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________________ -१२. १०४] बारसमो उद्देसो [२३३ एगट्ठिभाग जायणस्से मसिमंडलं तु छप्पणं | रविमंडलं तु अस्दाकीस एगट्ठिभागाणं ॥ ९. सुक्कस्स इवदि कोसं कोसंदेसूणय बिहप्फदिणों' । मेसाणं तु गहाणं तह मंडलमद्धगाउदियं ॥ ९८ गाउदचउत्थभागो णायचा सध्वसहरिया तारा । साहिय तह मज्झिमया उक्कस्सा अद्धगाउदिया ॥ ९९ तारतरं जाणं जायम्वा सत्तभागगाउदियं । पण्णासा मज्झिमया उक्कस्सं जोयणसहस्सा || १०० रविससिअंतर डहरं लक्खूणं तिहि सदेहिं सट्टाहि । एगं च सदसहस्स' छस्सद सट्ठी य उक्कस्सं ॥ 1.1 णवणउर्दि च सहस्सा छच्चेव सदा जहण्ण चत्ताला। एयं च सदसहस्सा छस्सद सट्ठी ये उक्कस्सं ॥१.१ हगिवीसेक्कारसदं" भावाधा हवदि अस्थसेलस् । दुगुणं पुण गिरिसहिदं जोदिसरहिदस्स वित्थारं ॥ १०३ जोदिसगणाण संखा भणिदा जा जा दुजंबुदीवम्हि । ताओ दुगुणा दुगुणा बोद्धम्या खीलवज्जामो५ ॥१०॥ [ शेष सूर्यादिकोंकी जघन्य आयु पल्योपमके चतुर्थ भाग (१) प्रमाण है ॥९५-९६ ॥ चन्द्रमण्डलका (उपरिम तलविस्तार) योजनके इकसठ भागों से छप्पन भाग (१६) तथा सूर्यमण्डलका उन इकसठ भागों से अड़तालीस भाग प्रमाण है ।। ९७ ॥ शुक्रके विमानतलका विस्तार एक कोश, बृहस्पतिके विमानतल का कुछ कम एक कोश, तथा शेष ग्रहोंके मण्डलका विस्तार अर्थ कोश प्रमाण है ।। ९८ ॥ सब लघु ताराओंका विस्तार एक कोशके चतुर्थ भाग प्रमाण, मध्यम ताराओंका एक कोशके चतुर्थ भागसे कुछ अधिक, तथा उत्कृष्ट ताराओंका अर्थ कोश प्रमाण है ॥९९ ।। ताराओंका जघन्य अन्तर एक कोशके सातवें भाग (0), मध्यम अन्तर पचास योजन, और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन प्रमाण है ॥१०० ॥ एक लाख योजनमेसे तीन सौ साठ योजन कम करनेपर जो शेष रहे ( १००००० - ३६० = ९९६४० यो.) उतना [जम्बूद्वीपमें ] एक चन्द्रसे दूसरे चन्द्र तथा एक सूर्यसे दूसरे सूर्यके जघन्य अन्तरका प्रमाण होता है। उनके उत्कृष्ट अन्तरका प्रमाण एक लाख छह सौ साठ योजन है ।। १.१॥ उपर्युक्त जघन्य अन्तरका प्रमाण निन्यानबै हजार छह सौ चालीस और उत्कृष्ट अन्तरका प्रमाण एक लाख छह सौ साठ ( योजन ) है ॥१०२ ॥ अस्तशैल (मेरु) और ज्योतिष विमानोंका अन्तर ग्यारह सौ इक्कीस योजन प्रमाण है। इसको दुगुणा करके मेरुके विस्तारको मिला देनेपर ज्योतिषी देवोंसे रहित क्षेत्रका विस्तारप्रमाण होता है ॥ १०३।। ज्योतिर्गणोंकी जो जो संख्या जम्बूद्वीपमें कही गई है, लवण समुद्रमें स्थिर ताराओंसे रहित उनकी संख्या उससे दुगुणी जानना १ उश एकट्ठा मागे जोयणस्स, क एगढिमागतोयण. १क पब कोसो. १ब कोसो. ४ उश देसण विस्फटिणे. क देखणयं च विहफदिणो. पब देसणयं वियफदिणो. ५पणादव्वा सव्वाइहरिया ब जादम्वा इहरिया. ६ पब तारतार जुद्धाणं. ७ उ श लक्खाणं. ८ उ-शप्रयोः 'सट्टाहि' इत्येतत् पद नोपसम्यते. ९ उश एवं च सदसहस्सा, पब एयं च सदसहस्सा. १. उश छट्ठी छसदा य. ११ उश एवं. १२ पब सीदं. १३उस्खदि हसेलस्स, क हदि अरसेलस्स, पब हवदि असेलस्स श अवदि हवच्छसेकस. १४ पब मणिया जा दु. १५उ शबोधवा लवण खिनजाओ, कबोधन्वा खिलवजाओ, पर बोषम्या खिळबजाउ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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