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जंबूदीवपण्णत्ती
[२. १३५वस्थंगमा णेया णेत्तंसुगचीणखोमैदुगुलादि । वरपट्टनुत्तपउरा गाणावस्थाणि ते दिति ॥ १३५ मलंगदुमा णेया चंपयपुण्णायणायकुसुमेहिं । वरपंचवण्णपटरा सुगंधमाला सया दिति ॥ १३६ एवं ते कप्पदुमा णराण फल दिति पुण्णवंताणं । देवोवणीय सञ्चे दसंगभोगा समुद्दिहा ॥ १३७ तीस वि कालेस तहा तिणाणि चउरंगुलाणि णिद्दिडा । सरहीणि कोमलाणि य दसवण्णाणि" सोहंति ॥ १३८ धरणिधरा विण्णेया विद्दममगिरयणकणयपरिणामा । दिब्बामोयसुगंधा' णाणाविहकप्पतरुणिवहा ॥ १३९ धरणी वि पंचवण्णा मरगयगलिंदणीलमणिणिवहा । वरपउमरायविद्दमणिम्मलमणिकणयपरिणामा ॥ १४० पोक्खरिणिवाविदीही वरणदियाओ य रयणसोबाणा | अमदमहुखीरपुण्णा मणिमयवाहि सोहंति ।। १४१ सूवरसियालसुणहा तरच्छसीहा य सप्पसहला । काका गिद्धादीया जीवा मंसासिणो णरिथ ॥ १४२ संखपिपीलियमकुणदंसामसया य विच्छियादीया । विगलिंदिया य गस्थि दु सुसमादिएसे तिसुकाले॥ १४३ तीहि वि" कालेहि जुदा खेत्तेसु य बहुविहेसु रम्मेसु । जे उप्पज्जति गरा ते संखेवेण वोच्छामि ॥ १४४
क्षौम और दुकूल आदि उत्तम रेशम और सूतके बने वस्त्रोंको देते हैं उन्हें वस्त्रांग द्रुम जानना चाहिये ॥ १३५ ॥ जो सदा चम्पक पुन्नाग एवं नाग वृक्षके पुष्पोंसे [ निर्मित ], उत्तम पांच वर्णोसे युक्त सुगंधित मालाओंको देते हैं उन्हें माल्यांगद्रुम जानना चाहिये ॥ १३६ ॥ इस प्रकार दशांग भोगोंको देनेवाले वे सब देवोपुनीत कल्पवृक्ष पुण्यवान् मनुष्योंके लिये उनके पुण्यके फलको ( सुख-सामग्री ) देते हैं ॥ १३७ ॥ तीनों ( सुषमसुषमा, सुषमा व सुषमदुषमा ) ही कालोंमें चार अंगुल ऊंचे सुगंधित और दशार्ध अर्थात् पांच वर्णवाले कोमल तृण शोभायमान होते हैं ।। १३८ ॥ उन कालोंमें विद्रुम, मणि, रत्न, एवं सुवर्णके परिणाम रूप; दिव्य आमोदसे सुगंधित और नाना प्रकारके कल्पवृक्षोंके समूहसे युक्त पर्वत होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३९ ।। इन कालोंमें पांच वर्णवाली पृथिवी मरकत, गल्ल एवं इन्द्रनील मणियोंके समूहसे युक्त और उत्तम पद्मराग, विद्रुम, निर्मल मणि एवं सुवर्णके परिणाम रूप होती है ॥ १४० ॥ उस समय रत्नमय सोपानोंसे युक्त तथा अमृत, मधु व दूधसे परिपूर्ण; पुष्करिणी, वापी, दीर्घिका और उत्तम नदियां मणिमय बालुओंसे शोभायमान होती हैं ॥ १४१ ।। इन कालोंमें शूकर, शृगाल, कुत्ता, तरक्ष, सिंह, सर्प, शार्दूल, काक और गृद्ध आदिक मांसभोजी जीव नहीं होते हैं ॥ १४२ ॥ दो वार सुषम अर्थात् सुषमसुषम आदि तीन कालोंमें शंख, पिपीलिका, मत्कुण, दंशमशक और विच्छ आदिक विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं ।। १४३ ॥ इन तीनों ही कालोंसे युक्त बहुत प्रकारके रमणीय क्षेत्रोंमें जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं उनकी संक्षेपसे प्ररूपणा करते हैं ॥ १४४ ॥ उन कालोंमें मृदुता एवं आर्जवसे
. १ उ श वत्तुंग. २ श वीणखोम. ३ उ श दुगुल हि. ४ प ब गरा फलं ५ उ श दसद्धाविण्णाणि. ६ ब सुगंधी. ७ उ श पिपीणिय.८ उपप श विगलंदिया. ९ पब णस्थि दुसुमादीएस. १. उ प ब श तीहि मि.
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