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-२. १५४ ]
बिदिओ उद्देसो
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मिदुमज्जव संपण्णा मंदकसाया विणीयसीला ये । कोधमदमायहीणा उप्पज्जंति य नरा तेसु ॥ १४५ माहारदाणणिरवा जदीसु वर विविधजोगजुत्तेसु । संजमतवोधणेसु य णिग्गंथेसु य गुणधरेसु ॥ १४६ चडविदाणं भणियं तिविहं पसं जिणेहि निहिं । दाऊण पत्तदाणं मकम्मभूमीसु जायंति ॥ १४७ काहार अभयदार्ण भागमाणं च मे सहपदाणं | संखेवेणुद्धिं चउविहदाणं मुणिवरेहिं ॥ १४८ साहू उत्तम मज्झिमपतं तु सावया गया | अविरसम्मादिट्ठी जद्दण्णपतं समुद्धिं ॥ १४९ भवाससी सियतणू जिस्संगी काम कोहपरिहीणो । मिच्छतसंसिदमणो णायन्दो सो अपतो चि ॥ १५० ववाससोसियतणू णिस्सँगो कामकोहपरिहीणो । सम्मससंसिदमणो णायब्वो उत्तमो पत्तो ॥ १५१ एवं पत्तविसेस दाणं दाऊण तेसु जायंति । अणुमोदणेण केई मणुया तिरिया व विष्णेया ॥ १५१ कम्मभूमिजादा वे तेसु हवंति भोगभूमीसु । संपुष्णचंदवयणा समचरसरीरसंठाणा ॥ १५३ बज्जिकूण बका उणवण्णदिणेहि जोग्वणा होति । सम्यकलापतट्ठा वरलक्खणभूसियसरीरा ॥ १५४
मंदकषायी विनीत स्वभाववाले तथा क्रोध, मद व मायासे रहित मनुष्य उत्पन्न होते हैं ॥ १४५॥ जो मनुष्य उत्तम व विविध योग अर्थात् समाधिसे युक्त, संयम एवं तप रूप धनसे सहित और [ मूल व उत्तर ] गुणोंको धारण करनेवाले ऐसे निर्मन्थ यतियोंके लिये आहारदान देनेमें निरत रहते हैं वे उन भोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १४६ ॥ जिन भगवान्ने चार प्रकारका दान और तीन प्रकारके पात्र कहे हैं । मनुष्य पात्रदान देकर अकर्मभूमियों ( भोग भूमियों ) में उत्पन्न होते हैं ॥ १४७ ॥ मुनिवरोंने आहारदान, अभयदान, शास्त्रदान और औषधदान, इस प्रकार संक्षेपसे चार प्रकारका दान कहा है ॥ १४८ ॥ साधुओं को उत्तम पात्र और श्रावकों को मध्यम पात्र जानना चाहिये | अविरतसम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र कहा गया है ॥ १४९ ॥ उपवाससेि शरीरको कृष करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम-क्रोधसे विहीन, परन्तु मनमें मिथ्यात्व भावको धारण करनेवाले जीवको अपात्र [ कुपात्र ] जानना चाहिये ॥ १५० ॥ उपवाससि शरीरको कृष करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम-क्रोध से विहीन और मनमें सम्यक्त्व भावको धारण करनेवाले जीवको उत्तम पात्र जानना चाहिये ॥ १५१ ॥ इस प्रकार कितने ही मनुष्य व तिथेच पात्रविशेषको दान देकर और कितने ही उसकी अनुमोदनासे उन भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १५२ ॥ जो जीव कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए हैं वे उन मोगभूमियोंमें पूर्ण चन्द्र के समान मुखसे सहित और समचतुरस्रशरीरसंस्थान से युक्त होते हैं ॥ १५३ ॥ भोगभूमियोंमें युगल स्वरूपसे उत्पन्न होकर ये जीव उनंचास दिनोंमें यौवन से युक्त, सब कलाओंके रहस्यको प्राप्त और उत्तम लक्षणोंसे भूषित शरीरके धारक हो जाते हैं ।। १५४ ॥ भिन्न इन्द्रनील मणिके समान केशोंवाले, अभिनव लावण्य
४ प व प्रोनोपलभ्यते गाधेयम् । ५ श
१ उश विदु. २ उश या. ३ प व अविरह. तिमो. ६ प चति. ७ उश समच उरंसासरीर.
जं. डी. ४
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