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________________ २६] जंबूदीपणती [ २. १५५ मिहिणीका अभिणव छायप्रणेवसंपण्णा । सुहसायरमज्झगया पीलुप्प सुरहिणीसासा ॥ १५५ रोगजरापरिद्वीणा बणागसहस्वबलबत्ता । भारतकुमुद्रचळणा णवचंपयकुसुमगंधता ॥ १५६ दिव्यामुळमध] हारंगयक यतुडियकय सोहा । वरदणाणुकित्सा मणिकुंडलमंडियागंडा ॥ १५७ तिवलीरंगम्सा माहरण विहूसिया परमरुवा । भोत्तूर्ण विश्व भोगे सब्वे देवतणमुर्विति ॥ १५८ ब्रहामणेहि मणुमा मरिजणं तस्थ भोगभूमीसु । भवणवद्दवाणविवरजोइसदेवेषु गच्छेति १५९ जे पुण सम्मादिद्वी देवेहिं विवोहिया हवे तेसु । ते कप्पवासभवणे उप्पज्जंतीण अण्णत्थ ॥ १३० तिरिया वि तेसु णेषा जुबळा जुवा हवंति निद्दिट्ठा | सरला मंदकखाया जाणाविद्दआदिसंजुत्ता ॥ १६१ गयबरसीहतुरंगा हरिणा रोज्झा य स्वरा महिला । वाणरगवेडजवळा वयवर्षेवर • छपाईया ॥ १६२ लुकको किलाण जुबला पारावग्रहंसकुररेकारंडा । किंजक्कचक्कवाया सिहिसारसँकुंचयादीया ॥ १६३ सह मायाणं भोगा वह तिरियाणं वियाण सध्वाणं । आउबल भोगरिद्धी सभासदो होइ णिहिट्ठा ॥ १६४ 1 रूपसे सम्पन्न, सुख-समुद्रके मध्यको प्राप्त, नील उत्पल जैसी सुगंधित निश्वाससे सहित, रोग ब जरासे रहित, नौ हजार हाथियोंके बराबर महान् वलसे संयुक्त, किंचित् रक्त वर्ण कमलके समान चरणोंवाले, नवीन चम्पकके फूल जैसी गंधते युक्त, दिव्य एवं निर्मल मुकुटके धारक; हार, अंगद, कटक और त्रुटिक ( हाथका आभरणविशेष ) से की गई शोभाको प्राप्त, उत्तम चन्दन से अनुलिप्त, मणिमय कुण्डलोसे मंडित कपोलोवाले, मध्य भागमें विली रूप तरंगों से संयुक्त, आभरणों से विभूषित और उत्तम रूपके धारक के सब जीव दिव्य मोगोंको भोगकर देव पर्यायको प्राप्त करते हैं ॥ १५५ - १५८ ॥ वहाँ भोगभूमियोंमें मनुष्य ( नर-नारी क्रमशः ) क्षुत अर्थात् छींक और जृम्भा के साथ मरकर भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष देवोंमें जाते हैं ।। १५९ ॥ परन्तु उनमें जो जीव देवों द्वारा प्रबोधको प्राप्त होकर सम्यग्दृष्टि होते हैं वे कल्पवासी देवोंके विमान में उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र ( भवनवासी आदिकोंमें ) नहीं उत्पन्न होते ॥ १६० ॥ उन भोगभूमियों में सरल, मन्दकषायी और नाना प्रकारकी जातियोंसे संयुक्त उत्तम गज, सिंह, तुरंग, हरिण, रोझ, शूकर, महिष, वानर, और गवेलक (भेड़ ) इनके युगल; वृक, व्याघ्र व तरक्ष आदिके तथा शुक व कोयलके युगल; पारावत, हंस, कुरर, कारण्ड, किंजक्क, चक्रवाक, मयूर, सारस और क्रौंच भादिक तिर्यंच भी युगल-युगल स्वरूपसे होते हैं; ऐसा जानना चाहिये ॥ १६११६३ ॥ वहां जैसे मनुष्यों के भोग होते हैं वैसे ही सब तिर्यचों के भी जानना चाहिये । इनकी आयु, बल, भोग व ऋद्धिकी संक्षेपसे प्ररूपणा की गई है ॥ १६४ ॥ सब ही १ लायण, श लावण. २ उश तबली. ३ उ रा सोसून. ४ उ ववम श बरखम्ग. ५ उश कबर. ६ वा सामर. ७ उ रा सषाणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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