुर धवलरहा पढमकन्छम्मि ॥ १७४ वेरुलियरयणणिम्मियचउचक्कविरायमाण गच्छति । मंदारकुसुमसंणिह महारहा विदियकच्छम्मि ॥ १७५ शब्दसे सहित वे वृषभानीक उछलते हुए जिन भगवान्के जन्मकल्याणकमें जाते हैं॥१६७|| घंटा व किंकिणियों के समूहसे सहित, उत्तम चामरोंसे मण्डित, मनोहर, प्रचुर मणिमालाओं व पुष्पमालाओंको पहिने हुए, अनुपम रूपसे सम्पन्न, उत्तम कोमल पलानसे सहित, और देवकुमारोंसे चलाये जानेवाले वे वृषभ चरते हुए पर्वतों जैसे शोभायमान होते हैं ॥ १६८-१६९ ॥ सात विभागोंके वृषभानीकों की संख्या एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख कही गई है ॥१७॥ एक कम आठ अंकों का विरलन करके उन अंकोंके ऊपर दो दो अंक देकर परस्पर गुणा करनेसे जो फल प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करके शेषसे प्रथम कक्षाको गुणा करनेपर सातों कक्षाओं सम्बन्धी वृषभानीकोंकी संख्या प्राप्त होती है, ऐसा ज्ञानवान् जिनेन्द्र भगवान्ने निर्दिष्ट किया है ॥ १७१-१७२ ।। . उदाहरण-८- १ = ७२२२२२२२, इनके परस्परका गुणनफल १२८ १२८ - १ = १२७, प्रथम कक्षा ८४०००००; ८४००००० ४ १२७ = १०६६८००००० समस्त वृषभानीकसंख्या। सब अनीकों सम्बन्धी कक्षाओंकी संख्याके पिंडप्रमाणको लानेके लिये संक्षेपसे यही क्रम कहा गया जानना चाहिये ॥१७३॥ प्रथम कक्षामें शिशिरकर (चन्द्र), हार, हिमचय, शंख, इन्दु, मृणाल एवं कुंद पुष्प जैसी प्रभावाले; धवल छत्रसे सुशोभित धवल रय होते हैं ॥१७४ ॥ द्वितीय कक्षामें वैडूर्य मणिसे निर्मित चार चार्कोसे विराजमान और मन्दार कुसुमके सदृश कान्तिवाले महारथ गमन करते हैं ॥ १७५ ॥ तृतीय कक्षामें सुवर्णमय छत्र, चामर और हिलते हुए उत्तम १ पब महिमाण २ उश समोपछारिया, ३ उश परिहा. ४ उपबश देवकुमाराहि. ५ उश तुबूण, पब रूवेण. ६ प गुणिदो, ब गुणिहो. ७ उश सत्त वि कछाण, ८ उपबश होति. ९ उश पिंठ. १० पब संखेवेण समुदि. ११श सिसिरहार. १२ उ श धवलहरा. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. १८५ } उत्थो उद्देस [ ७५ कणयादवत्तचामरघयव देधुन्वंत भासुराडोवा । निद्धंत कैणय सुघडियर हैपउरा तदियकच्छम्मि ॥ १७६ मरगयरयणविणिम्मिय बहुचक्कुप्प गैस गंभीरा । [ "दुब्वंकुरदलसंगिव महारहा तह चउत्थीए || १७७ कक्केयणमणिणिम्मिय बहुचक्क घुलंत सद्दगंभीरा | ] णोलुप्पलदल संणिभ महारदा होंति पंचमिए ॥ १७८ वरपड मरायमणिमयवरधुर अक्खचक्क संघडिया । पष्कुलकमलसंणिभ महारहा होंति छट्टीए ॥ १७९ सिद्दिकंठपण्णमणिमयणिम्मल किरणोद्दजालपज्जलिया । वरईदणीक संणिभ महारद्दा होंति सत्तमिए' ।। १८० एवं महारहाणं सत्त वि कच्छा जलंतमणिकिरणा । आयासं छायंता चलिया जिणजम्मकलाणे || १८१ वज्र्जततूरणिवा रद्दकच्छा' अंतरेसु सध्येसु । गच्छंता पवररहा सोइंति मणोहरा तुंगा ॥ १८२ बहुदेव देविपुण्णा वरचामरछत्तधयवडा णिवहा । लंबेतकुसुममाला भच्छेर यरूवसंठाणा ॥ १८३ पुव्वक्कण या मायारहिएण चरणसुद्वेण । धम्मेण तेण लद्धा ईदेण महाविहूईभो ॥ १८४ खरपवणवायवियलिय खारो वहिवरत रंगणिवण्णा" । वरसियचलंतचामर धवलस्सा पढमकच्छा ॥ १८५ ध्वजपटोंके आटोप ( आडम्बर ) प्रकाशमान तथा सुवर्ण से निर्मित प्रचुर रथ गमन करते हैं ।। १७६ ॥ चतुर्थ निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न हुए शब्दसे गम्भीर और वर्णवाले महारथ होते हैं ॥ १७७ ॥ पांचवीं कक्षा में कर्केतन अग्निसंयोग से संशोधित निर्मल कक्षामें मरकत मणियों से दूर्वाङ्कुर के पत्तोंके सदृश रत्नोंसे निर्मित व बहुत से चाके घूमने के शब्द से गम्भीर महारथ नीलोलपत्र के सदृश वर्णवाले होते हैं ॥ छठी कक्षा में उत्कृष्ट पद्मराग मणिमय उत्तम धुरा, दृढ़ अक्ष एवं चाकस मद्दारथ प्रफुल्ल कमलके सदृश वर्णवाले होते हैं ॥ १७९ ॥ सातवीं कक्षा में मयूरकण्ठके समान वर्णवाले व मणियोंसे निर्मित निर्मल किरणसमूहसे देदीप्यमान महारथ उत्तम इन्द्रनील मणिके सदृश कान्तिवाले होते हैं ॥ १८० ॥ इस प्रकार प्रकाशमान मणिकिरणों से सहित महारथोंकी सात कक्षायें आकाशको आच्छादित करती हुई जिनजन्मकल्याणक में जाती हैं । १८१ ॥ सब रथ कक्षाओं के मध्यमें बजते हुए वादित्रोंके समूइसे सहित, उन्नत व मनोहर उत्तम रथ गमन करते हुए शोभायमान होते हैं ।। १८२ ॥ बहुतसे देव देवियों से परिपूर्ण; उत्तम चमर, छत्र और ध्वजापताकाओंके समूह से सहित; लटकती हुई कुसुमोंकी मालाओं से सुशोभित, तथा आश्चर्यजनक रूप एवं आकृतिसे संयुक्त, उक्त रथ रूप महा विभूतियां सौधर्म इन्द्रको पूर्वकृत निष्कपट शुद्ध चारित्र धर्मसे प्राप्त होती हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १८३ - १८४ ॥ प्रथम कक्षा में तीक्ष्ण पवन के घातसे विचलित हुए क्षीरोदधिकी उत्तम तरंगों के सदृश वर्णवाले और चलते हुए उत्तम धवल चामरोंसे सहित धवल अश्व होते हैं ॥ १८२ ॥ द्वितीय रूप १ उश धयवर २ प ब निद्धत्त ३ उश लह. ४ उ श चक्करपण, प व चक्क न. ५ कोष्ठकस्थोऽयं पाठ: प-य प्रत्योर्नोपलभ्यते । ६ उ श दढ. ७ उ जालप्पंजरिया, प जाड पिंजरिया, ब जाउपिंज्जरिया, श आलप्पजरिया उप सचामिए. ९ प रहछा, ब राहछा, शप्रतावतोऽये स्खलितः पाठः । १० उ ब्वायवियलिय, व घायत्रियलिया, श घायविरलिय. ११ उ वस्तुरंगणिमवगा, प व वरंगतुरंगणिहवण्णा, श वस्तुरंगणिवत्रणा, १७८ ॥ संघटित Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) जंदावपण्णता [४. १८५उदयंतभाणुसंणिभमंदारासोगकमलसच्छाया। पचलंतचारचामर रत्ततुरंगा दु विदियाए ॥ १८६ णितकणयसणिहखुरवुडभरजणियरेणुपिंजरिया । वरगोरोयणसंणिभ वरतुरयो तदियकम्छाए ॥ १८. मरगयवण्णसमुज्जलतुंगमहाकाय गमणपरिहत्था । मभिणवतमालसामल तुरयवरा तह चडस्थीर || १८८ रयणाभरणविहूसिय मणिकिरणसमूहणासियतमोहा । णीलुप्पलदलसंणिभ तुरगवरा पंचमाए दु॥१८९ ससहरकिरणसमागमविभिण्णवररत्तकुमुदवण्णाभा । जासवणकुसुमणिभ वरतुरया छ?माए दु ।।... मणपवणगमणचंचलखरखुररवजणियसगंभीरा । मिणिदणीळसंणिभ वरतुरया सत्तमाए ॥१९१ एवं तुरयाणीया सत्तविभागा हवंति णिहिट्ठा । दिम्बामलरूवधरा जाणाभरणेहि संकण्णा ॥ १९२ मोसु तूरणिवहा पडहमुदिंगादिसहगंभीरा । वरकाहलमहुररवा पक्खुभिर्यसमुद्दणिग्मोसा ॥ १९३ रयणमया पल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते । सोइंति महाकाया देवाण विउम्वणा दिम्वा ॥ १९४ कक्षामें उदित होनेवाले सूर्यके सदृश अथवा मन्दार, अशोक एवं कमलके सदृश कान्तिवाले, तथा चलते हुए सुन्दर चामरोंसे सहित रक्त तुरंग होते हैं ॥ १८६ ॥ तृतीय कक्षामें अग्निसंयोगसे शुद्ध किये गये निर्मल सुवर्णके सदृश व खुरपुटके भारसे जनित धूलिसे पिंजरित उत्तम अश्व श्रेष्ठ गोरोचन के सदृश (पीत) होते हैं ॥ १८७ ॥ चतुर्थ कक्षामें मरकत जैसे वर्णवाले उज्ज्वल एवं उन्नत महान् शरीरसे संयुक्त तथा गमन दक्ष उत्तम अश्व नवीन तमाल वृक्षके समान श्याम वर्णवाले होते हैं ॥१८८ ॥ पंचम कशामें रत्नोंके आभरोसे विभूषित व मणिकिरणों के समूहसे अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाले श्रेष्ठ अश्व नीलोत्पलपत्रके सदृश वर्णवाले होते हैं ॥ १८९ ।। छठी कक्षामें शशधर (चन्द्र ) के समागमसे विकासको प्राप्त उत्तम रक्त कमल जैसे वर्णवाले श्रेष्ठ अश्व जपा कुसुमके सदृश होते हैं ॥ १९० ।। सातवीं कक्षामें मन अथवा पवनके समान गमन करनेमें चंचलताको प्राप्त तीक्ष्ण खुरोंके शब्दसे उत्पन्न शब्दसे गम्भीर उत्तम अश्व भिन्न इन्द्रनील मणिके सदृश होते हैं ॥ १९१ ।। इस प्रकार दिव्य व निर्मल रूपको धारण करनेवाली और नाना आभरणोंसे ज्याप्त अश्व सेनायें सात विभागोंसे युक्त निर्दिष्ट की गई हैं ॥ १९२ ॥ मध्यमें वादित्रसमहसे सहित, पटह व मृदंग आदिके शब्दसे गम्भीर, उत्तम काइलके मधुर शब्दसे युक्त, प्रक्षोभको प्राप्त हुए समुद्र जैसे निर्घोषसे संयुक्त, रत्नमय पलानोंसे साहित, और देवकुमारोसे चलाये जानेवाले वे देवोंकी विक्रियासे निर्मित महाकाय दिप घोड़े शोभायमान होते हैं ॥ १९३-१९४ ॥ अनुपम रूप व तेजसे सम्पन्न वे महा बलवान् पंब पवलंत. २ उ खुरवड, प खुरउद, ब खुरउद्य, श खुरकर. ३ उश वरातुरया, पब वस्तु - रिवा. ४ उश ससहकिरण. ५ उश वणड्डा, ब वण्णाम. ६ उश तुरय. ७ दश पञ्चलस्वर, पव पंचळखल. ८ उश काहलमहुवररवापखुभिय, पब काहलमुद्गरवरपरयुनिय, ९पय समदुणिरघोसा. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.२०१] पउत्यो उद्देसो सम्बदिसा परेंता' अणावमा तेयरूवसंपण्णा। जिणजम्मणमहिमाए गच्छति महाबला तुरया ॥ १९५ चुलसीदिलक्खसंखा वियरघडा गुलगुलंतगज्जता । गोखीरसंखधवला हस्थिघडा पढमकरछाए ॥९॥ भासढिसया णेया लक्खगुणा बालभाणुसमतेयाँ । पगलंतदाणगंडा हथिहरा विदियकचाए ॥ १९७ छत्तीसा तिण्णिसया हथिहरा सयसहस्ससंगुणिया । गिद्धतकणयवण्णा तदियाए हॉति कछाए ॥ १९८ बाहत्तरि छच्चसया लक्खगुणा सिरिसकुसुमसंकासा। उत्तंगदंतमुसला चउथीए हॉति ते णागा ॥१९९ तेरससयचउदाला वरिषदा सयसहस्ससंगुणिया। णीलुप्पलसंकासा पंचमिए होति करछाए ॥२.. छम्वीससया णेया भट्टासीदाय हॉति लक्खगुणा । जासवणकुसुमवण्णा हथिहरा तह य छट्टीए ॥२०॥ तेवण्णसया णेया छवित्तरि तह य होति लक्खगुणा । मंजणगिरिसमतेया इथिहडा सत्तमाए दु । २०२ भरसट्टा छच्चसया दसयसहस्सा हवंति लक्खगुणा । सत्त वि गयकच्छाणं परिसंखा होति णायम्वा ॥२०॥ कन्छपमाणं विरलिय इच्छगुणं तेसु उवरि दाऊणं । भण्णोषणभस्थण य लद्धेण य रूवरहिदेण ॥ २.. धोड़े सब दिशाओंको पूर्ण करते हुए जिनजन्ममहिमामें जाते हैं ॥१९५॥ प्रथम कक्षामें हर्षसे गुल-गुल गरजनेवाले चौरासी लाख हाथियों के समूह गोक्षीर अथवा शंखके समान धवळ होते हैं ।। १९६ ।। द्वितीय कक्षामै गण्डस्थलसे मदको बहानेवाले उन एक लाखसे गुणित एक सौ अड़सठ अर्थात् एक करोड़ अड़सठ लाख हाथियों की घटायें बाल सूर्यके सदृश कान्तिवाली जानना चाहिये ।। १९७ ॥ तृतीय कक्षामें एक लाखसे गुणित तीन सौ छत्तीस ( ३३६००.००) हाथियोंकी घटायें अग्निसंयोगसे शुद्ध किये गये सुवर्ण जैसे वर्णवाली होती हैं ॥ १९८ ॥ चतुर्थ कक्षामें उन्नत दांत रूपी मूसलोंसे सहित वे एक लाखसे गुणित छह सौ बहत्तर (६७२००००० ) हाथी शिरीष कुसुमके सदृश होते हैं ॥ १९९ ॥ पंचम कक्षामें एक लाखसे गुणित तेरह सौ चबालीस (१३१४०००००) हाथियोंकी घटायें नीलोत्पल के सदृश होती हैं ॥ २०॥ छठी कक्षामें एक लाखसे गुणित छब्बीस सौ अठासी ( २६८८०००००) हाथियोंकी घटायें जपा कुसुम जैसे वर्णवाली होती हैं ॥ २०१॥ सातवीं कक्षामें एक लाखसे गुणित तिरेपन सौ छयत्तर ( ५३७६०००००) हाथियोंकी घटायें अंजनगिरिके समान कान्तिवाली होती हैं ॥ २०२ ॥ सातों कक्षाओंके हाथियोंकी संख्या एक लाखसे गुणित दश हजार छह सौ अड़सठ (१०६६८०००००) जानना चाहिये ॥ २०३ ॥ कक्षाके प्रमाणका विरलन कर उनके ऊपर इच्छित गुणकार (२) को देकर परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त हुई राशि से एक कम करनेपर जो शेष इच्छित गुणकार राशि रहे उससे फिर भादिधनको गुणित कर जो प्राप्त हो उतना सब कक्षाओंका इच्छित धन होता है (देखिये पीछे गा. १७१-७२ ) ॥ २०४-२०५ ॥ प्रत्येक कक्षाक मागे पटु पटह, शंख, मर्दक मौर १श पूता. १श तेया. ३श वियहव्वा गुरुकुलं.त. ४ उशतेय. ५१श सिरस, पब सरिस. ६श सघियसकासहस्स.. श ओवरि. ८उशदाओणं. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जंबूदीयपण्णत्ती [४. २०५ इच्छगुणरासियाणं भादिधणं संगुणं पुणो किच्चा । लद्धं णायच्वं इच्छधण होइ सव्वाणं ॥ २०५ कच्छाए कच्छार पुरदो वज्जति तूररमणीया | पडुपडहसंखमद्दल काहलकोलाहलरवेहि ॥ २०६ उच्छंगदतमुसला पभिण्णकरदा मुहा गुलगुलंता । पगलंतदाणणिज्रधरणीधरसंणिभा चेव ॥ २०७ लंबंतरयणघंटा णिम्मलमणिकुसुमदामकयसोहा । णाणापडायचित्ता सिदादवत्तेहि छज्जंता ॥ २०८ लंबंत कणचामर मणिकिकिणिरणरणतरमणीया। मणिकणयर कच्छा कयलीहरछज्जिया' रम्मा ॥ २०९ बरदेविदेवपउरा भच्च दसोहसारसंपण्णा । हरिथहडाण सेण्णं विस्थरइ समंतदो गयण ॥ २१. एवं णागागीया गच्छंता सुरवरा महासत्ता । दाविता पुण्णफलं पच्चक्खं जीवलायस्स ॥२॥ गहाणीया मि सुरा पच्चंता बहुविहेहि स्वेहि । गच्छति' मेरुसिहरं जिणजम्मणमहिमअणुराया ॥२१२ विजाहरकुसुमाउहरायारायाहिवाण२ चरियाणं । णचंति णच्चणसुरा पढमे कच्छामि णिघिट्टा ॥ २१३ पुदवाईण चरियं सयलहमहंतमंडलीयाणं । बिदियाए कछाए णचंता सुरवरा जंति ॥ २१४ काहलके कोलाहल शब्दोंके साथ रमणीय बाजे बजते हैं ॥ २०६ ।। उन्नत दांतरूपी मूसलोंसे सहित, गण्डस्थलसे मदको बहानेवाले तथा मुखसे सहर्ष गरजनेवाले वे हायी बहते हुए मद जैसे झरनासे युक्त पर्वतके समान ही प्रतीत होते हैं ॥ २०७ ।। लटकते हुए रत्नमय घंटासे संयुक्त, निर्मल मगियों व कुसुमोको मालासे की गई शोभाको प्राप्त, नाना पताकाओंसे विचित्र, धवल छत्रसे सुशोमित, कानों में लटकते हुए चामरों और मणिमय क्षुद्र वंटिकाओंके रण-रण शब्दसे रमणीय, गणि एवं सुवर्णमय कक्षा (हाथीके पेटपर बांधनेकी रस्सी) से अलंकृत, कदलीमारसे सुशोभित, रमणीय, उत्तम देवदेवियोंसे प्रचुर तथा आश्चर्यजनक श्रेष्ठ शोमाने सम्पन्न उन हस्तिवटाओंकी सेना आकाशमें चारों ओर फैल जाती है ॥ २०८-२१० । इस प्रकार महा बलवान् उत्तम नागानीक देव जीवलोकको प्रत्यक्षमें पुण्यफलको प्रगट करते हुए गमन करते हैं ॥२११॥ नर्तकानीक देव भी बहुत प्रकारके वेषोंसे नाचते हुए जिनजन्ममहिमाके अनुरागसे मेरुशिखरपर जाते हैं ॥ २१२॥ नर्तकानीक देव प्रथम कक्षामें विद्याधर, कुसुमायुध ( कामदेव ) राजा और राजाधिपके चरित्रोंका अभिनय करते हैं ॥ २१३ ॥ द्वितीय कक्षाके नर्तक देव समस्त अर्ध मण्डलीक और महा मण्डलीक राजाओंके चरित्रका अभिनय करते हुए जाते हैं ॥ २१४ ॥ तृतीय कक्षाके नर्तक देवगण बलदेव, वासुदेव और ............. १५ व किच्च, शं कि. २ उ गुलुगुलिंता, प गुलुगुलंता, श गुलिता. ३ उ पटापचित्ता, य वडायचित्ता, श पडायविता.४श उज. ५ उ कयलीहरछज्जुया, श कयलीहरच्छज्जुपा. ६ उ अचुम्भद्, पब अच्चत्य, श अचुम्बद ७ पब गाणं. ८उणदाणीया, श णद्दाणीया. पब णाचति. १. पय बहुविहेहिगच्छति. 11 उश अणराय. १२ उपब रायाहियाण, श साहाहियाण, १३ उपहइवइण, पब पुवईण, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. २२४ ] चउत्यो उद्देसो [७९ बलदेवहरिगणाण य तप्पडिवक्खाण तह य वरचरियं । णचंति अमरविंदा णिहिट्ठा तदियकग्छाए' ॥२.५ चोइसरयणवईणं णवणिहिमक्खीणकोसणाहाणं । चक्कहराण य चरियं चउत्थकछम्मि णच्चंति ॥ २१६ सव्वाणं परिमाण सळोयवालाण सुरवरिंदाणं । चरियं णच्चंति' सुरा कच्छाए' पंचमाए दु ॥ २१७ जिम्मळवरबुद्धीणं अणिमादिविसुद्धरिद्धिपत्ताण । गणहरदेवाण सुरा चरियं णचंति छट्ठीए ॥ २१८ घरपाडिहरमासयकल्लाणभणंतसोक्खजुत्ताणं । जिर्ण इंदाणं चरियं सत्तमकच्छम्मि णचति ॥ २१९ तेवण्णकोडिदेवा छाहत्तरिलक्ख दिव्वदेहधरा । णचंति य जिणचरियं सुरसुंदरिसंजुदा धीरा ॥ २२० इण्टाठाणं विरलिय काऊणं एयरूवपरिहाणी"। इच्छगुणं दाऊण २५ विरलियरवेसु सम्वेसु ॥२२॥ अण्णोण्णभत्येण य जाएणय तेण रासिणा गणिदे१३ । इच्छाण मूलरासिं इच्छधणं होह सव्वाण" ॥२२२ रूऊणे अद्धाणे विरलिय रासिम्मि इच्छगुण दिग्णे । अण्णोण्णगुणण हदे भादिधर्ण हवइ इच्छफलं ॥ २२३ दिग्वामल देवधरा दिवालंकारभूसियसरीरा। जच्चंता गायंता मेरुं तत्तो समुप्पड्या ॥ २२४ प्रतिशत्रुओंके (प्रतिनारायणेकि ) उत्तम चरित्रका अभिनय करते हैं ॥ २१५॥ चतुर्थ कक्षाके नर्तक देव चौदह रत्नोंके अधिपति और नौ निधियों तथा अक्षीण कोषके स्वामी चक्रवर्तियोंके चरित्रका अभिनय करते हैं ॥ २१६ ॥ पंचम कक्षाके नर्तक देव चरमशरीरियों और लोकपालों सहित समस्त इन्द्रोके चरित्रका अभिनय करते हैं ॥ २१७ ॥ छठी कक्षाके नर्तक देव निर्मल उत्तम बुद्धिके धारक तथा अणिमादि विशुद्ध ऋद्धियोंको प्राप्त हुए गणधर देवोंके चरित्रका अभिनय करते हैं ॥ २१८ ॥ सातवीं कक्षाके नर्तक देव उत्तम प्रातिहार्य अतिशय, कल्याणक एवं अनन्त सुखसे संयुक्त जिनेन्द्रोंके चरित्रका अभिनय करते हैं ।। २१९ ॥ दिव्य देहके धारक उपर्युक्त तिरेपन करोड़ छयत्तर लाख (७ - १ = ६; २ x २ x २४ २x२x२ = ६४, ८४०००००४ ६४ = ५३७६०००००) धीर नर्तकानीक देव देवांगनाओंसे संयुक्त होकर जिनचरित्रका अभिनय करते हैं ॥ २२० ॥ इच्छित स्थानको एक अंकसे हीन कर विरलन करके विरलित सब अंकोंके प्रति इच्छित गुणकारको देकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे इच्छित मूल राशिको गुणा करनेपर इच्छित सर्वधन प्राप्त होता है ( देखिये पीछे गाथा २०४-५) ॥ २२१-२२२ ॥ एक कम अध्वानका ( स्थानोंका ) विरलन करके विरलित राशिके ऊपर इच्छित गुणकारको देकर परस्पर गुणित करनेसे जो प्राप्त हो उससे आदि धनको गुणा करनेपर इच्छाफल ( इच्छित धन ) प्राप्त होता है ( देखिये पीछे गाथा २०४-५) ॥ २२३ ॥ दिव्य एवं निर्मल देहके धारक और दिव्य अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाले उक्त देव नाचते गाते हुए वहांसे मेरुके ऊपर जाते हैं ।। २२४ ।। गन्धवोंकी सेनाके श्रेष्ठ देव जिन भगवान्के जन्मसे १ पब तप्पवक्रवाण. २ श पियकच्छाण. ३ श सेलोय ४ श गच्छंति. ५ श गच्छाए. ६ उ मरा. कच्छा पंच उडमाए दु. श सुरों करेलीय छडमाए दु. ७ उ श अइसया, प अइसुय, ब अहिसुय, ८ उश भण. १ उश देहदिवघरा. १० उश णचंति जिणवरेयं. १५उश परिहाणा, ब परिहाणं. ११उदाऊणं णाय, श दाऊणं णि य. १२ उशजायेण. १३ पब तोरणासिणा, गणिदो १४ उश इच्छाणं होह सम्बघणं. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ४.२२५ गंधण्याण मणीया सत्तस्सरसंजुदा तु गायंता । गच्छंति सुरा पवरा जिणजम्मणजाणियसंतोसा ॥ २२५ महुरमणोहरक्का दिव्याहरणेहि भूसिया देवा । सज्जसरेहि' प जुत्ता कच्छाए होति पढमा ॥ २२९ रिसभसरेण' प जुत्ता वत्थामरणेहि मंडिया दिग्वा । विदियाए कच्छाए महुरं गायंति जयंति ॥ २२७ नीलुपणीसासा महिणवलावण्णरूप संपण्णा । तदियाए कच्छाए गंधारसरेण गायंति ॥ २२८ ममिसरेण जुत्ता जलंतदरमउडकुंडला भरणा । गायंति पथरदेवा कच्छाए वह चउत्थीए ॥ ९२९ पंचमसरेण जुत्ता सुकुमरेसिंगार सहगंभीरा । कच्छाए पंचमिए णिहिद्वा सुरवरा विद्दा ॥ १३० धनदसरेण जुत्ता सायरणिग्वे । समणहराला वा । छट्टीए कच्छाए अमरकुमारा समुद्दिट्ठा ॥ २३१ गायंति महुरमणहरणिसायघोसेण भासुरा ममरा । सुरसुंदरिसंजुत्ता सत्तमिए तह य कच्छा ॥ २३२ बंसीवीणावसिमहुपरिकंसाल तालियादीहि । संजुत्ता देवीको गार्यति जिणाण भसीए ॥ २३३ ढक्कामुर्गिरि महसारम उदे किष्णरादीहिं । वज्र्जतमधुरमणहरगंधन्दा सुरगणा चलिया ॥ २३४ सायरतरंगसंणिभ भमरंजणसच्छा जगजगता । परमार कच्छार किण्डरा पैसंकुला गया ॥ २३५ उत्पन्न हुए सन्तोषसे सात स्वर युक्त गान करते हुए जाते हैं ॥ २२५ ॥ मधुर एवं मनोहर मुखवाले तथा दिव्य आभरणोंसे भूषित उक्त देव प्रथम कक्षा षड्ज स्वरोंसे युक्त होत हैं ॥ २२६ ॥ वस्त्राभरणोंसे मण्डित उक्त दिव्य देव द्वितीय कक्षा में ऋषभ स्वरसे युक्त मधुर गान करते व नाचते हैं ॥ २२७ ॥ तृतीय कक्षा में नीलोत्पलके समान निश्वासवाले और अभिनय लावण्यमय स्वरूपसे सम्पन्न वे देव गान्धार स्वरसे गाते हैं ॥ २२८ ॥ चतुर्थ कक्षा में चमकते हुए मुकुट एवं कुण्डल रूप आमरणोंसे सहित के उत्तम देव मध्यम स्वरसे युक्त होकर गाते हैं ॥ २२९ ॥ पांचवी कक्षा में सुकुमार ( सुन्दर ) आभूषणों के शब्द से गम्भीर उक्त श्रेष्ठ देवोंके समूह पंचम स्वरसे युक्त कहे गये हैं ॥ २३० ॥ छठी कक्षा में समुद्र के निर्घोष के समान मनोहर आलापवाले देवकुमार चैत्रत स्वरसे युक्त कहे गये हैं । २३१ ॥ सातवीं कक्षा में सुन्दर कान्तिवाले उक्त देव देवांगनाओंसे संयुक्त होकर मधुर एवं मनोहर निषाद स्वरसे गाते हैं ॥ २३२ ॥ वंशी, वीणा, बच्ची (स्त्री) सक, मधुकरी, कांस्याल और ताक ( कंसिका ) आदि वाद्यविशेषसे संयुक्त देवियां जिन भगवान की भक्तिसे गान करती है ॥ २३३ ॥ ढक्का, मृदंग, झालर, महासार, मुकुंद ( वाद्यविशेष) और किन्नर आदि बादित्रोंको बजाते हुर मधुर एवं मनोहर गन्धर्व देवोंके समूह प्रस्थित हुए ॥ २३४ ॥ प्रथम कक्षा में समुद्रतरंगके सदृश अथवा भ्रमर व अंजनके समान प्रभावाले जगमगाते हुए [ भृत्य ] जाओंसे युक्त जानना चाहिये ॥ २३५ ॥ [ उक्त भृत्य ] द्वितीय कक्षा में उन्नत कृष्ण १ उश सरेही. २ प ब रिसतसरेण वा सितमेरण. ३ प ब महुरा. ४ उ स गच्छति ५ उश सकुहर. ६ उश सुरणिवहा. ७ प व मणहरावाला, श मणिहराळावा. श मुदिए. ९ प व महासरामडद. १० डा गंधम्बपुरा गणा ११ उ श किण्हग्मय, प व किण्डाशय. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. २४४ ] चउत्थो उद्देसो [ १ कंचणदंगा' मणिरयणफुरंतभासुराडोवा । चामरचलंतसिहरा णील संकुला विदिए ॥ २३६ वेरुविणिवा कभदवण्णेहि वत्थणिवद्देहि । देवकुमारकरस्था पंडुयसंकुल । तदिएँ ॥ २३७ करिसीद्दवस इदप्पणसिद्दिसौर सगरुडचक करेंविसिहरा | मरगयदंडुरूंगा कणयमया तह य चोथीषु ॥ २३० उग्भिण्णैकमळपाडलमंदारासोकि सुकुसुमाभा । विहुमदंडुत्तुंगा पडमध पंचमाए दु ॥ २३९ गोखीर कुंदहिमचयसरयब्मतुसारहारसंकाला | निम्मलचणदंडा धवलधया छट्टकच्छाए ॥ २४० मणिगणफुरंत दंडा मुत्तादामेहिं मंडिया दिव्वा | धवलादवत्तविहा" सत्तमियाए दु कच्छा ॥ २४१ एवं सत्त विकच्छा भिच्चाणीयाण होंति णायन्त्रा । जिणभत्तिरायरत्ता गच्छंति महाणुभावेण ॥ २४२ बावण्णा कोडीओ बाणउद्दा लक्ख होंति गिहिट्टा । धयणिवद्दाणं संखा पवणपणञ्चतसेोता ॥ २४३ तेवण्णा कोडीमो छावरिलक्ख कुंदधवलाणं । छत्ताणं परिसंखा णायन्वा रयणश्चित्ताणं ॥ २४४ सुवर्णदण्ड से संयुक्त, मणि एवं रत्नोंके प्रकाशमान आटे पसे सहित तथा शिखर पर चलते हुए चामरोंसे शोभायमान नीली ध्वजाओंसे संयुक्त होते हैं ।। २३६ ॥ तृतीय कक्षामें बैडूर्य मणिमय दण्डसमूह से संयुक्त और कपोतवर्ण वस्त्रसमूहों से सहित चे कुमार देवोंके हाथोंमें स्थित जासमूह शुक्लवर्ण होते हैं ॥ २३७ ॥ चतुर्थ कक्षा में हाथी, सिंह, वृषभ, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चत्र, सूर्य और चन्द्र, ये उन्नत मरकतमय दण्डसे संयुक्त ध्वजायें सुवर्णमय ( पीत ) होती हैं ॥ २३८ ॥ पांचवीं कक्षा में विकसित कमल, पाटल, मंदार, अशोक और किंशुक कुसुमके समानं कान्तिवाली पद्मध्वजायें मूंगे के उन्नत दण्डसे संयुक्त होती हैं ।। २३९ ॥ छठी कक्षा में गोक्षीर, कुंद पुष्प, हिमसमूह, शरत्कालीन मेघ, तुषार और हारके सहरा धवल ध्वजायें निर्मल सुवर्णदण्डसे संयुक्त होती हैं ॥ २४० ॥ सातवीं कक्षा में मणिगण से प्रकाशमान दण्ड से सहित और मुक्तामालाओंसे मण्डित दिव्य धवल आतपत्रों के समूह होते हैं ।। २४१ || इस प्रकार भृत्पानीकों की सात कक्षायें होती हैं जो जिनभक्तिरागमें अनुरक्त होकर महा प्रभाव से जाती हैं ॥ २४२ ॥ पवन से प्रेरित होकर नाचनेवाळी उन शोभायमान ध्वजाओंके समूहों की संख्या बावन करोड़ बानबै लाख निर्दिष्ट की गई है || २४३ ॥ कुन्द पुष्पके समान धत्रळ और रत्नोंसे विचित्र छत्रोंकी संख्या तिरेपन करोड़ छयत्तर लाख जानना चाहिये ॥ २४४ ॥ सात अनीको १ ब दंगा. २ उश नीलव्यय, प ब गोलम्मुय ३ उश पंडुझय. ४ प तिदिए, व तिदिये. ५ प ब सिह ६ व गडुडवक्क ७ प उमग्भिण्ण, व उमज्जिण. ८ ष श मंदारसोय ९ उ प बा पउमज्झया. १० उ श्रवक्राद्रवतिणिवा, श धवलदवतिणिवहा. नं. दी. ११. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] जंबूदीवपण्णती [१. २१५ पाहत्तरिलक्खजुया छादाला सत्सकोडिसय संखा । सत्ताणीयाण सहा उणवण्णाणं' छाणं ॥ २४५ चुलसीदिलक्खगुणिदे सत्तावीसुत्तरेण य सएण । सत्तगुणेणुप्पज्जह सत्ताणीयाण परिसंक्षा ॥२५ चुलसीदिलक्खदेवा पढमाए तह यै होति कच्छाए । सवाणं भणियाणं भाविधणं एस णिढेि ॥ १४. विदियादीकच्छाणं दुगुणा दुगुणा हवंति णादग्या । एवं सत्त वि कच्छा णिहिट्ठा सम्बदरसीहि ॥ २४८ सोहर्मेसुरवरस्स दु सत्ताणीया समासदो वुत्ता । मवसेससुरिंदाणं एसेव कमो मुणेयम्वो ॥ २५९ एसेच लोयपालाण चारुरूवाण देवरायाणं । गरि विसेसो णेनो परिवारा होति अद्धद्धा ॥ २५० धणुफलसत्तितोमरणाणाविहपहरणेहि बहुवेहि । इंदस्स पायरक्खा असंखदेवा मुणेयम्बा ॥ २५॥ इंदो वि देवराया आरुहिऊणं गयंदपट्टम्मि । सम्वादरेण जुत्तो गच्छइ परमाए भत्तीए ॥ २५२ भह सो सुरिंदहस्थी एरावणणामदो ति विक्खाभो । जोयणलक्खपमाणं विउठवह जिम्मलं देई ॥ २५॥ सम्बन्धी उनचास कक्षाओं की संख्या सात सौ छयालीस करोड़ छयत्तर लाख है ॥२४५॥ सातसे गुणित एक सा सत्ताईससे चौरासी लाखको गुणा करनेपर उपर्युक्त सात अनीकोंकी संख्या उत्पन्न होती है [ ८४०००००४ (१२७४७) = ७४६७६००००० ] ॥२४६॥ प्रथम कक्षामें चौरासी लाख देव होते हैं। यह सब अनीकोंका आदिधन कहा गया है ॥ २४७ ।। द्वितीयादिक कक्षाओंका प्रमाण उत्तरोत्तर इससे दूना दूना जानना चाहिये । इस प्रकार सर्वदर्शियोंने सातों कक्षाओंका स्वरूप कहा है ॥२४८ ॥ यहां संक्षेपसे सौधर्म इन्द्रकी सात कक्षाओंका कथन किया गया है। शेष सुरेन्दोंकी सात अनीकोंका मी यही क्रम समझना चाहिये ॥ २४९ ॥ सुन्दर स्वरूपवाले इन्द्रोंके लोकपालोंका भी यही क्रम जानना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि उनके परिवार आधे आधे होते हैं ॥ २५० ॥ धनुषफलक, शक्ति और तोमर इत्यादि नाना प्रकारके बहुतसे शस्त्रोंसे सुसज्जित असंख्यात देव इन्द्रके पादरक्षक जानना चाहिये ॥ २५१ ॥ देवोंका राजा इन्द्र भी गजराजकी पीठपर चढ़कर पूर्ण आदरसे युक्त होता हुआ अतिशप मक्तिसे वहाँ जाता है ॥ २५२ ॥ ऐरावण नामसे विख्यात वह इन्द्रका हाथी एक लाख योजन प्रमाण निर्मक देहको विक्रिया करता है ॥ २५३ ॥ शंख, चन्द्र और कुंद पुष्पके समान उश सत्ताणीयाणि. २ उश उणवणाणं, पब उवण्णाणं. ३ उ शताह य. ४ पब सोहम्मि' ५ उश ता. ६ उ श एसे कमो. 0 उ लोयपालारा चारु, प लोयपाला पार, व लोयपाला चार, श लोयपादाण चार. ८ पब स, श णिओ. ९ ब पहफलिह. १. श पहरिणेहि. "उश विउपयर, पप विसवइ. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो उद्देसो [८५ संदुकुंवधवकं णाणाहरणेहि मंडियं दिव्वं । घंटारणंतकक्खं तारायणभूसियं कुंभं ॥ २५४ वसीसवरमुहाणि य कंधणमणिरयणदामणिवहाणि । एगेगदिसामागे णापम्वा तस्स णागस्स ॥ २५५ एफ्केक्कम्मि मुहम्मदु मणिकंचणमंछिदम्मि दिवम्मि । भट्ट धवलदंता गाणामणिरयणपरिणामा ॥ एक्केषकम्मि य दंते एक्केक्का सरवरा विमलतोया । एक्केक्कसरवरम्मि दु एक्केक्का कमलगच्छाणि ॥ एगेगकमलसंडे एगेगविचिसवेदिसंजुत्ता । एगेगदिसाभागा एगेगा तोरणा रम्मा ॥ २५८ पगेगम्मि य गच्छे बत्तीसा वियसिया महापउमा । पउमेसु तेसु णेया णाटयसंगीयरमणीया ॥ २५९ एगेगकमलकुसुमा एगेगा जोयणा सुरभिगंधा । मणिकंधणपरिणामा जमराण विउम्मणा दिया ॥ २१. एगेगकमलकुसुमे एगेगा गाडया मुणेयत्रा । एगेगणाध्यम्मि य मच्छरसा होति बत्तीसा ॥२१॥ इटाणि पियाणि तहा कंताणि य कोमलाणि रूवाणि । घिउरुम्विऊण पहुसो गचंति भणीवमगुणत ॥ समतालकंसतालं वरवीणाविधिहवंसवामिस्सं । वरमुरवसहगहिरं गहुँ' णचंति देवीओ ॥ २३३ . ............. धवल, माना आभरणोंसे मण्डित, दिव्य तथा घंटाके शब्द युक्त कक्षा ( हायो पेटपर बांधनेको रस्सी) वाला उसका कुम्भस्थल तारागणों ( धवल बिन्दुओं ) से भूषित होता है ॥२५॥ उस हार्थोके एक एक दिशाभागमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नाकी मालाओंके समूहसे संयुक्त बत्तीस उत्तम मुख होते हैं ॥ २५५ ॥ मणि और सुवर्णसे मण्डित एक एक दिव्य मुखमें नान। मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप आठ आठ धवल दांत होते हैं ॥ २५६ ॥ एक एक दांतपर निर्मल जलसे परिपूर्ण एक सरोवर और एक एक सरोवरमें एक एक कमल. समूह होता है ।। २५७ ॥ एक कमलसमूहमें एक एक विचित्र वेदीसे संयुक्त एक एक दिशाभागमें स्थित एक एक रमणीय तोरण होता है ॥ २५८ ॥ एक एक गच्छमें विकसित बत्तीस महापद्म होते हैं । उन पोपर नाट्य व संगीतसे. रमणीय तथा एक एक योजन प्रमाण फैलनेवाली सुरभि गन्धसे संयुक्त एक एक कमल पुष्प होता है। मणियों एवं सुवर्णके परिणाम रूप ये दिव्य पुष्प देवोंकी विक्रिया रूप होते हैं । २५९-२६०॥ एक एक कमलकुसुभपर एक एक नाट्यशाला और एक एक नाट्यशालामें बत्तीस अप्सरायें होती है ॥ २६१ ॥ ये अप्सरायें इष्ट, प्रिय, कान्त तथा कोमल रूपोंकी विक्रिया कर अनुपम गुणोंसे युक्त बहुत प्रकारसे अभिनय करती हैं ॥ २६२ ॥ उक्त देविया समतालसे युक्त कांस्यताल, उत्तम वीणा और विविध प्रकारकी वांमुरियोंस मिश्रित तथा उत्तम मृदंगके शब्दसे गम्भीर नाट्यका अभिनय करती हैं ॥ २६३ ॥ जहां दक्षिण इन्द्र ( सौधर्म ) की बहुतसी १७श णाणाहरिणेहि, २उश दामणिहाणि,प....बदामणिव होमि.३पब एगेगकमलकममे. उश णडया, प....,बड्या. ५ उ अकरम होति, पब अच्छरसाइति. उश बाम्मिसं. ७उन Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ४.२६४ नाथ लयपल्लवेहि य मुद्दभंगवियारपायचलणेहि । णच्चति भच्छरामो दक्खिणइंदस्स बहुगीओ ॥ २६४ बम्मदपुष्पाइय' ताओ रद्दरागरइसजणणाई' । रुवाई' अच्छरामो रमयति' अच्छेरयसमाई ॥ २६५ तेहि' कोमलेहि य भंगेहि' भणंगरागजणणेहि । णच्चेति मच्छराओ गईदसर कमलसंडेसु ॥ २६६ एवं ववईभो देवभो णच्चमाण सञ्चाओ । गच्छति पहिहमणा जिणजम्मणमहिमकलाणे ॥ २६७ कोडी सत्तावीसा" अच्छरसाओ' हवंति इंदस्स । भट्ठेव मद्दादेवी लक्खं पुण वल्लहीयाओ ॥ २६८ एयाओ देवीओ भारुहिऊणं गदपटुम्मि । अइआयरजुत्तामो' जम्मणमहिमार गच्छेति ॥ २६९ दक्खिणइंदस्स जहा सत्ताणीयादियाण परिसंख्या । उत्तरई दस्स तहा" परिसंखो होति णायब्वा ॥ २७० ईसानिँदो वि तहा भारुहिऊणं महंत [ वैसहम्मि । महदाइ ढिससुदभो भागच्छइ भत्तिरापुन १" ॥ २७१ सवाणं इंदाणं सत्ताणीया ह-] बंति णिद्दिष्ट्ठा | तिष्णि य परिसा या भसंख तह भादरक्खा " य ॥ २७२ सम्वे वि सुरवरिंदा जम्मणमहिमेण चोइया " संता । सगसगविहूइ सहिया छायंता हयलं एंति ॥ २७३ अप्सरायें लतापल्लबोंसे, मुखभंगविकारसे और पादसंचारसे युक्त नृत्य करती हैं ॥ अप्सरायें मन्मथ ( काम ) के दर्पको उत्पन्न करनेवाले व रतिरागरहस्यके जनक कारक वेषोंको रचती हैं ॥ २६५ उक्त अप्सरायें गजेन्द्रके दातोंपर स्थित कमलसमूह पर कामविषयक रागको उत्पन्न करनेवाले कान्त ( रमणीय ) व कोमल अंगों से माचती हैं ॥ २६६ ॥ इस प्रकार नृत्य करनेवाली उक्त सब रूपवती देवियां मनमें हर्षित होकर जिन भगवान् के जन्मकल्याणक जाती हैं ॥ २६७ ॥ इन्द्रके सत्ताईस करोड़ अप्सरायें, आठ महादेवियां और एक लाख वल्लभायें होती है ।। २६८ || ये देवियां गजराजकी पीठकर आरूढ होकर अति आदर युक्त होती हुई जन्ममहिमामें जाती हैं ॥ २६९ ॥ जिस प्रकार दक्षिण इन्द्रको सात अनीकादिकों की संख्या है उसी प्रकार उत्तर इन्द्रकी सात अनीकादिकोंकी संख्या जानना चाहिये ॥ २७० ॥ उसी प्रकार ईशान इन्द्र भी महान् वृषभपर आरूढ़ हो बड़ी ऋद्धिसे युक्त होकर भक्तिसे यहां आता है इन्द्रोंके सात अनीक होती हैं । इनके अतिरिक्त उनके तीन पारिषद और रक्षक देव होते हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥ २७२ ॥ महिमासे प्रेरित होकर अपनी अपनी विभूतिके साथ आकाशतलको व्याप्त ॥ २७९ ॥ सब असंख्यात आत्म २६४ ॥ आश्चर्य तालाव के १ प ब हदपुरवाई. २ उरहरागरहस, श रहरागरहस. ३ श जवाइ. ४ उश रयेत. ५ श के तिहि. ६ प व अंगहि. ७ प ब कोडी सचवीसा, श कोडीओ तावीसा ८ उश वीसा कोडी अच्छरसाओ. ९ उ अइजहआयारहुताओ, श अहप्रारहुताओ. १० व जह. ११ ब तह. १२ प ब होंति णिदिट्ठा. १३ प-प्रमोस्त्रुदितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः । १४ श मचिणा एव प व आदिरखखा. १६ प ब बोहया. १५ सभी इन्द्र जन्मकरते हुए आते हैं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २८३ ) चउत्यो उद्देसो [८५ अवसेसा वि य णेया' णाणाजपाणवाहणारूढा । [ सोहम्मादी जाब दु भच्चुदकप्पं सुरा चलिया ॥२७॥ भवणवहवाणायितरजोइसिया विविवाहणारूढा ।] जिणसासणभत्तिरया महाविहूईहिं ते चलिया ॥ २७५ अहमिदा घि य देवा मासणकंपेण घोहिया संता । गंतूण य सत्तपयं तत्थेव ठिया णमंसंसि ॥ २७६ सेदादवत्तणिवहा वरचामरधुम्बमाण बहुमाणा । णाणापढायचिण्हा बहुविहवरवाहणारूढा ॥ २७७ कंकणपिणहत्या कंठाकडिसुत्तभूसियसरीरा। पजलंतमहामउडा मणिकुंडलमंडियागंडा ॥ २७८ धारविराइयवच्छ। केजरविहूसिया महायाहू । तुडियंगदणवत्था वरवत्थविहूसिया देहा ॥ २७९ अंधड्कुसुममालामलयंदणसुरहिंगंधणिस्तासा । सुकुमालपाणिपादा बहुविवण्णुज्जलेसरीरा ॥ २४. एवं ते देवगणा सागंतूर्ण महाविभूदीए । मंदरगिरिस्त सिहरे वरपंडुवणे विसालम्मि ॥ २८१ सिंहासणेसु णेया गाणामणिविप्फुरंतकिरणेसु । जिणहंदवरकुमारे खीरोदजलेण हार्विति ॥ २८२ जोयणमुवित्थारा अद्वैव य जोयणा सुगंभीरा । भट्ठ सहस्सा कळसा मणिकंचणरयणकयसोदा ॥ २८३ .......................................... ॥ २७३ ॥ सौधर्म कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके शेष देव मी नाना जम्पान (वाहनविशेष) वाहनोंपर चढ़ कर चल देते हैं ॥ २.७५ ॥ भवनवासी, वानप्यन्तर और ज्योतिषी देव भी विविध वाहनोंपर चढ़कर जिनशासनकी भक्ति में रत होते हुए महा विभूतियोंके साथ प्रस्थान करते हैं ॥ २७५ ॥ अहमिन्द्र देव भी आसनके कम्पित होनेसे प्रबोधित होते हुए सात पैर । जाकर वहीं स्थित होकर नमस्कार करते हैं ॥ २७६ ॥ धवल छत्रोंके समूहसे सहित, दुरते हुए उत्तम चामरोंसे संयुक्त, अतिशय आदर सहित, नाना प्रकार पताकाओंके चिह्नोंसे संयुक्त, बहुत प्रकारके उत्तम वाहनोंपर आरूढ़, हाथमें कंकण पहिने हुए, कंठा और कटिसूत्रसे विभूषित शरीरवाले, देदीप्यमान महा मुकुटसे सहित, मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंसे संयुक्त, हारसे सुशोभित वक्षस्थलवाले, केयूरसे विभूषित महा बाहुओंसे सहित, त्रुटित ( हाथका एक आभूषण) और अंगद युक्त वेषसे सहित, उत्तम वनोंसे विभूषित देहके धारक, गन्धसे व्याप्त कुसुममाला और निर्मल चन्दनकी सुगन्धित गन्धके समान निश्वासवाले, सुकुमार हाथ व पैरोंसें सहित, और बहुत प्रकारके वर्ण युक्त उज्ज्वल शरीरवाले, इस प्रकारके वे देवगण महा विभूतिके साथ मन्दर गिरिके शिखरपर विशाल व उत्तम पाण्डुक वनमें स्थित नाना मणियोंकी चमकती हुई किरणोंसे सहित सिंहासोंपर श्रेष्ठ जिनेन्द्रकुमारोंको क्षीरसमुद्रके जलसे नहलाते हैं ॥ २७७-२८२ ॥ एक योजन प्रमाण मुखविस्तारसे सहित, आठ योजन गहेर ऐसे मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे शोभायमान जो एक हजार आठ कलश होते हैं, १ उवि अणेया, श विणेया. २ उ-शप्रत्यास्त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः। ३ उ श सेदादिवत्त, पब सेहाहवत. ४ ब चामरसन्युव्वमाण. ५ उ कंकणपिणट्ट, पब कंकणपिणच, श कंकणह. ६ उशतहा. ७ उश उडियंग. ८ उकुसुमाल,श कुसुममाल. ९ उपब शवशुरुजल. १. ब आणतूणं. १, उ हापिति, प प ण्हावंति, श एइविति.. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६) जबूदीवपण्णत्ती [.. २८५रयणकलसेहि तेहि य खीरोदसुगंधसलिलपुण्णा । मुरचंति जिणाणुवरि एगीभूया सुरा सम्वे ॥ २८. जई से धारावरणा परवदसिहरे पडंति वेगेण । तो सो पध्वदसिहरो सयखंडो' तक्खणे होइ ॥ २८५ सम्वे वि जिणवरिंदा भणतीवरिया भणतमाहप्पा । ते पुण धारावडणा मण्णति कुसग्गपिंदु म ॥ २४॥ पमहक्कसंखकाहलमुर्दिगणिवहेहिं कसतालेहिं । मल्लरिभेरीहि सहा दुंदुहिसदेहि विधिहहि ॥ २८७ महलतिधलीहिं तहा भेरीस देहि उवहिघोसेहि । जयघंटरवेहिं पुणो भंभारवमेघरावहिं ॥ २८८ पडपडहरवेहि वहा सायरगंभीरसहणियहिं । वजंतर्राणिवह फुडियं व सपबदा' धरणी ॥ २८९ पहाविता भत्ती वस्थालंकारभूसिय किच्चा । मणुलिपिऊण पच्छा कुंकुमपंकेहि दिग्वेहि ॥ २९० थोरण जिणवरिंदं थुईहि संभूदगुणविसालाहि । जेणागदी पडिगदा धम्माणुराया सुरा सम्वे ॥२९॥ पंचमणाणसमग्गं पंचमगइदेसयं पउमणाहं । घरपउमणदिमियं वंदे परमप्य सिरसा ॥ १९१ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे महाविदेहाहियारे चउरथो उदेसो समतो ॥॥ क्षीरसमुद्रके जलसे परिपूर्ण उन रत्नमय कलशों द्वारा सब देव एकत्रित होकर जिनभगवानोंके ऊपर [ जलधारा ) छोड़ते हैं ॥ २८३-२८४ ॥ यदि वे धारापतन वेगसे पर्वतशिखरपर गिरें तो वह पर्वतशिखर तत्क्षण सौ खण्ड हो जाय ॥ २८५ ॥ अनन्त बल और अनन्त माहत्म्यसे संयुक्त सब जिनेन्द्र उन धारापतेनोंको कुशके अग्र भागपर स्थित बूंदके समान मानते हैं ॥ २८६ ॥ ढक्का, शंख, काहल, मृदंग, इनके समूहसे; कांस्यताल, झालर, मेरी व दुंदुभि, - इनके विविध शब्दोंसे; मर्दल, तिवली तथा समुद्रघोषके समान भेरीशब्दोंसे; पुनः जयघंटाशब्दोंसे, मेघके शब्दके समान भंभाशब्दोंसे, समुद्रके गम्भीर शब्दसमूहके समान पटुषटहके शब्दोंसे, तथा अन्य वाद्यसमूहके बजनेपर मानों पर्वत सहित पृथिवी विदीर्ण हो गई थी ॥ २८७-२८९ ।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक नहला कर ब वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करके पश्चात् दिव्य कुंकुमकका लेपन कर विशाल गुणोंको प्रगट करनेवाली स्तुतियों द्वारा स्तवन करके धर्मानुराग युक्त वे सब देव जिस प्रकारसे आये थे उसी प्रकारसे वापिस चले जाते हैं ॥ २९०-२९१ ॥ पंचम केवल ज्ञानसे सम्पन्न, पंचम गति ( मोक्ष ) के उपदेष्टा और श्रेष्ठ पद्मनन्दि द्वारा नमस्कृत पद्मनाथ जिनेन्द्रको मैं शिरसे नमस्कार करता हूं ॥२९२ ॥ ॥ इस प्रकार जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारका वर्णन करनेवाला चतुर्प उद्देश समाप्त हुआ ॥ १ ॥ पब जय, शप्रतौ 'जाते धारावडणा' इत्येतस्य स्थाने ' जोयण ' इत्येक एवायं शब्दः समुपलभ्यते. पतो सो सम्वदसिहरे सियक्खंडगे, व तो सो सवदसियरे सियक्खंडो ३ उब पयटक, पपपटक्क, श पटक्क. ४ श मरीहि. ५ उशदुंदहि, पब दुदहि. ६उश सदोहि विविहोहि. ७प पहुपह,ब पापहः ८ उ कुटियं व सपध्वदा, शकुड़ियं व सपुम्चदा. ९ उपहाविद्या मितीए, प ण्हाएंता मसीए, ब एहाएता अपीए.श एहावित्ता मित्तीए.१.उश विसालहि... उशनेण गदा, १२ पबदेसिवं. पब सिस्स. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पंचमो उद्देसो] णमिऊण सुपासाजिणं सुरिंदवइसंथुवं विगयमाई। मंदरजिणवरभवणं जहाकम तं परूवेमि ॥" संखिंदुकुंदधवलो मणिगणकरजालखवियतिमिरोहो । जिणईदपवरभवणो तिहयणविकमो ति णामेण || पण्णत्तरिउच्छेहो पण्णासायाम तह य विक्खंभो । पुग्णिदुमंडलणिभो गंधकुरी दिवपासादे' ॥३ सोलसजायणतुंगा अद्वैव य वित्थडी समुट्ठिा । वित्थारसमपवेसा तस्स दु दाराण परिसंवा ॥१ भंदरगिरिपढमवणे चत्तारि हवंति चदुसु वि दिसासु । जिणईदाणे भवणा गणाइणिहणा समुचिट्ठा ॥ ५ जोयणपयभायामा तदर्खेत्रित्यार उभयदलतुंगा। उग्गाढ श्रद्धजोयण रयदमयाभित्तिजिणगेहा ॥ जिणभवणस्सवगावं दिवढसयसंगुणेग जं लद्धं । तं उच्छेदं दिट्ट पठमवणे जिणघराणं तु ॥ ७ गुणगारेण विभत्तं उच्छे इं जिणघराण जलद्धं । तं भवगाणेयं समासदो होह णिबिटुं॥ महवा मायामे पुण विक्खंभं पक्खिवित्तु अद्धकदे । जो लद्धो सो णेभो उच्छेहो सम्वभवणाणं ॥ सुरेन्द्रपतियोंसे संस्तुत और मोहसे रहित सुपार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार करके क्रमानुसार उस मन्दर पर्वतस्थ जिनभवनका निरूपण करते हैं ॥१॥ त्रिभुवमतिलक नामक वह जिनेन्द्रभवन शंख, चन्द्र और कुंद पुष्पके समान धवल तथा मणिगणोंके. किरणसमूहसे अन्धकारसमूहको नष्ट करने वाला है ।। २ ।। उस दिव्य प्रासादमें पचत्तर [ योजन ] ऊंची एवं पचास [ योजन ] आयाम व विष्कम्भसे सहित पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान गन्धकुटी है ॥ ३ ॥ इसके द्वार सोलह योजन ऊंचे, आठ योजन विस्तृत और विस्तारके समान प्रवेशसे सहित हैं, यह उसके द्वारों का प्रमाण है ॥ ४ ॥ मन्दर पर्वतके प्रथम वनमें चारों ही दिशाओंमें अनादिनिधन चार जिनेन्द्रभवन कहे गये हैं ।। ५॥ रजतमय भित्तियोंसे संयुक्त ये जिनगृह सौ योजन आयत, उससे आधे अर्थात् पचास योजन विस्तृत, आयाम व विस्तारके सम्मिलित प्रमाणसे आधे (१०+५० = ७५ यो. ) ऊंचे, तथा अर्थ योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ ६ ॥ जिनभवनके अत्रगाहको डेढ़ सौसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उतना (Ext. ७५) प्रथम वनमें स्थित जिनगृहोंका उत्सेघ कहा गया है ॥७॥ उक्त गुणकारका उत्सेघमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना जिनगृहोका अवगाह जानना चाहिये, ऐसा संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥८॥ अथवा, आयाममें विष्कम्भको मिलाकर भाषा करनेपर जो प्राप्त हो वह सब भवनोंका उरसेघ जानना चाहिये ( देखिये ऊपर गा. ६)॥९॥ १उश'पासादो, पब 'पासाहो. २उश अटेव य जो विस्था..पब जिणयंदाणं. ४श बध, ५पब अवगाई. For Private & Personal use only , Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८1 जंबूदीवपण्णत्ती उच्छेहं विगुणित्तो पंचासेणूण होइ भायाम । मायामद्धेण पुणो विक्खंभो' होइ भवणाणं ॥ १० विखंभे पक्खिते आयामे जादरासिणा तेणः । उच्छेहे भागहिदे जे लद्धं होइ भवगाहं ॥" तेसिं जिणभवणाणं पुष्वुत्तरदक्षिणेसु दाराणि । तिण्णेव समुट्ठिा कंचणमणिरयणणिवहाणि ॥ १२ दाराणि मुणेयम्वा भट्टेव य जोयणाणि' तुंगाणि । विस्थाराणि तदद्धं मुत्तामणिदामणिवहाणि ॥ १३ भवणेसु अवरपुग्वे मणिमालाविष्फुरतकिरणामो| अट्टेव सहस्सामो लंवंतीनों विचित्तवण्णामो॥१५ चउवीससहस्साभो णिम्मलवरकण पदिनमालामो | ताणतरेसु या लंरंतीमो विरायंति ॥ १५ कप्पूरागरुचंदणतुरुक्छेवरसुरभिधूमगंधड्डा । धूवघडी गायब्वा चउवीसहस्स परिसंखा ॥१६ तरुणरवितेयणिवहा सुगंधदामाण अभिमुहा दिव्वा । बत्तीस रयणकलसा सहस्सगुणिदा समुट्ठिा ॥ १७ चत्तारि सहस्साणि दु बाहिरभागम्मि हाँति मणिमाला। बारल चेव सहस्सा कंचणमाला समुट्ठिा ॥ १८ धूवधा विण्णेया वाहिरभागम्मि वारससहस्सा | सोलस चैव सहस्पा कवणाकसा समुट्ठिा । १९ समहियसोलसजोयणमायामा वित्थडा हु महिया । बेजोयणउविद्धा पीठाण हवंति परिसंखा ॥ २. उत्सेधको दून। करके पचास कम कर देनेसे भवनोंका आयाम और आयामसे आधा विष्कम्भ होता है ॥ १०॥ आयाममें विष्कम्भके मिलानेपर उत्पन्न हुई उस राशिसे उत्सेधक भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना अवगाहका प्रमाण होता है ॥ ११ ॥ उन जिनभवनोंके पूर्व, उत्तर और दक्षिणमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके समूहसे संयुक्त तीन ही द्वार कहे गये हैं ॥ १२ ॥ मुक्ता एवं मणियोंकी मालाओं के समूहसे संयुक्त ये द्वार आठ योजन ऊंचे और इससे आधे विस्तारवाले हैं ॥ १३ ॥ भवनोंमें [द्वारके ! पश्चिम-पूर्वमें प्रकाशमान किरणोंसे सहित और विचित्र वर्णवाली आठ हजार मणिमालायें लटकती रहती हैं ॥ १४ ॥ उनके अन्तरालमें निर्मल उत्तम सुवर्णकी चौबीस हजार दिव्य मालायें लटकती हुई विराजमान होती हैं ॥ १५॥ कपूर, अगरु, चन्दन और तुरुष्कके सुगन्धित उत्तम धूमके गन्धसे व्याप्त चौबीस हजार संख्या प्रमाण धूपघट जानना चाहिये ।। १६ ॥ मुगन्धित मालाओं के अभिमुख तरुण सूर्यके समान तेजपुंजसे संयुक्त. दिव्य बत्तीस हजार रत्नमय कलश करे गये हैं ॥ १७ ॥ बाह्य सागमें चार हजार मणिमालायें और बारह हजार सुवर्णमालायें कही गई हैं॥ १८ ॥ बाह्य भागमें बारह हजार धूपघट और सोलह हजार सुवर्णकलश कहे गये हैं ॥ १९ ॥ सोलह योजनसे अधिक आयत, आठ योजन विस्तीर्ण और दो योजन ऊंची, यह पठिोंके आयामादिका प्रमाण है ॥ २० ॥ भवनोंके ये पीठ वज्र, इन्द्रनील, मरकत, १उ विउणित्ता,श विउतिणा. २ पब गूण आयाम ३ उश विक्खमं ४ उश आयामं. ५ पब अढेव जोयणाणि.६उ श लंबंत. उ कपूरागरचंदतुरुरक, श कप्पूरावयचंदतुरुरक. ८ उ धूमवदा, पब धूमघा, श धूमञ्चटा. ९ उ भागाम्मि, श मागास्मि. १० उ धूमपरा, श धूमवा. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ३० ] पंचमो उद्देसो [ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपणती रयणमए जगदीए स्यदमयापीढतुंगसिहरेसु । मणिमयखंभेसु तहा धयणिवहा होति णिष्टिा ॥३॥ सीहगयईसगोवाइसयवत्तमऊरमयरधयाणिवदा । चक्कायवत्तगरुडा दसविहसंखा मुणेयब्वा ॥१२ भट्सम भट्टसर्य एगेगधयाण होति परिवारा। वरपंचवण्णदिष्वा मुत्तामणिदामकयसोहा॥१३ महर्मडवाण विणहं रयदसुवण्णाण बाहिरदिसाए। गोउरसमधियतुंगा समतदो संठियपगया ॥१॥ कंचणमणिरयणमया पायारा तरथ जोयणुविद्धा । सोलसयजोषणाई तोरणदाराणि रम्माणि ॥ १५ जोयणसयमायामा विखंभ तदद्ध सोलसुत्तुंगा' । मुहमंडवा वि गेया कोसवगाह णिहिट्ठा ॥ ३६ पेक्खागिहा य पुरदो विक्खंभायाम जोयणसयाणि । समाहियसोलसतुंगा जोयणा 'दुभवगाहा ॥ ३७ सोलसोयणतुंगा चउसटायामविस्था या | ताणं पुरदो दिट्टा सभाघरा रयणसंडण्णा ॥३८ ताण सभाघराणं पीठाणि हवंति कंचणमयाणि विक्खंभायामेण य भसीवितहजीयणाणि हवे ॥१९ बेजोयणाचाणि य पठमपहवेदिएदि जुत्ताणि । रयणमयतोरणेहि य रम्माणि हर्वति पीढाणि ॥. --........................................ रत्नमय पृथिवीपर स्थित रजतमय पीठके ऊपर ऊंचे शिखरोंवाले मणिमय खम्भोंके ऊपर ध्वजासमूह निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ३१ ॥ सिंह, गज, हंस, गोपति ( वृषभ ), कमल, मयूर, मकर, चक्र, आतपत्र और गरुड़, इन दश प्रकारको ध्वजाओंके समूह जानना चाहिये ॥३२॥ इनमेंसे एक एक ध्वजाके मोतियों व मणियोंकी मालाओंसे शोभायमान उत्तम पांच वर्णघाली एक सौ भाठ एक सौ आठ दिव्य परिवारध्वजायें होती हैं ॥ ३३ ॥ वहा रजत व सुवर्णमय मुखमण्डोके बाह्य भागमें गोपुरोंसे कुछ अधिक ऊंचे य चारों ओर स्थित पताकाओंसे सहित सुवर्ण, मणि एवं रत्नमय तीन प्राकार व उनमें एक योजन ऊंचे सोलह योजनके रमणीय तोरणद्वार होते हैं ॥ ३४-३५॥ मुखमण्डप भी सौ योजन आयत, इससे बाधे विस्तृत, सोलह योजन ऊंचे और दो कोश अवगाहसे युक्त कहे गये हैं ॥ ३६॥ उनके आगे सौ योजन विष्कम्भ व आयामसे सहित, सोलह योजनसे कुछ अधिक ऊंचे, और अर्ध योजन अवंगाहसे संयुक्त प्रेक्षागृह होते हैं ।। ३७ ॥ उनके आगे सोलह योजन ऊंचे और चौसठ योजन प्रमाण आयाम व विस्तारसे सहित रत्नोंसे व्याप्त समागृह होते हैं ॥३८॥ उन सभागृहोंके सुवर्णमय पीठ अस्सी योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित होते हैं ॥ ३९॥ उक्त पीठ दो योजन ऊंचे, पन जैसी प्रभाषाली वेदिकाओंसे युक्त और रत्नमय तोरणोंसे रम्य होते हैं ॥४०॥ उन सभागृहोंके आगे जिनेन्द्रप्रतिमाओंसे ४ १ पब रयणमहापाड, २उमओरमयर, पब मउरमरयं, श वओरमया.३ पब संबा समुट्ठिा. श सोलउत्तंगा. ५ पब कोसगाह, शबेकोसाविगाह. ६ उश अट्ठा, ७ ब श°घरा यणसंकपणा, उ मवे, श भाने. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१ ] पंचमो उद्देस [ ९१ तार्ण सभाघराणं पुरो थूहाणि होति रम्माणि । जिणवरपरिमण्णा णाणामणिरयणपरिणामा || १ श्यणमयविउलपीढं ठतुंगं जोयणाणि' 'चाकीसं । थूहस्से दु चडवीसाकं चणवेदीसमाजु ॥ १२ पीढस्सुवरि' विचितं तिमेहलापैरिउयं महाथूहूं" । आयामं विक्खंभं उच्छेदं होइ चउसट्ठी ॥ ४६ थूहादो पुग्वदिसं' तूणं होइ कणयमयपीठं । विक्खंभायामेण य सहस्स तह जोयणा णेया ॥ ३४ बारसवेदिसमग्गं वरतोरणमंडियं परमरम्मं । मणिगणजलंतनिवहं बहुतरुगणसंकुलं दिग्वं ॥ ४५ तस्स दु पीढस्सुवरि सोलस तह जोयणा समुत्तुंगा । चेदियँक्सा णेया णाणामणिरयणपरिणामा ॥ ४६ 1 'च सयलहस्तं चालीसा वह सहस्स परिसंखा । एगसयं वीसहिया सिद्धत्थतरूण परिसंखा ॥ ४७ उद्धं गंतूण पुणो धरणीदो जोयणाणि चत्तारि । चदुसु वि दिसाविभागे' साहामो होंति णिष्ट्ठिा ॥ ४८ बारहञोपणदीहा सिद्धत्ययणामधेयेरुक्खाणं । विक्खंभेण यर जोयण निद्दिट्ठा सम्बदरिलीहिं ॥ ४९ अद्वेव जोयणेसु य रुंदेसु महादुमेसु णिद्दिट्ठा | जिनहुंदाणं पडिमा भकिट्टिमा सासवसभावा ॥ ५० पलिर्यकारणबद्धा रयणमया पाडिदेरसंजुत्ता । सव्वाणं रुक्खाणं चदुसु वि भागेसु ते हाँति ॥ ५१ युक्त नाना मणि एवं रत्नोंके परिणाम रूप रमणीय स्तूप होते हैं ॥ ४१ ॥ स्तूपका तथा चालीस योजन ऊंचा स्तूप होता है । इसका आयाम, स्तूपसे आगे पूर्व दिशामें जाकर रत्नमय विशाल पीठ चौबीस सुवर्णमय वेदियोंते संयुक्त होता है || ४२ ॥ पीठके ऊपर तीन मेखलाओंसे वेष्टित मह विष्कम्भ और उत्सेध चौंसठ योजन प्रमाण होता है ॥ ४३ ॥ एक हजार योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित सुवर्णमय पीठ जानना चाहिये ॥ ४४ ॥ यह दिव्य पीठ बारह वेदियों से परिपूर्ण, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, देदीप्यमान मणिगणोंके समूहोंसे युक्त और बहुतसे तरुगण से व्याप्त होता है ॥ ४५ ॥ उस पीठके ऊपर स्थित सोलह योजन ऊंचे नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप चैत्य वृक्ष जानना चाहिये ॥ ४६ ॥ सिद्धार्थ वृक्षोंकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है ॥ ४७ ॥ पृथिवी से चार योजन ऊपर जाकर चारों ही दिशाविभागों में उनकी शाखायें निर्दिष्ट की गई हैं ॥ ४८ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा सिद्धार्थ नामक वृक्षों की [ शाखायें ] बारह योजन दीर्घ और एक योजन विष्कम्भ से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं ।। ४९ ॥ आठ योजन रुंदवाले उन महा दुमपर अकृत्रिम और शाश्वतिक स्वभाववाली जिनेन्द्रों की प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं ॥ ५० ॥ पत्यकासन से विराजमान और प्रातिहायोंसे संयुक्त वे रत्नमय जिनप्रतिमायें सत्र वृक्षोंके चारों ही भागों में होती हैं ॥ ५१ ॥ उस वृक्षसमूह से पुनः पूर्व दिशा भागमें जाकर १ प जोयणेणि, व जोयणेण २ उश थूहस. ३ उश पांडेनुवरि ४ प व चिरं तिमेहला. ५ उश महाथू ६ उ पुव्वदिते, प ब पुन्वदिसो. ७ उ श वेदीय, प ब वेदिय. ८ उपश एवं. ९ उ प वा दिसामिमागे १० उ श सहाओ. ११ प व सिद्धथं नामचेय. १२ व विक्संमेयण. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१] जंबूदीवपण्णता [५, ५२सो दुमसंडादो गंदण पुणो वि पुम्वदिसभागे । भयाणिवहाणं पीठं बारसवेदीहि संजुक्तं ॥ ५२ तम्मि परपीडसिहरे सोळस तह जोयणा समुत्तुंगा । कोसेर्ग होति रुंदा वेरुलियमया महाखंभा ॥ ५३ संमेसु होति दिन्वा महाधया विविवरणसंजुत्तौ । छत्तत्तयवरसिहरा भणोवमा रूवसंपण्णा' ॥ ५४ धयणिवहाणं पुरदो वाधीमो होति सलिलपुण्णाभो । सयजोयणदाहाभी पण्णासाभो य रुंदाभो ॥ ५५ दसजायणउंडामो' कंचणमणिवेदिएहि जुत्तायो। मणितोरणणिवहामो कमलुप्पलकुसुमण्णाभो ॥ ५॥ एवं पुन्वदिसाए जिणभवर्ण मंदरस्स णिहिट् । भवसेसाण दिसाणं एमेव कमो मुणेयम्बो ॥ ५७ ततो दहादु परदों पुन्वुत्तरदक्षिणेसु भागेसु । पासादा णायम्बा देवाण कोडणा' होति ॥ ५८ कणयमया पासादा पण्णासा जोयणा समुसुंगा । विक्खंभायामेण य पणवीसा होति णिहिट्ठः ॥ ५९ कणयमया पासादा वेरुलियमया य मरगयमया य | ससिकंतसूरकताकोयणपुस्सरागमया ॥६. बरवेदिएहिं जुत्ता कंचणमणिरयणजालपरियरियं । अक्खइमणाइणिहणा को सका वणिउं पयलं ||" .......................... । बारह वैदियोंसे संयुक्त ध्वजासमूहोंका पीठ होता है ॥५२॥ उस उत्तम पाठके शिखरपर सोलह योजन ऊंचे और एक कोश विस्तारवाले वैडूर्यमणिमय विशाल खम्भ होते हैं ॥५३॥ खम्भापर विविध घोंसे संयुक्त, शिखरपर उत्तम तीन छत्रास सुशोभित और अनुपम रूपसे सम्पन्न दिव्य महाध्वजायें होती हैं ॥५५॥ ध्वजासमूहोंके आगे सौ योजन दीर्घ, पचास योजन विस्तृत, दश योजन गहरी, सुवर्ण एवं मणिमय वेदिकाओंसे युक्त, मणिमय तोरणसमूहसे संयुक्त, कमल व उत्पल कुसुमसे व्याप्त और जलसे परिपूर्ण कापियां होती हैं ॥५५-५६ ॥ इस प्रकार मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशा स्थित जिनभवनका स्वरूप निर्दिष्ट किया है। शेष दिशाओंके जिनभवनोंका भी यही क्रम जानना चाहिये ॥ ५७॥ उस द्रहके आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागोंमें देवोंके कोडाप्रासाद हैं ॥५८॥ ये सुवर्णमय प्रासाद पचास योजन ऊंचे और पञ्चीस पोजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५९ ॥ उक्त प्रासाद सुवर्ण, वैडूर्यमणि, मरकतमणि चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन एवं पुखराज मणियोंसे निर्मित, उत्तम वेदिकाओंसे युक्त, सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके समूहसे व्याप्त, अक्षयी व अनादि-निधन हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन करनेके निये कौन समर्थ है ! ॥६०-६१ ।। उनसे भागे फिर भी पूर्व दिशामें जाकर कोसेव. १७ विविहवणसंहुचा, हा विविहसंजुत्त. पद संपुण्णा. ४ उपाण्णसाओ य बाओ, प.ष पण्णाउ य संदाओ, श पाण्णासाओ य रंदावो. ५ उ श उडाओ, पप उदाओ. ६ विमोहि, पादिजोएहि. प.पुरदो. ८पय कोगणा, शकोडणा. ९पब सराय. १०श अणाइणिई, पएमभापनिणा. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५.७१ १ पंचमो उसो ( 3 तेहिंतो गंतृणं पुग्वदिसाए पुणेो वि णायन्को' । वरतोरणं विचित्तं मणिकं चणश्वणं ॥ ६२ जोयणसद्धगं तदवित्थार मासुरं दिव्वं । मुत्तादामेणद्धं वरघंटाजालरमणीयं ॥ ६३ तत्तो परं विचित्ता पासादा गोउराण पासेसु । जोयणस्य विद्धा दो दो दुहवीत गायन्या ॥ ६ तत्त परं विचित्ता धयणिवा विविर्देवष्णजादीया । असिदी सहस्त्र संखा गिदिट्ठा होंति णायन्वा ॥ ६९ तोरणसय संजुत्ता घरवेदी परिउडा समुत्तुंगा । सायरतरंगभंगा सइिंति महाधया रम्मा ॥ ६६ तो परं वियाणद वणलंड विविधपायचाद्दण्णं । वणवेदिहि जुत्तं णाणामणिरयणपरिणामं ॥ ६७ रयणमयपीढसोहं मणितोरणमंडियं मणभिरामं । कणयमय कुसुमसोहं मरगयवरपणं ॥ ६८ चंपयभसेोयगहणं सत्तच्छय मंबकल्पतरुणिव । घेरुलियफलसमिद्धं विदुमसाद्दाउसिरीयं ॥ ६९ ताणं कप्पदुमाणं मूकेसु हवंति चदुसु वि दिसासु । जिण दाणं' पडिमा सवाडिद्देश विशयति ॥ ७० सीदासणछत्तत्तयभामंडल चामरादिसंजुत्ता | पलियं कारणसंगद' अगोत्रमा रुवसंठाणा ॥ ७१ मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे व्याप्त - तोरण पचास योजन ऊंचा, इससे विचित्र उत्तम तोरण जानना चाहिये ॥ ६२ ॥ यह भाधे ( २५ यो. ) विस्तारसे सहित, भासुर, दिव्य, मुक्कामाला से संयुक्त और उत्तम घंटा समूइसे रमणीय है ॥ ६३ ॥ इसके आगे गोपुरोंके पार्श्वभागों में सौ योजन ऊंचे दो दो विचित्र प्रासाद जानना चाहिये ॥ ६४ ॥ इसके आगे विविध वर्ण व जातिके एक हजार अस्सी ( १०८ × १० ) संख्या प्रमाण विचित्र वाओं के समूह निर्दिष्ट किये गये हैं ।। ६५ ॥ सौ तोरण से संयुक्त व उत्तम वेद से वेष्ठित वे ऊंची रमणीय महा ध्वजायें समुद्र की तरंगों के भंगके समान शोभायमान होती हैं ॥ ६६ ॥ इसके आगे विविध पादपोंसे व्याप्त, वनवेदिकाओंसे युक्त, नाना मणियों व रत्नोंके परिणाम रूप, रत्नमय पीठसे शोभित, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, मनोहर, सुवर्णमय कुसुमोंसे शोभित, मरकत मणिमय उत्तम पत्तों से व्याप्त चंपक व अशोक वृक्षों से गहन; सप्तच्छद व आम्र कल्पवृक्षोंके समूइसे परिपूर्ण, वैडूर्यमय फलों से समृद्ध, और मूंगामय शाखाओं की शोभासे संयुक्त मनखण्ड जानना चाहिये ।। ६७-६९ ।। उन कल्पवृक्षों के मूल भागोंमें चारों ही दिशाओं में प्रतिहार्य सहित जिनेन्द्रोंकी प्रतिमायें विराजमान हैं ॥ ७० ॥ ये प्रतिमायें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादिसे संयुक्त, पल्यंकासनसे स्थित और अनुपम रूप व संस्थान से युक्त है ॥ ७१ ॥ इस प्रकार संक्षेपसे जम्बूद्वीप सम्बन्धी मंदर पर्वतके भद्रशाल वनमें स्थित १ श णायग्ना २ प व दिग्बा २ ज श विचित. ४ व विवह. ५ उ रा पायवाद, प पाणायण व पाहवाहणं. ६ प व मरगयवपत्त, श मरगयपरवत्त. ७ उ श सहाउल, प ब बाहय ८ उश मेनईदा ९ पळियंकणिसणगदा, प पळियंकसंगदा, व पक्कियंकण संपदा, हा प्रक्रियेकणिसणानंदा. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] जंबूदीपणती [ ५.७२ एवं तु भसाले जंबूदरीपस्स मंदरगिरिस्स। जिणभवणाण पमाणं समासदो होत्रि णायम्वा ॥ ७२ वेहलियफलिइ मरगयगलिंदमसाररयणचित्ताणि' । भंजणपवाल मरगय जंबूणयभूसियतलाई ॥ ७३ ससिकंतसूरकंता ताई' वरवहरलोहियंकाइ' । वरमणिविउल सुणिम्मल सोइंति भणोषमगुणाई ॥ ७४ सुविणिम्मलवर विउला" चोक्खा य पसाहिया' दरिसणिज्जा । अच्चतमणहरा से णाणाविहरूत्र संपण्णा ॥ ७५ 'वर कमल कुमुद कुवलयणीलुप्पलय उल तिल यक यँसोदा । कप्पूरागरुचंद्रणकालागरुधूमगंधट्टा ॥ ७६ धयविजयवइ जयंती पडायबहुकुसुमसेद्दिकयमाला | विळसंत मणभिरामा' बहुकोदुगमंगळसणाहा ॥ ७७ जगजगजगत सोहा अच्छेर यरूवसारसंठाणा । ते' चिविहरइयमंगलवंदेमालुज्जक सिरीया ॥ ७८ णिच्च मणेोभिरामा" फुरंतमणिकिरण साहसंभारा " | कंश्चणरयण महामणिभिसंतपासादसंघायं ॥ ७९ अगस्य तुरुक्क चंदणणाणाविद्दगंधरिद्धिसंपण्णा । दूराकोयमणोहर दोसंति महंतपासादा ॥ ८० घंटार्किकिणिबुब्बुद चामरणिवहेहिं सोहिया रम्मा । मेरुस्स य जिणभवणा समासदो होति णिदिट्ठा ॥ ८१ जिनमवनोंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ ७२ ॥ ये जिनभवन वैडूर्य, स्फटिक, मरकत, मसारगल्ल और इन्द्र ( इन्द्रनील ) रत्नोंसे विचित्र; अंजन, प्रवाल, मरकत और सुवर्णसे भूषित तलवाले, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, उत्तम वन एवं लोहितां कसे सहित; उत्तम व बिल मणिपेंसि अतिशय निर्मल तथा अनुपम गुणोंसे युक्त होते हुए शोभायमान हैं ॥ ७३-७१ ॥ अतिशय निर्मल, विस्तृत, शुद्ध, प्रसाधित ( सजे हुए ), दर्शनीय, अत्यन्त मनोहर, नाना प्रकार के आकार अथवा मूर्तियोंसे सम्पन्न उत्तम कमल, कुमुद, कुत्रलय, नीलोत्पल, वकुल और तिलक वृक्षोंसे शोभायमान; कर्पूर, अगरु, चन्दन और कालागरुके धुरंके गन्धसे याप्त विजया व वैजयन्ती ध्वजा-पताकाओं से सहित; बहुत से कुसुमकी मालाओं से शोभायमान, विलास युक्त, मनको अभिराम, बहुनसे कौतुक एवं मंगलसे सनाथ, जगमगाती हुई कान्तिले सहित, आश्चर्यजनक रूप व श्रेष्ठ आकृतिसे युक्त, विविध प्रकारकी रची गई मंगल स्वरूप वन्दनमालाओं से उज्ज्वल शोभावाळे, नित्य मनोहर; प्रकाशमान मणिकिरणसमूह से संयुक्त; सुवर्ण, रत्न एवं महापणियोंसे प्रकाशमान प्रासादसमूह से युक्त, तथा अगरु, तुरुष्क व चन्दनकी नाना प्रकारको गन्धऋद्धिसे सम्पन्न, ऐसे महाप्रासाद दूरसे देखने मनोहर दिखते हैं ।। ७५-८० ॥ घंटा, किंकिणी, बुदबुद और चामरसमूहों से शोभायमान उन रमणीय मेरुके जिनभवनों का संक्षेपसे स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है ॥ ८१ ॥ १ ज श मसारयणचिताणि. १ प साइ, ब गाइ. १ उ लोहियंकार्ण, श लोहियंकाल. ४ उ रा मडला. ५ उ चोकला खुपसाहिया, श चोक्खा सुपसाहिया ६ उ रा रूवसंछण्णा. ७ प ब ब उलयकय ८ उप ब विळसंतणामिदामा, श विलसंताणभिधामा ९ उ शतं. १० उ प ब श चंदण, ११ उ रा मनामिरामं. १२ यश संमारं, म संभार. १३ ड इसंत, श नसंत. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९१ ) पंचमो उद्देसो [९५ बलिपुप्फगंधमक्खयपदीववरधूवसुरहितोएहि । अचंति य वदति य सुरपवरा सददकामम्मि ॥ ८२ सवंगसुंदरीमो सम्वालंकारभूसिदंगीमो । कसमहुरसुस्सरामो इंदियपहायणकरीमो ॥ ३ सुकुमारकोमलामो जोवणगुणसालिणीभो सम्बामो । पीदि जगति' तामओ अप्परिरूवेहि स्वेहि ॥ ८४ जिणईवाणं वेरियं गणहरदेवाण हलघराण' च । जिणभवणेसु वि गिर भन्छरसामो पणश्चंति ॥ ८५ घरपटहरिमहलमुदिंगकंसालकाहलादीहिं । वायंति सुग तूरं ज्ञल्लरिबहुसंखेसदेहिं ॥ ८६ महुरेहे मणहरेहि य दुंदुहिघोसेहि दिखवणेहि । गायति किग्णरगणा संभूदगुणं प्रिणिंदाणं ॥ ८. गंधवगीयवाइयणाव्यसंगीसदगंभीरं । घरभइसालभवर्ण समासदो हो णिद्धिं ॥ ८. जंबूदीवस्त जहा भेरुस्स जिशिंददेवरभवणा । भवससमंदराण जिणिदभवणा तहा चेव ॥ ८९ कैडपम्वदेसु एवं वखारापस्वदेसु एमेव । गणवणेसु एवं निणभवणा हाँति जायग्या ! ९. णवरि विसेसो णेमो वक्खारणगादिएसु भवणाणं । विक्खंभा मायामा उच्छेहा हॉति भण्णण्णा ॥९॥ श्रेष्ठ देव सर्वदा बलि (नैवेय) पुष्प, गन्ध, अक्षत, प्रदीप, उत्तम धूप व सुगन्धित जलसे पूजा करते हैं और वन्दना करते हैं ॥ ८२ ॥ इन जिनभवनामें समस्त अंगोंसे मुन्दर, सत्र अलंकारोंसे भूषित शरीरवाली, कल एवं मनोहर सुन्दर स्वरसे संयुक्त, इन्द्रियोंको आह्लादित करनेवाली, सुकुपार, कोमल, यौवनगुणोंसे शोभायमान, तथा अप्रतिम ( अनुपम ) रूपोंसे प्रीतिको उत्पन्न करनेवाली वे अप्सरायें नित्य जिनेन्द्र, गणधर देव और बलदेवोंके चरित्रका अभिनय करती हैं ॥ ८३-८५ ॥ देवगण झालर एवं बहुतसे शखौके शब्दोंके साथ उत्तम पटह, मेरी, मर्दल, मृदंग, कांस्याल और काहलादिक बाजेको बजाते हैं ॥ ८६ ॥ किनरगण मधुर एवं मनोहर दुंदुभिघोषाक साथ दिव्य वचनों द्वारा जिनेन्द्रोंके प्रचुर गुणोंको गाते हैं । ८७ ॥ गन्धोंके गीत, वादित्र, नाटक एवं संगीतके शब्दसे गम्भीर उस उत्तम भद्रशाल वनके जिनभवनका स्वरूप संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥ ८८ ॥ जिस प्रकार जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुके उत्तम जिनेन्द्रभवनों का स्वरूप कहा है उसी प्रकार शेष मेरु पर्वतोंके जिनेन्द्र भवनोंका स्वरूप समझना चाहिये ॥ ८९ ।। इसी प्रकार कुलपर्वतोपर, इसी प्रकार ही वशार पर्वतोंपर और इसी प्रकार नन्दन वनोंमें मी जिनमवन होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ९० ॥ परन्तु विशेष इतना जानना चाहिये कि वक्षार पर्वतादिकों के ऊपर स्थित जिनभवनोंका विष्कम्भ, आयाम और उत्सेध मिन्न भिन्न होता है ॥ ९१ ॥ चार निकायके देव महा विभूतिके साथ यहां आकर १५ कुसकुमारा, ब कुसुकुमार. २ पब जोव्वाण. ३ उश जणंदि. ४ पब जिणयंदाणं. ५ पब हरिहराणं. ६ पब य णचंति.७ पब मुदंग. ८ उ यंति, श वायवि. १ पब बहुससंख. १. उश संघाय. "पब वयणं. १२ पब जिणिदयंद. १३ पब मंदिराण. १४ उश कुलु. १५उ विखेसा णेया, श विसेसा या पब गाविपस. १७श अणोण्णा, पब अण्णाणा. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] जंबूदोषपण्णसी [५. ९२ देवा घडणिकाया भार्गवर्ण महाविभूदीए । पूर्ण करेंति महदा महासरभट्ठदिवसेतु ॥ ९२ गयवरखंधारूढो बहुविहमणिविष्फुरतमणिमउडो । उज्जलवरवज्जकरो सोहम्मदो समाइण्णो' ॥ ९३ बरवसभसमारूतो कंठाकडिसुत्तभूसियसरीरो । णिम्मतिसूलपाणी ईसागिंदो समाइण्णो' ॥ ९४ वरसीहसमारूडो उदयकसमाणकुंडलाहरणो । परमसिपहरणहस्थो सणकुमारो समोहणों' ॥ ९५ वरतुरयसमारूढो णाणामणिरपणभूलिपसरीरो । परसुवरमंडियकरो मादिसुरो समोइण्णो ॥ ९६ ससिधवल हंसेचडिभो गिम्मलमणिदंडपहरणकरत्थो । धवलादवत्तचिण्हो भसुरिंदो समारणों ॥९. मुत्तरो वि इंदो सिपचामरविन्जमाण बहुमाणो । वाणरपिट्ठम्मि ठिो पासरत्यो समोइण्णो ॥ ९८ सारसविमाणरूठो तुडियंगरकणयकुंडलाभरणो। कोयंब्हायो तवईदो समोइण्णो ॥ ९९ काविट्टो वि य इंदो मयरविमाणम्मि संठिमी धीरो। वरकमलकुसुमहत्थो महाबको सो समोइण्णी ॥ ... घरचवायरूडो फलिहामलरयणकुंटलाहरणो । पूयफलगुग्छहत्यो सुक्कसुरो सो समोइग्णो ॥१० नन्दीवर ( अष्टाहिक पी) के आठ दिनों मइती पूजन करते हैं ॥ ९२ ॥ बहुत प्रकारकी मणियों द्वारा प्रकाशमान मणिमुकुटसे संयुक व हाथमें उबल एवं श्रेष्ठ बत्रको लिये हुए सौधर्म इन्द्र उत्तम गजराजके कन्धेपर चदकर आता है ॥ ९३ ॥ कण्ठा व कटिसूत्रसे भूषित शरीरवाला ईशान इन्द्र उत्तम वृषमयर चदकर हायमें निर्मल त्रिशूलको लिये हुए यहां माता है ॥ ९५ ॥ उदयकालीन सूर्य के समान कुण्डल रूप आभरणोंसे भूषित सनत्कुमार इन्द्र हायमें तम्बार आयुधको लिये हुए श्रेष्ठ सिंहपर चढ़ कर यहां आता है ॥ ९५ ॥ नाना मणियों एवं रत्नोंसे भूषित शरीरवाला माहेद्र इन्द्र हायमें श्रेष्ठ परशुको लिये हुए उत्तम अश्वपर चढ़ कर आता है ॥ ९६ ॥ चन्द्रमाके समान धवल हंसपर भारूद और धवल आतपत्रसे चिहित ब्रह्मेन्द्र हायमें निर्मल मणिदण्ड आयुधको लिये हुए आता है ॥ ९७ ।। धवल चामरोंसे वोग्यमान, बहुत आदरसे संयुक्त और वानरकी पीठपर स्थित ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी हाथमें पाशको लिये हुए आता हैं ।। ९८॥ त्रुटित (हायका आभरणविशेष ), अंगद एवं सुवर्णमय कुण्डल रूप आभरणोंसे भूषित लान्तव इन्द हायमें धनुर्दण्डको लिये हुए सारस विमानपर चदकर आता है ॥ ९९ ।। मकर विमानपर स्थित, धीर और महा बलवान् वह कापिष्ठ इन्द्र भी हायमें उत्तम कमल कुसुमको लिये हुर आता है ॥ १०॥ उसम चक्रवाकर आरूद और स्फटिकमणिमय निर्मल रत्नकुण्डल रूप आभरणसे विभूषित वह शुक्रइन्द्र हायमें सुपाडीके गुच्छेको लिये हुए आता है ।। १०१॥ श्रेष्ठ देवोस वेष्टित, उश पूयं. २ उ समाइण्णो, प..., शशमारणो. ३ उब समाइण्यो, श समाहणो. ४ उ समाइण्णो, प...,बसणाइण्णो, श सभारणो. ५ उश हंसि. ६ उशपहरणावरणो. ७श सभोइण्णो. ८ उपाणरपिडिम्मि लियो, प.... बानारपिट्टमिइमोशनागरपिटिभि बिमो. ९पनीक... पब सरो. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.१११ ] पंचमो उद्देसो [ ९७ महसुसुराहिवई सुरवरपरिवारिओ' महासत्तो । पुष्पकविमाणरूढो गयहत्थो सो समोइण्णो ॥ १०२ सदरविमाणाहिवई मंगलणिवहेहि तूरसहेहि । परहुअविमाणरूढो तोमरहत्थो समोइण्णो ॥ १०३ गरुडविमाणारूदो णाणाभरणेहिं भूसियसरीरो । हलमुसलभूसियकरो सहसारिंदो समोइण्णो ॥ १०४ संखेर्दुकुंदवण्णो सियचामरविनमाण बहुमाणो । सियकुसुममालहत्थो आणदहंदो समोइण्णो ॥ १०५ पाणददो वि तहा कमलविमाणम्मि तत्थ चडिऊगं । वरकमलमालहत्थो हरिसाउण्णो समोइष्णो ॥ १०६ लिणविमाणारूढो' णव चंपयविमलमालकयहस्थो । पजलंत महामउडो आरणइंदो अणुष्पत्तो ॥ १०७ कुमुदविमाणारूढो कडयंगदमउहँकुंडलाहरणो । मुत्तादामकरग्गो अच्चुदइंदो अणुप्पत्तो ॥ १०८ अवसेसा वि य देवा सगसगजंपाणवाहणारूढा । णाणापहरणहत्था सगसगसो भाहिं' संपत्ता ॥ १०९ भवणवइवाणविंतरजोइसिया कुंडलंकियागंडा । णाणावाहणरूढा असुरिंदाई अणुप्पत्ता ॥ ११० धुव्वंतचारुचामरवणंत महंततूरणिग्वोसा । सेदादवत्तचिण्हा असुरिंदा आगदा बहना ॥ १११ महा बलवान् वह महाशुक्र इन्द्र हाथमें गदाको लिये हुए पुष्पक विमानपर आरूढ़ होकर आता है ॥ १०२ ॥ परभृत ( कोयल ) विमानपर आरूढ़ शतार विमानका अधिपति मंगलमय वादिशब्दों के साथ हाथमें तोमर ( बाणविशेष ) लेकर आता है ॥ १०३ ॥ गरुड़ विमानपर आरूढ़ और नाना भूषणोंसे भूषित शरीरवाला सहस्रार इन्द्र हाथमें हल और मूसलको लेकर आता है ॥ १०४ ॥ शंख, चन्द्र एवं कुंद पुष्पके समान वर्णवाला, धवल चामरोंसे वीज्यमान और अतिशय आदरसे युक्त आनत इन्द्र हाथमें धवल कुसुमोंकी मालाको लेकर आता है ॥ १०५ ॥ हर्ष से परिपूर्ण प्राणत इन्द्र भी हाथमें उत्तम कमलोंकी मालाको लिए हुए कमल विमानपर आरूढ़ होकर आता है ॥ १०६ ॥ नलिन विमानपर आरूढ़ और देदीप्यमान महामुकुटसे संयुक्त आरण इन्द्र हाथमें नवचम्पककी निर्मल मालाको लेकर आता है ।। १०७ ॥ कुमुद विमानपर आरूढ़ और कटक, अंगद, मुकुट एवं कुण्डल रूप आभरणोंसे भूषित अच्युत इन्द्र हाथमें मुक्ताओंकी मालाको लेकर आता है ॥ १०८ ॥ अपने अपने जम्पान वाहनोंपर आरूढ़ शेष देव भी नाना आयुधोंको हाथमें लेकर अपनी अपनी शोभाओंके साथ आते हैं ॥१०९ ॥ कुण्डलोंसे अलंकृत कपोलोंवाले भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिषी असुरेन्द्र आदि नाना वाहनों पर आरूढ़ होकर आते हैं ॥ ११० ॥ दुरते हुए सुन्दर चामरोंसे और बजते हुए महा वादित्रोंके निर्घोषसे सहित तथा धवल आतपत्र रूप चिह्नसे संयुक्त बहुतसे असुरेन्द्र आते हैं । ॥ १११ ॥ १ प ब सुरकरवारिउ. २ उ सरिकंदु, व संखेहु, श दरिकंदु. ३ प ब हत्थो हरिसाउणो समोइण्णो. ४ प ब पाणइंदो. ५ उ श हरिसाऊगो, प ब आणदइंदो. ६ उ प ब श 'विमानरूटो. ७ उ श मडड. ८ प ब सोसाहि. जं. दी. १३. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ५.११२ एवं आगंतूगं अट्ठभिदिवसेसे मंदरगिरिस्त । जिणभवणेसुं य पडिमा जिर्णिदहंदाग पूर्यति ॥ ११२ असहस्सेहिं तहा खीरोवाहिसलिल पुण्णकलसेहिं । ण्हावंति पहिहमणौ परमाए भत्तिरायण ॥ ११३ पडुपडहसंखकाहलमहलकं सालतालविहेहिं । वज्र्ज्जतपवरतूरं महिमं कुव्वंति देविंदा ॥ ११४ गोसीसमलय चंदण कुंकुमपंकेहि चचियं काउं । वरपंच वण्णैणिम्मलसुगंधदामेहिं अच्चति ॥ ११५ ससिधवलसुरहिकोमलणाणाविहभक्ख भोज्जमादीहिं । पूयंति जिणवरिंदे ससुरासुरसुरगणा सवें ॥ ११६ दीवे हि य धूवेहि य चरुअक्खयफलविचित्तकुसुमेहि । अच्चंति य पूयंतिय पहिडमणसा सुरा सव्वे ॥ ११७ एवं एऊणं वंदति विसुद्ध भावहियएण । चदुमंगलच दुसरा विसुद्धसम्मत्तसंजुत्ता ॥ ११८ एवं थोऊन जिगं अमरिंदा अमलपुण्णसंजुत्ता । जेणागदा पडिगदा घेत्तूर्ण धम्मवररयणं ॥ ११९ दरम्म दीवे जिणवरभवणा हवंति एमे । कुंडलदीवेसु तहा मणुसुत्तररु जगसेलेसु ॥ १२० इस प्रकार आकर वे अष्टाहिक दिनोंमें मन्दर पर्वतके जिनभवनों में जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥ ११२ ॥ तथा वे मनमें हर्षित होकर क्षीरसमुद्रके जलसे परिपूर्ण एक हजार आठ कलशों द्वारा उत्कृष्ट भक्तिरागसे अभिषेक करते है ॥ ११३ ॥ वे देवेन्द्र पटु पटह, शंख, काहल, मर्दल, कांस्याल और ताल समूहोंके साथ उत्तम वादित्रोंको बजाते हुए उत्सवको करते हैं || ११४ ॥ उक्त देव उन्हें गोशीर्ष, मलयचन्दन और कुंकुम-पंकसे लिप्त करके उत्तम पांच वर्णकी निर्मल व सुगन्धित मालाओंसे पूजा करते हैं ॥ ११५ ॥ सुरों व असुरोंके साथ सब देवगण चन्द्रवत् धवल, सुगन्धित एवं कोमल नाना प्रकारके भक्ष्य नैवेद्योंके द्वारा जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं ॥ ११६ ॥ सत्र देव मनमें हर्षित होकर दीप, धूप, चरु, ● अक्षत, फल एवं विचित्र कुसुमसे जिन भगवान्की अर्चा व पूजा करते हैं ॥ ११७ ॥ इस प्रकार से पूजा करके वे हृदयमें निर्मल भावोंको धारण कर चार मंगलों (चत्तारि मंगलअरिहंता मंगलं, सिद्रा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ), चतुः शरणों ( चत्तारि सरणं पवज्जामि - अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ) और त्रिशुद्ध सम्यक्त्व से संयुक्त होते हुए चन्दना करते हैं ॥ ११८ ॥ इस प्रकार जिन भगवान्की स्तुति करके निर्मल पुण्य से संयुक्त वे देवेन्द्र जिस रूपसे आये थे उसी रूपसे धर्मरूपी उत्तम रत्नको ग्रहण करके वापिस चले जाते हैं ॥ ११९ ॥ इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीपमें, उत्तर पर्वत व रुचक पर्वतपर भी जिनभवन हैं ॥ १२० ॥ कुण्डलवर द्वीपमें, और मानुषोजिस प्रकार भद्रशाल वनमें १ उश अहामिदिवसे २ प व भुवणेसु. ३ प ब पहिठमाणा ४ उ श परमतूरं. ५ उ पंचजण्णा, श पंचजणा. ६ प ब ससुरासुरवरवरगणा सच्वो, श शमुरासुरगणा सव्त्रे ७ उ प ब श दिव्वेहि ८ प चदुस्सरणो, च चदुस्सरणे. ९ उश जिणि १० उप व श एसेव. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२५] पंचमो उद्देसो जह भहसालसुवणे जिणभवणावण्णणा हवे स्थला । तहगंदीसरदीये जिणभषणावण्णणा होइ ॥ १२१ जिणभवणथूहमंडवपेक्खाघरकप्परुक्खधयणिवहा । वणसंडवाविगोउरपायारा बेहया दिवो ॥ १२२ उच्छहा आयामा विस्खंभवगाह ताण सव्वाणं । गंदीसरवरदीवे सरिसा ते होंति पदमवणे ॥ १२३ गंदणसोमणपंडुववणाणे भवणा हवंति एमेव । गवरि विसेसो जाणे अद्धद्धा होति णिद्दिडा ॥ १२४ चउधिहसुरगणणमियं अइसयचउतीससंजुयं परमं । वरपउमणदिणमियं चंदप्पहजिणवरं वंदे ।। १२५ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे महाविदेहाहियारे मंदरगिरिजिणभवणवण्णणो णाम पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ ५ ॥ जिनभवनोंका सम्पूर्ण वर्णन किया गया है उसी प्रकार नन्दीश्वर द्वीपमें स्थित जिनभवनोंका भी वर्णन समझना चाहिये ॥ १२१ ॥ जिनभवन सम्बन्धी स्तूप, मण्डप, प्रेक्षागृह, कल्पवृक्ष . व घजासमूह, वनखण्ड, वापी, गोपुर, प्राकार और दिव्य वेदिका इन सबका उत्सेध, आयाम, विष्कम्भ व अवगाह नन्दीश्वर द्वीपमें प्रथम ( भद्रशाल ) वनके सदृश है ॥ १२२-२३ ॥ नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंके जिनभवन भी इसी प्रकारके हैं। विशेष केवल · इतना . जानना चाहिये कि वे प्रमाणमें क्रमशः आधे आधे निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १२४ ॥ में चार प्रकारके देवगणों द्वारा नमस्कृत, चौंतीस अतिशयोंसे संयुक्त और उत्तम पद्मनन्दिसे नमस्कृत श्रेष्ठ चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रकी वन्दना करता हूं ॥ १२५ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें मन्दरगिरिजिनभवन वर्णन नामक पांचवां उद्देश समाप्त हुआ ॥ ५ ॥ १उश जिह. २उशनेइया दिघा, पब चेहया दिवा. ३ पब सरिसा होति. ४ उ प श . पंडुवणाणा ५ उश देवं. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छट्टो उद्देसो ] णमिऊण पुष्पदंतं सुदिवसंथुयं विगयमोहं । देउत्तरकुरुखेत्तं वोच्छामि जहाणुपुच्चीए ॥ १ पुत्रेण मालवंतो अवरेण गंधमादणो सेलो । मेरुस्स य उत्तरदो दक्खिणदो नीलवंतस्मै ॥ २ एदम्हि अंतरम्हि दु उत्तरकुरु वित्थडो सहस्साणि । एयारस बादाला अद्वसदा बेकला अधिया ॥ ३ तेवण्णं च सहस्सा जीवा तस्सुत्तरम्हि भागम्हि । वंसधरो हि दु मूले नीलवंतो' समल्लीणो ॥ ४ सद्धिं चैव सहस्सा चत्तारि सया हवंति अट्ठरसा । बारसकला समधिया धणुपडं तस्स गायब्वा ॥ ५ तीसं चैव सहस्सा बे चैव सदा णउत्तरा होति । भागा छच्चेव हवे आयामो मालवंतस्स ॥ ६ इसुवग्गं चउगुणिदं जीवावग्गम्हि पक्खिवित्ताणं । चदुगुणिदिसुणा भजिंद' णियमा वट्टस्स विक्खंभो ॥ एगत्तरि य सहस्सा तेदालसदं कला य चदुरो दु । उत्तरकुरुविक्खंभो कलणवभागणे संजुत्तो ॥ ८ गाणविभ ओगाढसंगुणं कुज्जा । चदुगुणिदस्स दु मूलं सा जीवा तत्थ णायव्वा ॥ ९ = सुरेन्द्रपतिसे संस्तुत और मोहसे रहित पुष्पदन्त भगवान्‌को नमस्कार करके आनुपुर्वीके अनुसार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रको कहते हैं ॥ १ ॥ जिसके पूर्व में माल्यवन्त और पश्चिम गन्धमादन पर्वत हैं वह उत्तरकुरु क्षेत्र मेरु पर्वतके उत्तर और नील पर्वतके दक्षिण इस अन्तराल में स्थित है । इसका विस्तार ग्यारह हजार आठ सौ ब्यालीस ( ११८४२ ) योजन व दो कला अधिक है ॥ २-३ ॥ उत्तर भागमें उसकी जीवा तिरेपन हजार योजन प्रमाण है । इसके मूलमें नीलवान् वर्षधर ( कुलपर्वत ) लगा हुआ है ॥ ४ ॥ उसका धनुष्पृष्ठ साठ हजार चार सौ अठारह योजन और बारह कलाओंसे अधिक जानना चाहिये ॥ ५ ॥ माल्यवान् पर्वतका आयाम तीस हजार दो सौ नौ योजन और छह कला (३०२०९ ) प्रमाण है || ६ || बाणके वर्गको चौगुणा करके जीवाके वर्गमें मिलाकर जो प्राप्त हो उसमें चौगुणे बाणका भाग देनेपर वृत्त क्षेत्रका विष्कम्भ होता है ॥ ७ ॥ उत्तरकुरुका विष्कम्भ इकत्तर हजार एक सौ तेतालीस योजन और नवम भाग ( ३ ) से सहित चार कला प्रमाण है [ ( २२५००० ) " × ४ + ५३०००' ÷ ( २२५००० × ४ ) ७११४३,७६ ] ॥ ८ ॥ बाणसे रहित विष्कम्भको बाणसे गुणित करे, फिर उसे चारसे गुणित करके वर्गमूल निकालनेपर जो प्राप्त हो वह जीवाका प्रमाण जानना चाहिये [ उत्तरकुरुका वृत्तविष्कम्भ ७११४३ × ४ = ५३००० यो ] ॥ ९ ॥ छहसे गुणित बाणके वर्गको जीवाके १ २ १.६ ५४ ९०; √ १२१६५४ ५० १७१ १७१ X २०२५००० १७१ = १ उश देवत्तर. २ उश मालवतो. ३ प ब णीलवणस्स. ४ श केवल ५ श हंसधरंहि. ६ उ णीलवण्गो, श णीलत्रणो. ७ उ विनिदिगुणं, प..., व विगिहि गुणं, श विदुदिगुणं. ८ उश भजिदो. ९ प ब भागेग. २०२५००० १७१ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १९ ] छट्ठो उद्देसो [ १०१ 1 इसुवग्गं छहि गुणिदं जीवावग्गम्हि पक्खिवित्ताणं । जं तस्स वग्गमूलं तं भ्रणुपदं वियाणाहि ॥ १० जीवाविक्खंभाणं वग्गविसेसस्स हवइ जं मूलं । विक्खंभादो सोधय सेसस्सद्धं इसुं वियाणाहि ॥ ११ जीवावग्गं इसुणा चदुम्भस्थेण विभज जं लद्धं । तं इसुसहिदं जाणसु नियमा वट्टस्स विक्खभं ॥ १२ मंदरविक्खंभूणं विदेहविक्खंभअद्धपरिमाणं । उत्तरकुरुविक्खंभं णिद्दिहं होइ णायव्वं ॥ १३ दो जमगा णाम गिरी कंचणणगाण सदा' गिरीणं तु । सीदाए पंचेव दु तस्थ दहा होंति णायग्वा ॥ १४ नीलस्स दु दक्खिणदो एयं जोयणसहस्समाबाघा । सीदाए उभयकूले जमका ते होंति णायन्त्रा ॥ १५ उच्चत्तेर्णं सहस्सा अड्ढादिज्जा सदाण उव्विद्धो । जंबूदीवे जमगा बोधव्वा उत्तरकुरुस्स || १६ मूले सहस्समेयं मज्झे अद्धमाणि य सदाणि । पंचेव जोयणसदा सिहरितले वित्थडा सेला ॥ १७ दोजमगाणं अंतर पंचेव सयाणि जोयगाणि हवें । मूले सिहेर वि तहा वणवेदीपरिउडा रम्मा ॥ १८ सिहरेसु तेसु या मणिमयपासादपंति रमणीया । पोक्खरिणिवाविपउरा मणितोरणमंडिया रम्मा ॥ १९ वर्ग में मिलाकर जो उसका वर्गमूल हो वह उत्तरकुरुका धनुषपृष्ठ जानना चाहिये ६०४१८३३ यो. ॥ १०॥ १ १४७९६ ४ १९ √(२३५०००)२ × ६ + ५३०००१ = जीवा और विष्कम्भके वर्गको परस्परमें घटाकर जो उसका वर्गमूल हो उसे विष्कम्भमेंसे कम करके शेषके अर्ध भाग प्रमाण बाण जानना चाहिये √( १ २ १६५ ४ ९ ० ) 2 ५३००० ÷ २ = १२१६५४९० १७१ १७१ २२५००० x ४ १९ ॥ १३ ॥ १९ १९ २२१९° ॥ ११॥ जीवाके वर्गको चौगुणे बाणसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो उसमें बाणके मिलानेपर नियमसे वृत्त क्षेत्रका विष्कम्भ होता है ५३००० २ ÷ ( } + =७११४३७६ यो. ॥ १२ ॥ मन्दर पर्वतके विष्कम्भसे रहित विदेहके विष्कम्भको आधा करनेपर उत्तरकुरुके विष्कम्भका प्रमाण होता है ६४०००० १९०००० ÷ २ २२५००० — सीताके [ किनारेपर ] दो यमक गिरि, सौ कंचन नग और पांच द्रह हैं ॥ १४ ॥ वे यमक पर्वत नील पर्वतके दक्षिणमें एक हजार योजन आगे जाकर सीताके उभय तटोंपर स्थित हैं ॥ १५ ॥ जम्बूद्वीपमें उत्तरकुरु सम्बन्धी यमक गिरि एक हजार योजन ऊंचे और अढ़ाई सौ योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ १६ ॥ ये शैल मूलमें एक हजार योजन, मध्यमें साढ़े सात सौ योजन और शिखरतलपर पांच सौ योजन प्रमाण विस्तृत हैं ॥ १७ ॥ दो यमकोंका अन्तर पांच सौ योजन प्रमाण है । ये रमणीय पर्वत मूलमें तथा शिखरपर भी वनवेदीसे वेष्टित हैं ॥ १८ ॥ उनके शिखरों पर प्रचुर पुष्करिणी एवं वापियोंसे सहित, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, रमणीय, = २२५००० १९ १ प ब दोजमणामाजगरी कंचणणागाण सद. २ उश सीदाउवघोकूल, प ब सीदाय उभयकूल. ३ ब उछत्तेण ४ उ स सदेण उब्विधो, प ब सदाण उब्वेध. ५ उ प ब श अद्धद्ध'. ६ उ वहे, प ब हिवे, श हवो. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबूदीवपण्णत्ती [ ६. २० धुवंतधयवडाया जिणभवणविहूसिया परमरम्मा । माणातरुवरगहणा सुरसुंदरिसंकुला दिवा ॥ २० जमगा णामेण सुरा पलिदोवमआउगा परिषसेति । सेलेसु तेसु णेया मणिकंचणरवणणिवहेसु ॥ २१ अमकूडकंचंणाचल तह चित्तविचित्तकूडसेलेसु। जमदेवकणयणामा चित्तसुरो तह विचितो' य ।। २२ वरमउडकुंडलधरा सियचामरविज्जमाण बहमाणा। सीहासणमझगया बहपरियणपरिउडा गेया॥ २३ गवचंपयगंधड्दा अहिणवलावण्णरूबसंपण्णा । पुणेग जणियभोगा अच्छंति सुराहिवा तेसु ॥ २४ । वे कोसा वासहा जोयण उत्तुंग दिन्वभवणेसु । इगितीसा सक्कोसा विक्खंभायामजुत्तेसु ॥ २५ गंतूण णीलगिरिदो अड्दादिज्जा सहस्स दक्खिणदिसाए । सीदाए सरि मजझे पंचदहा होति पायव्या ।।२६ दसजोयणावगादा आयामा जोयणा सहस्साणि | पंचसदा वित्थारा पंचसदा अंतरेकेक्का ॥ २७ तह णीलवंतपवरो उत्तरकुरुदहवरो दु चंदसरो। एगवयविउलदहो पंचम दह मालवंतो य ॥ २८ वरसुरहिगंधसलिला णीलुप्पलकमलकुवलयसणाहा । रंगंतवरतरंगा संखिदुमुणालसंकासा ॥ २९ फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, नाना उत्तम वृक्षोंसे गहन और देवांगनाओंसे व्याप्त दिव्य मणिमय प्रासादोंकी पंक्तियां हैं ॥ १९-२० ।। मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंके समूहसे परिपूर्ण उन शैलोंपर पल्योपम प्रमाण आयुवाले यमक पर्वतोंके समान नामोंके धारक देव निवास करते हैं ॥ २१ ॥ यमक्ट व कंचन पर्वत [ मेधकूट ], तथा चित्र-विचित्र शैलोंपर स्थित साढ़े बासठ योजन ऊंचे और सवा इकतीस योजन प्रमाण विष्कम्भ एवं आयामसे युक्त उन दिव्य भवनोंमें उत्तम मुकुट एवं कुण्डलोंके धारक, धवल चामरोंसे वीज्यमान, बहुत आदरसे संयुक्त, सिंहासनके मध्यमें स्थित, बहुत परिवारसे वेष्टित, नव चम्पक जैसी गन्धसे युक्त, अभिनव लावण्यमय रूपसे सम्पन्न, और पुण्यसे उत्पन्न हुए भोगोंसे संयुक्त क्रमसे यम देव, कनक (कंचन) देव, चित्र सुर तथा विचित्र देव, ये चार देवोंके अधिपति देव स्थित हैं ॥ २२-२५ ।। नीलगिरिसे दक्षिण दिशामें अढाई हजार [१००० + १००० + ५०० ] योजन जाकर सीता सरितके मध्यमें पांच द्रह जानना चाहिये ॥ २६ ॥ एक एक द्रह दश योजन गहरे, एक हजार योजन लम्बे, पांच सौ योजन विस्तृत और पांच सौ योजनके अन्तरालमें स्थित हैं ॥ २७ ॥ नीलवान् द्रह, उत्तरकुरु द्रह, चन्द्र द्रह, ऐरावत द्रह और पांचवां माल्यवान् नामक, इस प्रकार ये उन विशाल द्रहों के नाम हैं ॥ २८ ॥ ये महा द्रह उत्तम सुगन्धित जलसे परिपूर्ण, नीलोत्पल, कमल और कुवलय पुष्पोंसे सनाथ, चलती हुई उत्तम तरंगोंसे संयुक्त; शंख, चन्द्रमा एवं मृणालके सदृश, रत्नमय वेदिकासमूहसे १उश चित्तचित्तकुडसलेसु, ब चिनविचत्तकडमेलेमु. २उ श चित्तसुरा. ३उश बिचित्ता. ४ पब बहुमाणं. ५५ ब अढाइसहस्स. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ४०] छट्ठो उद्देसो रयणमयवेदिणिवहा मणितोरणमंडिया परमरम्मा । उववणकाणणसहिया महादहा होति णायव्वा ॥ ३०.. तेसु मणिरयणकमला ने कोसा उहिया जलंतादो। चत्तारि य वित्थिण्णा मज्झे अंतेसु दो कोसा ।। ३१ वेरुलियविमलणाली सुगंधगंधुद्धदा परमरम्मा । एयारसेहि गुणिदा सहस्सदलसंजुदा दिव्वा ॥ ३२ कमलेसु तेसु भवणा कोसायामा तदद्धे वित्थारा । उभयद्ध होति तुंगा कंचगमणिरयणपरिणामा ॥ ३३ चउचउसहस्स कमला चउसु वि दि होति णायव्वा । बत्तीससहस्साई अग्गिदिसाए हवे कमला ।। ३४ दक्खिणदिसाविभागे चालीससहस्स होंति कमलाणि । रिदिय दिसाभागे अडदालसहस्स णिद्दिहा ।। ३५ पच्छिमदिसाविभागे सत्तेव हवंति पउमपुप्फाणि । अठुत्तरसयकमला परिवेढे सम्बदो होति ॥ ३६ चत्तारि सहस्साई उत्तरईसाणवाउदेसेसु । भित्ता होंति तहा दरवियसियकमलकुसुमाणि ॥ ३७ गीलकुमारीणामा उत्तरचंदाकुमारि तह णामा । एरावयाकुमारी तह पच्छा मालवंती दु॥ ३८ णागकुमारीयाओ एदाओ हवंति कमलभवणेसु । पलिदोवमाउगाओ दसधणुउत्तुंगदेहाओ ॥ ३९ जह हिमगिरिदहकमले सिरिदेविसुराण होति परिसंवा । तह सीदादहवासिणिदेवीणं होति परिसंखा ॥ ४० . युक्त, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय और वन-उपवनोंसे सहित हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥२९-३० ॥ उन द्रहोंमें जलसे दो कोश ऊंचे, मध्यमें चार और अन्तमें दो कोश विस्तीर्ण, वैडूर्यमय निर्मल नालसे सहित, सुगन्ध गन्धसे युक्त, अतिशय रमणीय, और ग्यारह हजार पत्रोंसे संयुक्त दिव्य मणिमय एवं रत्नमय कमल हैं ॥ ३१-३२ ॥ उन कमलोंपर एक कोश आयत, इससे आधे विस्तृत और उभय अर्थात् आयाम व विस्तारके सम्मिलित प्रमाणसे आधे (पौन कोश ) ऊंचे, ऐसे सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके परिणाम रूप भवन हैं ॥ ३३ ॥ उक्त द्रहोंमें चारों दिशाओंमें चार चार हजार और अग्नि दिशामें बत्तीस हजार कमल जानना चाहिये ॥ ३४ ॥ दक्षिण दिशाभागमें चालीस हजार और नैऋत्य दिशाभागमें अड़तालीस हजार कमल निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ३५ ॥ पश्चिम दिशाभागमें सात ही कमल पुष्प हैं तथा परिवेष ( मण्डल ) में अर्थात् प्रत्येक दिशामें चौदह चौदह और प्रत्येक विदिशामें तेरह तेरह, इस प्रकार एक सौ आठ कमल हैं ।। ३६ ॥ तथा उत्तर, ईशान और वायु दिशाभागोंको रोककर किंचित् विकसित चार हजार कमल कुसुम हैं ॥ ३७ ॥ कमलभवनोंमें पल्योपम प्रमाण आयुकी धारक और दश धनुष उन्नत देहवाली नीलकुमारी, उत्तरकुमारी, चन्द्रकुमारी, ऐरावतकुमारी तथा माल्यवन्ती नामकी ये देवियां स्थित हैं ॥ ३८-३९ ॥ जिस प्रकार हिमगिरि सम्बन्धी द्रहके कमलपर स्थित श्री देवीके परिवार देवोंकी संख्यायें हैं उसी प्रकार सीताद्रहवासिनी देवियोंके भी परिवारदेवोंकी संख्यायें हैं ॥ ४० ॥ एक एक द्रहमें एक १ उ श विमलणागा. २ पब सदद्ध. ३ उ श च उस वि विदिसास. ४ उ श सहस्सायं. ५ ५.ब शेरदिय. ६ उ श अधुत्तर. ७ उप श चंद. ८ प ब सिरिदेव, श मुरिदेवि. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ६.४१ एक्केकम्मि दहम्मि दु कमलाणि हवंति सयसहस्सं च । एगं चत्तसहस्सो सयं च तह सोलसा अहिया ॥ ४१ सत्तेव होति लक्खा छश्चैव सया य तह य वीसूणा । भवणाणि वि तावदियाँ णायन्त्रा होंति नियमेण ॥ ४२ सव्वेसु य कमलेसु य जिणवरपडिमा हति गायव्वा । वरपाडिहेरसहिया णाणामणिरयणसंपण्णा ॥ ४३ ताण दहाणं होत हु पुव्वेण य पच्छिमेर्णे पासेसु । दसदसकंचनसेला बहुविहमणिरयणपज्जलिया ॥ ४४ जोयणसयमुव्विद्धा पणुवीसं जोयणाणि उब्वेधो' । जंबूदीवे णेया कंचणणगपव्वदा रम्मा || ४५ मूले सयमेयं खलु पण्णत्तरि जोयणा य मज्झम्हि । पण्णासजोयणाहं सिहरितडे' वित्थडा सेला ॥ ४६ जरिथच्छसि विक्खभं कंचणसिहरादु भवदित्ताणं । सगकायविभत्तं सिरसहिदं जाण विक्खंभं ॥ ४७ कंचणणगाण या वेदीओ होति मूलसिहरेसु । वरतोरण णिहिडा णाणामणिरयणणित्रहाणि ॥ ४८ लाख चालीस हजार एक सौ सोलह कमल होते हैं [ १६००० + ३२००० + ४०००० + ४८००० + ७+ १०८ + ४००० + १ = १४१११६ ] ॥ ४१ ॥ [ उक्त पांचों द्रहोंमें ] सात लाख और बीस कम छह सौ अर्थात् पांच सौ अस्सी कमल [ १४०११६x ५=७००५८० और उतने ही भवन भी जानना चाहिये ॥ ४२ ॥ सब ही कमलोंपर उत्तम प्रतिहार्योंसे सहित और नाना मणियों एवं रत्नोंसे सम्पन्न जिनेन्द्रप्रतिमायें होती हैं ॥ ४३ ॥ उन द्रहोंके पूर्व और पश्चिम पार्श्वभागों में बहुत प्रकारके मणियों एवं रत्नोंसे प्रज्वलित दश दश कंचन शैल स्थित है ॥ ४४ ॥ जम्बूद्वीपमें स्थित रमणीय कंचन पर्वत सौ योजन ऊंचे और पच्चीस योजन प्रमाण अवगाहसे युक्त है ॥ ४५ ॥ उक्त शैल निश्चयसे मूलमें एक सौ योजन मध्यमें पचत्तर योजन और शिखरतलपर पचास योजन प्रमाण विस्तृत हैं ॥ ४६ ॥ कंचन पर्वतके शिखर से नीचे उतर जितने योजन जाकर विस्तार के जानने की इच्छा हो उतने योजनोंको अपनी काय ( उंचाई ) से विभक्त करके [ फिर इच्छासे गुणित करनेपर ] जो लब्ध हो उसमें शिर ( शिखर विस्तार ) को मिला देनेपर प्राप्त राशि प्रमाण अभीष्ट विस्तार जानना चाहिये ॥ ४७ ॥ उदाहरण - यदि कंचन शैलके शिखर से ५० यो. नीचे जाकर विस्तार जानना अभीष्ट है तो वह इस प्रक्रिया से जाना जा सकता है× ५० + ५० = ७५ यो. । ५० कंचन पर्वतोंके मूलमें और शिखरपर वेदियां तथा नाना मणियों एवं रत्नोंके समूह से संयुक्त उत्तम तोरण निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ ४८ ॥ कंचन शैलोंके शिखरोंपर १ उश एवं चत्तसहस्सा, प..., व एगं च तह सहस्सा २ उश भवणाण. ३ प ब ताविदिया. ४ उ श पच्छिमेसु ५ उ उम्रेधो, प ब उव्विद्धो, श उव्वध्यो. ६ उ श तडे ७ उश सिहराव उवदित्ताणं, प सेहरादिउवत्रण हित्ताणं, व सिहरादिउववदित्ताणं. ८ उ तोरणा णिदिट्ठा, प ब तोरणा णिद्दिद्वा, श तोरणा दिणिहा. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५८ छट्ठो उद्देसो कल्पतरूपंकुलानि य पासादा बलहितोरणादीणि । कंचणणगाण गेया सिहरेसु हवंति नगराणि ॥. वेसु नगरेसु राश कंदणदेवा हर्षनि णामेण । पलिदोवमाउगा ते दसवणुड गवरदेवा ॥ ५. पजतरयणमाला जाणामणिविष्फुरंतवरमा । केजरभूसिकरा मणिकुंडकमरियागंडा ॥५१ . सेदारवत्तविण्हा सिंहासणसंठिया महासत्ता । बहुदेवदेविसहिया कंचलिहरेसु गिट्ठिा ॥ ५५ सम्वेसु जगेसुतहा कंचणणामेसु रयणणिवहेसु । जिणभवणा णिहिट्ठा मणितोरणमंडिया रम्मा ॥ ५॥ पुवंतपयवाया जाणाकुसुमोवहारकयसोहा । जिगसिद्धविरणित्रहा बहुकोदुगमंगळसणारा || ५. सीदा वि दक्खिण य दहाण मनोग वेण गंतूर्ण । पुरवि पुश्वामिमुहा गुहामु मालतस्स ॥ ५५ पविसित्ता नासरिदा विदेहमोग वह पुणो जाइ । पुरवसमुरं पविसह तोरणदारण (म्मेण ॥ ५॥ उत्तरकुम्मिमा होह महारयणमाकमिरिमो । उत्तरपुम्वदिसाए मेस्स सुदंसमो जन्॥. पंचत्र जोयणसया विसंमायाम कणयमयी । बारहबायणबहरू मम्मे दो कोसा५. करावृक्षोसे व्याप्त और प्रासाद, वलभी एवं तोरणादिकोंसे सहित नगर में ऐसा जानना चाहिये ॥ १९ ॥ उन नगरों में अधिपति स्वरूप जो कंचन देव है.पत्यापम प्रमाण आयुके धारक और दश धनुष उन्नत उत्तम देहसे संयुक्त होते हैं ॥ ५० ॥ कंचनशिखरोंपर स्थित उक्त देव चमकती हुई रत्नमालाओंसे सहित, नाना मणियोंसे प्रकाशमान उत्तम मुकुटसे विभूषित, केयूरोसे भूषित हाथोंवाले, मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंके धारक, अधिपतित्वके चिह स्वरूप धवल आतपत्रसे संयुक्त, सिंहासनोपर स्थित, महाबलवान् , बार बहुत देव-देवियोंसे सहित कहे गये हैं ॥ ५१-५२ ॥ रत्नसमूहसे संयुक्त उन कंचन नामक सब पर्वतोपर मणिमय तोरणोंसे मण्डित रमणीय जिनभवन निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५३॥ ये जिनभवन फहराती हुई वजा-पताकाओंसे सहित, नाना कुसुमोके उपहारसे की गई शोभासे संयुक्त, जिनों व सिद्धोंके बिम्बसमूहसे युक्त, और बहुत कौतुक एवं मंगळसे सनाथ हैं ॥ ५५ ॥ सीता नदी भी द्रहोंके मध्यमसे दक्षिणकी और जाकर फिर पूर्वाभिमुख होती हुई मात्यवंत पर्वतकी गुफाके मुखमें प्रविष्ट होकर बाहिर निकलती हुई विदेके मध्यसे जाती है व रमणीय तोरणद्वारसे पूर्व समुदमें प्रवेश करती है ॥५५-५६ ॥ उत्सरकुरुके मध्यमें मेहके उत्तर-पूर्व (ईशान ) दिशामें महा रत्नों के समूहसे पिंजरित सुदर्शन नामक जम्बू वृक्ष है ॥ ५७ ॥ पांच सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित, मध्यमें बारह योजन व अन्तमें दो कोश बाहत्यसे संयुक्त, उत्तम वेदिकाओंसे युक्त, मणिमय उत्तम पर बला. २१श गणेसु. १ उशतरपुरसिमेन य. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] जंबूदीवपण्णत्ती वरवेदिएहि जुत्तं मणिमयवरतारणेहि रमणीयं । णाणातगणणिवहं जिणभवणाविहूसियं रम्मं ॥५९ तस्स बहुमज्झदेसे जंबूणद भट्टजायणायामं । चदुजोयण उत्तुंग विखंभ हवंति सत्तारि ॥ ६० सिम्मलमणिमयपीढं बारसवेदीहि परिउड दिव्वं । णाणातोरणणिवई कंचणमणिरयणसंछण्णं ॥ सस्स दु मज्झे भवरं णायव्वं महजोयणुत्तुंग । चउजायणविस्थिपणं मणिमयवरमासा पीढं ॥ ६२ तस्स दु पीठस्सुवरि सुदसणो णामदो हवे जंबू.। येगाउवयाहलं भट्टेव य जोगणुत्तुंग' ॥ ६३ छज्जोयणा य विडवी' गाणामणिकणयकुसुमफलपउरं । बेरुलियरयणमूल मरगयवरपत्तरमणीयं ॥ ६४ चदुसु वि दिसासु भागे चत्तारि हवंति तस्स वरसाहा छज्जोयणायामा विस्थारों होतिथे कोसा ॥ ६५ सम्वेसु होति गेहा कोसायामा तदद्धविक्खंभा । पादूकोसतुंगा चसु कि साहेसु योन्वा ॥ ६६ उत्तरदिसाविभागे जिणिदईदाण होइ वरभवणं । अवसेलतिषिणभवणा जक्खस्स यणादियस्स हवे ॥६७ अंबूदुमा विणेया बत्तीसलहस होति धूमदिसे । दक्षिणदिसे दिया चालीससहस्स दुमणिवहा ॥६८ रिदिदिसाविभागे लडदालसहस्स होति जंबुदुमा । एदे तिणि वि संडा तिणि वि परिसाण णायवा ॥ ......................... तोरणों से रमणीय, नाना तरुगों के समूह से परिपूर्ण, और जिनभवनोंसे भूषित रमणीय सुवर्णमय पीठ है ॥ ५८-५९ ॥ उसके बहुमध्य देशमें आठ योजन आयात, चार योजन ऊंचा व चार योजन विस्तृत, बारह वेदियोंसे वेष्टित, नाना तोरणोंसे सहित तथा सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे व्याप्त निर्मल मणिमय सुवर्ण पीठ है ॥ ६०-६१ ॥ उसके मध्यमें आठ योजन ऊंचा और चार योजन विस्तीर्ण दीप्तिमान् उत्तम मणिमय दूसरा पीठ जानना चाहिये ॥ ६२ ॥ उस पीठ के ऊपर दो कोश बाहल्यवाला व आठ योजन ऊंचा सुदर्शन नामक जम्बू वृक्ष है ॥ ६३ ॥ छह योजन प्रमाण [मध्य शाखा (विडिमा) से संयुक्त उक्त वृक्ष नाना मणि एवं सुवर्णमय कुसुमों व फलोंकी प्रचुरतासे सहित, वैद्य रत्नमय मूलसे संयुक्त, और मरकतमय उत्तम पत्रोंसे रमणीय है ॥ ६४ ॥ उसकी चारों ही दिशाओंमें छह योजन लम्बी और दो कोश विस्तारवाली चार उत्तम शाखायें हैं ॥६५॥. इन चारों ही शाखाओंपर एक कोश आयत, इससे आधे विस्तृत और पौन कौश ऊंचे प्रासाद जानना चाहिये ॥ ६६ ॥ इनमें से उत्तर दिशाभागमें स्थित श्रेष्ठ भवन जिनेन्द्र-इन्द्रोंका तथा शेष तीन भवन अनादन यक्ष के हैं ॥ ६७ ॥ जम्बू वृक्षके परिवार वृक्ष भी बत्तीस हजार धूम ( आग्नेय ) दिशा, चालीस हजार दक्षिण दिशामें और अड़तालीस हजार नैऋत्य दिसा विभागमें जानना चाहिये । ये तीनों समूह तीनों पारिषद देवोंके समझना चाहिये ॥ ६८-६९ ॥ पश्चिम दिशामें सात वृक्ष सात अनीकोंके तथा पब जोयणातुंम, श जोयणतुंग. २ विट्ठवी. ३ पब दिसाविभागे. पव वित्थारो.५ पर पाहणं. उश दिसामिमागे. ७उ अणाटियस हावे, प..., ब अणाहियस्स हवे, शमणाहियस हाये. उ सास होति धूमदिसो, श सहस्सदमणिवहासो. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ८.] छटो उदेसो सत्ताणीयाणि सहा सत्तदुमा होति परिछमदिसाए । चदुसु वि दिसाविभागे चत्तारि हवंति महिसणं ॥.. उत्तरपछिमभागे उत्तरभागे य पुष्वउत्तरदो। चत्तारिसहस्सवुमा सामाणियाण बोधवा ॥.. चउरी चउरो पहा सहस्सगुणिया दुमाण जंबूर्ण | पुग्युत्तरदक्षिणपरिछमेसु कमसो मुणेयब्वा ॥ ७२ भट्ठोत्तरसयसंखा भट्टसु वि दिसासु होति रमणीया । भाणाव्यिजक्खस्स य णापन्या भादरक्खाणं ॥३ चाळीसं च सहस्सा सवं च वीसहिय तह य णायम्वा । एवं च सयसहस्सं जंबूर्ण होइ परिसंसा ॥ . जिणभवणाण वि संखा तेत्तियमत्ता हति जंबूसु । णाणारयणमयाणं भकिष्टिमाणं समुहिट्ठा ।। ७५ . जंबूपायवसिहरे सतयचामरादिसंजुना । बहुविहकेदुपाया पलंबमाणा विरायति ॥ ७६ जसिदो वि महप्पा सिंहासणसंठिमो महसत्तो। वरचामरधुवंतो बहुविसुरसमिदिगदंगो || ७० हारविराइयवछो वरकुंडलमंरिमो विउलबाहू । णीलुप्पल संकासो सिदादवत्तेण रमणीभो ॥ ७८ सम्मईसणसुद्धो सम्माविट्ठीण वच्छलो धीरो । सपलं जंबूदी सो भुंजइ एयछत्तेण ॥ ७९ पुष्वं कदेण धम्म सो भुंजइ उत्तमं विसयसोक्खं । एवं णाऊण णरा धम्मम्मि सुभाठिया होह ॥ ८. चारों ही दिशाओंमें स्थित चार वृक्ष चार अग्र देवियोंके हैं ॥ ७० ॥ उत्तर-पश्चिम ( वायव्य ) भागमें, उत्तर भागमें और पूर्वोत्तर (ईशान) भागमें सामानिक देवोंके चार हजार वृक्ष जानना चाहिये ।। ७१ ॥ ( आत्मरक्षक देवों के ] चार चार हजार जम्बू वृक्ष क्रमसे पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशामें जानना चाये ॥७२॥ आठों ही दिशाओंमें रमणीय एक सौ पाठ वृक्ष अनाहत यक्षके आत्मरक्षक [प्रतीहार, मंत्री व दूत ] देवोंके हैं ॥ ७३ ॥ जग्बू वृक्षोंकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ वीस जानना चाहिये ( १ + ३२००० + ४०००० + ४८००० +७+४+ ४००० + १६००० + १०८ = १४०१२० ) ॥ ७ ॥ जम्बू वृक्षोंपर स्थित नाना रत्नमय अकृत्रिम जिनभवनों की भी संख्या उतनी मात्र अर्थात् एक लाख चालीस हजार एक सी वीस कही गई है । ७५ ।। जम्बू वृक्षके शिखरपर तीन छत्र व चामरादिसे संयुक्त लटकती हुई बहुत प्रकारकी वजा-पताकायें विराजमान हैं ।। ७६ ॥ सिंहासनपर स्थित, महाबलवान् , उत्तम चामगेसे व.ज्यमान, बहुत प्रकारके देवोंके समूहोंसे नमस्कृत, हारसे शोभायमान वक्षस्थलवाली, उत्तम कुण्डलोंसे मण्डित, विशाल भुजाओंसे संयुक्त, नीलोत्पलके सदृश प्रभावाल!, धवल आतपत्र रमणीय, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध व सम्यग्दृष्टयों का प्रेमी, ऐसा वह धीर महात्मा यझेन्द्र भी समस्त जम्बू द्वीपको एकाधिपत्यसे. भोगता है ॥ ७७-७९ ॥ वह यक्षेन्द्र पूर्वकृत धर्मसे उत्तम विषयसुखको भोगता है, इस प्रकार जानकर मनुष्योको धर्ममें अतिशय आदर युक्त होना चाहिये ॥८॥ सौमनस गजदन्तके पश्चिम, 13श विसामागे. . उ पब श सामाणियस्स. ३ उश कोटु. ४ ५ ब समदि. ५ ५ १७ळो थी सोक्वं, एवं गाऊण गरावं सो मुंजस्य एयतण. ६ उ श पुब्धिकदेण, पब पुमिकरण... मुभाटिय होह, पब माटियार, श आहिय होइ. .. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 अमूदीवपण्णत्ती मनमो विशुपणामयस्स पुग्वेण । मंदरदक्षिणपासे देवकुरू हो जायया ॥ ८॥ कोपितों विचित्तकोप पम्पदो पपरो । एक्कं च कंचणसयं णियमा तस्य मुणेयम्या' ॥ ८१ जिसपर परमो देवकुलदहो तहेव विदिमा प। सूरदहो य गेया सुरसादह विजुतेको प ॥ ८३ जोवणसदा वित्विण्णा दसय हॉति उग्वेधा। जोयणसहसायामा सम्वाहा होति णायवा ॥ सीदीवापणदीप तत्व का पंच होति णायब्वा । मेरुस्स सामलीको दक्षिणपछिमे होइ ॥ ८५ सस्से पर णायम्वा भट्ट जायणाणं हैं । णामेण वेणुदेवो तस्थ य गहमाहिवो बस ॥ ६ . जिसमायो' गंतूर्ण सहस्स तह जोयणा दु उत्तरदो । सीदोदाउभयतडे चित्तविचित्ता जमा होति ॥ ... एखाणं तर पंचव सयाणि जोयणा गेया। जोयणसहस्सतुंगा सहस्सविस्थार मुलेसु ॥ ८ सससदा पण्णासा मज्झेसु हवति विस्था सेला। पंचेव जोयण सिहरेसुहवंति नायम्वा ॥९ अबगाहा सेलाणंदेचे सया हवंति पण्णासा। णाणामगिपरिणमा भोवमा स्वसंठाणा ॥ ९. बरवेदिएहि जुत्ता मणितोरणमंडिया मणभिरामा । वजिवणीलमरगयणागाविहरयणसंडपणा ॥९॥ विषयम नामक गजदस्तके पूर्व और मन्दर गिरिके दक्षिण-पार्श्व भागमें देवकुरु स्थित है ।। ८१ ।। महा नियमसे एक चित्रकूट व दूसरा विचित्रकूट ये दो श्रेष्ठ यमक पर्वत तथा एक सौ कंचन पर्यत जानना चाहिये ।। ८२ ॥ प्रथम निषध द्रह, द्वितीय देवकुरु द्रह, सूर द्रह, सुरस (सलस) बस और वियुत्तेज, ये पांच द्रह जानना चाहिये । सत्र द्रह पांच सौ योजन विस्तीर्ण, दश योजन उद्वेधसे सहित और एक हजार योजन आयत जानना चाहिये ॥ ८३-८५ ।। ये पाच दह वहां सीतोदाके प्रणिधि भागमें जानना चाहिये । मेरु के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) में शाल्मलि वृक्ष है ॥ ८५॥ उसकी उंचाई आठ योजन प्रमाण जानना चाहिये । वहापर वेणुदेव नामक गरुड़कुमारोंका अधिपति निवास करता है ॥ ८६ ॥ निषध पर्वतके उत्तर एक हजार योजन जाकर सीतोदा नदीके उभय तटोंपर चित्र और विचित्र नामके यमक पर्वत है ॥ ८॥ एक एक पर्वतका अन्तर पांच सौ योजन प्रमाण जानना चाहिये । ये शेख एक हजार योजन ऊंचे तथा मूलमें एक हजार योजन, मध्यमें सात सौ पचास योजन चौर शिखरोंपर पांच सौ योजन प्रमाण विस्तृत हैं ॥ ८८-८९ ॥ इन शैलोंका अबगाह दो सौ पचास योजन प्रमाण है। ये पर्वत नाना माणियोंके परिणाम रूप, अनुपम रूप न भाकारसे सहित, उत्तम वेदियोंसे युक्त, मणिमय तारणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, तपा पा, इन्द्रनील व मरकत रूप नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त हैं ।। ९०-९१ ।। नाना मणियोंसे शा. ५पद ताव. शएको पिण्डहो. २५ मुणेयम्बो. ३५ सुलसरह. पवारसयामा. महजोयश गो. ८ उश गिसिकायो. | Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६.१०१। छडो उस [ १०९ ९५ ते सु या णःणामणिमंडिएसु दिध्वेसु । देवाण दु पासादा मणिकंचणमंडिया पथरा ॥ ९२ कणयमया पासादा बेहलियमग्रा व मरगयमया य' । ससिकंतसूरकंता कक्केयणप उमरायमया ॥ ९३ त्रपयवरवण्णा णी लुप्पलसंणिद्दा समुत्तुंगा । वरकमलकुसुमवण्णा पासादा होति रमणीया ॥ ९४ सत्ताणीयाण' तथा पासादा होति चणमयाणि । तिष्णि य परिसाण तहा मणिपासादा समुहद्वा दुरोप महीसी' पासादा विविधरयणसंछण्णा । सामाणियाण वि तहा" पासादा होंति णिडिट्ठा ॥ ९६ मणिकंचणपासात्रा सुराण तह याद रक्खणामाणं । भवसेसाण सुराणं पासादा होति णायस्वा ॥ ९७ मंदरमहाचलाणं वक्खारणगाण कंचणण गाणं । गयईतणगाण तथा कुलगिरिवेदट्ठसेलाणं ॥ ९८ त्रिसकरियरसेकाणं णाभिगिरीणं च सध्ववेदीणं । वरतोरणदाराणं गोउरदाराण य तहेव ॥ ९९ भण्णेस पष्वदाणं वर्णसंढाणं तदेव सन्वाणं । संखादीदाण तहा सायरदीवाण सब्वाणं ॥ १०० जमगाण जहा विट्टा तह तेर्सि विचिह्न होति पासादा । णिम्मलमणिरयदमया वरकं चणमंडिया पवरा ॥१०१ जमगाण जहा दिट्ठा सत्ताजीयादियाण' पासादा' । तह तेसि सन्वाणं पासादा होंति पायथा ॥ १०२ ते विविधरमंगलविल संतमहंत कंत कय सोहा | पवरच्छराहि भरिया " अच्छे रयरूवसारादि ॥ १०३ मण्डित उन दिव्य शैकोंपर मणि एवं सुवर्णसे मण्डित, सुत्रर्णमय, वैढूर्यमय, मरकतमय तथा चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन और पद्मरागसे निर्मित, नव चम्पक के समान उत्तम वर्णवाले नीलोत्पल के सदृश और उत्तन काल कुठुमके समान वर्गसे संयुक्त देवों के उन्नत रमणीय श्रेष्ट प्रासाद हैं ॥ ९२-९४ ॥ सात अनीकों के सुवर्णमय प्रासाद और तीन परिषदोंके मणिमय प्रासाद कहे गये हैं ॥ ९५ ॥ चार अग्र देवियोंके चार प्रासाद तथा सामानिक देवोंके प्रासाद विविध रत्नोंसे व्याप्त कहे गये हैं ।। ९६ ।। आत्मरक्ष नागक सुरोंके तथा शेष देवों के प्रासाद मणि एवं सुवर्णमय जानना चाहिये ॥ ९७ ॥ मन्दर महा पर्वत, वक्षार नग, कंचन नग, गजदन्त नग, कुलगिरि, वैताढ्य शैल, दिग्गज शैल, नामिगिरि, सत्र वेदियां, उत्तम तोरणद्वार तथा गोपुरद्वार, अन्य पर्वत, सत्र वनखण्ड, तथा असंख्यात सब द्वीप समुद्र, इन सबके ऊपर भी यमक के समान निर्मल मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित और सुत्रर्णसें मण्डित उत्तम विविध प्रकारके प्रासाद होते हैं ।। ९८--१०१ ।। यमकोंके ऊपर जैसे सात अनीक आदिके प्रासाद कहे गये हैं वैसे ही प्रासाद उन सबके भी जानना चाहिये ॥ १०२ ॥ वे प्रासाद विविध प्रकारके रचे गये मंगलोंकी प्रकाशमान महाकान्ति द्वारा की गई शोभासे संयुक्त, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपबाळी उत्तम अप्सराओंसे परिपूर्ण, रत्नमय होते हुए भी बहुत प्रकारकी सुवर्ण, मणि एवं १ उश कंचणमया य, व मरगयससा ध. २ उ रा सत्तअणीयाणि, प ब सताणीयाणि ३ व महासीन. ४श सामाणियाणि वितहा, प ब सामाणियाणि तहा. ५ उश तह यादरवचाणामाणं, प व तह आवश्यकानामा. डश अवि, प ब अमेय. ७ प तेसिं ति विविधपासादा, व तेर्सि त विवहपासादा ८ श सचानीयाज. ९ प व परिसंवा १० उश सोह. ११ श भरियं. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] जंबूदीवपणती [ ६.१०४ रयणमया वि य बहुसो' कंचणमणिरयणभित्ति कैय सोहा । हरियंमरकतसिरी पासाया संठिया जाइ ॥ १०४ कंचणमणिरयणमया निम्मल महषज्जिया रयणचित्ता । बहुगंधपुष्कपठरा सुगंधगंधुदा' रम्मा ॥१०५ भवरे भणोवमगुणा वररयणविश्चित्तभूसिय परेसा। कप्पविमाणपुरवरप्यासावरा विसंबंति ॥ १०६ धवलहरी ससिणिम्मछेहि मण्णोष्णमभिलसंतेहि । वज्जाउद्दणगरी इव' दूराले। या सुई दहुं ॥ १०७ अद्धविमाण छंदा विमाणदा य स्वणपासादा । सम्मविमाणसिरीयं होऊण' म णिम्मिया णाई ॥ १०८ धवलहर पुंडरीपसु तेसु भवितन्ह" पेच्छणिज्जेसु । घरविखंभा खंभा सचित्तक्रम्मा विरायति ॥ १०९ मणिरयणमिति चित्ताई वाई पासादचित्तवळहीहि" । उप्पयद्द व सुरलोय विमाणवास उबहसंता ॥ ११० अहमद्दमहं णिज्जह मसगदा व संठिया केई । भाषासं संधिसा" रुद्धाइ य नाइ भयरेहि ॥ १११ बहुसो य गिरिसरिच्छा कप्पविमाणा व हंसकाया । सततला पासादा सोहम्मसिरि बिकंबंति ॥ ११२ अरहंताणं पडिमा पंचधणुस्सय समुच्छिया दिष्वा । पलियंकारणबद्धा णाणामणिरयणपरिणामा ॥ ११३ रत्नमय मित्तियों से सुशोभित; हरित् एवं मरकतकी श्रीसे संयुक्त, सुत्रर्ण, मणि एवं रत्नोंसे निर्मित, निर्मल अर्थात् मलसे रहित, रत्नोंसे विचित्र, बहुतसे सुगन्धित पुष्पों की प्रचुरता से युक्त, सुगन्ध गन्धको फैलानेवाले, रमणीय, दूसरे अनुपम गुणवाले, उत्तम रत्नों से विचित्र, सुशोभित प्रदेशवाले उपर्युक्त प्रासाद-गृह कल्पवासिया के श्रेष्ठ नगरको तिरस्कृत करते हैं ॥१०३-१०६॥ दूरसे दर्शनीय इन्द्रनगरी (अमरावती) को मानों सुखसे परस्पर देखनेकी अभिलाषा करनेवाले ऐसे चन्द्र के समान निर्मल धवल प्रासादों के द्वारा अर्ध विमानछन्द, विमानछद रत्नमय प्रासाद मानों स्वर्ग विमानों की शोभाको ले करके ही रचे गये हैं ।। १०७-१०८ ॥ अतिशय तृष्णा युक्त होकर देखने योग्य उन श्रेष्ठ धवल प्रासादों में गृह विस्तार प्रमाण चित्रकारी युक्त खम्मे विराजमान हैं ॥ १०९ ॥ मणि एवं रत्नमय मितियोंके वे चित्र भवनों के विचित्र छज्जोंके द्वारा विमानवासका उपहास करते हुए मानों स्वर्गलोककी ओर उड़ रहे हैं ॥ ११० ॥ मत्त गजराज के समान स्थित कितने ही प्रासाद अहमहमिका अर्थात् ' मैं मैं मैं ' इस प्रकारसे आकाशको लधिकर मानो दूसरोंके द्वारा रोक लिये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता है ॥ १११ ॥ पर्वत के सदृश, कल्पविमान के सदृश अथवा इसके सदृश बहुतसे प्रासाद सात खण्डोंसे युक्त होते हुए सौधर्म स्वर्गको शोभाको धारण करते हैं ॥ ११२ ॥ उन श्रेष्ठ प्रासादे में पांच सौ धनुष ऊंची, दिव्य, पल्यंकासनसे युक्त, नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप, लक्षण एवं व्यंजनोंसे १ प म स्यणमया बहुविह- सो. २ व मति ३ उश हरियं नरकशसिरी, प ब हरि उणर कसरि ४ उश पयरा, ५ उश गंधुधु ६ प व निर्मााणा पुरवर ७ प विलंविति, य विछांवेमि. ० उ श विव उप बश हे कण. १० व अवितण्डु. ११ व बलिहीहि. १२ उश अहमहति १३ प ब नज्जइय मत्तगयंदा १४ प ब लंता. १५ प ब अवेरहिं. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. १२३ ] छट्टो उद्देसो ( १११ लक्खणवं जण कलिया संपुष्णमियं के सोध्ममुहकैमला। उदयकक्रमंडलणिमा विशुद्धसमवत्तकरकमला ॥ ११४ भारत कमलचरणौ भिष्णंजणसंणिहा हवे केसा | भारतकमलणेत्ता विहुमसमतेयवरभहरा ॥ ११५ सीहा सणछत्तत्तयभामंडलधवल चामरोजुत्ता । मणिकंचणरयणमया पासादवरे सु ते हाँति ॥ ११६ चित्तवित्तिकुमारा से देवा होंति तेसु सेलेसु । भोगोवभोगजुत्ता बहुअच्छर परिउडा धीरा ॥ ११७ उत्तरदिसाविभागं गंतूर्ण जोयणाणि पंचसदा । जमगेहिंतो परदो महादहा होति सरिमझे ॥ ११८ घरवेदिए जुसा तोरणदारेद्दि मंडिया दिव्या । अक्खयअगाहतोया पंचैव य होति नायन्या ॥ ११९ एक्क्काणं अंतर पंचेत्र हवंति जोयणमयाणि । तेवीसा बादाला बे चेत्र कला य मेहस्स' ॥ १२० 'सीदा बादाला बे चैव कला य होइ परिमाणं । दद्दमेरूणं अंतर णादन्यं होइ जिणदिहं ॥ १२१ पुत्र्वावर विस्थिष्णा पंचेव हवंति जोयणसयाणि । उत्तरदक्षिणभागे सदस्य मेयं वियाणाहि ॥ १२२ पायालम्मि पट्टे" दसजोयण वणिया समासेण । पप्फुल्लें कमल कुत्र लथणीलुप्पल कुमुदसंछण्णा ॥ १२३ सहित, सम्पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य मुख कमलवाली, उदयकालीन सूर्यमण्डलके सदृश, विकसित के समान कर-कमलों से संयुक्त, किंचित् लाल कमलके समान चरणोंवाली, भिन्न अंजनके सदृश केरों से संयुक्त, किंचित् लाल कमलके समान नेत्रोंसे सहित विद्रुमके समान कान्तिवाले उत्तम अधरोष्ठों से विभूषित, तथा सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल एवं धवल चामरोंसे युक्त; ऐसी मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंके परिणाम रूप अरइन्तों की प्रतिमायें हैं ॥। ११३-११६ ।। उन शैलों पर भोगोपभोग से युक्त और बहुत अप्सराओंसे वेष्टित वे धैर्यशाली चित्रकुमार और विचित्रकुमार देव रहते हैं ॥ ११७ ॥ यमक पर्वत से आगे उत्तर दिशाविभागमें पांच सौ योजन जाकर नदीके मध्य में महा द्रह हैं ॥ ११८ ॥ उसम वेदियों से युक्त, तोरणद्वारोंसे मण्डित, दिव्य और अक्षय अगाध जलसे परिपूर्ण वे द्रह पांच ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ११९ ॥ एक एक दहका अन्तर पांच सौ योजन है । तेईस ब्यालीस 1 दो कला मेरुका है ( ? ) ॥ १२० ॥ तेरासी व्यालीस व दो कला प्रमाण, यह जिन भगवान् के द्वारा देखा गया दह और मेरुका अन्तर जानना चाहिये (१) ॥ १२१ ॥ उक्त द्रइ पूर्व-पश्चिम में पांच सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं । उत्तर-दक्षिण भागमें इनका विस्तार एक हजार योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १२२ ॥ प्रफुल्लित कमल, कुबलय, नीलोत्पल और कुमुदेसि व्याप्त वे द्रह पातालमें प्रविष्ट होनेपर दश योजन अवगाहसे युक्त हैं । इस प्रकार संक्षेप से उनका वर्णन किया गया है ॥ १२३ ॥ उनमें एक योजन प्रमाण विष्कम्भ १ उश संपुण्णधियंक २ प व सुइ ३ प य अरहंतचरणकमला. ४ उश करद्वारा ५ उ श वासरा ६ उश पासादव से सु प ब पासादावरे. • उश दिसाभिमागं १८ प च य मेरुम्मि श य इ परिमाणं ९ प व तेबीसा बादाला दहमेरूणंतरं कला दोण्णि । जोयणसंस्ता मणिया सयाहि ( व सहारि ) सम्महदरिबीहिं ॥ १० ज श सहसवेयं. ११ प ब यइट्ठा १२ प ब पष्फल. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ] जंबूदीपपणती [ ६.१२० ते वरप मपुष्पा विश्वंभायाम जोयणपमाणा । बाहल्लेण य कोरस जलातु मे उष्णया कोला ॥ १५४ वरकण्णिया दुकोसा कोसपमाणा हवंति वह पत्ता । णालाण रुंद कोसा सजोयण साहिया दोहा ॥ १२५ वेरुहियरयणणाला कं चणवरकष्णिया य णायया । विदुमपतेयारस सहरसगुणिदा समुद्दिट्ठा ॥ १२६ दिवामोदसुगंधा नववियसियपड मकुसुमसंकासा । पउम ति तेण णामा जिदिईदेहिं निष्ट्ठिा ॥ १२७ एर्य' च सबसहस्वं चालीसा तह सहस्ससंगुणिदा । एयं च सयं सोलस पउवाणं हॉति परिसंखा ॥ १९८ सत्र सयसहस्सा पंचसया तह असीदा य । पंचन्हं तु दहाणं परिमाणं हुति' पठमाणं ॥ १२९ जिदवरगुरूणं सुरिंदवरधिद्वैम उडचलणाणं । रयणमया वरपडिमा पडमिणिपुष्केसु निद्दिद्वा ॥ १३० "तेसु परमेसु णेयं कं चणमणिरयणसं वैसंकृण्णा । लंबंत कुसुममाला कालागरुकुसुमगंधवा ॥ १३॥ धुवंतघयायामुत्तादामेहिं सोहिया रम्मा | गोढरकवाडजुत्ता मणिवेदिविहूसिया दिष्वा ॥ १३९ गाडभदलविक्खंभा गाडवदोहा दहाण पडमेसु । गाउयच उभा गुणा उत्तुंगा होति पासादा' ॥ १३॥ सिधकुमारी या तह चैव य देवकुरुकुमारी य । सूरकुमारी सुबसा विज्जुप्पह तह कुमारी म ॥ १३४ व आयाम तथा एक कोश बाहल्यसे सहित और जलस दो कोश ऊंचे उत्तम कमळ पुष्प हैं || १२४ ॥ इनकी उत्तम कर्णिका दो कोश और पत्र एक कोश प्रमाण हैं । नालों का विस्तार एक कोश और दीर्घता दश योजनसे अधिक है || १२५ || इनके नाल वैडूर्यमणिमय और कर्णिकार्ये सुवर्णमय जानना चाहिये । उनके विद्रुममय पत्ते ग्यारह हजार क गये है ।। १२६ ।। चूंकि उक्त [ पार्थिव ] कमल दिव्य आमोदसे सुगंधित और नवीन विकसित पद्म कुसुमके सदृश हैं, इसीलिये जिनेन्द्र भगवान्‌ के द्वारा इनके नाम पद्म निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १२७ ॥ पद्मोंकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह ( १४० ११६ ) है ।। १२८ ॥ पांचों द्रोंके कमलोका प्रमाण सात लाख पांच सौ अस्सी ( १४०११६ × ५ = ७००५८० ) है ।। १२९ ॥ पद्मिनिपुष्पपर, जिनके चरणोंमें श्रेष्ठ सुरेन्द्रोंने अपने मुकुटको घिसा है अर्थात् नमस्कार किया है, ऐसी श्रेष्ठ जिनेन्द्र गुरुओं की रत्नमय उत्तम प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं || १३०|| दहें के उन कमलें। पर सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूह से व्याप्त, लटकती हुई, कुसुममालाओं से सहित, कालागरु व कुसुमो की गन्धसे युक्त, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से संयुक्त, मुक्तामालाओं से शोभित, रयणीय, गोपुरकपाटों ( गोपुरद्वारों ) से युक्त, मणिमय वेदियों से विभूषित, दिव्य, अर्ध कोश विस्तृत, एक कोश दीर्घ और चतुर्थ माग से हीन एकरें ( है ) कोश ऊंचे प्रासाद हैं ॥ १३१-१३३ ॥ निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सूरकुमारी, सुलसाकुमारी तथा विद्युत्प्रभकुमारी नामक ये नागकुमारोंकी उत्तम कुमारियाँ १श एवं प्रत्याः । ५ प ब सब. ६ पब होति. ३ उ विट्ठ, प ब भिट्ट, शनिठ्ठा ४ गाथेयं गोपलम्यते उ-शरा पाणादा ७ उ रा प च य. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६. १४४ ] छट्टो उद्देसो पालो णामाको नागकुमाराण वरकुमारीभो । पुगपल्लाडगामी दसधणुदेहा ॥ १३५ णि कुमारियाम महिणवलावण्णरूवजुतामो । माहरणभूसियाओ मिनुकोमल मडुरवयणाओ ॥ १३६ तेसु भगणे या देवाभो होति चारुरूवाओं । धम्मेदवण्णा विबुद्धसीभावा ॥ १३७ देवीण तिष्णि परिसा सत्ताणीया हवीत णामध्वा । तह आदरक्स असुरा सामाणीया य सुरसंघा ॥ १३८ तिष्णेय य परिमाणं धूमदिसे सीहमाणभागेसु । होंति भचणाणि या पफुलपउमेसु सब्बे ॥ ११९ बसीसा चालीसा भडदाला तद्द सहस्वसंगुणिदा । परिसंखा गिट्टि। समासदो ताण सध्वाणं ॥ १४० यसी हवस गय वरदिसासु पउमाणि होति रक्खाणं । पत्तेयं पत्तेयं चदुरो चकुरो सहस्सानि ॥ १४१ सामानियाणवि तहा खरगजखेसु चदुसहस्पाणि । सन्त पउमाणि गया सत्ताणीयाण वसम्म ॥ १४२ धर्मधूम सिंह मंडल गोवई खरणागतं खभामासु । होति पउमाणि या सर्व च मट्टाणि देवाणं ॥ १४३ एक्काण दहाणं ददोषासेसु पुध्वपच्छिमदो कंचनका दस दस गायध्वा होति रमणीया ॥ १४४ एक पल्य प्रमाण आयुवाली और दश धनुष उन्नत देहकी धारक हैं ।। १३४-१३५ ॥ उन भनें में सदा कुमारी रहनेवाली ये देवियां अभिनव लावण्यमय रूपसे संयुक्त, आमरणोंसे भूषित; मृदु, कोमल एवं मधुर वचनों को बोलनेवाली, सुन्दर रूपसे सहित और विशुद्ध शील व स्वभावसे सम्पन्न होती है ।। १३६- १३० ।। इन देवियोंके तीन पारिषद, सात अनीक तथा आत्मरक्षक देवों एवं सामानिक देवों के समूह होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३८ ॥ तीनों पारिषद देवोंके भवन आग्नेय, दक्षिण और ईशान भागोंमें स्थित सब विकसित पद्मोंके ऊपर होते हैं ।। १३९ ॥ उन सबकी संख्या संक्षेपसे क्रमशः बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार निर्दिष्ट की गई है ॥ १४० ॥ त्रजा, सिंह, वृषभ और गज दिशाओं ( पूर्वादिक चारों) मेंसे प्रत्येक दिशामें आत्मरक्षक देवोंके चार चार हजार कमल हैं ॥ १४१ ॥ तथा सामानिक जातिके देवोंके भी चार हजार कमल खर, गज और ढंख अर्थात् काक ( ईशान, उत्तर व वायव्य) दिशाओं में हैं। सात अनीकों के सात कमल वृषभ (पश्चिम) दिशामें जानना चाहिये ॥ १४२ ॥ ध्वजा, धूम, सिंह, मण्डल गोपति ( वृषभ ), खर, नाग ( गज ) और ढंख ( स ) इन आठ दिशाओं में [ प्रतीहार, मंत्री व दूत ] देवों एक सौ आठ पदून जानना चाहिये ॥ १४३ ॥ प्रत्येक द्रइके पूर्व व पश्चिम दो दो पार्श्वभागों में रमणीय दश दश कंचन-शैल जानना चाहिये ॥ १४१ ॥ वन [ ११३ १ उश कुमारीओ. २ उश चारुरूवीओ ३ उश तिष्णपरिसा, व विष्णिपरिसा ४ व विमेन. ५ ड श धूमदिसो ६ उश समसीहासयगजेसु. ७ उ श रुचाणं ८ श झय ९श गवई. १० श नर्द. बं. बी. १५. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] जंबूदीपण [ ६.१४५ वणवेदिविष्फुरंता मणिकंचनतेोरणेहि संजुत्ता । जोयणसयमुन्विद्धा तद्ववित्धारवरसिहरा ॥ १४५ बहुभवणसं परिउडा णाणाविह कप्प रुखसंकृण्णा । पोक्खरिणिवाविपउरा जिणभवणयिहूसिया रम्मा ॥ १४६ बहुदेवदेविणिवा तणापादेवराय सादीणा | देवकुरुमि विखेत्ते सुवण्णसेला समुद्दिट्ठा ॥ १४७ देवकुरुम्मि दु से सीदादापच्छिमे तडे रुक्खो । मंदरगिरिस्त णेया ईसादिसार हवे सादी ॥ १४८ पंचैव जोयणसदा विखभायाम दिव्यमणिपीढं । मज्झे बारह बहलं जोयणभद्धं तु अंतम्मि ॥ १४९ घरवेदिएहि जुत्तं मणितोरणमंडियं मणभिरामं । बहुविदपायवैणिव सरवरेबावीहिं रमणीयं ॥ १५० तस्स बहुमज्झदेसे होइ तहा दक्खिगुत्तरामामं । भट्टेव जोयणाई" तद्द्वउत्तुंग मणि ॥ १५१ जोयणविक्खंभं बारहवेदीहिं परिउद्धं दिव्वं । मणिगणजलंत भासुर तोरणभडदाल संछण्णं ॥ १५२ तं मझयं पीढं मणिमय भट्ठद्धजोयणुत्तुंगँ । जोयणसमचदुरस्थं' णाणामणिरयणसंकणं ॥ १५३ तस्स दु उवरिं होदि य सामलिरुक्खो महभसंकासो । साहवसाहगहणो" मणिकंचणरयणपरिणामो ॥१५४ व वेदियोंसे स्फुरायमान, मणिमय एवं सुवर्णमय तोरणोंसे संयुक्त, सौ योजन ऊंचे, इससे आधे ( ५० यो. ) शिखर विस्तारसे युक्त, बहुत भवनोंसे वेष्टित, नाना प्रकार के कल्प वृक्षोंसे व्याप्त, प्रचुर पुष्करिणी व वापियोंसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, रमणीय, बहुत देव-देवियोंके समूह से सहित, तथा उन्हीं पर्वतों जैसे नामोंके धारक देवराज के स्वाधीन ऐसे सुवर्ण ( कंचन ) शैल देवकुरु क्षेत्रमै भी कहे गये हैं ॥ १४५ - १४७ ॥ देवकुरु क्षेत्रमें मन्दर गिरिकी ईशान (नैऋत्य ? ) दिशामें सीतोदा के पश्चिम तटपर स्वाति ( शाल्मलि ) वृक्ष जानना चाहिये ॥ १४८ ॥ पांच सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित तथा मध्य में बारह व अन्तमें अर्ध योजन बाहल्याला दिव्य मणिमय पीठ है ॥ १४९ ॥ यह मणिपीठ सहित, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, बहुत प्रकारके वृक्षों के समूह से सहित, और सरोवर एवं वापियों से रमणीय है ॥ १५० ॥ उसके बहुमध्य भागमें आठ योजन दक्षिणउत्तर लंबा, इससे आधा ऊंचा, चार योजन विस्तृत, बारह वेदियोंसे वेष्टित, मणिसमूहकी दीप्तिसे भासुर तथा अड़तालीस तोरणों से व्याप्त दूसरा मणिमय दिव्य पीठ है ॥१५१-१५२॥ वह मध्यगत मणिमय पीठ आठके आधे अर्थात् चार योजन ऊंचा, एक योजन समचतुष्कोण और नाना मणियों व रत्नोंसे व्याप्त है ॥ १५३ ॥ उसके ऊपर महामेघ के सदृश, शाखाउपशाखाओं से गइन; मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंके परिणाम रूप, दो कोश अवगाहसे युक्त, उत्तम वेदियोंसे १ उ रा सयस मुव्विद्धा. २ उ गिरिस नेहा ईसाण, प व गिरिस्स या साण, श गिरिस नेहसाण. ३ प ब पयाव ४ उ श सुखर. ५ उब जोयणायं, श जोयणाय ६ उश बहु. ७ उश अद्धद्धजोयशुत्तुगं, प व अद्धजोयणातुंगा. ८ ब बहुरंसं. ९ च मद्दत. १० प ब गमणो. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १६५] छ8ो उद्देसो [११५ बेगाउयअवगाढो अटेष जोयणसमुत्तुंगो । बे चेव कोसरुंदो रयणमो जिम्मलो दिवो ॥ १५५ बेजोयणउप्पइया धरणीदो तस्स हॉति साहायो । छज्जोयणतुंगानो मरगयपत्तेहिं छण्णाभो ॥१५६ साहोवसाहसहिमो मज्झे छज्जोयणा हवे बहलो । तिहरे चत्तारि हवे बहुविहमणिकुसुमफलणिवहो ॥ १५७ साहास होति दिव्वा पासादा कणयरयणपरिणामा । दक्षिणदिसाविभागे जिणइंदाणं समुट्टिा ॥१५८ कोसं भायामेण य कोसद्धं तह य होति विक्खंभा । देसूणयं च कोसं उच्छेहा' होति पासादा ॥ १५९ णामेण वेणुदेवो गरुडाणं महिवाई महासत्तो । सामलितरुम्मि णेया अच्छह दिवाणुभावेण ॥ १६० साहासिहरे सु तहा णाणाविहधयवडा समुत्तुंगा । परचामरछत्तत्तयसंजुत्ता हॉति णायब्वा ॥१६॥ चदुसु वि दिसाविभागे सामलिरुक्खा हवंति णायव्वा । चदु चदु चैव सहस्सा तह चेव य भादरक्खा ॥ दक्षिणपुग्वविसाए अभंतरपारिसाण भमराणं । सामलिपादवसंखा बत्तीससहस्स णिहिट्ठा ॥१६॥ तह दक्षिणे विणेया चालीससहस्स संबलीरुक्खा । मज्झिमपरिसाण तहा णायचा होति णियमेण ॥१६५ भट्टेदालसहस्सा बाहिरपरिसाण होति णायव्वा । दक्खिगपच्छिमभागे णिहिट्ठा सम्वदरिसीहि ॥ १६५ आठ योजन ऊंचा, दो कोश विस्तारसे सहित, रत्नमय, निर्मल और दिव्य शाल्मलि वृक्ष स्थित है ॥ १५४-१५५ ॥ पृथिवीसे दो योजन ऊपर जाकर उसकी छह योजन ऊंची और मरकतमय पत्तेसे व्याप्त शाखायें हैं ॥ १५६ ॥ शाखा-उपशाखाओंसे सहित वह वृक्ष मध्यमें छह योजन व शिखरपर चार योजन .बाहल्यसे सहित और बहुत प्रकारके मणिमय कुसुमों एवं फलोंके समूहसे संयुक्त है ।। १५७ ।। इन शाखाओपर सुवर्ण एवं रत्नोंके परिणाम रूप दिव्य प्रासाद हैं । इनमें से दक्षिण दिशा विभागमें स्थित प्रासाद जिनेन्द्रोंके कहे गये हैं ॥ १५८ ॥ ये प्रासाद एक कोश आयत, अर्ध कोश विस्तृत और कुछ कम एक कोश ऊंचे हैं ॥ १५९ ॥ शाल्मलि वृक्षपर गरुड़कुमारीका खामी वेणु नामक महाबलवान् देव दिव्य प्रभावसे रहता है, ऐसा जानना चाहिये ।। १६० ।। शाखाशिखरोंपर उत्तम चामरों व तीन छत्रोंसे संयुक्त उन्नत नाना प्रकारको ध्वजा-पताकायें जानना चाहिये ॥ १६१ ।। चारों ही दिशाविभागोंमें स्थित चार चार हजार शाल्मलि वृक्ष आत्मरक्ष देवोंके जानना चाहिये ॥ १६२ ॥ दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशामें अभ्यन्तर पारिषद देवों के बत्तीस हजार शाल्मलि वृक्ष निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १६३ ॥ तथा दक्षिण दिशामें नियमसे मध्यम पारिषद देवोंके चालीस हजार शाल्मलि वृक्ष हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १६४ । दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य ) भागमें सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किये गये बाह्य पारिषद देवोंके अड़तालीस हजार शाल्मलि वृक्ष जानना चाहिये ॥ १६५ । पश्चिम दिशामें भी सात अनीक देवोंके सात वृक्ष १प अद्वेष हु जोयणा समत्तुंगे।. २ प व उपहउ परणीउ. ३ उश सहाओ. ४ उश उथे. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] जंबूदीवपणसी [ ६.१६६ - पच्छिमदिसे वि या सत्ताणीयाणं सत्त रुक्खा य । महोत्तरसयरखा भट्टसु वि दिखासु से होंति ॥ १६३ पच्छिम उत्तर कोण उत्तरभागे य पुग्धउत्तरदे। सामाणियाण होति हु चत्तारिसहस्स मणिखा ॥ १६७ चारि तुंग' यत्र देवीणं हति चदुसु विदिसासु सन्देसु पायत्रेसु य पासादा होति जायन्त्रा ॥ १६८ सम्बेसु य पासादे जिणपडिमा होति रूपसंपण्णा । सीहासणछत्तत्तयभामंडल संजुना सन्वे ॥ १६९ उत्तरकुरुदेव कुरूने से सु इवंति तेसु जे जादा । मणुया तिकोसउच्चा वरलक्खणकंजणोक लिया || १७० विपणपलिदोषमाऊ तिहिं नहिं दिवसेहि ते दु मुंजंति । वरममिदरसाहारा बदरपमाणेण विदिट्ठा ॥ १७१ वला जवला जादा इत्थी पुरिसा इति ते सध्ये । णस्थि णउंसथवेदा तिरिया कि क होति एमेव ॥ १७२ जे फम्मभूमिजादा दाणं ाऊण उसने पत्ते । मरिऊण ते मणुस्सा जायंति य भोगभूमीसु ॥ १७३ बाडगा मणुस्सा तिरिक्खमम्मि मिच्छभावेण । दाणाणुमोदणेण य कुरुसु ते होंति तिरिया हु || १७४ वे सुसरा सुरूवा मंदकाया पाया । परणारिगणा सम्बे तिरिया वि हवंति णाया ॥ १७५ जानना चाहिये । [ मंत्री व प्रतीहारादि रूप देवोंके जो ] एक सौ आठ वृक्ष हैं वे आठ ही दिशाओं में स्थित हैं ।। १६६ ।। पश्चिम-उत्तर ( वायव्य ) कोणमें, उत्तर भागमें और पूर्व-उत्तर ( ईशान ) दिशामें सामानिक देवोंके चार हजार मणिमय वृक्ष है ॥ १६७ ॥ चार अम्र देवियोंके उन्नत चार वृक्ष चारों ही दिशाओंमें स्थित हैं। इन सब वृक्षों पर प्रासाद होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १६८ ॥ सभी प्रासादों में सुन्दर रूपसे सम्पन्न जिनप्रतिमायें हैं। ये सब प्रतिमायें, से संयुक्त होती हैं ।। १६९ ।। उन उत्तरकुरु और होते हैं वे तीन कोश ऊंचे और उत्तम लक्षण व सिंहासन, तीन छत्र एवं भामण्डल क्षेत्रोंमें जो मनुष्य उत्पन्न युक्त होते हैं ॥ १७० ॥ वे मनुष्य तीन पल्पोपम प्रमाण आयुसे युक्त होते हुए तीन दिवसमें भोजन करते हैं । इनका अमृतमय उत्तम आहार बेरके बराबर कहा गया है ॥ १७१ ॥ युगल युगल रूपसे उत्पन्न हुए वे सच स्त्री व पुरुष लिंगसे युक्त होते है । वहाँ होता । इसी प्रकार तिथेच भी वहाँ उक्त दो लिंगोसे ही संयुक्त हैं ॥ भूमिमें उत्पन्न होकर उत्तम पात्रको दान देते हैं वे मरकर भोगभूमिमें नपुंसक वेद नहीं १७२ ॥ जो कर्म मनुष्य उत्पन्न होते अनुमोदना से हे ॥ १७३ ॥ मिथ्यात्व मावके साथ तिर्यच आयुको बांधनेत्राले मनुष्य दानकी कुरु क्षेत्रों में तिथंच होते हैं || १७४ ॥ वे सब स्त्री-पुरुषों के समूह तथा तिथंच भी सुन्दर स्वरवाले, उत्तम रूपसे युक्त, मन्दकषायी और पापबुद्धिसे रहित होते हैं, ऐसा जानना चाहिये १श डंग २ प विदिं दिवसे ते इ भुर्जति, व बिर्हि तिवसे तें दु लुब्जति. २ ज श हूं. देवकुरु व्यंजनोंसे Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १७८] छटो उद्देसो भोत्तण दिवसोक्खं दसविहतरसंभवं मणभिरामं । कालं काढूण वदो सम्वे देवत्तणमुवित' ॥१७६ . देउत्तरकुरुक्षेत्तं एवं कहियं समासदो भेदा । तत्तो उड्डं गेया सेसाणं वण्णणा होइ ॥ १७७ सीलगुणरयणणिवहसीलफलदेसमं विगदमोई। वरपउमणदिगमियं सीपलणाहं सदा वंदे ॥104 ॥हय अंबदीवपण्णत्तिसंग महाविदेदाहियारे देवकुरु-उत्तरकुलविण्णासपत्यारो' णाम छनो उद्देसो समत्तो ॥६॥ ॥१७॥ वे सब दश प्रकारके वृक्षासे उत्पन्न मनोहर दिव्य सुखको भोग कर मुत्युके पश्चात् देव पर्यायको प्राप्त करते हैं ॥१७६ ॥ इस प्रकार संक्षेपले देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रका कथन किया है । इसके आगे शेष क्षेत्रोंका वर्णन जानना चाहिये ॥ १७७ ।। शीलगुणरूपी रत्नसमूहसे सहित, शीलके फलके उपदेशक, मोहसे रहित, और उत्तम पद्गनन्दिसे नमस्कृत ऐसे शीतलनाथको मैं सदा प्रणाम करता हूं ॥ १७८ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें देवकुरु-उत्तरकुरु विन्यासप्रस्तार नामक छठा उद्देश समाप्त हुआ ॥ ६ ॥ उश.मुर्दिति. २५ एक्के कहिय, ब यक्के कहियं. ३ पब पण्णतिविथरे. पविण्णाभारो, व विरमणपत्यारो. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सत्तमो उद्देसो ] सेयंसजिणं पणमिय ससुरासुरवंदियं धुर किलेलं । वोच्छं विदेहवंसं' जहदिहं सम्यदरिसीहिं ॥ १ णिसहस्स यं उत्तरदे। दक्खिगदो णीलवं तसेलहस । वंसो महाविदेहो चउद्दिसं मंदरविद्दत्तो ॥ २ विषखंभो य सहस्सा वेत्तीसं छहसदा य चुकसीदा' । चतारि चेव भागा मज्झे जीवा सग्रसहस्सा ॥ ३ एक्क" च सय महस्सा अढावण्णं तद्दा सहस्वाणि । तेरस सर्व कलामो सोइस भद्धं च धणुपु ॥ ४ तेसी च सहस्सा सत्तट्ठाणि य' सदाणि सत्त भने । पुध्वावरपस्सभुजा विदेहसम्म सत्त कला ॥ ५ एगं बाणउदी च य दोणिमहस्ता तत्र बोद्धन्त्रा । अट्ठारस य ककाओ। विदेइअम्मि चूलिपा होइ ॥ ६ विक्खभ आयामं मेरुस्स इवंति दो वि सरिलाणि । दस य सहस्सा गया जोयगसंखा समुद्दिा ॥ ७ आयामं विश्वंभं वोच्छामि समासदो दु से साणं । दोण्हें वणसंडाणं पायव संघाय णिचियाणं ॥ ८ देवारण्णचतुण्डं मटुं वेदियाण दिवाणं | बारसणदीण णेया विभंगणामाण सम्वाणं ॥ ९ सोलसवक्खाणं बत्तीस तु विठलविजयाणं । चउसहिवरणदीणं गंगासिंधूण आयामं ॥ १० सुरों व असुरोंसे वन्दित और क्लेशसे रहित श्रेयांस जिनेन्द्रको प्रणाम करके विदेह वर्षका वर्णन करते हैं जैसा कि सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥ १ ॥ निषधके उत्तर में और नील पर्वत के दक्षिण में स्थित वह विदेह क्षेत्र चारों ओर मन्दरसे विभक्त अर्थात् उसके मध्यमें मन्दर पर्वत स्थित है || २ || विदेह क्षेत्रका विष्कम्भ तेतीस हजार छह सौ चौरासी योजन और चार भाग ( ३३६८४ ), तथा मध्यमें जीवा एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण है ॥ ३ ॥ उसका धनुत्रपृष्ठ एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और सादे सोलह कला ( १५८११३३३ ) प्रमाण है || ४ || विदेह वर्ष में पूर्वापर पार्श्वभुजाका प्रमाण तेतीस हजार सात सौ सड़सठ योजन और सात कला ( ३३७६७६२ ) है ॥ ५ ॥ बान और दो हजार अर्थात् दो हजार नौ सौ इक्कीस योजन व अठारह कला ( २९२१६६ ) प्रमाण अर्ध विदेहमें चूलिका है || ६ || मेरुका विष्कम्भ व आयाम दोनों समान रूप से दश हजार योजन प्रमाण कहे गये जानना चाहिये || ७ || अब वृक्षसमूइसे परिपूर्ण शेष दो वनखण्डों ( भद्रशाल), चार देवारण्यों आठ दिव्य वेदिकाओं, बारह विमंगा नदियों, सोलह वक्षार पर्वतों, विशाल बत्तीस विजयों, तथा गंगा-सिन्धू आदिक चौसठ उत्तम एक, १ प ब वोच्खामिदेहवंसं. २ उ सदा व कुलसीदा, श छहसदा व कुळसीदा. ३ उ रा सयसहस्स. ●प में एवं ५ सतमणि य श सराणि य. ६ प ब बाणउर्दि. ७ उ दोवं श दोवएहा. ८ उ श निम्बियाणं, प...... व णिवियाणं. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. २१] सत्तमो उद्देसो [११९ सोलस चेव सहस्सा पंचव सदा हवंति बाणउदा। जोयणसंखा दिवा बेचेव कला हवे महिया ॥" सीदासीदोदाणं विखंभे पंच जोयणसयाणि । तं सोहिऊण सम्वं विदेहविक्खंभमन्मम्मि ॥ १२ सेसं अन्द्र किच्चा में लद्धं होइ ताण मायाम । पञ्चदखेतादीणं दीण सम्वाण णायब्वा ॥ १३ यावीतं च सहस्सा जोयणसंखापमाण णिद्दिा । दोई वणाग या षिक्खभ होहणियमेण ॥१४ उणतीजोयणसया यावीसा तह य होह विक्खंभो। देवारणचउण्डं जायच्या उवाहियंतम्मि ॥१५ बेगाउयउविद्धा पंचेव य धणुसया हवे विउला । अट्ठाई वेदोणं णायग्वं होह विक्खंभं ॥ १६ पणुगीत ओयणसयं विदेहममम्मि तह य णिहिट्रा । बारसणदीगणेया विभंगणामाण विक्खों ॥1 पंचेच जोयणतया विक्खंभ होह तह य णायव । सोलसवक्खाराण णिटिं सम्वदरिसीहि ॥ १८ णीलणिसहाण भागे सेला पदुसय जोयणा समुत्तुंगा । सीदासीदोदाण य तडेसु ते होंति पंचसया ॥ १९ बावीसजोयणसया बारस सत्तटूभागमधियं । बत्तीसण्ई या विजयाणं होइ विक्खंभे ॥२० कुंडाण तह समीवे सक्कोसा जोयणा य छच्चेव । चउसटिवरणदीणं विक्खंभ होहणायन्वं ॥२॥ नदियों के विष्कम्भ व आयामका संक्षेपसे कथन करते हैं। इन सबका आयाम सोलह हजार पांच सौ बानबै योजन और दो कला अधिक कहा गया है ॥८-११॥ सीता-सीतोदाका विस्तार पांच सौ योजन प्रमाण है। उस सबको विदेहके विस्तारमेंसे कम करके शेषको आधा करनेपर जो लब्ध हो उतना उन पर्वत, क्षेत्रादिक तथा सब नदियोंका आयाम जानना चाहिये ( ३३६८४१५ - ५०० २ = १६५९२१२३ ) ॥ १२-१३ ॥ दोनों (भद्रशाल] वनोंका विष्कम्भ नियमसे बाईस हजार योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥१४॥ समुद्र तक स्थित चार देवारण्योंका विष्कम्भ उनतीस सौ बाईस ( २९२२) योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १५॥ आठों वेदियों की उंचाई दे। कोश और विष्कम्भ पांच सौ धनुष प्रमाण जानना चाहिये ॥ १६ ॥ विदेहके मध्यमें विभंगा नामक बारह नदियोंका विस्तार एक सौ पच्चीस योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ १७ ॥ सोलह वक्षार पर्वतोंका विष्कम्भ सर्वदर्शियोंने पांच सौ योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया है ॥ १८ ॥ ये शैल नील और निषधके पासमें चार सौ योजन तथा सीता-सीतोदाके तटोपर पांच सौ योजन प्रमाण ऊंचे हैं ॥ १९ ॥ बत्तीस विजयोंका विष्कम्भ बाईस सौ बारह योजन और एक योजनके आठ भागों से सात भाग अधिक जानना चाहिये ॥ २० ॥ चौंसठ उत्तम नदियोंका विष्कम्भ कुण्डोंके समीपमें एक कोश सहित छह (६१) योजन प्रमाण जानना चाहिये ।। २१ ।। उक्त नदियोंका विस्तार सीता-सीतोदाके जलमें प्रवेश करते उश सवे. २ उश अच्छंण्हं. ३ उश तह य होइ णायब्वा. ४ उ सेल, श सोळा. ५ पब बजायणसमतुंगा, शचदुजोयण। समूखंगा. ६ उ मागअजाधियं, पब भागमम्शधियं, श भागअलीधियं. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.] मूदीवपणती [..२२ बेकोलसमधिरेयाबासा जायणा समाि । सीदासीदादा पवेसमाणेण विक्सभं ॥१२ विक्संभ इण्टरहियं विक्खभासस मेलवेर्ण । जंबदीवस्स तहा विक्खंभे सोहिऊण पुणो' ॥ २॥ अवसेसं जं दिई विखंभिच्छेण भाजिदं लदं । तं होदि इच्छिदाणं सवाणं इच्छविक्खंभे ॥ २५ यह होह सोजमरासी जोयणलक्खं अवट्रिदंसदमणवट्रिदा य या सोहणरासी समुट्ठिा ॥ २५ चरसटुिंब सहस्सा पंचव सपा हवंतिणउदा सोहणासी गेषा विदेहवंसस्स बिजयाणं ।। २६ से ज्झम्मि दु परिसुद्धं सेसं तह सोलसेहि पविभत्सं । जं लवं णायव विजयाण होह विक्ख ॥ २७ अण्णउर्दिच सहस्सा सोजाम्लिय सोहिदण भवसेर्स | अविभत्ते बई वखाराणं तु विक्ख ॥ २८ सय दो कोशेसे अधिक बासठ (६२) योजन प्रमाण कहा गया है ॥ २२ ॥ इछित ( विजय आदि ) के विष्कम्भसे रहित शेष सबके विष्कम्भको मिलाकर तया उसे जम्बू द्वीपके विष्कम्भमेंसे घटा कर जो शेष दृष्टिगत हो उसे विष्कम्भकी इन्छा अर्थात् विजयादिकोंकी संख्या ( १६,८,६,२,२ ) से भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना इच्छित सब विजयादिकोंका इच्छित विष्कम्भ होता है ॥ २३-२४ ।। यहां शोध्य राशि (जिससे घटाना अभीष्ट है ) जो एक लाख योजन है वह सदा अवस्थित है । शोधन (घटाई जानेवाली ) राशि अनवस्थित कही गई जानना चाहिये ।। २५ ॥ विदेह वर्षके विजयोंकी शोधन राशि चौसठ हजार पांच सौ चौरान जानना चाहिये ॥ २६॥ इस राशिको शोध्य राशिमसे शुद्ध करके शेषको सोलहसे विभक्त करनेपर जो लब्ध हो उतना विजयोंका विष्कम्भ जानना चाहिय ।। २७॥ उदाहरण- यदि हम विदेह क्षेत्रस्थ १६ विजयोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार जानना चाहते हैं तो उक्त १६ विजयों के समुदित विस्तारको छोड़कर शेष ८ वक्षार पर्वतों (५००४८ = ४००० यो.) ६ विभंगा नदियों ( १२५ x ६ = ७५० यो.), २ देवारण्यों (२९२२४ २ = ५८४४), २ भद्रशाल वनों (२२०००x२ = १४०००) तथा मेरु पर्वतके विस्तार (१०००. यो. ) को मिलाकर उसे १००००० यो. ( जम्बू द्वीपका विस्तार ) में से कम करना चाहिये- १००० + ७५० + ५८४४ + ४४००० + १०००० = ६४५९४, १००००० - ६१५९४ = ३५१०६। अब चूंकि विजयों की संख्या १६ है, अत एव इसमें १६ का भाग देनेपर इष्ट प्रत्येक विजयका विस्तार प्राप्त हो जाता है- . ३५४०६ १६ = २२१२४ यो. प्रत्येक विजयका विस्तार । छ्यानबै हजार ( ३५१०६ + ७५० + ५८४४ + ४१००० + १०००० = ९६०००) को शोध्य राशिमेंसे घटाकर शेषको आठसे विभक्त करनेपर जो लब्ध हो उतना वक्षारोंका विष्कम्भ होता है ॥ २८ ॥ निन्यानमै हजार दो सौ पचास ( २५४०६ १ उपबश सममित्या. २ उ श पुरो. ३ उ श अवदि. ४ उश परिसाद. ५५ ब सोनमम्मि दु सो सहेजन. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससमो उसो. [११ णवणडादि र सहस्सा बेसयपण्णास सोहणक्खादा । सोजाम्मि सुखसेसं विभंगविक्खंभ मागो' ॥ १९ पउणठाच सहस्सा छप्पण्ण सयं च सुरभवसेसं'। दोभागेण बलदं देवारण्णाण विक्खंभे ॥1. छप्पण्णं च सहस्सा सोहणरासी विहीण लोमम्मि । सेसं दलेण होदि य विक्खंभ भइसालस्स ॥ ३॥ णउदि वेव सहस्सा सोहणरासी समासदो गेया। सोज्झम्मि सुद्धसेसं होदि य मेरुस्स विक्वंभं ॥३१ सीदाए उत्तरदो गोलस्सदु दक्षिणेण भागेण । उत्तरकुरुस्स पुल्वे पकिमदो चित्तकूडस्स ॥ ३३ एदम्हि मंतरमहरछाविजभो त्ति णामदो क्षो। देसो भणाइणिणो बहुगामसमाउलो रम्मो॥ परचक्काईदिरहिदो णाणापासंडसमयपरिहीणो। धणधण्णरयणणियहो गोमहिसिकुलाउलसिरीभो ॥ १५ जवसालिउच्छुपउरो तिलमासमसूरगोदुमाइग्णो । दुभिक्खमारिरहियो णिचुच्छवतररमणीभो ॥३॥ गाणाजणपदणिवहो गरणारिवियकखणेहि परिपुण्णो । पोखरिणिवाविपउरी बहुविहदुमसंकुलो रम्मो ॥१. + ४००० + ५८४४ + ४४००० + १०००० = ९९२५० ) इस शोधन नामक राशिको शोध्य राशि से शुद्ध करके शेषमें छहका भाग देनेपर विभंगा नदियोंका विष्कम्भ होता है ॥ २९ ॥ चौरानबै हजार एक सौ छप्पन (३५४०६ + १००० + ७५० + ११००० + १०००० = ९४१५६ ) को शोध्य राशिसे कम करके शेषमें दोका भाग देनेसे जो लब्ध हो उतना देवारण्योंका विष्कम्भ होता है ॥ ३० ॥ छप्पन हजार (३५४०६ + १००० + ७५०+५८४४+१०००० = ५६०००) इस शोधन राशिको शोध्यमसे कम करके शेषको आधा करनेसे भद्रशाल वनका विष्कम्भ होता है ॥ ३१ ॥ नब्बे हजार ( ३५४०६ + ४००० + ७५० + ५८४४ + १४००० = ९०००० ) इस शोधन राशिको शोध्य राशिमेसे शुद्ध करनेपर जो शेष रहे उतना मेरुका विष्कम्म होता है ॥ ३२ ॥ सीता नदीके उत्तर, नील पर्वतके दक्षिण, उत्तर कुरुके पूर्व तथा चित्रकूट पर्वतके पश्चिम भाग; इस अन्तरमें कच्छा नामक विजय स्थित जानना चाहिये। यह देश अनादिनिधन, बहुत प्राोंसे व्याप्त, रमणीय, परचक्र व ईतिसे रहित, नाना पाखण्डी समयोंसे विहीन, धन-धान्य और रत्नों के समूहसे परिपूर्ण; गाय और भैंसोंके कुलेसे व्याप्त शोभावाला; जौ, शालि धान्य एवं ईखकी प्रचुरतासे सहित; तिल, उड़द, मसूर और गोधूम (गेहूं ) से परिपूर्ण दुर्भिक्ष व मारि (प्लेग आदि ) से रहित, सदा होनेवाले उत्सवोंके वादिनोंसे रमणीय, नाना जनपदोंके समूहसे संयुक्त, बुद्धिमान् नर-नारियों से परिपूर्ण, प्रचुर पुष्करिणी व वापियोसे सहित तथा बहुत प्रकारके वृक्षोसे व्याप्त होता हुआ रमणीय है ।। ३३-३० ॥ उस .......................................... उश मागा, पब मागो..पब अवसेसो. पबलालस्स.४ पब मामेम, ५प. एदेहि. उशसे, . उदि, शदी, ८ उशपवरो. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] जंबूदोषपण्णत्ती [७. ३८देसस्स तस्स मज्झे खमा णामेण पुरवरो रम्मी । रयणमयभवणाणिवहो कणयमाणिरयणसंगण्णो ॥ ३८ पायारसंपरिउडो मणितोरणमंरिमो मणभिरामो' । वरखाइएहि जुत्तो जिणभवणविहूसिमो परमरम्मो ३९ बारहजोयण गेमो मायामो पुरवरस्स णिहिटो । णवजोयणक्रिखंभो कंचणमणिरयणघरणिवहो ॥ .. गोउरसहस्सपउरी खडकीदाराणि होति पंचसया। बारहसहस्स रस्था सहस चउक्का समुट्ठिा ॥" एक्केक्कदिसाभागे वणसंग विविहकुसुमफलपउरा । तिण्णेव सया सट्ठी णायग्वा होति णियमेण ॥ ४२ तस्स गरस्स राया भणंतबलरूवतेयसंपण्णों । पंचधणुस्सयतुंगो देवासुरजक्खपरिवक्खो ॥ ४३ परमाउ पुग्वकोडी सम्मादिट्ठी विसालवरबुद्धी । भोगावभोगसहिमो छक्खंडणराहिमो धीरो ॥" बत्तीससहस्सा रायाणं सामिओ महासत्त।। तावदियपमाणाणं देसाणं महिवाई दिटो ॥ १५ णवणउदि च सहस्सा दोणमुहाई हवंति गायम्बा। सीदासरिजलसंभवखुल्लोवहिवरसमीवेसु ॥४६ भट्टेदाल सहस्सा णाणामणिरयणसंभवा दिया। तह पट्टणा वि णेया विसालउत्तुंगवरभवणा ॥ ७ देशके मध्यमें क्षमा नामक रमणीय उत्तम पुर है। यह पुर रत्नमय भवनोंके समूहसे सहित, मुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे व्याप्त, प्राकारसे वेष्टित, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, उत्तम खाईसे युक्त और जिनभवनोंसे विभूषित होता हुआ अतिशय रमणीय है ॥ ३८-३९ ॥ सुवर्ण, मणि एवं रत्नमय गृहोंके समूहसे सहित इस श्रेष्ठ पुरका आयाम बारह योजन और विष्कम्म नौ योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ ४०॥ इसमें एक हजार गोपुर, पांच सौ खिड़की द्वार, बारह हजार वीथियां और एक हजार चतुष्पय कहे गये हैं ॥४१॥ इसके एक एक दिशामागमें विविध कुसुमों एवं फलोंकी प्रचुरतासे युक्त तीन सौ साठ वनखण्ड जानना चाहिये ॥ १२ ॥ उस नगरका राजा अनन्त बल, रूप व तेजसे सम्पन्न; पांच सौ धनुष ऊंचा देव, असुर एवं यक्षाका शत्रु; एक पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट आयुका धारक, सम्यादृष्टि, विशाल उत्तम बुद्धिसे संयुक्त, मोग-उपभोगोंसे सहित, छह खण्डोंका अधिपति, धीर, महाबलवान् बत्तीस हजार राजाओंका स्वामी, और इतने मात्र ( ३२०००) देशोंका अधिपति कहा गया है ॥ १३-१५॥ उक्त चक्रवर्तीके सीता नदीके जलसे उत्पन्न होनेवाले क्षुद्र समुद्रोंके समीपमें निन्यानबै हजार (९९०००) द्रोणमुख जानना चाहिये ॥१६॥ तथा विशाल व उन्नत उत्तम भवनोंसे संयुक्त और नाना मणियों एवं रत्नोंको उत्पन्न करनेवाले अड़तालीस हजार ( १८.००) दिव्य पट्टन भी जानना चाहिये ॥ १७॥ बहुत धन-सम्पत्ति व १पद परमरम्मो. १९श परमो..पदारेण..पब सहस्स. ५ उशसहस हक्को समुक्टिो. पापपुण्यो, उशमणिसमवा. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. ५७ ] सचमे उद्देसो [ १२१ छध्वी च सहस्सा वरणयर ।' विविहरयणसंछष्णा । बहुसार भंडेणिवद्दा' कप्पूरमरीचिर्देरिपुष्णा ॥ ४८ पंचसयगामजुत्ता मडंबणामा हर्वति णायग्वा । चस्तारि सहस्साई' बहुविद्दधरसंकुला रम्मा ॥ ४९ seeणामाणि तदा धरणीधरपरिउडा धणसमिद्धा' । चढतील व सहस्सा बहुभवणविहूलिया दिव्या ॥ ५० सरिपष्वाण मज्जले खेडा णामेण होंति णायन्वा । सोलस वेव सहस्सा णाणाविहभवणसंण्णा ॥ ५१ गिरिवरसिहरेसु वहा संवाहा नामदो समुद्दिट्ठा | चढदस चैव सहस्सा कंचणमणिरंयणधरणिवहा ॥ ५५ छप्पण्ण रमणदीवा रयणाणं जणणि एव संजाना । सीदाउत्तर कूले" हवंति ते उवसमुदमि ॥ ५३ छण्णवगामकोडी उत्तुंगमतभवणकयसोहा । संविट्ठलद्धसीमा" कुक्कुडसंडेवया" दिग्वा ॥ ५४ धुवंतघयवडाया जिणभवणविहूसिया हये दिट्ठा" | मिच्छत्तभवणैरेंहिया गामादीणं समुद्दिट्ठा ॥ ५५ नाणामणिरयणमया जिणमवणविभूसिया परमरम्मा । मिच्छत्तमवणरहिया गामादीया समुद्दिट्ठा ॥ ५६ ससेव महामेषा भवरंजणसंणिमा सलिल पुण्णा । तह सप्त सप्त दिवसा वासारतम्मि वरिसंति" ।। ५७ वर्तन- भांड़ों के समूह से युक्त, कर्पूर व मरीचिसे परिपूर्ण और विविध रत्नोंसे व्याप्त ऐसे छब्बीस हजार उत्तम नगर होते हैं ॥ ४८ ॥ पांच सौ ग्रामोंसे युक्त और बहुत प्रकारके घरोंसे व्याप्त रमणीय चार हजार मटंब जानना चाहिये ॥ ४९ ॥ पर्वतसे वेष्टित, घनसे समृदूध और बहुतसे भवनोंसे विभूषित चौतीस हजार दिव्य कर्बट होते हैं ।। ५० ।। नदी और पर्वतके मध्य स्थित व नाना प्रकार के भवनोंसे सहित सोलह हजार दिव्य खेट जानना चाहिये ॥ ५१ ॥ पर्वतशिखरों पर स्थित व सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके गृहसमूइसे संयुक्त चौदह हजार संबाह कहे गये हैं ।। ५२ ।। रत्नों के उत्पादक जो छप्पन रत्नद्वीप ( अन्तद्वीप ) हैं वे सीताके उत्तर तटपर उपसमुद्रमें उत्पन्न होते हैं ॥ ५३ ॥ उन्नत एवं विशाल भवनोंसे शोभायमान संक्लिष्ट होकर प्राप्त सीमासे संयुक्त तथा मुर्गा के उड़ने योग्य अर्थात् पास पास स्थित ऐसे छपानबै करोड़ दिव्य ग्राम होते हैं ॥ ५४ ॥ ये प्रामादिक फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त, जिनभवनों से विभूषित और मिध्यादृष्ठियों के भवनों से रहित कहे गये हैं ॥ ५५ ॥ उक्त प्रामादिक नाना मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय और मिथ्यादृष्टियों के भवनोंसे रहित कहे गये हैं ॥ ५६ ॥ भ्रमर व अंजनके सदृश वर्णवाले तथा जलसे परिपूर्ण सातों ही महामेघ सात सात दिन तक रात-दिन बरसते हैं ॥ ५७ ॥ कुंद पुष्प १ उश वारागरा, प ब बरागरा. २ प ब भड. ३ ब णित्रहाणिव्वहा. ४श करीचि. ५ उश सहस्साएं ६ उश भणसमिट्ठा, प व वणसमिधा. ७ उ श पव्वदोण. ८ प ब खंडा. ९ प ब कंचामणि. १० व कूलो. ११ उश किट्टिजद्धसीमा १२ उश संदेवया, प व संगीदया. मट्ठा. १४ प ब खत्तमवण १५ गाधेयं नोपलभ्यते उ-शप्रमोः । १६ उ श वर संति, १३ श Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ जंदविपणती पारस य दोणमेहा कुदुसमप्पहा सक्रिकपउरा । वीसुत्तरतिण्णिसया परिवडणा होति एकेको । ५. तस्य दुखत्तियवसो रायाण बहुविहो हवे भेदो । वइसाण होइ बसो सुदाण तह प णायम्बा ॥ ५९ विण्णव होति बंसा अवसेसा सस्य गास्थि सादु । दुवुटिमणावुट्ठी जवि होति दुसम्यकासम्मि।.. विस्थयरपरमदेवा महमहापारिहेर संजुत्ता । पंचमहाकल्लाणा घडतीसविसेससंपण्णा ॥६॥ देवासुरिदमहिया णाणाविहरूक्खणेहि संजुत्ता । चक्कहरणामयचलणा तिलोगणाहा हये तस्थ ॥३॥ सत्तविहरिखिपत्ता गणहरदेवा हवंति णायम्वा । अमरिंदणमियचक्षणा सद्धम्मपयासया वस्थ ॥ १३ पवरवरपुरिससीहा केवलणाणी हर्षति संबद्धा' । णाणाविहतवणिरदा साहुगणा होति तस्येव ॥ भंजणगिरिसरिसाणं चुलसीदीसयसहस्स णागाणं । तावदियरहवराणं णवणिहिमक्खीण कोसाणं ।। ६५ भट्ठारहकोडीणं मस्साण वाउवेगगमणाणं । जे सामिय माहप्पा मखलियपरक्कमा धीरा ॥६. ते होति चक्कवट्टी चउदसरयणादिषा महासत्ता । छण्णउहसहस्साणं महिला सामिया तस्य ॥. बलदेववासुदेवा तप्पडिवखा हवंति तस्येव । धम्माणुभावजणिया अतुसंताणारपती ॥ भौर चन्द्रके समान प्रभावाले तथा प्रचुर जलसे परिपूर्ण बारह द्रोणमेघ भी बरसते हैं। एक एकके तीन सौ बीस सरित्प्रपात होते हैं ।।५८ ॥ वह! बहुत प्रकारके मैदोसे युक्त राजाओंका क्षत्रिय वंश, वैश्योंका वंश और शूद्रों का वंश, ये तीन ही वंश हैं; शेष वंश वहाँ नहीं हैं, ऐसा जानना चाहिये । तथा वहां सर्व काल दुवृष्टि ( अतिवृष्टि) और अनावृष्टि भी नहीं होती ।। ५९-६०॥ वहां आठ महा प्रालिहायोंसे संयुक्त, पांच महा कल्याणकोंसे युक्त, चौंतीस अतिशयोंसे सम्पन्न, देवेन्द्रों व असुरन्द्रोंसे पूजित, नाना प्रकारके लक्षणोंसे संयुक्त, चक्रवर्तियोंसे नमस्कृत चरणोंवाले और तीनों लोकोंके स्वामी ऐसे तीयकर परम देव विद्यमान हैं ।। ६१-६२॥ वापर सात प्रकारको ऋद्धियों को प्राप्त और देवेन्द्रोंसे नमस्कृत चरणीवाले, गणधर देव समीचीन धर्मके प्रकाशक है ॥६३॥ यहापर पुरुषों में श्रेष्ठ संबद्ध (अनुबद्ध ) केवली और नाना प्रकारके तोंमें निरत साधुसमूह भी हैं ॥ ६ ॥ जो महापुरुष अंजन गिरिके सदृश चौरासी लाख हाथियों, इतने हा उत्तम रणों, नौ निधियों, अक्षीण कोष, और वायुके वेगके समान गमन करनेवाले अठारह करोड़ अश्वोंके स्वामी और निर्बाध पराक्रमके भारक होते हैं। वे चौदह रत्नोंके अधिपति, महाबलवान् और छयान हजार महिलाओं के स्वामी चक्रवर्ती वहां विद्यमान रहते हैं ॥ ६५-६७ ॥ अविच्छिन्न परम्परासे संयुक्त बलदेव, बासुदेव, और उनके प्रतिपक्षी ( प्रतिवासुदेव ) नृपति भी वहाँ धर्मके प्रभावसे उत्पन्न होते . १५ सिरिवरणा, श सरिवडाणा. २ पब एक्कक्क. ३ अश दुयिटिअण्णापुट्ठी न . . पद सस्स, ५ पब संबंधा. उपबश असायं. ७पब तह पडियक्खा, शपत्पेपिविक्खा. संतागणवंती, पसंभाणामस्पची, संताणाणस्पती, श संताणलि. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७.७८1 सत्तम। उसो [ १२५ रायाहिरायवसहा हॉति महाराय भद्धमंडलिया। तह सयलमंडलीया सम्मि महामंडलीया य ॥ सम्वाण विदेहाणं एवं सम्वेसु चेव विजयेसु । पुरिसाण उप्पत्ती णायव्वा होइ णियमेण ॥ .. कच्छाविजयस्त जहा समासदो वण्णणा समुहिट्ठा । सेसाणं विजयाणं पसेव कमो वियाणादि ॥.. सत्तारतोदेहि य वेवणगेण भाजिद। संतो। छक्खंडकच्छविजमो समासदो होहणायच्यो ॥ ७२ कपकासंडाण तहा विक्संभो भीलवंतपासम्म । सत्तसया तेत्तीसा छमागविहीणबेहोसा' ॥॥ एगत्तरि विण्णिसदा भट्टसहस्सा य जोयणा गेया । एर्ग' च कला दिवा खंडाणं होइ मायाम ॥ .. विजयाणं विक्की सरीण विखंभ सोधहत्ताणं । सेसं तिभागलद्धं खाणं होई विक्खंभं ॥ ७५ विजयाणं मायामे वेवड्दस्स य तहेव विक्खंभ' । सुद्धावसेसदलिदं खंडाणं' होइ भायाम ॥ ७६ भट्टकोससाहिया वारस बावीपजीयगमयाणि । कच्छ विजए दिह्रो वेदगिरिस्स भाषामो ॥ ७. पण्णासा' विक्खंभी पणुवीस सुंग रयदपरिणामो । सक्कोसळावगाडा तिसेविपरिमंडिभो दियो ॥ ७० है॥६८॥ श्रेष्ठ राजाधिराज, महाराज, अर्धमण्डलीक, सकलमण्डलीक और महामण्डलीक भी यहाँपर विद्यमान रहते हैं ॥ ६९॥ इसी प्रकार सब विदेहोंके सभी विजयों में नियमस पुरुषोंकी उत्पत्ति जानना चाहिये ॥ ७० ॥ जिस प्रकार कच्छा विजयका संक्षेपसे वर्णन किया गया है उसी प्रकारका यही क्रम शेष विजयोंका भी जानना चाहिये ॥ ७१ ॥ रक्कारकोदा और विजया गिरिसे विभागको प्राप्त होकर कच्छा विजय संक्षेपसे छह खण्डोंसे युक्त जानना चाहिये ॥ ७२ ॥ नील पर्वतके पासमें कच्छाखण्डौंका विष्कम्भ सात सौ तेतीस योजन और छह भागोंसे हीन दो कोश है ॥ ७३ ॥ उक्त खण्डोंका आयाम आठ हजार दो सौ इकत्तर योजन और एक कला प्रमाण कहा गया है ।।७४ ॥ विजयोंके विष्कम्ममें से नदियोंके विष्कम्भको घटाकर शेषके तीन भाग करनेपर जो लब्ध आवे उतना [२२१२१ - (६+६) ३ = ७३३३. यो.खण्डोंका विष्कम्भ होता है ।। ७५॥ विजयोंके याममें से विजयार्धके विष्कम्भको कम करके शेषको आधा करनेपर खण्डोंका आयाम (१६५९२२ - ५० २= ८२७११६ यो.) होता है ।। ७६ ॥ कन्छ। विजयमें वैताढ्य पर्वतका आयाम बाईस सौ बारह योजन और साढ़े तीन कोश प्रमाण कहा गया है ।।७।। चादीके परिणाम रूप और तीन श्रेणियोंसे मण्डित इस दिव्य पर्वतका विष्कम्भ पचास योजन, उंचाई पच्चीस योजन और अवगाढ़ एक कोश सहित छह (६) योजन है उश बोकोसा। २५ व एवं. प य वेदढस य विक्म, श वदड्टसयहामे विक्खम. उशदलिदक्वंजणं, पब दलिई खंडाणं. ५ उश अदाकोस, पब अटुकोस. ६श पापणासा. .उश सेटि. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] जंबूदीपordi [ 0.09 वेदढणगो पवरो विज्जाहरसुरगणाण भावासो। कच्छविजयग्मि मज्झे परिट्टियो होइ रमणीभो ॥ ७९ कुंदु संखवण्णो जिणभवण बहूसिमो पर मरम्मो । वणवेदिएहिं जुतो तोरणणिवदेहि कपसाहो' ॥ ८० पणत्रणा उत्तरदो दक्खिणदो वह य होंति पणवण्णा । नगराणि तत्थ णेया विज्जाहरपवरयाणं ॥ ८१ जव चैव हाँति कूडा कंचणमणिरयणमंडिया दिष्वा । अभिजोगसुराण तथा पासादा तत्थ णामब्बा ॥ ८२ पोक्खरिणाविप ठरो' णाजावरुसंकुळी मणभिरामो । वतंत्र जिवहो भयवपुष्वं तर मणीमो ॥ ८३ बेदड्ढलेलमू चउदस वह ओयणा व सत्तलया । विक्खंभं जायन्त्रं कच्छा विजयस्त खंडाणं ॥ ८४ छात्रट्ठा ह्रस्चै सया पंच सहस्सा घणूर्ण णायब्वा । वे चैव हाँति हत्था सोकस वह भंगुळा दिट्ठा ॥ ८५ समहिषदिवकाला चडतीला जोषणा नदी रता । रत्तोदा विम होति व विक्सभा रमदगिरिमूले ॥ ८६ ॥ ७८ ॥ विद्याधरों व देवगणोंके आवास स्वरूप यह रमणीक श्रेष्ठ वैताढ्य पर्वत कच्छा विजयके मध्य में स्थित है ।। ७९ ।। उक्त पर्वत कुंद पुध, चन्द्र और शंखके समान वर्णवाला; जिनभवन से विभूषित, अतिशय रमणीय, वनवेदियोंसे युक्त और तोरणसमूहोंसे शोभायमान है ॥ ८० ॥ उसके ऊपर उत्तरकी ओर पचवन तथा दक्षिणकी ओर पचवन श्रेष्ठ विद्याधर राजाओंके नगर जानना चाहिये ॥ ८१ ॥ उक्त पर्वतपर सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे मण्डित दिव्य नौ कूट तथा आभियोग्य सुरोंके प्रासाद जानना चाहिये ॥ पुष्करिणी व वापियोंसे सहित, नाना वृक्षोंसे व्याप्त, मनोहर, सहित, और फहराती हुई धजा-पताकाओं से रमणीय हैं || ८३ ॥ विजयार्ष पर्वतके मूलमें कच्छा विजयके खण्डों का विष्कम्भ सात सौ चौदह योजन, पांच हजार छह सौ छयासठ धनुष, दो हाथ तथा सोलह अंगुल प्रमाण कहा गया है ।। ८४-८५ ॥ ८२ ॥ ये प्रासाद प्रचुर बजते हुए वादित्रसमूह से विशेषार्थ - कच्छा विजयका विष्कम्भ २२१२ यो. है । इसमेंसे विजयार्धके समीप रक्ता व रक्तोदा नदियोंमेंसे प्रत्येकका विष्कम्भ जो ३४ यो. व साधिक डेढ़ कोश ( ३४ 1⁄2 यो. ) प्रमाण है उसे कम करके शेषमें ३ का भाग देनेपर विजयधिके समीपमें प्रत्येक खण्डका विष्कम्मप्रमाण प्राप्त होता है - २२१२1⁄2 - ( ३४१ × २ ) ÷ ३ = ७१४ यो. ५६६६ धनुष २ हाथ १६ अंगुल । विजयार्ध पर्वतके मूल रक्ता व रक्तोदा नदियोंमेंसे प्रत्येका विष्क्रम्म चौतीस योजन और डेढ़ कोशसे कुछ अधिक है ।। ८६ । उक्त दोनों नदियां अपने अपने कुण्डके मुख १श कळसोहे. २ उश पडरा पउरो, प व पवरो. ३ ड श चउदहसत. ५ प ६ जणू. ● स श राय Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७.९५) सत्तमो उसो [१२. हज्जोयणा सफोला कुंमुहे' वित्थडामो सरियालो । बासट्टा' कोसा सीदाए पविसमाणीको । ०७ छण्णउदा छच्च सया जायणसंखा ससपरिहीणा । सोदावरसरितीरे कच्छाविजयस्स विक्खंभो ॥ ८८ णीलगिरिस्स दु हेढा कुंआणि हवंति सकिलपुण्णाणि । वणवेदिये जुनाणि य तोरणदारहि रम्माणि ॥ ०१ फुटाणं णायग्वा विक्वंभायाम जोयणपमाणा । वासट्टा बे कोसा दसावगाहा समुट्ठिा ॥ ९० रत्ता रत्तोदा वि य णीसरितणं' महतकुंडादो । संकुडिऊण तालो वेदगुहेसु पविसति ॥ ९. वेदगुहाण तहा दाराण वियाण विस्थडायामा । उच्छेहा तह जोयण बारस पग्णास अटेव' ॥ ९२ परिहाणिवडिवज्जियगुहाणे मोसु हाँति सरियाभो । भट्टेव दु विस्थिणा सम्वस्थ समा समुट्ठिा ।। ९५ वेभड्ढमाभागे दो दो सरियामो तेसु पविसंति । रत्तारत्तोदेसु य उम्मग्गणिमग्गणामामओ ॥ ९. कोहि णिग्गदामोदो दो जोयण हवंति दोहाम।। वरचक्कवहिणिम्मियसंकमसहितकूलामो ॥ ९५ बरतोरणजुत्ताको कंचणवेदीहि परिउढामो दु । वणसंहभूसियामो मणिमयसोवाणनिवहाभो ॥९॥ ( उद्गमस्थान ) में एक कोश सहित छह योजन (६) तथा सीता नदीमें प्रवेश करते समय बासठ योजन व दो कोश प्रमाण विस्तृत हैं ॥ ८७ ॥ उत्तम सीता नदीके तीरपर कम्छा विजयके [ खण्डोंका ] विष्कम्भ छठे भागसे हीन छह सौ छयानबै योजन प्रमाण है [२२१२४ - (६२३४२) ३ = ६९५३३ यो.] ॥८८॥ नील पर्वतके नीचे वनवेदियोंसे युक्त और तोरणद्वारोंसे रमणीय जलसे परिपूर्ण कुण्ड हैं ॥ ८९ ॥ कुण्डोंका विष्कम्भ व आयाम बासठ योजन दो कोश और अवगाह दश योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥९॥ रक्ता और रक्तोदा नामक वे नदियां विशाल कुण्डोंसे निकल कर संकुचित होती हुई विजयार्षकी गुफाओंमें प्रवेश करती हैं ॥९१॥ विजयाईकी उन गुफाओंके द्वारोंका विस्तार, आयाम तपा उत्सेध क्रमसे बारह, पचास और आठ योजन प्रमाण है ॥ ९॥ हानि-वृद्धिसे रहित उन गुफाओंके मध्यमें उक्त नदियां सर्वत्र समान रूपसे आठ योजन विस्तीर्ण कही गई है ॥९३ ॥ विजयाके भीतर उन्मग्ना और निमग्ना नामक दो दो नदियां उन रक्ता-रक्तोदा नदियों में प्रवेश करती हैं ॥ ९४ ॥ अपने अपने कुण्डसे निकलती हुई वे नदियां दो दो योजन दीर्घ, श्रेष्ठ चक्रवर्तियोंसे निर्मित उत्तम पुलोंसे शोमायमान तीरोंवाली, उत्तम तारणोंसे युक्त, सुवर्णमय वेदियोंसे वेष्टित, धनखण्डोंसे भूषित और मणिमय सोपानसमूहसे संयुक्त हैं ॥९५-९६ ॥ रका और डश समुहे. २ पब बास. ३ उ श सीदावरिसरितारे, प सदावरसरितीरे, व सदावरती. .पणाम. ५बराविदिय..शय स्सीपरिदर्ण. उश उया. ८ उशबदों पर मास... अपत्य. | Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] जंबूदीपण्णी रसारोदालो णीसरिपूर्ण गिरिस्स गन्भादो । तोरणदारेहिं तहा गंतूर्णं दक्षिण मुद्देण ॥ ९७ दीहि सहिया सहस्सगुणिदाहि विमलसलिलाहिं । तोरणदारेहिं तहा सीदासलिलं मणुविसंति ॥ ९८ दिजोयणाणि य पादविहूणाणि तुंगसिहराणि । तोरणदाराणि तहा कंचणमणिरयणणित्रहाणि ॥ ९९ वासट्टिजोयणाणि य बेकोसा' होति णायन्वा । तोरणदाराण वहा मायामं जिणवरुद्धिं ॥ १०० विक्खभ वि य गया जोयण भट्ठाँ हवंति णायम्बा | देहलितलेहिं तामो सरियानो ताणं पचिसंति ॥ १०१ मोरणदारेषु तहा देवाण तेसु होति नगराणि । बहुभवणसंकुलाणि दु मणिकंचणरयणणित्राणि ॥ १०१ उज्जाणभवणकाणणपेक्खरिणीवाविएहि रम्माणि । जिणभवणमंडियाणि य गोउरदाराणि जायंा ॥ १०३ मागधणामो दीवो वरतणुदीवो पभासदीवो य | तिष्णेदे वरदीवा कच्छीविजयस्स णायच्वा ॥ १०४ रक्तारतोदेहि य अंतरिदाओ हवंति ते दीवा । मणिकंचणरयणमया वरवेदी परिउडा रम्मा ॥ १०५ वरतेोरणे हि जुत्ता णाणापासादसंकुला रम्मा । सीदाए णायग्वा तडेसु ते होंति वरदोषी ॥ १०६ जाणतरुवरणिवा जिणभवणविहूसिया परमरम्मा । पोक्खरिणिवा विपउरा सुरगणिसुर संकुला रम्मा ॥ १०७ बहुमच्छर परियरिया हवंति सम्वेसु तेसु सुरराया । मागधवरतणुणामों पभासणामेण बोढा ॥ १०८ रक्तोदा नदियां नील पर्वतके मध्यसे निकल कर तोरणद्वारोंसे दक्षिणकी ओर जाकर निर्मल जलवाली चौदह हजार नदियोंसे संयुक्त होती हुई तोरणद्वारोंसे सीता नदी के जल में प्रवेश करती है ॥ ९७-९८ ॥ सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके समूह रूप वे तोरणद्वार उन्नत शिखर से युक्त होकर एक पाद से कम चौरानबे (९३) योजन ऊंचे हैं ॥ ९९ ॥ जिनेन्द्र भगवान् से उपदिष्ट उक्त तोरणद्वारोंका आयाम दो कोश अधिक बासठ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १०० ॥ उक्त तोरणोंका विष्कम्भ आठ योजन प्रमाण जानना चाहिये । वे नदियां उनके देहलितलों से सीता नदी में प्रवेश करती हैं ॥ १०१ ॥ उन तोरणद्वारों के ऊपर बहुत मत्रनें से युक्त मणि, सुत्र एवं रत्नसमूह से सहित; उद्यान, भवन, वन, पुष्करिणी एवं वापियोंसे रमणीय; जिनभवनोंसे मण्डित, और गोपुरद्वारोंसे संयुक्त देवोंके नगर जानना चाहिये ।। १०२-१०३ ।। कच्छा विजयके मागध नामक द्वीप, वरतनु द्वीप और प्रभास द्वीप, ये तीन उत्तम द्वीप जानना चाहिये || १०४ ॥ वे द्वीप रक्ता-रक्तोद से अन्तरित; मणि, सुवर्ण एवं रत्नों के परिणाम रूप; उत्तम वेदियों से वेष्टित, रमणीय, उत्तम तोरण से युक्त और नाना प्रासादोंसे व्याप्त होते हुए सीताके तटोपर स्थित जानना चाहिये ।। १०५-१०६ ।। उक्त द्वीप श्रेष्ठ नाना वृक्षसमूहोंसे सहित, जिनभवन से विभूषित, अतिशय रमणीय, प्रचुर पुष्करिणी व वापियोंसे संयुक्त तथा देवाङ्गनाओंके स्त्ररोंसे व्याप्त होते हुए रमणीय हैं ॥१०७॥ उन द्वीपों में बहुतसी अप्सराओंसे वेष्टित मागध, वरतनु और प्रभास नामक अधिपति देव [ ७.९७ १. २ प ब दाराण. ३ उ रा कंश्चणमय, प... श्रमतौ त्रुटितोत्र पाठः । ४ श कोसाहियाण, बों त्रुटितोऽत्र पाठः ५ उश जिणत्ररुदिट्ठा ६ उश त्रिमो • उश बा. एसा श दुज्जाण. १० उ रा कच्छ, ११ उ रा बरतित्या. १२ उ तथानाम श "तथणामु. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] सचमा उदेस ॥ १०९ दो छाडा मारिखंडो य होंति बोद्धग्दा । सीदासमीवदेसो णिदिट्टो कच्छविजय बाहरुपु दिवम्बर सबर किरायाण सिंहकादीर्ण' । मेच्छाण सेसडा मिल्लीणा जीवंतस्स ॥ १३० 1 मापुराहिबया चक्कद्दरा सुरसहस्सपरिवारा । चउसद्विलक्खणहरा समचदुर सरीरसंठाणा ॥ १११ बरवज्जरिसहचरयणारायणअस्थिबंधणसरीरा ! संपुष्णचंद्रवयणा नीलुप्पलसुरहिणीसासा ॥ ११२ मगयगमणलीला करिवरकरथोरदीह भुवदंडा | भाणु ब्व तेयवंता सुरवइ इव मेोगसंपन्ना ॥ ११३ कुसुमाउह व सुभर्गो धणवह इव दाणविधैव सारेण । सायर इव अक्खोहा धीरते' तह व मेह व ॥११७ वे ते' महाणुभावा विजयं कुष्यंत वसुमई सयलं । दक्खिणमुद्देण चहिया ममराणं उवरि सरिदीवे ॥११५ तूण दीवणिवद" करणं काऊण ठाणवइसाई" । वह अल्फाल धणुई" जह जमरा संकिया जाया ॥११६ धीरेण " तेण मुक्का धणुबाणागडिभणेहि हत्थेहि" । पवरसरा संपत्ता सुराण असुराणं" बरगेहं ॥ ११७ ११० ॥ क्षमापुरके अधिपति धारक, समचतुरखशरीर संस्थानसे युक्त शरीरवाले, सम्पूर्ण चन्द्रके जानना चाहिये ॥ १०८ ॥ कक्षा विजयका जो प्रदेश सीता नदीके समीपमें है उसमें दो म्लेच्छखण्ड और एक आर्यखण्ड जानना चाहिये ॥ १०९ ॥ उक्त विजयंका जो प्रदेश नील पर्वतकी ओर स्थित है उसमें शेष तीन खण्ड लाइल, पुलिन्द, बर्बर, शबर, किरात और सिंहल आदिक म्लेच्छों के हैं ॥ चक्रवर्ती हजारों देखें के परिवार से सहित, चौंसठ लक्षणों के युक्त, वज्रवृषभनाराच रूप अस्थिबन्धन ( संहनन ) से समान मुखसे सहित, नीलोत्पलके सदृश सुगन्धित निश्वाससे संयुक्त, मत्त गजके समान लीलासे गमन करनेवाले, उत्तम हाथीके गुण्डादण्डके समान दीर्घ भुज- दण्डों से सहित, सूर्य के समान तेजस्वी, इन्द्रके समान भोगोंसे सम्पन्न, कामदेव के समान सुन्दर, दान - विभवकी श्रेष्ठता से कुबेरके सदृश, समुद्रके समान गम्भीर तथा धीरतामें मेरुके समान होते हैं ॥ १११-११४ ॥ उक्त वे चक्रवर्ती महानुभाव समस्त पृथिवीको वश करनेके लिये दक्षिण की ओर स्थित देवोंके नदी सम्बन्धी द्वीपोंमें जाते हैं ॥ ११५ ॥ द्वीपोंके निकट जाकर बे महानुभाव वैशाखस्थान आसनको करके धनुषको कान तक ऐसा खींचते हैं कि जिससे देव शंकित हो जाते हैं ॥ ११६ ॥ उस साहसी चक्रवती द्वारा धनुष-बाण युक्त हाथोंसे छोड़े गये उत्तम बाण सुर-असुरोंके उत्कृष्ट गृहको प्राप्त होते हैं ॥ ११७ ॥ चक्रवर्तियोंके नामसे [ १२९ प १ प ब आयीर. १ प व सिंघलादाणं ३ उ अइयरणारायण, श वरियरणायामेन सुमरा ५ उ विविध, प व विश्व, श विवह ६ व भारते. ७ प ब मेकन्त्रा ८ प व तो ते. ९५५ महिवई १० प व दीवनिवडई ११ उ ठाणश्वश्वहसाह, प अणवइसाह, व बाणवइसाई, श अननसानं. १३ उ तह मध्फाकयभथ जह, प व तह फाल६ घणवर, श तन अप्फालय भाई. १३ प व वीरेन. १ पे-बत्यो नोपलभ्यते पदमेतत्. १५ प व भत्याण. जं. दी. १५. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.] जंबूदीवपण्णत्ती [७. ११८ बारह जीयण गंतुं सराहु णिवति चक्कवट्टीण | गामेण अमोघसरा' चक्कीणं णामसाहीणा ॥1 भत्थाणम्मि य पडियं बाणं दळूण सुरवरा खुहिया मागधवरतणुणामा पभासदीवाहिवा सम्वे' ॥१९ गाऊण चक्कवाह देवगणा विविहरयणवत्थेहि । पूजति पहिट्ठमणा पभासवरमागधादीया ॥ १२० एवं काउण वसं दक्खिणसुरखेयराण सम्वाणं | उत्तरसुराण उपरि संचलिया उत्तरमुहेण ॥१२॥ वेदगिरीमूल भावासेऊण सम्ववरसेण्ण | चक्काउही महप्पा मच्छह दिग्वाणुमायण || १२२ सेणावई वि धीरो गहिकर्ण रयणदंर पंजलंत | चडिऊण मस्सरयणं वेदड्ड्समावमल्लियह ॥१२३ इक्कितु तिमिसदार पहणइ दंडेण रयणणिवहेण । सुग्घरह तं दुवारं स्यणपहावेण हयमतो । १२५ वेगेण पुणो गच्छह सेणावह चक्कवहिवरसेणं । सेणो वि ताम भाला जाम गुहा सीयला होइ ॥ १२५ सम्मासण वरगुहा सीयलभाव उवैदि णादम्वा । भवसेससम्वकालं अग्गीमो महिय उपायरा ॥ १२५ सेण्णं अणोरपार पविसित्ता जाह वरगुहामझे। पणुवीस जोयणाई गंतूणं तस्य वीसमह' ॥१२७ अंकित वे चक्रवर्तियोंके अमोघ नामक बाण बारह योजन जाकर नीचे गिरते हैं ॥११८ ॥ आस्थान (आंगन) में गिरे हुए बाणको देख कर मागध, वरतनु और प्रभास द्वाोके अधिपति सब देवगण क्षोभको प्राप्त होते हैं ॥ ११९ ॥ प्रभास, वरतनु और मागध आदिक देवगण चक्रवर्तीका जानकर हर्षितमन होते हुए विविध रत्नों और वस्त्रोंसे पूजते हैं ।।१२०॥ इस प्रकार दक्षिणके सब देवों व विद्याधगेको वशमें करके उत्तरकी ओरसे उत्तरके देवोंके ऊपर आक्रमण करने के लिये जाते हैं ॥१२१॥ चक्र रस्न रूप आयुधके धारक चक्रवर्ती महात्मा विजया पर्वतके मूलमें सब उत्तम सैन्यको ठहराकर दिव्य प्रभावसे स्थित रहते हैं ॥ १२२ ॥ धीर सेनापति भी जाम्बल्यमान दण्ड-रत्नको ग्रहण करके अश्व-रत्नपर आरूढ़ हो विजया पर्वतके समीप जाता है ॥ १२३ ॥ व तिमिस्र गुफाके द्वरपर पहुच कर रत्नोंके समूह रूप दण्ड-रत्नसे उसे ठोकर मारता है। ठोकर मात्रसे वह द्वार रत्नके प्रभावसे सहज ही खुल जाता है ॥१२॥ तब सेनापति शीघ्र ही फिरसे चक्रवर्ती की उत्तम सेनाके पास पहुंच जाता है। सेना भी जब तक गुफा शीतल होती है तब तक वहीं स्थित रहती है.॥ १२५ ॥ वह उत्तम गुफा छह मासमें शीतलताको प्राप्त होती है, शेष सब कालमें अग्निसे अधिक उष्ण रहती है॥१२६॥ पश्चात् वह ओर छोर रहित आने विस्तीर्ण सेना उस उत्तम गुफाके मध्यमें प्रविष्ट होकर जाती है और पच्चीस योजन जाकर वहां रुक जाती है ॥ १२७ ॥ जहाँ उन्मनजला उश सस. २ उश अमोघम्मा, अमोघपर. ३ पब दीयोहिया सम्यो शदीवाहिया सम्वी. ४५ब चटक्कहो ५पमाा शमवं. उश उण्डदो. . उश जोयगाए. पतस्थ, सव. १श तत्व बांसजायजाए। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उदेसो [११ उम्मग्गनिमग्गजल सरियाभो जत्य होति णिहिट्ठा । तहि भावासह सेणं परदो' ण तारज्जो गर्नु । वेगेण वहइ सम्यिा उभयतो परिजण सलिलेग । सेण्णो वि तह विसण्णो' भन्छह चिताउरी' लोगो । ण मि को वि जाणइ गरों गमणोवाय गाविस परतीरं । मोत्तण चक्कवट्टी तक्खगरयणो य ते दैणि बहरयण पुणो महंत जंतं तु"कम बर्दू । तेण वरसंकमेण य खंदावारी समुत्तरितो" ॥ तत्तो दु संकगादो पणुवीस जोयणागि तूणं । सेण्णं णीसरदि पुणो उत्तरवारेण दिब्वेण ॥ १३१ सेण्णं णीसग्दूर्ण मावासह मेछखंडममम्मि : मिच्छणांदा य", पुणा सणं दण" संभंता ॥ १॥ कुलदेवदाण पास' गंतूणं विण्ण" ते मिच्छा । सेण्णस्स दुभागमणं सोऊण य "बिपरिकुविदा । मेघमुहणामदेवो मागंण करेदि" उसग्गं । गाणाविहेहिं बहुमो वस्पादी घोररूवेति ॥५ गवि खुम्भई सो सेण्णो बहुविउवसग्गरहि जाएहिं । चकाहरणस्वरस्स दु सम्ममहप्पैमावेण ॥॥ और निमग्लजला नदियां निर्दिष्ट की गई हैं वहां सेनाको ठहरा देते हैं, क्योंकि, इससे आगे जाने के लिये यह सैन्य समय नहीं होता ॥ १२८ ॥ जलसे उमय तटोंको पूर्ण करके नदी वेगसे बहती है । ऐसी अवस्थामें सेना व सब जनसमुदाय खिन्न एवं चिन्तातुर होकर स्थित रह जाता है ।। १२९ ॥ चक्रवर्ती और तक्षक रत्न, इन दोको छोड़कर कोई भी मनुष्य नदीके उस पार जाने के उपायको नहीं जानता ॥ १३०॥ फिर बढ़ई रत्नक द्वारा जो वह विशाल पुल बांधा जाता है उस उत्कृष्ट पुलपरस सब सेना पार हो जाती है ॥ ११ ॥ उस पुलसे पच्चीस योजन जाकर वह सैन्य दिव्य उत्तर द्वारसे निकलता है ॥ १३२ ॥ सेना गुफासे निकल कर म्लेच्छखण्डके मध्यमें ठहरा दी जाती है। उस सेनाको देख कर म्लेच्छ राजा घबड़ा जाते हैं ॥ १३३ ॥ वे म्लेग्छ राजा कुलदेवताओंके पास जाकर विनती करते हैं । वे भी सैन्यके आगमनको सुनकर कोपको प्राप्त होते हैं ॥१३९ ॥ मेघमुख नामक देव आकर नाना प्रकारके भयानक रूपोंसे वर्षा आदि रूप उपद्रव करता है ॥ १३५॥ परन्तु वह सेना पुरुषपुंगव चक्रवर्तीके धर्म-पुण्यके महान् प्रभावसे उन बहुत प्रकारके उत्पन्न हुए उपसगों द्वारा क्षोभको प्राप्त नहीं होती ॥१३६ ॥ फिर भी वह मेघमुख .उ उम्मग्गम्मिग्गजला, श उम्मग्गीण माजला. २ पब सरियाओ होति. ३ब परिदो.. सिरिजदे प..., व तरिजए. श तिरिजादे. ५ उ सेण्णो विविहसण्णो, श सेण्णो विविहविसण्णो. प बपिताबरो. ७प कोवि जाइरो, को विजाइमहरो. ८ उ तदिस्स, श तसिस्स. ९पबमोदण १. उशकोण... उ महत्तजतं तु, पब महंततं तु, श महत जति १२ उश समुचिट्ठा. १३ पब पणवीसा. १५पब मेरीरदाण. १५ उ चदण, पदठुण, बदहण श चदु. १६ पब वासं, १७ उश उ सेणग्य, श सेणस्याम. १९उ श से. २० उश मेघहा गामदेवो, पब मेषमुहा णमुदेवा, ॥ उश करदि. २२ उवाग्बादी, पबवषादी, ग्वादी. २३ उश सुष्मा २५ पदमाप्प. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णती [७.१५७पुरवि विउविजण मंजणगिरिसणिभं महामेधं । वरिसइ सेणस्सुवरि मुसळपमाणेहि धारेवि ॥ ॥ मेवावरूद्धगयणं विख्याविप्फुरंतरमणीयं । गज्जतघोरसई फुरिय इव मंबरं सयलं ॥३८ अंतररहि बरिसह दिणरयणी' सस सस परिमाणं । जायं सायरसरिसं गिरिवरबुईतबहुसलिल' ॥ सनिलम्मि तम्मि उपरि तरंतबरचम्मरयणठियसेण्णं । उस्थिदसिदादव विसायपरिवन्जिय सम्वं ॥ १४. बिस्वमायामेण म बारहजायणपमाण णिष्टुिं । चम्मरयणस्स संखा सिदादवत्तस्स तह चेव ॥॥ चम्मरवणो ण दुई जबम्मि सेदादवत्तवररयणो । ण वि छिज्जइ ग वि मिज्जइ सहस्सदेवेहिं कयरक्लो । गाडगब पाकाहरी देवेहि कमो ति घोरउवसगं । तह मुख्चह वरवाणं जह देवा णिप्पमा जादा ॥४३ बसविस्कममाहप्पं दणं ते सुरा य मिाय । मागंपूर्ण सम्बे गरिंदइंदस्स पणमंति ४४ कणारयणेहि तदा इस्वीमस्सादिएहिं बहुएहि । कंचणमणिरयणेहि य गरिंदईद पपुज्जति ॥ १५ णाऊण सयमहप्पं चक्कहरो माणगविभो होइ । गवि को वि ममसरिसो पयावजुत्तो त्ति मपर्णतो" ॥1॥ देवजनगिरि जैसे महामेधको विक्रिया करक सेनाके ऊपर मूसलके बराबर मोटी धाराओंसे वर्षा करता है ॥१३७ ॥ उस समय मेघोंसे आच्छादित, विद्युत् रूप सताके प्रकाशसे रमणीय और मेघगर्जनके भयानक शब्दसे संयुक्त समस्त आकाश मानो झट पड़ता है ।।१३८ । उक्त देव सात सात दिन-रात्रि प्रमाण निरन्तर वर्षा करता है, जिससे समुद्र के समान बड़े बड़े पर्वतोंको डुबानेवाला जल उत्पन्न हो जाता है ।। १३९ ॥ उस जलके ऊपर तैरते हुए उत्तम चर्म-रत्नपर स्थित और धवल आतपत्र (छत्र-रत्न ) को ऊपर किये हुए समस्त सेना निषादसे रहित होती है ॥१४० ॥ चर्म-रत्नका विष्कम्भ व आयाम बारह योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है । यही प्रमाण धवल आतपत्रके विष्कम्भ व आयामका भी है ॥ १४१॥ हजार देवासे रक्षित चर्म-रत्न और धवल आतपत्र-रत्न न जलमें डूबते हैं और न छेद-भेदे भी जाते हैं ।। १४२॥ देवासे किये गये घोर उपसर्गको जानकर चक्रवर्ती ऐसा उत्तम माम छोड़ते हैं जिससे वे देव निष्प्रभ हो जाते हैं ॥ १४३ ॥ चक्रवर्तीके बल-विक्रमके माहाम्यको देखकर वे सब देव औR म्लेच्छ राजा आकर उसको प्रणाम करते हैं ॥१५॥ इसके अतिरिक वे बहुतसे कन्या-रत्नोंसे, हापी व अश्वादिकोंसे तथा सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे चक्रवर्तीकी पूजा करते हैं ॥१४५॥ मुझ जैसा प्रतापी दूसरा कोई भी नहीं है, ऐसा मानता दुभा अपने माहात्म्यको जानकर वह चक्रवर्ती मानसे गर्वको प्राप्त होता है , पुष्परविओविण्य, श पुण्गरवि विषिण. २५ ष दिणरयणणी. उशबूतबहुसलिलं, प नईतवरसलिला. ४ ४ चम्मरयणषियसेणं, पब चमरयमद्विय, श चम्मरयरसरिसेनं. ५पद विषया. +श दियादवचनस्य चेक. ७ उ बुद्धर, पब धुर, श दुगु. ८ पब मि. ९ ड श पासादिपविं. बनणादिपदि. १. बहुदेहि, बहुबेह, पब पयाविजुलो विमण्णतो. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. १५३) सत्तमा उसो माणेण तेण राया महंतगवण गम्विदो संतो। चिंतेदि सयमापक्किातं ठामि गिरिसिहरे ॥१५. दण रिसभसेकं णाणाचक्कीण जामसंछण्ण' । चक्कहरो णरपवरो जिम्माणी तक्खणे जाभो ॥ve लुहिऊण एकरुणामं मप्पणणाम पि तत्य लिहिऊण | साहित्ती तेखंडे तेणेव कमेण णीसरह । १४९ णिग्गा भवरेण णिवो पुम्वदुवारेण तह य णीसरह । वेदड्ढस्स य‘णेया संखेणेव य समुट्ठिा ॥ १५. छक्खंरकग्छविजयं साहित्ता सुरणरिंदसंजुत्तो। राय। ससेणसहिलो खेमाणयरिं अणुप्पत्तो ॥१५॥ विजन दु समुट्ठिो' खेमाणयरस्स चक्कवट्टीणं । सम्वाण ताण णेया एसेव कमो समासेण ॥ १५२ वासवतिरी वियपमकमलजुगं महंतगुणजुस । वरपउमणंदिणमियं सुवासुपुज्ज जिणं दे ॥ १५१ ॥य जंबूदीषपण्णत्तिसंगहे महाविदेवाहियारे कच्छाविजयवाणी णाम सत्तमो उद्देसो समत्तो॥ ७॥ . ॥ १४६ ॥ चक्रवर्ती उस मानसे महान् गर्वको प्राप्त होकर अपने महात्म्यकी कीर्तिको ऋषभाचलके शिखरपर स्थापित करनेका विचार करता है ॥ १४७ ॥ पुरुषोंमें श्रेष्ठ चक्रवती ऋषम शैलको नाना चक्रवर्तियों के नामोंसे व्याप्त देखकर तत्क्षण मानसे रहित हो जाता है ॥ १४८॥ उन अनेक नामों से एक नामको मिटाकर और वहाँ अपना भी नाम लिखकर तीन म्लेच्छखण्डों को वशमें करनेके पश्चात् चक्रवर्ती उसी क्रमसे बाहिर आता है ॥१४९ ॥ चक्रवर्ती पश्चिम द्वारसे विजयाध पर्वतके भीतर प्रवेश करता है और पूर्व द्वारसे वापिस आता है, ऐसा संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ।। १५० ॥ छह खण्ड युक्त कच्छा विजयको जीत कर देवों व राजाओंसे संयुक्त चक्रवर्ती अपने सैन्य सहित क्षेमा नगरीको प्राप्त होता है ।। १५१ ॥ यह क्षेमा नगरीके चक्रवर्तियोंकी विजयका वर्णन किया गया है। यही क्रम संक्षेपसे सब चक्रवर्तियोंके विजयका जानना चाहिये ॥ १५२ ।। जिनका चरण-कमलयुगल इन्द्रके मुकुटसे चुम्बित है अर्थात् जिनके चरणोंमें इन्द्र मुकुटको रखकर नमस्कार करते हैं, जो महागुणोंसे युक्त हैं, और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत हैं, उन वासुपूज्य जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ १५३ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें कक्षा-विजय-वर्णन नामक सातवा उद्देश समाप्त हुआ ॥ ७॥ १पब पावेसि गिरिसिहरो. २ पब सण. ३ पब मक्खणे. ५ उपशास. ५प। भायाणणाम..उ सोहिता, श साहित. ७ प कम्मेण णिस्सरइ. ८पब वेदड्टम्या..उश विजयो समरिहो, पसिनन्दु सम्मुदिटो. १.पब सवासपुज्जं. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्टमो उद्देसो ] विमल जिनिंद' पणमिय विसुद्धवरणाणदंसणपईवं । पुष्वविदेहविभाग' समासदो संपवक्लामि ॥ १ कच्छा पुग्वेणं' गंतूणं तत्थ होइ वरसेलो । वणवेदिर्दि जुत्ता घरतोरणमंडिओ पवरो ॥ २ णामेण चित्तकूडो णाणापासार्देसंकुलो दिग्वो । चडकूडतुंग सिद्दरो जिणभवणविहूसिमो रम्मो ॥ ३ बहुदेवदेविपुण्णो भस्समुद्दाकार वस्त्र संठालो' । वरकंचणपरिणामो मणिरयणविहूसिनो परमरम्मो' दक्खिणदिसेण तुंगो तण्णामादेवरायसाहीणो । णाणावरुत्ररगहण पोक्खरणित डायसंजुत्तो ॥ ५ वत्तो जगाडु पुग्ने देखो बहुगामै संकुलो होइ । णामेण सह सुकच्छा कच्छीसमसरिस निहिडो ॥ ६ छक्खंडमंडलो सो नगरायर खेडपट्टणसमग्गो । दोणामुदेहि रम्मी रमणदीवेहि' संपुण्णो ॥ ७ रसारसोदेहि य वेदढणगेण मंडियो पवरे । । पोक्खरणिवाविपउरो उवसायरसद्दगंभीरो ॥ ८ बरसाविप्पपउरो जवगोहुम उच्छखेन्तसंपुण्णो । नाणादुमगणणिव हो वरपण्यदमंडिभो दिग्वो ॥ ९ तस्स विजयस्स मंझे खेमपुरी नाम पट्टण पवरो । खेमापुरविथारो बहुभवणविहूसिमो र मो ॥ १० विशुद्ध व उत्तम ज्ञान दर्शन रूप प्रदीपसे युक्त ऐसे त्रिमल जिनेन्द्रको प्रणाम करके संक्षेपसे पूर्व विदेह के विभागका वर्णन करते हैं || १ || कच्छा के पूर्व में जाकर वहां वनवेदियों से युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित श्रेष्ठ पर्वत है । यह चित्रकूट नामका पर्व नाना प्रासादोंसे व्याप्त, दिव्य, चार कूटोंसे युक्त उन्नत शिखरबाला, जिनभवन से विभूषित, रमणीय, बहुत देव देवियों से परिपूर्ण, घोड़े के मुख जैसे आकारवाला, उत्तम सुवर्णके परिणाम रूप, મંગ व रत्नोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, दक्षिण दिशा की ओर उन्नत, अपने समान नामवाळे देवराज के स्वाधीन, नाना तरुवरोंसे गहन और पुष्करिणी व तालाबों से संयुक्त है ॥ १-१॥ उस पर्वत के पूर्व में बहुत ग्रामोंसे व्याप्त सुकच्छा नामक देश है, जो कच्छा के सम-सदृश कहा गया है || ६ || वह दिव्य देश छह खण्डोंसे मण्डित; नगर, आकर, खेड़ों एवं पट्टनों से परिपूर्ण; द्रोणमुखसे रमणीय, रत्नद्वीपोंसे सम्पूर्ण रक्ता-रक्तोदा नदियों व विजयार्ध पर्वत से मण्डित, श्रेष्ठ, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, उपसमुद्र के शब्दले गम्भीर, उत्तम शालि धान्यके खेतोंकी प्रचुरतासे युक्त; जौ, गेहूं एवं ईखके खेत से सम्पूर्ण, नाना वृक्षजातियों के समूहसे संयुक्त और उत्तम पर्वतोंसे मण्डित है ।। ७-९ ॥ सुकच्छा विजयके मध्य में क्षेमपुरी नामकी श्रेष्ठ नगरी है। क्षमापुर के समान विस्ताखाली यह रमणीय नगरी बहुत भवनोंसे विभूषित है १ प ब जिर्णदं २ प व विदेहमागं. ३ प व पुष्याणं. ४ उश पासादा. ५ प ब संठणं, श ठाणे ६ उश विसिओ रम्मो. ७ प ब गमो. ८ प व सुकछो तह कच्छा. ९ उ श स्यणदीवेहि १० उ जनगोचउछ, पब जावगेहुम उच्छ. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. २० ] अट्टमो उद्देसो | ११५ सेमपुरयधाणी बारहणवजोयणा समुद्दिट्ठा | आयामा विक्खंभा मणिमयपासादसंछण्णा ॥ ॥ ११ बारहसहस्स रत्था सहस्वरगोउरा रयणचित्ता । तावचक्कणिवहा सदमुखढकी समुद्दिट्ठा ॥ १२ दवणसंग्णा जिणभवणविहूसिया पर मरम्मा | वष्पिणतलायवावी पोक्खरणिविराइया दिग्वा ॥ १३ रणारिहिं पुण्ण विष्णाणवियक्खणेाहें सुभगेद्दि । मुनिगणणिवद्देहि तहा दंसणणाणोवजुतेहि ॥ १४ पुग्वेण तदो गंतुं होइ नदी गद्दवइ ति णामेण । अट्ठावीस बहस्साणदीहि परिवेढिया रम्मा ॥ १५ कंचन लोवाणजुदा सुगंधसलिलेण पूरिया दिव्वा । गिज्झरझरतसद्द पवणादयउम्मिरमणीया ॥ १६ वणवेदिएहि जुत्ता मनितोरणमंडिया मणभिरामा । दक्खिणमुद्देण गंतुं सीयासलिलं पविसई सरिया ॥ १७ ततो पुष्येण पुणो होइ महाकच्छ जणवओो रम्मो । घण्णड्ढगामणिव हों णयरायर मंडियो विउको ॥ १८ रतारतोदेहि य वेदद्वेण य कमो मद्दासीमो । छक्खंडमंडिओ सो मडंबखेडायरेसिरीओ ॥ १९ बहुरयणदीवणिव हो [ पट्टणदोणामुद्देद्दि संछण्णो । उनजरूणिद्दिसंजुत्तो कब्बड संवाह संपुण्णो ॥ २० ॥ १० ॥ मणिमय प्रासादोंसे युक्त क्षेमपुरी राजधानीका आयाम व विष्कम्भ क्रमसे बारह और नौ योजन प्रमाण कहा गया है ॥। ११ ॥ इस राजधानी में बारह हजार रथमार्ग, रत्नोंसे विचित्र एक हजार गोपुर, इतने ही चतुष्पथ और इससे आधी अर्थात् पांच सौ खिड़कियां कही गई हैं ॥ १२ ॥ उक्त नगरी नन्दनवन जैसे वनोंसे व्याप्त, जिनभवनों से विभूषित, अतिशय रमणीय; वष्पिण, तालाब, वापी एवं पुष्करणियोंसे विराजित; दिव्य, विशेष ज्ञानवान् चतुर व सुन्दर नर-नारियों से परिपूर्ण, तथा दर्शन एवं ज्ञान रूप उपयोगों से युक्त ऐसे मुनिगणोके समूहों से परिपूर्ण है | १३-१४ ॥ उसके पूर्वमें जाकर अट्ठाईस हजार नदियोंसेवेष्टित रमणीय ग्रहवती नामकी नदी है ॥ १५ ॥ सुवर्णमय सोपानोंसे युक्त, सुगन्धित जलसे पूरित, दिव्य, निर्झरोंके झर-झर शब्दसे ताड़ित तरंगों से रमणीय, वनवेदियों से युक्त, मणिमय तोरणास मण्डित और ऐसी वह नदी दक्षिणमुखसे जाकर सीता नदीके जलमें प्रवेश करती है ॥ १६-१७ ॥ सुकच्छा के पूर्व में महाकच्छा नामका रमणीय देश है । वह धनाढ्य ग्रामसमूहोंसे सहित, नगरों व आकरोंसे मण्डित, विपुल, रक्ता रक्तोदा नदियों एवं विजयार्ष पर्वत से की गई महा सीमासे संयुक्त, छह खण्डोंसे मण्डित; मटंब, स्लेट एवं आकरोंसे शोभायमान, बहुतसे रत्नद्वीपोंके समूइसे सहित, पट्टन व द्रोणमुखोंसे व्याप्त, उपजलधिले संयुक्त और कर्बेट एवं संवाहों से सम्पूर्ण है ॥ १८-२० ॥ उस देशमें संयुक्त, पत्रनसे मनको अभिराम १ उश तथ्यदु २ श णरणारिएहिं जुतं पुण्णा. ३ उश जुय. ४ उ श चणड्दगामिण्णवहो, प बण्टु गामभिवदो, ब घण्णट्टणमणि हो. ५ प ब मंडखेडायर, श मटंबखेडार. ६ कोष्ठकस्थोऽयं पाठः पन्च मोनोपलभ्यते । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३) जंबूदीपण्णती [८. २१. तस्य य भरिट्ठणगरी णव बारस विस्था हवे दोहा ] | जोपणसंखुट्टिा मणिमवणसमाउला रम्मा ॥३॥ पंचसयखुखदारा तदुगुणा होति गोरखुवास । तत्तियमेतचउक्का मारसंसगुणा रस्था ॥ २२ पुषेण तदो गंतु णिवंतसुषण्णसंणिमो सेलो । णामेण पठमकूरो जिणभवणविहसिलो होई ॥२॥ वणवेदिपहिं शत्तो वरतोरणमंडिमो मणभिरामो । चत्तारिकतसहिमो तण्णामादेवसाहीणों ॥ २४ पोक्वारणिवाविपउरी बहुविहपासादसंकुलो रम्मो । णाणातरुवरणिवहो तुरंगकंठोग्य रमणीमो ॥ २५ गंतण वदो पुग्वे होइतही कच्छकावदी देसी । संकिटलसीमो बहुगामसमाउलो मुदिदो ॥ २६ जाणाजणवाणिवितो मट्ठारसदेसभाससंजुत्तो । गयरहतुरंगणियहो परेणारिसमाउलो सम्मो ॥ २० वेदडपम्वदेण य रत्तारत्तोदए िकयसीमो । जयरायरसंछण्णो छक्खंडणिविटरमणामी ॥ २८ सहि होइ रायवाणी भरिपुरी णामदो समुट्टिा । पावारसंपरिउरा णाणापासादसंछण्णा ॥ २९ बारहजावणदीहा नवजोयणवित्थडा मुणेयम्वा । बारहसहस्सरस्था सहस्सवरगोउरा तुंगा ॥३. धुम्चतपयवराया जिणभवणविहूसियों परमरम्मा । पंचसयखुल्लदारा चठक्क गुण णिहिट्ठा ॥ ३॥ .......................................... अरिष्ट नगरी है जो नी योजन विस्तृत, बारह योजन दीर्घ, मणिमय मयनोंसे व्याप्त, रमणीय, पांच सौ क्षुद्र द्वासेि सहित, इससे दूने गोपुरद्वारोसे संयुक्त, इतने ही अर्थात् एक हजार चतुष्पोंसे युक्त, और उनसे बारहगुणे रथमागासे परिपूर्ण है ॥२१-२२ ॥ उसके पूर्वमें जाकर खूब तपाये हुए सुवर्णके समान पद्मकूट नामका पर्वत है । यह पर्वत जिनभवनसे विभूषित, वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, चार कटौसे सहित उसके ( अपने ) नामवाले देवके स्वाधीन, पुष्करिणी व वापियोंकी प्रचुरतासे संयुक्त, बहुत प्रकारके प्रासादोंसे व्याप्त, रमणीय, नाना वृक्षाके समूहसे युक्त और घोड़ेके कंठके समान होता हुआ रमणीय है ॥ २३-२५॥ उसके पूर्वमें जाकर कच्छकावती देश है। यह देश संक्लेशसे सीमाको प्राप्त हुए बहुत प्रामोंसे व्याप्त, मुदित, नाना जनपदोंसे निविड (सान्द्र) अठारह देशभाषाओंसे संयुक्त; गज, हाथी, रथ, एवं अश्वोंके समूहसे युक्त, नर-नारियोंसे परिपूर्ण, रम्य, वैताढय पर्वत और रक्ता-रकोदासे की गई सीमासे संयुक्त, नगरों व आकरोंसे न्याप्त और छह खण्डोंके निवेशसे रमणीय है ॥ २६-२८ ॥ उस देशमें अरिष्टपुरी नामकी राजधानी है। यह नगरी प्राकारसे वेष्टित, नाना प्रासादोंसे व्याप्त, बारह योजन दीर्घ, नौ योजन विस्तृत, बारह हजार रपमागोंसे सहित, उन्नत एक हजार. उत्तम गोपुरोंसे संयुक्त, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे युक्त, जिनमवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, पांच सौ क्षुद्र द्वारोंसे सहित और इससे दूने अर्थात् एक हजार चतुरुपयोंसे संयुक्त कही गई है ।। २९-३१॥ पम तं पारस. २ उ श साहीओ. ३ प व तदो. ४ उ श गिविओ, पब णिवडो. ५ पर वर. ६श धुव्वंतघयवडावा अदि. ७ उ शमवणविणविहासिया. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८. ४१ ] अट्टम उद्देस [ १३५ तो पुवेण तद्दा दहवणामा नदी समुद्दिट्ठा | मणिमय सोवाणजुदा वणवेदिवि हसिया दिग्वा ॥ ३२ मणितोरणेहि जुता मट्ठावीसासहस्वणदिसहिदा । सीयासलिलं पविसद् तोरणदारेण दिग्वेण ॥ ३३ पुवेण तदो गंतु आवता' नाम जणवदो होइ । घणघण्णरयणकलिदो णयरायरमंडिभो पवसे ॥ ३४ छण्णव गामकोडी भूसिभ गोउलेहि संछण्णो । रत्तारसोदेहि प वेदढणगेण कयसीमो ॥ ३५घरसाविप्पपउरो फणसंबमऊद्दकय लिसंछण्णो 1 पोक्खर णित्राविषउरो सरंगविमाणच्छविहर || १६ देसम्म होइ जयरी खग्गा णामेण दसदिसक्खादा । बहुभवणसंपरिउडा सुरिंदणगरी व पच्चक्ला ॥ ३७. तिरथयरपरमदेवा गणहरदेवा तदेव चक्कधरा । बलदेववासुदेवा मंडलिया तस्थ साहीणा ॥ ३८ गंतूण तदो पुव्वे होइ तहा णलिणफूड गिरिपवरो । कंचणमभो विश्वित्तो दुसिहर विहूसिमो रम्मा ॥ ३९ वणसंडेहि य रम्मो मे गाउयवित्थरेहि रम्मेहि । वरतोरणेहिं जुत्तो मणिमयवेदीहि परियरिभो ॥ ४० गहिरो वावी पक्खरणिसंजुदो दिग्यो । तण्णामदेवसहिभो जिणभवणविसिनो परमो ॥ ४१ इसके पूर्व में द्रवती नामकी नदी कही गई है । यह नदी मणिमय सोपानोंसे युक्त, वन-वेदियों से विभूषित, दिव्य, मणिमय तोरणोंसे युक्त और अट्ठाईस हजार नदियोंसे सहित होती हुई दिव्य तोरणद्वार से सीता नदी के जलमें प्रवेश करती है ॥ ३२-३३ ॥ उसके पूर्वमें जाकर आवर्ता नामका देश है । यह देश धन-धान्य व रत्नोंसे युक्त, नगरों व आकरोंसे मण्डित, श्रेष्ठ, छयानबे करोड़ ग्रामोंसे भूषित, गोकुलोंसे व्याप्त, रक्ता-रक्तोदा ब वैताढ्य पर्वत की गई सीमासे संयुक्त, उत्तम शालि धान्यके प्रचुर खेतों से सहित; पनस, आम्र, महुआ एवं कदली वृक्षोंसे व्याप्त और पुष्करिणियों व वापियोंकी प्रचुरता से युक्त होता हुआ स्वर्गविमानकी छविको फीकी करता है ॥ ३४-३६ ॥ उस देशमें बहुत से भवनों से वेष्टित और दशों दिशाओं में प्रसिद्ध जो खड्गा नामकी नगरी है वह साक्षात् सुरेन्द्रनगरी (अमरावती) के समान है ॥ ३७ ॥ उस नगरी देवाधिदेव तीर्थकर, गणधरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव तथा मण्डलीक राजा स्वतंत्रतापूर्वक रहते हैं ॥ ३८ ॥ उसके पूर्व में जाकर नलिनकूट नामक उत्तम पर्वत है । यह सुवर्णमय श्रेष्ठ पर्वत विचित्र, चार शिखरों ( कूटों) से विभूषित, दो कोश विस्तारवाले रम्य वनसमूहोंसे रमणीय, उत्तम तोरणोंसे युक्त, मणिमय बेदीसे वेष्टित, चार कूटोंसे युक्त उन्नत शिखरवाला, वापियों व पुष्करिणियोंसे संयुक्त, दिव्य, अपने नामवाले देवसे सहित और जिनमवनसे विभूषित है ॥ ३९-४१ ॥ उसकी पूर्व दिशामें रम्य, रहद्द १ र श आवतो. २ उ रा फणसंचयट उहकालियो प व फनसंबहुन्यकदलसंडण्ण वणसंचाहि य रम्मो, श बणसं. म. इम्मो. ५. उद्या गव्य, ६ प· परियारिओ, म परिवारिय जं. डी. १८. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] जंबूदीवपण्णत [ ८. ४२ इंददिखाए देखो णामेण मंगळावतो । विविहवरगामजुतो होह महाजणवयाइण्णो ॥ ४२ घणघण्णसंपरिउडो गयरायरमंडिओ मणभिरामो | पट्टणमडंबेपउरो रयणदीवेहि कयसोहो ॥ ४३ रत्ताणदिसंजुतो रत्तोदावाहिणीसमाजुत्तो । वेदवसिहरिमज्झो सोइइ सो' जणवदो' रम्मो ॥ ४४ सहसेहिं चउदसेहि य नदीहि दुगुणाहि सुद्धकयसीमो । काणणत्रणेहि दिम्यो वणित्रवीहि रमणीभो ॥ ४५ देसम्म तम्मि यरी' कामेण य तह य होड़ मंजूसा । मणिकं चणघरणिवा जिणभवणविहूसिया रम्मा ॥४६ तियतिगुणा विक्खंभा छहुगुणा जोयणा हु आयामा | कंधणपायारजूदा मणितोरणमंडिया दिव्या ॥ ४७ पुवेण तदोतुं पंकवादी णामदो नदी होइ । वणवेदिएहिं जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ ४८ अट्ठावीसाहिं तदा सहस्वगुणिदाहि वेदिणिवद्दाद्दि । वरतोरणमुत्ताहि य खुल्लगसरियाहि संजुता ॥ ४९ एसा विभंगसरिया णिस्सरिणं तदेव कुंडादो । सीदासलिलं पविसइ तोरणदारेण दिग्वेण ॥ ५० सत्तासीदा जोयण सयं च बेकोससमदिरेगा" य । जाण विभंगणदीर्ण तोरणदाराण उच्छेषं ॥ ५१ मंगलावर्त नामक देश है । यह रम्य देश विविध प्रकारके उत्तम ग्रामोंसे युक्त, महा जनपदोंसे व्याप्त, धन-धान्यसे सहित, नगरों व आकरोंसे मण्डित, मनको अभिराम, पट्टन बोकी प्रचुरता से युक्त, रत्नद्वीपोंसे शोभायमान, रक्ता और रक्तोदा नदियोंसे संयुक्त तथा मध्यमें स्थित वैताढ्य पर्वतसे सहित होता हुआ शोभायमान है ॥ ४२-४४ ॥ उस देशमें दुगुणित चौदह अर्थात् अट्ठाईस हजार नदियोंसे शोभायमान, कानन व वन से दिव्य और बप्रिण एवं वापियोंसे रमणीय है ॥ ४५ ॥ उस देशमें मंजूषा नामक नगरी है। यह नगरी मणि एवं सुवर्णमय गृहसमूहसे संयुक्त, जिनभवनोंसे विभूषित, रम्य, त्रिगुणित तीन अर्थात् नौ योजन विष्कम्भवाली, दुगुणित छह अर्थात् बारह योजन आयत, सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, दिव्य और मणिमय तोरणोंसे मण्डित है ॥ ४६-४७ ॥ उसके पूर्वमें जाकर पंकवती नामकी नदी है । यह नदी वन व वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य और वेदियों के समूहों से तथा उत्तम तोरणोंसे युक्त ऐसी अन्य अट्ठाईस हजार क्षुद्र नदियोंसे संयुक्त है ॥ ४८-४९ ॥ यह विभंगा नदी उसी प्रकार कुण्डसे निकलकर दिव्य तोरणद्वारसे सीतानदी के जलमें प्रवेश करती है ॥ ५० ॥ विभंगा नदियोंके तोरणों का उत्सेध एक सौ सतासी योजन और दो कोश जानना चाहिये ॥ ५१ ॥ उक्त तोरणद्वारोंका आयाम ........... .......". [च] जिनबदो. २ प व मंडव. ३ उ रा दीबहि. ४ उ प ब श मझे. ५ श णे. ६ प उश सिद्धुक्यसिंमो. ८ उश देसम्म नयरी. ९ उश सरिसाहि, प..., व सरहाि १० प श तोसा. ११ उा वेकोसीमीधरेया. १ ब Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. ६२ ] अमोउसो [ ११९ पणुवीससमहिरेया' जोयणस्य होई तह य भायामं । जोयणविक्खंभेण य तोरणदाराण परिसंखा ॥ ५२ वरतोरणेसु या देवाण तेसु होंति नगराणि । पासादसंकुष्ठाणि य जिणभवणमयाणि सब्वाणि ॥ ५३ काणणवणजुत्ताणि यदीहियपोक्खरणिवाविपडराणि । सुरसुंदरिणिवहाणि य वणवेदी तोरणमयाणि ॥ ५७ पुवेण तदो गंतु णामेण य पुक्खला समुद्दिद्वा । [ 'देखो जणाइणिहणो छत्खंडविसिनो दिग्वो ॥ ५५ कृष्णवत्रिको डिएहिं गामेहिं समाउला परमरम्मो ] छब्बीससहस्सेहि य णगरेहि विहूसिभो पवरो ॥ ५६ खेडेहि मंडिमो सो सहस्स तह सोलसेहि दिब्वेहि । चडवीसस हस्लेहि य कब्बडपवरेहि संकृष्णो ॥ ५७ रिसहस्सेहिय मडर्वेणिवहदि मंडियो दिग्वो । वरपट्टणेदि जुत्तो भडदाकसहस्सगुणिदेहि ॥ ५८ वणवदिसहस्सेहिय बहुविदोणामुद्देहिं संजुतो । संवादेहि य रम्मो' चउदसम सहगुणिदेहि ॥ ५९ मागभवरतणुवेदि य पभासदीवेण भूसिभो देसो । छप्पण्णासेहि तहा रयणादीवेहि" कयसोहो ॥ ६० देसम्म होइ नगरी णामेण य भोसधि त्ति विक्खाया । कंधणपासावेंजुदा जिणभवणविडूलिया रम्मा ॥ ६१ पायारसंपरिउडा वरतोरणमंडिया परमरम्मा । विस्थिण्णस्खादिजुत्ता वणसंडविहूलिया दिग्वा ॥ ६२ उत्तम तोरणोंपर वन से युक्त; परिपूर्ण और एक सौ पच्चीस योजन और विष्कम्भ एक योजन है ।। ५९ ।। उन प्रासादों से व्याप्त देवोंके नगर हैं । सब नगर जिनभवनोंसे संयुक्त, कानन व दीर्घिका, पुष्करिणी व वापियोंकी प्रचुरता से सहित, सुरसुन्दरियों के समूह से वन, वेदी एवं तोरणोंसे युक्त हैं ।। ५३-५४ ॥ उसके पूर्वमें जाकर पुष्कला नामका देश कहा गया है । यह दिव्य देश अनादि-निधन, छह खण्डोंसे विभूषित, ध्यानबे करोड़ ग्रामोंसे व्याप्त, अतिशय रमणीय, छब्बीस हजार नगरोंसे विभूषित, श्रेष्ठ, सोलह हजार दिव्य खेड़े से मण्डित, चौबीस हजार श्रेष्ठ कर्बटोंसे व्याप्त चार हजार मर्टबों के समूह से मण्डित, दिग्य, अड़तालीस हजार उत्तम पट्टनोंसे युक्त, निन्यानबे हजार बहुत प्रकारके द्रोणमुखोंसे संयुक्त, चौदह हजार संबाहों से रमणीय; मागघ, वरतनु एवं प्रभास द्वीपोंस भूषित, तथा छप्पन रत्नद्वीपोंसे शोभायमान है ।। ५५-६० ॥ इस देशमें औषधि नामसे विख्यात नगरी है। यह सुवर्णमय प्रासादोंसे युक्त, जिनमत्रनोंसे विभूत्रित, रम्य, प्राकारसे वेष्टित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, विस्तीर्ण खातिका से युक्त, वनखण्डोंसे विभूषित, दिव्य, बहुत से मन्य १ उश समभिरेया, व समहिरेहिय. २ कोधकस्थोऽयं पाठ उ-शप्रस्योनोपलभ्यते । ३ उ रा पउरोहि. ●प व मंडल ५श मुनिदेहि . ६ प व बहूहि ७ प वे संवाहणेहि रम्मो. ८ उ प व श चउदस सयमस्स. ९ प ब बरसणएहि य पमासबेसेण 10 उश हृप्पण्णसएहि तहा रमणीदीवेडि० ११ उ. श पासा. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] जंबूदीवपण्णसी [ ८.६१ बहुभग्वजणसमिद्धा केवलणाणेपदीव मुणिवसहा' । णाणामुनिगणपठरा घणघण्णसमिद्ध कुछ उण्णा ॥ ६३ गंतून तदो पुग्वे होह महापण्यदो मणभिरामो | णामेण एक्कसेको कणय सिलाजालपरिणो ॥ ६४ बरकमलगभगउरो भस्समुद्दागारसंठिलो रम्मो । सीदातम्मि लुंगो नीलसमीचे हवे हीणो ॥ ६५ वणलंडसंपरिउडी मणिमयवरवे दिएहिं संजुतो । चदुकूडतुंग सिहरो जिणभवणविहूसिओ रम्मी ॥ ६६ बरतोरणसंछष्णो णाणापासादसंकुलो दिव्वो । तण्णामदेवसहिभो सुगंध गंधुधुरो पवरो ॥ ६७ युग्वेण तदो गंं होह महापुक्खलावदी विजभो । भागेद्दि विभत्तो पन्वदसरियाहि संजुत्तो ॥ ६८ गामाशुगामणिचि पट्टणदोणामुहि संछष्णो । कब्बडमबसहियो रयणायरमंडिमो दिब्वे ॥ ६९ रसारतोदेहि में वेदढणगेण मेडिओ दिग्वो । वष्पिणतलायणिव हो णाणाविधम्मधणणिचिनो' ॥ ७० सालिपरो गोहुमजव मुग्गमाससंछण्णो" । अयसितिलमसुरणिवहो जीरये जुडेहि रमणीभो ॥ ७१ देसस्स तिलयभूदा णामेण य पुंडरीगिणी गयरी | बहुभब्वपुंडरीया" जस्थ मणुस्सा परिवसंति ॥ ७२ जनों से समृद्ध, केवलज्ञान रूप दीपकसे युक्त ऐसे श्रेष्ठ मुनियोंसे परिपूर्ण, नाना मुनिगणोंकी प्रचुरता से सहित, और धन-धान्यसमृद्ध कुलोंसे पूर्ण है ॥ ६१-६३ ॥ उसके पूर्व में जाकर मनोहर एकरौल नामका महा पर्वत है । यह पर्वत सुवर्णशिलाओं के समूह से वेष्टित, उत्तम कमलगर्भ के समान गौर, घोड़ेके मुखके आकारसे स्थित, रमणीय, सीता नदी के तटपर उन्नत, नील पर्वत के समीप हीन, वनखण्डों से वेष्टित, मणिमय उत्तम वेदियोंसे संयुक्त, चार कूटोंसे युक्त उन्नत शिखरवाला, जिनभवन से विभूषित, रग्य, उत्तम तोरणोंसे व्याप्त, नाना प्रासादों से बेष्टित, दिव्य, अपने जैसे नामवाले देवसे सहित, श्रेष्ठ और सुगन्धित गन्धसे व्याप्त है। ॥ ६४-६७ ॥ उसके पूर्वमें जाकर महा पुष्कलावती देश है। यह देश छद भागोंसे विभक्त, पर्वत व नदियोंसे संयुक्त, प्रामों व अनुग्राम से परिपूर्ण, पट्टनों व द्रोणमुखोंसे व्याप्त, कटों बमबोंसे सहित, रत्नाकरोंसे मण्डित, दिव्य, रक्ता- रक्तोदा नदियों एवं वेताढ्य पर्वत से मंण्डित, दिव्य, वप्रिण व तालाबों के समूहसे परिपूर्ण, नाना प्रकार गुण संयुक्त धनसे सहित; पुंडू (पौड़ा ) ईख व शालि धानकी प्रचुरतासे सहित; गेहूं, जौ, मूंग व उड़दसे व्याप्त; अलसी, तिल व मसूर के समूहसे संयुक्त और जीराके जूटोंसे रमणीय है ।। ६८-७१ ॥ इस देशकी तिलकभूत पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है, जहां बहुतसे श्रेष्ठ भव्य जन निवास १ प ब समिधा कवळाणाण. २ उश मुणिणिवहा. ३ उश सविद्ध. ४ उ रा जाणपरिणट्टो, प ब] जालपरिणट्ठा. ५ उश बहु. ६ उ श सुगंधगंध दूधुरो, प ब सुगंधुद्धदो. ७ उश गामाशुगमिणिचिओ. ८ भणवणनिचियो, प व धम्मधणणिविदो, श घणघण्णमिविओ. ९ उश पंडुच्छ प ब पुंछ १० उ श गेहून ११ माकणों, श मोस कण्णो. ११ प ब जीरहि. १९ उ प व श बहुभवपुंडरिया. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. ८२ ] अटुमा उसो [ १४१ कंचणपायोरजुदा मणिमयवरतोरणेहि रमणीया । जल उण्णखादिजुत्ता वणसंडविराइया दिव्या ॥ ७३ वज्जिदणील मरगयक केयणपउमरायघरणिवा । कालागरुगंधड्ढा जिणभवणविहूमिया रम्मा ॥ ७४ तसो पुग्वदिसाए कणयमया वेदिया हवे णेयो । बेगाउयउग्विद्धा पंचैव धणुस्सया विउला || ७५ वरपठ मराय मरगयणाणाविहरयणजालकिरणोद्दा । वज्जैमयरयणमूला कोदंडसहस्सभवगाहा ॥ ७६ पुत्रेण होइ ततो देवारणं समुद्दतीरम्मि । णाणातरुवरगहणं बहुभवणसमाउलं परमं । ७७ पुण्णायणायपरं सुरत रुस सच्छदेहि संछष्णं । चंपयम सोय कप्पूर बउर्लेमंदारत रुणिव " ॥ ७८ तत्थ दु देवारपणे पासादा होति स्यणपरिणामा । वरवेदिएहिं जुत्ता वरतोरणमंडिया दिग्वा ॥ ७९ पोक्स्मरणियाविषउरा कोडावाला सभाघरा पवरा । उववादभवणरम्मा सोहणसाला विसावा य ॥ ८० लंबंतकुसुममाला जिणभवणविद्रूसिया रम्मा | काल|गह गंधड्ढा बहुकुसुमकयच्चर्णसणाहा ॥ ८१ सुविदिलाविभागे रयणमया विष्कुरंतमणिकिरणा । पासादा णायग्वा देवाणं आदरक्खाणं ॥ ४२ करते हैं || ७२ ॥ यह रमणीय नगरी सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, मणिमय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, जलपूर्ण खातिका से युक्त, वनखण्डोंसे विराजित, दिव्य; वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पद्मराग मणिमय गृहसमूह से युक्त; कालागरुकी गन्धसे व्याप्त और जिनमवनों से विभूषित है । ७३-७४ ॥ उससे पूर्व की ओर स्थित सुवर्णमय वेदिका जानना चाहिये | यह वेदिका दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुत्र विस्तृत उत्तम पद्मराग एवं मरकत आदि नाना प्रकारके रत्नजालके किरणसमूइसे संयुक्त, वज्र रत्नमय मूलभागसे सहित, तथा एक हजार धनुष प्रमाण अवगाहसे युक्त है ।। ७५-७६ ।। उसके पूर्व में समुद्रके तीरपर देवारण्य नामका वन है । यह वन उत्तम नाना वृक्षोंसे गहन, बहुत भवनोंसे व्याप्त, श्रेष्ठ, पुन्नाग व नाग वृक्षों की प्रचुरता से युक्त, कल्पवृक्ष व सप्तच्छद वृक्षोंसे व्याप्त; तथा चम्पक, अशोक, कर्पूर, बकुल, एवं मन्दार वृक्षोंक समूहसे संयुक्त है ॥ ७७-७८ ॥ उस देवारण्यमें रत्नोंके परिणाम रूप जो प्रासाद हैं वे उत्तम वेदियोंसे युक्त, श्रेष्ठ तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, पुष्करिणियों ब वापियोंकी प्रचुरता से संयुक्त, श्रेष्ठ, क्रीडाशालाओं और सभागृहोंसे सहित, उपपादभवनों से रमणीय, विशाल, शोभनशालाओं ( मैथुनशालाओं ? ) से परिपूर्ण, लटकती हुई कुसुममालाओं से युक्त, जिनमबनोंसे विभूषित, रम्य, कालागरुकी गन्धसे व्याप्त और बहुत कुसमोंसे की गई सजावट सहित हैं ।। ७९-८१ ॥ इनमें प्रकाशमान मणिकिरणोंसे सहित आत्मरक्ष देवों के रत्नमय प्रासाद चारों ही दिशाओं में स्थित जानना चाहिये ॥ ८२ ॥ दक्षिण दिशामें तीन १ उश पयार. २ ज श णया, प ब णेय. ३ उ श म ज ४ प ब दिउल ५ उ मायंदतरुनिव श मायंदर नित्रयं. ६ प ब देवरण्णो. ७ उश पंडरा ८ उश कयव्वण्ण ९ उश दिसामिभागे, प ब दिसासु मागे. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ) जंबूदीवपण्णसी [८. ८३दक्मिणदिसेण गेया वि परिसाण तह प पासादा । पच्छिमदिसाविभागे सत्ताणीयाण पुण होति ॥ किरिबसैदेवाण तहा होति पुणो विविहरयणपासादा । मभिजोगसुराण तहा पासादा तस्य णापया ॥ .. सम्मोहसुराण तहा देवारण्णम्मि होति पासादा। कंदप्पाण सुराणं पासादा होति सत्येव ॥ ८५ तत्तो दु दक्खिणविसे गंतूर्ण होदि विविहतरुगहणं । भवरं देवारणं सीदाए दक्षिणतरम्मि || तं बउलतिरूयणिवहं पुण्णायणायपादवसणाई । लवलीलवंगपउरं तमालदलसंकुलं रम्म ॥ ८७ णारंगपणसेणिवहं कयलीदुमणालिएरसंछण्णं । तंबूलवल्लिगहणं महमुत्तलयाठलसिरीयं ॥ ८८ तम्मि वणे गायम्वा जयराणि हवंति सयसहस्साणि | देवाणं णिहिट्ठा कंचणमणिरयणणिवहाणि ॥ ८९ पायारंपरिउगणि य गोउरणिवहाणि होति सम्वाणं । कंचणरयणमयाणि य णाणापासादपंतीण ॥ ९. गगरेसु तेसु या रायाणं" हॉति सम्वाण' । वर सत्त सत्त कम्छा सत्ताणीयाहि संजुत्ता ॥ ९॥ माणुससिमदुपसिद्धा तिणि य परिसा हवंति गायव्वा । भम्भतरमजिसमबाहिरा दु कमसो मुणेयवा ॥१ तिपिणपस्सेिहि सहिया तह य महादेविचदुहि संजुचा । मच्छरकोरीहि तहा पदादिणिवहेहि थुम्वंता ॥ ९॥ पारिषद देवोंके तथा पश्चिम दिशाविभागमें सात अनीक देयों के प्रासाद जानना चाहिये ॥ ८३॥ वहां किल्विष तथा आभियोग्य जातिके देवोंके विविध रत्नमय प्रासाद हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८४ ॥ वहाँ देवारण्यमें सम्मोह सुरों के भी प्रासाद हैं। कन्दर्प सुरोंके प्रासाद यहां ही हैं ।। ८५ ॥ उससे दक्षिणकी ओर जाकर सौता नदीके दक्षिण तटपर विविध पक्षोंसे गहन दूसरा देवारण्य है ॥ ८६ ॥ यह वन बकुल व तिलक वृक्षोंके समूहसे युक्त, पुनाग व नाग वृक्षोसे सनाथ, लवली व लवंग वृक्षाकी प्रचुरतासे सहित, तमालपत्रोंसे ज्याप्त, रम्य, नारंग व पनस वृक्षोंके समूहसे संयुक्त, केला व नारियल के वृक्षोंसे व्याप्त, ताम्बूल की बेलोंसे गहन और अतिमुक्त लताओंकी अतुल शोभासे युक्त है ॥ ८७-८८ ॥ उस वनमें देवोंके सुवर्ण एवं रत्नसमूहसे निर्मित लाखों नगर निर्दिष्ट किये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८९ ॥. बहुविध प्रासादोंकी सभी पंक्तियों के गोपूर-समूह प्राकारोंसे वेष्टित तथा सुवर्ण और रत्नोंसे निर्मित हैं ॥ ९० ॥ उन नगरोंमें सब देवराजोंके सात अनाकोंसे संयुक्त सात सात कक्षायें हैं ॥ ९१ ॥ मानु, शशि एवं जतु नामसे प्रसिद्ध क्रमशः अभ्य. तर, मध्यम और बाह्य, ये तीन परिषद् जानना चाहिये ॥ ९२ ॥ तीन परिषदोंसे सहित, चार महा देवियोंसे संयुक्त, करोंड़ों अप्सराओंसे सहित, पदातिसमूहोंसे स्तुत, सामानिकों -............................... उश दिसामिभागे. २ उश खिम्भिस, पब किमिस. ३ ५ ब पुष्णायाणाय. ४ पब सम्मा. ५ पबपाणस. पब तालएव. ७ उ मयस्यण, शमयेरेयण, ८ उशपयार..प सम्बानि. १.. पंतीमा. शरापणे. १२ शहोति देवसम्यागं. १५पर गाए. १४श तिण. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. १०३ ] मो उद्देस [ १४३ सामाणिएहि सहिया देवा तह आदरक्खणिवदेहि । गणणावीदेहिं तहा भवसेससुरेहिं संजुत्ता ॥ ९४ सिंहासनमज्ज्ञगया सियचामरधुन्वमाणवरदेहा । सेद्रादवत्तणिवहा णाणाविहकेदुकयचिण्हा ॥ ९५ पजत महामउडा' णिम्मलमणिरयणे कुंडलाभरणा । हारविराइयवच्छा केयूर विहूसिया बाहू ॥ ९६ कडकडकंठा तुडियंगद्वस्थ भूलियर्सरीरा । वरपंचवष्णदेहा नीलुप्पल सुरहिणीसासः ॥ ९७ सम्मणसुद्धा जिणवर मुणिबंदणुज्जया धीरा । पुष्णेण समुप्पण्णा देवारण्णमि वरदेवा ॥ ९८ देवारणम्मि तथा जिर्णिदइंदाण होंति भवणाणि । कंचणरयणमयाणि य अणाइणिणाणि बहुयाणि ॥ ९९ ततो देवत्रणादो विजया वक्खारपन्त्रदादीया । ताव गया णायव्वा जाव दु भवरेविहीतं ॥ १०० ततो वरम्मि भागे होई' समुतुंगवेदिया दिव्वा | पंचधणुस्सय विडला चत्तारिसहस्स उच्छेद्दा || १०१ गाणामणिगणणिवा विबुद्धवरकमलगग्भसंकाला । वज्जमया णिडिट्ठा सहस्सधणुधरणिमवगाहा ॥ १०२ गंतून तदो भवरे वच्छा णामेण जणवदो होइ । सज्जणजणेहि भरिभो बहुगामसमाउलो रम्मो ॥ १०३ तथा आत्मरक्ष देवोंके समूहोंसे सहित, इनके अतिरिक्त शेष असंख्यात देवें से संयुक्त, सिंहासन के मध्यमें स्थित, धवल चामरोंसे वीज्यमान उत्तम देइसे संयुक्त, घत्रल आतपत्रसमूइसे युक्त, नाना प्रकारके केतुओं द्वारा किये गये चिह्नों ने संयुक्त, चमकते हुए महा मुकुटसे शोभायमान, निर्मल मणिमय रत्नकुण्डलोंसे अलंकृत, छारसे विराजमान वक्षस्थलवाले, केयूरोंसे विभूषित बाहुओं से सहित, कटिसूत्र, कटक, कंठा, त्रुटित (हायका एक आभूषणविशेष ), अंगद रूप आभरणों एवं वर्षो से भूषित शरीरवाले, उत्तम पांच वर्णोंसे युक्त देहके धारक, नीलोत्पलके समान सुगन्धित निश्वाससे युक्त, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, जिनेन्द्र व मुनियोंकी वन्दनामें उद्यत, तथा धीर ऐसे उत्तम देव पुण्यके प्रभाव से उस देवारण्यमें उत्पन्न होते हैं ॥ ९३-९८ ॥ देवारण्यमें सुवर्ण एवं रत्नमय अनादि-निधन बहुतसे जिनेन्द्रभवन हैं ।। ९९ ।। इस देववनसे आगे विजय और वक्षार पर्वत आदिक तब तक जानना चाहिये जब तक अपर समुद्रका अन्त नहीं आता है ॥ १०० ॥ उससे आगे के भागमें पांच सौ धनुष विस्तृत और चार हजार धनुष ऊंची उन्नत दिव्य वेदिका है ॥ १०१ ॥ नाना मणिगणों के समूदसे सहित, विकसित उत्तम कमलके गर्भ सदृश और वज्रमय उस वेदिका अवगाह पृथिवीमें एक हजार धनुष प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ १०२ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वत्सा नामक देश है । यह देश सज्जन जनोंसे परिपूर्ण, बहुत प्रामोंसे युक्त, रम्य, धन-धान्य एवं रत्नों के समूह से सहित, संगीत व मृदंगके शब्द -निर्घोष १ उश सामाणियाहि. २ श मडला. ३ श निम्महरयण. ४ श बिसिया रम्मा ५ प ब डा. ६ प व तुडयंमंद वत्थत् सिय. ७ ख श एतो. ८ प च मागो दोह. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ८. १०४. घणघण्णरयणणिव हो संगीय मुयंगस दणिग्घोसो' । णिच्चुच्छवेहि' जुमो सुरिंदलोगोवमो दिवो ॥ १०४ गंगासिंधूहि तथा वेदड्डणगेहि मेडिओ पत्ररो । पोक्खरणिवाधिपउरो णाणामसंकुल दिग्वे ॥ १०५ इन्भेदभागभिष्णो भज्जपुलिंदाण खंडसंजुत्तों । बहुणयखेडणिव हो पट्टण दोणामुइँसमग्गो ॥ १०६ विजयम्मि तम्मि मज्झे होदि सुसीमा त्ति णामदो णयरी । वरवेदिएहिं जुत्ता मणिसोरणमंडिया दिव्या पप्फुल्ल कमल कुवलयणीलुप्पकपुर हिकुसुमरिद्धीहि । परंतमच्छ च्छविसालखादीहि संजुत्ता ॥ १०८ कंचणपासादजुदा जिणभवणविहूसिया मणभिरामा । बहुभावणसंछण्णा णाणाविद्दद्दकयभूसा ॥ १०९ अवरेण तदो' गंतुं होदि तिकूडो त्ति पग्वदो पवसे । कंचणमभो विचित्तो" चउकूढ विहूसिभ तुंगो || १ घरवज्जरयणमूलो जिणभवणविहूसिभ मद्दासिहरो । वरवेदिपद्दि जुत्तो मणितोरणमंडिभो दिव्यो ॥ ११ गराणि बहुविहाणि य देवाण हवंति सेल सिद्दरम्मि । कंचणरयणमद्दि य पासादवरेहिं छष्णाणि ॥ १ वरवेदिह जुत्ताणि तानि वरतोरणेहि सहियाणि । नगराणि होति तस्स दु विकुडणामस्स अमरस्स ॥ १ से संयुक्त, नित्य होनेवाले उत्सवों से परिपूर्ण, सुरेन्द्रलोककी उपमाको धारण करनेवाला दिव्य, गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैताढ्य पर्वतोंसे मण्डित, श्रेष्ठ, प्रचुर पुष्करिणी व वापियों‍ सहित, नाना वृक्षों से व्याप्त, दिव्य, छइ भेद रूप भागों में विभक्त, आर्य और म्लेच्छों खण्डोंसे संयुक्त, बहुत नगरों एवं खेड़ों के समूह से सहित तथा पट्टनों व द्रोणमुखासे परिपूर्ण है ॥ १०३-१०६ ॥ उस देश के मध्य सुसीमा नामक नगरी है। यह नगरी उत्तम वेदिकाओं से युक, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, दिव्य; विकसित कमल, कुवलय व नीलोत्पल जैसे सुगन्धित कुसुम रूप ऋद्धियोंसे तथा तैरते हुए मत्स्य एवं कछवाओंसे सहित ऐसी विशाल खातिकाओं से संयुक्त, सुवर्णमय प्रासादोंसे युक्त, जिनभवनों से विभूषित, मनको अभिराम, बहुतसी दूकानोंसे व्याप्त, तथा नाना प्रकारके हाटोंसे की गई सजावटसे सम्पन्न है ॥ १०७--१०९ ॥ उससे पश्चिममें जाकर त्रिकूट नामक श्रेष्ठ पर्बत है । यह दिव्य पर्वत सुवर्णमय, विचित्र, चार कूटों विभूषित, उन्नत उत्तम वज्ररत्नमय मूलभागसे सहित, जिनभवन से विभूषित, महा शिखर से संयुक्त, उत्तम वेदियोंसे युक्त और मणिमय तोरणोंसे मण्डित है ॥ ११० १११ ॥ इस शैलके शिखरपर सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित और श्रेष्ठ प्रासादोंसे व्याप्त देवोंके बहुत प्रकारके नगर हैं ।। ११२ ॥ उत्तम वेदियों से युक्त और तोरणोंसे सहित वे नगर उस त्रिकूट नामक देवक हैं ॥ ११३ ॥ उससे पश्चिम दिशामें जाकर रम्य सुवत्सा नामक देश है । १ प मुद्दम घोसो, व सुइंदसदणिघोसो. २ प च णिवेदि ३ उश संता. ४ उ प ब शरयण. ५ प व दाणमुह. ६ उ श सुसीम ७ उश पयांतमच्छकच्छवे, प व पयरंतिम कवा. ८ उश संछण्णा णाणाविरुद्ध कायभूसा पत्र संकाणणाण विहट्ठदकयभूमो ९ श तो १० प य विधितो पासादम्बेरहिप, ब पासादप्परेहिं, श पासादम्बरह- १२ . मरोड, ११ ड बर Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८. १२॥ भट्ठमो उदेसो [१.५ गण पछिमदिसे होइ सुवाछो त्ति जणवदो रम्मो । धणधण्णरयणणिवहो बहुगामसमाउलो परमो ॥" गंगासिंधूहिं तहा वेदवणगेण' सुटू कयसीमो । छक्खंडमणभिरामो पमुदिवपक्कीलिदो देसो ॥१.५ हुकुवाउरो सुगंधसालीहि परियपदेसो । पूगफल हक्खणिवही वंबूललयाउलसिरीभो १ सस विजयस्स गेया गामेण य कुंखला हवे गगरी । बारहजायणदीहा णवजोयणविस्था दिग्वा ॥.. भारहसहस्सरत्या' सहस्स वह हॉति वरचउक्का' य । गोउरसहस्सणिवहा तदद्धवरतोरणा रम्मा । वजिदणीकमरगयकक्केयणपउगरायपासादा । धुम्वंतघयवाया जिणभवणविहूसिया दिम्बा ॥ भवरेण तदो गंतु तत्तजला णामदो नदी होह । बरतोरणसंजुसा वणवेदीपरिठडा दिन्वा ॥१२. वरणदिगणेहि जुत्ता भट्ठासासहस्सगुणिदेहि । जिग्गण विभंगा कुंडाणं तोरणमुहादो ॥११ उत्तरमुरेण गंतुं विजयाण मजादेसभागेण | सीयासलिलं पविसइ तोरणदारेण विउलेण ॥ २२ भवरेण तदो गंतु होइ महावच्छजणवदो अवरो । गामाणुगोमणिचिमओ" गगरागरमंरिमो विउकोण यह देश धन-धान्य व रत्नसमूहसे सहित, बहुत प्रामोंसे युक्त, श्रेष्ठ, गंगा-सिन्धु नदियों तथा घेतान्य पर्वतसे की गई सुन्दर सीमासे सहित, छह खण्डोंसे मनोहर, प्रमोदप्राप्त जनोंकी कीड़ासे सहित, पुण्ड् ( पोंडा ) एवं ईखके खेतोकी प्रचुरतासे युक्त, सुगन्धित शालि धान्योंसे पूरित प्रदेशवाला, सुपाडीके वृक्षसमूहसे सहित, और ताम्बूल लताओंकी अनुपम शोमासे सम्पन्न हे ॥१४-१६ ॥ कुण्डला नामक नगरी उस देशकी राजधानी जानना चाहिये । यह नगरी बारह योजन दीर्घ, नै। योजन विस्तृत, दिल, बारह हजार रयमागोंसे सहित, एक हजार उत्तम चतुष्पोंसे संयुक्त, एक हजार गोपुराके समूहसे युक्त, इससे आधे (५००) उत्तम तोरण द्वारोंसे सहित, रमणीय; वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पद्मरागसे निर्मित प्रासादोंसे परिपूर्ण; फहराती हुई घजा-पताकाओंसे शोभित, दिव्य और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥ ११७-११९ ।। उसके पश्चिममें जाकर तप्तजला नामक विभमा नदी है। यह नदी उत्तम तोरणोंसे संयुक्त, बन-वैदियोंसे वेष्टित, दिव्य और उत्तम अट्ठाईस हजार नदियों के समूहोंसे युक्त क्षेती हुई कुण्डोंके तोरणमुखसे निकलकर विजयों के मध्य भागमेंसे उत्तरकी और जाकर विशाल तोरणद्वारसे सीता नदोंके जलमें प्रवेश करती है ॥१२०-१२२॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर महावरसा नामक दूसरा देश है । यह विशाल देश प्राम अनुप्रामोसे ब्याप्त एवं मगरों व आकरोसे मण्डित है ॥ १२३ ।। जहाँ सिन्धु नदीके साथ वनों, वेदियों व तोरणोंसे डश समठलो पउये, प समाउलो परम्मो. १ पब मगेसु. । उ श पमुदिराजीलिदो, प... पमुदिपक्कान्दिो. रखवार. ५पब सलिहिं. ६ उश सिरीर, पबसिगड. पब रछ. पर सहा. पब चउका..पब तोरणरणसंजुत्ता. १.पवरणदिणगम्मेहि वरणदिणगसेहि. ११४ गामणगाम. १३पणिचउ. दी. १९. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ८. १२४ जय गंगा पवर वणवेदी तोरणेहिं कयसोहा | सिंधुणदिएण सहिया सो देसो मणहरो होह || १२४ जरथ दु वेदडणगेो णवकूढविद्धूसिभो समुत्तुंगो | पुस्त्रावरेण दीहो अच्छइ सो मणहरो देखो ॥ १२५ तस्स' देखस्स या भवराजिदणामदो दु वरणयरी | कंचणपायारैजुदा वरतोरणमंडिया दिग्वा ॥ १२६ बणणिवा जिणमवणविहूसिया परमरम्मा । उववणकाणणसहिया वावीपोक्खरणिरमणीया ॥ १२७ भवराजिदणगरादो गंतूणं होइ पच्छिमदिसाए । वेसमणणामकूडो वत्रखारापन्वदो तुंगो ॥ १२८ गणवेदिहि जुत्तो वस्तोरणमंडिलो मणभिरामो । कणयमओ रमणीओ जिणभवणविद्धूसिभ दिग्वो ॥ १२९ देवाण भवणणिव हो बहुविहवरदेवदेविसंछण्णो । नाणादुमगणगहणो सरबरवावीहिं कयसोहो ॥ १३० वेसमणणामदेवो सुराण राया तर्हि समुद्दिट्ठी | वरमच्छर मज्झगदो मच्छर दिव्वाणुभावेण ॥ १३१ अवरेण तदो गंतु होइ तहा वच्छकावदीविजओ। सग्ग इव सोक्खसारो सायर इव सो रयणसंछष्णो ॥ १३२ गंगासिंधूहि जुदो वेदड्ढणगेण तह य रमणीभो । बहुपट्टणसंपण्णी बहुगामसमाउलो दिवो ॥ १३३ sses विहो' दोणामुहरयणदीवसंष्णो । संबादसंपत्तो णयरायरपरिउडो रम्मो ॥ १३४ शोभायमान गंगा नदी बहती है वह देश मनोहर है ॥ १२४ ॥ जहां पर नौ कूटोंसे विभूषित, उन्नत और पूर्व-पश्चिम दीर्घ वैताढ्य पर्वत स्थित है वह देश मनोहर है ।। १२५ ।। उस देशकी राजधानी अपराजिता नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये। यह नगरी सुवर्णमय प्राकारसे सहित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, उन्नत भवनों के समूहसे संयुक्त, जिन भवनों से विभूषित, अतिशय रमणीय, उपवन -काननोंसे सहित तथा वापियों व पुष्करिणिय से रमणीय है ॥ १२६-१२७ ॥ अपराजित नगरसे पश्चिमकी ओर जाकर वैश्रवणकूट नामक उन्नत वक्षार पर्वत है । यह पर्वत वन वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, सुवर्णमय, रमणीय, जिनमवनसे विभूषित, दिव्य, देवोंके भवनसमूइसे संयुक्त, बहुत प्रकारके उत्तम देव-देवियोंसे व्याप्त, नाना वृक्षसमूहोंसे गहन और सरोवरों एवं बापियोंसे शोभायमान है ।। १२८-१३० ॥ उस पर्वतपर सुरोंका राजा वैश्रवण नामक देव कहा गया है । वह उत्तम अप्सराओंके मध्य में स्थित होकर दिव्य प्रभाव से रहता है ॥ १३१ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वत्सकावती देश है । वह रमणीय देश स्वर्गके समान सुखकी प्रकर्षता से युक्त, समुद्रके समान रत्नोंसे व्याप्त, गंगा-सिन्धु नदियों से युक्त, वैताढ्य पर्वत से रमणीय, बहुत से पट्टोंसे सम्पन्न, बहुत ग्रामोंसे व्याप्त, दिव्य, कर्बेटों व मटंबों के समूइसे युक्त, द्रोणमुखों व रत्नद्वीपोंसे व्याप्त, संबाई से संयुक्त, रम्य तथा नगरों व आकरोंसे वेष्टित है १ प व श तत्थ. २ प व समतुंगो. ३ उश तत्थ ४ प य पयार. ५ व उत्तंग प गणनिवहो, बगरनिवहो. ७ प व रया तहि. ८ प व कवट्टमंड निहो. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८.११.) अट्ठमो उद्देसो देसस्स तस्स मा णामेण पभेकरा हवे णगरी । पायारगोठरजुदा मणितोरणमंडिया दिवा ॥ १५ मरगयपासादजुदा विहमवरपउमरायघराणिवहा । फलिहमणिभवणपउरा कंचपासादसंजुत्ता ॥ धुम्वतधयवहाया जिणभवणविहूसिया परमरम्मा । उववणकाणणसहिया वरपोक्खरणीहि रमणीया ॥ १३० तत्तो भवरदिसाए मसजला णामदो णदी होइ । बरवेदिएहि जुत्ता बरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ १३८ सत्तसहस्सणदीहि य चउरम्भस्थेहि तह य संजुत्ता। कुंडादो हिस्सरितुं सीयायलिलं पविसई सरिया । तत्तो अवरदिसाए रम्मा णामेण जणवदो होइ । बहुविहजणसंपण्णों' रम्मो सो सम्वलोयाणं ॥ 1. रमणीयकम्बजुदो रमणीयमबखेडसंपुष्णो । रमणीयखेत्तणिवहो रमणीयणदीहिं संपण्णों ॥१॥ रमणीयगामपउरो रमणीयमहंतपट्टणाइण्णो । रमणीयणगरणिवहो रम्मा सो तेणगुणणामो ॥॥१४ देसस्स मज्झभागे गंगा तह सिंधु णाम सरियामओ । चउदसणदीहि सहिया सहस्सगुणिवाहि दीसंति ॥ वेदलगिरी वितहा दीसह देसस्स मज्मभागम्मि । दसमहियसएहिं तहा णगरेहि विहूसिनो हुंगो।" ॥ १३२-१३४ ॥ उस देशकी राजधानी प्रमंकरा नामक नगरी है। यह नगरी प्राकार व गोपुरोंसे युक्त, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, मरकतमणिमय प्रासादोंसे युक्त, मूंगा व उत्तम पद्मरागसे निर्मित गृहसमूहसे सहित, स्फटिकमणिमय भवनोंकी प्रचुरतासे युक्त, सुवर्णमय प्रासादोंसे संयुक्त, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, अति. शय रमणीय, उपवन-काननोंसे सहित, तथा उत्तम पुष्करिणियोंसे रमणीय है ॥१३५-१३७॥ उससे पश्चिमकी ओर मत्तजला नामकी नदी है। यह नदी उत्तम वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य और चारसे गुणित सात अर्थात् अट्ठाईस हजार नदियोंसे संयुक्त होती हुई कुण्डसे निकल कर सीता नदीके जलमें प्रवेश करती है ॥ १३८-१३९ ॥ उससे पश्चिमकी ओर रम्या नामक देश है। वह देश बहुत प्रकारके जनोंसे सम्पन्न, सब लोगोंके मनको हरनेवाला, रमणीय कर्बटोंसे युक्त, रमणीय मटंबों व खेड़ोंसे परिपूर्ण, रमणीय खेतोके समूहसे सहित, रमणीय नदियोंसे सम्पन्न, रमणीय प्रचुर प्रामोंसे संयुक्त, रमणीय महा पहनौसे व्याप्त और रमणीय नगरसमूहसे युक्त है। इसी कारण वह 'रम्या' इस सार्थक नामसे संयुक्त है ॥ १४०-१४२ ॥ उस देशके मध्य भागमें गंगा तथा सिन्धु नामक मदिया चौदह हजार नदियोंस सहित दिखती हैं ॥१४३ ॥ तथा उक्त देशके मध्य भागमें एक सौ दश नगरोसे विभूषित उन्नत वैताढ्य पर्वत मी दिखता है ॥११॥ उस देशकी ............... १प अवरिंदसाण, ब अवरिंदसाए. २ उश चउमहि , पचमरवकेहि बचउरवणेहि...., सदाश साया. ४ उश संपुण्णो. ५पब रम्मे. ६ पब संपण्णी. ७५ ब संखमो. शम्मो. .पषतेण. १. उशगुणिदेहि देसंति. "उश. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] जंबूदीपण [ ८. १४५ देसस्स तस्स! या अंकावदिणामदो दु वरणयरी । मणिमयपायारज्जुदा मणितोरणमंडिया दिव्या ॥ १४५ मणिकंचणवरणिवद्दा जिणभवणविहूसिया परमरम्भा । वरखादिएहि जुत्ता वणसंडविराइया' विउला ॥ अवरेण ब्रदो गंतुं अंजणगिरि णामदो ताई होइ । वणवेदिएहि जुसो वरतोरणमंडियो दिथ्यो । १४० कचणमओ सुलुंगो णाणापासादसंकुलो पवरो । जिणंदभवणणिव हो चउकूड विहूसिभो रम्मी ॥ १४८ सीहासणमज्जागभो वरचामरविज्जमान बहुमाणो | अंजणगिरिम्मि अच्छर अंजणगामो सुरो पवसे ॥ १४९ अवरेण तदो गंतुं दोइ सुरम्म सि णामदो विजभो । सुविसुद्धरयणणिवही सुवि उलदीवेदि मंडिओ दिग्दो ॥ सुविसालणविदो सुविउलदीवे मंडिओ दिग्वो' । सुविसालखेड पउरो सुविउलरयणापरच्छष्णो ॥ १५१ सुविसालपट्टणदो सुविउल दोणामुद्देहिं संछण्णो । सुविसाळ खेत्तणिव हो तेण सुरम्म ति विक्खामो ॥ १५१ पडमाषइति णामा नगरी वहिं होइ देसमम्मि । बणवेदिएहिं जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ १५३ कैचणमरगयविद्दुमकक्रक्के यणप उमरायघरगिवद्दा | जिनईदभवणपरा धयवडम्बं तरमणीया ॥ १५४ अंकावती नामक उत्तम नगरी राजधानी जानना चाहिये। यह विशाल नगरी मणिमय प्राकारसे युक्त, मणिमय तोरणोंते मण्डित, दिव्य, मणिमय एवं सुवर्णमय गृहसमूहसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, उत्तम खातिकाओंसे युक्त और वनखण्ड से विराजित है ॥ १४५-१४६ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वहां अंजन नामक पर्वत है । यह रमणीय पर्वत वन वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुत्रर्णमय, अतिशय उन्नत, नाना प्रासादोंसे व्याप्त, श्रेष्ठ, जिनेन्द्र भवनों के समूह से सहित और चार कूट से विभूषित है ।। १४७१४८ ॥ अंजनगिरिपर सिंहासन के मध्यको प्राप्त, उत्तम चामरोंसे वीउपमान और बहुत मानी अंजन नामक श्रेष्ठ देव स्थित है ॥ १४९ ॥ उसके पश्चिममें जाकर सुरम्य नामक देश है । यह देश अत्यन्त विशुद्ध रत्नसमूह से सक्षित, अत्यन्त विशाल द्वीपोंसे मण्डित, दिव, अतिशय विशाल नगरों के समूह से सहित, अत्यन्त विपुल द्वीपोंसे मण्डित, दिव्य, अतिशय विशाल प्रचुर खेड़ोंसे सहित, अत्यन्त विपुल रत्नाकरोंसे व्याप्त, अतिशय विशाल पट्टनोंसे युक्त, अध्यन्त विपुल द्रोणमुख से व्याप्त और अतिशय विशाल खेती के समूइसे सहित है, इसीलिये यह 'सुरग्या' इस सार्थक नामसे विख्यात है ।। १५०-१५२ ॥ उस देशके मध्य में पद्मावती नामक नगरी है । यह नगरी वन वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुत्रर्ण, मरकत, मूंगा, कर्केतन, एवं पद्मराग मणियोंसे निर्मित गृहसमूइसे सहित; प्रचुर जिनेन्द्रभवनोंसे संयुक्त और फहराती हुई ध्वजाओंके वखोंसे रमणीय है ।। १५३-१५४ ॥ उसके पश्चिम दिशाभागमें विभंगा १ उश दस्स. २ प ब विराजिया ३ प व मंदणवेदिहि. ४ उ दश सुरम चि. ५ रथम. १ प व मंडिओ रम्मो. ७प व रयणीयसं कण्णो ८ उश सुरमुचि, प य निम्मो चि. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. १६४ ] अट्टमा उसो [ १४९ वो विभंगणामा होइ नदी पच्छिमे दिसाभागे । उम्मत्तजला मेया विदिया णामा दु' तस्सेव ॥ १५५ पणुवीप समधिरेषा' जोगणसयविश्यडा परमरम्मा | बेजोयणअवगाढा बेकोसहिया विभंगा दु ॥ १५६ सोलस चेव सहस्सा चत्तारि सया इवंति' सतट्टा । वे सेव कला महिया विभंगमायाम गिरिडा || १५७ विक्खभायामेण य समद्दियपणुवीसजोयणसयं तु । जोयणवीसवगाई' विहंग समुहि ॥ १५८ अषणिय कुंडायामं विजयायामे हवेञ्ज जं सेसं । सग्वाणं सरियाणं आयामो होइ णायच्वो ॥ १५९ बेकोससमहिरेया सत्तासीदी सर्व च णिडिट्टा । वोरणदारुच्छेहा विभंगसरियाण णायच्या ॥ १६० वोरणदायामं पणुवीसहिया सयं च णायन्त्रा । विषखंभ एय जोयण होइ विभंगाण सम्वाणं ॥ १६३ दरवज्जण कमरगयसोवाणगणेश सोहिया दिव्या । कंधणवेदीहि जुदा वणसंविहूसिया रम्मा ॥ १६९ अट्ठावीसेद्दि वहा सहस्सगुणिदाहिं संजुदा रम्मा । उभयवढं पूरंठी वच्च विजयाण मझेण ॥ १६३ दुखसभि सुगंधसलिलेहि पूरिया दिग्वा । गंतूण उत्तरदिसे पविसह सीयाणदी मझे । १६४ नामकी नदी है | ( " उन्मत्त जला यह उसका ही दूसरा नाम जानना चाहिये ।। १५५ ॥ अतिशय रमणीय वह विभंगा नदी एक सौ पच्चीस योजन विस्तृत और दो कोश अधिक दो योजन अवगाह से संयुक्त है ॥ १५६ ॥ विमंगा नदीका आयाम सोलह हजार चार सौ सड़सठ ये जन और दो कला अधिक (१६५९२ - १२५ = १६४६७६५) या. कहा गया है || १५७ ॥ एक सौ पच्चीस योजन विष्कम्भ और आयाम तथा बीस योजन अवगाहसे सहित विभंगाकुंड कहा गया है ॥ १५८ ॥ विजयके आयाममेंसे कुण्डके आयामको कम करनेपर जो शेष रहे उतना सब नदियोंका आयाम जानना चाहिये ॥ १५९ ॥ त्रिभंगा नदियोंके तोरणद्वारोंका उत्सेध एक सो सतासी योजन और दो कोश प्रमाण निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥ १६० ॥ सब विभंगा नदियोंके तोरणद्वारोंका आयाम एक सौ पच्चीस योजन और विष्कम्भ एक योजन प्रमाण जानना चाहिये ।। १६१ । उक्त विभंगा नदी उत्तम वज्र, नील एवं मरकत मणिमय सोपान समूहों से शोभित, दिव्य, सुवर्णमय बेदियोंसे युक्त, बनखण्डोंसे विभूषित, रम्य और अट्ठाईस हजार [ नदियोंसे ] संयुक्त होकर उभय तोंको जलसे पूर्ण करती हुई विजय के मध्यसे जाती है ॥ १६२ - १६३ ॥ कुन्द पुष्प, चन्द्र एवं शंखके समान धवल व सुगम्बित जलसे परिपूर्ण वह दिव्य नदी उत्तर दिशा में जाकर सीता नदीके मध्य में प्रवेश १ श विदिणायामा दु. १ उश समभिरेया, श समभिरेये. ३ श जोयअवगादा पर मरम्मा ४ प ब कोसा सहिया अमंगा हु, श कोसहिया विभंगा दु. ५ उश चत्तारि हवंति. ६ उश 'वीसविगाई ७ ड श कुंडयामं. ८ उश तोरथ. ९ व पचवीसाहिया सयं, श पणुवीससहिया सर्य. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] जंबूदीवपण्णसी [८, १६५ भवरेण तवी गंतुं रमणिज्जो णामदो ति विक्खादो' । विजभो होदि समिदो बहुगामसमाउलो सम्मो ॥ १६५ छक्खडेहि विभत्तो मज्जभणज्जेहि भेदसंजुत्तो। गंगासिंधूहि तहा वेदवणगेण कयसीमो ॥१॥ देसम्मि तम्मि णेया होइ सुहा णामदो त्ति वरणयरी । वणवेदिएहिं जुत्ता मणितोरणमंदिया दिग्वा ॥ १६७ कंचणपासादजुदा जिणभवर्गविहूसिया मणभिरामा । उबवणकाणणसहिया वावीपोक्खरणिकयसोहा ॥१६८ भवरेण वदो गंतुं भादस [ज णामदो णगो होइ । गिद्धतकणयवण्णो मणिरयणविहूसिभो रम्मो ॥ १६९ चत्तारिजोयणसदा उम्बिद्धो णिसधपस्वदसमी"। सीदाणदिस्स तीरे पंचसया जोपणुतुंगार ॥ १७० सीदासमीवदेसे सयं च पणुवीसजोयणवगाढो । जोयणसयमवगाटो' णिसहसमीवे समुट्ठिो ॥१॥ वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिओ मणभिरामो । पंचव जोषणसया विस्थिण्णो होइ वरसेलो ॥ १७२ बाणउदा पंचसया बे चेव कला हवे समहिरेवा । छइससहस्सजीयण आयाम तस्स सेलस्स ॥ १०३ पोक्वरणिवाविपउरो" णाणापासादसंकुलो रम्मो । तण्णामदेवसहिमो जिणभवणविहूसिमो रम्मो ॥ १७४ -............... करती है ॥ १६४ ॥ उसके उत्तरमें जाकर 'रमणीय ' नामसे विख्यात समृद्ध विजय है । यह विजय बहुत ग्रामोंसे वेष्टित, रम्य, छह खण्डोंसे विभक्त, आर्य-अनार्योंके द्वारा भेदसे संयुक्त और गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैताव्य पर्वतसे की गई सीमासे सहित है ॥ १६५१६६ ॥ उस देशमें शुभा नामक उतम नगरी जानना चाहिये । यह नगरी वन-वेदियोंसे युक्त, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुवर्णमय प्रासादोंसे संयुक्त, जिनभवनोंसे विभूषित, मनको अभिराम, उपवन-काननोंसे सहित और वापियों एवं पुष्करिणियोंसे शोभायमान है ॥ १६७१६८॥ उसके पश्चिममें जाकर आदर्शन [ आत्गांजन ] नामक वक्षार पर्वत है। यह पर्वत खूब तपाये गये सुवर्णके समान वर्णवाला, मणियों व रत्नोंसे विभूषित, रम्य, निषध पर्वतके समीपमें चार सौ और सीता नदीके तीरपर पांच सौ योजन ऊंचा, तथा सीताके समीप देशमें एक सौ पच्चीस योजन और निषधके समीपमें सौ योजन अवगाहसे युक्त कहा गया है ॥ १६९१७१॥ वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंमे मण्डित और मनको अभिराम ऐसा वह उत्तम पर्वत पांच सौ योजन प्रमाण विस्तृत है ॥ १७२ ॥ उस पर्वतका आयाम छह और दश अर्थात् सोलह हजार पांच सौ बानबै योजन और दो कला अधिक है ॥ १.३ ॥ उक्त रमणीय पर्वत प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, नाना प्रासादोंसे घिरा हुआ, रम्य, अपने जैसे नामबाले देवसे सहित और जिनभवनसे विभूषित है ॥ १७४ ॥ उसके पश्चिममें जाकर धन.................. व रमणिनो दो ति विक्खादा. १ पब समिधो, श समदो. ३ उशखंडेण.. पता, बसत. ५ प व कदोसीमो. ६ प ब वरतोरण. ७ प व भुवण. ८ उ श रम्मा. ९प व कयंभूसा. .. प.".ब आदेसण. "उश समीवो. १२ उ पंचसया जोयणो तुंगा, श पंचसय जोत्चगा. ३ श मोयणा गादो. १४प-बप्रत्योनोंपलभ्यते तृतीयचरणमेतत्. १५उश मणमिरम्मो. उसयावे व कसा पदे सममिरेया, शसया वे बेकला हवे सममिरेया. १७ पबदस्ससदस्स. १८पर पबरो. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८. १८१] अgमो उद्देसो [१५१ भवरेण तदो गर्नु होइ पुणो मंगलावदी विजओ । घणधण्णस्यणपुष्णो' बहुगामसमाउलो रम्म। ॥ १७५ सोलस चेव सहस्सा पंचव सया हवंति वाणउदा। वे चैव कला अधिया भयामो तस्स विजयस्स ॥ 1.1 यावीसजोयणसया बारह वह जोयणा समुहिट्ठा । सत्तट्ठभागसहिया विक्खंभो तस्स देसरस ॥ १७७ वरणगरखेडाबडमडबैदोणामुहेहिं संछण्णो । बहुदीवविउलपट्टणस्यणायरमंडिओ दिवो ॥ १७८ गंगासिंधू वि तहा दो वि गदी उत्तरामुही जंति । वणवेरिएहि जुत्ता वरनोरणमंडिया दिवा ॥ १७९ दुकला बेकोसहिया उणतीसा तह य सोलससंहस्सा । पंचेच जोयणसया गंगासिंधूण आयामं ॥ १८० छज्जायण सक्कोसा णिसहसभीवे णदीण विक्खंभा । गाउवअद्भवगाई दसगुण सीयासमीवम्मि ॥१८१ बेकोसा वासट्टा गंगाकुरप्पमाणविक्खंभं । मायाम णिहिट दसोयण होइ अवगाहं ॥ १८२ छायण सक्कोसा मायामा तोरणा समुद्दिट्ठ। । जोयणच उत्थभागा विक्खंभा होति गायवा ॥ 1८३ समहियदिवढकोसा णवजोयण तोरणा समुत्तुंगा। गंगासिंधूण तहा णिसंधसमीवे वियाणाहि ॥ १८४ धान्य एवं रत्नोंसे परिपूर्ण और बहुत प्रामोंसे घिरा हुआ रमणीय मंगलावती नामक विजय है ॥ १७५ ॥ उस विजयका आयाम सोलह हजार पांच सौ बानबै योजन और दो कला अधिक है ॥ १७६ ॥ उस देशका विष्कम्भ बाईस सौ बारह योजन और एक योजमके आठ भागोंमेसे सात भाग अधिक कहा गया है ॥ १७७॥ उक्त दिव्य विजय उत्तम नगरों, खेड़ों, कर्बटों, मटंबों और द्रोणमुखोसे व्याप्त तथा बहुतसे द्वीपों, विशाल पट्टनों एवं रत्नाकरोंसे मण्डित है ।। १७८ ॥ वन-वेदियोंसे युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित दिव्य गंगा व सिन्धु नामकी दोनों हि नदियां उत्तराभिमुख होकर जाती हैं ॥ १७९ ॥ गंगा और सिन्धु नदियोंका आयाम सोलह हजार पांच सौ उनतीस येोजन, दो कोश और दो कला अधिक (१६५९२१३ - ६२३ = १६५२९३३ ) है ॥१८०॥ निषध पर्वतके समीपमें उक्त दोनों नदियोंका विष्कम्भ छइ योजन एक कोश और अवगाह आधा कोश मात्र है । सीता नदीके समीपमें उक्त नदियोंका विष्कम्भ व अवगाह इससे दशगुणा है ॥१८१॥ गंगाकुण्डके विष्कम्भ व आयामका प्रमाण दो कोश व बासठ योजन तथा अवगाह दश योजन मात्र है ।। १८२ ।। तोरणों का आयाम छह योजन एक कोश और विष्कम्भ योजनके चतुर्थ भाग प्रमाण जानना चाहिये ॥१८३॥ गंगा-सिन्धु नदियोंके तोरण निषधके समीपमें नौ योजन और डेद कोश प्रमाण ऊंचे जानना चाहिये ॥ १८॥ जिनेन्द्रोंके द्वारा निर्दिष्ट गंगा-सिन्धु १५ स्यणपतरो. २ प सिहिया, ब सिहिय ३ प मदंव, व दंद. ४ प व पट्टण. ५ पब अवंति. ६श सणसीसा सहिया सोलस. ७ उश ण्णिसहसमेण विक्खंम. ८ पब गाउय. ९ब कुछ. १. उनिसच, शनिच. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंदीवपण्णी !८.१८५. तिष्णेव हवे कोसा सेणउदा जोयणा समुत्तंगा। कोसा वासट्टा' मायामा तोरणा या ॥ १.५ में कोसा विक्खंभा गंगासिंधूण तोरणदुवारा । सीदाणदीसमीवे णिहिटा जिणवरिदेहि ॥ १४६ वरणदिया गायब्वा चउदस-उससहसपरिवारा । एक्केकाण नदी गंगासिंधूण परिवारा ॥.. सव्वा वि वेदिसहिया सम्वा वणसंडमंडिया' दिवा । सम्बा तोरणणिवहा सम्षा कुंडेसु उप्पण्णा ॥ 16 देसम मग्ममागे वेदतो पम्वदो समुतुंगो वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो गई ॥ १८९ उत्तरसेटीए पुणो' पणवण्णाणि इति गराणि । जिणभवणभूसियाणि व दक्मिणदो पावि एमेव ॥१९. देसम्मि तमि होई य गामेण य रयणसंचया णगरी । रयणमयभवणणिवहा वरतोरणमरिया दिम्बा ९ मरगयपायाजुरा भगाहसाईहि परिठडा दिवा । धुतधयखाया जिभवणविहूसिपा दिया ॥९. पुम्वविदेडे गेया तित्ययरा सम्बकाल साहीणा' । गणहरदेवा य तहा धक्कहरा सहप गायम्बा ॥ १९३ छम्मासे छम्मासे णियमा सिझी"तेसु खत्तेस । उक्कस्सेण बयाण्णदो एक्कसमरण || १९. जिणईदाणं गेयो अट्टमहापारिहेरजुसाणं । दिवं समोवसरणं सम्वेसु वि भरिथ खेत्तेसु ॥ १९५ नदियोंके तोरणद्वार सीता नदीके समीपमें तेरानबै योजन और तीन कोश ऊंचे, बाठ योजन व दो कोश आयत, तथा दो कोश विस्तृत जानना चाहिये ॥ १८५-१८६॥ गंगा-सिन्धु नदियों से प्रत्येक नदीकी परिवार नदियां चौदह-चौदह हजार प्रमाण जानना चाहिये ॥१८॥ ये सभी दिव्य नदियां वेदियोंसे सहित, सभी वनखण्डोंसे मण्डित, सभी तोरणसमूहसे सहित, और सभी कुण्डोंसे उत्पन्न हुई हैं ॥ १८८॥ इस देशके मध्य भागमें वन-वेदियोंसे युक्त बार उत्तम तोरणोंसे मण्डित वैताढ्य नामक ऊंचा पर्वत है ॥ १८९॥ इस पर्वतकी उत्तर श्रेणिमें जिन भवनोंसे भूषिः पचवन नगर हैं। इसी प्रकार दक्षिण श्रीगमें भी पचयन नगर जानना चाहिये ॥ १९० ॥ उस देशमें रत्नसंचया नामकी नगरी है। यह दिव्य नगरी रत्नमय भवन. समूहसे सहित, उत्तम तारणोंसे मण्डित, दिव्य, मरकतमणिमय प्राकारसे युक्त, अगाध खातिकाओंसे वेष्टित, दिव्य, फहराती हुई वजा-पताकाओंसे सहित और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥ १९१-१९२ ॥ पूर्व विदेहमें स्वाधीन तीर्थकर, गणधर देष तथा चक्रवर्ती सर्व काल स्थित जानना चाहिये ॥ १९३ ॥ उन क्षेत्रोंमें उत्कर्षसे छह छह मासमें तथा जघन्यसे एक समयमें जीव नियमसे सिद्ध होते हैं ।। १९४ ॥ सभी क्षेत्रों में आठ महा प्रातिहार्योंसे युक्त जिनेन्द्र देवोका दिव्य समवसरण रहता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १९५ ॥ उश वेको सावणट्ठा, प ..,ब कोसट्ठा वासट्ठा. २ पब गंगासिंधूतोरण. ३१श सहस्सा..प - मुंख्यिा . ५ व समतुंगो. पब पुणा, ७ उ श होवि, प...,पदोह. ८ प...बपामेच स्व. ९प बसाहीण, श साहीरा. १.पबदेवाण तहा. १५ णियमा तिष्ठति सु. ११पस्से मेवा, . कस्सेगमेय. १३पबजिमयंाणं य. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८. १९८ ] अमोउद्देस [ १५३ विधम्मो वज्जिह केवलणाणी ण चावि परिहीणा' । पुग्वविदेहे या सब्वेसु वि' विउलविजसु ॥ चावण्णा संघो पुण्वविदेद्दम्मि होति संबद्धा । पुरिसो लिकमेण तहा णिद्दिट्ठा सम्बदरिसीहिं ॥ १९७ अमरिंदणमिय चलणं भणतवरणाणदंसणपईवं । वरपउमणदिणमियं भणतजिणसामियं वंदे ॥ १९८ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिलंगहे महाविदेहाहियारे पुब्वविदेहवण्णणो णाम भट्टमो' उद्देसो समत्तो ॥ ८ ॥ पूर्व विदेह के भीतर सभी विशाल विजयोंमें न धर्मकी व्युच्छित्ति होती है और न केवलियोंका भी अभाव होता है ॥ १९६ ॥ पूर्ष विदेह में चातुवर्ण्य संघका संयोग पुरुषपरम्परा के क्रमसे सर्वदा रहता है, ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥ १९७ ॥ जिनके चरणोंमें देवोंके इन्द्र नमस्कार करते हैं तथा जो उत्कृष्ट अनन्त ज्ञान-दर्शनरूपी प्रदीपसे संयुक्त व उत्तम पद्मनन्दि मुनिके द्वारा नमस्कृत हैं, ऐसे अनन्त जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १९८ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह में महाविदेदाधिकार में पूर्वविदेहवर्णन नामक आठवां उद्देश समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ १ उश परिहीणो. २ ब सब्बे त्रि. ३ उप वश पुग्वविदेहम्मि होंति संबंधा, क पुम्बविदेहे हवंति संबंद्धो ४ व गमियवलनं. ५ उ रा पहतं. ६ प ब अट्टमओ उद्देशो. नं. दी. २०. C Ka Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ णवमो उद्देसो] धम्मंजिणिदं पणमिय सद्धम्मुवदेसयं विगयमोई । धणधण्णसमिद्धवरं भवरविदेहं पवक्खामि ॥ । भवरेण तदो गंतु पामेण य रयणसंचयपुरादो। वरवेदिया विचित्ता कणयमया होइ णायब्वा ॥२ तत्तो दुवेदियादो पंचसया जोयणाणि गंतूणं । होदि णगो सोमणसे। णिसधसमीवे समुद्दिट्ठी ॥ ३ चत्तारि जोयणसया उव्विद्धो विस्थडो दु पंचसया | जोयणसयभवगाढो रुप्पमओ होइ णायचो ॥ . तत्तो दु वेदियादो गंतूर्ण भद्दसालवणमज्झे । मंदरपासे णेया वावीसा जोयणसहस्सा ॥ ५ पंचेव जोयणसया उम्विद्धो संखकुंदसंकासो। पणुवीससमहिरभोसयावगाठो दु वज्जममो॥ सोमणसस्सायाम तीससहस्सा य बेसया णेया । णवजोयणा य दिट्ठा छच्चेव कला हवे अहिया ॥७ चदुकूडतुंगसिहरो बहुभवणविहूसिओ मणभिरामो । बहुदेवदेविणिवहो वणकाणणमंडिभो विउलो ॥ ८ वरवैदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिओ परमरम्मो । सोमपददेवसहिमो जिणभवणविहूसिओ दिवो ॥ ९ सत्तो सोमणसादो तेवण्णसहस्स जोयणा गंतुं । अवरदिसे णायन्वा विज्जुप्पणामदो होइ ॥ १० तवणिज्जणिभो सेलो कुरुधणुपट्टद्ध होइ मायामो । सोमणससमो दिवो उण्णयघउभागभवगाठो ॥" सद्धर्मके उपदेशक और मोहसे रहित धर्मनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार करके धन-धान्यसे समृद्ध उत्तम अपर विदेहका वर्णन करते हैं ॥१॥ उस रत्नसंचयपुरसे पश्चिममें जाकर सुवर्णमय विचित्र उत्तम वेदिका जानना चाहिये ॥२॥ उस वेदिकासे पांच सौ योजन जाकर सौमनस नामक पर्वत स्थित है। यह रजतमय पर्वत निषधके समीपमें चार सौ योजन ऊंचा, पांच सौ योजन विस्तृत और सौ योजन अवगाहसे युक्त जानना चाहिये ॥३-४ ॥ उस वेदिकासे बाईस हजार योजन प्रमाण भद्रशाल वनके मध्यमें जाकर शंख एवं कुन्द पुष्पके सदृश वर्णवाला वह पर्वत मन्दर पर्वतके पासमें पांच सौ योजन ऊंचा, तथा एक सौ पच्चीस योजन प्रमाण वज्रमय अवगाहसे युक्त जानना चाहिये ॥ ५-६॥ सौमनस पर्वतका आयाम तीस हजार दो सौ नौ योजन और छह कला अधिक कहा गया है ॥ ७॥ यह दिव्य पर्वत चार •कूटोंसे युक्त, उन्नत शिखरवाला, बहुत भवनोंसे विभूषित, मनको अभिराम, बहुत देव-देवियोंके समूहसे संयुक्त, वन-काननोंसे मण्डित, विपुल, उत्तम वेदिकाओंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित अतिशय रमणीय, सोमप्रभ देवसे सहित और जिनभवनसे विभूषित है ॥८-९ ॥ उस सौमनस पर्वतसे आगे तिरेपन हजार योजन जाकर पश्चिम दिशामें विद्युत्प्रभ नामक पर्वत जानना चाहिये ॥१०॥ यह पर्वत तपाये गये सुवर्णके सदृश, कुरु क्षेत्रके अर्ध धनुषपृष्ठके प्रमाण भायामवाला, सौमनसके समान आकारवाला, दिव्य, उंचाईके चतुर्थ भाग प्रमाण अवगाहसे संयुक्त, उश व वेदियदो. २ उ पुश्वीससमिधिरेओ, ब पशुवीससमधिरेय, श पुथ्वीसम्मधिरेओ. सोमनमायो तेवण, व सोमणसाहो तेवण, ४ उ श विम्जप्पम. ५ ष णवाणिज्ज. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९. २१) णवमी उदेसो [१५५ वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो परमरम्मो । जिणचंदभवणणिवहो विज्जुप्पभदेवसाहीणो ।। १२ वत्तो पच्छिमभागे गंतूर्ण पंचजोयणसयाणि । होइ हु कंचणवेदी णिसधसमीवे समुदिट्ठा ॥॥ विज्जुप्पभसेलादो' गंतूर्ण भइसालवणमझे । बावीसं च सहस्सा जोयणसंखेहि तहिं होदि ॥ १४ परवेदिया विचित्ता पंचेव धणुसया दु विस्थिण्णा । कोससमुत्तुंगा गाणाविहरयणसंछण्णा ॥ १५ तत्तो भवरदिसाए पठमा णामेण जणवदो होइ । पउमुप्पलपुप्फेहि य पउँमिणिसंडेहि रमणीमो ॥ वरकमलसालिएहि य वप्पिणाणवहेहि मंडिओ रम्मो । गिप्पण्णसव्वधण्णो समिद्धगामेहि संछण्णा ॥. गंगासिंधूहि तहा वेदवणगेण भूसिमो पवरो । छक्खंडपउमविजो णिहिट्ठो सम्वदरिसीहि ॥ सस्स देसस्स णेया गयरी णामेण अस्सपुरी । वणवेदिएहिं जुत्ता परतोरणमंडिया दिग्वा ॥ १९ मणिरयणभवणणिवहाचणपासादसंकुला रम्मा। जिणइंदगेहपउरा इंदपुरी णा पञ्चक्खा ॥ २. भवरेण तदो गंतुं सहावदिणामपम्वदो होइ । मसिहरणिवहो जिणभवणविकसिमो तुंगो ॥१॥ कंधणमभो विसालो गइंदकुंभागदी परमरम्मो । वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो दिवो ॥ २९ वन-वेदियोसे युक्त, उत्तम तोरणोसे मण्डित, अतिशय रमणीय, जिनभवनोंके समूहसे युक्त और विधुत्प्रम देवके स्वाधीन है ॥ ११-१२ ॥ उससे पश्चिम भागमें पांच सौ योजन जाकर निषध पर्वतके समीपमें सुवर्णमय वेदी निर्दिष्ट की गई है ॥ १३ ॥ विद्यत्प्रभ शैलसे बाईस हजार योजन प्रमाण भद्रशाल वनके मध्यमें जाकर वहां पांच सौ धनुष विस्तीर्ण, दो कोश ऊंची और नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त विचित्र उत्तम वेदिका है ॥१४-१५॥ उससे पश्चिम दिशामें पद्मा नामक देश है । छह खण्डोंसे युक्त वह श्रेष्ठ पद्म विजय पद्म व उत्पल पुष्पों एवं पद्मिनियों के समूहोंसे रमणीय, उत्तम कलम धानसे शोभायमान खतोंके समूहोंसे मण्डित, रम्य, समस्त धान्योंकी निष्पत्तिसे सहित, समृद्ध ग्रामोंसे व्याप्त तथा गंगा त्र सिन्धु नदियों एवं वैतात्य पर्वतसे भूषित है; ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥१६-१८ ॥ उस देशकी राजधानी अश्वपुरी नामकी नगरी जानना चाहिये। यह नगरी वन-वेदियोंसे युक्त उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, मणि एवं रत्नमय भवनसमूहसे सहित, सुवर्णमय प्रासादासे व्याप्त, रम्य तथा प्रचुर जिनेन्द्रगृहोंसे सहित होती हुई साक्षात् इन्द्रपुरी जैसी प्रतीत होती है ॥ १९-२०॥ उसके पश्चिममें जाकर श्रद्धावती (शब्दावनि) नामक पर्वत है। यह पर्वत आठके आधे अर्थात् चार शिखरों के समूहसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, उन्नत, सुवर्णमय, विशाल, गजराजके कुम्भके समान आकृतिवाला, अतिशय रमणीय, वन-वेदियोंसे युक्त, १कब जिणयंद. २५ °सेलाहो. ३ उशपउमप्पलपुप्फेहि, ब पउमप्पहपुण्फेहि.४ ब पहु. ५७ शवप्पणणामेखियवप्पिणिणित्रहेहि. उश सम्वधम्मो पुण्णागामेहिब सम्वधण्णो समिधगामेहि. ७ उश संकुल ८ बणाय. ९ उश सावहि, व संडावदि. १० क गांवकुमाकिदी य परमरम्मो, कंमागही. परमरम्मो, Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] जंबूदीपणसी [ ९. २३ मणिकंच्चणधरणिवहो अच्छर बहुकोडिसंजुदो रम्मी । काणणवणसंछष्णो सदावदिणामसुरंगुत्तो ॥ २३ भवरेण तदो गंतुं होइ सुपउमो ति णामदो त्रिजभो । णीलुप्पलछण्णाहिं वणिणित्र देहि संछष्णो ॥ २४ रयणायरे हि जुत्तो पट्टणदोणामुदेहि संछष्णो । कब्बडमदंवणिवही बहुगामसमाउलो रस्मो ॥ २५ गंगाजळेण सित्तो सिंधूसेलिलेण पीणिओ' उदरो । वेदड्ढतुंगम उडो विजयणरिंदो मणभिरामो ॥ २६ सम्मि सम्मि मज्झे सिंहपुरी णाम होइ वरणयरी। सीहपरककमजुत्ता णरसीदा जत्थ' बहु अस्थि ॥ २७ वणवेदिपद्दि जुत्ता वरतोरणमंडिया मणभिरामा' | धुब्बंतघयवढाया जिणभवणविहूसिया दिग्वा ॥ २८ अवरेण तदो गंतुं खारोदा णामदो नदी होइ । मणिमेय सोदाणजुद । णिम्मलसलिलेहि परिण्णा ॥ २९ कणयमयवेदिणिवा वणसंडविहूसिया मणभिरामा । मणिगंणणिवहेहि तहा तोरणदारेहि साहीणा ॥ ३० मट्ठावीसाहि तहा सहस्वगुणिदाहि णदिहिं संजुत्ता । सीदोदासरिसलिलं पविसह दारेण तुंगेण ॥ ३१ भवरेण तदो गंतुं होइ महापउमणामवरदेसो । अमरकुमारसमाणा णरपत्ररा जत्थ दीति ॥ ३२ उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, मणिमय एवं सुवर्णमय गृहसमूइसे सहित, कई करोड़ अप्सराओंसे संयुक्त, रम्य, कानन-वनोंसे व्याप्त और श्रद्धावती नामक देवसे युक्त है ॥ २१-२३॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर सुपद्म नामक विजय है । यह विजय नीलोत्पलों से व्याप्त वप्रिणसमूहों से घिरा हुआ, रत्नाकरोंसे युक्त, पट्टनों व द्रोणमुखोंसे व्याप्त कर्बों व मटंबों के समूहों से सहित, रम्य और बहुत ग्रामोंसे व्याप्त है ॥ २४-२५ ॥ उक्त विजय रूपी नरेन्द्र गंगाजल से अभिषिक, सिन्धुसलिलसे प्रीणित ( पुष्ट) उदवाला अथवा उदार और वैताढ्य पर्वत रूपी उन्नत मुकुटसे सहित होता हुआ मनोहर है || २६ ।। उस देशके मध्य में सिंहपुरी नामकी उत्तम नगरी है, जहां सिंहके समान पराक्रमसे युक्त बहुतसे श्रेष्ठ मनुष्य हैं ॥ २७ ॥ यह दिव्य नगरी वन वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, फहराती हुई ध्वज पताकाओं से सहित और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥ २८ ॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर क्षारोद | नामकी नदी है । यह नदी मणिमय सोपानोंसे युक्त, निर्मल जलसे परिपूर्ण, सुवर्णमय वेदीसमूह से सहित, वनखण्डोंसे विभूषित, मनको अभिराम, मणिगणों के समूहों से तथा तोरणद्वारोंसे स्वाधीन और अट्ठाईस हजार नदियोंसे संयुक्त होकर उन्नत द्वारसे सीतोदा नदी के जल में प्रवेश करती है । २९-३१ ॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर महापद्म नामका उत्तम देश है, जहां श्रेष्ठ मनुष्य देवकुमारों के समान दिखते हैं ।। ३२ ।। यह देश उत्तम १ ल श सर. २ ब सुपउसु चि. शरपयणवरेहि ५ उश संधू. ६ ब ९श मिणि. १० उश मणमिरम्मा अट्ठावीसेहि तह सहस्सगुणिदेहि १३ उ ३ ब 'नाहिं या वविण, श ण्णाहं वप्पिण ४ उ रयणयरेहि, पीणिदो. ७ उ दश तत्थ. ८ उ मणमिरम्मा, श मणभिरामो. ११ उश मिण. १२ उश अट्ठावीसेहि तहा सहस्सगुणिदाहिं, रा दाराण Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९. १२) णमो उद्देसो [१५७ वरगामणयरणिवहो मडअखेडाहि मंडिओ दिव्यो । जयरायरपरिइण्णो रयण होवेहि संधागो ॥ ३३ देसस्स तस्प या महापुरी णामदो त्ति वरणयरी । रयणमयभवणणिवहा मणिकंचणस्यणपरिणाम। ॥ ३४ मणिमयपायारजुदा जिम्मलमणिकणर्य उरदुवारा । जिणइंदभवणणिवहा सोहा सा सम्बदोभद्दा ॥ ३५ अत्ररेण तदो गंतुं विगहावदि णामदो हवे सेलो। कणयमओ उत्तुंगो गाणाविहरयणसंछष्णो ॥ ३६ वणसंडसंपरिउडे। मगितोरणमंडिमो मगभिरामो। चत्तारिसिहरसहिओ जिगभवणविहूलिभो दिवो ॥३. मायाकुंभसरिसो विगडासुरैणाम देवसाहीग: । बहुदेवभवगडगो वरपोखरगोहि रमणीओ ॥ ३८ भवरेण तदो गर्नु होइ तहा पउमझावदी विजो। पट्टामडंबाउरो बहुगाम समाउलो रम्मो ॥ ३९ वारयणायपउरोदोणामुहकपडेहि कयलोहो । गंगासिंधूदि जुदो वेदड्ड गोग रम गीभो ॥ ४० देसस्स रायवाणी विज्ञायपुरीणामदो त्ति णिद्दिष्टा। वाजिदगीलमरगयासावरेहिं संछागा ॥४१ धवल भइसरिसांगागाभवणेहि सोहिया दिवा । जिगभवगसिद्धगिवदा सुगंधगंधुद्धदा' रम्मा ॥ ४२ ......................... ग्रामों व नगरों के समूहसे सहित, मटंबों व खेड़ोंसे मण्डित, दिव्य नगरों व आकरोंसे व्याप्त और रत्नद्वीपोंसे घिरा हुआ है ।। ३३ ॥ उस देश की राजधानी महापुरी नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये। वह नगरी रत्नमय भवन समूहसे सहित; मणि, सुवर्ण एवं रत्नों के परिणाम स्वरूप; मणिमय प्राकारसे युक्त, निर्मल मणि व सुवर्णमय गोपुद्वारों से संयुक्त, जिनेन्द्र मवनोंके समूहसे युक्त और सर्वतः मंगलमय होती हुई शोभायमान है ॥ ३४-३५॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर विक विज ] टाक्ती नामका शैल है । यह शैल सुवर्णमय, उन्नत, नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त, वनखण्डोसे वेष्टित, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिगम, चार शिखरोंसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, दिव्य, हाथीके कुम्भस्थलके सदृश, विकटासुर नामक देवके स्वाधीन, बहु। देवभरोसे व्याप्त और उत्तम पुष्करिणियोंसे रमणीय है ॥ ३६-३८ ॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर पद्मकावती नामका देश है । यह देश प्रचुर पट्टनों व मटंबोंसे सहित, बहुत प्रामोंसे भरा हुआ, रम्य, उत्तम रत्नाकरोंकी प्रचुरतासे संयुक्त, द्रोणमुखोसे व कीटोंसे शोभायमान, गंगा-सिन्धु नदियोंसे युक्त और वैताढ्य पर्वतसे रमणीय है ॥३९-४०॥ उस देशकी राजधानी विजयपुरी नामसे निर्दिष्ट की गई है। यह नगरी वज्र, इन्द्रनील एवं मरकत मणिमय श्रेष्ठ प्रासादोंसे व्याप्त, धवल मेघकूटके सदृश नाना भवनोंसे शोमित, दिव्य, जिनभवनों व सिद्धभवनोंके समूहसे संयुक्त, सुगन्ध गन्धसे व्याप्त, ग्य, वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम १ ब महापुरीदोतिणोमवर. २ व णिम्मलवरकणय. ३ व वेगादिसुर. ४ श बहुगामकब्बडेहि. ५ ब सरिस. ५ उ श सुगंधुगंधुदुदा, ष पुगंधुगंधद्धदा. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] जंबूदीपणती [ 9.82 वणवेदिहि जुत्ता' वरतोरणमंडिया मणभिरामा । णाणापडायणित्रहा अमरिंदपुरी व पच्चक्खा ॥ ४३ भवरेण तदो गंतुं सीदोद' विभंगगामदो होइ । वरजदि अगाहतोया दक्खिणदेो उत्तरे वहइ ॥ ४४ वणवेदिर्दि जुत्ता वरतोरणमंडिया मणभिरामा । अट्ठावीससहस्साणदीहि परिवेढिया' वहद्द ॥ ४५ भवरेण वदो गंतु संखा णामेण जगवदो होइ । वरसालिछे णित्रहो पुंडच्युवणेदि संकृष्णो ॥ ४६ कल्दारकमलकंदलणीलुप्पलकुमुदछण्णदीदीहि । वरपोक्खरिणीहिं तद्दा सोद्दद्द सो जणवदो रम्मी ॥ ४७ गंगा सिंधू य तहा गच्छति य उत्तरेद्दि य मुद्देहि । देसम्मि तम्मि मज्झे रुप्पमओ होह वेदड्ढो ॥ ४८ तस्य देवस्स मज्झे भरया णामेण होइ वरणयरी । अमरावइसमसरिसा मणिकंचणरयणसारेण ॥ ४९ फहिमागमवणणिवा कंचणपासारमंडिया दिव्त्रा । वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणभूसिया रम्मा ॥ ५० पोक्स्खरणिवाविपरा जिणभवणविहूसिया मणभिरामा । उज्जाणवणसमिद्धा णरणारिगणेहि रमणीया ॥ ५१ भवरेण तदो गंतुं भासीविसपन्थदो पुणो हो । निद्धंतकणयवण्णो बहुविद्दमणिकिरणपज्जलिभो ॥ ५२ रयणमय भवणणिवो विज्जाहरगरुड किंणरावायो । सुरसयसहस्सपउरो जिणभवणविहूसिभ दिग्वो ॥ ५३ तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम और नाना पताकाओं के समूइसे सहित होती हुई साक्षात् इन्द्रपुरी के समान प्रतीत होती है ॥ ४१-४३ ।। उससे पश्चिम की ओर जाकर अगाध जलसे संयुक्त सीतोदा नामकी उत्तम त्रिभंगा नदी है, जो दक्षिणसे उत्तरकी ओर बहती है ॥ ४४ ॥ यह नदी वन वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम और अट्ठाईस हजार नदियोंसे वेष्टित होकर जाती है ॥ ४५ ॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर शंखा नामक देश है । वह रम्य देश उत्तम शालि धान के खेत के समूइसे सहित, पोंडा व ईखके वनोंसे व्याप्त तथा कद्दार, कमल, कन्दल, नीलोत्पल एवं कुमुदोंसे आच्छादित ऐसी दीर्घिकाओं एवं पुष्करिणियों से शोभायमान है ।। ४६-४७ ॥ वहां गंगा-सिन्धु नदियां उत्तर की ओर जाती है । उस देशके मध्य में रजतमय वैनाढ्य पर्वत है ॥ 8८ ॥ उस देशके मध्य में अरजा नामक श्रेष्ठ नगरी है । यह नगरी मणि, सुवर्ण एवं रत्न रूप धनसे अमरावती के सम-सदृश है ॥ ४९ ॥ उक्त नगरी स्फटिकमणिमय मत्रनसमूह से सहित, सुवर्णमय प्रासादोंसे मण्डित, दिव्य, वन-वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे भूषित, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, जिनभवन से विभूषित, मनको अभिराम, उद्यान - नोंसे समृद्ध और नर-नारीगणांस रमणीय है ।। ५०-५१ ॥ फिर उससे पश्चिम की ओर जाकर आशीविष नामका पर्वत है । यह पर्वत खूब तपाये गये सुवर्णके सहरा वर्णवाला, वहुत प्रकारके मणियोंके किरणोंसे प्रज्वलित, रत्नमय भवनोंके समूह से सहित; विद्याघर, गरुड़ एवं किन्नरों का आवासस्थान, लाखों देवोंकी प्रचुरता से युक्त, जिनभवन से विभूषित, १ उ शत्तो. २ क व सीदोवा. ३ उश वरिवेढिया ४ उ रा सालिच्छेत. ५ व पुंड उश कुमुदुखण्न. ७ व सिंधू तह गच्छति इ उत्तरेहि. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९.१३] णवमो उसो वणवेदिएहि जुत्तो वातारणमंडिओ परमरम्मो । आसीविससुरसहिमो सुरिंदकरिकुंभसमसिहरो ॥ ५४ तत्तो भवरदिसाए पक्षिणी णामेण जणवदो होइ । गलिणिवणेहि सरेहि य सोहह सो सम्वदोमहो ॥ ५५ जवसालिधणपउरो तुवरीकप्पासगोहुमाइण्णो । वररायमासपउरो मरीचिवल्लीहि संछण्णो ॥ ५६ गंगाणदीहि रम्मो सिंधूसरिएहि भूसियपदेसों । छक्खंडणलिणविजओ वेदढणगेण भभिरामो ॥ ५७ तम्मि देसम्मि मज्झे विरया जामेण होइ वरणयरी । मणिरयणभवणणिवहा कंचणपायाररमणीया ॥ ५४ वेरुलियदारपउरा अगाहखाईहि परिउडा दिम्वा । जिणइंदभवणणिवहा उत्तुंगपडायसंछण्णा ॥ ५९ भवरेण तदो गंतु होइ गदी सोइवाहिणीणामा । वणवेदिरहि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिवा ॥ ६० मरगयकंचणविहमसोवाणगणेहि सोहिया दिव्वा । संखेंदुकुंदपंदुर तरंगभंगेहि रमणीया ॥" अट्ठावीसाहि तहा सहस्सगुणिदादि णदिहि संजुत्ता । देहलितलेण पविसइ सीतोदा तोरणवरस्स ॥ ६२ णेया विभंगसरिया सीदोदजलं भयंतगंभीरं । पविसइ वेगेण पुणो घणेसायरसइणिवहेण ॥ ६३ दिव्य, वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम सोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, आशीविष नामक देवसे सहित और ऐरावत हायीके कुम्भके सदृश शिखरसे संयुक्त है ॥ ५२-५४ ॥ उससे पश्चिम दिशामें जाकर नलिना नामक देश है। सर्वतः मंगलमय वह देश नलिनीवनों और सरोवरोंसे शोभायमान है ॥ ५५ ॥ छह खण्डोंसे युक्त यह नलिना देश जौ एवं शालि धान्यकी प्रचुरतासे सहित; तूबर, कपास व गेहूंसे भरपूर; उत्तम राजमाषकी प्रचुरतासे युक्त, मरीचि (मिर्च ) की वेलोंसे व्याप्त, गंगा नदी व सिन्धु नदीसे भूषित प्रदेशवाला और वैताब्य पर्वतसे सुशोभित है ॥५६-५७ ॥ उस देशके मध्यमें विरजा नामक उत्तम नगरी है। यह नगरी मणियों एवं रत्नोंके भवनसमूहसे सहित, सुवर्णमय प्राकारसे रमणीय, वैडूर्य मणिमय प्रचुर द्वारोंसे सहित; अगाध खातिकाओंसे वेष्टित, दिव्य, जिनेन्द्रोंके भवनसमूहसे संयुक्त और उन्नत पताकाओंसे व्याप्त है ॥ ५८-५९ ॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर स्रोतोबाहिनी नामकी नदी है । यह नदी वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तप तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, मरकत, सुवर्ण एवं विद्रुममय सोपान समूहोंसे शमित, दिव्य; शंख, चन्द्रमा एवं कुन्द पुष्पके समान धवल तरंगों-मंगोंसे रमणीय और अट्ठाईस हजार नदियोंसे संयुक्त होती हुई उत्तम तोरणद्वारके देहलितलसे सीतोदा नदीमें प्रवेश करती है ॥ ६०-६२॥ यह विभंगा नदी बादल अथवा समुद्र जैसे शब्द समूहके साथ वेगसे अनंतगंभीर ( अथाह ) सीतोदा नदीके जलमें प्रवेश करती है, ऐसा जानना चाहिये १ब परिणो. . उ जणवहो, श जणवेदो. ३ व गलिण.' ४ उ श बण्ण, व वल. ५व सरीचि. व सिंधूसरियहि भूसियापएसो, श सिंधूसरिएहि रम्मो प पदेसो. ७ श दार. ८ श णाम. (कप्रतिपाठोऽयम् , जब शणिवाणदीशि... उशवण. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०) जंबूदीवपण्णत्ती [९.६४अवरेण तदो गतुं कुमुदा णामेण जणवदो होइ । धणधण्णरयणणिवहो गयरायरमंडिभो पवरो ॥ ६४ कलमबहुपोसवल्लियहरिकेसरिरत्तै सालिछेत्तहो । रपणमहिससालिवतसालीहि संकण ॥ ६५ गंगासिंधूहि तहा वेदड्ढणगेण भूसिओ देसी । बहुगामणयरपट्टणमडंबखेडेहि रमणीओ ॥ ६६ विसयम्मि तम्मि मज्झे होइ भलोग ति गामदो गयरी । सनणजणेहिं भरिया कलगुणविण्णाणजुत्तेहि ॥ वरवज्जकणयमरगयणागापासादसंकुला रम्मा । वेरुलियवेदिणिवहा मरगयवरतोरणुतुंगा' ॥ ६८ ससिकंतरयणसिहरा जिणभवणविहूलिया परमरम्मा । पोखरणिवाविपउरा वणसंडविहूसिया दिग्या ॥ ६९ तत्तो भवरदिसाए सुहावहो णामदो णगो होइ । भट्ठसिहरसहिमो जिगभवणविहूसिमो दिब्यो ॥ ७० कमलाभवेदिणिव हो° फलिहामयतोरणहि करसाहो । कणिपारकेसरणिभो वणसंडेविहूसिमो दिवो ॥ ७॥ मणिमयपासादउँदो संगीप्रमुइंगस इगंभीरो । तण्णामदेवसहिओ सुरसुंदरिसंकुलो दिव्यो । ७२ भवरेण तदो गंतुं सरिदा गामेण जणवदो होह । बहुगामणवरपउरो रयणहीवेदि कयसाहो ॥ ७३ पट्टणमडंबपउरो" दोणामुहबहुविहेहि रमणीओ । संबाहणिवहसहिलो कम्मरणियहि रमणीभो ॥ ७४ ॥ ६३ ॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर कुमुदा नामका देश है। यह देश धन, धान्य एवं रत्नोंके समूइसे सहित, नगरों व आकरोंसे मण्डित, श्रेष्ठ; कलम धान, बहुपोष बल्लि, हरि केसरि व रक्तशालि धानके खेतोस व्याप्त, राजधान्य :श्यामा) महिष शालि व वसंत शालिसे ढका हुआ(:) गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैतान्य पर्वतसे भूषित और बहुत प्रामों, नगरों, पट्टनों, मटंबों एवं खेडोंसे रमणीय है ॥ ६४-६६ ॥ उस देशके मध्यमें अशोका नामकी नगरी है । यह नगरी, कला-गुण एवं विज्ञानसे युक्त सज्जन जनोंसे परिपूर्ण, उत्तम वज्र; सुवर्ण व मरकतमय नाना : प्रासादोंसे व्याप्त, रम्य, वैडूर्यमय वेदीसमूहसे युक्त, मरकतमय उत्तम उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, चन्द्रकान्त मणियोंके शिखरोंसे सहित ऐसे जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, दिव्य और वनखडोसे विभूषित है ॥६७-६९॥ उससे पश्चिम दिशामें सखावह नामका पर्वत है। यह दिव्य पर्वत चार शिखरोंसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, दिव्य, उत्तम पद्म जैसी प्रभावाली वेदिकाओंके समूहसे सहित, स्फटिकमणिमय तोरणोंसे शोभायमान, कनेरके परागके सदृश प्रभावाली, वनखण्डोंसे विभूषित, दिव्य, मणिमय प्रासादोंसे युक्त, संगीत व मृदंगके शब्दसे गम्भीर, उसके नामवाले (सुखावह) देवसे सहित और देवांगनाओंसे व्याप्त है ।। ७०-७२ ॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर सरिता नामक देश है। यह देश प्रचुर प्रामों व नगरोंसे युक्त, रत्नद्वीपोंसे शोभायमान, पट्टनों व मटंबोंकी प्रचुरतासे सहित, बहुत प्रकारके द्रोणमुखोंसे रमणीय, संबाहसमूहसे सहित और कर्बटसमुदायसे रमणीय है ।। ७३-७४ ।। उश कलव, कब कमल. २शहरिकसौरत. ३ उत्तो बत्तट्ठो, शत्तहो. ४ उ शरब्जण्ण, कब राजण्ण. ५उश णिवह. ब वरतोरणतुंगा ब सियरा. ८ब मुहावहा. ९श सुहावही मंदरगो. १० उ कमलाइविदिण्णिवहो, क कमलामवेदिणिवदो, ब कमलाइवेदिणिवहो, श कमलहविदिण्णिवहो. ११बबणमंड, ११ब पासाह. १३ब गामयरपउरो: श गामणयपउरो. १४ उश पवरो. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९. ८३] णवमो उद्देसो [१६१ णामेण विगयसोगा वरणारी होइ तस्स देसस्स । मणिरयणभवणणिवहा कंचणपासादरमणीया ॥ ७५ ससिकतवेदिणिवहाँ मरगयबरतोरणेहि रमणीया । धुम्वंतधयवडाया जिणभवणविहूसिया दिग्वा ॥ ७६ तत्तो भवरदिसाए कणयमया वेदिया समुहिट्ठा । बेकोससमुत्तुंगा पंचेव धणुस्सया विउला ॥ ७. तत्तो भवरदिसाए देवारण हवे समुद्दिढे । णाणादुमगणगहर्ण बहुभवणसमाउळ रम्म ॥ ७८ पणदालीस सहस्सा सोझा रासी भवट्ठिया होइ । मणवहिदा य सेसा सोहणरासी समुट्ठिा ॥ ७९ सत्तावीससहस्सा बेचेव सया य सत्तणउदा य । सोहम्मि य परिसुद्धं सेसं मटेहि पविहत्तं ॥ ८० जं लद्धं णायग्वा विजयाणं तह य होइ विक्खंभ । अवरस्त विदेहस्स य समासो होइ णिहिट्ठो ॥ ८१ तेयालीससहस्सा सोज्झम्मि य सोहिऊण अवसेसं । चउभजिएण य लई वक्खाराणं तु विक्खमं ॥२ चउदालीससहस्सा छमधेव सया तहेव' पणुवीसा । सोमम्मि सुद्धसेसं तिहि भजिए होइ सरियाणं ॥ ८३ उस देशको राजधानी विगत (वीत ) शोका नामकी उत्तम नगरी है । यह नगरी मणियों एवं रत्नोंके भवनसमूहसे सहित, सुवर्णमय प्रासादोंसे रमणीय, चन्द्रकान्त मणिमय वेदीसमूहसे युक्त, मरकतमय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, फहराती दुई बजा-पताकाओंसे संयुक्त, दिव्य और जिनमवनोंसे विभूषित है ।। ७५-७६ ॥ उससे पश्चिम दिशामें जाकर सुवर्णमय वेदिका कही गई है। यह वेदिका दो कोश ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तृत है ॥ ७७ ॥ उससे पश्चिम दिशामें नाना वृक्षोंसे गहन और बहुतसे भवनोंसे व्याप्त रमणीय देवारण्य कहा गया है ॥७८ ॥ पैंतालीस हजार शोध्य राशि अवस्थित है, शेष शोधन राशि है जो अनवस्थित कही गई है ॥ ७९ ॥ सत्ताईस हजार दो सौ सत्तानबै [ (५००x४) + (१२५४३) +२९२२+२२००० = २७२९७ ] को शोध्य राशिमेंसे कम करके शेषको आठसे विभक्त करनेपर जो लब्ध हो उतना ( १५०००-२७२९७ ८ = २२१२१ ) अपर विदेहके विजयोंका विष्कम्भ जानना चाहिये, ऐसा संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥ ८०-८१ ॥ शोध्य राशिमेंसे तेतालीस हजारको घटाकर शेषको चारसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना [१५००० -(१७७०३ + ३७५ + २९२२ + २२०००) ४ = ५००] वक्षारोंका विष्कम्भ होता है ॥ ८२ ।। चवालीस हजार छह सौ पच्चीसको शोध्य राशि से घटाकर शेषको तीनसे माजित करनेपर नदियोंके विष्कम्मका प्रमाण [ १५०००- (१७७०३ + २०००+२९२२ + २२०००) ३ = १२५] होता है ॥ ८३ ॥ न्यालीस हजार बवेदणिवहा. २उश अणवट्ठियाए सेसा. ३ उश सोहम्मि य परिसुदं, बसोमम्मि दु परिसिवं. ४ व होइ तह य विक्संभा. ५ ब हु. ६ उश होह ति णिहिटो. ७ व चहुमजिणेण य पेयं नक्साराणं. ८ व तह य. बं.बी. २.. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] जंबूदीवपण्णत्ती नादालीससहस्सा अट्टत्तरि सोहिऊण' सोज्झम्मि । जं सेसं तं होदि य देवारण्णस्स विक्वमं ॥ ८ दीवस्स दु विक्खंभे विक्खंभाविहीण मंदरगिरिस्त । सेसद्धकदे होदि य सोमा राखी वियाणाहि ॥ ८५ विक्खंभइछरहिदं विक्खंभवसेस मेलवेदूर्ण । जे लद्धं तं गेया सोहणरासी हवे विट्ठा ॥ ८६ सीदोदाविक्खंभ सोहेऊणं विदेहविक्खंभे । सेसद्धेण दुणेया मायाम होइ विजयानं ॥८७ सत्तो देववणादो गंतूर्ण उत्तरे दिसाभागे । अवरं देवारणं होह महादुमगणाहणं ॥ ८८ कप्पूरागहणिवह असोयपुण्णायणायतरुमहणं । कुखवयंबाइगं चंपयमंदारसंछण्णं ॥ ८९ सम्मि दु देवारण्णे देवाण हानि दिवणगराणि । कोडाकोसीमि तहा कंचगमणिरयणणिवहाणि ॥९. भवणाणि जिणिदाणतत्येव हवंति तुंगकूडाणि । वरइंदणीलमरगयकक्केयणरयणाणिवहाणि ॥९॥ पुग्वेण सदो गंतु कणयमया वेदिया समुदिट्टा । पंचसयदंडविउला उबिद्धा होह वे कोसा ॥ ९२ तत्तो पुम्वेण पुणो वप्पा विजमो ति गामदो देसो। होइ धणधण्णणिवहो बहुगामसमाउलो रम्मो ॥ ९१ अठत्तरको शोध्य राशि से घटाकर जो शेष रहे उतना [१५००० -(१७७०३ + २००० +३७५+ २२०००) = २९२२) देवारण्यका विष्कम्भ होता है ॥ ८१॥ द्वीपके विष्कम्भमेंसे मन्दर गिरिके विष्कम्भको घटाकर शेषको आधा करनेपर (२००० ००-१००..) शोध्य राशि होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८५ ॥ इच्छित विष्कम्भसे रहित शेष सबके विष्कम्मको मिलाकर जो लब्ध हो उतनी शोधन राशि निर्दिष्ट की गई जानना चाहिये ॥८६॥ विदेहके विष्कम्भमें से सातोदाके विष्कम्भको घटाकर शेषको आधा करनेसे विजयोंका आयाम होता है ( देखिये पीछे गा. ७, १२-१३)॥ ८७ ॥ उस देववनसे उत्तर दिशाभागमें जाकर महा वृक्षोंके समूहसे व्याप्त दूसरा देवारण्य है ॥ ८८ ॥ यह देवारण्य कपूर व अगर वृक्षोंक समूहसे सहित; अशोक, पुनाग व नाग तरुओंसे गहन; कुटज एवं कदंब वृक्षोसे व्याप्त तथा चंपक व मन्दार वृक्षों से घिरा हुआ है ॥ ८९ ॥ उस देवारण्यमें देवोंके सुवर्ण, मणियों एवं रलोंके समूहसे युक्त करोडों दिव्य नगर हैं ।। ९०॥ वहां उत्तम इन्द्रनील, मरकत एवं कर्केतन रत्नोंके समूहसे निर्मित, उन्नत शिखरोवाले जिनेन्द्रोंके भवन हैं ॥ ९१ ॥ उससे पूर्वमें जाकर सुवर्णमय वेदी कही गई है। यह वेदी पांच सौ धनुष विस्तृत और दो कोश ऊंची है ॥ ९२.॥ उससे पूर्वकी ओर वप्राविजय नामका देश है। यह दिव्य देश. धन-धान्यसमूहसे साहित, बहुत ग्रामोंसे व्याप्त, रम्य, प्रचुर पट्टनेंों व मटंबोंसे संयुक्त; द्रोणमुखों, १उश बयालीस. १७. शसोदिजण. ३१ समम्मि. ४ उशदोदि य. ५हु विमो विहाणविक्खम मंदर. ६ उश सेनस्सकदि. ७ उशब्देरहिदं. ८ उश विक्वंमो. ९ उश कंयवावणं, १.क दिव्वणगग्रणि कोगकोडीहि, व दिव्याणाराणि कोडाकोडीदि. ११ उश जिणंदाणं Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवमो उदेसो पट्टणमबपउरो दोणामुहखेडकपडसणाहो । बहुरयणदीवणित्रहो णयरायरमंडिभो दिग्बो ॥९४ रत्तारत्तोदामो दियाभो जस्थ होति दिवाभो । वरपव्वदो वि रम्मो वेदडो होह वरसिंहरी ॥१५ तित्थयरचक्कवहीवलदेवा वासुदेवमंडलिया । उप्पज्जति महप्पा वप्पाविजयम्मि' णायम्वा ॥ ९६ तस्स देसस्स गेया विजयपुरी णामदो त्ति विक्खाया। होइ मणिकणयणिवहा सुरिंदणयरीसमा दिग्बा ॥ ९. रविकंतवेदिणिवहा विमवरतुंगगोउरसणाहा । मणिरयणमवणणिवहा जिणईदघरेहि रमणीया ॥ ९८ पुग्वेण तदो गंत होइ पुणो चंदपव्वदो तुंगो । कोरंटकुसुमवण्णो णाणाविहरयणकिरणढो ॥ ९९ कणयमयवेदिणिवहो वेरुलियमहंतगोउरसणाहो । वणसंडमंडिमो सो मणिमयपासादसंगणो ॥१.. मनकरिकुंभसिहरो' चउकूडविसिओ परमरम्मो । चंदसुररायसहिमो जिणभवणविराजिमो दिश्वो ॥१०॥ पुग्वेण तदो र्गतुं होइ सुवप्पो त्ति जणवदो विउलो । बहुगामणयरणिवहो रयणदीवहि संछपणो ॥१.१ कब्बडमबणिवहो पणदाणामुहेहि घणणिचिमओ । संबाहखेडपउरो बहुविहणयरेहि संकण्णो ॥१.३ खयों व कर्बटोसे सनाथ, बहुतसे रत्नद्वीपोंके समूहसे युक्त, और नगरों व आकरोंसे मण्डित है ॥ ९३.९४ ॥ जहां रक्ता-रक्तोदा नामकी दिव्य नदियां तथा उत्तम शिखरवाला रमणीय वैतादय नामक श्रेष्ठ पर्वत भी है । उस वप्रा विजयमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव एवं मण्डलीक महापुरुष उत्पन्न होते रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ९५-९६ ॥ उस देशकी राजधानी विजयपुरी नामसे विख्यात नगरी जानना चाहिये । सुरेन्द्रनगरीके समान वह दिन्य नगरी मणियों एवं सुवर्णके समूहसे संयुक्त, सूर्यकान्त मणिमय वेदीसमूहसे सहित, विदुममय उत्तम ऊंचे गोपुरोंसे सनाथ, मणियों एवं रत्नेोके मवनसमूहसे युक्त और जिनेन्द्रगृहोंसे रमणीय है ।। ९७-९८ ।। उसके पूर्वमें जाकर चन्द्र नामका उन्नत वक्षार पर्वत है। यह पर्वत कोरंट वृक्षक फलोंके समान वर्णवाला, नाना प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त, सुवर्णमय वेदीसमूहसे सहित, वैडूर्यमणिमय महा गोपुरोंसे सनाथ, वनखण्डोंसे मण्डित, मणिमय प्रासादास व्याप्त, मत हापीके कुम्भस्थल जैसे शिखरवाला, चार टोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, चन्द्र नामक देवराजसे सहित, दिव्य और जिनभवनसे सुशोभित है ॥ ९९-१०१॥ उसके पूर्वमें जाकर सुवप्र नामक विशाल देश है । यह देश बहुत प्रामों व नगरोंके सम्हसे सहित, रत्नद्वीपोंसे व्याप्त, कर्बटों व मटबोके समूहसे संयुक्त, पट्टनों व द्रोणमुखोंसे अत्यन्त निबिड, संबाहों व खेड़ें के प्राचुर्यसे युक्त और बहुत प्रकारके नगरोंसे व्याप्त है ॥१०२-१०३ ॥ इस देशके उश विसयम्मि. २ बणामको ति वारणयरी. ३ उश रविकंतिवेदिणिवहा, र रविकतवेदविता . श रविकंतिवेदणिवहा. . उश बरेहि. ५ व गंतु होइ पुणो चंदप्पही तुंगो, शगंतुं गो. बसियरो. सुण्णति. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६) जंबूदीवपण्णत्ती [९.१०४ चोइसयसहस्सेहि य गर्दीहि सहिया महाणदी रत्ता' । रत्तोदा वि तह रिचय वहति देसस्स मजमेण ॥ १०४ दक्षिणमुहेण गंतुं वेदीणिवहेहि तोरणजुदेहि । सीदोदाए सलिलं पविसंति दु तोरणमुहेण ॥१.५ वेदो वि य सेलो मेरुं काऊण णाइ सुणिविट्ठो' (१)। देसस्स मज्झभागे रयनमो तिसेविसंजुत्तों ॥ १०६ णामेण वाजयती सुवप्पविजयस्स होइ वरणयरी । कंचणपायारजुदा मरगयवरतोरणसणाहा ॥ १०७ वरपरामरायमरगयकक्केयणइंदणीलधरणिवहा । वेरुलियवज्जकंचणजिणभवणविहूसिया दिग्वा ॥१०८ ['पुग्वेण तदो गतुं वरणइ गंभीरमालिणीणामा । होइ विहंगा णेया कंचणसोवाणरमणीया ॥ १०९ मरगयवेदीणिवहा कक्केयणतोरणेहि संछण्णा । णाणातरुवरगहणा वणसंडविहूसिया दिग्धा ॥१.] भट्ठावीसाहिं वहा सहस्सणइयाहि संजुया सरिया । दक्षिणमुहेण गंतुं सीदोदजलं समाविसह ॥" पुम्वेण तदो गंतुं दोइ महावप्पणामलो देसो । [बहुवप्पसालिणिवहो जवगोहुममासैसंछण्णो ॥ १११ रयणायरेहे रम्मो मदंबणिवहेहि मंडिमो दिग्यो ।] बहुपट्टणेहि पुण्णो कब्बडखेडेहि रमणीओ ॥११३ मध्यमें चौदह हजार नदियं से सहित महानदी रक्ता तथा उतनी ही नदियोंसे संयुक्त रक्तोदा मी, ये दो नदियां बहती ॥ १०४ ॥ उक्त दोनों नदियां तोरण युक्त वेदीसमूहसे सहित होकर दक्षिणकी ओर जाती हुई तोरणद्वारसे सीतोदाके जलमें प्रवेश करती हैं ॥१०५॥ दशके मध्य भागमें तीन श्रेणियोंसे संयुक्त रजतमय वैताढ्य पर्वत भी स्थित है जो मेरु जैसा प्रतीत होता है ॥१०६॥ सुवप्रा विजय : राजधानी वैजयन्ती नामक नगो है। यह दिव्य नगरी सुवागमय प्राकारसे युक्त, मरकतमय उत्तम तोरणोंसे सनाप; उत्तम पद्मराग, मरकत, कर्केतन व इन्द्रनील मणियों से निर्मित ऐसे गृहसमूहसे सहित और वैडूर्य, वज्र एवं सुवर्णमय जिनभवनोंसे विभूषित है ॥ १०७-१०८ ॥ उसके पूर्वमें जाकर गम्भीरमालिनी नामकी उत्तम विभंगा नदी है । यह नदी सुवर्णमय सापानोंसे रमणीय, मरकतमय वेदीसमूह से संयुक्त, कतन रत्नोंसे निर्मित तोरणोंसे व्याप्त, अनेक उत्तम वृक्षोंसे गहन, वनखण्डोंसे विभूषित, दिव्य और अट्ठाईस हजार नदियोंसे संयुक्त होती हुई दक्षिणका और जाकर सीतोदाके जलमें प्रवेश करती है ॥१०९-१११ ।। उसके पूर्वमें जाकर महावप्रा नामका देश है । यह देश बहुतसे खेती व शालिसमूहसे सहित; जौ, गेहूं व उड़दसे व्याप्त, रत्नाकरोंसे रम०:य, मटंबोंके समूहसे मण्डित, दिव्य, बहुत पट्टनोंसे पूर्ण, कर्बटों व खेड़ोंसे रमणीय, धान्यसे परिपूर्ण प्रामोंके समूइसे संयुक्त, १ उ चोदससयसहसेहि, ब चउदसमयस्सेहि, श चोइससयसहेहि. २ २ नाहि संण्णो रत्ता. ।ब तहं विय. ४ उ श गाइसुणिविदिट्ठो, व गाइसुणिविट्ठो. ५ रयणमओ सोटिसंजुत्तो. ६ बप्रतौ नोपलभ्यतेऽयं कोष्ठकस्थः पाठः। उ सहस्साणच्याहि, श सहस्साइयादि. ८श दक्षिणमुहेण गंतु होइ महावप्पणामओ देसी वसइ. ९ व वण. .• बप्रतौ नोपलभ्यतेऽयं कोष्ठकस्थः पाठः। ११ उ श गेहूवमास. १२ व वउवप्पट्टणेहि. १३ उश पुणो कव्वंडोनाहि, ब पुणो कव्वरसेडेहि. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९.११४] णवमो उद्देसो धण्णड्ढगामणिवहो णणादोणामुहेहि कयसोहो । वरदीवणयरपउरो संबाहविहूसिमो रम्मो' ॥ ११४ वेदड्ढपत्रएण' य रत्तारत्तोदएहि कर्यसोहो । पोक्खरणिवाविपउरो वणसंडविहूसिमो दिध्वो ॥ १५ देसस्स तस्स या होइ जयंत त्ति' णाममो यरी । वेरुलियकणयमरगयरयणप्पासायसंछण्णा ॥११॥ घरपउमरायपायारंपरिउडा खाइएहि संजुत्ता । जासवणकुसुमसपिणभमाणितोरणभासुरा रामा ॥ ११७ सिसिरयरहारसणिमजिगिंदभवणेहि सोहिया दिव्वा । वरपंचवण्णणिम्मलपडायणिवहेहि सोहंता ॥196 पुन्वेण तदो गंतुं होई पुणो सूरपम्वदो रम्मो। णवचंपयवरवण्णो' जिणभवणविहूसिमओ तुंगो ॥१९ कणयमयवेदिणिवहीं मरगयमणितोरणेहि कयसोहो । अद्धट्टकूडसहिमो बहुभवणविहूसिमो दिवो ॥१२० भाइच्चदेवसहिलो वणसंबविहूसिमो मणमिरामो । सुरसुंदरिसंछण्णो पउमिणिसंडेहि रमणीमो ॥१२॥ पुग्वेण तदो गर्नु होइ तहा वप्पकावदी विजभो । धणधण्णरयणणिवहो गोमहिसीसमाउलो दिवो ॥ १२२ बहुकब्बडेहि रम्मो पट्टणणिवहेहि मंडिभो दिव्यो । रयणायरेहि" पुण्णो मबखेडाहि रमणीओ ॥ १२३ दोणामुहेहि छण्णो णाणागामेहि तह य कयसोहो । संवाहणयरपउरो वरदविविहूसिओ रम्मो ॥ १२४ नाना द्रोणमुखोंसे शोभायमान, उत्तम द्वीपों व नगरोंके प्राचुर्यसे सहित, संबाहोंसे विभूषित, रम्य, वैताढ्य पर्वत व रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे शोभायमान, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे युक्त, दिव्य और वनखण्डोंसे विभूषित है ॥ ११२-११५ ॥ उस देशकी राजधानी जयन्ता नामकी नगरी जानना चाहिये । यह नगरी वैडूर्यमणि, सुवर्ण व मरकत रत्नोंके प्रासादोंसे व्याप्त: उत्तम पद्मराग मणिमय प्राकारसे वेष्टित, खातिकाओंसे संयुक्त, जपाकुसुमके सदृश मणिमय तोरणोंसे भासुर, रम्य, चन्द्र व हारके सदृश वर्णवाले जिनेन्द्रभवनोंसे शोभित, दिव्य, और उत्तम पांच वर्णवाली निर्मल पताकाओंके समूहोंसे शोभायमान है ॥ ११६-११८॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर रम्य सूर पर्वत है । यह पर्वत उत्तम नवीन चम्पकके समान वर्णवाला, जिनमवनसे विभूषित, उन्नत, सुवर्णमय वेदिसम्हसे युक्त, मरकतमणिके तोरणोंसे शोभायमान, आठके आधे अर्थात् चार टोसे सहित, बहुत भवनोंसे विभूषित, दिव्य, आदित्य नामक देवसे सहित, वनखण्डोंसे विभूषित, मनको अभिराम, देवांगनाओंसे व्याप्त और पद्मिनीखण्डोंसे रमणीय है ॥ ११९-१२१ ॥ उसके पूर्वमें जाकर वप्रकावती नामका देश है । यह देश धनधान्य व रत्नसमूहसे सहित, गायों व भैसोंसे भरपूर, दिव्य, बहुत कर्बटोंसे रमणीय, पट्टनसमूहोंसे मण्डित, दिव्य, रत्नाकरोंसे पूर्ण, मटंबों व खेड़ोंसे रमणीय, द्रोणमुखोंसे आच्छन्न, नाना ग्रामोंसे शोभायमान, प्रचुर संबाहों व नगरोंसे सहित, रम्य और उत्तम द्वीपोंसे विभूषित है १ उश विहसिओ परम्मो, ब विभूसिउरम्मेण. २ उ श पुव्वएण. ३ उ श वय. ४ क जयंति ति. ५ उश पायर. बसिसिरयणहार. ७ उ श सोहंतं. “श वणवण्णो. ९ उश पवहो. १० उश बहुक्कवडेहि. बबहुकुम्वहि. ११ब रययणायरेहि. १२ब देव, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] जबूदीवपण्णत्ती [९. १२५ देसस्स तस्स या होदि य भवराजिद त्ति वरणयरी । कंचणपायारजुदा मणितोरणभासुरा दिवा ॥ १२५ वेरुलियवज्जमरगयपवालवरकणयभवणसंछण्णा । जिणइंदभवणणिवहा सुगंधगंधुद्धदा' रम्मा ॥ १२६ पुग्वेण तदो गंतुं होह गदी फेणमालिणीणामा' । मरगयकंधणविहमसोवाणगणेहि सोहंती ॥ १२७ कंचणवेदीहि जुदा ससिकंवमणीहि तोरणुत्तुंगा । वियरंतमच्छकच्छवसुगंधजलरिया दिग्बा ॥ १२८ भट्ठावीसाहि तहा सहस्सणदियाहि संजुदा रम्मा । दक्षिणमुहेण गंतुं पवहइ सीदोदमझेण ॥ १२९ पुग्वेण तदो गंतुं वग्गू णामेण जणवदो होइ । बहुगामसमाइण्णो णाणाविहधष्णसंपण्णो ॥ १. दिश्वसंवाणिवहो दिवमर्डबेहि भूसिमो रम्मो । दिवणयरेहि पुण्णो दिग्वायरमंडिओ पवरो ॥३॥ दिव्वखेडेहि जुत्तो दिव्वमहापट्टणेहि रमणीभो । दिवबहुकब्बडजुदो दिव्यो वरदोणमुईसहिलो ॥ ११२ वेदइदरिसमपम्वदरत्तारत्तोदएहि रमणीभो । पोक्खरणिवाविपउरो वणसंडविहसिमो दिवो ॥ ३॥ देसस्स तस्स गेया धक्कपुरी णामदो त्ति वरणपरी । वरचक्कवट्टिसहिया णरपवरा सम्वकालम्मि ॥ १३४ ॥ १२२-१२४ ॥ उस देशकी राजधानी अपराजिता नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये । यह नगरी सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, मणिमय तोरणोंसे भासुर, दिव्य; वैडूर्य, वज्र, मरकत, प्रपाल और उत्तम सुवर्णके मवनोंसे घिरी हुई, जिनेन्द्रभवनोंके समूहसे सहित, रम्य तथा सुगन्ध गन्धसे युक्त है ॥ १२५-१२६ ॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर फेनमालिनी नामकी रमणीय नदी है। यह नदी मरकत, सुवर्ण एवं विद्रुममय सोपानगणोंसे शोभित; सुवर्णमय वेदियोंसे युक्त, चन्द्रकान्त मणिमय उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, विचरते हुए मत्स्यों व कछवाओंसे सहित, सुगन्धित जलसे परिपूर्ण, दिव्य तथा अट्ठाईस हजार नदियों से संयुक्त होती हुई दक्षिणकी ओर जाकर सीतोदाके मध्यसे. बहती है ।। १२७-१२९॥ उससे पूर्व की ओर जाकर वल्गू नामक देश है। यह देश बहुत प्रामोंसे व्याप्त, नाना प्रकारके धान्यसे सम्पन्न, दिव्य संबाहसमूहसे सहित, दिव्य मटंबोंसे भूषित, रम्य, दिव्य नगरोंसे पूर्ण, दिव्य आकरोंसे मण्डित, श्रेष्ठ, दिव्य खेड़ोंसे युक्त, दिव्य महा पट्टनोंसे रमणीय, बहुतसे दिव्य कर्बटोंसे युक्त, दिव्य, उत्तम द्रोणमुखोंसे सहित, वैताढ्य व ऋषभ पर्वतों तथा रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे रमणीय, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, दिव्य और वनखण्डोंसे विभूषित है ॥ १३०-१३३ ।। उस देशकी राजधानी चक्रपुरी नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये, जहां श्रेष्ठ चक्रवर्ती सहित उत्तम मनुष्य सब कालमें १ब अवराजिदो सि. २ब संगंधुगंधधुधा. ३ उशणाम. ४ ब संहति, क मोहंति. ५ उश कति. बरदससिकंतमणीहि तोरणतुंगा. ७बप्रतावेतस्या गाथाया उत्तरार्धमागोऽयं नोपलभ्यते. तत्रैतस्य स्थाने तमगामाया उत्तरार्धमाग उपलभ्यते. ८ उ समावण्णो, श समाउवणो. ९ ब संवाइदिव्व, १.4 पुणो. ११उ दिवखेति हत्तो, ब दिग्ववेत्तेहि जुदो, शदिग्वजेनेहि जुत्तो. १२ उश विष्वरदोणमुह, ब दिख्वावरदोममुह. १३श चक्कपुरा. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९.१४४ णवमो उद्देसो [१६. बेरुलियवेदिणिवहा कंचणवरतोरणेहि रमणीया । वाजिदणीलमरगयविदुमपासादसंछण्णा ॥ १३५ भिंगारकलसदप्पणचामरघंटादिधयवडाजुत्ता । मुत्तादामसमग्गा जिणभवणविहसिया दिम्वा ॥ १३६ . पुग्वेण तदो गर्नु होइ महाणागपव्वदो तुंगो । णागवरकुंभैसरिसो चउसिहरविहसिमो दिम्वो ॥ १३. वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिओ मणभिरामो । गागसुररायसहिओ जिणभवणविहूसिमो विउलो ॥ १३० पुग्वेण वदो गर्नु होइ सुवग्गु त्ति जणवदो रम्मो । भमरकुमारसमाणा गरपवरा जस्थ दासंति ॥ १३९ चारुखेरेदि जुत्तो चारुमहापडणेहि रमणीयो । चारुवरकब्बडेजुदो चार पुणो दोणमुहसहिभो ॥ १४० चारसंवाहणिवहाँ चारुमडबेहि भूसिमो रम्मो। चारुणयरेहि जुत्तो चारुमहागामसंछण्णो ॥" रसाणदिसंजुत्तो वेदवणगेण मंडिओ पवरो । रत्तोदाएण जुदो रिसिभैगिरिविहूसिमो दिवो ॥ १४२ देसस्स तस्स णेया खगपुरी णामदो त्ति वरणयरी। मरगयपासादजुदा पवालवरतोरणारम्मा ॥ १४५ वरवज्जरजदमरगयकंचणपासादसंकुला रम्मा। घंटापडायणिवहा वरभवणविहूसिया दिवा ॥ १४४ .................... रहते हैं । उक्त दिव्य नगरी वैडूर्य मणिमय वेदिसमूहसे युक्त, सुवर्णमय उत्तग तोरणोंसे रमणीय; वन, इन्द्रनील, मरकत एवं विदुमसे निर्मित प्रासादोंसे व्याप्त; भुंगार, कलश, दर्पण, चामर, घंटा आदिक तथा ध्वजपटोंसे युक्त, मुक्तामालाओंसे परिपूर्ण और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥१३४-१३६॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर उन्नत महानाग नामक पर्वत है। यह विशाल पर्वत उत्तम हापीके कुम्भके सदृश, चार शिखरोंसे विभूषित, दिव्य, चन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, नाग नामक देवराजसे सहित और जिनभवनसे विभूषित है ॥१३७-१३८ ।। उससे पूर्वमें जाकर मुवल्गू नामक रमणीय देश है, जहाँके श्रेष्ठ मनुष्य देवकुमारोंके सदृश दिखते हैं ॥१३९॥ यह दिव्य देश सुन्दर खेडोंसे युक्त, सुन्दर महा पटनोंसे रमणीय, सुन्दर उत्तम कर्बटोंसे युक्त, सुन्दर द्रोणमुखोंसे सहित, सुन्दर संबाहसमूहसे संयुक्त, सुन्दर मटंबोंसे भूषित, रम्य, सुन्दर नगरोंसे युक्त, सुन्दर महामामोंसे व्याप्त, रक्ता नदीसे युक्त, वैताट्य पर्वतसे मण्डित, श्रेष्ठ, रक्तोदासे युक्त और ऋषभ गिरिसे विभूषित है ॥१९०-१४२॥ उस देशकी राजधानी खड्गपुरी नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये। यह नगरी मरकत मणिमय प्रासादोंसे युक्त, प्रवालमय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, उत्तम वज्र, रजत, मरकत एवं सुवर्णके प्रासादोसे व्याप्त, रमणीय, घंटा व पताकासमूहसे संयुक्त, दिव्य व उत्तम मवनोंसे विभूषित है ॥ १४३-१४४॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर ऊर्मिमालिनी नामकी नदी उ विपासाद, श विददमुपासाद. २ ब धयवडाजुत्ता दाम. ३ उ श णावरकंम, ब गागावरकसम. ४ उ चातुनेगरिब चारसखेहि, श चतुखेगहि. ५ उ श फव्वड. ६ ब संवाहचाणिवहो. ७ उ शििसम, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] जंबूदीवपण्णत्ती [ ९. १४५ पुग्वेण तदो गंतुं होह गदी उम्मिमालिणी णाम | विदिया विभंगैसरिया दो णामा होति सम्वाणं ॥ १४५ वेरुलियवेदिणिवहा विद्दमवरतारणेहि संजुत्ता । मणिमयसोवाणजुदा सुगंधसलिलेहि संपुण्णा ॥ १४६ वणसंडेहि य सहिया भट्ठावीसासहस्सणइजुत्ता। दक्षिणमुद्देण गंतुं सीदोदजलं विसह सरिया ॥ ११७ वरतोरणदाराणं देहलियाणं तलेण पविसंति। सम्वाओ सरियामो गायब्वा होवि णिदिवा ॥११८ पुग्वेण तदो गंतुं गंधिलणामो त्ति जणवदो होइ । वरगंधसलिलपटरों" जवगोहुममुग्गसंपण्णो ॥ १४९ वरगामणयरपट्टणमडंबदोणामुहि संच्छण्णो । संबाहखेडकब्बडरयणायरमंडिनो दिम्वो ॥ १५० रिसमगिरिरुप्पपवदरत्तारत्तोदएहि रमणीमो । कमलुप्पलछण्णेहि य वावीदीहीहि कयसोहो ॥ १५॥ देसस्स तस्स दिट्ठा होदि यज्म ति णामदो णयरी | अज्जुणपायारजुदा पवालमणितोरणदुवारा ॥ ९५२ ससिसूरकतमरगयपवालवरपउमरायघरणिवहा । फलिहमणिकणयविदुमजिणभवणविहूसिया दिवा ॥ १५३ पुष्वेण वदो गंतु णामेण य देवपव्वदो होइ । ससिकतवेदिणिवही पवालवरतोरणुत्तुंगो ॥ १५॥ मत्तकरिकुंभसरिसो चउसिहरविहूसिमो मणभिरामो। तुंगजिणभवणणिवही बहुभवणसमाउलो रम्मो ॥ १५५ है । इसका दूसरा नाम विभंगा सरित् है । इन सब नदियोंके दो नाम होते हैं॥११५॥ उक्त नदी वैडूर्य मणिमय वेदीसमूहसे सहित, विद्रुममय उत्तम तोरणोंसे संयुक्त, मणिमय सोपानोंसे युक्त, सुगन्ध जलसे सम्पूर्ण, वनखण्डोंसे सहित और अट्ठाईस हजार नदियोंसे युक्त होती हुई दक्षिणकी ओर जाकर सीतादाके जलमें प्रवेश करती हैं ॥ १४६-१४७ ॥ सब नदियां उत्तम तोरणद्वारोंकी देहलियोंके तलसे प्रवेश करती हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥ १८ ॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर गन्धिला नामक देश है । यह देश उत्तम गन्धयुक्त प्रचुर जलसे परिपूर्ण; जौ, गेहूं एवं मूंगसे सम्पूर्ण; उत्तम प्रामों, नगरों, पट्टनों, मटंबों व द्रोणमुखोंसे व्याप्त; संबाहों, खेडों, कर्बटों एवं रत्नाकरोंसे मण्डित; दिव्य, ऋषमगिरि व रूपाचल पर्वतों एवं रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे रमणीय, तथा कमलों व उत्पलोंसे व्याप्त ऐसी वापियों एवं दीर्घिकाओंसे शोभायमान है ॥ १४९-१५१ ।। उस देशकी राजधानी अयोध्या नामक नगरी निर्दिष्ट की गई है। यह दिव्य नगरी रजतमय प्राकारसे युक्त, प्रवाल मणिमय तोरणद्वारोंते सहित; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, मरकत प्रवाल एवं उत्तम पद्मराग मणियोंके गृहसमूहसे सहित तथा स्फटिक मणि, सुवर्ण एवं विद्रुममय जिनमवसे विभूषित है ॥१५२-१५३॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर देव (देवमाल) नामका पर्वत है। यह पर्वत चन्द्रकान्त मणिमय वेदीसमूहसे सहित, प्रवालमय उत्तम उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, मत्त हाथीके कुम्भके सदृश, चार शिखरोंसे विभूषित, मनको अमिराम, उनत जिनभवनोंके समूहसे सहित, बहुत भवनोंसे व्याप्त, रम्य, नाना वृक्षसमूहोंसे गहन, बहुत गाथेयं नोपलभ्यते बप्रतौ। २ उ श विमंग. ३ ब जुदा. ४ उ श पविसइ. ५ ब पविसंता. ब णायव्वो. ७ ब वरगंधसलिलपउरो, श वरगंधसाधिपवरो. ८ उश संपण्णा. १ ब सोहि. १० बणामेण य एव्वदो. "ब तोरणातुंगो. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९.१६६ } णवमो उद्देसो जाणादुमगणगहणो बहुदेवसमाउलो' परमरम्मी । तण्णामदेवसहियो दीहीपोक्वरणिरमणीभो ॥१५॥ पुग्वेण तवी गंतुं होह पुणो गंधमालिणी विजमो । वरगंधसालिपउरो पुडवणेहि संकणो ॥ १५. पुण्णउदिगामकोरीहि मंरिमो विविधण्णणिवहेहि । छब्वीससहस्सेहि प ागरणिवहेहि संघणो ॥ १५. घडवीससहस्सेहि य कम्बडणिवहेहि मंडिमो दिग्यो । भडदालसहस्सेहि प पट्टणपवरेहि कपसोहो । १५९ दोणामुहेखि प तहा णवणडदिसहस्सएहि संजुत्तो । चत्तारिसहस्सेहि य मरंवणिवहेहि रमणीयो ॥१९. चोइसपसहस्सेहि संवाहवरेहि भूसियो देसो । दुगुणटुसहस्सेहि य खेडाहि य मंरिमो पवरो ॥" पप्पण्णरयणदीवेहि मंरिमो विविहरयणणिवहेहिं । मागधवरवणुएहि प पभासदीवेण रमणीमो ॥१९॥ रत्ताणदीए जुत्तो रत्तोदाएण' तह प रमणीमो । गोवह गिरिणा सहिलो विज्जाहरसेलसंजुत्तो ॥१॥ देसम्मि सम्मि मोहोड भवम् ति णामदो गयरी । कंचणपवालमरगयकक्केयणरयणघरणिवहा ॥ बारहसहस्सरत्येहि मंडिया विविहरयणणिवहेहि । चच्चरचडक्कएहि सहस्ससखेहि रमणीया ॥ १६५ गोउरवारसहस्सा कंचणमणिरयणमंडिया दिग्या । तोरणदारा गेया पंचेव सया दुणयरीए ॥१६॥ देवोंसे व्याप्त, अतिशय रमणीय, उसके ( अपने ) नामवाले देवसे सहित और दीर्षिकाओं एवं पुष्करिणियोंसे रमणीय है ॥ १५४-१५६ ।। उससे पूर्वकी ओर जाकर गन्धमालिनी देश है। यह देश उत्तम गन्धवाली प्रचुर शालि धान्यसे संयुक्त, पाड़ा व ईखके वनेंसे व्याप्त, अनेक प्रकारके धान्यके समूहोंसे संयुक्त ऐसे छयानबै करोड़ प्रामोंसे मण्डित, छब्बीस हजार आकरोंके समूहोंसे व्याप्त, चौबीस हजार कर्बटसमूहोंसे मण्डित, दिव्य, अड़तालीस हजार श्रेष्ठ पट्टनोंसे शोभायमान, निन्यानबै हजार द्रोणमुखोंसे संयुक्त, चार हजार मटंबोंके समूहोंसे रमणीय, चौदह हजार उत्तम संवाहोंसे भूषित, द्वगुणित आठ हजार (१६०००) खेडोसे मण्डित, श्रेष्ठ, विविध प्रकारके रत्नसमूहोंसे युक्त ऐसे छप्पन रत्नद्वीपोंसे मण्डित; मागध, वरतनु एवं प्रभास द्वीपोंसे रमणीय; रक्का नदीसे युक्त, तथा रक्तोदा नदीसे रमणीय, वृषभगिरिसे सहित, और विद्याधरशैल (विजया पर्वत ) से संयुक्त है ॥१५७-१६३ ॥ उस देशके मध्यमें अवघ्या नामकी नगरी है । यह दिव्य नगरी सुवर्ण, प्रवाल, मरकत एवं कर्केतन रस्नोंक गृहसमूहसे युक्त; विविध प्रकारके रत्नसमूहोंसे संयुक्त ऐसे बारह हजार रथमागोंसे मण्डित, एक हजार चत्वरी- चतुष्पोंसे रमणीय, एक हजार गोपुरद्वारोंसे सहित, तथा सुवर्ण मणि एवं रत्नोंसे मण्डित है । उस नगरीमें पांच सौ तोरणद्वार जानना चाहिये । सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, १ बहुमवणसमाउलो. २ उ वोहि, श वरोहि. ३ उश पट्टणणिवहेहि. ४ उ श बीवोहि..५५ रखोदाएहि. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.] जंबूदीवपण्णत्ती [९. ११७ कंधणपायारजुदा अगाहखाईहि परिउड़ा' रम्मा । पोक्खरणिवाविपउरा उजाणवणेहि रमणीया ॥ १७ धुम्चतधयेवढाया जिणभवणविहसिया परमरम्मा । णाणाजणसंकिण्णा सुरिंदणगरी व रमणीया ॥ १६८ तित्थयरपरमदेवा गणहरदेवा य चक्कवट्टीया। बलदेववासुदेवा गरपवरा जस्थ' जाति ॥ १६९ भरतपरमदेवेहि भासिनो धम्मदीवपज्जलिया। धम्माणुभासरहिया मिश्छत्तकुलिंगपरिहीणा ॥ १७. बम्हाविण्हुमहसरदुग्गामाइग्चचंदबुद्धाण । भवणाणि स्थि तरिम दु विदेहवस्सम्मि गायब्वा ॥७॥ गइयाइयवइसेंसियमीमासंखकपिलममेदा । सुखोदणादिवरिसणं कदाचिज वि होति विजएसु ॥ १७२ पुम्वेण तदी गंतु कणयमया वेदिया पुणौ होइ । जोयणभत्तुंगा पंचेव धणुस्सया विउला ॥ १७५ पुग्वेण तदी गर्नु पंचसया जोयणाणि वेदीदी । णीलसमीवे होइ यं कणयमो दिग्ववर सैलो ॥१७॥ बावीससहस्साई गंतूण य भइसालवणमझे । वरगंधमादणणगो मेरुसमीवे समुहिटी ॥ १७५ पत्तारिकूडसहिमो जिणभवणविहूसिमो परमरम्मो । वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो दिवो ॥ १७६ बहुभवणसंपरिउडो तण्णामादेवरायसाहीणो । अमरविलासिणिपउरो गयकुंभसमो समुत्तुंगो ॥ १७७ .................. अगाध खातिकासे वेष्टित, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, उद्यान-वनोंसे रमणीय, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय और नाना जनौसे संकीर्ण वह नगरी सुरेन्द्रनगरीके समान रमणीय है, जहा तीर्थकर परमदेव, गणदेव, चक्रवती, बलदेव एवं वासुदेव रूप पुरुष-पुंगव जन्म लेते हैं। तथा वह नगरी अरहंत परमदेवोंसे उपदिष्ट धर्म-प्रदीपसे प्रकाशित, धर्माभासोंसे रहित और मिथ्यात्व व कुलिंगसे हीम है ॥ १६४-१७० ॥ उस विदेह वर्षमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य, चन्द्र और बुद्धदेवके भवन नहीं हैं। ऐसा जानना चाहिये ॥ १७१ ॥ उन विजयोंमें नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य-कपिल, ये मतभेद तथा शुद्धोदन (बुद्ध) आदिके दर्शन कदाचित् भी नहीं होते ॥.१७२ ॥ उससे आगे पूर्वकी ओर जाकर सुवर्णमय वेदिका है, जो अर्ध योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तृत है ॥१७३॥ उस वेदीसे आगे पांच सौ योजन पूर्वकी ओर जाकर नील पर्वतके समीपमें सुवर्णमय दिव्य उत्तम पर्वत स्थित है ॥ १७४ ॥ भद्रशाल वनके मध्यमें बाईस हजार योजन जाकर मेरुके समीप स्थित उत्तम गन्धमादन पर्वत कहा गया है ॥१७५॥ -यह उनत पर्वत चार टोंसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, अतिशय रमणीय, वन-वेदियोसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, बहुत भवनोंसे वेष्टित, उसीके नामवाले देवराजके स्वाधीन, प्रचुर देवांगनाओंसे सहित और हापौके कुम्भके सदृश है ॥ १७६-१७७॥ उखाइपरिउडा, श खाईपरिउडा. २ब देवाण चक्कवट्टी य. ३उश जित्थ. ४ उ मीसंमा, श मीसंसा. ५उबश मह. ६ उ सुद्धोदणाहिदरिसण, श सुद्धोदणाहिदरिसयण, ७ कदावि उणीलसमीव रोदि य कमेणमठ दिष्ववरसेलो, श पीलसमीव होदि द य कमेणमउ दिव्यवसेलो. ९ उश सहस्सायं. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.१८८ पावो उसो [१५१ पुम्वेण तदो गंतु वेवण्णसहस्सजोयणपमाणो । वेरुलियरयणवण्णो द्रोह णगो माक्रवतो सि ३५ भट्टदसिहरसहिमो बहुभवणसमाउलो परमरम्मो। तण्णामदेवसहियो निणभवणविहूलिमो विम्यो॥ मरगयपासादडदो विहमवरतोरणेहि रमणीमो । बहुदेवदेविणिवहो गईदसंठाणरमणीको ॥ १८. सुरणगरसंपरिजडो वावीपोक्खरणिवपिणसणाहो । वणसंडमणभिरामो धयवधुवंतकयसोहो ॥१८ पुग्वेण तदो गंतुं पंचसया जोयणाणि सेलादो' । कणयमया वरवेदी होइ पुणो पीलपासम्मि ॥१८१ तत्तो दुपग्वदादो गंतूणं भहसालवणमझे। बावीसं च सहस्सा सीदापासम्मि सा वेदी॥१॥ बेगाउदांगा सगउण्णयभट्ठभागविस्थिण्णा । णाणामणिगणणिवहा सुरभवणसमाउला स्म्मा ॥१८४ याणदीण तीरे विसदिवक्खारपन्यदाणं तु । भवणाणि जिगिंदाणं णिहिट्ठा सम्बदुरितीहि ॥ १८५ पासादा णायब्वा पशुवीला जोयणा दु विस्थारा । पण्णासा मायामा किंचूणडतीसउत्तुंगा ॥ 160 विष्णेष वरद्वारा मणितोरणमंडिया मणमिरामा । वणवेदिएहि जुत्ता णाणामणिरमणपरिणामा ॥ १.. घंटापडायपरा मुत्तादामेहि मंडिया दिग्वा । भिंगारकलसणिवहा वरदप्पणभूसिया पवरा ॥ १८८ इससे पारो पूर्वकी ओर तिरेपन इजार योजन प्रमाण जाकर वैर्य रनके समान वर्णवाला मालवन्त नामक पर्वत है। यह पर्वत चार शिखरोंसे सहित, बहुत भवनोंसे युक्त, अतिशय रमणीय, उसके ही नामवाले देवसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, दिव्य, मरकतमय प्रासादो. से युक्त, विद्रुममय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, बहुत देव-देवियों के समूह युक्त, गजेन्द्राकृतिसे रमणीय, देवनगरोंसे वेष्टित, वापियों, पुष्करिगियों व खेतोंसे सनाथ, बनखण्डोंसे मनोहर और फहराते हुए ध्वजपटोसे शोभायमान है ॥१७८-१८१॥ पुनः उस पर्वतसे पूर्वको मोर पांच सौ योजन जाकर नील पर्वतके पासमें सुवर्णमय उत्तम वेदी स्थित है ॥ १८२ ॥ मह वेदी उस पर्वतसे आगे भद्रशाल बनके मध्य में बाईस हजार योजन जाकर सीताके प्रासमें स्थित है ।। १८३ ॥ यह रमणीय वेदी दो कोश ऊंची, उंचाईके आठवें भारा (५:०० धनुष) प्रमाण विस्तीर्ण, नाना मणिगणोंके समूहसे युक्त और देवभवनोंसे व्याप्त है ॥१८॥ मादियों के किनारे बीस वक्षार पर्वतोंके ऊपर सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट जिनेन्द्रोंके भवन जाता अहिले ॥ १८ ॥ वे प्रासाद पच्चीस योजन विस्तृत, पचास योजन आयत और कुछ कम अड़तीस योजन ऊंचे जानना चाहिये ॥ १८६॥ तीन उत्तम द्वारों से युक्त, मतितारमोंसे मण्डित, मनको अभिराम, वन-वेदियोंसे युक्त, नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप, प्रचुर घंटाओं व पताकाओंसे सहित, मुक्तामालाओंसे मण्डित, दिव्य, भंगारों व कलशोंके समूहसे सहित, इश बेकलिय. २ उ श बहुगामसमाउलो. ३ उ श पायर, व पायार. ४ उ श पंचसयजोय. बाद सेछादी. ५ उ शमसालमण, ब मसालवणमअक्षण. ६ उसगउन्नया, कब सगउण्णय. सन्नउन्नया. ७ उ किसूण उतीसगुंगा, बचूिणं अस्तीसउतुंगा, 'श किंचूण उत्तीसउतुंगा. ८ कलसप्पणवररयणविहसिया, ब कलसणिवहा वहा वरदप्पणभूसिया. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२) दीवपण्णत्ती [ ९. १८९ संतकुसुममाला गंधग्वमुदिंगसहगंभीरा । वरबुबुदेहिं छण्णा किंकिणिझंकाररमणीया ॥ १८९ बज्जततरणिवहा सुरबहुणडेहि सुटेरमणीया। कालागरुगंधढा बहुकुसुमकयञ्चणसणाहा ॥ १९० बलिवदीवणिवहा कुंकुमकप्पूरगंधसंपण्णा । णाणापडायपउरा बहुकोदुगमंगलसणाहा ॥ १९१ सीहासणछत्तत्तयभामंडलचामरादिसंजुत्ता। जिणपडिमा णिहिट्ठा णाणामणिरयणपरिणामा ॥ १९२ एक्कक्के पासादे जिणपडिमा विविहरयणसंछण्णा । अट्ठसयं भट्टसयं णायम्वा होति णियमेण ॥ १९३ पंचधणुस्सयतुंगा पलियंकासमणिबद्धवरदेहा । लक्खणवंजणकलिया भंगोवंगेहि संछण्णा ॥ १९४ अटुसर्य भट्ठसयं एक्केक्कजिणिंदपडिमस्स । उवयरणा णिहिट्ठा कंचणमणिरयणकयसोहा ॥ १९५ ससुरासुरदेवगणा विज्जाहरगरुडकिंणरा जक्खा । महिमं करंति सददं जिणपडिमाणं पयत्तेण ॥ १९६ सयलावबोहसहियं संतियरं सयलदोसपरिहीणं । वरपउमणंदिणमियं संतिजिणिदं णमंसामि ॥ १९७ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे महाविदेहाहियारे अवरविदेहवण्णणो णाम णवमो उद्देसो समतो ॥९॥ उत्तम दपोंसे विभूषित, श्रेष्ठ, लटकती हुई पुष्पमालाओंसे संयुक्त, गन्धवों व मृदंगके शब्दसे गम्भीर, उत्तम बुबुदोंसे व्याप्त, किंकिणियोंके झंकारसे रमणीय, बजते हुए वादिनसमूहसे युक्त, बहुतसे नर्तक देवोंसे अतिशय रमणीय, कालागरुके गन्धसे व्याप्त, बहुत कुसुमो द्वारा की गई पूजासे सनाथ, बलि, धूप व दीपोंके समूहसे संयुक्त; कुंकुम व कपूरके गन्धसे सम्पन्न, नामा पताकाओंके प्राचुर्यसे सहित और बहुत कौतुक-मंगलोंसे सनाथ हैं ॥ १८७-१९१॥ उन जिनप्रासादोंमें सिंहासन, तीन छत्रों, भामण्डल व चामरादिसे संयुक्त ऐसी नाना रत्नों के परिणाम रूप जिनप्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं ॥१९२॥ विविध रत्नोंसे व्याप्त ये जिनप्रतिमायें एक एक प्रासादमें नियमसे एक सौ आठ एक सा आठ जानना चाहिये ॥१९३॥ उक्त जिनप्रतिमायें पांच सौ धनुष ऊंची, पल्यंकासनसे युक्त उत्तम देहवाली तथा लक्षणों व व्यञ्जनोंसे युक्त अंगोपांगोंसे व्याप्त हैं ॥१९॥ एक एक जिनेन्द्रप्रतिमाके सुवर्ण, मणि व रत्नोंसे की गई शोभासे सम्पन्न एक सौ आठ एक सौ आठ उपकरण निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ १९५ ॥ सुर व असुर देवोंके समूह, विद्याधर, गरुड़, किंनर और यक्ष निरन्तर उन जिनप्रतिमाओंकी प्रयत्नपूर्वक महिमा (पूजा) करते हैं ॥ १९६ ॥ पूर्ण ज्ञानसे सहित, शान्तिकारक, समस्त दोषोंसे रहित और उत्तम पद्मनन्दिसे वन्दित ऐसे शान्ति जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १९७ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें अपरविदेहषर्णन नामक ___ नौवां उद्देश समाप्त हुआ ॥९॥ ................... उ श णदेहि मधु, क ब गदेहि सुट्ट. २ क बलिधूवणिवहा कुंकुम, श विडूसियापपरा णिवहा ऊंडम. १ उ यासदे, व पासादा, श पासवे. ४ उप श धासय. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दसमो उहेसो] कुंथुजिणिंद पणमिय कम्मारिकलंकपंकउम्मुक्कं । लवणसमुहविभागं वोच्छामि जहाणुपुग्वीए ।। जंबूदीवं परियदि' समंतदो लवणतोयउदधी दु । सो बेण्णिसयसहस्सा णिहिट्ठो चक्कवालेण ॥२ पुग्वेण दु पायालं वलयमुई तह य होह भवरेण । दक्खिणदिसे कदंबगजुवकसरि होइ उत्तरदो ॥३ : पंचाणउदिसहस्सा ओगाहिय लवणचक्कचालम्मि । ते खिदिविवरे जाणसु भरंजणागारठाणा ॥ मूलेसु य वदणेसु य विस्थारा दससहस्स णिहिट्ठा । भोगाढ सयसहस्सा तत्तियमेत्ता य मोसु ॥५ पायालस्स तिभागो' हवदि य तेत्तीस नोयणसहस्सा । तिण्णितया तेत्तीला एक्कतिमागेण अदिरेया ॥६ हेटिल्लम्हि तिभागे वादों उदकं तु उवरिमतिभागे । मझिल्लम्हि तिभागे जलवादो° चलाचलो तस्थ ॥ मल्लिम्हि दु भागे उप्पिरले लवणउस्सो परमो । उप्पिल्ले उवसंते भवहिदा बेल उयहिस्स" ॥ ८ कर्म-शत्रुरूपी कलंक-पंक से रहित ऐसे कुंथु जिनेन्द्रको प्रणाम करके आनुपूर्वीके अनुसार लवण समुद्रके विभागको कहते हैं ॥ १ ॥ दो लाख योजन विस्तारवाला वह लवण समुद्र वृत्ताकार होकर चारों ओरसे जम्बूद्वीपको वेष्टित करता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ॥२॥ पूर्वमें पाताल, पश्चिममें वलयमुख ( वडवामुख ), दक्षिण दिशामें कदंबक और उत्तरमें यूपकेसरी, इस प्रकार ये चार पाताल लवण समुद्र की चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥ ३ ॥ वलयाकार लवण समुद्र में पंचानबै हजार योजन जाकर वे पाताल राजनके आकारसे स्थित है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १ ॥ इनका विस्तार मूलमें व मुखमें दश हजार योजन, अवगाह एक लाख योजन तथा इतना ( एक लाख यो.) ही मध्यमें विस्तार मी निर्दिष्ट किया गया है ॥ ५॥ पातालके तीन त्रिभागों से प्रत्येक त्रिभाग तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक तृतीय भागसे अधिक ( ३३३३३, यो.) है ॥ ६ ॥ पातालोंके अधस्तन त्रिभागमें वायु, उपरिम त्रिभागमें जल, और मध्यम त्रिभागमें चलाचल जल-वायु है ॥ ७ ॥ मध्यम त्रिमागके उत्पीड़ित होनेपर . अर्थात् उसके जलभागसे रहित होकर केवल वायुसे परिपूर्ण होनेपर लवण समुद्रका उत्कृष्ट उत्सेध होता है । उत्पीड़नके शान्त होनेपर समुद्रकी बेला अवस्थित रहती है ॥ ८॥ उनके उश परिस्यदि. २ उ कलंवगहुवकेसरि, क कलंबुअजुगकेसरि, व कलंगजुगकेसरि, श कलंबकावकेसरि. ३ क अलजणायार, ब अलंजेणायार. ४ उ मूळेसु वि वदणेम वि, ब मूळेसु य वहणेसु य, श मूळेस वि दणेसु वि. ५ उ उग्गाय सय, व उग्गाड सय, श उग्गायण सय. उश पायालसतिमांगो, ब पायलस्स विभागे. . उ श तम्निसया. ८ उश एक्कतिमागेण अरेय, क एयतिमागेहिं अधिरेया, ब एयतिमागेय अधिरेया. ९ क तेहिं तिमागेहिं अधो वादो, बतिहि तिमागेहिं अधो वादो. १० उश जलवदो, कब जलवाद "उश उ संओ, ब उस्मउ, १२ ७ श अवढिदो चेल उवहिस्स, क अवद्विदा वेल उहियस्स. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] जंबूदीवपण्णत्ती [१०.९ तेलि उस्ससणेण य सिहा पवदिसम्बदोलवणे | सोकससहस्स मज्झे जोयणमई तुहमंते॥९ भवराणि य अण्णाणि य सहस्सं तम्हि सागरे । मोगाढाणि समतेण जलदो वित्यराणि य॥१. चदुसु वि दिसासु चत्तारि जेट्टयाँ मजिसमा य विदिसासु । अवरुत्तरमेव पणुवीस सयं महणा. " एगसहस्सं भटुत्तरं तु पादालेसंख विष्णेया। मुहमूलेसु सदं खलु सहस्स मोवेह गहराणं ॥॥ मुहमूले वेहो विपरहराण दसगुणं तु मनिझमया। सम्वस्थ मनिममा वि य वसगुणियमहल्लया होति ॥ णव चेव सयसहस्सा भडदालाई सहस्स छच्च सया। तेसीदिजोयणाई समधिय परिधी समुट्ठिा ॥१॥ सत्तावीससहस्सा दोण्णि य लक्खा तहेव सदरि सदं । साहियतिणि य कोसा सहतर जाण जेट्टाणे १५ एक्कं च सदसहस्सा" पंचासीदा य तेरससहस्सा । मजिसमपादालाणं तहत साहिपक्कोसं ॥ ॥ उच्छ्वाससे अर्थात् नीचेके दो त्रिभागोंके केवल वायुसे पूर्ण होनेपर लवण समुद्रके सब ओर मध्यमें सोलह हजार योजन और अन्तमें अर्ध योजन प्रमाण शिखा प्रवृत्त होती है ॥ ९॥ उस समुद्र में अन्य एक हजार जघन्य पाताल भी हैं। उनका अवगाह और मध्यम विस्तार (सी योजन) समान है (2) ॥ १०॥ चारों दिशाओंमें चार ज्येष्ठ पाताल और विदिशाओं में चार मध्यम पाताल हैं । इनसे एक एकके इस ओर तथा उस ओर एक सौ पच्चीस जघन्य पाताल स्थित हैं ॥ ११॥ पातालोंकी संख्या एक हजार आठ जानना चाहिये । इन जघन्य पातालोंका विस्तार मुखमें और मूलमें सौ योजन तथा उद्वेध एक हजार योजन प्रमाण है ११२॥ मध्यम पातालोंके मुख व मूलमें विस्तार तथा उद्वेधका प्रमाण जघन्य पातालोंकी अपेक्षा दशगुणा (१०००) है । ज्येष्ठ पाताल सर्वत्र मध्यम पातालोंकी अपेक्षा दशगुणित हैं ॥ १३ ॥ जवण समुद्रकी (मध्यम] परिधि नौ लाख अड़तालीस हजार छह सौ तेरासी योजनोंसे कुछ अधिक कही गई है ॥१॥ ज्येष्ठ पातालोंका अन्तर दो लाख सत्ताईस हजार एक सौ सत्तर योजन और तीन कोशसे कुछ अधिक जानना चाहिये (९४८६८३ - ४०००० + १ = २२७१७०३) ॥१५॥ (ज्येष्ठ] और मध्यम पातालोंका अन्तर एक लाख तेरह हजार पचासी योजन और एक कोशसे कुछ अधिक है (२२७१७०३ - १००० २= ११३०८५१) ॥१६॥ ........... १ श उस्ससमाणे सीहा वदति, ब उससेण य सिंहा पटेदि. २ उश असं मवे अंतो. ३ उ शिवराणि य बंताणिय अवराणि च अण्णाणि व. ४ क ब तहिं. ५ उश जलादी वित्वाणि य, क जलदी वित्याणिय, बलादो विस्थडा य. कजेहाया, ब भेडाया. ७ उश मनिझमाया, मज्झिमासु. ८७ अबक्त्तरमरक्कवक, ववरोत्तरमेक्केवकं, श अवरतरमक्कक्क.१.कबादाल... शब विष्णेय. " श मुलो. १२बय अबाण. १३ उश तिणि य कोसा मणिया तहत्तरं, १४ उशएवं च मयस्सा, बकब पदसहस्सा. १५ श तइतरं शोह कोसहिया. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०.२२] दसमो उदेसो [१७५ सत्तसदवाणउदा सत्तत्तीला य जोयणा भणिया। खुल्लगपादालाणं अंतरमधियं मुणेदव' ॥१. पुण्णिमदिवसे कवणो' सोलसजोयणसहस्सउत्तंगो। ममवासिदिणे' णेया एयारसजोयणसहस्सा ॥ १८ समहियतिभाग जोयण तिण्णेव सया हवंति तेत्तीसा । लवणोदयपरिवही दिवसे दिवसे समुदिहा ॥" किण्हेण होइ हाणी सुक्किलपक्खेण होइ परिवड्ढी । पण्णरसेणं विभत्ता पंचसहस्सा समुट्ठिा ॥२. मुहभूमिविसेसेण य उच्छर्यभजिदं तु सा हवे वड्ढी । इच्छागुणियं मुहपक्खित्ते य होइ इच्छफळं ॥२॥ वित्यार दससहस्सा मज्झम्मि दु होइ लवणउवहिस्स ! अवगाढो दु सहस्सं मक्खीपक्खोवमो मंते ॥ २१ क्षुद्र पातालोंका अन्तर सात सौ अट्ठानबै योजन और [ एक योजनके एक सौ छब्बीस भागोंमेंसे ] सैंतीस भागोंसे कुछ अधिक कहा गया जानना चाहिये १११३०८५४ -(१२५४ १००) + १२६ = ७९८,२.९.४ } ॥ १७॥ लवण समुद्र पूर्णिमाके दिन सोलह हजार योजन और अमावस्याके दिन ग्यारह हजार योजन ऊंचा जानना चाहिये ॥ १८ ॥ लवण समुद्रके जलमें प्रतिदिन एक त्रिभागसे अधिक तीन सौ तेतीस योजन प्रमाण वृद्धि कही गई है ॥ १९॥ कृष्ण पक्षमें लवण समुद्रके जलमें [प्रतिदिन ] पन्द्रहसे विभक्त पांच हजार (५९९° = ३३३३ ) योजन प्रमाण हानि और शुक्ल पक्षमें उतनी ही वृद्धि कही गई है ॥ २०॥ भूमिमेंसे मुखको कम करके उत्सेधका माग देनेपर वृद्धिका प्रमाण आता है। इच्छासे गुणित वृद्धिको मुखमें मिलानेपर इच्छित फल होता है ॥ २१ ॥ उदाहरण- अमावस्याके दिन लवण समुद्रके जलकी उंचाई ११००० यो. होती है। शुक्ल पक्षमें वह क्रमशः प्रतिदिन बढ़कर पूर्णिमाके दिन १६००० यो. प्रमाण हो जाती है। अब यदि हम अभीष्ट १२ ३ दिन ( द्वादशीको) लवण समुद्रके जलमें कितनी उंचाई होती है, यह जानना चाहते हैं तो वह इस करणसूत्र के अनुसार जानी जा सकती है। जैसे- भूमि १६०००, मुख ११०००, उत्सेध १५ दिन; अतः १६००० -११००० = ५०००; ५०००१५-३३३३ यो., यह प्रतिदिन होनेवाली वृद्धिका प्रमाण हुआ। अब चूंकि १२३ दिन होनेवाली जलकी उंचाई जानना अभीष्ट है, अतः इस वृद्धिके प्रमाणको १२ से गुणित करके मुखमें मिला देनेपर वह इस प्रकार प्राप्त हो जाती है- ३३३३४ १२ + ११००० = १५००० यो.। लवण समुद्रका विस्तार मध्यमें दश हजार योजन और अवगाह एक हजार योजन प्रमाण है । अन्तमें वह मक्खीके पंखके समान है ॥ २२॥ लवण समुद्रके अवगाह अर्थात् क सत्तसहाणउदा जोयण मायाण सत्तीसा य. २ उ अंतरमेगं मुणेदवा, ब अंतरमधियं सुणदव्या, श अंतरमेगंणेयव्वा. ३उ पुनिच्छदिवसे सवणे, ब पुण्णिमहिवसे लवणे, श पुनिव्वदिवसे लवणे. ४ कब अमवगिविणे. ५उ सुकिक्कपसेण, श मुकिपण. ६क उछ, ब उव्य, शक्छिय..उशकवणउदिस्स. शबंतो. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] जंबूदीवपण्णत्ती [१०.२३ मवगाढो पुण णेमो' हाणी वढी य होइ' लवणस्स । पविसंतो परिवड्डी' णीयंतो होइ परिहाणी ॥ १॥ पंचाणउदिसहस्सा जोयणसंखा य हाणिवढिस्स । बेत्तस्स दु णायम्वा णिहिट्ठा सम्वदरिसीहि ॥ २४ मजमम्मि दुणायब्वो अवहिदो तस्थ होइ भवगाढो । दोसु वि पासेसु वहा खेती मणवटिदो एवणे ॥ पंचाणउदा भागा हाणी वढी दु होह णायन्वा । इच्छगुणं काऊणं जं लद्धं दोहइच्छफलं ॥ २६ ................ विस्तारमें हानि और वृद्धि जानना चाहिये । इनमेंसे प्रवेश करते समय वृद्धि और आते समय हानि हुई है ॥ २३ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट हानि-वृद्धिके क्षेत्रका प्रमाण पंचानबे हजार योजन जानना चाहिये ॥ २१॥ वहां लवण समुद्रका अवगाह (विस्तार) मध्यमें अवस्थित और दोनों ही पार्श्व भागोंमें विस्तारक्षेत्र अनवस्थित है, ऐसा जानना चाहिये ॥२५॥ जलशिखाके विस्तारमें [ सोलह हजार योजन प्रमाण उंचाई में से प्रत्येक योजनकी उंचाईपर आठसे माजित ] पंचानबै भाग (१५) प्रमाण हानि अथवा वृद्धि होती है, ऐसा जानना चाहिये । इस हानिवृद्धिको इच्छासे गुणित करके जो प्राप्त हो वह इच्छित फल होता है ॥ २६॥ विशेषार्थ- लवण समुद्रका आकार एक नावके ऊपर उलटी करके रखी हुई दूसरी नायके समान है। उसका विस्तार नीचे पृथ्वीतलमें १०००० यो. है। ऊपर क्रमशः वह वृद्धिंगत होकर सम भूमिमें २ लाख यो. प्रमाण हो गया है। सम भूमिसे ऊपर आकाशमें उसकी जलशिखा है। यह अमावस्याके दिन सम भूमिस ११००० यो. प्रमाण ऊंची रहती है। फिर वह शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होकर पूर्णिमाके दिन १६००० यो. प्रमाण ऊंची हो जाती है। इसका विस्तार सम भूमिपर २ लाख यो. और फिर वह क्रमशः दोनों ओरसे हीन होकर अन्तमें १०००० यो. प्रमाण हो गया है। इस प्रकार जलशिखाके विस्तारमें १६ हजार यो. की उंचाई पर दोनों ओर समान रूपसे १९०००० (९५०००x२) यो. की हानि हो गई है। अब १६ हजार यो. ऊंची जलशिखाका यदि विवक्षित (जैसे ११ हजार यो.) उंचाई पर विस्तार जानना अभीष्ट है तो 'मुहभूमिविसेसण य' इस करणसूत्रके अनुसार भूमि (२ लाख यो.) मेंसे मुख (१०००० यो.) को कम करके शेषको उत्सेधसे भाजित करे। इस प्रकार जो प्राप्त हो उसे अभीष्ट उंचाईसे गुणित करनेपर प्राप्त राशिको भूमिमेंसे कम कर देने से इच्छित विस्तार प्राप्त हो जाता है। जैसे ११००० यो. की उंचाई पर उसके विस्तारका प्रमाण-२००९::.:.... ५= ११४ प्रति योजनकी उंचाईपर होनेवाली हानि-वृद्धिका प्रमाण;११०००४११४१३०६२५, ----.............. .उ.श णेया. २ क वड्डीए होड़, ब बड्दो दु होय. ३ उश पविसेतो परिवह. ४ उश मानिम्मि. ५ उवाचो अणबद्विदो वणो, बचो अणवाहिदो लवणो, श खितो वणवहिदो तत्य होइ लवणो. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०.३३] दसमो उद्देसो [१७७ मादालीस सहस्सा गंतूर्ण जोयणाणि वेदीयो । बेलंभरदेवाणं भट्टेव य पवदा होति ॥ २७ जोयणसहस्सतुंगा कलसद्धसमाणभासुरा विउला । वणवेदिएदि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिग्वा ॥ २८ वलयामुहाण या दो दो पासेसु हाँति णायम्वा । भक्खयभणाइणिहणा णाणामणिरयणपरिणामा ॥ २९ पुम्वेण होति णेया कोरथुभणामा णगा हु कणयमया । कोल्थुमणामसुरिंदा वसंति धेलंधरा वेसु ॥ ३० दक्खिणदिसेण गेया दर्गभासा अकरयणमयसेला । दशैमासदेवसहिया बहुविहपासादसंश्छण्णा ॥ पच्छिमदिसेण सेला रुप्पमया संखजुवलवरणामा । संखजुगलाभिधाणा वसंति वेलंधरा देवा ॥३९. उत्तरदिसणे गेया वेरुलियमयों हवंति वरसेला । वगसीदेवसहिया दससीमा होति णामेण ॥ ३३ भूमि २००००००००००-१३०६२५= ६९३७५, अथवा मुखकी ओरसे ५०००४१११ =५९३७५,५९३७५+ १०००० = ६९३७५ योजन । अथवा यही अभीष्ट विस्तारका प्रमाण निम्न प्रकार त्रैराशिकसे भी प्राप्त हो जाता है । जैसे- यदि १६००० यो. की उंचाई पर जलशिखाके विस्तारमें १९०००० यो. की हानि होती है, तो ११००० यो. की उंचाई पर उसमें कितनी हानि होगी? १९०० ०० ४ ११००० = १३०६२५, २००००० - १३०६२५ = ६९३७५ यो । __ वेदीसे ब्यालीस हजार योजन जाकर बेलंधर देवों के आठ पर्वत हैं ॥२७॥ एक हजार योजन ऊंचे, अर्ध कलशके समान भासुर, विशाल, वन-वेदियोंसे युक्त, दिव्य और उत्तम तारणोंसे मण्डित वे पर्वत वलयमुख (वडवामुख ) प्रभृति पातालोंके दो पार्श्वभागोंमें दो दो हैं, ऐसा जानना चाहिये। ये पर्वत अक्षय, अनादिनिधन और नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप हैं ॥ २८-२९ ॥ इनसे पूर्वकी ओर कौस्तुभ [ और कौस्तुभास ) नामक सुवर्णमय पर्वत हैं । उनके ऊपर कौस्तुभ [ और कौस्तुभास ] नामक वेलंधर सुरेन्द्र रहते हैं ॥३०॥ दक्षिण दिशाकी ओर [ उदक और ] उदकभास देवोंसे सहित तथा बहुत प्रकारके प्रासादोंसे व्याप्त अंकरत्नमय [उदक और ] उदकभास नामक शैल जानना चाहिये ॥३१॥ पश्चिम दिशामें उत्तम शंखयुगल ( शंख व महाशंख) नामवाले रजतमय शैल जानना चाहिये । इनके ऊपर शंखयुगल ( शंख और महाशंख ) नामक बेलंधर देव निवास करते हैं ॥३२॥ उत्तर दिशामें वैडूर्यमणिमय उदकसीम [उदक और उदवास] नामक उत्तम शैल हैं। इनके ऊपर उदकसीम [उदक और उदयास ] नामक देव हैं ॥ ३३ ॥ सब ही दिव्य पर्वत कककट्ठसहस्स,ब कालसब्दसमाण. २ वलयामहेण. ३क कथुम, ब कोईम. कधम. ब कुंथम. ५ कब दय. ६शया वेगलियमण हवंति मयसेला. ७ उ श परिणामा. ८ उ संखउबलामिणाया, श संबवलामिणेया. उश उत्तरदिसेहि. १. उबेरुलिय हवंति, श वेरुलियमण दांति "उक इससीम, दखमाम, श दसमीम. १२उकब दससीमा, श दसमीमा. बंदी. २३. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] - जंबूदीवपण्णत्ती [१०.३१सम्वे वि वेदिसेहिया वरतोरणमंडियां मणभिरामा । धुर्वतधयवाया जिणभवणविहूसिया दिग्वा ॥ ३४ पायालाण गेयों उभय पासुसु तह य सिहरसु । मायासे णिहिट्ठा पण्णगदेवाण गगराणि ॥ ३५ बावन्तरि संहस्सा बाहिरमभंतरं च बाचत्ता । अग्गोदगं धरता' अट्ठावीस सहस्साणि ॥ ३॥ एयव सबसहस्सा भुजग सहस्साणि चेव वाचत्ती । वेलासु दोसु भग्गादगे य लघणम्हि अच्छता ॥३॥ तत्तो वेदादो पुण बादालसहस्सोयणां गंतु । विदिसासु होति दीवा वादालसहस्सविस्थिण्णा ॥३८ दीपसु तेर्मु गैया जगराणि हवंति रयणणिवहाणि । णागाणं णिहिट्ठा गोउरपायारणिवहाणि ॥ ३९ वेदीदों गंपूर्ण बारह वह जोयणसहस्साणि । वायंचदिसेण पुणो होइ समुहम्मि वरदीवो ॥ ४० बारहसहस्सतुंगो विस्थिण्णायामतेत्तिओ चेव । कंचणवेदीसहिमो मरगयवरतोरणुत्तुंगो ॥॥ ससिकतसूरकतो कक्केयपउमरायमणिणिवहो । वरवग्जकणयविन्दुममरगयपासादसंजुत्तो ॥ ४२ गोदुमणामों दीवो णाणातरुगणसंकुलो रम्मो । पोक्खरणिवाविपउरो जिणभवणविहूसिनो दिवो ॥ ४३ बैंकोससमाहिरैया बासट्टा जायणा समुत्तुंगा । गोदुमैसुरस्स भवणं तदद्धविखंभआयाम ॥ ४४ वेदीसे सहित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित और जिनभवनसे विभूषित हैं ॥ ३४ ॥ पातालोंके उभय पार्श्वभागोंमें तथा शिखरोंपर आकाशमें पन्नग ( नागकुमार ) देवोंके नगर निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ३५॥ लवण समुद्रको बाह्य (धातकीखंडकी ओर) वेलाको धारण करनेवाले बहत्तर हजार, अभ्यन्तर (जम्बूद्वीपकी ओर) वैलाको धारण करनेवाले ब्यालीस हजार और अमोदक (जलशिखा) को धारण करनेवाले अट्ठाईस हजार इस प्रकार लवण समुद्रमें दोनों वेलाओंके ऊपर व अनोदक ( शिखर ) पर एक लाख ब्यालीस हजार ( ७२००० + ४२०००+ २८०००) नामकुमार देव स्थित हैं ॥३६-३७॥ पुनः उस वेदीसे ब्यालीस हजार योजन जाकर विदिशाओंमें ब्यालीस हजार योजन विस्तीर्ण [आठ ] द्वीप हैं ॥ ३८॥ उन द्वीपोंमें रत्नसमूहोंसे युक्त और गोपुर एवं प्राकार समूहसे संयुक्त नागकुमारोंके नगर निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ ३९ ॥ वेदीसे वायव्य दिशाकी और बारह हजार योजन जाकर समुद्र में गोतम नामक उत्तम द्वीप है। यह दिव्य द्वीप बारह हजार योजन ऊंचा, इतने ही विस्तार व आयामसे संयुक्त, सुवर्णमय वेदीसे संहित, मरकत मणिमय उत्तम तोरणोंसे उन्नत; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन एवं पद्मराग मणिोंके समूहसे सहित; उत्तम वज्र, सुवर्ण, विद्रुम एवं मरकत मणिमय प्रासादोंसे संयुक्त; नाना क्षोंके वनोंसे व्याप्त, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों एवं वापिकाओंसे युक्त और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥ ४०-४३ ॥ इस द्वीपमें दो कोश अधिक बासठ योजन ऊंचा, इससे आधे विस्तार व आयामसे सहिंत, दो कोश अवगाहसे युक्त, नाना मणियों एवं रत्नोंसे मण्डित, तथा . १ उ वि वेदिसया, श वि विदेसाया. २क पासे. ३ उश वाचित्ता, ४ उ श धरता, कब धरिता. ५ उश एवं. ६ उ दावतं, केबांचतं, बं वाचत्ता, शवावतं. ७ उ क ब श अगोदगे. उश आहुत्तो, कब आरत्ता. ९उश तोरणगा.१० उश समविरेया. ११ उकश गोदुम.ब गादुम. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०.५५ ] दसमो उद्देस [ १७९ बेगाउवमवगाहं णाणामणिरयणमंडियं दिव्वं । जोयणमट्टुत्तुंग' तदद्धु विक्खंभ वरदारं ॥ ४५ पल्ल|ड़गा महप्या दसधणुउत्तुंग दिग्ववरदेहा । दीवेसु होंति देवा आभरणविहूसियसरीरा ॥ ४६ वेदादो तूर्ण पंचसया जोयणाणि लवणम्मि । चदुसु वि दिसासु होंति हु जोयणस्यवित्थड़ा दीवा ॥ ४७ पुणरवि ततो गतुं पण्णासा जोयणाणि पंचसया । विदिसासु होंति दीवा पण्णासा वित्थडा णेया ॥ ३८ दिर्सेविदिसंतरदीवा पण्णासा वित्थडा जलणिहिस्मि । वेदीदो गंदणं पंचेव सयाणि पुण होंति ॥ ४९ गिरिसीसगया दीव पणुवीसा वित्थडा समुद्दिट्ठा | वेदादो गंतूणं छच्चैव य जोयणस्याणि ॥ ५० चदुसु विदिसासु चउरो विदिसासु वि तेत्तिया समुद्दिट्ठा | गिरिसीसगया अट्ठ य तावदिया अंतरे दीवा ॥ चवीस वि ते दीवा चउकोसा उट्टिया जळंतादो' । वरवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ ५२ एगोरुगा य गोडिग य वेसाणिगाँ य ते कमसो । पुण्वादिसु णायध्वा अभास उ णरा होति ॥ ५३ सक्कुलिकणों या कण्णप्पावर लंबकण्णा य । ससकण्णा कुमणुस्सा" क्रमसो विदिसासु विण्णेया ॥ ५४ सोहमुद्दा भस्समुद्दा पाणमुद्दा अंतरेसु महिसमुद्दा | सूर्य मुद्दग्धमुहा घूमुद्दा कविमुद्दा चेव ॥ ५५ आठ योजन ऊंचे एवं इससे आधे विस्तारवाले उत्तम द्वारोंसे युक्त गोतम सुरका दिव्य भवन है ॥४४-४५॥ द्वीपोंमें पल्य प्रमाण आयुके धारक, महात्मा, दश धनुष ऊंचे उत्तम दिव्य शरीरसे युक्त और आभरणोंसे विभूषित देहवाले देव स्थित हैं || ४६ ॥ वेदीसे पांच सौ योजन लवण समुद्र में जाकर चारों ही दिशाओंमें एक सौ योजन विस्तारवाले द्वीप हैं ॥ ४७ ॥ फिर भी उक्त वेद से पांच सौ पचास योजन लवण समुद्र के भीतर जाकर विदिशाओं में पचास योजन विस्तारवाले द्वीप जानना चाहिये ॥ ४८ ॥ पुनः वेद से पांच सौ योजन समुद्र में जाकर दिशा-विदिशाओं के अन्तरालमें पचास योजन विस्तृत अन्तरद्वीप हैं ॥ ४९ ॥ वेद से छह सौ योजन जाकर [ हिमवान्, विजयार्ध व शिखरी] पर्वतों के शिखरपर ( प्रणिधि भागमें ) स्थित द्वीप पच्चीस योजन विस्तृत कहे गये हैं ॥ ५० ॥ चारों दिशाओं में चार, विदिशाओं में चार, गिरिशिखरगत आठ और इतने ही द्वीप दिशा-विदिशाओं के अन्तर में स्थित कहे गये हैं ॥ ५१ ॥ वे चौबीस ही दिव्य द्वीप जलसे चार कोश ऊंचे, उत्तम वेदियोंसे युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित हैं ॥ ५२ ॥ पूर्वादिक दिशाओं में स्थित उक्त द्वीपोंमें क्रमसे एक ऊरुवाले, पुच्छवाले, विषाणी और अमानक ( गूंगे ) मनुष्य होते हैं; जानना चाहिये ॥ ५३ ॥ विदिशाओं में क्रमसे शष्कुलिकर्ण, कर्णप्रावरण, लंबकर्ण और शशकर्ण कुमानुष जानना चाहिये ॥ ५४ ॥ अन्तरद्वीपोंमें सिंहमुख, अश्वमुख, वानमुख, महिप्रमुख, शूकरमुख, व्याघ्रमुख, घूकमुख और ऐसा १ उ क श अद्भुतुंगं, व असंतुंग २ उ क श दिसि. ३ क दिव्वा. ४ श पंचेव. ५ क जलादादो. ६ उ ब. श णंगोलिया. ७ ब वेसोणिगा. ८ उ क श अभासका उत्तरा, ब अमासगा उत्तरा ९ उ संकुलिवण्णा, क संकुलिकण्णा, व संकुलिकण्णा, श सक्कुलियाणा १० उ श कणप्पावरण, क कण्णायावरण, या कण्णयवरण. 11 क्रय कुमाशस, व य कुमारास. १२ क अंतेसु. १३ उब श धूव Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] जंबूदीवपण्णत्ती । १०.५६ - हेमगिरिस्स य पुव्वावरम्हि मच्छमुहकालवदणा य । तह दक्षिणवेदड्ढे मेसमुहा' गोमुहा होति ॥ ५६ मेहमुहा विज्जुमुहा सिहरिस्स गिरिस्स पुश्वभवरम्हि । भादसणहस्थिमुहा उत्तरवेदढणगसीसे ॥ ५. एगोरुगा गुहाए भूमि जेमंति सेसगा य दुमे । जेमंति' पुप्फफळभोयणाणि' पल्लाउगा सम्वे ॥ ५८ भविकाहलोहहीणा मंदकसाया पियंवदा धीरा । धम्माभासं किच्चा मिच्छत्तकलंकनोसेण ॥ ५९ धम्मफलं मग्गंता कायकिलेसं करित्तु गरुयं पि । भण्णाणतिमिरछण्णा पंचग्गित परमधारं ॥ ६० तेण तवेण तहा मरिउणं अंतरेसु दीवसु । उप्पज्जति महप्पा कुमाणुसा भोगसंपण्णा ॥६१ सम्मईसणहीणा काऊणं बहुविहं तवोकम्मं । उप्पज्जति यधण्णा कुमाणुसा स्वपरिहीणा ! ६२ अदिमाणगग्विदा जे साहूणं पुण करंति अवमाण । ते कालगदा संता कुमाणुसा हॉति णायव्वा ॥ ६३ संजमतवोधणाणं जिग्गंथाणं भसंति जे पावा । ते कालगदा संती कुमाणुसा होति णायम्वा ॥ ६४ संजमतवेण हीणा मायाचारी हवंति जे पावा । ते कालगदा संता कुमाणुसा हति णायवा ॥ ५५ रसइदिवसादगारवमेहुणसणेहि मोहिदा जे दु । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायया ॥ ६५ कपिमुख मनुष्य होते हैं ॥ ५५॥ हिमवान् पर्वतके पूर्व व पश्चिम भागमें मत्स्यमुख और काल. मुख, दक्षिण वैताढ्यके दोनों ओर मेषमुख और गोमुख, शिखरी पर्वतके पूर्व व पश्चिम भागमें मेघमुख और विद्युन्मुख, तथा उत्तर वैताढ्यक शिखरपर आदर्शमुख और हस्तिमुख मनुष्य रहते हैं ॥ ५६-५७ ।। एक ऊरुवाले कुमानुष गुफॉमें रहते हुए मिट्टीको खाते हैं, तथा शेष कुमानुष वृक्षके नीचे रहकर पुष्प व फल रूप भोजनोंको खाते हैं। इन सबकी आयु एक पल्य प्रमाण होती है ॥ ५८ ।। अधिक क्रोध व लोभसे रहित, मंदकषायी, प्रियभाषी और धीर प्राणी मिथ्यात्व रूप कलंकके दोषसे धर्मामासका सेवन करके, धर्मफल ( सुख ) को खोजते हुए भारी कायक्लेशका करके, सथा अज्ञानाधकारसे व्याप्त होते हुए अतिशय घोर पंचाग्नि तपको तपकर उस घोर तपके प्रभावसे मरकर वे प्राणी अन्तरद्वीपोंमें भोगौस सम्पन्न कुमानुष महात्मा उत्पन्न हात है ॥ ५९-६१ ॥ सम्यग्दर्शनसे हीन होकर जो बहुत प्रकारके तपश्चरणको करते हैं वे पापी सुन्दरतासे रहित होते हुए कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥ ६२ ॥ मानसे अत्यन्त गर्वित होकर जो साधुओंका अपमान करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ६३ ॥ जो पापी संयम व तपरूपी धनसे युक्त नियोको भूकते हैं, अर्थात् निन्दा करते हैं, वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ६४ ॥ जो पापी संयम व तपसे हीन तथा मायाचारी होते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥६५॥ जो रस, ऋद्धि .......................................... उश मेंदमुहा, कमंटगृहा, ब मेहमुहा. ३ उश दुमो. ३ कब जायति. ४कब मोइणो य. ५ उप श सम्वो. ६ ब बहुयं. ७ उकब तो, ८ कब तदा. ९ श मरिऊणं वहुविई तवो कम्मेसु. १. ब तसंति. "उतक्कालगदा सत्ता, शतक्कालगदा साता. १२ उबश सत्ता. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०.७८] दसमो उद्देसो थूलसुहुमादिचारं णालोचह जे गुरूण पासम्मि । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायम्वा ॥ ६७ समायणियमवंदण गुरुणा सहियं तु जे ण कुव्वंति । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायचा ॥ ६८ रिसिसंघं छंडित्ता अच्छई जइ को वि तह य एगागी । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायम्वा ॥ ६९ सम्धेहि जणहि समं कलहं कुवंति जे हु पाविट्ठा । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायब्वा ॥ .. भाहारसण्णपठरा लोभकसाएण मोहिया जे दु । ते कालगदा संता कुमाणुसा हॉति णायम्वा ॥1 धरिऊण सिंगरूवं पावं कुम्वंति जे दु पाविट्ठा । ते कालगदा संता कुमाणुसा हॉति णायब्वा ॥ ७२ ण करंति जे हु भत्ती भरहताणं तहेव साहूणं । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायन्वा ॥ ७३ घाउब्वण्णे संघे वच्छल्लं तह य जे ग कुन्वति । ते कालगदा संता कुमाणुसा होंति णायम्वा ॥ ७४ सिद्धंतं छोडत्ता जोइसमंतादिएसु जे मूढा । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायन्वा ॥ ७५ धणधण्णसुवण्णादिं संजदरूवम्हि जे दु गिण्हति । ते काल गदा संता कुमाणुसा हॉति णायम्वा ।। ७६ कण्णाविवाहमादि संजदरूवम्हि जेणुमोदंति । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायग्वा ॥ . मोणं परिग्चहत्त। मुंजंति पुणो वि जे दु पाविट्ठा । ते कालगदा संता कुमाणुसा होति णायम्वा ॥ ७८ ......................................... " " एवं सात इन तीन गारवोंसे तथा मैथुन संज्ञासे सोहित हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥६६॥ जो गुरुओंके पासमें स्थूल व सूक्ष्मादि क्रियाओंकी आलोचना नहीं करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ६७ ॥ जो गुरुके साथ स्वाध्याय, नियम व वन्दना नहीं करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ६८॥ यदि कोई ऋषिसंघको छोड़कर एकाकी रहते हैं. तो वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ६९ ॥ जो पापी सब जनोंके साथ कलह करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७० ॥ जो आहार संज्ञाकी प्रचुरतासे संयुक्त और लोभ कषायसें मोहित हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७१ ॥ जो पापिष्ठ [जिन ) लिंग रूपको धारण कर पाप करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७२ ॥ जो अरहंतों तथा साधुओंकी मक्ति नहीं करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७३ ॥ जो चातुर्वर्ण्य संघमें वात्सल्य भावको नहीं करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७४ ॥ जो सिद्धान्तको छोड़कर ज्योतिष एवं मंत्रादिकोंमें मुग्ध होते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७५ ॥ जो संयत रूपमें धन, धान्य एवं सुवर्णादिको ग्रहण करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ।। ७६ ॥ जो संयत अवस्थामें कन्याविवाहादिकी अनुमोदना करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७० ॥ जो पापिष्ठ मौनको छोड़कर भोजन करते हैं वे मरकर कुमानुष होते हैं ॥ ७८॥ कर्मोदयसे सम्यक्त्वकी विराधना करके उक व श जो. २ श थूलसज्झाय. ३ श सीरीसंवच्छता. ४ उ श बुवंति सददं जे पावा, ब कुव्यंति सदद जे पावा. ५उ छरिता, कविता, बत्तिा . ६ उश जोदुस. ७ उ ब शमंतादिएहिं. उश सुवण्णादि संजमरूवेहिकब सुषण्णादी, संजमरूवेहि. उधण्णाविवाहमादि संजमरूबेहि, ब कण्णाविवाहमाहिं संजदरूवेहि, श धण्णाविवाहमदि संजमरूवेहि. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] जंबूदीवपणती [.१०.०९ कम्मोदएण जीवा सम्मत्तं विराहिऊणे ते सम्वे । उप्पज्जेति वराया कुमाणुसा लवणदीवेसु ॥ ७९ गब्भादो ते मणुगा णिस्सरिऊणं सुद्देण वरजुअला । उणवण्णदिणेहिं पुणो सुजोग्वणा होति णायन्त्रा ॥ ८० बेधणुसहस्सतुंगा मंदकसाया महंतलायण्णा । सुकुमारपाणिपादा णीलुप्पलसुरद्दिगंधड्डा ॥ ८१ वरपंचवण्णजुत्ता णिम्मलदेहा अणेगसंठाणा । कप्पतरुजनिय भोगा पलिदोवमभांडगा सब्बे ॥ ८२ लवणोव हिदीवेसु य भात्तूर्णं कुमाणुसाण वरभोगं । मरिऊण सुहेण पुणो णरणारिगणा य जे तेसु ॥ ८.३ उप्पज्जंति महत्या मणिकंचणमंडिदेसु दिव्वेसु' । सुरसुंदरिपठरेसु य' ते सध्ये देवलोएसु ॥ ८४ भवणवद्दवाणविंतर जोइसभवणेसु ताण उत्पत्ती । ण य अष्णरथुप्पत्ती बोद्धब्वा होइ नियमेण ॥ ८५ सम्मर्द्दसणरयणं जेहिं सुगद्दियं नरेहिं णारीहिं' । ते सब्वे मरिऊणं सोहम्माईसु जायेति ॥ ८६ पण्णारसयसहस्सा एगालीदा सयं च उगुदालें । किंचिविसेसेणूणा होइ य लवणोवद्दिप्परित्री ॥ ८७ बाहिरसूचीवग्गो अब्भंतर सूचिकागपरिद्दीणो । जंबूदीवपमाणा खंडा ते होंति णायव्वा ॥ ८८ वे सब जीव वेचारे इन लवण समुद्रके द्वीपोंमें कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥ ७९ ॥ वे मनुष्य सुखपूर्वक गर्भसे उत्तम युगलके रूपमें निकल कर उनंचास दिनमें यौवन युक्त हो जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८० ॥ वे सब दो हजार धनुष ऊंचे, मंदकषायी, अतिशय सौन्दर्यसे परिपूर्ण, सुकुमार हाथ-पैरोंसे सहित, नीलोत्पलके समान सुगन्ध गन्वसे व्याप्त, उत्तम पांच वर्णोंसे युक्त निर्मल देवाले, अनेक आकारसे सहित, कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न भोगों से युक्त और पल्योपम प्रमाण आयुसे सहित होते हैं ।। ८१-८२ ॥ जो नर-नारीगण लवणोदधिके उन द्वीपोंमें कुमानुषों के उत्तम भोगको भोगकर सुखसे मरते हैं वे सब महात्मा मणियों व सुवर्ण से मण्डित तथा प्रचुर देवाङ्गनाओंसे संयुक्त ऐसे दिव्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं ॥ ८३८४ ॥ उनकी उत्पत्ति नियमसे भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके भवनों में होती है, अन्यत्र नहीं होती; ऐसा जानना चाहिये ॥ ८५ ।। जिन नर-नारियोंने सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको 1. ग्रहण कर लिया है वे सब मरकर सौधर्मादिक स्त्रों में उत्पन्न होते हैं ॥ ८६ ॥ लवणोदधिकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी [ हजार ] एक सौ उनतालीस ( १५८११३९ ) योजन से -कुछ कम है ॥ ८७ ॥ अभ्यन्तर सूचीके वर्गसे रहित बाह्य सूची के वर्गको [ वर्गात्मक जम्बूद्वीप के विष्कम्मसे विभक्त करनेपर ] जम्बूद्वीप के प्रमाण खण्ड होते हैं {(५०००००१ १००.०००१ )÷ १०००००१ = २४} ॥ ८८ ॥ विष्कम्भसे रहित] [बाह्य ] सूचीको चौगुणे ११ व श. समत विराहिओण, क सम्मते, विराहिऊण, ब सम्मताविराहिऊण. १ व मंडिस सम्मे. ३ ब रेय शदिवे य. ४ उ रा संजमदंसण. ५ श रयणं रेहि नारीहिं. ५ उश युगासीदा. स. वयं च जगदाळा, चाएगासीदो सय च उगुदाकं. ६ उ लबणे। यही परिही, व कळवणाव ही परिभ्रा, श वसोयही परिहीणो. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०. ९६] दसमो उहेसो । १८३ सूची विखंभूणा विक्खंभचदुगुणेण संगुणिदं । दीवपमाणं खंडा ते होति गायग्वा ।। ८९ जंबूदीवो दीवो जावरिलो होइ खेत्तगणिदेण । तावदियाणि दु लवणे खेतेण हवंति' चउवीसा ॥ ९० दुगुणम्हि दु विक्खंभे' दोसु वि पासेसु सोहियस्स कंदी। साम्सस्स दुचदुभागों वाग्गदगुणिदं च दसगुणं गणिदं ॥९१ विर्खभकदीय कदी दसगुण' करणी य होदि चदुभजिदं । वासद्धकदीय कदी दसगुण करणीय गणितपदं । एगट्ट णव य सत्त य तिय छं छक्क पंच व य छ इस यजोयणसंखा भणिया कवणसमुम्हि गणितपदं ॥ एगणवसत्तछच्चदुदुगतिगपंचतियसत्तछहसुण । जोयणसंखा भणिदा उभयोरकि होइ गणितपदं ॥ ९४ दीवस्स समुहस्स य विक्खंभं चदुहिए संगुणं णियमा । तिहि सदसहस्स उणा सा सूची सव्वकरणेसु॥ जस्थिच्छसि विक्खभं लवणादी जाव ताव दुगरासी । अण्णोणहि य गुणिदे पुणरवि गुणिदं सदसहस्सा ॥ विष्कम्भसे गुणित करके पुनः [एक लाखके वर्गसे विभक्त करनेपर ) जम्बूद्वीपके प्रमाण खण्ड होते हैं {(५०००००-२०००००) (२०००००४४) १०००००२ = २४ } ॥ ८९॥ क्षेत्रफल की अपेक्षा जितना जम्बूद्वीप है उतने क्षेत्रके प्रमाणसे लवण समुद्रके चौबीस खण्ड होते हैं । ९०॥ दोनों ही पाश्वों ( बाह्य सूची) मेसे दुगुणे व्यासको घटाकर शेषक वर्गको शोध्य राशिक चतुर्थ भागके वर्गसे गुणित कर पुनः दशगुणा करनेपर प्राप्त राशिके वर्गमूल प्रमाण [वलयाकार क्षेत्रका ) क्षेत्रफल होता है (:) ॥९१ ॥ विष्कम्भके वर्गके वर्गको दशगुणा कर उसका वर्गमूल निकालनेपर जो प्राप्त हो उसमें चारका भाम देनेसे [वृत्त क्षेत्रका ] क्षेत्रफल होता है । अथवा, अर्थ व्यासके वर्गके वर्गको दशगुणा करके उसका वर्गमूल निकालनेपर ( वृत्तक्षेत्रका ) क्षेत्रफल निकलता है ॥ ९२ ॥ अंकक्रमसे एक, आठ, नौ, सात, तीन, छह, छह, पांच, ना, छह और दश ( १८९७३६६५९६१० ) इतने योजन प्रमाण लवण समुद्रका क्षेत्रफल कहा गया है ॥९३ ॥ एक, नौ, सात, छह, चार, दो तीन, पांच, तीन, सात, छह और शून्य, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या (१९७६४२३५३७६०) उत्पन्न हो उतने योजन प्रमाण जम्बूद्वीप और लवण समुद्र इन दोनोंका सम्मिलित क्षेत्रफल कहा गया है ॥९४॥ द्वीप अथवा समुद्र के विष्कम्भको चारसे गुणित करके जो प्राप्त हो उसमेंसे तीन लाख कम कर देनेपर शेष रहा नियमसे सब करणों में उसकी सूची ( बाह्य ) का प्रमाणं होता है ॥९५॥ लवण समुद्रको आदि लेकर जिस किसी भी द्वीप अथवा समुद्र के विस्तारके जाननेकी इच्छा हो उतने दो अंकोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसे एक लाखसे फिरसे उश हवे. २ क ब विक्खंभो. ३ ब सोहस्स. १ब चदुमागे. ५ष गणिदे. ६ उश दसदसगुण. ७उ सटिकदीयकदी, श वासटिकदीयकदी. ८ उ श तियच्छ प्पिंच णव य सट्ठसयं, ब तिय छ छप्पंण्णव य छड्स य. ९उ एग णवच्छ सत्तच्चदु, ब पग णव सत्त कव्वदु, श एग णव सत णश्चदु. १. उश तिसयतच्छहसुण्णं. ११ब चदुह. १२उश तट्टिदसहस्सजीणा. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ १०.९६ -- लवणसमुद्दस्स तथा वज्जमया' वेदिया समुद्दिट्ठा | अद्वेव य उग्विद्धा कंचणमणिरयणसंछष्णा ॥ ९७ मूले बारह जायण मज्झे अद्वेष जोयणा गया । सिहरे चत्तारि हवे वित्थिण्णा वेदिया दिग्वा ॥ ९८ बेजोयणअवगाहा धयचामरमंडिया मणभिरामा । सुरसुंदरिसंजुत्ता सुरभवणसमाउला रम्मा ॥ ९९ धुम्वतधयवढाया जिणभवणविहूसिया परमरम्मा । परिवेढिऊण' उवहिं समेत दो संठिया दिग्वा ॥ १०० चदुगो उरसंजुत्ता चोइसवरतोरणेहि रमणीया । वरकप्परुक्खपउरा णाणातरुसंकुला रम्मा ॥ १०१ अट्ठद्ध कम्मर हियं भट्ठमहापाढिदेरसंजुत्तं । वरपडमर्णदिणमियं भरतित्थयरं णमंसामि ॥ १०२ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंग लवणसमुद्रवावण्णणो णाम दसमो उद्देसो समतो ॥ १० ॥ गुणित करना चाहिये | जैसे पुष्कर द्वीपका विस्तार - १००००० x (२×२ × २×२ ) = १६००००० यो. ] ।। ९६ ॥ तथा लवण समुद्रकी सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे व्याप्त आठ योजन ऊंची वज्रमय वेदिका कही गई है ॥ ९७ ॥ यह दिव्य वेदिका मूलमें बारह, मध्य में आठ और शिखरपर चार योजन विस्तीर्ण है, ऐसा जानना चाहिये || ९८ || दो योजन अवगाहसे युक्त, ध्वजाओं व चामरोंसे मण्डित, मनको अभिराम सुरसुन्दरियों से संयुक्त, रम्य, देवभवनों से व्याप्त, फहराती हुई ध्वजापताकाओंसे सहित और जिनभवन से विभूषित ऐसी वह अतिशय रमणीय दिव्य वेदिका लवण समुद्रको सब ओरसे वेष्टित करके स्थित है ॥ ९९-१००॥ उक्त रमणीय वेदिका चार गोपुरोंसे संयुक्त, चौदह उत्तम तोरणों से रमणीय, श्रेष्ठ कलावृक्षों की प्रचुरता से सहित और नाना वृक्षीसे व्याप्त है ॥ १०१ ॥ आठके आधे अर्थात् चार कर्मोंसे रहित, आठ महाप्रातिहायोंसे संयुक्त और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत ऐसे अर तीर्थंकरको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १०२ ॥ || इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह में लवणसमुद्रव्यावर्णन नामक दशवां उद्देश समाप्त हुआ ॥ १० ॥ १ उ श जाम ताम. २३ श सय सहस्सं, ब सहसहस्सा ३ उश वब्जमय ४ उ परवेदिओण, श वरिवेट्ठिओण. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एक्कारसमो उद्देसो] मशिजिणिदं पणमिय महंतवरणाणदसणपई। दीवीवहिणहकोए' सुरकोयं संपवक्खामि ॥ धादगिसंडो दीयो उदर्षि लवणोदयं परिक्खियदि । चत्तारिसयसहस्सा विस्थिण्णो चक्कवालहि ॥ दक्खिणउत्तरभागेसु तस्स दो दक्खिणुत्तरायामा । दीवस्स दु उसुगारा' पादगिदीवं पविमर्जति ॥ णिसधस्सुण्छेहसमा पुट्ठा कालोदयं च लवणं च । बाहिरपेरंतेसु य खुरप्परूवा गिरी हॉति ॥. . ते मंकमुहा खलु सहस्समेयं च होति विस्थिण्णा । सयमेयं उम्बेहो मायामो दक्खिणुत्तरदो ॥५ सधरा सधरो चउग्गुणो होइ धादगीसंरे । वंसादो दिय वंसो चउग्गुणो होइ बोम्यो। जो जस्स परिणिही खलु णदी वहो चावि महव बंपधरो। उम्वेधुन्देहसमा दुगुणा दुगुणा य विस्थारी. गरविवरसंठियाणि य धादगिसंरम्हि हनि साणि । अंतो संखित्ताई बाहिरपासम्हि दाई ॥ धादगिरे दीवे सम्वस्थ समा हवंति सधरा | भरहेसु रेवदे" खलु विस्थिण्णा दीहवेदना ॥ .......................................। महान् व उत्तम ज्ञान-दर्शनरूपी प्रदीपसे युक्त मल्लि जिनेन्द्रको प्रणाम करके द्वीप, उदधि, अधोलोक और सुरलोककी प्ररूपणा करते हैं ॥१॥धातकीखण्ड द्वीप लवण समुद्रको वेष्टित करता है । यह द्वीप वलयाकारसे चार लाख योजन विस्तृत है ॥ २ ॥ उस धातकीखण्ड द्वीपके दक्षिण-उत्तर भागे।में दक्षिण-उत्तर आयत ऐसे दो इष्वाकार पर्वत हैं, जो धातकीखण्ड दीपका विभाग करते हैं ॥ ३ ॥ निषध पर्वतके समान उत्सेधवाले तथा लवण व कालोद समुद्रसे स्पृष्ट ऐसे वे इष्वाकार पर्वत बाह्य भागमें क्षुरप्रके आकार तथा अभ्यन्तर मागमें अंकमुख हैं । इनका विस्तार एक हजार योजन, उद्वेध एक सौ योजन और आयाम दक्षिण-उत्तरमें [ धातकीखण्डके विस्तार प्रमाण ) है || ४-५ ॥ धातकीखण्ड द्वीपमें कुलपर्वतसे कुलपर्वत और क्षेत्रसे क्षेत्र चौगुणे जानना चाहिये [ जैसे भरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार ६६१४३२२ यो. है, इससे चौगुणा ( २६४५८३९३ यो.) हैमवतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार है। ॥ ६॥ इस द्वीपमें स्थित नदी, द्रह और कुलपर्वत, इनमें जो जिसका प्रतिनिधि है उसका उद्वेध [ जम्बूद्वीपके समान; परन्तु विस्तार [ जम्बूद्वीपकी अपेक्षा ) दूना दूना है ।। ७॥ धातकखण्डमें स्थित क्षेत्र अरविवर (पहियेके मध्यमें लगी हुई लकड़ियों के बीचके छेद ) के आकार होते हुए अभ्यन्तर भागमें संक्षिप्त और बाह्य पार्श्वमें विस्तीर्ण हैं ॥ ८ ॥ धातकीखण्ड द्वीपमें वर्षधर पर्वत सर्वत्र समान हैं। यहां भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें विस्तीर्ण दीर्घ वैताब्य पर्वत स्थित हैं ॥९॥ उश अबकोए, व अवलोय. २ उ श मुरलोए. ३ उक उसगारा. ४ उश पुम्वा. ५३ श पेरतेस व खुरप्परूवा गिदी हाति, कं परतेस य खुरप्परूबा गिरि होर, बरतेस व खुरप्परवा निरि होय. ६उश तो..उशबंसबरो. ८ उश बोधबा. ९श विही..कबवावि..बशनिस्वाये. १२ असो सिचाई, गोलिवाई, श अतोसंबिताइ. १३कमरहे य खेदे. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १० मंकमुहसंठिदाई भतो वंसाणि धादगीसंडे । सत्तिमुहसंठिदाई बाहिरसगडद्धियांचाहा ॥१. लक्खा य भट्ठवीसा छादालसहस्तमेव पण्णं च । धादगिसंडे मज्झे परिरयमेद वियाणाहि ॥" इगिहालसयसहस्सा दसयसहस्सा सदा य व होति । एगट्ठी' किंचूणा बाहिरदो धादगीस। १२ भट्टसदा बादाला अत्तरिमेगसयसहस्सं च । वसधेरसु य रुद्धं जं खेत्तं धादगीसरे ॥१३ सधरविरहिद खलु जं खेसं हवदि धादगीसरे । तस्स दु छेदा णियमा ये चेव सदाणि बाराणि ॥१४ छउच्चेव सहस्साई छच्च सया चोदसुत्तरा होति । भन्भंतरविक्खंभो अणत्तीसं च भागसदं ॥१५ बारस चेव सहस्सा एयासीदा सदा य पंच हवे । मज्झम्हि दु विक्खंभो भागा यति छत्तीसा ।। भट्रारस य सहस्सा सिगिदालीसा सया य पंच भवे । बाहिरदो विक्खंभो पंचावण्णं च भागसयं ॥१. धादगिपुक्खरमेरूचतुरासीदिं च जोयणसहस्सा । उच्छेधण दु एदे सहस्समोगाट धरणितले ॥१८ जत्थिच्छसि विक्खभ चुल्लयमेरुम्हि उवदित्ताण" । दसभजिदे जं लटुं सहस्ससहिद वियाणाहि ॥ १९ धातकीखण्ड द्वीपके क्षेत्र अन्तमें अंकमुखाकार और बाह्यमें शक्तिमुखाकारसे स्थित हैं। इनकी भुजा गाडीकी अधिकाके समान है ॥ १० ॥ धातकीखण्डके मध्यमें परिधिका प्रमाण अट्ठाईस लाख छयालीस हजार पचास ( २८४६०५०) योजन जानना चाहिये ॥ ११॥ धातकीखण्डकी बाह्य परिधि इकतालीस लाख दश हजार नौ सौ इकसठ (१११०९६१) योजनसे कुछ कम है ॥१२॥ धातकीखण्डमें एक लाख अठत्तर हजार आठ सौ ब्यालीस [ योजन और दो कला (१७८८४२२)] प्रमाण क्षेत्र पर्वतोंसे रुद्ध है ॥ १३ ॥ धातकीखण्ड द्वीपमें जो पर्वत रहित क्षेत्र है उसके नियमसे दो सौ बारह खण्ड हैं {(१+४+१६+६४+१६+४+१) ४२२१२} ॥१४॥ छह हजार छह सौ चौदह योजन और दो सौ बारह भागों से एक सौ उनतीस भाग (६६१४३३३) प्रमाण [ भरतक्षेत्रका ] अभ्यन्तर विष्कम्भ है ॥ १५॥ बारह हजार पांच सौ इक्यासी योजन और छत्तीस भाग ( १२५८१३३६) प्रमाण [ मरतक्षेत्रका ) मध्यविस्तार है ॥१६॥ अठारह हजार पांच सौ सैंतालीस योजन और पचवन भाग ( १८५४७३५५) प्रमाण [भरतक्षेत्रका ] बाह्य विष्कम्भ है ॥ १७ ॥ धातकीखण्ड और पुष्कर द्वीप सम्बन्धी मेरु चौरासी हजार योजन ऊंचे और पृथिवीतलमें एक हजार योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ १८ ॥ ऊपरसे नीचेकी ओर आते हुए जितने योजन नीचे जाकर इन क्षुद्र मेरुओका विस्तार जानना अमीष्ट हो उनमें दशका भाग देनेपर जो प्राप्त हो, एक हजार योजनोंसे सहित उतना वहांपर विस्तार जानना चाहिये ॥ १९ ॥ उश सगदुद्धिया, क सगडद्धि ..., ब सगदुब्बिया. २ क वादाल. ३ उश परिरयमेवं. ४ उश इतिदाल, ब इदाल. ५ उश एगहिब पगहि. ६ उबश संडो. ७ब वंसधरसुवरुधं. ८शप्रतौ नोपलभ्यतेऽयं पूर्वार्धमागोऽस्या गाथायाः। ९उक दुग्छेदो, ब दुछेदो,श तुच्छेदो...उश सदा वा य पंच भवे. ११उश मिगिदालीसा सया व पंच. १२ काप्रती 'मेरू' इत्यत आरम्य अग्रिमगाथायाः 'मेशाम्ह' पदपर्यन्तः पाठदुटितोऽस्त. ३उरादसहस्स,बहु येदोसहस्स, शदु रागदसहस्स. ४ उ उयदित्ताण, क ओवदिताणं, श उपदिताणं. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. २८] एक्कारसमो उद्देसो मूलम्हि दु विक्खंभो पंचाणउदि च जोयणसदाणि । परिरये तीससहस्सा बादालीसा य किंचूणा ॥ २० धरणितले विक्खंभों' चदुणउदी हति जोयणसदाणि | परिरय ऊणातीसं सत्त य पणुवीस साहीया ॥२॥ पंचेव जोयणसया उड्ढे गंतूण गंदणं होइ । पंचसदा विस्थिण्णा पढमा सेढी दुचुल्लाण ॥ २२ तेणउदि पण्णासा बाहिरविक्खंभ परिरमो तस्स | उणातीससहस्सा पंच य सत्तहि साहीया ॥ २३ तेसीदि पण्णासा अंतोविखंभपरिरभो तस्स । छव्वीसं च सहस्सा चदुसद पंचेव साहीया ॥ २४ पणवणं च सहस्सा पंचव सदाणि उवरि गंतूणं । सोमणसं णाम वणं णंदणवणसरिसविस्थारं ॥ २५ अट्ठत्तीससदाई बाहिरविक्खंभरिरमो तस्स । बारस' चेव सहस्सा सत्तरसा हॉति किंचूणा ॥ २६ भट्ठावीससदाई अंतोविक्खंभ० परिरमो तस्स | अट्ठासीदिसदाईचदुवण्णा हॉति साधीया ॥ २७ अट्ठावीससहस्सा उवरि गंतूण पंडगं होदि । सेसवियप्पा उवरि तुल्ला सम्वेसि मेरूणं ॥ २८ उदाहरण-ऊपरसे ८४००० यो. नीचे ( भूमितलपर ) आकर क्षुद्र मेरुओंका विस्तार ८४००० ’ १० + १००० = ९४०० यो.। इन मेरुओं का विस्तार मूलमें पंचानबै सौ (९५००) योजन प्रमाण है। इनकी परिधि तीस हजार ब्यालीस (३००४२) योजनसे कुछ कम है ।। २० । उक्त मेहओंका विस्तार पृथिवीतलपर चौरानबै सौ (९४००) योजन प्रमाण और परिधि उनतीस [ हजार ) सात सौ पच्चीस (२९७२५) योजनसे कुछ अधिक है ॥२१॥ मेरुके ऊपर पांच सौ योजन जाकर पांच सौ योजन विस्तीर्ण नन्दन वन है। यह क्षुद्र मेरुओंकी प्रथम श्रेणी है ॥ २२ ॥ नन्दन वनके समीप क्षुद् मेरुओंका बाह्य विष्कम्भ तेरानबै सौ पचास ( ९३५० ) योजन और इसकी परिधि उनतीस हजार पांच सौ सड़सठ (२९५६७) योजनसे कुछ अधिक है ॥ २३ ॥ नन्दन वनके समीप क्षुद्र मेरुओंका अभ्यन्तर विष्कम्भ तेरासी सौ पचास ( ८३५०) योजन और इसकी परिधि छब्बीस हजार चार सौ पांच ( २६४०५) योजनसे कुछ अधिक है ॥ २४ ॥ नन्दन वनसे पचवन हजार पांच सौ योजन ऊपर जाकर उक्त वनके समान विस्तारवाला सौमनस नामक वन स्थित है ॥ २५ ॥ सौमनस वनके समीपमें क्षुद मेरुओंका बाह्य विस्तार अडतीस सौ ( ३८०० ) योजन और उसकी परिधि बारह हजार सत्तरह (१२०१७) योजनसे कुछ कम है ॥ २६ ॥ सौमनस वन के समीपमें उक्त मेरुओंका अभ्यन्तर विष्कम्भ अट्ठाईस सौ ( २८०० ) योजन और उसकी परिधि अठासी सौ चौवन (८८५१) योजनसे कुछ अधिक है ॥ २७॥ सौमनस वनसे अट्ठाईस हजार योजन ऊपर जाकर पाण्डुक वन स्थित है। शेष ऊपरके विकल्प सब मेरुओं के समान हैं ॥ २८ ॥ धातकीखण्डमें स्थित दो मेरु, दो इष्वाकार पर्वत, १श जोयणसया. २श णाहिय. ३ उश क्यालीसा.. ४ उ विवखंभे श विश्वं मो. ५ उश घुस्लाणं.. उ तोणउदि, श तेणउदि. ७ श तेसीदि पणासीय परिरउ, ८ उश सदायं वाहिरणविक्खम, ९श अरस. १.उश अंते विखंभे, बस विक्वंम."उशचवणा. ११३श सम्वेस. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] जंबूदीवपण्णती [ ११.२९ दोई मेरुण तहा दोहं इसुगारंपवदाणं तु । धादगिदुमाण दोण्हं दोण्ह वरसामलिदुमाणं ॥ २९ भट्ट जमगाणं गयदंताण तहेव अटुंण् । दिसगयवरगामाणं सोलसवरतुंगसेलाणं ॥ ३. चवीसविमंगाणं अट्ठावीसामहाणदीणं तु । वक्खारणगाण तहा बत्तीसह विचित्तवण्णाण ॥ ३॥ पचीसदहवराणं बारसकुलपम्वदाण तुंगाणं । अट्टण्हं णायम्वा गाभिगिरीणामसेलाणं ॥ ३२ महसढिकुमुदसणिभवेदवणगाण धादगीसंडे । छपणं कम्मखिदीर्ण छप्पण्णसदाण तह य कुंडाणं ॥ ३३ भादगिसंडस्स हा चवीसविहंगकुंडाणं । भडसट्टिकणयसंणिमरिसभगिरीणामसेलाणं ॥१४ सम्वाण पम्वदाणं चदुसदवरकणयणामधेयाणे । जह वण्णणा दु पुष्वं णिरवयवा सह य कायध्वा ॥ ३५ सम्वे वि वेदिसहिया सम्वे वणसंडमंडिया दिव्वा । सवे तोरणणिवहा जिभवणविहूसिया दिव्वा ॥ ३६ भरवीससयणतीणं बारसवरभोगपउरभूमीणं । छक्खंडाण य णेया अडसट्टा भेदभिषणाणं ॥ ३७ अबूदीवस्स पुणो जह पुष्वं वण्णणा समुहिट्ठा । धादगिसंडस्स तहा णिरवयवा वण्णणा होइ ॥ ३८ अंबूदीवो भणिदों जावदियं चावि खेत्तगणिदेण । तावदियं च सदं खलु चोदालं' धादगीसंडे ॥ १९ एकारसहतीसा इगिदालं तह य हेदि णवणउदा । सगवण्णा छच्च सदा एगट्टा खेत्तगणिदेण ॥ ४० दो धातकी वृक्ष, दो शाल्मलि वृक्ष, आठ यमक, उसी प्रकार आठ गजदन्त, सोलह उन्नत उत्तम दिग्गजेन्द्र नामक शैल, चौबीस विभंगानदियां, अट्ठाईस महानदियां, विचित्र वर्णवाले बत्तीस वक्षारपर्वत, बत्तीस उत्तम द्रह, उन्नत बारइ कुलपर्वत, आठ नाभिगिरि नामक शैल, कुमुद ( सफेद कमल ) के सदृश अड़सठ वैताढ्य पर्वत, छह कर्मभूमियां ( २ भरत, २ ऐरावत, २ विदेह); गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदाके एक सौ छप्पन कुण्ड; चौबीस विभंगाकुण्ड, सुवर्ण सदृश अड़सठ ऋषभगिरि नामक शैल तथा चार सौ उत्तम कांचन नामक पर्वत, इन सबका पूर्वमें जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही पूर्ण रूपसे यहाँ भी करना चाहिये ॥ २९-३५ ।। सब ही [ उपर्युक्त मेरुपर्वतादि ] वेदियों से सहित, वनखण्डोंसे मण्डित, दिव्य, सब तोरणसमूहसे सहित और जिनभवनोंसे विभूषित हैं ॥ ३६ ॥ चौंसठ विजयोंकी एक सौ अठाईस नदियों, बारह श्रेष्ठ भेगप्रचुर भूमियों ( २ हैमवत, २ हरि, २ देवकुरु, २ उत्तरकुरु, २ रम्यक २ हैरण्यक्त) और अड़सठ मेसेि भिन्न छह (६८४६) खण्डोंका जैसा वर्णन जम्बूद्वीपमें किया गया है वैसा ही वर्णन पूर्णतया धातकीखण्डमें भी है ॥ ३७-३८ ।। जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलका जितना प्रमाण कहा गया है उतने क्षेत्रफलकी अपेक्षा धातकीखण्डके एक सौ चवालीस खण्ड होते हैं ॥ ३९ ॥ धातकीखण्डका क्षेत्रफल ग्यारह, अड़तीस, इकतालीस, निन्यानबै, सत्तावन और छह सौ इकसठ (११३८११९९५७६६१) योजन प्रमाण है ॥ ४०॥ एक, तीन, १उ सुराग, श इसुराण. २ उश दिसगयवराणमाणं. ३ क ब वनीसविचित्तविण्णाणं. ४ ब अंडसद्धि, शअमसहित ५उश सदाणि, ६ उश जंबूदीवेहि णिदो, ७क सदं चोदालं, सदं खलु चउदालं. ८ उ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११.५० एक्कारसमो उद्देसो [ १८९ एकं च तिण्णि तिणि य छह सुण्णं छके दोणि तिण्णेगं । एचदुदोणिएक्कं धादगिसंडम्हि गणितपदं ॥ वरवज्जमया वेदी धादगिसंडस्स होहणायब्वा । चउगोउरसंजुत्ता चउदसवरतोरणुत्तंगा ॥ ४२ धादगिसंह दीवं उदधी कालोदमो परिक्खिवदि । सो अट्ठसयसहस्सा विस्थिण्णो चक्कवालम्हि ॥ ४३ कालसमुहप्पहुदी बोद्धम्या होति टंकछिण्णाओ । उम्वेधेण सहस्सं पादाला व तत्थस्थि ॥ ४४ इगिणउदिसदसहस्सा सपरिसहस्साइ छस्सदा णेया । जोयणपंचबमाहिया परिही कालोदए दिट्ठा ॥ ४५ पंच तियं बारसयं बावट्ठी छक्क तह य छादालं' । णव सुण्णं बासीदं कालयणामम्हि गणितपदं ॥ ४६ छावा? अडदालं अट्ठहिँ सत्ससीदिमसिदि च । पण्णासं च चउक्कं हवदि य कालोदधीसंखा ॥ ४७ जंबूदीवो भणिदो जावदियं चावि खेत्तगणिदेण । छच्चेव सदा बावतरं च कालोदधिं जाणे ॥ ४८ गंगादीणदियाणं हिमवंतादी तहेव सेलाणं । ताणभिमुहेण हाँति य कुमाणुसाणं महादीवा ॥ १९ वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया मणभिरामा । कालोदयम्मि दीवा णिहिट्टा सव्वदरिसीहि ॥ ५० तीन, छह, शून्य, छह, दो, तीन, एक, एक, चार, दो और एक (१३३६०६२३१११२१) इतने योजन प्रमाण [ जम्बूद्वीप व लवणसमुद्रसे संयुक्त ) धातकीखण्डका क्षेत्रफल है ।। ४१॥ धातकीखण्डका उत्तम वज्रमय वेदी चार गोपुरोंसे संयुक्त और उत्तम चौदह तोरणोंसे उन्नत जानना चाहिये ॥ १२ ॥ धातकीखण्ड द्वीपको कालोद समुद्र वेष्टित करता है । वह मण्डलाकारमें आठ लाख योजन विस्तीर्ण है ॥ ४३ ॥ कालोद समुद्र आदि आगेके समुद्र टांकीसे उकेरे हुएके समान जानना चाहिये । ये एक हजार योजन गहरे हैं तथा उनमें पाताल नहीं हैं ॥४४॥ कालोदक समुद्रकी परिधि इक्यानबै लाख सत्तर हजार छह सौ पांच (९१७०६०५) योजन प्रमाण निर्दिष्ट की गई है ॥ ४५ ॥ कालोद समुद्रका क्षेत्रफल पांच, तीन, बारह, बासठ, छह, छयालीस, नौ, शून्य और ब्यासी (५३१२६२६४६९०८२ ) इतने योजन प्रमाण है ॥ १६ ॥[जबूद्वीपादिके क्षेत्रफलसे युक्त ] कालोद समुद्रका क्षेत्रफल छयासठ, अड़तालीस, अड़सठ, सतासी, अस्सी, पचास और चार ( ६६४८६८८७८०५०४) इतने योजन प्रमाण है ॥ १७॥ जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलका जितना प्रमाण कहा गया है उसकी अपेक्षा कलेोद समुद्रका क्षेत्रफल छह सौ बहत्तरगुणा जानना चाहिये ।। १८ ॥ गंगादिक नदियों तथा हिमवान् आदि शैलोंके अभिमुख कुमानुषोंके महा द्वीप हैं ॥१९॥ कालोद समुद्र में स्थित ये द्वीप सर्वदर्शियोंके द्वारा वन-वेदियोंसे संयुक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित और मनको अभिराम निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५० ॥ कालोद समुद्रस्थ इन द्वीपोंमें स्थित कुमानुष उश मिनि. २ उ श चेक. ३ उ श तिणेक्को. उ शक्क. ५ क ब संडेहि. ६ कब भादगिसंडो दीवो उदर्षि कालोदयं परिविखवदि. ७ उ श कालसमबापहुदी, क कालसमुहप्पहुदि, व काळसमुदाप विं. ८ उश पादाले ण तवन्छि . ९ उ श सदसहस्सा य, (कप्रतो त्रुटितास्तीयं गाया). १० उश वादालं. १उकाळयणामो दुगणितपदंशकालयणामो दुगणिएपदं. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९.] जंदावपण्णसी [११.५१एगोरगवेसाणिगलंगूलिग तह भभासया गेया । इयकण्णा य कुमाणुस तहेव धरकण्णपावरणा ॥५॥ संबससकण्णमणुया तुरंगवरसीहसुणहमहिसमुहा । सूवरैवग्घउलमु मिगवाणरमीणवरवयणा ॥ ५२ गोमेसमेघवदणा विज्जूभादरिसमतेकरिवदणा | कालोदए समुद्दे कुमाणुसा होति णिहिट्ठा ॥ ५३ कोसेक्कसमुत्तंगा पलिदोवमभाउगा समुट्ठिा । ममलपमाणाहारा चउत्थभत्तेण पारिति” ॥ ५४ भोत्तण मणुयभोयं मरिदूण य ते कुमाणुसा सम्वे । उप्पज्जति महप्पा तिवग्गदेवाण भवणेसु ॥ ५५ कालसमुहस्स तहा वज्जमया वेदिया समुद्दिट्टा । चठगोउरसंजुत्ता चउदसवरतोरणुत्तुंगा ॥ ५६ पोक्खरवरो दु दीवो उदधि कालोदयं परिक्खिवदि । सोलस दुसयसहस्सा विस्थारो चक्कवालम्हि ॥ ५७ तस्स य दीवस्सई परिरयदि य माणुसोत्तरो सेलो । बाहिरभागणिविट्टो तहीवद्धं परिक्खिवदि ॥ ५८ सत्तरस एक्कवीसाणि उच्छिषो माणुसुत्तरो सेलो । चत्तारि जोयणसया तीसं कोसं च उम्वेधी ॥ ५९ चत्तारि जोयणसदा चवीसाई च वित्थडा उवरि । दस बाबीसा मूले १३ तेवीसा सप्त मज्झम्हि ॥ ६० एक ऊरुवाले, वैषाणिक, लांगलिक, तथा अभाषक, अश्वकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण, शशकर्ण, तुरंगमुख, उत्तम सिंहमुख, श्वानमुख, महिषमुख, शूकरमुख, व्याघ्रमुख, उलूकमुख, मृगवदन, वानरवदन, मीनवदन, गोवदन, मेषवदन, मेघवदन, विद्यद्वदन, आदर्शवदन और गजवदन होते हैं; ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ॥ ५१-५३ ॥ एक कोश ऊंचे, एक पल्यापम प्रमाण आयुवाले और आंवलेके प्रमाण आहार करनेवाले ये कुमानुष चतुर्थ भक्तसे पारणा करते हैं ॥५४॥ वे सब कुमानुष मनुष्योंके योग्य भोगको भोग कर और फिर मरकर भवनत्रिक देवोंके भवनोंमें महात्मा उत्पन्न होते हैं ।। ५५॥ धातकीखण्ड द्वीपके समान कालोदक समुद्रके भी चार गोपुरोंसे संयुक्त और उत्तम चउदह तोरणोंसे समुन्नत बज्रमय वेदिका निर्दिष्ट की गई है ।।५६ ॥ कालोद समुद्रको चारों ओरसे पुष्करवर द्वीप वेष्टित करता है । इसका मण्डलाकार विस्तार सोलह लाख योजन है ॥५७॥ उस द्वीपके अर्ध भागको मानुषोत्तर शैल वेष्टित करता है । पुष्करा के बाह्य भागमें स्थित यह पर्वत उक्त द्वीपके अर्ध भागको वेष्टित करता है ॥ ५८ ॥ मानुषोत्तर शैल सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा तथा चार सौ तीस योजन व एक कोश अवगाहसे संयुक्त है ॥ ५९ ।। इसका विस्तार ऊपर चार सौ चौबीस योजन, मूलमें दश सौ बाईस योजन और मध्यमें सात सौ तेईस योजन है ॥ ६० ।। मानुषोत्तर शैलपर चारों ही १३श वेसोणिग, ब वसाणिग. २ उकब यमासूया. ३कब सूयर. ४क अलूमुह. ५उ मा. विमआदरसमंत, बबिज्जयाबरिसमस,क विजयादरसमच. ६उश आमलपमाणहारा, बामळपमाणआणा..कपात, आति,श परिसि. ८शचउदसवरसमुत्तंगा. ९ब परिरयदीव. १.उश निवितो. सकदीसानि उस्सिको. १२ वीत्यये, व वित्थरो. १३ उश पूले. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११.७०] एक्कारसमो उदेसो [१९१ मणुसुत्तरम्मि सेले चदुसु वि य दिसासु होति चत्तारि । तुंगा विचित्तवण्णा मणिकंचणरयणपरिणामा॥" धुम्वंतधयवसाया मुत्तादामेहि मंरिया विष्वा । भिंगारकलसपउरा बहुकुसुमकयरचणसणाहा ॥ ६२ काळागहगंधड्डा संगीयमुदिंगसहगंभीरा । घंटाकिंकिणिणिवहा जिणिदईदाण वरभवणा ॥ ६३ मंदरसेलस्स वणे जिणिदईदाण पवरपासादा । जह पण्णिया असेसा तह एस्थ वि वण्णणा होइ' ॥ ६४ सत्तरससदसहस्सा चवुसद कोटी य' सत्तवीसाणि | पोक्खरवरखमझे परिरयमेदं वियाणाहि ॥ ६५ बादालसदसहस्सा वीससहस्सा सदा थेबे कोडी । माणुसखेत्तपरिरभो सविसर्स चूणवण्णा ये ॥ सधरा सधरों चदुग्गुणो होइ पुक्खरवरम्मि । वसादो वि य सो चदुग्गुणो होइ योद्धया ॥९७ विष्णेव सयसहस्सा पणवणं हाह तह सहस्साई । छच्च सदा चुलसीदा रुवं तु णगेहि दीवो ॥१८ बंसहरविरहियं खलु जं खेतं हवा पोक्खरद्धम्हि । तस्स दु छेदा णियमा बेचेव सदाणि बाराणि ॥ १९ इगिदालीससहस्सा उणासीदा सदा य पंच हवे । तेहत्तरिभागसदं अंतो भरहस्स विक्संभो ॥ .. दिशाओंमें उन्नत, विचित्र वर्णवाले; मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे निर्मित; फहराती दुई बजापताकाओंसे युक्त, मुक्तामालाओंसे मण्डित, दिव्य, मुंगार एवं कलशौकी प्रचुरतासे. संयुक्त, बहुत कुसुमसे की गई पूजासे सनाथ, कालागरुकी गन्धसे व्याप्त, संगीत एवं मृदंगके शब्दसे गंभीर, तथा घंटा व किकिणियोंके समूहसे सहित ऐसे श्रेष्ठ चार जिनेन्द्रप्रासाद हैं। जैसे पहिले मन्दर पर्वतके वनमें स्थित सब उत्तम. जिनेन्द्रप्रासादोंका वर्णन किया गया है, वैसा ही वर्णन यहां भी जानना चाहिये ॥ ६१-६४ ॥ एक करोड़ सत्तरह लाख चार सौ सत्ताईस ( ११७००४२७ ) योजन, यह पुष्कराधके मध्यमें परिधिका प्रमाण जानना चाहिये ॥६५॥ मनुष्यक्षेत्रकी परिधि एक करोड़ ब्यालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास (१४२३०२४९) योजनसे कुछ कम है ॥ ६६ ॥ पुष्करवर द्वीपमें पूर्व पूर्व कुलपर्वतकी अपेक्षा आगे आगेका कुलपर्वत तथा पूर्व पूर्व क्षेत्रकी अपेक्षा आगे आगेका क्षेत्र भी चौगुणा जानना चाहिये ॥ ६७ ॥ पुष्कराई द्वीप तीन लाख पचवन हजार छह सौ चौरासी योजन प्रमाण पर्वतोंसे रुद्ध है ॥६८॥ पुष्करार्द्ध द्वीपमें जो क्षेत्र कुलपर्वतोंसे रहित है उसके नियमसे दो सौ बारह (१ + ४ + १६ + ६४ + १६ + + १) ४२% २१२) खण्ड हैं ॥ ६९ ॥ इकतालीस हजार पांच सौ उन्यांसी योजन और एक सौ तिहत्तर भाग (४१५७९३५३) प्रमाण मरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विष्कम्भ है ॥७०॥ भरतक्षेत्रका उश इत्य वि वण्णणोइ. २ उश कोटि य, क कोडीउ. ३ उ बादल, श बाहुल. ४ श सदसहस्सा सदा य. ५ उश सविसेमुगुणपवणा य. ६ क श णायव्वा. ७ उश तह य सहस्साई.८ उशचया. ९उकश छेदो. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] जंबूदीवपण्णत्ती 1 ११.७१ तेवरणं च सहस्सा पंचैव सदाणि वाराणि । जवणउर्दि भागसदं मझे भरहस्स विक्खंभो ॥ ७१ पण्णा च सहस्सा चत्तारि सदाणि होति छाडाला । तेरस चेद य भागा बाहिरभरइस्स विक्खंभो ॥ ७२ जंबूदीवो भणिदो आवदिमो चावि खेत्तगणिदेण । तात्रयाणि सहस्सा चुकसीदि सर्द चे दीवदो' ॥ ७३ बे दीवा बे उदधी जावदिया चात्रि खेत्तगणिदेण । तं तु दिवई ऊणं (?) खेत्तपमाणेण दीवन्द्वे ॥ ७४ दोहं गिरिरायाणं दोन्हं इसुगारणामसेलाणं । सामलितरूण दोण्डं दण्डं वरपडमरुक्खाणं ॥ ७५ अटुं जमगाणं भट्ठं वरकरिदेदेताणं । बारसवंसहराणं बारसवर मोगभूमीणं ॥ ७६ दिसिगयवरणामाणं भट्टद्दं दुगुणिदाण' सेलाणं । चउसयकणयणगाणं णाद्दिगिरीणं तु अट्टहं ॥ ७७ चडवीतविभंगाणं मट्ठावीसं महाणदीणं तु । वसीसदद्दवराणं वक्साराणं तु तह य णायब्वा ॥ ७८ विज्जाहरसेलाणं भडसट्टाणं तु तह य णायन्त्रा । महसद्वाणं च तद्दा वसभगिरीणामसेलाणं ॥ ७९ छण्ं कम्मविदीर्णं छप्पण्णसदाण तह य कुंडाणं | अडवीससदणदीर्ण चडवीसविमंगकुंडाणं ॥ ८० सट्टी अहियाणं छक्खंड विमंडियाण विजयाणं । पोक्खरवरभद्धस्स व अण्णे वि णगाणदीणं तु ॥ ८१ हाँति महावेदाभो मणिकंचणरयणतोरणा दिव्वा । रयणमया पासादा वणसंडा तह य णायब्वा ॥ ८२ विस्तार मध्य में तिरेपन हजार पांच सौ बारह योजन और एक सौ निन्यानत्रै भाग ( ५३५१२प्रमाण है ॥ ७१ ॥ बाह्य मरतक्षेत्रका विष्कम्भ पैंसठ हजार चार सौ छपालीस योजन और तेरह भाग ( ६५४४६२ ) प्रमाण है ॥ ७२ ॥ क्षेत्रफल के प्रमाणसे जितना जम्बूद्वीप कहा गया है उतने प्रमाणसे पुष्करार्द्धके एक हजार एक सौ चौरासी (११८४ ) खण्ड जानना चाहिये ||७३|| क्षेत्रफलकी अपेक्ष! जितने मात्र दो द्वीप और दो समुद्र हैं उतने क्षेत्रप्रमाणसे पुष्करार्द्ध द्वीप डेदगुणेसे कुछ कम है (१) ॥ ७४ ॥ पुष्करवर द्वीप सम्बन्धी दो मेरु, दो इष्वाकार नामक शैल, दो शाल्मली वृक्ष, दो श्रेष्ठ पद्म ( पुष्कर ) वृक्ष, आठ यमक, आठ उत्तम गजदन्त, बारह कुलपर्वत, बारह उत्तम मोगभूमियां, दुगुणित आठ अर्थात् सोह दिग्गजेन्द्र पर्वत, चार सौ कांचन पर्वत, आठ नाभिगिरि, चौबीस विभंगानदियां, अट्ठाईस महानदियां, बत्तीस उत्तम दह, तथा बत्तीस वक्षार पर्वत, अड़सठ विद्याधरशैल ( विजयार्ध ), तथा अड़सठ वृषभगरि नामक पर्वत, छह कर्मभूमियां, एक सौ छप्पन कुण्ड, एक सौ अट्ठाईस नदियां, चौबीस विभंगाकुण्ड, छह खण्डोंसे मण्डित आठसे अधिक साठ अर्थात् अड़सठ विजय, तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी जो पर्वत व नदियां हैं उन सबके मणि, सुवर्ण एवं रत्नमय तोरणोंसे संयुक्त दिव्य महा वेदियां, रत्नमय प्रासाद तथा वनखण्ड जानना चाहिये ।। ७५-८२ ॥ १ उशव. २ क व दीवद्वे. ३ उश दविद्धो ४ श जमकरिंद. ५ श दुगनिदान. " Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११.९२ ] एक्कारसमो उद्देसो [ १९३ 1 वंत बडाया जिणगेदा ताण होंति सव्वाणं । पोक्खरणिवावियाओ गिद्दडा तह य णायन्वा ॥ ८३ 1 जंबूदीवो बादइसंडो' पुक्खरवरो य तह दीषो । वारुणिवरै वीरवरो घयधर तह खोदवरदीत्रो' ॥ ८४ णंदीसरो य अरुणो अरुण भासो य कुंडलबरो य । संखवर रुजग भुजगो वर कुसवर कोंचेवरदीयो ॥ ८५ एदे सोलस दीवा णामा एदे हि आणुपुव्वी । तेण परं जे सेसा णामा संखा इर्मा तेसिं ॥ ८६ १ दिषाणि यो सुभणामा ते इमेहि णामेहि । दीवा षि य णायव्वा बहुवाँ एक्के कामेहि ॥ ८७ दीवं सयंभुरमणं जंबूदीवादि जाव अरुणंते' । वज्जिय सेसा दीवा सव्वे णामेहि सामण्णी ॥ ८८ जंत्रूदौवे लवणो घादगिसंडम्मि हवदि'' कालोदो । सेसाणं दीवाणं दीवसरिसणामया उदधी ॥ ८९ जंबूदीवादीया दीवा लवणादिया तहा उदधी । जाव दु सयंभुरमणो विष्णेया दीव उदधी य ॥ ९० लवणो कालयसलिलो सयंभुरमणोवही य तिष्णेदे । मच्छीण कुम्मणिलया झसकुम्मविवज्जिया सेसा ॥ ९१ अद्वारसजोयणियों लवणे णवजोयणा गदिमुहेसु । छत्तीसगा य कालोदयग्मि अट्ठारसा नदिमुहेसु ॥ ९२ उन सबके फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त जिनगृह होते ह । तथा इन जिनगृहों में पुष्करिणियां एवं वापिकायें भी निर्दिष्ट की गई जानना चाहिये ॥ ८३ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करंवर द्वीप, वारुणिवर, क्षीरवर, घृतवर, क्षौद्रवर द्वीप, नन्दीश्वर, अरुण, अरुणाभास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर, भुजगवर, कुशवर और क्रौंचवर द्वीप, ये जो सोलह द्वीप हैं उनके ये अनुक्रम से है । वे द्वीप भी लोकमें द्वीप एक एक ( समान ) नाम हैं । इसके आगे जो शेष द्वीप हैं उनके नाम व संख्या यह जितने शुभ नाम हैं उन नामोंसे सहित जानना चाहिये । बहुतसे नामोंसे संयुक्त हैं ॥ ८४-८७ ॥ जम्बूद्वीपको आदि लेकर स्वयम्भुरमण द्वीप तक अरुण पर्यन्त छोड़कर शेष सब द्वीप नामोंसे समान हैं ( ? ) ॥ ८८ ॥ जम्बूद्वीपमें लवणसमुद्र और धातकीखण्ड द्वीपमें कालोद समुद्र है । शेष द्वीपोंके समुद्र द्वीपके समान नामवाले हैं ॥ ८९ ॥ जम्बूद्वीपको आदि लेकर द्वीप तथा लवण समुद्रको आदि लेकर समुद्र इस प्रकार स्वयम्भुरमण पर्यन्त द्वीप समुद्र जानना चाहिये ॥ ९० ॥ लवणोद, कालोद और स्वयम्भुरमण ये तीन समुद्र मछलियों और कछुओं ( जलचर जीवों ) के आवास रूप हैं; शेष समुद्र मछलियों और कछुओंसे रहित हैं ॥ ९१ ॥ लवण समुद्र में [ मध्यमें ] अठारह योजन व नदिमुखों में नौ योजन, कालोदक समुद्रमें [ मध्यमें ] छत्तीस योजन व नदीमुखोंमें अठारह योजन, तथा स्वयम्भुरमण १ श दिट्ठा. २ उ घादगिरिसंडो, श धागिरिसंडो ३ उ श वरुणिवर ४ उ श दीवे, बदीउ. ५ उश कुंच. ६ व हमे. ७ क ब बहुगा. ८ श एएक्कक्क. ९ उ जंबूदीवादि जामरुअणंते, श जंबूदीवामरुअणते. १० क ब सावन्ना. ११ उ लवणो भादसंडे य हवदि, श लवणे घादसंज्ञे य हकहि. १२ उश खणो, ब रमणे. १३ उ मच्छाय ( शप्रतौ स्खलितोऽत्र पाठः ) १४ श जोयणणिय. जं. दी. २५. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] जंबूदीवपण्णत्ती साहस्सिया दु मच्छा सयंभुरमणोदधिम्हि बोद्धव्वा । एमेव झसवराणं उक्कस्स होइ उच्चत्तं ॥ ९३. पत्तेयरसा चत्तारि सायरी तिण्णि होति उदयरसा । अवसेसा य समुद्दा बोद्धव्वा होति खोदरसा ॥ ९४, लवणो वारुणितोओ खीरवरो घयवरों" य पत्तेया। कालो पोक्खरउदधी सयंभुरमणो य उदयरसा ॥ ९५ जा दक्खिगदीवंते णीलादो दक्खिणे गदा रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं वंसे अहव वंसरै' ॥ ९६ णिसधगिरिस्सुत्तरदो बेसदतेवहि जोयणसदेसु । भागे च तिण्णि गंतुं सौ गंठी होइ देवकुरु ॥ ९७ मंदरतलमज्झादो भरहंता जा गदा हवे रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं वंसे अहव वंसधरे ॥ ९८ सत्तावणं च सदा अहसहस्सा कला य सत्तरसा । णिसहगिरिस्सत्तरदो ओगाहिय सा हवे गंठी ॥ ९९ मंदरतलमज्झादो सयंभुरमणम्मि जा गया रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं दीवे अहव उदधीए ।। १०० अभंतरम्मि भागे सयंभुरमणोदयस्त दीवस्स । पण्णत्तरि य सहस्सा ओगाहिय सा हवे गंठी ।। १०१ समुद्रमें एक हजार योजन [ दीर्घ ] मत्स्य जानना चाहिये । यही महामत्स्योंकी उत्कृष्ट उंचाई है ॥ ९२-९३ ॥ चार समुद्र प्रत्येकरस अर्थात् अपने अपने नामके अनुसार रसवाले, तीन समुद्र जलके समान रसवाले, और शेष समुद्र क्षोदरस ( ऊखके समान रसवाले ) जानना चाहिये ।। ९४ ॥ लवण, वारुणीवर, क्षीरवर और घृतवर, ये चार समुद्र प्रत्येकरस तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयम्भुरमण, ये तीन समुद्र उदकरस हैं ।। ९५ ॥ नील पर्वतसे दक्षिणकी ओर दक्षिण द्वीपान्तमें जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित ग्रन्थि [ अर्धच्छेद ] क्या वर्षमें है अथवा वर्षधर में है ? ॥ ९६ ॥ निषध पर्वतके उत्तरमें दो सौ तिरेसठ योजन व तीन भाग जाकर वह प्रन्थि देवकुरु [ में पड़ती] है ।। ९७ ॥ मन्दरतलके मध्य भागसे भरतक्षेत्र पर्यन्त जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित प्रन्थि क्या वर्षमें है अथवा वर्षधरमें है ? ॥ ९८ ॥ वह प्रन्थि निषध पर्वतके उत्तरमें आठ हजार एक सौ सत्तावन योजन और सत्तरह कला अवगाहन करके स्थित है ॥ ९९ ॥ मन्दरतलके मध्य भागसे स्वयम्भुरमण समुद्र में जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित प्रन्थि क्या द्वीपमें है अथवा समुद्र में है ? ।। १०० ॥ वह प्रन्थि स्वयम्भुरमण समुद्रके अभ्यन्तर भागमें एक हजार पचत्तर योजन द्वीपका अवगाहन करके स्थित है ॥ १०१ ।। मन्दरतलके मध्य भागसे लोकके अन्त तक १उ शरमगोदधीहि, बरमणोदधीहि. २ ब एमेव सवराणं ३ उ श उक्कसं. ४ उश सवाए.५श सोदरसा. ६ उ श तेओ. ७ उ धयवरो, श धवरो. ८ उ दीवंतेसु नीलवंतादु दक्षिणागदा रहू, क दीवंतं णीलादो दक्खिणे गया रज्जू, ब दीवंते सीलवंता दु दक्षिणा रज्जू , श दीवंतेसु नीलवण्णा दक्खिणोगदा र . ९ उश तिसे, ब तस्से. १० क गंठे. ११ क अधव वसधरे, ब अधव वसंधरा, श अहव वसंघरो. १२ उश गिरीसत्तरदो. १३ उ श च तदो गंतुं सो. १४ श गंटी किं वंसे देवकुरू. १५ उ श वंसवरे, १६ उ श संयंभुरमणोदधी गया रज्जू, व स्वयंभुरवणादधी गया रज्जू. १७ उश तिसे, कब तस्से. १८ क अन्भंतरिमा भागा, ब अकंतरिमा भागो, श अभंतरम्नि विभागे१९ उश उग्गाहिय, ब उग्गाहिया. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११, १०९] एक्कारसमो उदेसो मंदरतलमज्झादो लोगंता जा गदा उदधिवतं' । तिस्से मजमे गंठी इमं तु विज्जापदविसेस ॥ १०२ पण्णत्तरि य सहस्सा ओगाहिय सा दु होदि बोद्धव्वा । दीवम्हि समुद्दम्हि य मज्झे जो जत्थ पुच्छेज्जो'। १०३ जे कम्मभूमिजादा मच्छा मणुयाँ य पावसंजुचा । ते कालगदा संता उचेति णिरएK घोरेसु ॥ १०४ पावेण अहोलोयं पुण्णेण पुणो वि उड्ढलोगं तु । गच्छंति गरा तिरिया तिरिक्खखत्तेसु संभूया ॥ १०५ हेहा मज्झे उवरि वेत्तासणमल्लरीमुदिगणिभो। मज्झिमवित्थारेण दु चोद्दसगुणमायदो लोगो॥ १०६ लोयस्स ९ विक्खंभो चदुप्पयारेण होदि बोद्धव्वो । सत्तेक्कगो य पंचक्कगो य रज्जू मुणेयव्यो॥१०७ मुहतलसमासअद्धं उच्छेहगुणं गुणं च वेधेण । घणगणिदं जाणेज्जो वेत्तासणसंठिदें खेते ॥ १०८ भणिदो य अधोलोगो छण्णउदि सदेण होदि रज्जूणि । णिप्पण्ण उड्ढलोगो सदेण खलु सत्तदालेणे ॥ १०९ समुद्र पर्यन्त जो रज्जु गई है उसके मध्यमें जो प्रन्थि स्थित है वह तो विद्यापद विशेष है ।। १०२ ॥ यह ग्रन्थि एक हजार पचत्तर योजन अवगाहन करके द्वीप व समुद्रमें जानना चाहिये । मध्यमें जो जहां हो पूछना [ पूछकर जानना ] चाहिये (?) ॥ १०३ ॥ जो मनुष्य व मत्स्य ( तिर्यंच ) कर्मभूमिजात हैं वे पापसे संयुक्त होते हुए मृत्युको प्राप्त होकर भयानक' नरकोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १०४ ॥ तिर्यग्लोक ( मध्यलोक ) में उत्पन्न हुए मनुष्य व तियंच पापके वश होकर अधोलोकमें तथा पुण्यके वश होकर ऊर्ध्व लोकमें जाते हैं ॥ १०५ ॥ यह लोक नीचे, मध्यमें और ऊपर क्रमसे वेत्रासन, झल्लरी व मृदंगके सदृश है। यह मध्यम लोकके विस्तार (१ राजु ) की अपेक्षा चौदहगुणा आयत ( ऊंचा ) है ॥ १०६ ।। लोकका विस्तार [ अधोलोकके अन्तमें, मध्यलोकमें, ब्रह्म स्वर्गके अन्तमें तथा ऊर्ध्वलोकके अन्तमें कमसे ] सात, एक, पांच और एक राजु; इस तरह चार प्रकारका जानना चाहिये ।। १०७ ॥ मुख और तल ( भूमि ) को जोड़कर व उसे आधा करके फिर उंचाईसे तथा मुटाईसे गुणित करनेपर वेत्रासन सदृश क्षेत्र अर्थात् अधोलोकका घनफल प्राप्त होता है, ऐसा जानना चाहिये [ जैसे-- मुख १ राजु, भूमि ७ राजु, उंचाई ७ राजु, मुटाई ७ राजु; ( १ ७.) ४७ x ७ = १९६ राजु ] ॥ १०८ ॥ अधोलोकका धनफल एक सौ छयानबै राजु तथा ऊर्ध्वलोकका एक सौ सैंतालीस [ ( १ + ५ ) x ७ ४ ७ = १४७ ] राजु प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ।। १०९ ॥ मूलको मध्यसे गुणित करके जो प्राप्त १उ उदधिअंतां, श उदधिअती. २ क इमा तु विज्जापदविसेमा. ३ उश उग्गाहिय. ४श सो दु हो विव्वो. ५ उ मज्झे जो जत्थ, श मझे जो ज जेच्छ. ६ उश माणुया. ७ उ उविति, ब उवएति, श उवितिं. ८ क गरएसु, ब णारएसु. ९ उ श अधोलोए. १० श गच्छंति गिरा तिरिक्खेनेसु. ११ ब संभूय. १२ उश चोदसगुणमायगो. १३ क ब दु १४ क सत्तेक्कगो य रज्जू. १५ क मुणेयम्वा, ब मुनेयम्वा. १६ उ श मुहतसलमोसमद्धं. १७ उ च वेधेन, शचेधेन. १८ उश जाणिज्जा. १९ कब खेतो. २० उश णिपुण्ण. २१ उ सत्तालेण, श सत्ताणेल. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] जंबूदीवपण्णत्ती [११.११० 1 मूलं मज्मेण गुणं मुहसहिदद्धं तु तुंगकदिगुणिदं' । घणगणिदं जाणिज्जो मुदिंगसंठानखेत्तम्हि ॥ ११० तिरियालोयायारप्यमाणै हेद्वा दु सत्तपुढवी णं । आयासंतरिदाओ वित्थिष्णयरा य डिडों ॥ १११ धम्मा वंसा मेत्रों अजणरिद्वा य होदि अणिउज्झ । छडी मघवी पुढवी सत्तमिया माघवी णाम ॥ ११२ रयणाँसक्करवालुयपंकप्लभ धूम पंचमी पुढत्री । छडी तमप्पभा वि य सत्तमिया तमतमा गाम ॥ ११३ एयं च सयसहस्सा होदि असीदिं च जोयणसहस्सा । रयणप्पभाबहुलियं ' भागेसु वि' तीसु पविभत्तं ॥११४ खरभागपंकबहुला अप्पबहुलो य होइ गायव्वा । एदे तिष्णि विभागा रयप्पभणामपुदवीए ॥। ११५ सोलस दु खरे भागे पंकबहुले तहा य चुलसीदिं । अप्पबहुले असीदी बोद्धव्वा जोयणसहस्सा ॥ ११६ हो उसमें मुखप्रमाणको मिलाकर और फिर उसे आधा करके उंचाईके वर्गसे गुणित करने पर प्राप्त राशि मृदंगाकार क्षेत्र ( मध्यलोक ) में घनफलका प्रमाण जानना चाहिये ( ? ) ॥ ११० ॥ विशेषार्थ - वृत्त क्षेत्रके विस्तारका जो प्रमाण हो उसका वर्ग करके फिर उसे दशसे गुणित करे । इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालनेपर वृत्त क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । इस परिधिप्रमाणको विस्तारके चतुर्थ भाग ( ) से गुणित करने पर वृत्त क्षेत्रका क्षेत्रफल व उक्त क्षेत्रफलको वृत्त क्षेत्रके बाहल्यसे गुणित करनेपर उसके घनफलका प्रमाण आता है । जैसे—मनुष्यलोकका विस्तार ४५००००० यो. व बाहल्य उसका १००००० यो. है । अत एव ४५०००००' x १० = १४२३०२४९ यो. परिधि; १४२३०२४९ × ४५००० १६००९०३०१२५००० क्षेत्रफल १६००९०३० = १२५००० × १००००० = १६००९०३०१२५०००००००० घनफल । तिर्यग्लोक के नीचे धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना और अरिष्टा ये यादृच्छिक नामवाली तथा छठी मघवी और सातवीं माघवी नामक, ये उत्तरोत्तर अधिक अधिक विस्तीर्ण सात पृथिवियां आकाशसे अन्तरित होती हुई नीचे नीचे स्थित हैं ॥ १११-११२ ॥ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, पांचवीं धूमप्रभा, छठी तमः प्रभा और सातवीं तमस्तमः प्रभा, ये उक्त पृथिवियोंके नामान्तर हैं ॥११३॥ तीनों ही भागों में विभक्त रत्नप्रभाका बाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण है ॥ ११४ ॥ खरभाग, पंकबहुलभाग और अब्बहुलभाग, ये तीन रत्नप्रभा नामक पृथिवीके विभाग जानना चाहिये ॥ ११५॥ इनमेंसे खरभागका सोलह हजार, पंकबहुलभागका चौरासी हजार और अब्दुलभागका अस्सी हजार योजन प्रमाण वाहल्य जानना चाहिये ॥ ११६ ॥ चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहितांका, १ ब तुंगतुगकादिगुणिदं श तु तुंगगुणिदं २ उश व्वणगुणिदं ३ उ क श लोयायारं पमाण, यायारं पुमा ४ उश त्रित्थिन्नयरायहेडिडा, क व वित्थिष्णयरायहेद्वेद्वा ५ उब श धम्मा मेघा वंसा. ६ उश अणिउंजा. ७ उ ब श रदगा ८ उ वेतुलियं, क ब बेहुलिया, श वेदुलियं. ९ क अ. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. १२५ ] बिदिओ उद्देसो चित्ते वइरे वेरुलि लोहियअंके मसारगल्ले य । गोमज्जए' पवाले य तह जोहरसेत्ति य ॥ ११७ नवमे अंजणे बुत्ते दसमे अंजणमूलये । अंके एक्कारसे बुत्ते फल्ड्रिंके बारसेत्ति ये ॥ ११८ चंदणे वच्चगे' चावि बहुले" पण्णारसेत्ति य | सिलामए वि अक्खाए' सोलसे पुढवी तले ॥ ११९ सोलस चेत्र सहस्सा रयणाएं होंति चेत्र बोद्धव्या । तलउवरिमम्मि भागे जेण दु रयणप्पभा नाम ॥ १२० अवसेसा पुढवीओ बोद्धव्वा होति पंकबहुलाओ । वेहुलिएहि य तेर्सि छन्हं वि इमं कर्म जाणे ॥ १२१ बत्तीसं च सहस्सा अट्ठावीसा तहेव चवीसा । वीसा सोलर्स अट्ठ य ओसरण कमेण बहुलियं ।। १२२ पंकबहुलम्म भागे बोद्धव्वा रक्खसाणमावासा | असुराण ये' चैव तहा अवसेसाणं खरे भागे ॥ १२३ "असुरा णागसुवण्णा दीवोदधिथणि अविज्जुदिसणामी । अग्गीवादकुमारा दसवा भणिदा" भवणवासी ॥ १२४ चदुसठि चुलसीदी बात्रत्तरि" चेव सदसहस्साणि । छावत्तरिं च छण्हें " वार्दिदाणं च छण्णउर्दि ॥ १२५ मसार गल्ला, गोमेद का, प्रत्राला, ज्योतिरसा, नवमी अंजना, दशवीं अंजनमूलका, ग्यारहवीं अंका, बारहवीं स्फटिका, चन्दना, वर्चका ( सर्वार्थका ), पन्द्रहवीं बहुला (बकुला ) और शिलामय, इस प्रकार तलभागमें सोलह हजार योजनकी मुटाईमें ये सोलह पृथिवियां हैं। चूंकि इसके तलव उपरिम भागमें रत्नादि हैं, इसीलिये इसका नाम रत्नप्रभा जानना चाहिये ॥ ११७-१२० ॥ शेष छह पृथिवियां पंकबहुल जानना चाहिये। उन छहों पृथिवियोंके बाहल्यका क्रम यह है ॥ १२१ ॥ बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार, इस प्रकार यह नीचे नीचे क्रमसे उक्त पृथिवियों का बाहल्य जानना चाहिये ॥ १२२ ॥ पंकबहुलभागमें राक्षसों और असुरकुमारों के आवास तथा खरभागमें शेष व्यन्तर व भवनवासी देवोंके आवास जानना चाहिये ॥ १२३ ॥ असुरकुमार नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमार, ये दश प्रकारके भवनवासी कहे गये हैं ॥ १२४ ॥ चौंसठ लाख ( ३४०००००+३०००००० ) चौरासी लाख (४४०००००+४००००००), बहत्तर लाख ( ३८०००००+३४००००० ), छहके छयत्तर लाख ( ४००००००+३६००००० ), और वायुकुमारोंके छयानबै लाख ( ५००००००+४६०००००), यह उन दश प्रकारके भवनवासियोंके भवनोंका प्रमाण है ॥१२५॥ चमर व वैरोचनादि सब इन्द्रोंके क्रमशः चौंतीस लाख [ १९७ १ उश गोमजेये, ब मज्जए. २ उश पलिये वारसमेत्ति य, क व फलिके वारसे त्तिय (ब ' या ' ). ३ षु वव्विगे, क वयगे, ब वचगे, श वधिगे. ४ क वक्रुले, व वकुले. ५ ब यण्णारमेत्ति, श पण्णासरे त्ति. ६ श व यक्खाए ७ उ श णामा ८ क पि इसकमं जाणे, बं पि इमं जाणे. ९ ब लोलस्स १० उ अ या ओरसणकमेण, व अड य उसरणकम्मेण, श अडा ओसरणकमेण. ११ असुरण य, श असुचरय. १२ उ यि विज्जुदसणामा, श यणिविजुद सणामा, १३ उ श वणिदा. १४ उ विसन्त्तरि, श विसरित्तं. १५ ' छष्ण्हं ' इत्यत आरम्य अग्रिमछण्हं पदपर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति काप्रतौ. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीपपण्णत्ती [ ११. १२६चोत्तीस तीस चोदाल ताले अडतीसमेव चोत्तीसा । तालं छत्तीस पि य छण्हं पण्णासमेव छावाला ॥ १२६ सव्वेसि एदाणं पत्तेयं जिणघरे णमसामि । सत्तेवे य कोडीओ बावत्तरिलक्खअब्भधिया ॥ १२७ सम्वे वि बेदिसहिया सव्वे वरतोरणेहि कयसोहा । सम्वे अगाइगिहणो सव्वे मणिरयणसंछण्णा॥१२८ धुवंतधयबडाया मुत्तादामेहि मंडिया दिव्वा । कालागरुगंधड्ढा बहुकुसुमकयच्चणसणाहा ॥ १२९ शाइणिगणसंछण्मा संगीयमुदिंगसद्दगंभीरा । बग्जिदणीलमरगयणाणामणिरयणपरिणामा ॥ १३० सत्ताणीयाणि तहा तिणि य परिसाहि.सादरक्खाहिं। सामाणियाहि जुत्ता णागकुमारा समुद्दिहा ।। १३१ बहुअच्छरेहिं जुत्ता सम्वाहरणेहि मंडियसरीरा । पुण्णेण समुप्पण्णा देवा भवणेसु णायव्वा ॥ १३२ कडिसुत्तकडयकंठावरहारविहूसिया मणभिरामा । पजलंतमहामउडा मणिकुंडलमंडिया गंडा॥१३३ .. सुकमारपाणिपादा णीलुप्पलसुरहिगंधणीसासा । लायण्णरूवकलिया संपुण्णमियंकवरवयणा ॥ १३४ सिंहासणमझगया सियचामरविज्जमाण बहुमाणा 1 सेदादवत्तचिण्हा भवणिंदा सुरवरा या ॥ १३५ व तीस लाख, चवालीस लाख व चालीस लाख, अडतीस लाख व चौंतीस लाख, छहके चालीस लाख व छत्तीस लाख, तथा पचास लाख व ख्यालीस लाख भवन हैं। इन सब भवनोंमेंसे प्रत्येक भवनमें जिनगृह हैं । उन जिनगृहोंको मैं नमस्कार करता हूं। उनका समस्त प्रमाण सात करोड़ बहत्तर लाख ( ७७२००००० ) है ॥१२६-१२७॥ सब ही जिनप्रासाद वेदियोंसे सहित, सब उत्तम तोरणोंसे शोभायमान, सब अनादि-निधन, सब मणियों एवं रत्नोंसे व्याप्त, फहराती हुई ध्वजापताकाओंसे सहित, मुक्तामालाओंसे मण्डित, दिव्य, कालागरुकी गन्धसे व्याप्त, बहुत कुसुमोंके द्वारा की गई पूजासे सनाथ, नर्तकियोंके समूहसे व्याप्त, संगीत एवं मृदंगके शब्दसे गंभीर; तथा वज्र, इन्द्रनील व मरकत रूप नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम स्वरूप हैं ।। १२८-१३० ॥ नागकुमार देव सात अनीक, तीन प्रकारके पारिषद, आत्मरक्ष और सामानिक देवोंसे युक्त कहे गये हैं ॥ १३१ ॥ बहुतसी अप्सराओंसे संयुक्त व समस्त आभरणोंसे अलंकृत शरीरवाले वे देव पुण्यके प्रभावसे उक्त भवनोंमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३२ ॥ उपर्युक्त भवनवासी देवेन्द्र कटिसूत्र, कटक, कंठा व उत्तम हारसे विभूषित; मनको अभिराम, चमकते हुए महा मुकुटसे संयुक्त, मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंवाले, सुकुमार हाथ-पैरोंसे युक्त, नीलोत्पलके समान सुगन्धित निश्वाससे सहित, लावण्यमय रूपसे संयुक्त, पूर्ण चन्द्रके सदृश मुखवाले, सिंहासनके मध्यमें स्थित, धवल चामरोंसे वीज्यमान, बहुत सम्मानित, तथा श्वेत छत्र मंप चिह्नसे संयुक्त हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥ १३३ -१३५ ॥ अधोलोकमें भूतोंके चौदह १ब दाल. २ श जिगब्बरे नमंमि तेव. ३ उ श संपुग्णा. ४ श रयगसंपुणा. ५ उश परिसादि यादरम्याहि, ब परिसादि आदरक्खाहि. ६ श प्रतौ त्रुटिता जातेयं गाथा. ७ उ ब मंडिया. ८ क मंडिया दिवा, य मंडिया मंडा. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. १४४ ] एक्कारसमो उसो [ १९९ चउदस चेव सहस्सा भूदाणं होंति अधियलोयहिं । सोलस चेव सहस्सा रक्खसदेवाण विष्णेया ॥ १३६ पदमादियउक्कस्तं बिदियादिय साधियं हवे जहणणं तु । घम्माये भवणविंतर वाससहस्सा दस जहण्णा ॥ १३७ असुरसु सागरोत्रम तिपल्ल पल्लं च गागभोमाण । अब्दादिज्ज सुवण्णा दु दीव सेर्सो दिवड्ढं च ॥ १३८ पणुवीसं असुराणं सेसकुमाराण दसधणू चेव । त्रिंतरजोइसियाणं दस सत्त धंणू मुणेयव्वा ॥ १३९ पणुवीस जोयणाणं ओही वितरकुमारखग्गागं । संखेज्जजोयणाणि दु जोइसियाणं जहण्णोही ॥ १४० असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोइसगणाणं । संखातीदसहस्सा उक्कस्सो अधिविसओ दु ॥ १४१ अप्पबहुलहिं भागे पढमाए खिदीऐ होंति गिरया दु । वज्जिताण सहस्सं " उवरिमतल हेडिमतलादो ॥ १४२ तसंच सय सहस्सा पणुवीसा तह य होइ पण्णरसा । दस तिष्णि सदसहस्सा एगं पंचूणयं पंच ॥ १४३ एसा दुरियसंखारयणादीया कमेण पत्रिभत्तो । संवग्गेण दु गिरया चदुरासीदिं च सदसहस्सों ॥। १४४ १० हजार और राक्षस देवोंके सोलह हजार [ भवन ] जानना चाहिये ॥ १३६ ॥ प्रथमादि पृथि - वियोंमें जो उत्कृष्ट आयुका प्रमाण है वही साधिक ( एक समय अधिक ) द्वितीय आदि पृथिवियोंकी जघन्य आयुका प्रमाण होता है । घर्मा पृथिवीमें तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंकी जघन्य. आयु दश हजार वर्ष प्रमाण होती है ॥ १३७॥ उत्कृष्ट आयु असुरकुमारोंकी एक सागरोपम, नाग-कुमारों की तीन पल्योपम, व्यन्तरोंकी एक पल्योपम, सुपर्णकुमारोंकी अढ़ाई पल्योपम, द्वीपकुमारोंकी दो पल्योपम और शेष भवनवासियोंकी उत्कृष्ट आयु डेढ़ पल्योपम प्रमाण है ॥ १३८ ॥ असुरकुमारोंका शरीरोत्सेध पच्चीस धनुष और शेष कुमारोंका दश धनुष प्रमाण है । व्यन्तर व ज्योतिषी देवोंके शरीर की उंचाई क्रमशः दश और सात धनुष प्रमाण जानना चाहिये ॥ १३९ ॥ व्यन्तर और कुमार देवोंके अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र पच्चीस योजन तथा ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिका क्षेत्र संख्यात योजन प्रमाण है ॥ १४० ॥ असुरकुमारोंके उत्कृष्ट अवधिका क्षेत्र असंख्यात करोड़ योजन और शेष भवनवासी तथा ज्योतिषियोंके उत्कृष्ट अवधिका क्षेत्र असंख्यात हजार योजन प्रमाण है ॥ १४१ ॥ अब्बहुलभाग में प्रथम पृथवीके उपरिम व अधस्तन तल भाग में एक एक हजार योजन छोड़कर नरक स्थित हैं ।। १४२ ॥ तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दश लाख, तीन लाख, पांच कम एक लाख और केवल पांच, यह रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमसे नरकसंख्या कही गई है । इसको मिलानेपर समस्त बिलोंका प्रमाण चौरासी लाख होता है १ उश लोयाणं. २ उश धम्माय, ब धमाय. ३ क भउमागं, व तोमाणं. ४ उश सोसा. ५ उ सेखेयजोयणागि, श सेवेयसोयगाणि. ६ क ब जहणम्हि. ७ उ श जोइसन्नाणं, क जोयसगगाणं, ब. जोयसगगाणं. ८ क आपचहुलम्हि ९ क खिदियाय, ब खिदिआय. १० क ब सहस्सा. ११ क ब रयसंखारदणादीया. १२ उश पचिलित्ता १३ उश संवेग्गेण, ब संवगोण. १४ क चदुरासीदा सदसहस्सा, ब चदुरासीदिं सदसहस्सा. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.०० जंबूदीवपण्णत्ती [११. १४५ या तेरेक्कारस णव सत्त य पंच तिण्णि एक्कं च । रयणादितमतमंतो पुढवीणं पत्थडा भणिदा ॥ १४५ सीमंतगोद पदमोणिरओ पण रोरुगो तिबोद्धब्बोभंतो भवदि चउरथो उम्भंतो पंचमो गिरोv संभंतमसंभंतो विभंतो चेव अहमो णिरओ। तत्तो गवमो गिरओ दसमो तसिदो ति बोदव्वो ॥ १४७ चक्कंतमचक्कंतो विस्कंतो चेव तेरसो णिरओ। पदमाए पुढवीए तेरस गिरइंदया भणिया ॥ १४८ थडगे थणगे चेव य मणगे वणगे तहेवं बोद्धव्वा । धाडे तह संघाडे जिन्भे पुण जिन्भिगे चेव ।। १४९ लोले च लोलगे खलु तहेव थणलोलुवे य बोद्धव्या । विदियाए पुढवीए एयारस इंदया भणिया ।। १५. तत्तो तसिदो तवणो तावणो होइ पंचम णिदाहो" । छहो पुण पञ्जलिदो उज्जलिदो सत्तमो” गिरओ ॥१५१ संजलिदो अहमओ संपज्जलिदो य होदि णवमो दु। तदियाए पुढवीए णव खलु णिरइंदयो भणिया ॥ १५२ आरे मारे तारे तत्ते तमगे य होदि बोद्धन्वा । खाडे य खडखडे खलु इंदयगिरया चउत्थीए ॥ १५३ तमे भमे झसे" चेव अंधे तिमिसे य होदि बोद्धब्बा । पंर्चेदयणिरयाँ खलु पंचमखिदिए जहुद्दिई ॥ १५४ हिमवद्दललल्लंकइंदयणिरया हवंति छडीए । एक्को पुण सत्तमिए अवधिहाणो ति बोदबा ॥ १५५५ ॥ १४३-१४४॥ रत्नप्रभासे लेकर तमस्तमा पृथिवी तक क्रमशः तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पांच, तीन और एक; इस प्रकार पाथड़े कहे गये हैं ॥ १४५ ॥ प्रथम सीमन्तक, निरय ( नरक ), रोरुक, चतुर्थ भ्रान्त, पंचम उद्धान्त, संभ्रान्त, असंभ्रान्त, आठवां विभ्रान्त, नौवां तप्त, दशवां त्रसित, चक्रान्त ( वक्रान्त ), अचक्रान्त (अवक्रान्त ) और तेरहवां विक्रान्त, ये तेरह इन्द्रक बिल प्रथम पृथिवीमें कहे गये हैं ॥ १४६-१४८ ॥ थडग, स्तनक, मनक, वनक, घाट, संघाट, जिस, जिहिक, लोल, लोलक और स्तनलोलुक, ये ग्यारह इन्द्रक द्वितीय पृथिवीमें कहे गये जानना चाहिये ।। १४९-१५० ॥ तप्त, त्रसित (शीत ), तपन, तापन, पांचवां निदाघ, छठा प्रज्वलित, सातवां उज्ज्वलित, आठवां संज्वलित और नौवां संप्रज्वलित, ये नौ इन्द्रक बिल तृतीय पृथिवीमें कहे गये हैं ॥१५१-१५२ ॥ आर, मार, तार, तप्त, तमक, खाड और खडखड, ये सात इन्द्रक बिल चतुर्थ पृथिवीमें कहे गये हैं ॥ १५३ ॥ तम, भ्रम, झष, अन्ध और तिमिस्र, ये पांच इन्द्रक बिल पांचवीं पृथिवीमें कहे गये हैं ॥ १५४ ॥ हिम, वर्दल और लल्लंक, ये तीन इन्द्रक बिल छठी पृथिवीमें तथा केवल अवधिष्ठान नामक एक इन्द्रक बिल सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये ॥ १५५ ॥ जो दुराचारी जीव विषयोंमें आसक्त हैं, १उ श रयणाचित्तमतमंत. २ उश णिरगो पुण बोरुगो. ३ क ब बोधव्वा. ४ उ तवो भवदि, ब भत्तो भवदि, श तत्तो भवदि. ५ ब सशंतमसज्ञतो विसंतो. ६ उ श चितो. ७श यणगे. ८ उश मामागे वणगे तहेव, क ब मणगे तणगे य चेव. ९ उश जिते पुण जिभिगे, ब जिते पुण जिप्तगे. १० उ श पंचमो निजहो, ब पंचमो णिठाहो. ११ उश पन्जलिदो सत्तमो, ब पचलिदो उजलदो सत्तमो. १२ उश खलु निरयंदया, ब खलु इंदयरि. १३ क व तमे चमेज्झसे. १४ क पंचिंदियनिरया. व पंचेदियणिरया. १५ उ हिमवदललल्लक्खं, क व हिममद्दललल्लकं, श इमवदललल्लक्कं. १६ क ब अवधिहाणे. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. १६२ ] एक्कारसमो उदेस [ २०१ विसयासत्ता जीवा कसायलेस्सुक्कडा य लोहिल्ला' । दारुणमंसाहारा पडति णरए दुरायारा ॥ १५६ पिसुणासया ये चंडा मच्छरिया चोरकवर्डमायावी । जिंदणवधकरणरदा पडंति णिरए खडखडत ॥ १५७ जोयणसयप्पमाणा तत्तकवल्लिम्हि ते दु छुन्भंति' । डज्यंति धगधगत महिसोरडिगं करेमाणा ॥ १५८ हम्मति ओरसंता दढप्पहारेहि णरयपालेहि' । छिंदेति तडतडेंता' वज्जकुढारेहिं बेत्तणं ॥ १५९ भज्जंति" कडकडेहि हड्डुइं चूरंति' लउडपहरेहि । बंधेवि अग्गिमज्झे छुहंति जमदूव रोसेहिं ॥ १६० रोवंति य विलवंति य पायपडतम्मि णाहि" मेल्लंति । पीडति चादुरोधों काऊ छुहंति चुल्लीसु ॥ १६१ तत्तकालिहिं छुद्ध अण्णे खरफरुसवज्जसूलेहिं । अण्णे वहतरणीहि य खारणदीएहि छुम्भंति ॥ १६२ 3 * E ९ 1 तीव्र कषाय व दुर्लेश्यासे सहित हैं, लोभसे युक्त हैं, क्रोधी हैं, तथा मांसभोजी हैं वे नरकों में पड़ते हैं ॥१५६॥ जो जीव पिशुनाशय अर्थात् परनिन्दा रूप अभिप्रायसे सहित, क्रोधी, मात्सर्य भावसे संयुक्त, चोर, कपटी, मायाचारी तथा परनिन्दा व जीवहिंसा करनेमें तल्लीन हैं वे खडखड नरक ( चतुर्थ पृथिवीका अन्तिम इन्द्रक बिल ) पर्यन्त नरकमें पड़ते हैं ॥ १५७ ॥ [ इन नरकोंमें परस्पर ] a नारकी वहां सौ योजन प्रमाण संतप्त कड़ाहीमें डाले जाते हैं, जहां वे महिषके समान रुदन करते हुए धग्-धग् शब्दपूर्वक जलते हैं ॥ १५८ ॥ वे रुदन करते हुए नरकपालों अर्थात् अम्बावरीष जातिके असुरकुमारोंके द्वारा दृढ प्रहारोंसे मारे जाते हैं । वे उन्हें पकड़ कर वज्रके समान कठोर कुठारोंके द्वारा तड़-तड़ शब्दपूर्वक छेदते हैं ॥ १५९ ॥ यमके दूतोंके समान वे क्रुद्ध होकर उन्हें कड़-कड़ शब्दोंके साथ भग्न करते हैं, डंडोंके प्रहारों द्वारा उनकी हड्डियों को चूर-चूर करते हैं, तथा बांधकर अग्निके मध्यमें डालते हैं ॥ १६० ॥ इस अवस्थामें वे नरकी रोते व विलाप करते हैं। पैरोंमें गिरनेपर भी वे असुरसमूह उन्हें छोड़ते नहीं हैं, किन्तु पीड़ा देते हैं। चारों ओरसे अवरुद्ध करके वे उन्हें चूल्हों में फेंकते हैं ।। १६१ || दूसरे कितने ही नारकी संतप्त कड़ाही में फेंके जाते हैं, तथा कितने ही अन्य नारकी तीक्ष्ण स्पर्शवाली वज्रशूलियोंपर व क्षारनदी वैतरिणी में फेंक दिये जाते हैं ।। १६२ ॥ कितने ही पापी नारकी वसा, रुधिर एवं पीवके १ उश लेसुक्कडा य लोहिल्ला, क लेसुक्कडा य लोभिक्खा, ( बप्रतौ त्रुटितेयं गाधा ) २ उ क पिसुणासदा य, व पिसुणासंदा य, श पिणासट्टा य. ३ उ कव्वड, श कव्त्रण. ४ क ब खडखर्डेता. ५ उ श तत्तक्रववीहि ते दु च्छब्भंति, क तत्तकवल्लीहिं ते दु बुझंति, ब तत्ताकवलीहिं ते दु छुशंति. ६ क डब्भंति धगधगेता. श इज्यंति धगडता. ७ ब उरसंता. ८ उ श स्यगपालेहि ९ उ श छिंदंति तडितडिता. ब छिंदंति तडतडता. १० उ वज्जावुढारेहि घेत्तणं, श वज्जुकडारेहि गंतूणा. ११ व वज्जंति. १२ उ हदुइं चूरंति, क हृद्दई चूरैति, ब हद्दइ चूरेहि, शहदुहं तूरति. १३ क पहरेहिं, ब पउरेहिं, श यहरहि, १४ ब बंधवि. १५ क णाहिं, बणा. १६ क पी ंति, १७ उ श चादुरोधा, क चादुचोप्पा, ब चादुरोप्पा. १८ उ तत्तकवलिहिं च्छूडा, क तत्तवल्लिहिं छूटा, ब तत्तवल्लिहिं छूटा, श तत्तकाल्लिहि छूढा. १९ उ खारणदीये य छुब्भंति, श खारणदीए ए छुभंति. जं. दी. २६. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १६३वसमहिरपूयमझे तडतडफुटुंत सब्बसंधीसु । पीलिज्जति अधण्णा जंतसहस्सेहि घेत्तणं ॥ १६३ लंबंतचम्मपोटो अण्णे धावंति तुरियवेगेण । पेच्छंति गिरिवरिंदा तस्थ गिलुक्कंति झाडेहि ॥ १६४ दरिविवरेसु पइट्ठा तस्थ वि खजति वग्धसिंघेहिं । सप्पेहि घोणसेहि य खज्जति हु वज्जतुंडेहि ॥ १६५ कंदरविवरदरीसु वि सिलाण विच्चेसु तेसु पविसति । तत्थ वि य धगधगतो* सहसा उहाविओ अग्गी ॥ सुमरेदि पुव्वकम्मं गुलुगुलु गज्जति भीमसहेण । कालसिला उप्पाहेति उप्पयंता अधण्णाणं ॥ १६७ घाईता जीवाणं शिययं खायंति" तह य मंसाणि । सासिज्जंति" यधण्णाचाराणे णरयपालेहिं ॥ १६८ संडासेहिं य जीहा उप्पाडिति तह रसंताणं । छिंदंति हत्थपादो कण्णाहरणासियादीणि ॥ १६९ फाति आरडेतों मोग्गरछुरियापहारघाएहिं । असिवत्तवणेहि तहा पावंति" महंतदुस्वाणि ॥ १७० बीच समस्त सन्धियोंमें तड़-तड़ टूटते हुए ग्रहण करके हजारों यंत्रोंके द्वारा पेरे जाते हैं ॥ १६३ ॥ जिनके पैटका चमड़ा लटक रहा है ऐसे अन्य नारकी बड़े वेगसे दौड़कर महान् पर्वतोंको देखते हैं और वहां झाड़ोंमें छिप जाते हैं ॥ १६४ ॥ कितने ही नारकी गुफाओंके भीतर प्रविष्ट होकर वहां भी वाघों और सिंहोंके द्वारा खाये हैं, तथा कितने ही वनके समान कठोर मुखवाले सर्पो व घोनसों ( विशेष जातिके सों) के द्वारा खाये जाते हैं ॥ १६५ ॥ कितने ही नारकी उन कन्दराओं व गुफाओंके भीतर भी शिलाओंके मध्यमें प्रविष्ट होते हैं । वहांपर भी सहसा धग्-धग करती हुई अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ॥ १६६ ॥ वे पूर्वकृत कर्मका स्मरण करते हैं और हाथीके समान भयंकर शब्दसे गुल-गुल गर्जना करते हुए कूदकर पापी नारकियोंके लिये कालशिलाओंको उखाड़ते हैं ॥ १६७ ॥ तथा जीवोंका घात करनेवाले उन दुराचरी नारकियोंको स्वकीय मांस खिलाकर अम्बावरीष जातिके असुरकुमारों द्वारा शिक्षित ( दण्डित ) किया जाता है ॥ १६८ ॥ उक्त देवोंके द्वारा चिल्लाते हुए उन नारकियोंकी जीभ संसियोंसे उखाड़ी जाती हैं तथा हाथ, पैर, कान, अधरोष्ठ एवं नासिका आदि अंग-उपांग छेदे जाते हैं ॥ १६९ ॥ रोते हुए वे नारकी जीव मुद्गर एवं छुरीके प्रहारों व अभिघातों द्वारा फाड़े जाते हैं तथा असिपत्रवनोंके द्वारा महान् दुःखोंको प्राप्त होते हैं। १ उ कुछंति, श कुदंति. २ उ लवणत्तचम्मपोड्दा, क लंबंतिचम्मपोहा, ब लंवतचम्मयोह, श लवमतचम्मपोटा. ३ ब तुरयवेगेण. ४ श निलुक्कंतु. ५ उ धाडेहि, क साडेहि, ब काडेहि, श पाडेहि६ उ वम्बसिंम्वहि, व सिंघवाहिश वग्वसिषेहि. ७ उश तिस्थ वि य धगधगितो, तस्थ वियपग धगंता. ८ उ श सारोवि पुत्रवाम्मे, क सुमरेवि पुवकम्म, ब सुमरेवि पुन्वकम्मे. ९ उ श उपाउंति, क आडेति, ब उपाडिति. १० उ गिययं खयंति, क गिअयं खायंति, ब णिश्चयं खायंति, श णियं स्वयंति, ११ उ सो सेज्जति, क सासिज्जंति, ब सासज्जति, श सो सिजति. १२ उ श अधणाचाराणं, ब यधण्यावाराणं. १३ उश संहासेही य जीया उप्याडिति. १४श रसंसाणं. १५ उशतस्थपादा, ब तत्थपाद १६ उश फाति अरता, ब फाइंति आरइंता. १७ उश असपत्तवणेहिं तहा पावंत. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. १७७ ] एक्कारसमो उद्देसो [२०३ हुववहजालापहदा डझता वि प्पियं पलोयंता । पविसंति तत्थ सहसो असिपत्तवणं महाघोरं ॥ १७१. छिंदंति य भिदंति य उवरि पडतेहिं पत्तखग्गेहिं । वेकंडिया व जंति वायवसा पडियपत्तेहि ॥ १७२ गलसंखलासु बद्धा संछुन्भंति य तत्तचुल्लीहिं । तत्तकवलिसु अण्णे पच्चंतिय सिमिसिमंतेण ।। १७३ अच्छोडे प्पिणु अण्णे संबलिरुक्खम्मि कंटयाइण्णे । कट्टिजंति" रसंता मंसवसारुहिरविच्छड्डा ॥ १७४ छिंदंति य करवत्ते बंधेप्पिणु संखलाहि खंभेसु । कपिज्जति रसंता करंगुलीयाओ चस्केहि ॥ १७५ एवं छिंदणभिंदणताडणदहदहणदंडभेऔ य । पावंति वेयणाओ रयणाइतमतमं जाम ॥ १७६ सत्त वि फरुसाओ" कक्कसघोराओ दुक्खबहुलाओ। णाम पि ताण घेत्तुं | सक्कए कहे पुणो वसिडें ॥ ॥ १७० ॥ उक्त नारकी जीव आगकी ज्वालाओंसे आहत होकर जलते हुए भी प्रिय समझ कर सहसा वहां महा भयानक असिपत्रवनमें प्रविष्ट होते हैं । १७१ ॥ वहांपर वे ऊपर गिरते हुए पत्तों रूपी खगोंके द्वारा छेदे-भेदे जाते हैं। वायुके वश ऊपर गिरे हुए पत्तोंसे वे रुंड (छिन्नसिर) के समान जाते हैं ॥ १७२ ॥ वे नारकी गलेकी सांकलोंमें बांधे जाकर गरम चूल्हेमें फेंके जाते हैं तथा दूसरे नारकी तपे हुए कड़ाहोंमें सिम-सिम• शब्द पूर्वक पकाये जाते हैं ॥ १७३ ।। अन्य नारकी कण्टकोंसे व्याप्त सेमर वृक्षके ऊपर पटके जाकर रोते हुए मांस, वसा एवं रुधिरके विस्तारसे संयुक्त होकर काटे जाते हैं ॥ १७४ । उक्त नारकी खम्भोंमें सांकलोंसे बांधे जाकर करपत्र ( आरी) के द्वारा छेदे जाते हैं तथा रोते हुए उनके हाथोंकी अंगुलियां चक्रों द्वारा काटी जाती है ॥ १७५ ॥ इस प्रकार रत्नप्रभासे लेकर तमस्तमा पृथिवी पर्यन्त वे नारकी जीव छेदना, भेदना, ताडन करना, तपाना व आगमें जलाना आदि दण्डविशेषोंको प्राप्त होकर वेदनाओंको प्राप्त करते हैं ॥ १७६ ॥ उक्त सातों पृथिवियां कठोर स्पर्शसे संयुक्त, कर्कष, भयानक और प्रचुर दुःखोंसे व्याप्त हैं। उनका नाम लेना भी जब शक्य नहीं है तब भला उनमें रहना कैसे शक्य होगा? ॥ १७७ ॥ उन रत्नप्रभादिक १ब बहुवह. २ उ तत्थ सहरसा, क तत्तु सहसा, व तत्थ सहस्सा, श तत्थ तहसा. ३ उ उपर पडतेहि पत्तरखग्नेहि, श उपर पतिहि पत्तक्खमेहि.४ उशवेरंडियावजंतिवयवसा (श जंति यवसा)पडिवत्तेहि, क ब वेरुंठिया (ब वेरहिया ) य जंती वायवसा पडियपत्तेहिं. ५ क तत्थ, ब तच्च. ६ उ श तत्तकवल्लीसु अणे, क तत्तकवलिसु अवणे, ब तत्थ कवल्लिसु अण्णो. ७ उ श सिमिसिमंतेण, क मिसिमिसिंतेण, ब सिमसिमंतेण. ८ क सेंवलि. ९ उ श कंटयाइल्ले, ब कट्टकाण्णे. १० उ कड्ढि जंति, क कट्टिजंति, बकप्पिति, श कटिजति. ११ क मंसावसरुहिरविछड्डा, ब मंसावसरुहिरविछद्दा. १२ क संकलाहिं. १३ उश कप्पजति. १४ उ करंगुलियाउ चक्केहि, ब करंगुलीयाउ चक्केहि,श कारंकुलियाउ चक्केहि.१५ उ ताडणदहदहण्णदहदहणदंडभेया,श तादुणदहददण्णदुहदणदंणभेया.१६ श यावंति वेयणाओ तमत्तमं जाम,कव पावंति वेदणाओणेरइया तमतमा जाव. १७ उ खरपरमाओ, ब खरफरूंसाड, श खरयरमाओ १८ उ वित्तु, क ब घेतू, श वितुं. १९ उ श तह. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ११.१७८ एक्कं च तिणि सत्त य दस सत्तरसं तहेने बावीसा । तेतीसउदधिआऊ पुढवीणं होति उक्कस्तं ॥ १७८ जंबूदीवस्स तहा धादइडस्स पोक्खरद्धस्स । खेत्तेसु समुद्दिट्ठा सत्तरिसद भेदभिण्णे ॥ १७९ जे उप्पण्णा तिरिया मणुया वा घोरपावसंजुत्ता । मरिऊग पुणो गया णरयं गच्छति ते जीवा ॥ १८० लवणे कालसमुद्दे सयंभुरमणोदधिम्मि जे मच्छा । पंचेंदिया दु तिरिया सयंभुरमणस्स दीवस्स ॥ १८१ ते कालगदा संत णरयं गच्छति णिचिदषणकम्मा । सम्मत्तरयणरहिया मिच्छत्तकलंकिदो जीवा ॥ १८२ पणवीर्सकोडिकोडीउद्धारमाणविउलपल्लाणं । जावदिया खलु रोमा तावदिया होति दीवुदधी ।। १८३ चारसको डाकोडी पण्णासं लक्खकोडि पहाणं । जेत्तियमेत्ता रोमा दीवा पुण तेत्तिया होति ॥ १८४ उदधी वि होति तेत्तिय गिद्दट्ठा सव्वभावदरिसीहि । वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ।। १८५ जंबूधादइपोक्खरसयंभुरमणाभिधाण जे दीवा । ते वज्जित्ता चदुरो अवसेस असंखदीवेसु ॥ १८६ जे उप्पण्णा तिरिया पंचिंदिय सण्णिणो य पज्जत्ता । पल्लाउगा महप्पा बेदंडसहस्तउत्तुंगा ॥ १८७ पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंकी क्रमशः एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस तथा तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ॥ १७८ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा पुष्करार्द्ध द्वीपके एक सौ सत्तर भेदोंसे भिन्न क्षेत्रों ( जम्बूद्वीपका १ भरत, १ ऐरावत व ३२ विदेह; धातकीखण्ड के २ भरत, २ ऐरावत व ६४ विदेह; तथा पुष्करार्द्धके भी २ भरत, २ ऐरावत और ६४ विदेह ) में जो मनुष्य अथवा तिर्यंच उत्पन्न होते हैं वे जीव घोर पापसे संयुक्त होते हुए मरकर नरक में जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १७९-१८० ॥ लवणोद, कालोद और स्वयंभुरमण समुद्र में जो मत्स्य हैं वे तथा स्वयंभुरमण द्वीपके जो पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव हैं वे दृढ़ कर्मोंसे व्याप्त होकर सम्यक्त्व-रत्नसे रहित और मिथ्यात्व से कलंकित होते हुए मरकर नरकको जाते हैं ।। १८१-१८२ ॥ पच्चीस कोड़ाकोड़ि उद्धारपल्योंके जितने रोम होते हैं उतने द्वीप समुद्र हैं ॥ १८३ ॥ बारह कोड़ाकोड़ि पचास लाख करोड़ ( साढ़े बारह कोड़ा कोड़ि ) उद्धारपल्योंके जितने रोम होते हैं उतने द्वीप होते हैं तथा उतने ही समुद्र होते हैं, ऐसा सर्वभावदर्शियों ( सर्वज्ञों ) द्वारा निर्दिष्ट किया गया है । ये दिव्य द्वीप समुद्र वन - वेदियों से युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित हैं ॥ १८४ - १८५ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्द्ध और स्वयंभुरमण नामक जो चार द्वीप हैं उनको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीपोंमें उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त तिर्यच जीव पल्य प्रमाण आयुसे युक्त, महात्मा, दो हजार धनुष ऊंचे, सुकुमार कोमल १ उश तथैव. २ श तेतीसओसधि आओ. ३ उ सत्तरिदस भदभिन्नेसु; ब सत्तरिसद्द भेष्णेसु, श रिदसभेदभिन्नेसु. ४ उ ब श सत्ता. ५ क कलंकिया. ६ उ पुणुवीस, ब पणुवीस, श पुणुवीसं. ७ उ दिउदधी, ब दीबुदधी, श दिउदद्धी. ८ उ कोडिपुत्राणं, श फोपुव्बाणं, ९ श तेत्तियगिद्दिसव्वभावदरिसीहि होति. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. १९७ ] एक्कारसमो उद्देस [ २०५ सुकुमारकोमलंगी मंदकसाया फलासिणो' जीवा । जुवलाजुवलुप्पण्णा चउत्थभत्तेण पारिति ॥ १८८ ते सव्वे मरिऊणं णियमा गच्छति तह य सुरलोयं । ण य अण्णत्थुप्पत्ती णिद्दिद्वा सव्वदरिसीहिं ॥ १८९ जंबूधादगिपोक्खरदीवाणं ती भोगभूमीसु । जे जादा णरतिरिया नियमा ते जंति सुरलोयं ॥ १९० भवणवइवाणविंतरजोइसभवणेसुं ताण उप्पत्ती । सम्मत्तेण य जुत्ता सोधम्मादीसु जायंति ॥ १९१ जे सेसा णरतिरिया धम्मं काऊण सुद्धभावेण । ते कालगदा संता विमाणवासेसु जायंति ॥ १९२ णवणउदिजोयणाई उड्टं गंतूण तह सहस्साई । तो चूलियाए उवरिं होइ विमाणं उडुविमाणं ॥ १९३ मणिरयणभित्तिचित्तं कंवर्णवरवइरसोहियपदेसं । माणुसखेत्तपमाणं होइ विमाणं उडुविमाणं ॥ १९४ एक्कं तु उडुविमाणं माणुसखेत्तेण होदि सममाणं । अवसेसा दु विमाणा लोगादो जाव लोगंतं ॥ १९५ तं सुचिम्लिकोमल तोरणवरमंगलुस्स विद सोहं"। पासादवलभिविरईये उन्भासतं दसदिसाओ ॥ १९६ णिच्चं मणोभिरामं फुरंतमणि किरण सोहसंभारं । कंचणरयणमहामणिल्हसंतपासाद संघायं' 13 1 ॥ १९७ अंगोंवाले, मंदकषायी, फलभोजी एवं युगल-युगल रूपसे उत्पन्न होकर चतुर्थ भक्तसे भोजन करते हैं; वे सब मरकर नियमसे सुरलोकको जाते हैं । उनकी उत्पत्ति सर्वदर्शियों द्वारा अन्यत्र नहीं निर्दिष्ट की गई है ॥ १८६ - १८९ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्कर द्वीपोंकी तीन ( उत्तम, मध्यम व जघन्य ) या तीस भोगभूमियों में जो मनुष्य व तिर्यंच उत्पन्न होते हैं वे नियमसे सुरलोकको जाते हैं । [ इनमें जो सम्यक्त्व से रहित होते हैं ] उनकी उत्पत्ति भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके भवनों में है । किन्तु जो सम्यक्त्वसे युक्त हैं वे सौधर्मादिकों में उत्पन्न होते हैं ॥। १९०-१९९१ ॥ शेष जो मनुष्य व तियंच शुद्ध भावसे धर्मको करके मरणको प्राप्त होते हैं वे विमानवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १९२ ॥ निन्यानच हजार योजन ऊपर जाकर मेरुकी चूलिकाके ऊपर ऋतु विमान स्थित है ॥ १९३ ॥ मणिमय एवं रत्नमय भित्तियोंसे विचित्र और सुवर्ण व उत्तम वज्रसे शोभित प्रदेशवाला ह ऋतुविमान मानुषक्षेत्र के प्रमाण अर्थात् पैंतालीस लाख योजन विस्तृत है ॥ १९४ ॥ एक ऋतु विमान तो मानुषक्षेत्रके बराबर है, शेष विमान लोकसे लोकके अन्त तक हैं ॥ १९५ ॥ वह विमान पवित्र, निर्मल, कोमल व श्रेष्ठ तोरणरूप मंगलोत्सवसे शोभायमान; प्रासाद व वलभियोंसे विरचित, दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला, नित्य मनोहर, प्रकाशमान मणिकिरणोंकी शोभाके संभारसे संयुक्त; सुवर्ण, रत्नों व महामणियोंसे चमकते हुए प्रासादसमूहसे सहित; १ उश कोवलंगा २ उ फलोसिनो, क फलसिणा, ब कलासिणो, श फलोसणो. ३ क ब भुंजंति, शपरिति ४ उ श जो. ५ जोइसिठाणेसु. ६ क ब गवणवइ जोयणाणं, श णवणउदिजोयणइं. ७ क तो सहसाई, ब तो सहइसाई, श सहसहस्ताई. ८ ब भत्तिचित्तं कंचण, शमित्तिकंचण. ९ क सोहेयपदेसे, ब सोहियपदे से १० उब शतं सुविणिम्मल, ११ क मंगलस्स किदसोहं, व मंगलुस्सकिद सोहं. १२ उश वलइविरहिय १३ श लसंतपासादसच्याए. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १९८जयविजयवेजयंतीपडायबढुकुसुमसोहकयमालं । विलसंतणाभिदामं चोक्खं सुचियं पवित्तं च ॥ १९८ जगजगजगंतसोहं अञ्चन्भुदैरुवसारसंठाणं । पुफ्फोवयारपउरं बहुकोदुयमंगलसणाहं ॥ १९९ जंबूणयरयणमयं णिच्चुज्जलरयणचोक्खकदसोहं कि जंपिएण बहणा पुष्णफलं चेव पञ्चक्खं ॥ २०० जं तत्थ देवदेवीण वरसुहं जं च रूवलायणं । को वण्णे मणुस्सो अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥ २०१ तत्तो दु असंखेजा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्मं । विमलं णाम विमाणं जत्थावासा सपुण्णाणं ॥ २०२ तत्तो दु पुणो गंतुं जोयणकोडीसदा असंखेज्जा। चंदं णाम विमाणं अस्थि सुरुवं मणभिरामं ॥ २०३ तत्तो दु असंखेबा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्म'। वग्गूणामविमाणं पमुदिदपक्कीलिदं रम्मं ॥२०४ तत्तो वि असंखेजा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्म । वीरंणाम विमाणं पंचमपडलो समुद्दिडो ॥२०५ पत्तेयं पत्तेयं जोयणकोडीसदा असंखेना । सव्वाण विमाणाणं पडलं पडलं तदो होइ ॥ २०६ जयन्ती, विजयन्ती व वैजयन्ती पताकाओं तथा बहुतसे फूलोंकी मालाओंसे शोभायमान; नाभिमें मालासे सुशोभित, चोखा, शुचि एवं पवित्र, अतिशय चमकते हुए सौधोंसे सहित, अत्यन्त अद्भुत श्रेष्ठ रूप व आकृतिसे संयुक्त, प्रचुर पुष्पोंके उपहारसे युक्त, बहुत कौतुक व मंगलोंसे सनाथ, सुवर्ण व रत्नोंसे निर्मित, और नित्य उज्ज्वल चोखे रत्नोंसे शोभायमान है। बहुत कहनेसे क्या ? यह प्रत्यक्ष पुण्यका ही फल है ॥ १९६-२०० ॥ वहां देव-देवियोंको जो उत्तम सुख और रूप-लावण्य प्राप्त है उसका वर्णन कौनसा मनुष्य हजारों करोड़ वर्षों में भी कर सकता है ? ॥२०१ ॥ ऋतु विमानसे असंख्यात सौ करोड़ योजन अतिक्रमण करके विमल नामक विमान है जहां पुण्यात्मा जीवोंका निवास है ॥२०२ ॥ फिर उससे असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर सुन्दर आकृतिसे युक्त मनोहर चन्द्र नामक विमान स्थित है ॥ २०३ ॥ उससे असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर वल्गु नामक विमान है जो प्रमोदप्राप्त देवोंकी क्रीडाका रमणीय स्थल है ॥ २०४ ॥ उससे भी असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर वीर नामक विमान है। यह पाचवां पटल कहा गया है ॥२०५ ॥ इसके आगे प्रत्येक प्रत्येक असंख्यात सौ करोड़ योजनके अन्तरसे सब विमानोंके पटल हैं ॥ २०६ ॥ फिर इससे आगे .................... १ उश विलसंति. २ उश सुचिय. ३ उश अच्चुभुद, ब अवज्ञद. ४ उश पुप्फोवयालपउरं. क ब पुप्फोपचारपउरं. ५ उ पुप्फफलं चेय पञ्चक्खं, श पुष्फफलं चेय यस्सकं. ६ क मुहं. ७ उ देवदेवीन वरसुहं जं च तत्थ ण्णायण्णं, श देवदेवीनवं सुहं जं च तत्थ प्रणायणं. ८ उश वणिज, ब वणिज. ९ उ अदिक्कम, ब आदिकम्म, श अदक्कम. १० उ श अत्थि सुतयं, ब अछि सुरूवं. ११ उ अदिक्किम्म, ब आदिकम्म, श अधिकम्म. १२ उ श पनुदिदपक्कीलिदं नाम, क पमुदिदपक्खिल्लदं रम्मं, ब पुमुदिदपखिल्लदं णाम. १३ ब आदिकम्म, श अधिकाम्म. १४ व धीरं, १५ उब श पंचयपडला समुद्दिहा. १६ ब सम्वाण विमाणाणं पडलं, श वेरुलिय त्ति विमाणं पडलं पडलं. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. २१७] एक्कारसमो उद्देसो [२०७ तत्तो य पुणो अरुणं गंदण गलिणं च कंचणं रुहिये । चंचारणं च भणियं तहेव पुण रिविसं होई ॥२०७ तत्तो य पुणो गंतुं जोयणकोडीसदा अदिक्कम्मं । वेरुलिय त्ति विमाणं पभंकरं चेव रमणीयं ।। २०८ रुधिरं अंकं फलिहं तवणिज्ज चव उत्तमसिरीयं । मेघ तह वीसदिम मणिकंचणभूसियपदेस ॥ २०९ अभं तह हारिहं पउमं तह लोहियंक वरं च । गंदावत्तविमाणं पभंकर चेव रमणिज्जं ॥ २१० अवरं च पिडणाम तहा गयं होइ मत्तणामं च । एदे तीस विमाणा एगत्तीसं पमं णाम ॥ २११ एदे एक्कत्तीस हवंति पढला सुहम्मकप्पस्स । सेदिविमाणे हि गदा लोगादो जावं लोगंतं ॥ २१२ एकतीसदिम पडलं जंबूणदरयणेअंकवइरमयं । तम्मूले सोहम्मं जत्थ सुरिंदो सयं वसइ ॥ २१३ समचउरंसा दिब्बा जोयणमेगं च समधियं जत्थ । णामेण सा सुधम्मा सोधम्म जीएं' णामेण ॥ २१४ तत्थ दु विखंभमेन्झे हवंति जयराणिमाणि" चत्तारि । कंचगमसोगमंदिरमसारगलं च सोहम्मे ॥ २१५ तो तत्थ लोगपाला चदुसु वि य दिसासु होति चत्तारि । जमवरुणसोममादी एदेसु हवंति णगरे९ ॥२१६ वेमाणिया य एदे जमवरुणकुबेरसोममादीयाँ । पडिइंदा इंदस्स दु उत्तमभोगा महिड्ढीया ॥ २१७ अरुण, नन्दन, नलिन, कांचन, रोहित, चंचत्, अरुण ( मरुत् ), तथा ऋद्धीश विमान कहे गये हैं ॥ २०७ ॥ पुनः उससे सैकड़ों करोड़ योजन जाकर वैडूर्य विमान और रमणीय प्रभंकर ( रुचक ) विमान है । उससे आगे रुधिर ( रुचिर ), अंक, स्फटिक, तपनीय तथा बीसवां उत्तम श्रीसे युक्त और मणि एवं सुवर्णसे भूषित प्रदेशवाला मेघ विमान है ॥ २०८-२०९॥ इसके आगे अभ्र, हारिद्र, पद्म, लोहित, अंक, वज्र, नंदावर्त, रमणीय प्रभंकर, पृष्ठ नामक, गज और मत्त ( मित्र ) नामक, ये तीस विमान तथा इकतीसवां प्रभ नामक; इस प्रकार ये इकतीस पटल सौधर्म कल्पके हैं जो श्रेणिबद्ध विमानोंके साथ लोकसे लोक पर्यन्त स्थित हैं ॥ २१०२१२ ॥ इकतीसवां पटल सुवर्ण, रत्न, अंक व वज्रमय है। उसके मूलमें सौधर्म कल्प है जहां स्वयं सुरेन्द्र रहता है, तथा जहां समचतुष्कोण दिव्य एक योजनसे कुछ अधिक विस्तृत सुधर्मा नामकी सभा है, जिसके नामसे उस कल्पका भी सौधर्म नाम प्रसिद्ध है ॥ २१३२१४ ॥ वहां सौधर्म कल्पमें विष्कम्भके मध्यमें कांचन, अशोक, मंदिर और मसारगल्ल, ये चार नगर हैं ॥ २१५ ॥ वहां चारों दिशाओंमें स्थित इन नगरोंमें यम, वरुण और सोमादि ( सोम और कुबेर ) ये चार लोकपाल रहते हैं ॥ २१६ ॥ उत्तम भोग एवं महर्द्धिसे संयुक्त ये यम, वरुण, कुबेर और सोमादि वैमानिक देव इन्द्रके प्रतीन्द्र होते १ उ श रुपियं. २ उ श चंदारुणं. ३ उ तहेव पुणिदिदिसंपण्णं, क तहेव पुण दिड्दिसं होइ, ब तहेव पुण्णादेटिस होइ, श तहेव रिहिसंपण्णं. ४ श भयंकर. ५ उ श भूसियापदेसं. ६ उ श विदणामं. ७ उ श बाम. ८उश बत्तीसदिमं. ९ क रयर, ब रयद. १० उ क ब शतं मूले. ११ क जीय, (ब सुधण्णो सोधम्म जीव णामेण ), श जीये. १२ उश तिरकंभ. १३ उ श णयरा इमाणि. १४ उश सोहम्म. १५ कववि दिसासु. १६ श एदे जमवरुपकुवेरगरेस. १७श सोमवादीया. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] जंबूदीवपण्णत्ती [११. २१८ एक्कत्तीस पडलाई वत्तीसं चेय सयसहस्साई । ताई तु विमाणाई हवंति सोहम्मकप्पस्स ॥ २१८ मझिमयम्मि विमाणे मसारगलम्मि मणहरालोए । मज्झम्मि रयणचित्ता सोहम्मसहा विमाणं च ।। २१९ बत्तीससयसहस्साण सामिओ दिव्ववरविमाणाणं । तेलोक्कपायडभडो' जत्थ सुरिंदो सयं वसइ ।। २२० सो भुंजह सोहम्म सयल समंतेग तिहुयणेण समं । बहुविहपावविहम्मो सद्धम्मो सोहणो जस्स ।। २२१ गिस्वदजठरकोमल अदिसयवररूवसत्तिसंपण्णो । तरुणाइच्चसमाणो समचदुरंसेण ठाणेण || २२२ कह कीरह से उवमा अंगाणं तस्स सुरवरिंदस्स । जस्स दु अगतरून रूवम्मि अगोवमा कंती ॥ २२३ वरमउडकुंडलहरो उत्तममणिरयणपवरपालंबो। केऊरकडयसुत्तयवरहारविहुसियसरीरो ॥ २२४ 'तत्तो दु विमाणादो गंतूण जोयणा असंखेज्जा । तो होदि पभविमाणं पभमंडलमंडियं दिव्वं ॥ २२५ तत्थ पम्मि विमाणे'' पभंकरा णाम रायवाणी से । अमराव इंदपुरी सोहम्मपुरी य से णामं ॥ २२६ तीए पुण मझदेसे भासुररूवा सभा सुधम्म ति। तीए वि मजसदेसे खरगं किर उत्तमसिरीयं ॥ २२७ हैं ।। २१७ ॥ इकतीस पटल और वे बत्तीस लाख विमान सौधर्म कल्पके हैं ॥ २१८ ॥ मनोहर आलोकवाले मध्यम मसारगल्ल विमानमें रत्नोंसे चित्रित सौधर्मसभा व विमान है, जिसमें बत्तीस लाख उत्तम दिव्य विमानोंका स्वामी व तीन लोकोंका प्रगट सुभट स्वयं सौधर्म सुरेन्द्र निवास करता है ॥ २१९-२२० ॥ वह सौधर्म इन्द्र, जिसके कि पासमें बहुत प्रकारके पापोंका विघातक शोभायमान उत्तम धर्म विद्यमान है, समस्त सौधर्म कल्पको त्रिभुवनके समान सब ओरसे पालता है ।। २२१ ।। उक्त इन्द्र अपघात रहित उदरसे संयुक्त, अत्यन्त सुन्दर रूप व शक्तिसे सम्पन्न, तरुण सूर्यके समान तेजस्वी और समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त है ॥ २२२ ।। उस सुरेन्द्र के अंगोंकी उपमा कैसे की जा सकती है जिसके अनन्त सौन्दर्यवाले रूपमें अनुपम कान्ति विद्यमान है ।। २२३ ॥ वह उत्तम मुकुट व कुण्डलोंको धारण करनेवाला, उत्तम मणियों व रत्नोंके श्रेष्ठ प्रालम्ब ( गलेका आभूषण ) से युक्त तथा केयूर, कटक, मूत्र व उत्तम हारसे विभूषित शरीरसे संयुक्त है॥ २२४ ॥ उस विमानसे असंख्यात योजन जाकर प्रभामण्डलसे मण्डित दिव्य प्रभ विमान स्थित है ।। २२५ ॥ उस प्रभ विमानमें प्रभंकरा नामकी राजधानी है। उसका नाम अमरावती, इन्द्रपुरी व सौधर्मपुरी भी है ॥ २२६ ॥ उसके मध्य देशमें भास्वर रूपवाली सुधर्मा नामकी सभा है । उसके भी मध्य देशमें उत्तम श्रीसे संयुक्त १ उ श बत्तीस पडलाइं. २ ब श विमाणए. ३ क ब मज्झिम्मि. ४ उ क तेलोक्कपयाडभडो, तेलोकपायडतडे, श तेलोकपायडभेडो. ५ उ श सइं. ६ क समत्तेण. ७ क श पावविधम्मो सोधम्मो, व पावविहम्मो सोधम्मो. ८ क अंगागं. ९ क परपालंबो, शपवरवालवो. १० उपभमंडयमंडियं दिव्वं,क पभमंडलणिम्मलं दिव्वं, ब यसमंडलणिम्मलं दिव्वं. ११ उ श विमाणं. १२ उ रायवाणी सो, श रायधणी से. १३ उ खग्नं किर उत्तमसिरीरां, क खग्गं किरणुत्तमसिरीयं, बखग्गकिरणुत्तमसिरीय, श खग्रं किर उत्तमसिरीएं. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. २३५ ] एक्कारसमो उद्देस [ २०९ खग्गसहस्वगूर्ड' मणिकंचणरयणभूसियसरीरं । किं बहुणा तं खर्ग' अच्छेश्यसारसंभूदं ॥ २२८ तस्स बहुमज्झदेसे' रमणिज्जुज्जर्लेविचितमणिसोहं । सिंहासणं सुरम्मं सपायपीठं भणोवमियं ॥ २२९ सो त सुहम्मदी वरचामरविज्ञमाण बहुमाणो | संतुट्ठसुद्द निसण्णो से विज्जई सुरसहस्सेहि ॥ २३० तं व सुहम्मवरसभं सिंहासनमुसमं सुरिंदं च । अच्छरसाण य सोहं को वण्णेदुं समुच्छहदि ॥ १३१ दिग्यविमाणसभाए तीए अच्छेरेंरूवकलिदाए । को उवमाणं कीरडे तिहुयणसारेक्कसाराएँ ॥ २३२ को व भणोषमरूवं रूवं उथमेज्ज अण्णरूवेर्णे । भ्रमराद्दिवस्स सयढं अचम्भुदरूवसारस्यें ॥ २३३ जोयणसयं समद्दियं सा तस्तै सभा सभावणिम्माद । भरइ निरंतरणिचिदा देवेहि महाणुभावेहि" ॥ १२४ विलसंतघयवडाया मुत्तामणिहेमजालकयसोहा | पुढषीवर परिणामा निष्यचिदें सुरहिमल्केहिं ॥ २३५ स्वग्ग (!) है ।। २२७ ॥ उक्त खग्ग इजारें। खड्गों से आलिंगित तथा मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से भूषित शरीरवाल है । बहुत कहनेसे क्या ? वह खग्ग आश्चर्यजनक श्रेष्ठ द्रव्योंसे उत्पन्न हुआ है ॥२२८॥ उसके बहुमध्य भागमें रमणीय, उज्ज्वल व विचित्र मणियोंसे शोभायमान एवं पादपीठ से सहित सुन्दर अनुपम सिंहासन है ॥ २२९ ॥ उसके ऊपर संतुष्ट होकर सुखपूर्वक स्थित वह सौधर्म इन्द्र उत्तम चामरोसे वीज्यमान व बहुत सन्मानको प्राप्त होकर हजारों देवोंसे सेवित है ॥ २३० ॥ उस उत्तम सुधर्मा सभा, उत्तम सिंहासन, सुरेन्द्र और अप्सराओंकी शोभाका वर्णन करने के लिये कौन उत्साहित होता है ? अर्थात् कोई भी उनका वर्णन करनके लिये समर्थ नहीं है || २३१ ॥ आश्चर्यजनक रूपसे सहित और तीनो लोकोंकी सारभूत वस्तुओं में अद्वितीय उस दिव्य विमानसभा के लिये कौनसी उपमा की जाय ? अर्थात् वह सर्वश्रेष्ठ होने से उपमातीत है || २३२ ॥ अत्यन्त आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपसे संयुक्त उस सुरेन्द्र के अनुपम सुन्दरता से परिपूर्ण समस्त रूपकी अन्य किसके रूपसे तुलना की जा सकती है ! अर्थात् नहीं की जा सकती ॥ २३३ ॥ एक सौ योजन से कुछ अधिक व स्वभावसे निर्मित वह सौधर्म इन्द्रकी सभा महान् प्रभाववाले देवोंसे निरन्तर भरी रहती है || २३४ ॥ शोभायमान वजा-पताकाओंसे सहित; मोतियों, मणियों व सुवर्णके समूहसे की गई शोभासे सम्पन्न, पृथिवी के उत्तम परिणाम १ उ श चाग्नसहस्वगूढं. २ उ खग्नं, श खस्सं. ३ क व बहुदेसमन्. ४ ब वरविज्जल ५ श तस्स. ६ उ संचिट्ठमुहतिसनो विब्जर, क प य संचिट्ठमुहणिण्णो सेविन्जइ, श संचिट्ठएहतिसको सेवज्जह. तत्य सुहम्मदं. श सुहम्मवरहंसहं. ८ उ सोहं को वणे, क सोक्खं को वण्णे, श सोहं को बजे अमराहिवस्स बणे नं. ९ क व समुव्बाइ १० उश समाप् अच्छे ११ क कोवमाणपमाणं कीरह, व को सवमाणपमाणं की इ. १२ ब तिहुयणसारिकसाराए. १३ उ रा अभीवमरूवं उबमिब्ज अणरावेण १४ उ अचम्भदतूक्सारस्य श अच्चभ्वदतबसारस. १५ उ व श तत्थ १६ व जिम्मदा १७ उ निरिदादिम्बेहि सहानुमानेहि, श निरिवादिग्वेहि सदाभावेहि १८ क विलसति १९ क निन्चंद, व निभ्वंचद, श निश्चियः नं. डी. १०. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.] जंजूदीवपण्णत्ती [११.२३६गोसीसमलयचंदणसुगंधगंधुद्धरेणं गंधेण । वासेदि व सुरलायं सा सग्गसिरी' विकंवती' ॥ २५॥ सक्को वि महड्डीमो महाणभागी महाजुदी धीरों'। भासुरवरबोंदिधरों" सम्माविट्ठी तिणाणीमो ॥ २१. सो कायपडिरचारों पुरिसो इर्वं पुरिसकारणिप्फण्णो । भुजदि उत्तमभोग देवीहि सम गुणसमिद्धं ॥ २१० बत्तीसं देविंदा (1) तायत्तीसा य उत्तिमा पुरिसा । चुळसीदि च सहस्सा देवा सामाणिया तस्स ॥ २३९ भट्ट व पणटुसोया तामो भइरूवसारसोहाभो" | भागवरमहिसियामो भग्छेरयपेञ्छणिज्जामो ॥ २४. मणियाणं सत्तण्ह य परिसाणं सामिलो सुरवरिंदो । चुलसीदिं च सहस्सा (1) परिसाए भादरक्खाण ॥ संणबदकवयों उप्पीलियसारपष्टियामझौं । बहुविहउज्जयहस्था सूरसमस्था य मायरक्सो य ॥ २४२ पत्तारितोयवालाण तथं जमवरुणसाममादीणं । सामित्तं भहित करेदि काल असोज्जी ॥४॥ . संखज्जविस्थाणि य असंखपरिमाणविस्थाणि च । दिम्वविमाणाणि तहिं कोरिसहस्साणि बहुवाणि" ॥ रूप तथा सुगन्धित मालासे सदा व्याप्त रहनेवाली वह समा स्वर्गश्रीको तिरस्कृत करती हुई सुगन्ध गन्धसे उत्कट गन्धके द्वारा स्वर्गलोकको सुवासित करती है ॥२३५-२३६॥ महाविभूतिसे संयुक्त, महाप्रभावसे सहित, महाकान्तिका धारक, धीर, भास्वर उत्तम रूपको धारण करनेवाला, सम्यग्दृष्टि, तीन ( मति, श्रुत व अवधि ) ज्ञानोंसे युक्त, पुरुषके समान कायप्रवीचारसे सहित तथा पौरुषसे निष्पन्न वह सौधर्म इन्द्र भी देवियोंके साय गुणोंसे समृद्ध उत्तम भोगको भोगता है ॥२३७-२३८॥ उक्त इन्द्रके बत्तीस देवेन्द्र, त्रायस्त्रिंश, चौरासी हजार सामानिक देव ये उत्तम पुरुष हैं; तथा शोकसे रहित, अन्त्यन्त श्रेष्ठ रूपसे सुशोभित एवं आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय ऐसी उत्तम भाठ अप्रमहिषियां होती हैं ॥२३९-२४०॥ उक्त सुरेन्द्र सात अनीकों, अभ्यन्तरादि परिषदोंमें बैठने योग्य चौरासी [१२+१४+१६] हजार पारिषद देवों तथा [३३६०००] आत्मरक्ष देवोंका स्वामी है ॥२११॥ युद्धके लिये उद्यत होकर कवचको व मध्यमें सारपट्टिकाको कसकर बांधे हुए तथा बहुत प्रकार उपम युक्त हायोंवाले ये आत्मरक्षक देव शूरोंमें समर्थ होते हैं ॥२४२॥ वह सौधर्म इन्द्र वहाँ यम वरुण और सोमादि ( सोम व कुबेर ) चार लोकपालोंके स्वामित्व व भर्तृत्वको असंख्येय काल तक करता है ॥ २४३ ॥ उपर्युक्त दिव्य विमान संख्यात योजन विस्तारवाले व असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। उनमें हजारों करोड़ योजन (असंख्येय) विस्तारवाले विमान बात ( अपनी संख्याके ६ भाग ) हैं ॥ २४४ ॥ संख्येय विस्तारवाले विमान संख्यात करोड़ क सुगंधगंधुददेण, व सुगंधगंध देण. २ उ सुरोए सामग्नसिरि, श सुरलेएं सामग्नसिरि. ३ क विलंबेती.४ उश दीरो. ५ ब वेदिधरो. उश सम्मदिहि, ब समादिट्ठी. ७ब पाडिचारो. ८उ परिसं पिव, शपुरिसं पुन. ९क उत्तिम. १.ब उत्तमा. "उश सोयस्स तस्स हरूवसोइसाराओ, बसोया ताउ आइरूवसारसोहोउ. १२ ब सहस्सा देवा सामाणिया तस्स ( अतोऽये प्रतावस्या २४..४१ तमं गापादयं पुनर्लिबितमस्ति, तत्र 'सहस्सा परिसाय आदरखाणं' एवंविध एवं पाठः). १३ उश कवय. १४ उ सारपटियामा, शसारमटियायम्म. १५कब भाबरक्ला. उश लोयपाला तत्थ. १७ उश मदि. १८ डश असंच. "कबहुगानि. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. २५.] एक्कारसमो उद्देसो [ २११ संखज्जविस्था किर संखेज्जा जोयणाण कोटीमो। जे होंति असंखेज्जा ते दु मसंखेज्जकोडीभो ॥ १५५ सिरिवछसंखसस्थियभरविंदयचक्कवटिया बहुया। समचउरंसा संसा अणेगसंठाणपरिणामो ॥ २४॥ पायारगोउरहालएहि वरतोरणेहिं चित्तेहि । वंदणमालाहि तह वरमंगलपुण्णकलसहि ॥ २४७ कंचणमणिरयणमया जिम्मलमलवज्जिदा रयणचित्ता । बहुपुप्फगंधपउरा विमाणवासा सपुण्णाणं ॥४८ भगल्यतुरुक्कचंदणगोसीससुगंधवासपडिपुणो । पवरच्छराहि भरियाँ भच्छेत्यरूवसाराहि ॥ २४९ वस्थ पम्मि विमाणे एरावर्णवाहणो दु बज्जधरो । इंदो महाणुभावो जुदीए सहिदो महड्डीमो ॥१५. बेसागरोवमाइं तस्स ठिदी तम्मि वरविमाणम्मि | भासुरवरबोंदिधरो परचन्भुदरूवसंठाणो ॥ २५॥ दोन्हं वाससहस्सा तस्स य माहाकारणं दिढे । उस्सासो णिस्सासो दोण्हं पुण तरथ पक्खाणं ॥ २५१ सत्तरदणी य गेयो उच्छेहो" तस्स सुरवारदस्स । सेसाणं पि सुराण सोहम्मे" होइ उस्छेहो ॥ २५॥ भट्टगुणमहिहीमो मुहविउरुम्वर्णविसेससंजुत्तो। समचठरंससुसंठिय संघदणेसु य असंघदणो ॥ २५. योजन तथा जो असंख्येय विस्तारवाले हैं वे असंख्यात करोड़ योजन विस्तृत है ।। २४५॥ बहुतसे विमान श्रीवृक्ष, शंख, स्वस्तिक, पद्म व चक्रके समान वर्तुलाकार तथा बहुतसे समचतुष्कोण व त्रिकोण अनेक आकारोमें परिणत हैं ॥२५६ ॥ उक्त विमान प्राकार, गोपुर, अद्यालयों, विचित्र उत्तम तोरणों, वन्दनमालाओं तथा मंगलकारक उत्तम पूर्णकलशोसे [ सुशोभित हैं ] ॥२४७॥ सुवर्ण, मणियों एवं रत्नौके परिणाम स्वरूप; निर्मल- मलसे रहित, रत्नोंसे विचित्र और बहुत पुष्पोंकी गन्धसे प्रचुर वे विमानालय पुण्यात्मा जोकि हैं ।। २४८।। उक्त विमान अगरु, तुरुष्क, चन्दन व गोशीर्ष रूप सुगन्धित द्रव्योंसे परिपूर्ण तथा आश्चर्यजनक सुन्दर रूपवाली श्रेष्ठ अप्सराओंसे व्याप्त हैं ।। २४९॥ वहां प्रभ नामक विमानमें ऐरावत वाहन (आभियोग्य ) देवसे संयुक्त, वज्रको धारण करनेवाला, महाप्रभावशाली तथा कान्तिसे सहित महर्थिक सौधर्म इन्द्र रहता है ॥२५० ॥ उस उत्तम विमानमें स्थित उसकी आयु दो सागरोपम प्रमाण है । वह इन्द्र भास्वर उत्तम रूपको धारण करनेवाला तथा अतिशय आश्चर्यकारक रूप व आकृतिसे संयुक्त है ॥२५१ ॥ उसके आहारकालका प्रमाण दो हजार वर्ष तपा उच्छ्वास-निश्वासका काल दो पक्ष प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ २५२ ॥ उस श्रेष्ठ सुरेन्द्रका उत्सेध सात रनि प्रमाण जानना चाहिये । सौधर्म स्वर्गमें स्थित शेष देवोंका भी उस्सेध सात रस्नि है ॥ २५॥ अणिमा-महिमा आदि आठ गुणों व महा-ऋद्धिस सहित, शुभ बिक्रियाविशेषसे संयुक्त, समचतुरन शरीरसंस्थानसे युक्त, [..] संहननोमें संहननसे रहित, आमिनिबोधिकज्ञानी, १ उश संहा परिणामा. १ क श तहि. १ क अगग. ४ उश गोसीरस. ५ उश परिपुषो, परिपुण्णो. ६७ श मरियो. ७. तपसाराहि, क रूपसोहाण, ब रूवसाराण, श नसाराणं. कब एरावद. . उ महिदीए, श महिदीय. १० उ श वेसागरोधमाए तस्सा. १७ श अहार. १५ उश गेया नागो, कया उदा. १५ उबश सोहम्मो. १४ क ब विगुरुवण. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] अंबूदीवपण्णी । ११.२५५ नामिणिवाहियणाणी सुदणाणी पोधिणाणिया केई । सागारो उपजीगो' उवजोगो चेव मणगारो ॥२५५ मणजोगि' कायजोगी चिजोगी तरथ.होति.सम्वे । देवाइर दिविलोएँ दुसु वि ठामेसु गायम्वा ॥ २५६ उप्पज्जति चवंति य देवाणं तस्थ सदसहस्साई । गेहविमाणा दिग्या भकिहिमा सासदसभावा ॥ २५. पउमा सिवा य सुलसा सची य मंजू तहेव कालिंदी । सामा भा" य तहा सक्कस्स दुसम्ममहिसीमो ॥१५८ पउमा दु महादेवी सम्बंगसुजादसुंदरसुरूवा । कलमहुरसुस्सरसरा इंवियपहायणकरी य ॥ २५१ सम्वंगसुंदरी सा सवालंकारभूसियसरीरा । रूवे सो गंभे फासेण य णिच्च सा सुभगा ॥२९. पियदसणाभिरामा इट्टा ता पिया य सक्कस्स । सोलसदेविसहस्सा विउरुग्वदि उत्तमसिरीया ॥" बट्ठामो लामो जोम्बणगुणसालिणीभो' सम्वाो । पीदि जगंति तस्स दुभप्पविरूवैहि वेहि ॥ २१२ पीदिमणाणंदमणा विणएण कदंजली मंसति । विणएण विणयकलिदा सक्कं चित्तेण रामेति" ॥ १॥ विडम्वणा पभावो स्वं फासो तहेव गंधी य । भट्टण्ह वि वेवीण" एस सभाषो" समासेण ॥ ५. ................. श्रुतज्ञानी व कोई अवधिज्ञानी तथा साकार व निराकार उपयोगसे सहित है ॥ २५४-२५५ ॥ वहां वे सब देव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। स्वर्गलोकमें देव चार ही गुणस्थानोंमें स्थित होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ २५६ ॥ वहाँ अकृत्रिम एवं शाश्वत स्वभाववाले जो लाखों दिव्य गृहविमान हैं उनमें देव उत्पन्न होते व मरते हैं ॥ २५७ ॥ पद्मा, शिवा, सुलसा, शची, अङ्ग्, कालिंदी, श्यामा तथा भानु, ये सौधर्म इन्द्रकी अनदेवियां हैं ॥२५८॥ सब अंगोंमें उत्पम सुन्दर रूपसे सहित, कल एवं मधुर सुन्दर स्वरसे संयुक्त, इन्द्रियों को भारहादित करनेवाली, सर्वांगसुन्दरी तथा सब अलंकारोंसे भूषित शरीरसे संयुक्त जो पद्मा महादेवी है वह रूप, शब्द, गन्ध व स्पर्शसे नित्य ही सुभग है ॥२५९-२६०॥ उक्त महादेवी इन्द्रकी प्रियदर्शना, अभिराम वल्लभा व इष्ट प्रिया है । उत्तम श्रीसे संयुक्त वह देवी सोलह हजार देवियोंके रूपोंकी विक्रिया करती है ॥२६१॥ यौवन गुणसे शोभायमान सब इष्ट वलमायें अपने अनुपम रूपोवाळे रूपोंसे इन्द्रको प्रीति उत्पन्न करती है ॥ २६२ ॥ मनमें प्रीति व आनन्दको धारण करनेवाली वे देवियां विनयसे हाथ जोड़कर नमस्कार करती हैं और विनयसे सहित होती हुई मन लगाकर नम्रतापूर्वक सौधर्म इन्द्रको रमाती है ।।२६३॥ विक्रिया, प्रभाव, रूप, स्पर्श तथा गन्ध यह संक्षेपसे आठों ही देवियों का स्वभाव है । अर्थात् ये उन आठों ही देवियों के समान होते हैं ॥२६॥ १ उब श सागारे उवजोगे, क सागरे उपजोगे. २ उश चेव जोयणागारे, कब अणगारे, ब व अनागारो. ३ उकब श मणजोग. ४ कब दिवलोए, ५ उ व अंह, कब य मंज, शब बंदू...उश मणू. ७ उश या. उश जोधण. ९ उबश सालिणीउ..उ विणयफनिदा. शबोतर्व फब्दिा. १. उश रामति ब रामंति. १२ क अढण्ई देवीणं.१३ क पमावो. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. २७४] एक्कारसमो उदेसो हिमयमणोगपभावं लामो पाऊण भमरबहुयायो । हियइपिछदाई बहुसो परिति मणोरहसवाई ॥ ११५ बसीससहस्सा बल्लहियाणे पुणो वि अवराण सवंगसुंदरीण' अग्रयच्छणिज्जाणं . पत्तेयं पत्तेयं बलहियामो य लामो सम्वामओ । विउरुग्वंति सरूवा सोलसदेवीसहस्साणि ॥१६ पंचपलिदोगमाई भाटिदि विसयइतितुल्लाणं | सम्वाण देवीणं एसेव कमो मुणेयम्चो ॥१८ बेसायरोवमाई आउटिदि तस्स सुरवरिंदरस । ताव भणेगा देवी उप्पज्जती पर्वतीय ॥ २१९ परिइंदसायतीसा सामाणिया तह य लोयवालाणं । ति पिपरिसाणं णाम विभती ससंबाय'।.. सविदा चंदा य अ, परिमाण तिणि होति नामाणि । मभंतरमजिसमबाहिरा य कमसो मुणेपणा ॥ इस दो य सहस्साई" मम्भंतरपारिसाय समिदाएँ । मजिसमपरिक्षा चंदो पदससाहस्सिमा भागदा ॥ २.१ बाहिरपरिसाए पुणो णामेण जदू जगम्मि विक्खादा । सोलसयसहस्साई" परिसाए सीए णायब्वा ॥२॥ भवरे विय सेयणिया()सत्त वि जहाकम णिसामेह । पायागययाण य वसहाण य सिग्धगामीण ॥ वे देवांगनायें इन्द्र के हृदय अथवा मनमें स्थित भावको जानकर उसके सैकड़ों अभीष्ट मनोरयोंको बहुत प्रकारसे पूर्ण करती हैं ॥२६५॥ अग्रदेवियों के अतिरिक्त उक्त सौधर्म इन्द्रके बत्तीस हजार मल्लमायें होती हैं जो सर्वागसुन्दरी एवं साश्चर्य दर्शनीय है ।। २६६ ॥ उन सब वल्लभाओंमें प्रत्येक वालमा अपने रूपके साथ सोलह हजार देवियों के रूपोंकी विक्रया करती है ॥२६॥ विषय व ऋद्धिमें समानताको प्राप्त उन देवियोंकी आयुस्थिति पांच पत्योपम प्रमाण है। सब देवियोंके यही क्रम जानना चाहिये ॥२६८॥ उस श्रेष्ठ सुरेन्द्रकी आयुस्थिति दो सागरोपम प्रमाण है। इतने समयमें अनेक देवियां उत्पन्न होती हैं और मरती हैं ॥ २६९॥ प्रतीन्द्र, त्रायविंश, सामानिक, लोकपालों तथा तीनों ही परिषदोंके संख्या सहित. नामोंका विभाग [इस प्रकार है। ।। २७० ॥ अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य, इन तीन परिषदोंके क्रमशः समिता, चन्द्रा-व जतु ये तीन नाम जानना चाहिये ॥ २७१ ॥ इनमसे समिता नामक अभ्यन्तर परिषदमें बारह हजार और चन्द्रा नापक मध्यम पारिषदमें चौदह हजार देव कहे गये हैं ॥ २७२ ॥ जो बाह्य परिषद् जगतमें 'जतु' नामसे प्रसिद्ध है उस बाह्य परिषदें सोलह हजार देव जानना चाहिये ॥२७३ ॥ पदाति, गज, अश्व, शीघ्रगामी वृषभ तथा और भी जो सेना है; यथाक्रमसे उस सात प्रकारकी सेनाकी [ विशेषताको ] सुनो ॥२७४॥ पदाति, पीठ, वृषभ, रथ, तुरग, गजेन्द्र .क मनोहर. १उशसहस्साएं. ३ उबश अमराण, श अम्पाणं.. शपबंगसुरिबहरीन. ५उश सुरूवा. क उल्लाई, बतुलाई..उशवेसागरोवमाए..काय. शयसबापा. १.उशबदो या."3.शय सयसहस्सा. १२.उ.श समिबीए, ब-समिदीय..11.30 रिसचंदा. १. उश सोलसयसहस्साt.१५उश अवरे वि सेयणेया सतमि य. कपबशपापा. १.उसिधगामी,श सिबगामीण. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] जंबूदीवपणाची [ ११.२७५ पायाइपीडेवसदा रहतुरयगद दिग्वगंधब्वा । णट्टाणीयाण तहाँ नीकंजस महदरी जत्थे ॥ १७५ वाणामेण तर्हि पायाइबलस्सें मद्ददरो भो | सण्णद्ध बद्धकवभो सप्ताह कच्छाहि परिकिण्णो ॥ २०६ पडलिकच्छाएँ चुलसीदी होति सदसहस्साई । बिदियाए वहुगुणा संणद्धा सुरवरा होति ॥ २०७ एवं दुगुणा दुगुणा जाव गया होंति सप्तमीक छ । सतहं भणियाणं एसेव कमो मुणेयम्वो ॥ १७८ उज्जुदत्था सब्वे णाणाविहगहियपहरणाभरणौ । संणबद्धकवया भारक्खा सुरवरिंदस्स ॥ १७९ बाहिरपरिसा या मइरूंर्दा णिहुरा पयंडा य । बैठा उज्जुदसत्यां अवसारं तत्थ बोसंति ॥ १८० बेतलदागद्दियकरा मज्झिम आरूढवेसधारी" य । कंचुकदमेवस्था अंतेउरमहदरा बहु ॥ २८१ वग्वरिचिलादिसुंज्जा कम्मतियदा सिचेडिवग्गो य । अंतेउराभियोगा करंति णाणाविधे वेसे ॥ १८१ पीढाणीयस् त महदरओ सो हरिति णायध्वो । उच्चासना सहस्सा सपायपीठा तहिं देदि ॥ १८३ तस्स वि य ससकेंच्छा बोद्धब्बा होति भाणुपुथ्वीय । कच्छासु सो विश्चिदि" भूमिभागं बियाणंतो ॥ १८४ और दिव्य गन्धर्व ये सात अनीक हैं, तथा जहां नर्तकी अनीकोको महत्तरी नीलंजसा है ॥ २७५ ॥ युद्धमें उद्युक्त होकर कवचको बधिनेवाला व सात कक्षाओंसे वेष्टित वायु नामक देव उक्त सेनाओसे पदाति सेनाका महत्तर जानना चाहिये || २७६ ।। प्रथम कक्षामें चौरासी लाख [ हजार ] और द्वितीय कक्षा में युद्धार्थ तत्पर रहनेवाले उत्तम देव उनसे दुगुणे होते हैं || २७७ || इस प्रकार सातवीं कक्षा तक उत्तरोत्तर दुगुणे द्रुगुणे देव हैं। सात अनीक का यही क्रम जानना चाहिये ॥ २७८ ॥ शस्त्र धारण करनेमें उद्युक्त व नाना प्रकारके शस्त्रों रूपी आमरण को ग्रहण करनेवाले तथा युद्धमें तत्पर होकर कवचको बांधे हुए वे सब सैनिक देव इन्द्रके रक्षक हैं ।। २७९ ।। बाह्य पारिषद देव अत्यन्त स्थूल, निष्ठुर, क्रोधी, अविवाहित और शस्त्रोंसे उयुक्त जानना चाहिये । वे 'असर' (दूर हटो ) की घोषणा करते हैं ॥ २८०॥ वेत रूपी लताको हाथमें ग्रहण करनेवाले, आरूढ वेषके धारक तथा कंचुकी (अन्तःपुरका द्वारपाल ) की पोषाक पहने हुए मध्यम [ पारिषद ] अन्तःपुरके महत्तर होते हैं ॥ २८९ ॥ वर्वरी, किराती, कुब्जा, कर्मान्तिका, दासी और नयनाना प्रकार के वेषमें अन्तःपुरके अभियोगको करता है ॥ २८२ ॥ तथा महान नामक देव जानना चाहिये । वह वहां पादपीठ सहित हजारों उच्च द है, दशसकी मी क्रमशः सात कक्षायें जानना चाहिये । वह उन कक्षाओं में भूमिके विभागको जानता हुआ उसे विभाजित करता है ॥ २८४ ॥ जो जिसके योग्य tasyipi pas f TE EF पायलट का पांचवी : जच्छा, व जक, राजन. ४ काल बद्री प्रमिति 0776 परणावरण. उस उक्त ११.१ विवाद. १४ क तहिं. १५ क स बिय सच, बसन्त बिसत, (शप्रतावस स्व Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. २९४ ] एक्कारसमो उद्देसो [ २१५ जं जस्स जोगमहरिह उच्चं णिज्वं च मासणं दिग्वं । तं तस्स भूमिभागं णाऊण तर्हि तर्हि देदि ॥ २८५ वसभाणीयस्स ता महदरओ सो दु णाम दामड्डी' । तस्स वि य सत्त कच्छा देवाणं वसभरुषाणं ॥ २८६ पवणंजओ सि णामेण तस्स वरतुरगमद्ददरो देवो । सप्ताह कच्छाहिं समं तुरयसहस्सा बहुं देइ ॥ २८७ रावणो ति णामेण महदरो होदि सो गयाणीओ । विउरुग्वदि साहस्सा मत्तगयंदाण गाणं ॥ २८४ उत्तुंग मुसलता पभिण्णकरडा महागुलगुहिंसा | सप्ताहं कच्छाहिं ठिदा कुंजररूवेहि ते दिग्वा ॥ २८९ अवरो वि रहाणीमो" महदरको मादलि त्ति विक्खादो | सत्ता कच्छाहिं ठिदो देई' रहाणं सदसहस्सा ॥ १९० णामेण भरिजसो गंधवाणीय महदरो अवशे । सप्तहि कच्छाहिं समं गायदि दिग्वं महुरसई | १९१ हाणीयमद्ददरी जीजसे लक्खणपगन्भा । सतहिं कच्छाहिं समं चदि हं बहुवियप्पं ॥ २९२ गायंति य णच्वंति य अभिरामंति य भणोवमसुहेहिं । अमरे य अमरबहुओ इंदियविस समेहिं ॥ 1 इंदरस दु को विहवं उपभोगं तस्स तह य परिभोगं । वण्णेऊण समत्यो सोहग्गं स्वसारं च ॥ २९४ महाई (बहुमूल्य) ऊंचा व नीचा दिव्य आसन होता है वह उसके योग्य भूमिभागको जानकर वह वहां उसे देता है || २८५ || वहाँ वृषभानीकका महत्तर वह दामर्द्धि (दामयष्टि ) नामक देव है । उसके भी वृषभरूप देवोंकी सात कक्षायें होती हैं ॥ २८६ ॥ उस अश्वसेनाका महत्तर पवनञ्जय नामक देव होता है । वह अपनी सात कक्षाओं के साथ अनेक सहस्र अबको देता है ॥२८७॥ गजानीकका महत्तर वह ऐरावत नामक देव होता है । वह अनेक सहस्र मत्त गजेन्द्रोंकी विक्रिया करता है ।। २८८ ॥ मूसलके समान उन्नत दांतों सहित, मदको झरानेवाले गण्डस्थलोंसे युक्त, और गुल-गुल महा गर्जना करनेवाले वे दिव्य देव हाथी रूप सात कक्षाओंके साथ स्थित रहते हैं || २८९ || मातळी नामसे विख्यात दूसरा रथ अनीकका महत्तर भी सात कक्षाओंसे स्थित होकर लाखों रथोंको देता है ॥ २९० ॥ अरिष्टयश नामसे प्रसिद्ध दूसरा गन्धर्व अनीकका महत्तर सात कक्षाओंके साथ मधुर स्वरसे दिव्य गान करता है || २९१ ॥ नाव्यलक्षणमें समर्थ नीलंजसा नामक नर्तक सैन्यकी महत्तरी सात कक्षाओंके साथ बहुत प्रकारका अभिनय करती है ॥ २९२ ॥ वे देवांगनायें गाती हैं, नाचती हैं, तथा अनुपम सुखकारक सब इन्द्रियविषयोंसे देवोंको रमाती हैं ॥ २९३ ॥ उस इन्द्रके विभव, उपभोग, परिभोग, सौभाग्य तथा श्रेष्ठ रूप का वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ है ! अर्थात् कोई नहीं है ||२९|| इस प्रकार महाऋद्धिका १ उश उच्च चि. २ उ व श दामट्टी ३ क व दिव्वानं. ४ क एरामणो. ५ उश विवरम्बदि ६ सहरसा. ७ क णामाणं, व जागाणं • उश उच्छंग, व उकंग ९ क ब पमिष्ण करा. १० क ब रहानीदो. ११ उधा देहि १२ क णीक असा. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीपण्णत्ती [११.२९५ एवं तु महढीको महाणुभागी महाजुदी सक्को। तेल्लोक्कसारविरं भुजदि मच्छरयम्भूवं ॥ २९५ सो तस्स विउहतवपुर्णसंचलो संजमेण णिप्पण्णो । ण चइज्जइ वण्णेदु वाससहस्साण कोरीहि ॥ २९६ वपुरीदो वि पुणो पुष्पाए दिसाए जोयणा बहुगा । गंतूण होइ तत्तो दिध्वविमाणं वरपभेति ॥ २९७ पूणर्दरयणमयं मच्चम्भुदविचित्तवलहिपासादं । सासदसभावसाहं इंदपुरीए समप्प एवं ॥ २९८ तत्य दु महाणुमायो सोमो णामेण विस्सुदजसोयो । सामाणिमो सुरुवो" पडिइंदो तस्स इंदस्स ॥ २९९ अट्वा कोडीमो मच्छरसाणं च तस्स सोमस्स । भग्गमहिसीमो चदुरो णायवा सपरिवारामो ॥ ३०. तिम्णि य परिसा वस्स वि" सत्तेव य होंति परभणीयाणि । इंदादो भवई परिवार उणो" मुजयन्यो । एवं त सुकयतवसंचएण देसंजमोवदेसण 1 भासुरवरबोंदिधरा देवा सामाणियाँ होति ॥ ३०२ दक्मिणदिखाए दूरं गतणं वरसिखंति"णामेण | दिवं ग्यणविमाणं जत्य दु सामणिमो" भवरो ॥३॥ ................ धारक, महाप्रमावसे संयुक्त, महाकान्तिसे सुशोभित वह सौधर्म इन्द्र तीनों लोकोंमें सारभूत आश्चर्यजनक एवं अद्भुत [विषयसुखको) भोगता है ॥२९५॥ उस सौधर्म इन्द्रका वह महान् तप युक्त पुण्यका संचय- संयमसे उत्पन्न हुआ है। इसका वर्णन हजार करोड़ वर्षोंके द्वारा भी नहीं किया जा सकता ॥ २९६ ।। इन्द्रपुरीसे पूर्व दिशामें बहुत योजन जाकर श्रेष्ठ प्रभ (स्वयंप्रभ) नामक दिव्य विमान है ।। २९७ ॥ सुवर्ण एवं रत्नोंसे निर्मित, अत्यन्त आश्चर्यजनक विचित्र व वलमी युक्त प्रासादोंसे संयुक्त तथा अविनश्वर स्वभाववाली शोभासे (अथवा सौधोंस) सम्पन्न यह विमान इन्द्रपुरीके समान प्रभावाला है ॥२९८॥ उस विमानमें ' सोम' नाम से प्रसिद्ध कीर्तिवाला, महाप्रभावशाली एवं सुन्दर रूपसे सम्पन्न ऐसा उस इन्द्रका सामानिक प्रतीन्द्र रहता है ॥२९९॥ उस सोम लोकपालके साढ़े तीन करोड़ ( ३५००००००) अप्सराय और सपरिवार चार अप्रदेविया जानना चाहिये ।। ३०० ॥ उसके भी तीन परिषद् तथा सातों ही उत्तम सेनायें होती हैं। परन्तु परिवार इन्द्रसे बाधा आधा जानना चाहिये ॥ ३०१॥ इस प्रकार बत एवं संयमसे युक्त पुण्य व तपके संचयसे वे सामानिक देव भास्वर उत्तम रूपको धारण करनेवाले होते हैं ॥ ३०२ ॥ दक्षिण दिशामें दूर जाकर घरशिख (वरशिष्ट ) नामक दिव्य रत्नमय विमान है; जहां दूसरा सामानिक (यम) देव रहता है ॥ ३०३ ॥ पश्चिम दिशामें ................................... । उ श महिदीओ. २ श सक्के. ३ उ श तोलोक्क. ४ क भवपुण्ण.५ उ न राजा वणे, कण पम्जा वण्णे₹, पब मि चाजइ वणेदु, श णाहज्जवणेहि. ६ उ श जंबूद. • उ श चित्त. ८ उ ईदपुरीए समप्पम, शदपुरीव समप्पमवं. ९ उश विस्सदजसोधो, पब विस्सदससोचो. 1.कसरूवो. ११ तिष्णि कि. ११ क प य परिवारूणो. १३ उ तबसंवराणवरसंजमोववेदेण, क प च तवसंचएणवरसंजमोवदेदेण, शतबसंवएणवरसंबमोबवेदेष. १४ क सविमाणया, पर सबिमाणिया. १५ क पासिमात्ति, पबवरसिकाति, शरसबंति. १९उव समाणियो, पब जब समाणियो, शसेवसमागीयो... Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११. ३१३ ] एक्कारसमो उद्देसो [ २१७ पच्छिदिसाए गंतुं णामेण य जलजलं ति' विक्खायं । उत्तर दिलाए' गंतुं दिग्वविमाणं रयणचितं ॥ ३०४ एदेसु लोगवरला वसंति सामाणिया य अवरेसु । परिहंदा इंदरस दु चदुसु चि दिसासु णायज्वा ॥ ३०५ तुल्ल बल रूव विक्कमपयावजुत्ता हवंति ते सध्वे । सामानिया वि' देवा मणुसरिसा लोग वालाणं ॥। २०६४ अध्चन्भुदइ त्रिजुदा अच्च भुदरूव कित्तिसंजुत्ता | अध्चन्भुदेण णेया उबवण्णां ते सवेणं पि ॥ ३०७ उत्तरसेढीए पुणो गंतूणं जोयणा भसंखेज्जो । ईसाणस्स दु सीमा दंडाय दबेदिया दिग्वा ॥ ३०८ ततो दुपभादो विय महारसमम्मि वरविमाणम्मि | ईसांणेति विमाणं ईसा निंदो तहिं बसह ॥ ३०९: तस्स वि योगपाला सत्ताणीया य तिण्णि परिसाओ । महदाइ डीए जुदो सोधम्मादो विसेसेण ॥ ३१० चुलसीदिं च सहस्सा तस्स वि सामाणियाण देवाणं । बलरिद्धिसुहपभावो सोहम्मादो विसेसेण ॥ ३११ विदिडिवियतुल्हा सामाणिय कोगपाल देवेहिं । माणाइस्सरिएणे य अधिभो हंदो दु णायम्वो ॥ ३१२ सिरिमदि" शहा खुसीमा वसुमित्त वसुंधरा रा य धुवसेगी । अन्यसेणा य सुसेना अट्ठमिया से पभासंधी ॥११३ रूप, जाकर जल-जल ( जलप्रभ, नामसे विख्यात और उत्तर दिशामें जाकर रत्नचित ( वल्गु ) दिव्य विमान है || ३०४ || इन विमानोंमें लोकपाल देव रहते हैं तथा इतर विमानों में सामानिक देव रहते हैं । इन्द्र के प्रतीन्द्र चारों ही दिशाओंमें स्थित जानना चाहिये ॥ ३०५ ॥ वे सब तुल्य बल, विक्रम एवं प्रतापसे युक्त होते हैं । सामानिक देव भी लोकपालोंके सदृश होते हैं ॥ ३०६ ॥ अत्यन्त आश्चर्यजनक ऋद्धिसे युक्त, तथा अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप एवं कीर्तिसे संयुक्त वे देव अतिशय आश्चर्यकारक तपसे ही उत्पन्न होते हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥ ३०७ ॥ पुनः उत्तर श्रेणिमें असंख्यात योजन जाकर ईशान कल्पकी सीमा स्वरूप दण्डके समान आयत दिव्य वेदिका स्थित है ॥ ३०८ || उस प्रभ इन्द्रकी [ उत्तर दिशामें स्थित बत्तीस श्रेणिबद्ध में ] अठारहवें ईशान नामक श्रेष्ठ श्रेणिबद्ध विमानमें ईशानेन्द्र निवास करता है ॥ ३०९ ॥ उस ईशान इन्द्रके भी लोकपाल, सात अनीक और पारिषद देव हैं । सौधर्म इन्द्रकी अपेक्षा यह विशेषतया महा ऋद्धिसे संयुक्त है ।। ३१० ॥ उसके भी सामानिक देवोंका प्रमाण चौरासी हजार है । यह सौधर्म इन्द्रकी अपेक्षा विशेषतया बल, ऋद्धि, सुख एवं प्रभावसे युक्त है ॥ ३११ ॥ सामानिक व लोकपाल देव धृति, ऋद्धि और विषयों में इन्द्रके समान होते हैं । इन्द्र केवल इनसे आज्ञा व ऐश्वर्यमें अधिक जानना चाहिये || ३१२ ॥ श्रीमती, सुसीमा, वसुमित्रा, वसुन्धरा, ध्रुवसेना, जयसेना, सुसेना और आठवीं प्रभासंती ( प्रभावती ), ये आठ ईशानेन्द्रकी १ उ गतूणामेळ यजर जलं ति, क गंतुं णामेण जयंजल चि, प मंतुं णामेण जलजल चि, ब गंतु णामेण जल चि, श गं तूणामेव य जल्जलं ति २ उ रा उत्तर दिसाएण. ३ क प ब रयणचित्तं. ४ उ श एदे सलोगपाळा, क देवा सलोयपाला, पब देवसुलोगपाला ५ प ब सामाणियाणि ६ उ प ब शमणुसरिसा ७ उ श उववण्णो. ८ क प व पुण. ९ शयसंखेज्जा, प ब असंखेज्जं. १० प ब वेदियाबुद्धा, क वेंदिया बद्धा. ११ क ईसरिएण, प ब इसरिएण १२ श सिरिमादि. १३ उ श य हुवसेणा, क य जुवसेणा पब या जुनसेण १४ उ अट्ठमिया से पभासेति क प ब अट्ठमिया से पमासंति, श अट्ठमिया भासेति. जं. दी. २८. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जंबूदीवपण्णची [११. ३११ सोकस देविसहस्सा पत्तेयं महिलियाण परिवारा। वररूवसालिणीमो मच्छरयपेरछणिज्जामो ॥३१४ को एदाण मणुस्सो अणतरूवाण चेव देवीणं । चण्णेज स्वविभवं हड्डिविलासं च सोखं च ॥ ३१५ मणिरयणहेमजालाउलेसु सिरिदामगंधकलिदेसु । सुत्रिणिम्मलदेहधरा रमति कालं तहिं सुचिरं ॥१॥ ईसाणविमाणादो गंतूणं जोयणा असंखेज्जा । पश्छिमदिसासु दिव' होदि भवरं तु सम्बदोभई ॥३१७ जंबूणयरयदमए णाणामणिकिरणविप्फुरंतम्मि । जत्य जमो सि महप्पा पठमिल्लयलोगपालो सो' ॥३॥ सोधम्मे जह सोमो तह सो वि जमो अणोवमसिरीभो। सामाणियग्गमहिसीहि चेय ताई चाहिं संजुत्तो ॥ इंदविमाणादु पुणो गंतूणं जायणा असंखज्जा | अस्थि सुभद्द त्ति तहिं देवविमाणं रदणचितं ॥ ३२० जत्थ कुबेरो त्ति सुरो पडिइंदो इंदतेयेसुरसारो । सो बिदियलोगपालो भच्छेरयभोगपरिभोगो" ॥ ३२१ ईसाजिदपुरादो गंतूणं जोयणी असंखिज्जा । पुम्वेण वरविमाण समिदं फिर णाम गामेण ॥ ३२९ तस्थ अणावमसोभो" मुत्तामणिहेमजाल कालदम्मि५ । वरुणो त्ति लोगपालो तिहुषणविक्खादकित्तीभो॥ ............... अग्रदेवियां हैं ॥ ३१३ ॥ इन महिलाओं से प्रत्येकके उत्तम रूपसे शोभायमान और साश्चर्य दर्शनीय सोलह हजार परिवारदेवियां होती हैं ॥ ३१ ॥ अनन्त सौन्दर्यवाली इन देवियों के रूप-वैभव, ऋद्धि, विलास व सौख्यका वर्णन कौन मनुष्य कर सकता है ! अर्थात् कोई भी नहीं कर सकता ॥ ३१५ ॥ मणि, रत्न व सुवर्णके समूहसे व्याप्त तथा सुन्दर मालाओंके गन्धसे सहित वहां ( विमानोंमें ) शुचि एवं निर्मल देहको धारण करनेवाली वे देवियां चिर काल तक रमण करती हैं ॥ ३१६ ॥ ईशान विमानसे असंख्यात योजन जाकर पश्चिम दिशामें सर्वतोभद्र नामक दूसरा दिव्य विमान है, सुवर्ण व रजतसे निर्मित तथा नाना मणियोंकी किरणोंसे प्रकाशमान जिस विमानमें यम नामक महात्मा निवास करता है। वह उक्त इन्द्रका प्रथम लोकपाल है ॥ ३१७-३१८ ॥ सौधर्म विमानमें जिस प्रकार सोम लोकपाल रहता है उसी प्रकार अनुपम शोभावाला वह यम लोकपाल भी सामानिकों और चार अप्रदेवियोंसे संयुक्त होकर वहां रहता है ॥ ३१९॥ पुनः इन्द्रकविमानसे असंख्यात योजन जाकर वहां रत्नोंसे विचित्र सुभद्र नामक देवविमान है, जहां इन्द्रके समान तेजस्वी श्रेष्ठ देवोंसे सहित और आश्चर्यजनक भोग-परिमोगोंसे संयुक्त वह कुबेर नामक द्वितीय लोकपाल प्रतीन्द्र रहता है ॥३२०-३२१ ।। ईशानेन्द्रपुरसे असंख्यात योजन जाकर पूर्वमें समित ( अमित ) नामक उत्तम विमान है ॥ ३२२ ॥ मुक्ता, मणि एवं हेमजालसे कलित उस विमानमें, जिसकी कीर्ति तीनों लोकोंमें विख्यात है ऐसा अनुपम शोभावाला वरुण नामक लोकपाल निवास करता है उप बश वाणिज्ज. २ उपबश विसालं. ३ उ दिसास दिटुं, श दिसासमाविडं. ४ उ यवर. सवदीमई, पब यवरसवदोमव्वं. ५ क से. ६ पब सोधम्मो, श धम्मो. ७क जओ, पब जउ. ८क पबचव तह. ९ उश इंदतोय. १०क पडिइंदतिलयसमासारो. "उपबश परिमोगो. १२ उश बोयण. १३ उकिर णामेण. १४ उश अणोक्सोमे. १५उ शकलदम्मि. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. ३३४ ] एक्कारसमो उद्देसो [ २१९ एवं ते देववरा बरहारविहूसियो महासत्ता । माललि देचवलकुंडले सच्छेदविडंग्वणाभरणों ॥ ३२४ बहुविविहसाहविरइयदिग्व विमाणोह चित्तसाहाणि । ताणि विमाणवराई' अच्छे रयपेच्छणिज्जाणि ॥ ३२५ सुकयतव सीलसंचयँ विजयसमाधी ये धम्मसीकाणं । वररदणसमुब्भूद ते मावासा सपुष्णाणं ॥ ३२६ उत्तरलोयडुवदी" अट्ठावीसं तु सयसहस्साणं । सामी ईसानिँदो रदणविमाणाण दिव्वाणं ॥ ३२७ तो उढं गंतुं जोयणकोडी असंखेज्जा । ताहे सणक्कुमारे कप्पे रुजगंजणं णाम ॥ ३२८ णामेण मंजणं नाम तत्थ मणिकणय रयणवेयडियं" । वणमाकं वह नागं गरुलं में मनोवमसिरीयं ॥ ३२९ वरमणिविभूसिदं च पियदंसणं च विश्वादं । बलभद्दं तह छटुं । चक्कं च भणोवमसिरीयं ॥ ३३० होइ अरिद्वविमाणं विमलं तह देवसम्मिदं" चेव । एदे चत्तालीस इंदयपडला मुणेयब्वा ॥ ३३१ बं बंतर" बंभतिलय तह कंतवं च काविट्ठ । सुक्कं च सहस्सारं णादम्बं आणदं चैव ॥ ३३२ पाणदपडलंच तहा पुप्फुसेर सामरं च पण्णासं । आारणकप्पं च वहा मच्युदकप्पं च णादं ॥ ३३३ हेट्ठिमगेवेज्जान य मादीसु सुदंसणं अमोघं च । तह चैव सुप्पबुद्धं तदियं पडलं मुणेयध्वं ॥ ३३४. ॥ ३२३ ॥ इस प्रकार वे श्रेष्ठ देव उत्तम हारसे विभूषित महाबलवान्, सुन्दर व चंचल कुण्डलों से अलंकृत तथा इच्छानुसार विक्रिया एवं आभरणोंको धारण करनेवाले हैं ॥ ३२४ ॥ विविध प्रकारके बहुत से प्रासादोंकी रचनासे सहित, दिव्य विमान समूहकी विचित्र शोभासे सम्पन्न, तथा आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय वे उत्तम विमान भले प्रकार किये गये तप व शीलके संचय सहित विनय एवं धार्मिक स्वभाववाले पुण्यवान् जीवोंके निवास रूप होते हैं । वे आवास उत्तम रत्नोंसे उत्पन्न हुए हैं || ३२५-३२६ ॥ उत्तरलेोकार्धका अधिपति ईशानेन्द्र अट्ठाईस लाख रत्नमय दिव्य विमानोंका स्वामी है ॥ ३२७ ॥ प्रभ पटलसे असंख्यात करोड़ योजन ऊपर जाकर तब सनत्कुमार कल्प में रुचकजिन ( ! ) है | वहां मणियों, सुवर्ण एवं रत्नोंसे खचित अंजन नामक पटल, वनमाल, तथा नाग, अनुपम शोभावाला गरुड, उत्तम मणियोंसे विभूषित प्रसिद्ध प्रियदर्शन [ लांगल ], छठा बलभद्र, अनुपम शोभासे सम्पन्न चक्र पटल, अरिष्ट विमान, तथा विमल देवसम्मित ( सुरसमिति ), ये चालीस इन्द्रक पटल जानना चाहिये || ३२८-३३१॥ इसके ऊपर ब्रम्ह, ब्रम्होत्तर, ब्रम्ह तिलक ( ब्रम्हहृदय ), लांतर, कापिष्ठ (!), शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत पटल, तथा पुष्पोत्तर ( पुष्पक ), पचासव सागर ( शातंकर - शातक ), आरण कल्प तथा अभ्युत कल्प जानना चाहिये ॥ ३३२-३३३ ॥ अधस्तन मैवेयकोंके आदिमें सुदर्शन, अमोघ तथा तृतीय सुप्रबुद्ध पटल जानना चाहिये ॥ ३३४ ॥ मध्यम मैत्रेयकों में क्रम से १ क वरहा विभूसिया. २ उ रा आलुलिय. ३ प ब बवळकुडल ४ क सद विष्वणाभरणा, प ब सदावेव्वणाभवणा. ५ उश ताण विमाणविराई ६ उश पेच्छाणिजाहि. ७ प संचया, ब संवय ८ विजयसाधीय, पविणयासमाधाय ९ उश समम्भूदा १० क लोयट्टवदी, प ब लोयठवदी, श लोए टवदी. ११ के सत्यमणिरयणकणयवेयडियं. १२ उ रा ववणमालं तवणागं गरुलं व क ब वणमालं तह नागं गरुलं च. १३ उ तह छ, के तह प व तह द्वे. १४ क देव संसद, १५ उ रा वंभुवंभुत्तरं, क बंं बभ्रुतरं, प बंभ बंयुत्तर, व वंभे वंभुचर. १६ उ रा वह पुप्फसर. १७ ज श णादन्ना. १८ क सुणायम्वं. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] जंबूदीव पणती [ ११.३१५ मज्झिम.गेव ज्जे सु. य. तिष्येव कमेण होत जायवा । जसहर सुभडणामा सुविसाल कमेणे महर्मिंदा ॥ ३३५ सुमणस तद्द सोमणसं भणियं पीर्दिकरं च इमिसर्टिं । उवरिमगेवज्जग्मिय तिष्णि य पडला समक्खादा ॥ ताई अशुद्दिसं किर आदिच्च चेव होदि णामेण । जस्स दु इमे विमाणा चदुद्दिसं होति चत्तारि ॥ ३३७ चीय अच्चिमा हिणि' दिव्वं बद्दशेयणं' प्रभासं च । पुष्वावरदक्खिणउत्तरेण आदिच्चदो होति ॥ ३३८ एदे पंचविमाणा जे होंति भणुत्तरा दु सम्बट्टे । जम्मि य सम्वद्वादो सुहसादमणंतयं जरथ ॥ ३३९ विजयं च वैजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण । सन्वट्टस्स दु एदे चदुसु वि. य दिसासुं चलारि ॥ २४० एदे विमाणडला होति तिसट्ठी कमेण बोद्धवा | कप्पा. सोधम्मादी णादन्या अम्बुदो जाम ॥ ३४१ गेवज्जादि काउं जावें विमाणा अणुत्तरा पंच । ९दे विमाणवासी समए भणिदा समासेण ॥ ३४२ एक्केक्कस विमाणस्स अंतरं जोयणा असंखेज्जा । एक्केवकं च विमाणं होदि असं खेज्जविस्थानं ॥ ३४३ माणुसखेत्तपमाणं" सोधम्मे" होदि उदुचिमाणं तु । जंबूदीवरमाणं होदि विमाणं तु सम्बद्धं ॥ ३४४ पुष्फोवइष्णएसु य सेढिविमाणेषु चैव सब्वेसुँ | आयामो विवखंभो जोयणकोडी असंखेज्जा ॥ ३४५ यशोधर, सुभद्र नामक और सुविशाल, ये तीन अहमिन्द्र पटल हैं ॥ ३३५ ॥ उपरिम मैत्रेयक में सुमनस, सौमनस और इकसठवां प्रीतिकर, ये तीन पटल कहे गये हैं ॥ ३३६ ॥ तत्र अनुदिशों में आदित्य नामक दिव्य एक ही इन्द्रक पटल है, जिसकी चारों दिशाओं में ये चार विमान हैं ॥ ३३७ ॥ अर्चि, अर्चिमालिनी, दिव्य वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटळके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में हैं ॥ ३३८ ॥ [ सर्वार्थसिद्धिके साथ ] ये पांच अनुत्तर विमान सर्वार्थ पटल में हैं, जिस सर्वार्थसिद्धि में अनन्त सुख -साता है ॥ ३३९ ॥ विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक ये चार विमान सर्वार्थ पटलकी चारों ही दिशाओं में स्थित हैं ॥३४० ॥ ये विमानपटल क्रमसे तिरेसठ होते हैं, ऐसा जानना चाहिये । सौधर्मसे लेकर अभ्युत पर्यन्त कल्प जानना चाहिये || ३४१ || आगममें संक्षेपसे ग्रैवेयकको आदि लेकर पांच अनुत्तर विमानों तक ये विमानवासी [ कल्पातीत ] कहे गये हैं ॥ ३४२ ।। एक एक विमानका अन्तर असंख्यात योजन है, तथा एक एक विमान असंख्यात योजन प्रमाण विस्तारसे सहित है ॥ ३४३ ॥ सौधर्म कल्पमें स्थित ऋतु विमानका विस्तार मानुषक्षेत्र प्रमाण ( पैंतालीस लाख योजन ) और सर्वार्थ विमानका विस्तार जम्बूद्वीप प्रमाण ( एक लाख योजन ) है || ३४४ ॥ पुष्पों के समान इधर उधर बिखरे हुए प्रकीर्णक विमानोंका विस्तार [ संख्यात व असंख्यात योजन ] तथा सब ही श्रेणिबद्ध विमानोंका आयाम व विष्कम्भ असंख्यात करोड़ योजन है ।। ३४५ ॥ १. क. तेणेव २ श णामेण विसालकमेण, ३ क सोमपासं. ४ उ श तशदिसं किर आदिव्वं. ५ उ व श., अभवी अच्चिदमालिणि ६ उ. श वयशेयणं, क वइरोचणं. ७ उश सव्वट्टो. ८ क. विजयंत ९ उशवि दिसासु. १० उगवउजादि कार्टु जाम, प ब गोवज्जादि का उ जाम, श गेवजादुं का जाम. ११ प ब खेतविमाणं. १२ उश सोधम्मो . १३ क सोधम्मे विदुविमाणं. १४ उ रा सद्देसु. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३५६ ] एक्कारसमो उसो [ २२१ सोहम्मीसाणसुखः रदपनि होतिः सक्त उच्चतं । छश्चैव दुः उरलेधी माहिंदसजवकुमारेसु ॥ ३४६" बम् बहुवरिया देव किर पंच होति रदणीभो । तह अद्धपंथमा खलु लचकाविया होति ॥ ३४७ सुक्कमा सुक्केसुः यः सदारकप्पे तहा सहस्वारे। चत्तारि य रदणीओ उच्छेद्दा होति ते देवा ॥ ३४८ आप्णवपाणद देवा मधुट्टा तह य होति' रदणीओ। । आरणमच्युदया पुन तिष्णेव' कमेण निदिट्ठा ॥ ३४९ आउट्टिदी वि-वाणं बावीसाः सागरोवमा भणिया । उरसासो पक्खेण वाससहरसेण आहारों ॥ ३५० हेट्टिममेवज्ज.णं' 'मडिझमबाणं चः उपरिमाणं च । श्रड्ढादिज्जा भणियों अनुवकमेण मुयथा ॥ ३२१ होदि दिवड्ढा रदणी अशुद्दिसाणं तु देवसंघाणं । रदणी किर उच्छेहो सम्वट्टमनुत्तराणं" तु' ॥ ३५९बे सप्त दस य चउदस सोलस भट्टरर्स वीस बावीसा । एक्काधिया य एसो उक्करसं जार्म ते सीख ॥ ३५३ वारं वारं च पुणो जाई. विमाणाणि रणवत्थारे । ताइं तुः महदाई सेडिमबाई विसेसे ॥३५४ वाधीहि. विमल जसे सीय लाहिं परमुप्पमेव सेोहाहिं । उज्जानेद्दि य बहुसो रम्मा ये रहसणं ॥ ३५५ तवविणय सीलकलिया विरदाविरदाय संजदों चैव । उप्पज्जेति मणुस्सा तिरिया वि सुरालये के वि" ॥ ३५६ सौधर्म व ईशान कल्पोंमें देवोंकी उंचाई सात रत्नि तथा सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्पों में छह रमि प्रमाण है || ३४६ ॥ ब्रम्ह व ब्रम्होत्तर कल्पवासी देवोंकी उंचाई पांच रत्नि और लान्तव कापिष्ठवासी देवोंकी उंचाई साढ़े चार रत्नि प्रमाण है || ३४७|| शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में उन देवोंकी उंचाई चार रत्नि प्रमाण है ॥ ३४८ ॥ आनत प्रागतकल्पवासी देवोंकी उंचाई साढ़े तीन रत्नि तथा आरण अभ्युतकल्पवासी देवोंकी उंचाई तीन रत्नि प्रमाण ही निर्दिष्ट की गई है ॥ ३४९ ॥ उन आरण अच्युतवल्पवासी देवोंकी आयुस्थिति बाईस सागरोपम प्रमाण कही गई है । [ जिन देखें की जितने सागरोपम प्रमाण आयु होती है उतने ] पक्षों में वे उच्छ्वास लेते और उतने ही हजार वर्षोंमें आहार ग्रहण करते हैं ।। ३५० ॥ अधस्तन, मध्यम और उपरिम ग्रैवेयको अनुक्रमसे अदाई, [ दो और डेढ़ रत्नि प्रमाण शरीरको उंचाई ] कही गई है || ३५१ ॥ अनुदिशोंके देवसमूहों की उंचाई डेढ़ रत्नि तथा सर्वार्थसिद्धि एवं विजयादि अनुत्तरवासी देवों की उंचाई एक रत्न मात्र है ।। ६५२ ॥ [ सौधर्म ईशान आदिक युगलोंमें क्रमसे । दो, सात, दश, चौदह, सोलह, अठारह, बीस और बाईस [ सागरोपम ] तथा इससे आगे मैवेयकादिकोंमें तेतीस . सागरोपम तक एक एक सागर अधिक, इस प्रकार यह उत्कृष्ट [ आयु/माण जानना चाहियें ] ॥ ३५३ ॥ रत्नप्रस्तार में जो विमान ऊपर ऊपर हैं वे महान् हैं, श्रेणिमय विमान विशेष रूपसे महान् हैं (!) । ॥ ३५४ ॥ उक्त विमान निर्मल शीतल जलसे परिपूर्ण एवं पद्मों व उत्पल से शोभायमान ऐसी वापियोंसे तथा उद्यानोंसे प्रेमी जीवोंके लिए बहुत रमणीय है ॥ ३५५॥ तप, विनय व शीसे संयुक्त संयतासंयत और संयत मनुष्य तथा कितने ही तिथेच मी सुरालयमें उत्पन्न होते हैं ॥३५६॥ १ क अबूभुट्टा तान होंति: २ उ शःपुष्ठ तिमत्रे, कः पुणो तिष्णवे. ३ क प व गेवब्जेन. ४ उ मणिय, ब- शमशिक ५ उ प च सव्वट्टमणुतराणं, शसक्तत्तराणं. ३ क प ब अट्ठदस उश उद्योः ८ क जाव ९ उ क प ब जाव. १० उ तेर्हितो महलाइ श तेहिंतो महकारि. ११ क हैट्ठिमआई ११ श' विमलेजेड: पब-विमलजल १३ उश पडमपलेव सहिहिं, कः प ब परमप्पलोवसोहाहिं. १४ उ श य बहुपरमाई य. १५ प व संजुदा १६ प ब कोस. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] जंबूदीवपण्णत्ती [११. ३५७एक्कं पि साहुदाण दादूर्ण सविमवेण सोधीए' । पावदि पुण्णं जीवो अपत्तपुग्वं भवसदेसु ॥ ३५७ देवेस विदर्स पार्विति' मणतयं विसोधिच । केवलजिणठाणं पिय सम्मत्तगुणेण पार्विति॥१५८ सम्वट्ठविमाणादो उवरि गंतूण होदि णायम्वा । इसिपम्भारा पुढवी" माणुसखेत्तप्पमाणेण' ॥ १५९ सेदादवत्तसरिसा भटेव य जोयणा दु मज्झम्हि । मंते अंगुल मेत्ता रुंदा पुरवी दुरयदमया ॥३५. तत्य ए गिट्टियकम्मा सिद्धा' सुहसादपिंडसम्वस्सं । मन्वाबाधमणतं मक्खायसोर्ख अणुभवंति ॥" तसं दुणस्थि समाण ससुरासुरमाणुसम्मि कोयम्मि । जेण सम उवमाणं तिलतुसमेतं नि कीरज ॥२ चितमि पवरणगर उवमिज्ज चिलादयावर्णतं पिणय होज्ज तस्स उवमी तिहुयणेसीक्रेण मोक्स । भट्टविहकम्ममुक्का परमगदि उत्तम मणुप्पत्ता । सिद्धा साधियकज्जा कम्मविमोक्खे ठिदा" मोक्वं ॥ १५४ मुणिदपरमस्थसारं मुणिगणसुरसंघपूजियं परमं । वरपउमणंदिणमियं मुणिसुब्बदजिणवरं वंदे ॥ ३९५ ॥इस अंबूदीवपण्णत्तिसंगहे वाहिरउवसंहारदीव-सापर-णरयगदि-देवगदि-सिद्धखेत्त-वण्णणो णाम एपारसमो उहेसो समत्तो ॥१॥ स्वविभवानुसार शुद्धिपूर्वक एक साधुदानको ही अर्थात् मुनियोंको आहारादि देकर जीव जो पुण्य प्राप्त करता है वह पहिले सैकड़ों भवोंमें प्राप्त नहीं हुआ ॥ ३५७ ॥ जीव सम्यक्त्व गुणसे देवों में मी इन्द्र पदको प्राप्त करते है तथा अनन्त विशुद्धि एवं केवलजिन स्थान ( अरहन्त पद ) को भी पाते हैं ॥ ३५८ ॥ सर्वार्थ विमानसे ऊपर जाकर मानुषक्षेत्र प्रमाण (१५००००० योजन ) ईषप्रांगमार पृथिवी जानना चाहिये ॥३५९॥ रजतमय वह पृथिवी श्वेत छत्रके सदृश होकर मध्यमें आठ योजन व अन्तमें एक अंगुल प्रमाण विस्तीर्ण ( मोटी) है ॥३६०॥ उस ईषत्प्राग्भार पृथिवीपर (सिद्धक्षेत्रमें) अष्ट कर्मको नष्ट कर चुकनेवाले सिद्ध जीव सुख-साताके पिण्ड रूप सर्वस्वसे सहित, एवं बाधासे रहित अनन्त अक्षय सुखका अनुभव करते हैं ॥३६१॥ उस सुखके समान सुरलोक, अमरलोक व मनुष्यलोकमें कोई सुख नहीं है जिसके साथ उसकी तिल-तुष मात्र भी तुलना की जा सके ।।३६२ ।। में श्रेष्ठ नगरका चिन्तन करता हूं जहाँ अमादिसे अनन्त काल तक उस सुख की उपमा दी जा सके (1) किन्तु उस मोक्षसुखकी तीनों लोकोंके सुखसे तुलना नहीं हो सकती ॥३६॥ आठ प्रकारके कमोसे रहित, उत्तम परमगतिको प्राप्त तथा कृतकृत्य सिद्ध जीव कोंके छूटनेपर मोक्षमें स्थित हुए ॥ ३६४ ॥ उत्तम परमार्थके ज्ञाता, मुनिगण एवं सुरसमूइसे पूजित, और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत मुनिसुव्रत जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ ३६५ ॥ ।। इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें बाहिर उपसंहार स्वरूप दीप-सागर-नरकगति-देवगति सिद्धक्षेत्रका वर्णन करनेवाला ग्यारहवां उद्देश समाप्त हुआ ॥११॥ क सविमावेण सोधीए, प सविमवेण सोधाए, श सविमविणिहिधीए. २ कप पावंति. ३ उश अस्रोधि. ४ कपबईसिपम्भारा पुढवी. ५ प ब घमाणेण. १ उश विद्धा. ७क सुहसावपिंडमरचलं, पब सामावपिंडमचन. ८ उपब.श तत्थ ९कपब तु...उश चित्तेमि. "पबणगद. १२ उश मि. १६ उश ग य तस्स होदि उवमा. १४ उश दिहुयण. १५ प सुक्खेण सोक्खस्स, साक्पेण सोक्सस्स, १६ विदा. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बारसमो उद्देसो ] णमिणं णमिणा' णवकेवल दिग्वलद्धिसंपण्णं । जोइसपडलविभागं समासदो संपवक्खामि ॥ १ अद्वेष जोयणसदा असीदिमहिएहि उवरि गंतॄणं । चंदस्स वरविमार्ण फेणणिर्भर होइ नायब्वा ॥ २ वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया मणभिरामा । जिणपडिमा कृष्णा बहुभवणविहूसिया दिग्वा ॥ ३ पोक्खरणिवाविपडरा णाणावर कप्प रुक्खसंछण्णा । सुरसुंदरिसंजुत्ता भणादिणिहणा समुद्दिट्ठा ॥ ४ विक्वं भायामेण य चंदाणं गाउदा हवे तिणि । तेरससयं च दंडा चउदालीसा समधिरेगा ॥ ५ सोलस चेव सहस्सा अभिजोगसुरा हवंति चंदस्स । दिवसे दिवसे य पुणो वहति' बिंबं विउग्वित्ता' ॥ ६ चरिसससुरा दिग्वामक देहरूवसंपण्णा । पुव्वेण दिसेण ठिया कुंददुणिभा महासीहा' ॥ ७ उच्छंगदंतमुसला पभिण्णकरडा मुद्दा गुळगुळेता । चत्तारिस इस्सगया" दक्खिणदो होंति णिद्दिट्ठा ॥ ८ संसिंदुकुंद धवला मणिकंचरणरयणमंडिया दिग्वा । चत्तारि सहस्साद्दं हवंति अवरेण वरवसभा ॥ ९ मणपवणगमणदच्छा वरचामरमंडिया मणभिरामा । उत्तरदिसेण होति" हु चत्तारिसद्दस्स वरतुरया ॥ १० दिव्य नौ केवल - लब्धियों से सम्पन्न श्री नमिनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार करके संक्षेप से ज्योतिष पटलके विभागका कथन करते हैं ॥१॥ आठ सौ अस्सी योजन ऊपर जाकर फेन सदृश धवल उत्तम चन्द्रविमान है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २ ॥ ये विमान बन - वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, जिनप्रतिमाओंसे सहित, बहुत भवनोंसे विभूषित, दिव्य, प्रचुर पुष्करिणियों एवं वापियोंसे सहित अनेक उत्तम कल्पवृक्षोंसे व्याप्त, अनादि-निधन कहे गये हैं ॥ ३-४ ॥ चन्द्रों के ये विमान विष्कम्भ व तेरह सौ चवालीस धनुष से कुछ ( धनुष ) अधिक हैं || ५ || योग्य जातिके देव हैं जो प्रतिदिन विक्रिया करके उसके बिम्बको एवं निर्मल देह व रूपसे सम्पन्न तथा कुन्दपुष्प व चन्द्रके सदृश धवल महा सिंहके आकार चार हजार देव पूर्वदिशामें स्थित रहते हैं || ७ || ऊंचे उठे हुए दति रूपी मूसलोंसे सहित, मदको बहाने वाले गण्डस्थल से युक्त और मुखसे महा गर्जना करनेवाले ऐसे हाथीके आकार चार हजार देव दक्षिण में निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ८ ॥ शंख, चन्द्र एवं कुंदपुष्प के सदृश धवल तथा मणि, सुवर्ण व रत्नोंसे मण्डित दिव्य उत्तम वृषभके आकार चार हजार देव पश्चिममें स्थित रहते हैं ॥ ९ ॥ मन अथवा पवनके सदृश गमनमें दक्ष, उत्तम चामरेंरोंसे मण्डित और मनको अभिराम ऐसे उत्तम अश्वके आकार चार हजार देव उत्तर दिशा में होते हैं ॥ १०॥ इसी प्रकार सूर्यबिम्बको सुरसुन्दरियोंसे संयुक्त और आयामसे तीन गव्यूति और चन्द्रके सोलह हजार आमिजाते हैं ॥ ६ ॥ इनमें दिव्य १ कप मिणाहं. २ क विधाणं. ३ प व फेणणितं. ४ श क तेरससददंडानं. ५ उ रा पुण्णो हवंति ६ प ब वहति विं विविचा. ७ क विया, प ब द्विय. ८ उश महाविभासीहा ९ क उगदंत घुसला, प व उकंगसाला १० ज श गुलिगुळिता. प ब गुलगुलंता, ११ उश गय. १२ शत्रतौ' उत्तरदिखेण होति' इत्यत आरम्याग्रिमगाथास्थ ' होति ' पदपर्यन्तः पाठः स्वलितोऽस्ति. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [१२. ११एवं मादिच्चस्स वि' दुगुणटुसहस्सवाहणा हॉति । भवसेसगहगणाणं भटुसहस्सा समुद्दिवा' ॥ " णक्वत्ताणं णेया चत्तारि सहस्स हाँति अभिओगा। ताराणं णिहिटा विणि सहस्सा सुरा होनि ॥ १२ जंबूदीवे भावणे यादगिसंडेय कालउदधिम्मि । पोक्खस्वरद्धदीवे चंदक्मिाणा परिभवति ॥ १३ बेचदुबारससंसावादाला दुधिया या सदरी य। चंदा हवंति णेया जहाकमेणं तु णिहिट्ठा ॥ १४ मणसुचरादु:परदो पोक्खरदीपम्मि ससिगणा गया । बारसमय चउसट्ठा समासदों' होति णायध्वा ॥ १५ चदुदालसामादिवत्तारि हवंति हसरा चंदा । पोक्खरवरदीवे ठेव य हॉति गम्छा दु ॥ रूवूणं दलगच्छं'उत्तरशुणिदं तु आदिसंजुतं । गच्छेण पणो गुणिदं सम्बधणं होहणायब्वं ॥ . पमेव दुसेसाण दीवसमुसु आणणविधाणं । चंदाइचाण तहा णायग्वा होइ णियमेण ॥10 णवरि विसेसो जाणेशालिमाछा यादुगुणदुगुणा दु । उत्तरधणपरिमाण चदुरा सम्वस्थ णिहिट्ठा ॥ १९ भी ले जानेवाले दुगुणे पाठ अर्यात् सोलह हजार वाहन देव होते हैं। शेष प्रहमणों के बाहन देव आठ हजार कहे गये हैं ॥११॥ नक्षत्रोके चार हजार और ताराओंके दो हजार आभियोग्य देव निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥१२॥ चन्द्रविमान जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोद समुद्र और पुष्करार्द्ध द्वीपमें परिभ्रमण करते हैं अर्थात् ये यहां गतिशील हैं ॥ १३ ॥ [उपर्युक्त जम्बूद्वीपादिकौ ] यथाक्रमसे दो, चार, बारह, ब्यालीस और दो अधिक सत्तर अपात् बहत्तर चन्द्र निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ १४ ॥ मानुषोत्तर पर्वतसे आगे पुष्करद्वीपमें बारह सौ चौंसठ चन्द्रविमान हैं, ऐसा संक्षेपसे जानना चाहिये ॥ १५ ॥ पुष्करवर द्वीपमें भादी एक सौ चवालीस, और चय चार चन्द्र हैं । गच्छ यहां आठ है [ अभिप्राय यह कि वहाँ आठ बलयस्थानोंमें उत्तरोत्तर चार चार बढ़ते हुए चन्द्रविमानोंका प्रमाण इस प्रकार हैं-१४४, १४८, १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२ ] ॥ १६ ॥ एक कम गच्छके अर्ध भागको चयसे गुणित करके प्राप्त राशिमें आदिको मिलाकर पुनः गच्छसे गुणा करनेपर सर्वधनका प्रमाण जानना चाहिये ।। १७॥ उदाहरण-पुष्कर द्वीपके-८ बलयस्थानों से प्रथम बलयमें (१.४.४ चन्द्र हैं, अत एव यहाँ आदिका प्रमाण १.४४ और गाछका प्रमाण :८ है। प्रस्तुत करणसूत्र के अनुसार यहाँ समस्त चन्द्रों का प्रमाण इस प्रकार आता है- (-) :४ + १४४ x ८ = १२६४. शेष द्वीप-समुद्र में चन्द्रों व सूर्योकी संख्या लानेके लिये नियमसे यही विधान जानना चाहिये ॥ १८ ॥ विशेषता यह है कि शेष द्वीप-समुद्रमेिं उनके प्रमाणको लाने के लिये आदी और गच्छ उत्तरोत्तर दुगुणे दुगुणे जानना चाहिये । उत्तस्धनका प्रमाण सर्वत्र चार निर्दिष्ट क आइच वि, प.बादिश्चसा वे, ब आदिवत्स वे. २शप्रतावतोऽप एवंविधास्ति गाका-नखताणं णेया चेत्ता हवंति होति गच्छा दु । ताराणं णिदिवा सेसगहणं अटुसहस्सा समुहि ॥ १२॥ ३ उकश परिमवंति. ४ उा सदलिया, प्र.ब.सदी य. ५पब समासदा. ६.उशदीवे. .शप्रती 'उत्तर पुणिदं' इत्यत भारभ्य 'पुणो गणिदं ' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति. ८३ शनायष्वा, केपायवा १३ श एसेव. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --२२.१.] बारसमो उदेसो परगतमबहकउत्तरसमाहवं दकिद भाविणा सहिद । गच्छगुणमुवचिदाणं गणिदसरीरं विणिदिटुं॥.. पोक्खरवरउवहीदो सयंभुरमणो ति जाव' सलिलणिही । एदम्हि अंतरम्हि दु ससीण संखं पवक्खामि ॥१॥ पोक्सरवरउवहीए चोदाल सदा हवंति भादीए । जोयणलक्ख लक्खे चदु चदु चंदा पवति ॥५ बत्तीससदसहस्सा प्रोक्खरजल्लहिस्स जाण विक्खंभं । तत्तो' दुगुणा दुगुणा दीवसमुदाय विधिणा ॥ २३ बझयाए पछयाए चदुरुत्तरसंठिया हवे चंदा । इगतीस तह चउक्का मेल विदा हॉति पिंटेण ॥३. वारुणिदीवादीए भट्टासीदा हवंति विण्णिसदा । पुणरवि चउरो चठरो लक्ने लक्खे यति ॥१५ बारुणिवरजलधीए मादिम्मि हवंति ससिगणा णेया। छावत्तरि पंचसदा चदुचदुवढी दुवलपसु ॥ सीरवरे मादीए सदा दु एक्कारसा य बावण्णा। चंदविमाणा दिट्ठा लक्ने सक्ने य चदुरभिया॥२. सीरोदसमुरम्मि दु तिषणेव सदा हवंति चदुरधिया । बिग्णिसहस्सा णेया वलए वलए यडबडी. घदवरदीवादीए गदालसदा हवंति भट्टहिया । माणउदिसदा सोलस वेणेष कमेण जकनिम्मि ॥ भट्ठारस च सहस्सा चत्तारिसदा हवंति बत्तीसों । खोदवरम्मि दु दीवे वलए वहए य पदुवडी ॥३. किया गया है ॥ १९ ॥.... ....(8)॥२०॥ पुष्करवर समुद्रसे स्वयम्भूरमण समुद्र तक इस अन्तरमें स्थित चन्द्रोंकी संख्या कहते हैं ॥२१॥ पुष्करवर समुद्रके प्रथम वलयमें एक सौ चवालीस [ दो सौ अठासी ] चन्द्र स्थित हैं। मागे एक एक लाख योजनपर चार चार चन्द्र बढ़ते जाते हैं ॥ २२ ॥ पुष्करवर समुद्रका विष्कम्म बत्तीस लाख योजन प्रमाण जानना चाहिये । इससे भागेके द्वीप-समुद्र उत्तरोत्तर दुगुणे दुगुणे विस्तृत हैं ॥ २३ ॥ वलय-वलयमें अर्यात् आगे प्रत्येक वलयमें स्थित चन्द्र उत्तरोत्तर चार चार अधिक हैं । तथा इकतीस चतुष्कोंको मिलानेपर पिण्डफल प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ वारुणीवर द्वीपके आदिमें दो सौ अठासी [ पांच सौ व्यत्तर ] चन्द्र हैं। पुनः आगे लाख-लाख योजनपर चार चार चन्द्र बढ़ते गये हैं ॥२५॥ वारुणीवर समुद्रके आदिमें पांच सौ व्यत्तर [ ग्यारह सौ वावन ] चन्द्र जानना चाहिये । इसके आगे सब वलयोंमें चार चारकी वृद्धि है ॥२६॥ क्षीरवर दीपके आदिमें ग्यारह सौ बावन (8) और इसके आगे लाख लाख योजनपर चार चार अधिक चन्द्रविमान निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ २७ ॥ क्षीरोद समुद्रमें [ प्रथम वलयों ] दो हजार तीन सौ चार (8) चन्द्रविमान जानना चाहिये । इसके आगे प्रत्येक वलयमें चारकी वृद्धि होती गई है ।। २८॥ घृतवर द्वीपके आदिमें छयालीस सौ आठ (१) और उसी क्रमसे घृतवर समुद्रके आदिमें बानबै सौ सोना (१) चन्द्रविमान जानना चाहिये ।। २९ ।। क्षौद्रवर द्वीपके आदिमें अठारह हजार चार सौ बचीस (8) चन्द्रविमान हैं। आगे वलय वलयमें चारकी वृद्धि होती गई है ॥३०॥ क्षौद्रवर समुद्रके शाहिणा सणिद.१श गागुणवचिदाणं. ३ उपनाम, शचाम. ४श पोक्सरवरउवा मयंभुरवणो आदीए. ५.क पब एो. ६ पब इगिवीप,७श चत्तारिसदा सोलम तेव. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] जंबूदीवपणची [१२. ११तीसं च सहस्सा भट्टेव सदा हर्वति पदुसट्ठा । सोदसमुश्वरम्मि दुरूस्खे लक्से व चदुरषिया ॥१॥ वेत्तरि' सहस्सा सत्तेव सदा हवंति भरवीसा । गंदीसरम्मि दीये तेणेव कमेण ते चंदा ॥ ३१ एवं कमेण चंदा दीवसमुसु होति णिहिट्ठा । वहंता वढुंता ताव गया जावे लोयंत ॥ ३३ भाइचाण वि एवं दीवसमुहाण तह ये वलएसु । परिवड्डी गायब्वा समासदो होइ निरिट्ठा ।" वारागहरिक्साणं एसेव कमेण ताण परिवडी । णवरि विसेसो जाणे गुणगारा होति भण्णण्णां ॥३. . एदेसि चंदाणं मसंखदीवोदधीसु जादाणं । सम्वाण मेलवर्ण कहेमि संखवदो ताणं ॥ ३९ बत्तीसा खलु वळया पोक्सारउवहिम्मि हॉति णायचा। वलयाए वलयाए चदुरहिया हॉति ससिविंबा ॥३. वारुणिदीवे गेया वलया चउसटि होति णिदिट्टा । भट्ठावीसा य सया वारुणिउवाहिस्स विष्णेयों ॥१८ खीरबरणामदी बेचेव सया हवंति उप्पण्णा | वलयाण तह य संखा णिहिट्ठा सम्वदरिसीहिं॥३९ भवसेससमुदाणं दुगुणा दीवाण तह हवे दुगुणा । एवं दुगुणा दुगुणा ताव गया जाव लोगतं ॥१. पडमवकएसु चंदा सायरदीचाण तह य सम्वाणं । मूलधणेत्ति य सण्णा विदुपियासिदा था।" जे वडिदा दु चंदा वलए वलए हवंति णिहिट्ठा । ते उत्तरधणसण्णा उभभो पुण होइ सम्बधणं ॥ ४२ प्रथम क्लयमें छत्तीस हजार आठ सौ चौंसठ (8) चन्द्र हैं । इसके आगे लाख लाख योजनपर वे चार चार अधिक है ॥ ३१ ॥ उसी क्रमसे नन्दीश्वर द्वीपमें तिहत्तर हजार सात सौ अट्ठाईस (8) चन्द्र हैं ॥ ३२ ॥ इस क्रमसे निर्दिष्ट वे चन्द्र द्वीप-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर बढ़ते बढ़ते लोक पर्यन्त चले गये हैं ॥३३ ॥ इसी प्रकार द्वीपों तथा समुद्रोंके वलयों में संक्षेपसे निर्दिष्ट की गई सूर्योकी मी वृद्धि जानना चाहिये ॥ ३४ ॥ इसी क्रमसे उन ताराओं, ग्रहों और नक्षत्रोंकी भी वृद्धि हुई है। विशेष इतना जानना चाहिये कि यहां गुणकार भिन्न भिन्न हैं ॥ ३५॥ असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें स्थित इन सब चन्द्रोंके सम्मिलित प्रमाणको संक्षेपसे कहते हैं ॥ ३६॥ पुष्कर समुद्रमें बत्तीस वलय जानना चाहिये । प्रत्येक वलयमें चार चार चन्द्रबिम्ब अधिक होते गये हैं ॥ ३७॥ वारुणी द्वीपमें चौसठ वलय निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये । तथा वारुणी समुद्रमें एक सौ अट्ठाईस वलय जानना चाहिये ॥ ३८॥ तथा क्षीरवर नामक द्वीपमें स्थित वलयोंकी संख्या सर्वदर्शियों द्वारा दो सौ छप्पन निर्दिष्ट की गई है ॥ ३९ ॥ शेष समुद्रोंके दुगुणे तथा शेष द्वीपोंके भी दुगुणे वलय हैं । इस प्रकार वे वलय लोक पर्यन्त दुगुणे दुगुणे होते गये हैं ॥१०॥ सब समुद्रों तथा द्वीपोंके प्रथम वलयोंमें स्थित चन्द्रों की संख्याकी 'मूलधन' यह संज्ञा विद्वानों द्वारा प्रकाशित की गई जानना चाहिये ॥४१॥ वलय वलयमें जो चन्द्रोंकी वृद्धि निर्दिष्ट की गई है उसकी • उत्तरधन ' और इन दोनोंकी ' सर्वधन ' संज्ञा है ॥ १२ ॥ एक सौ चवालीस, उश सपुरतडम्मि. २ श एवांकटिं. ३ उपब ताम. ४ उपब जाम. ५ उश दीवसमुराणि वह निराश भण्णेण्णा, क अण्णोण्णा, पब अण्णण. . पविणेया. “श सण्णा वि विहुसेहि. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२. १९] बारसमो उदेसो [२२० घटदायसदा यो बत्तीसा तह य एगस्वं च । ति ठाणेसु णिविट्ठा संदिट्ठी मूलदप्वस्स । सोलस चेव चमका इगितीसा तह य एगरूवं च । तिष्णेष होति ठाणौ उत्तरदम्वस्स संविट्ठी ॥ उबहिस्स पहमवकएनेसियमेत्ता हवंति ससिविबा । दीवस्स पढमवलए तेत्तियमेचा इथे दुगुणा ॥५ एसो कमो दुजाणे दीवसमुदेसु थावरससीण' । उत्तरधणपरिहीणं मादिधर्ण होइ निहिटुं ॥ ४६ सवहिस्स दुभादिधणं वलयपमाणेण तह य संगुणिदें । उत्तरहीण तु पुणो मूलघण होइ वलयाण ॥.. उत्तरधणमिच्छतो उत्तररासीर्ण तह व माधणं । रूउणेण य गुणिदे वलएण य होह वडिधणं ॥ दीपस्स पढमवलए गुणिदे वकएण ससिगणे सम्वे । वडिधणं वज्जित्ता मूलधणं होई दीवस्स ॥१५ बत्तीस तथा एक अंक, इन तीन स्थानोंमें मूल द्रव्यकी संदृष्टि निविष्ट है ॥ १३॥ सोलह चतुष्क, इकतीस, तथा एक अंक, ये तीन ही स्थान उत्तर द्रव्यकी संदृष्टिमें हैं ॥१॥ समुद्रके प्रथम वलयमें जितने चन्द्रबिम्ब होते हैं द्वीपके प्रथम बलयमें उससे दुगुणे मात्र होते हैं ॥१५॥ द्वीप-समुद्रोंमें स्थिरशील चन्द्रोंका यही क्रम जानना चाहिये। उत्तरधनसे हीन [ सर्वधनको ] आदिधन [ मूलधन ] निर्दिष्ट किया गया है ॥ १६ ॥ तथा समुद्रके आदिधनको वलयोंके प्रमाणसे गुणित करनेपर घलयोंका उत्तरधनसे रहित मूलधन होता है ॥ १७॥ उत्तर राशियों के उत्तरधनकी इच्छा करके मध्यधनको [ चौंसठ अंकोंसे माजित करके ] एक कम वळयप्रमाणसे [तथा चौसठ संख्यासे ] गुणित करनेपर वृद्धिधन प्राप्त होता है ॥ १८॥ उदाहरण-विवक्षित गन्छकी मध्य संख्यापर जितनी वृद्धि होती है वह मध्यम धन कहलाता है। जैसे पुष्करवर नामक तीसरे समुद्रमें गच्छका प्रमाण ३२ है। इसमें प्रथम स्थानको छोड़कर शेष ३१ स्थानोंमें उत्तरोत्तर ४-१ चन्द्रोंकी वृद्धि हुई है। इस क्रमसे गच्छकी मध्य संख्या रूप १६वें स्थानपर होनेवाली वृद्धिका प्रमाण ६४ होता है। यही यहाँका मध्यम धन है। अब इस मध्यम धनको पहिले ६४ संख्यासे विभक्त करके लब्धको एक कम गछसंख्या (३२) से गुणित करे, तत्पश्चात् उसे सब गच्छोंकी गुण्यमान राशिभूत ६४ से गुणा करे । इस प्रकारसे तीसरे समुद्र में होनेवाली समस्त चन्द्रवृद्धिका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। यथाFx (३२-१) ६४ = १९८४ उत्तरधन । द्वीप [अथवा समुद्र के प्रथम वलयमें स्थित समस्त चन्द्रसमूहको वलयप्रमाणसे गुणित करनेपर वृद्धिधनको छोड़कर द्वीप [अथवा समुद्र)का मूलधन होता है (जैसे तृतीय समुद्रमें२८८४३२९२१६] १क चोदालसदं गेयं. १क ठाणेमु य दिवा, प-बप्रयोः ४३तमगाथाया उत्तराई तथा ४४तम. गापाया पूर्व स्वलितमस्ति, श द्वाणया निविहा. उश तिमि वि होति द्वाणा, बतिण्णेव होति बाणा. ४ उसंविडा. ५ श एवं कमे दु जाणे. ६कपब दीवसारेण नादिराणिं, पब संशनिदो. ८ उ श उपररासी. कमसिगुणे. १. प सम्बो. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जबूदीवपणची - [१२.५ पदुस्तर चदुसदी बधिणं तह य होह पकया। समकरण काणं वडिषण ता य घेत्तव्य' । ५. बहीण मज्मदे गुणिदे तह स्वहीणवकएण । वळयाणं सम्वाणं बधिर्ण होह गायम्बा ॥ ५.. दीयोबहीण पर्व सम्वाण तह य होदि णियमेण | मूलुत्तररासीण मेलवर्ण तह य कायम्बा ।। ५२ एवं मेलविदे पुण वलयाणं जे धणाणि' सम्वाणि । चदुगुणधदुगुणचंदा दीवसमुसु होति ॥५॥ वीबोवहीण सेवा विरलेवूण तु स्वपरिहीणं । पदुरो चदुरो य वहा वादूर्ण तेसु स्वेसु ॥ ५४ ॥१९॥ तथा चारको आदि लेकर जो वलयोंके उत्तरोत्तर चार चार चन्द्रोंकी वृद्धि हुई है, यह उनका वृद्धिधन है । इस वृद्धिधनको समकरण (संकलन ) करके ग्रहण करना चाहिये ।। ५०॥ विशेषार्थ- गाथा ४८ के उदाहरणमें उत्तरधन लाने का एक प्रकार बतलाया जा चुका है। इसी उत्तरधनको प्राप्त करनेका यहां अन्य प्रकार बतलाया जा रहा है। यथा- प्रत्येक दीप अथवा समुद्रके जितने वलय हैं उनमेंसे चूंकि प्रथम वलयको छोड़कर शेष सब वलयोंमें यथाक्रमसे उत्तरोत्तर ४-४ अंककी वृद्धि हुई है, अतएव गच्छ (क्लयसंख्या) मेसे एक अंक कम कर शेष संख्याका संकलन करके उसे ४ (वृद्धिप्रमाण) से गुणा करना चाहिये । इस प्रकार जो राशि प्राप्त होगी वह विवक्षित द्वीप या समुद्रके वलयोंका उत्तरधन होगा। संकलनके लानेका सामान्य नियम यह है कि १ अंकको आदि लेकर उत्तरोत्तर १-१ अधिक क्रमसे जितने अंकोंका संकलन लाना इष्ट है उनमेंसे अन्तिम अंक १ अंक और मिलाकर उससे उक्त अन्तिम अंकके अर्थ मागको गुणित करनेसे उतने अंकोंका संकलन (जोड़) प्राप्त हो जाता है। जैसे १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, इनका संकलन-[३x (९+१)= १५]। अब यहां उपर्युक्त नियमके अनुसार उदाहरणके रूपमें पुष्करयर समुद्र सम्बन्धी वलयोंका उत्तरभने निकाला जाता है-- इस समुद्रमें वलयोंका प्रमाण ३२ है। अत एव उनका उत्तरधन इस प्रकार होगा- २२.१४३२ = १९६ यह १ अंकसे कम गन्छ (३२) का संकलन हमा ४९६ x ४ = १९८१ उत्तरधन । . वृद्धियोंके मध्य चन्द्र ( मध्यधन ) को एक कम वलयप्रमाणसे [गुणित करके पुनः उसे चौसठसे 7 गुणित करनेपर जो प्राप्त हो वह सब वलयोंका वृद्धिधन जानना चाहिये (देखिये गाया ४८ का उदाहरण) ॥ ५१ ॥ इसी प्रकार नियमसे सब द्वीप-समुद्रोंका वृद्धिधन शेताहै। तथा मूल व उत्तर राशियोंका योग करना चाहिये ॥५२॥ इस प्रकार उन दोनों राशियोंके मिलानेपर वलयोंके जो सब धन हों वे आगेके द्वीप-समुद्रोंमें [अपने अपने मध्यधनसे अधिक) चौगुने चौगुने चन्द्र होते है ॥ ५३ ॥ एक कम द्वीप-समुद्रोंके अंकोंका विरलन कर तथा उन अंकोंके ऊपर चार चार अंक देकर परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो 10 बळयान वर्ण. १ शमवं. ३ उ वट्ठीण, श मट्ठीण. ४ उशबणाणि. ५४श बर्ष, पर पान. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२. ६४ ] बारसमो उदेसो [ २३९ अपशोच गुनेश' वहा भविषणं संगुणं तदो किच्चा । इच्छोनहिदीकाणं इच्चवर्ण होइ णायखं ॥ ५५ दीवोवहिपरिमाणं विरलेवूणं तु सावरूवाणि । भट्टद्धं अट्ठद्धं दाऊणे य तेसु रुवेसु ॥ ५६ अष्णोष्णब्भस्थेण य रूऊणेण य तिरूवभजिदेण । मादिषणं संगुणिदे सम्बधणं होदि बोद्धव ॥ ५७ ते पुम्वुको रूवा दुगुणित्ता विलिदेसु रूवेसु । दो दो रूवं दादु अण्णोष्णगुणेण लद्रेण ॥ ५८ रूवर्णिता तिरूवभजिदेण लद्धसंखेण । भादिधणं संगुणिदे तह चैव य होदि सव्वधणं ॥ ५९ माणुसखेतद्दिद्धा सेसेोवहिदीवरूव विरलित्ता । करणं काऊण वदो' चंदा होइ सम्वाणं ॥ ६० तह ते शेष ये रूत्रा दुगुणित्ता विरलिहूण करणेणें । सो चेव होदि रासी दीवसमुद्देसु चंदाणं ॥ ६१ एवं होदिसि पुणो रज्जुच्छेदा छरूवपरिक्षीणा | जंबूदीवस्स तहा छेदविहीणं तदो किच्च ॥ ६२ रज्जूछेदविसे । दुगुणित्ता तह य दोखेँ पासेसु । विरलिता ते पुणो दो दो दाऊण रुबेर्सु ॥ ६३ भण्णोष्णगुणेण वहा दोसु वि पासेसु जादरासीणं । ताण पमाणं वोच्छं समासदो भागमबलेण ॥ ६४ इच्छित समुद्र [ एक कम] उससे आदिधनको गुणित करके प्राप्त राशि प्रमाण या द्वीपका इच्छित धन् होता है, ऐसा जानना चाहिये (विशेष जानने के लिये देखिये षट्खंडागम पु. १. १५९ ) ।। ५४-५५ ।। द्वीप समुद्दों प्रमाण सत्र अंकोंका विरलन कर और उन अंकों के ऊपर आठके आधे चार चार अंकों को देकर परस्पर गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करके शेषमें तीनका भाग दे । फिर लब्ध राशिसे आदिधनको गुणित करनेपर सब धनका प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ५६-५७ ॥ पूर्वोक्त उन अंकों को दुगुणे कर विरलित करे, फिर उन अंकों के ऊपर दो दो अंक देकर परस्पर गुणित करनेपर जो लब्ध हो उसमेंसे एक कम करके शेषमें तीनका भाग दे। इस प्रकार से जो संख्या प्राप्त हो उससे आदिधनको गुणित करनेपर सर्वधनका प्रमाण प्राप्त होता है ॥ ५८५९ ॥ मनुष्य क्षेत्रके बाह्य भागमें स्थित शेष समुद्रों एवं द्वीप के अंकोंका विरलन कर करण (?) करनेपर सब चन्द्रोंका [ प्रमाण ] होता है ॥ ६० ॥ तथा करणके द्वारा उन्हीं अंकोंको दुगुणे कर विरक्ति करके द्वीप समुद्रों में चन्द्रोंकी वही राशि होती है ॥ ६१ ॥ इस प्रकार राजु के जितने अर्धच्छेद हैं उनमें से छह अंकों को तथा जम्बूद्वीप के अर्धच्छेदों को भी कम करके राजु के अर्धच्छेदविशेषों को दुगुने कर व दोनों पार्श्वे में विरहित करके तथा उन अंकों के ऊपर दो दो अंकों को देकर परस्पर गुणा करनेपर जो दोनों पार्श्वों में राशियां उत्पन्न होती हैं उनका प्रमाण संक्षेपसे आगमानुसार कहते हैं ।। ६२-६४ ॥ उभय पार्श्व में चौसठसे माजित जो राजु निष्पन्न 1 डश अण्णोणगुणेन, प ब अण्णेन गुणन. २ क श णायव्वा. अदुवा असं दाहण ४ प व वायव्या. ५ उश पुम्वतो. ६ व विद्वीण. शो. ९ उ श वह ते वय. १० उ विरलिदून करणेना, प व विरलहण ११. दि. १२ डा छेदविदूनं तो विवा. १३ क विम्रसो ते १६ सा बाऊन तेषु रूवे. ३ क अ अद्धं दादूण, प्रव • उश बहिद सोसोवहि. ८ उ करणेण, श विरभिदून करणेणा. १४ प व दुग्रणिता दो. १५ क्र Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] जंबूदीवपण्णी [ १२. ६५ चदुसद्विक्खभजिदं उभये पासेसु' रज्जुनिप्पण्णं' । सो चैव दु णायवो' सेडिस्त असंलभागोति ॥ ६५ सेढिस्स सत्तभागो' 'चउसट्टीलक्खजेोयणविभत्तो' । एवं होवूण ठिदा रासीणं छेदना जे र्यु ॥ ६६ सम्वाणि जोयणाणि य रासीणं भागद्दाररूंवाणि । दंबंगुळाणि य पुणो कायध्वं तह पयतेणं ॥ ६७ छप्पण्णा बेष्णिसदीं सूचीअंगुल करितु घेत्तूनं" । उभये पासेसु वहीं छेदाणं रासिमझादो ॥ ६८ सेटी इवंति सा संखेज्जी मंगुला हवे छेदा । वामे दाहिणपाले निद्दिट्ठा सम्बदरिसीहिं ॥ ६९ अंसो सगुणेण य छेदा छेदेण चेर्वे संगुणिदे । छेदंसणं दि" उप्पण्णाणं तु परिमाणं ॥ ७० पण्णा च सहस्सा पंचैव सयौं तदेव छत्तीसा । पदरंगुहाणि जादा संखेज्जगुणैर्ण तच्छेद ॥ ७१ सादु समुप्पर्ण जगपदरं तह में होइ निहिं" । भवसेसे जे वियप्पा ते संखेदेणं च योष्छामि ॥ ७९ जो उप्पण्णो रासी जोइसदेवाण सो समुद्दिट्ठो । संखेज्जदिमे भागे भवणाणि हवंति णायध्वा ॥ ०३ सम्वे विवेदिनिवहा सब्वे बहुभवणमंडिया रम्मा । सब्वे तोरणपउरा सध्वे सुरसुंदरीछण्णा ॥ ७४ नाणामणिरयणमया जिणभवणविहूसिया मणभिरामा | जोदिसगणाण जिलया निरिट्ठा सम्वदरिसीहिं ॥ ०५ है उसे ही श्रेणिका असंख्यातवां भाग जानना चाहिये ॥ ६५ ॥ श्रोणके सातवें भागको चौंसठ लाखसे विभक्त करे, ऐसा होकर स्थित जो राशियों के अर्धच्छेद हैं, तथा राशियोंके मागहार रूप जो सब योजन हैं, प्रयत्नपूर्वक उनके दण्ड एवं अंगुल करना चाहिये ॥ ६६-६७ ॥ तथा उभय पार्श्वे में अर्धच्छेदों की राशिके मध्य में से दो सौ छप्पन अंगुल करके ग्रहण करना चाहिये ॥ ६८ ॥ वाम व दाहिने पार्श्वमें अंश श्रेणि होते हैं तथा संख्यात भंगुल छेद होते हैं, ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।। ६९ ।। अंशोंको अंशोंसे तथा छेदों को छेदोंसे गुणित करनेपर उत्पन्न छेदों व अंशोंका प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ ७० ॥ संख्येयगुणसे वे छेद पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस प्रतरांगुळ होते हैं तथा अंशोंसे जगप्रतर उत्पन्न होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है । अवशेष जो और विकल्प हैं उनका संक्षेपसे कथन करते हैं ।। ७१-७२ ॥ जो राशि उत्पन्न होती है वह ज्योतिषी देवोंका प्रमाण कहा गया है। संख्यातवें भागमें उनके भवन होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ७३ ॥ ज्योतिषी देवसमूहके सत्र ही भवन सर्वदर्शियों द्वारा वेदी समूह से सहित, सब ही बहुत भवनोंसे मण्डित, रमणीय, सब ही तोरणोंसे प्रचुर, सब ही देवांगनाओंसे परिपूर्ण, नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप, जिनभवन से विभूषित तथा मनोहर निर्दिष्ट किये गये हैं ।। ७४-७५ ॥ संक्षेपसे निर्दिष्ट किये गये ज्योतिषियोंके १ क उमयो फासे, प ब उभयपासेस. २ प ब रजुणिपणं ३ उ श णायब्वा ४ क यसंखमागो. ५ उ श भागा, व भाग. ६ उ श जोयणेहि य विमत्ता, पब जोयणेविमत्तो. ७ प व तद्विदा. ८ क सखी छेदणा जे दु, प ब राखीणं कदना जे दु, श राखीणं ताण पमाण वोच्छं. ९ प या रासोएं भागहार, ब य रासाएँ तागहार. १० प ब बेदिसदा. ११ उ घेचणा, श व्वेतुंगा १२ उताह, श ताहा. १३ रा हवंति असंखेज्जा, १४ उ रा असो अंगुणिणे य छेदं छेदे च्छेद. १५ उ दिठ्ठा, श णिद्दिद्वा. १६ प ब परिमाणा. १७ प ब पंचसया. १८ उश बदा संखिज्जगुणेण १९ उ ते च्छेदा, प ब से छेदा २० उश या. २१ श निविट्टा. २१ उा अविसेस, १३ ला वे संोवेण बाच्छामि. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११.८६ ] बारसमो उदेसो [ २३१ विवाणि समुट्ठिा जोदिसयाणं समासदो गेया । एतो' जोदिसरासी समासदो संपवक्खामि ॥ ७६. जी yogता संखा रज्जुस्स दु छेदणाणे किंचूणा । विरहित्ता तेसु पुणेो चट चट दादूण" रूवेसु ॥ ७७ अष्णोष्णगुणेण तदो' रूरूणेण' य तिरूवभजिदेण । पोक्खरउवहीचंदे गुणिदेण य होदि मूलधणं ॥ ७८ उत्तरचणमवि एवं भणिज्जो चैव तेणं करणेण । णवरि विसेसो भो' रूवं पक्खिन्तु वलपसु ॥ ७९ रूवं पक्खिते पुण रिणरासि चटक्क सोलसादी यं । दुगुणा दुगुणों गच्छदि सयंभुरमणोदधी जाव ॥ ८० एवं पि माणिकणं पुग्युसविहाणकरणजोगेण । उत्तरघणम्मि मज्झे सोधित्ता सुद्धमवसेसं" ॥ ८१ मूळघणे पक्खिते सभ्ववणं तह य होदि णिहिद्वं । चंदाणं णायब्वा आइरुचाणं तु एमेव ॥ ८२ चदुकोडिजोयणेहि य अडदाला सदसहस्से भागेहिं । सेढी दु समुप्पण्णों दोसु वि पासेसु णायध्वा ॥ ८३ सा चैव होदि रज्जूँ चठसट्ठीलक्खजे। यणेहि पविभत्तौ । एवं होदूण ठिद रासीणं छेदणा जे दु ॥ ८४ ते गुलाणि किच्चा पुणरवि अण्णोष्णसंगुणे जादं । ओदिसगणा बिंबा णिद्दिट्ठा सम्बदरिसीहिं ॥ ८५ जो उप्पण्णो" रासी पंचसु ठाणेसु तह य काऊणं । सगसगगुणगारेहिं गुणिदम्बं तह पयत्तेण ॥ ८६ 1 बिम्ब जानने योग्य हैं। आगे संक्षेपमें ज्योतिषियोंकी राशिका कथन करते हैं ॥ ७६ ॥ राजुक अर्ध छेदोंकी जो पूर्वोक्त संख्या है, कुछ कम उसका विरलन करके तथा उन अंकों के ऊपर चार चार अंक देकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक अंक कम कर शेष तीनका भाग दे । इस प्रकारसे जो लब्ध हो उससे पुष्कर समुद्रके चन्द्रोंको गुणित करनेपर मूलधन प्राप्त होता है ।। ७७-७८ ॥ इसी प्रकार उसी करणके द्वारा उत्तरधनको मी ले आना चाहिये । विशेष इतना जानना चाहिये कि वलयोंमें एक अंकका प्रक्षेप किया जाता है ॥ ७९ || एक अंकका प्रक्षेप करनेपर फिर ऋणराशि चतुष्क व सोलह आदि स्वयम्भूरमण समुद्र तक दुगुणे दुगुणे क्रमसे जाती है ||८०|| इस प्रकार पूर्वोक्त विधानकरण के योगसे लाकर और उसे उत्तरधन के मध्य से कम करके शुद्धशेषको मूलधनमें मिला देनेपर चन्द्रोंका सर्वधन होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार ही सूर्य का भी सर्वधन जानना चाहिये ॥ ८१-८२॥ दोनों ही पार्श्व में चार करोड़ अड़तालीस लाख योजनोंसे विभक्त जगश्रेणि उत्पन्न जानना चाहिये ॥ ८३ ॥ वही चौंसठ लाख (४४८०००००) योजनोंसे विभक्त राजु होती है । ऐसा होकर स्थित राशियोंके जो अर्धच्छेद होते हैं उनके अंगुल करके फिरसे भी परस्पर गुणित करनेपर ज्योतिषी समूहों के बिम्बोंका प्रमाण होता है, ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।। ८४-८५ ॥ उक्त प्रकार से जो राशि उत्पन्न हुई है उसको पांच स्थानोंमें रख करके प्रयत्नपूर्वक अपने अपने १ उ एसे से, श एते. १ उब श जे. ३ उश छेदणा दु. ४ क दो दो दादूण. ५ क तहा, पब तहो. ६ प ब रूवणेण क तेण चैव. ८ क णेया. ९श पविखत्ति १० उ रा सोलसादीसु ११ क दुगुणडुगुण. १२ क एवं नियाणिदूणं. १३ प सुब्वअवसेसं, ब सव्वअव से सं. १४ उ रा दसस इस्स. १५ उश समप्पण्णा, क प व समुप्पण्णो. १६ उशते चैव होंति रज्जु १७ क प ब जोगणविभता. १८ प ब दिट्ठा. १९ द्विदा सीर्ण केदनाओ, २० श जोदिसगणाणि २१ क प व जे उप्पण्णा. २२ क गुणगारेहि य गुणिदव्वं. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] जंबूदीपणती [ १२.८७ - एगेगभट्ठवीसा अट्ठासीदा तदेवे रूवेहिं । गुणिदे चंदाइच्चा णक्खता गहगणा होति ॥ ८७ छावठि च सहस्सा' णव चैव सया पणहत्तार होंति । गुणगारा णायन्वा ताराण कोडकोडीओ ॥ ८८ पंचेच य रासीओ मेळावेदूण तद्द य एयरथं । जोदिससुरार्णे दध्वं उप्पण्णं होदि तह य णायन् ॥ ४९ 'गुणगारभागहारा ओवहेदून तह य अवसेसं । जोदिसगणाण दग्वं' होदि पुणो तह य णायब्वा ॥ ९० पण्णट्ठिसहस्सेहि य छत्तीसेहि य सदेहिं पंचेहिं । पदरंगुळेहि भजिदे जगपदरं होदि उप्पण्णं ॥ ९१ उदी ससंसदेद्दि य धरणीदो सन्वद्देट्टिमा तारा । णवसु सदेसु य उद्धं जे तारा सम्बउवरिमिया ॥ ९२ एवं जोदिस पडलब्बेहुलियं" दस सदं चियाणाहि । तिरियं लोगक्खेत्तं लोगंत घणोदधिं पुट्ठा ॥ ९३ णउदुत्तरसत्तसर्वं दस सीदी चदुदुग तियचउक्कं । तारारविससिरिक्खा बुहभग्गव [गुरु] यंगिरारसणी " ॥ ९४ चंदस्य सदसदस्सं सहस्स रविण सदं च सुक्कस्स । वासाहिएहि पल्लं लेह वरिसणामस्स ॥ ॥ ९५ सेसाणं तु गाणं पलद्धं आउगं मुणेदग्वा । ताराणं तु जद्दण्णं पादन्दं पादमुक्करसं ॥ ९६ गुणकारों से गुणित करे ।। ८६ ।। उक्त पांच गुणकारोंमें एक ( चन्द्र ), एक (सूर्य), अट्ठाईस (नक्षत्र) तथा अठासी ( ग्रह ) अंकोंसे गुणित करनेपर चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र एवं ग्रहसमूहका प्रमाण होता है || ८७ ॥ छ्यासठ हजार नौ सौ पचत्तर कोड़ाकोड़ि ( ६६९७५०००००००००००००० ) यह ताराओंका गुणकार जानना चाहिये ॥ ८८ ॥ तथा इन पांचों राशियों को एकत्र मिलाने पर समस्त ज्योतिषी देवोंका द्रव्य होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८९ ॥ तथा गुणकार और भागहारका अपवर्तन करके अवशेष ज्योतिर्गणोंका द्रव्य होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ९० ॥ पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस प्रतरांगुलोंका जगप्रतरमें भाग देनेपर समस्त ज्योतिषी देवोंका प्रमाण उत्पन्न होता है ॥ ९१ ॥ पृथिवीसे सात सौ नब्बे [ योजन ऊपर जाकर ]- सबसे नीचे तारा स्थित हैं । नौ सौ योजन ऊपर जाकर जो तारा स्थित हैं वे सबसे ऊपर हैं ||९२ || इस प्रकार ज्योतिषपटलका बाइल्य एक सौ दश योजन प्रमाण जानना चाहिये । तिर्यग्लोक क्षेत्र लोकान्तमें घनोदधि वातत्रलय से स्पृष्ट है ॥ ९३ ॥ चित्रा पृथिवीसे सात सौ नबै योजन ऊपर जाकर तारा, इससे दश योजन ऊपर सूर्य, उससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्र, उससे चार योजन ऊपर नक्षत्र, उससे चार योजन ऊपर बुध, उससे तीन योजन ऊपर शुक्र, उससे तीन योजन ऊपर [गुरु], उससे तीन योजन ऊपर अंगारक (मंगल) और उससे तीन योजन ऊपर शनि स्थित है ॥ ९४ ॥ उत्कृष्ट आयु चन्द्रकी एक लाख वर्षों से अधिक एक पल्य, सूर्यकी एक हजार वर्षेसे अधिक एक पल्य, शुक्रकी सौ वर्षोंसे अधिक एक पल्य, बृहस्पतिकी पूरा एक पल्य तथा शेष ग्रहोंकी अर्ध पल्य प्रमाण जानना चाहिये । ताराओंकी जघन्य आयु • पादार्ध अर्थात् पल्यके आठवें भाग ( 2 ) और उत्कृष्ट पात्र (3) पल्य प्रमाण जानना चाहिये । १ क तहेय, प तहेयं, व य तहेयं. ४ क प ब णवयसया ३ उश पणत्तरी, क पण्तहत्तर, पब पहतरि ४ प ब सुराणा ५ क दव्वं होंति गुणो तहय णायव्वा, श दव्वं होदि पुणो तह य णायव्वा. ६ कप्रतौ नोपलभ्यते गाथेयम् (९० इतीयं गाथासंख्याप्यत्र नोपलभ्यते). ७ प ब भागहारं उवट्ठेदूण. ८ उ जोदिसगणा दिव्यं, श जोदिसगणा दव्वं. ९ क जा. १० उ कप बश पडलं वेहुलियं. ११ उ. दुहअंगियारमणी, श दुई मंगून अंगियारमणी (कप्रतायेतस्या ९४ तमगाथाया अग्रे तारा यो. ७९० रवि ८० शि१० नक्षत्र ४ ४ ३ ३ ३ : शनि ३ " इत्यधिकः पाठोऽस्ति ) - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२. १०४] बारसमो उद्देसो [२३३ एगट्ठिभाग जायणस्से मसिमंडलं तु छप्पणं | रविमंडलं तु अस्दाकीस एगट्ठिभागाणं ॥ ९. सुक्कस्स इवदि कोसं कोसंदेसूणय बिहप्फदिणों' । मेसाणं तु गहाणं तह मंडलमद्धगाउदियं ॥ ९८ गाउदचउत्थभागो णायचा सध्वसहरिया तारा । साहिय तह मज्झिमया उक्कस्सा अद्धगाउदिया ॥ ९९ तारतरं जाणं जायम्वा सत्तभागगाउदियं । पण्णासा मज्झिमया उक्कस्सं जोयणसहस्सा || १०० रविससिअंतर डहरं लक्खूणं तिहि सदेहिं सट्टाहि । एगं च सदसहस्स' छस्सद सट्ठी य उक्कस्सं ॥ 1.1 णवणउर्दि च सहस्सा छच्चेव सदा जहण्ण चत्ताला। एयं च सदसहस्सा छस्सद सट्ठी ये उक्कस्सं ॥१.१ हगिवीसेक्कारसदं" भावाधा हवदि अस्थसेलस् । दुगुणं पुण गिरिसहिदं जोदिसरहिदस्स वित्थारं ॥ १०३ जोदिसगणाण संखा भणिदा जा जा दुजंबुदीवम्हि । ताओ दुगुणा दुगुणा बोद्धम्या खीलवज्जामो५ ॥१०॥ [ शेष सूर्यादिकोंकी जघन्य आयु पल्योपमके चतुर्थ भाग (१) प्रमाण है ॥९५-९६ ॥ चन्द्रमण्डलका (उपरिम तलविस्तार) योजनके इकसठ भागों से छप्पन भाग (१६) तथा सूर्यमण्डलका उन इकसठ भागों से अड़तालीस भाग प्रमाण है ।। ९७ ॥ शुक्रके विमानतलका विस्तार एक कोश, बृहस्पतिके विमानतल का कुछ कम एक कोश, तथा शेष ग्रहोंके मण्डलका विस्तार अर्थ कोश प्रमाण है ।। ९८ ॥ सब लघु ताराओंका विस्तार एक कोशके चतुर्थ भाग प्रमाण, मध्यम ताराओंका एक कोशके चतुर्थ भागसे कुछ अधिक, तथा उत्कृष्ट ताराओंका अर्थ कोश प्रमाण है ॥९९ ।। ताराओंका जघन्य अन्तर एक कोशके सातवें भाग (0), मध्यम अन्तर पचास योजन, और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन प्रमाण है ॥१०० ॥ एक लाख योजनमेसे तीन सौ साठ योजन कम करनेपर जो शेष रहे ( १००००० - ३६० = ९९६४० यो.) उतना [जम्बूद्वीपमें ] एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्र तथा एक सूर्यसे दूसरे सूर्यके जघन्य अन्तरका प्रमाण होता है। उनके उत्कृष्ट अन्तरका प्रमाण एक लाख छह सौ साठ योजन है ।। १.१॥ उपर्युक्त जघन्य अन्तरका प्रमाण निन्यानबै हजार छह सौ चालीस और उत्कृष्ट अन्तरका प्रमाण एक लाख छह सौ साठ ( योजन ) है ॥१०२ ॥ अस्तशैल (मेरु) और ज्योतिष विमानोंका अन्तर ग्यारह सौ इक्कीस योजन प्रमाण है। इसको दुगुणा करके मेरुके विस्तारको मिला देनेपर ज्योतिषी देवोंसे रहित क्षेत्रका विस्तारप्रमाण होता है ॥ १०३।। ज्योतिर्गणोंकी जो जो संख्या जम्बूद्वीपमें कही गई है, लवण समुद्रमें स्थिर ताराओंसे रहित उनकी संख्या उससे दुगुणी जानना १ उश एकट्ठा मागे जोयणस्स, क एगढिमागतोयण. १क पब कोसो. १ब कोसो. ४ उश देसण विस्फटिणे. क देखणयं च विहफदिणो. पब देसणयं वियफदिणो. ५पणादव्वा सव्वाइहरिया ब जादम्वा इहरिया. ६ पब तारतार जुद्धाणं. ७ उ श लक्खाणं. ८ उ-शप्रयोः 'सट्टाहि' इत्येतत् पद नोपसम्यते. ९ उश एवं च सदसहस्सा, पब एयं च सदसहस्सा. १. उश छट्ठी छसदा य. ११ उश एवं. १२ पब सीदं. १३उस्खदि हसेलस्स, क हदि अरसेलस्स, पब हवदि असेलस्स श अवदि हवच्छसेकस. १४ पब मणिया जा दु. १५उ शबोधवा लवण खिनजाओ, कबोधन्वा खिलवजाओ, पर बोषम्या खिळबजाउ. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.] जंबूदीवपण्णत्ती । १२.१०५बीग पुण विष्णेया भवद्धिदा होति जंबुदीवम्हि । रिग्गेण दु नामो जिणविट्ठा होति त्तीसा ॥१.५ चंदादीवे चत्तारि य सायरे कवणतोए | धादगिसंरेदीवे बारसचंदा यसराय ॥१०॥ बादाकीसं चंदा कालसमुहम्मिति बोदवा | पोक्खरवरद्धदीवे बावत्तरि ससिगणा भणिदा॥१.. ये चंदा रे पूरा णक्खचा खलु इवति छप्पण्णा । छावत्सरी य गहसद जंबूदीवे मणुचरंति ॥ 1.6 भट्ठावीसं रिक्सौ मट्ठासीदं च गंहकुल भणिदं । एक्के दस्स दु परिवारो होदि णायम्यो ॥ १.. छावर्द्धि च सहस्सा णव य सया पण्णहत्तरी होति । एयससीपरिवारो ताराण कोरिकोरीमो ॥१. जोइसबरपासादा मणादिणिहणा सभावणिप्पण्णा । वणवेदिएहि जुत्ता बरसोरणमरिया दिग्वा " बहुदेवदेविपठरा जिणभवणविहसिया परमरम्मा । वेरुलियवज्जमस्मयकक्केयणपउमरायमपा ॥१ भट्टकम्मरहियं भणतणाणुज्जलं अमरमहियं । वरपउमणदिणमियं मरिहणोमि जिणं वंदे ॥१॥ इस जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे जोहसलोयवणणो णाम बारसमो उद्देसो समत्तो ॥१२॥ चाहिये ॥ १०४॥ जम्बूद्वीपमें अवस्थित जो स्थिर तारा जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा देखे गये हैं के समुदित रूपमें छत्तीस हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥१०५॥ चन्द्र और सूर्य यहाँ जम्बूद्वीपमें दो, स्वम समुद्रमें चार तथा धातकीखण्ड द्वीपमें बारह हैं॥१०६॥ कालोद समुद्रमें ब्यालीस चन्द्र जानना चाहिये। अर्ध पुष्करवर द्वीपमें बहत्तर चन्द्रगण कहे गये हैं ॥१०७ ॥ जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र, दो सूर्य, छप्पन (२८४ २) नक्षत्र तथा एक सौ छयत्तर (८८४ २) मह संचार करते हैं ॥१०८॥ अट्ठाईस नक्षत्र तथा अठासी ग्रहकुल, यह एक एक चन्द्रका परिवार होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १०९॥ छयासठ हजार नौ सौ पचत्तर कोडाकोड़ि तारे एक चन्द्रके परिवार स्वरूप होते हैं ॥ ११॥ उपर्युक्त ज्योतिषी देवोंके उत्तम प्रासाद अनादि-निधन, स्वमावसे उत्पन्न, वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, बहुत देव-देवियों से प्रचुर, जिनमवनसे सुशोभित, अतिशय रमणीय; तथा वैडूर्य, वज्र, मरकत, कर्केतन एवं पद्पगग मणयोंके परिणाम रूप होते हैं ॥ १११-११२ ॥ जो आठके आधे अर्थात् चार घातिया कमाने रहित, अनन्त ज्ञानसे उज्ज्वल, देवोंसे पूजित एवं श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत हैं उन अरिष्टननि जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ ११३ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें ज्योतिर्लोकवर्णन नामक बारहवां उदेश समाप्त हुआ ॥१२॥ शपीला. २पबपिंडगोण, ३ उ अठ्ठावीसनखत्ता, श भट्ठाचीसा नषता. ४ उ एस्पेक्के बस्स, श परोक्के बंदस्स. ५ परिवारे हिदि,श परिवारो हिदि. ६ उपबश अहह..कवणणा. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेरसमो उद्देसो] पासजिणिदं पणमिय पण?षणधादिकम्ममलपडई। परमेट्ठिभासिदत्वं पमाणमेदं पवक्सामि दुविधो य होदि कालो ववहारो तह य परमत्यो । ववहार मणुयलोए परमत्यो सम्बलोयम्मि । संखेज्जमसंखेज भर्णतयं तह य हदि तिवियप्पो । भाणुगदीए दिट्ठो समासदो कम्मभूमिम्मि ॥३ कालो परमणिरूखो भविभागी विजाण समभो त्ति । सुहुमो अमुत्तिगुरुगलहुवत्तणालवणो कालो . भावलि असंखसमया संखज्जावलिसमूह उस्सासो । सत्तुस्सासो थोवो सत्तस्थोवा लवो मणिदो ॥५ भट्टतीसद्धका णाली बेणालिया महत्तं तु। एयसमयेणहीणं मिण्णमुहत्तं तदो सेसं॥ तीसमुहुरा दिवसं तीसं विवसाणि मासमेक्को दु । मासाणि उडू णं तिणि अयणमेकको दु.. वसं वेभयणं पुण पंच य वस्साणि होति जुगमेगं । विपिणजुगं दसवरसं दसगुणिदं होदि वस्ससद ॥ घस्ससदं सगुणिदं वस्ससहस्सं तु होदि परिमाणं | वस्ससहस्सं दसगुण दसवस्ससहस्समिदि जागे । दसवस्ससहस्साणि य दसगुणिय वस्ससदसहस्सं तु । एत्तो मंगपमाणं वोच्छमि य वस्सगणणार || द घातिया कर्म रूप मलके समूहको नष्ट कर देनेवाले पार्थ जिनेन्द्रको प्रणाम करके इन्त परमेष्ठीके द्वारा उपदिष्ट प्रमाणभेदका कथन करते हैं ॥ १॥ व्यवहार और परयो भेदसे काल दो प्रकारका है। इनमें व्यवहारकाल मनुष्यलोकमें और परमार्थकाल सर्व लो पाया जाता है ॥ २ ॥ संख्येय, असंख्येय और अनन्त इस प्रकारसे कालके तीन भेद हैं। यह काल कर्म भूमिमें संक्षेपसे सूर्यगतिके अनुसार देखा जाता है ॥३॥ जो काल परमनिरुव (परमनिकृष्ट ) अर्थात् विभागके अयोग्य अविभागी है उसे समय जानना चाहिये । यह काल सूक्ष्म, अमूर्तिक व अगुरुग्घु गुणसे युक्त होता हुआ वर्तना स्वरूप है ॥४॥ असंख्यात समयों की एक आवली, संख्यात आवलियोंके समूह रूप उच्छ्वास, सात उच्छ्वासोका स्तोक, और सात स्तोकोंका एक लव कहा गया है ॥ ५॥ सादे अड़तीस लवोंकी नाली, दो नालियोंका मुहूर्त, और एक समयसे हीन शेष मुहूर्तको भिन्नमुहूर्त कहते हैं ॥ ६॥ तीस मुहतोंका दिन, तीस दिनों का एक मास, दो माकी ऋतु, और तीन ऋतुओंका एक अयन होता है ॥ ७॥ दो अयनोंका वर्ष, पांच वर्षों का एक युग, दो युग प्रमाण दश वर्ष और दश वर्षोंको दशसे गुणित करनेपर सौ वर्ष होते हैं ॥८॥ सौ वर्षोंको दशसे गुणित करनेपर सहस्र वर्ष और सहस्र वर्षोंको दशसे गुणित करनेपर दश सहस्र वर्षोंका प्रमाण जामना चाहिये ॥९॥ दशगुणित दशवर्षसहस्रका वर्षशतसहस्र (एक लाख वर्ष) होता है। आगे वर्षगणनाले अंगप्रमाण १श मासति परमणे पवक्खामि. २ क प व तह य होइ परमरथो. ३ उ शकाले. ४ पव माणगी. ५ उश अमोति. ६ उ क प व श अगरेग. ७ व वक्षणाल खेमो कालो, शवत्तगळखणो काले. ८ उ बदचीसदळवा, श अट्ठीसदलव. ९ ड श बस्समदं. १.श सशणियसबस्ससहस्सं दस जाणे. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६) जंबूदीवपण्णती [१३.११ वाससदसहस्साणि दुचुलसीदिगुणं हज्ज पुग्वंग । पुग्वंगसदसहस्सा चुलसीदिगुणे हवे पुण्य ॥" पुम्वस्स दु परिमाणं' सदर खलु कोहि सदसहस्साणि । छप्पणं च सहस्सा बोब्वा वासकोठीणं ॥ १५ पुग्वं पन्ध णउदै कुमुदं परमं च णलिण कमल च। तुडियं भर ममम हाहा हाह य परिमाणं ॥३ महवि दु लदो लदा वि य महालदंगं महालदा य' पुणो । सीसपपिय हस्थप्पहेलियं हवदि अचलप्पं ॥ एवं एसो कालो संखेज्जो होदि वस्सगणणाए । गणणाभवदिक्कतो हवदि य कालो भसंखेज्जो ॥ १५ मंतादिममहीणं अपदेसं णेव इंदिए गेझं । जं दग्वं भविभागीतं परमाणू मुणेयव्वा ॥ १६ . जस्म न कोइ अणुदरी सो भणुभो होदि सम्वदन्याण । जावे परं अणुत्तं तं परमाणू मुणेयम्वा ॥ सत्येण सुतिक्खेण य छेत्तुं भेत्तुं च जं किर ण सक' । तं परमाणु सिद्धा भणति भादि पमाणेण" ॥ १८ परमाणूहि य या ताणतेह मेलिदेहि" तहा। ओसण्णासण्णेत्ति य खंधो सो होदि णादवो ॥ १९ कालका कथन करते हैं ॥ १० ॥ चौरासीसे गुणित एक लाख वर्ष प्रमाण अर्थात् चौरासी लाख वर्षोंका एक पूर्वाग और चौरासीसे गुणित एक लाख पूर्वाग प्रमाण एक पूर्व होता है ॥११॥ पूर्वका प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़ (७०५६००००००००००) जानना चाहिये ॥ १२॥ [इसी विधानसे अपने अपने अंगके साथ --- यथा पूर्वाग-पूर्व व पाग-पर्व इत्यादि ) पूर्व, पर्व, नयुत, कुमुद, पम, नलिन, कमल, त्रुटित, अटट, अमम, हाहा, हूहू लता [लतांग], लता, तथा महालांग, महालता, शीर्षप्रकम्पित, हस्तप्रहेलित और अचलाम, इस प्रकार वर्षोंके गणनाक्रमसे यह काल संख्येय है । गणनासे रहित काल असंख्येय होता है ॥ १३-१५॥ जो द्रव्य अन्त, आदि व मध्यसे रहित; अप्रदेशी, इन्द्रियोंसे अग्राह्य (ग्रहण करनेके अयोग्य) और विभागसे रहित हो उसे परमाणु जानना चाहिये ॥१६॥ सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुतर न हो वह अणु होता है। जिसम आत्यन्तिक अणुत्व हो उसे सब द्रव्योंमें परमाणु जानना चाहिये ॥१५॥ जो अतिशय तीक्ष्ण शस्त्रसे छेदा-भेदा न जा सके उसे सिद्ध अर्थात् केवलज्ञानी परमाणु कहते हैं। यह प्रमाणव्यवहारकी अपेक्षा आदिभूत है, अर्थात् आगे कहे जानेवाले अवसन्नासन्नादिके प्रमाणका मूल आधार परमाणु ही है॥१८॥ अनन्तानन्त परमाणुओंके मिलनेसे अवसन्नासन्न नामक स्कन्ध होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥१९॥ उन आठ अवसन्नासन्न द्रव्योंसे एक सन्ना १उ पुवंग सदसहस्सा चुलसीदि हवे गुणं पुवं, श पुच्वंगं सदसहस्साणि दुचुलसौदिगग हवेग्ज पुग्वंग. .उश पुब्वसह परिमाणं. ३ क कोरिसहस्साणि ४ उश दियं अडंगममं हाहहह य, क तडियं तुर अममं हाहा हुहूय, पब तुब्यि तुडडं अमम हाहा हूहू य. ५ श अहा विदलदा. ६शय महागदमंगहालदाय, ७ उश हत्थापहेलियं, क इत्थं पहेलियं, पब हापहेहियं. ८ उ अश्तं परमाणू, पब अणुतं तं परमाणं,श अत्तं तुं परमाणू. ९ उक पब सक्का. १. उक पब परमाणू सिद्धं, शते परमाणू सिद्ध. ११ उप श आदिप्यमाणेण, क आदिपमाणो. १२ उ मेलिदाहि, शमेलिताहि. १३ उ मोसण्णासपणेसि संधो, श उसग्गा पश्यति खंधो. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३. ३० J तेरसमो उदेसा [ २३७ महिं तेहि दिट्ठा भेसण्णासण्णरहि' दग्वेदि । सन्णासण्णो त्ति' तदो खंधो णामेण सो होइ ॥ २० अद्वेहिं तेहिं णेया सण्णासण्णेहि तह य दध्वेहि' । ववहारियपरमाणू णिद्दिट्टो सन्वदरिसाहिं ॥ २१ परमाणू तसरेणू रद्दरेणू भग्गयं च बालस्स । लिक्खा जूवा य जवो अट्टगुणविवडिदा कमसो ॥ २२ भट्ठेहि जवेहिं पुणो निष्फण्णं अंगुलं तु तं तिविद्धं । उच्छेद्दणामधेयं पमाणमादंगुलं" चेव ॥ २३ एक्क्काणं ताणं तिविद्या जाणाहि अंगुलवियप्पा | घणपदरसूचिमंगुल समासदो होदि णिदिट्ठा ॥ २४ उच्छे भंगुलेहि" य पंचेव सदेद्दि तद्द य' घेत्तणं । णामेण समुद्दिट्ठो होदि पमाणंगुलो एक्को २५ परमाणु आदिएहि य आगंत्णं तु जो समुप्पण्णो । सो सूचिभंगुलो त्ति' य णामेण य होदि णिद्दिट्ठो ॥ २६ जहि य ज य काले भरद्देरावएस होंति जे मणुया । तोसें तु अंगुलाई आदंगुळ णामदो होइ ॥ २७ उच्छेह अंगुलेण य उच्छेदं तह य होइ जीवाणं । णारयतिरियमणुस्सान" देवाणं तह य णायन्या ॥ २८ सव्वाणं कलसाणं भिंगाराणं" तद्देव दंडाणं | धणुफलि हे सन्ति तोमर हलै मुसकराण सम्वाणं ॥ २९ लगडाणं जुग्गाणं" सिंहासणचामरादवत्ताणं । आदंगुलेण दिट्ठा घरसयणादीण परिमाणं ॥ ३० सन्न नामक स्कन्ध होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ॥ २० ॥ उन आठ सन्नासन्न द्रव्योंसे एक व्यावहारिक परमाणु (त्रुटिरेणु ) होता है, ऐसा सर्वदर्शियों के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥ २१ ॥ परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, [ क्रमशः उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमिज तथा कर्ममू मजके ] बालका अप्रभाग, लिक्षा, यूक और यव, ये क्रमसे आठगुणी वृद्धिको प्राप्त हैं ॥ २२ ॥ पुनः आठ यत्रोंसे एक अंगुल निष्पन्न होता है । वह अंगुल उत्सेध, प्रमाण और आत्मगुलके भेदसे तीन प्रकार है ॥ २३ ॥ उनमेंसे एक एक अंगुल के सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल, इस प्रकार संक्षेपसे तीन तीन भेद जानना चाहिये ॥ २४ ॥ तथा पांच सौ उत्सेधांगुलोको ग्रहण कर नामसे एक प्रमाणांगुल होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है || २५ || परमाणु आदिकों के क्रमसे आकर जो अंगुल उत्पन्न हुआ है वह नामसे ' सूप्यंगुल (उत्सेधसूच्यंगुल) ' निर्दिष्ट किया गया है ।। २६ ।। भरत और ऐरावत इन दो क्षेत्रों में जिस जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उनके अंगुल नामसे आत्मांगुल कहे जाते हैं ॥ २७ ॥ उत्सेधांगुल से नारकी, तियेच, मनुष्य तथा देव, इन जीवोंके शरीरका उत्सेधप्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २८ ॥ सब कलश, भृंगार, दण्ड, धनुष, फलक ( या धनुष्फलक ) शक्ति, तोमर, इल, मूसल, रथ, शकट, युग, सिंहासन, चामर, आतपत्र तथा गृह व शयनादिकोंका प्रमाण आत्मगुलसे कहा गद्दा है || २९ - ३० ॥ द्वीप, उदधि, शैल, जिनभवन, १ उश ओसण्णासन्निहि, क बसण्णासणिरहें, प व उसणसण्णेहि २ उ प श दिवेहि श्कप ब अण्णासण्णेति ४ उ पमाणअदंगुलं, श पमाणआदंगुलं. ५ उ उच्छेदसूचि अंगुहि, क प ब बरसूचि अंगुलेहि, श तुच्छहसूचिअंगुलहि. ६ क तब ७ उ श परिमाणु ८ क प ब वि. ९ उश अंगुलाएं. १० उश गिरिषतिरमनुस्सानं, प ब परतिरियमनुस्साणं. ११ प ब सम्माणलसालं भिंगाराणं. १२ क धशफळह, प व भणफहि. १३ उशइल. १४ उश गाणं, प व बंगाणं. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जंबूदीवपग्णची [१३. ११दीवोदधिसकाणं जिणभवणाणं णदीण कुंगण । बसादीण पमाणं पमाण तह गुले विट्ठा ॥३॥ छाह गुलेहिं पादो वेपादेहि य तहा विहत्यी दु। बेहि विहस्थीहि तहा हस्थो पुण होइ णायग्बा ॥ १९ बेहत्येहि य किक्खें बेकिक्खूहि य हवे तहा दंगे । दरवणुज्जुगणाडी भक्खं मुसलं च अदुरदणी ॥ १ बेदंडसहस्सेहि य गाउदमेगं तु होइ णाययों । चटगाउदेहि य तहा जोयणमेगं विनिषिद्धं ॥३॥ जंजोयणविस्थिणं तं विगुणं परिरएण सविससं । तं जोयणमुग्विद्धं पलं पलिदोवमं णाम ॥३५ ववहारुद्धारदा पल्ला तिण्णव होति णायव्वा । संखा दीवसमुद्दा कम्महिदी वणिया तदिए ॥ ३॥ एगाहिंबीहिंतीहि य उक्कस्सं जाव सत्तरताणं | संणद्धं संणिचिर्द" भरिदं बालग्गकोडीहि ॥३. वस्ससदे घस्ससदे एक्केक्कं भवहडस जो कालो । सो कालो णायवो णियमा एक्कस्स पलस्स ॥ ३८ यवहारे जं रोमं तं छिण्णमसंखकोरिसमयेहि । 'उद्धारे ते रोमा दीवसमुद्दा दु पदेण ॥ १९ उद्धारे जं रामं तं छिण्ण सदेगवस्ससमयेहिं । अद्धारे ते रोमों कम्मट्टिदी वणिया तदिए ॥ .. नदी, कुण्ड तथा क्षेत्रादिकोंका प्रमाण प्रमाणांगुलसे निर्दिष्ट किया गया है |॥ ३१॥ छह अंगुलोंसे एक पाद, दो पादोंसे एक वितस्ति तथा दो वितस्तियोंसे एक हाथ होता है; ऐसा जानना चाहिये ॥३२॥ दे। हाथोंसे एक किकु हरिकु और दो किष्कुओंसे एक दण्ड होता है । दण्ड, धनुष, युग, नाली, अक्ष और मूल, ये सब वार रनि प्रमाण होते हैं । इसीलिये इन सबको धनुषके पर्याय नाम जानना चाहिये ॥३ ॥ दो हजार दण्डोंसे एक गव्यू नि कोश) होती है, ऐसा जानना चाहिये । तथा चार गव्यूलियोंसे एक योजन निर्दिष्ट किया गया है ॥ ३४ ॥ जो एक योजन विस्तीर्ण, विस्तारकी अपेक्ष कुछ अधिक तिगुणी परिधिसे संयुक्त तथा एक योजन उद्वेध ( अवगाह ) से युक्त हो एसे उस गर्तविशेषका नाम पल्य व पल्योपम है ॥३५ ।। व्यवहार, उद्धार और अद्धा, इस प्रकार पत्य तीन प्रकारके होते हैं । इनमें व्यवहारपल्य उद्धारपल्यादि रूप संख्याका कारण है। उद्धारपल्यसे द्वीप-समुद्रों की संख्या तथा तृतीय अद्धापत्यसे कर्मोंकी स्थिति वर्णित है ॥ ३६॥ एक दिन, दो दिन, तीन दिन अथवा उत्कर्षसे सात दिन तकके [ मैदेके ) करोड़ों बालाग्रोसे उपर्युक्त पत्य (गड्ढा ) को अत्यन्त सघन रूपमें भरना चाहिये ॥ ३७ ॥ फिर उसमें से सौ सौ वर्षमें एक एक बालाग्रके अपहृत करनेमें ( निकालनमें ) जो काल लगे वह काल नियमसे एक पल्य प्रमाण जानना चाहिये ॥ ३८ ॥ व्यवहार पत्यमें जितने रोम होते हैं उनको असंख्यात करोड़ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उतना उद्धार पत्यके रोमोंका प्रमाण होता है । इससे द्वीप-समुद्रोंका प्रमाण जाना जाता है ॥ ३९ ॥ उद्धार पत्यमें जो रोमप्रमाण है उसे एक सौ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करनेपर जो प्राप्त हो उतने रोम अद्धार पत्यमें होते हैं । इस तृतीय पल्यसे कमौकी स्थिति वर्णित है ॥ १०॥ इन दश कोडाकाड़ी पल्यों के उश पम्मण. २ क प ब किं. 1 उश वेकवखूहि, क प व वेकिसूहि. ४ उ होदि आगाहि, पब होदिणिविहा. ५ उश सणिचंद. ६क अहवतस्स, पब अवहस्स. ७ उश विष्णमसंखवस्सकोडि. चपर्दभागोऽयमस्या गायाया नोपळम्यते उपतो. ९ड अदोर तो रेमा, प सारे रोमा, शबारे वारे. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो उदेसो पदेसि पल्लाणं कोडाकोशी हवेज्ज वसगुणिदं । तं सागरोषमस्स दु उवमा एक्कस्स परिमाण ॥ दस सागरोवमाण पुष्णालो होति कोरिकोटीको मोसप्पिणीय कालो सो दुस्सपिणीए वि ॥ पाहो सायर सूची पदरो पर्णगुलो य जगसेही । कोगपदगे' य लोगो भट्ट दु माणा मुणेयध्धा ॥ ५ सम्बण्डसाधणय पचक्सपमाण तह य भगुमाण होदि उवमा पमाणे मविरुद्धं भागमपमाणं ॥४ सुहुमंतरिदपदस्थे दूरस्थे जो मुणे गाणेण । सो सम्वह जाणह धूमणुमाणेग जह मग्गी ॥४५ रागो दोसी मोहो तिम्मेदे जस्स गस्थि जीवस्स सो जवि मोसं भादितस्स पमाण हवे वयणं ॥४॥ सो दुपमाणो दुषिहो पन्चक्लो तह य होदि य परोक्तों पक्खो दुपमाणो दुविधो सो होदि णाययो ।४७ बराबर एक सागरोपमका प्रमाण होता है ॥ ११॥ पूर्ण दश कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी काल और उतना ही उत्सर्पिणी काल भी होता है ॥ ४२ ॥ पत्य, सागर, सूभ्यंगुल, प्रतरांगुल, धनागुल, जगश्रेणि, लोकप्रतर और लोक, ये आठ उपमा मानके भेद जानना चाहिये ॥ ४३ ॥ सर्वज्ञसिद्धि के लिये प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा प्रमाण और अविरुद्ध आगम प्रमाण है; अर्थात् इन चार प्रमाणोंके द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध होता है ॥ १४॥ जो सूक्ष्म (परमाणु आदि ), अन्तरित ( राम-रावणादि ) और दूरस्थ ( मेरु आदि ) पदार्थोंको प्रत्यक्ष रूपसे जानता है उसे सर्वज्ञ समझना चाहिये, जैसे धूमानुमानसे अनिका ज्ञान ॥ १५ ॥ विशेषार्य- इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि सर्वज्ञकी सिद्धि इन्द्रियप्रत्यक्षके द्वारा सम्भव नहीं है, तथापि उसकी सिद्धि निम्न अनुमान प्रमाणसे होती है- सूक्ष्म, अन्तस्ति ( कालान्तरित) और दूरस्थ (देशान्तरित ) पदार्थ किसी न किसी व्यक्तिके प्रत्यक्ष अवश्य हैं; क्योंकि, वे अनुमानके विषयभूत है; जो जो अनुमानका विषय होता है वह वह किसी न किसीके प्रत्यक्षका भी विषय होता ही है, जैस अग्नि । अर्थात् धूमको देखकर चूंकि अग्निका अनुमान होता है अत एव वह अनुगन की विषयभूत है, और इससे वह अनेक व्यक्तियों के लिये प्रत्यक्ष भी है। इसी प्रकार चूंकि उपर्युक्त सूक्ष्मादि पदार्य भी अग्नि के ही समान अनुमान के विषयभूत है, अत एव वे भी किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होने चाहिये । अब इनका जो प्रत्यक्ष ज्ञाता है वही सर्वज्ञ है। इस अनुमानसे सर्वज्ञ सिद्ध होता है । जिस जीवके राग द्वेष और मोह ये तीन दोष नहीं हैं वह असल्य भाषण नहीं करता, अत एव उसका वचन प्रमाण होता है ॥४६॥ वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकार है। इनमें जो प्रत्यक्ष प्रमाण है वह भी दो प्रकार जानना चाहिये-- प्रथम सकल प्रत्यक्ष र .क उवमा एकम्म परिमाणं, पब उवमा परिमाणं. २ उ सो चोदुस्सप्पिणिए वि, पब सो चेतसप्पिणीए कि, श सो बोस्सप्पिणिए वि. ३ उ श पदरो यर्णालो. ४ उ श उगसेटी. ५.उशोगापरले, कपबरो.. पदके पन्चमबोपबयते पश्चाजोपबोपन्चकोटिपरोपको Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.] जंबूदीवपण्णत्ती [१३. १८ पच्चक्खो तह सयली पढमो विदिमो य वियलपच्चक्खो। सयको केवलणाण' मोहीमणपज्जवा वियला ।। १८ खानो एयमणतो तिकालसम्वत्थगहणसामत्थो । वाधारहिदो णिच्चो णिहिटो सयलपच्चक्खो' ॥ ४९ दम्वे वेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो | बहुविधभेदपभिष्णो सो होदि य वियरूपच्चक्खो ॥ ५० पुग्गलसीमेहि लिदो परचक्खो सप्पभेद अवधी दु । देसावधि परमावधि सम्वावधिएहि तिवियप्पा ॥ ५१ परमणगदाण अत्यं' मणेण अवधारिदूण भवबोधो । रिजुविपुलमदिवियप्पो मणपज्जवणाण पच्चक्खो ॥ ५२ विदिमो दु जो पमाणो तह चेव य होदि सो परोक्खो ति। दुविधो सो वि परोक्खो मदिसुदभेदेण णिहिट्ठा ॥ बुद्धिपरोक्खपमाणो बहुविहभेदेहि सो दु संभूदो। तस्स दु भेदवियप्पं किंचि समासेण घोच्छामि ॥ ५॥ उग्गहईहावायाधारणभेदेहि चदुविधो होइ । इंदियभेदेण पुणो अट्ठावीसा समुट्ठिा ॥ ५५ मभिमुहणियमियबोहण आमिणिबहियमणिदिइंदियजं | बहुयाहि उग्गहाहि य कय छत्तीसा तिसद भेदा ॥ द्वितीय विकल प्रत्यक्ष । इनमें सकल प्रत्यक्ष केवट ज्ञान और विकल प्रत्यक्ष अवधि व मनःपर्यय ज्ञान हैं ॥४७-४८॥ सकल प्रत्यक्ष क्षायिक, एक, अनन्त, त्रिकालवर्ती समस्त पदाथोंके ग्रहण करनेमें समर्थ, बाधारहित और नित्य निर्दिष्ट किया गया है ।। १९ ॥ जो ज्ञान द्रव्य क्षेत्र, काल और भावमें परिमित (परिमाणयुक्त) तथा बहुत प्रकारके भेद-प्रभेदोंसे युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है ॥ ५० ॥ अवधिज्ञान पुद्गलसीमाओंसे स्थित, अर्थात् रूपी द्रव्यको विषय करनेवाला, प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों की अपेक्षा न करके आत्ममात्रसापेक्ष और प्रभेदोंसे सहित है । मूलमें वह देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीन मेदोंसे संयुक्त है।। ५१ ॥ जो ज्ञान दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको मनसे निर्धारित करके जानता है वह प्रत्यक्ष स्वरूप मनःपर्यय ज्ञान कहा जाता है । इसके ऋजुमति व विपुलमति, इस प्रकार दो भेद हैं ॥५२॥ द्वितीय जो प्रमाण है वह 'परोक्ष' कहा जाता है। वह परोक्ष भी मति और श्रुतके भेदसे दो प्रकार कहा गया है ॥ ५३ ।। परोक्ष प्रमाण स्वरूप जो बोध है वह बहुत प्रकारके भेदोंसे संयुक्त है । संक्षेपसे उसके कुछ भेद-विकल्पोंका कयन करते हैं ॥५४ ।। इनमें मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, इन मैदोसे चार प्रकार है । पुनः इन्द्रियभेद (इन्द्रिय ५व अनिन्द्रिय १) से उसके अट्ठाईस भेद कहे गये हैं ॥ ५५॥ अभिमुख होकर नियमित रूपसे पदार्थको जो जाने वह आभिनियोधिक ( मतिज्ञान ) कहलाता है। यह इन्द्रियज और अनिन्द्रियज स्वरूपसे दो प्रकारका है । फिर उसके बहुआदिक एवं अवमहादिकी अपेक्षा तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥५६॥ विशेषार्थ- यहाँ " अभि- अर्थाभिमुखः, नि- नियतो नियतस्वरूपः, बोधो बोधविशेषोऽभिनिबोधः, अभिनिबोध एव अभिनिबोधिकम् " इस निरुक्तिके अनुसार आभिनिबोषिकज्ञानका स्वरूप यह बतलाया गया कि जो 'अभि' अर्थात् पदार्थके सन्मुख होकर 'नि' अर्थात् १ उश केवलणाणो. २ का सागत्यो. ३ उ श पुग्गलुसीमेहि. ४ उ श परमणगदाण भयो, पब परमाहगदंतु अत्यं. ५क परोपको शदियबहयादिउग्गहादियालीसा तीसदभेदा पद्धिा. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३.६२ तेरसभो उद्देसो [ २४१ विसईविसपुहि जदो' सग्णिवादस्स' जो दु अवबोधो । समणंतरादिगहिदे भवग्गहो सो हवे" जेथो' ॥ ५७ अवगहिदत्यस्स पुणो' सगसगविसएहि जादसारस्स । जं च विसेसग्गग्रहणं ईद्दाणाणं भवे तं तु ॥ ५८ ईहिदत्यस्सं पुणो थाणू पुरिलो' सि बहुवियप्पस्स । जो णिच्छियावबोधो' सो दु अवाओ बियाणाहि ॥ ५९ तह य भवाय मदिस्स" कुंजरसदेति निरिछदस्यस्स । कालंतरभविसरणं सा होदि य धारणा बुद्धी ॥ ६० सोवूण देवदेति" य सामण्णेण य" विचाररहिदेणं । जस्सुप्पज्जइ" बुद्धी अवग्गगई तस्स निहिं ॥ ६१ हरिहर हिरण्णगम्भा ताणं मझेसु को दु सब्वण्डू । एवं जस्स दु बुद्धी" ईद्दाणाणं हवे तस्स ॥ ६२ प्रतिनियत स्वरूप जो 'बोध' अर्थात् ज्ञानविशेष होता है वह आमिनिबोधिक [ मतिज्ञान ] कहा जाता है। वह सामान्यतया अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेद से चार प्रकारका है। इनमें से प्रत्येक स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियों और छठे मनकी सहायतासे पदार्थको ग्रहण करते हैं। इस प्रकार निमित्तभेद से उसके चौबीस (४x६ = २४ ) मेद होते हैं। इनमें भी अवग्रह दो प्रकारका है — व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । जो प्राप्त पदार्थको ग्रहण करता है वह व्यञ्जनावग्रह तथा जो अप्राप्त पदार्थको ग्रहण करता है वह अर्थावग्रह कहलाता है। अब चूंकि व्यञ्जनावग्रह प्राप्त ( अव्यक्त ) पदार्थको ही विषय करता है, अत एव वह अप्राप्यकारी चक्षु और मनको छोड़कर शेष स्पर्शनादि चार इन्द्रियोंकी ही सहाबतासे पदार्थको ग्रहण करता है । इस प्रकार उसके ४ भेद ही होते हैं। इनको पूर्वोक्त २४ भेदोंमें मिला देनेसे २८ भेद हुए । इनमें से प्रत्येक बहु व बहुविध आदि रूप बारह प्रकारके पदार्थको ग्रहण करते हैं, अत एव विषयभेद से उसके तीन सौ छत्तीस ( २८ × १२ = ३३६ ) भेद हो जाते हैं। विषयी और विषयसे युक्त सन्निपातके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवप्रह नना चाहिये ॥ ५७ ॥ अपनी अपनी विशेषताओंके साथ जिसके सारांशको या गया है ऐसे अवग्रहगृहीत पदार्थके विषयमें जो विशेष ग्रहण होता है। वह ईहा मतिज्ञान है ॥ ५८ ॥ यह स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार बहुत विकल्प रूप ईहित पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय यह 'हाथीका शब्द है' इस प्रकार अवाय मतिज्ञानके द्वारा विस्मरण न होना, वह धारणा ज्ञान कहा जाता है ॥ ६० ॥ जिसके विचार रहित सामान्यसे बुद्धि उत्पन्न होती है उसके अवग्रह निर्दिष्ट किया गया है ॥ ६१ ॥ विष्णु, शिव और हिरण्यगर्भ ( ब्रह्मा ), ( ये देव कहे जाते हैं ।] उनके मध्यमें सर्वज्ञ कौन है, इस प्रकार जिसके [ ईात्मक ] बुद्धि होती है उसके ईहाज्ञान होता है ॥ ६२ ॥ है, ऐसा ग्रहण कर जानना चाहिये ॥ ५९ ॥ निश्चित अर्थका कालान्तर में 'देवता' इस प्रकार सुनकर १ उ बिस्रईविसएहि ा क विसएसिएहिं जदा, प ब विसएविसएहि जुदा २ उश सभिवादस क प ब गया. ६ उ अवग्गहिदत्यस पुण्णो, क प व अविगदिदत्यस्स पुणो, मत्थरस, प व उहित्यरस, श इरिअरस. ८ क पुरखे ९ उपश महिस्स. ११ उश देवदचि- १२ स श दि. १३ उ श जस्सुप्पज्जुहि. तस्य ॥ ६४ ॥ इतक्लिटिन ६५तमा गाथा प्रारम्भाः ३ प ब अगधा. ४ उ श अवे. श अवग्गईिदत्य पुष्णो. • उई णिच्छय अवबोधो १० उश अव १४ ततोऽमे अवायणानं जं. बी. ३१. A " Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] जंबूदीवपण्णत्ती [ १३.६३ जो कम्मकलुसरहिमो सो देवो गस्थि एस्थ संदेहो । जस्स दु एवं बुद्धी भवायणाण हवे तस्स ॥३. रागहोसविरहिदसम्बर ण य कदावि विस्सरदि । एवं खलु जरस मदी धारणणाणं हवे तस्स ॥" जो दु भवग्गहणाणो सो दुवियप्पो जिणेहि पण्णत्तो । भस्थावगह पढमो तह वंजणवग्गही विविभो ॥६५ दूरेण यजं गहणं इंदियणोइंदिएहि अस्थिक्क' । अस्थावग्रहणाणं गायब्वं तं समासेण ॥६६ पासित्ता जं गहणं रसफरसणसहगंधविसएहि । वंजणधग्गहणाणं गिट्टि त वियाणाहि ॥ १७ मणचक्खूविसयाणं णिहिट्टा सवभाषदरिसीहिं । भस्थावग्गहबुद्धी णायचा होदि एक्का दु ॥ ६८ भवसेस इंदियाणं भवग्गहादीनि होति णिहिट्ठा । भट्ठावग्गहणाणं तहयग्गावंजणं चेव ॥ ६९ सम्वेदे मेलविदा अट्ठावीसा हवंति मदिभेदा । छच्चदुगुणिदेण तदो चदु पविखण ते होति ॥ ७० बहुबहुविहखिप्पेसु य मणिस्सरिद अणुत तह धुवरथसें । उग्गहईहादीया भेदा तह होति पुष्युत्ता ॥७१ एक्केक्कविहेसु तहा णीसरिदाखिप्पउत्तयधुवेसु । धारणवायादीयों होति पुणो तेसु णायम्वा ॥ ०२ जो कर्म-मलसे रहित होता है वह देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस प्रकार जिसके निश्चय रूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥ ६३ ॥ राग-द्वेष रहित सर्वज्ञ होता है, इस बातको जो कभी नहीं भूलता है उसके धारणाज्ञान होता है ।। ६१॥ इनमें जो अवग्रह झान है उसे जिनदेवने दो प्रकार कहा है- प्रथम अर्थावग्रह तथा द्वितीय व्यञ्जनावग्रह ॥६५॥ दूरसे ही जो चक्षुरादि इन्द्रियों तथा मनके द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है उसे संक्षपसे अर्यावमह ज्ञान जानना चाहिये ॥ ६६ ! छूकर जो [ वर्ण ], रस, स्पर्श, शब्द और गन्ध विषयका प्रहण होता है उसे व्यञ्जनावग्रह निर्दिष्ट किया गया जानो ॥ ६॥ सर्वज्ञोंके द्वारा निर्दिष्ट एक अर्यावग्रह ज्ञान ही मन और चक्षुके विषयमें होता है, ऐसा जानना चाहिये [ अभिप्राय यह कि व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार ही इन्द्रियोंसे होता है, किन्तु अर्थावग्रह चक्षु और मनके द्वारा भी होता है ] ॥ ६८॥ शेष इन्द्रियोंके अवग्रहादिक चारों निर्दिष्ट किये गये हैं । उनमें अवग्रह दो प्रकारका है- अर्थावग्रह व व्यञ्जनावग्रह ॥६९॥ इन सबको मिलानेपर मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। वे मेद छह (इन्द्रियां ५ व मन १ ) को चार ( अवमहादि ) से गुणा करने और उनमें चार जोड़ने ( ६ x ४ + १ = २८) से होते हैं ॥७०॥ वे पूर्वोक्त अवग्रह-ईहादिक भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त तथा ध्रुव, इन छह पदार्थोके विषयों होते हैं ।। ७१ ॥ तथा एक, एकविध, निःसृत, अक्षिप्र, उक्त और अध्रुव, इन छह पदायोंके विषयों धारणा व अवाय आदि ज्ञान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये उश अवायणणाणं. २ उश कदाचि. ३ पब अवग्गहणोणो.४श गहणं रमपरसणसरक्कं. १क बियाणेहिं. ६ उ अवगाहादोषिण, क प ब अवग्गहादी य. ७ उ अणुसरिद, क अणिसरिस, पब आणिसारिस. ८ उश धुवनेस, कप ब धुर्वतेस ९श पुणोव्वुत्ता. १.उधारणपायावीया, पब भारवायादीया, श पारणपण्यादिया. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३. ८१] तेरसमो उद्देसो [२४३ गयणेहिं बहु पस्सदि बहुसई सुणदि बहुरसं खादि । बहुगंधं भग्यायदि बहुफास विददे जीवो ॥१ मस्थं बहुयं चिंतइ परोक्खबुद्धी दु होइ जीवस्स । एवं मत्थुवलद्धी भवग्गहादी मुणेयन्वा ॥ ७४ बहुवे बहुविहभेदे खिप्पे तहणिस्सिदे भणुत्ते" य । होति धुवे इदरेसु वि भवग्गहादी चदुवियप्पा ॥ ७५ एवं होति' ति तदो बहुवादी बारसहि संगुणिदा। ईदादिभट्ठवासी तिण्णिसदा होंति छत्तीसा ॥ ७६ विदियो दु जो पमाणो मदिपुग्वो तह य होदि सुदणाणो । सो वि अणेगवियप्पो णिहिट्ठो जिणवारदेहि ॥ धूमं दळूण तहा भगीउवलद्धी जह' फुडो होइ । णदिपूरं दळूण' य उवरि वरिट्ठो त्ति जह बोहो॥ve जह भागमलिंगेण य लिंगी सधण्हु पायडो होइ । मदिपुब्वेण तह च्चिय सुदणाणो पायडोर होह ॥ ७९ देवासुरिदमधियं अणंतसुपिंडमोक्खफलपउ। कम्ममलपडलदलणं पुण्ण पवितं सिर्व भई॥८. पुग्वंगभेदभिण्ण भणतभस्थहि संजुदं दिव्वं । णिचं कलिकलुसहरं णिकाचिदमणुत्तरं विमलं१४ ॥ ८१ ....... ॥ ७२ ॥ जीव नयनोंसे बहुत देखता है (चाक्षुष बह्नवग्रह ), बहुत शब्द सुनता है ( श्रोत्रज बह्ववग्रह ), बहुत रसको खाता है ( रसनेन्द्रियज बहृवग्रह ), बहुत गन्धको सूंघता है (घ्राणज बहवग्रह ), और बहुत स्पर्शको जानता है ( स्पर्शनेन्द्रियज बह्नवग्रह ) ॥ ७३ ॥ जीव बहुत अर्थका चिन्तन करता है (अनिन्द्रियज बह्वप्रह), यह जीवकी परोक्षबुद्धि है। इस प्रकारकी अर्थोपलब्धि रूप अवमहादि ज्ञान जानना चाहिये ।। ७४ ।। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे इतर ( अल्प, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त व अध्रव ) इन अर्थभेदोंमें अवग्रहादि रूप चार प्रकारके ज्ञान होते हैं ॥ ७५ ॥ इस प्रकार ईहादिक अट्ठाईस भेदोंको बहु आदिक बारह प्रकारके पदार्थोसे गुणित करने पर वे तीन सौ छत्तीस (२८४१२३३६) होते हैं ॥ ७६ ॥ मतिज्ञानके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला जो द्वितीय श्रुतज्ञान प्रमाण है वह भी जिनेन्द्रोंके द्वारा अनेक भेद युक्त निर्दिष्ट किया गया है ॥ ७७ ॥ जिस प्रकार धूमको देखकर स्पष्टतया अमिकी उपलब्धि होती है, जिस प्रकार नदीपूरको देखकर उपरिम वृष्टिका बोध होता है, तथा जिस प्रकार आगम रूप साधनसे साध्य रूप सर्वज्ञ प्रकट है; उसी प्रकार मतिज्ञानके निमित्तसे श्रुतज्ञान प्रकट होता है [ अभिप्राय यह है कि धूमदर्शन ( मतिज्ञान से होनेवाला अग्निका अनुमान, नदीप्रवाहसे होनेवाला उपरिम वृष्टिका अनुमान, तथा आगमान्यथानुत्पत्ति रूप हेतुसे होनेवाला सर्वज्ञके अस्तित्वका अवबोध, यह सब ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक उत्पन्न होनेसे श्रुतज्ञानके अन्तर्गत है । ] ॥ ७८-७९॥ पूर्व व अंग रूप भेदोंमें विभक्त, यह तज्ञान प्रमाण देवेन्द्रों व अमरेन्द्रोंसे पूजित, अनन्त सुखके पिण्ड रूप मोक्ष फलसे संयुक्त कर्म रूप मलके पटल को नष्ट करनेवाला, पुण्य, पवित्र, शिव, भद्र, अनन्त अयोंसे संयुक्त, दिव्य, नित्य, कलि रूप कलुषको दूर करनेवाला, निकाचित, अनुत्तर, विमल, सन्देह रूप अन्ध. 13 श महुरसं. २ क बहुवं. ३ उ पब अवुद्धलबी. ४ उ श यमुचे. ५ उश होदि. जो भद्रबीसे. . उ तण जहा, श तळूण जहा. ८ उ श तह. १ उ श णदिपूरं दद्भूण, पब णादिपुरं दठणः १.कपब देवो. ११शपयडो. १२ उकपबश सोक्स, १३प व पुग्गलभेदभिण्णं. १४ उश विउलं. -am... Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ १३. ८२ संदेह तिमिरदलणं बहुविहगुणजुन्त सग्गसोवाणं | मोक्खग्गदारभूदं णिम्मलवर बुद्धिसंदोहं ॥ ८२ सब्वण्डुमुद्दे विणिग्गय पुग्वावर दोसरहिद परिसुद्ध' । अवखयमणादिजिणं सुदुणानपमान निहिं ॥ ८३ वसिपमाणेण तद्द वयणपमाणं तदो पुणो होदि । वत्तारो' वि वियाणह अट्ठारसदोसपरिहीणो ॥ ८४ जो खुद्द तिसभयद्दीणो दोस्रो तह रोगमोहपरिचतो' । चिंताजरादिरहियो' सो सम्बन्हू समुद्दिट्ठो ॥ ८५ जो मिथ्युजरारहिदो मदविग्भम से दखेदपरिद्दीणो । उप्पत्तिरदिविद्दीणो" सो परमेट्ठी वियाणाहि ॥ ८६ जिंदा विसादहीणो जो सुरमनुएहिं पूजिदो णाणी । भट्टद्धकम्मरहिदो सो देवो तिहुयणे सयले' ॥ ८७ जो कल्लाणसमग्गो मंइसयचउतीसभेदसं पुण्णो । वरपाडिद्देरसहिदो सो देवो होदि सम्वण्हू ॥ ८८ सो जगसामी णाणी" परमेट्ठी वीदराग जिणचंदो । जगनाहो जगबंधू हरिहर कमलासनो बुन्द्रो ॥ ८९ अरहंत परमदेवो तिहुयणणाहो जगुत्तमो वीरो | पुरुसोत्तमो महंतो तिहुयणतिलभो जगुरूंगो " ॥ ९० तवणो" अणतानाणी भणतविरिभो भणतसुद्दणाम | भजरो" अमरो भरहो पूय पवितो सुद्दो भद्दो" ॥ ९१ कारको नष्ट करनेवाला, बहुत प्रकारके गुणोंसे युक्त, स्वर्गकी सीढ़ी, मोक्ष के मुख्य द्वारभूत, निर्मल एवं उत्तम बुद्धिके समुदाय रूप, सर्वज्ञके मुखसे निकला हुआ, पूर्वापरविरोध रूप दोष से रहित, विशुद्ध, अक्षय और अनादि निधन कहा गया है ॥ ८०-८३ ॥ व्यक्ति ( अथवा वक्तृ ) की प्रमाणतासे वचनमें प्रमाणता होती है । जो क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित हो उसे वक्ता (हितोपदेशी ) जानना चाहिये ॥ ८४ ॥ जो क्षुधा, तृषा व भयसे हीन; राग, द्वेष व मोइसे परित्यक्त; तथा चिन्ता व जरा आदिसे रहित है वह सर्वज्ञ कहा गया है || ८५ ॥ जो मृत्यु व जरासे रहित, मद, विभ्रम, स्वेद व खेद से परिहीन; तथा उत्पत्ति व रतिसे विहीन है उसे परमेष्ठी जानना चाहिये ॥ ८६ ॥ जो निन्दा व विषाद से हीन, देवों एवं मनुष्यों से पूजित, ज्ञानी और चार घातिया कर्मोंसे रहित है वह सकल त्रिभुवनमें देव है ॥ ८७ ॥ जो सम्पूर्ण कल्याणोंसे युक्त, चौतीस अतिशयभेदोंसे परिपूर्ण और उत्तम प्राप्तिहायसे सहित है वह सर्वज्ञ देव है ॥ ८८ ॥ वह जगत्का स्वामी, ज्ञानी, परमेष्ठी, वीतराग, जिन चन्द्र, जगन्नाथ, जगबन्धु, हरि (विष्णु), दर ( शिव ), कमलासन ( ब्रह्मा ), बुद्ध, अरइन्त परमदेव, त्रिभुवननाथ, जगेो• तम, वीर, पुरुषोत्तम, महान्, त्रिभुवनतिलक, जगोत्तंग; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्तवीर्य व अनन्त सुख रूप अनन्तचतुष्टयमे सहित अजर, अमर, अईत्, पूत, पवित्र, शुभ, भद्र, चन्द्र, वृषभ, कमल इत्यादि एक हजार आठ नामोंका धारक होता है । जो गुण अर्थात् इन I १ उश सुह. २ ज श बोसरहिंद संपरिसुद्धं प ब दोसपरिसुद्धं. ३ प व अक्खयणादिणिहणं. ४ उ श पमाण णिद्दि ५ उश जहा. ६ क चत्तारो, श चत्तारे. ७ उ श तिसयड़ीनो. ८ क प ब परिचित्तो. ९ क प व चिंताजराहि रहिदो. १० प ब विहूणो. ११ उश तिहुयणे सयलो, प ब तिहुयणो सयलो. १२ प व णाणो. १४ उ श नवणे, प ब तवणे. १५ उश भरजो. १६ उ रा पूयवित्तो सुहो भद्दे. १३ क प भ जगत्तुंगो. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३. १०१ तेरसमो उदेसी 1२४५ चंदो वसहो' कमलो भठ्ठत्तर तह सहस्स णामधरो । जो गुणणामसमग्गो सो देवो णस्थि संदेहो ॥ ९२ गम्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे । केवलणाणुप्पण्णे परिणिम्वाणम्मि समयम्मि ॥ ९३ पंचसु ठाणेसु जिणो पंचमहाणामपत्तकल्लाणों" । महदाइडिसमुदए सुरिंदईदेहि परिमहिभो ॥ ९४ सेवमलरहिददेहो गोखीरसमाणवण्णवररुहिरो । वरवइरसुसंघदणो समचउरसरीरसंठाणो ॥ ९५ भविसयस्वेण जुदो णवपर्यसुरहिगंधवरदेहो । भट्टसयलक्खणधरो मतबलविरियसंपण्णो'२ ॥ ९६ पियहियमहुरपळावो सभावदसमदिसएहि संजुत्तो । सो सम्वण्हू होहिदि णिहिट्ठो भागमपमाणे"॥ गाउय तह सयचउरो सुभिक्खणिरुवो "इवह देसो जहि जाहि विहरह अरहो तहिं तहिं होइ णायबो॥ गगणेण पुणो पुच्चइ अकालमिच्चू तहेव परिहीणो । उवसग्गभुत्तिरहिदो सध्वाभिमुहो जिणो होइ ॥ ९९ तह सम्बविज्जसामी छाही देहस्सतह य परिहीणो। मच्छिणिमेसविरहियो महलोमावहिणिवणोर८ ॥१.. घादिक्लयजादेहि य दसभेवहि भदिसएहि जुदो। एवं जो संजादो सो देवो" तिहुयणक्खादो ॥१.१ सार्थक नामोंसे समप्र है वह देव होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८९-९२॥ जो जिन देव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमण, केवल ज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्माणसमय, इन पांच स्थानों (कालों) में पांच महाकल्याणकोको प्राप्त होकर महा ऋद्धियुक्त सुरेन्द्र-इन्द्रोंसे पूजित है तथा स्वेद व मलसे रहित देहका धारक (१-२), गायके दूधके समान वर्णवाले (धवल) उत्तम रुधिरसे संयुक्त (३), उत्तम वज्रर्षभनाराचसंहननसे सहित (४), समचतुरनशरीरसंस्थानसे संयुक्त (५), अतिशय (अनुपम ) रूपसे युक्त (६), नव चम्पकके सदृश सुरभि गन्धसे परिपूर्ण उत्तम देहका धारक (७), एक सौ आठ लक्षणोंको धारण करनेवाला (८), अनन्त बल-वीर्यसे सम्पन्न (९); और प्रिय, हित एवं मधुर भाषण करनेवाला (१०); इस प्रकार इन दश जन्मातिशयॊसे संयुक्त है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार आगमप्रमाणमें निर्दिष्ट किया गया है ॥९३-९७॥ जहां जहां अरहंत भगवान् विहार करते हैं वहां वहाँ चार सौ कोश (एक सौ योजन) प्रमाण देश सुभिक्षसे संयुक्त होकर (१) उपद्रव (हिंसा) से रहित होता है (२) ॥९८।। जिन भगवान् अकाल मृत्युसे रहित होते हुए आकाशमार्गसे गमन करते हैं (३), तथा उपसर्ग व भोजनसे रहित होकर (४-५) सर्वाभिमुख (चतुर्मुख) रहते हैं (६) ॥९९॥ तथा वे सब विद्याओंके खामी (७), देहकी छायासे विहीन (८), अक्षिनिमेषसे विरहित (९) और नखें। व रोमोंकी वृद्धिके विनाशक होते हैं (१०)। इस प्रकार जो घातिया कोंके क्षयसे उत्पन्न हुए इन दश अतिशयोंसे युक्त होता है वह त्रिभुवन में 'देव' विख्यात है .................... उश विसभो. २ उ श अद्भुत्तर सह. ३ उ श कालो.४ उ श निखमणो, क प बणिक्खवणे. ५पब केवलणाणुप्पण्णो. ६ क जिणा, ब जिणे. ७ब कल्लाणे. ८ उ दूठिसमुदओ,श ठिसमुदओ.पब सुरंदईदेहि. १.उ सुसंघधणो, श सुसंपण्णो. ११क पब वरचंपय. १२ उ अणंतवरविरियसंप्पण्णो, श तवरविरियसंपुण्णो. १५ उश सभासंदेसअदिसएहि, प सभावदसअदिएहिं, ब सभावअदिएहि. १४क जो जुत्तो. १५ उ श सव्वण्र होइदि, क सव्वण्हू हो हवदि, प ससघण होहदि, ब ससट्ठाराद् होहदि, १६ उपबश पमाणो. १७ उश णिरवद्दिओ. १८उश लोमाचट्ठिनिट्ठवणो,ब लोमचठिणिठचणो. १९ उ प दसभेदेहि, क दसेहिं भेदेहिं, व दसभेहिं. २०श अदेसएहि. २१वो . Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६) जंबूदीवपण्णती भदिसयवयणेहि जुदो मागधश्रद्धेहि दिवघोसेहि । तस्स दु स्वं दटुं मेत्तीभावो दु जीवाणं ॥ १०२ जस्थच्छह जिणणाहो होदि पुणो तत्थ विउलवणसंडो। सच्चरिदूर्षि समग्गो णाणाफल कुसुमसंपण्णी ॥१.३ दप्पणतलसमपट्टा रयणमई होदि दिम्चवरभूमी । जहिं जहि विहरइ गाहो परमाणदो दुजीवाणं ॥१०४ वादो वि मंदमंदो सुगंधगंधुधुरेण गंधेण । फेडतो वहइ पुणो तणकंडयसक्करादीणि ॥ १.५ जोयणमेत्तपमाणे गंधोदगवुद्धि णिवडइ खिदीए । इंदस्त दु आणाए देवेहि विउग्विया संता॥१०६ वरपउमरायकेसरमउलसुखप्फासकणर्यदलणिचयं । पायण्णासे कमलं पुर-पच्छे" सत्त ते होति ॥ १०७ फलभारणमियंसालीजवादिबहुसारसस्सधिदरोम । हरिसिद इव परधरणी पसंती जिणवरविभूदि ॥ १०८ सरए जिम्मलसलिलं सर इव गयणं तु भादि रयरहिद । छदुइदिसतिमिरादी पहुदि तहा जिम्हभावं च ॥ कंचणमणिपरिणामो भारसहस्सेहि संजुदो दियो । बरधम्मचक्क पुरदो गच्छह देवोद परियरिभो ॥ ११० ॥ १००-१०१ ॥ जिन भगवान् दिव्य घोषवाले अर्धमागधी रूप अतिशयवचनों दिव्यध्वनि) से युक्त होते हैं (१), उनके रूपको देखकर जीवों में मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है (२) ॥ १०२ ॥ जिनेन्द्र देव जहां स्थित होते हैं वहांका विशाल बनखण्ड छह ऋतुओंसे परिपूर्ण होकर नाना फल-फूलोंसे सम्पन्न होता है (३) ॥ १०३ ॥ वहां की दिव्य उत्तम रत्नमय भूमि दर्पणतलके समान पृष्ठवाली हो जाती है (४)। जहां जहां जिनेन्द्र भगवान् विहार करते हैं वहां जीवोंको परमानन्द प्राप्त होता है (५)॥१०४ || वहां सुगन्ध गन्धसे उत्कट ऐसे गन्धसे संयुक्त मंद-मंद वायु भी तृण-कण्टकों व कंवडाको नष्ट करती हुई वहने लगती है (६) ॥१०५॥ एक योजन प्रमाण पृथिवीपर इन्द्रकी आज्ञासे देवों द्वारा विक्रयासे निर्मित गन्धोदककी वृष्टि गिरती है (७) ॥ १०६ ॥ भगवान्के विहार समय पादन्यास करने उत्तम पनाग मणिमय केसरसे युक्त, मृदुल व सुखकर स्पर्शवाले तथा सुवर्णमय पत्रसमूहसे संयुक्त ऐसे कमलकी रचना होती है। वे कमल आगे पीछे सात होते हैं (८) ॥ १०७ ॥ फलभारसे झुकी हुई शाली धान्य व जौ आदि रूप श्रेष्ठ बहुत शस्यरूपी रोमांचको धारण करनेवाली उत्तम पृथिवी मानों हर्षित होकर जिनेन्द्रकी विभूतिको ही देख रही है (९) ॥ १०८ ॥ तालाबमें निर्मल जल और आकाश तालाब के समान रजसे रहित होकर शोभायमान होता है (१०-११), छह और दो अर्थात् आठों दिशायें अन्धकार आदिसे रहित हो जाती हैं तथा जीवों में कुटिल भाव नहीं रहता १२ (१) ॥१०९॥ सुवर्ण एवं मणियोंके परिणाम रूप एवं हजार आरोसे संयुक्त दिव्य उत्तम धर्मचक्र देवोंसे वेष्टित होकर आगे चलता है (१३) १प व अदिसयहिं जुदो मागधदिवेहि घोसेहिं. २ क प ब दिव्व होइ वरभूमी. ३ क पब पउल. ४५ सुक्खसकणय, ब सुक्खकसकणय. ५ क पुरिपिठे, पब दुरपिठे. ६ श नविया. ७ पब जावदि.८ उश विदिरोम, कपब धिदिरोमं. ९पब रइरहिद. १. उशच्छदुइदिसतिमिरादी,क छहइदिसतिमिरादि, पब छडइदिसितिमिरीदी. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३. १२१] तेरसमो उद्देसो जो मंगलेहि सहिदो अदिसयगुणचउदसेहि संजुत्तो । देवकदेहि य दिवो सो एक्को जगवई होइ ॥" छत्तधयकलसैचामरदप्पणसुवदीकथालेभिंगारा । भट्टवरमंगलाणि य पुरदो गच्छंति देवस्स ॥ १२ वेरुलियरयणदंडा मुत्तादामेहिं मंडिया पवरा । देवेहि परिग्गहिदो सिदादवत्ता विरायति ॥ ११३ मरगयदंडत्तंगा मणिकंचणमंडिया मणभिरामा। पवणवसे५ णचंता विजयपडाया मुणेयम्वा ॥ ११४ वेरुलियवज्जमरगयकक्फेयणपउमरायपरिणामा । पप्पुलकमलवयणा कलसा सोहंति रयणमया ॥ १५ कणयमयारुदंडा संखिंदुतुसारहारसंकासा | सुरदेविकरयलच्छी सोहंति य चामरा बहवा ॥ १६ माइश्चमंडलाणिभा जाणामणिरयणदंडकयोहा। देवकुमारकरस्था दप्पणपती विरायति ॥ ११७ जाणाविहवत्येहि य कपसोहा तह य मंडवग्गेसु । देवेहि परिग्गदिदो सुवदीका ते विरायति ॥ १९८ पुष्फक्खएहि भरिदा कुंकुमकप्पूरचंदणादीहिं। रयणमया वरथाला सोहंति विलासिणिकरत्था ॥ ११९ वाजिदणीलमरगयपवालवरकणयरयदपरिणामा । भन्छरसाण सिरस्था भिंगारा ते विरायति ॥१२० अमरेहि परिग्गहिदा पुरदो अटेव मंगला जस्स । गच्छंति जाण होदि हैं सो जगसामी ण संदेहो ॥ २॥ ॥ ११० ॥ जो मंगलोंसे सहित होकर इन देवकृत चौदह (१४) अतिशय रूप गुणों से संयुक्त है वह एक ही देव जगत्का स्वामी होता है ॥१११॥ छत्र, वजा, कलश, चामर, दर्पण, सुप्रतीक (सुप्रतिष्ठ), थाल [बीजना] और भृगार,ये आठ उत्तम मंगलद्रव्य जिनेन्द्र देवके आगे चलते हैं ॥ ११२॥ वैडूर्यरत्नमय दण्डसे युक्त, मुक्तामालाओंसे मण्डित और देवोंसे परिगृहीत श्रेष्ठ धवल छत्र विराजमान होते हैं ॥ ११३ ॥ मरकतमय उन्नत दण्डसे संयुक्त, मणि एवं सुवर्णसे मण्डित, मनको अमिराम और पवनसे प्रेरित होकर नृत्य करनेवाली ऐसी विजयपताका जानना चाहिये ॥ ११ ॥ वैद्य, वज्र, मरकत, कर्केतन और पद्मराग इनके परिणाम रूप और विकसित कमलसे संयुक्त मुखवाले ऐसे रत्नमय कलश सुशोभित होते हैं ॥ ११५ ॥ सुवर्णमय सुन्दर दण्डसे संयुक्त; शंख, चन्द्र, तुषार व हारके सदृश धवल और देवांगनाओंके हाथासे लक्षित ऐसे बहुतसे चामर शोभायमान होते हैं॥११६॥ सर्यमण्डलके समान देदीप्यमान तथा नाना मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित दण्डसे सुशोभित ऐसी कुमार देवों के हाथोंमें स्थित दर्पणपंक्तियां विराजमान होती हैं ॥११७|| मण्डपके अग्र भागोंमें नाना प्रकारके वस्त्रोसे शोभायमान व देवोंसे परिगृहीत सुप्रतीक (सुप्रतिष्ठ) विराजमान होते हैं ॥११८॥ पुष्पों व अक्षतोंमे तथा कुंकुम,कपूर व चन्दन आदिसे परिपूर्ण ऐसे विलासिनियोंके हाथोंमें स्थित उत्तम रत्नमय थाल शोभायमान होते हैं ॥ ११९ ॥ अप्सराओंके सिरपर स्थित ऐसे वे वज्र, इन्द्रनील, मरकत, प्रवाल, उत्तम सुवर्ण और चांदीके परिणाम रूप शृंगार विराजमान होते हैं ॥ १२० ॥ जिसके आगे देवोंसे परिगृहीत आठों मंगलद्रव्य चलते हैं वह निःसन्देह जगका स्वामी है, ऐसा जानो ॥१२१॥ वैडूर्य उपबश देवेहि कदो दिवो. ३ पब धयलस. ३ उश सुवदीकचोल, क सुदीवथाल, पब सुवदीकरोलि. ४ क परिग्गहा, पब परिग्गहिया, ५क पवणवमा ६ उश सुरसंदरियंसपछा, क प सुरदेविकरयलया, ब मुरदेविकरयला. ७श तह य मंडलग्गे दप्पणपती.. उ श णाणामणिवत्येहि. ९उकपबश मंगलागेमु. १.कफक्सदहि, पब फक्वहि...पबदाण दे , Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] जंबूदीवपण्णची [१३. १२२ बेरुलियरयणसंधी पवाममिदुपल्लवपरसाहो । मरगयपत्तच्छण्णो असोयबरपायको दिग्दो ॥ १२२ मंदारकुंदकुवलयणीलुप्पलबउलकमलणिवहा । गुंजंतमत्तमयर णिवरह कुसुमाण वरखुट्ठी ॥ १२॥ सत्तसयकुमासहियभट्टारसदेसमाससंजुत्ता । दिब्वमोहरवाणी मिट्ठिा कोयणाहस्स ॥ १२. कडयकडिसुत्तकुंडलमहादिविहसिदा परमस्वा। जाक्खिदा जिणणाईचामरणिवहेहि विज्जति ॥ १२५ फलिहसिलापरिघडियं कंचणमणिरयणजालविछुरियं । सिंहासणं महग्र्ष सपायपी मणभिरामं ॥ १२५ सयल घणतिमिरदलणं दिणयरसयकारिकिरणसंकासं । भामंडलं विरायह सिहयणणाहस्स णायम्वा ॥ १२. पवळपवणामिनाहयपक्खुमियसमुदघोसघणसई । इंदुभिरवं मणहरं बहुविहसदेहि' संजुत्तं ॥ १९८ वेरुलियविमलदर मुत्तामणिहेमदामलं बतं । छत्तत्तयं विरायइ तिहुपणणाहस्स रमणीयं ॥ १२९ एदेहि बाहिरेहि य भम्भता गुणगणेहि संजुत्तो । सो होदि देवदेवो जो मुक्को कम्मकलुसादो' ॥ १. मोहणिकम्मरस खए साइयसम्म होइ जीवस्स । तह य जहाखादं पुण चारित्तं गिम्मलं तस्स ॥ ११ णाणावरणस्स खए होह भणतं तु केवलं गाणं । विदियावरणस्स खए केवलवरदसणं होई ॥ १३२ रत्नमय स्कन्धसे सहित, प्रवाल रूप मृदु पल्लवोंसे व्याप्त ऐसी उत्तम शाखाओंसे सहित और मरकतमय पत्तोंसे आच्छन्न. ऐसा दिव्य उत्तम अशोकवृक्ष मुशोभित होता है ॥ १२२ ।। मन्दार, कुन्द, कुवलय, नीलोत्पल, बंकुल और कमलोंके समूहोंसे गूंजते हुए मत्त भ्रमरोसे युक्त कुसुमोकी उत्तम वृष्टि गिरती है ॥ १२३ ॥ तीन लोकके प्रभु जिनेन्द्र देवकी दिव्य एवं मनोहर वाणी ( दिव्यध्वनि ) सात सौ कुभाषाओं तथा अठारह देशभाषाओंसे संयुक्त निर्दिष्ट की गई है ॥ १२४ ॥ कटक, कटिसूत्र, कुण्डल एवं मुकुट आदिसे विभूषित और अतिशय सुन्दर रूपसे संयुक्त ऐसे यशेन्द्र चामरसमूहोंसे जिनेन्द्रदेवको हवा करते हैं ॥ १२५।। सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूहसे खचित और पादपीठसे सहित ऐसा मणिमय शिलाके ऊपर रचा गया महाघ सिंहासन मनोहर प्रतीत होता है ।। १२६ ॥ समस्त घने अन्धकारको नष्ट करनेवाला एवं सौ करोड़ सूयों की किरणों के सदृश तेजसे संयुक्त ऐसा त्रिलोकीनाथ का भामण्डल सुशोभित होता है ॥ १२७ ॥ प्रबल पवनसे ताड़ित होकर क्षोमको प्राप्त हुये समुद्र के निर्घोष अथवा मेषके समान शब्द करनेवाला एवं बहुत प्रकारके शब्दोंसे संयुक्त ऐसा दुंदुभीका शब्द मनोहर होता है. ॥ १२८ ॥ वैडूर्यमणिमय निर्मल दण्डसे युक्त और लटकती हुई मुक्ता, मणि एवं सुवर्णकी मालाओंसे सुशोभित ऐसे त्रिभुवनाथके रमणीय तीन छत्र विराजमान होते हैं। १२९ ॥ जो इन बाह्य गुणों [ प्रतिहार्यों ] एवं अभ्यन्तर गुणगोंसे संयुक्त तथा कर्म-मलसे रहित होता है वह देवोंका देव है ॥ १३० ।। मोहनीय (दर्शनमोहनीय ) कर्मका क्षय होनेपर जीवके क्षायिक सम्यक्त्व तथा [ चारित्रमोहनीयके क्षयसे ] उसके निर्मल यथाख्यात चरित्र होता है ॥ ११ ॥ ज्ञानावरणका क्षय होनेपर अनन्त केवटज्ञान और द्वितीय आवरण अर्थात् दर्शनावरणका क्षय ।श मणविसदेहि. २ पर कम्मककिसाबो. ३ इश सम्मत्त. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो उदेसो [२१९ रातराव पाए गमयपदार्ण बोहनीवस्स । गमंतराव साइए हमाम बस १॥ मोगराव बीणे नसेसमोग उहदि णावया । उवमोगकम्म साइए वमोगं होई बीवस्स . विरिवंतराव बीण पर्णतविरिष हमे समुरिह । पयोषकाविडवो सो सम्वन संदेहो ॥ १५ बमरिंदणमियरको भटारससहस्ससीलरो। चुलसीदिसपसहसजिम्मगुणरमणसंपणो ॥१॥ बस्स वषर्ण पमाणं पदस्यगम हवेण सविडं । मोक्खामिकामिणा बलु धेच त परतणे ॥३० होनेपर उत्तम केवलदर्शन होता है ॥ १२ ॥ दानान्तरायके क्षीण होनेपर जीवके क्षायिक बमयदान और लाभान्तरायके क्षीण होनेपर उसके दुर्लम बायिक लाम होता है ॥१३॥ मोगान्तरायके क्षीण होनेपर जीवके समस्त क्षायिक मोग और उपमोगान्तराय कर्मके क्षीण होनेपर क्षायिक उपभोग होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३४ ॥ वीर्यान्तरायके क्षीण होनेपर अनन्त वीर्य प्रगट होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है । जो उपर्युक्त इन नौ केवळलन्धियोंसे संयुक्त होता है यह सर्वज्ञ है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १३५ ।। जिसके चरणों में देवोंके इन्द्र नमस्कार करते हैं तथा जो अठारह हजार शीलका धारक एवं चौरासी लाख निर्मल गुण रूपी रस्नोंसे सम्पम है, उसका तत्वार्थविषयक वचन प्रमाण है। मोक्षामिलाषी जीवको उस (सर्वज्ञ) के द्वारा निर्दिष्ट पदार्थस्वरूपको प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥ १३६-१३७ ।। विशेषार्थ-(१) प्रस्तुत गाथामें जो आप्तके अठारह हजार शीलों व चौरासी लाख गुणोंका निर्देश किया है उनमें अठारह हजार शीलोंकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है१ योग ( मन, वचन व कायकी शुभ प्रवृत्ति), ३ करण ( मन, वचन व कायकी अशुम प्रवृत्ति ), " संज्ञायें ( आहार, भय, मैथुन व परिग्रह ), ५ इन्द्रियां, १० काय ( स्थावर ६ व प्रस १ ) और १० धर्म ( उत्तमक्षमादि)। इन सबको परस्पर गुणित करनेसे उपर्युक्त संख्या प्राप्त होती है । यथा-३ x ३.४४४५४१०४ १० = १८००० । इनके उच्चारणका क्रम निम्न प्रकार है-(१) मनोगुप्त, मनःकरणविमुक्त, आहारसंज्ञाविरत स्पर्शनेन्द्रियवशंगत, पृथिवी संयमसंयुक्त और उत्तमक्षमाधारक; यह प्रथम शीलमेद हुआ। (२) वारगुप्त, मन:करणविमुक्त, आहारसंज्ञाविरत, स्पर्शनेन्द्रियवशंगत, पृथिवीसंयमसंयुक्त और उत्तमक्षमाधारक । इसी प्रकारसे आगेके ततीयादि भेदोंको भी समझना चाहिये। (२) चौरासी लाख गुणोंकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है-हिंसादिक ५, कषाय १, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, पापक्रिया स्वरूप मंगुल ३ (मनोमंगुल, वाल्मंगुल व कायमंगुळ), पवस्वालाम. . उ शकेवमिकविजुदो. १ उकश बहारसता सहस्स. . उप पदसास्सा.उपेटबाप्पयरोणपोत पयरोण, शत बप्पण. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जंबूदीवपण्णत्ती [१३. १२८तेण कहिय धम्म' अर्णतसोक्खस्स कारणं सोएं। तं धम्म घेत्तम्वं सिवमिच्छतेणे पुरिसेण ॥ १३८ भवि चलह मेरुसिहरं चालिज्जतं पि" सुरवरभदेहि । णो जिणवरेहि दि संचलइ पयासिघ सस्थं ॥१९ परमेटिभासिदस्थं उड्ढाधोतिरियलोयसंबई । जंबूदीवणिबद्धं पुवावरदोसपरिहाणं ॥ १४० गणधरदेवेण पुणो अस्थं लद्धण गंथिदं गंथं । अक्खरपदसंखेज मतमस्थेहि संजुत्तं ॥ १४॥ मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पिशुनता, अज्ञान और अनिग्रह ( स्वेच्छाचरण ), इस प्रकार ये २१ सावधभेद होते हैं। इनको अतिक्रम (विषयाकांक्षा ), व्यतिक्रम ( विषयोपकरणोंका अर्जन ), अतिचार (व्रतशिथिलता ) और अनाचार (व्रतभंग ), इन ४ से गुणित करनेपर वे चौरासी (२१४४८४ ) होते हैं । पृथिवीकायिकादि रूप दश कायभेदों को एक दूसरेसे गुणित करनेपर वे सौ (१०x१० = १००) हो जाते हैं । इन सौ भेदोसे उपयुक्त चौरासी भेदोंको गुणित करनेसे वे चौरासी सौ (८१४१०० = ८४०० ) होते हैं। अब इनको क्रमसे १० शीलविराधनाओं, १० आलोचनाभेदों और १० शुद्धियोंसे गुणित करनेपर वे सब भेद चौरासी लाख हो जाते हैं । यथा-८४००४१०x१०x१०८४००००० । इनके उच्चारणका क्रम इस प्रकार है- (१) हिंसाविरत, अतिक्रमदोषरहित, पृथिवीकायिक जनित पृथिवीकायिकविराधनामें मसंयत, स्त्रीसंसर्गवियुक्त, आकम्पितआलोचनादोषसे रहित और आलोचनशुद्धिसे संयुक्त; यह प्रथम गुणभेद हुआ। आगे हिंसाविरतके स्थानमें क्रमशः असत्यविरतादिको ग्रहण कर शेषका ज्योंका त्यों उच्चारण करना चाहिये । इस प्रकारसे २१ स्थानों के वीतनेपर 'अतिक्रमदोषरहित' के स्थानमें 'न्यतिक्रमदोषरहित" बादिको ग्रहण कर पुनः शेषका पूर्वोक्त क्रमसे ही उच्चारण करना चाहिये ( विशेष जाननेके लिये मूलाचारका शीलगुणाधिकार देखिये )। उस सर्वज्ञ देवने जिस धर्मका उपदेश दिया है। वह अनन्त मुख (मोक्षसुख ) का कारण है । अत एव मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषके द्वारा वह धर्म ग्रहण करने योग्य है ॥१३८॥ उत्तम देव सुमटोंके द्वारा चलाये जानेपर कदाचित् मेरुशिखर विचलित भी हो सकता है, परन्तु जिनेन्द्रकेि द्वारा उपदिष्ट व प्रकाशित शास्त्र चलायमान नहीं हो सकता । अर्थात् वह 'पदा के यथार्थ स्वरूपका निरूपक होनेसे प्रतिवादियोंके द्वारा अखण्डनीय है ॥ १३९ ॥ ऊर्य, अधः वतिर्यक् लोकसे सम्बद्ध जो जम्बूद्वीपनिबद्ध शास्त्र है उसका विषय चूंकि परमेष्ठी द्वारा भाषित है, अत एव वह पूर्वीपर ( विरोध रूप ] दोषसे रहित है ॥ १०॥ अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट उपर्युक्त अर्थको ग्रहण कर फिर गणधर देवके द्वारा वह अन्धके रूपमें रचा गया। वह अक्षरों व पदोंकी अपेक्षा संख्येय होकर भी अनन्त अर्थोसे संयुक्त है॥१४१ ॥ आचार्य परम्परासे प्राप्त ......................................... पबधम्मा. कसोई, पबसे1.३उथ सिवमरण, पब सिषमित्रोण.क. ५हकपबश संबंध. ६ उश वर्णवसत्यहि. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३.१५.] तेरसमो उदेसो भापरियपरंपरेण प गंधत्वचेव भाग सम्म । उवसंघरितु' लिहिय समासदो होह णायम्वं ॥ १४२ गाणाणरवहमशिदो विगयभमो संगभंगउम्मुक्को | सम्मईसणसुद्धो संजमतवसीलसंपण्णो ॥१५३ जिणवरवयणविणिग्गयपरमागमदेसमो महासत्तो। सिरिणिको गुणसहिमो सिरिविजयगुरु त्ति विक्खामो॥ सोऊण तस्स पासे जिणवयणविणिग्गय अमदभूदं । रइदं किंचुद्देस' भस्थपदं तह में लद्धणं ॥ १४५ पाउरो इसुगारणगी मंदरसेला हवंति पंचेव । सामलिदुमा य पंच य जंबूरुक्खादिया पंच ॥१४॥ विंसदि अमगणगा पुण णाभिगिरी तेत्तिया समुट्टिा । विसदि देवारण्णा तीसेव य भोगभूमी दु१३ ॥ १७ कुलपब्वदा वि तीसा चालीसा दिसगया गाणेया। सही विभंगसरिया महाणदीहति सदलीया ॥ पउमवहादि य तीसी बक्सारणगा हवंति सयमेगं । सत्तार सय वेदड्ढा रिसभगिरी तेत्तिया चेव ॥ १४९ सदलि सय राजधाणी संग तेत्तिया समुट्ठिा । चचारिसया कुंडा पण्णासा होति णायन्वा ॥ १५० उक्त समीचीन ग्रन्थार्थको ही उपसंहार कर यहां संक्षेपसे लिखा गया है, ऐसा जानना चाहिये ॥१२॥ नाना नरपतियोंसे पूजित, भयसे रहित, संगभेदसे विमुक्त, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध संपम, तप व शीलसे सम्पन्न, जिनेन्द्र के मुखसे निर्गत परमागमके उपदेशक, महासत्त्वशाली, लक्ष्माके भालयभूत और गुणोंसे सहित ऐसे श्री विजय गुरु विख्यात हैं ॥ १४३-१४४ ॥ उनके पासमें जिन भगवान्के मुखसे निकले हुए अमृतस्वरूप परमागमको सुनकर तथा अर्थपदको पाकर कुछ (१३) उद्देशोंमें यह प्रन्य रचा है ॥ १४ ॥ मानुषक्षेत्र के भीतर चार इष्वाकार पर्वत ( दो धातकीखण्डमें व दो पुष्कारार्द्धमें ), पांच मन्दर पर्वत, पांच शाल्मलि वृक्ष और पांच ही जम्बूवृक्षादि भी हैं । वहां बीस ( जं. द्वी. ४ + धा. ८ + पु. ८ ) यमक पर्वत, उतने ही नाभिगिरि, बीस देवारण्य और तीस ( ६ + १२ + १२) भोगभूमियां निर्दिष्ट की गयी हैं। कुलपर्वत भी तीस, दिग्गज पर्वत चालीस (८+१६+ १६), विभंगा नदियां साठ (१२ + २४ + २४), और गंगादिक महानदियां सत्तर ( १४ + २८ + २८) जानना चाहिये । पद्मद्रहादि तीस (६ + १२ + १२), वक्षार पर्वत एक सौ ( २०+ ४० + ४०), वैताढ्य पर्वत एक सौ सत्तर ( ३४ + ६८ + ६८), और ऋषभगिरि भी उतने मात्र (३४+६८+६८)ही है । एक सौ सत्तर (३४ + ६८+ ६८) राजधानिया, उतने (१७०) ही छह खण्ड, तथा चार सौ पचास {(१४+६+ १२) + (२८+ १२८ + २४)+ ................... उश अयारिय, क आयरिय. २ क गंथं तं. ३ क रम्म ४ उश उवसंहरि.थ. ५ उश विगयममु. उश विणिग्गयमागमदेसओ. . उ सिरितिलओ, श सिरियाको ८ उश रिस विजय, पब सिरविजय. कचिोस, पविचिसं, शकिासे. १.उपबश तहब. ११ उइसुगामोतु मगा,श इसुगा तुमगा. १२पणामिगिरीया. १५उपवश मोगभूमीस. १४ उशसट्टि विभंगा सरिया. १५ सय दि. १ पचमवादिवसीया कप पठमवादियसिखा. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] जंबूदीवपण्णत्ती [१३. १५१बावीससदा णेया पण्णासा तोरणा समुट्ठिा । कुंगण णायम्वा महाणदीर्ण विभंगाणं ॥ १५॥ मतादिज्जा दीवा वे उवही माणुसम्मि खेत्तम्मि । अण्णे वि बहुवियप्पा णायवा तस्य जे होति ॥ १५३ महतिरियउड्ढलोएसु तेसु जे हॉति बहुवियप्पा दु । सिरिविजयस्स महप्पो ते सम्ने वणिदो किंचि ॥ १५३ गपरायदोसमोही सुदसायरपारमो मइपगम्भो । तवसंजमसंपण्णो विक्खाओ माघणंदिगुरू ॥ १५४ तस्सेव य वरसिस्लो सिद्धृतमहोवहम्मि धुयकलुसो । णव [तव णियमसीलकलिदो गुणजुत्तो सयलचंदगुरू । तस्सेव य वरसिस्सो गिम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो । सम्मइंसणसुद्धो सिरिणदिगुरु त्ति विक्लामो ॥ १५॥ स्स णिमित्तं लिहियं नंबूदीवस्स तह य पण्णत्ती । जो पढाइ सुणइ एवं सो गच्छह उत्तमं ठाणं ॥ १५७ पंचमहन्वयसुद्धो दसणसुद्धो य गाणसंजुसी । संजमतवगुणसहिदो रागादिविधज्जिदो' धीरो ॥ १५८ पंचाचारसमो छज्जीवदयावरी विगदमोहो । हरिसविसायविहूणो णामेण य वीरणंदि ति ॥ १५९ तस्सेव य वरसिस्सो सुत्तस्यवियक्खणो' मइपगम्भी। परपरिवादणियत्तो णिस्संगो सम्वसंगसु ॥.. सम्मतभिगदमणो गाणे तह दसणे चरित्ते य । परितत्तिणियत्तमणो बलगंदिगुरु त्ति विक्खामो ॥ १६॥ ( २८+१२८ + २४ )} कुण्ड जानना चाहिये । महानदियों, विभंगानदियों और कुण्डों सम्बन्धी तोरण बाईस सौ पचास निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये । उक्त मानुष क्षेत्रमें अदाई द्वीप, दो समुद्र तथा अन्य भी जो वहां बहुतसे विकल्प ज्ञातव्य हैं। इनके अतिरिक्त अधोलोक, तियालोक और ऊर्ध्वलोकमें जो बहुत विकल्प हैं; श्री विजय गुरुके माहात्म्यसे यह। मैंने उन सबका किंचित वर्णन किया है ॥ १४६-१५३ ।। राग, द्वेष व मोहसे रहित; श्रुत-सागरके पारगामी, अतिशय बुद्धिमान् तथा तप व संयमसे सम्पन्न ऐसे माघनन्दि गुरु विख्यात हैं ॥ १५ ॥ जिन्होंने सिद्धान्तरूपी समुद्रमें अवगाहन करके कर्म-मलको धो डाला है तथा जो नवीन [तप], नियम व शीलसे सहित एवं गुणोंसे युक्त थे ऐसे सकलचन्द्र गुरु उनके ही उत्तम शिष्य हुए है ॥ १५५ ॥ इनके ही उत्तम शिष्य निर्मल व उत्तम ज्ञान-चारित्रसे संयुक्त और सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ऐसे श्री नन्दिगुरु विख्यात हुए ॥ १५६ ॥ उनके निमित्त यह जम्बूद्वीपकी प्रज्ञप्ति लिखी गयी है। इसको जो पढ़ता व सुनता है वह उत्तम स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होता है ॥१५७ ॥ पांच महावतोंसे शुद्ध, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, ज्ञानसे संयुक्त, संजम व तप गुणसे सहित, रागादि दोषोंसे रहित, धीर, पंचाचारोंस परिपूर्ण, छह कायके जीवोंकी दयाम तत्पर, मोहसे रहित और हर्षविषादसे विहीन ऐसे वीरनन्दि नामक आचार्य हुए हैं ॥ १५८-१५९ ॥ उनके ही उत्तम शिष्य बलनन्दि गुरु विख्यात हुए । ये सूत्रार्थके मर्मज्ञ, अतिशय बुद्धिमान्, परनिन्दासे रहित, समस्त परिग्रहोंमें निर्ममत्व, सम्यक्त्वसे अभिगत मनवाले और ज्ञान, दर्शन व चरित्रके विचारमें मन लगानेवाले थे ॥१६०-१६१॥ उनके शिष्य गुणगणसेि कलित त्रिदण्ड अर्थात् मन, वचन क सिरिय. २ उश महप्पे. ३ उश विण्णिदा, पब वणिवा. ४ उश धुयकलसो, क-प-प्रतिषु तुगापैवेषाऽनुपलब्धास्ति. ५श रोगादिविवब्जिदो. ६श सत्तत्योवियक्षणो. • उ श णाण, पामे. शपतितिनियमणो. | Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो उदेसो [२५३ तस्स ब गुणगणकलिदो विदररहिदो तिसम्लपरिसुद्धो । तिणि वि गारवरहिदो सिस्सो सिद्धतगयपारी ॥ तपणियमजोगजुत्तो उजुत्तो णाणदसणचरिते । भारंभकरणरहिदो गामेण य पठमणदिति ॥ १६३ सिरिविजयगुरुसयासे सोऊणं भागमं सुपरिसुद्धं । मुणिपउमणदिणा खलु लिहियं एवं समासेण ॥ १६५ सम्मसणसुन्दो कनवदकम्मो सुसीलसंपण्णो । अणवस्यदाणसीलो जिणसासणवच्छलो वीरों' ॥ १६५ गाणागुणगणकलिमो गरवइसंपजिलो कलाकुसको । वारा-गबरस पहू णरुतमा सत्तिभूपालों ॥१६६ पोक्सरणिवाषिपउरे बहुभषणविहूसिए परमरम्मे । जाणाजणसंकिण्णे धणधण्णसमाउले दिवे ॥ १६० सम्माविटिजणोघे मुणिगणणिवहेहि मंडिए रम्मे । देसम्मि पारियसे निणभवणविहूसिए दिग्वे ॥ १६८ जंबूतीवस्स तहा पण्णती बहुपयस्थसंजुत्तं । लिहिय संखेवेण वाराएं अच्छमाणेण ॥ १६९ दुमरथेण विरयं जं कि विवेज्ज पवयणविरुद्धं । सोधंतु सुगीदत्या पक्ष्यणवच्छलताए । ॥१७. पुर्वगविलविरवं वस्थुवसाहाहि मंडियं परमं । पाहुस्साहाणिवह मणिमोयपलाससंछण्णा ॥. व कायकी दुष्प्रवृत्तिसे रहित; माया, मिथ्यात्व व निदान रूप तीन शल्योंसे परिशुद्ध; रस, ऋद्धि आर सात इन तीन गारवोंसे रहित सिद्धान्तके पारंगत; तप, नियम व समाधिस युक्त; ज्ञान, दर्शन व चारित्रमें उद्यक्त; और आरम्भ क्रियासे रहित पद्मनन्दि नामक मुनि (प्रस्तुत प्रन्थके रचयिता) हुए हैं ॥ १६२-१६३ ॥ श्री विजय गुरुके पासमें अतिशय विशुद्ध आगमको सुनकर मुनि पद्मनन्दिने इसको संक्षेपसे लिखा है ॥ १६४ ॥ सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, व्रत क्रियाको करनेवाला, उत्तम शीलसे सम्पन्न, निरन्तर दान देनेवाला, जिनशासनवरसल, वीर, अनेक गुणगोंसे कलित, नरपतियोंसे पूजित, कलाओंमें निपुण और मनुष्योंमें श्रेष्ठ ऐसा शक्ति भूपाल 'वारा' नगरका शासक या ॥१६५-१६६ ॥ प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, बहुत भवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, नाना जनोंसे संकीर्ण, धन-धान्यसे व्याप्त, दिव्य, सम्यग्दृष्टि जनोंके समूहसे सहित, मुनिगणसमूहोंसे मण्डित, रम्य और जिनभवनोंसे विभूषित ऐसे दिव्य पारियात्र देशके अन्तर्गत वारा नगरमें स्थित होकर मैंने अनेक विषयोंसे संयुक्त इस जम्बूद्वीपकी प्रज्ञप्तिको संक्षेपसे लिखा है ॥ १६७-१९९ ॥ मुझ जैसे अल्पज्ञके द्वारा रचे गय इसमें जो कुछ भी आगमविरुद्ध लिखा गया हो उसको विद्वान् मुनि प्रवचनवत्सलतासे शुद्ध करलें ॥ १७ ॥ अंग-पूर्व रूप विशाल विटपसे संयुक्त, वस्तुओं (उत्पादपूर्वादिके अन्तर्गत अधिकारविशेषों) रूप उपशाखाओंसे मण्डित, श्रेष्ठ, प्रामृतरूप शाखाओंके समूहसे सहित, अनुयोगों रूप पत्तोंसे व्याप्त, अभ्युदय रूप प्रचुर बतो . २ उश परितो । पव परिसर ४क रहयं. ५ कबीरा.पचारानयरस्स. क संतिभपाउसमा दिब्बो, समालो दिव्यो. नोपलभ्यते गायेयंकप्रतो. परियो. १. कपब एय. १२ उशबारए. कविचे. उशमुगीदत्वा तं पबयणवताए. १५अश पसारण. उशपाहण्यादाहिबई...श पानसभण. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदीवपणती जाभुपबामपन मिस्सयससमदसायकणिव । सुददेवदामिरमसुरप्पाई गमंसामि ॥ १.१ पाणुणसवलपर संजमउत्तुंगरम्मिसंघार्य । निम्मलतवपायाल समिदिमहामसंकणं ॥1॥ अमणियमदीप बरगुत्तिगंभीरसीलमज्जाद। जिब्याणरयणणिवई धामसमुई जर्मसामि ॥१.५ पणषादिकम्मदलणं केवलपरणाणदसणपईव' । मध्यवर्णपटमबंधु तिलोयणाई गुणसमिदं । १०५ विबुधवईमरमणिगणकरसकिळसुधोपचारुपयकमळ | वरपउमणंदिणमियं वीरजिणि णमंसामि ॥10॥ इय जीवपण्णत्तिसंगहे पमाणपरिग्छेदो णाम तेरसमो उद्देसी समत्तो ॥३॥ पुष्पोंसे परिपूर्ण, अमृतके समान स्वादवाले निश्रेयस रूप फलोंके समूहसे संयुक्त और श्रुतदेवतासे स्क्षणीय ऐसे श्रत रूप कल्प-तरुको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १७१-१७२ ॥ सुन्दर गुणों रूप जलकी प्रचुरतासे संयुक्त, संयम रूप उन्नत ऊर्मिसमूहसे सहित, निर्मल तप रूप पातालोंसे परिपूर्ण, समितियों रूपी महामत्स्योंसे व्याप्त, यम-नियम रूप प्रचुर द्वीपों (जलजन्तुविशेषों) से संयुक्त, श्रेष्ठ गुप्तियों एवं गम्भीर शील रूप मर्यादासे सहित और निर्वाण रूप रत्नसमूहसे सम्पन्न ऐसे धर्म रूप समुद्रको में नमस्कार करता हूं ॥१७३-१७४॥ दृढ़ घातिया कोंको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञान व केवलदर्शन रूप उत्तम दीपकसे युक्त, भव्य जनों रूप पोको विकसित करनेके लिये सूर्य समान, तीनों लोकोंके अधिपति, गुणोंसे समृद्ध, विबुधपतियों अर्थात् इन्द्रों के मुकुटोंमें स्थित मणिगोंके किरण रूप जलमें भले प्रकार धोये गये सुन्दर चरण-कमलोंसे संयुक्त और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत ऐसे वीर जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥१७५-१७६ ॥ . .. ॥इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंप्रहमें प्रमाणपरिच्छेद नामक तेरहवां उद्देश समाप्त हुआ ॥ १३ ॥ उ निस्सेयसअमदमाफल, श मिस्सेयअमदमादफल. १ श देवदाभिरुक्. । पब चारणगुण. ४कसंयम. ५ उशपदवं उश भब्वायण. ७ पबतिलोयणाम ८ उश विउधवा. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 29 ५ ११ १४ "" १६ ३२ ३३ ३८ ४२ 33 M ४३ "" : ८० ५६ ६१ ६३ ७० ८७ ८८ ९५ ११० ११२ १३३ १४३ पंक्ति १६ २७ २६ ५ १२ १३ ७ २० २१ ११ २ ४ २२-२३ ५ ११ १८ " ८ ७ ५ 33 १६ v ४ २१ शुद्धि-पत्र अशुद्ध दिशामें वैजयन्त ६ कोश, ७५३२ नदीपरिवार शून्यको अपवर्तित कर जीवाओंका 웃음 बलही मडव २४९३ भोजन दसमजिदे सचाहिं कछाहि गवंता पादरक्खा संयुक्त, श्री देवीके... श्री देवी की जिणपडिद विमानवासी देवों में उसके वर्ग में अवसे अड्डे व दिव मणिमालाविष्फुरंत जल्लरि विमानछद - रयणसंवैछष्णा संखेणेव य उससे आगे के भाग में शुद्ध दिशामें अपराजित ३ कोश, १५३२ ६४ नदियोंका परिवार समान शून्योंको कम कर जीवाओंकी चूलिकाका बलही मंडव २४९३२ रु योजन दसभजिदे सत्तहि कच्छा हिं गनंता पाद [याद] रक्खा संयुक्त ऐसे चार तेजस्वी देव श्री देवीके आत्मरक्षक हैं जो बहुत प्रकारके योद्धाओंसे सहित होकर श्री देवीकी जिणपडिम विमानवासी अर्थात् देवोंमें उसके आधेके वर्गमें अवसेसेसु अट्टेव दिवड्ढ मणिमाला विष्फुरंत झल्लरि विमानछन्द - रयणभवणसंछण्णा संखेवेण य उसके पश्चिम भागमें Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ शुद्धि-पत्र ११५ २११ २१७ २३२ २३५ २३६ देवक ॥ १४-१६॥. .. जवगोहुभरिसिभसमान वर्तुलाकार तथा इन्द्रकी ४......पण्तरतरि संखब्बाजिसम तज्ञान जरा आदिसे जगोत्तंग देवके ॥ ११४-१६॥ नवगोहुमरिसम- - समान स्थित हैं तथा इन्द्रककी २......पण्णहसरि मंखेबाजिसमें श्रुतज्ञान ज्वर आदिसे जगोत्तुंग لا 0mm ل Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथांश अइउज्जलरूवाश्र इससे सविहं अगरुयतुरुक्क चंद्रणअगरुयतुरु*कचंदरणश्रच्चन्भुदइड्ढिजुदा अच्ची य श्रच्चिमालिणि अच्छोप्पिए अ अजियं श्रजियमहप्पं अट्टगुणम हिड्ढीओ अट्ठण्हं जमगाणं " अट्ठत्तीसद्धलवा अट्ठत्तीस सदाई अट्ठद्धकम्मरहियं अट्ठद्धसिहरसहिश्रो अटूट्ठम य भरहकूड़ा अट्ठ य परणट्ठसोया अट्ठविहकम्ममुक्का अट्ठविह कम्मरहिए अट्ठसदा बादाला अट्ठसयं भट्ठसयं " 33 "3 "" अहस्सेहिं तहा अट्ठारसजोयणिया अट्ठारस य सहस्सा 33 अट्ठारहकोडीं अट्ठावीससदाई अट्ठावीससहस्सा अट्ठावीसं च सर्द अट्ठावीसं रिक्खा श्र गाथानुक्रमणिका गाथा उद्देश ४ ३ ५. ११ ११ ११ ११ २ ११ ११ ११ १३ ११ १० ε २ ११ ११ १ ११ ५. ६ ५ ११ ११ १२ ७ ११ ११ ३ १२ १४३ ?? २४६ | अट्ठावीसाहि तहा ८० | अट्ठावीसाहिं तहा २४६ गाथांश अट्ठावीसाहि तहा २१० २५४ | ३० 33 अट्ठावीसेहि तहा ३०७ ३३८ | श्रठुत्तरसयसंखा १७४ | अट्ठेदालसहस्सा 39 ," " "9 टूट्ठेव जोयणसदा अट्ठेव जोयणाई ७६ 33 39 ६ अटठेव जोयणे य २६ | ठेव दिसगइंदा १०२ | अट्ठेव य उव्विद्धा अट्ठेहि जवेहि पुणो ६२ १७ ३० ६६ १७६ ५.१ अटूट्ठेहि तेहि या २४० अट्ठेहि तेहिं दिट्ठा ३६४ | अट्ठोत्तरसयसंखा २ "" 33 93 "" अडदाला सत्तसया १३ ३३ १६५ | अडवीससयणदीर्णं ११३ "" "" प्रडसट्ठा छच्च सया ठिकुमुद संणिभडसट्रिट्ठसय सहस्सा अडससिया या अड सोला बत्तीसा डढादिज्जा दीवा २७ | २८ अणियाणं सत्तएछ य २३ | श्रणुगुरुचावविसेसं १०६ | अण्णाण तिमिरदलणो उद्देश wwww r ५.. ६ ७ १२ ३ ४ ૫ १ २ १३ १३ १३ ३ ૫. ६ २ २ ११ ४ ११ ४ ४ ३ १३ ११ २ १ गाथा ३१ ६२ १२६ ४९ १११ १६३ २३ १६५ ४७ २ ५२ ५.१ ૫૦ ५८ Τ २३ २१ २० १२१ २८ ७३ ३४ १०१ ३७ २०३ ३३ १६१ १६७ १६५ १५२ २४१ ३० ७४ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w अण्णेसि पव्वद्राणं अण्णोरणगुणेण तदो अरणोएणगुणेण तहा अएणोएणब्भत्येण य जंबूदीवपएणसी १०० | अवगाहा सेलाणं ७८ | अवणिय कुंडायाम ५५ | अवरविदेहाण तहा ६४ अवरं च पिट्ठणामं २२२ अवराजिदणगरादो પ૭ श्रवराणि य अण्णाणि य. ७४ अवरे अणोवमगुणा ११६ अवरेण तदो गंतुं अत्थं बहुयं चिंता પદ ११० १०२ ११३ ४६ १०८ م م مه به ه ه ه ه ه ه س له سه ر سه مم ه ه ه ه ه ه ه ه ه م مه سه ير ه س ع م ه م ه ه ३०० १४२ अत्थाणम्मि य पडियं अदिकोहलोहहीणा अदिमाणगव्विदाश्रो अदिसयरूवाण तहा अदिसयरूवेण जदो अदिसयवयणेहि जदो अट्ठकम्मरहियं अद्धत्तरसजोयण 'पद्धविमाणच्छंदा श्रद्धठकोससहिया श्रद्धट्ठा कोडीओ अप्पबहुलम्मि भागे अभंतरपरिसाणं अभंतरम्मि भागे अभं तह हारिहं अब्भुदयकुसुमपउरं अभिमुहणियमियबोहण अमरिंदणमियचलणं अमरिंदणमियचलणो अमरेहि परिग्गहिदा अमलियकोरंटरिणभा अरविवरसंठियाणि अरविंदोदरवण्णा अरहतपरमदेवा अरहंतपरमदेवेहि अरहंतपरमदेवो अरहंताणं पडिमा अवगहिदत्थस्स पुणो अवगाढो पुण णेओ ८७ ebs". Usuu wwwwwwwwwwwwwcom १०१ २१० १७२ ૫૬ १६८ १३६ १२१ अवरे वि य सेयणिया ५७ अवरो वि रहाणीओ १८० अवसप्पिणिम्मि काले १७० अवसेसइंदियाणं अवसेसतोरणाणं ११३ | अवसेससमुदाणं श्रवसेसं जं दिट्ठ २३ । अवसेसाण वणाणं १७८ ४० २४ १२६ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवसेसा पुढवीओ अवसेसा वि य या अवसेसा वि य देवा वि चलs मेरुसिहरं असिपरसुकरणयमुग्गरअसुराणामसंखेज्जा असुरा गागसुवण्णा असुरेस सागरोवम अतिरिय उड्ढलोएस महमहं ति राज्जह अहमिंदा वि य देवा वा आय पुण अहवि दु लदा लदा विय सो सुरिंदहत्थी श्रहिसेयराट्टसालाकमुह संठिदाई अंजणगिरिसरिसाणं अंजरण दहिमुद्दरइयरअंतररहियं वरिसइ तादिममही मुद्दा खलु सादु समुप्प अंसो श्रंसगुणेण य श्रइच्चदेवसहि इच्चमंडलग्भिा इच्चारण वि एवं आइरियपरंपरया उट्ठी व तारणं आऊरिण पुव्वकोढी आणदपाददेवा आदिमकच्छ गुणिदे श्रभिणिबोहियराणी श्रायरियपरंपरेण य मायामं विक्खंभं श्रायामो दु सहस्सं आरत्तकमलचरणा आ ११ ४ ૫ १३ ३ ११ ११ ११ १३ ६ ४ ५. १३ ४ १ ११ ७ ३ ७ १३ ११ १२ १२ ε १३ १२ १ ११ २ ११ ४ ११ १३ ७ ३ ६ गाथानुक्रमणिका १२१ | आरे मारे तारे २७४ श्रावलि असं समया १०६ आहार अभयदारां आहारदाण गिरदा १३६ आहारसरणपउरा १४४ १२४ १३८ १५३ १११ २७६ इगि उदिसदसहस्सा इगितीसं च सदाईं इगितीसं च सहस्सा इगितीसं च सहस्सा १४ २५.३ इगितीसा जव य सदा इगिदालसयसहस्सा इगिदालीससहस्सा ३३ | इगिवी सेक्कारसं १० इच्छगुण रासियाणं ६५ | इच्छागुण विरोया ३७ | इच्छाठाणं विरलिय १३६ | इट्ठा कंताश्र १६ इट्ठाणि पियाणि तहा इसुरहिदं विक्खंभ ७२ | इसुवग्गं चउगुणिदं इसुवग्गं छहि गुणिदं इह होइ भरहखेत्तो १२१ | इंदपुरीदो वि पुणो ११७ इंदविमाणादु पुणो ७० ३४ | इंदस्स दु को विह १८ | इंदा सलोयवाला ३५० इंदो वि देवराया १७८ इंदो वि महासत्तो ३४६ १७२ २५५ ईसा दिसाभागे १४२ | ईसारणविमाणादो = ईसागिंदपुरादो ७३ ईसागिंदो वि तहा १५१ | ईहिदत्थस्स पुग्यो ११ १३ २ २ १० ११ i o to w x ∞ ∞ ४ ४ ४ ३ ११ ११ १२ ४ २ ४ ११ ४ २ ६ २ ११ ११ ११ ४ ४ ४ ४ ११ ११ ४ १३ १५३ ૫ १४८ १४६ ७१ પ ३८ ३६ ३७ १६ १२ ७० १०३ २०५ १८ २२१ २६२ २६२ २३ ७ १० २ २६७ ३२० २६४ १२४ २५२ १५४ १४८ ३१७ ३२२ २७१ પ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR RAN " ५५ ur १८६ उअवाससोसियतणू उगाहईहावायाउग्गाढेहि विहूणं उच्चत्तण सहस्सा उच्छंगदंतमुसला उच्छंगदंतमुसला उच्छेहअंगुलेण य उच्छेहअंगुलेहि य उच्छेहं पंचगणं उच्छेहं विगुणित्ता उच्छेहा श्रायामा २५७ ८४ ११० २३६ १६६ marrot nor 9 cw WWWW Noche occ0m १२८ ३५४ १०३ १५४ ४१ १४२ ४८ जंबूदीवपएणत्ती | उत्तुगर्दतमुसला ૨૫૦ उत्तगभवण णिविहा | उत्तुगमुसलदंता उदधी वि होंति तेत्तिय उदयंतभाणुसंणिभउद्धारे जं रोम उप्पज्जति चवंति य उपज्जति महप्पा उप्पलकुमुदाणलिणा उभिएणकमलपाडल उभयतडेसु णदीरणं ६४ उम्मग्गणिमग्गजला १२३ उवरि उवरिं च पुणो उवरीदोणीसरिदो ५४ उवजिदूण जुवला उववण काणणसहिया २७६ उववादघराणेया उववाससोसियतण उवहिस्स दु आदिधणं उवहिस्स पढमवलए १३१ उन्वुडसरावसिहरो १६० उसभजिणिंदं पणमिय १७० एकतीसदिम पडलं एकारसठ्ठतीसा एक्कतीसं पडलाई एक्कं खंडो भरहो एक्कं च तिरिण तिरिणय एक्कं च तिषिण सत्त य एक्कं च सदसहस्सा एक्कं च सयसहस्सा १४१ एक्कं तु उडुविमाणं एक्कं पि साहुदाणं १२२ एक्कादीरूवुत्तर एक्केक्कदिसाभागे १६० एक्केक्कम्मि गुहम्मि दु ३०८ | एक्केक्कम्मि गुहम्मि दु १५१ १३७ उच्छेहेण य णेया उज्जाणजगइतोरण उज्जाणभवणकाणण उज्जुदसत्था सव्वे उड्ढं गंतूण पुणो उणतीसजोयणसया उणवीसगुणं किञ्चा उणवीसा एयसयं उएणयपीणपोहरउत्तरकुरुदेवकुरू उत्तरकुरुमगुयाणं उत्तरकुरुम्मि मझे उत्तरकुरूसु पढमो उत्तरदक्खिणपासे उत्तरदिसाविभाग उत्तरदिसाविभागे उत्तरदिसेण गोया उत्तरधणमवि एवं उत्तरधणमिच्छंतो उत्तरपच्छिमभागे उत्तरपच्छिमभागे उत्तरमुहेण गंतुं उत्तरलोयड्ढवदी उत्तरसेढीए पुणो २१३ ४० २१८ -9 Mor or ur aouraru ur20Cour Ec १७८ १६ १६५ ३५७ ३२७ c06.00 ४२ ६५ २५६ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका १३० ३३६ ३४१ एक्केक्कम्मि दम्मि दु एक्केक्कम्मि य दंते एक्केक्कवरणगाणं एक्केक्कविहेसु तहा एक्केक्कस्स विमाणस्स एक्केक्काण दहाणं एक्केक्काणं अंतर ४१ / एदेण कारणेण २५७ । एदे पंचविमाणा ६७ / एदे विमाणपडला ७२ | एदेसिं चंदाणं ३४३ | एदेसिं पल्लाणं १४४ | एदेसु लोगवाला | एदेसु विणिहिट्ठो १२० एदे सोलस दीवा २४ एदेहि बाहिरेहि य एमेव दु सेसाणं एय दुय चदुर अठ्ठ य एयं च सयसहस्सं | एयं च सयसहस्सा سد ہ ہ ہ ہ ہ ہ ہ ہ ہ س م س ३०५ १७३ १६३ ८२ १३० १८ १६७ १२८ १२६ एक्केक्का ताणं एक्केक्के पासादे एक्को य चित्तकूडो एगठ्ठ णव य सत्त य एगठिभाग जोयणस्स एगणवसत्तछच्चदुएगत्तरि बिरिणसदा एगत्तरि य सहस्सा एगसहस्सं अठुत्तरं एगं च सयसहस्सं एगं बाणउदी च य एगाहि बीहिं तीहि य एगुत्तरणवयसया एगेगअट्ठवीसा एगेगकमलकुसुमा एगेगकमलकुसुमे एगेगकमलसंडे एगेगम्मि य गच्छे एगेगसिलापट्टे एगोरुगवेसाणिगएगोरुगा गुहाए एगोरुगा य लंगोलिगा एदम्मि कालसमये एदिम्म मज्मभागे एदम्हि अंतरम्हि दु a com o me e o o o o o x oc a v w woco no ovom man m n o wa x m एयाओ देवीओ एयारसट्ठणवणव एरावणो त्ति णामेण एलातमालचंदणएलामिरीइणिवहो एवं अवसेसाणं ه ه ه ه ه ه ه م سه س ११४ २६६ ३६ २८८ ७६ ४८ ४५ १४५ २२१ ११२ ११ ६६ १४४ १५ २६० २६१ एवं आगंतणं ૨૫૬ एवं आदिश्चस्स वि २५६ एवं उत्तमभवणा एवं एसो कालो ५१ एवं कमेण चंदा ५८ एवं काऊण वसं एवं चेव दुणेया १७६ एवं छिंदणभिंदण१६८ एवं जे जिणभवणा | एवं जोदिसपडल३४ | एवं णागाणीया १३५ एवं तु भद्दसाले १०६ एवं तु महड्ढीओ २१२ | एवं तुरयाणीया ३३ १२१ ر ه ه ه ه ه ه ه ه ه ه १७६ ६३ एदाओ णामाश्रो एदाओ देवीयो एदे एक्कत्तीसं ५ . ११ ४. ६३ २१२ ७२ २६५ १६२ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं तु सुकयतवएवं ते कप्पदुमा एवं ते देवगणा एवं ते देववरा एवं थोऊण जिणं एवं दुगुणा दुगुणा "" " एवं पत्तविसेसं एवं पि आणिकरणं एवं पुव्वदिसाए एवं पूएऊ एवं महाघराणं एवं महारहाणं एवं मेलविदे पुण एवं रूववईओ एवं वेदड्ढे य एवं सत्त विकच्छा एवं सोमणसवणे एवं होदित्ति पुणो एवं होंति त्तितदो एसा दुरियसंखा एसा विभंगसरिया एसेव लोयपालाण एसो कमो दुजा ओगाढूणविखंभं श्रगाढो वज्जमओ ककुदखुर सिंगलंगुलकक्केयणमणिणिम्मियकच्छपमारणं विरलिय कच्छाए कच्छाए कच्छाखंडाण तहा कच्छाणं पुत्रवे कच्छाविजयस्स जहा कडकडिसुत्तकुंडल श्रो ११ २ ४ ११ પ્ ३ ११ २ १२ ५ પ્ ३ ४ १२ ४ २ ४ ४ १२ १३ ११ ४ १२ ६ ४ ३ ४ ४ ४ ७ 66 ८ १३ जंबूदीवपत्ती ३०२ | कडिसिरविसुद्ध सेसं १३७ 39 २८१ | कडिसिरविसे सश्रद्धहि ३२४ | कडित्तकडयकंठा ११६ 99 Xxx mm १०५ कयमयचारुदंडा कयमयवेदिविहा २७८ १५२ कयमयवेदिविहो ८१ २२ ५७ ११८ १३७ १८१ ५.३ कणयादवत्तचामरकण्णकुमारी ण घरा २६७ करणारयणेहि तहा ७४ कणाविवाहमादिं २४२ | कप्पतरुजणियबहुविह १२५ कप्पतरुधवलछत्ता ६२ कप्पतरुसंकुलाणि कप्पूरणियररुक्खा १४४ कप्पूरेणियररुक्खो ७६ ५.० २५० ४६ कप्पूरागरुचंद कप्पूरागरुविहं कप्पे असंखे कब्बडणामाणि तहा कब्बड मडंबणिवहो " "" " करण्यमया पासादा 35 "" 33 "" "" 55 कमलाभवेदिणिवहो " १०८ कमलुप्पलसं करणा कमलेसु तेसु भवणा १७८ | कमलोयरवाभा २०४ कम्मघराबद्दल कक्खड - २०६ कम्मोदएण जीवा ७३ | करवालकोंत कप्पर२ | करिसीहवसहृदप्पल७१ कलमबहुपोसवल्लिय१२५ कल्हारकमलकंदल ४ ४ ४ - ११ १३ ४ ४ 6 ू १० ४ २ ६ ३ ४ ५ ε Www rut or ১০ g m ১o wor ८ ε ६ २ ४ ४ ३२ १३५ ३६ ६७ १३३ ११६ ३० १०० १२० ५६ ६० ६३ १७६ १०७ १४५ ७७ २६ 3 ४६ १३ ४५ १६ १८६ २०५ ૫ १३४ १०३ ७१ ६६ ३३ ६८ ३० ७६ ६० २३८ ६५ ३६ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्दार कमलकंदल "" 39 कह कीर से उवमा कंकणपिणद्धद्दत्था कंचणकयंबकेयइकंचणणगाण या कंच दंडुरंगा कंचणपवालमरगयकंचणपायारजुदा " कंचणपासादजुदा "" 25 कंचणमश्र विसालो कंचणमओ सुतुंगो कंचणमपिरिणामो कंचणमणिपायारा कंचणमणिरयणमया 35 "" "" " " कंचणमरगयविमकंचणवेदीहि जुदा कंचणसोवाण जुदा तेहि कोमले ह कंदर विवरदरी वि कावणजुत्ताण कालगदा विय संता " कालसमुदहुदी कालसमुद्दस्स तहा कालागरुगंधड्ढा " कालो परमणिरुद्धो काविट्ठो वि इंदो किरण होइ हाणी किब्बिसदेवारण तहा कुमुदविमारणारुढो कुलगिरिखेत्ताणि तहा कुलदेवदाण पासं २ Ε ११ ४ २ ६ ४ १ ८ swis is wi १३. २ ૫ ६ ur or ११ is wis ८ ४ ११ ८ ३ ११ ११ ३ ११ १३ Ч १० - ५ २ 6) गाथानुक्रमणिका ८२ | कुलपव्वदा वि तीसा ४७ कुलपव्वदेसु एवं २२३ कुसुमाउहव्व सुभगा २७८ | कुंडाण तह समीवे ८१ कुंडा पायव्वा ४८ कुंडा मिहिठा २३६ | कुंडेहि णिग्गदाओ ३४ कुंथुजिगिंदं परणमिय ७३ १६७ १०६ १६८ कुंदे दुखवणा कुंदेंदुसंखवगणो कुंदेंदुसंखसंणिभ कुंदेंदुसंखहिमचय २२ कडेसु होंति दिव्वा १४८ | केई कुंकुमवरणा को एदा मस्सो ११० ६० कोडी सत्तावीसा कोडीसय छन्भहिया ३५. १०५ | कोदंडदंड सव्वल - २४८ को व अणोवमरूवं १५४ | कोसद्धं उच्छेदो १२८ कोसं श्रायामेण य १६ "3 २६६ | कोसेक्कसमुत्तुगा १६६ ५४ खइश्रो एयमणंतो २३८ | खम्गसहस्वगूढं ४४ खट्टिक्कडों बसबरा ५६ खरपवणघायवियलिय "" ५४ | खरभागपंकबहुला १०० ६३ खंभे होंति दिव्वा ४ खीरवरणामदीवे खीरवरे आदीए खीरोदसमुद्दम्मि दु खीला पुण विष्णेया २० ८४ १०८ | खुज्जा वामणरूवा खुहजिंभणेहि मणुया १३४ | खेडेहि मंडिओ सो १३ ७ १ ७ १० २ = ३ २ २ ११ ४ ४ ∞ m 2 m m w a ३ ३ ३ ६ ११ १३ ११ २ ४ ११ પ્ ~ ~ ~ ~ ~ 15 १२ १२ १२ १२ २ २ ८ ७ १४८ ६० ११४ २१ ६० ६४ ૫ १ ५६ ८० १६४ १२० ५६ ८५ ३१५. २६८ १७० ६६ २३३ १६५. ७७ १५६ ५४ ४६ २२८ २०१ १८५ ११५ ५४ ३९ २७ २८ १०५ १६८ १५६ ५७ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ खेत्तादिकला दुगुणा खेमपुररायधारणी खेमा पुराविया गगणे पुणो वच्च गणरातीदेहि पुणो गरणरणादी दाण तहा गणधरदेवेण पुणो भादो ते मण्या गब्भावयारकाले गरजुवइम जगगयरायदोसमोहो गयवरखंधारूढो गयवरतुरयमहारह गयवरसीहतुरंगा गरुढविमारणारूढो गलसंखलासु बद्धा गंगाकूडमपत्ता गंगाकूडे गंगा जम्हि दु पडिदा गंगाजलेण सित्तो गंगादीहि रम्मो गंगादी दियाi गंगादी सरियाओ गंगा परमदहादो गंगा या रोहिदा सा गंगासिंधूतोरण गंगा सिंधू य तद्दा गंगासिंधू वि तहा गंगासिंधू सरिया गंगासिंधूहि जदो गंगासिंधूहि तहा 33 33 गंगासिंधूहि तहा "P "" गंतूर गीलगिरिदो ग 6 १३ २ ४ १३ १० १३ ४ १३ ૫ ३ २ ५ ११ १३ १ ३ ह ε ११ २ ३ ३ ३ ε ISIS IS is w w w ८ २ ६ ६ जंबूदीवपत्ती १५ | गंतूण तदो अवरे ११ गंतरण तदो पुव्वे १११ ६६ २०४ २० १४१ το ६० ११७ १५.४ ६३ 93 १०५ गंधव्वाण अणीया गाउ आयामेण य गाउ दल विक्खंभा गाउदचउत्थभागो १०१ १६२ १०४ गाउय तह सयचउरो गाउवतिरिण वि जाणसु गामारणुगामणिचिश्रो गायंति महुरमणहरगायंति य एवंति य गिरिकूडवरगिहेसु य गिरिवरकडेसु तहा गिरिवरसिहरेसु तहा १५४ गिरिसीसगया दीवा १७३ १४८ ७२ २६ गिअंगदुमा या ११५. 33 "" गंतण दीवणियडं गंत पच्छिमदिसे गंधड्ढकुसुममाला गंधव्वगीयवाइय पू७ ४६ गुणगारभागद्दारा गुणगारे विभत्तं ६१ गेवज्जादि काउं १४७ | गोउरदारसहस्सा १९२ | गोउरदारेसु तहा १७६ गोउरसहस्स पउरो ४८ गोखीरकुंदहिमचय १७६ | गोदुमणामो दीवो ६३ | गोमेसमेघवदणा १३३ | गोसीसमलय चंद‍ 39 "" " " " १८ ६६ घणघादिकम्मदलणं २६ | घणसमयघण विणिग्गय घ ང yuyu 915 20 ४ ५. ४ २ ६ १२ १३ १ ८ ४ ११ ४ ३ ७ १० २ १२ ५. ११ ह १ ४ १० ११ ३ ५. ११ १३ ४ १०३ २६' ६४ ११६, ११४ २८० રા ५६ १३३ २३२ २६३ १०६१ પૂર ૫૦ १३१ ६० ३४२ १६६ ७३. ४१ २४० ४३ ५३ २०५ ११५ २३६ १७५. २६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका घणसमयजणियभासुरघदवरदीवादीए घंटाकिंकिणिणिवहा २४१ | चक्कंतमचक्कंतो २६ चत्तारिकूडसहिओ १७३ | चत्तारि अठ्ठ सोलस चत्तारि कला अधिया ८१ चत्तारि जोयणसदा Kor w FO १४८ १७६ १६६ २८ १७० घंटाकिंकिणिबुब्बुदघंटापडायपउरा घादंता जीवाणं पादिक्खयजादेहि य चत्तारि जोयणसया चत्तारि तुंग पायव चत्तारिधणुसहस्सा our m lugu or an ornsr Me १६८ २६ ३१ ६६ २४३ घउकूडतुंगसिहरो चउचउसहस्स कमला चउजोयणविक्खंभं चउणउदिजोयंणाणि य चउणउदिं च सहस्सा ur ur 9 १ ॥o M चउथम्मि कालसमये चउथा य माणिभद्दा चउथे पंचमकाले ૫૦ १६२ + so we ११२ चउदस चेव सहस्सा चत्तारिलोयवालाण चत्तारिसदेगत्तरि चत्तारिसया णेया २७ चत्तारिसया तुंगा चत्तारिसहस्ससुरा १७७ चत्तारिसहस्साई चत्तारि सहस्साणि दु १६१ चत्तारिसहस्सेहि य चत्तारि सागरोवम चदुकूडतुंगसिहरो १३६ | चदुकोडिजोयणेहि य चदुगुणइसूहि भजिदं | चदुगोउरसंजुत्ता | चदुदालसयं आदि १४६ चदुरमलबुद्धिसहिदे ७२ चदुरुत्तर चदुरादी १४७ चदुसठ्ठिलक्खभजिदं चदुसटिंठ चुलसीदी | चसुण्णएक्कतियसत्तचदुसु वि दिसाविभागे ५३ २६ u १०१ १६ d चउदसमहाणदीणं चउदालसदा ऐया चउदालीस सहस्सा चउरो इसुगारणगा चउरो चउरो य तहा चंउविहदाणं भणियं घउविहसुरगणणमियं घउवीस वि ते दीवा चवीसविभंगाणं દુ १२५ २० or १६२ ८२ ५१ ११ चउवीससहस्साओ चउवीससहस्सेहि य 'चउसटिंठ च सहस्सा घउहत्तरि छ सया चकहरमाणमहणा ru min' चदुसु वि दिसासु चउरो चदुसु वि दिसासु चत्तार चदुसु वि दिसासु भागे | चदुरो य महीसीणं १०७ | चम्मरयणो ण बुड्डा २६ ६५ or or ६६ १४२ , Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० चंदणे वचगे चावि चंदस्स सदसहस्स चंदो वसो कमलो चंपय सोय गहणं चंपय सोयवरणा चंपक पउरो चावणे संघे चाउव्वणो संघो चामरघंटाकिंकिणि चारुखेडेहि जुत्तो चारुगुणसलिलपरं चारुबाहरिवो चालीसं च सहस्सा चित्तविचित्तकुमारा चित्ते वइरे वेरुलिचितेमि पवरणगरं चुलसी दिलक्ख गुणिदे चुलसी दिलक्खदेवा चुलसी दिलक्ख संखा चुलसीदिसयसहस्सा चलसीदिं च सहस्सा चोत्तीस तीस चोदाल चोद्दसगसदसहस्सा चोदसणदीहि सहिया चोद्दसयस हस्से हि चो चोहसरय एवईणं छक्खंडकच्छ विजयं छक्खंडमंड सो छखंडे हि विभत्तो छच्चेव य इसुवग्गं छच्चेव सहस्सा इं छज्जाए जह अंते जोयणपरिहीणो छज्जोयण सक्कोसा ११ १२ १३ ૫ ३. ४ १० ८ ३ ६ १३ ε ६ ६ ११ ११ ४ ४ ४ ४ ११ ११ ३ 6 ू ε ह 120 ४ ७ is is 20 20 m ८ ८ २ ११ ४ ४ दीवपत्ती ११६ | छज्जोण सक्कोसा ະ ໕ ພໍ້ “ ૫ ६२ २०२ " १०४ २१६ "" "" "" हज्जोयणाय विडवी छज्जोया सकोसा ४४ ७४ | इट्ठमकालवसा छमकालस्ते १६७ १८४ १४० १७३ | छण्णउदिं च सहस्सा १४१ | छण्णवदिको डिएहिं ७४ | छणवइगामकोडी ११७ | छण्णवइगामकोडीहिं ११७ छण्हं कम्मखिदीगं ३६३ छत्तत्तयसिंहास - २४६ | छत्तत्तयसिंहास ए२४७ छत्तधयकलसचामर१६६ | छत्तीसं च सहस्सा १६० छत्तीसा तिरिसया ३११ |छदुमत्थेण विरइयं १२६ | छप्पराण रयणदीवा १६८ | छप्परणरय गदा वे हि ६८ | छप्परणं च सहस्सा छप्पण्णा बेरिसदा छन्भेदभागभियो छम्मा छम्मा से १६१ छपणउदा छच्च सया छ। उदिगामकोडीहि छम्मासेण वरगुहा छव्वीससया ऐया १५१ छवीसं च सहस्सा ७ छव्वीसा कोडीश्रो १६६ | छहि गदिं इसुवगं २८ | छहिं अंगुलेहिः पादो १५. छादाला तिष्णिसदा 5 छावट्ठा छच्च सया छावट्ठा सत्त सया १३९ १५० | छावहिं अडदालं ww ३ m ६ ११ २ ४ १३ १२ ४ १३ 6 ू ε ७ १२ ८ 5 ७ ४ ७ ४ २ " १३ ३ ७ २ ११ १ १८ ८७ ५५. ११२ - ३१ १९६ १७० પર १६२ ३१. ६८ १०६ १६४ १२६ २०१ ४८ १६५ २४ ३२. २६ १०२. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छावहिं च सहस्सा २०७ १०६ २३२ छात्तरि बिपिणसदा छाहत्तरिलक्खजुया विंदति य करवत्ते छिदंति य भिंदंति य Mr & १७५ १३१ १६४ ४० २८५ गांथानुक्रमणिका ८८ | जह किण्हपक्खसुक्का ११० जह खेत्ताणं दिहा २२ जह दक्खिणम्मि भागे २४५ | जह भ६सालवणे जह भइसालसुवणे १७२ जह मणुयाणं भोगा जह हिमगिरिदहकमले जं जस्स जोगमहरिह २८५ | जं जोयणवित्थिरणं जं तत्थ देवदेवीण जं तेण कहियधम्म ७८ जंबूणदरयणमयं ४६ जंबूणयरयणमयं ३२१ जंबूणयरयदमए १०३ जंबूदीवस्स जहा १२५ १२४ जंबूदीवस्स तहा २६४ ३५ १६६ ११ - २०१ १६८ २६८ २०० ३१८ जइ ते धारावडणा जक्खिंदो वि महप्पा जगजगजगंतसोहं जगजगजगंतसोहा जगदीदो गंतणं जत्थ कुबेरो त्ति सुरो जत्थच्छइ जिणणाहो जत्थ दु वेदहणगो जत्थ य गंगा पवह जत्थ लयपालवेहि य जत्थिच्छसि विक्खंभ " ". ६५ * * * * * * ३६ १७६ १६६ * २ ६० जमकडकंचणाचलजमगाण जहा दिट्ठा ५५ १३ | जंबूदीवस्स पुणो १६ | जंबूदीवं परियदि | जंबूदीवादीया १०१ / जंबूदीवे णेया १०२/ जंबूदीवे लवणे जंबूदीवे लवणो जंबूदीवो दीवो | जंबूदीवो धादइ१२० जंबूदीवो भणिदो -." ". * gs w MUU22 or uruwood १ WM ..६० it ८४ :ss : ४८ जमगाणामेण सुरा जमणियमदीवपउरं जमलकवाडा दिव्या जमलजमला पसूया जम्हि य जम्हि य काले जयविजय वेजयंती जररोगसोगहीणा जलणिहि सयंभुरवणे जवसालिउच्छुपउरो जवसालिधएणपउरो जस्स ण कोइ अणुदरो जह भागमलिंगेण य my १६६ | जंबूदुमा वि णेया जंबूदुमाहिवस्स | जंबृदुमेसु एवं | जंबूधादइपोक्खर१७ जंबूधादगिपोक्खर७६ / जंबूपायवसिहरे m ** १२६ १२८ १८६ १६० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ६ जं लद्धं णायव्वा जा दक्खिणदीवंते जा पुव्वुत्ता संखा जावदिय जंबुगेहा जावदिय जंबुभवणा जावदियाणि य लोए जाव दु विदेहवंसो m ه ه س س १०४ र ه م م م م و जंबूदीवपएणत्ती ८१ | जो खुहतिसभयहीणो ६६ | जो जस्स पडिणिही खलु ७७/ जोदिसगणाण संखा १३४ / जो दु अगवग्गहणाणी १३३ जो बहुवो सो हु कडी ८७ जो मंगलेहि सहिदो जो मिच्चुजरारहिदो १२ | जोयणअठ्ठावीसा १०३ | जोयणभठुच्छेधा ज़ोयणपंचुप्पइया १६५ जोयणमुहवित्थारा २७ जोयणमेत्तपमाणो १६२ जोयणसदेक्क बे चउ जोयणसयायामा ४६ २८३ १०६ १६९ जिणइंदवरगुरुणं जिणइंदाणं चरियं जिणइंदाणं ऐया जिणइंदाणं पडिमा जिणपडिमासंलगणो जिणभवणथूहमंडवजिणभवणस्सवगाढं जिणभवणाण वि संखा जिणवरवयणविणिग्गयः जीवा गुरुअणुसुद्धा जीवावग्गविसोधियजीवावग्गं इसुणा जीवाविक्खंभाणं जुवला जुवला जादा जे उप्पएणा तिरिया जे उप्पण्णा तिरिया जे कम्मभूमिजादा ew SENFace when onion as १०५ ૨૫૬ ४५ ११ जो २३४ २१० २८ سه عر عر م ه ع ع م م م ه ه م م ه س م ه ه ه ر نه به شه سه ७५ जोयणसयउन्विद्धा ३१ | जोयणसयतुंगं २६ | जोयणसयप्पमाणा १२ | जोयणसयमुश्विद्धा जोयणसयं समहियं १७२ जोयणसहस्स एदे १८० जोयणसहस्सतुंगा १७ | जोयणसहस्सतुंगो १५३ १७३ १०४ डोलाघराय रम्मा २३७ १६० ढक्कामुदिंगझलरिदुक्कित्तु तिमिसदारं १४४ २४४ १२४ जे कम्मभूमिमणुया जे पुण सम्मादिट्ठी जे वह्दिा दु चंदा जे सेसा णरतिरिया जोइसदुमा वि णेया जोइसवरपासादा जो उप्पएको रासी १११ णइयाइयवइसेसिय उदिसएण विभत उदिसदेहि विभत्तं | दि चेव सहस्सा 15 एउदी चउदसलक्खा जो कम्मकलुसरहियो जो कल्लाएसमग्गो. 06 N Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदी सत्तसदेहि य उदुत्तरसत्तसवं करंति जे हु भत्ती क्खत्ता या क्वत्तो जसपालो गुहकुंड विणिग्गयगराणि बहुविद्दाणिं य गरे तेसु या पट्टाणीयमहदरी पट्टाणीया विसुरा मिऊ पुष्पदंतं मिऊण वड्ढमाणं मिऊ सुपास जिणं मिऊ मिरणाहं यहि बहु पस्सदि रेसुते या रणारिएहि पुरा परारिगणा तया लिण विमाग्ारूढो गलिया यलिय गुम्मा वएगएग वचंपयगंधडूढा णवचंपयवरवरणा णव चैव सयसहस्सा एष चेव होंति कूडा एवणउदिंजोयणाणि एवणउदिं च सहस्सा 99 " 39 "" "" 33 वणवदिसहस्से हि य वमे अंजणे त् वरि विसेसो जाये " "" वरि विसेसो णेश्रो वि को वि जाणइ परो वि भइ सो सेखो v v or a १२ १२ १० १२ १ २ ८ ८ ११ ४ ६ १ ५ १२ १३ ४ = २ પ ४ ३ ६ १० ७ ११ ४ ७ ७ १२ ८ ११ ४ १२ ૫. ७ ७ गाथानुक्रमणिका ६२ | ६४ | ७३ | १२ १६ दणवण रुंभित्ता दणव संछष्णा ६७ दणवणस्स कूडा ११२ |णंद सोमणपंडव६१ दी य दिमत्तो २६२ | णंदीसरम्मि दीवे २१२ |दीसरो य अरुणो १ पाइणिगणसंछण्णा विधम्मो वोच्छिज्जइ दण मंदर सिधा दणवणम्मि या ८ पाऊण चक्कवर्द्धि १ पाऊण जिणुष्पत्ति १ | णाऊण य चक्कहरो पाऊण सयमहप्पं गागकुमारीयाश्रो गाडयघरा विचित्ता १४ १२४ | पाणागुणगण कलियो १०७ |गाणागुणतवणिरए ११३ गाणाजण पदविहो ७३ ८१ १३५ | गाणाजणवदरिणविडो २४ |गाणारवइ महिदां ६४ |ाणातरुवरणिवहा १४ गाणातोरणणिवहा ८२ | पारणादुमगणगहणं १६३ | णाणादुमगणगहणो ४० पाणामणिगण विहा २६ | पाणामणिगराणि विडा ४६ णाणामणिरयणमया १०२ 33 ५.६ | पाणावरणस्स खए ११८ | णाणा विहउवयरणा ६० णाणाविद्दवत्थे हि य १६ | णामेण अरिट्ठजसो ६१ || गामेण अंजणं ग्राम १३० गामेण चित्तकूडो १६६ | णामेण पभासोतिय 99 ८ ४ ४ ४ ८ ४ * १ ૫ ११ ११ ७ ४ ७ ७ ६ ३ १३ १ ७ ५ १३ ७ १ १ ε ५ ७ १२ १३ ૫ १३ ११ ११ ८ ३ १३ १६६ १०३ ८६ १०१ १३ १०५ १२४ १२ १२० ८५ १३० १२० १५३ १४३ १४६ ३६ १४३ १६६ ૫ ३७ २७ १४३ १०७ ५३ ५१ १५६ १०२ ५३ ५६ ૧ १३२ ३० ११८ २६१ ३२६ ३ २२४ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ णामेण भद्दसालो गामेण वइजयंती रामेण विगयसोगा खामेण वेणुदेवो खामेण सुभद्दमुखी रंगपण सविहं रंगफणसपउरो पालपुलिंदबब्बरगिग्ग अवरेण णिवो णिच्चं कुमारियाओ णिच्चं मरणोभिरामं लिच्चं मोभिरामा णिच्चं मोहिरामा द्धिंतकरणयसंहिम्मिलमणिमयपीढं खिम्मलवरबुद्धीणं बिरुवहदज ठरकोमलविडंतसलिलंपउरा सिधकुमारी या सिंघ गिरिस्स दु मूले सिंधगिरिस्त्तरदो सिधद्दहो य पढमो सिधस्सुच्छेदसमा सिधादो गंतू सिंहस् य उत्तरदो छिंदा विसादहीणो खीलकुमारीणामा फीलगिरिस्स दु हेट्ठा पीलसिहाण भागे पीलस्स दु दक्खिदो पीलुप्पलणीसासा "3 39 खलुप्पलसच्छाया णीसरिदूय गंगा या पदी या तेरेक्कारस या विभंगसरिया तीरे 20 w w w Is 20 ४ ६ १ ८ ४ ७ ७ ६ ११ ૫ ३ ४ ६ ४ ११ ३ ६ ३ ११ ६ ११ ६ ७ १३ ६ ७ ७ ६ ३ ४ २ ३ ह ११ ६ जंबूदीपवती ४२ | ऐरिदिदिसाविभागे १०७ महाविंता भत्तीए ૧ १६० १७ ८५ ४६ ११० १५० १३६ १६७ ७६ १७१ १८७ ६१ २१८ २२२ १७२ १३४ २३१ ६७ ८३ ४ ८७ २ ८७ ३८ ८६ १६ १५. तत्तकवल्लिहिं छुद्धा तत्तो श्रद्धद्धखया तत्तो अवरदिसाए 37 " "" 39 ,, "9 "" " "" 39 " 99 तत्तो इंददिसाए तत्तो उड्ढं गंतुं तत्तो गादु पुव्वे तत्तो तसिदो तवरणो ततो दस उप्पइया तत्तो दहादु पदो ततो दु संखेज्जा "" 33 "" तत्तो दुगुणा दुगुणा तत्तो दु दक्खि दिसे तत्तो दुपभादो वि य तो दुपव्वदादो ततो दु पुणो गंतु ततो दुमडादो तत्तो दु विमाणादो ततो दु वेदियादो ८० 99 २२८ | तत्तो दु संकमादो १८४ तत्तो देववादो १७४ " " १८५ तत्तो पच्छिमभागे १४५ तत्तो परं विचित्ता ६३ "" त ६ ४ 20 ११ ३ Wwwww ह ε ८ ११ ६ ११ २ ૫ ११ ११ ३ ང ११ ६ ११ ५. ११ ६ ह ह ५. ૫ ६६ २८६ १६२ ៩ ២ គឺ ន ភ៌ ៖ ៖ ≡ គឺ៖ ធំដ៏ធំ १५३ १३८ १४० १६ ૫ ७८ ४२ ३२८ ६. १५.१ ४२ G २०२. २०४ १५२ ८६ ३०६ - १८३ २०३. .५२ २२५ ३ + १३२ १०० ८५ १३. ६४ ૫ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ गाधानुक्रमणिका ६७ | तस्स रागरस्स राया २२० ४३ तत्तो परं वियाणह तत्तो पुवदिसाए तत्तो पुग्वेण तहा वचो पुग्वेण पुणो २१६ ६३ १५७ १५४ ३६२ तत्तो य पुणो अरुणं तत्तो य पुणो गंतुं तत्तो वरम्मि भागे वत्तो वि असंखेज्जा तत्तो विभंगणामा तत्तो वेदीदो पुण तत्तो सोमणसादो F" "wseup 20 ४६ ३२ तस्स एगस्स दु सिहरे तस्स णिमित्तं लिहियं | तस्स दुवरि होदि य २०७ | तस्स दुणस्थि समाणं २०८ तस्स दु पीढस्सुवरिं १०१ २०५ तस्स दु मज्मे अवरं १५५ तस्स दु मज्मे णेयो तस्स दु मज्मे दिव्वो १३० तस्स देसस्स णेया " " ३२३ ૫ तस्स देसस्स मज्मे ३६१ | तस्स बहुमज्मदेसे ३८ १५८ १२६ १० तत्थ प्रणोवमसोभो तत्थ दु खत्तियवंसो तत्थ दु णिद्वियकम्मा तत्थ दु देवारणे तत्थ दु महाणुभावो तत्थ दु विक्खंभमज्मे तत्थ पम्मि विमाणे ७६ २६६ 2 १rms or or or" www our ream or u USurmurgurm or २१५ | तस्स बहुमज्मदेसे तस्स य गुणगणकलिदो રપ૦ तस्स य दीवस्सद्धं २१ तस्स वएस्स दु मज्मे १६६ तस्स वयणं पमाणं १२३ | तस्स वरपउमकलिया १५४ तस्स विजयस्स णेया | तस्स विजयस्स मज्मे तस्स वि य लोगपाला तस्स वि य सत्तकच्छा तस्सेव य उच्चत्तं तस्सेव य वरसिस्सो २२६ १६२ ५८ ४६ १३७ ७६ ११७ १० तत्थ य अरिठ्ठणगरी तदिओ दु कालसमओ तदियम्मि कालसमए तमे भमे झसे चेव तम्मि दु देवारपणे तम्मि देसम्मि मज्मे तम्मि बणे णायव्वा तम्मि वरपीढसिहरे तम्मि समभूमिभागे वरुणरवितेयणिवहा तवणिजणिभो सेलो तवणिजमओ णिसहो तवणियमजोगजुत्तो तवणो अणंतणाणी तवविणयसीलकलिया तसजीवाणं लोगो ३१० 0 Now + wwww REAM २८४ ५६ १५५ १५६ १६० २४ | तह णीलवंतपवरो १६३ | तह ते चेव य रुवा ६१ | तह दक्खिणे विणेया ३५६ तह य अवायमदिस्स १४ | तह य महाहिमवंतो Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबदीवपरणती مه ع م م १११ १६१ १५८ ३० : १ . १४ | तिरियालोयायार. १०० तिरिया वि तेसु णेया ४२ तिवलीतरंगममा ४५ तिस्सेव य जगदीए २५ तीए पुण मज्झदेसे २६ तीसमुहुत्तं दिवसं ७४ तीसं च सयसहस्सा २३१ तीसं चेव सहस्सा तीसु वि कालेसु तहा २२७ १४३ १२५ १५३ ه ه ه م ع سه م مه ه ع १३८ १४४ ३०६ १३६ १२८ १८२ तह य विसाखायरियो तह सव्वविज्जसामी तह सिद्ध णिसधहरिदा तह सिद्धसिहरिणामा तह होइ सोज्झरासी तहि होइ रायवाणी तहिं चेव भद्दसाले तं च सुहम्मवरसभं तं बउलतिलयणिवहं तं मझगयं पीढं तं सुचिणिम्मलकोमलताण दहाणं होंति हु ताणं कप्पदुमाणं ताणं सभाघराणं " " तारंतरं जहरणं तारागहरिक्खाणं ताहे अणुहिसं किर तिषिणपरिसेहि सहिया तिएिणपलिदोवमाऊ तिरिणय परिसा तस्स वि तिएिण वि परिसा कहिया तिरिण सदा एक्कारा तिएणेव य कोडीओ तिण्णव य परिसाणं तिएणेव वरदुवारा तिएणेव सयसहस्सा तिएणेव सहस्साणं तिषणेव हवे कोसा तिएणेव होंति वंसा तित्थयरचक्कवट्टी तित्थयरपरमदेवा २१२ १७६ rMM 900Cur curiodue. Mour wor 9 9au 30 १६६ । तीहि वि कालेहि जदा ४४ तुल्लबलरूवविक्कम___ ७० | तुंगो चूलियसिहरो - ३६ | तूरंगदुमा ऐया . . ४१ | ते अंगुलाणि किच्चा : १०० | ते कालगदा संता . ३५ ते गिरिवरे अपत्ता ३३७ | तेणउदिजोयणाई ६३ | तेणउदिं पण्णासा तेण वि लोहज्जस्स ३०१ ते तेण तवेण तहा ते ते महागुभावा तेत्तीसं च सहस्सा १६३ तेदाला सत्तसया १३६ ते पुन्वुत्ता रूवा १८७ तेयालीससहस्सा ६८ तेरससयचउदाला तेरह तह कोडीओ १८५ तेवएणकोडिदेवा तेवएएसया णेया तेवएणं च सहस्सा १५८ ११५. १०४ पूर come e e emn 66 - २२० १६४ २०२ वियतिगुणा विक्खंभा तियसिंदचावसरिसा तियसिंदसहियसुरवर ३८ तेवएणा कोडीओ १६६ - ४७ ते वंदिदूण सिरसा ४७ ते विविहरइदमंगल२७ ते सव्वे मरिऊणं ११ । १८६ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २१ १०० १२३ १४० ६२ १३६ .१६३ 0+ us our wr ur ur ur wrror १ १०० तेसिं उस्ससणेण य सेसिं जिणभवणाणं तेसीदा बादाला तेसीदि परणासा तेसु घरेसु वि णेया तेसु जिणाणं परिम तेसु णगरेसु राया तेसु पउमेसु णेयं तेसु भवणेसु ऐया तेसु मणिरयणकमला तेसु वरपउमपुप्फा तेसु सेलेसु णेया ते सुस्सरा सुरुवा तेहत्तरं सहस्सा तेहितो गंतूर्ण ते होंति चवट्टी तो तत्य लोगपाला तोरणकंकणहत्था तोरणदारायाम तोरणदारेसु वहा तोरणसयसंजुत्ता १०५ ३६ .१४८ १०४ १६५ २० १५७ ६ | दक्खिणदिसेण णेया १२ " " १२१ दक्खिणदिसेण तुंगो २४ दक्खिणपच्छिमकोणे दक्षिणपच्छिमभागे दक्खिणपुव्वदिसाए ५० १३१ " " १३७ | दक्खिणभरहे णेया दक्षिणमुहेण गंतुं १२४ दक्षिणवरसेडीए ६२ दण रिसभसेलं १७५ दप्पणतलसमपट्टा ३२ दरिविवरेसु पइट्ठा ६२ दवे खेत्ते काले दस चेव कला णेया दसजोयणउम्विद्धो ३६ दसजोयणउंडामो १६१ दसजोयणावगाढा १०२ दसदसजोयणभागा दस दो य सहस्साई दसवस्ससहस्साणि य दस विक्खंभेण गुणं १४६ । दस सागरोवमाणं दहकुंडणगणदीण य दाएंतराय खइए | दारंतरपरिमाणं दाराणि मुणेयव्वा दासीदासेहि तहा दिणयरकरणियरायदियरमऊहचुंबियदिव्वखेडेहि जुत्तो दिव्वविमाणसभाए ३०३ | दिव्वसंबाहणिवहो ६६ दिव्वामलदेहधरा " S cow mom san aur man toctorsms mann.mum aanee won १ २७२ ४ थडगे थणगे चेव य थूलसुहुमादिचारं थूहादो पुव्वदिसं थोऊण जिणवरिंद 58 + १३३ ४६ - २७० दक्खिणइंदस्स जहा दक्खिणउत्तरदो पुण दक्खिणउत्तरभागेसु दक्खिणदहपउमाणं दक्खिणदिसाए दूरं दक्खिणदिसाविभागे १११ १८६ ११५ १३२ २३२ १३१ Mr ur १२० . ११६ २२४ १५७ ३५ / दिव्वामलमउडधरा २ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्वामोदसुगंधा ६२ १३८ ... जंबूदीवपएणती - २६ | देवासुरिंदमहिया १२७ देवीण तिएिणपरिसा देवेसु वि इंदत्तं देवेसु सुसससुसमो देसम्मि तम्मि णयरी देसम्मि तम्मि णेया देसम्मि तम्मि मज्मे २०८ ३५८ १७५ १६७ For murug 222- १६४ देसम्मि तम्मि होइ य देसम्मि होइ गरी देसम्मि होइ एयरी देसस्स तस्स ऐया १३४ स १७१ १३५ १४५ ३६ ११७ ३१ ११६ १२५ १३४ १03 दिव्वामोयसुयंधा दिसकरिवरसेलाणं दिसविदिसंतरदीवा दिसिगयवरणामाणं दिसिगयवरेसु अट्ठसु दीवस्स दु विक्खंभे दीवस्स पढमवलए दीवस्स समुदस्स य दीवंगदुमा णेया दीवं सयंभुरमणं दीवाण समुद्दाण य दीवेसु तेसु णेया दीदेहि य धूवेहि य दीवोदधिसेलाणं दीवोदहीण रूवा दीवोवहिपरिमाणं दीवोवहीण एवं दुकला बेकोसहिया द्वगुणम्हि दु विक्खंभे दुविधो य होदि कालो दुट्विट्ठियणावुट्ठी दुस्समकालादीए दुस्समकालो णेश्रो दुस्समदुसमे मणुया दूरेण य जं गहणं देउत्तरकुरुखेत्तं देवकुरुम्मि दुवंसे देवच्छंदसमायो देवा चउरिणकाया देवाण भवणाणिवहो देवारण्णचदुएणं देवारणम्मि तहा देवासुरिंदमहिदे देवासुरिंदमहियं देसस्स तस्स दिट्ठा तस्स मज्मे देसस्स तिलयभूदा देसस्स मज्मभागे २०३ १८६ देसस्स रायवाणी ११४ देहि त्ति दीणकलुणा १८८ दोजमगाणं अंतर दो जमगा णाम गिरी १७७ | दोणामुहेहि छएणो १४८ दोणामुहेहि य तहा दोण्हं गिरिरायाणं दोएहं मेरूण तहा दोएहं वाससहस्सा | दोमेच्छाणं खंडा १ror Uruaruuuuuuuwwwuuuuuwwwxxx9 du २०० ur or १२४ १६० બ + १३० ६ દદ ध 9 Form १ धइवदसरेण जुत्ता ८०) धणधरणरयणणिवहो १०४ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका " वंतधयवडाया ३१ ७६ I I w : ะ २५१ | ११४ " , wwe Now mur00 १॥ ow ะ " + ur + १४६ २२३ १४६ धणधएणसंपरिउडो धणधएणसुवएणादि घणुपट्ठबाहुचूलीघणुफलहसत्तितोमरधएण्ड्ढगामणिवहो धम्मजिगिंदं पणमिय धम्मफलं मग्गंता धम्मा वंसा मेघा धम्मेण होंति ताओ धयणिवहाणं पुरदो धयधूमसिंहमंडलधयविजयवइजयंती धयसीहवसहगयवरधरणितले विक्खंभो धरणिधरो दु दुगुणो धरणिधरा विष्णेया धरिऊण लिंगरूवं धरिणीपट्टे णेया धरिणी वि पंचवरणा धवलब्भकूडसरिसा धवलहरपुंडरीएसु धवलहरेहिं ससिधवलादवत्तचामरधादगिपुक्खरमेरू धादगिसंडस्स तहा धादगिसंडं दीवं धादगिसंडे दीवे धादगिसंडो दीवो धिदिइढिविसयतुल्ला धीरेण तेण मुक्का धुव्वंतचारुचामरधुव्वंतधयवडाया १३७ २५६ १५३ રક १३६ ११२ धूमं दळूण तहा १६१ | धूवघडा विएणेया ५५ १४३ पउमदहादिय तीसा १४१ | पउमप्पभो त्ति णामो पउमस्स सिहरिजस्स य पउमादियउक्कस्सं १३६ पउमा दु महादेवी ७२ पठमावइ त्ति णामा पउमा सिवा य सुलसा १४० पउमेसु सामलीसु य ४२ पउमोत्तरो य णीलो १०६ | पउमो य महापउमो १०७ पगलंतदाणगंडा पगलंतदाणणिज्झरपच्चक्खो तह सयलो पच्छिमउत्तरकोणे पच्छिमउत्तरभागे पच्छिमदिसाए गंतं पच्छिमदिसाविभागे ३१२ " " पच्छिमदिसेण सेला १११ पच्छिमदिसे वि णेया पच्छिमपुव्वदिसाए ६५ पच्छिमपुवायामो पजलंतमहामउओ ५४ पजलंतमहामउडा पजलंतरयणदीवा ५५ पजलंतरयणमाला ७५ ६६ १०३ २४३ 200au or or EXC2900 or ur or 9 norm or w mom w o w 30 mar is mw ११५ ३०४ ११२ ३६ ११७ १६६ ० २० १३२ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पजलंतवरतिरीडो पट्टणमडंबरो 33 पडि इंदतायतीसा पडुपडहरवेहि तहा पडुपडहसंखकाहलपढमम्मि कालसमए पढम वलएसु चंदा पढमा य सिद्धकूडा पढमिल्लयकच्छाए पढमे बिदिए तदिए पढमे भागम्मि गया 39 पणउदा तेसठा पणदालीस सहस्सा पणवणं च सहस्सा पण वरणा उत्तरदो पणवीसकोडकोडी पणुवीसकोडकोडी पणुवीसजोयणसयं पणुवीस जोयणाणं पणुवीससमधिरेया पवीसस महिरेया पणुवीसं असुराणं पणुवीसं च सहस्सा पणुवीसा उव्विद्धा पणुवीसा पण्णासा "" "" वीसा विक्खंभा सिदा या पट्ठिसहस्सेहि य पण्णठि च सहस्सा "" "" परणत्तरिउच्छे हो पणत्तरिय सहस्सा पण्णत्तरिसय या परणारस य सहस्सा पणास समधिरेया ३ દ ११ ४ ५. २ १२ २ ११ २ ३ २ ९ ११ ७ ११ १ ७ ११ ८ ८ ११ ३ २ ३ ३ ४ ३ १२ ११ १२ પ્ ११ १ १० २ जंबूदीवपणती ६८ ७४ ६४ २७० २८६ पण्णासा श्रवगाहा पणासा विक्खंभो पत्तेयरसा चत्तारि पत्तेयं पत्तेयं "" " ११४ पदगतमवइकउत्तरपप्फुल्लकमलकुवलय ११६ ४१ पयढक्कसंखकाद्दल ४६ परचक्कईदिरहिदो २७७ १६० १०४ परमण गदा अत्थं परमाउ पुव्वकोडी परमाणुत्रादिएहि य २२ | परमाणू तसरेणु ७६ परमाणू हिंय या २५ | परमेट्ठिभासिदत्थं १ | परसमयतिमिरदलणे १८३ परिधी तस्स दु ऐया १६ | परिहाणि वड्ढिवज्जिय१७ पलिदोवमाउगा ते पलिदोवमाउठिदिया १४० १५६ पलियंकास बद्धा ५२ पल्लाउगा महप्पा १३६ पल्लो सायर सूची ८ पव्रणवसचलियपल्लव३३ |पवणंजश्री त्तिणामेण ४७ | पवरवरपुरिससीहा १६८ | पबलपवणाभिश्राहय११४ पविसित्ता गीसरिदा ३० पंकबहुलम्म भागे ६१ पंच तियं बारसयं ७२ | पंचधगुस्सयतुंगा ७१ 19 55 ३ | पंचपलिदोवमाइं १०३ |पंचमकालवसाणे ४७ ८७ पंचमणाणसमग्गं पंचमसरे जुत्ता २ | पंचमहव्वयसुद्धो ३ ७ ११ ११ ११ १२ ५ ४ ७ १३ 6 ू १३ १३ १३ १३ १ १ ७ २ ३ ५ ५० १३ ३ ११ ७ १३ ६ .११ ११ ४ ६ ११ २ ४ ४ १३ គឺ៖ ធំ រ ឥត្ថិ រឺ ឧ ឩ គឺ ឌឹ ស្លូវ៉Å គ គ ៥ គឺ ៣ A ៖ ក ដ គឺ គឺ “ខ្ចី គឺ៖៖៖ អ៊ २०६ २६७ १०८ २८७ ४ १६६ २०६ २८७ ६४ १२८ ४६ १४५ २६८ १८७ २६२ २३० १५८ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ६ पंचसयखुल्लदारा पंचसयगामजुत्ता पंचसया पायामा पंचसया उच्चत्तं पंचसया छन्वीसा पंचसु ठाणेसु जिणो पंचसु भरहेसु तहा पंचाचारसमग्गे पंचाचारसमग्गो पंचाणउदा भागा पंचाणउदिसहस्सा WWWo occ61 १०५ ifa reso ME0 १८६ ३ २६१ ६७ १५७ ४३ २८३ पंचासा तिएिणसया पंचेदे पुरिसवरा पंचेव जोयणसदा २६३ 9 " ८४ ५१ ४८ १३७ " पंचेव जोयणसया 2 गाथानुक्रमणिका __२२ | पायालम्मि पइठे पायालस्स तिभागे १४२ | पायालाणं णेया पावेण अहोलोयं पासजिणिदं पणमिय पासादवलयगोउर२०६ पासादा णायव्वा पासित्ता जंगहणं पियदसणाभिरामा पियहियमहुरपलावो | पिसुणासया य चंडा पीढस्सुवरि विचित्तं पीढाणीयस्स तहा पीदिमणाणंदमणा पुग्गलसीमेहि ठिदो पुणरवि तत्तो गंतुं १४६ पुणरवि विउन्विऊणं १२७ पुरणागणागचंपय५८ पुरणागणायचंपयपुरणागतिलयवरणा पुण्णायणायपउरं पुरिणमदिवसे लवणो पुप्फक्खएहिं भरिदा पुप्फोवइएणएसु य पुव्वक्कएणणेया १३८ पुव्वदिसेणं विजयं पुव्वविदेहे णेया १०६ पुव्वस्स दु परिमाणं ३३३ ! पुव्वं कदेण धम्मे २७५ पुव्वंगभेदभिएणं २४७ पुव्वंगविउलविडवं पुव्वं पव्वं उदं पुव्वाभिमुहा णेया पुव्वाभिमुहा सव्वा पुव्वावरवित्थिरणा पुव्वावरायदाश्रो पुत्वावरायदाणं ॥ " " " " ०००. Marur our 9W 000ma r ॥ १० ७८ १८ ११६ ३४५ १८४ पंचेव य रासोश्रो पंचेंदियाण लोगे पंडुकवणस्स मज्मे पंडुकसिला विणेया पाडलअसोगवण्णा. पाणदइंदो वि तहा पाणदपडलं च तहा पायाइपीढवसहा पायारगोउरट्टालएहि पायारपरिउडाणि य पायारवलहिगोउरपायारसंपरिउडा १६३ Wor Mor Mom our or or ८० ८१ १७१ १३ १३८ १४६ १२२ पायारसंपरिउडो पायालतले गया ६१ પદ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पुव्वावरे या पुव्वावरे दीहा "" पुव्वावरेण लोगो पुब्वुत्तरम्मि भागे पुवेण तदो गंतु 99 97 33 33 "" "" 39 " "" >> 93 27 33 27 33 33 33 " " "" "" " "" "" "" 39 33 " , 23 "" 99 " " " "" " "" "" " " " 37 "9 39 " 39 "" पुव्वेण दु पायालं पुव्वेण मालवंतो पुव्वेण होइ तत्तो पुग्वे होंतिया पुव्वे होंति तिमिसा पुहइवईणं चरियं पुंडुच्छुवाडपउरो ४ 20 20 20 15 15 IS IS IS Is w २ ३ ४ ४ ८ ८ ८ ६ ६ ६ ह ε ६ ६ ह ह wwwwww ε १० ६ л १० २ ४ ८ जंबूदीवपत्ती १० | पुंडुच्छुसालिपउरो ५. पूगफलरत्तचंदरण ५ पेक्खागिहा य पुरदो ४ पोक्खरणिवाविपउरा १०० १५ २३ ४८ ૧૫ ६८ ६२ ह "" १०२ १०६ 22 "" ३४ | पोक्खरणिवाविपउरे पोक्खरणिवाविपउरो " ג 33 " " पोक्खरणिवाविवप्पिणपोक्खरवरउवहीए पोक्खरवरउवहीदो पोक्खरवरो दु दीवो पोक्खरिणिवा विदीही पोक्खरिणिवाविपउरो ११२ ११६ १२२ १२७ १३० फणसंबतालदाडिम१३७ फलभारणमियसाली१३६ | फलिहमणिभवणिवहा १४५ फलिहमणिभित्तिविहा १४६ |फलिहसिलापरिघडियं १५४ फार्डेति श्ररडेंता १५७ " " फणसं बताडदाडिम "" १७३ १७४ | बत्तीसदहवराणं १७८ | बत्तीसवरमुहाणि य १८२ बत्तीससदसहस्सा ३ बत्तीससयसहस्सारण २ बत्तीससहस्साइं ७७ बत्तीस सहरसा ३० ८६ २१४ ११६ " बत्तीसं च सहरसा बत्तीसं देविंदा बत्तीसा खलु वलया फ 5 or এই চmr is worm is is 20 २ પ્ ३ १२ १३ ८ ४ १२ १२ ११ २ م س م م ع १३ ह ५. १३ ११ N N N 6 W N 2 3 x 2 ११ १२ ११ ११ १९ १२ ७१ ८० ३७ ६६ Το ५.१ ४ १६७ २५. १७४ ६२ २२ २१ ५७ १४१ ८३ ५० २०४ ७८ १०८ ૫૦ २५ १२६ १७० ३२ २५५ २३ २२० २६६ ६१ ४५. १२२ २३६ ३७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ८४ ३४७ १०७ १८४. ur oww90 91 २१५ १४४ १४० | बादालीससहस्सा १७४ बादालीसं चंदा २७१ बारसकोडाकोडी बारस चदुसहियदहा बारस चेव सहस्सा बारस य दोणमेहा ७३ | बारसयसयसहस्सा बारसवेदिसमग्गं ८२ बारह जोयण गंतुं १६७ बारह जोयण णेश्रो १०८ बारह जोयणदीहा " " १२३ बारह जोयण मूले १४ बारहवरचक्कधरा २०७ बारहसहस्सतुंगो १४७ बारहसहस्सरत्था १६१ ૧૫૬ ४५ ११८ १३२ ३० 92ww or r १३३ on 6 c numan cen-66F600% १८१ ११२ बत्तीसा चालीसा बद्धाउगा मणुस्सा बम्हा बम्हुत्तरिया बम्हा विण्हुमहेसरबलदेववासुदेवा बलदेवहरिगणाण य बलविक्कममाहप्पं बलिगंधपुप्फपउरा बलिधूवदीवणिवहा बलिपुप्फगंधअक्खयबहिरंधकाणमूया बहुअच्छरपरियरिया बहुअच्छरेहिं जुत्ता बहुकव्वडेहिं रम्मो "बहुकुसुमरेणुपिंजरबहुजादिजूहिकुज्जयबहुदेवदेविणिवहा बहुदेवदेविपउर बहुदेवदेविपुगणा बहुदेवदेविपुण्णो बहुबहुविहखिप्पेसु य बहुभवणसंपरिउडा बहुभवणसंपरिउडो बहुभग्वजणसमिद्धा बहुरयणदीवणियहो बहुविविहपुप्फमालाबहुविविहभवणणिवहो बहुषिविहसोहविरश्यबहुविहमणिकिरणाहयबहुवे बहुविहभेदे बहुसो य गिरिसरिच्छा बंभ बंमुत्तर बंभबंभुत्तरो वि इंदो बंसीवीणावच्चिसबाणउदा पंचसया बादालसदसहस्सा १२ ११८ १६५ . . १८३ बारहसहस्सरत्येहि बावरणसमधिरेया . ७१ बावएणसया गया १४६ बावरणसया तीसा १७७ बावण्णा कोडीओ बावीसजोयणसया २० umor w us womwww २० १७७ १५१ १७५ ४३ बावीससदा गया बावीससहस्साई २१८ बासीसं च सहस्सा ३२५ २४० बावीसा सत्तसया बासहिजोयणाई ११२ | बासट्ठिजोयणाणि य ३३२ | बासट्टि च सहस्सा बाहत्तरि छच्च सया २३३ / बाहत्तरं सहस्सा १७३ | बाहिरपरिसाए पुणो ६६ | बाहिरपरिसा णेया १०३ १२२ ०१४ 0 9000 . १२६ १६६ ३६ .ru २७३ ११ ११ २८० Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ سد ه م जबूदीवपएणची ६७ | बेघणुसहस्सतुंगो बे सत्तदस य चउदस ५६ / बेसागरोवमाई | बेसायरोवमाई ७७ बेहत्येहि य किक्खू રૂ૫૨ २५१ २६६ مه سه बाहिरपरिसाहिवई बाहिरसूचोवग्गो बिरिणसया.णायव्वा बिदिओ दु जो पमाणो बिदियम्मि कालसमए बिदियादीकच्छाणं बिंबाणि समुहिट्ठा बुद्धिपरोक्खपमाणो बुद्धिल्ल गंगदेवो बेकोससमधिरेया बेकोससमहिरेया १२१ । قه م م २४८ ७६ | भज्जति कडकडेहि भणिदो य अधोलोगो भरहवखंडणाहा २२ भरहस्स जहा दिट्ठा १६० भरहस्स दु विक्खंभो भरहेरावद एक्के भरहेरावय मज्मे भवणवइवाणविंतर م م س बेकोसा बासट्टा ي १६४ ه ه ه ه ه ه م ه ل ه س س م m n n م ه م عم و م ه س ६६ १६६ ३२ २७५ ११० ه ع २५ " " १८२ ة م 9 S 9 १८६ बेकोसा विक्खंभा बेगाउदउत्तुगा बेगाउदउन्विद्धा م س ६१ १२२ س ११६ س १२४ عمر سد م n २३६ م ع १८४ भवणाणि जिणिंदाणं भवणाणि ताण दिट्ठा १२८ भवणाणि.ताण हुँति हु १५५ भवणाणि विणायव्वा भवणेसु अवरपुत्वे भवणेसु तेसु'णेया भंभामुदिंगमहलमाणुससिजदुपसिद्धा भायणदुमा वि णेया १४ भिपिणदणीलकेसा १०६ भिंगा भिंगणिभा तह १०८ भिंगारकलसदप्पण२१ | भिंगारकलसदप्पण४० १५६ भूधरणगिंदणामो भूधरपमाणदीहा ७४ भूमितणरुक्खपव्वद८१ । भूसणदुमा वि णेया बेगाउयअवगाढो बेगाउयउव्विद्धा " " बेगाउयवित्थिरणा बेगाउवअवगाहं वे चउ चउ दु सहस्सा बेचदुबारससंखा बे चंदा इह दीवे बे चंदा बे सूरा बेचेव सदाणेया बेजोयणश्रवगाढा बेजोयणउच्चाणि य बेजोयण उप्पंइया बेदंडसहस्सेहि य बे दीवा बे उदधी वेधणुसहस्सतुंगा ه ع س हह ५६ ه م ه س ه ع م ه ه ه ه m १३६ १६७ ع س و م Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ३१६ भोगंतराय खीणे भोत्तण दिवसोक्खं भोत्तण मणुयभोगं भोयणदुमा वि ऐया १३३ १५५ १०१ २५ ११३ २८८ ६३ गाथानुक्रमणिका १३४ । मणिरयणमंडिएहि १७६ / माणिरयणहेमजाला५५ | मणिसालहंजिगपवर मणुसुत्तरम्मि सेले मणुसुत्तरादु अंतो मणुसुत्तरादु परदो २३६ मत्तकरिकुंभसरिसो मत्तकरिकुंभसिहरो मत्तगयगमणसीला ३३५ महलतिवलीहिं तहा मरगयकंचणविडम२१६ | मरगयदंडुत्तुगा २२४ मरगयपायारजुदा मरगयपासादजुदा मरगयपासादजुदो मरगयमुगालवण्णा मरगयरयणविणिग्गयमरगयरयणविणिम्मिय| मरगयवएएसमुज्जलमरगयवेदीणिवहा मल्लंगदुमा रणेया मल्लिजिणिंदं पणमिय महमुक्कसुराहिवई महुरमणोहरवक्का महुरेहि मणहरेहि य ११४ १६२ om cccc wwmnnmmccommonam ५७ २४२ मजवरतुरियभंगा मज्जवरतूरभूसणमज्जंगदुमा प्या मज्झम्मि दु णायव्वो ममिमगेवज्जेसु य मज्मिमपरिसाण पहू मज्मिमयम्मि विमाणे मज्झिमसरेण जुत्ता मज्मिल्लम्मि दु भागे मज्मे चत्तारि हवे मज्मे दहस्स पउमा मज्मे मज्मे तेसिं मज्मे सिहरे य पुणो मन्मेसु तूरणिवहा मणचक्खूविसयाणं मणजोगि कायजोगी मणपवणगमणचंचलमणपवणगमणदच्छा मणिकंचणघरणिवहा मणिकंचणघरणिवहो मणिकंचणपरिणामा मणिकंचणपासादा मणिगणफुरंतदंडा मणितोरणेहि जुत्ता मणिभवणचारणालयमणिमयपायारजुदा मणिमयपासादजुदो मणिमंडियाण ऐया मणिरयणभवणणिवहा मणिरयणभित्तिचित्तं मणिरयणभित्तिचित्ताई १ १५८ mmumm conoc nw mnsecscccccc wwcommm ११० १३६ १०२ २२६ १०६ मंदरगिरिपढमवणे मंदरतलमज्झादो ८ १०० moc cc acmoc6626-Fw c मंदरमहागिरीणं मंदरमहाचलाणं १७५ | मंदरमहाचलिंदो २० मंदरमहाणगाणं १६४ मंदरवणेसु णेया ११० | मंदरविक्खंभूर्ण Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मंदर सेलस्स वणे मंदारकुंदकुवलयमंदारतारकिरणा मागधणामो दीवो मागधवरतणुवेहि य माणुसखेतमा माणुसखेत्तबहिद्धा माणेण तेण राया मायंगकुंभसरिसो मिदुमज्जवसंपणा मियमयकप्पूरायरुमुणिदपरमत्थसारं मुहतलसमासश्रद्धं मुहभूमिविसेसेण य " "" मुहमंडवाण तिरहं मुहमूले वेहो विय पत्ते मूल मूलमिदुविक्खंभो मूलं मज्मेण गुणं मूले बारह जोयण 23 39 मूले म उवरिं मूले समेयं खलु मूले सहरसमे मूलेसु य वदणे य मूले होंति वीसा मेघरा मेघवदी मेघमुहणामदेवो मेघावरुद्धगयणं मेरुस्स इच्छपरिधी मेहमुद्दा विज्जुमुहा मेहलकलावमणिगणमोणं परिश्वत्ता मोहणिकम्सस्स खए रज्जूवेद विसेसा ११ १३ ८ ११ १२ ७ ह २ ३ ११ ११ ३ १० ૫ १० १२ ११ ११ १ १० ४ ६ १० २ ७ ४ १० ३ १० १३ जंबूदीवपण्णत्ती १२३४ ६४ | रत्ताण दिसंजुत्तो १२३ " ६२ | रतादीए जुतो १०४ रत्तारत्तोदाश्र ६० ३४४ ६० १४७ ३८ १४५ २४४ ११० २७ ६८ " रक्तारतोदा विय रत्तारतोदेहि य " २५ ४६ १७ "" "" "" دو " ३६५ रमणीयकब्बडजुदो १०८ | रमणीयगामपउरो "" २१३ |रयणकलसेहिं तेहि य २१ रयणमए जगदीए ३४ १३ ८२ २० 33 " " " "" रयणमयपीढसोहं रयणमयभवविहो रयणमयवदुवारो रयणमयविउलपीढं रयणमयवेदिविहा "" " रयणमया पल्ला पा रयणमया पासादा પ્ रयणमया विय बहुसो ५४ | रयणाभरण विहूसिय१०८ रयणाय रेहि जुत्तो १३५ रयणायरेहि रम्मो १३८ रयणासक्करवालुय३५ | रविकंतवेदिरिंगवहा ५७ रविमंडलं व वट्टो १८७ रविससिअंतरडहरं ७८ रविससिजदु त्तिणामा १३१ | रसइड्डिसाद्गारव रंगंतवस्तु रंगा रागोसविरहिद Wwww9999 is if is ८ ८ 5 un पू w or पूर्व 20 w 20 or us to w ५ ४ ५ ' ६ ३ २ ४ ६ ४ १ ६ ४ င် ११ •war x or w १ १२ ४ १० २ १३ ४४ શ્ર १६३ 03 ६१ ७२ १०५ ផ १६ ७० १४१ १४२ २८४ ३१ ६५ ५३ १६० ४२ ४३ ६१ ३० १६४ ४४ २०४ १८६ २५. ११३ ११३ ६६ २० १०१ १५५. ६६ १६४ ६४ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागो दोसो मोहो रायाहि यवसहा रिसभगिरिरुप्पपव्वदरिसभणगा चउतीसा रिसभसरेण य जुत्ता रिसिसंघ छंडित्ता रुद्द य कामदेवा रुधिरं श्रंक फलिहं रूऊणे श्रद्धाणे रूविहीण तहा रूवं पक्खिते पुण अट्ठविरलिय रूवूर्ण दलगच्छं रोगजरा परिणा रोवंति य विलवन्ति य रोहीरोहितोरण लक्खण वंजण कलिया लक्खा य श्रट्ठवीसा लवणसमुहस्स वहा लवणे कालसमुद्दे लवणो कालयसलिलो लवणोवहिदीवेसु य लवणो वारुणितोओ लवली लवंगपउरा लंबससकरणमणुया लंबंतकरणचामर लंबं तकुसुमदामा लंबं तकुसुममाला " " लंबंतचम्मपोट्टा लंबं तरयणघंटा लंबंतरयणपरा लायणरुवजोव्वण "" " gifera aauri लोयस्स ठिदी या ल m 9 war x O & ≈ ∞ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ १३ ७ १ ४ १० २ ११ ४ १२ १२ ४ १२ २ ११ ३ ६ ११ १० ११ ११ १० ११ ३ ११ ४ २ ६ ९ ११ ४ ३ ३ ४ ७ . ४ गाथानुक्रमणिका ४६ | लोयस्स तस्स या ६६ | लोयस्स दु विक्खंभो लोले च लोलगे खलु १५१ ५७ लोहिय अंजणणामो -३२७ ६६ १८५ २०६ २२३ પ ८० १७१ १७ १५६ १६१ १८० aring रंगेह वज्जभवणो य णामो वज्जमयमहादवे वज्जमया अवगाहा वज्र्ज्जततूरणिवहा 33 वज्जिंदणीलमरगय 33 "" 33 "" " 39 " १४४ 33 ११ | वड्ढइरयणेण पुणो ६७ वड्ढी मन्मचंदे १८२ वणवेइयपरियरिया ६१ ८३ ૫ १२ 33 वणवेदिहि जुत्ता वणवेदिएहि जुत्ता " A " 99 33 " 33 ५२ 39 २०६ "" ६३ वणवे दिएहि जुत्तो ८१ १८६ १६४ २०८ " "" 33 93 33 39 39 "" 15 "" "3 "3 १८३ १८८ वणवेदियपरिखित्ता " " ८८ १४६ | वणवेदिविष्फुरंता ३ | वणवेदीजुत्ता 39 व occ ४ ४ চr ১0 m m 20 w, ३ ४ ३ ३ २. ३ ४ ५. ८ ८ १३ ७ १२ ३ Wwww is it is www V IN ৩ on ११ १२ २ २ ४ २७ १८ १०७ १५.० ६३ १०६ ६१ ៥ १५६ ३८ १८२ १६० ६४ १८६ ४१ २१ ७४ ११६ १२० १३१ ५१ ११ १७ २८ ४३ ४५ ૫૦ ३ २४ १२६ १७२ १२ ५४ १३८ १०६ १७२ २४५ -११६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणवेदीपरिखित्ता जंबूदीवपएणती ६४ | वरदहसिदादवत्ता वरदेविदेवपउरा वरपउमरायकेसरवरपउमरायपायारवरपउमरायमणिमयवरपउमरायमरगय WER UT W २१० १०७ ११७ वणवेदीपरिखिते वणसंडसंपरिउडो intom w x is w १८० ७६ १०. mmM Mr १३५ २६५ २१४ o oro 20 m w mm a २०१ १२५ २२४ वणसंडेहि य रम्मो वणसंडेहि य सहिया वत्तिपमाणेण तहा वत्थंगदुमा णेया वम्महदप्पुप्पाइय . वयणखिदिरहियउच्छयवरइंदीवरवण्णा वरकणयरयणमरगय वरकरिणया दुकोसा वरकप्परक्खणिवहा वरकमलकुमुदकुवलयवरकमलगभगउरो वरकमलसालिएहि य वरकुंडकुंडदोवा . वरकोमलपल्लाणा वरगामण्यरणिवहो वरगामणयरपट्टणवरचक्कवायरुढो वरचामरभामंडल वरचित्तकम्मपउरा वरणइतडेसु गिरिसुय वरणगरखेडकब्बडवरणदिगणेहि जुत्ता वरणदिया णायव्वा वरणालिएररइओ वरतुरयसमारूढो वरतोरणजुत्ताश्रो वरतोरणदाराणं वरतोरणसंकरणो वरतोरणेसु णेया वरतोरणेहि जुत्ता anmGFocom WFmm cwmom www ccommum in acocon वरपडहभेरिमहलवरपट्टणं विरायइ वरपंचवण्णजुत्ता वरपाडिहेरअइसयवरभूहरसंकासा वरमउडकुंडलधरा वरमउडकुंडलधरो वरमउडकुंडलहरो वरमणिविभूसिदं च वररयणायरपउरो वरवज्जकणयमरगयवरवज्जकवाडजुदा वरवज्जणीलमरगयवरवज्जमया वेदी वरवज्जरजदमरगयवरवज्जरयणमूलो वरवज्जरिसहवइरयवरवसभसमारूढो वरवेदिएहि जुत्तं १६६ ३३ १५० १०१ १४४ ww nisa w is 9 % w w w t is ww me who १२१ वरवेदिएहि जुत्ता १८७ १४८ वरवेदिएहि जुत्ताणि वरवेदिएहि जुत्तो वरवेदिएहिं जुत्ता वरवेदियपरिखित्ते वरवेदिया विचिता वरसालिवप्पपउरो Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरसिद्धरुप्परम्भगवरसीहसमारुढो वरसुरद्दिगंधसलिला वलयाए वलयाए वलयामुहाण या ववहारुद्धारद्धा ववहारे जं रोमं वव्वरिचिलादिखुज्जावसभरहतुरयमयगलवसभारणीयस्स तहिं वसरुद्दिरपूयमज्मे वस्ससदं दसगुणिदं वस्ससदे वस्ससदे वस्सं बेश्रयणं पुण वंसधरविरहिदं खलु वंसधरा वंसधरो "" " सहरमाणुसुत्तरवंसहरविरहियं खलु साणं वेदिओ से महाविदेहे वाउदि रत्तसिला वाऊ णामेण तहिं वादो वि मंदमंदो वारुणिदीवादीए वारुणिदीवे या वारुणिवरजलधीए वावी होंति गेहा वावीहि विमलजल वासवतिरीड चुंबिय - वाससदसहस्साणि दु विवरणा पभावो विउलगिरितुंग सिहरे विक्खं मच्छर हिदं विक्खंभ इच्छरहियं विक्खंभकदीय कदी विक्खंभचदुब्भागेण गाथानुक्रमणिका ३ ४४ | विक्खंभपहुंचाएं ६५ विक्खंभ वग्गदसगुण२६ | विक्खंभं आयामं २४ |विक्खंभाया मेण य २६ mw ६ १२ १० १३ १३ ११ ४ ११ ११ १३ १३ १३ ११ ११ ११ ३ ११ १ ३ ४ ११ १३ १२ १२ १२ ४ ११ ७ १३ ११ १ ह ७ १० १ ३६ ३६ १८२ १५६ २८६ १६३ 22 "" " ६ 33 SC " "" 32 39 , < " "" 35 विक्खंभायामेहि य विक्खंभा वि य ऐया ३८ ८ विक्खंभुच्छेद्दादी १४ विक्खंभेण भत्थं ६ | विक्खंभे पक्खित्ते ६७ विक्खंभो य सहस्सा ४६ | विजओ दु समुद्दिट्ठो ६६ | विजयम्मि तम्मि मज्मे विजयं च वैजयंतं ६० १६७ | विजयंतवइजयंता १५० २७६ विजयाणं आयामे विजयाणं विक्खंमे १०५ | विज्जाहरकुसुमाउह२५ | विज्जाहरवर सुंदरि - ३८ | विज्जाहर सेलाणं २६ |विज्जाहराण गयरा १२१ | विज्जुप्पभसेलादो ३५५ वित्थार दुससहस्सा १५३ ११ २६४ वित्थिायामेण य विबुधवइमउडमणिगण विमलजिगिंदं पण मिय विरियंतराय खीरो ८६ विलसंतधयवडाया २३ विसईविसएहि जुदो २ | वियम्मि तम्मि मज्मे २४ विसयासत्ता जीवा २ occoca 6 २ ४ ४ ४ ४ १२ ३ ७ ३ 6AW ૧ ७ ८ ११ १ ७ ७ ४ ४ ११ २ ε १० ३ १३ ८ १३ ११ १३ m ११ २६ २५ ३४ ५२ ८५ ६२ ६४ १०४ १४१ १५८ ५ ६८ १०१ १२७ २३ ११ ३ १५२ १०७ ३४० ४२ ७६ ૧ २१३ ११८ ७६ ४० १४ २२ ५० १७६ १ १३५ २३५ ५७ ६७ १५६ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंसदिजमगणगा पुण वीसहियस या वीसासत्तसदाणि डूमभागे वेइक डिसुतसोहा वेगादविद्धा वेगेण पुणो गच्छइ वेगेण वहइ सरिया वेत्तलदागहियकरा वेदडूगिरीमूलं वेदगिरी वितहा वेदडूढगुहाण ता वेदड्ढणगो पवरो वेदडूढपव्वण य " "" वेदड्ढरिसभपव्वदवेदड्डव गुद्देसु य वेदड्ढसेलमूले वेदड्ढो विय सेलो वेदिकत्तिविहा वेदीदो गंतू " 33 माया य दे वेरुलियदंडविहा वेरुलियदार परा वेरुलियफलिहमरगय वेरुलियरयणखंधो वेरुलियरयणाला वेरुलियरयण गिम्मियवेरुलियरयणदंडा वेरुलियवज्जमरगय 33 33 वेरुलियविमलणालं वेरुलियविमलरणाला वे रुलियविमलदंड वे रुलियवेदिरिणवा 33 १३ ३ २ ७ २ १ ७ ७ ११ ७ ८ ७ ७ ८ ६ ६ २ ७ દ ३ १० १० ११ ४ ६ ५. १३ ६ ४ १३ ६ १३ ३ ६ १३ ६ ६ जंबूदीवपत्ती १४७ | वेलंधरदेवाणं १३२ | वेसमरणरणामदेवो ३५ वोसट्टरयणमाला ६४ सक्कुलिकणा ऐया सक्को वि महड्ढीओो १२५ सकोसा इगितीसा १२६ |सगडाणं जुग्गाणं २८१ सज्झायणियमवंदरण ४ ५२ १२२ | सहिं चेव सहस्सा १४४ सठ्ठी श्रट्टहियाणं २ सत्तमभूमीया सत्तत्तला विष्णेया ७६ २८ सत्तरदणी य यो ११५ १३३ ६ ८४ १०६ सत्तरस एक्कवी साणि सत्तरस सदसहस्सा सत्त वि फरसा सत्तविहरिद्धिपत्ता सत्तसदट्ठाण उदा सत्तसदा पण्णासा ३४ ४० सत्तसयकुभासेहि य ४७ सत्तसयगउदिकोडी २१७ | सत्तसहस्सणदीहि य २३७ सत्ताणीयाण तहा ५.६ सचाणीयाणि तहा ७३ "" " सत्तावरणं च सदा १२२ १२६ | सत्तावीससहस्सा १७५ " ११३ सत्तावीसं च सदी १२६ । सत्तासीदा जोयण در ११५ सत्तेव महामेघा ७५ सत्तेव सयसहस्सा ३२ सत्तेव होंति लक्खा १२६ | सत्थे सुतिक्खेण य १३५ | सदरविमाणाहिवई १४६ | सदनि सय राजधाणी स or 150 १ २ १० ११ ३ १३ १० ६ ११ २ २ ११ १२ ११ ११ ७ १० ६ १३ १ Ε ६ ६ ११ ११ ह १० ३ ८ ७ ६ ६ १३ у १३ ३२ १३१ ७१ ५४ २३७ ५१ ३० ६८ ૫ ८१ ६० ८४ २५३ ५६ ६५ १७७ ६३ १७ ह १२४ ૨૫ १३६ ક્ષ ७० १३१ Εξ ८० १५ ३१. ५.१ ५७ १२६ ४२ १८ १०३ १५० Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका सद्धावदि विगडावदि समचउरंसा दिव्वा समतालकंसतालं समहियतिभाग जोयण समहियदिवड्ढकोसा २२६ समहियसोलसजोयणसम्मत्तश्रभिगदमणो सम्मइंसणरयणं सम्महंसणसुद्धा सम्मइंसणसुद्धो Me9॥ Me Mumm" २७२ २६ २२५ २१७ ६७ १२३ १८८ १६७ २०६ सव्वागासस्स तहा २१४ सव्वाण अणीयाणं २६३ सव्वाण गिरिवराणं १६ सव्वाण पव्वदाणं ८६ सव्वाण भूहराणं १८४ सव्वाण विदेहाणं सव्वाणं इंदाणं सव्वाणं कलसाणं सव्वाणं च णगाणं सव्वाणं चरिमाणं सव्वाणं देवीणं १६५ सव्वाणि जोयणाणि य ६२ सव्वाणि वरघराणि १६८ सव्वा वि वेदिसहिया सव्वे अकिट्टिमा खलु सव्वे प्रणाइणिहणा सव्वे तोरणणिवहा सव्वेदे मेलविदा सव्वे वि जिणवरिंदा सव्वे वि पंचवरणा १०६ सव्वे वि वेदिणिवहा ५१ १४५ सव्वे वि वेदिसहिदा ७६ सम्वे वि वेदिसहिया २७१ ३५६ २०३ सव्वे वि सुरवरिंदा ८३ सव्वेसिं एदाणं ४४ | सव्वेसु णगेसु तहा सम्वेसु भूहरेसु य १५ सव्वेसु य कमलेसु य ११० सव्वेसु य पासादे ११६ सव्वेसु वणेसु तहा ८३ सम्वेसु हाँति गेहा २६० | सव्वेहि जणेहि समं ६५ | ससहरकिरणसमागम सम्मदंसणहीणा सम्मादिट्ठिजणोघे सम्मोहसुराण वहा सयलघणतिमिरदलणं सयलं जंबूदीवं सयलावबोहसहियं सयवत्तगब्भवएणा सरए णिम्मलसलिलं सरिपव्वदाण मज्मे सरिमुखदसगुणविउला सलिलम्मि तम्मि उपरिं सयजोयण उग्विद्धा सविदा चंदा य जदू सव्वट्ठविमाणादो सव्वणईणं णेया सव्वण्हुमुहविणिग्गयसव्वण्हुसाधणत्थं सव्वएडं सव्वजिणं सव्वदिसा पूरेता सव्वभरहाण णेया सम्वविदेहेसु तहा सव्वंगसुंदरीश्रो सव्यंगसुंदरी सा सव्वायो वेदीभो comwoman wome2000 cceen and we wice are acc १४० १२८ M99NESomeon on २७३ १२७ ५३ २२७ ४३ १६६ ८३ ६६ १६० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ससिकंतरयणणिवहा ससिकंतरयणसिहरा ससिकंतवेदिणिवहा ससिकंतसूरकंता ससिकंतसूर कंतो ससिकुमुदमवणा ससिधवलसुरहि कोमलससिधवलहंसचडिओो ससिधवलहारसंणिभससिसूरकंत मरगयससुरासुरदेवगणा 33 ," सहसेहि चउदसेहि य संखपिपीलियम क्रुणसंखवरपडहमणहर संखिंदुकुंदधवला संखिंदुकुंदधवलो संखिंदुकुंदवा संखेज्जमसंखेज्जं संखेज्जवित्थडा किर संखेज्जवित्थडाणि य संखेंदुकुंद धवलं संखेंदुकुंदवणो संगीणसाला संगीयसद्दबहिरिय संजमतवेण हीणा संजमतवोधणारणं संजलिदो श्रमश्र संडासेहिं य जीहा संणद्धबद्धकव संणद्धबद्धकवया संदेह तिमिरदलणं संपुरणचंदवणा सपुण्णचंदद्वयणो संबंधसयणरहिया संभवजिणं गमंसिय संभंतमसंभंतो ३ ६ ε ૧ १० २. ૫ ૫ 20w Dow is x ४ ४ ८ २ ४ १२ ૫ २ १३ ११ ११ ४ ५. २ ४ १० १० ११ ११ २ ११ १३ २ ३ २ سم ३ ११ जंबूदीवपणती २०० | सा चेव होदि रज्जू ६६ सामाणिएहि सहिया ७६ सामाणि सुरिंदो ७४ | सामाणियाण वि तहा ४२ | सायरकोडाकोडी ५८ सायरतरंगसंणिभ११६ सारसविमारुढो ६७ | साहस्सिया दु मच्छा २८ साहासिहरेसु तहा १५१ १५३ साहासु होंति दिव्वा साहू उत्तमपत्तं १६६ | साहोवसाहसहिओ ४५. । सिदहरिकसणसामलसिद्धवरणीलकूडा १४३ १५२ | सिद्धद्दिमवंतणामा | सिद्धहिमवंत रहा २ १८२ ३ २४५ २४४ सिद्धतं इंडित्ता सिरिदेविपादरक्खा सिरिभद्दा सिरिकंता सिरिमदि तहा सुसीमा सिरियादी देवी २५४ सिरिवच्छसंखसत्थिय१०५ | सिरिविजयगुरुसया से ६६ सिरिहिरिधिदिकित्ति ६० सिसिरयरकरविणिग्गय ६५ सिसियरहारसंणिभ६४ सिसिरयरहारहिमचयसिहरम्मि तस्स या १५२ १६६ | सिहरेसु तेसु या ८ | सिहरेसु देवणयरा २४२ सिंगमुहकएणजीहा ८२ सिंधू य रोहिदासा १६३ |सिंहास णमज्झाया ११४ "" १६६ "" १ | सिंहासछत्तत्तय१४७ | सिंहासरण संजुता " "" १२ ५ ३ ६ २ ४ ५ ११ ६ ६ २ ६ ४ ३ ३ ३ १० ३ ४ ११ ३ ११ १३ ३ ४ ६ ४ ४ ६ ४ ३ ४ ३ ११ १ ४ ५४ ६४ ११३ १४२ ११५ २३५ ξε ६३ १६१ १५८ १४६ १५७ ५८ ४३ ४१ ४० પ ११८ ११२ ३१३ २४६ १६४ עב ११६ ११८ १७४ १०२ १६ ७६ १५१ १६३ ११७ ૫ १३५. ४१ ६६ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ सिंहासणेसु णेया सीदाए उत्तरदो सीदा वि दक्खिणेण य सीदासमीवदेसे सीदासीदोदाणं ५६ १४२ ६६ १w umr » 9 or wour १२३ सीदोदापणदीए सीदोदाविक्खंभ सीमंतगो दु पढमो सीलगुणरयणणिवहं सीहगयहंसगोवइसीहमुहा अस्समुद्दा सीहासणछत्तत्तय १२७ १३३ ६५ પુર For a u ११६ COM गाथानुक्रमणिका २८२ | सुसमा तिषणेव हवे ३३ | सुहुमंतरिदपदत्थे ५५ | सूची विक्खंभूणा १७१ सूवरसियालसुणहा १८२ सेढिस्स सत्तभागो सेढी हवंति अंसा सेणावई वि धीरो ८५ सेएणं अणोरपारं सेएणं णीसरिदूणं सेदमलरहिददेहो | सेदादवत्तचिरहा सेदादवत्तणिवहा सेदादवत्तसरिसा ७१ सेयंसजिणं पणमिय सेलाणं उच्छेहो १६२ सेसं श्रद्धं किच्चा १४६ सेसाण-तु गहाणं १६३ सोऊण तस्स पासे ३२६ सो कायपडिच्चारो १८८ सो जगसामी णाणी सोज्झम्मि दु परिसुद्धं ८१ सो तत्थ सुहम्मवदो सो तस्स विउलतवपुण्णसोदयदलवित्थिरणा सो दु पमाणो दुविहो सोदूण देवदे त्ति य | सोधम्मीसाणाणं सोधम्मे जह सोमो ३३६ सो भुंजइ सोहम्म १६७ | सोमजमवरुणवासव७२ सोमणसपंडुयाणं ३५ | सोमणसस्स य अवरे १८१ सोमणसस्सायाम सोलस चेव चउक्का १५१ सोलस चेव सहस्सा १५२ सीहासणमझगयो सुककोकिलाण जुयला सुकयतवसीलसंचयसुकुमारकोमलंगा सुकुमारकोमलाओ सुकुमारपाणिपादा १४५ 20099 9000 900mmmmm our we" ८४ सुकुमारवरसरीरा सुक्कमहासुक्केसु य सुक्कस्स हवदि कोसं सुएणदुगएक्कसुरणं सुमइजिणिंदं पणमिय सुमणस तह सोमणसं सुमरेदि पुवकम्म सुरक्ष्यदेवच्छंदा सुरघरकंठाभरणा सुरणगरसंपरिउडो सुविणिम्मलवरविउला सुविसालण्यरणिवहो सुविसालपट्टणजुदो सुसमसुसमा यमुसमा m merosar w १३६ ७५ ar Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जंबूदीवपएणती सोलस चेव सहस्सा س م सोलसजोयणऊणा सोलसजोयणतुंगा مه ته مه عم ع १२० | हंसबहुगमणदच्छा ६ हारविराइयवच्छा ४८ हारविराइयवच्छो हिमवदललल्लंकं ५२ | हिमवंतअंतमणिमय हिमवंतमंहतस्स दु ه م SHR १५५ مه س सोलसजोयणदीहा १४६ ه م م س २२६ س س २३० س ه مهمه و १५७ س सोलसदलमिच्छगुणं सोलस दु खरे भागे सोलस देविसहस्सा सोलसयसयसहस्सा सोलमवक्खाराणं सोहम्मसुरवरस्स दु सोहम्मिदो सामी सोहम्मीसाणसुरा सोहम्मीसाणाणं २२८ ہ २६५ . १७१ ه س ہ ہ ہ १०६ ३५१ ३३४ م ہ ه hy ११६ हिमवंतमहाहिमवं ३१४ | हिमवंतसिहरिसेला हिमवंतस्स दु मूले हिययमणोगयभावं हुववहजालापहदा हेछा मज्मे उवरिं | हेट्ठिमगेवजाणं । हेट्ठिमगेवेजाण य हेठिल्लम्हि तिभागे १५६ हेमगिरिस्स य पुव्वा१२२ हेमवदस्स य मन्मे ११८ हेरण्णवदे खेत्ते होइ अरिठ्ठविमाणं २२२ | होऊण भोगभूमी ६२ होदि दिवड्ढा रदणी १८१ | होति महावेदीओ २४५ | होति य मिच्छादिट्ठी ہ ہ س مه به س س س س हम्मंति ओरसंता हरडाफलपरिमाणं हरिरम्मगवरिसेसु य हरिवरिसम्मि य खेत्ते हरिवंसस्स दु मज्मे हरिहरहिरण्णगन्भा हरिहरिकंतातोरण इलमुसलकलसचामर २३५ ه م २१५ २३४ ३३१ २०६ ३५२ س س سه ه م م ८२ गणित-गाथानुक्रमणिका गाथा गाय गायांश अणुगुरुचावविसेसं भारणोएणगुणण तहा अण्णोएणभत्थेण य पू५ edan । गाथांश ३० | इच्छागुण विएणेया इच्छाठाणं विरलिय इसुरहिदं विक्खंभं इसुवगं चउगुणिदं इसुवग्गं छहि गुणिदं २०५ | उग्गाडेहि विहूणं rod ur ar ar अंसो अंसगुणेण य इच्छगुणरासियाणं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादीरुवुसरमोगाद्वविखंभं कच्छपमाणं विरलिय डिसिरविसुद्ध सेसं कडिसिरविसेस श्रद्धम्मि खेत्तादिकला दुगुणा चद्गुणइसूहि भजिदं छच्चैव य इसुवरगं छहि गुणिदं इसुवर्ग जत्थिन्छसि विक्खभ " "" "3 जीवा गुरुअणुसुद्धा जीवावग्गविसोधिय "" जीवावग्गं इसुखा जीवाविक्खंभारणं उदिस देहि विभत्तं तह ते चैव यरूवा ते पुव्वुत्ता रूवा दस विक्खंभेण गुणं दीवस्स समुद्दस्स य शब्द अन्ध अचक्रान्त अच्युत कल्प अधोलोक अनुदिश अ पर विदेहकूट २ ६ ४ ४ ४ ४ २ २ २ २ ६ १० ११ २ २ ६ ६ २ १२ १२ ४ १० गायानुक्रमणिका १६ | दीवोवहिपरिमाणं ६ दीवोवहीण रूवा २०४ दुगुम्मि दु विक्खंभे ३२ १३५ | बाहिरसूचीवग्गो ३६ | माणुसखेच णिबद्धा पदगतमवइकउत्तर १५ मुद्दतलसमासश्रद्धं २६ | मुहभूमिविसेसेण य २८ 39 २४ | रूऊणे श्रद्धाणे ४७ | रूवविहीणेण तहा विरलिय " ६६ | रूवूण १६ - रूवू दलगच्छं ३१ वयणखिदिरहिय उच्छय २६ | विक्खंभइच्छुरहियं १२ विक्खंभकदीय कदी ११ विक्खभचदुब्भागेण १७ विक्खंभ पहुंचाएं शब्द अपराजित ११-१४८ | अपराजिता ११- ३३३ अब्बहुलभाग ११- १०६ अभ्र ११- ३३७ | अमरावती ११ - १५४ अमोघ ३-४२ / अयोध्या ६१ | विक्खंभवग्गदसगुण ५८ | विक्खंभेण भत्थं ३३ | सूची विक्खंभूणा ६५ | सोलसदल मिच्छगुणं भौगोलिक शब्द-सूची ( क्षेत्र, पर्वत, नदी, द्वीप-समुद्र, कूट एवं नगर आदि के नाम ) गाथांक शब्द गाथक १-३८, ११-३४० अरजा - ८-१२६, ६-१२५ | अरिष्ट ११- ११५ अरिष्ट नगरी ११- २१० अरिष्टा ६-४६, ११-२२६ अरुण ११-३३४ अरुणाभास ६-१५२ | अि १२ १२ १० १२ १० १२ ११ ३ १० ४ १२ ४ १२ ३ 6 १० १ २ ४ १ १० १ ३५ ५६ ५४ ६१ २० ८५ ६० १०८ २१३ २१ २२३ પદ્ १७१ १७ २१४ २३ २ २४ २५ ३४ २३ ८६ २८ गाथांक ६-४६ ११-३३१ ८-२१, ८-२६ ११-११२ ११-८५, २०७ ११-८५ ११-३३८ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अर्चिमालिनी अवतंस अवतंस कूट अवधिष्ठान अवध्या अशोक अशोका अश्वपुरी असम्भ्रान्त असिपत्र अंक अंका कावती अंजन अंजनगिरि जनमूलका अंजनशैल अंजना आत्मांजन आदर्शन यादित्य श्रानत आर आरणकल्प ears आवर्ता आशीविष ८-१४५ ४-७५, १३, ११-३२६ ८- १४७ ११-११८ ३-३७ ११-११२, ११८ श्री ईशान ईषत्प्राग्भार उज्ज्वलित ११- ३३८ उत्तरकुरु ४-७५ उ ११-१४७ ११- १७० ११-२०१, २२० ११- ११८ ३-४३ ११ - १५५ उत्पलोज्ज्वला उदकभास ६-१६४ ११- २१५ | उदकसीम ९-६७ उद्भ्रान्त ६-१६ उन्मग्नसलिला उन्मत्तजला ३-४० इलाफूट इषुकार (इष्वाकार ) ११-३, ७५ जंबूदीवपरणची उत्तर कुरुद्रह उत्पला ११-३०६ ११-३५६ ऊर्ध्वलोक ऊर्मिमालिनी ८ - १६६ / एकशैल ८-१६६ ऋतुविमान ऋद्धीश ऋषभ नग ऋषभशैल ११- ३३७ | ऐरावत ११- ३३२ | ऐरावत द्रह ११- १५३ ११- ३३३ औषधि ७-१०६ ८-३४ ६-५२ | कच्छुकावती कच्छा विजय कज्जला कनक नग कंचन ऊ कंचन कूट ११- १५१ कंचन पर्वत कज्जलाभा कदंबक कनक (सुवर्णकला) कूट ऋ ६- ३ | कंचनशैल ६-२८ कापिष्ठ ४- ११० कालोदक कीर्तिकूट " १०- ३१ १०- ३३ ११- १४६ २-६८ ८- १५५ कुं केसरी ४-१३६,११-१६३ | कौस्तुभ ११- २०७ | क्रौंचवर कुमुदप्रभा ११-१०६ कुमुदा ६- १४५ कुशवर १-५७ क्षारोदा ७- १४८ | क्षीरवर ८- ६४ २-२ ६-२८ ८- ६१ कुण्डल द्वीप कुण्डलवर कुण्डल शैल कुण्डला कुमुद ८-२६ ७-३४ ४-१११ ११- २०७, २१५ क्षुद्र मे क्षेमपुरी क्षेमापुरी क्षौद्रवर 93 १०-३ ३-४५ गज १-५६ |गन्धकुटी खग्ग खडखड खड्गपुरी खड्गा नगरी खण्ड प्रपात खरभाग खाड ५-१२० ११-८५ ३-३७ ८-११७ ४-७५ ४-११३ ४-११०, ११३, ६-६४ ११-८५ १०-१ ३-३६ १०- ३० ११-८५ ६-२६ गन्धमादन गन्धमालिनी ३-४४ ६- २२ | गन्धर्वनिवास ६-४४, १४४ ११-३३२ ११-४३ ३-४३ ख ११-८४ ११-२२ ८-१० ७-३८ ११-८४ .११-२२७, २२८ ११-१५३ E-१४३ ८-३७ २-४६६ ११-११५ ११-१५३ ११-२११ ५-३ ६-२, ६-१७५ ६-१५७ ४-८४ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ३७ देवकुरु १०-११ / देवकुरु द्रह १-३८, ११-३४० | देवच्छंद ६-११६ / देव पर्वत ११-३०४ देवसम्मित १-२०, ११-८४/ देवारण्य १-७०,३-१२८ द्रहवती ११-१४६ घातकीखएड १०-११ धारापतन ११-११७ धूमप्रभा धृतिकूट ११-१५४ ६-८१ ६-८३ ५-२६ ६-१५४ ११-३३१ ८-७७, ६-७८,८८ ८-३२ जिह ११-२ ३-१६६ ११-११३ ३-४२ का गन्धावतो ३-२०६। गन्धिला ६-१४६ जघन्य पाताल गम्भीरमालिनी ६-१०६ जयन्त गरुल ११-३२६ जयन्ता गर्भगृह जलजल गंगा २-६३, ३-१४७, १६२ जंबूद्वीप गंगाकुंड ३-१६४ जंबू द्रुम गंगाकूट ३-४० गंगाकूट प्रासाद ३-१५८ जिहिक गंगातोरण ३-१७६ ज्येष्ठ पाताल गांधारकूट ३-४५ ज्योतिरसा गोमेदका ११-११७ गौतम द्वीप १०-४३ भष ग्रन्थी ११-६७,६८,६६ ग्रहवती ८-१५ तपन तपनीय धर्मा घाट घृतवर ११-८४ तमक चक्र ११-३३० तमप्रमा चक्रपुरी ६-१३४ तमस्तमा चक्रान्त ११-१४८ तापन ११-११६ चन्दना तार विगिंछ चन्द्र ११-२०३ चन्द्र पर्वत तिमिस्र -६६ तिमिस्रगुह चन्द्रप्रम ६-१२५ तोरण चन्द्र सर ६-२८ त्रसित चंचत् ११-२८७ त्रिकूट चारणालय त्रिभुवनतिलक चित्र चित्रकूट ६-२२, ८२,७-३३,८-३ चित्र नग थडग चित्रा ११-११७ चूलिका ४-१३२ | दधिमुख चैत्यवृक्ष ५-४६ | दिमाजेन्द्र ११-११२ | तप्त ११-१४६ तप्तजला | तम नलिन नगेन्द्र पर्वत २-१६६ ११-१५१ नन्दन ११-२०६ ४-१०३, ११-२२ ११-१४७,१५१ नन्दन वन ४-६४ ८-१२० नन्दीश्वर ४-५४, ११-८५ नन्दीश्वर द्वीप ११-१५४ ५-१२० नरक ११-१५३ ११-१४६ नरकान्ता ३-१६३ ११-११३ ११-११३ नरकान्ता कूट ३-४४ ११-१५१ ११-२०७ नलिन कूट ११-२५३ ८-३६ नलिनगुल्मा ४-११३ नलिना ४-११०, ११३,६-५५ २-८६, ११-१५४ नंदावर्त ११-२१० २-५० नाग ११-३२६ ३-१७५ नाभिगिरि ३-२१५ ११-१४७, १५१ नाभिनग ८-११. नारी ३-१६२ नारीकूट निदाघ ११-१५१ ११-१४६ निमग्नसलिला २-१८ ३-२४,४-१०३ ३-३७ निषघकूट ३-४२ १-५८, ४-७४ | निषधद्रह ६-८३ निषध Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपण्णत्ती नील नीलकूट नीलवान् प पद्म पद्मकावती पद्मकूट पद्मद्रह पद्मा पद्मावती पद्मोत्तर पलाश पंकप्रमा 11111 i sililili ६-१६ 44 पंकबहुल पंकवती पाण्डक पाण्डुक वन पाण्डुक शिला पाण्डुकंबला पाताल पारियात्र पिष्ट पुण्डरीक पुण्डरीकिणी पुष्करवर पुष्करद्वीप पुष्कला पुष्पोत्तर पूर्णभद्र पूर्वविदेह कूट प्रज्वलित प्रणाली प्रभ प्रभ विमान प्रभंकर प्रभंकरा ३-२४,४-७५ प्रभास ११-३३८ मनक ११-१४६ ३-४३ प्रभास द्वीप ७-१०४ मसारगल्ल ११-२१५ ६-२८ प्रवाला . ११-११७ मसारगल्ला ११-११७ प्राणत पटल ११-३३३ महाकच्छा ८-१६ ११-२१० प्राविहार्य ५-५१ महानाग ६-१३७ ६-३६ प्रियदर्शन ११-३३० महापद्म ३-६६ ८-२३ प्रीतिंकर ११-३३६ महापद्मा ६-३२ ३-६६ प्रेक्षागृह ५-३७ महापुण्डरीक ३-६६ महापुरी ६-३४ ८-१५३ फेनमालिनी ६-१२७ महापुष्कलावती ८-६८ ४-७५ महावत्सा ८-१२३ महावप्रा ६-११२ बलभद्र ११-११३ ११-३३० महाशंख १०-३२ बलभद्र कूट ११-११५ ४-६६ महास्तूप बहुला ११-११६ ८-४८ महाहिमवान् बुद्धिकूट ११-२८ ३-४४ मंगलावती ८-१७५ ४-६४,१३० ब्रह्म ११-३३२ मंगलावर्त ८-४२ ब्रह्मतिलक ४-१३८, १४८ मंजूषा ८-४६ ब्रह्मोत्तर ४-१३६,१४६ मंदर ३-३७,४-२१, १०३ १०-३ मंदिर ११-२१५ १३-१६८ भद्रशाल वन ४-२४,४२ मागध द्वीप ७-१०४ ११-२११ माघवी ११-११२ भरत २-२, ११-७० ३-६६ माणिभद्र ४-५० भरतकूट २-४६, ५.१,३-४० ८-७२ मानुषोत्तर २-१६६, ११-५८ भुजगवर ११-८५ २-१६६ मानुषोत्तर शैल ५-१२० ११-५.७ ४-१११ मार ११-१५३ भुंगा ८-५ माल्यवन्त ६-२ भ्रम ११-३३३ ११-१५४ माल्यवान् ३-२०६, ६-१७८ ४-५० ११-१४६ माल्यवान् द्रह ६-२८ ३-४३ मुखमण्डप ११-१५२ | मघवी ११-११२ मेघ ११-२०९ ३-१५२ मणिकांचन कूट ३-४५. ११-११२ ११-२१२, २६७ मणिभवन ४-८४ मेरु २१-२२५ मत्त ११-२१२ म्लेच्छखण्ड ७-१०६ ११-२०८, २१० मत्तजला ८-१३८ ८-१३५, ११-२२६ | मध्यम पाताल १०-११ यमक १-५६, ६-१५ शृंगनिभा. मेघा in Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमकूट यशोधर यूपकेसरी रक्त कंबला रक्तवतिका रक्तवतीकूट रक्त शिला रक्ता रक्ताकूट रक्तोदा रजतकूट रतिकर रत्नचित रत्नप्रभा रत्नसंचया रमणीया रम्यक रम्यककूट रम्या रसदेवीकूट रुक्मि रुचक रुचककूट रुचक शैल रुचकांजन रुधिर रूप्यकूट रूप्यकूला रूप्यकूला कूट रोचनगिरि रोरुक रोहित रोहितकूट रोहिता रोहितास्या र ६-२२ ११- ३३५ | लक्ष्मीकूट १०- ३ लल्लंक लवण समुद्र ४-१४०, १४६ लान्तव ३-१६३ लोक ३-४५ | लोल ४- १४१, १५० लोलक ३-१६२, ७- ८६ | लोहित ३-४५ लोहितांका ७-८६ ३-४५ ३-३७ वक्षार ११- ३०४ ११-११३, १२० ८- १६१ ८-१६५ २-२ ३-४३ ८-१४० गाथानुक्रमणिका ल ३-४५ वत्सा ३-१६ वनक ४-१०३, १२-८५ वनमाल ३-४२ |वप्रकावती ५-१२० वप्रा ११- ३२८ वरतनुद्वीप ११- २०६ | वरशिख ३-४४ वर्चका ३-१६३ | वर्दल ३-४४ वलयमुख ४-७५ ११ - १४६ ११-२०७ वक्षारनग वज्र वा प्रणाली वज्रप्रभ वज्रभवन वज्रा वत्सकावती वल्गू वंशा वारानगर ३-४० वारुणीवर ३-१६२ | वालुकाप्रभा ३- १६३ | विकटावती ३६ ११- १४८ ६-७५ ६-२२, ८२ ६-८७ विजय १-३८, ४- १०३, ११-३४० विजयपुरी विदेह विदेहट " विद्युत्तेजद्रह ४-६३, ११-२१० ११-११७ विद्युत्प्रभ विपुलगिरि विभंगा विभ्रान्त विमल विरजा वीर वृत्त वैताढ्य ३-४५ ११- १५५ विचित्रकूट विचित्रनग १०-२ ११-३३२ ४-२, ११-१०६ ११-१५० व ७-१८ १-५७ ४-१०३, ११-२१० ३-१५३ ४-६१ विक्रान्त विगत (वीत शोका " वृषभ वृषभगरि ११- ११७ | वैजयन्त ८- १३२ |वैजयन्ती ८ - १०३ वैडूर्य ११-१४६ | वैडूर्यकूट ११- ३२६ | वैर्या ६-१२२ | वैतरिणी ६-६३ | वैताढ्य ७- १०४ | वैताढ्यकुमार ११- ३०३ वैरोचन ११-११६ | वैश्रवण ११- १५५ वैश्रवण कूट १०-३ ६-१३०, ११-२०४ ११-११२ १३-१६६ शर्करा प्रभा शंख ११-५४ | शंखवर शंखा ६-४१, ६७ २-२, ७–२ ३-४२ ६- =३ ६-१० १-६ ८- १५५ ११- १४७ ११-२०२, ३३१ ६-५८ ११-२०५ ३-२०६ ३-१५१ २-१०५ १-३८, ११-३४० ६-१०७ ११-२०८ श ३-४१ ११-११७ ११-१६२ १–५७, २-३२ २-५० ११-३३८ २-५१ ८- १२८, ३-४० ११-११३ १०- ३२ ११-८५ ११-११३ ६-४६ ३-२०६, ६-३६ | शाल्मलि ३-१३४, ६-८५, १५४ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० शाल्मलि तुम शिखरी शिखरीकूट शिलामय शुक्र शुभा श्रद्धावती श्रीकान्ता श्रीकूट श्रीनिलया श्रीभद्रा श्रीमहिता श्वेत सनत्कुमार सभागृह समित सम्भ्रान्त सरिता सर्वतोभद्र सर्वार्थ सहस्रार संघाट संज्वलित संप्रज्वलित सागर सायर सिद्धकूट सिद्धार्थवृक्ष सिंधु १-७० | सिंधुकूट ३-३ | सिंधुतोरण ३-४५ सिंहपुरी ११ - ११९ | सीता ११- ३३२ | सीताकूट ८- १६७ | सीवोदा ३-२०६, ६-२१ सीतोदाकूट ४-११२ सीमंतक स जंबूदीवपणती ३-४० सुकच्छा ४-११२ सुखावह "" सुदर्शन सुदर्शन जंबू "" ४-६३ सुधर्मा पद्मा सुप्रबुद्ध ११- ३२८ | सुभद्र ५-३८ | सुमनस ११-३२२ सुरम्या ११- १४७ | सुरस द्रह ६-७३ सुराकूट ११- ३१७ | सुवत्सा ११- ३३६ | सुवर्णं ११-३३२ | सुवर्णकूला ११-१४७ | सुवर्णतेज ११- १५२ सुवल्ग सुविशाल 39 ४- १०३ | सुसीमा ११- ३३३ | सूरद्रह २- ४६, ३–४०, ४१ सूर (सूर्य) पर्वत ५-४७ सौधर्म २-६३, ३-१६३ | सौधर्म सभा ३- ४० | सौमनस ४-६४, ६-३, ११-३३६ सौमनस वन ३ - १७६ ४-१२६, ११-२५ ११-१४६ ६-२७ स्तनक ३- १६२, ६-५५ स्तनलोलुक ३-४३ | स्तूप ३-१६३, ६-४४ स्फटिक ३-४२ | स्फटिका ११- १४६ | स्रोतोवाहिनी ८- ६ |स्वयम्भुरमण ६-७० ४- १, ११-३३४ स्वयम्भुरमण द्वीप स्वस्तिक ६-५७ स्वातिवृक्ष ११-२१४, २२७ ६-२४ ११-३३४ ११- ३२०, ३३५ हरिकान्ता ११- ३३६ |हरित् ८- १५० हरित्कूट ६-८३ | हरिवर्ष ३ - ४० ८- ११४ हरिवर्षकूट हरिविजय कट ४-६१ हरिकान्ता ३- १६२ | हारिद्र ४-११ हिम ६- १३६ | हिमवन्त ११- ३३५ हिमवन्त कूट - १०७ |हैमवत ६-८३ हैमवत कट ६- ११६ | हैरण्यवत ११-२१३ | हैरण्यवत कूट ११-२१६ | ह्रीकूट ११- १५० ५-४१ ११-२०६ ११- ११८ ६-६० २- १६७ ११-८८ ४-७५ ६-१४५ ३-१९३ ३-१६२ ३-४२ २-२ ३-४१ ३-४२ ३-४१ ४-६३, ११-२१० ४-१०३, ११-१५५ ३-३ ३-४० २-२ ३-४० २-२ ३-४४ ३-४१ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मभूमि अग्निकुमार अकास्म अच्युतेन्द्र अजित घटट धरणु भविदुः षमा अतिशय असार पल्य अनन्तजिन अनन्तज्ञान अनन्तवीर्य अनाहत यक्ष अनीक धनुमान अनुयोग अपराजित अपान अभयदान अभाषक अभिषेकगृह श्रमम अमोघ शर भर तीर्थकर भरइन्स अरिष्टनेमि ૬ ६ गाथा २-१४७ ११-१२४ १३-१४ ५-१०८ २-२१० १३-१३. १३-१७ २-१७५ २-१८०, १३–८८, ६७, १०१, १११ १३-४० ८-१६८ १३-१३२ विशेष-शब्द-सूची ३-१०१, ४-१५८, ११-२७८ १३-४४ १३-१७१ १-१२, ४२ शब्द अरिष्टयश अथप्रभ अर्थावग्रह etests महत् अवग्रह अवसन्नासन्न अवसर्पिणी अवाय १३- १३५. असुर ६-६७ | असुरकुमार अहमिन्द्र अविरतसम्यग्दृष्टि अश्वमुख अष्टमभक अष्टमंगल अष्टादश दोष अंग अंजू आगमदान २-१५० आगम प्रमाण २-१४८ || आचार्य १०- ५३, ११-५१ आत्मांगुल ३-१४२ | आदर्शनमुख १३-१३ | आदि ७- ११८ आदित्य १० - १०२ | आदित्य देव २- १८० मानवेन्द्र १२- ११३ थ अभिनिवोधिक गाया ११-२६१: अभियोग्य ३-२२२ | अभियोग्य सुर १३-५५, ५७, ६१ | आस्थानगृह १३-१६ | आहारदान १३-६४, ६६ भारयेन्द्र ७-६६ आवली १-१ आशीविष २-११५, १३-४२ १३-५५, ५६, ६३ २-१६५ १०-५५. २-१२०; १३ - ११२ १३-८४ | ईहा ११-११३ ११-१२४ ४-२७६ उच्छवास १३-८१ उत्तम पात्र ११-२५८ उचर पु करणी ईशानेन्द्र उत्तरकुमारी उत्तरधन २ - १४८ १३- ४४ उत्सर्पिणी उत्सेधांगुल १- ३ || उदधिकुमार १३-२३, २७ उद्धार पल्य १०-५७ उपपादगृह १२- १६ ३-८७ उपमा प्रमाण उपाध्याय ६-१२१, १७१ ५-१०५ १३-५६ मि उ गावा २-४२ १२-६ ५-१०७ १३-५ ६-५४ ३-१४२ २-१४८ ५-६४, ११-३२७ १३-५५, ५८, ६२ २-२५ .२-२६ E १३-५ २-१४६ १२-१६ ६-३८ १२-४२ २-११५, १३–४२ १३-२३ ११-१२४ ११-३६ ३-१४२ १३-४४ १-४ १३-५२ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋद्धिगारव ऋषम . ० २४ | चक्रवर्ती २-१, ४-२२७ / कुमानष एकोहक ऐरावण ऐरावत ऐराववकुमारी औषधदान २-१४८ खेट अंदीवपरणाची १०-६६ कुभाषा . १३-१२४ | चक्रवर्ती २-१७६, ७-६७ कुमानुष १०-५०, ६१, ११-५३ | चतुर्थभक्त २-१२३ कुमानुषद्वाप ११-४६ | चतुर्दशपूर्वी १-१३ कुमुद १०-५३, ११-५१ १३-१३ चतुर्मगन ५-११८ केवललब्धि १२-१, १३-१३५ | चतुःशरण क्रीडनगृह ३-१४२ चन्द्र ३-६३,६-१७१, ४-२५३, ११-२८८ क्षत्रिय १-१४ १२-५, १४ ११-२५० क्षायिक सम्यक्त्व १३-१३१ । चन्द्रकुमारी ६-३८ चन्द्र सुर ६-१०१ चन्द्रा खील ११-२७१ १२-१०४ परमदेहधर २-१८५ ७-५१ चर्म रत्न ७-१४० चातुर्वर्ण्य संघ ८-१६७, १०-७४ ४-३१ । गच्छ १२-१६ चारण मुनि १०-५५ गणधर १-११,७-६३ चित्रकुमार ६-१७२। गर्भगृह ३-१४२ चीनांशुक २-७२ १३-१३ गन्यूति २-३१ १३-८६ गंगदेव १-१५ ७-५०] गंगादेवी जघन्य पात्र १०-५४] गान्धार २-१४६ ४-२२८ जतु ३-६७,४-१५५, २-१५३ गारव १०-६६, १३-१६२ जय १-१४ २-१६ | गिरिकन्या ४-८७ जयन्त १-४२ २-११५, ११-३४१ १३-१३६ जयसेना ११-३१३ गुप्ति १३-१७४ गृहांगद्रुम २-२३ गोमुख १०-१७ |जीवाकरणी २-२७ २-१५ गौतम | ज्योतिर्दुम प्रन्थी ११-६६ ११-२३८ | ग्रह १२-३५,८७ १३-२। वारा १२-३५,45 १०-५५ घनांगुल तीर्थकर २-१७६, ७६१ ११-२५८ १३-२४ २-१२८ १०-१५ तूर्यागद्रुम घूकमुख १३-३३ त्रस प्रसरेणु १३-२१ ११-३२१ | चक्रधर ७-१११ / त्रिदण्ड १३-१६२ कटि कपिमुख कपिल कमल कमलासन कर्वट कर्णप्रावरण कर्मभूमि कला १३-३४ | चूलिका गण. २-१३१ | जीवा कांचन देव . कंसाचार्य कापिष्ठ इन्द्र कामदेव काय कायप्रवीचार काल कालमुख कालिंदी कीर्ति कुबेर Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-१६,१२-३५ पवनंजय पाद नलिन दुर्गा दन ६-१३० / पूर्वांग विशेष-शब्द सूची ४३ त्रिशल्य १३-१६२ पल्योपम १३-३५ अटित १३-१३ नक्षत्र ११-२८७, नगर ७-४८ पंचम ४-२३० १३-३३ नन्दिगुरु १३-१५६ पंचाग्नितप १०-६० दशांगभोग २-१३७ नन्दिमित्र पाण्डु १-१२ १-१६ ११-२९६ दाम नन्दी पात्र २-१४६ दिक्कन्याकुमारी ४-१०६ नमिनाथ दिक्कुमार १३-३२ ११-१२४ १२-१ नयुत १३-१३ पारिषद दिग्गजेन्द्र सुर ४-१५६ दीपांगद्रम १३-१ नरकपाल २-१३४ ११-१५६, १६८ | पाश्वं जिनेन्द्र १३-१३ पाश्वभुजा २-३०, ४-४० ६-१७१ नव केवललब्धि पाडिधरा . १३-१३५ दुःषमदुःषमा २-२०४ २-११३, ११४ नाग | पुरुषोत्तम दुःषमा १-१४ २-१७४" १३-६० ३-१२१ नागकुमार ११-१२४ | पुष्पदन्त १३-६२ नागकुमारी ६-३९ | पूर्व १३-११, १२, १३, ८१ देवकुरुकुमारी ६-१३४ नागसुर १३-११ देवच्छंद २-७२,५-२६ नाटकगृह प्रतरांगुल ३-१४३ १३-२४ देशभाषा १३-१२४ नालो १३-६, ३३ प्रतिवासुदेव ७-६८ देशावधि १३-५१ निकाचित १३-८१ प्रतिशत्रु २-१७६ दोलागृह ३-१४४ प्रतीहार निषधकुमारी ६-१३४ ३-१२१ प्रत्यक्ष द्रोणमुख निषादघोष ४-२३२ १३-४४,४७ द्रोणमेघ प्रभास नीलकमारी ७-५८ ६-३८ ३-२२४ प्रभास सुर द्वीपकुमार नीलंजसा ११-१२४ ११-२७५, २६२ नैयायिक प्रभासंती ६-१७२ ११-३१३ धनपति प्रमाणांगुल १३-२३, २५ धनुष : .. १३-३३ प्राणतेन्द्र ५-१०६ पट्टन ७-४७ धनुःकरणी २-२८ प्रातिहार्य २-१८० पदम ३-७४, १३-१३ धनुःपृष्ठ २-२४ प्राभूत पद्मनन्दी १३-१६३ १३-१७१ धर्मसेन १-१५ पद्मा ११-२५८ १-१४ धारणा १३-५५, ६०,६४ परमाण १३-१६, १७, २२ धारापतन ४-२८५ परमार्थ काल १३-२ बलदेव २-१७६, ७-६८ धृति ३-८८ परमावधि १३-५१ बलनन्दी १३-१६१ धृतिषण १-१४ परमेष्ठी १३-८६ बलभद्र देव ४-१०० चैवत ४-२३१ परिधि बल्लमिका ११-२६६ ध्रुवसेन १-१६/ परोक्ष १३-४७ बालान १३-२२ ध्रवसेना ११-३१३ / पर्व १३-१३ | बाहु प्रोष्ठिल x-Ss सामा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-६२ २-१८५ ३-१२१ लक्षण लव २-१६२, ७-१११ ३-७८ .१३-१४ १३-५ १०-५४ ५-६६ १०-५३, ११-५१ १३-२२ १-१० भानु जंबूदीवपएणती बुद्ध ९-१७१, १३-८६ | महिषमुख - १०-५५. | राजुच्छेद बुद्धि महेश्वर बुद्धिल्ल १-१५ महोरग १-३२ बृहस्पति १२-६८ मंत्री बेलंधर १०-२७ मागध सुर ७-१०८ लक्ष्मी ब्रह्म सुरेन्द्र माघनन्दी १३-१५४ लता ब्रह्मा ६-१७१ मातलि ११-२६० ब्रह्मोत्तर इन्द्र माल्यवन्ती ६-३८ लंबकर्ण माल्यांगद्रुम २-१३६ लान्तवेन्द्र भद्रबाहु... १-१२ माहेन्द्र लांगलिक भबनवासी . ११-१२४ मिथ्यादृष्टि २-१६५ लिक्षा भाजनद्रम मीमांसा २-१३२ ६-१७२ लोहार्य ११-२५८ मुनिसुव्रत ११-३६५ लोहाचार्य भिन्नमुहूर्त मुसल १३-६ ..१३-३३ भूषणद्रुम मुहूर्त २-१२६ १३-६ भृत्यानीक मूल धन ४-२४२ १२-४१ | वरतनु सुर भोगभूमि मेघमुख २-१५३ ७-१३५, १०-५७ वरुण भोजनद्रम २-१३३ १०-५७ वधमान ३-१४३ वसुमित्रा म्लेच्छ ७-११० वसुंधरा मटंब ७-४८ वस्तु मण्डनगृह ३-१४२ यम ४-८४, ११-३१८ वस्त्रांगद्रम मण्डलीक ७-६६ यमक सुर वातकुमार मति १३-५३ यव . १३-२२ वायु मत्स्यमुख १०-५६ यशपाल वासुदेव मद्यांगद्रुम २-१२७ यशोबाहु वासुपूज्य मध्यम ४-२२६ यशोभद्र .. विकटासुर मध्यम पात्र २-१४६ युग १३-८,३३ विकल प्रत्यक्ष मनःपर्यय १३-५२ १३-२२ विकलेन्द्रिय मल्लि जिनेन्द्र ११-१ विचित्रकुमार महामण्डलीक ७-६६ रत्लद्वीप ७-५३ महामेष ७-५७, १३७ रथरेणु १३-२२ | विजय गुरु महाराज ७-६६ | रवि ४-१५५ विजयन्त महालता: १३-१४ रस गारव १०-६६ / वितस्ति महालतांग | राक्षस ११-१२३ विद्याधर महाशुक्रन्द्र ५-१०२ | राजाधिराज ७-६६ । विद्यत्कुमार २-६७ ७-१८ ४-८४, ११-३२३ १-८,६ ११-३१३ मेषमुख मोहनगृह १३-१७१ २-१३५ ११-१२४ ११-२७६ २-१७६, ७-६८ ७-१५३ ६-३८ १३-४८ २-१४३ ६-११७ १-१४ १३-१४४ १-४२ १३-३२ २-४०. ११-१२४ यूक विजय Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-शब्द सूची १०-६६ सिद्ध ३-११३ ६-१७२ १-२ १-१४ श्री १०-५५ ASTI ११-१२४ ५-१ ४-१ ६-१३४, ११-२५८ २-११२, १७३ २-१७५ २-११३ ११-३१३ वैशेषिक २-१२२ विद्युत्प्रभ ६-१२ | शुक्र विद्युत्प्रभकुमारी ६-१३४ | शुक्रसुर विद्युन्मुख १०-५७ शुद्धोदन विपुलमति १३-५२ शूकरमुख विमल ८-१ श्यामा विमानवासी ११-३४२ श्रद्धावती विशाखाचार्य १-१४ विष्णु ६-१७१ श्रीनन्दी गुरु वीर जिनेन्द्र १३-१७६ श्रीमती वीरनन्दी १३-१५६ श्रत . वृद्धिधन १२-१४८ श्रतज्ञान वेणु देव ६-८६, १६० श्रेयांस जिन वेलंधर १-३२ श्वानमुख वैजयन्त वैशाखस्थान ७-११६ पज ६-१७२ षष्ठभक्त वैषाणिक १०-५३, ११-५१ व्यवहार काल १३-२ सकलचन्द्र व्यवहार पल्य १३-३६ सकल प्रत्यक्ष व्यंजनावग्रह १३-६५, ६७ सनत्कुमार व्याघ्रमुख १०-१५ सन्नासन्न व्यावहारिक परमाणु २३-२१ सप्तानीक सभागृह शक्ति भूपाल १३-१६६ समय शक्र ११-२६५ समवसरण शची ११-२५८ समिता शतारविमानाधिपति ५-१०३ समिति शलाकापुरुष २-२०८ सम्भव शशकर्ण १०-५४ सम्यग्दृष्टि ४-१५५ सरित्पतन १८-५४ सर्वत्र शान्ति जिनेन्द्र ६-१६७ सर्वधन शिर ४-३१ सर्वावधि शिवा ११-२५८ सहस्रारेन्द्र शीतलनाथ ६-१७८ संगीतगृह शीर्षप्रकम्पित १३-१४ | संबाह शील १३-१३६ । सागरोपम FREEntiretrika १२-९८ । सात गारव ५-१०१ | साधु ६-१७२ सामानिक १०-५५ सांख्य ११-२५८ ६-२३ | सिद्धार्थ ३-७८ | सिंहमुख १३-१५६ ११-३१३ सुपर्णकुमार १३-५३ सुपार्श्व १३-७६,८३ सुभद्र सुमति १०-५५य सुलसा सुषमदुःषमा ४-२२६ सुषमसुषमा सुषमा सुसीमा १३-१५ सुसेना १३-४८ सूच्यंगुल ५-६५ सूरकुमारी १३-२० सोम ४-२४६ सोमप्रभ ३-१४४ सौधर्मेन्द्र १३-२ स्वनितकुमार ८-१६५ स्तोक ११-२७१ स्थावर १३-१७३ स्वाति सुर ३-१ २-१६० ७-५८ १३-४५, ५, ८८ हरि १२-४२ हस्त १३-५१ | हस्तप्रहेलित ५-१०४ | हस्तिमुख ३-१४४ ७-५२ १३-४१ / ही १३-२४, २६ ६-१३४ ४-८४, ११-२६६, ५-६३ ११-१२४ १३-५ ४-६ ३-२१६ शशि शष्कुलिकर्ण १३-८६ ११-२८३, १३-८६ १३-३२ १३-१४ १३-१३ ३-७८ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमेर प्रतिके पाठ-भेद गाथा पर ६७ ur " Hd मुद्रित पाठ परंपरया परणत्ति सुधम्मणामेण xxxणिहिटुं जसपालो आयरियपरंपरया समत्थं तिस्सेव सणाई चदुसहिय मणिमयवरतोरणेसु चदुगुणि घेत्तूण वग्गविसेसस्स उग्गाडेहि मुणिगणसहिया xxxरम्मा य वरा धूम अासत्थतालतिंदुग पंचासा पमाणगयागेहि दीहत्तं रम्मा विरिण बिरिण विवीसा धरलक्खणवंजणेहि संजुत्ता भत्तेहि पारिति । मज्जवर..."वत्थमंल्लंगा भामेर प्रतिका पाठ परंपरागयपएणत्ती सुधम्मणाहस्सxxx संदिहें जयपालो पायरियपरंपरागय महत्थं तस्सेव सहाणं चदुरधिय मणिमयमणितोरणेसु चदु दुगणं खेत्तण वग्गविसुद्धस्स अवगाढेहि मुणिगणमहिया xxx अवरा धव अस्सत्थसालकेंदुग परणासा पमाणगणणेहि m जीवा हु १०३ १०६. ११३ ११५ दिव्वा वेरिए वेरिण वि वासा वरखेंजणलक्खणेहि परिपुरणा भंतेसु भुंजंति मज्जंगा तूरंगा भूषण जोइस गिहय.."वत्थमज्भंगा वजिंद सुणया ण कम्मभूमीसु १४० गल्लिंद १४२ १४७ अकम्मभूमीसु Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामेर प्रविके पाठभेद १७ १५४ १५८ १७४ २०२ २०३ २१० worn गिहा उववज्जिदूण उववरिणऊण परमरूवा परमरम्मा दीवमझम्मि दीवपद्धम्मि भरहवंसणामार्ण भरहणामवंसाणं ईदीहिं ईहादीहिं अच्चुयं विमलणाणं अब्भुवं अमलणाणं अचलणार्ण सयलणाणं एयार कला णेया एयारस कल णेया अद्धकलसहिया अद्धकलमधिया अट्ठम अठ्ठद्धय सदी सया संपण्णा संछणा फुरंतदिव्ववरमउडा पुरंतसिहरवरमउडा णिज्झर गिब्भर कोसहिया कोसा य कयच्चण कयकव्वण पवरच्छराहि पवरच्छरादि वहा तस्स तेण वापारिय वरघारिय देसूणएक्ककोसं देसूणयं च कोसं समुप्पएणा समुरिट्ठा सत्तविभागेहि सत्तहि भागेहि सिरिदेविपादरक्खा सिरिदेविषादरक्खा य दूता य य पभूदा य देवीणं देवाणं वरगेहा सिहरिजस्स सिहरिणस्स मज्मम्मिय मज्झिम्मि दु परिखिसे मंडिए..."रम्मे परिखित्तो...."मंडियो""रम्मो निसधो चिधराचलो णिसघतडाचलो कष्चय कयव्वण शिवहा जलधारापायजणियमंकारा णिकरा जलधाराघायसरगंभीरा पइसंति पविसंति संबंत पलयंत विहूसियंगीमो विहूसियंगामो ८४ १०८ १२१ १२६ १३४ परिगेहा १४६ १५७ १६१ १६३ १७२ १८३ १०७ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ २०७ मिवंकवनामो रोहिदा सा मिरीइबेल्सि सहस्सा रोहिदा दिन मरीषियक्ति सहस्साई २१३ २१७ सचभूमिया पहियापुठि सिहरो सत्समिया पइठो कवलीयापुहि सिहरे ६ ४९ ५४ ५७ ६६ 999 ૧૫ १६२ २०५ २०७ करयुरिय कप्तरिय दीसरयणाम दीवस्स मंदीसरणामयदोबस्स धुबर कयषण भइसालवणे मसालरणे गंदणवणम्मि दंसमवयम्मि भिंगा भंभा तलमागे तलभागो (आमेर प्रतिमें गाथा १४१-४२ के सयजोयणमायामा विवारसदहति णिहिट मध्यमें यह गाथा भधिक पायी अठेव जोयगाइं उगायो वरसिलामो ।। जाती है-) दिव्वा दिव्वे किरणोहा किरणामा संछण्णा संजुत्ता मादिधणं xxxसव्वाणं ।। आदिगुणं xxxणायब्वं ।। उच्छंग उत्तुंग हत्थिहडावं इत्थिघडाणं परिमाणं घरमदेहा एगेगदिसाभागे यायव्या तस्स बहुवरणचंपियाईणेयाई भवंतिणागस्स ।। सागस्स ॥ दप्पुप्पाइय दप्पुप्पाई विविहेहि बहुपहिं देसयं पउमणाई देखिगं पउमा पासादे पासादो फलिहमणिमिति फलिहममिति पलियंकासहसंगद. पलियंकलिसरबगदा २१० २१७ २५५ २६५ २८७ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ su १०१ १०६ ११६ १२० १२२ १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ ११० १११ १३१ भामेर प्रतिके पाठभेद भूसिदंगीयो भूसियंगात्रो वंदरावणेसु. अचंति य वंदति य सुरपवरा सददकालम्मि ।। वायरपिट्ठम्मि वाणरपट्टम्मि गच्छ गोंच्छ सोमाहिं सोहाहिं भोज्जमादीहिं भोजणादीहिं कुंडलदीबेसु कुंडलदीवे वि वणमंडवा वि वणसंडवावि सदा उत्तरा सदाणिं उत्तरा पउगुणिदं विगिदुगुणं कंचगणगाण कंचण्यासं पंचसदा अंतरेक्केक्का पंचसए अंतरे य एक्केक्का मंत्सु चंते य विमल कमल पच्छिमेण पच्छिमेसु तह पुणो जाइ गंतुणं सिरीयं ढोऊण य णिम्मिया सिरीया होऊण य हिम्मला स्वहसंता उवासंति वि रयणसंवैसंछएणा रयणभवणसंकरणा कुसुम चदुसहस्साणि होति चत्तारि सामलि संबलि जुवला जुबला जुवलजुवला य कुलाउल कुलालकुल ण विहॉति ण होति पयासया पयासगा संबद्धा सव्वण्हू वि य होंति य विक्खंमा वि य एवं विखंभा बाणं ठाणं सुग्घडइ तं उरघडइ तस्स सयलं যাই वररयणोxxxकयरक्खो .. जलरयणोxxx दढरक्खो गणणिवहो गबगहणो वेदडूण य वेदवणगेण चउकडतुंग बहुभवणतुंग ११२ सुरभि ११३ ११६ १४२ १६३ १७२ ३५ १२१ १२४ ६० ६३ ६४ ५६ ११६ १२४ १३८ १४२ १३४ १३५ १३७ १६ ४१ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूदीवपरणची ४६ ७४ सुट्टकय तत्थ रम्मा धएएधण वरणिवहा होंति देवसंघाणं तीहिं परिसाहिं पासादघरेहि १४२ . १४४ ११२ १२८ गंतुं १४५ १४८ १५१ १५२ १७८ १६० १५४ १५६ ६६ १६१ ९३ सुद्धकय तह य दिव्वा धम्मघण घरणिवहा होति सव्वाणं तिएिणपरिसेहि पासादवरेहि तुंगो अंकावदि वरणगरखेडकव्वडमडंब पणवरणाणि हवंति दिट्ठा सिंधूसरिएहि उत्तुंगपडायसंछण्णा सोदवाहिणी वणसंडविहूसिया तिहिं चच्चर जक्खा सत्तत्तीसा य जोयणा भणिया दीवा मेसमुहा विक्खंभकदीय कदी छछस य भरहसु सगडुद्धियाबाहा भागसदं सिगिदालीसा उवदित्ताणं वरभवणा गोमज्जए वच्चगे"पएणारसेत्ति पढमादिय उक्करसं बिदियादिय साधियं हवे.जहरणं तु। १६६ १७२ १६६ १७५ १७६ १८० संसावदि वरखेडकव्वडजुदो मडंब पिणवरणाणि य हवंति । दीहा सिंधूसरिएण कंचणपायाररमणीया सोमवाहिणी वणसंडविराइया तहिं चव्वर जुत्ता जोयण भायाण सत्तत्तीसा य दिव्वा मेंढमुहा विक्खंभं दीवकदी छच्च सयं भरहे य सगडद्धियाबाहा सदभागं णिगिदालीसा ओवदित्ताणं पासादादि गोमज्भगे वव्वगे"परणारसेत्ति पढमादियमुक्कस्सं बिदियादिसु साधियं जहएणतं। PA १८६ १६१ १६७११७ ११६ १३७ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ १४६ १५१ १५८ १६१ १६२ १६४ " 95१६८ २०३ १७१ १७३ २०५ २०६ १६६ २०४ २१२ २१५ २०७ २३६ २१० २११ २१२ आमेर प्रतिके पाठभेद थडगे थणगे . घडगे घडगे तसिदो तविदो तत्तकवल्लिम्हि ते दु छुन्भंति तत्तकडल्लीहिं ते दु गभंति पीडंति चादुरोधा पीलंति चादुचोप्पा शुद्धा माडेहि फाडेहि सासिज्जंति सासिज्मंति तत्य तत्चचुल्लीहि तत्थ चुल्लीसु सिमिसिमंतेण मिसिमिसंवेण मंगलुस्सविदसोहं मंगलस्स किदसोहं पमुदिदपकीलिदं रम्म पमुदिदपक्खिल्लदं रम्म लोगं लोगंता एयराणिमाणि गियराणिमाणि विलबंती विलंती रूवसाराहिं रूवसोहाणं सुस्सरसरा सुस्सरसमीरा अट्ठयह वि देवीणं अट्ठएहं देवीणं य तायो विताओ पायाइगय पायालगय पढमिल्लयकच्छाए पढमाए कच्छाए दासि दास तहा तहिं तस्स विय सत्त विय जलजलं ति जयंजलत्ति जत्थ तत्थ सपुरगाणं समुप्परा तत्य सत्थ देवसम्मिद देवसंसद तह य ताण मोक्खं मोक्खे तेरससयं च दंडा तेरससद दंडाणं दलिद आदिणा दलिदमादिगणा अण्ण्ण्णा अण्णोरणा ठाणेमु णिविट्ठा ठाणेसु दिट्ठा अठ्ठद्धं अठ्ठद्धं दाऊण अठ्ठं अठं दादूण २४६ २५६ २६४ २६७ २७४ २७७ २८२ २१३ २८३ २१७ २१८ २१६ २८४ ३०४ ३२१ ३२६ ३२६ ३३१ २२१ ३४६ २२२ ३६४ २२३ २२५ २२६ ३५ २२७ ४३ २२६५६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર २३० २३१ = = = = = = = = = = = = 39 20 "9 39 २३२ " 39 २३३ २३५ २३७ २३८ "" " २४० २४१ २४४ 33 " ६५ ७६ ७७ २५० २५२ 3g£¥¥$$ ८६ ६० १२ १०१ 5 २५. ३६ २४५ ६७ १०१ २४६ १०८ २४७ ११४ ११६ १३६ १५५ 33 ४० 39 ४५ ६१ ८५ 5ළි जंबूदरीपदाची भये जोदिसरासी चर चर दादूण वदो एवं पि आणि जो उप्परणो याब चैव सया पाहचरिं गुणगारभागद्दारा ं जे रविससिअंतर डहरं लक्खूएं तिहि सदेहि सट्ठाहि होंति उच्छेदअंगुलेहि छिण्णम संखकोडिसम ए हि दीवसमुद्दा दु एदेण देवस् कम्मठिदी वणिया तदिए वियलपश्चक्खो देवदेत्ति चिंताजरादि जिणचंदो संजुत्तो "होहिदि दुखभेदहि जवादिबहुसारसस्सधिदरोमं वणव पुष्फक्खए हिं जिणवरेह तस्सेव य........... मची जोदिसरासिं दो दो दादूख वहा एवं वियाणिदूर्ण ते उप्परगा वयसया पण्णत्तरिं X x जा x रविससिजहण अंतर लक्खं ऊणं तिसदेहि साहि । होदि वरसूचिअंगुलेहि द्विण्णमसंखेज्जवास समपहि तक्कालो तत्तियो चेव श्रसंखेज्जवास तत्तियमेत्तो य तक्कालो वियलसयलक्खो देवदत्तेति चिंतारुजाहि जिणयंदो जो जुत्तो.....होइदि दसेहि भेदेहि जवादिसरसं सुरा विकुव्वंति पवयवसा पुष्फक्खदेहि जिणवरेण x x x Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र-मान ___.प. १५, १५-२१२२-१४. | सि. प. १, १०१-१००, ११४-१५ _ अनु. सू. १. १२५ म्योरिष्माअनन्तानन्द परमाणु-अवसमासन अनन्तानन्त परमाणु-वसनासम्म अनन्त व्यावहारिक परमाणु. ८ परमाणु प्रसरणु अवसभासम-समासन ८ उवसमासन्न-सन्नासन्न १ सहसरिहया सरणु-रवरेणु सन्नासम्म व्यावहारिक परमाणु ८ समासन्न - त्रुटिरणु ८ साहसरिहया -१ सएहसरिहया करवरेणु-वासान ८ व्या. परमाणु प्रसरेणु | ८ त्रुटिरेणु-प्रसरेणु ८ सहसरिहया - १ऊर्ध्वरेणु |८ बासाप-सिता प्रसरेणु-रयरेणु ८प्रसरेणु -रयरेणु ८ ऊर्ध्वरेणु-१ त्रसरेणु कलिला यूका ८ रबरेणु-वालाम ८ रयरेणु- उत्तम मो. बासाप ८ त्रसरेणु-१ रयरेणु ८यूका-यमय ८ वाखाप-विक्षा ५. मो. बा. म. मो. , ८ रथरेणु-१३.कु. उ.कु. ८ पदमभ्य-अंगुल मनुष्य बालान सिता-यूक म. भो. ,-ज.." ६ अंगुल-पाद यूक-यव ८ ज.,,-कर्मभूमि, ८.दे.कु. . कु. म. बालाप्र%3 २ पाद-विवस्ति ८ यव-उत्सेपांगुल १हरि-रम्यक वर्ष बालाप ८ कर्मभूमि बा० - शिक्षा २ विवस्वि-हस्व ६ मंगुल-पाद ह.र. वर्ष मनुष्य बालाप ८ लिक्षा - यूक ४ हस्त-दरड, धनुष, युग, २ पाद-वितस्ति | १ हेम. हैर. मनुष्य बानाप नालिका, भा, मुख्ता ८ यूक-यव २ विवस्ति-हस्त ८ हेम. हैर. मनुष्य पालाप्र८ यय = उत्सेध सूच्यंगुल २००० धनुष-योजन २ इव-किक | ६ उत्सेघांगुल-पाद | १ पूर्वापरविदेह म. बालान २ किमास, धनुष, युग, | २ पाद-विवस्ति ८ पूर्वापरवि. मनुष्य बालामनाली, मन, मुसल २ वितस्ति-हस्त १भ. ऐ. मनुष्य बालाप २००० दण्ड-गव्यूति, कोश |२ हस्त - रिक्कु ( किष्कु) |८ भ.ऐ. म. बालाप्र-१ लिक्षा ४ गम्यूति-योजन ८ लिक्षा = १ यूका २ रिक्कु-दण्ड, धनुष, युग, मुसल, नाली ८ यूका = १ यवमध्य २००० धनुष - कोश ८ यवमध्य% १ अंगुल ४ कोश-योजन ६ अंगुल = पाद १२ । =वितस्ति | २४ , -रलि ४८,, -कुच्छी नालिका, भक्ष, मुसल २००० धनुष -गम्यूति | ४ गव्यूति - योजन Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-मान ज. प. (दि.) १३, जं.प. (दि.१५, क्रमिक संख्या ३१-१. २ अनु. सू. पृ. ३४२-४३ ज्यो. क. 5-10, २६-३१, ६२-७१ क्रमिक संख्या ज.प.(श्वे.). १५-१० २ अनु. सू. १. ज्यो.क. 10, २६-३१, ६२-७॥ १ समय २ श्रावली कमल समय पावली मानप्राण स्तोक समय उच्छवास-निःश्वास स्तोक लव नालिका ४ास्तोक ५ लव ६ नाली लव मुहूर्त अहोरात्र अहोरात्र पांग पद्म नलिनांग नलिन कमलांग कमल, त्रुटितांग श्रुटित अटटांग घटद श्रममांग श्रमम उत्पलांग महाकमलांग उत्पल महाकाल पांग कुमुदांग पद्म नलिनांग महाकुमुदांग नलिन महाकुमुद अस्थिनेपुरांग श्रुटितांग अस्थिनेपुर श्रुटित आउअंग (अयुतांग) महात्रुटिवांग आउ (अयुत) महात्रुटिव . . अडडांग ८ दिवस पक्ष मास पक्ष or 9 weet मास संवत्सर | पूर्वाग नयुतांग ऋतु अयन संवत्सर युग वर्षशत वर्षसहन वर्षशतसहस्र पूर्वांग नयूत १४ दशवर्ष प्रयतारा १५ | वर्षशत प्रयुत १६ वर्षसहन हूहूचंग दशवर्षसहस्र वर्षशवसहस्र ४२ लतांग लता महालतांग महालता नलिनांग नलिन महानलिनांग महानलिन पद्मांग पद्म महापांग महापद्म | कमलांग श्रुटितांग महाभडांग महाभडड चूलितांग ऊहांग चूलित शीर्षप्रहेलिकांग | महाउहांग शीर्षप्रहेलिका महाऊह शीर्षप्रहेलिकांग शीर्षप्रहेलिका |४४ हाटत अडडांग लतांग लता महालतांग महालता शीर्षप्रकंपित हस्तप्रहेलित अचलात्म ४७ नयतारा ४८ नयुत २५ | कुमुदांग अववांग अवव हुभंग Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________